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इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट २ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश
इनको तुष्ट रखता है, उसको यश प्रदान करते हैं। ये दस प्रकार के होते हैं-१. अन्न जम्मक, २. पान जृम्भक, ३. वस्त्र जृम्भक ४. गृह जम्भक, ५. शयन जृम्भक, ६. पुष्प जृम्भक ७. फल जृम्भक, ८. पुष्प-फल जम्मक, ६. विद्याजृम्भक और १०. अव्यक्त जम्भक । भोजन आदि में अभाव और सद्भाव करना, अल्पता और अधिकता करना, सरसता और नीरसता करना; जृम्भक देवों का कार्य होता है । दीर्घ वैताढ्य, चित्र, विचित्र, यमक, समक और काञ्चन पर्वतों में इनका निवास रहता है और एक पल्योपम की स्थिति है। लोकपालों की आज्ञानुसार ये त्रिकाल (प्रातः मध्याह्न, सायं) जम्बूद्वीप में फेरी लगाते हैं और अन्न, पानी, वस्त्र, सुवर्णादि धातु, मकान, पुष्प, फल, विद्या व
सर्वसाधारण वस्तुओं की रक्षा करते हैं । ये व्यन्तर हैं। ज्योतिष्क—देखें, देव। ज्ञान-सामान्य-विशेषात्मक पदार्थ के सामान्य धर्मों को गौण कर केवल विशेष धर्मों को ग्रहण
करना। ज्ञानावरणीय कर्म-आत्मा के ज्ञान गुण (वस्तु के विशेष अवबोध) को आच्छादित करने
वाला कर्म। तस्व-हार्द । तमःप्रमा-देखें, नरक । तालपुट विष-ताली बजाने में जितना समय लगता है, उतने ही समय में प्राणनाश करने
वाला विष । तिर्यक् गति-तिर्यञ्च गति । तीर्थङ्कर-तीर्थ का प्रवर्तन करने वाले आप्त पुरुष। तीर्थङ्कर गोत्र नामकर्म-जिस नाम कर्म के उदय से जीव तीर्थङ्कर रूप में उत्पन्न होता है। तीर्थ-जिससे संसार समुद्र तैरा जा सके। तीर्थङ्करों का उपदेश, उसको धारण करने वाले
गणधर व ज्ञान, दर्शन, चारित्र को धारण करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका रूप चतुर्विध संघ को भी तीर्थ कहा जाता है। तीर्थङ्कर केवलज्ञान प्राप्त करने के अनन्तर ही उपदेश करते हैं और उससे प्रेरित हो कर भव्य जन साधु, साध्वी, श्रावक और
भाविकाएं बनते हैं। तृतीय सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साघु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास;
गोदुहासन, वीरासन या आम्रकुब्जासन (आम्र-फल की तरह वक्राकार स्थिति में बैठना)
से प्रामादि से बाहर कोयोत्सर्ग करना। तेजोलेश्या-उष्णता-प्रधान एक संहारक शक्ति (लब्धि) विशेष । यह शक्ति विशेष तप से
ही प्राप्त की जा सकती है । छह महीने तक निरन्तर छठ-छठ तप करे। पारणे में नाखूनसहित मुट्ठी भर उड़द के बाकुले और केवल चुल्लू भर पानी ग्रहण करे । आतापना भूमि में सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्वमुखी हो कर आतापना ले। इस अनुष्ठान के अनन्तर तेजोलेश्या प्राप्त होती है। जब वह अप्रयोगकाल में होती है, 'संक्षिप्त' कहलाती है और प्रयोग-काल में विपुल' (विस्तीर्ण) कहलाती है। इस शक्ति के बल पर व्यक्ति १. अंग, २. बंग,
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