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इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट २ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश कामिकी बुद्धि-सतत अभ्यास और विचार से विस्तार प्राप्त होने वाली बुद्धि । किल्विषिक-वे देव जो अन्त्यज समान हैं। कुत्रिकापण-तीनों लोकों में मिलने वाले जीव-अजीव सभी पदार्थ जहाँ मिलते हों, उसे
कुत्रिकापण कहते हैं। इस दुकान पर साधारण व्यक्ति से जिसका मूल्य पाँच रुपया लिया जाता था, इन्भ-श्रेष्ठी आदि से उसी का मूल्य सहस्र रुपया और चक्रवर्ती आदि से लाख रुपया लिया जाता था। दुकान का मालिक किसी व्यन्तर को सिद्ध कर लेता था। वही व्यन्तर वस्तुओं की व्यवस्था कर देता था। पर अन्य लोगों का कहना है कि ये दुकानें वणिक्-रहित रहती थीं। व्यन्तर ही उन्हें चलाते थे और द्रव्य का मूल्य भी वे ही
स्वीकार करते थे। भीर समुद्र-जम्बूद्वीप को आवेष्टित करने वाला पांचवां समुद्र, जिसमें दीक्षा-ग्रहण के __ समय तीर्थङ्करों के लुंचित-केश इन्द्र द्वारा विसर्जित किये जाते हैं। खादिम–मेवा आदि खाद्य पदार्थ । गच्छ-साधुओं का समुदाय । गण-कुल का समुदाय—दो आचार्यों के शिष्य-समूह । गणघर-लोकोत्तर ज्ञान-दर्शन आदि गुणों के गण (समूह) को धारण करने वाले तीर्थङ्करों
के प्रधान शिष्य, जो उनकी वाणी का सूत्र रूप में संकलन करते हैं। गणिपिटक–द्वादशांगी आचार्य के श्रुत की मञ्जू होती है। अत: उसे गणिपिटक भी कहा
जाता है। गाथापति-गृहपति-विशाल ऋद्धि-सम्पन्न परिवार का स्वामी । वह व्यक्ति जिसके यहाँ
कृषि और व्यवसाय-दोनों कार्य होते हैं। गुणरत्न (रयण) संवत्सर तप-जिस तप में विशेष निर्जरा (गुण) की रचना (उत्पत्ति)
होती है या जिस तप में निर्जरा रूप विशेष रत्नों से वार्षिक समय बीतता है। इस क्रम में तपो दिन एक वर्ष से कुछ अधिक होते हैं; अतः संवत्सर कहलाता है। इसके क्रम में प्रथम मास में एकान्तर उपवास ; द्वितीय मास में षष्ठ भक्त ; इस प्रकार क्रमशः बढ़ते हुए सोलहवें महीने में सोलह-सोलह का तप किया जाता है। तपः-काल में दिन में उरकुटुकासन से सूर्याभिमुख होकर आतापना ली जाती है और रात में वीरासन से वस्त्र-रहित रहा जाता है । तप में १३ मास ७ दिन लगते हैं और इस अवधि में ७६ दिन पारणे के होते हैं।
(चित्र परिशिष्ट-२ के अन्त में देखें) गुणवत-श्रावक के बारह व्रतों में से छट्ठा, सातवां और आठवां गुणव्रत कहलाता है। देखें,
बारह व्रत। गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त-प्रायश्चित्त का एक प्रकार, जिसमें चार महीने की साधु
पर्याय का छेद-अल्पीकरण होता है। गुरु मासिक प्रायश्चित्त-प्रायश्चित का एक प्रकार, जिसमें एक महीने की साधु-पर्याय का
छेद-अल्पीकरण होता है।
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