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नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है। वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है। भाष्य-युग की शृंखला में एक नव्य प्रयोग है। राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती”-अनुयोग है।।
वाचना-प्रमुख आचार्य तुलसी
विआहपण्णत्ती (खण्ड-३)
संपादक : भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ
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www.jaineltarary org
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भगवई
भगवान् महावीर (ईस्वी पूर्व ५९९-५२७) की वाणी द्वादशांगी में संकलित है। उस द्वादशांगी के पांचवें अंग का नाम है-विआहपण्णत्ती जो 'भगवती सूत्र' के नाम से सुप्रसिद्ध है। जैन साहित्य में तत्त्वज्ञान की दृष्टि से भगवती को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त हुआ है। इसमें दर्शनशास्त्र, आचारशास्त्र, जीवविद्या, लोक-विद्या, सृष्टिविद्या, परामनोविज्ञान आदि अनेक विषयों का समावेश है। प्रस्तुत खंड में चार शतकों (८ से ११) के मूलपाठ, संस्कृत छाया तथा हिन्दी अनुवाद का प्रकाशन विस्तृत भाष्य के साथ हुआ है। साथ में अभयदेवसूरि-कृत वृत्ति भी प्रकाशित है। आठवां शतक सृष्टिवाद, ज्ञान, परामनो-विज्ञान और कर्मवाद आदि अनेक सिद्धांतों का सूत्रात्मक शैली में लिखा हुआ महाभाष्य है। नौवां शतक में भूगोल, खगोल, तत्त्वचर्चा अहिंसा दर्शन और जीवन-वृत्त इन सबका समाहार हुआ है। दसवां शतक में दिशा, शरीर, ईर्यापथिकी क्रिया, अट्ठाईस द्वीप, देवों के शिष्टाचार के अतिरिक्त त्रायस्त्रिंश देवों की उत्पत्ति का वर्णन बहुत ही रसप्रद और मननीय है। ग्यारहवां शतक के प्रथम आठ उद्देशक वनस्पति से संबद्ध हैं। इस शतक में शिव राजर्षि के विभंगज्ञान का उल्लेख, सात द्वीप और सात समुद्र की स्थापना और उसका प्रतिवाद एक रोचक घटना है। सुदर्शन श्रेष्ठी के प्रश्न और भगवान महावीर के द्वारा उनका समाधान एक नई शैली में प्रस्तुत किया गया है। प्रस्तुत ग्रंथ को समग्र दृष्टि से भारतीय दार्शनिक वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ कहा जा सकता है।
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भगवई
विआहपण्णत्ती
(खण्ड-३)
( शतक - ८, ९, १०, ११)
(मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य तथा अभयदेवसूरिकृत वृत्ति एवं परिशिष्ट - शब्दानुक्रम आदि सहित )
वाचना- प्रमुख : आचार्य तुलसी
मोक्खो
लाडनूं -
भरती लाडनू
जैन विश्व भारती
- ३४१ ३०६ ( राजस्थान)
संपादक / भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ
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प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं - ३४१ ३०६ (राज.)
© जैन विश्व भारती, लाडनूं
सौजन्य : पूज्य पिताजी स्व. प्रवीणचंद्र रूपचंद वकील की पुण्य स्मृति में तथा पूज्य माताजी
जयाबेन प्रवीणचंद्र वकील के जन्म दिवस के उपलक्ष में उनकी सुपुत्री निशिताजवाहर जवेरी एवं मीना-हर्षद शाह (मुंबई)
प्रथम संस्करण : ६ नवम्बर २००५
पृष्ठ संख्या : ५७५+२०५९५
मूल्य : ५००/- (पांच सौ रुपया मात्र)
टाईप सेटिंग : सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट
मुद्रक : कला भारती, नवीन शाहदरा, दिल्ली-३२
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BHAGAWAI VIĀHAPAŅŅATTI
[ Volume - III ] (Śataka 8, 9, 10, 11)
(Prakrit Text, Sanskrit Renderings, Hindi Translation and Bhāşya [Critical Annotations] with Vịtti of Abhayadevasūri and Appendices-Indices etc.)
Synod-chief (Vāchanā-pramukha) ACHARYA TULSI
Editor and Annotator (Bhāșyakāra)
ACHARYA MAHAPRAJNA
विज्जाको
EEN
JAIN VISHVA BHARATI Ladnun - 341 306 (Rajasthan) INDIA
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Publishers : Jain Vishva Bharati Ladnun- 341 306 (Raj.)
© Jain Vishva Bharati, Ladnun
Courtsey: Nishita-Javahar Zaveri and Mina-Harshad Shah (Mumbai) in
the memory of his respectable father Late Pravinchandra Vakil and on the eve of the birth-day of his respectable Mother Jayaben Pravinchandra Vakil.
First Edition : 6 November 2005
Pages : 575+20=595
Price: Rs. 500/
Type Setting : Sarvottam Print & Art
Printed by : Kala Bharati, Naveen Shahdara, Delhi-32
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समर्पण
।।१।।
पुट्ठो वि पण्णा-पुरिसो सुदक्खो, आणा-पहाणो जणि जस्स निच्चं । सच्चप्पओगे पवरासयस्स, भिक्खुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।।
जिसका प्रज्ञा-पुरुष पुष्ट पटु, होकर भी आगम-प्रधान था। सत्य-योग में प्रवर चित्त था, उसी भिक्षु को विमल भाव से।।
।।२।।
विलोडियं आगमदुद्धमेव, लद्धं सुलद्धं णवणीयमच्छं। सज्झायसज्झाणरयस्स निच्चं, जयस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।।
जिसने आगम-दोहन कर कर, पाया प्रवर प्रचुर नवनीत । श्रुत-सद्ध्यान लीन चिर चिंतन. जयाचार्य को विमल भाव से।।
।।३।।
पवाहिया जेण सुयस्स धारा, गणे समत्थे मम माणसे वि। जो हेउभूओ स्स पवायणस्स, कालुस्स तस्स प्पणिहाणपुव्वं ।।
जिसने श्रुत की धार बहाई, सकल संघ में, मेरे में। हेतुभूत श्रुत-सम्पादन में, कालुगणी को विमल भाव से।।
विनयावनत आचार्य तुलसी
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भगवती भाष्य
वन्दना
वाणी - वन्दना
सत्य की अभिव्यक्ति में अक्षर सहज अक्षर बना । वन्दना उस आप्त वाणी की करें पुलकितमना । भारती कैवल्य पथ से अवतरित अधिगम्य है । सुचिर-संचित तम विदारक रम्य और प्रणम्य है ।।
वीर वन्दना
पुरुष के पुरुषार्थ का अधिकृत प्रवक्ता जो रहा । चेतना-निष्णात हो जो कुछ हुआ सबको सहा । समन्वय का सूत्र सम्यग् दृष्टि का पहला चरण । वीर प्रभु के चरण-चिह्नों का करें हम अनुसरण ।।
भिक्षु-वन्दना
अगम-आगम के पदों का काव्य था जिसने लिखा सहज प्रज्ञा से अपथ का पंथ था जिसको दिखा | भिक्षु का वर मार्गदर्शन भाग्य से उपलब्ध है । सूत्र - सम्पादन नियति का वह बना प्रारब्ध है ।।
जय कालु-वन्दना
सुचिर पोषित आप्त-वाङ्मय - धेनु का दोहन किया मुनिपजय ने भिक्षुगण में प्रवर सूर्योदय किया । उदय की इस उर्वरा का बीज हर आलेख है । पूज्य कालू के सुचिन्तन का नया अभिलेख है ।
वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी - वन्दना नित नया उन्मेष जिस मस्तिष्क का संधान है । वाचना के प्रमुख तुलसी का सकल अनुदान है । भाष्य-युग की श्रृंखला में एक नव्य प्रयोग है । राष्ट्रभाषा में विनिर्मित “भगवती" - अनुयोग है ।।
विनयावनत
आचार्य महाप्रज्ञ
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अन्तस्तोष अन्तस्तोष अनिर्वचनीय होता है उस माली का जो अपने हाथों से उप्स और सिञ्चित द्रुम-निकुञ्ज को पल्लवित, पुष्पित और फलित हुआ देखता है, उस कलाकार का जो अपनी तूलिका से निराकार को साकार हुआ देखता है और उस कल्पनाकार का जो अपनी कल्पना को अपने प्रयत्नों से प्राणवान् बना देखता है । चिरकाल से मेरा मन इस कल्पना से भरा था कि जैन-आगमों का शोध-पूर्ण सम्पादन हो और मेरे जीवन के बहुश्रमी क्षण उसमें लगे । संकल्प फलवान् बना और वैसा ही हुआ । मुझे केन्द्र मान मेरा धर्म-परिवार उस कार्य में संलग्न हो गया । अतः मेरे इस अन्तस्तोष में मैं उन सबको समभागी बनाना चाहता है, जो इस प्रवृत्ति में संविभागी रहे हैं। संक्षेप में वह संविभाग इस प्रकार है
संपादक : भाष्यकार
आचार्य महाप्रज्ञ श्रुतलेखन, सम्पादन एवं अनुवाद सहयोगी
मुनि धनंजय कुमार संस्कृत छाया
युवाचार्य महाश्रमण सहयोगी संस्कृत छाया
मुनि विमल कुमार सहयोगी सम्पादन भाष्य
मुनि वीरेन्द्र कुमार वीक्षा-समीक्षा
मुनि हीरालाल संविभाग हमारा धर्म है । जिन-जिनने गुरुतर प्रवृत्ति में उन्मुक्त भाव से अपना संविभाग समर्पित किया है, उन सबको मैं आशीर्वाद देता हूं और कामना करता हूं कि उनका भविष्य इस महान कार्य का भविष्य बने ।
-आचार्य तुलसी
,
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सम्पादकीय
भगवई विआहपण्णत्ती का तृतीय खंड पाठक के सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इसके सम्पूर्ण मूलपाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग २ में हो चुका है। हमने जो सम्पादन-शैली स्वीकृत की है, उसमें पाठ-शोधन और अर्थ-बोध दोनों समवेत हैं। अर्थ बोध के लिए शुद्ध पाठ अपेक्षित है और पाठ शुद्धि के लिए अर्थ-बोध अनिवार्य है।
प्रस्तुत संस्करण अर्थ-बोध कराने वाला है। इसमें मूल पाठ के अतिरिक्त संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और सूत्रों का हिन्दी भाष्य समवेत है। पाठ-सम्पादन का काम जटिल है। अर्थ-बोध का काम उससे कहीं अधिक जटिल है। कथा-भाग और वर्णन-भाग में तात्पर्य-बोध की जटिलता नहीं है। किन्तु तत्त्व और सिद्धांत का खण्ड बहुत गंभीर अर्थ वाला है। उसकी स्पष्टता के लिए हमारे सामने दो आधारभूत ग्रंथ रहे हैं
१. अभयदेव सूरिकृत वृत्ति-इसे अभयदेवसूरि ने स्वयं विवरण ही माना है और उसे पढ़ने पर वह विवरण-ग्रंथ का बोध ही कराता है, व्याख्या-ग्रंथ का बोध नहीं देता।
२. भगवती जोड़-इसमें श्रीमज्जयाचार्य ने अभयदेवसूरि की वृत्ति का पूरा उपयोग किया है। 'धर्मसी का टबा' का भी अनेक स्थलों पर उपयोग किया है। इसके अतिरिक्त आगम और अपने तत्त्वज्ञान के आधार पर अनेक समीक्षात्मक वार्तिक लिखे हैं।
हमने भाष्य के लिए आगम-सूत्रों, श्वेताम्बर-दिगम्बर परम्परा का ग्रंथ साहित्य, वैदिक और बौद्ध परंपरा के अनेक ग्रंथों का उपयोग किया है। 'आयारो' का भाष्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। भगवती का भाष्य हिन्दी में लिखा गया है। ठाणं, सूयगडो आदि की सम्पादन-शैली यह रही-मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-अनुवाद तथा स्थान और अध्ययन की समाप्ति पर टिप्पण अथवा भाष्य। भगवती की संपादन शैली में एक नया प्रयोग किया गया है-प्रत्येक सत्र अथवा प्रत्येक आलापक (प्रकरण) के साथ भाष्य की समायोजना है। अन्त में छह परिशिष्ट हैं
१. नामानुक्रम
(क) व्यक्ति और स्थान (ख) देवलोक-संबंधी (ग) पशु-पक्षी २. शब्द एवं शब्द-विमर्शानुक्रम ३. भाष्यविषयानुक्रम
४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति-शतक आठ से ग्यारह ६. आधारभूत ग्रंथ-सूची। प्रत्येक शतक के पहले एक आमुख है। पाद-टिप्पण में संदर्भ वाक्य उद्धृत हैं। उपलब्ध आगम-साहित्य में 'भगवती सूत्र' सबसे बड़ा ग्रंथ है। तत्त्वज्ञान का अक्षयकोष है। इसके अतिरिक्त
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(xii)
इसमें प्राचीन इतिहास पर प्रकाश डालने वाले दुर्लभ सूत्र विद्यमान हैं। इस पर अनेक विद्वानों ने काम किया है। किन्तु जितने श्रम-बिन्दु झलकने चाहिए, उतने नहीं झलक रहे हैं, यह हमारा विनम्र अभिमत है। गुरुदेव तुलसी की भावना थी कि भगवती पर गहन अध्यवसाय के साथ कार्य होना चाहिए। हमने उस भावना को शिरोधार्य किया है और उसके अनुरूप फलश्रुति भी हुई है। इसका मूल्यांकन गहन अध्ययन करने वाले ही कर पाएंगे। हमारा यह निश्चित मत है कि सभी परम्पराओं के ग्रंथों के व्यापक अध्ययन और व्यापक दृष्टिकोण के बिना प्रस्तुत आगम के आशय को पकड़ना सरल नहीं है।
सहयोगानुभूति
जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चुकी हैं। देवगिणी के बाद कोई सुनियोजित आगम-वाचना नहीं हुई। उसके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए। उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह सफल नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि-समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने-आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ।
हमारी इस वाचना के प्रमुख आचार्यश्री तुलसी रहे हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन-कर्म के अनेक अंग हैं-पाठ का अनुसंधान. भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्ग-दर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त हुआ है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है।
प्रस्तुत ग्रंथ भगवती का सानुवाद और सभाष्य संस्करण है। प्रथम खण्ड में भगवती के प्रथम दो शतक व्याख्यात हैं। दूसरे खण्ड में तृतीय शतक से सप्लम शतक तक व्याख्यात हैं। तीसरे खण्ड में आठवें शतक से ग्यारहवां शतक तक व्याख्यात हैं। मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद, भाष्य और उनके संदर्भ-स्थल तथा परिशिष्ट ये सब प्रस्तुत संस्करण के परिकर हैं।
भाष्य के श्रुत लेखन, संपादन एवं अनुवाद में मुनि धनंजय कुमार मेरे सहयोगी रहे हैं। संस्कृत छाया का कार्य युवाचार्य महाश्रमण ने किया है। इस कार्य में मुनि विमलकुमारजी उनके सहयोगी रहे हैं। संपादन एवं भाष्य के कार्य में मुनि वीरेन्द्र कुमारजी का भी सहयोग रहा है। इसकी वीक्षा समीक्षा, परिशिष्ट निर्माण, प्रूफरीडिंग आदि में मुनि हीरालालजी ने बहुत श्रम किया है। मुनि दिनेशकुमारजी, मुनि योगेश कुमार जी ने परिशिष्ट निर्माण, प्रूफरीडिंग आदि में तन्मयता से कार्य किया है। पाण्डुलिपि लेखन में अनेक समणियों ने निष्ठापूर्वक श्रम किया है।
प्रस्तुत ग्रंथ के सम्पादन में अनेक साधु-साध्वियों का योग है। गुरुदेव के वरद हस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले हम सब संभागी हैं। फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता है, जिनका इस कार्य में स्पर्श हुआ है।
-आचार्य महाप्रज्ञ
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प्रकाशकीय
मुझे यह लिखते हए अत्यंत हर्ष हो रहा है कि जैन विश्व भारती' द्वारा आगम-प्रकाशन के क्षेत्र में जो कार्य संपन्न हुआ है, वह मूर्धन्य विद्वानों द्वारा स्तुत्य और बहुमूल्य बताया गया है।
हम बत्तीस आगमों का पाठान्तर शब्दसूची तथा 'जाव' की पूर्ति से संयुक्त सुसंपादित मूलपाठ प्रकाशित कर चुके हैं। उसके साथ-साथ आगम-ग्रंथों का मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं प्राचीनतम व्याख्या-सामग्री के आधार पर सूक्ष्म ऊहपोह के साथ लिखित विस्तृत मौलिक टिप्पणों से मंडित संस्करण प्रकाशित करने की योजना भी चलती रही है। इस श्रंखला में आठ ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं
१. दसवेआलियं ५. समवाओ २. उत्तरज्झयणाणि ६. नंदी ३. सूयगडो
७. अनुओगदाराई ४. ठाणं
८. नायाधम्मकहाओ आयारो पर संस्कृत में आचारांग-भाष्यम् भी प्रकाशित हो चुका है।
प्रस्तुत आगम भगवई विआहपण्णत्ती इसी शृंखला का महत्त्वपूर्ण आगम है। बहुश्रुत वाचना-प्रमुख आचार्यश्री तुलसी एवं अप्रतिम विद्वान् संपादक-भाष्यकार आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने जो श्रम किया है, वह ग्रंथ के अवलोकन से स्वयं स्पष्ट होगा।
भगवई विआहपण्णत्ती खण्ड १ में प्रथम दो शतकों का प्रकाशन भाष्य-सहित सन् १९९४ में हो चुका है। सन् २००० में प्रकाशित द्वितीय खंड में तीसरे से सातवें शतक तक का समावेश है। प्रस्तुत ततीय खंड में आठवें से ग्यारहवें शतक तक की सभाष्य प्रस्तुति है।
श्रद्धेय युवाचार्यश्री महाश्रमण के अतिरिक्त मुनिश्री हीरालालजी, मुनिश्री विमलकुमारजी, मुनि धनंजय कुमारजी, मुनि दिनेश कुमारजी, मुनि वीरेन्द्र कुमारजी और मुनि योगेश कुमारजी ने इसे सुसज्जित करने में अनवरत श्रम किया है। ग्रंथ की पाण्डुलिपि तैयार करने में आदरणीय समणीवन्द का बहत सहयोग रहा है। इसकी कंपोजिंग में सर्वोत्तम प्रिण्ट एण्ड आर्ट के श्री किशन जैन एवं श्री प्रमोद प्रसाद का योग रहा है।
ऐसे सुसम्पादित आगम ग्रंथ को प्रकाशित करने का सौभाग्य जैन विश्व भारती को प्राप्त हुआ है। आशा है पूर्व प्रकाशनों की तरह यह प्रकाशन भी विद्वानों की दृष्टि में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।
२० अक्टूबर २००५ नई दिल्ली
सिद्धराज भंडारी अध्यक्ष, जैन विश्व भारती, लाडनूं
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संकेत-निदेशिका
अणु.-अणुओगदाराई अनु.-अनुयोगद्वार अनु. वृ.-अनुयोगद्वार वृत्ति आ. चू.-आयार चूला आ. नि.-आवश्यक नियुक्ति
नंदी, मवृ. नंदी मलयगिरीयावृत्ति नंदी. हा. वृ.-नंदी हारिभद्रीय वृत्ति नाया. नायाधम्मकहाओ नि. भा.-निशीथ भाष्य
नि. भा. चू.-निशीथ भाष्य चूर्णि दस/दसवे.-दसवेआलियं
आप्टे-Apte's Sanskrit English Dictionary
आव.--आवश्यक
पज्जो.-पज्जोवसणाकप्पो
पण्ण.-पण्णवणा
प्रज्ञा. वृ.-प्रज्ञापना वृत्ति
आव.चू.-आवश्यक चूर्णि आव. नि. दीपिका-आवश्यक नियुक्ति दीपिका आव. वृ.-आवश्यक वृत्ति आ. हा. वृ.-आचारांग हारिभद्रीय वृत्ति उत्तर.-उत्तरज्झयणाणि
प्र. सा.-प्रवचनसार
बृ. क. भा.-बृहत्कल्प भाष्य
भ.-भगवती
उत्तर. नि.-उत्तराध्ययन नियुक्ति
ओव.-ओववाइयं
भ. जो.-भगवती जोड़ भ. वृ.-भगवती वृत्ति मनु.-मनुस्मृति राय.-रायपसेणइयं
औप. वृ.-औपपातिक वृत्ति गो.-गोम्मटसार
जीवा.-जीवाजीवाभिगमे
व्य.भा.-व्यवहारभाष्य
जै. सि. को.-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश
वव.-ववहारो
ज्ञाता. वृ.-ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति त. भा.-तत्त्वार्थ भाष्य
त. रा. वा.-तत्त्वार्थ राज वार्तिक
त. सू.-तत्त्वार्थ सूत्र
वि. भा.-विशेषावश्यक भाष्य वै. सू.-वैशेषिक सूत्र ष. ख.-षट्खण्डागम सम.-समवाओ सूत्र. चू.-सूत्रकृतांग चूर्णि सूय.-सूयगडो स्था. वृ.-स्थानांग वृत्ति
त.सू. भा.-तत्त्वार्थ सूत्राधिगम भाष्य
त. सू. भा. वृ.-तत्त्वार्थ सूत्राधिगम भाष्य वृत्ति ति.प.-तिलोय पण्णत्ति
नंदी चू.-नंदी चूर्णि
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अ. -अध्ययन
उ.- उद्देशक
ख. - खण्ड
गा. -गाथा
प. - पत्र
पु. - पुस्तक
(xvi)
पू. पूर्ति स्थल
पृ. पृष्ठ
(भा.)-भाष्य
भा.- भाग
सू. सूत्र
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विषयानुक्रम
आठवां शतक
सूत्र
पृष्ठ आमुख
३-४ प्रथम उद्देशक
संग्रहणी गाथा
पुद्गल परिणति पद २-१७ प्रयोग परिणति पद १८-२६ पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा
प्रयोग परिणति पद २७-३१ शरीर की अपेक्षा प्रयोग ११-१३
परिणति पद ३२-३४ इन्द्रिय की अपेक्षा प्रयोग परिणति १३
पद
शरीर और इन्द्रिय की अपेक्षा १४ प्रयोग परिणति पद वर्ण आदि की अपेक्षा प्रयोग १४ परिणति पद शरीर और वर्ण आदि की अपेक्षा १५ प्रयोग परिणति पद इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा १५ प्रयोग परिणति पद शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की १६ अपेक्षा प्रयोग परिणति पद मिश्र परिणति पद विरसा परिणति पद एक द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल १८ परिणति पद प्रयोग परिणति पद मन प्रयोग परिणति पद वचन प्रयोग परिणति पद काय प्रयोग परिणति पद २०-२४ मिश्र परिणति पद
२४-२५ विरसा परिणति पद
२५
सूत्र
पृष्ठ ७३-७८ दो द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल
परिणति पद ७९-८१ तीन द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल २७-२८
परिणति पद ८२-८४ चार द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल । २८-३१
परिणति पद दूसरा उद्देशक ८६-९५ आशीविष पद
३२-३६ छद्मस्थ केवली पद
३६-३७ ९७-१०३ ज्ञान पद
३७-४० १०४-११० जीवों का ज्ञानित्व-अज्ञानित्व पद। ४०-४२ १११-११४ अंतरालगति की अपेक्षा ११५-११७ इंद्रिय की अपेक्षा ११८-११९ काय की अपेक्षा
४४-४५ १२०-१२२ सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा
४५ १२३-१३० पर्याप्त-अपर्याप्त की अपेक्षा १३१-१३४ भवस्थ की अपेक्षा १३५-१३७ भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक की १७
अपेक्षा १३८ संज्ञी असंज्ञी की अपेक्षा
४७ १३९-१४६ लब्धि पद
४७-५० १४७-१५८ ज्ञान लब्धि की अपेक्षा ज्ञानित्व ५०-५२
अज्ञानित्व पद १५९-१६० दर्शन की अपेक्षा १६१-१६२ चरित्र की अपेक्षा १६३ चारित्राचारित्र की अपेक्षा १६४ दान आदि की अपेक्षा
बाल आदि वीर्य की अपेक्षा १६६-१७१ इंद्रिय की अपेक्षा
५५.५६ १७२-१७५ जीवों का ज्ञानित्व-अज्ञानित्व पद ५६-५७ १७६ योग की अपेक्षा १७७-१७८ लेश्या की अपेक्षा
४०-४१
५४ ५४
४५-४७ ४८ ४९-६४
१९
६७-७२
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________________
(xviii)
सूत्र
पृष्ठ
सूत्र
पृष्ठ १७९-१८० कषाय की अपेक्षा
आठवां उद्देशक वेद की अपेक्षा २९५-३०० प्रत्यनीक पद
११२-११४ १८२.१८३ आहारक की अपेक्षा
३०१ पांच व्यवहार पद
११४-११८ १८४-१९१ ज्ञान का विषय पद
५९-६८ ३०२ बंध पद १९२-१९९ ज्ञानी का संस्थिति पद ६९-७० ३०३-३०८ ऐर्यापथिक बंध पद
११९.१२१ २००-२०४ ज्ञानी का अंतर पद ७१-७२ ३०९-३१४ सांपरायिक बंध पद
१२१-१२६ २०५-२०७ ज्ञानी का अल्प-बहुत्व पद ७२-७३ ३१५-३२८ कर्म प्रकृतियों में परीषह समवतार पद १२६-१३० २०८-२११ ज्ञानपर्यव पद
३२९-३३९ सूर्य पद
१३०-१३३ २१२-२१४ ज्ञानपर्यवों का अल्प-बहुत्व पद
३४०-३४४ ज्योतिष्कों का उपपत्ति पद १३३ तीसरा उद्देशक
नौवां उद्देशक २१६-२२१ वनस्पति पद ७६-७९ ३४५ बंध पद
१३४ २२२-२२३ जीव प्रदेशों का अन्तर पद। ७९-८० ३४६-३५३ विस्रसा बंध पद
१३४-१३७ २२४-२२७ चरम-अचरम पद ८० ३५४ प्रयोग बंध पद
१३८ चौथा उद्देशक
३५५ आलापन की अपेक्षा ૨૨૮ क्रिया पद
३५६-३६२ आलीनकरण बंध की अपेक्षा १३९-१४१ पांचवां उद्देशक
३६३-३६५ शरीर की अपेक्षा
१४१-१४२ २३०-२४४ आजीवक के संदर्भ में
८२-९२
३६६ शरीर प्रयोग की अपेक्षा १४२-१४३ श्रमणोपासक पद
३६७-३८५ औदारिक शरीर प्रयोग की अपेक्षा १४३-१५० छट्ठा उद्देशक
३८६-४०४ वैक्रिय शरीर प्रयोग की अपेक्षा १५०-१५६ २४५-२४७ श्रमणोपासककृत दान का परिणाम ९३-९५ ४०५-४११ आहारक शरीर प्रयोग की अपेक्षा १५६-१५७ पद
४१२-४१८ तैजस शरीर प्रयोग की अपेक्षा १५७-१६० २४८-२५० उपनिमंत्रितपिण्डादि परिभोगविधि ९५-९६ ४१९-४३३ कर्म शरीर प्रयोग की अपेक्षा १६०-१६७ पद
४३४-४४८ प्रयोगबंध का देशबंध-सर्वबंध पद १६७-१७४ २५१-२५५ आलोचनाभिमुख का आराधक पद ९६-१०० दसवां उद्देशक २५६-२५७ ज्योति-ज्वलन पद १०० ४४९-४५० श्रुतशील पद
१७५-१७६ २५८-२६९ क्रिया पद १०१-१०३ ४५१-४६६ आराधना पद
१७७-१८१ सातवां उद्देशक
४६७-४६९ पुद्गल परिणाम पद १८१-१८२ २७१-२८४ अन्ययूथिक-संवाद पद
१०४-१०८ ४७०-४७४ पुद्गलप्रदेश का द्रव्यादि भंग पद १८२-१८४ अदत्त की अपेक्षा ४७५-४७६ प्रदेश परिमाण पद
१८४ २८५-२९० हिंसा की अपेक्षा
१०८-१०९ ४७७-४८४ कर्मों का अविभाग परिच्छेद पद १८५-१८७ २९१-२९३ गम्यमान गत की अपेक्षा १०९.१११ ४८५-४९८ कर्मों का परस्पर नियम-भजना पद १८७-१९०
४९९-५०३ पुद्गली पुद्गल पद
१९०-१९१
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(xix)
नौवां शतक
पृष्ठ
सूत्र
पृष्ठ २६१-२६२ २६२-२६३ २६४-२६५ २६५.२६८ २६८-२६९
२७०-२८१
२८१-३२३
आमुख
१९५-१९६ १२० सांतर-निरंतर उपपन्न आदि पद संग्रहणी गाथा
१९७ १२१-१२२ सत् असत् उपपन्न आदि पद पहला उद्देशक
१२३-१२४ स्वतः अथवा परतः ज्ञान पद १-२ जम्बूद्वीप पद
१२५-१३२ स्वतः परतः उपपन्न पद दूसरा उद्देशक
१३३-१३६ गांगेय का संबोधि-पद ज्योतिष पद
१९८-१९९ तेत्तीसवां उद्देशक ३.३० उद्देशक
१३७-१५५ ऋषभदत्त देवानंदा पद ७-८ अन्तर्वीप पद
२०० १५६-२४५ जमालि पद तेतीसवां उद्देशक
चौतीसवां उद्देशक ९.५१ अश्रुत्वा-उपलब्धि पद २०१-२१८ २४६-२४८ एक के वध में अनेक वध पद ५२-७६ श्रुत्वा-उपलब्धि पद २१८-२२५ २४९-२५० ऋषि के वध में अनंत वध पद बत्तीसवां उद्देशक
२५१-२५२ वैर बंध पद ७७-७८ पापित्यीय गांगेय प्रश्न पद २२६ २५३-२५७ पृथ्वीकायिक आदि का आन- ७९-८५ सांतर-निरन्तर उपपन्न आदि पद २२६-२२७
पान पद ८६-११९ प्रवेशन पद
२२७-२६१ २५८-२६३ क्रिया पद
दसवां शतक
३२४ ३२५ ३२५-३२६ ३२६-३२७
३२७-३२८
सूत्र आमुख पहला उद्देशक
पृष्ठ ३३१-३३२
सूत्र २४-३८
देवों का विनयविधि पद अश्व का 'खु-खु करण पद प्रज्ञापनी भाषा पद
पृष्ठ ३४३-३४५ ३४५ ३४५-३४६
३३३
तावत्त्रिंशक देव पद
३४७-३५२
८-१० दूसरा उद्देशक ११-१४ १५ १६-१७
संग्रहणी गाथा
४०-४१ दिशा पद
३३३.३३६ चतुर्थ उद्देशक शरीर पद
४२-६३
पांचवां उद्देशक संवृत का क्रिया पद ३३७-३३९ ६४-९८ योनि पद
३३९ वेदना पद
छट्ठा उद्देशक भिक्षु प्रतिमा पद
३४० ९९ अकृत्य-स्थान-प्रतिसेवन पद ३४०-३४१ ।
१००-१०१
७-३४ उद्देशक आत्मर्धिक-परर्धिक व्यतिव्रजन ३४२
१०२-१०३
देवों का अंतःपुर के साथ दिव्य- ३५३-३६१ भोग पद
सुधर्मा सभा पद शुक्र पद
३६२ ३६२
१९-२२ तृतीय उद्देशक २३
अन्तरद्वीप पद
३६३
पद
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सूत्र
आमुख
१-४१
४२-४३
४४-४६
४७-४८
४९-५०
५१-५२
५३-५४
५५-५६
५७-८९
तीसरा उद्देशक
चौथा उद्देशक
पांचवां उद्देशक
संग्रहणी गाथा
पहला उद्देशक
उत्पल जीवों का उपपात आदि पद ३६९-३८१ दूसरा उद्देशक
शालु आदि जीवों का उपपात आदि ३८२
पद
छट्ठा उद्देशक
सातवां उद्देशक
आठवां उद्देशक
नौवां उद्देशक
शिवराजर्षि पद
( xx )
ग्यारहवां शतक
पृष्ठ सूत्र
३६७-३६८
३६९
३८३
३८४
३८५
३८६
३८७
३८८
३८९-४०३
(ग) पशु-पक्षी
२. शब्दार्थ एवं शब्द - विमर्शानुक्रम
१. नामानुक्रम - (क) व्यक्ति और स्थान
(ख) देव
३. भाष्य - विषयानुक्रम
४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम
दसवां उद्देशक
क्षेत्रलोक पद
लोकसंस्थान पद
अलोकसंस्थान पद
लोक अलोक जीव- अजीव
मार्गणा पद
लोक का परिमाण पद
अलोक का परिमाण-पद
लोकाकाश में जीव प्रदेश पद
ग्यारहवां उद्देशक
११५-१७३ सुदर्शन श्रेष्ठी पद
बारहवां उद्देश
९०-९७
९८
९९
१००-१०८
१०९
११०
१११-११३
१७४-१८५
१८६-१९९
परिशिष्ट
५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति - शतक ८, ९, १०, ११
६. आधारभूत ग्रंथ सूची
ऋषिभद्रपुत्र पद
पुद्गल परिव्राजक पद
पृष्ठ
४५५-४५७
४५८-४६२
४६३-४६४
४६५-४६८
४६९-४७२
४७३-४८०
४८१-५६८
५६९-५७५
पृष्ठ
४०४-४०६
४०६
४०६
४०७-४१०
४१०-४११
४११-४१३
४१४-४१५
४१६-४४१
४४२-४४६
४४६-४५१
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अट्ठमं सयं
आठवां शतक
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आमुख
आठवां शतक सृष्टिवाद, ज्ञान, परामनोविज्ञान और कर्मवाद आदि अनेक सिद्धांतों का सूत्रात्मक शैली में लिखा हुआ महाभाष्य है। जैन दृष्टि से सृष्टि के विषय में आगम साहित्य के आधार पर बहुत कम चिंतन हुआ है। दार्शनिक जगत् में उसकी अभिव्यक्ति भी बहुत कम हुई है। जैन सृष्टि का मौलिक सूत्र है अनेकांतवाद। उसके अनुसार प्रत्येक द्रव्य नित्यानित्य, परिणामीनित्य है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय-ये पांच मूल द्रव्य हैं। इनका एक परमाणु नए सिरे से उत्पन्न नहीं होता और विनष्ट नहीं होता। इनमें परिणमन होता रहता है। वह परिणमन अनित्य है। जैन सृष्टि की व्याख्या का मूल आधार परिणमन अथवा पर्याय है। सर्वथा असत् से सत् की सृष्टि हुई-यह सिद्धांत मान्य नहीं है। सत् से सत् की सृष्टि होती है। मूल द्रव्य सत् है। पर्याय परिवर्तित होते रहते हैं। नए पर्याय के उत्पन्न होने पर पूर्व पर्याय असत् बन जाता है। इस प्रकार पर्याय वर्तमान काल में सत् रहता है। अतीत और अनागत की अपेक्षा वह असत् होता है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय-इन तीन द्रव्यों का जगत् सदा अव्यक्त रहता है। इनमें सूक्ष्म और एक समयवर्ती पर्यायगत परिवर्तन नहीं होता-व्यंजन पर्याय नहीं होता।
जीव और पुद्गल का जगत् व्यक्त है। इनमें स्थूल और दीर्घकालिक पर्यायगत परिवर्तन होता है इसलिए दृश्य सृष्टि जीव और पुद्गलकृत
परिणमन का चक्र निरंतर चलता है। उसके तीन हेतु हैं-प्रयोग, मिश्र और स्वभाव । पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति की सृष्टि जीव के प्रयोग से होती है इसलिए यह प्रयोगकृत परिणमन से होने वाली सृष्टि है।
सृष्टि के विकास की संकल्पना केवल इस पृथ्वी के आधार पर नहीं होगी, जिस पृथ्वी पर हम रह रहे हैं। पृथ्वीकायिक जीव अपने शरीर का निर्माण करते हैं। उसका स्वरूप बदलता रहता है किन्तु सर्वथा अभाव नहीं होता। जलकायिक जीव जल का निर्माण करते हैं। उसके लिए भी वातावरण की अनुकूलता अपेक्षित रहती है। एकांत स्निग्ध और एकांत रूक्ष काल में अग्नि उत्पन्न नहीं होती। स्निग्ध और रूक्ष का संतुलन होने पर उसकी उत्पत्ति होती है। सृष्टि के आधारभूत सूत्रों को समझने के लिए जीव और पुद्गल के प्रयत्नों को समझना आवश्यक है।
ईश्वरवाद के द्वारा सृष्टि की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। सृष्टि के वैचित्र्य की व्याख्या में ईश्वर की सर्वज्ञता, सर्वशक्तिसम्पन्नता और वीतरागता का दर्शन नहीं होता। परिणमनवाद के आधार पर सृष्टि के वैचित्र्य की सम्यक् व्याख्या की जा सकती है। जीव अपने प्रयत्न से नाना रूपों में परिणत होता है। उस नानात्व में पुद्गल सहयोगी बनता है। एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक की जीव जातियां अपने-अपने शरीर का निर्माण करती हैं। सृष्टि का एक बड़ा भाग जीवच्छरीर है। वनस्पति जगत् से लेकर मनुष्य तक के सभी छोटे-मोटे प्राणी जन्म लेते हैं, नए शरीर को धारण करते हैं, मरते हैं, पुराने शरीर को छोड़ देते हैं। छोड़ा हुआ शरीर अथवा जीवमुक्त शरीर सृष्टि की विचित्रता का दूसरा बड़ा भाग है। शरीर की रचना, इन्द्रियों की रचना, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की रचना जीव स्वयं अपने अनाभोग वीर्य से करता है।
परमाणु का जगत् भी बहुत विशाल है। वे अपने स्वभाव से नानारूपों में परिणत होते रहते हैं। उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का परिवर्तन तथा वर्ण आदि में गुणात्मक परिवर्तन होते रहते हैं।
प्रायोगिक परिणमन में कार्य-कारण का सिद्धांत लागू होता है। स्वाभाविक परिणमन में कार्य-कारण का नियम लागू नहीं होता। अनेकांत दर्शन में प्रत्येक घटना के साथ कार्य-कारण की अनिवार्यता नहीं है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानता है। ईश्वर कर्तृत्व के विषय में पूर्व पंक्तियों में संक्षिप्त विमर्श किया गया है। सृष्टिवाद के लिए द्रष्टव्य सूयगड़ो १/११-६५ का टिप्पण।
पश्चिमी दार्शनिकों ने सृष्टि-रचना और उसमें घटित होने वाली घटनाओं के विषय में यंत्रवाद और प्रयोजनवाद के अभ्युपगम प्रस्तुत किए हैं। क्या सृष्टि रचना का कोई प्रयोजन है अथवा वह प्रयोजन शून्य है? जर्मन दार्शनिक हेगेल प्रयोजनवादी हैं। वे प्रयोजन को आंतरिक मानते हैं। सृष्टि के विकास के नाना स्तरों पर उसका आभास होता है। यंत्रवादी दार्शनिकों का मत है-सृष्टि का विकास प्राकृतिक नियमों से होता है। प्रयोजन मानवीय मस्तिष्क का प्रत्यय है।
प्रस्तुत प्रकरण में अनेकांत दृष्टि से सृष्टि की व्याख्या की गई है। जगत् की समस्त घटनाओं की व्याख्या एकांत यंत्रवाद और एकांत प्रयोजनवाद से नहीं की जा सकती। परमाणु में होने वाले गुणात्मक परिवर्तन की व्याख्या स्वाभाविक परिणमन के आधार पर की जा सकती है। जीव समूह में होने वाले परिवर्तन की व्याख्या प्रायोगिक परिणमन अथवा आंतरिक प्रयोजन के आधार पर की जा सकती है।
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श.८ : आमुख
भगवई सूक्ष्म जीवों का अस्तित्व और उनमें ज्ञान की खोज जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। सूक्ष्म जीव संपूर्ण लोक में व्याप्त हैं। वे पृथ्वीकाय, अप्काय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय-इन पांच कायों के जीव समूह हैं। उन्हें इन्द्रियज्ञान और अनुमान से नहीं जाना जा सकता। इन्द्रिय ज्ञान और मानसिक ज्ञान के अनंत पर्यायों का सिद्धांत चेतना के असंख्य स्तरों को समझने के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह मनोविज्ञान की नई दिशा को उद्घाटित करने वाला सूत्र है। प्रयोग से होने वाली रचना (प्रयोग बंध) का विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। शरीर की रचना (शरीर बंध) और शरीर प्रयोग की रचना (शरीर प्रयोग बंध) परामनोविज्ञान की दृष्टि से बहत मननीय है।
सूत्र ३६९ में शरीर प्रयोग की रचना के हेतुओं का वर्गीकरण है। उससे ज्ञात होता है कि औदारिक शरीर के प्रयोग की रचना प्रारंभिक निर्वाचित कोशिका से ही नहीं होती। वह मात्र शरीर रचना का एक घटक तत्त्व है किंतु उसका हेतु नहीं है। औदारिक आदि शरीरों की रचना की वर्गणा (घटक तत्त्व) भिन्न-भिन्न है। औदारिक आदि शरीरों की कालावधि पर विशद रूप में विचार किया गया है। कर्म शरीर की रचना के हेतुओं पर विस्तृत विचार उपलब्ध है। उससे आचार-शास्त्र का भी गहरा संबंध है।'
प्रस्तुत शतक में तत्त्वविद्या के साथ कुछ ऐतिहासिक घटनाओं का भी संकलन है। आजीवकों का स्थविरों के पास आगमन और उनसे चर्चा, आजीवक के बारह श्रमणोपासकों का नामोल्लेख और उनके आचार का निरूपण आजीवक संप्रदाय के विधि-विधानों की जानकारी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। इस प्रसंग में एक उल्लेखनीय तथ्य की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होता है। उवासगदसाओ में श्रावक की आचार संहिता है। उसमें भी उदुम्बर, बड़, पीपल, कठूमर और पाकर आदि पांच फलों तथा प्याज, लहसुन, कंद-मूल आदि के वर्जन का उल्लेख नहीं है। उत्तरवर्ती ग्रंथों में इनक वर्जन पर अधिक बल दिया गया है। क्या उस पर आजीवक के आचार-शास्त्र का प्रभाव नहीं है? मनुस्मृति में भक्ष्य और अभक्ष्य का निरूपण है। उसमें ब्राह्मण के लिए लहसुन, प्याज आदि का निषेध है। इसके प्रभाव को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
अन्ययूथिकों के साथ भगवान महावीर के स्थविरों के संवाद का उल्लेख सातवें उद्देशक में है। भिन्न-भिन्न संप्रदाय के साधुओं का मिलन, वार्तालाप और प्रश्नोत्तर का क्रम सांप्रदायिक उदारता का सूचक है।
प्रस्तुत शतक में विभंगज्ञान का सूत्र ज्ञान मीमांसा की प्राचीन परम्परा का अवशेष है। आगम साहित्य में ज्ञान के संस्थानों का प्रज्ञापन था। उसका अनुमान इस अवशेष से होता है। नंदी सूत्र और उसकी चूर्णि में भी ज्ञान के संस्थानों का इतना स्पष्ट निर्देश नहीं है। षटखण्डागम में संस्थान का उल्लेख मिलता है। ये संस्थान हठयोग के चक्र को कोटि के हैं। इनके आधार पर अवधिज्ञान तथा मति श्रुत ज्ञान के संस्थानों की खोज का द्वार प्रशस्त होता है।
प्रस्तुत शतक में गतिप्रवाद' अध्ययन का उल्लेख है। इस नाम का कोई स्वतंत्र अध्ययन उपलब्ध नहीं है। प्रज्ञापना का सोलहवां पद प्रयोग पद है। उसका एक भाग गतिप्रवाद है। इस प्रकार प्रस्तुत शतक में तत्त्वविद्या के अनेक सूत्र, इतिहास के अनेक प्रसंग और ज्ञानराशि के प्रकीर्ण बिन्दु उपलब्ध होते हैं।
१.भ.८.१२०। २. उत्त, ३६ १०० सुहमा सव्वलोगंमि। ३.भ.८.२०८-२०१। ४. वही. ८४१९:४३३॥ ५.(क) सागार धर्मामृत २/१३। (ख) योगशास्त्र ३.४२-४३।
उदुम्बर वटप्लक्ष-काकोदुंबर शाखिनाम्। पिप्पलस्य च नाश्नीयात् फलं कृमि कुलाकुलम् ।।
अप्राप्नुवन्नन्यभक्ष्यमपि क्षामो बुभुक्षया।
न भक्षयति पुण्यात्मा, पंचोदुम्बरजं फलम्। ६.भ.८/२३०-२४२। ७. मनु. ५.५
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डु कवकानि च।
अभक्ष्याणि द्विजातीनाममध्यप्रभवाणि च॥ ८. भ.८/१०३। ..प्रजा. १६.१७-५५।
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मूल
संगहणी गाथा
१. पोग्गल २ आसीविस ३ रुक्ख ४. किरिय५. आजीव ६,७. फासुकमदत्ते । ८. पडिणीय ९. बंध १०. आराहणा य अमि सते॥१॥
दस
अट्टमं सयं : आठवां शतक
पढमो उद्देसो : प्रथम उद्देशक
संस्कृत छाया
संग्रहणी गाथा पुद्गलाशीविषरूक्ष- क्रिया
आजीवप्रासुकादत्तानि ।
प्रत्यनीकबन्धाराधनाश्च दशाष्टमे शते ॥ १ ॥
पोग्गलपरिणति-पदं
पुद्गलपरिणति-पदम्
१. रायगिहे जाव एवं वदासी - कतिविहा राजगृहे यावत् एवमवादीत् कतिविधाः णं भंते! पोग्गला पण्णत्ता?
गोयमा! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा - पयोगपरिणया, मीसा-परिणया, वीससापरिणया ||
भदन्त! पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! त्रिविधाः पुद्गलाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - प्रयोगपरिणताः, मिश्रपरिणताः, विस्रसापरिणताः ।
१. त. भा. वृ. ५/१७
'निर्वर्त्तको निमित्तं परिणामी च त्रिधेष्यते हेतुः । कुम्भस्य कुम्भकारो, कर्ता मृच्चेति समसंख्यकम् ॥ २.भ. वृ. ८/१ - जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः ।
१. सूत्र १
प्रस्तुत आलापक में कार्य-कारणवाद के सापेक्ष दृष्टिकोण का प्रतिपादन किया गया है। सिद्धसेन गणि ने एक गाथा उद्धृत कर परिणामी (उपादान), निमित्त और निर्वर्तक-इन तीन कारणों का उल्लेख किया है।' वैशेषिक दर्शन में समवायि, असमवायि और निमित्त ये तीन कारण माने गए हैं। सूत्रकार का प्रतिपाद्य यह है-विस्रसा परिणत द्रव्य कार्य-कारण के नियम से मुक्त होता है। प्रयोग परिणत द्रव्य निमित्त कारण के नियम से मुक्त होता है। मिश्र परिणत द्रव्य में निर्वर्तक और निमित्त कारण की संयोजना होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में कार्य-कारण का सिद्धांत सापेक्ष है। प्रत्येक कार्य के पीछे कारण खोजने की अनिवार्यता नहीं है।
भाष्य
उमास्वाति ने पुल के कार्यों का वर्गीकरण किया है। उनमें एक कार्य है बंध। परमाणुओं के संयोग और वियोग से अनेक पुद्गल स्कंधों का निर्माण होता है।
हिन्दी व्याख्या
संग्रहणी गाथा
आठवें शतक के दस उद्देशक हैं- १. पुद्गल
२. आशीविष ३ वृक्ष ४. क्रिया ५. आजीवक ६. प्रासुक 0. अदत्त ८. प्रत्यनीक ९. बन्ध १० आराधना ।
पुद्गलपरिणति-पद
१. 'राजगृह नगर में भगवान् का समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भन्ते! पुद्गल कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। गौतम! पुद्गल तीन प्रकार के प्रजप्त हैं, जैसे- प्रयोगपरिणत. मिश्रपरिणत. विस्रसा परिणत ।
उस निर्माण या पुद्गल स्कंध की संरचना के तीन हेतु हैं१. प्रयोग
२. प्रयोग और स्वभाव का मिश्रण
३. स्वभाव ।
शरीर की संरचना जीव के प्रयत्न से होती है। वह प्रयोग परिणत द्रव्य है । '
सिद्धसेन गणि ने प्रयोग का अर्थ जीव का व्यापार किया है।" अकलंक ने प्रयोग का अर्थ पुरुष का शरीर, वाणी और मन का संयोग किया है। *
मिश्र परिणत - जीव के प्रयोग और स्वभाव- इन दोनों के योग से जो परिणमन होता है, वह मिश्र परिणत द्रव्य है। सिद्धसेन गणि ने मिश्र का अर्थ किया है जीव प्रयोग सहचरित अचेतन द्रव्य की परिणति, जैसे- स्तंभ और घट |
अकलंक ने बंध के दो ही भेद बतलाए हैं। उन्होंने मिश्र का स्वतंत्र
३. त. सू. भा. सू. ५ / २४ प्रयोगो जीवव्यापारस्तेन घटितो बंधः प्रायोगिकः । ४. त. रा. वा. ५/२४-प्रयोगः पुरुषकायवाङ्मनः संयोगलक्षणः ।
५. त. सू भा. वृ. ५/२४-प्रयोगविस्रसाभ्यां जीवप्रयोगसहचरिता चेतनद्रव्यपरिणतिलक्षणः स्तम्भकुम्भादिर्मिश्रः ।
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श.८ : उ.१ : सू. १-३
भगवई उल्लेख नहीं किया है, उसकी पूर्ति प्रयोग के दो भेद बतलाकर की विवक्षित हैं' इसका उल्लेख किया है।' है-अजीव विषयक प्रायोगिक और जीवाजीव विषयक प्रायोगिक । उक्त दोनों व्याख्याओं की संगति कार्य-कारण के संदर्भ में ही अजीव विषयक प्रायोगिक को समझाने के लिए जतुकाष्ठ का उदाहरण बिठायी जा सकती है। मिश्र परिणाम के उदाहरण है घट और स्तंभ। दिया है।
घट के निर्माण में मनुष्य का प्रयत्न है और मिट्टी में घट बनने का सिद्धसेन गणि ने भी इस उदाहरण का प्रयोग किया है। स्वभाव है इसलिए घट मिश्रपरिणत द्रव्य है। इसकी तुलना वैशेषिक जीवाजीव विषयक प्रायोगिक दो प्रकार के होते हैं
सम्मत समवायि कारण से की जा सकती है। १. कर्मबंध-ज्ञानावरण आदि का बंध
प्रयोग परिणाम में किसी बाह्य निमित्त की अपेक्षा नहीं होती। २. नोकर्मबंध-औदारिक आदि शरीर का निर्माण।
उसका निर्माण जीव के आंतरिक प्रयत्न से ही होता है। मिश्र परिणाम अभयदेव सूरि ने मिश्र को समझाने के लिए दो उदाहरण में जीव के प्रयत्न के साथ निमित्त कारण का भी योग होता है। स्वभाव प्रस्तुत किए हैं
परिणाम जीव के प्रयत्न और निमित्त-दोनों से निरपेक्ष होता है।' १. मुक्त जीव का शरीर
सूत्रकार ने प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्यों का वर्णन विस्तार से २. औदारिकादि वर्गणाओं का शरीर रूप में परिणमन।
किया है। इससे फलित होता है-जीव अपने प्रयत्न से शरीर की शरीर का निर्माण जीव ने किया है इसलिए वह जीव के प्रयोग
रचना, इन्द्रिय की रचना, वर्ण का निष्पादन और संस्थान (आकार) से परिणत द्रव्य है। स्वभाव से उसका रूपान्तरण होता है इसलिए वह की संरचना करता है। मिश्र परिणत द्रव्य है।
प्रयोग परिणाम से पुरुषार्थवाद और स्वभाव परिणाम से औदारिक आदि वर्गणा स्वभाव से निष्पन्न है। जीव के प्रयोग
स्वभाववाद फलित होता है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है इसलिए उसे से वे शरीर रूप में परिणत होती हैं। इसमें भी जीव का प्रयोग और
सापेक्ष दृष्टि से पुरुषार्थवाद और स्वभाववाद-दोनों मान्य है। द्रष्टव्य स्वभाव दोनों का योग है।
८/३४५-३६५ का भाष्या उन्होंने स्वयं प्रश्न प्रस्तुत किया-प्रयोग परिणाम और मिश्र शट विमर्श परिणाम में क्या अंतर है? उन्होंने समाधान में कहा-प्रयोग परिणाम
प्रयोग-जीव का प्रयत्न में भी स्वभाव परिणाम है किन्तु वह विवक्षित नहीं है। सिद्धसेन गणि मिश्र-प्रयत्न और स्वभाव दोनों का योग। ने भी 'मिश्र परिणाम में प्रयोग और स्वभाव-दोनों प्रधान रूप से
विस्रसा-स्वभाव। पयोगपरिणति-पदं प्रयोगपरिणति-पदम्
प्रयोगपरिणति-पद २. पयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला प्रयोगपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः कति- २. भन्ते! प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने कतिविहा पण्णत्ता? विधाः प्रजप्ला?
प्रकार के प्रज्ञाप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णता, तं जहा- गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेएगिदियपयोगपरिणया, बेइंदिय- एकेन्द्रिय-प्रयोगपरिणताः, द्वीन्द्रिय प्रयोग- एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत. द्वान्द्रियप्रयोगपयोगपरिणया, तेइंदियपयोग-परिणया, परिणताः, त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणताः, परिणत, त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणत, चउरिंदियपयोगपरिणया, पंचिंदिय- चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणताः, पञ्चेन्द्रिय- चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणत और पंचेन्द्रियपयोगपरिणया॥ प्रयोगपरिणताः।
प्रयोगपरिणत।
३. एगिदियपयोगपरिणया णं भंते! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ३. भन्ते! एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधाः प्रज्ञप्ताः?
कितने प्रकार के प्रजप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पांच प्रकार के प्रज्ञप्त है, जैसेपुढविकाइयएगिदियपयोग-परिणया, पृथ्वी . कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः पृथ्वीकायिक एके न्द्रियप्रयोगपरिणत.
आउकाइयएगिदिय-पयोगपरिणया, अप्कायिकैकेन्द्रियप्रयोग - परिणताः, तेज- अप्कायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत, तैजस१. न. रा. वा. ५.२४-स द्वधा अजीवविषयो जीवाजीवविषयश्चेति। तत्रा- जीवप्रयोगेणैकेन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणाममापादितास्ते मिश्रपरिणताः ननु जीवविषयो जनुकाष्ठादि लक्षणः।
प्रयोगपरिणामोप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः? सत्यं; किन्तु २.न, सू, भा. वृ. ५.२४ प्रायोगिकः औदारिकादिशरीर- जनुकाष्ठादिविषयः। प्रयोगपरिणतेषु विरसा सत्यपि न विवक्षिता। ३. न. रा. वा. ५.२४-जीवाजीवविषयः कर्म नोकर्मबंधः। कर्मबंधो ५. न. सृ. भा. वृ. ५/२४-अत्र चोभयमपि प्राधान्यन विवक्षितम्। ज्ञानावरणादिरष्टतयो वक्ष्यमाणः। नोकर्मबंधः औदारिकादिविषयः।
६. वही, ५.२४-प्रयोगनिरपेक्षो विससा बंधः। ४. भ. वृ. ८.१-मिश्रकपरिणताः प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः। ७. भ. ८/२-३९ प्रयोगपरिणाममन्यजन्ता विमसया स्वभावान्तरमापादिताः मुक्तकडे- ८.न. रा. वा.-५२४-वियसा विधिविपर्यय निपानः पोमषेय-परिणामापेक्षा वरादित्याः। अथवादारिकादिवर्गणारूपा विखसया निष्पादिताः संतः विधिः, तद्विपर्यय विस्रसाशब्दो निपातो द्रष्टव्यः।
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भगवई
तेउकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, बाउकाइयएगिंदियपयोगपरिणया, वणस्सइकाइयएगिंदियपयोगपरिणया ।।
४. पुढविकाइयएगिंदियपयोगपरिणया णं भंते । पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमपुढविकाइयएगिंदियपयोग
बादरपुढविकाइय
य। आउ
परिणया, एगिंदियपयोगपरिणया काइयएंगिदियपयोगपरिणया एवं चेव । एवं दुयओ भेदी जाव वणस्स इकाइया
य ॥
५. बेइंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! अणेगविहा पण्णत्ता । एवं तेइंदिय चउरिंदियपयोगपरिणया वि ॥
६. पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! चउब्विहा पण्णत्ता, तं जहा - नेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया, तिरिक्ख मणुस्सदेवपंचिंदिय
पयोगपरिणया ॥
७. नेरइयपंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा।
गोयमा ! सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा - रयणप्पभपुढविने रइयपंचिंदियपयोगपरिणया वि जाव अहेसत्तमपुढविनेरइय - पंचिंदियपयोग परिणया
वि॥
तिरिक्खजोणियपंचिंदियपयोग
परियाणं पुच्छा ।
गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहाजलचरतिरिक्ख जोणियपंचिंदिय
पयोगपरिणया,
जोणिय
८.
थलचरतिरिक्खपंचिदियपयोगपरिणया,
७
स्कायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः, वायुकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः वनस्पतिकायिकैकेन्द्रिय प्रयोगपरिणताः ।
पृथ्वीकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः भदन्त ! पुद्गलाः कतिविधाः प्रज्ञताः ?
गौतम : द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथ्वीकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः, बादरपृथ्वीकायिकै केन्द्रियप्रयोग- परिणताश्च । अप्कायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः एवं चैव । एवं द्विकः भेदः यावत् वनस्पतिकायिकाश्च ।
द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा। गौतम! अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणताः अपि|
पञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा। गौतम ! चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा--- नैरयिक प्रयोगपरिणताः, तिर्यग्-मनुष्यदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ।
नैरयिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा ।
गौतम! सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथारत्नप्रभ- पृथ्वीनैरयिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः अपि यावत् अधः सप्तमपृथ्वीनैरयिकपञ्चेन्द्रिय-प्रयोगपरिणताः अपि ।
तिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां
पृच्छा ।
गौतम ! त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजलचर- तिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः, स्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः
खेचर
श. ८ : उ. १ : सू. ३-८
कायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत, वायुकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत और वनस्पतिकायिकएकेन्द्रियप्रयोगपरिणत ।
४. भन्ते! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के प्रजप्त
हैं?
गौतम! दो प्रकार के प्रज्ञम हैं, जैसे-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत और बादर - पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत | अपकायिकएकेन्द्रियप्रयोग
परिणत पृथ्वी - कायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत की भांति वक्तव्य हैं। इसी प्रकार तैजसकाय यावत् वनस्पतिकाय के सूक्ष्म और बादर इन दो भेदों की वक्तव्यता ।
५. द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा । गौतम! द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणत अनेक प्रकार के प्रज्ञप्त हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणत भी अनेक प्रकार के प्रज्ञप्त हैं।
६. पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा । गौतम! पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत चार प्रकार के प्रज्ञप्स हैं, जैसे-नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, निर्यच पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत ।
७. नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा ।
गौतम! नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत सात प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत यावत् अधः सप्तमीपृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत ।
८. तिर्यग्योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा।
गौतम! तिर्यक्रयोनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं. जैसेजलचर तिर्यक्रयोनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. निर्यकयोनिक
स्थलचर
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भगवई
श.८ : उ. १ : सू. ८-१३ खहचरतिरिक्ख-जोणियपंचिंदियपयोगपरिणया॥
तिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोग-परिणताः।
पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत. खेचर (नभचर) तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत।
९. जलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहासंमुच्छिमजलचरतिरिक्ख-जोणिय- पंचिंदियपयोगपरिणया,गब्भवक्कं - तियजलचर . तिरिक्खजोणियपंचिंदिय-पयोगपरिणया।।
जलचरतिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोग- ९. जलचर तिर्यक योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा।
परिणत की पृच्छा। गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! जलचर तिर्यकयोनिक सम्मूर्च्छिमजलचरतिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रिय- पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत दो प्रकार के प्रज्ञप्त प्रयोगपरिणताः. गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचर - हैं, जैसे-सम्मूर्छिम जलचर तिर्यकतिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः। योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, गर्भाव
क्रान्तिक जलचर तिर्यकयोनिक पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत।
१०.थलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदिय- स्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोग- १०. स्थलचर तिर्यक् योनिक पंचेन्द्रियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। परिणतानां पृच्छा।
प्रयोगपरिणत की पृच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- गौतम! स्थलचर तिर्यकयोनिक पंचेन्द्रिय चउप्पयथलचरतिरिक्खजोणिपंचिंदिय- चतुष्पद स्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रिय- प्रयोग परिणत दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, पयोगपरिणया, परिसप्पथलचरति- प्रयोगपरिणताः, परिसर्पस्थलचरतिर्यग- जैसे-चतुष्पद स्थलचर तिर्यक्योनिक रिक्खजोणियपंचिंदियपयोगपरिणया॥ योनिकपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः। पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, परिसर्प स्थलचर
तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत।
११.चउप्पयथलचरतिरिक्खजोणिय- चतुष्पदस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रिय- ११. चतुष्पद स्थलचर तिर्यक्योनिक पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। प्रयोगपरिणतानां पृच्छा।
पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः. तद्यथा-सम्मू- गौतम! चतुष्पद स्थलचर तिर्यक्योनिक संमुच्छिमचउप्पयथलचरतिरिक्ख- च्छिमचतुष्पदस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चे- पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत दो प्रकार के प्रज्ञप्त जोणियपंचिंदियपयोगपरिणया, न्द्रियप्रयोगपरिणताः, गर्भव्युत्क्रान्तिक- हैं, जैसे-सम्मूर्छिम चतुष्पद स्थलचर गब्भवक्वंतियचउप्पयथलचरतिरिक्ख- चतुष्पदस्थलचरतिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रिय- तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, जोणियपंचिंदियपयोगपरिणया।। प्रयोगपरिणताः।
गर्भावक्रान्तिक चतुष्पद तिर्यक् योनिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत।
१२. एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा एवम् एतेन अभिलापेन परिसाः दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-उरपरिसप्पा य द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-उरः- भुय-परिसप्पा य। उरपरिसप्पा दुविहा परिसर्पाश्च, भुजपरिसाश्च। उरःपरि. पण्णत्ता, तं जहा-समुच्छिमा य सर्पाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथागब्भवक्कंतिया य। एवं भुयपरिसप्पा सम्मूर्छिमाश्च गर्भव्यु-त्क्रान्तिकाश्च। एवं वि। एवं खयरा वि॥
भुजपरिसाः अपि। एवं खेचराः अपि।
१२. इसी प्रकार इस अभिलाप के अनुसार
परिसर्प दो प्रकार के प्रजप्त है, जैसे-उरपरिसर्प और भुज परिसर्प। उर परिसर्प दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सम्मूर्छिम और गर्भावक्रान्तिक। इसी प्रकार भुज परिसर्प की वक्तव्यता। इसी प्रकार खेचर की वक्तव्यता।
१३. मणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणयाणं मनुष्यपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा। पुच्छा ।
गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तदयथा-सम्मूसमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोग- र्छिममनुष्यपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः, परिणया, गब्भवक्कंतियमणुस्स- गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यपञ्चेन्द्रियप्रयोगपंचिंदियपयोगपरिणया॥
परिणताः।
१३. मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा। गौतम' मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत दो प्रकार के प्रजप्त हैं, जैसे-सम्मूर्च्छिम मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत।
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भगवई
१४. देवपंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाभवणावासिदेवपंचिदियपयोग-परिणया, एवं जाव वेमाणिया ||
१५. भवणवासिदेवपंचिंदियपयोग
परिणयाणं पुच्छा । गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा - असुरकुमारदेवपंचिंदियपयोगपरिणया जाव थणियकुमारदेवपंचिंदियपयोगपरिणया ||
१६. एवं एएणं अभिलावेणं अट्ठविहा वाणमंतरा पिसाया जाव गंधव्वा । जोतिसिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाचंदविमाणजोतिसिया
जाव तारा
जाव कप्पा
विमाणजोतिसिय-देव-पंचिंदियपयोगपरिणया । वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- कप्पो वगवेमाणिया कप्पातीतगवेमाणिया । कप्पोवगवेमाणिया दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहासोहम्मकप्पोवगवेमाणिया अच्चुयकप्पोवगवेमाणिया । तीतगवेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - गेवेज्जगकप्पातीतगवे माणिया, अणुत्तरो ववातियकप्पातीतगवेमाणिया । गेवेज्जग- कप्पातीतगवेमाणिया नवविहा पण्णत्ता, तं जहा - हेट्ठमहेट्ठिमगेवेज्जगकप्पातीतगवेमाणिया जाव उवरिमउवरिमगेवेज्जग- कप्पातीतगवेमाणिया ॥
१७. अणुत्तरोववातियकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पण्णता ? गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाविजयअणुत्तरोववातियकप्पा-तीतगवेमाणियदेव पंचिंदियपयोग - परिणया जाव सव्वट्टसिद्ध- अणुत्तरोववातियकप्पातीतगवेमाणिय- देवपंचिंदियपयोगपरिणया ||
९
देवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा । गौतम! चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - भवनवासिदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः, यावत् वैमानिकाः।
एवं
भवनवासिदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणतानां
पृच्छा। गौतम! दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-असुरकुमारदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः यावत् स्तनितकुमारदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ।
एवम् एतेन अभिलापेन अष्टविधाः वानमन्तराः पिशाचाः यावत् गन्धर्वाः । ज्योतिष्काः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाचन्द्रविमानज्योतिष्काः यावत् ताराविमानज्योतिष्कदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः। वैमानिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकल्पोपगवैमानिकाः कल्पातीतकवैमानिकाः । कल्पोपगवैमानिकाः द्वादशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सौधर्मकल्पोपगवैमानिकाः यावत् अच्युतकल्पोपगवैमानिकाः । कल्पातीतक वैमानिकाः द्विविधाः प्रज्ञमाः, तद्यथा-ग्रैवेयककल्पातीतकवैमानिकाः, अनुत्तरौपपातिककल्पातीतकवैमानिकाः । ग्रैवेयककल्पातीतकवैमानिकाः नवविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-अधस्तनाधस्तनग्रैवेयककल्पानीतकवैमानिकाः यावत् उपरितनोपरितनग्रैवेयककल्पातीतकवैमानिकाः ।
अनुत्तरोपपातिककल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः पुद्गलाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाविजयानुत्तरौपपातिककल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः यावत
भदन्त !
सर्वार्थ सिद्धानुत्तरोपपातिककल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ।
श. ८ : उ. १ : सू. १४-१७ १४. देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा । गौतम! देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- भवनवासी देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत, इसी प्रकार यावत् वैमानिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत |
१५. भवनवासी देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा ।
गौतम! भवनवासी देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत दस प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेअसुरकुमार देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत यावत् स्तनितकुमार देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत |
१६. इसी प्रकार इस अभिलाप के अनुसार वानमंतर आठ प्रकार के प्रज्ञप्त हैं-पिशाच यावत् गंधर्व । ज्योतिष्क पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- चन्द्रविमान ज्योतिष्क यावत् ताराविमान ज्योतिष्क देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत । वैमानिक दो प्रकार के प्रजप्त हैं, जैसे- कल्पोपगवैमानिक और कल्पातीतगवैमानिक | कल्पोपशवैमानिक बारह प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- सौधर्मकल्पोपगवैमानिक यावत अच्युतकल्पापरावैमानिक । कल्पातीतगवैमानिक दो प्रकार के प्रज्ञप्त है. जैसे-ग्रैवेयक कल्पातीतगवैमानिक. अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक । ग्रैवेयक कल्पातीतगवैमानिक नौ प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक कल्पातीतगवैमानिक यावत सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक कल्पातीगवैमानिक |
१७. भन्ते ! अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- विजय अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतरावैमानिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत यावत सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरीपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत |
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श.८ : उ. १ : सू. १८-२१
भगवई
पज्जत्तापज्जतं पडुच्च पयोग-परिणति- पर्याप्तापर्याप्त प्रतीत्य प्रयोगपरिणति- पर्याप्त-अपर्याप्त की अपेक्षा प्रयोग पदं पदम
परिणति-पद १८. सुहमपढविकाइयएगिदियपयोग- सूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः १८. भन्ने! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियपरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा भदन्त ! पुदगलाः कतिविधाः प्रज्ञमाः? प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के पण्णता?
प्रज्ञाप्त है? गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञसाः, तद्यथा- गौतम! दो प्रकार के प्रजप्स हैं, जैसेपज्जत्तासुहमपुढविकाइयएगिदिय- पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रियप्रयोग- पर्याप्तक सूक्ष्म पृ/कायिक एकेन्द्रियपयोगपरिणया य, अपज्जत्तासुहुम- परिणताश्च, अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकै- प्रयोगपरिणत और अपर्याप्तक सूक्ष्म पुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया य। केन्द्रियप्रयोग-परिणताश्च।
पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत बादरपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया एवं चेव, एवं जाव बादरपृथ्वीकायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणताः। इसी प्रकार बादर पृ कायिक एकेन्द्रियवणस्सइकाइया। एक्केका दुविहा सुहमा एवं चैव, एवं यावत् वनस्पतिकायिकाः।। प्रयोगपरिणत यावत वनस्पतिकायिक य, बादरा य, पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य एकके द्विविधाः सूक्ष्माश्च. बादराश्च।। एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। भाणियव्वा॥ पर्याप्तकाः अपर्याप्तकाश्च भणितव्याः। इनमें से प्रत्येक दो प्रकार के है-सूक्ष्म और
बादर। सूक्ष्म और बादर के दो-दो प्रकार है-पर्याप्तक और अपर्याप्तक।
१९. बेइंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- पज्जत्तगबेइंदियपयोगपरिणया य, अपज्जत्तग जाव परिणया य। एवं तेइंदिया वि, एवं चउरिंदिया वि||
द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणतानां पृच्छा। गौतम द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तक- द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणताश्च, अपर्याप्तक यावत् परिणताश्च। एवं त्रीन्द्रियाः अपि. एवं चतुरिन्द्रियाः अपि।
१९. द्वान्द्रियप्रयोगपरिणत की पृच्छा। गौतम' द्वान्द्रियप्रयोगपरिणत दो प्रकार के प्रज्ञाप्स हैं, जैसे-पर्याप्तक दीन्द्रियप्रयोगपरिणत और अपर्याप्सक द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणत। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता।
२०. रयणप्पभपुढविनेरइयपयोगपरिणयाणं पुच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- पज्जत्तगरयणप्पभ जाव परिणया य, अपज्जत्तग जाव परिणया य। एवं जाव अहेसत्तमा।।
रत्नप्रभपृथिवीनैरयिकप्रयोगपरिणतानां पृच्छा। गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापर्याप्तक-रत्नप्रभ यावत् परिणताश्च, अपर्याप्सक यावत् परिणताश्च । एवं यावत अधःसप्तमी।
२०. रत्नप्रभा पी नैरयिकप्रयोगपरिणत
की पृच्छा। गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिकप्रयोगपरिणत दो प्रकार के प्रज्ञाप्प है, जैसेपर्याप्तक रत्नप्रभा पृथ्वा नैरयिकप्रयोगपरिणत और अपर्याप्तक रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिकप्रयोगपरिणत। इसी प्रकार यावत अधःसप्तमीपर्ध्वानरयिक प्रयोगपरिणत
२१. संमुच्छिमजलचरतिरिक्ख-पुच्छा। सम्मूर्छिमजलचरतिर्यक्-पृच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- पज्जत्तग अपज्जत्तग। एवं गब्भ- पर्याप्तकाः, अपर्याप्तकाः। एवं गर्भ- वक्कंतिया वि। संमुच्छिमचउप्पय- व्युत्क्रान्तिकाः अपि| सम्मूर्छिमचतुष्पदथलचरा एवं चेव। एवं गब्भवक्कंतिया स्थलचर: एवं चैव। एवं गर्भव्यत्क्रान्तिकाः वि। एवं जाव संमुच्छिमखहयर- अपि। एवं यावत् सम्मूर्छिमखेचरगब्भवक्कंतिया य। एक्केक्के गर्भव्युत्क्रान्तिकाश्च। एकैके पर्याप्तकाः पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियव्वा। अपर्याप्तकाश्च भणितव्याः।
२१. सम्मृर्छिमजलचर तिर्यंच की पृच्छा। गौतम संमृच्छिम जलचर तिर्यंच दो प्रकार के प्राप्त है, जैसे पर्याप्तक और अपर्याप्सक। इसी प्रकार गर्भावक्रान्तिक जलचर तिर्यंच की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत संमूर्छिम चर और गर्भावक्रान्तिक खेचर की वक्तव्यता। प्रत्येक के पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद वक्तव्य हैं।
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भगवई
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२२. संमुच्छिममणुस्सपंचिंदिय-पुच्छा। गोयमा! एगविहा पण्णत्ताअपज्जत्तगा चेव॥
सम्मूर्छिममनुष्यपञ्चेन्द्रिय-पृच्छा। गौतम! एकविधाः प्रज्ञप्लाः, अपर्याप्तकाश्चैव।
श.८ : उ. १ : सृ. २२-२७ २२. संमूर्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय की पृच्छा। गौतम ! संमूर्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय एक प्रकार के ही प्रज्ञाप्त हैं-वे अपर्याप्तक ही होते
२३. गब्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदिय गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यपञ्चेन्द्रिय पृच्छा। पुच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापज्जत्तगगब्भवक्कंतिया वि, पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकाः अपि, अपज्जत्तग-गन्भक्कंतिया वि॥ अपर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकाः अपि।
२३. गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय की पृच्छा । गौतम! गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय दो प्रकार के प्रज्ञप्स हैं, जैसे-पर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक और अपर्याप्तक गर्भावक्रान्तिक।
२४. असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा। असुरकुमारभवनवासिदेवानां पृच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- । गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथापज्जत्तगअसुरकुमार, अपज्जत्तग- पर्याप्सकासुरकमाराः, अपर्याप्तकासरअसुरकुमार। एवं जाव थणियकुमारा कुमाराः। एवं यावत् स्तनितकुमाराः पज्जत्तगा अपज्जत्तगा य॥
पर्याप्तकाः अपर्याप्तकाश्च।
२४. असुरकुमार भवनवासी देवों की पृच्छा। गौतम! असुरकुमार भवनवासी दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पर्याप्तक असुरकुमार और अपर्याप्तक असुरकुमार। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार के पर्याप्तकअपर्याप्तक की वक्तव्यता।
२५. एवं एतेणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं एवम् एतेन अभिलापेन द्विकेन भेदेन पिसाया जाव गंधव्वा। चंदा जाव पिशाचाः यावत् गन्धर्वाः। चन्द्राः यावत् ताराविमाणा। सोहम्म-कप्पोवगा जाव- ताराविमानानि सौधर्मकल्पोपगाः यावत् च्चुतो। हेछिमहेट्ठि-मगेवेज्जकप्पातीत अच्युताः। अधस्तनाधस्तनौवेयक जाव उवरिम-उवरिमगेवेज्ज। विजय- कल्पातीताः यावत् उपरितनोपरितनअणुत्तरोववाइय जाव अपराजिय। ग्रैंवेयकाः। विजया-नुत्तरौपपातिकाः यावत्
अपराजिताः।
२५. इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार पिशाच यावत् गंधर्व के दो-दो भेदपर्याप्तक और अपर्याप्तक वक्तव्य है। चन्द्र यावत् ताराविमान, सौधर्म कल्पोपग यावत् अच्युत, सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक कल्पातीतग यावत् सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक कल्पातीतग। विजय अनुत्तरौपपातिक यावत् अपराजित।
२६. सव्वट्ठसिद्धकप्पातीत-पुच्छा। सर्वार्थसिद्धकल्पातीत-पृच्छा। गोयमा! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- पज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय, पर्याप्तक सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिकाः, अपज्जत्तासव्वट्ठ जाव परिणया वि॥ अपर्याप्तकसर्वार्थ यावत् परिणताः अपि।
२६. सर्वार्थसिद्ध कल्पातीतग की पृच्छा। गौतम! सर्वार्थसिद्ध कल्पातीतग दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक, अपर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिकप्रयोगपरिणता
सरीरं पडुच्च पयोगपरिणति-पदं शरीरं प्रतीत्य प्रयोगपरिणति-पदम् शरीर की अपेक्षा प्रयोग परिणति-पद २७. जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइय- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रिय- २७. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृवीकायिक
एगिदियपयोगपरिणया ते । ओरा- प्रयोगपरिणताः ते औदारिक-तैजस-कर्मक- एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे औदारिक, लियतेया . कम्मासरीरप्पयोग- शरीरप्रयोगपरिणताः। ये पर्याप्तकसूक्ष्म तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं। जो परिणया। जे पज्जत्तासुहम जाव. यावत् परिणताःते औदारिक-तैजस- पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियपरिणया ते ओरालिय-तेया-कम्मा- कर्मकशरीर-प्रयोगपरिणताः। एवं यावत् प्रयोग परिणत हैं वे औदारिक, तैजस सरीरप्पयोगपरिणया। एवं जाव चतुरिन्द्रियाः पर्याप्सकाः, नवरं-ये पर्यासक- और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं। इसी चउरिंदिया पज्जत्ता, नवरं-जे बादरवायुकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्याप्त प्रयोगपज्जत्ताबादरवाउकाइयएगिंदिय- औदारिक-वैक्रिय तैजस-कर्मकशरीरप्रयोग- परिणत की वक्तव्यता। केवल इतना प्पयोगपरिणया ते ओरालिय- परिणताः। शेषं तच्चैव।
विशेष है-जो पर्याप्त बादर वायुकायिक
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श. ८ : उ. १ : सू. २७-३१
भगवई
वेउब्वियतेयाकम्मासरीरप्पयोगपरिणया। सेसं तं चेव॥
एकेन्द्रियप्रयोग-परिणत हैं वे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं-शेष जो अपर्याप्त बादर वायुकायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत है वे
औदारिक, तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं।
२८. ते अपज्जत्तरयणप्पभापुढविनेर- इयपंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउब्विय- तेया-कम्मासरीरप्पयोग-परिणया। एवं पज्जत्तगा वि। एवं जाव अहेसत्तमा॥
ये अपर्याप्तरत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक- २८. जो अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक पञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते वैक्रिय-तैजस- पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत है वे वैक्रिय, तैजस कर्मक-शरीरप्रयोगपरिणताः। एवं पर्याप्सकाः । और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं। इसी अपि। एवं यावत् अधःसप्तमी।
प्रकार पर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता।
२९. जे अपज्जत्तासमुच्छिमजलचर जाव ये अपर्यासकसम्मूर्छिमजलचर यावत् परिणया ते आरोलिय-तेया- परिणताः ते औदारिक-तैजस-कर्मकशरीर कम्मासरीर जाव परिणया। एवं यावत् परिणताः। एवं पर्याप्तकाः अपि। पज्जत्तगा वि। गब्भवक्कंतिय- गर्भव्युत्क्रान्तिकापर्याप्ताः एवं चैव। अपज्जत्ता एवं चेव। पज्जत्तगा णं एवं पर्याप्तकाः एवं चैव, नवरं-शरीरकाणि चेव, नवरं-सरीरगाणि चत्तारि जहा चत्वारि यथा बादरवायुकायिकानां पर्याप्त बादरवाउकाइयाणं पज्ज-त्तगाणं। एवं कानाम्। एवं यथा जलचरेषु चत्वारः जहा जलचरेसु चत्तारि आलावग आलापकाः भणिताः। एवं भणिया एवं चउप्पय- चतुष्पदोरपरिसर्प-भुजपरिसर्प-खेचरेषु उरपरिसप्पभुयपरिसप्पखहयरेसु वि अपि चत्वारः आलापकाः भणितव्याः। चत्तारि आलावगा भाणियव्वा॥
२९. जो अपर्याप्त संमूर्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे औदारिक, तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत है। इसी प्रकार पर्याप्त संमूर्छिम जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पर्याप्त गर्भावक्रान्तिक जलचर तिर्यंच पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष है कि बादर वायुकायिक की भांति शरीर चार होते हैं। जैसे-जलचर के चार आलापक कहे गए हैं वैसे ही चतुष्पद उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचर के भी चार आलापक वक्तव्य हैं।
३०. जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदिय- ये सम्मूर्छिममनुष्यपञ्चेन्द्रियप्रयोग- ३०. जो संमूर्छिम मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपयोगपरिणया ते आरोलिय-तेया- परिणताः ते औदारिक-तैजस-कर्मकशरीर- परिणत हैं वे औदारिक, तैजस और कम्मासरीरप्पयोगपरिणया। एवं प्रयोगपरिणताः। एवं गर्भव्युत्क्रान्तिकाः कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार गब्भवक्कंतिया वि। अपज्जत्तगा वि, अपि। अपर्याप्तकाः अपि, पर्याप्तकाः अपि गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रियप्रयोगपज्जत्तगा वि एवं चेव, नवरं- एवं चैव, नवरं-शरीरकाणि पञ्च परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार सरीरगाणि पंच भाणियव्वाणि।। भणितव्यानि।
अपर्याप्तक की वक्तव्यता। पर्याप्तक की वक्तव्यता भी इसी प्रकार है। केवल इतना विशेष है कि पांच शरीर वक्तव्य
३१. जे अपज्जत्ताअसुरकुमारभवण- ये अपर्याप्तकासुरकुमारभवनवासिनः यथा वासि जहा नेरइया तहेव। एवं पज्जत्तगा नैरयिकाः तथैव। एवं पर्याप्तकाः अपि। एवं वि। एवं दुयएणं भेदेणं जाव द्विकेन भेदेन यावत् स्तनितकुमाराः। एवं थणियकुमारा। एवं पिसाया जाव पिशाचाः यावत् गन्धर्वाः। चन्द्राः यावत्
३१. जो अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासीप्रयोगपरिणत हैं वे नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। इसी प्रकार पर्याप्त असुरकुमार भवनवासीप्रयोगपरिणत की
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भगवई
गंधव्वा। चंदा जाव तारा-विमाणा। ताराविमानानि। सौधर्मकल्पः यावदच्युतः। सोहम्मकप्पो - जावच्चुओ अधस्तनाधस्तनौवेयक यावत् उपरि-तहेट्ठिमहेट्ठिमगेवेज्जग जाव उवरिम- नोपरितनगवेयकः। विजयानुत्तरौपपातिक उवरिमगेवेज्जग। विजयअणुत्तरो- यावत् सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिकः। एकैववाइय जाव सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो- कस्मिन् द्विकः भेदः भणितव्यः यावत् ये ववाइय। एक्केक्के दुयओ भेदो पर्याप्तक . सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिकभाणियव्वो जाव जे पज्जत्ता- कल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीतग- परिणताः ते वैक्रिय-तेजस्क-कर्मकशरीरवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया ते प्रयोगपरिणताः। वेउब्विय-तेया-कम्मा - सरीरप्पयोगपरिणया॥
श.८ : उ. १: सू. ३१-३४ वक्तव्यता। इसी प्रकार दो-दो भेद के अनुसार यावत् स्तनितकुमार भवनवासीप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पिशाच यावत गंधर्व की वक्तव्यता। चन्द्र यावत् ताराविमान की वक्तव्यता। सौधर्म कल्प यावत अच्युत की वक्तव्यता। सबसे नीचे वाले ग्रैवेयक यावत् सबसे ऊपर वाले ग्रैवेयक की वक्तव्यता। विजय अनुत्तरौपपातिक यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक की वक्तव्यता। प्रत्येक के अपर्याप्त और पर्याप्त-ये दो भेद वक्तव्य हैं यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत है वे वैक्रिय, तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं।
इंदियं पडुच्च पयोगपरिणति-पदं इन्द्रियं प्रतीत्य प्रयोगपरिणति-पदम् इंद्रिय की अपेक्षा प्रयोग परिणति-पद ३२. जे अपज्जत्तासुहुमपुढविकाइय- ये अपर्याप्सकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रिय- ३२. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एगिदियपयोगपरिणया ते फासिं- प्रयोगपरिणताः ते स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरि. एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत है वे स्पर्शनेन्द्रियदियपयोगपरिणया जे पज्जत्ता- णताः, ये पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकाः एवं प्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त सुहुमपुढविकाइय एवं चेव। जे । चैव। ये अपर्याप्तकबादरपृथ्वीकायिकाः एवं सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगअपज्जत्ताबादरपुढविकाइय एवं चेव। चैव। एवं पर्याप्तकाः अपि। एवं चतुष्केण परिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार एवं पज्जत्तगा वि। एवं चउक्कएणं भेदेन यावत् वनस्पतिकायिकाः।
अपर्याप्त बादर पृीकायिक एकेन्द्रियभेदेण जाव वणस्सति-काइया।
प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार पर्याप्त पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इस प्रकार चारचार भेदों के अनुसार यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता।
३३. जे अपज्जत्ताबेइंदियपयोग-परिणया ये अपर्यासकद्धीन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते ते जिभिंदियफासिंदिय-पयोगपरिणया, जिहन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणताः, ये जे पज्जत्ताबेइंदिय एवं चेव। एवं जाव पर्याप्तकद्वीन्द्रियाः एवं चैव एवं यावत् चउरिंदिया, नवरं-एक्केक्कं इंदियं चतुरिन्द्रियाः, नवरं-एकैकम् इन्द्रियं वढेयव्वं ।।
वर्धितव्यम्।
३३. जो अपर्याप्त द्वीन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त द्वीन्द्रिय प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। केवल इतना विशेष हैत्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय में क्रमशः एकएक इन्द्रिय की वृद्धि करनी चाहिए।
३४. जे अपज्जत्तरयणप्पभपुढवि-नेरइय- ये अपर्याप्तरत्नप्रभापृथ्वीनैरयिक पञ्चे- पंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय- न्द्रिय-प्रयोगपरिणताः ते श्रोत्रेन्द्रिय- चक्खिंदिय · घाणिंदिय-जिभिदिय : चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय . जिह्वेन्द्रियफासिंदियपयोगपरिणया। एवं पज्जत्तगा स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणताः। एवं पर्याप्तकाः
३४. जो अपर्याप्त रत्नप्रभा नैरयिक पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रियचक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रिय-रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं। इसी प्रकार
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श. ८ : उ. १ : सू. ३४-३६ वि। एवं सव्वे भाणियव्वा तिरिक्ख- अपि। एवं सर्वे भणितव्याः। तिर्यग्योनिकजोणिय-मणुस्स-देवा जाव जे मनुष्य-देवाः यावत् ये पर्याप्तकसर्वार्थपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय सिद्धानुत्तरौपपातिक . कल्पातीतककप्पातीत . गवेमाणियदेव- वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियप्रयोगपरिणताः ते पंचिंदियपयोगपरिणया ते सो-इंदिय . श्रोत्रेन्द्रिय . चक्षुरिन्द्रिय . घ्राणेन्द्रियचक्खिंदिय · घाणिदिय-जिभिदिय : जिह्वेन्द्रिय-स्पर्शेन्द्रिय-प्रयोगपरिणताः। फासिंदियपयोग-परिणया॥
पर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार शेष सब की वक्तव्यता। तिर्यग् योनिक, मनुष्य और देव यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-घ्राणेन्द्रियरसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत
सरीरं इंदियं च पड़च्च पयोग-परिणति- शरीरम इन्द्रियं च प्रतीत्य प्रयोग- शरीर और इन्द्रिय की अपेक्षा प्रयोग परिणति-पदम
परिणति-पद ३५. जे अपज्जत्तासुहमपुढविकाइय- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रि. ३५. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एगिदियओरालिय - तेया - कम्मा- यौदारिक-तेजस्क-कर्मक शरीरप्रयोग- एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, कर्मशरीरसरीरप्पयोगपरिणया ते फासिं- परिणताः ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणताः। ये प्रयोगपरिणत है वे स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगदियपयोगपरिणया। जे पज्जत्ता-सुहुम पर्याप्तक-सूक्ष्म एवं चैव। बादरापर्याप्सकाः । परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म एवं चेव। बादरअपज्जत्ता एवं चेव। एवं एवं चैव। एवं पर्याप्तकाः अपि।
पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, पज्जत्तगा वि।
कर्मशरीरप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार बादर अपर्याप्त पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-तैजस-कर्मशरीर.
