SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आंगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ के लिये ही करते हैं । जैन परम्परा के अनुसार बीतरागता (बौद्ध परिभाषा में अर्हत् पद) के लिए ही प्रयत्न विहित है । तीर्थङ्करत्व एक गरिमापूर्ण पद है। वह काम्य नहीं हुआ करता। वह तो सहज सुकृत-संचय से प्राप्त हो जाता है । विहित तप को किसी नश्वर काम्य के लिए अर्पित कर देना, जैन परिभाषा में 'निदान" कहलाता है । वह विराधकता का सूचक है। भौतिक ध्येय के लिए तप करना भी अशास्त्रीय है । बौद्धों में बुद्धत्व इसलिए काम्य माना गया है कि वहाँ व्यक्ति अपनी भव-मुमुक्षा को गौण करता है और विश्व मुक्ति के लिए इच्छुक होता है। तात्पर्य, जैनों ने तीर्थङ्क रत्व को उपाधि विशेष से जोड़ा है और बुद्धों ने बुद्धत्व को.. केवल परोपकारिता से । यही अपेक्षा-भेद दोनों परम्पराओं के मौलिक अन्तर का कारण बना है। परोपकारिकता जैन धर्म में भी अना-काङ्क्षणीय नहीं है और पदाकांक्षा बौद्ध धर्म में भी उपादेय नहीं है । इस प्रकार उक्त अन्तर केवल सापेक्ष वचन-विन्यास ही ठहरता है । १. दससुयक्खन्ध, निदान प्रकरण । २. चउव्विहा खलु तवसमाहि भवइ । तंजहा—नो इहलोगट्टयाए तवमहिछेज्जा, नो परलोगटयाए तवमहिछेज्जा, नो कित्तिवण्णसद्दसिलोगटयाए तवमहिछेज्जा, नन्नत्थ निज्जरल्याए तवमहिठ्ठज्जा । -दसवेआलियं, अ० ६, उ०४। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy