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इतिहास और परम्परा] काल-निर्णय
७७ शत्रु ने यह सब कुछ सुना, किन्तु, मौन रहा । जीवक कौमार-भृत्य भी अजातशत्रु के पास मौन बैठा था। राजा ने उससे कहा- “सौम्य जीवक ! तुम मौन क्यों हो? तुम भी अपना सुझाव दो।"
जीवक ने कहा-"महाराज ! मेरे आम्र-उद्यान में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के बृहद् संघ के साथ भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध विहार कर रहे हैं। उनका मंगलयश फैला हुआ है । वे भगवान् अर्हत्, परमज्ञानी, विद्या और आचरण से युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए अनुपम अश्व-नियन्ता, देव व मनुष्यों के शास्ता तथा बुद्ध हैं। महाराज ! आप उनके पास चलें और उनसे धर्म-चर्चा करें। कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जायेगा।"
ये तीन प्रकरण भी बुद्ध से महावीर का ज्येष्ठत्व प्रमाणित करने के लिए इतने स्पष्ट हैं कि इन पर कोई युक्ति या संगति जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। इस प्रकार, तीन प्रकरण महावीर का पूर्व-निर्वाण प्रमाणित करते हैं और अन्य तीन प्रकरण उनका ज्येष्ठत्व प्रमाणित करते हैं। ज्येष्ठत्व भी केवल वयोमान की दृष्टि से ही नहीं ; अपितु ज्ञान की दृष्टि से, प्रभाव की दृष्टि से और प्रव्रज्या-काल की दृष्टि से । ये समुल्लेख स्वयं बोलते हैं कि जब बुद्ध ने अपना धर्मोपदेश प्रारम्भ किया था, तब तक महावीर इस दिशा में बहुत कुछ कर चुके थे।
उक्त प्रकरणों की सत्यता का एक प्रमाण यह भी है कि यहाँ बुद्ध को छोटा स्वीकार किया गया है। सभी स्थलों में बुद्ध को आयु, प्रव्रज्या व ज्ञान-लाभ की दृष्टि से पूर्वकालिक और बड़ा कहा जाता, तब तो फिर भी आशंका खड़ी की जा सकती थी कि सम्भवतः बौद्ध शास्त्रकारों ने अपने धर्म-नायक की महिमा बढ़ाने के लिए भी ऐसा कर दिया हो, किन्तु अपने धर्म-नायक को छोटा स्वीकार करना तो किसी साम्प्रदायिक अहम् का पोषक नहीं होता।
प्रतिपाद्य तथ्य की पुष्टि का एक आधार यह भी बनता है कि बौद्ध शास्त्र महावीर के विषय में जितने मुखर है, जैन शास्त्र बुद्ध के विषय में उतने ही मौन हैं। इसका भी सम्भवतः कारण यही है-जो नवोदित धर्म-नायक होता है, वह अपने पूर्ववर्ती प्रतिस्पर्धी धर्म-नायक पर अधिक बोलता है। उसमें उसके समकक्ष होने की एक भावना होती है ; अतः स्वयं को श्रेष्ठ और प्रतिपक्ष को अश्रेष्ठ करने का विशेष प्रयत्न करता है। यही स्थिति बौद्धशास्त्रों में समुल्लिखित महावीर-सम्बन्धी और जैन धर्म-सम्बन्धी अनेकानेक विवरणों में प्रकट होती है । जैन-शास्त्रों में बौद्ध धर्म के प्रवर्तक के रूप में बुद्ध का कहीं नामोल्लेख तक नहीं मिलता। यह भी इसी बात का संकेत है कि जो स्वयं प्रभाव-सम्पन्न हो जाते हैं, वे नवोदित पन्थ को सहसा ही महत्त्व नहीं दिया करते।
जैन-शास्त्रों का मौन और बौद्ध-शास्त्रों की मुखरता का अन्य सम्भव कारण यह है कि महावीर-वाणी का द्वादशांगी के रूप में संकलन, महावीर के बोधि-प्राप्ति के अनन्तर ही गणधरों द्वारा हो चुका था । बुद्ध महावीर के उत्तरवर्ती थे ; अतः उन शास्त्रों में बुद्ध के
१. दीघ निकाय, सामवफल सुत्त, १-२। २. विस्तार के लिए देखें, 'त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण ।
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