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________________ इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या द्वीप का विचार करते हुए उपद्वीपों सहित चारों द्वीपों को देखा। अपर-गोयान, पूर्व विदेह तथा उत्तर कुरु'-इन तीनों द्वीपों में बुद्ध जन्म नहीं लेते, केवल जम्बूद्वीप में ही जन्म लेते हैं; अतः इसी द्वीप का निश्चय किया। जम्बूद्वीप तो दस हजार योजन परिमाण है; अत: प्रदेश का चिन्तन करते हुए उन्होंने मध्य प्रदेश को देखा। इस प्रदेश के पूर्व में कजंगल कस्बा है। उसके आगे शाल के बड़े वन हैं। मध्य में सललवती नदी है । दक्षिण में सेतकणिक कस्बा हैं। पश्चिम में थून नामक ब्राह्मणों का ग्राम है। उत्तर में उशीरध्वज पर्वत है । वह लम्बाई में तीन सौ योजन, चौड़ाई में ढाई सौ योजन और परिधि में नौ सौ योजन है। इसी प्रदेश में बुद्ध, प्रत्येक बुद्ध, अग्र श्रावक (प्रधानशिष्य), महाश्रावक, अस्सी महाश्रावक, चक्रवर्ती राजा तथा महा प्रतापी, ऐश्वर्य-सम्पन्न, क्षत्रिय, ब्राह्मण व वैश्य पैदा होते हैं । कपिलवस्तु नगर भी इसी प्रदेश में है; अत: इसी नगर में जन्म-ग्रहण का निश्चय किया। कुल के बारे में चिन्तन करते हुए उन्होंने निश्चय किया-'बुद्ध वैश्य या शूद्र कुल में उत्पन्न नहीं होते; लोकमान्य क्षत्रिय या ब्राह्मण-इन्हीं दो कुल में जन्म लेते हैं। आजकल क्षत्रिय कुल ही लोकमान्य है; अतः इसी कुल में जन्म लूंगा। राजा शुद्धोदन मेरे पिता होंगे।" __ माता के स्वभाव और आचार का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सोचा--बुद्धों की माता चंचलता रहित व शराब आदि व्यसनों से मुक्त होती है। लाख कल्प से दान आदि पारमिताएं पूर्ण करने वाली और जन्म से ही अखण्ड पंचशील का पालन करने वाली होती है। देवी महामाया इन गुणों से युक्त है। यह मेरी माता होगी।" किन्तु अब इसकी आयु कितनी अवशिष्ट है, यह विचार करते हुए उन्होंने दस मास सात दिन का आयुष्य शेष पाया। पांच महाविलोकनों को देखकर बोधिसत्त्व ने "मेरे बुद्ध होने का यह समय है।' यह कहते हुए उन देवताओं को सन्तुष्ट किया और उन्हें विदा किया । तुषित् लोक के देवताओं के साथ उस लोक के नन्दन वन में प्रवेश किया। साथी देवता वहां बोधिसत्त्व को यहां से च्युत होकर प्राप्त होने वाली सुगति और पूर्वकृत पुण्य कर्मों के बल पर मिलने वाले स्थानों का स्मरण दिलाते हुए घूमते रहे। वहां से च्युत होकर वे देवी महामाया की कुक्षि में आए। स्वप्न-दर्शन कपिलवस्तु में उस समय सभी नागरिक आषाढ-उत्सव मना रहे थे। पूर्णिमा से सात दिन पूर्व ही देवी महामाया, माला-गन्ध आदि से सुशोभित हो, उत्सव मना रही थी। वह सातवें दिन प्रातः ही उठी। सुगन्धित जल से स्नान किया । चार लाख का महादान दिया। सब प्रकार के अलंकारों से विभूषित हो सुस्वादु भोजन किया। उपोसथ (व्रत) के नियम ग्रहण कर सु-अलंकृत शयनागार में रमणीय पल्यंक पर लेट गई । निद्रित अवस्था में उस समय उसने स्वप्न देखा ....."चार महाराज (दिकपाल) शय्या सहित मुझे उठाकर हिमवन्त प्रदेश में ले गये । साठ योजन के मनशिला नामक शिला पर सात योजन छाया वाले महान् शाल वृक्ष के नीचे मुझे रखकर खड़े हो गये। उन दिकपालों की देवियां तब मुझे अनोतप्त दह पर ले गईं। मनुष्य-मल को दूर करने के लिए स्नान कराया, दिव्य वस्त्र पहनाये, गन्ध-विलेपन किया और दिव्य फूलों से सजाया। उसके समीप ही रजत पर्वत हैं । उसमें स्वर्ग विमान है । वहां पूर्व की ओर सिर कर दिव्य बिछौने पर मुझे लेटा दिया। बोधिसत्त्व श्वेत सुन्दर हाथी बन समीपवर्ती सुवर्ण पर्वत पर विचरे तथा वहां से उतर रजत पर्वत पर चढ़े । उत्तर १. जैन परम्परा के अनुसार भी पूर्व विदेह, पश्चिमविदेह उत्तरकुरु, देवकुरु आदि क्षेत्र जम्बूद्वीप के अंग है। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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