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________________ इतिहास और परम्परा ] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत ४३७ वह सन के कपड़े भी धारण करता है, सन- मिश्रित कपड़े भी धारण करता है, शववस्त्र (कफन ) भी पहनता है, फेंके हुए वस्त्र भी पहनता है, वृक्ष-विशेष की छाल के कपड़े भी पहनता है, अजिन (मृग ) की खाल भी पहनता है, अजिन (मृग ) की चमड़ी से बनी पट्टियों बुना वस्त्र भी पहनता है, कुश का बना वस्त्र भी पहनता है, छाल ( वाक) का वस्त्र भी पहनता है, कलक (छाल) का वस्त्र भी पहनता है, केशों से बना कम्बल भी पहनता है, पूंछ के बालों का बना कम्बल भी पहनता है, उल्लू के परों का बना वस्त्र भी पहनता है । से वह केश-दाढ़ी का लुंचन करने वाला भी होता है । वह बैठने का त्याग कर, निरन्तर खड़ा ही रहने वाला भी होता है । वह उकडूं बैठ कर प्रयत्न करने वाला भी होता है । वह काँटों की शय्या पर सोने वाला भी होता है । प्रातः मध्याह्न, सायं-दिन में तीन बार पानी में जाने वाला होता है। इस तरह वह नाना प्रकार से शरीर को पीड़ा पहुँचाता हुआ विहार करता है । भिक्षुओ, इस प्रकार एक आदमी अपने को तपाने वाला, अपने को कष्ट देने में ही लगा रहने वाला होता है । - अंगुत्तर निकाय (हिन्दी अनुवाद), भाग २, पृ० १६७ से १६६ के आधार से समीक्षा इस प्रसंग में नामग्राह निर्ग्रन्थों का उल्लेख नहीं है, पर आचार बहुत कुछ निर्ग्रन्थों का ही बताया गया है । कुछ एक आचार तो दशव यालिय से शब्दशः मिलते हैं । ' इस प्रथम भंग में निर्ग्रन्थों के अतिरिक्त आजीवक तथा पूरण कस्सप के अनुयायियों के भी कुछ नियम बताये गये हैं, ऐसा प्रतीत होता है । "न वह मांस खाता है, न वह मछली खाता है, न वह सुरा पोता है, न वह मेरय पीता है" - यह आचार मी निर्ग्रन्थ- आचार के संलग्न ही बताया गया है। जैन साधुओं के मांसाहार के विपक्ष में यह एक अच्छा प्रमाण बन सकता है । १. दुण्हं तु मुञ्ञमाणाणं एगो तत्थ निमंतए । दिज्जमाणं न इच्छिज्जा, छंद से पडिलेहए ॥ गुब्विणीए उवण्णत्थं, विविह पाणभोअणं । भुंजमाणं विविज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए । सिआय समणट्ठाए गुब्विणी कालमासिणी । उआ वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणट्टए ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पियं । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ थणगं पिज्जमाणी, दारगं व कुमारिअं । तं निक्खिवित्तु रोवंतं, आहरे पाणमोयणं ॥ तं भवे भत्तपाणं तु •• तारिसं ॥ Jain Education International 2010_05 - दशवेकालिक सूत्र, ५।१।३७-४३| For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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