________________
इतिहास और परम्परा]
समसाययिक धर्म-नायक
३. अजित केसकम्बली
अजित केसकम्बली केशों का बना कम्बल धारण करते थे; इसलिए केसकम्बली कहे जाते थे। श्री एफ० एल० वुडवार्ड की धारणा के अनुसार यह कम्बल मनुष्य के केशों का ही बना होता था । इनकी मान्यता लोकायतिक दर्शन जैसी ही थी। कुछ विद्वानों का यह भी अभिमत बाने लगा है कि नास्तिक दर्शन के आदि प्रवर्तक भारत में यही थे। बृहस्पति ने इनके अभिमतों को ही विकसित रूप दिया हो, ऐसा लगता है।
४. संजय वेलट्टिपुत्त
संजय वेलट्टिपुत्त के जीवन-परिचय में कोई प्रामाणिक सामग्री उपलब्ध नहीं है। इनका नाम संजय वेलट्ठिपुत्त ठीक वैसा ही लगता है। जैसे गोशाल मंखलि पुत्र । उस युग में ऐसे नामों की प्रचलित परम्परा थी, जो माता या पिता के नाम से सम्बन्धित होते थे। मगा-पुत्र थावरचा-पुत्र आदि अनेक तत्सम नाम जैन परम्परा में मिलते ही हैं। आचार्य बुद्धघोष ने भी उसे वेलट्ठ का पुत्र माना है। कुछ विद्वान् सारिपुत्त और मौग्गलान के पूर्व आचार्य संजय परिव्राजक को ही संजय वेल ट्ठि-पुत्त मानने लगे हैं। पर, यह यथार्थ नहीं लगता। ऐसा होता, तो बौद्ध पिटकों में कहीं स्पष्ट उल्लेख भी मिलता। पर, बौद्ध पिटक इतना ही कह कर विराम लेते हैं कि सारिपुत्त और मोग्गलान अपने गुरु संजय परिव्राजक को छोड़कर बुद्ध के धर्म-संध में आये । ६ परिव्राजक शब्द यह भी संकेत करता है कि संजय वैदिक संस्कृति से सम्बद्ध थे; जबकि पूरण आदि सभी धर्म-नायक श्रमण-परिवार में गिने जाते हैं। डा. कामताप्रसाद ने संजय वेलट्ठिपुत्त को सारिपुत्त का गुरु और एक जैन भिक्षु प्रमाणित करने का प्रयत्न किया है, पर यह बुद्धिगम्य नहीं लगता। उत्तराध्ययन के संजय और इतर चारण ऋद्धिधर संजय के रूप में वेलट्टि को देखना अति निर्वाह-सा लगता है। केवल नाम-साम्य किसी तथ्य का निर्णायक आधार नहीं बन सकता। डा० जी० पी० मलल सेकर ने डिक्सनरी ऑफ पाली प्रोपर नेम्स में उसे सारिपुत्त और मौग्गलान का गुरु माना है, पर, इसके लिए इन्होंने कोई मौलिक प्रमाण नहीं दिया है।
१. The Book of the Gradual Sayings, Vol. I, p. 265 n, Tr. by F. L. __ Woodward. २. Barua, op. cit., p. 288. :. ३. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० १६ ।
४. ज्ञाताधर्मकथांग सत्र, अ० ५। ५. गोपालदास पटेल, महावीर स्वामी नो संयम धर्म पृ० ३५, प्र० नवजीवन कार्यालय, ___अहमदाबाद, १६३५। ६. विनय पिटक, महावग्ग, महास्कन्धक । ७. भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध, पृ० २२-२४, प्र. मूलचन्द किसनदास
कापड़िया, सरत, १९२६ । ८. अ० १८। ६. डिक्सनरी ऑफ पाली प्रोपर नेम्स, Vol. II, P. 1000.
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org