प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। एवं एतेण अभिलावेणं जस्स जति एवम् एतेन अभिलापेन यस्य यति इन्द्रियाणि इसी प्रकार बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक इंदियाणि सरीराणि य तस्स ताणि शरीराणि च तस्य तानि भणितव्यानि यावत् एकेन्द्रिय औदारिक-तैजस-कर्मशरीरभाणियव्वाणि जाव जे पज्जत्ता- ये पर्याप्तकसर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिक प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार सव्वट्ठसिद्ध . अणुत्तरोववाइयकप्पा- कल्पातीतकवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रिय-वैक्रिय- इस अभिलाप के अनुसार जिसके जितनी तीतगवेमाणिय देवपंचि दियवेउब्विय- तेजस्क-कर्मकशरीरप्रयोगपरिणताः ते इन्द्रियां और शरीर हैं उसके वे सब तेयाकम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते श्रोत्रेन्द्रिय . चक्षुरिन्द्रिय यावत् वक्तव्य हैं यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध सोइंदियचक्खिंदिय जाव स्पर्शेन्द्रियप्रयोगपरिणताः।
अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव फासिंदियप्पयोगपरिणया।
पंचेन्द्रियवैक्रिय, तैजस, कर्मशरीरप्रयोग परिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं
वण्णादिं पडुच्च पयोगपरिणति-पदं
वर्णादिं प्रतीत्य प्रयोगपरिणति-पदम्
वर्ण आदि की अपेक्षा प्रयोग परिणति
पद
३६. जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्का- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रिय- ३६. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पीकायिक इयएगिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ प्रयोगपरिणताः ते वर्णतः कालवर्ण- एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल कालवण्णपरिणया वि, नील-लोहिय- परिणताः अपि, नील-लोहित-हारिद्र- वर्ण परिणत भी है, नील, लाल, पीत और हालिद्द-सुक्कि-लवण्णपरिणया वि; शुक्लवर्णपरि-णताः अपि, गन्धतः सुरभि- शुक्ल वर्ण परिणत भी हैं, गंध से सुगंध गंधओ सुब्भि-गंधपरिणया वि, दुब्भि- गन्धपरिणताः अपि, दुरभिगन्धपरिणताः परिणत भी हैं, दुर्गन्ध परिणत भी हैं, रस गंधपरिणया वि; रसओ तित्तरस- अपि, रसतः तिक्तरसपरिणताः अपि, से तिक्तरस परिणत भी है, कटुक रस परिणया वि, कडुयरसपरिणया वि, कटुकरसपरिणताः अपि, कषायरस- परिणत भी हैं, कषाय रस परिणत भी हैं, कसाय-रसपरिणया वि, अंबिलरस- परिणताः अपि, आम्लरस-परिणताः अपि, अम्ल रस परिणत भी हैं, मधुर रस परिणया वि, महररसपरिणया वि; मधुररसपरिणताः अपि, स्पर्शतः कक्खट- परिणत भी हैं, स्पर्श से कठोर स्पर्श फासओ कक्खडफासपरिणया वि, स्पर्शपरिणताः अपि, मदुकस्पर्शपरिणताः- परिणत भी हैं, मदृ स्पर्श परिणत भी हैं,
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भगवई
मउय-फासपरिणया वि, गरुयफास- अपि, गुरुकस्पर्श-परिणताः अपि, लघु- परिणया वि, लहुयफासपरिणया वि, कस्पर्शपरिणताः अपि, शीतस्पर्शपरिणताः सीतफासपरिणयावि ,उसिण- अपि, उष्णस्पर्श- परिणताः अपि, फासपरिणया वि, णिद्धफास-परिणया । स्निग्धस्पर्शपरिणताः अपि, रूक्षस्पर्शवि, लुक्खफासपरिणया वि; संठाणओ परिणताः अपि, संस्थानतः परिमण्डलपरिमंडलसंठाण-परिणया वि, वट्ट-तंस- संस्थानपरिणताः अपि, वृत्त- त्र्यस्रचउरंस-आयतसंठाणपरिणया वि। चतुरस्रायत-संस्थानपरिणताः अपि। ये जे पज्जत्तासुहुमपुढवि एवं चेव। एवं पर्यासकसूक्ष्मपृथिवी एवं चैव। एवं जहाणुपुव्वीए नेयव्वं जाव जे यथानुपूर्व्या नेतव्यं यावत ये पर्याप्लकपज्जत्तासव्वट्ठ - सिद्धअणुत्तरो-ववाइय सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिक यावत् परिणताः जाव परिणया ते वण्णओ ते वर्णतः कालवर्णपरिणताः अपि यावत • कालवण्णपरिणया वि जाव आयतसंस्थानपरिणताः अपि। आयतसंठाणपरिणया वि॥
श.८ : उ. १ : सू. ३६-३८ गुरु स्पर्श परिणत भी हैं, लघु स्पर्श परिणत भी हैं, शीत स्पर्श परिणत भी हैं, उष्ण स्पर्श परिणत भी हैं, स्निग्ध स्पर्श परिणत भी हैं, रूक्ष स्पर्श परिणत भी हैं, संस्थान से परिमण्डल संस्थान परिणत भी हैं, वृत्त-व्यस्त्र-चतुरस्र-आयत संस्थान परिणत भी हैं। इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार क्रमशः ज्ञातव्य है यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव पंचेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं।
सरीरं वण्णदिं च पडुच्च पयोग- शरीरं वर्णादि च प्रतीत्य प्रयोग- शरीर और वर्ण आदि की अपेक्षा से परिणति-पदं परिणति-पदम्
प्रयोग परिणति-पद ३७. जे अपज्जत्तासुहुमपुढविक्का- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रि- ३७. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक इयएगिदियओरालिय-तेया-कम्मा- यौदारिक - तेजस्क - कर्मकशरीरप्रयोग- एकेन्द्रिय औदारिक तैजस और सरीरपयोगपरिणया ते वण्णओ काल- परिणताः ते वर्णतः कालवर्णपरिणताः अपि कर्मशरीरप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल वण्णपरिणया वि जाव आयतसंठाण- यावत् आयतसंस्थानपरिणताः अपि। ये वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणया वि।
पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक एवं चैव। परिणत भी हैं। जे पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइय एवं चेव। एवं यथानुपूर्व्या ज्ञातव्यम्, यस्य यति इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एवं जहाणुपुव्वीए नेयव्वं, जस्स जइ शरीराणि यावत् ये पर्याप्तकसर्वार्थ- एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस और सरीराणि जाव जे पज्जत्तासव्व . सिद्धानुत्तरौपपातिक - कल्पातीतक- कर्मशरीरप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। ट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीत- वैमानिकदेव-पञ्चेन्द्रिय-वैक्रिय-तेजस्क- इसी प्रकार यथाक्रम ज्ञातव्य है, जिसके गवेमाणिदेव -पंचिंदिय - वेउव्विय - कर्मकशरीर-प्रयोगपरिणताः। ते वर्णतः जितने शरीर हैं वे वक्तव्य हैं यावत् जो तेया-कम्मा-सरीरपयोग-परिणया। ते कालवर्ण-परिणताः अपि, यावत् आयत- पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव संस्थानपरिणताः अपि ।
कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियवैक्रियआयत-संठाणपरिणया वि।।
तैजस और कर्मशरीरप्रयोगपरिणत है वे वर्ण से काल वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं।
इंदियं वण्णादिं च पडुच्च पयोग- इन्द्रियं वर्णादि च प्रतीत्य प्रयोग- इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा परिणति-पदं परिणति-पदम्
प्रयोग परिणति-पद ३८. जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्का-इय - ये अपर्यासकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रिय- ३८. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एगिदियफासिंदियपयोग-परिणया ते स्पर्शेन्द्रियप्रयोग परिणतास्ते वर्णतः एकेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वण्णओ कालवण्ण-परिणया वि जाव कालवर्ण-परिणताः अपि यावत् वर्ण से काल वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयतसंठाण-परिणया वि। आयतसंस्थानपरिणताः अपि।
आयत संस्थान परिणत भी हैं। जे पज्जत्तासुहुमपुढविक्काइय एवं चेव। ये पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक एवं चैव। एवं इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एवं जहाणुपुव्वीए जस्स जति इंदियाणि यथानुपूर्व्या यस्य यति इन्द्रियाणि तस्य तति एकेन्द्रिय स्पर्शनन्द्रियप्रयोगपरिणत की तस्स तति भाणियव्वाणि जाव जे भणितव्यानि यावत् ये पर्याप्तक- वक्तव्यता। इसी प्रकार यथाक्रम जिसके पज्जत्ता-सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय- सर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिककल्पातीतक- जितनी इन्द्रियां हैं उसके उतनी वक्तव्य हैं कप्पातीतग-वेमाणिय देवपंचिंदिय- वैमानिकदेव-पञ्चेन्द्रियश्रोत्रेन्द्रिय यावत् यावत् जो पर्याप्त सर्वार्थसिन्द्र अनुत्तरौप
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श.८ : उ. १ : सू. ३८,३९ सोतिंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया स्पर्शेन्द्रियप्रयोग-परिणताः। ते वर्णतः ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव कालवर्णपरिणताः अपि यावत् आयत- संठाणपरिणया वि।।
आयतसंस्थानपरिणताः अपि।
पातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल वर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं।
सरीरं इंदियं वण्णादिं च पडुच्च शरीरम् इन्द्रियं वर्णादि च प्रतीत्य शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की पयोगपरिणति-पदं प्रयोगपरिणति-पदम्
अपेक्षा प्रयोग परिणति-पद ३९. जे अपज्जत्तासुहमपुढविक्का- ये अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिकैकेन्द्रि- ३९. जो अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक इयएगिदियओरालिया - तेया-कम्मा- यौदारिक - तेजस्क - कर्मक - स्पर्शेन्द्रिय- एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, कर्मशरीर फासिं-दियपयोगपरिणया ते वण्णओ प्रयोगपरिणताः ते वर्णतः कालवर्ण- स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत हैं वे वर्ण से काल-वण्णपरिणया वि जाव आयत- परिणताः अपि यावत् आयतसंस्थान- कालवर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संठाणपरिणया वि। परिणताः अपि।
संस्थान परिणत भी है। जे पज्जत्तासुहमपुढविक्काइय एवं चेव। ये पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक एवं चैव। एवं इसी प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एवं जहाणुपुव्वीए, जस्स जति सरीराणि यथानुपूर्व्या, यस्य यति शरीराणि इन्द्रियाणि एकेन्द्रिय औदारिक, तैजस, कर्मशरीर इंदियाणि य तस्स तति भाणियव्वाणि च तस्य तति भणितव्यानि यावत् ये स्पर्शनेन्द्रियप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता, जाव जे पज्जत्ता-सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो. पर्याप्तकसर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिककल्पा- इसी प्रकार यथाक्रम जिसके जितने शरीर ववाइय-कप्पा-तीतगवेमाणियदेव- तीतक . वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रिय- और इन्द्रियां हैं वे वक्तव्य है यावत जो पंचिदियवेउब्विय-तेया-कम्मा-सोइंदिय । तेजस्ककर्मक-श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शेन्द्रिय- पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक जाव फासिं-दियपयोगपरिणया ते प्रयोगपरिणताः ते वर्णतः कालवर्ण- कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रियवैक्रिय, वण्णओ कालवण्णपरिणया वि जाव परिणताः अपि यावत् आयतसंस्थान- तैजस, कर्मशरीर श्रोत्रेन्द्रिय यावत् आयत-संठाणपरिणया वि। एते नव परिणताः अपि। एते नव दण्डकाः।' स्पर्शनन्द्रियप्रयोगपरिणत है वे वर्ण से दंडगा।
कालवर्ण परिणत भी हैं यावत् आयत संस्थान परिणत भी हैं। प्रयोगपरिणत के ये नौ दण्डक हैं।
भाष्य
१.सूत्र-२.३९
प्रस्तुत प्रकरण में प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य के नौ दण्डक बतलाए गए हैं
१. जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का सामान्य वर्गीकरण।
२. पर्याप्त और अपर्याप्त की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुनल द्रव्य का वर्गीकरण।
३. शरीर की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण।
४. इन्द्रिय की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण।
५. शरीर और इन्द्रिय की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य का वर्गीकरण।
६. वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुदल द्रव्य का वर्गीकरण।
७. शरीर और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत
पुदल द्रव्य का वर्गीकरण।
८. इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुदल द्रव्य का वर्गीकरण।
९. शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की अपेक्षा जीव के प्रयोग परिणत पुद्गल द्रव्य का वर्गीकरण।'
जैन दृष्टि के अनुसार सृष्टि के दो रूप बनते हैं१. जीव कृत सृष्टि २. अजीव निष्पन्न सृष्टि
जीव अपने वीर्य से शरीर, इन्द्रिय और शरीर के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श एवं संस्थान का निर्माण करता है। यह जीव कृत सृष्टि है। उसके नानात्व का हेतु है शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि का वैचित्र्य।
प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य के प्रकरण में शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि के आधार पर जीव कृत सृष्टि के नानात्व का निरूपण किया गया है।
शरीर और इन्द्रिय पौगलिक हैं। वर्ण, गंध, रस और स्पर्श-ये
१. (क) भ. वृ.८.३०।
(ख) भ. जा.२.१३०/४०-१३१॥ (ग) विस्तार के लिए देखें उत्तर. ३६.६८-२४७
. (घ) पण्ण. १/१०.८८ २. उत्तर.३६/८३,१०५,११६, १२५.१३५.१५४,१६०.१०८, १८०,
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भगवई
श.८ : उ. १ : सू. ४०,४१
पुद्गल के गुण है। संस्थान पुद्गल का लक्षण है। जीव कृत सृष्टि का नानात्व पुगल द्रव्य के संयोग से होता है इसीलिए उसके नानात्व के निरूपण में शरीर, इन्द्रिय, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान का निरूपण किया गया है। जीव जैसे शरीर और इन्द्रिय का निर्माण करता है, वैसे ही अपने वर्ण, गंध, रस. स्पर्श और संस्थान का भी निर्माण करता है।
जीव का वीर्य दो प्रकार का होता है-आभोगिक वीर्य और अनाभोगिक वीर्य। इच्छा प्रेरित कार्य करने के लिए वह आभोगिक
वीर्य का प्रयोग करता है अनाभोगिक वीर्य स्वतः चालित वीर्य है। शरीर, इन्द्रिय और वर्ण आदि की रचना अनाभोगिक वीर्य से होती है। प्रायोगिक बंध अनाभोगिक वीर्य से होता है। सिद्धसेन गणि ने दो गाथाएं उद्धृत कर इसका समर्थन किया है।
इस प्रकरण में शरीर के पांच, इन्द्रिय के पांच. वर्ण के पांच, गंध के दो, रस के पांच, स्पर्श के आठ और संस्थान के पांच प्रकार निरूपित है। इनके नानात्व के आधार पर जीवकृत सृष्टि का नानात्व परिलक्षित होता है।
मीसपरिणति-पदं मिश्र-परिणति-पदम्
मिश्र परिणति-पद ४०. मीसापरिणया णं भंते! पोग्गला ४०. मिश्रपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ४०. 'भन्ते! मिश्र परिणत पुद्गल कितने कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधाः प्रज्ञप्ताः?
प्रकार के प्रज्ञ..? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम ! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम ! मिश्रपरिणत पुद्गल पांच प्रकार के एंगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदिय- एकेन्द्रियमिश्रपरिणताः यावत् पञ्चेन्द्रिय प्रज्ञप्त हैं, जैसे-एकेन्द्रियमिश्र परिणत मीसापरिणया।। मिश्रपरिणताः।
यावत् पंचेन्द्रिय मिश्र परिणत।
४१. एगिदियमीसापरिणया णं भंते! एकेन्द्रियमिश्रपरिणताः भदन्त! पुद्गलाः ४१. भन्ते ! एकेन्द्रिय मिश्र परिणत पुद्गल पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता? कतिविधा : प्रज्ञप्ताः?
कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? एवं जहा पयोगपरिणएहिं नव दंडगा एवं यथा प्रयोगपरिणतेषु नव दण्डकाः जैसे-प्रयोगपरिणत के नौ दण्डक कहे गए भणिया, एवं मीसापरिणएहिं वि नव भणिताः, एवं मिश्रपरिणतेषु अपि नव हैं उसी प्रकार मिश्र परिणत के भी नौ दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं निरवसेस, दण्डकाः भणितव्याः, तथैव सर्वं निरवशेषं, दण्डक वक्तव्य हैं। शेष सब पूर्ववत्, केवल नवरं-अभिलावो मीसापरिणया' नवरं-अभिलापः 'मिश्रपरिणताः' इतना विशेष है-प्रयोगपरिणत के स्थान भाणियव्वं, सेसं तं चेव जाव जे । भणितव्यः शेषं तच्चैव यावत् ये पर मिथ परिणत कहना चाहिए यावत् जो पज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय पर्याप्तकसर्वार्थसिद्धानुत्तरौपपातिक यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत जाव आयत-संठाणपरिणया वि॥ आयतसंस्थान-परिणताः अपि।
आयत संस्थान परिणत भी हैं।
भाष्य १. सूत्र ४०-४१
है, वह या तो जीवच्छरीर है या जीवमुक्त शरीर है। जीवच्छरीर प्रयोग १. प्रयोग परिणत पुगल द्रव्य का पहला उदाहरण है एकेन्द्रिय परिणत द्रव्य का उदाहरण है। उसके मौलिक रूप पांच हैंप्रयोग परिणत (सूत्र ८/२)। इसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल द्रव्य का
१. एकेन्द्रिय जीवच्छरीर उदाहरण भी एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है किन्तु दोनों का स्वरूप
२.द्वीन्द्रिय जीवच्छरीर एक नहीं है। एकेन्द्रिय जीव ने औदारिक वर्गणा के जिन पदलों से
३. त्रीन्द्रिय जीवच्छरीर औदारिक शरीर की रचना की है, वे पुद्गल एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं।
४. चतुरिन्द्रिय जीवच्छरीर एकेन्द्रिय जीव के मुक्त शरीर का स्वभाव से परिणामान्तर
५.पंचेन्द्रिय जीवच्छरीर। होता है। वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत है। इसमें जीव का पूर्व कृत प्रयोग इनके अवान्तर भेद असंख्य बन जाते हैं। जीवमुक्त शरीर के तथा स्वभाव से रूपान्तर में परिणमन-दोनों विद्यमान है।
भी मौलिक रूप पांच ही हैं। उनके परिणामान्तर से होने वाले भेद घड़ा मिट्टी से बना। मिट्टी पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय जीव का असंख्य बन जाते हैं। शरीर है। वह निर्जीव हो गया, एकेन्द्रिय जीव उससे च्युत हो गया। प्रयोग परिणाम, मिश्र परिणाम और स्वभाव परिणाम ये सृष्टि इस अवस्था में मिट्टी उसका मुक्त शरीर है। उसमें घट रूप में परिणत रचना के आधारभूत तत्त्व हैं। प्रथम दो परिणाम जीवकृत सृष्टि हैं। होने की क्षमता है। मिट्टी का परिणामान्तर हुआ और घट बन गया स्वभाव परिणाम अजीव कृत सृष्टि है। वर्ण आदि का परिणमन पुद्गल के इसलिए वह एकेन्द्रिय मिश्र परिणत द्रव्य है।
स्वभाव से ही होता है। इसमें जीव का कोई योग नहीं है। हमारा दृश्य जगत पौगलिक जगत है। जो कुछ दिखाई दे रहा १. त. सू. भा. वृ. ८/३ वृत्ति
ननु वीर्येणानाभोगिकेन, परिपाच्य रसमुपाहरति । अपि चायं प्रायोगिक बंधः, स च भवति कर्तृ सामर्थ्यात्।
परिणमयति धातुतया, स च तमनाभोगवीर्येण ।। इष्टश्च स प्रयोगोऽनाभोगिकवीर्यतस्तस्य॥
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श. ८ : उ. १ : सू. ४२,४३
वीससापरिणति-पदं
४२. वीससापरिणया णं भंते! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता?
रस
गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहावण्णपरिणया, गंधपरिणया, परिणया, फासपरिणया, संठाणपरिणया । जे वण्णपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - कालवण्णपरिणया जाव सुक्किल - वण्णपरिणया । जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुब्भि-गंधपरिणया,
दुब्भिगंध -
परिणया ।
जे रसपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - तित्तरसपरिणया जाव महुररसपरिणया । जे फासपरिणया ते अट्ठविहा पण्णत्ता, तं जहा - कक्खडफासपरिणया जाव लुक्ख फासपरिणया ।
जे संठाणपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - परिमंडलसंठाण-परिणया जाव आयतसंठाण-परिणया । जे वण्णओ कालवण्ण-परिणया ते गंधओ सुब्भिगंध- परिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि। एवं जहा पण्णवणाए तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणओ आयतसंठाण-परिणया ते वण्णओ कालवण्ण-परिणया वि जाव लुक्खफास-परिणया वि ॥
४३. एगे भंते! दव्वे किं पयोग - परिणए ? मीसापरिणए ? वीससा परिणए ?
गोयमा ! पयोगपरिणए वा, मीसापरिणए वा, वीससापरिणए वा ।।
१. सूत्र - ४२
छत्तीसवें सूत्र में वर्ण आदि का निरूपण किया गया है। वह जीव कृत प्रायोगिक परिणमन का निरूपण है। एगं दव्वं पडुच्च पोग्गलपरिणति-पदं
१. द्रष्टव्य जैन दर्शन मनन और मीमांसा पृ. ३३०|
१८
विस्रसापरिणति-पदम् विस्रसापरिणताः भदन्त। पुद्गलाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ?
गौतम! पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-वर्णपरिणताः, गन्धपरिणताः, रसपरिणताः, स्पर्शपरिणताः, संस्थानपरिणताः । ये वर्णपरिणताः ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाकालवर्णपरिणताः यावत् शुक्लवर्ण
परिणताः ।
ये गन्धपरिणताः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा - सुरभिगन्धपरिणताः, दुरभिगन्धपरिणताः ।
ये रसपरिणताः ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- तिक्तरसपरिणताः यावत् मधुररसपरिणताः । ये स्पर्शपरिणताः ते अष्टविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-कक्खटस्पर्शपरिणताः यावत् रुक्षस्पर्शपरिणताः । ये संस्थानपरिणताः ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- परिमण्डलसंस्थानपरिणताः यावत् आयतसंस्थानपरिणताः । ये वर्णतः कालवर्ण-परिणताः ते गन्धतः सुरभिगन्धपरिणताः अपि दुरभिगन्धपरिणताः अपि । एवं यथा प्रज्ञापनायां तथैव निरविशेषं यावत् ये संस्थानतः आयतसंस्थानपरिणताः ते वर्णतः कालवर्णपरिणताः अपि यावत् रुक्षस्पर्शपरिणताः अपि ।
भाष्य
है ।
एकं द्रव्यं प्रतीत्य पुद्गलपरिणति-पदम् एकं भदन्त ! द्रव्यं किंप्रयोगपरिणतम् ? मिश्रपरिणतम् ? विस्रसापरिणतम् ?
गौतम ! प्रयोगपरिणतं वा, मिश्रपरिणतं वा, विस्रसापरिणतं वा ।
भगवई
प्रस्तुत सूत्र में पुद्गल द्रव्य के स्वाभाविक परिणमन का निरूपण
विस्रसा परिणति पद
४२. ' भन्ते ! विस्रसा परिणत पुद्गल कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं?
गौतम! विस्रसा परिणत पुद्गल पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- वर्णपरिणत, गंधपरिणत, रसपरिणत, स्पर्शपरिणत, संस्थानपरिणत। जो वर्ण परिणत हैं वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- कालवर्ण परिणत यावत् शुक्लवर्ण परिणत। जो गंध परिणत हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञस हैं, जैसे सुगंधपरिणत और दुर्गन्धपरिणत ।
जो रस परिणत हैं वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- तिक्तरसपरिणत यावत् मधुररसपरिणत। जो स्पर्श परिणत हैं वे आठ प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- कठोर स्पर्शपरिणत यावत् रूक्षस्पर्शपरिणत | जो संस्थान परिणत हैं वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- परिमण्डल संस्थान परिणत यावत् आयत संस्थान परिणत। जो वर्ण से कालवर्णपरिणत हैं वे गन्ध से सुगंध परिणत भी हैं, दुर्गन्धपरिणत भी हैं। जैसे प्रज्ञापना में है वैसे ही अविकल रूप में वक्तव्य हैं यावत् जो संस्थान से आयत संस्थान परिणत हैं वे वर्ण से कालवर्ण परिणत भी हैं यावत रूक्षस्पर्श परिणत भी हैं।
एक द्रव्य की अपेक्षा पुद्गल परिणत -
पद
४३. 'भन्ते ! एक द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत है? मिश्र परिणत है? अथवा विस्रसा परिणत है?
गौतम! वह प्रयोगपरिणत है अथवा मिश्रपरिणत है अथवा विस्रसा परिणत है।
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भगवई
पयोगपरिणति-पदं
प्रयोगपरिणति-पदम् ४४. जइ पयोगपंरिणए किं मण- यदि प्रयोगपरिणतं किं मनःप्रयोगपयोगपरिणए? वइपयोगपरिणए? । परिणतम? वाक्प्रयोगपरिणतम् ? कायकायपयोग परिणए?
प्रयोगपरिणतम् ? गोयमा! मणपयोगपरिणए वा, गौतम ! मनःप्रयोगपरिणतं वा, वाकप्रयोगवइपयोगपरिणए वा, कायपयोग- परिणतं वा, कायप्रयोगपरिणतं वा। परिणए वा॥
श. ८ : उ. १ : सू. ४४-४८ प्रयोगपरिणति-पद ४४. यदि प्रयोगपरिणत है तो क्या मनप्रयोगपरिणत है? वचनप्रयोगपरिणत है? अथवा कायप्रयोगपरिणत है? गौतम! वह मनप्रयोगपरिणत है अथवा वचनप्रयोगपरिणत है अथवा कायप्रयोग परिणत है।
मनप्रयोग परिणति-पद १५. यदि मनप्रयोगपरिणत है तो क्या सत्य मनप्रयोगपरिणत है? मृषामनप्रयोगपरिणत है? सत्यामृषामनप्रयोगपरिणत है ? अथवा असत्यामृषामनप्रयोगपरिणत
मणपयोगपरिणति-पदं
मनःप्रयोगपरिणति-पदम् ४५. जइ मणपयोगपरिणए किं सच्च- यदि मनःप्रयोगपरिणतं किं सत्यमनः- मणपयोगपरिणए? मोसमणपयोग- प्रयोगपरिणतम् ? मृषामनःप्रयोगपरिणतम् ? परिणए? सच्चामोसमणपयोग- सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणतम् ? असत्यापरिणए? असच्चामोसमणपयोग- मृषामनःप्रयोगपरिणतम् ? परिणए? गोयमा! सच्चमणपयोगपरिणए वा, गौतम! सत्यमनःप्रयोगपरिणतं वा, मोसमणपयोगपरिणए वा, सच्चा- मृषामनः प्रयोगपरिणतं वा, सत्यमृषामनःमोसमणपयोगपरिणए वा, असच्चा- प्रयोगपरिणतं वा, असत्यामृषामनःमोसमणपयोगपरिणए वा॥
प्रयोगपरिणतं वा।
है?
गौतम! वह सत्यमनप्रयोगपरिणत है अथवा मृषामनप्रयोगपरिणत है अथवा सत्यामृषामनप्रयोगपरिणत है अथवा असत्यामृषामनप्रयोगपरिणत है।
४६. जइ सच्चमणपयोगपरिणए किं यदि सत्यमनःप्रयोगपरिणतं किं आरम्भ- ४६. यदि सत्यमनप्रयोगपरिणत है तो क्या
आरंभसच्चमणपयोगपरिणए?अणारंभ- सत्यमनःप्रयोगपरिणतम्? अनारम्भ- आरम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है? सच्चमणपयोगपरिणए? सारंभसच्च- सत्यमनःप्रयोगपरिणतम्? सारम्भसत्यमनः अनारंभ सत्यमनप्रयोगपरिणत है? मणपयोगपरिणए? असारंभसच्च- प्रयोगपरिणतम्? असारम्भसत्यमनः- सारम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है? मणपयोगपरिणए? समारंभसच्च- प्रयोगपरिणतम्? समारम्भसत्यमनःप्रयोग- असारम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है? मणपयोगपरिणए? असमारंभसच्च- परिणम? असमारम्भसत्यमनःप्रयोग- समारम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है ? अथवा मणपयोगपरिणए? परिणतम् ?
असमारम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है? गोयमा!आरंभसच्चमणपयोगपरिणए वा गौतम ! आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणतं वा । गौतम! आरम्भ सत्यमनप्रयोगपरिणत है जाव असमारंभसच्चमणपयोग-परिणए यावत् असमारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणतं अथवा यावत् असमारम्भसत्यमनप्रयोगवा॥ वा।
परिणत है।
४७. जइ मोसमणपयोगपरिणए किं
आरंभमोसमणपयोगपरिणए? एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेण वि। एवं सच्चामोसमणपयोगेण वि। एवं असच्चामोसमणपयोगेण वि।।
यदि मृषामनःप्रयोगपरिणतं किं आरम्भमृषामनःप्रयोगपरिणतम्? एवं यथा सत्येन तथा मृषा अपि। एवं सत्यामषामनःप्रयोगेण अपि। एवं असत्यामृषामनःप्रयोगेण अपि।
४७. यदि मृषामनप्रयोगपरिणत है तो क्या
आरम्भमृषा मनप्रयोगपरिणत है? इस प्रकार जैसे सत्यमनप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता है वैसे ही मृषामनप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार सत्यमृषामनप्रयोगपरिणत की और इसी प्रकार असत्यमृषामनप्रयोगपरिणत वक्तव्यता।
वइपयोगपरिणति-पदं ४८. जइ बइपयोगपरिणए किं सच्च- वइपयोगपरिणए? मोसवइपयोग- परिणए? एवं जहा मणपयोगपरिणए तहा
वाक्प्रयोगपरिणति-पदम्
वचनप्रयोग परिणति-पद यदि वाक्प्रयोगपरिणतः किं सत्यवाक- ४८. यदि वचनप्रयोग परिणत है तो क्या प्रयोगपरिणतः? मृषावाक्प्रयोगपरिणतः? सत्यवचनप्रयोगपरिणत है? मृषा
वचनप्रयोगपरिणत है? एवं यथा मनःप्रयोगपरिणतः तथा वाक- इस प्रकार जैसे मनप्रयोगपरिणत की
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भगवई
श.८ : उ. १ : सू. ४९-५२ वइपयोग-परिणए वि जाव असमा- रंभवइपयोगपरिणए वा॥
प्रयोगपरिणतोऽपि यावत् असमारम्भवाकप्रयोगपरिणतः वा।
वक्तव्यता वैसे वचनप्रयोगपरिणत की भी वक्तव्यता यावत् अथवा असमारम्भ सत्य वचनप्रयोगपरिणत है।
कायपयोगपरिणति-पदं
कायप्रयोगपरिणति-पदम् ४९. जइकायपयोगपरिणए कि यदिकायप्रयोगपरिणतः किम् औदा- ओरालिय सरीरकायपयोग-परिणए? रिकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? औदारिक- ओरालियमीसासरीर-कायपयोग- मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतः? वैक्रियपरिणए? वेउब्विय-सरीरकायपयोग- शरीरकायप्रयोगपरिणतः? वैक्रियमिश्रपरिणए? वेउब्विय-मीसासरीरकाय . शरीरकायप्रयोगपरिणतः? आहारकशरीर. पयोगपरिणए? आहारगसरीरकाय- कायप्रयोगपरिणतः? आहारकमिश्रशरीरपयोगपरिणए? आहारगमीसा- कायप्रयोगपरिणतः? कर्मकशरीरकायसरीरकायपयोग-परिणए? कम्मा- प्रयोगपरिणतः? सरीरकायपयोग-परिणए? गोयमा! ओरालियसरीरकाय- गौतम! औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणतः पयोगपरिणए वा जाव कम्मासरीर- वा यावत् कर्मकशरीरकायप्रयोगपरिणतः कायपयोगपरिणए वा॥
वा।
कायप्रयोग परिणति-पद ४९. यदि कायप्रयोगपरिणत है तो क्या
औदारिकशरीर कायप्रयोगपरिणत है? औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है? वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? आहारक शरीरकायप्रयोगपरिणत है? आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है?
गौतम! औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा यावत कर्मशरीर कायप्रयोगपरिणत है।
५०. जइ ओरालियसरीरकायपयोग- यदि औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणतः ५०. यदि औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत परिणए किं एगिदियओरालिय- किम् एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरकायप्रयोग- है तो क्या एकेन्द्रिय औदारिकशरीरसरीरकायपयोगपरिणए? जाव परिणतः? यावत् पञ्चेन्द्रिय औदारिक- कायप्रयोगपरिणत है? यावत पंचेन्द्रिय पंचिंदियओरालियसरीरकायपयोग- शरीरकायप्रयोगपरिणतः?
औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? परिणए? गोयमा! एगिदियओरालियसरीर- गौतम! एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरकाय- गौतम! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायकायपयोगपरिणए वा जाव प्रयोगपरिणतः वा यावत् पञ्चेन्द्रिय- प्रयोगपरिणत है अथवा यावत पंचेन्द्रिय पंचिंदियओरालिय . सरीरकाय- औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणतः वा। औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है। पयोगपरिणए वा॥
५१. जइ एगिदियओरालियसरीर-काय- यदि एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरकायप्रयोग- ५१. यदि एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायपयोगपरिणए किं पुढ-विक्काइय- परिणतः किं पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय- प्रयोगपरिणत है तो क्या पृथ्वीकायिक एगिदियओरालियसरीर-कायपयोग- औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? यावत् एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणए? जाव वणस्सइ-काइयएगिंदिय वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रिय औदारिक- परिणत है? यावत् वनस्पतिकायिक - ओरालियसरीर-कायपयोगपरिणए? शरीरकायप्रयोगपरिणतः?
एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोग
परिणत है? गोयमा! पुढविक्काइयएगिदिय- गौतम! पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय- गौतम ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक
ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा औदारिक-शरीरकायप्रयोगपरिणतः वा शरीर कायप्रयोगपरिणत है अथवा यावत जाव वणस्सइकाइयएगिदिय- यावत् वनस्पतिकायिक . एकेन्द्रिय- वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय औदारिक ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए वा॥ औदारिक-शरीर-कायप्रयोगपरिणतः वा। शरीर कायप्रयोगपरिणत है।
५२. जइ पुढविक्काइयएगिदिय- यदि पृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिक-
ओरालियसरीरकायपयोगपरिणए किं शरीरकायप्रयोगपरिणतः किं सूक्ष्म- सुहमपुढविक्काइय जाव परिणए? पृथ्वीकायिक-यावत् परिणतः? बादर- बादरपुढ-विक्काइय जाव परिणए? पृथ्वीकायिक-यावत्-परिणतः?
५२. यदि पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? बादर पृाकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीर
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भगवई
२१
गोयमा! सुहमपुढविकाइयएगिदिय जाव गौतम! सूक्ष्मपृथ्वीकायिक-एकेन्द्रिययावत् परिणए वा, बादरपुढ-विक्काइय जाव परिणतः वा, बादरपृथ्वीकायिक यावत् परिणए वा॥
परिणतः वा।
श. ८ : उ. १ : सू. ५३-५५ कायप्रयोग-परिणत है? गौतम! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
५३. जइ सुहमपुढविक्काइय जाव परिणए यदि सूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत् परिणतः किं किं पज्जत्तासुहुमपुढ-विक्काइय जाव पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत्- परिणए? अपज्जत्तासुहमपुढविक्काइय परिणतः? अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक जाव परिणए?
यावत् परिणतः?
५३. यदि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय
औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या पर्याप्त सूक्ष्म पृीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है?
गोयमा! पज्जत्तासुहमपुढविक्का-इय गौतम! पर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक यावत् जाव परिणए वा, अपज्जत्ता- परिणतः वा, अपर्याप्तकसूक्ष्मपृथ्वीकायिक सुहमपुढविक्काइय जाव परिणए वा। एवं यावत् परिणतः वा। एवं बादरा अपि। एवं बादरा वि। एवं जाव वणस्सइकाइयाणं यावत् वनस्पतिकायिकानां चतुष्ककः भेदः। चउक्कओ भेदो। बेइंदिय-तेइंदिय- द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाणां द्विककः चउरिंदियाणं दुयओ भेदो-पज्जत्तगाय भेदःपर्याप्तकाश्च अपर्याप्तकाश्च। अपज्जत्तगा य॥
गौतम! वह पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है, अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है। इसी प्रकार बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक के चार-चार भेदों की वक्तव्यता। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के दो-दो भेद पर्याप्तक और अपर्यासक की वक्तव्यता।
५४. जइ पंचिंदियओरालियसरीर. यदि पञ्चेन्द्रिय-औदारिकशरीरकाय- ५४. यदि पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायकायपयोगपरिणए किं तिरिक्ख. प्रयोगपरिणतः किं तिर्यक्योनिक- प्रयोगपरिणत है तो क्या तिर्यक्योनिक जोणियपंचिंदियओरालियसरीर-काय- पञ्चेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोग- पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपयोगपरिणए? मणुस्स-पंचिंदिय जाव। परिणतः? मनुष्यपञ्चेन्द्रिय यावत् परिणत है? अथवा मनुष्य पंचेन्द्रिय परिणए? परिणतः?
औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है?
गौतम! तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रिय गोयमा! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए गौतम ! तिर्यक्योनिक यावत् परिणतः वा, औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा वा, मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए वा॥ मनुष्यपञ्चेन्द्रिय यावत् परिणतः वा। मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकाय
प्रयोगपरिणत है।
५५. जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए यदि तिर्यक्योनिक यावत् परिणतः किं किं जलचरतिरिक्ख-जोणिय जाव जलचरतिर्यक्योनिक यावत् परिणतः? परिणए? थलचर-खहचर जाव स्थल-चर-खेचर यावत् परिणतः? परिणए ?
५५. यदि तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रिय
औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या जलचर तिर्यकयोनिक औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा स्थलचरखेचर तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? इस प्रकार तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत यावत्
एवं चउक्कओ भेदो जाव खहचराणं॥
एवं चतुष्ककः भेदः यावत् खेचराणाम् वा।।
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श. ८ : उ. १ सू. ५५-५८
५६. जइ मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए किं संमुच्छिममणुस्स - पंचिंदिय जाव परिणए ? गब्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए ?
गोयमा ! दोसु वि ।।
५७. जइ गब्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए किं पज्जत्तागब्भवक्कंतिय अपज्जत्तागब्भ
जाव परिणए ? वक्कंतिय जाव परिणए?
गोयमा ! पज्जत्तागब्भवक्कंतिय जाव परिणए वा अपज्जत्ता- गब्भवक्कंतिय जाव परिणए वा ॥
५८. जइ
ओरालियमीसासरीरकायपयोगपरिणए किं एगिंदियओरालियमीसासरीर- कायपयोगपरिणए ? बेइंदिय जाव परिणए ? जाव पंचिंदियओरालिय जाव परिणए ?
गोयमा ! एगिंदियओरालियमीसासरीरकायपयोगपरिणए एवं जहा ओरालिय सरीरकायपयोग परिणएणं आलावगो भणिओ तहा ओरालियमीसासरीरकायपयोगपरिणएण वि आलावगो भाणियव्वो, नवरंबादरवाउक्काइय गब्भवक्कंतिय
पंचिंदियतिरिक्खजोणियगब्भवक्कंतियमस्साणं एएसिणं पज्जतापज्जत्तगाणं, सेसाणं अपज्जत्तगाणं ॥
२२
यदि मनुष्यपञ्चेन्द्रिय यावत् परिणतः किं सम्मूर्छिममनुष्यपञ्चेन्द्रिय यावत् परिणतः ? गर्भावक्रान्तिकमनुष्य यावत् परिणतः ?
गौतम ! द्वयोरपि ।
यावत्
यदि गर्भावक्रान्तिकमनुष्य यावत् परिणतः किं पर्याप्तकगर्भावक्रान्तिक परिणतः ? अपर्याप्तकगर्भावक्रान्तिक यावत् परिणतः ?
गौतम! पर्याप्तकगर्भावक्रान्तिक यावत् परिणतः वा अपर्याप्तकगर्भावक्रान्तिक यावत् परिणतः वा ।
यदि औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतः किम् एकेन्द्रिय औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतः ? द्वीन्द्रिय यावत् परिणतः ? यावत् पञ्चेन्द्रिय औदारिक यावत् परिणतः ?
