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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड: १
करते हुए उसे देवलोक से निर्वासित कर दिया। वह अपनी पत्नी के साथ मेरु पर्वत की चूला पर रहने लगा।
मार देव-पुत्र
बुद्ध यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के लिए जब कृत संकल्प हो, आसन लगाकर बैठे तो मार देव-पुत्र ने सोचा-"सिद्धार्थ-कुमार मेरे अधिकार से बाहर निकलना चाहता है । मैं ऐसा नहीं होने दूंगा।" मार देव-पुत्र अपने सैन्य शिविर में आया, सारी सेना को सज्जित किया
और बुद्ध पर आक्रमण करने के लिए चल पड़ा। सेना बहुत विस्तृत थी। चारों ओर व ऊँचाई में अनेक योजनों तक फैली हुई थी। मार स्वयं गिरिमेखल हाथी पर आरूढ़ हुआ और उसने सहस्रबाहु से नाना आयुध ग्रहण किये । अन्य सैनिकों ने भी अस्त्र-शस्त्र धारण किये और विभिन्न रंगों से अपनी आकृति को अत्यन्त भयावह व विचित्र बनाकर बुद्ध को भीत करने के लिए चल पड़े। जब मार अपने पूरे परिवार के साथ बोधि-मण्ड के समीप पहुँच रहा था, सारे देव-सैनिक एक-एक कर भाग खड़े हुए। बुद्ध के अप्रतिम तेज को वे देख न सके । मार देव-पुत्र को अपने प्रभाव का अनुभव हुआ और दूसरा मार्ग खोजते हुए उसने निश्चय-किया-"बुद्ध के समान दूसरा कोई भी वीर नहीं है । अभिमुख होकर इससे युद्ध नहीं कर सकेंगे ; अतः पीछे से आक्रमण करना चाहिए।" और उन्होंने पीछे से आक्रमण कर दिया। बुद्ध ने अन्य दिशाओं को खाली पाया और केवल उत्तर दिशा से मार-सेना को अपनी ओर बढ़ते पाया। उन्होंने सोचा-"ये इतने व्यक्ति मेरे विरुद्ध विशेष प्रयत्नशील हैं। मेरी ओर मेरे माता-पिता, भाई, स्वजन-परिजन आदि कोई नहीं हैं, दश पारमिताएं ही मेरे परिजन के समान हैं ; अतः उनकी ही ढाल बनाकर पारमिता-शस्त्र को ही चलाना चाहिए और इस सेना-समूह का विध्वंस करना चाहिये।" ।
दश पारमिताओं का स्मरण कर बुद्ध आसन जमा कर बैठ गये। मार देव ने उन्हें भगाने के उद्देश्य से कष्ट देना प्रारम्भ किया।
१. भयंकर आँधी चलाई। पर्वतों के शिखर उड़ने लगे, वृक्षों की जड़ें उखड़ने लगीं और ग्राम व नगरों का अस्तित्व रह पाना असम्भव हो गया। बुद्ध स्थिरकाय बैठे रहे । चलती हुई आँधी जब बुद्ध के समीप पहुंची तो वह सर्वथा निर्बल हो चुकी थी। उनके चीवर का कोना भी नहीं हिल पाया।
२. आँधी में असफल होकर मार देव-पुत्र ने बुद्ध को डुबोने के अभिप्राय से मूसलाधार वर्षा की वेगवाहिनी धाराओं से पृथ्वी में स्थान-स्थान पर छिद्र हो गये । वन-वृक्षों की ऊपरी चोटियों तक बाढ़ आ गई। फिर भी बुद्ध के चीवरों को वह ओस की बूंदों के समान भी भिगो न सका।
३. पत्थरों की वर्षा की। बड़े-बड़े धुंआ-धार, जलते-दहकते पर्वत-शिखर आकाश-मार्ग से आये और बुद्ध के समीप पहुँचकर वे पुष्पों के गुच्छे बन गये।
४. आयुधों की वर्षा की। एकधार, द्विधार, असि, शक्ति, तीर आदि प्रज्वलित आयुध माकाश-मार्ग से आये और बुद्ध के समीप पहुँचते ही वे दिव्य पुष्पों में परिवर्तित हो गये।
५. अङ्गारों की वर्षा की। रक्त-वर्ण अङ्गारे आकाश से बरसने लगे, किन्तु, वे बुद्ध के पैरों पर पुष्प बनकर बिखर गये।
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