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________________ १४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ बड़ी-बड़ी बूंदें गिराओ ।" उसने भी वैसा ही किया। सभी तैथिकों का शरीर कबरी गाय की तरह हो गया । वे निर्ग्रन्थ लजाते हुए सामने से भाग निकले। पूरण कस्सप के एक किसान भक्त ने भी प्रातिहार्य प्रदर्शन के बारे में सुना। उसके मन में देखने की उत्कण्ठा हुई । उसने बैलों को वहीं छोड़ दिया । प्रातः लाई हुई खिचड़ी का पात्र और जोता' हाथ में लिए वह वहाँ से चल पड़ा । मार्ग में उसने पूरण कस्सप को भागते हुए देखा । उसने कहा- “ भन्ते ! मैं तो आर्यों का प्रातिहार्य देखने जा रहा हूं। आप कहाँ भागे जा रहे हैं ?" पूरण कस्सप ने भागते हुए ही उत्तर दिया- "तुझे प्रातिहार्य से क्या ? यह पात्र और जोता मुझे दे ।" तत्काल उन्होंने हाथ बढ़ाया। किसान ने दोनों वस्तुएं उनके हाथ में थमा दी। पूरण कस्सप उन्हें लेकर नदी के तट पर गये । पात्र को जोते से गले में बांधा । लज्जावश वे कुछ भी न बोल सके 1 नदी की तेज धारा में कूद पड़े और बुलबुला उठाते हुए मर कर अवीचि (नरक) में उत्पन्न हुए । पूरण कस्सप के इस मृत्यु-प्रसंग के विषय में यह कह देना कठिन है कि वह यथार्थता hare भी समीप है। फिर भी बौद्ध कथाओं में ऐसा एक समुल्लेख है; यह हमारी ज्ञान वृद्धि का विषय है । कथानक की असम्बद्धता इससे भी व्यक्त होती कि पूरण कस्सप की चर्चा करते हुए अन्त में निर्ग्रन्थों को भी उसमें लपेट लिया गया है । इसी अट्ठकथा में यह भी बतलाया गया है कि पूरण कस्सप किसी श्रीमन्त के यहां दास था । जन्म से उसका क्रम सौवां था; अत: उसका नाम पूरण पड़ा। पर, यह संगत नहीं है । जो जाति से काश्यप था; वह जन्म से दास कैसे होता ? २ २. पकुध कच्चायन ( प्रक्रुध कात्यायन ) पकुध कच्चायन शीतोदक- परिहारी थे । उष्णोदक ही ग्राह्य मानते थे । 3 ककुद्ध वृक्ष के नीचे पैदा हुए, इसलिए 'पकुद्ध' कहलाये । प्रश्नोपनिषद् ( १-१ ) में इन्हें ऋषि पिप्पलाद का समकालीन और ब्राह्मण बतलाया है। वहां उनका नाम कबन्धी और कात्यायन बताया गया है । कबन्धी और पकुध एक ही शारीरिक दोष (कूब) के वाचक हैं । ५ बौद्ध टीकाकारों ने इन्हें पकुध गोत्री होने से पकुध माना है । पर आचार्य बुद्धघोष ने पकुध उनका व्यक्तिगत नाम और कच्चायन गोत्र माना है । डा० फीयर इन्हें ककुध कहने की भी राय देते हैं। १. जूए की रस्सी, जिससे बैलों की गर्दन बांधी जाती है । २. Gf. G. P. Malalasekera, Dictionary of Pali Proper Names, vol. II, p. 242 n, Luzac and Co; London, 1960. ३. धम्मपद अट्ठ-कथा, १-१४४ । ४. हिन्दू सभ्यता, पृष्ठ २१६ । ५. Barua, Pre-Budhisti Indian Philosophy, p. 281. ६. The book of the Kindred Saying, part I, p. 94 n. ७. धम्मपद अट्ठ-कथा, १-१४४; संयुत्तनिकाय अट्ठ-कथा, १-१०२। ८. The book of the Kindred Saying part I, p. 94 n. Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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