गौतम! एकेन्द्रिय औदारिकमिश्रशरीरकाय प्रयोगपरिणतः एवं यथा औदारिकशरीरकाय प्रयोगपरिणतेन आलापकः भणितः तथा औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतेनापि आलापकः भणितव्यः नवरं - बादरवायु - कायिक- गर्भावक्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यक् -योनिक गर्भावक्रान्तिकमनुष्याणाम्एतेषां पर्याप्तापर्याप्तकानां, शेषाणाम् अपर्याप्तकानाम् ।
भगवई
खेचर के चार-चार भेदों की
वक्तव्यता ।
५६. यदि मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर-कायप्रयोगपरिणत है तो क्या संमूर्च्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकाय प्रयोगपरिणत है? गौतम! दोनों ही मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
५७. यदि गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या पर्याप्स गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत हैं? अथवा अपर्याप्त गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? गौतम! पर्याप्त गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा अपर्याप्त गर्भावक्रान्तिक मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
५८. यदि औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या एकेन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीर कायप्रयोगपरिणत है? द्वीन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? गौतम! एकेन्द्रिय औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है। इस प्रकार जैसे औदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणत आलापक कहा गया है वैसे ही औदारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत का आलापक वक्तव्य है। केवल इतना विशेष है- बादर वायुकायिक, गर्भावक्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक और गर्भावक्रान्तिक मनुष्य- ये पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों तथा शेष सभी केवल अपर्याप्तक होते हैं।
का
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भगवई
२३
५९. जइ वेउव्वियसरीरकायपयोग- यदि वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणतः किम् परिणए किं एगिदियवेउव्वियसरीर- एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणतः? कायपयोगपरिणए? पंचिंदिय- पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीर यावत परिणतः? वेउब्वियसरीर जाव परिणए? गोयमा! एगिदिय जाव परिणए वा, गौतम! एकेन्द्रिय यावत् परिणतः वा पञ्चेपंचिंदिय जाव परिणए वा।
न्द्रिय यावत् परिणतः वा।
श. ८ : उ. १ : सू. ५९-६१ ५९. यदि वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है
तो क्या एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है? गौतम! एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
६०. जइ एगिदिय जाव परिणए किं यदि एकेन्द्रिय यावत् परिणतः किं वायु- ६०. यदि एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगवाउक्काइयएगिंदिय जाव परिणए? कायिकैकेन्द्रिय यावत् परिणतः? अवायु- परिणत है तो क्या वायुकायिक एकेन्द्रियअवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए? कायिकैकेन्द्रिय यावत् परिणतः?
वैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रियवक्रियशरीर
कायप्रयोगपरिणत है? गोयमा! वाउक्काइयएगिदिय जाव गौतम! वायुकायिकैकेन्द्रिय यावत् । गौतम! वायुकायिक एकेन्द्रियवैक्रियपरिणए, नो अवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणतः, नो अवायुकायिकैकेन्द्रिय यावत् शरीरकायप्रयोगपरिणत है, अवायुकायिक परिणए। एवं एएणं अभिलावेणं जहा । परिणतः। एवम् एतेन अभिलापेन यथा एकेन्द्रियवैक्रियशरीरकाय - प्रयोगपरिणत ओगाहणसंठाणे वेउब्वियसरीरं भणियं अवगाहना- संस्थाने वैक्रियशरीरं भणितं नहीं है। इस प्रकार इस वायुकाय के तहा इह वि भाणियव्वं जाव पज्जत्ता - तथा इहापि भणितव्यं यावत् पर्याप्त- अभिलाप के अनुसार जैसी अवगाहना सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो . ववाइय- कसर्वार्थसिद्ध . अनुत्तरौपपातिककल्पा- संस्थान नामक प्रज्ञापना के २१वे पद म कप्पातीतावेमाणियदेव-पंचिंदिया तीतक - वैमानिकदेव - पञ्चेन्द्रियवैक्रिय- वैक्रियशरीर की वक्तव्यता है वैसा यहां भी वेउव्वियसरीर-काय-पयोगपरिणए वा, शरीरकायप्रयोगपरिणतः वा, अपर्याप्तक- वक्तव्य है। यावत् पर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अपज्जत्ता-सव्वट्ठ-सिद्धअणुत्तरो- सर्वार्थसिद्ध . अनुत्तरौपातिक यावत् अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव ववाइय जाव परिणए वा॥ परिणतः वा।
पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरकायप्रयोगपरिणत है अथवा अपर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतग वैमानिक देवपंचेन्द्रियवैक्रिय : शरीरकायप्रयोग - परिणत है।
६१. जइ वेउव्वियमीसासरीरकाय- यदि वैक्रियमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतः ६१.यदि वैक्रिय मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत पयोगपरिणए किं एगिदियमीसा- किम् एकेन्द्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगपरि- है तो क्या एकेन्द्रिय मिश्रशरीरकायसरीरकायपयोगपरिणए? जाव पंचिं- णतः? यावत् पञ्चेन्द्रियमिश्रकशरीरकाय- प्रयोगपरिणत है? अथवा यावत् पंचेन्द्रिय दियमीसासरीर-कायपयोग-परिणए। प्रयोगपरिणतः?
मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? एवं जहा वेउब्वियं तहा वेउब्विय-मीसगं एवं यथा वैक्रियं तथा वैक्रियमिश्रकमपि, इस प्रकार जैसे वैक्रिय की वक्तव्यता है पि, नवरं-देव-नेरइयाणं अपज्जत्तगाणं, नवरं-देव-नैरयिकाणाम् अपर्याप्तकानाम्, वैसे ही वैक्रिय मिश्र की भी वक्तव्यता। सेसाणं अपज्जत्त-गाणं जाव नो शेषाणां पर्याप्तकानां यावत् नो पर्याप्तक- केवल इतना विशेष है-देव नैरयिकों के पज्जत्ता-सव्वट्ठ सिद्धअणुत्तरोववाइय । सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक यावत् अपर्याप्सक और शेष के पर्याप्तक यावत जाव परिणए, अपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध- परिणतः, अपर्याप्तकसर्वार्थसिद्ध- पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरीपपातिक देव अणुत्तरोववाइय . देवपंचिंदिय- अनुत्तरौपपातिकदेव . पञ्चेन्द्रियवैक्रिय- पंचेन्द्रियवैक्रियमिश्रशरीरकाय . प्रयोगवेउब्वियमीसासरीरकाय-पयोग- मिश्रकशरीर-कायप्रयोग-परिणतः।
परिणत नहीं हैं, अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध परिणए।
अनुत्तरौपपातिक देव पंचेन्द्रियवैक्रिय मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
१.पण्ण.२१.५०-५५
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भगवई
श. ८ : उ. १ : सू. ६२-६५ ६२. जई आहारगसरीरकायपयोग- यदि आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणतः किं परिणए किं मणुस्साहारगसरीर- मनुष्याहारकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? कायपयोगपरिणए? अमणुस्सा-हारग अमनुष्याहारक यावत् परिणतः? जाव परिणए। एवं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इड्डि एवं यथा अवगाहनासंस्थाने यावत पत्तपमत्त-संजयसम्मदिद्वि-पज्जत्तग- ऋद्धिप्राप्तप्रमत्त-संयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्सकसंखेज्जवासाउय जाव परिणए, नो संख्येयवर्षायुष्क यावत् परिणतः नो अणिड्डिपत्तपमत्त-संजयसम्मदिट्ठि- अनृद्धिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यगदृष्टिपर्याप्तपज्जत्तसंखेज्जवासाउय जाव परिणए॥ संख्येयवर्षायुष्क यावत् परिणतः।
६२. यदि आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो क्या मनुष्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? अथवा अमनुष्य आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है? इस प्रकार जैसी अवगाहनासंस्थान नामक प्रज्ञापना के २१वें पद में आहारकशरीर की वक्तव्यता है वैसा यहां भी वक्तव्य है यावत ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्येयवर्ष आयुष्य वाला आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत है, ऋद्धि- अप्राप्त प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्ष आयुष्य वाला आहारकशरीरकायप्रयोगपरिणत नहीं है।'
६३. जइ आहारगमीसासरीरकाय- यदि आहारकमिश्रकशरीरकायप्रयोग- ६३. यदि आहारक मिश्रशरीरकायप्रयोगपयोगपरिणए कि मणुस्साहारग- परिणतः किं मनुष्याहारकमिश्रकशरीरकाय- परिणत है तो क्या मनुष्य आहारकमीसासरीरकायपयोगपरिणए? प्रयोगपरिणतः?
मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणत है? एवं जहा आहारगं तहेव मीसगं पि एवं यथा आहारकं तथैव मिश्रकमपि इस प्रकार जैसी आहारकशरीर की निरवसेसं भाणियव्वं॥ निरवशेष भणितव्यम्।
वक्तव्यता है वैसे आहारकमिश्रशरीर के विषय में भी अविकल रूप से वक्तव्य है।
६४. जइ कम्मासरीरकायपयोग-परिणए यदि कर्मकशरीरकायप्रयोगपरिणतः किम किं एगिदियकम्मासरीर-कायपयोग- एकेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगपरिणतः? परिणए ? जाव पंचिंदिय-कम्मा- यावत् पञ्चेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगसरीरकायपयोग-परिणए?
परिणतः? गोयमा! एगिदियकम्मासरीरकाय- गौतम! एकेन्द्रियकर्मकशरीरकायप्रयोगपयोगपरिणए, एवं जहा ओगाहण- परिणतः, एवं यथा अवगाहनासंस्थाने संठाणे कम्मगस्सभेदो तहेव इह वि जाव कर्मकस्य भेदस्तथैव इहापि यावत् पर्याप्तकपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो-ववाइय सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिककल्पातीतक कप्पातीतगवेमाणियदेव-पंचिंदिय- -वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियकर्मकशरीरकायकम्मासरीरकायपयोग-परिणए वा, प्रयोगपरिणतः वा, अपर्याप्तकसर्वार्थसिद्धअपज्जत्तासव्वट्ठसिद्ध-अणुत्तरोववाइय अनुत्तरौपपातिक यावत् परिणतः वा। जाव परिणए वा॥
६४. यदि कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है तो
क्या एकेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है? यावत पंचेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है? गौलम! एकेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है। इस प्रकार जैसी अवगाहनासंस्थान नामक प्रज्ञापना के २१वें पद में कर्म के भेद की वक्तव्यता है वैसे यहां भी वक्तव्य है यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिन्द्र अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय कर्मशरीरकायप्रयोगपरिणत है, यावत् अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीतगवैमानिक देव पंचेन्द्रिय कशरीरकायप्रयोगपरिणत है।
मीसपरिणति-पदं
मिश्रपरिणति-पदम ६५. जइ मीसापरिणए किं मणमीसा- यदि मिश्रकपरिणतः किं
परिणए? वइमीसापरिणए? काय- मनोमिश्रकपरिणतः? वाभिश्रकपरिणतः? मीसापरिणए?
कायमिश्रकपरिणतः? गोयमा! मणमीसापरिणए वा, गौतम ! मनोमिश्रकपरिणतः वा, वाभिश्रकवइमीसापरिणए वा, कायमीसा-परिणए परिणतः वा, कायमिश्रकपरिणतः वा। वा॥
मिश्रपरिणति-पद ६५. यदि मिश्रपरिणत है तो क्या मन मिश्र परिणत है? वचन मिश्रपरिणत है ? अथवा काय मिश्रपरिणत है? गौतम! वह मन मिश्रपरिणत है अथवा वचन मिश्रपरिणत है, अथवा काय मिश्रपरिणत है।
१. (क) पण्ण. २१/५०-५५
(ख) सम. प. १६४
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भगवई
२५
श.८ : उ. १ : सू. ६६-७२
६६. जइ मणमीसापरिणए किं सच्च- यदि मनोमिश्रकपरिणतः किं सत्यमनोमि- मणमीसापरिणए? मोसमणमीसा- कपरिणतः? मृषामनोमिश्रकपरिणतः? परिणए? जहा पयोगपरिणए तहा मीसा-परिणए यथा प्रयोगपरिणतः तथा मिश्रकपरिणतः वि भाणियव्वं निरवसेसं जाव अपि भणितव्यम् निरवशेषं यावत् पर्याप्तकपज्जत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरो · बवाइय सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक यावत् देवजाव देवपंचिंदियकम्मा-सरीरगमीसा- पञ्चेन्द्रियकर्मकशरीरकमिश्रकपरिणतः वा, परिणए वा, अपज्जत्तासब्वट्ठसिद्ध- अपर्याप्तकसर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक अणुत्तरो-वववाइय जाव कम्मा- यावत कर्मकशरीरमिश्रकपरिणतः वा। सरीरमीसा-परिणए वा॥
६६. यदि मन मिश्रपरिणत है तो क्या
सत्यमन मिश्र परिणत है? मृषा-मन मिश्रपरिणत है? जैसे प्रयोगपरिणत की वक्तव्यता है वैसे ही मिश्रपरिणत भी अविकल रूप से वक्तव्य है यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत् देव पंचेन्द्रिय कर्मशरीर मिश्रपरिणत है अथवा अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक यावत कर्मशरीर मिश्रपरिणत है।
वीससापरिणति-पदं विस्रसापरिणति-पदम
विस्रसा परिणति-पद ६७. जइ वीससापरिणए किं वण्ण- यदि विस्रसापरिणतः किं वर्णपरिणतः? ६७. यदि विरसा परिणत है तो क्या वर्ण परिणए? गंधपरिणए ? रस-परिणए? । गन्धपरिणतः? रसपरिणतः? परिणत है? गंधपरिणत है? रस परिणत फासपरिणए ? संठाण-परिणए? स्पर्शपरिणतः? संस्थानपरिणतः?
है? स्पर्श परिणत है? संस्थान परिणत है? गोयमा! वण्णपरिणए वा, गंध-परिणए । गौतम! वर्णपरिणतः वा. गन्धपरिणतः वा, गौतम! वह वर्णपरिणत भी है, गंधपरिणत वा रसपरिणए वा, फास-परिणए वा, रसपरिणतः वा, स्पर्शपरिणतः वा, भी है, रसपरिणत भी है. स्पर्शपरिणत भी संठाणपरिणए वा॥ संस्थान-परिणतः वा।
है, संस्थानपरिणत भी है।
६८. यदि वर्णपरिणत है तो क्या कालवर्ण परिणत है यावत शुक्लवर्ण परिणत है?
६८. जइ वण्णपरिणए किं काल- यदि वर्णपरिणतः किं कालवर्णपरिणतः वण्णपरिणए जाव सुक्किलवण्ण- यावत शुक्लवर्णपरिणतः? परिणए? गोयमा! कालवण्णपरिणए वा जाव गौतम कालवर्णपरिणतः वा यावत् शुक्लसुक्किलवण्णपरिणए वा॥
वर्णपरिणतः वा।
गौतम? वह कालवर्णपरिणत भी है यावत् शुक्लवर्णपरिणत भी है।
६९. जइ गंधपरिणए किं सुब्भि- गंधपरिणए ? दुब्भिगंधपरिणए? गोयमा! सुब्भिगंधपरिणए वा, दुब्भिगंधपरिणए वा।।
यदि गन्धपरिणतः किं सुरभिगन्ध- परिणतः? दुरभिन्धपरिणतः? गौतम! सुरभिगन्धपरिणतः वा. दुरभिगन्धपरिणतः वा।
६९. यदि गन्ध परिणत है तो क्या सुगन्धपरिणत है ? दुर्गन्धपरिणत है? गौतम ! वह सुगन्धपरिणत भी है अथवा दुर्गन्धपरिणत भी है?
७०, जइ रसपरिणए किं तित्तरस- परिणए? पुच्छा। गोयमा! तित्तरसपरिणए वा जाव महुररसपरिणए वा॥
यदि रसपरिणतः किं तिक्तरसपरिणतः? पृच्छा । गौतम! तिक्तरसपरिणतः वा यावत् मधुररसपरिणतः वा।
७०. यदि रसपरिणत है तो क्या तिक्तरसपरिणत है ? पृच्छा। गौतम! वह तिक्तरसपरिणत भी है यावत मधुररसपरिणत भी है।
७१. जइ फासपरिणए किं कक्खड- यदि स्पर्शपरिणतः किं कक्खटस्पर्श- ७१. यदि स्पर्शपरिणत है तो क्या कठोरफासपरिणए जाव लुक्खफास-परिणए? परिणतः यावत रुक्षस्पर्शपरिणतः? स्पर्शपरिणत है यावत् रूक्षस्पर्शपरिणत
गोयमा! कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासरपरिणए।।
गौतम! कक्खटस्पर्शपरिणतः यावत् रुक्षस्पर्शपरिणतः।
गौतम! कठोर स्पर्शपरिणत भी है यावत रूक्षस्पर्शपरिणत भी है।
७२. जइ संठाणपरिणए-पुच्छा। गोयमा! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव आयतसंठाणपरिणए वा॥
यदि संस्थानपरिणतः-पृच्छा। गौतम ! परिमंडलसंस्थानपरिणतः वायावत आयतसंस्थानपरिणतः वा।
७२. यदि संस्थान परिणत है-पृच्छा। गौतम ! परिमण्डल संस्थान परिणत भी है अथवा यावत् आयत संस्थान परिणत भी है।
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श. ८ : उ. १ : सू. ७३-७५
दोण्णि दव्वाइं पडुच्च पोग्गल - परिणतिपदं
७३. दो भंते! दव्वा किं पयोग-परिणया ? मीसापरिणया ? वीससा-परिणया ?
गोयमा ! १. पयोगपरिणया वा २. मीसापरिणया वा ३. वीससा - परिणया वा ४. अहवेगे पयोग - परिणए, एगे मीसापरिणए ५. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे वीससापरिणए ६. अहवेगे मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए ।
७४. जइ पयोगपरिणया किं मणपयोगपरिणया ? वइपयोग-परिणया ? कायपयोगपरिणया ?
गोयमा ! १. मणपयोपरिणया वा २. वइप-योगपरिणया वा ३. कायपयोगपरिणया वा 8. अहवेगे मणपयोगपरिणए, एगे asपयोगपरिणए ५. अहवेगे मणपयोग- परिणए, एगे कायपयोगपरिणए ६. अहवेगे वइपयोगपरिणए, एगे कायपयोगपरिणए ।
७५. जइ मणपयोगपरिणया किं सच्चमणपयोगपरिणया ? असच्चमणपयोग - परिणया ? सच्चमोसमण पयोगपरिणया ?
असच्चमोसमणपयोग
परिणया ?
गोयमा !
१-४. सच्चमणपयोगपरिणया वा जाव असच्चमोसमणपयोगपरिणया वा ५. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे मोसमणपयोगपरिणए ६. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे सच्चामोस - मणपयोगपरिणए ७. अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, एगे असच्चमोसमणपयोगपरिणए ८. अहवेगे मोसमणपयोगपरिणए, एगे सच्चमोसमणपयोगपरिणए ९. अहवेगे मोसमणपयोगपरिणए, एगे असच्च
मोसमणपयोगपरिणए १०. अहवेगे सच्चमोसमणपयोगपरिणए, एगे असच्चमोसमणपयोगपरिणए ।
२६
द्रव्ये प्रतीत्य पुद्गल परिणति-पदम्
द्वे भदन्त ! द्रव्ये किं प्रयोगपरिणते? मिश्रकपरिणते? विस्रसापरिणते?
गौतम ! १. प्रयोगपरिणते वा २. मिश्रकपरिणते वा ३. विस्रसापरिणते वा ४. अथवा एकं प्रयोगपरिणतम्, एकं मिश्रकपरिणतम् ५. अथवा एक प्रयोगपरिणतम्, एकं विस्रसा परिणतम् ६. अथवा एक मिश्रकपरिणतम्, एकं विस्रसापरिणतम् ।
यदि प्रयोगपरिणते किं मनः प्रयोगपरिणते ? वाक्प्रयोगपरिणते ? कायप्रयोगपरिणते ?
गौतम ! १. मनः प्रयोगपरिणते वा २. वाक्प्रयोगपरिणते वा ३. कायप्रयोगपरिणते वा ४. अथवा एक मनः प्रयोगपरिणतम्, एकं वाक् प्रयोगपरिणतम् ५. अथवा एक मनःप्रयोगपरिणतम् एकं कायप्रयोगपरिणतम् ६. अथवा एकं वाक्प्रयोगपरिणतम्, एकं कायप्रयोगपरिणतम् ।
यदि मनः प्रयोगपरिणते किं सत्यमनःप्रयोगपरिणते ? असत्यमनः प्रयोगपरिणते ? सत्यमृषाभनः प्रयोगपरिणते ? असत्यामृषामनः प्रयोगपरिणते ?
गौतम ! १-४. सत्यमनः प्रयोगपरिणते वा यावत् असत्यामृषामनः प्रयोगपरिणते वा ५. अथवैकं सत्यमनः प्रयोगपरिणतम्, एकं मृषामन: प्रयोगपरिणतम् ६. अथवैकं सत्यमनः प्रयोग- परिणतम् एकं सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणतम् ७. अथवैकं सत्यमनः प्रयोगपरिणतम्, एकम् असत्या मृषामनः प्रयोगपरिणतम् । अथवैकं मृषामनः प्रयोगपरिणतम्, एकं सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणतम्, ९. अथवैकं मृषामनःप्रयोगपरिणतम् एकम् असत्यामृषामनःप्रयोगपरिणतम् १०. अथवैकं सत्यमृषामनः प्रयोगपरिणतम्, एकम् मृषामनः प्रयोगपरिणतम् ।
८.
असत्या
भगवई
दो द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल परिणति -
पद
७३. भन्ते! दो द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत है? क्या मिश्र परिणत हैं? क्या विस्रसा परिणत हैं?
गौतम ! १. प्रयोग परिणत भी हैं २. मिश्र परिणत भी हैं ३. विस्रसा परिणत भी हैं ४. अथवा एक प्रयोग परिणत हैं, एक मिश्र परिणत है, ५. अथवा एक प्रयोगपरिणत है, एक विस्रसा परिणत है ६. अथवा एक मिस्र परिणत है, एक विस्रसा परिणत है।
७४. यदि प्रयोगपरिणत हैं तो क्या मनप्रयोगपरिणत हैं? वचनप्रयोगपरिणत हैं ? अथवा कायप्रयोगपरिणत हैं ? गौतम ! १. मनप्रयोगपरिणत हैं २. वचनप्रयोगपरिणत भी हैं ३. कायप्रयोगपरिणत भी हैं ४. अथवा एक मनप्रयोगपरिणत है, एक वचनप्रयोगपरिणत है ५. अथवा एक मनप्रयोगपरिणत है, एक कायप्रयोगपरिणत है ६. अथवा एक वचनप्रयोगपरिणत है, एक कायप्रयोगपरिणत है।
७५. यदि मनप्रयोगपरिणत हैं तो क्या सत्यमनप्रयोगपरिणत हैं? असत्य मनप्रयोगपरिणत हैं? सत्यमृषामन प्रयोगपरिणत हैं? अथवा असत्यामृषामन प्रयोगपरिणत हैं?
गौतम ! १-४. सत्यमनप्रयोगपरिणत भी हैं, असत्यामृषामनप्रयोगपरिणत भी हैं ५. अथवा एक सत्यमन प्रयोगपरिणत है. एक मृषामन प्रयोगपरिणत है ६. अथवा एक सत्यमन प्रयोगपरिणत है, एक सत्यमृषामन प्रयोगपरिणत है ७. अथवा एक सत्यमन प्रयोगपरिणत है. एक असल्यामृषामन प्रयोगपरिणत है, ८. अथवा एक मृषामन प्रयोगपरिणत है, एक सत्यमृषामन प्रयोगपरिणत है ९ अथवा एक मृषामन प्रयोगपरिणत है, एक असत्यामृषामन प्रयोगपरिणत है १०. अथवा एक सत्यमृषामन प्रयोगपरिणत है, एक असल्यामृषामन प्रयोगपरिणत है।
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भगवई
७६. जइ सच्चमणपयोगपरिणया किं यदि सत्यमनःप्रयोगपरिणते किम् आरंभसच्चमणपयोगपरिणया? जाव आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणते? यावत् असमारंभसच्चमणपयोग-परिणया? असमारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणते? गोयमा! आरंभसच्चमणपयोगपरिणया । गौतम! आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणते वा वा जाव असमारंभसच्च-मणपयोग- यावत् असमारम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणते परिणया वा, अहवेगे आरंभसच्च- वा अथवैकम् आरम्भसत्यमनःप्रयोगमणपयोगपरिणए, एगे अणारंभसच्च- परिणतम्, एकम् अनारम्भसत्यमनःप्रयोगमणपयोगपरिणए। एवं एएणं गमेणं परिणतम्। एवम् एतेन गमेन द्विककसंयोगेन दुयासंजोएणं नेयव्वं, सव्वे संजोगा जत्थ नेतव्यम, सर्वे संयोगाः यत्र यावन्तः जत्तिया उद्वेति ते भाणियव्वा जाव उत्तिष्ठन्ति ते भणितव्याः यावत् सर्वार्थसव्वट्ठसिद्ध-गत्ति॥
सिद्धका इति।
श. ८ : उ. १ : सू. ७६-७९ ७६. यदि सत्यमन प्रयोगपरिणत हैं तो क्या
आरम्भसत्यमन प्रयोगपरिणत हैं? यावत् असमारम्भ सत्यमन प्रयोगपरिणत हैं? गौतम ! आरम्भसत्यमन प्रयोगपरिणत भी हैं यावत् असमारम्भ सत्यमन प्रयोगपरिणत भी हैं। अथवा एक आरम्भ सत्यमन प्रयोगपरिणत है, एक अनारम्भ सत्यमन प्रयोगपरिणत है। इस प्रकार इस गमक के अनुसार दो के संयोग से होने वाले भंग ज्ञातव्य हैं, सब सांयोगिक भंग जहां जितने हो सकते हैं, वे सब यावत् सर्वार्थसिद्ध तक वक्तव्य हैं।
यदि मिश्रकपरिणते किं मनोमिश्रकपरिणते?
७७. जइ मीसापरिणया किं मणमीसा- परिणया? एवं मीसापरिणया वि॥
७७. यदि मिश्रपरिणत हैं तो क्या मन मिश्रपरिणत हैं? इस प्रकार मिश्रपरिणत की भी वक्तव्यता।
एवं मिश्रकपरिणते अपि।
७८. जइ वीससापरिणया किं वण्ण- यदि विस्रसापरिणते किं वर्णपरिणते? परिणया? गंधपरिणया?
गन्धपरिणते? एवं वीससापरिणया वि जाव अहवेगे। एवं विस्रसापरिणते अपि यावत् अथवैकं चउरंससंठाणपरिणए, एगे चतुरस्रसंस्थानपरिणतम्, एकम् आयतआयतसंठाणपरिणए॥
संस्थानपरिणतम्।
७८. यदि विस्रसापरिणत हैं तो क्या वर्ण परिणत हैं ? गन्धपरिणत है? इस प्रकार विस्रसा परिणत की भी वक्तव्यता यावत् अथवा एक चतुरस्र संस्थान परिणत है, एक आयत संस्थान परिणत है।
तिण्णि दव्वाइं पडुच्च पोग्गल-परिणति- त्रीणि द्रव्याणि प्रतीत्य पुद्गल-परिणति- तीन द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल परिणतिपदम्
पद ७९. तिण्णि भंते! दव्वा किं पयोग- त्रीणि भदन्त! द्रव्याणि किं प्रयोग- ७९. भन्ते! तीन द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत है? परिणया?मीसापरिणया ?वीससा- परिणतानि? मिश्रकपरिणतानि? विस्रसा- मिश्रपरिणत हैं ? विस्रसापरिणत है? परिणया?
परिणतानि? गोयमा! १. पयोगपरिणया वा २. गौतम! १.प्रयोगपरिणतानि वा २. मिश्रक- गौतम! १.प्रयोगपरिणत भी हैं २. मीसापरिणया वा ३. वीससा-परिणया परिणतानि वा ३. विस्रसापरिणतानि वा ४. मिश्रपरिणत भी हैं ३. विस्रसापरिणत भी वा ४. अहवेगे पयोग-परिणए, दो अथवैकं प्रयोगपरिणतम, द्वे मिश्रकपरिणते हैं ४. अथवा एक प्रयोगपरिणत है. दो मीसापरिणया ५. अहवेगे पयोगपरिणए, ५. अथवैकं प्रयोगपरिणतम्, द्वे विससा- मिश्रपरिणत हैं ५. अथवा एक दो वीस-सापरिणया ६. अहवा दो परिणते ६. अथवा द्वे प्रयोगपरिणते, एकं प्रयोगपरिणत है, दो विससापरिणत हैं ६. पयोग-परिणया, एगे मीसापरिणए ७. मिश्रकपरिणतम् ७. अथवा द्वे प्रयोगपरिणते अथवा दो प्रयोगपरिणत हैं, एक अहवा दो पयोगपरिणया, एगे एकं विससापरिणतम् ८. अथवैकं मिश्रक- मिश्रपरिणत है ७. अथवा दो वीससापरिणए ८. अहवेगे मीसा- परिणतम, द्वे विस्रसापरिणते ९. अथवा द्वे प्रयोगपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है परिणए, दो वीससापरिणया ९. अहवा मिश्रकपरिणते, एकं विस्रसापरिणतम् १०. ८. अथवा एक मिश्रपरिणत है, दो विस्रसा दो मीसा-परिणया, एगे वीससापरिणए अथवैकं प्रयोगपरिणतम्, एक मिश्रक- परिणत हैं ९. अथवा दो मिश्र परिणत हैं, १०.अहवेगे पयोग-परिणए, एगे परिणतम्, एकं विस्रसापरिणतम् ।
एक विस्रसापरिणत है। १०. अथवा एक मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए।।
प्रयोगपरिणत है, एक मिश्रपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है।
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श.८ : उ. १ : सू. ८०-८२
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भगवई
८०. जइ पयोगपरिणया कि मणपयोगपरिणया? वइपयोग-परिणया? कायपयोगपरिणया? गोयमा! मणपयोगपरिणया वा, एवं एक्कासंयोगो, दुयासंयोगो, तियासंयोगो य भाणियव्यो॥
यदि प्रयोगपरिणतानि किं मनःप्रयोग- परिणतानि? वाक्प्रयोगपरिणतानि? काय- प्रयोगपरिणतानि? गौतम! मनःप्रयोगपरिणतानि वा. एवम् एककसंयोगः, द्विककसंयोगः, त्रिककसंयोगश्च भणितव्यः।
८०. यदि प्रयोगपरिणत हैं तो क्या
मनप्रयोगपरिणत हैं? वचनप्रयोगपरिणत हैं? कायप्रयोगपरिणत है ? गौतम ! मनप्रयोगपरिणत भी हैं, इस प्रकार एक सांयोगिक, द्विक सांयोगिक और त्रिक सांयोगिक भंग वक्तव्य हैं।
८१. जइ मणपयोगपरिणया कि यदि मनःप्रयोगपरिणतानि किं सत्यमनः- सच्चमणपयोगपरिणया? असच्च- प्रयोगपरिणतानि? असत्यमनःप्रयोगमणपयोगपरिणया? सच्चमोसमण- परिणतानि? सत्यमृषामनःप्रयोगपरिणपयोगपरिणया? असच्चमोसमण- तानि? असत्यमषामनःप्रयोगपरिणतानि? पयोगपरिणया? गोयमा! सच्चमणपयोगपरिणया वा गौतम! सत्यमनःप्रयोगपरिणतानि वा जाव असच्चामोसमणपयोगपरिणया यावत् असत्यमषामनःप्रयोगपरिणतानि वा, वा, अहवेगे सच्चमणपयोगपरिणए, दो। अथवैकं सत्यमनःप्रयोगपरिणतं, द्वे मोसमणपयोगपरिणया। एवं दुवा- मृषामनः -प्रयोगपरिणते। एवं द्विककसंयोगो, तियासंयोगो भाणियव्वो एत्थ संयोगः, त्रिककसंयोगः भणितव्यः अत्रापि वि तहेव जाव अहवेगे तंससंठाणपरिणए, तथैव यावत् अथवैकं व्यस्रसंस्थानएगे चउरंससंठाणपरिणए, एगे आयत- परिणतम्. एकं चतुरस्रसंस्थानपरिणतम्, संठाणपरिणए।
एकम् आयत-संस्थानपरिणतम्।
८१. यदि मनप्रयोगपरिणत हैं तो क्या
सत्यमनप्रयोगपरिणत हैं? असत्य मनप्रयोगपरिणत हैं? सत्यमृषा-मनप्रयोगपरिणत हैं? असत्यामृषामन- प्रयोगपरिणत हैं? गौतम 'सत्यमनप्रयोगपरिणत भी हैं यावत् असत्यामृषामनप्रयोगपरिणत भी हैं। अथवा एक सत्यमनप्रयोगपरिणत है, दो मृषामनप्रयोगपरिणत हैं। इस प्रकार द्विकसांयोगिक और त्रिकसांयोगिक भंग वक्तव्य है। यहां द्रव्यत्रय के अधिकार में भी द्रव्यद्वय के अधिकार (सूत्र ७३ से ७८) के समान वक्तव्यता यावत् अथवा एक त्र्यससंस्थान परिणत है. एक चतुरस्रसंस्थान परिणत है, एक आयत संस्थान परिणत है।
चत्तारि दव्वाई पड़च्च पोग्गल- चत्वारि द्रव्याणि प्रतीत्य पुदगल- चार द्रव्यों की अपेक्षा पुद्गल परिणति. परिणति-पदं
परिणति-पदम ८२. चत्तारि भंते! दव्वा किं चत्वारि भदन्त ! द्रव्याणि किं प्रयोग- ८२. भन्ते! चार द्रव्य क्या प्रयोगपरिणत पयोगपरिणया? मीसापरिणया? परिणतानि ? मिश्रकपरिणतानि? विखसा- हैं? मिश्रपरिणत है ? विखसापरिणत है ? वीससापरिणया?
परिणतानि? गोयमा! १. पयोगपरिणया वा २. गौतम ! १.प्रयोगपरिणतानि वा २. मिश्रक- गौतम! १. वे प्रयोगपरिणत भी हैं २. मिश्रमीसापरिणया वा ३. वीससा-परिणया परिणतानि वा ३. विस्रसापरिणतानि वा ४. परिणत भी है ३. विसापरिणत भी हैं ४. वा ४. अहवेगे पयोग-परिणए, तिण्णि अथवैकं प्रयोगपरिणतम, त्रीणि मिश्रक अथवा एक प्रयोगपरिणत है, तीन मिश्रमीसा-परिणया ५. अहवेगे पयोग- परिणतानि ५. अथवैकं प्रयोगपरिणतम् . परिणत हैं ५. अथवा एक प्रयोगपरिणत है, परिणए, तिण्णि वीससापरिणया ६. वीणि विखसापरिणतानि ६. अथवा द्वे तीन विस्रयापरिणत हैं ६. अथवा दो अहवा दो पयोगपरिणया, दो प्रयोग-परिणते, द्वे मिश्रकपरिणते ७. प्रयोगपरिणत हैं, दो मिश्रपरिणत है ७. मीसापरिणया ७. अहवा दो पयोग- अथवा द्वे प्रयोगपरिणते. द्वे विस्रसापरिणते अथवा दो प्रयोगपरिणत हैं. दो विस्रसा परिणया, दो वीससापरिणया ८. अहवा ८. अथवा त्रीणि प्रयोगपरिणतानि, एक परिणत है ८. अथवा तीन प्रयोगपरिणत हैं, तिण्णि पयोगपरिणया, एगेमीसा- मिश्रकपरिणतम् ९. अथवा त्रीणि एक मिश्रपरिणत है . अथवा तीन परिणए १. अहवा तिण्णि पयोग- प्रयोगपरिणतानि, एक विस्रसापरिणतम् प्रयोगपरिणत हैं. एक विस्रसापरिणत है परिणया, एगे वीससापरिणए १०. १०. अथवैकं मिश्रक-परिणतम्, त्रीणि १०. अथवा एक मिश्रपरिणत है. तीन अहवेगे मीसापरिणए, तिण्णि वीससा- विस्रसापरिणतानि ११. अथवा २ विससापरिणत हैं ११. अथवा दो परिणया ११. अहवा दो मीसा-परिणया, मिश्रकपरिणते. द्वे विसापरिणते १२. मिश्रपरिणत है. दो विस्रयापरिणत है १२. दो वीससा-परिणया १२. अहवा तिण्णि अथवा त्रीणि मिश्रकपरिणतानि, एकं अथवा तीन मिश्रपरिणत है, एक विस्रसा मीसापरि-णया, एगे वीससापरिणए विखसापरिणतम १३. अथवैकं प्रयोग- परिणत है १३. अथवा एक प्रयोगपरिणत
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भगवई
१३. अहवेगे पयोगपरिणए, एगे परिणतम्, एकं मिश्रकपरिणतम्, द्वे मीसापरिणए, दो वीससापरिणया १४. विस्रसा-परिणते १४. अथवैकं अहवेगे पयोग-परिणए, दो प्रयोगपरिणतम, द्वे मिश्रकपरिणते, एकं मीसापरिणया, एगे वीससा-परिणए विस्रसापरिणतम् १५. अथवा द्वे १५. अहवा दो पयोगपरिणया, एगे प्रयोगपरिणते, एकं मिश्रक-परिणतम्, एक मीसापरिणए, एगे वीससापरिणए।। विस्रसापरिणतम्।
श.८ : उ. १ : सू. ८२-८४ है, एक मिश्रपरिणत है, दो विरसा परिणत है १४. अथवा एक प्रयोगपरिणत है, दो मिश्रपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है १५.
अथवा दो प्रयोगपरिणत हैं, एक मिश्रपरिणत है, एक विस्रसापरिणत है।
८३. जइ पयोगपरिणया किं मण- यदि प्रयोगपरिणतानि किं मनःप्रयोगपरि- पयोगपरिणया? वइपयोग-परिणया? णतानि? वाक्प्रयोगपरिणतानि? कायकायपयोगपरिणया?
प्रयोग-परिणतानि? एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस एवम् एतेन क्रमेण पञ्च षट् सप्त यावत् दश संखेज्जा असंखेज्जा अणंता य दव्वा संख्येयानि असंख्येयानि अनन्तानि च भाणियव्वा यासंजोएणं तियासंजोएणं द्रव्या-णि भणितव्यानि द्विककसंयोगेन जाव दससंजोएणं बारससंजोएणं त्रिकक-संयोगेन यावत् दशसंयोगेन द्वादशउवजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा संयोगेन उपयुज्य यत्र यावन्तः संयोगा उद्वेति ते सव्वे भाणियव्वा; एए पुण जहा उत्तिष्ठन्ति ते सर्वे भणितव्याः एतान् पुनः नवमसए पवेसणए भणिहामो तहा यथा नवमशते प्रवेशनके भणिष्यामः तथा उवमुंजि-ऊणं भाणियव्वा जाव उपयुज्य भणि-तव्या यावत् असंख्येया असंखेज्जा अणंता एवं चेव, नवरं-एक्कं अनन्ता एवं चैव, नवरं-- एक पदमभ्यधिकं पदं अब्भहियं जाव अहवा अणंता यावत् अथवा अनन्ताः परिमंडलसंस्थानपरिमंडलसंठाणपरिणया जाव अणंता । परिणता यावत् अनन्ता आयतसंस्थानआयतसंठाणपरिणया॥
परिणताः।
८३. यदि प्रयोगपरिणत हैं तो क्या मनप्रयोगपरिणत हैं ? वचनप्रयोगपरिणत हैं? कायप्रयोगपरिणत हैं ? इस प्रकार इस क्रम से पांच, छह, सात, यावत् दस, संख्येय, असंख्येय और अनन्त द्रव्य वक्तव्य हैं-द्विकसंयोग, त्रिकसंयोग यावत् दस संयोग और द्वादश संयोग की उपयोजना कर जहां जितने संयोग बनते हैं वे सब वक्तव्य हैं। इन्हें जैसे नवें शतक के प्रवेशनक प्रकरण (सूत्र ८६ से ११९) में कहेंगे वैसे ही उपयोजना कर वक्तव्य हैं यावत् असंख्येय और अनन्त की इसी प्रकार वक्तव्यता, इतना विशेष है-एक पद अधिक है यावत् अथवा अनन्त परिमण्डलसंस्थानपरिणत है यावत् अनन्त आयतसंस्थानपरिणत हैं।
८४. भन्ते! इन प्रयोगपरिणत, मिश्रपरिणत और विससापरिणत पुगलों में कौन किनसे अल्प, बहुत. तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
८४. एएसि णं भंते! पोग्गलाणं एतेषां भदन्त! पुद्गलानां प्रयोग- पयोगपरिणयाणं, मीसापरिणयाणं, परिणतानां, मिश्रकपरिणतानां विस्रसा- वीस-सापरिणयाणं य कयरे कयरे. परिणतानाञ्च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा? हिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? बहुका वा ? तुल्या वा ? विशेषाधिका वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा पयोग-परिणया, गौतम! सर्वस्तोकाः पुद्गलाः-प्रयोगमीसापरिणया अणंत-गुणा, वीससा- परिणताः, मिश्रकपरिणताः अनन्तगुणाः, परिणया अणंत-गुणा।।
विस्रसापरिणताः अनन्तगुणाः।
गौतम ! प्रयोगपरिणत पुद्गल सबसे कम हैं, मिश्रपरिणत उनसे अनन्तगुना हैं, विवसापरिणत उनसे अनन्त गुना है।
भाष्य
१. सूत्र ४३.८४ भारतीय दर्शनों में सृष्टिवाद
प्रस्तुत आलापक के संदर्भ में समग्र सृष्टिवाद की विज्ञानसम्मत एवं तर्क-संगत व्याख्या संभव है। सृष्टिवाद को विभिन्न भारतीय दर्शनों ने भिन्न-भिन्न रूप में प्रस्तुत किया है। उसकी मीमांसा प्रयोग, मिश्र और स्वभाव जन्य परिणमनों के सन्दर्भ में की जा सकती है।
चार्वाक
चार्वाक दर्शन, जिसे आगमयुगीन भाषा में अक्रियावाद कहा जाता है, केवल पुद्गल-द्रव्य का अस्तित्व एवं उसके परिणमन को ही सृष्टि का कारण मानता है। चेतना या आत्मा का अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व है ही नहीं जो है वह केवल पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश-इन पांच महाभूतों की ही परिणति विशेष है। मरणोपरान्त पुनः इन्हीं पांच महाभूतों में प्राणी-विशेष का अस्तित्व विलीन हो जाता है। इस प्रकार प्रयोग-परिणमन का अस्तित्व चार्वाक को
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श.८ : उ. १ : सू. ८४
३०
भगवई
मान्य नहीं है। उनके मत में जो है वह केवल 'विस्रसा' ही है। प्राणी यत्रकामावशायित्व आदि के द्वारा अपनी इच्छा या संकल्प के द्वारा निष्पन्न सारे परिणमन भी अन्ततोगत्वा पुद्गलों का अपना ही। अनुसार प्रकृति में परिणमन कर सकते हैं, यह जीव-प्रयोग परिणमन है-नितान्त विरसा हैं। मिश्र-परिणमन भी प्रयोग- परिणमन का स्पष्ट स्वीकार है। योग सिन्धों को ये शक्तियां होने पर परिणमन के अभाव में सम्भव नहीं है। इस प्रकार चार्वाक का सृष्टि- भी वे पदार्थों में वैपरीत्य नहीं करते हैं या नहीं कर सकते। पदार्थदर्शन केवल विस्रसा-परिणमन को मानकर ही अपना मत प्रस्तुत विपर्यास न करने का हेतु यह है कि ब्रह्माण्ड के पूर्व-सिन्द्र करता है।
हिरण्यगर्भ ईश्वर को ब्रह्माण्ड की ऐसी अवस्थिति में ईश्वरवाद
यत्रकामावशायित्व है, अर्थात् ब्रह्माण्ड ऐसा ही रहे जैसा कि वर्तमान
है, ताकि प्रजागण कर्म करें तथा कर्मफल भी भोगें-ऐसा पूर्वसिद्ध ईश्वरवादी दर्शन-चाहे वह न्याय हो वैशेषिक हो या
प्रजापति का संकल्प रहने के कारण ही योगी शक्तिमान होने पर अन्य-सारे परिणमनों को ईश्वरकृत प्रयोग के परिणमन के रूप में
भी पदार्थ वैपरीत्य नहीं करते। योगीकरण ईश्वर-संकल्प से मुक्त ही मानता है। उनके मतानुसार मिश्र या विरसा परिणमन संभव ही
पदार्थों में यथोचित शक्ति का प्रयोग कर सकते हैं। नहीं है। ईश्वर सृष्टिवाद के निरूपण में जीव प्रयोग परिणाम, मिश्र परिणाम और विरसा परिणाम के मूल में तो ईश्वर प्रयोग ही
बौद्ध दर्शन सर्वेसर्वा है। ईश्वर की इच्छा ही इस सृष्टि का जनक है। सारा बौन्द्र दर्शन ने सत्त्व लोक एवं भाजन लोक के रूप में जगत् परिणमन-चक्र इसी केन्द्र को धुरी मानकर घूमता रहता है।
को दो भागों में बांटा है। सारा लोक वैचित्र्य (जगत्-परिणमन) सांख्य
कर्मज है तथा कर्म चेतना द्वारा कृत है। इस प्रकार समग्र परिणमन
चेतना कृत (जीव प्रयोग-परिणाम) है। रूप या पुद्गल स्वतंत्र सांख्य दर्शन पुरुष और प्रकृति के द्वैत को स्वीकार करता
परिणमन करता है-ऐसा बौद्ध दर्शन स्वीकार नहीं करता। इस है, पर पुरुष (आत्मा) को सदा निष्क्रिय मानता है। अतः जीव
प्रकार विरसा परिणमन और मिश्र परिणमन को बौन्द्र दर्शन ने प्रयोग-परिणाम को संभव नहीं मानता। प्रकृति का परिणमन मूलतः
स्वीकार नहीं किया है। विससा है। प्रकृति के स्पर्श, रस आदि गुणों (विषयों) से इन्द्रियां और इन्द्रियों से चित्त तथा चित्त से अन्ततोगत्वा पुरुष
वेदान्त 'अयसकांतमणिवत्' दूर से प्रभावित होता है, पर मूलतः अक्रिय होने वेदान्त कूटस्थनित्यवादी तथा ब्रह्माद्वैतवादी दर्शन है। उसके से परिणमन में उसका सीधा प्रभाव कहीं नहीं है। ध्येयवाद या ___ अनुसार सारा परिणमन वास्तविक नहीं है। इस दृष्टि से परिणमनTeloology की तरह उसे केवल परिणमन का 'दूर-स्रोत' माना जा मात्र को वेदान्त तत्वतः स्वीकार ही नहीं करता। सकता है। ध्येयवाद या Teloology में भविष्य को प्रेरक माना ईश्वरवादी धारणा में जहां ब्रह्म को सब जगत् का कारण जाता है। भविष्य हेतु बनता है- वर्तमान परिणमन का। इस प्रकार माना है।" समग्र जगत् जीव प्रयोग परिणाम ही सिद्ध होता है। अक्रिय पुरुष का भविष्य वर्तमान परिणमन का हेतु बनता है। इस काल, नियति, स्वभाव, यदृच्छा, पुरुष सभी को मूलतः कारण नहीं प्रकार की मान्यता के आधार पर सांख्य दर्शन प्रकृति को कथंचित् माना गया। 'प्रयोग-परिणमन' की अधिष्ठात्री मानता है। निष्कर्षतः विससा के
वैज्ञानिक अवधारणा अतिरिक्त प्रयोग या मिश्र परिणामों का तत्वतः कोई स्थान सांख्य
भौतिक विज्ञान में न्यूटन के यांत्रिक विश्व की अवधारणा में स्वीकार कैसे कर सकता है?
