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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : १
त्रिपिटकों के कतिपय सम्मुलेख भी बुद्ध को तरुण और महावीर को ज्येष्ठ व्यक्त करते हैं । सुत्त निपात के अनुसार सभिय भिक्षु सोचता है
"पूरण कस्सप, मक्खलि गोशाल, अजित केशकम्बल, पकुध कच्चायन, संजय वेलट्ठिपुत्त और निगण्ठ नातपुत्त जैसे जीर्ण, वृद्ध, वयस्क, उत्तरावस्था को प्राप्त, वयोतीत, स्थविर, अनुभवी, चिर प्रनजित, संघी, गणी, गणाचार्य, प्रसिद्ध, यशस्वी, तीर्थङ्कर, बहुजन-सम्मानित श्रमण-ब्राह्मण भी मेरे प्रश्नों का उत्तर न दे सके, न दे सकने पर कोप, द्वेष व अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं और मुझ से ही इनका उत्तर पूछते हैं। श्रमण गौतम क्या मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दे सकेंगे ? वे तो आयु में कनिष्ठ और प्रव्रज्या में नीवन हैं। फिर भी श्रमण युवक होता हुआ भी महद्धिक और तेजस्वी होता है; अतः श्रमण गौतम से भी मैं इन प्रश्नों को पूछ् ।"१
संयुत्त निकाय के दहर सुत्त के अनुसार राजा प्रसेनजित् बुद्ध से कहता है-"पूरण कस्सप यावत निगण्ठ नातपुत्त भी अनुत्तर सम्यग;सम्बोधि का अधिकारपूर्वक कथन नहीं करते तो आप अल्पवयस्क व सद्यः प्रवजित होते हुए भी यह दावा कैसे कर सकते हैं?"
दीघ निकाय के सामञफल सुत्त के अनुसार भी अजातशत्रु के मंत्रीगण महावीर प्रति छः धर्मनायकों को चिर प्रव्रजित, अध्वगत व वयस्क बताते हैं।
इसी प्रकार त्रिपिटक-साहित्य में ऐसे तीन प्रसंग उपलब्ध होते हैं, जो महावीर को बुद्ध से पूर्व-निर्वाण-प्राप्त सूचित करते हैं। महावीर की ज्येष्ठता के विषय में वे भी अनूठे प्रमाण माने जा सकते हैं। दीघ निकाय के पासादिक सत्त व मज्झिम निकाय के सामगाम सुत्त के अनुसार भिक्षु चुन्द समणुद्देश पावा चातुर्मास बिताकर आता है और सामगाम में बुद्ध व मानन्द को सम्वाद सुनाता है-''अभी-अभी पावा में निगण्ठ नातपुत्त काल कर गया है। निगण्ठों में उत्तराधिकार के प्रश्न पर भीषण विग्रह हो रहा है ।"४ दोघ निकाय के संगीति पर्याय सत्त के अनुसार सारिपुत्त पावा में इसी उदन्त का उल्लेख कर भिक्षु-संघ को एकता का उपदेश देते हैं।
त्रिपिटक-साहित्य के तीन प्रसंग जब महावीर के पूर्व-निर्वाण की बात कहते हैं और त्रिपिटक-साहित्य में व आगम-साहित्य में इनका कोई विरोधी समुल्लेख नहीं है तब इस स्थिति में उक्त तीनों सम्मुल्लेख स्वतः निर्विवाद रह जाते हैं । सम्भव यह भी हो जाता है कि ये उल्लेख त्रिपिटक-साहित्य में पीछे से जोड़े गये हों । सम्भव सब कुछ हो सकता है, पर उस सम्भावना के लिए जब तक कोई ठोस आधार न हो, तब तक उनकी सत्यता में सन्देह करने का कोई आधार नहीं बनता।
१. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ०४०३-४०५। २. देखें, वही, पृ० ४०१-४०२। ३. देखें, वही, पृ० ३६६ ।
• ३६०-३६२। ५. जैन परम्परा की चिर प्रचलित धारणा के अनुसार पावा गंगा के दक्षिण में राजगह के
समीप मानी जाती रही है। त्रिपिटक-साहित्य की सूचनाओं से तथा अन्य ऐतिहासिक गवेषणाओं से उक्त धारणा अयथार्थ सिद्ध हो चुकी है । वस्तुतः महावीर की निर्वाण भूमि (पावा) बौद्ध-शास्त्रों में उल्लिखित वही पावा है, जो गंगा के उत्तर में कुशीनारा के समीप बताई गई है (देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४७-४८) ।
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