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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड:१
गुरुलघु-छोटापन और बड़ापन । प्रेवेयक देखें, देव। गोचरी-जैन मुनियों का विधिवत् आहार-याचन । भिक्षाटन । माधुकरी। गोत्र कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च-नीच शब्दों से अभिहित किया जाये । जाति, कुल, .. बल, रूप, तपस्या, श्रुत, लाभ, ऐश्वर्य आदि का अहं न करना उच्च गोत्र कर्म-बन्ध के
. निमित्त बनता है और इनका अहं नीच गोत्र कर्म-बन्ध का निमित्त बनता है। ग्यारह प्रतिमा-उपासकों के अभिग्रह विशेष ग्यारह प्रतिमाएँ कहलाते हैं । उनके माध्यम
से उपासक क्रमश: आत्माभिमुख होता है । ये क्रमश: इस प्रकार हैं : १. दर्शन प्रतिमा-समय १ मास । धर्म में पूर्णतः रुचि होना । सम्यक्त्व को विशुद्ध
रखते हुए उसके दोषों का वर्जन करना। २. व्रत महिमा-समय २ मास । पाँच अणुव्रत और तीन गुणव्रत को स्वीकार करना
तथा पौषधोपवास करना। ३. सामायक प्रतिमा-समय ३ मास । सामायक और देशावकाशिक व्रत स्वीकार
करना। ४. पौषध प्रतिमा-समय ४ मास । अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या और पूर्णिमा को
प्रतिपूर्ण पौषध करना। ५. कायोत्सर्ग प्रतिमा-समय ५ मास । रात्रि को कायोत्सर्ग करना । नसन न
करना, रात्रि-भोजन न करना, धोती की लांग न लगाना, दिन में ब्रह्मचारी
रहना और रात में अब्रह्मचर्य का परिमाण करना । ६. ब्रह्मचर्य प्रतिमा-समय ६ मास । पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन । ७. सचित्त प्रतिमा-समय ७ मास । सिचित्त आहार का परित्याग । ८. आरम्भ प्रतिमा-समय ८ मास । स्वयं आरम्भ-समारम्भ न करना। ६. प्रेष्य प्रतिमा-समय ६ मास । नौकर आदि अन्य जनों से भी आरम्भ-समारम्भ
न करवाना। १०. उद्दिष्ट वर्जन प्रतिमा-समय १० मास । उद्दिष्ट भोजन का परित्याग । इस
अवधि में उपासक केशों का क्षुर से मुण्डन करता है या शिखा धारण करता है। घर से सम्बन्धित प्रश्न किये जाने पर "मैं जानता हूँ या नहीं' इन्हीं दो वाक्यों
से अधिक नहीं बोलता। ११. श्रमण भूत प्रतिमो-समय ११ मास । इस अवधि में उपासक क्षुर से मुण्डन या
लोच करता है । साधु का आचार, वेष एवं भण्डोपकरण धारण करता है। केवल ज्ञातिवर्ग से उसका प्रेम-बन्धन नहीं टूटता ; अतः वह भिक्षा के लिए ज्ञातिजनों में ही जाता है।
अगली प्रतिमाओं में पूर्व प्रतिमाओं का प्रत्याख्यान तद्वत् आवश्यक है। पातीकर्म-जैन धर्म के अनुसार संसार परिभ्रमण के हेतु कर्म हैं। मिथ्यात्व, अविरत प्रमाद,
कषाय और योग के निमित्त से जब आत्म-प्रदेशों में कम्पन होता है तब जिस क्षेत्र में
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