सारा परिणमन एक निश्चित नियमावली के अन्तर्गत स्वतः घटित पातञ्जल योग दर्शन
होता है और इन वस्तुनिष्ठ नियमों की खोज ही विज्ञान का लक्ष्य इसे सेश्वर सांख्यवाद के रूप में माना जाता है। सांख्य दर्शन है। पुद्गल या भौतिक पदार्थ एवं ऊर्जा का परिणमन विचसा रूप में सम्मत पुरुष प्रकृति के रूप में तत्त्व-निरूपण को स्वीकार करते हुए ही स्वीकार किया गया। चेतन की स्वतंत्र सत्ता विज्ञान का विषय भी ईश्वर-पुरुष विशेष के अस्तित्व को माना है। स्रष्टा, कर्ता तथा नहीं है। इस प्रकार वैज्ञानिक अवधारणा का जगत् केवल विससा संह" सगुण ईश्वर मानकर योगदर्शन ने प्रयोग परिणाम को परिणमनों के रूप में ही स्वीकार किया गया है। स्वीकार किया है, यह स्पष्ट है। योगी जो विशेष सिद्धियों,
आधुनिक विज्ञान में सूक्ष्म कणों के परिणमनों की व्याख्या जैसे-अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राकाम्य, वशित्व, ईशितृत्व, के साथ चेतना के सम्बन्ध की संभावना स्वीकार की गई है।
१. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा पृ. २१५
अमूर्तश्चेतनो भोगी, नित्यः सर्वगतोऽक्रियः।
अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्मः, आत्मा कपिलदर्शने॥ २. हरिहरानन्द, पा. यो. द. १/४५।
टीका पृ.३८५.३८६। ३. कर्मजं लोक वैचित्र्यं, चेतना तत् कृतं च नत् ।
चेतना मानसं कर्म, तच्च वाक्कायकर्मणी॥ ४. श्वेताश्वतर ३४०/९/२।
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भगवई
डेविड, बोम आदि वैज्ञानिकों की यह निश्चित धारणा बन चुकी है कि सूक्ष्म पारमाणविक प्रक्रिया में चैतन्य (ज्ञाता) का हस्तक्षेप परिलक्षित होता है। भौतिक परिणमनों के साथ चैतन्य का प्रभाव जुड़ा हुआ है-इस प्रकार की अवधारणा आधुनिक विज्ञान के अन्तर्गत प्रवेश पा चुकी है। यद्यपि चैतन्य (जीव- प्रयोग) परिणाम के ८५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
३१
श. ८ : उ. १ : सू. ८५ स्वरूप का निर्धारण अभी संभव नहीं बनता है. फिर भी सैद्धान्तिक आधार पर आधुनिक विज्ञान जीव प्रयोग परिणाम और विस्रसा परिणाम दोनों परिणमनों को स्वीकार करता है, ऐसा कहा जा सकता है।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
८५. भन्ते ! वह ऐसा ही है. भन्ते! वह ऐसा
ही है।
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बीओ उद्देशो : दूसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
आसीविस-पदं
आशीविष-पदम् ८६. कतिविहा णं भंते! आसीविसा कतिविधाः भदन्त ! आशीविषाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, तं गौतम! द्विविधाः आशीविषाः प्रज्ञप्ताः, जहा-जातिआसीविसा य, कम्म- तद्यथा-जात्याशीविषाश्च, कर्माशीआसीविसा य॥
विषाश्च
आशीविष-पद ८६. 'भन्ते! आशीविष कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आशीविष दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-जातिआशीविष और कर्मआशीविष।
८७. जातिआसीविसा णं भंते! कतिविहा जात्याशीविषाः भदन्त! कतिविधाः ८७. भन्ते! जातिआशीविष कितने प्रकार के पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! चउब्विहा पण्णत्ता, तं । गौतम! चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा- गौतम! चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसेजहा-विच्छ यजाति आसीविसे, वृश्चिकजात्याशीविषः, मण्डूकजात्या- वृश्चिकजातिआशीविष, मंडूक जातिमंडुक्कजाति-आसीविसे, उरग-जाति- शीविषः, उरग-जात्याशीविषः, मनुष्य- आशीविष, उरगजातिआशीविष और आसिविसे, मणुस्सजाति-आसीविसे। जात्याशीविषः।
मनुष्यजातिआशीविष।
८८. विच्छुयजातिआसीविसस्स णं भंते! वृश्चिकजात्याशीविषस्य भदन्त ! कियान् ८८. भन्ते! वृश्चिकजातिआशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्तः?
कितना विषय प्रज्ञप्त है? गोयमा! पभू णं विच्छुयजाति- गौतम! प्रभुः वृश्चिकजात्याशीविषः गौतम! वृश्चिकजातिआशीविष अर्ध आसीविसे अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोंदि अर्धभरतप्रमाणमात्रां 'बोदिं' विषेण विष- भरतप्रमाणशरीर को अपने विष से व्याप्त विसेणं विसपरिगयं विसट्ट-माणं परिगतां दलन्ती प्रकर्तुम्। विषयस्तस्य और परिपूर्ण करने में समर्थ है। यह विषय पकरेत्तए। विसए से विस-ट्ठयाए, नो चेव । विषार्थतया, नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षुः वा, विष की शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा।
है, क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, करिस्संति वा॥
न करता है और न करेगा।
८९. मंडुक्कजातिआसीविसस्स णं भंते! मण्डूकजात्याशीविषस्य भदन्त ! कियान ८९. भन्ते! मण्डूकजातिआशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्तः?
कितना विषय प्रज्ञाप्त है? गोयमा! पभू णं मंडुक्कजाति- गौतम! प्रभुः मण्डूकजात्याशीविष: भरत- गौतम! मंडूकजातिआशीविष भरतप्रमाण
आसिविसे भरहप्पमाणमेत्तं बोदि विसेणं प्रमाणमात्रां 'बोंदि' विषेण विषपरिगतां शरीर को अपने विष से व्याप्त और परिपूर्ण विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए। दलन्तीं प्रकर्तुम्। विषयः तस्य विषार्थतया, करने में समर्थ है। यह विषय विष की विसए से विसद्वयाए, नो चेव णं संपत्तीए नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षः वा, कुर्वन्ति वा, शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया है। करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा॥ करिष्यन्ति वा।
क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, न करता है और न करेगा।
९०. उरगजातिआसीविसस्स णं भंते! उरगजात्याशीविषस्य भदन्त! कियान् ९०. भन्ते ! उरगजातिआशीविष का कितना केवतिए विसए पण्णते? विषयः प्रज्ञप्तः।
विषय प्रज्ञप्त है?
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भगवई
३३
गोयमा! पभू णं उरगजातिआसी-विसे गौतम! प्रभुः उरगजात्याशीविषः जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं जम्बूद्वीप- प्रमाणमात्रां 'बोंदि' विषेण विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेतए। विषपरिगतां दलन्तीं प्रकर्तुम् । विषयः तस्य विसए से विसट्टयाए, नो चेव णं संपत्तीए विषार्थतया, नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षः वा, करेंसुवा, करेंति वा, करिस्संति वा॥ कुर्वन्ति वा, करिष्यन्ति वा।
श.८ : उ. २ : सू. ९०-९२ गौतम! उरगजातिआशीविष जम्बूद्वीप प्रमाणशरीर को अपने विष से व्याप्त और परिपूर्ण करने में समर्थ है। यह विषय विष की शक्ति की दृष्टि से बतलाया गया है। क्रियात्मक रूप में न तो ऐसा किया है, न करता है और न करेगा।
९१. मणुस्सजातिआसिविसस्स णं भंते! मनुष्यजात्याशीविषस्य भदन्त! कियान् ९१. भन्ते! मनुष्यजाति आशीविष का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्त:?
कितना विषय प्रज्ञप्त है? गोयमा! पभू णं मणुस्सजाति- गौतम ! प्रभुः मनुष्यजात्याशीविषः समय- गौतम! मनुष्यजातिआशीविष समयक्षेत्र आसीविसे समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोदि । क्षेत्रप्रमाणमात्रां 'बोदि विषेण विषपरिगतां (अढाई द्वीप) प्रमाणशरीर को अपने विष विसेणं विसपरिगयं विसट्ट-माणं दलन्ती प्रकर्तुम्। विषयः तस्य विषार्थतया, से व्याप्त और परिपूर्ण करने में समर्थ है। पकरेत्तए। विसए से विसठ्ठ-याए, नो चेव नो चैव सम्प्राप्त्या अकार्षुः वा, कुर्वन्ति वा, यह विषय विष की शक्ति की दृष्टि से णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति वा, करिष्यन्ति वा।
बतलाया गया है। क्रियात्मक रूप में न तो करिस्संति वा॥
ऐसा किया है, न करता है और न करेगा।
भाष्य १. सूत्र ८६-९१
कहलाते हैं। जिसकी दाढा में विष होता है, वह आशीविष कहलाता है। कुछ अकलंक ने आशीविष के स्थान पर आस्यविष का प्रयोग किया प्राणी जन्म से आशीविष होते हैं और कुछ कर्म से। बिच्छू, मेंढक, सर्प है। प्रकृष्ट तपोबल वाला यति आस्यविष ऋद्धि को प्राप्त होता है। वह और मनुष्य ये जाति आशीविष हैं-जन्म से आशीविष हैं।'
मरण का अभिशाप देता है। अभिशप्त व्यक्ति के शरीर में विष व्याप्त सूत्रकार ने इनकी विषयात्मक क्षमता का निरूपण किया है। हो जाता है और वह मर जाता है। तिलोयपण्णत्ति और धवला में प्रायोगिक रूप में उसका चैकालिक प्रतिषेध किया है।
आशीविष ऋद्धि का उल्लेख मिलता है। उसका तात्पर्य है इस ऋद्धि तपश्चरण अथवा विद्या मंत्र आदि की साधना से अथवा किसी वाला 'मर जाओ' इस प्रकार का वचन प्रयोग करता है और व्यक्ति अन्य गुण से आशीविष की उपलब्धि हो जाती है, वे कर्म से आशीविष मर जाता है।' ९२. जइ कम्मआसीविसे किं नेरइय- यदि कर्माशीविषः किं नैरयिककर्माशीविषः? ९२. 'यदि कर्म आशीविष है तो क्या कम्मआसीविसे ?तिरिक्खजोणिय- तिर्यगयोनिककर्माशीविषः? मनुष्यकर्माशी- नैरयिक कर्मआशीविष है? तिर्यक्योनिक कम्मआसीविसे? मणुस्सकम्म- विषः?देवकर्माशीविषः?
कर्मआशीविष है? मनुष्यकर्मआशीविष आसीविसे? देवकम्मआसीविसे?
है? अथवा देवकर्मआशीविष है? गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे, तिरि. गौतम! नो नैरयिककर्माशीविषः, तिर्यर- गौतम! नैरयिक कर्मआशीविष नहीं है। क्खजोणियकम्मासीविसे वि, योनिककर्माशीविषोऽपि, मनुष्यकर्माशी- तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष भी है, मनुष्य मणुस्सकम्मासीविसे वि, देव- विषोऽपि, देवकर्माशीविषोऽपि।
कर्मआशीविष भी है और देव कर्मकम्मासीविसे वि॥
आशीविष भी है।
भाष्य १. सूत्र ९२
विशेषता से प्राप्त होती है, इसका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है। कर्म से आविष तीन गति के जीव होते हैं-तिर्यक्योनिक, वायुकाय और संख्येय वर्ष आयु वाले गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यक् के वैक्रिय मनुष्य और देव। मनुष्य अपनी गुणात्मक विशेषता के कारण कर्म से लब्धि होती है। प्रज्ञापना में इसका निर्देश है। जैसे वैक्रिय लब्धि आशीविष होता है।
होती है वैसे ही आशीविष लब्धि भी उसे प्राप्त हो सकती है। तिर्यक्योनिक में संख्येय वर्ष की आयु वाला गर्भज तिर्यक देवों को कर्म से आशीविष ऋद्धि उपलब्ध नहीं होती इसलिए पंचेन्द्रिय कर्म से आशीविष होता है। यह ऋद्धि उसे किस गुणात्मक पर्याप्त अवस्था में उसका निषेध किया गया है। जन्म की प्रारम्भ १. भ. वृ. ८/८६-८७-जात्या-जन्मनाशीविषाः, जात्याशीविषाः।
३. त, रा. वा. ३/३६-प्रकृष्टतपोबलयतयो यं बुवते म्रियस्वेति स तत्क्षण एव २. वही, ८/८६-८-कर्मणा क्रियया शापादिनोपघातकरणे नाशीविषाः महाविष-परीतो म्रियते, ते आस्यविषाः।, कर्माशीविषाः। तब पंचेन्द्रियतियंचो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्सका एव, ४. (क) ति. प. १/१०७८ एतेहि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषाः भवन्ति, (ख) ष. खं, धवला ९/४॥ शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः।
५. पण्ण, २१/५३०॥
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श. ८ : उ. २ : सू. ९३,९४
कालीन अपर्याप्त अवस्था में कर्म से आशीविष ऋद्धि को स्वीकार किया गया है। वृत्तिकार के अनुसार आशीविष ऋद्धि वाले जीव आठवें कल्प तक उत्पन्न होते हैं इसलिए सहस्रार नामक आठवें कल्प
यदि
९३. जर तिरिक्खजोणियकम्मासी-विसे किं एगिंदियतिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे जाव पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियकम्मा-सीविसे ? गोयमा ! नो एगिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव नो चउरिंदियतिरिक्ख - जोणियकम्मा
सीविसे, पंचिंदियतिरिक्खजोणिय
कम्मासीविसे ।
जइ
पंचिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संमुच्छिमपंचिंदिय तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ? गब्भवक्कंतियपंचिंदिय-तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ?
एवं जहा वेउव्वियसरीरस्स भेदो जाव पज्जत्तासंखेज्जवासाउय-गब्भवक्कं
तियपंचिंदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविसे, नो अपज्जत्तासंखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे ॥
९४. जइ मणुस्सकम्मासीविसे किं संमुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे? गब्भवक्कंतियमणुस्सकम्मासीविसे ? गोयमा ! नो संमुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गब्भवक्कंतिय-मणुस्सकम्मासीविसे, एवं जहा वेउब्वियसरीरं जाव पज्जत्त संखेज्जवासाउयकम्मभूमागब्भ-वक्कं तियमणुस्सकम्मासीविसे, नो अपज्जत्ता जाव कम्मासीविसे ?
३४
भगवई
पर्यन्त अपर्याप्त अवस्था में पूर्वानुभूत भाव की दृष्टि से देवों में कर्माशीविष का उल्लेख किया गया है।"
तिर्यग्योनिककर्माशीविषः किम् एकेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः ?
गौतम ! नो एकेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः यावत् नो चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः ।
यदि पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः किं सम्मूर्च्छिमपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशी - विषः ? गर्भावक्रान्तिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिककर्माशीविषः ?
१.भ. वृ. ८ ८६-८७- एते चाशीविषलब्धिस्वभावात् सहस्रारान्तदेवेष्वेवोत्पद्यन्ते देवास्त्वंत एव ये देवत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थाया
एवं यथा वैक्रियशरीरस्य भेदः यावत् पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुष्कगर्भावक्रान्तिकपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिककर्माशीविषः, नो अपर्याप्तक संख्येयवर्षायुष्क यावत् कर्माशीविषः ।
यदि मनुष्यकर्माशीविषः किं सम्मूर्च्छिममनुष्यकर्माशीविषः ? गर्भावक्रान्तिक मनुष्यकर्माशीविषः ? गौतम ! नो सम्मूर्च्छिममनुष्यकर्माशीविषः गर्भावक्रान्तिकमनुष्यकर्माशीविषः, एवं यथा वैक्रियशरीरं यावत् पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमकगर्भावक्रान्तिकमनुष्यकर्माशीविषः, नो अपर्याप्तक यावत् कर्माशीविषः ।
९३. यदि तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष है तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष है यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यक योनिक कर्मआशीविष है? गौतम! एकेन्द्रियतिर्यक्योनिक कर्मआशीविष नहीं है यावत् चतुरिन्द्रिय तिर्यक्रयोनिक कर्मआशीविष नहीं है। पंचेन्द्रिय तिर्यक्रयोनिक कर्मआशीविष है।
यदि पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष है तो क्या संमूर्च्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक कर्मआशीविष है? अथवा गर्भावक्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनिककर्म आशीविष है?
इस प्रकार जैसी प्रज्ञापना (२१ / ५३) में वैक्रियशरीर के भेद की वक्तव्यता है वैसे ही यहां वक्तव्य है यावत पर्याप्त संख्येय वर्ष आयुष्य 'वाले गर्भावक्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यक्ोनिक कर्मआशीविष है, अपर्याप्त संख्ये वर्ष आयुष्य वाले गर्भावक्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यक योनिक कर्मआशीविष नहीं है।
९४. यदि मनुष्य कर्मआशीविष है तो क्या संमूर्च्छिम मनुष्य कर्मआशीविष है? अथवा गर्भावक्रान्तिक मनुष्य कर्मआशीविष है? गौतम! संमूर्च्छिम मनुष्य कर्म आशीविष नहीं है, गर्भावक्रान्तिक मनुष्य कर्मआशीविष है। इस प्रकार जैसी प्रज्ञापना (२१/५४) में मनुष्य पंचेन्द्रियवैक्रियशरीर की वक्तव्यता हैं वैसे ही यहां वक्तव्य है यावत् पर्याप्त संख्येय वर्ष आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भावक्रान्तिक मनुष्य कर्मआशीविष है, अपर्याप्त संख्येय वर्ष आयुष्य वाला कर्मभूमिज गर्भावक्रान्तिक मनुष्य कर्मआशीविष नहीं है।
मनुभूतभावतया कर्माशीविषा इति ।
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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. ९५ ९५. जइ देवकम्मासीविसे किं भवण- यदिदेवकर्माशीविषः किं भवनवासिदेव- ९५. यदि देव कर्मआशीविष है तो क्या वासिदेवकम्मासीविसे जाव वेमाणिय- कर्माशीविषः यावत्वैमानिकदेवकर्माशी- भवनवासी देव कर्मआशीविष है यावत देवकम्मासीविसे? विषः?
वैमानिक देव कर्म आशीविष है? गोयमा! भवणवासिदेवकम्मासी-विसे, गौतम! भवनवासिदेवकर्माशीविषः वान- गौतम! भवनवासीदेव कर्मआशीविष है, वाणमंतरजोतिसियवेमाणिय देवकम्मा- मन्तरज्योतिष्क-वैमानिकदेवकर्माशीवि- वानमन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव सीविसे वि। षोऽपि।
कर्म आशीविष भी हैं। जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे किं यदि भवनवासिदेवकर्माशीविषः किम् यदि भवनवासी देव कर्मआशीविष है तो असुरकु मारभवणवासिदेवकम्मासी- असुरकुमारभवनवासिदेव · कर्माशीविषः क्या असुरकुमार भवनवासीदेव विसे जाव थणियकुमारभवणवासि. यावत् स्तनितकुमारभवनवासिदेवकर्मा- कर्मआशीविष है यावत् स्तनितकुमार देवकम्मावीसिसे? शीविषः?
भवनवासी देव कर्मआशीविष है? गोयमा! असुरकुमारभवणवासि- गौतम! असुरकुमारभवनवासिदेवकर्माशी- गौतम! असुरकुमार भवनवासी देव कर्म देवकम्मासीविसे वि जाव थणिय- विषोऽपि यावत् स्तनितकुमारभवन- आशीविष भी है यावत् स्तनितकुमार कुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे वि। वासिदेवकर्माशीविषोऽपि।
भवनवासी देव कर्मआशीविष भी है। जइ असुरकुमारभवणवासिदेव-कम्मा- यदि असुरकुमारभवनवासिदेवकर्माशीविषः यदि असुरकुमार भवनवासी देव कर्म सीविसे किं पज्जत्ताअसुर-कुमार- किं पर्याप्तकासुरकुमारभवनवासिदेव-कर्मा- . आशीविष है तो क्या पर्याप्त असुरकुमार भवणवासिदेवकम्मासीविसे? अपज्जत्ता- शीविषः? अपर्याप्तकासुरकुमारभवनवासि- भवनवासी देव कर्मआशीविष है? अथवा असुरकुमारभवणवासिदेव-कम्मासीविसे? देवकर्माशीविषः?
अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्म
आशीविष है? गोयमा! नो पज्जत्ताअसुरकुमार गौतम! नो पर्याप्तकासुरकुमारभवनवासि- गौतम! पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव भवणवासिदेवकम्मासीविसे, अपज्जत्ता- देव-कर्माशीविषः, अपर्याप्तकासुरकुमार- कर्मआशीविष नहीं है, अपर्याप्त असुर असुरकु मारभवणवासिदेव-कम्मा- भवन-वासिदेवकर्माशीविषः। एवं यावत् कुमार भवनवासी देव कर्मआशीविष है। सीविसे। एवं जाव थणिय कुमाराणं। स्तनित-कुमाराणाम्।
इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की
वक्तव्यता। जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं यदि वानमन्तरदेवकर्माशीविषः किं पिशाच- यदि वानमन्तर देव कर्मआशीविष हैं तो पिसायवाणमंतरदेवकम्मासीविसे? एवं वानमन्तरदेवकर्माशीविषः एवं सर्वेषाम् क्या पिशाच वानमन्तर देव कर्म आशीविष सव्वेसिं अपज्जत्तगाणं| जोइ-सियाणं अपर्याप्तकानाम्। ज्योतिष्काणां सर्वेषाम् है? इस प्रकार सब अपर्याप्तक वानमन्तर सव्वेसिं अपज्जत्तगाण। अपर्याप्ताकानाम्।
देवों की वक्तव्यता। सब अपर्याप्सक
ज्योतिष्क देवों की वक्तव्यता। जइ वेमाणियदेव कम्मासीविसे किं यदिवैमानिकदेवकर्माशीविषःकिं कल्पोपक- यदि वैमानिक देव कर्मआशीविष है तो क्या कप्पोवावे माणियदेवकम्मासीविसे? वैमानिकदेवकर्माशीविषः? कल्पातीतक- कल्पोपगवैमानिक देव कर्म आशीविष है? कप्पातीयावेमाणियदेवकम्मासीविसे? वैमानिकदेवकर्माशीविषः?
अथवा कल्पातीतग-वैमानिक देव कर्म
आशीविष है? गोयमा! कप्पोवावेमाणियदेव-कम्मा- गौतम! कल्पोपकवैमानिकदेवकर्माशी- गौतम! कल्पोपगवैमानिक देव कर्मसीविसे, नो कप्पातीया-वेमाणिय- विषः, नो कल्पातीतकवैमानिकदेवकर्माशी- आशीविष है, कल्पातीतगवैमानिक देव देवकम्मासीविसे। विषः।
कर्मआशीविष नहीं है। जइ कप्पोवावेमाणियदेवकम्मा-सीविसे यदि कल्पोपकवैमानिकदेवकर्माशी-विषः यदि कल्पोपग-वैमानिक देव कर्मआशीकिं सोहम्मकप्पोवा-वेमाणिदेवकम्मा- किं सौधर्मकल्पोपकवैमानिकदेवकर्माशी- विष है तो क्या सौधर्म कल्पोपगवैमानिक सीविसे जाव अच्चुयकप्पोवा- विषः यावत् अच्युतकल्पोपक-वैमानिक- देव कर्मआशीविष यावत् अच्युत वेमाणियदेवकम्मासी-विसे? देवकर्माशीविषः?
कल्पोपगवैमानिक देव कर्मआशीविष है? गोयमा! सोहम्मकप्पोवावेमाणिय- गौतम! सौधर्मकल्पोपकवैमानिकदेव- गौतम! सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव देवकम्मासीविसे वि जाव सहस्सा- काशी-विषोऽपि यावत् सहस्रार- कर्मआशीविष भी है यावत् सहस्रार रकप्पोवावेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, कल्पोपकवैमानिक-देवकर्माशीविषोऽपि, कल्पोपगवैमानिक देव कर्म आशीविष भी है नो आणयकप्पोवावेमाणिय देवकम्मा- नो आनतकल्पोपक-वैमानिकदेवकर्माशी- आनत कल्पोपगवैमानिक देव कर्मआशीसीविसे जाव नो अच्चुय-कप्पोवा- विषः यावत् नो अच्युतकल्पोपक- विष नहीं है यावत् अच्युत कल्पोपग
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श.८ : उ. २ : सू. ९५,९६
३६
भगवई
वेमाणियदेवकम्मासीविसे।
वैमानिकदेवकर्माशीविषः। जइ सोहम्मकप्पोवावेमाणियदेव- यदि सौधर्मकल्पोपकवैमानिकदेवकर्माकम्मासीविसे किं पज्जत्तासोहम्म- शीविषः किं पर्याप्सकसौधर्मकल्पोपककप्पोवा-वेमाणियदेवकम्मासीविसे। वैमानिकदेवकर्माशीविषः? अपर्याप्तकअपज्जत्तासोहम्मकप्पोवा-वेमाणिय- सौधर्मवैमानिकदेवकर्माशीविषः? देवकम्मासीविसे? गोयमा! नो पज्जत्तासोहम्म-कप्पोवा- गौतम! नो पर्याप्तकसौधर्मकल्पोपकवेमाणियदेवकम्मासीविसे, अपज्जत्ता- वैमानिकदेवकर्माशीविषः, अपर्याप्तकसोहम्मकप्पोवा - वेमाणियदेव-कम्मा- सौधर्मकल्पोपक-वैमानिकदेवकर्मशीविष: सीविसे, एवं जाव नो पज्जत्तासहस्सार- एवं यावत् नो पर्याप्तक सहस्रारकल्पोपककप्पोवा-वेमाणियदेव-कम्मासीविसे, वैमानिकदेवकर्माशीविषः, अपर्याप्तकअपज्जत्ता-सहस्सारकप्पोवावेमाणिय- सहस्रारकल्पोपकवैमानिकदेव-कर्माशीदेवकम्मासीविसे॥
विषः।
वैमानिक देव कर्मआशीविष नहीं है। यदि सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है तो क्या पर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्म आऑविष है? अथवा अपर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिक-देव कर्मआशीविष है? गौतम! पर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष नहीं है, अपर्याप्त सौधर्म कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष नहीं है, अपर्याप्त सहस्रार कल्पोपगवैमानिकदेव कर्मआशीविष है।
छउमत्थ-केवलि-पदं छद्मस्थ-केवलि-पदम्।
छद्मस्थ केवली-पद ९६. दस ठाणाई छउमत्थे सव्वभावेणं न दश स्थानानि छद्मस्थः सर्वभावेण न ९६. 'दस पदार्थो को छद्मस्थ सम्पूर्ण रूप से जाणइ न पासइ, तं जहा- जानाति न पश्यति, तद्यथा-१. न जानता है, न देखता है, जैसे१. धम्मत्थिकार्य २. अधम्मत्थिकायं धर्मास्तिकायम् २. अधर्मास्तिकायम् ३. १. धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आगासत्थिकायं ४. जीवं असरीर- ___ आकाशास्तिकायम ४. जीवम् अशरीर- ३. आकाशास्तिकाय ४. शरीरमुक्त जीव पडिबद्धं ५. परमाणुपोग्गलं ६. सई प्रतिबद्धं ५. परमाणुपुद्गलं ६. शब्दं ७. ५. परमाणु पुद्गल ६. शब्द ७. गंध ७. गंधं ८. वातं ९. अयं जिणे भविस्सइ बन्धं ८. वातम् ९. अयं जिनो भविष्यति वा ८. वायु ९. यह जिन होगा या नहीं वा न वा भविस्सइ १०. अयं सव्व- न वा भविष्यति १०. अयं सर्व- १०. यह सभी दुःखों का अन्त करेगा या दुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा न वा दुःखानामन्तं करिष्यति वा न वा करिष्यति। नहीं। करेस्सइ। एयाणि चेव उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा एतानि चैव उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हन उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अर्हत, जिन, जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ पासइ, जिनः केवली सर्वभावेण जानाति पश्यति, केवली इनको सम्पूर्ण रूप से जानते देखते तं जहा-धम्मत्थि-कायं, अधम्मत्थि- तद्यथा-धर्मास्तिकायम्, अधर्मास्ति- हैं, जैसे-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, कायं, आगास-त्थिकायं, जीवं असरीर- कायम, आकाशा-स्तिकायं, जीवम् आकाशास्तिकाय, शरीरमुक्त जीव, पडिबढ़, परमाणुपोग्गलं, सई, गंध, अशरीरप्रतिबद्धं, परमाणु पुद्गलं, शब्द, परमाणु पुद्गल, शब्द, गन्ध, वायु, यह जिन वातं, अयं जिणे भविस्सइ वा न वा. गन्धं, वातम्, अयं जिनः भविष्यति वा न वा होगा या नहीं, यह सभी दुःखों का अन्त भविस्सइ, अयं सव्वदुक्खाणं अंतं भविष्यति, अयं सर्वदुःखानामन्तं करिष्यति करेगा या नहीं। करेस्सइ वा न वा करेस्सइ।
वा न वा करिष्यति।
भाष्य
१. सूत्र ९६
जिसका ज्ञानावरण क्षीण नहीं है, वह छद्मस्थ है। जिसका ज्ञानावरण छद्मस्थ और केवली-ये दो शब्द जैन आगमों में सुप्रसिद्ध हैं। क्षीण हो चुका, वह केवली है। ज्ञान के आधार पर छद्मस्थ के चार इनके विभाग का मूल हेतु ज्ञान का विकास है। ज्ञानावरण क्षीण नहीं . विकल्प बनते हैं - होता, तब तक चार ज्ञान उपलब्ध होते हैं-मति, श्रुत, अवधि और
१. मति, श्रुत ज्ञान युक्त।
प्रति मनःपर्यव। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर केवलज्ञान उत्पन्न होता है। २. मति. श्रत और अवधि ज्ञान यक्त।
2.भ.८/१०४१
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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. ९७-१००
३. मति, श्रुत और मनःपर्यव ज्ञान युक्त।
स्थानांग सूत्र की वृत्ति में सर्वभाव का अर्थ सर्व प्रकार किया है। ४. मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव ज्ञान युक्त।
दस स्थानों में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अवधि और मनःपर्यव-ये दो अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। मति और आकाशास्तिकाय और शरीरमुक्त जीव-ये चार अमूर्न हैं। अमूर्त श्रुत इन्द्रियजन्य ज्ञान हैं। अभयदेव सूरि ने लिखा है-यहां इन्द्रिय तत्त्व को छद्मस्थ नहीं जान सकता, भले फिर वह सामान्य ज्ञानी हो ज्ञान वाला छद्मस्थ विवक्षित है। उनका तर्क है-अतिशय अवधिज्ञानी अथवा अतिशय ज्ञानी। परमाणु-पुद्गल, शब्द, गंध और वाय-ये परमाणु को जानता है और सूत्र का निर्देश है कि छास्थ परमाणु को मूर्त हैं। परमाणु पुगल सूक्ष्म-सूक्ष्म है, उसे अतिशय अवधिज्ञानी नहीं जानता, इससे फलित होता है कि यहां मतिश्रुतज्ञानयुक्त छद्मस्थ , जान सकता है। चाक्षुष प्रत्यक्ष से वह नहीं जाना जा सकता। शब्द ही विवक्षित है।
और गंध सूक्ष्म-स्थूल हैं। ये भी चाक्षुष प्रत्यक्ष से नहीं जाने जा अतिशय ज्ञानी छद्मस्थ परमाणु को जान सकता है, किन्तु सकते। वायु भी चक्षु का विषय नहीं है। प्रतीत होता है-चाक्षुष उसके सब पर्यायों को नहीं जान सकता इसलिए प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्यक्ष की अपेक्षा से इन्हें छद्मस्थ द्वारा अज्ञेय बतलाया गया है। सर्वभाव का अर्थ सर्वपर्याय नहीं है। अभयदेव सूरि ने भगवती की जिन होगा और सब दुःखों का अंत करेगा, यह भविष्य का ज्ञान वृत्ति में इसका अर्थ साक्षात्कार-इन्द्रिय प्रत्यक्ष किया है। उन्होंने निरतिशय ज्ञानी के लिए संभव नहीं है। नाण-पदं ज्ञान-पदम्
ज्ञान-पद . ९७. कतिविहे णं भंते! नाणे पण्णत्ते! कतिविध भदन्त ! ज्ञानं प्रज्ञसम् ?
९७. 'भन्ते! ज्ञान कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! पंचविहे नाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियनाणे,सुयनाणे,
ओहिनाणे, मणपज्जवनाणे,केवल- नाणे॥
गौतम ! पञ्चविधं ज्ञानं प्रजप्सम, तद्यथा-- आभिनिबोधिकज्ञानं, श्रुतज्ञानम्. अवधिज्ञानं, मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानम्।
गौतम ! ज्ञान पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-आभिनिबोधिकज्ञान. श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान।
९८. से किं तं आभिणिबोहियनाणे? अथ किं तत् आभिनिबोधकज्ञानम् ?
अभिणिबोहियनाणे चउबिहे पण्णत्ते, तं आभिनिबोधिकज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, जहा-ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा। तद्यथा-अवग्रहः, ईहा, अवाय, धारणा। एवं जहा 'रायप्पसेणइज्जे नाणाणं भेदो एवं यथा 'राजप्रश्नीये ज्ञानानां भेदः तथैव तहेव इह भाणियव्वो जाव सेत्तं इह भणितव्यः यावत तदेतत् केवलज्ञानम्। केवलनाणे॥
९८. वह आभिनिबोधिक ज्ञान क्या है?
आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा। इस प्रकार जैसे राजप्रश्नीय में ज्ञानों के भेद की वक्तव्यता है वैसे ही यहां वक्तव्य है यावत् वह केवलज्ञान है।
९९. अण्णाणे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते?
अज्ञानं भदन्त ! कतिविधं प्रज्ञप्तम ?
९९. भन्ते! अज्ञान कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेमतिअज्ञान. श्रुतअज्ञान. विभंगज्ञान।
गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- मइअण्णाणे, सुयअण्णाणे, विभंग- नाणे॥
गौतम! त्रिविधं प्रज्ञाप्तम्, तद्यथा-मति- अज्ञानं. श्रुत-अज्ञानं, विभंगज्ञानम्।
१००.से किं तं मइअण्णाणे? मइअण्णाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा।।
अथ किं तत् मति-अज्ञानम् ? मति-अज्ञानं चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथाअवग्रहः, ईहा. अवाय, धारणा।
१००. वह मतिअज्ञान क्या है ?
मतिअज्ञान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा।।
१. (क) भ. वृ. ८/९६-छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते. अन्यथाऽमूर्नत्वेन धर्मास्तिकायादीनजानन्नपि परमाण्वादि जानात्येवासी, मूर्त्तत्वात्तस्य, समस्तमूर्त्तविषयत्वाच्चावधिविशेषस्य। (ख) स्था., व. प. ४८०-नवरं छद्मस्थ इह निरतिशय एव द्रष्टव्योन्यथाऽवधिज्ञानी परमाण्वादि जानात्येव। २. भ. बृ. ८/०६-अथ सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च नत् कथञ्चिज्जानन्नप्यनन्त
पर्यायतया न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति संख्यानियमो व्यर्थः स्यात् घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञानुमशक्यत्वात.
सर्वभावेन च साक्षात्कारेण चक्षुप्रत्येक्षणेति हृदयम। ३. स्था., वृ. प. ४८०-सव्वभावेणं ति सर्वप्रकारण स्पर्शरसगंधरूपज्ञानेन घटमिवेत्यर्थः।
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श.८ : उ. २ : सू. १०१-१०३
३८
भगवई
१०१. से किं तं ओग्गहे?
ओग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य। एवं जहेव आभिणि-बोहियनाणं तहेव, नवरं- एगवियवज्ज जाव नोइंदिय-धारणा। सेत्तं धारणा, सेत्तं मइअण्णाणे।।
अथ कि सः अवग्रहः? अवग्रहः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- अर्थावग्रहश्च व्यञ्जनावग्रहश्च। एवं यथैव आभिनिबोधिकज्ञानं तथैव, नवरंएकार्थिकवर्ज यावत् नोइन्यिद्रयधारणा। सा एषा धारणा। तदेतत् मतिअज्ञानम्।
१०१. वह अवग्रह क्या है?
अवग्रह दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-- अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह। इस प्रकार जैसे आभिनिबोधिक ज्ञान की वक्तव्यता है वैसे ही मतिअज्ञान की बातव्यता। इतना विशेष है कि इसमें एकार्थिक नामों का उल्ल्लेख करणीय नहीं है यावत् यह पाठ नोइंद्रिय धारणा तक वक्तव्य है। वह है धारणा। वह है मति अज्ञान।
१०२. से किं तं सुयअण्णाणे?
अथ किं तत् श्रुत-अज्ञानम्? सुयअण्णाणे-जं इमं अण्णाणिएहिं श्रुत-अज्ञानं यत् इदं अज्ञानिभिः मिथ्यामिच्छादिट्ठिएहिं सच्छंदबुद्धि-मइ. दृष्टिकैः स्वच्छन्दबुद्धि-मतिविकल्पितम्, विग्गपियं, तं जहा-भारहं, रामायणं जहा तद्यथा-भारतं, रामायणं यथा नन्द्यां यावत् नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा। सेत्तं चत्वारः वेदाः साङ्गोपाङ्गाः। तदेतत् श्रुतसुयअण्णाणे॥
अज्ञानम्।
१०२. वह श्रुतअज्ञान क्या है?
श्रुतअज्ञान-जो यह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, स्वच्छन्द बुद्धि और मति द्वारा विरचित है जैसे-भारत, रामायण। जैसे नंदी में यावत् अंग, उपांग सहित चार वेद। वह श्रुतअज्ञान है।
१०३. से किं तं विभंगनाणे? अथ किं तत् विभङ्गज्ञानम्?
१०३. वह विभंगज्ञान क्या है? विभंगनाणे अणेगविहे पण्णते, तं विभङ्गज्ञानम् अनेकविध प्रज्ञप्तं तद्यथा- विभंगज्ञान अनेक प्रकार का प्रज्ञप्त है, जहा--गामसंठिए, नगरसंठिए, जाव ग्रामसंस्थितं, नगरसंस्थितं यावत् सन्नि. जैसे-ग्रामसंस्थित (गांव के आकार सण्णिवेससंठिए, दीवसंठिए,समुद्द- वेशसंस्थितं, द्वीपसंस्थितं, समुद्रसंस्थितं, वाला) नगर संस्थित यावत् सन्निवेशसंठिए, वाससंठिए, वासहरसंठिए, वर्षसंस्थितं, वर्षधरसंस्थितं, पर्वतसंस्थितं, संस्थित, द्वीपसंस्थित, समुद्रसंस्थित, पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभ-संठिए, रुक्षसंस्थितं, स्तूपसंस्थितं, हयसंस्थितं, वर्षसंस्थित (भरत क्षेत्र आदि के आकार हयसंठिए, गयसंठिए, नरसंठिए, किन्नर- गजसंस्थितं, नरसंस्थितं, किन्नरसंस्थितं, वाला), वर्षधरसंस्थित (हिमवत आदि संठिए, किंपुरिससंठिए, महोरगसंठिए, किम्पुरुषसंस्थितं, महोरगसंस्थितं.गन्धर्व- वर्षधर पर्वत के आकार वाला), गंधव्य-संठिए, उसभसंठिए, पसुसंठिए, संस्थितं, ऋषभसंस्थितं, पशुसंस्थितं, पर्वतसंस्थित, वृक्षसंस्थित, स्तूपसंस्थित, पसयसंठिए, विहगसंठिए, वानर. 'पसय' संस्थितं, विहगसंस्थितं, वानर- हयसंस्थित (अश्व के आकार वाला), संठिए-नाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते॥ संस्थितं-नानासंस्थानसंस्थितं प्रज्ञप्तम्। गजसंस्थित, नरसंस्थित, किन्नरसंस्थित
किंपुरुष-संस्थित, महोरगसंस्थित, गंधर्वसंस्थित, वृषभसंस्थित, पशुसंस्थित, मृगाकार-संस्थित, विहगसंस्थित (पक्षी के आकार वाला), वानरसंस्थित-नाना
संस्थानों के आकार वाला प्रज्ञप्त है।
भाष्य १. सूत्र ९७-१०३
नहीं है। उसके संस्थान भी निर्दिष्ट नहीं हैं। मति अज्ञान के अवग्रह भगवती सूत्रगत ज्ञान की परम्परा राजप्रश्नीय और नंदीगत आदि का भी उल्लेख नहीं है। ज्ञान की परम्परा में समानता और असमानता-दोनों के तत्त्व विद्यमान राजप्रश्नीय में केवल ज्ञान के भेद बतलाए गए हैं। उसमें अज्ञान हैं। समानता के जितने तत्त्व हैं, उनका यहां संक्षेपीकरण किया गया की चर्चा नहीं है। प्रतीत होता है-विभंगज्ञान का उल्लेख सर्वप्रथम
और उनके विस्तार के लिए राजप्रश्नीय और नंदीसूत्र देखने का निर्देश भगवती में हुआ है। इसके पश्चात् अनुयोगद्वार में अज्ञान के तीन दिया गया।
प्रकार उपलब्ध हैं। उमास्वाति ने अवधिज्ञान के विपर्यय का उल्लेख असमानता के तत्त्व ये हैं-नंदी ज्ञान मीमांसा का मुख्य आगम किया है। है। उसमें अज्ञान के दो ही प्रकार किए गए हैं, विभंगज्ञान का उल्लेख स्थानांग में विभंगज्ञान के सात भेद विस्तार के साथ निरूपित १. अणु. २८५-ख ओवसमिया मई अन्नाणलन्द्री ख ओवसममिया २.त. सू. भा. वृ.१/३२-मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च। सुय अन्नाणलद्धी खओवसमिया विभंगनाणलन्द्री।
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भगवई
३९
श. ८ : उ. २ : सू. १०३ हैं। प्रस्तुत प्रकरण में संस्थान के आधार पर विभंगज्ञान के अनेक नियुक्ति में अवधिज्ञान के क्षेत्र परिमाण और संस्थान का अन्तर प्रकारों का उल्लेख है। आवश्यक नियुक्ति, आवश्यक चूर्णि और विमर्शनीय है। चूर्णिकार के अनुसार संस्थान क्षेत्र की अपेक्षा से है विशेषावश्यक भाष्य में अवधिज्ञान के संस्थानों का निरूपण उपलब्ध फिर क्षेत्र परिमाण और संस्थान के बीच भेदरेखा खींचना आवश्यक है। उनमें क्षेत्र की अपेक्षा संस्थानों की चर्चा की गई है। यह विमर्शनीय है। नंदी में अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र तीन समय का आहारक सूक्ष्म है। आवश्यक नियुक्ति में अवधिज्ञान के क्षेत्र परिमाण पर विचार कर पनक जीव बतलाया गया है। आवश्यक नियुक्ति में जघन्य अवधिज्ञान तदन्तर उसके संस्थान पर विचार किया गया है। पैंतालीस गाथा से का संस्थान जल बिन्दु बतलाया गया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता तिरेपन गाथा तक अवधिज्ञान के विषयभूत क्षेत्र का निरूपण है।२ है कि क्षेत्र परिमाण ज्ञेय की दृष्टि से बतलाया गया है और उसका चौपनवीं और पचपनवीं गाथा में उसके संस्थान का निरूपण किया संस्थान ज्ञान के आकार की दृष्टि से बतलाया गया है। गया है। जघन्य अवधिज्ञान का संस्थान जल बिन्दु के समान, उत्कृष्ट षट्खण्डागम में ये संस्थान शरीर के बतलाए गए हैं। उसका अवधिज्ञान का संस्थान वर्तुल और लोक की अपेक्षा किंचित् आयत उल्लेख है-जैसे शरीर और इन्द्रियों का प्रतिनियत संस्थान होता है, तथा मध्यम अवधिज्ञान का संस्थान क्षेत्र की अपेक्षा अनेक प्रकार का वैसे अवधिज्ञान का प्रतिनियत नहीं होता किन्तु अवधि- ज्ञानावरणीय होता है। जैसे
के क्षयोपशम प्राप्त जीव प्रदेशों के करण-रूप शरीर प्रदेश अनेक १. छोटी नौका-डोंगी। इस आकार का अवधिज्ञान नैरयिकों के संस्थानों से संस्थित होते हैं। वे संस्थान शरीरगत होते हैं। कुछ होता है।
संस्थानों के नामों का उल्लेख भी मिलता है। श्रीवत्स, कलश, शंख, २. पल्यक-अनाज का कोठा। इस आकार का अवधिज्ञान स्वस्तिक, नंदावर्त आदि अनेक आकार होते हैं। भवनपति देवों के होता है।
धवला में विभंगज्ञान के क्षेत्र संस्थानों का उल्लेख मिलता ३. पटह-इस आकार का अवधिज्ञान वाणमंतर देवों के होता हैं। आवश्यक नियुक्ति के व्याख्याकारों ने अवधिज्ञान के संस्थानों
को शरीरगत संस्थान नहीं माना। गोम्मटसार, धवला में उन्हें शरीरगत ४. झल्लरी-इस आकार का अवधिज्ञान ज्योतिष्क देवों के होता । संस्थान माना गया है। यह शरीरगत संस्थान वाला मत अधिक
उपयुक्त प्रतीत होता है। ५. मृदंग-इस आकार का अवधिज्ञान कल्पवासी (सौधर्म से अवधिज्ञान की रश्मियों का निर्गमन शरीर के माध्यम से होता अच्युत तक) वैमानिक देवों के होता है।
है। जैसे जालीदार ढक्कन के छिद्रों से दीये का प्रकाश बाहर फैलता ६. पुष्प चंगेरी-फूलों की टोकरी। इस आकार का अवधिज्ञान है वैसे ही अवधिज्ञान का प्रकाश शरीर के स्पर्धकों के माध्यम से ग्रैवेयक देवों के होता है।
बाहर फैलता है, यह आवश्यक वृत्ति में स्पष्ट है।" नंदी चूर्णि में भी ७. यवनालक-कन्या का चोला। इस आकार का अवधिज्ञान इसका उल्लेख मिलता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने अवधिज्ञान की अनुत्तरोपपातिक देवों के होता है।'
प्रकाश रश्मियों के संस्थान का प्रतिपादन किया किन्तु उनके संस्थान नैरयिक और देवों का अवधिज्ञान नियत संस्थान वाला होता का आधार शरीरगत संस्थान बनते हैं, इसका उल्लेख नहीं किया। है। तिर्यंच और मनुष्यों का अवधिज्ञान अनियत संस्थान वाला भी शरीरगत संस्थान के आधार पर ही प्रकाश रश्मियों के संस्थान का होता है।
निर्धारण हो सकता है। तिर्यंच और मनुष्य के मध्यम अवधिज्ञान के संस्थान भी अनेक
प्रस्तुत सूत्र में विभंगज्ञान को नाना संस्थान संस्थित कहा प्रकार के होते हैं, जैसे
गया है किन्तु अवधिज्ञान के संस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। १. हय संस्थान
शब्द विमर्श २.गज संस्थान
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों ३. पर्वत संस्थान।
इन्द्रियजन्य ज्ञान हैं। अभयदेव सूरि के अनुसार आभिनिबोधिक ज्ञान
१.ठाण ७/२। २. आ. नि. पृ. २४-२६॥ ३. वही, पृ. २६॥ ४.(क) आव. चू.पृ.५५-५६।
(ख) वि. भा. गा. ७०६-७११। ५. वही, १११ ६. आ. चू. पृ. ५६-५५-इयाणिं तिरियमणुयाणं जारि ओहिस्स संठाणं तं भणति, सो य तिरियमणुओहि हयगयादी संठाणसंठितो पुब्विं चेव भणितोत्ति..... तहा हयसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च हयसंठिओ भवति, गयसंठाणसंठियं खेनं पडुच्च गयसंठिनो भवति, एवमाई, पव्वयसंठाणसंठियं खेत्तं पडुच्च पव्वयसंठिओ भवति, एवमादि।
७. नंदी सू.-१८ गाथा १| ८. ष, खं, पुस्तक १३ पृ. २९६ सू. ५७-खेत्तदो नाव अणेयसंठाणसंठिदा। ......... जहा कायाणमिदियाणं च पडिनियदं संठाणं तहा ओहिणाणस्य ण होदि किन्तु ओहिणाणावरणीयखओवसमगदजीवपदेसाणं करणीभूदसरीरपदेसा अणेयसंठाणसंठिदा होति। ९. वही, पुस्तक १३ पृ. २९७, सू. ५८-सिरिवच्छ कलससंख
सोत्थियणंदावत्तादीणि संठाणाणि णादव्वाणि भवंति। १०. वही, पुस्तक १३ पृ. २९८ सू. ५८। ११. आ. हा. वृ. सू. ६१-इह फड्डकानि अवधिज्ञाननिर्गमद्वाराणि अथवा
गवाक्षजालादिव्यवहितप्रदीपप्रभावफडकानीव फडकानि। १२. नंदी चू. सू. १३ पृष्ठ १५।
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श.८ : उ. २ : सू. १०४
भगवई
इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला बोध है।' श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला श्रुतग्रन्थानुसारी बोध है। ___अवधिज्ञान-इन्द्रिय और मन से निरपेक्ष अवधान से होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। इससे अधोवर्ती वस्तु का परिच्छेद होता है।'
मनःपर्यवज्ञान-मनोवर्गणा के आधार पर मन के भावों को जानने वाला ज्ञान।
केवलज्ञान-सब द्रव्यों और सब पर्यायों का साक्षात् करने वाला ज्ञान।
मतिअज्ञान-मति ज्ञान का विपर्यय। श्रुत अज्ञान-श्रुत ज्ञान का विपर्यय। विभंगज्ञान-अवधि ज्ञान का विपर्यय। ० अवग्रह-इन्द्रिय और अर्थ का संयोग होने पर दर्शन के पश्चात्
जो सामान्य का ग्रहण होता है, उसे अवग्रह कहा जाता है।''
० व्यंजनावग्रह-व्यंजन के द्वारा व्यंजन के ग्रहण- अव्यक्त ज्ञान को व्यंजनावग्रह कहा जाता है।'
० अर्थावग्रह-व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त किन्तु जाति, द्रव्य, गुण आदि कल्पना से रहित जो अर्थ का ग्रहण होता है, उसे अर्थावग्रह कहा जाता है, जैसे-यह कुछ है।
.ईहा-'अमुक होना चाहिये इस प्रकार के प्रत्यय को ईहा कहा जाता है।
० अवाय-'अमुक ही है' ऐसे निर्णयात्मक ज्ञान को अवाय कहा जाता है, जैसे-यह शब्द ही है।
० धारणा-निर्णयात्मक ज्ञान की अवस्थिति। पसय-Indian Bison-गौर, दो खुर वाला जंगली पशु।
जीवों का ज्ञानि-अज्ञानित्व-पद १०४.'भन्ते! जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी
जीवाणं नाणि-अण्णाणित्त-पदं
जीवानां ज्ञानि-अज्ञानित्व-पदम १०४. जीवा णं भंते! किं नाणी? जीवाः भदन्त ! किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः?
अण्णाणी? गोयमा! जीवा नाणी वि, अण्णाणी वि। गौतम! जीवाः ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानि- जे नाणी ते अत्थेगतिया दुण्णाणी, नोऽपि। ये ज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्वि- अत्थेगतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया ज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः, चउनाणी, अत्थेगतिया एगनाणी। जे अस्त्येकके चतु-ानिनः, अस्त्येकके एकदुण्णाणी ते आभिणि-बोहियनाणी ज्ञानिनः। ये द्विज्ञानिनः ते आभिनि- सुयनाणी य। जे तिण्णाणी ते आभिणि- बोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्च। ये त्रि- बोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, ज्ञानिनः ते आभिनि-बोधिकज्ञानिनः, श्रुतअहवा आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ज्ञानिनः, अवधि-ज्ञानिनः, अथवा आभि- मणपज्जवनाणी। जे चउनाणी ते निबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, मनःपर्यवआभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहि- ज्ञानिनः। ये चतुर्जानिनः ते आभिनाणी, मणपज्जवनाणी। जे एगनाणी ते । निबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, अवधिनियमाकेवलनाणी॥
ज्ञानिनः, मनःपर्यव-ज्ञानिनः। ये एकज्ञानिनः
ते नियमात् केवलज्ञानिनः। जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्वि-अज्ञानिनः, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। जे दुअण्णाणी अस्त्येकके त्रिअज्ञानिनः। ये द्वि-अज्ञानिनः ते मइ-अण्णाणी सुयअण्णाणी य। जे ते मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनश्च। ये ति-अण्णाणी ते मइअण्णाणी, सुय- त्रि-अज्ञानिनः ते मति-अज्ञानिनः, श्रुत- अण्णाणी, विभंगनाणी॥
अज्ञानिनः, विभंगज्ञानिनः।
गौतम ! जीव ज्ञानी भी हैं. अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी है उनमें कुछ दो ज्ञान वाले, कुछ तीन ज्ञान वाले, कुछ चार ज्ञान वाले और कुछ एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं अथवा आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्यव ज्ञान वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियमतः केवलज्ञानी है। जो अज्ञानी हैं उनमें कुछ दो अज्ञान वाले, कुछ तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाले हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान वाले हैं।
भाष्य
१. सूत्र १०४
प्रस्तुत सूत्र में जीव शब्द संसारी जीव के लिए विवक्षित है। सम्यकदृष्टि का बोध ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का बोध अज्ञान कहलाता
है। जीव शब्द सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों का संग्राहक है इसलिए उसे ज्ञानी और अज्ञानी दोनों कहा गया है।
ज्ञान पांच हैं। उसकी उपलब्धि की दृष्टि से चार विकल्प होते हैं--
१. भ. वृ.८.१७-आभिनिबोधिकं ज्ञानं इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति। ६.जैन सिद्धांत दीपिका पृ.३८। २. वही, ८/९७--श्रुतज्ञान-इन्द्रियमनोनिमितः श्रुतग्रन्थानुसारी बोध इति। ७. वही पृ. ३८ ३. वहीं, ८१९७-अवधीयते-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः। । ८. वही पृ. ३८५ ४. जैन सिद्धान्त दीपिका पृ. ३७।
९.वही पृ. ३८। ५. वही पृ.३७।
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भगवई
४१
श.८ : उ. २ : सू. १०५-१०७
१. द्विज्ञानी-आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान सम्पन्न ।
२. त्रिज्ञानी-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान सम्पन्न अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मनःपर्यवज्ञान सम्पन्न।
३. चतुर्जानी-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान सम्पन्न।
४. एकज्ञानी-नियमतः केवलज्ञान सम्पन्न ।
अज्ञान तीन हैं। उसकी उपलब्धि की दृष्टि से दो विकल्प होते हैं
द्वि-अज्ञानी-मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान से सम्पन्न ।
त्रि-अज्ञानी-मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंग ज्ञान से सम्पन्न।
१०५. नेरझ्या णं भंते! किं नाणी? नैरयिकाः भदन्त! किं ज्ञानिनः? १०५. 'भन्ते! नैरयिक क्या ज्ञानी हैं ? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? गोयमा! नाणी, वि. अण्णाणी वि। जे गौतम' ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये गौतम! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो नाणी ते नियमा तिण्णाणी, तं ज्ञानिनः ते नियमात् विज्ञानिनः, तद्यथा- ज्ञानी हैं वे नियमतः तीन ज्ञान वाले हैं, तहा-आभिणिबोहियनाणी, सुय-नाणी, आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, जैसे-आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और
ओहिनाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया । अवधिज्ञानिनः। ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके अवधिज्ञान वाले हैं। जो अज्ञानी हैं उनमें दुअण्णाणी, अत्थेगतिया तिअण्णाणी। द्वि-अज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिअज्ञानिनः। कुछ दो अज्ञान वाले, कुछ तीन अज्ञान एवं तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। एवं त्रीणि अज्ञानानि भजनया।
वाले हैं। इस प्रकार तीन अज्ञान की
भजना है।
भाष्य १. सूत्र १०५
होते हैं। इस अपेक्षा से द्वि-अज्ञानी विकल्प बनता है। जो मिथ्यादृष्टि जो असंही जीव नरक में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अपर्याप्तक अवस्था संज्ञी नरक में उत्पन्न होते हैं, उनमें भव प्रत्यय विभंगज्ञान होता है। में विभंगज्ञान नहीं होता इसलिए उत्पत्ति काल में उनमें दो अज्ञान इस प्रकार वे त्रि-अज्ञानी होते हैं। यह अभयदेव सूरि की व्याख्या है।'
१०६. असुरकुमारा णं भंते! किं नाणी? असुरकुमाराः भदन्त! किं ज्ञानिनः? अण्णाणी?
अज्ञानिनः? जहेव नेरइया तहेव, तिण्णि नाणाणि यथैव नैरयिकाः तथैव, त्रीणि ज्ञानानि नियमा, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए? । नियमात्, त्रीणि अज्ञानानि भजनया एवं एवं जाव थणियकुमारा॥
यावत् स्तनितकुमाराः।
१०६. 'भन्ते! असुरकुमार क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? जैसे नैरयिकों की वक्तव्यता वैसे ही यहां वक्तव्य है-तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, तीन अज्ञान की भजना है। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता।
भाष्य
१. सूत्र १०६
भवनपति और व्यंतर देवों (सूत्र १०८) में असंज्ञी अमनस्क तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं। प्रस्तुत आगम के प्रथम शतक में
स्पष्ट निर्देश है कि असंही जीव जघन्यतः भवनपति. उत्कृष्टतः वानमंतर में उत्पन्न होते हैं। इसलिए उनमें नैरथिक की भांति द्वि-अज्ञानी और त्रि-अज्ञानी दोनों विकल्प मिलते हैं।
अनार
१०७. पुढविक्काइया ण भंते! किं नाणी? पृथ्वीकायिकाः भदन्त ! किं ज्ञानिनः? १०७. भन्ते! पृथ्वीकायिक क्या ज्ञानी हैं? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? गोयमा! नो नाणी, अण्णाणी। जे गौतम! नो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः। ये । गौतम! ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। जो अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी- अज्ञानिनः ते नियमात् द्वि-अज्ञानिन:- अज्ञानी हैं वे नियमतः दो अज्ञान वाले हैंमइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। एवं जाव। मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिश्च। एवं मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाले। इस वणस्सइकाइया॥ यावत् वनस्पतिकायिकाः।
प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता।
१. भ. वृ. ८/१०५-असंजिनः संतो ये नारकेषूत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तकावस्थायाँ विभंगाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्यज्ञानिनः। ये तु मिथ्यादृष्टि संज्ञिभ्य उत्पद्यन्त तेषां भवप्रत्ययो विभंगो भवतीति ते त्र्यज्ञानिनः।
२.(क) भ. १/११३।
(ख) वही, १/११३ का भाष्य पृ. ६८।
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श.८ : उ. २: सू. १०८-११०
४२
भगवई
१०८. बेइंदियाण पुच्छा। गोयमा! वि अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुण्णाणी, तं जहाआभिणिबोहियनाणी सुयनाणी या जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य। एवं तेइंदिय-चउरिदिया वि॥
द्वीन्द्रियाणाम् पृच्छा। गौतम! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि। ये ज्ञानिनः ते नियमात् द्विज्ञानिनः, तद्यथाआभिनिबोधिकज्ञानिनः. श्रुतज्ञानिनश्च। ये अज्ञानिनः ते नियमात् द्वि-अज्ञानिनः तद्यथा-मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिनश्च। एवं त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियाः अपि।
१०८. द्वीन्द्रिय की पृच्छा।
गौतम! ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं वे नियमतः दो ज्ञान वाले होते हैं, जैसे-आभिनिबोधिकज्ञान
और श्रुतज्ञान वाले। जो अज्ञानी होते हैं वे नियमतः दो अज्ञान वाले होते हैं, जैसेमतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान वाल। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता।
१०९. पंचेन्द्रिय तिर्यगयोनिक की पृच्छा।
१०९. पंचिंदियतिरिक्ख - जोणियाणं पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकानां पृच्छा। पुच्छा। गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये जे नाणी ते अत्थेगतिया दुण्णाणी, ज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्विज्ञानिनः, अत्थेगतिया तिण्णाणी।
अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः। ये अज्ञानिनः ते जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, अस्त्येकके द्वि-अज्ञानिनः, अस्त्येकके त्रिअत्थेगतिया ति-अण्णाणी। एवं तिणि अज्ञानिनः। एवं त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि नाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। अज्ञानानि भजनया। मनुष्याः यथा जीवाः, मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच नाणाणि, तथैव पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि तिण्णि अण्णाणाणि भयणाए। वाणमंतरा भजनया। वानमन्तराः यथा नैरयिकाः। जहा नेरइया। जोइसियवेमाणियाणं ज्योतिष्क वैमानिकानां त्रीणि ज्ञानानि, तिण्णि नाणाणि, तिण्णि अण्णाणाणि त्रीणि अज्ञानानि नियमात्। नियमा॥
गौतम ! ज्ञानी भी होते हैं, अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी होते हैं उनमें कुछ दो ज्ञान वाले और कुछ तीन ज्ञान वाले होते हैं। जो अज्ञानी होते हैं उनमें कुछ दो अज्ञान वाले और कुछ तीन अज्ञान वाले होते हैं। इस प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य हैं। जीव की भांति उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। वानमन्तर नैरयिक की भांति वक्तव्य है। ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में नियमतः तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं-न्यून और अधिक नहीं होते।
११०. सिद्धाणं भंते! पुच्छा। सिद्धानां भदन्त ! पृच्छा।
११०. भन्ते! सिन्द्रों की पृच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी; नियमा गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः, नियमात गौतम ! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं है। नियमतः एगनाणी-केवलनाणी॥ एकज्ञानिनः-केवलज्ञानिनः।
एक ज्ञानी-केवलज्ञानी है।
भाष्य १. सूत्र १०७-११०
बतलाया है। कर्मग्रन्थ का मत है-सास्वादन सम्यक्त्व में पांच सम्यक्त्व छूट रहा है और मिथ्यात्व अभी आया नहीं है-इस अपर्याप्त है-बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और अंतराल अवस्था में सास्वादन सम्यक्त्व होता है। सम्यक्त्व से गिरने असंही पंचेन्द्रिय तथा दो संज्ञी अपर्याप्त और पर्याप्त-कुल सान वाला जीव विकलेन्द्रिय में उत्पन्न होता है. उस समय अपर्याप्त अवस्था जीवस्थान है। में उसमें सास्वादन सम्यग्दर्शन लब्ध होता है इस अपेक्षा से वह द्वि. प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय में ज्ञान का निषेध किया गया है और ज्ञानी है। जयाचार्य ने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है।'
कर्मग्रन्थ में एकेन्द्रिय में सास्वादन सम्यक्त्व स्वीकार किया गया इस प्रसंग में आचार्यवर ने कर्मग्रन्थ के द्वारा सम्मत एकेन्द्रिय है। इसका फलित है-वह दो ज्ञान वाला भी है। यह आगम से भिन्न में सास्वादन सम्यग्दर्शन का उल्लेख कर उसे आगम से असम्मत मत है। १. भ. ७. ८/१०८-द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यगदर्शन
एवं जाव वणस्सइ कहिये, ज्ञानी नहिं ने अज्ञानी। भावनाउपासकावस्थायां भवन्तीत्यत उच्यते।
कर्म ग्रंथ दूजो गुणठाणो, आख्यो तेह विरुध जानी॥ २. भ. जो.२.१३५:१०
४. कर्मग्रंथ भाग ४ गुणस्थान अधिकार गाथा ४५सम्यक्न बमतो जाण, विकलेन्द्री में ऊपजै।
सव्व जियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज सन्निदुर्ग। सास्वादन गणठाण अपर्याप्त विषे हवै।।
समे सन्नी दुविहो, ऐसे सु संनिपज्जत्तो।। ३. वही.२.१३५.१६
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भगवई
श.८ : उ. २: सू.१११-११४
अंतरालगतिं पडुच्च१११. निरयगतिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। तिण्णि नाणाई नियमा, तिणि अण्णाणाई भयणाए।
अन्तरालगतिं प्रतीत्यनिरयकगतिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि! त्रीणि ज्ञानानि नियमात. त्रीणि अज्ञानानि भजनया।
अन्तरालगति की अपेक्षा से १११. भन्ते! नरक की अन्तराल गति में विद्यमान जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, तीन अज्ञान की भजना है।
११२. तिरियगतिया णं भंते! जीवा किं तिर्यग्गतिकाः भदन्त ! जीवा किं ज्ञानिनः? ११२. भन्ते ! तिर्यंच की अन्तराल गति में नाणी। अण्णाणी? अज्ञानिनः?
विद्यमान जीव क्या जाना है? अज्ञानी है? गोयमा! दो नाणा, दो अण्णाणा गौतम! द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने नियमात्। गौतम ! नियमतः दो ज्ञान अथवा दो अज्ञान नियमा॥
होते हैं।
११३. मणुस्सगतिया णं भंते! जीवा किं मनुष्यगतिकाः भदन्त जीवाः किं ११३. मनुष्य की अंतराल गति में विद्यमान नाणी? अण्णाणी? ज्ञानिनः? अज्ञानिनः?
जीव क्या ज्ञानी है? अज्ञानी हैं? गोयमा! तिण्णि नाणाई भयणाए, दो गौतम! त्रीणि ज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने गौतम! तीन ज्ञान की भजना है, दो अज्ञान अण्णाणाई नियमा। देवगतिया जहा नियमात् ! देवगतिकाः यथा निरयगतिकाः। नियमतः होते हैं। देव की अंतराल गति में निरयगतिया।।
विद्यमान जीवों की नरक की अंतराल गति में विद्यमान जीवों की भांति
वक्तव्यता।
भाष्य १. सूत्र १११-११३
जाते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में निरयगतिक, तिर्यक्गतिक और मनुष्य- तिर्यक्रगतिक में दो ज्ञान का नियम इस अपेक्षा से है कि तिर्यक गतिक का प्रयोग सापेक्ष है। निरयगति में उत्पन्न होने वाला जीव गति में उत्पन्न होने वाला सम्यक्दृष्टि जीव अवधि ज्ञान को साथ लेकर वर्तमान में अंतराल गति में है, उसे निरयगतिक कहा गया है। इसी तिर्यंचगति में उत्पन्न नहीं हो सकता। दो अज्ञान का नियम इस अपेक्षा प्रकार तिर्यंच और मनुष्य गति में उत्पन्न होने वाले जीवों को से है कि तिर्यक्रगति में उत्पन्न होने वाला मिथ्यादृष्टि जीव भी अंतरालगति की अपेक्षा क्रमशः तिर्यक्गतिक और मनुष्यगतिक कहा विभंगज्ञान को साथ लेकर तिर्यंच गति में उत्पन्न नहीं हो सकता। गया है। नैरयिक में तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, यह इस अपेक्षा से मनुष्यगतिक में तीन ज्ञान की भजना इस अपेक्षा से है कि कुछ कहा गया है कि सम्यगदृष्टि नैरयिकों के अवधिज्ञान भवप्रत्ययिक सम्यकदृष्टि जीव अवधिज्ञान सहित मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं। यह होता है। भव का प्रारम्भ अन्तराल गति के पहले समय से होता है, अभिमत है कि तीर्थंकर अवधिज्ञान सहित उत्पन्न होते हैं। कुछ अतः भवप्रत्ययिक अवधिज्ञान अन्तराल गति में ही हो जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञान रहित उत्पन्न होते हैं इसलिए तीन ज्ञान
तीन अज्ञान की भजना की अपेक्षा यह है-असंज्ञी जीव नरक में और दो ज्ञान-ये दो विकल्प बन जाते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव विभंगज्ञान जाते हैं। उनके अपर्याप्तक अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता। संज्ञी के साथ मनुष्य गति में उत्पन्न नहीं होते इसलिए उनमें नियमतः दो मिथ्यादृष्टि जीव नरक में जाते हैं, उनके भवप्रत्ययिक विभंगज्ञान अज्ञान होते हैं। अंतराल गति में हो जाता है। इस अपेक्षा से अज्ञान के दो नियम बन देवगतिक की वक्तव्यता निरयगतिक के समान है। ११४. सिद्धगतिया णं भंते! जीवा किं सिद्धगतिका : भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? ११४. 'भन्ते! सिद्ध की अंतराल गति में नाणी?
विद्यमान जीव क्या ज्ञानी है? जहा सिद्धा॥ यथा सिद्धाः।
सिद्धों (सूत्र ८/११०) की भांति
वक्तव्यता।
भाष्य १. सूत्र ११४
दोनों में कोई अन्तर नहीं है फिर भी गति के प्रकरण में उनका उल्लेख सिद्ध में एक केवलज्ञान होता है। सिद्धिगतिक में भी एक किया गया है। केवलज्ञान होता है। सिद्ध और सिद्धिगतिक का समय एक ही है। इन १. भ. वृ.८.१११॥
३. वही, ८/११३। २. वही, ८.११२।
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श.८ : उ. २ : सू. ११५-११९
भगवई
इंदियं पडुच्च११५. सइंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी!
गी! अण्णाणी? गोयमा! चत्तारि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए।
इन्द्रियं प्रतीत्य
इन्द्रिय की अपेक्षा से स-इन्द्रियाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? । स-इन्द्रियाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? ११५. भन्ते! स-इन्द्रिय जीव क्या ज्ञानी अज्ञानिनः?
हैं ? अज्ञानी है? गौतम! चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि गौतम ! चार ज्ञान और तीन अज्ञान की अज्ञानानि भजनया
भजना है।
११६. एगिदिया ण भंते! जीवा किं एकेन्द्रियाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? नाणी? जहा पुढविकाइया। बेइंदिय-तेइंदिय- यथा पृथ्वीकायिकाः। द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रियचउरिंदिया णं दो नाणा, दो अण्णाणा चतुरिन्द्रियाः द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने नियमात्। नियमा। पंचिदिया जहा सइंदिया॥ पञ्चेन्द्रियाः यथा स-इन्द्रियाः।
११६. भन्ते! एकेन्द्रिय जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्यता। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के नियमतः दो ज्ञान और दो अज्ञान होते हैं। पंचेन्द्रिय जीव सइन्द्रिय जीवों की भांति वक्तव्य हैं।
अनिन्द्रियाः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः?
११७. अणिदिया णं भंते! जीवा किं नाणी? जहा सिद्धा॥
११७. भन्ते! अनिन्द्रिय जीव क्या ज्ञानी हैं।
अज्ञानी हैं। सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
यथा सिद्धाः।
भाष्य
१. सूत्र ११५-११७
ज्ञान के ये विकल्प लब्धि की दृष्टि से किए गए हैं। उपयोग की ज्ञान के विकास की दो अवस्थाएं हैं- स-इन्द्रिय और दृष्टि से सब जीवों के एक ही ज्ञान होता है।' अनिन्द्रिय। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव-ये चार ज्ञान सेन्द्रिय इन्द्रिय चेतना वाले जीव में ज्ञान के तीन विकल्प होते हैं-- कोटि के ज्ञान हैं। मति और श्रुत-इन दो ज्ञानों में इन्द्रिय ज्ञान का १. दो ज्ञान प्रत्यक्ष उपयोग रहता है। अवधि और मनःपर्यव में इन्द्रिय ज्ञान का २. तीन ज्ञान परोक्ष उपयोग रहता है। ये अतीन्द्रिय ज्ञान हैं। फिर भी सर्वथा इन्द्रिय
३.चार ज्ञान निरपेक्ष नहीं हैं। केवलज्ञान अतीन्द्रियज्ञान है। वह इन्द्रिय के उपयोग अनिन्द्रिय चेतना वाले जीव में एक ही ज्ञान-केवलज्ञान से सर्वथा निरपेक्ष है।
होता है। वास्तव में अतीन्द्रिय कोटि का ज्ञान केवलज्ञान ही है। कायं पडुच्चकार्य प्रतीत्य
काय की अपेक्षा ११८. सकाइया णं भंते! जीवा किं सकायिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? ११८. 'भन्ते! सकायिक जीव क्या ज्ञानी नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
हैं ? अज्ञानी हैं ? गोयमा! पंच नाणाई, तिण्णि गौतम! पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि- गौतम ! पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की अण्णाणाई-भयणाए। पुढविक्का-इया भजनया। पृथ्वीकायिकाः यावत् वनस्पति- भजना है। पृथ्वीकायिक यावत् जाव वणस्सइकाइया नो नाणी, कायिकाःनो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः, नियमात वनस्पति-कायिक जीव ज्ञानी नहीं हैं, अण्णाणी, नियमा दुअण्णाणी, तं द्वि-अज्ञानिनः, तद्यथा-मति-अज्ञानिनश्च अज्ञानी हैं, नियमतः दो अज्ञान वाले हैं, जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य। श्रुत-अज्ञानिनश्च। सकायिकाः यथा जैसे- मति-अज्ञान और श्रुतअज्ञान तसकाइया जहा सकाझ्या॥ सकायिकाः।
वाले। त्रसकायिक जीव सकायिक जीवों की भांति वक्तव्य हैं।
१११. अकाइया णं भंते! जीवा किं नाणी?
अकायिकाः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः?
११९. भन्ते! अकायिक जीव क्या ज्ञानी हैं?
अज्ञानी हैं? सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
जहा सिद्धा।
यथा सिद्धाः।
१. भ. वृ. ८/११५ व्यादिभावश्च ज्ञानानां लब्ध्यपेक्षया उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम्।
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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. १२०-१२५ .
भाष्य
१. सूत्र ११८-११९
आत्मा के दो रूप हैं१. सकाय-सशरीरी।
२. अकाय-अशरीरी। सकाय में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के सब विकल्प मिलते हैं। अकाय सिन्द्र होता है। उसमें एक ही ज्ञान होता है-केवलज्ञान।
सुहुम-बादरं पडुच्च१२०.सुहमा णं भंते! जीवा किं नाणी? जहा पढविक्काइया।।
सूक्ष्मबादरं प्रतीत्यसूक्ष्माः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? यथा पृथ्वीकायिकाः।
सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा १२०. 'भन्ते ! सूक्ष्म जीव क्या जानी है? पृथ्वीकायिक जीवों की भांति वक्तव्यता।
१२१. बादरा णं भंते ! जीवा किं नाणी? जहा सकाइया॥
बादराः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? जहा सकायिकाः।
१२१. भन्ते! बादर जीव क्या ज्ञानी है?
सकायिक की भांति वक्तव्यता।
१२२. नोसुहमा-नोबादरा णं भंते! जीवा । नो सूक्ष्माः नो बादराः भदन्त ! जीवाः किं किं नाणी?
ज्ञानिनः? जहा सिद्धा।।
यथा सिद्धाः।
१२२. भन्ते! नोसूक्ष्म- नोबादर जीव क्या
ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ? सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
भाष्य १. सूत्र १२०-१२२
प्रतिघातयुक्त होता है, वे बादर कहलाते हैं। सूक्ष्म जीव केवल सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिनका शरीर अप्रतिघात वाला एकेन्द्रिय में ही होते हैं। वे पृथ्वीकाय की भांति नियमतः द्वि-अज्ञानी होता है-न किसी दूसरे को बाधा पहुंचाता है और न किसी दूसरे से हैं। बादर जीव सकायिक (सूत्र ११८) की भांति वक्तव्य है। सिद्ध बाधित होता है, वे सूक्ष्म जीव कहलाते हैं। जिनका शरीर अशरीरी होने के कारण नोसूक्ष्म-नोबादर होते हैं।
पज्जत्तापज्जत्तं पडुच्च१२३. पन्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी? जहा सकाइया॥
पर्याप्तापर्याप्तं प्रतीत्यपर्याप्ताः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? यथा सकायिकाः।
पर्याप्त अपर्याप्त की अपेक्षा १२३. भन्ते! पर्याप्त जीव क्या ज्ञानी हैं? सकायिक जीवों की भांति वक्तव्यता।
१२४. पज्जत्ता णं भंते! नेरइया किं पर्याप्ताः भदन्त ! नैरयिकाः किं ज्ञानिनः?
नाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा नियमा। त्रीणि ज्ञानानि. त्रीणि अज्ञानानि नियमात्। जहा नेरइया एवं थणियकुमारा। यथा नैरयिका एवं स्तनितकुमाराः। पृथ्वी- पुढविक्काइया जहा एगिदिया। एवं जाव कायिकाः यथा एकेन्द्रियाः। एवं यावत् चउरिंदिया।
चतुरिन्द्रियाः।
१२४. भन्ते! पर्याप्त नैरयिक जीव क्या ज्ञानी है? नियमतः तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमार से स्तनितकुमार तक की वक्तव्यता नैरयिक की भांति ज्ञातव्य है। पर्याप्त पृथ्वीकायिक की वक्तव्यता एकेन्द्रिय की भांति ज्ञातव्य है। इसी प्रकार यावत् पर्याप्त चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता।
१२५. पज्जत्ता णं भंते! पंचिंदिय- पर्याप्ताः भदन्त ! पञ्चेन्द्रियतिर्यगयोनिकाः १२५. 'भन्ते! पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यकतिरिक्खजोणिया किं नाणी? किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः?
योनिक क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं ? अण्णाणी? तिण्णि नाणा, तिण्णि त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया। तीन ज्ञान, तीन अज्ञान की भजना है। अण्णाणा-भयणाए। मणुस्सा जहा मनुष्याः यथा सकायिकाः। वानमन्तर- पर्याप्त मनुष्यों की बक्तव्यता सकायिक सकाइया। वाणमंतर-जोइसिय- ज्योतिष्क-वैमानिकाः यथा नैरयिकाः। जीवों की भांति ज्ञातव्य है। पर्याप्त वेमाणिया जहा नेरझ्या॥
वानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की वक्तव्यता नैरयिक की भांति ज्ञातव्य
,
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श.८: उ.२: सू. १२६-१३०
भगवई
भाष्य १. सूत्र १२५
मिथ्यादृष्टि जीवों में विभंगज्ञान होता है. कुछ में नहीं होता. इस अपेक्षा तिर्यपंचेन्द्रिय-कुछ सम्यगदृष्टि जीवों में अवधिज्ञान होता है, से उनमें तीन अज्ञान की भजना है। कुछ में नहीं होता, इस अपेक्षा से तीन ज्ञान की भजना है। कुछ १२६. अपज्जत्ता णं भंते! जीवा किं अपर्याप्ताः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः? १२६. 'भन्ते! अपर्याप्त जीव क्या ज्ञानी हैं? नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा- त्रीणि ज्ञानानि. बीणि अज्ञानानि-भजनया। तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। भयणाए॥
भाष्य १. सूत्र १२६
अपर्याप्तक अवस्था में अवधिज्ञान और विभंगज्ञान की भजना है। देखें सूत्र १११-११३ का भाष्य। १२७. अपज्जत्ता णं भंते! नेरइया किं अपर्याप्ताः भदन्त ! नैरयिकाः किं ज्ञानिनः? १२७. 'भन्ते ! अपर्यास नैरयिक क्या ज्ञानी नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
है? अज्ञानी है? तिण्णि नाणा नियमा, तिण्णि अण्णाणा त्रीणि ज्ञानानि नियमात. त्रीणि अज्ञानानि तीन ज्ञान नियमतः होते हैं, तीन अज्ञान भयणाए। एवं जाव थणियकुमारा। भजनया। एवं यावत् स्तनितकुमाराः। की भजना है। इस प्रकार यावत् पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया पृथ्वीकायिकाः यावत् वनस्पतिकायिकाः स्तनितकुमार की वक्तव्यता। जहा एगिंदिया॥ यथा एकेन्द्रियाः।
पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक की
वक्तव्यता एकेन्द्रिय की भांति ज्ञातव्य है।
भाष्य १. सूत्र १२७
नैरथिक में तीन ज्ञान का नियम और तीन अज्ञान की भजना। देखें सूत्र १११.११३ का भाष्य। १२८. बेइंदियाणं पुच्छा। दीन्द्रियाणां पृच्छा।
१२८. 'द्वीन्द्रिय की पृच्छा। दो नाणा, दो अण्णाणा-नियमा। एवं द्वे ज्ञाने, द्वे अज्ञाने-नियमात्। एवं यावत दो ज्ञान और दो अज्ञान नियमतः होते हैं। जाव पंचिंदियतिरिक्ख-जोणियाणं॥ पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्।
इस प्रकार यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक
की वक्तव्यता।
भाष्य १. सूत्र १२८
द्वीन्द्रिय में दो ज्ञान और दो अज्ञान का नियम। देखें सूत्र १०७-१०८ का भाष्य। १२९. अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुस्सा किं अपर्याप्तकाः भदन्त ! मनुष्याः किं ज्ञानिनः? १२९. 'भन्ते ! अपर्याप्तक मनुष्य क्या ज्ञानी नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
हैं? अज्ञानी है? तिण्णि नाणाई भयणाए, दो अण्ण- त्रीणि ज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने नियमात्। तीन ज्ञान की भजना है, दो अज्ञान णाई नियमा। वाणमंतरा जहा नेरइया। वानमन्तराः यथा नैरयिकाः। अपर्याप्तकानां नियमतः होते हैं। अपर्याप्त वानमन्तर की अपज्जत्तगाणं जोइ-सियवेमाणियाणं ज्योतिष्क-वैमानिकानां त्रीणि ज्ञानानि, वक्तव्यता नैरयिक की भांति ज्ञातव्य है। तिण्णि नाणा, तिण्णि अण्णाणा- त्रीणि अज्ञानानि नियमात् ।
अपर्याप्त ज्योतिष्क और वैमानिक के नियमा।
नियमतः तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते
भाष्य १. सूत्र १२९
वानमंतर की नैरयिक की भांति वक्तव्यता। देखें सूत्र १११. सम्यगदृष्टि अपर्याप्तक मनुष्यों में तीन ज्ञान की भजना और दो ११३ का भाष्य। अज्ञान का नियम । देखें सूत्र १११-११३ का भाष्य। १३०. नोपज्जत्तगा-नोअपज्जत्तगा णं नो पर्याप्तकाः-नो अपर्याप्तकाः भदन्त! १३०. भन्ते! नोपर्याप्तक-नोअपर्यासक जीव भंते! जीवा किं नाणी? जीवाः किं ज्ञानिनः?
क्या ज्ञानी है? जहा सिद्धा॥ यथा सिद्धाः।
सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
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भगवई
४७
श.८: उ.२: सू. १३१-१३९
भवत्थं पड़च्च१३१. निरयभवत्था णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? जहा निरयगतिया॥
भवस्थं प्रतीत्य
भवस्थ की अपेक्षा निरयभवस्थाः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः? १३१. भन्ते ' नैरयिक के भव में स्थित जीव अज्ञानिनः?
क्या ज्ञानी है ? अज्ञानी हैं? यथा निरयगतिकाः।
नरक की अंतराल गति में विद्यमान जीव की भांति वक्तव्यता।
१३२. तिरियभवत्था णं भंते! जीवा किं तिर्यग्भवस्थाः भदन्त ! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? तिण्णि नाणा, तिणि अण्णाणा- त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया। भयणाए।
१३२. भन्ते! तिर्यंच के भव में स्थित जीव
क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१३३. मणुस्सभवत्था? जहा सकाइया॥
मनुष्यभवस्थाः? यथा सकायिकाः।
१३३. मनुष्य के भव में स्थित जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? सकायिक की भांति वक्तव्यता।
१३४. देवभवत्था णं भंते।
देवभवस्थाः भदन्त!
जहा निरयभवत्था। अभवत्था जहा यथा निरयभवस्थाः। अभवस्थाः यथा सिद्धा॥
सिद्धाः।
१३४. भन्ते! देव के भव में स्थित जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? नैरयिक के भव में स्थित जीव की भांति वक्तव्यता। अभवस्थ की वक्तव्यता सिद्ध की भांति ज्ञातव्य है।
भवसिद्धियाभवसिद्धियं पडुच्च१३५. भवसिद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी? जहा सकाइया।
भवसिद्धिकाभवसिद्धिकं प्रतीत्य- भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक की अपेक्षा भवसिद्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १३५. भंते! भवसिद्धिक जीव क्या ज्ञानी हैं? यथा सकायिकाः।
सकायिक की भांति वक्तव्यता।
१३६. अभवसिद्धियाणं पुच्छा।
अभवसिद्धिकानां पृच्छा। गोयमा! नो नाणी, अण्णाणी; तिण्णि गौतम! नो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः. त्रीणि अण्णाणाई भयणाए।
अज्ञानानि भजनया।
१३६. अभवसिद्धिकों की पृच्छा। गौतम! ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं, तीन अज्ञान की भजना है।
१३७. नोभवसिद्धिया - नोअभव-सिद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी? जहा सिद्धा।।
नो भवसिद्धिका-नो अभवसिद्धिकाः १३७. भंते! नोभवसिद्रिक-नोअभवभदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः?
सिद्धिक जीव क्या ज्ञानी है? यथा सिद्धाः।
सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
सण्णि-असण्णिं पडुच्च१३८. सण्णीणं पुच्छा। जहा सइंदिया। असण्णी जहा बेइंदिया। नोसण्णी-नोअसण्णी जहा सिद्धा॥
संज्ञि-असंज्ञिनौ प्रतीत्य संज्ञिनां पृच्छा। यथा स-इन्द्रियाः। असंज्ञी यथा द्वीन्द्रियाः। नो संज्ञी-नो असंज्ञी यथा सिद्धाः।
संज्ञी असंज्ञी की अपेक्षा १३८. संजी जीवों की पृच्छा। सइन्द्रिय जीवों की भांति वक्तव्यता। असंज्ञी की द्वीन्द्रिय की भांति वक्तव्यता। नोसंज्ञी - नोअसंज्ञी की सिद्धों की भांति वक्तव्यता।
लद्धि-पदं १३९. कतिविहा णं भंते! लद्धी पण्णत्ता?
लब्धि -पदम् कतिविधा भदन्त ! लब्धिः प्रज्ञप्ला?
लब्धि -पद १३९. 'भंते! लब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त
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श.८ : उ.२ : सू. १३९-१४५
भगवई
गोयमा! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं गौतम ' दशविधा लब्धिः प्रज्ञप्ता, तद्यथा- जहा-१. नाणलन्द्री २.दसणलद्धी १.ज्ञानलब्धिः , २. दर्शनलब्धिः३. चरित्र३. चरित्तलद्धी ४. चरित्ताचरित्त-लद्धी लब्धिः ४. चरित्राचरित्रलब्धिः ५. दान५. दाणलद्धी ६.लाभलद्धी ७. भोगलन्द्री । लब्धिः ६. लाभलब्धिः ७. भोगलब्धिः ८. ८. उवभोगलद्धी ९. वीरियलद्धी उपभोगलब्धिः ०. वीर्यलब्धिः १०. १०. इंदियलद्धी।
इन्द्रियलब्धिः।
गौतम! लब्धि दस प्रकार की प्रज्ञप्त है. जैसे-१. ज्ञानलब्धि २. दर्शनलब्धि ३. चरित्रलब्धि ४. चरित्राचरित्रलब्धि ५. दानलब्धि ६. लाभलब्धि ७. भोगलब्धि ८. उपभोगलब्धि ९. वीर्यलब्धि १०. इन्द्रियलब्धि।
१४०. नाणलद्धी णं भंते! कतिविहा ज्ञानलब्धिः कतिविधा प्रज्ञप्ला? पण्णत्ता? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं गौतम! पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाजहा-आभिणिबोहियनाणलद्धी जाव। आभिनिबोधिकज्ञानलब्धिः यावत् केवलकेवलनाणलब्दी।
ज्ञानलब्धिः ।
१४०. भंते ! ज्ञानलब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! पांच प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेआभिनिबोधिकज्ञानलब्धि यावत् केवलज्ञानलब्धि।
१४१. अण्णाणलद्धी णं भंते! कतिविहा अज्ञानलब्धिः भदन्त! कतिविधा प्रज्ञप्ला? पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम' त्रिविधा प्रज्ञप्ता. तद्यथा-मतिमइअण्णाणलद्धी, सुयअण्णाण-लद्धी, अज्ञानलब्धिः श्रुत-अज्ञानलब्धिः, विभङ्ग- विभंगनाणलद्धी॥
ज्ञानलब्धिः ।
१४१. भंते! अज्ञानलब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम! तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है. जैसेमतिअज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि और विभंगज्ञानलब्धि।
१४२. दसणलद्धी णं भंते! कतिविहा दर्शनलब्धिः भदन्त! कतिविधा प्रज्ञाला? पण्णता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम' त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-सम्यगसम्मदंसणलद्धी, मिच्छादसण-लद्धी, दर्शनलब्धिः, मिथ्यादर्शनलब्धिः, सम्यगसम्मामिच्छादसणलद्धी॥
मिथ्यादर्शनलब्धिः।
१४२. भंते! दर्शनलब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम! तीन प्रकार की प्रज्ञप्स है, जैसेसम्यग्दर्शनलब्धि, मिथ्यादर्शनलब्धि और सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धि।
१४३. चरित्तलद्धी णं भंते! कति-विहा चरित्रलब्धिः भदन्त! कतिविधा प्रज्ञप्ता? पण्णता? गोयमा !पंचविहा पण्णत्ता,तं जहा- गौतम! पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- सामाइयचरित्तलदी, छेदोवट्ठा- सामायिकचरित्रलब्धिः, छेदोपस्थापवणिचरित्तलन्द्धी, परिहारविसुद्धि- निकचरित्रलब्धिः. परिहारविशुद्धिचरित्रचरित्तलद्धी, सुहमसंपरायचरित्त-लद्धी, लब्धिः, सूक्ष्मसम्पराय- चरित्रलब्धिः, अहक्खायचरित्तलन्द्धी॥
यथाख्यातचरित्रलब्धिः।
१४३. भंते! चरित्रलब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! वह पांच प्रकार की प्रज्ञाप्त है. जैये-- सामायिकचरित्रलब्धि, छेदोपस्थापनीयचरित्रलब्धि, परिहारविशुद्धिचरित्रलब्धि. सूक्ष्मसम्परायचरित्रलब्धि, यथाख्यातचरित्रलब्धि।
१४४. चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते! चरित्राचरित्रलब्धिः भदन्त! कतिविधा १४४. भंते! चरित्राचरित्रलब्धि कितने प्रकार कतिविहा पण्णता? प्रज्ञप्ता?
की प्रज्ञप्त है? गोयमा! एगागारा पण्णत्ता। एवं जाव। गौतम! एकाकारा प्रज्ञप्ता। एवं यावत गौतम ! वह एक ही आकार वाली प्रज्ञा है। उवभोगलद्धी एगागारा पण्णत्ता॥ उपभोगलब्धिः एकाकारा प्रज्ञप्ला।
इस प्रकार यावत उपभोगलब्धि एक ही आकार वाली प्रज्ञाप्त है।
१४५. वीरियलद्धी णं भंते ! कति-विहा वीर्यलब्धिः भदन्त ! कतिविधा प्रज्ञासा ? पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! त्रिविधा प्रज्ञप्ता। तद्यथाबालवीरियलद्धी, पंडियवीरिय-लद्धी, बालवीर्यलब्धिः, पण्डितवीर्यलब्धिः बालपंडियवीरियलद्धी॥
बालपण्डितवीर्यलब्धिः।
१४५. भंते! वीर्यलब्धि कितने प्रकार की प्रज्ञप्त है? गौतम ! वह तीन प्रकार की प्रज्ञप्त है, जैसेबालवीर्यलब्धि, पण्डितवीर्यलब्धि और बालपण्डितवीर्यलब्धि।
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भगवई
४९
श. ८ : उ. २ : सू. १४६ १४६. इंदियलद्धी णं भंते! कतिविहा इन्द्रियलब्धिः भदन्त! कतिविधा प्रज्ञप्ता? १४६. भन्ते। इन्द्रियलब्धि कितने प्रकार पण्णत्ता?
की प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तं गौतम! पञ्चविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा- गौतम ! वह पांच प्रकार की प्रज्ञाप्त है, जैसेजहा-सोइंदियलद्धी जाव फासिं- श्रोत्रेन्द्रियलब्धिः यावत् स्पर्शनेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रियलब्धि यावत् स्पर्शनेन्द्रियदियलद्धी॥ लब्धिः ।
लब्धि ।
भाष्य १.सूत्र १३९-१४६
जयाचार्य ने इस विषय की समीक्षा की है। उनका अभिमत हैलब्धि का अर्थ है कर्म के क्षयोपशम और क्षय से होने वाला। मतिज्ञान और मतिअज्ञान-दोनों का आवरणीय (मलिज्ञानावरणीय) ज्ञान आदि गुणों का लाभ।
एक है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान और श्रुत अज्ञान का आवरणीय (श्रुन ज्ञानलब्धि-ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से होने ज्ञानावरणीय) भी एक है। अवधिज्ञान और विभंगज्ञान का आवरणीय वाला ज्ञान का गुणात्मक विकास।
(अवधिज्ञानावरणीय) भी एक है। अज्ञान के तीनों प्रकार ज्ञानावरण दर्शनलब्धि-दर्शनमोहनीय कर्म के क्षयोपशम, उपशम अथवा के क्षयोपशम से निष्पन्न हैं। अनुयोगद्वार इसका साक्ष्य है। उसमें ज्ञान क्षय से होने वाला दर्शन का गुणात्मक विकास।
के चार प्रकारों और अज्ञान के तीन प्रकारों को क्षयोपशम निष्पन्न चरित्रलब्धि-चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम, उपशम कहा गया है। अथवा क्षय से होने वाला चरित्र का गुणात्मक विकास।
ज्ञान और अज्ञान का विभाग पात्र के आधार पर किया गया है। चरित्राचरित्र लब्धि-अप्रत्याख्यान कषाय मोहनीय कर्म के सम्यग्दृष्टि का बोध ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का बोध अज्ञान कहलाना क्षयोपशम से होने वाला चरित्र का गुणात्मक विकास।
है। मिथ्यादर्शन लब्धि और सम्यकदर्शन लब्धि भी क्षयोपशम दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि-अंतराय कर्म के निष्पन्न है। जयाचार्य ने प्रश्न उपस्थित किया है-विपरीत श्रद्धा को क्षयोपशम और क्षय से होने वाला शक्ति का विकास।
लब्धि कैसे कहा जा सकता है? इसका समाधान इस प्रकार इन्द्रिय लब्धि-ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षयोपशम से किया-लब्धि आत्मा की उज्ज्वलता है। विपरीत श्रद्धा मिथ्यात्व है, होने वाला गुणात्मक विकास।
आत्मा की मलिनता है। मिथ्यादृष्टि का प्रयोग विपरीत श्रद्धा के अर्थ में ज्ञान लब्धि के साथ अज्ञान लब्धि के तीन प्रकार बतलाए गए विवक्षित नहीं है किन्तु मिथ्यात्व युक्त जीव के जो क्षायोपशमिक दृष्टि हैं-दशविध लब्धि की सूची में अज्ञान लब्धि का पृथक उल्लेख नहीं होती है उस अर्थ में मिथ्यादृष्टि का प्रयोग किया गया है। है किन्तु विस्तार में उसके प्रकारों का उल्लेख किया गया है। अभयदेव सूरि ने मिथ्यादृष्टि का अर्थ किया है-अशुद्ध मिथ्यात्व १. भ. वृ. ८/१३९ तत्र लब्धिः-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्र कर्मक्षयादितो १०. अवधि विभंग नुं जान, आवरणी तो एक है।
नेहनाम पिछाण, अवधि ज्ञानावरणी अछ।।३१।। २. अणु.सू. २८५
तसुक्षय उपशम होय, अवधि विभंग दोन लहै। ३. भ. जो. २१३६/२२.२७--
ए दोनु नो जोय, अवधि दर्शन पिण एक है।॥३२॥ १. ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम सेती लहै।
१२. विभंग ज्ञानावरणीह, क्षय उपमश थी विभंग है। ज्ञान अज्ञान पिछाण, अनुयोगद्वारे आखियो।॥२२॥
पिण एभेद सुलीह, अवधि ज्ञानावरणी नj॥३३॥ २. अज्ञानी रै ताम, सम जाणपणो जेतलो।
१३. जाती-समरण पाय, समदृष्टि में मिच्छदिट्ठी। अज्ञान तिण रो नाम, भाजन लारै वाजियो।।२३।।
क्षय उपशम जे थाय, मति ज्ञानावरणी तणुं ॥३४॥ जाणे गाय नैं गाय, दिवस भणी जाणे दिवस।
१४, ज्ञाता गज भव ईह, जाती-समरण ऊपनों। इत्यादि कहिवाय, जाणपणो सम छै तिको॥२४।।
मति ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम थी बृनि में॥३५॥ ४. तिण संक्षयोपशम भाव, निरवद्य उज्जल लेखए।
१५. समदृष्टी रै सोय, वर मतिज्ञान कह्यो नसु। देख विचारो न्याव. इण कारण लन्द्री कही॥२५॥
मिच्छदिदि रै जोय, मति अज्ञान कही जिये ।।३।। ज्ञानावरणी कर्म, पंच प्रकृति है तेहनी।
१६. तिण सुं धुर त्रिहुं ज्ञान, वलि तीनूं अज्ञान ते। जावो एहनो मर्म, मति ज्ञानावरणी प्रमुख ॥२६॥
क्षयोपशम ए जान, लन्द्धी उन्नल जीव ए||३.७।। मति ज्ञानावरणी जह, अयोपशम तेहना थयां।
४. वही, २/१३६ का वार्तिकवर मति ज्ञान लहह, मति अज्ञान पामे बलि।।२७ ।।
इहां दर्शन-लन्द्री में जे उदय भाव-ऊंधी श्रद्धा ने लब्धि में किम न ७. श्रुत ज्ञानावरणी जाण, क्षयोपशम तेहनों थयां।
लेखवी? उत्तर-ए लब्धि उज्जल जीव छै, निरवद्य छ। अनें ऊंधी श्रद्धा वर श्रुतज्ञान प्रधान, श्रुत अज्ञान लहै वली ॥२८ ।।
मिथ्यात आश्रव बिगड्यो जीव छै, सावद्य छै ते माटे। मिथ्यादृष्टि र वा अवधि ज्ञानावरणीह, क्षयोपशम तिण रो थयां।
मिश्रदृष्टि रे जेतली शुद्ध श्रन्द्रा क्षयोपशम भावे छै अनें सम्यगदृष्टि रे सर्व शुन्द्र अवधि ज्ञान लन्दीह, विभंग अनाण लहै वली।।२९।।
श्रद्धा छै, ते दर्शण लद्धी में लेखवी। नदावरणी कर्म सोय, क्षय उपशम थी विभंग है। सूत्र भगवती जोय, इकतीसम नवमैं अख्यु॥३०॥
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श. ८ : उ. २ : सू. १४७-१५०
दलिक के उदय से होने वाला जीव का परिणाम ।'
जयाचार्य ने मिथ्यादृष्टि को क्षायोपशमिक भाव बतलाया है। उन्होंने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है- अनुयोगद्वार में उदय निष्पन्न के प्रकरण में मिध्यादृष्टि का उल्लेख है, वह विपरीत श्रद्धात्मक नाणलद्धिं पडुच्च-नाणि अण्णाणित्त
पदं
१४७. नाणलद्रिया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ?
गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । अत्थेगतिया दुण्णाणी, एवं पंच नाणाई
भयणाए ।
१४८. तस्स अलब्द्धीया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ?
गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी । अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणा
भयणाए ।।
१४९. आभिणिबोहियनाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी? अण्णाणी? गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थेगतिया दुण्णाणी, चत्तारि नाणाई
भयणाए।
१५०. तस्स अलद्रिया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ?
गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी । जे अण्णाणी ते अत्थेगतिया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणलद्धिया वि । तस्स अलद्धिया वि जहा आभिणिबोहिय
२. अणु. २७५
३. वही, २८५
४. भ. जो. २ / १३६ / ३९-४७
१.
२.
३.
१. भ. वृ. ८/९४२ - मिथ्यादर्शनमशुद्धमिध्यात्व - दलिकोदयसमुत्थो जीव
परिणामः ।
५०
ज्ञानलब्धिं प्रतीत्य ज्ञानि-अज्ञानित्व
पदम्
ज्ञानलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ?
भगवई
मिथ्यादृष्टि औदायिक भाव है। वह इस लब्धि के प्रकरण में विवक्षित नहीं है।" अनुयोगद्वार में क्षायोपशमिक भाव के प्रकरण में मिथ्यादृष्टि का उल्लेख है। यहां वह विवक्षित है। *
गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः, एवं पञ्च ज्ञानानि भजनया ।
तस्य अलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम ! नो ज्ञानिनः अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि- अज्ञानिनः, त्रीणि अज्ञानानि भजनया ।
आभिनिबोधिकलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः, चत्वारि ज्ञानानि भजनया ।
दर्शन मोह उपाधि, उपशम क्षायक क्षयोपशम । सम्यक्त उपशम आदि, समदर्शण लद्धी तिको॥ ३९ ॥ दर्शन मोह पिछाण क्षयोपशम थी नीपजे ।
मिथ्यादृष्टि सुजाण, दृष्टि समामिथ्या वली ॥ ४० ॥ मिथ्याती रै ताम, ऊंधी श्रद्धा जेतली । मिध्यादृष्टिज नाम, एह उदय भावे कही ॥ ४१ ॥
तस्य अलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ?
गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि । ये ज्ञानिनः ते नियमात् एकज्ञानिनः - केवलज्ञानिनः । ये अज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्विअज्ञानिनः, त्रीणि अज्ञानानि भजनया । एवं श्रुतज्ञानलब्धिकाः अपि । तस्य अलब्धिकाः अपि आभिनिबोधिकज्ञानस्य
यथा
2.
५.
७.
ज्ञानलब्धि की अपेक्षा ज्ञानित्व अज्ञानित्व- पद
१४७ भंते! ज्ञानलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ?
गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। कुछ दो ज्ञान वाले हैं, इस प्रकार यावत् पांच ज्ञान की भजना है। 1
१४८. भंते! उस ज्ञान के अलब्धिक ज्ञानलब्धि से रहित जीव ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं?
गौतम! वे ज्ञानी नहीं हैं. अज्ञानी हैं। कुछ दो अज्ञान वाले हैं, तीन अज्ञान की भजना है।
६.
ए पिण मिथ्यादृष्ट, पिण क्षयोपशम भाव ॥ ४२ ॥ अनुयोगद्वार मझार, उदय निष्पन्न रा बोल में। मिथ्यादृष्टि विचार, ए उदयभाव ऊंधी श्रद्धा ॥ ४३ ॥ ए आश्रव मिथ्यात, दर्शन मोह उदय थकी। लद्धि में न कहात, उदय भाव मिथ्यादृष्टि ॥ ४४ ॥ अनुयोगद्वार मझार, क्षय उपशम निष्पन्न विषे। तीन दृष्टि सुविचार, भाव क्षयोपशम शुद्ध श्रद्धा ॥ ४५ ॥ ८. तिण सूं मिथ्यादृष्ट, क्षय उपशम भाव तिका । उज्जल जीव सुइष्ट, लन्द्री में आखी इहां ॥ ४६ ॥ ९. समामिध्यादृष्टभाव क्षयोपशम जिन कही। मिश्र गुणठाणे इष्ट, तसु शुद्ध श्रद्धा जेतली ॥४७॥
१४९. भंते! आभिनिबोधिक ज्ञानलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम ! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। कुछ दो ज्ञान वाले हैं, यावत् चार ज्ञान की भजना है।
१५०. भंते! आभिनिबोधिकज्ञान के अलब्धिक जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं ? गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियमतः एक ज्ञान वालेकेवलज्ञान वाले हैं। जो अज्ञानी हैं वे कुछ दो अज्ञान वाले हैं। तीन अज्ञान की भजना है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान लब्धि वाले जीवों की वक्तव्यता । श्रुतज्ञान के अलब्धिक मिथ्याती रे इष्ट सूधी श्रद्धा जेतली ।
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130
भगवई
श.८ : उ.२ : सू. १५०-१५३
नाणस्स अलद्धीया॥ अलब्धिकाः।
जीवों की वक्तव्यता आभिनिबोधिक ज्ञान के अलब्धिक जीवों की भांति
ज्ञातव्य है।
भाष्य १.सूत्र १५०
आभिनिबोधिक की अलब्धि वाले जीवों में एक केवलज्ञान ही हो आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान दोनों का ज्ञान पंचक में सकता है। आदि स्थान है। जिनभद्र ने बतलाया है-इनके होने पर शेष ज्ञान होते __आभिनिबोधिक की अलब्धि वाले जीवों में अज्ञान दो होते हैं हैं। इनके अभाव में कोई भी ज्ञान नहीं होता। आभिनिबोधिक ज्ञान अथवा तीन भी हो सकते हैं। के अभाव में श्रुत, अवधि और मनःपर्यव ज्ञान नहीं हो सकते। इसलिए १५१. ओहिनाणलद्धियाणं पुच्छा। अवधिज्ञानलब्धिकानां पृच्छा।
१५१. अवधिज्ञानलब्धि वाले जीवों की
पृच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थे. गौतम ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः। अस्त्येकके गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। कुछ गतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया त्रिज्ञानिनः, अस्त्येकके चतुर्जानिनः। ये तीन ज्ञान वाले हैं, कुछ चार ज्ञान वाले चउनाणी। जे तिण्णाणी ते । त्रिज्ञानिनः ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः । हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे आभिनिआभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहि- श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः। ये बोधिक-ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान नाणी। जे चउनाणी ते आभि- चतुर्जानिनः, ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः, वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे णिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी, श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः, मनःपर्यव- आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिमणपज्जवनाणी॥ ज्ञानिनः।
ज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं।
१५२. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा।
तस्य अलब्धिकानां पृच्छा।
गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। एवं गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। एवं ओहिनाणवज्जाइं चत्तारि नाणाइं, तिण्णि अवधिज्ञानवानि चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि अण्णाणाई-भयणाए॥
अज्ञानानि-भजनया।
१५२. अवधिज्ञान के अलब्धिकों की
पृच्छा । गौतम! वे ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी है। इस प्रकार अवधिज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१५३. मणपज्जवनाणलद्धियाणं पुच्छा।
मनःपर्यवज्ञानलब्धिकानां पृच्छा।
गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। अत्थे- गौतम ! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः। अस्त्येकके गतिया तिण्णाणी, अत्थेगतिया त्रिज्ञानिनः, अस्त्येकके चतुर्जानिनः। ये चउनाणी। जे तिण्णाणी ते आभिणि- त्रिज्ञानिनः ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः, बोहियनाणी, सुयनाणी, मणपज्जव. श्रुतज्ञानिनः मनःपर्यवज्ञानिनः। ये नाणी। जे चउनाणी ते आभिणि- चतुर्जानिनः, ते आभिनिबोधिकज्ञानिनःः, बोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः, मनःपर्यवमणपज्जवनाणी।
ज्ञानिनः।
१५३. 'मनःपर्यवज्ञानलब्धि वालों की पृच्छा । गौतम! वे ज्ञानी हैं. अज्ञानी नहीं हैं। उनमें कुछ तीन ज्ञान वाले हैं, कुछ चार ज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान वाले हैं।
भाष्य १. सूत्र १५३
केवल संयमी मुनि के ही होता है इसलिए उसके प्रतिपक्ष रूप में मति, श्रुत और अवधि ज्ञान का प्रतिपक्ष है-मतिअज्ञान, श्रुत- अज्ञान नहीं है। अज्ञान और विभंगज्ञान मनःपर्यवज्ञान का कोई प्रतिपक्ष नहीं है। वह
१. (क) वि. भा. गा.८५
तब्भावे सेसाणि य तेणाईए महसुयाई॥ (ख) वि. भा. गा. ८५ मल्लधारी वृत्तिनदभावे मतिश्रुतज्ञानसद्भाव एव शेषाण्यवध्यादीनि ज्ञानान्यवाप्यन्तेः
नान्यथा न हि स कश्चित् प्राणी भूतपूर्वः अस्ति भविष्यति वा यो मतिश्रुतज्ञाने अनासाद्य प्रथममेवाऽवध्यादीनि शेषज्ञानानि प्राप्तवान प्राप्नोति प्राप्स्यति वेति भावः ततस्तदवासी शेषज्ञानाध्वासेश्चादी मतिश्रुतोपन्यासः।
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श. ८ : उ. २ : सू. १५४-१६०
भगवई
१५४. तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा।
तस्य अलब्धिकानां पृच्छा।
गोयमा! नाणी वि. अण्णाणी वि। गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। मनःमणपज्जवनाणवज्जाइं चत्तारि नाणाई, पर्यवज्ञानवानि चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए। अज्ञानानि-भजनया।
१५४. मनःपर्यवज्ञान के अलब्धिकों की पृच्छा । गौतम! वे ज्ञानी भी हैं. अज्ञानी भी हैं। मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१५५. केवलनाणलद्धिया णं भंते! जीवा केवलज्ञानलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। नियमा गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः। नियमात एगनाणी-केवलनाणी॥
एकज्ञानिनः केवलज्ञानिनः।
१५५. भंते! केवलज्ञानलब्धि वाले जीव
क्या ज्ञानी है? अज्ञानी हैं ? गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। नियमतः एक ज्ञान-केवलज्ञान वाले हैं।
१५६. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। तस्य अलब्धिकानां पृच्छा। गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। गौतम ! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि। केवल- केवलनाणवज्जाई चत्तारि नाणाई, ज्ञानवानि चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए॥
अज्ञानानि-भजनया।
१५६. केवलज्ञान के अलब्धिकों की पृच्छा। गौतम! वे ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। केवलज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१५७. अण्णाणलद्धियाणं पुच्छा। अज्ञानलब्धिकानां पृच्छा। गोयमा! नो नाणी, अण्णाणी। तिण्णि गौतम! नो ज्ञानिनः, अज्ञानिनः। त्रीणि अण्णाणाई भयणाए॥
अज्ञानानि भजनया
१५७. अज्ञानलब्धि वालों की पृच्छा। गौतम! वे ज्ञानी नहीं हैं, अज्ञानी हैं। तीन अज्ञान की भजना है।
१५८. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। तस्य अलब्धिकानां पृच्छा। गोयमा! नाणी, नो अण्णाणी। पंच गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः। पञ्च नाणाई भयणाए। जहा अण्णाणस्स य ज्ञानानि भजनया। यथा अज्ञानस्य च लद्धिया अलद्धिया य भणिया, एवं लब्धिकाः अलब्धिकाश्च भणिताः, एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स य मति-अज्ञानस्य श्रुत-अज्ञानस्य च लद्धिया अलद्धिया य भाणियव्वा। लब्धिकाः अलब्धिकाश्च भणितव्याः। विभंगनाणलद्धियाणं तिण्णि अण्णाणाई विभंगज्ञान-लब्धिकानां त्रीणि अज्ञानानि नियमा। तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई नियमात। तस्य अलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भयणाए, दो अण्णाणाई नियमा। भजनया, द्वे अज्ञाने नियमात्।
१५८. अज्ञान के अलब्धिकों की पृच्छा। गौतम! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। पांच ज्ञान की भजना है। जैसी अज्ञान के लब्धिकों और अलब्धिकों की वक्तव्यता है वैसी ही मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान के लब्धिकों और अलब्धिकों की वक्तव्यता ज्ञातव्य है। विभंगज्ञानलब्धि वाले के नियमतः तीन अज्ञान होते हैं। उसके अलब्धिकों के पांच ज्ञान की भजना है, दो अज्ञान नियमतः होते हैं।
दसणं पडुच्च
दर्शनं प्रतीत्य१५९. दंसणलद्धिया णं भंते! जीवा किं दर्शनलब्धिकाः भदन्त! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि! पंच गौतम ! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। पञ्च नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई-भयणाए॥ ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया।
दर्शन की अपेक्षा १५९. 'भंते! दर्शनलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं? गौतम ! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१६०. तस्स अलद्धिया णं भंते! जीवा किं तस्य अलब्धिकाः भदन्त! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? गोयमा! तस्स अलद्धिया नत्थि। गौतम! तस्य अलब्धिकाः न सन्ति। सम्मदंसणलछियाणं पंच नाणाई सम्यग-दर्शनलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भयणाए। तस्स अलद्धियाणं तिण्णि भजनया। तस्य अलब्धिकानां त्रीणि अण्णाणाईभयणाए।
अज्ञानानि भजनया।
१६०. भंते! दर्शन के अलब्धिक जीव क्या ज्ञानी हैं, अज्ञानी है? गौतम ! उसके अलब्धिक नहीं हैं। सम्यगदर्शनलब्धि वालों के पांच ज्ञान की भजना है। उसके अलब्धिकों के तीन अज्ञान की भजना है।
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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १६०-१६२
मिथ्यादर्शनलब्धि वालों के तीन अज्ञान की भजना है। उसके अलब्धिकों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
मिच्छादसणलद्धियाणं तिणि मिथ्यादर्शनलब्धिकानां त्रीणि अज्ञानानि अण्णाणाई भयणाए। तस्स अल- भजनया। तस्य अलब्धिकानां पञ्चद्धियाणं पंच नाणाई, तिण्णि य ज्ञानानि, वीणि च अज्ञानानि-भजनया। अण्णाणाई-भयणाए। सम्मामिच्छादसणलद्धिया, अल-द्धिया सम्यगमिथ्यादर्शनलब्धिकाः अलब्धिय जहा मिच्छादसणलद्धिया अलद्धिया काश्च यथा मिथ्यादर्शनलब्धिकाः तहेव भाणियव्वा॥
अलब्धिकाः तथैव भणितव्याः।
सम्यमिथ्यादर्शनलब्धि वाले और उसके अलब्धिकों की वक्तव्यता मिथ्यादर्शनलब्धि वाले और उसके अलब्धिकों की भांति ज्ञातव्य है।
भाष्य
१. सूत्र १५९-१६०
दर्शनलब्धि वाले जीव सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि-दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीवों में पांच ज्ञान की भजना है। मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन अज्ञान की भजना है।
कोई भी जीव दर्शनलब्धि से शून्य नहीं होता इसलिए
उसका अलब्धिक कोई नहीं है। मिथ्यादर्शन की अलब्धि वाले जीव सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यगदृष्टि में पांच ज्ञान और मिश्रदृष्टि में तीन अज्ञान की भजना है।
चरित्तं पडुच्च
चरित्रं प्रतीत्य१६१. चरित्तलद्धिया णं भंते! जीवा किं चरित्रलब्धिकाः भदन्त! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? गोयमा! पंच नाणाई भयणाए। गौतम ! पञ्च ज्ञानानि भजनया। तस्स अलद्धीयाणं मणपज्जव- तस्य अलब्धिकानां मनःपर्यवज्ञानवानि नाणवज्जाई चत्तारि नाणाई, तिण्णि य । चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि च अज्ञानानि अण्णाणाई भयणाए।
भजनया।
चरित्र की अपेक्षा १६१. 'भंते! चरित्रलब्धि वाले जीव क्या
ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! पांच ज्ञान की भजना है। उस (चरित्र) के अलब्धिकों के मनःपर्यवज्ञान को छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१६२. सामाइयचरित्तलद्धिया णं भंते! सामायिकचरित्रलब्धिकाः भदन्त! जीवाः १६२. भंते! सामायिक चरित्र की लब्धि जीवा किं नाणी? अण्णाणी? . किं ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? ।
वाले जीव क्या ज्ञानी है? अज्ञानी हैं? गोयमा! नाणी-केवलवज्जाई चत्तारि गौतम! ज्ञानिनः-केवलवानि चत्वारि गौतम! ज्ञानी हैं-केवलज्ञान को छोड़कर नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धियाणं पंच ज्ञानानि भजनया। तस्य अलब्धिकानां पञ्च चार ज्ञान की भजना है। उस (सामायिक नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई-भयणाए। ज्ञानानि, त्रीणि च अज्ञानानि-भजनया। एवं चरित्र) के अलब्धिकों के पांच ज्ञान और एवं जहा सामाइयचरित्तलद्धिया अल- यथा सामायिकचरित्रलब्धिकाः अलब्धि- तीन अज्ञान की भजना है। इस प्रकार द्धीया य भणिया, एवं जाव अहक्खाय काश्च भणिताः, एवं यावत् यथाख्यात- जैसी सामायिक चरित्र की लब्धि वाले चरित्तलद्धीया अलद्धीया य भाणियव्वा, चरित्रलब्धिकाः अलब्धिकाश्च भणितव्याः। और अलब्धिकों की वक्तव्यता वैसी ही नवरं-अहक्खाय-चरित्तलद्धीयाणं पंच। नवरं यथाख्यातचरित्रलब्धिकानां पञ्च यावत् यथाख्यात चरित्र की लब्धिवाले नाणाई भयणाए॥ ज्ञानानि भजनया।
और अलब्धिकों की वक्तव्यता ज्ञातव्य है। केवल इतना विशेष है-यथाख्यात चरित्र की लब्धि वालों के पांच ज्ञान की भजना है।
भाष्य
१. सूत्र. १६१-१६२
चरित्र लब्धि वाले जीव ज्ञानी ही होते हैं इसलिए उनमें पांच ज्ञान की भजना है।
मनःपर्यवज्ञान केवल चारित्री में ही होता है इसलिए चरित्र की अलब्धि वाले जीवों में उसे छोड़कर चार ज्ञान की भजना है।
असंयमी सम्यग्दृष्टि में दो ज्ञान अथवा तीन ज्ञान। सिद्ध चरित्रलब्धि शून्य होते हैं। न चारित्री होते हैं और न अचारित्री। उनमें केवल एक ज्ञान केवलज्ञान होता है।
चरित्र की अलब्धि वाले अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञान की
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श. ८ : उ. २ : सू. १६३-१६५
भजना है।
सामायिक चरित्र लब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान की भजना है । केवलज्ञान यथाख्यात चरित्र वालों में ही होता है इसलिए सामायिक चरित्र में उसका वर्जन है।
सामायिक चरित्र के अलब्धि वाले जीव छेदोपस्थापनीय
चरित्ताचरितं पडुच्च१६३. चरित्ताचरित्तलद्धिया णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ? गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । अत्थेगतिया दुण्णाणी, अत्थेगतिया तिण्णाणी । जे दुण्णाणी ते अभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य। जे तिण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी ।
तस्स अलद्रियाणं पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई - भयणाए ॥
दाणाई पडुच्च
१६४. दाणलद्धियाणं पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई - भयणाए ।
१६५. तस्स अलद्धीयाणं पुच्छा ।
गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । नियमा एगनाणी - केवलनाणी । एवं जाव वीरियस्स लदीया अलीया य भाणियव्वा ।
बालाइवीरियं पडुच्चबालवीरियलद्धियाणं तिण्णि नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई - भयणाए । तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए । पंडियवीरियलद्रियाणं पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलब्द्धीयाणं मणपज्जवनाणवज्जाई नाणाई, अण्णाणाणि य भयणाए । बालपंडियवी रियलद्धियाणं तिण्णि नाणाई भयणा । तस्स अलब्द्धीयाणं पंच नाणाई, तिणि अण्णाणाई - भयणाए ।
५४
भगवई
आदि चार चरित्र वाले अथवा सिद्ध होते हैं उनमें पांच ज्ञान की भजना है। सामायिक चरित्र की अलब्धि वाले अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञान की भजना है।
यथाख्यात चरित्र लब्धि वाले जीव छद्मस्थ और केवली दोनों प्रकार के होते हैं इसलिए उनमें पांच ज्ञान की भजना है।
चरित्राचरित्रं प्रतीत्यचरित्राचरित्रलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ? गौतम ! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः अस्त्येकके विज्ञानिनः । ये द्विज्ञानिनः ते आभिनिबोधिकज्ञानिनश्च श्रुतज्ञानिनश्च । ये विज्ञानिनः ते आभिनिबांधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः ।
तस्य अलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि त्रीणि अज्ञानानि-भजनया ।
१. भ. बृ. ८ / १६१ - चरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव तेषां च पंच ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि चारित्री | चारित्रलब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनः पर्यववयनि चत्वारि ज्ञानानि भजनया भवन्ति कथम् ? असंयतत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं तत्त्रयं
दानानि प्रतीत्यदानलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि त्रीणि अज्ञानानि - भजनया |
तस्य अलब्धिकानां पृच्छा।
गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । नियमात् एकज्ञानिनः केवलज्ञानिनः । एवं यथा वीर्यस्य लब्धिकाः अलब्धिकाः च भणितव्याः ।
बालादिवीर्यं प्रतीत्यबालवीर्यलब्धिकानां त्रीणि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया । तस्य अलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनया । पण्डितवीर्यलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनया। तस्य अलब्धिकानां मनः पर्यवज्ञानवर्ज्यानि ज्ञानानि, अज्ञानानि च
भजनया ।
बालपण्डितवीर्यलब्धिकानां त्रीणि ज्ञानानि भजेनया । तस्य अलब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि त्रीणि अज्ञानानि-भजनया !
चरित्राचरित्र की अपेक्षा
१६३. भंते! चरित्राचरित्र की लब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। उनमें कुछ दो ज्ञान वाले और कुछ तीन ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं। उस (चरित्राचरित्र) के अलब्धिकों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
दान आदि की अपेक्षा
१६४. दानलब्धि वालों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१६५. दानलब्धि के अलब्धिकों की पृच्छा !
गौतम! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। नियमतः एक ज्ञानी - केवलज्ञानी हैं। इसी प्रकार यावत् वीर्य के लब्धिकों और अलब्धिको की वक्तव्यता ज्ञातव्य है ।
बाल आदि वीर्य की अपेक्षा बालवीर्यलब्धि वालों के तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। उसके अलब्धिकों के पांच ज्ञान की भजना है।. पण्डितवीर्यलब्धि वालों के पांच ज्ञान की भजना है। उसके अलब्धिकों के मनः पर्यवज्ञान को छोड़कर ज्ञान और अज्ञान की भजना है। बालपण्डितवीर्यलब्धि वालों के तीन ज्ञान की भजना है। उसके अलब्धिकों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
वा, सिद्धत्वे च केवलज्ञानं सिद्धानामपि चरित्रलब्धिशून्यत्वाद, यतस्तं नोचारित्रिणो नो अचारित्रिण इति ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया ।
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भगवई
१. सूत्र १६५
सिद्ध दान की लब्धि से शून्य होते हैं। दान के अलब्धि वालों में एक ही ज्ञान केवलज्ञान होता है।
बाल वीर्य लब्धि वाले असंयमी होते हैं। वे सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि- दोनों प्रकार के होते हैं। सम्यग्दृष्टि में तीन ज्ञान और मिथ्यादृष्टि में तीन अज्ञान की भजना है।
पण्डित वीर्य की अलब्धि वाले तीन प्रकार के जीव होते हैं
इंदियं पडुच्च१६६. इंदियलद्रिया णं भंते! जीवा किं
नाणी ? अण्णाणी ?
गोयमा ! चत्तारि नाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई - भयणाए ।
१६७. तस्स अलद्रियाणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी, नो अण्णाणी । नियमा एगनाणी - केवलनाणी ॥
१६८. सोइंदियलद्भिया णं जहा इंदियलदिया ॥
१६९. तस्स अलद्रियाणं पुच्छा । गोयमा ! नाणी वि, अण्णाणी वि । जे नाणी ते अत्थेगतिया दुण्णाणी, अत्थेगतिया एगनाणी । जे दुण्णाणी ते आभिणिबोहियनाणी, सुयनाणी । जे एगनाणी ते केवल नाणी । जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं जहा - मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । चक्खिदिय - घाणिंदियाणं लद्धीया अलीया य जहेव सोइंदियस्स ॥
१७०. जिब्भिदियलद्रियाणं चत्तारि नाणाई तिष्णि य अण्णाणाई- भयणाए ।
१. सूत्र १६६-१६८
केवली में इन्द्रिय का उपयोग नहीं होता इसलिए इन्द्रिय लब्धि वाले जीवों में केवलज्ञान को वर्ज कर शेष चार ज्ञान तथा तीन अज्ञान की भजना है।
श्रोत्रेन्द्रिय की अलब्धि वाले जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के होते हैं।
५५
भाष्य
इन्द्रियं प्रतीत्यइन्द्रियलब्धिकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ?
