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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ महावीर-“जयन्ती ! जो जीव अधार्मिक हैं, अधर्म का ही अनुसरण करते है, जिन्हें अधर्म ही प्रिय है, जो अधर्म की ही व्याख्या करते हैं, जो अधर्म के ही प्रेक्षक हैं, अधर्म में ही आसक्त हैं, अधर्म में ही हर्षित हैं और जो अधर्म से ही अपनी जीविका चलाते हैं; उनका सोना ही अच्छा है। ऐसे जीव जब सोते रहते हैं, तो प्राण-भूत-जीव-सत्त्व-समुदाय के शोक और परिताप का कारण नहीं बनते । ऐसे जीव मोते रहते हैं, तो उनकी अपनी और दूसरों की बहुत-सी अधार्मिक संयोजना नहीं होती, अतः ऐसे जीवों का सोना ही अच्छा है ।
"और हे जयन्ती ! जो जीव धार्मिक, धर्मानुसारी, धर्म-प्रिय, धर्म-व्याख्याता, धर्म प्रेक्षक, धर्मासक्त, धर्म में हर्षित और धर्मजीवी हैं ; उनका जगना ही अच्छा है। ऐसे जीव जगते हुए बहुत सारे प्राणियों के अदु:ख और अपरिताप के लिए कार्य करते हैं। ऐसे जीव जागत हों, तो अपने और दूसरों के लिए धार्मिक संयोजना के निमित्त बनते हैं; अतः उनका जगते रहना अच्छा है।।
"इसी अभिप्राय से कुछ एक जीवों का सोते रहना अच्छा है और कुछ एक का जगते रहना।"
जयन्ती-"भगवान् ! जीवों की दुर्बलता अच्छी है या सबलता?" महावीर-"कुछ जीवों की सबलता अच्छी है और कुछ जीवों की दुर्बलता अच्छी
जयन्ती-"भन्ते ! यह कैसे ?"
महावीर.---. "जो जीव अधार्मिक हैं और अधर्म से ही जीविकोपार्जन करते हैं, उनकी दुर्बलता ही अच्छी है। क्योंकि उनकी वह दुर्बलता अन्य प्राणियों के लिए दुःख का निमित्त नहीं बनती। जो जीव धार्मिक हैं, उनका सबल होना अच्छा है । इसीलिए में कहता हूँ कि कुछ की दुर्बलता अच्छी है और कुछ की सबलता।"
जयन्ती-"क्षमाश्रमण ! जीवों का दक्ष व उद्यमी होना अच्छा है या आलसी होना?"
महावीर-"कुछ जीवों का उद्यमी होना अच्छा है और कुछ का आलसी होना।" जयन्ती-"क्षमाश्रमण ! यह कैसे ?"
महावीर-"जो जीव अधार्मिक हैं और अधर्मानुसार ही विचरण करते हैं, उनका आलसी होना ही अच्छा है । जो जीव धर्माचरण करते हैं, उनका उद्यमी होना ही अच्छा है ; क्योंकि धर्मपरायण जीव सावधान ही होता है और वह आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष, गण, संघ और सार्मिक की वैयावृत्ति करता है।"
जयन्ती-"प्रभो ! श्रोत्रेन्द्रिय के वशीभूत पीड़ित जीव क्या कर्म बांधता है ?"
महावीर-“केवल श्रोत्रेन्द्रिय के ही नहीं, अपितु, पांचों इन्द्रियों के वशीभूत होकर जीव संसार में भ्रमण करता है।"
श्रमणोपासिका जयन्ती महावीर से अपने प्रश्नों का समाधान पाकर अत्यन्त हर्षित हुई। जीवाजीव की विभक्ति को जानकर उसने महावीर के चरणों में प्रव्रज्या ग्रहण की।'
१. भगवती, श० १२, उ०२ के आधार से।
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