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________________ इतिहास और परम्परा जन्म और प्रव्रज्या १३५ पर महावीर और दो वर्ष तक प्रवजित न होने के लिए सहमत हो गए। इसी बीच सर्वत्र यह बात फैल गई कि महावीर के गर्भ-समय उनकी माता ने चतुर्दश स्वप्न देखे थे; अतः वे अब चक्रवती होंगे। बड़े-बड़े राजाओं ने श्रेणिक, चण्ड प्रद्योतन आदि अपने कुमारों को उनकी सेवा में तत्पर कर दिया।' किन्तु, महावीर तो अनासक्त थे। चक्रवतित्व उनके समक्ष नगण्य था। वे तो निविष्ण अवस्था में ही रहते । इस अवधि में गृहस्थावास में रहते हुए भी उन्होंने सचित्त पानी नहीं पिया, रात्रि-भोजन नहीं किया और ब्रह्मचर्य का पालन किया। भूमि-शयन ही करते और कषाय-अग्नि को शान्त करने के लिए एकत्व भावना में लीन रहते। एक वर्ष की अवधि के बाद उन्होंने वर्षीदान आरम्भ किया। वे प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राएं दान करते थे। वर्ष भर में तीन अरब अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण-मुद्राएँ उन्होंने दान की। अभिनिष्क्रमण तीस वर्ष की अवस्था में महावीर समाप्त-प्रतिज्ञ हुए। लोकान्तिक देव अपने जीताचार के अनुसार महावीर के पास आए और उन्होंने कहा जय-जय खत्तिय वर वसभ ! बुज्झहि भयवं । सव्व जगज्जीव हियं अरहं तित्थं पव्वत्तेहि ॥ "हे क्षत्रिय वर वृषभ! आपकी जय हो । अब आप दीक्षा ग्रहण करें और समस्त प्राणियों के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन करें।" उन्होंने महावीर को वन्दन, नमस्कार किया और अपने स्थान की ओर गए। महावीर ने अपने अग्रज नन्दिवर्धन व चाचा सुपार्श्व आदि स्वजनों के समक्ष दीक्षाविषयक अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। सभी स्वजनों ने उनके संकल्प का अनुमोदन किया। नन्दिवर्धन ने अभिनिष्क्रमण महोत्सव आरम्भ किया। उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को आदेश दिया, आठ प्रकार के एक-एक हजार आठ कलश तैयार कराओ। आदेश शीघ्र ही क्रियान्वित हुआ। महोत्सव मनाने के लिए शकेन्द्र भी अपने पूरे परिवार के साथ आया। नन्दिवर्धन, इन्द्र और देवों ने महावीर को पूर्वाभिमुख स्वर्ण-सिंहासन पर बैठाकर आठ प्रकार के कलशों में स्वच्छ पानी भराकर अभिषेक किया। गंधकाषाय वस्त्र से शरीर पोंछा गया और दिव्य चंदन का विलेपन किया गया । अल्प भार वाले बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण पहनाये गए। महावीर इन सब कार्यों से निवृत्त होकर सुविस्तृत व सुसज्जित चन्द्रप्रभा शिविका में आरूढ़ हुए । मनुष्यों, इन्द्र और देवों ने मिलकर उस शिविका को उठाया। विशाल जन-समूह के साथ क्षत्रियकुण्ड ग्राम के मध्य से होते हुए ज्ञातृ-खण्ड उद्यान के अशोक वृक्ष के नीचे पहुंचे। समस्त अलंकारों व वस्त्रों को अपने हाथ से उतारा । उन्होंने पंच मुष्टि लुंचन किया। शकेन्द्र ने जानुपाद रहकर उन केशों को एक वज्ररत्नमय थाल में ग्रहण किया तथा क्षीर समुद्र में उन्हें विसर्जित कर दिया। महावीर के शरीर पर केवल एक देवदूष्य वस्त्र रहा। उस दिन महावीर के षष्ट भक्त (दो दिन का) तप था। विशुद्ध लेष्या थी । हेमन्त ऋतु थी। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी तिथि थी। सुब्रत दिवस था, विजय मुहूर्त, चौथा प्रहर तथा उत्तराफागुल्नी नक्षत्र था। मनुष्यों और देवों की विराट परिषद् में सिद्धों को नमस्कार करते हुए--सव्वं में अकरणिज्ज पाव कम्म--आज से सब पाप मेरे लिए अकृत्य हैं, मैं आज १. कप्प सत्त, कल्पलता व्याख्या, प०१२३-१ । २. (१) स्वर्ण, (२) रजत, (३) रत्न, (४) स्वर्ण-रजत, (५) स्वर्ण-रत्न, (६) रत्न-रजत, (७) स्वर्ण-रजत-रत्न, (८) मृत्तिका । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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