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________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा १६५ तोसलि से विहार कर महावीर मोसलि पहुंचे। उद्यान में ध्यानमग्न थे। संगम ने उन पर चोर होने का अभियोग लगाया। आरक्षक आये और उन्हें गिरफ्तार कर लिया। वे राजसभा में लाये गये। सभा में सिद्धार्थ का मित्र सुमागध राष्ट्रिय बैठा था। महावीर को देखकर वह खड़ा हो गया। उनका अभिवादन किया। राजा से उनका परिचय करवाया और बन्धनमुक्त किया। महावीर उद्यान में जाकर पुनः ध्यानस्थ हो गये। एक बार महावीर कायोत्सर्ग में लीन थे। संगम ने चोरी के उपकरण लाकर उनके पास रख दिए। जनता ने उन्हें चोर की आशंका से पकड़ लिया और तोसलि-क्षत्रिय के समक्ष उपस्थित किया। क्षत्रिय ने उनसे नाना प्रश्न पूछे और परिचय जानना चाहा। उन्होंने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । मौन से क्षत्रिय और अधिक सशंक हुआ। उसने अपने परामर्श मण्डल से विमर्षण किया। सभी इस निष्कर्ष पर पहुंचे, यह छद्म साधु है; अतः इसे फांसी पर लटका दिया जाए। अधिकारियों ने आदेश को क्रियान्वित करने के लिए कदम उठाये। महावीर को फांसी के तख्ते पर ले आये और उन्होंने फांसी का फंदा उनके गले में डाला । फंदा उसी समय टूट गया। सात बार उन्हें फांसी लगाने का उपक्रम किया गया, किन्तु, वह विफल ही हुआ। राजा और अधिकारी; सभी चकित हुए और अतिशय प्रभावित भी। राजा ने महावीर को आदरपूर्वक मुक्त कर दिया। महावीर एक बार सिद्धार्थपुर आये। संगम के कारण चोर की आशंका में वे वहाँ भी पकड़े गये । अश्व-वणिक कौशिक से परिचय पाकर वे मुक्त कर दिये गये । यहाँ से ब्रजग्राम आये। वहाँ उस दिन कोई पर्व था ; अत: सबके घर खीर बनी थी। महावीर भिक्षाचरी के लिए उठे। संगम वहाँ भी पहुँच गया। महावीर जिस घर में गौचरी के लिए जाते, वह वहाँ पहुँच जाता और आहार को अकल्पनीय कर देता । महावीर संगम की दुर्बुद्धि को समझ गये और नगर छोड़कर अन्यत्र चले गये। छः महीने तक संगम महावीर को भयंकर कष्ट देता रहा। उसने अधमता की सीमा लांघ दी। महावीर फिर भी अपने मार्ग से तनिक भी विचलित न हुए । संगम मन में लज्जित हुआ। उसे दृढ़ विश्वास हो गया, मेरे अनेक प्रयत्न करने पर भी महावीर का मनोबल क्रमश: दृढतर ही हुआ है, उसमें न्यूनता नहीं हुई है । पराभूत होकर वह महावीर के समक्ष उपस्थित हुआ और अपना रहस्योद्घाटन करता हुआ बोला-"इन्द्र द्वारा की गई आपकी स्तुति अक्षरश: सत्य है । आप दृढ़प्रतिज्ञ हैं। मैं अपनी प्रतिज्ञा से भ्रष्ट हुआ हूँ। आपको कोई भी शक्ति विचलित नहीं कर सकती । भविष्य में मैं कभी भी, किसी के भी साथ ऐसी अधमता नहीं करूंगा।" महावीर समचित्त थे। संगम की पूर्व प्रवृत्तियों पर वे न उद्विग्न हुए और न इस निवेदन पर हर्षित। संगम स्वर्ग में गया। इस कुकृत्य से इन्द्र उस पर बहुत क्रुद्ध हुआ। उसकी भर्त्सना १. आवश्यक नियुक्ति, गा ५०९। २. वही, गा० ५०६ । ३. वही, ५१०। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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