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________________ इतिहास और परम्परा आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता ४६६ अल्प वयस्क की दीक्षा का विधान ही महावीर ने किया, यही नहीं, उन्होंने अतिमुक्तक कुमार को अल्पावस्था में दीक्षित भी किया। गणधर गौतम गोचरी करते हुए पोलासपुर नगर में घूम रहे थे। अकस्मात् अतिमुक्तक ने आ कर उनकी अंगुली पकड़ी और कहा--'मेरे यहाँ भिक्षा के लिए चलिए।' बाल-हठ कैसे टलता । गणधर गौतम ने उसके घर जा कर भिक्षा ली। भिक्षा ले कर मुड़े, तो बालक भी उनके साथ-साथ चल पड़ा। मार्ग में अतिमुक्तक ने पूछा-'भन्ते ! आप कहाँ जा रहे हैं ?' गणधर गौतम ने कहा-'परम शान्ति के उद्भावक भगवान् श्री महावीर के पास ।' अतिमुक्तक ने कहा - 'मुझे भी शान्ति चाहिए; मैं भी वहीं जाऊंगा। इस प्रकार वह उद्यान में आया और यथाविधि महावीर के पास दीक्षित हा। उसी अतिमुक्तक भिक्षु ने एक बार प्रमादवश अपने पात्र से नदी में जल-क्रीड़ा की स्थविर मिक्षओं ने उसे डाँटा। महावीर ने उसे प्रायश्चित्त दे कर शुद्ध किया और कहा तक अभी अज्ञ जैसा लगता है, किन्तु, यह इसी जीवन में यथाक्रम कैवल्य व निर्वाण प्राप्त करेगा। महावीर ने यह भी निरूपण किया है कि आठ वर्ष से कुछ अधिक वयोमान बालक उसी वय में कैवल्य और मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इससे पूर्व साधुत्व, कैवल्य और मोक्ष ; तीनों ही अप्राप्य हैं। दीक्षा-ग्रहण में माता, पिता आदि की आज्ञा भी आवश्यक होती बौद्ध परम्परा के दीक्षा-सम्बन्धी विधानों का इतिहास और अभिप्राय विनय पिटक में भी मिल जाता है। राजगृह नगर में सतरह बालक परस्पर मित्र थे। उपालि उन सबमें वया था। एक दिन उपालि के माता-पिता सोचने लगे, उपालि को किस मार्ग पर लगाना चाहिए, जिससे हमारी मृत्यु के बाद भी वह सुखी बना रहे। पहले उन्होंने सोचा, यदि लेखा व जाये तो वह सदा सुखी रह सकेगा। फिर उनके मन में आया, लेखा सीखने में तो उसकी अँगुलियाँ दुखेंगी। इस प्रकार अनेक विकल्प सोचे, पर, कोई भी विकल्प निरापद नहीं लगा। अन्त में सोचा. ये शाक्यपत्रीय श्रमण सख ही सख में रहते हैं। ये अच्छा भोजन को अच्छे निवासों में रहते हैं। क्यों न उपालि भिक्षु बन कर इनके साथ रहे ? हम मर भी जायेंगे, तो यह तो सदा सुखी ही रहेगा। उपालि भी एक ओर बैठा इस वार्तालाप को सुन रहा था। वह तत्काल अपनी मित्रमण्डली में गया और बोला-'आओ आर्यो ! हम सब शाक्यपुत्रीय श्रमणों के पास प्रवजित हो, सदा के लिए सुखी हो जायें।' सब सहमत हो गये। अन्त में माता-पिताओं ने भी सबकी समान रुचि देख कर सहर्ष उन्हें दीक्षित होने की आज्ञा दी। वे भिक्षओं के पास आये और दीक्षित हो गये। दिन में वे सुख से रहते। रात को सवेरा होने से पूर्व ही भूख से व्याकुल हो कर वे रोते व कहते-'खिचड़ी दो ! भात दो ! खाना दो !' तब भिक्षु ऐसा कहते थे—'ठहरो आवुसो ! सबेरा होते ही यवागू (पतली खिचड़ी या दलिया) हो तो पीना, भात हो तो खाना, रोटी हो तो भोजन करना। यह सब न हो, तो भिक्षा करके खाना।' इस प्रकार भिक्षु उन्हें समझाते, पर, भूख की क्या दवा ? वे तिलमिलाते और बिस्तरों पर इधर-उधर लुढ़कते। १. भगवती सूत्र, श० ५, उ०४। २. वही, शतक ८, उ० १० । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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