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इतिहास और परम्परा]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
की मंजिल में चढ़ने से रोका गया और सीढ़ियों में ही मिश्रित भात दिये गये । वे उद्यान लौट आये और वहाँ भोजन किया। चौथे दिन उन्हें प्रासाद पर नहीं चढ़ने दिया गया । नीचे ही कण वाले भात उन्हें दिये गये । उद्यान में आकर उन्हें भी उन्होंने खाया |
सारे घटना चक्र को देखते हुए राजा असमंजस में पड़ गया । बोधि परिव्राजक को निकालने का प्रयत्न करने पर भी वे नहीं निकले। राजा ने अमात्यों को बुलाया और कहा"महाबोधि कुमार का सत्कार घटा दिया, फिर भी वे नहीं जा रहे हैं ।"
अमात्यों ने अवसर का लाभ उठाया । उन्होंने राजा से कहा- - "महाराज ! वह भात के लिए नहीं घूम रहा है। वह छत्र पाने के प्रयत्न में है । यदि उसके सामने भात का ही प्रश्न होता तो वह यहाँ से कभी का चला जाता । "
"तो अब क्या करें ?"
राजा घबराया। उसने अमात्यों को पूछाअमात्यों ने कुछ गंभीर हो कर कहा - "महाराज ! अब आपको कुछ कठोरता से काम लेना होगा । आप उसे मरवा दें ।”
राजा ने अमात्यों के हाथों में तलवार थमाते हुए कहा - "कल भिक्षा के समय तुम सब छुप कर द्वार के समीप खड़े हो जाना । ज्योंही वे प्रवेश करें, सिर काट डालना और टुकड़े-टुकड़े कर शौचालय के कुएं में फेंक देना । स्नान कर मेरे पास आना । पर इस कार्य का किसी को पता न चले।"
आमात्यों ने राजा का आदेश शिरोधार्य किया और प्रसन्नचित अपने-अपने घर लौट
आये ।
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के
सायंकाल भोजन से निवृत्त हो कर राजा शय्या पर लेटा था । सहसा उसे बोधिसत्त्व गुण याद आये । उसका मन शोक से भर गया और पसीने से तर-बतर हो गया। बेचैनी से वह लोट-पोट होने लगा । अग्रमहिषी से राजा ने बात तक नहीं की । पूर्णतः स्तब्धता छाई हुई थी। रानी ने मौन भंग करते हुए पूछा - "महाराज ! क्या मैं अपराधिनी हूँ ? आप मेरे से बोलते तक नहीं ।'
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राजा ने अपने को सम्भालते हुए कहा - "देवि ! ऐसी बात नहीं है । मैं तो दूसरे ही विचारों में खोया हुआ हूँ । बोधि परिव्राजक मेरा शत्रु हो गया है । पाँचों मंत्रियों की मैंने उसे मार डालने की आज्ञा दे दी है। वे उसे मार कर, टुकड़े-टुकड़े कर शौचालय के कुएँ में डाल देंगे । उसने बारह वर्ष तक हमें धर्मोपदेश किया था। मैंने उसका एक भी प्रत्यक्ष दोष नहीं देखा । दूसरों के कथन पर विश्वास कर मैंने उसके वध का निर्देश दिया है। ज्यों ही यह स्मृति होती है, मैं सिहर उठता हूँ ।"
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रानी ने राजा को आश्वस्त करते हुए कहा - "देव ! यदि वह शत्रु ही तो उसके वध में इतना क्या विचार है ? पुत्र भी यदि शत्रु हो जाये तो उसे भी अपना हित साधन करना चाहिए। आप चिन्ता न करें ।"
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श्रेष्ठ पिंगल वर्ण श्वान ने राजा और रानी का ज्यों ही यह वार्तालाप सुना, मन में संकल्प किया—“अपने कौशल से कल मैं बोधि परिव्राजक के प्राणों की रक्षा करूँगा । अगले दिन सूर्योदय होते ही वह प्रासाद से उतर आया। मुख्य द्वार की देहली पर वह सिर रख कर लेट गया और बोधिसत्त्व के आगमन की व्यग्रता के साथ प्रतीक्षा करने लगा । खड्गधारी अमात्य भी प्रातःकाल आकर द्वार के भीतर छिप कर खड़े हो गये । बोधिसत्त्व अपने समय पर
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हो गया है मरवा कर
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