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इतिहास और परम्परा]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
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रमणीय चांदनी रात है ! कैसी सुन्दर दर्शनीय, प्रासादिक व लाक्षणिक रात है ! किस श्रमण या ब्राह्मण का सत्संग करें, जो हमारे चित्त को प्रसन्न करे।"
एक राजमंत्री ने कहा-"महाराज पूरण-कस्सप गणनायक, गणचार्य, ज्ञानी, यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुजन-सम्मानित, अनुभवी, चिरप्रव्रजित व वयोवृद्ध हैं। आप उनसे धर्म चर्चा करें। उनका अल्पकालिक सत्संग भी आपके चित्त को प्रसन्न करेगा।"
राजा अजातशत्रु ने सुना किंतु मौन रहा।
दूसरे मन्त्री ने उक्त विशेषणों को दुहराते हुए मक्खलि गोशाल का सुझाव दिया। राजा अजातशत्रु मौन रहा । इस प्रकार विभिन्न मंत्रियों ने इसी उक्ति के साथ क्रमश: अजित केसकम्बली, पकुध कच्चायन, निगण्ठ, नातपुत्त व संजय वेल ट्ठिपुत्त का सुझाव दिया। अजातशत्रु ने यह सब कुछ सुना, किंतु मौन रहा । जीवक कौमार भृत्य भी अजातशत्रु के पास मौन बैठा था। राजा ने उससे कहा--"सौम्य जीवक ! तुम मौन क्यों हो? तुम भी अपना सुझाव दो।"
जीवक ने कहा--''महाराज ! मेरे आम्र-उद्यान में साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के बहद् संघ के साथ भगवान् अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध विहार कर रहे हैं। उनका मंगल यश फैला हुमा है। वे भगवान् अर्हत्, परमज्ञानी विद्या और आचरण से युक्त, सुगत, लोकविद्, पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए अनुपम अश्व नियन्ता, देव व मनुष्यों के शास्ता तथा बुद्ध हैं। महाराज! आप उनके पास चलें और उनसे धर्म चर्चा करें। कदाचित् आपका चित्त प्रसन्न हो जायेगा।"
___ अजातशत्रु जीवक के सुझावानुसार बुद्ध के दर्शनार्थ चला। सुसज्जित पाँच सौ हाथियों पर उसकी पाँच सौ रानियाँ थी। स्वयं भी पट्टहस्ती पर आरूढ़ हुआ। मशालों की रोशनी से घिरा, राजकीय विपुल आडम्बर के साथ चला । उद्यान के समीप पहुंचते ही राजा का मन भय व आशंका से भर गया। रोमांचित होकर उसने जीवक से कहा- "कहीं तुम मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो ? मेरे साथ विश्वासघात तो नहीं कर रहे हो ? कहीं तुम मुझे शत्रुओं के हाथ तो नहीं दे रहे हो ? साढ़े बारह सौ भिक्षुओं के इतने बड़े संघ की अवस्थिति पर भी किसी के थूकने, खाँसने तक का तथा अन्य किसी दूसरे प्रकार का शब्द तक नहीं हो रहा है।"
जीवक ने सस्मित उत्तर दिया-"महाराज! मैं आपको धोखा नहीं दे रहा है और न मैं आपको शत्रुओं के हाथों ही दे रहा हूँ। आप आगे चलें। सामने देखें, मण्डप में दीपक जल रहे हैं।" , जहाँ तक हाथी जा सकता था, वहाँ तक अजातशत्रु हाथी पर गया। उसके बाद पैदल ही मण्डप द्वार पर पहुँचा । क्रमशः मण्डप में प्रविष्ट हुआ। अद्भुत शान्ति को देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ। सहसा उसने उदान कहा-'मेरा कुमार उदयभद्र भी इस प्रकार की शान्ति में सुस्थिर हो।"
अजातशत्रु भगवान् को अभिवादन कर व भिक्षु-संघ को करबद्ध नमस्कार कर एक ओर बैठ गया। राजा ने प्रश्न पूछने की अनुमति ली और पूछा-"भन्ते ! विविध शिल्पों के माध्यम से व्यक्ति जीविका उपार्जन कर प्रत्यक्षतः सुखी होता है; क्या उसी प्रकार इसी जीवन में श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल भी पाया जा सकता है?"
"महाराज ! क्या यह प्रश्न तुमने दूसरे श्रमण-ब्राह्मणों से भी पूछा है ? यदि पूछा हो,
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