गौतम
चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि च अज्ञानानि - भजनया ।
असंयत, संयतासंयत और सिद्ध असंयत में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना । संयताऽसंयत में तीन ज्ञान की भजना | सिद्धों में एक ज्ञान - केवलज्ञान । मनः पर्यवज्ञान पंडित वीर्य लब्धि वालों के ही होता है। इसलिए पंडित वीर्य के अलब्धि वालों में उसकी वर्जना की गई है।
तस्य अलब्धिकानां पृच्छा । गौतम! ज्ञानिनः, नो अज्ञानिनः । नियमात् एकज्ञानिनः - केवलज्ञानिनः ।
१. भ. वृ. ८. १६५ - तस्स अलद्धियाणं ति असंयतानां संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः तत्रासंग्रतानामाद्यं ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च भजनया, संयतासंयतानां
बाल पण्डित वीर्य के लब्धि वाले संयतासंयत होते हैं। उनमें तीन ज्ञान की भजना है।
श्रोत्रेन्द्रियलब्धिकाः यथा इन्द्रियलब्धिकाः ।
भाष्य
होते हैं। तस्य अलब्धिकानां पृच्छा। गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये ज्ञानिनः ते अस्त्येकके द्वि-ज्ञानिनः, अस्त्येकके एकज्ञानिनः । ये द्वि-ज्ञानिनः ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः । ये एकज्ञानिनः ते केवलज्ञानिनः । ये अज्ञानिनः ते नियमात् द्वि अज्ञानिनः, तद्यथा-मतिअज्ञानिनश्च श्रुत- अज्ञानिनश्च । चक्षुरिन्द्रिय- घ्राणेन्द्रिययोः लब्धिकाः अलब्धिकाश्च यथैव श्रोत्रेन्द्रियस्य ।
श. ८ : उ. २ : सू. १६६-१७०
जिह्वेन्द्रियाणां चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि च अज्ञानानि - भजनया ।
इन्द्रिय की अपेक्षा
१६६. भंते! इन्द्रियलब्धि वाले जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं ?
गौतम ! चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
ज्ञानी- १. केवलज्ञानी-एक ज्ञान - केवल ज्ञान ।
२. विकलेन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) अपर्याप्तक अवस्था में सास्वादन सम्यग-दर्शनी होते हैं इसलिए उनमें द्विज्ञानी हैं- मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी ।
अज्ञानी- अज्ञानी में दो अज्ञान मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान
१६७. इन्द्रिय के अलब्धिकों की पृच्छा । गौतम! ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं हैं। नियमतः एक ज्ञान - केवलज्ञान वाले हैं।
१६८. श्रोत्रेन्द्रियलब्धि वालों की वक्तव्यता इन्द्रियलब्धि वालों की भांति ज्ञातव्य है ।
१६९. श्रोत्रेन्द्रिय के अलब्धिकों की पृच्छा । गौतम! वे ज्ञानी भी हैं अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं उनमें कुछेक दो ज्ञान वाले हैं, कुछेक एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं, वे केवलज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं, वे नियमतः दो अज्ञान वाले हैं, जैसे-मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी । चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय वाले जीवों के लब्धिकों और अलब्धिकों की वक्तव्यता श्रोत्रेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है।
१७०. जिह्वेन्द्रियलब्धि वालों के चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
तु ज्ञानत्रयं भजनयैव भवति, सिद्धानां तु केवलज्ञानमेव, मनः पर्यायज्ञानं तु पण्डितवीर्यलब्धिमतामेव भवति नान्येषाम् ।
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श. ८ : उ.२: सू. १७१-१७४
भगवई
१७१. तस्स अलद्धियाणं पुच्छा।
तस्य अलब्धिकानां पृच्छा।
१७१. जिह्वेन्द्रिय के अलब्धिकों की
गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये । नाणी ते नियमा एगनाणी-केवलनाणी। ज्ञानिनः ते नियमात् एकज्ञानिनः-केवल- जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी, तं ज्ञानिनः। ये अज्ञानिनः ते नियमात् द्विजहा- मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य। अज्ञानिनः, तद्यथा-मति-अज्ञानिनश्च फासिंदिय-लन्द्रीया अलब्द्धीया य जहा श्रुत-अज्ञानिनश्च। स्पर्शनेन्द्रियलब्धिकाः इंदिय-लद्धिया अलद्धिया य॥ अलब्धिकाश्च यथा इन्द्रियलब्धिकाः
अलब्धिकाश्च।
गौतम ! जिह्वेन्द्रिय के अलब्धिक ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियमतः एक ज्ञान वाले-केवलज्ञानी है। जो अज्ञानी हैं, वे नियमतः दो अज्ञान वाले हैं, जैसे–मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी। स्पर्शनन्द्रिय के लब्धिकों और अलब्धिकों की वक्तव्यता इन्द्रिय के लब्धिकों और अलब्धिकों के समान है।
भाष्य १.सूत्र १७१
जिह्वा की अलब्धि वाले जीव दो प्रकार के होते हैं केवली और एकेन्द्रिय।' उवउत्ताणं नाणि-अण्णाणित्त-पदं उपयुक्तानां ज्ञानि-अज्ञानित्व-पदम१७२. सागारोवउत्ता णं भंते! जीवा किं साकारोपयुक्ताः भदन्त! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई- पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया। भयणाए।
जीवों का ज्ञानित्व और अज्ञानित्व-पद १७२. भंते ! साकारोपयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम! साकारोपयुक्त जीवों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१७३. आभिणिबोहियनाणसागारो-वउत्ता आभिनिबोधिक ज्ञानसाकारोपयुक्ताः णं भंते?
भदन्त? चत्तारि नाणाई भयणाए। एवं चत्वारि ज्ञानानि भजनया। एवं श्रुतज्ञानसुयनाणसागारोवउत्ता वि। ओहि- साकारोपयुक्ताः अपि। अवधिज्ञाननाणसागारोवउत्ता जहा ओहि. साकारोपयुक्ताः यथा अवधिज्ञाननाणलद्धिया। मणपज्जवनाण- लब्धिकाः। मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयुक्ताः सागारोवउत्ता जहा मणपज्जव- यथा मनः- पर्यवज्ञानलब्धिकाः। केवलज्ञाननाणलद्धीया। केवलनाणसागारो-वउत्ता साकारोपयुक्ताः यथा केवलज्ञानलब्धिकाः। जहा केवलनाणलद्धीया।
मति-अज्ञानसाकारोपयुक्तानां त्रीणि मइअण्णाणसागारोवउत्ताणं तिणि अज्ञानानि भजनया। एवं श्रुत-अज्ञानअण्णाणाई भयणाए। एवं सुय- साकारोपयुक्ताः अपि। विभंगज्ञानअण्णाणसागारोवउत्ता वि। विभंग- साकारोपयुक्तानां त्रीणि अज्ञानानि नाणसागारोव-उत्ताणं तिण्णि अण्णाणाई नियमात!। नियमा॥
१७३. भंते! आभिनिबोधिकज्ञान साका
रोपयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानी हैं? गौतम ! आभिनिबोधिकज्ञान साकारोपयुक्त जीवों के चार ज्ञान की भजना है। इसी प्रकार श्रुतज्ञान साकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता। अवधिज्ञान साकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता अवधिज्ञान लब्धिकों के समान है। मनःपर्यवज्ञान साकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता मनःपर्यवज्ञानलब्धिकों के समान है। केवलज्ञान साकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता केवलज्ञान लब्धिकों के समान है। मतिअज्ञान साकारोपयुक्त जीवों के तीन अज्ञान की भजना है। इसी प्रकार श्रुतअज्ञान साकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता। विभंगज्ञान साकारोपयुक्त जीवों के नियमतः तीन अज्ञान होते हैं।
१७४. अणागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं अनाकारोपयुक्ताः भदन्त! जीवाः किं नाणी? अण्णाणी?
ज्ञानिनः? अज्ञानिनः? पंच नाणाई, तिण्णि अण्णाणाई- पञ्च ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया।
भयणाए। एवं चक्खुदंसणअचक्खु. एवं चक्षुर्दर्शन-अचक्षुर्दर्शनानाकारोपयुक्ताः १. भ. वृ. ८/१७०-१७१-ते च केवलिन एकेन्द्रियाश्च।
१७४. भंते ! अनाकारोपयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं? गौतम! अनाकारोपयुक्त जीवों के पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है। इसी
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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १७४-१७८
दसणअणागारोवउत्ता वि, नवरंचत्तारि नाणाई, तिणि अण्णा- णाई-भयणाए।
अपि, नवरं-चत्वारि ज्ञानानि, त्रीणि अज्ञानानि-भजनया।
प्रकार चक्षु, अचक्षदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता, इतना विशेष है-उनके चार ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना है।
१७५. ओहिदसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा।
अवधिदर्शनानाकारोपयुक्तानां पृच्छा।
गोयमा! नाणी वि, अण्णाणी वि। जे गौतम! ज्ञानिनोऽपि, अज्ञानिनोऽपि। ये नाणी ते अत्थेगतिया तिण्णाणी, ज्ञानिनः ते अस्त्येकके त्रिज्ञानिनः, अत्थेगतिया चउनाणी। जे तिण्णाणी ते अस्त्येकके चतुर्जानिनः। ये विज्ञानिनः ते आभिणिबोहिय-नाणी, सुयनाणी, आभिनि-बोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः, ओहीनाणी। जे चउनाणी ते आभिणि- अवधि-ज्ञानिनः। ये चतुर्जानिनः ते आभिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी। जे निबोधिकज्ञानिनः यावत् मनःपर्यवज्ञानिनः । अण्णाणी ते नियमा तिअण्णाणी, तं ये अज्ञानिनः ते नियमात् त्रि-अज्ञानिनः जहा-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, तद्यथा-मति-अज्ञानिनः, श्रुत-अज्ञानिनः. विभंगनाणी। केवलदसण-अणागारो- विभंगज्ञानिनः। केवलदर्शनानाकारोपवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया॥ युक्ताः यथा केवलज्ञानलब्धिकाः।
१७५. अवधिदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों
की पच्छा । गौतम ! अवधिदर्शन अनाकारोपयुक्त जीव ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें कुछेक तीन ज्ञान वाले हैं और कुछेक चार ज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे आभिनिबोधिक ज्ञानी यावत् मनः पर्यवज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं, वे नियमतः तीन अज्ञान वाले हैं, जैसे-मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी। केवलदर्शन अनाकारोपयुक्त जीवों की वक्तव्यता केवलज्ञानलब्धिकों के समान है।
जोगं पडुच्च१७६. सजोगी णं भंते! जीवा किं नाणी?
अण्णाणी? जहा सकाइया। एवं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी वि। अजोगी जहा सिद्धा॥
योगं प्रतीत्य
योग की अपेक्षासयोगिनः भदन्त ! जीवा किं ज्ञानिनः? १७६. भंते! योगयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? यथा सकायिकाः। एवं मनोयोगिनः, काययुक्त जीव की भांति वक्तव्य हैं। इसी वाग्योगिनः, काययोगिनोऽपि। अयोगिनः प्रकार मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी की यथा सिद्धाः।
वक्तव्यता। अयोगी सिद्ध की भांति वक्तव्य है।
लेस्सं पडुच्च१७७. सलेस्सा णं भंते! जीवा किं नाणी?
अण्णाणी? जहा सकाइया॥
लेश्यां प्रतीत्य
लेश्या की अपेक्षासलेश्याः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७७. भंते! लेश्यायुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं ? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? यथा सकायिकाः।
काययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता।
१७८. कण्हलेस्सा णं भंते! जीवा किं कृष्णलेश्याः भदन्त! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७८. 'भंते! कृष्णलेश्या वाले जीव क्या नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
ज्ञानी हैं ? अज्ञानी हैं? जहा सइंदिया। एवं जाव पम्हलेस्सा, सु- यथा स-इन्द्रियाः। एवं यथा पद्मलेश्याः, इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता। क्कलेस्सा जहा सलेस्सा। अलेस्सा शुक्ललेश्याः यथा सलेश्याः। अलेश्याः यथा इसी प्रकार यावत् पद्मलेश्या और शुक्लजहा सिद्धा। सिद्धाः।
लेश्या वाले जीव लेश्यायुक्त जीव की भांति वक्तव्य हैं। लेश्यामुक्त जीव सिद्ध की भांति वक्तव्य हैं।
भाष्य
१. सूत्र १७८
अलेश्य-चतुर्दश गुणस्थान का अधिकारी।
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श. ८ : उ. २ : सू. १७९-१८३
५८
भगवई
कसायं पडुच्च१७९. सकसाई णं भंते! जीवा किं नाणी?
अण्णाणी? जहा सइंदिया। एवं जाव लोभ-कसाई॥
कषायं प्रतीत्य
कषाय की अपेक्षा सकषायिणः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १७९. भंते! कषाययुक्त जीव क्या ज्ञानी अज्ञानिनः?
हैं ? अज्ञानी है ? यथा स-इन्द्रियाः। एवं यथा लोभकषायिणः। इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता।
इसी प्रकार यावत् लोभकषायी वक्तव्य हैं।
जन
१८०. अकसाई णं भंते! जीवा किं नाणी? अकषायिणः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८०. "भंते! कषायमुक्त जीव क्या ज्ञानी अण्णाणी? अज्ञानिनः?
हैं? अज्ञानी हैं? पंच नाणाई भयणाए। पञ्च ज्ञानानि भजनया।
कषायमुक्त जीवों के पांच ज्ञान की भजना है।
भाष्य १.सूत्र १८०
अकषायी-वीतराग। छद्मस्थ वीतराग में चार ज्ञान की भजना। केवली वीतराग में एक ज्ञान केवलज्ञान। वेदं पडुच्चवेदं प्रतीत्य
वेद की अपेक्षा १८१. सवेदगा णं भंते! जीवा किं नाणी? सवेदकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८१. भंते ! वेदयुक्त जीव क्या ज्ञानी हैं ? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? जहा सइंदिया। एवं इत्थिवेदगा वि, एवं यथा स-इन्द्रियाः। एवं स्त्रीवेदकाः अपि, एवं इन्द्रिययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता। पुरिसवेदगा वि, एवं नपुंसगवेदगा वि। पुरुषवेदकाः अपि, एवं नपुंसकवेदकाः इसी प्रकार स्त्रीवेद, पुरुषवेद और अवेदगा जहा अकसाई॥ अपि। अवेदकाः यथा अकषायिणः।
नपुंसक-वेद वाले जीवों की वक्तव्यता। वेदमुक्त जीव कषायमुक्त जीव की भांति
वक्तव्य हैं।
भाष्य १.सूत्र १८१
__ होती है अतः अनिवृत्ति गुणस्थान से अग्रिम गुणस्थानों के अधिकारी अवेदक-नवे गुणस्थान के उत्तर भाग में अवेदक अवस्था प्राप्त. अवेदक होते हैं। आहारगं पडुच्चआहारकं प्रतीत्य
आहारक की अपेक्षा१८२. आहारगा णं भंते! जीवा किं । आहारकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८२. 'भंते! आहारक जीव क्या ज्ञानी हैं? नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी हैं? जहा सकसाई, नवरं-केवलनाणं पि॥ यथा सकषायिणः, नवरं- केवलज्ञानमपि। कषाययुक्त जीव की भांति वक्तव्यता।
इतना विशेष है-आहारक जीवों के केवलज्ञान भी होता है।
१८३. अणाहारगा णं भंते! जीवा किं अनाहारकाः भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः? १८३. भंते! अनाहारक जीव क्या ज्ञानी हैं ? नाणी? अण्णाणी? अज्ञानिनः?
अज्ञानी है? मणपज्जवनाणवज्जाइं नाणाई, मनःपर्यवज्ञानवानि ज्ञानानि, अज्ञानानि अनाहारक जीवों के मनःपर्यवज्ञान को अण्णाणाई तिण्णि-भयणाए। त्रीणि-भजनया।
छोड़कर चार ज्ञान और तीन अज्ञान की
भजना है।
भाष्य १. सूत्र १८२-१८३
विग्रह गति में तीन ज्ञान, तीन अज्ञान हो सकते हैं, केवली केवली भी आहारक होते हैं इसलिए आहारक में पांच ज्ञान समुद्घात की अवस्था, शैलेशी और सिद्धावस्था में केवलज्ञान होता की भजना है। अनाहारक की चार अवस्थाएं हैं
है। मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ मुनि के ही होता है। इसलिए अनाहारक १. विग्रह गति २. केवली समुद्घात
अवस्था में उसका वर्जन किया गया है।' ___३. शैलेशी या अयोगी अवस्था ४. सिद्धावस्था। १. भ. वृ.८/१८२-सकषाया भजनया चतुर्ज्ञानस्यज्ञानाश्चोक्ताः आहारकाः २. भ, वृ. ८/१८३-मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेव आद्यं पुनर्ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं अप्येवमेव नवरमाहारकाणां केवलमप्यस्ति केवलिन आहारकत्वादपीति। च विग्रहे भवति, केवलं च केवलिसमुद्घातशैलेशीसिद्धावस्थास्वनाहारकाणा
मपि स्याद।
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भगवई
श.८: उ.२: सू. १८४-१८६ नाणाणं विसय-पदं ज्ञानानां विषय-पदम्
ज्ञान का विषय-पद १८४. आभिणिबोहियनाणस्स णं भंते! । आभिनिबोधिकज्ञानस्य भदन्त ! कियान् १८४. भंते? आभिनिबोधिकज्ञान का केवतिए विसए पण्णत्ते? विषयः प्रज्ञप्तः?
विषय कितना प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम! आभिनिबोधिकज्ञान का विषय तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः। संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्स हैं, जैसेभावओ।
द्रव्यतः आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन द्रव्य की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से. काल दव्वओ णं आभिणिबोहियनाणी सर्वद्रव्याणि जानाति-पश्यति। क्षेत्रतः की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से। आएसेणं सव्वदव्वाइं जाणइ-पासइ। आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वं क्षेत्र द्रव्य की दृष्टि से आभिनिबाधिकज्ञानी खेत्तओ णं आभिणिबोहियनाणी जानाति-पश्यति। कालतः आभिनिबोधि- आदेशतः सब द्रव्यों को जानता, देखता आएसेणं सव्वं खेत्तं जाणइ-पासइ। ज्ञानी आदेशेन सर्वं कालं जानाति-पश्यति। कालओ णं आभिणिबोहियनाणी भावतः आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन क्षेत्र की दृष्टि से आभिनिबाधिकज्ञानी आएसेणं सव्वं कालं जाणइ-पासइ। सर्वान् भवान् जानाति-पश्यति।
आदेशतः सर्वक्षेत्र को जानता-देखता है। भावओ णं आभिणिबोहियनाणी
काल की दृष्टि से आभिनिबोधिकज्ञानी आएसेणं सव्वे भावे जाणइ-पासइ॥
आदेशतः सर्वकाल को जानता-देखता है। भाव की दृष्टि से आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशतः सब भावों को जानता-देखता
१८५. सुयनाणस्स णं भंते! केवतिए श्रुतज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः? १८५. भंते! श्रुतज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउब्बिहे पण्णत्ते, गौतम! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम! श्रुतज्ञान का विषय संक्षेप में चार तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः। प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि भावओ।
द्रव्यतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वद्रव्याणि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, दव्वओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जानाति पश्यति। क्षेत्रतः श्रुतज्ञानी भाव की दृष्टि से। जाणइ-पासइ।
उपयुक्तः सर्वक्षेत्रं जानाति पश्यति।। द्रव्य की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त खेत्तओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वखेत्तं कालतः श्रुतज्ञानी उपयुक्तः सर्वकालं अवस्था में (जेय के प्रति दत्तचित होने पर) जाणइ-पासइ।
जानाति-पश्यति। भावतः श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को जानता-देखता है। कालओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वकालं उपयुक्तः सर्वभावान् जानाति पश्यति। क्षेत्र की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त जाणइ-पासइ।
अवस्था में सब क्षेत्रों को जानता-देखता भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणइ-पासइ।
काल की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त अवस्था में सर्वकाल को जानता-देखता है। भाव की दृष्टि से श्रुतज्ञानी उपयुक्त अवस्था में सब भावों को जानता-देखता है।
१८६.ओहिनाणस्स णं भंते! केवतिए अवधिज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८६. भंते! अवधिज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा ! से समासओ चउबिहे पण्णत्ते, गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, गौतम ! अवधिज्ञान का विषय संक्षेप में तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः। चार प्रकार का प्रज्ञाप्त हैं, जैसे-द्रव्य की भावओ।
द्रव्यतः अवधिज्ञानी जघन्येन अनन्तानि दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि दव्वओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं अणंताइं रूपिद्रव्याणि जानाति-पश्यति। उत्कर्षेण से, भाव की दृष्टि से। रूविदव्वाइं जाणइ-पासइ। उक्कोसेणं । सर्वाणि रूपिद्रव्याणि जानाति-पश्यति। द्रव्य की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यत: सव्वाई रूविदव्वाइं जाणइ-पासइ। क्षेत्रतः अवधिज्ञानी जघन्येन अंगुलस्य अनंत रूपी द्रव्यों को जानता-देखता है। खेत्तओ णं ओहिनाणी जहणणं असंख्येयतमं भागं जानाति-पश्यति। उत्कृष्टतः वह सब रूपी द्रव्यों को जानता
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श.८: उ. २ : सू. १८६,१८७
भगवई
अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जाणइ. उत्कर्षण असंख्येयानि अलोके लोक- पासइ। उक्कोसेणं असंखेज्जाइं अलोगे मात्राणि खण्डानि जानाति-पश्यति। लोय-मत्ताइ खंडाई जाणइ-पासइ। कालतः अवधिज्ञानी जघन्येन कालओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं आवलिकायाः असंख्येयतमं भागं जानातिआवलि-याए असंखेज्जइभागं जाणइ. पश्यति। उत्कर्षेण असंख्येयाः अवसर्पिणीः पासइ। उक्कोसेणं असंखे-ज्जाओ उत्सर्पिणीः अतीतमनागतं च कालं ओसप्पिणीओ उस्सप्पि-णीओ जानाति-पश्यति। अईयमणागयं च कालं जाणइ-पासइ॥ भावतः अवधिज्ञानी जघन्येन अनन्तान् भावओ णं ओहिनाणी जहण्णेणं अणंते भावान् जानाति-पश्यति। उत्कर्षेणापि भावे जाणइ-पासइ। उक्को-सेण वि अनन्तान् भावान् जानाति-पश्यति. अणते भावे जाणइ-पासइ, सर्वभावानामनन्तभागं जानाति-पश्यति। सव्वभावाणमणंतभागं जाणइ-पासइ॥
देखता है। क्षेत्र की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानतादेखता है। उत्कृष्टतः वह अलोक में लोकप्रमाण असंख्यात खण्डों को जानतादेखता है-जान सकता है, देख सकता है। काल की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः आवलिका के असंख्यातवें भाग को जानता-देखता है। उत्कृष्टतः वह असंख्येय अवसर्पिणी उत्सर्पिणी प्रमाण अतीत और भविष्य काल को जानता. देखता है। भाव की दृष्टि से अवधिज्ञानी जघन्यतः अनंत भावों को जानता-देखता है। उष्कृष्टतः भी अनंत भावों को जानतादेखता है, सर्व भावों के अनंतवें भाग को जानता-देखता है।
१८७. मणपज्जवनाणस्स णं भंते! मनःपर्यवज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८७. भंते! मनःपर्यवज्ञान का विषय कितना केवतिए विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, गौतम ! स समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्- गौतम! मनःपर्यवज्ञान का विषय संक्षेप में तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः कालतः, भावतः। चार प्रकार प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि भावओ।
से, क्षेत्र की दृष्टि से. काल की दृष्टि से,
भाव की दृष्टि से। दव्वओ णं उज्जुमती अणंते द्रव्यतः ऋजुमतिः अनन्तान् अनन्त- द्रव्य की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अणंतपदेसिए खंधे जाणइ-पासइ। ते चेव प्रदेशिकान् स्कन्धान जानाति-पश्यति। तान् मनोवर्गणा के अनंत अनंत प्रदेशी स्कंधों विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतरान विपुल- को जानता-देखता है। विसुद्धतराए वितिमिर-तराए जाणइ- तरान् विशुद्धतरान् वितिमिरतरान् जानाति- विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन स्कन्धों को पासइ। पश्याता
अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर,
उज्ज्वलतर रूप में जानता देखता है। खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे क्षेत्रतः ऋजुमतिः अध: यावत् अस्याः क्षेत्र की दृष्टि से जुमति मनः पर्यवज्ञानी रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उपरितन-अधस्तान नीचे की ओर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के खुड्डागपयरे, उड़े जाव जोइसस्स 'खुड्डाग प्रतरान्, ऊर्ध्वं यावत् ज्योतिषः ऊर्ध्ववर्ती क्षुल्लक प्रतर से अधस्तन उवरिम-तले, तिरियं जाव अंतो- उपरितनतलान्, तिर्यक् यावत् अन्तर- क्षुल्लक प्रतर तक, ऊपर की ओर मणुस्सखेत्ते अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु मनुष्यक्षेत्रे अर्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु पञ्च- ज्योतिष्चक्र के उपरितल तक. तिरछे भाग पण्णरससु कम्मभूमीसु तीसाए दशसु कर्मभूमिषु त्रिंशत्-अकर्मभूमिषु । में मनुष्य क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र अकम्मभूमीसु छप्पण्णए अंतरदीवगेसु । षट्पञ्चाशत् अन्तरद्वीपकेषु संजिनां तक पन्द्रह कर्मभूमियों, नीस अकर्मभूमियों सण्णीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तयाणं पञ्चेन्द्रियाणां पर्याप्तकानां मनोगतान और छप्पन अन्तीपों में वर्तमान पर्याप्त मणोगए भावे जाणइ-पासइ। भावान् जानाति-पश्यति।
समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों
को जानता-देखता है। तं चेव विउलमई अड्डाइज्जेहि-मंगुलेहिं तच्चैव विपुलमतिः अर्धतृतीयैः अङ्गलैः विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उस क्षेत्र में अब्भहियतरं विउलतरं विसुद्धतरं ___ अभ्यधिकतरं विपुलतरं विशुद्धतरं अढ़ाई अंगुल अधिकतर, विपुलतर, वितिमिरतरं खेत्तं जाणइ-पासइ। वितिमिरतरं क्षेत्रं जानाति-पश्यति। विशुद्धतर, उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता
देखता है। कालओ णं उज्जुमई जहण्णेणं कालतः ऋजुमतिः जघन्येन पल्योपमस्य काल की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी
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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १८७,१८८ जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता-देखता है।
तरक
पलिओवमस्स, असंखिज्जयभागं, असंख्येयकभागम्. उत्कर्षेणाऽपि पल्योउक्कोसेण वि पलिओवमस्स । पमस्य असंख्येयकभागम् अतीतमनागतं वा असंखिज्जयभागं अतीय-मणागयं वा कालं जानाति-पश्यति। कालं जाणइ-पासइ। तंचेव विउलमई अब्भहियतरागं विउल- तच्चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतर तरागं विसुद्धतरागं विति-मिरतरागं विपुल-तरकं विशुद्धतरकं वितिमिरतरकं जाणइ-पासइ।
जानाति-पश्यति। भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ- भावतः ऋजुमतिः अनन्तान् भावान् पासइ, सव्वभावाणं अणंत-भागं जाणइ- जानाति-पश्यति, सर्वभावानामनन्तभागं पास।
जानाति-पश्यति। तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं विउल- तच्चैव विपुलमतिः अभ्यधिकतरकं तरागं विसुद्धतरागं विति-मिरतरागं विपुलतरकं विशुद्धतरकं वितिमिरतरकं जाणइ-पासइ॥
जानाति-पश्यति।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उस काल खण्ड को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर जानता-देखता है। भाव की दृष्टि से ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी अनंत भावों को जानता-देखता है।
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी उन भावों को अधिकतर, विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर जानता-देखता है।
१८८. केवलनाणस्स णं भंते! केवतिए केवलज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८८. भंते! केवलज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउबिहे पण्णत्ते, गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, गौतम ! केवलज्ञान का विषय संक्षेप में चार तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, तद्यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः भावतः। प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य की दृष्टि भावओ।
से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से.
भाव की दृष्टि से। दव्वओ णं केवलनाणी सव्वदव्वाइं द्रव्यतः केवलज्ञानी सर्वद्रव्याणि जानाति- द्रव्य की दृष्टि से केवलज्ञानी सब द्रव्यों को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। खेत्तओ णं केवलनाणी सव्वं खेत्तं क्षेत्रतः केवलज्ञानी सर्व क्षेत्रं जानाति- क्षेत्र की दृष्टि से केवलज्ञानी सर्वक्षेत्र को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। कालओ णं केवलनाणी सव्वं कालं कालतः केवलज्ञानी सर्व कालं जानाति- काल की दृष्टि से केवलज्ञानी सर्वकाल को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है। भावओ णं केवलनाणी सव्वे भावे भावतः केवलज्ञानी सर्वान् भावान जानाति- भाव की दृष्टि से केवलज्ञानी सब भावों को जाणइ-पासइ। पश्यति।
जानता-देखता है।
भाष्य १. सूत्र १८४-१८८
जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने आदेश का अर्थ प्रकार किया है प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञान तथा अज्ञान की ज्ञेय-वस्तु का
आभिनिबोधिकज्ञानी ओघादेस (सामान्य आदेश) से सब द्रव्यों प्रतिपादन किया गया है।
को जानता है किन्तु वह सब विशेषों की दृष्टि से सब द्रव्यों को नहीं जेय के चार प्रकार हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल.और भाव। प्रस्तुत
जानता। तात्पर्य की भाषा में यह आभिनिबोधिक ज्ञान के ज्ञेय की सूत्र में ज्ञेय के आधार पर ज्ञान के चार भेद किए गए हैं।
सीमा का निर्देश है। वह सामान्यतः कुछेक पर्यायों से विशिष्ट द्रव्य आभिनिबोधिक ज्ञानी सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और ।
को जानता है।' सर्वभाव को जानता है।
आभिनिबोधिकज्ञानी सब भावों को जानता है। जिनभद्रगणि आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं। परोक्ष
ने इसका अर्थ किया है--आभिनिबोधिकज्ञानी औदयिक, ज्ञान के द्वारा सूक्ष्म, दूरस्थ और व्यवहित विषय को नहीं जाना जा
औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक-इन पांच भावों सकता इसीलिए आदेश शब्द का प्रयोग किया गया है।
को सामान्य या जाति के रूप में जानता है।'
१. (क) वि. भा. गा. ४०२-४०४--
तं पुण चउब्विहं, नेयमेयओ तेण जं तदुवउत्तो। आदेसेणं सव्यं दव्वाइ चाउब्विहं मुणइ।। आएसोत्ति पगारो, आहादेसेण सव्वदव्वाई। धम्मत्थि आइयाई जाणड न उ सव्वभेएणं॥
खेतं लोगालोगं कालं सव्वन्द्रमहव तिविहंति।
पंचोदयाई ए भावे जं नेयमेव इयं ।। (ख) भ. वृ.८.१८४-१८५। २.वि. भा. गा. ४०४
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श.८ : उ.२ : सू. १८८
भगवई
आदेश का दूसरा अर्थ सूत्र किया गया है। आभिनिबोधिक का प्रयोग किया गया है। ज्ञानी सूत्र के अनुसार सब द्रव्यों को जानता है। इस आदेश शब्द नंदी में "ण पासई" पाठ उपलब्ध है। नंदी की चूर्णि में के द्वारा केवलज्ञान और आभिनिबोधिकज्ञान के ज्ञेय की सीमा को
इसका अर्थ किया है-आभिनिबोधिक ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि स्पष्ट किया गया है।
सब द्रव्यों को नहीं देखता, उचित देश में अवस्थित रूप आदि को श्रुतज्ञानी के साथ उपयुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है। चक्षु-अचक्षुदर्शन के द्वारा देखता भी है। इसका तात्पर्य है कि वह श्रुतोपयोग पूर्वक सर्वद्रव्य, सर्वक्षेत्र
भगवती में 'पासई' और नंदी में ‘ण पासइ इन दो विरोधी सर्वकाल, और सर्वभाव को जानता है।
वक्तव्यों का समन्वय नंदी के व्याख्या ग्रन्थों के आधार पर किया उपयुक्त शब्द के द्वारा केवलज्ञान और श्रुतज्ञान के ज्ञेय की जा सकता है। आभिनिबोधिकज्ञानी सब द्रव्यों को देखता है. सीमा स्पष्ट होती है। देखें तुलनात्मक यंत्र
इसकी अपेक्षा यह है कि वह चक्षदर्शन और अचक्षुदर्शन के
विषयभूत सब द्रव्यों को देखता है। निषेध की अपेक्षा यह है कि आभिनिबोधिक । श्रुतज्ञान केवलज्ञान
आभिनिबोधिक- ज्ञानी धर्मास्तिकाय आदि अमूर्त द्रव्यों को नहीं द्रव्य आदेशतः सर्व श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व द्रव्यों को
देखता इसलिए वह सब द्रव्यों को नहीं देखता। द्रव्यों को में सर्व द्रव्यों को जानता-देखता है। जानता-देखता | जानता-देखता है।
श्रुतज्ञानी सब द्रव्यों को देखता है। अभयदेवसरि ने इसकी
व्याख्या की है। उन्होंने सब द्रव्यों का नियामक सूत्र दिया है। जो क्षेत्र आदेशतः सर्व क्षेत्रों| श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व क्षेत्रोको जानता
अभिलाप्य द्रव्य हैं, उन सब द्रव्यों को जानता है। जानने के दो को जानता- में सर्व क्षेत्रों को देखता है।
साधन हैं-श्रुतानुवर्ती मानसज्ञान और अचक्षुदर्शन। संपूर्ण देखता है। जानता-देखता है।
दशपूर्वधर आदि तथा श्रुतकेवली सर्व अभिलाप्य द्रव्यों को जानताकाल आदेशतः सर्व श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व काल को
देखता है, संपूर्ण दशपूर्व से निम्न ज्ञान वालों के लिए भजना है।' काल को में सर्व काल को | जानता-देखता है।
वृद्ध व्याख्या के अनुसार 'पश्यति' का स्पष्टीकरण इस प्रकार जानता-देखता | जानता-देखता है।
है-प्रज्ञापना में श्रुतज्ञान की पश्यत्ता का प्रतिपादन किया गया है।"
विशेषावश्यक-भाष्य में भी पश्यत्ता की चर्चा उपलब्ध है। भाव आदेशतः सर्व | श्रुतोपयोग अवस्था | सर्व भावों को
श्रुतज्ञानी के द्वारा अनुत्तरविमान आदि अदृष्ट भूखण्डों का भाव को जानता- | में सर्व भावों को जानता-देखता है। आलेख्य किया जाता है। सर्वथा अदृष्ट का आलेख्य नहीं किया जा देखता है। जानता-देखता है।
सकता।' यद्यपि अभिलाप्य भावों का अनंतवां भाग श्रुतनिबद्ध है
फिर भी सामान्य विवक्षा में सब अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के ज्ञेय तत्त्ववेना, दार्शनिक और वैज्ञानिक अपनी मति से संपूर्ण हैं, ऐसा कहा जाता है। इस अपेक्षा से यह पाठ है कि श्रुतज्ञानी सब विश्व रचना और विश्ववर्ती पदार्थों के बारे में चिंतन करते हैं, शोध भावों को जानता-देखता है। करते हैं और नई नई स्थापना करते हैं। उनमें औत्पत्तिकी बुद्धि का
भगवती (१/२०४) में अवधिज्ञान के दो प्रकार बतलाए गए विकास भी होता है। उसके द्वारा अदृष्ट और अश्रुत तत्त्वों को जान है-आधोवधिक और परमाधोवधिक। स्थानांग में अवधिज्ञान के लेने हैं। किसी पूर्व परंपरा और शास्त्र का अनुसरण किए बिना।
देशावधि और सर्वावधि-ये दो प्रकार निर्दिष्ट हैं। जयधवला में अनेक नए तत्त्वों का प्रतिपादन करते हैं इसलिए आभिनिबोधिक
अवधिज्ञान के तीन प्रकार मिलते है-देशावधि, परमावधि और और श्रुतज्ञान की केवलज्ञान से सापेक्ष दृष्टि से तुलना की जाती
सर्वावधि।' प्रस्तुत सूत्र में विषयवस्तु का प्रतिपादन अवधिज्ञान के है। इस सापेक्षता को बताने के लिए ही आदेश और उपयुक्त शब्द
तीनों प्रकारों को लक्ष्य में रखकर किया गया है। अवधिज्ञानी १. वहीं, ४०५
न, सकलगोचरदर्शनायोगान्? अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः आपसो नि व सुनं सुउबलन्द्रेसु तस्स मइनाणं।
प्रतिपादितत्वादनुत्तरविमानादीनां चालेख्यकरणात सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यपसरई नब्भावणया विणा वि सुत्तानुसारेण।।
करणानुपपत्तेः। २. नंदी चू. पृ. ४२-ण परसइ ति सव्वे सामण्णविसेसादेसहिते धम्मादिए, ७. वही, ८/१८५-ननु भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सव्वभावे जाणइ इति चक्खभचक्खुदसणेण रुव सद्दाइने केयिं पासति नि।
यदुक्तमिह तत 'सुए चरिते न पज्जवा सव्वे ति ( अभिन्नाप्यापेक्षया) अनेन ३. म. वृ. ८.१८५-सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' विशेषतोव- च सह कथं न विरुध्यते? उच्यते, इह सूत्रे सर्वग्रहणेन पंचौदयिकादयो भावा गच्छति, श्रुतज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वान्, पश्यति च श्रुतानुवर्तिनामानसेन गृह्यन्ते, तांश्च सर्वान जातितो जानाति, अथवा यद्यप्यभित्लाप्यानां भावानाअचक्षुदर्शनन सर्वद्रव्याणि चाभिलाप्यान्येव जानाति पश्यति चाभिन्नपूर्व- मनंतभाग एव श्रुतनिबद्धस्तथापि प्रसंगानुप्रसंगतः सर्वेष्य-भिन्नाप्याः श्रुतदशधरादिः श्रुतकेवली तदारतस्तु भजना, सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञातव्येति। विषया उच्यन्ते अतस्तदपेक्षया सर्वभावान् जानातीत्युक्तम्, अनभिलाप्य४. पण्ण. ३०.२।
भावापेक्षया तु 'सुए चरिते न पज्जवा सव्वे' इन्युक्नमिति न विरोधः। ५.वि. भा. गा.५५३-५६५।
८. ठाणं २/१०३-२०० तथा १९.३ का टिप्पण द्रष्टव्य। ६. भ. ७.८ १८५-वृन्द्रः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक्तं ननु पश्यतीति कथं? कथं च
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भगवई
जघन्यतः अनंत रूपी द्रव्यों को जानता देखता है, यह सर्व सामान्य निर्देश है। अवधिज्ञानी उत्कृष्टतः सब रूपी द्रव्यों को जानतादेखता है, यह निर्देश परमावधि और सर्वावधि की अपेक्षा से है। अनंत की व्याख्या आवश्यक नियुक्ति में मिलती है। पुद्गल की आठ वर्गणाएं हैं
१. औदारिक वर्गणा २. वैक्रिय वर्गणा ३. आहारक वर्गणा ४. तैजस वर्गणा ५. भाषा वर्गणा ६. श्वासोच्छवास वर्गणा ७. मनो वर्गणा ८. कर्म वर्गणा ।
नियुक्ति के अनुसार प्रारंभिक अवस्था वाला अवधिज्ञानी तैजस और भाषा वर्गणा के मध्यवर्ती द्रव्यों को जानता है।'
विशेषावश्यक भाष्य, नंदी चूर्णि, नंदी की हारिभद्रीया वृत्ति और मलयगिरीया वृत्ति में भी इसी मत का अनुसरण है।' विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य हैं नंदी (सूत्र ७.२२) के पाद टिप्पण |
अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान का विषय है रूपी (मूर्त्त) द्रव्य । अरूपी द्रव्य उनका विषय नहीं है। अवधिज्ञान का विषय है सब रूपी द्रव्य । मनः पर्यवज्ञान का विषय केवल मनोवर्गणा के पुद्रल स्कंध हैं। समनस्क जीव मनन अथवा चिंतन करने के लिए मनोवर्गणा के पुल स्कंधों को ग्रहण करता है मनन के अनुरूप उन पुगल स्कंधों की आकृतियां बनती जाती हैं। उन आकृतियों की संज्ञा पर्याय है। मनः पर्यवज्ञानी मन की उन आकृतियों या पर्यायों का साक्षात्कार करता है। तात्पर्य की भाषा में मनन करने वाले व्यक्ति के विचारों का साक्षात् कर लेता है। विचार के समय जो चिन्त्यमान वस्तु होती है। उसका साक्षात्कार नहीं होता। जिनभद्रगणि के अनुसार चिन्त्यमान वस्तु को वह अनुमान से जानता है।
सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान को एक ही माना है । उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञान बिन्दु प्रकरण में उसका उल्लेख कर नय दृष्टि से उस पर विचारणा की है। पंडित सुखलालजी ने मनःपर्यवज्ञान के विषय में एक विमर्श प्रस्तुत किया है
मनः पर्यवज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है। या चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं - इस विषय में जैन परंपरा में ऐकमत्य नहीं । नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है जबकि विशेषावश्यक भाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है। परन्तु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो परचित्त ज्ञान का वर्णन है, उसमें केवल दूसरा
१. आव, नि. गा. ३८
२. (क) वि. भा. गा. ६८३
नेयाकम्मसरीरं तेयादव् य भासदव्वे य ।
(ख) नंदी चू. पू. २० ।
(ग) हा. वृ. पृ. ३०/
(घ) नंदी मलयगिरीया बृ. प. ९०
३. वि. भा. गा. ८१३-८१४
६३
मुइ मणी दव्वाई नरोए सो मणिज्जमाणाः । काले भूय भविस्से पलियाऽसंखिज्जभागम्मि॥
श. ८ : उ. २ : सू. १८८
ही पक्ष है, जिसका वर्णन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है। योग भाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं। योगभाष्य में तो चित्त के आलंबन का ग्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गई है।
यहां विचारणीय दो बातें हैं-एक तो यह कि मनः पर्यायज्ञान के विषय के बारे में जो जैन वाङ्मय में दो पक्ष देखे जाते हैं. इसका स्पष्ट अर्थ क्या यह नहीं है कि पिछले वर्णनकारी साहित्य युग में ग्रंथकार पुरानी आध्यात्मिक बातों का तार्किक वर्णन तो करते थे पर आध्यात्मिक अनुभव का युग बीत चुका था। दूसरी बात विचारणीय यह है कि योगभाष्य, मज्झिमनिकाय और विशेषावश्यक भाष्य में पाया जाने वाला ऐकमत्य स्वतंत्र चिन्तन का परिणाम है या किसी एक का दूसरे पर असर भी है?"
मनः पर्यवज्ञान का विषय वास्तव में चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएं हैं। चिन्त्यमान वस्तु से उसका सीधा संबंध नहीं है। नंदी के चूर्णिकार ने इस विषय पर सुन्दर प्रकाश डाला है, उनका वक्तव्य है-चिन्त्यमान वस्तु मूर्त और अमूर्त दोनों प्रकार की हो सकती है। अमूर्त वस्तु मनः पर्यवज्ञान का विषय नहीं है। इसलिए मनः पर्यवज्ञान से मनोद्रव्य के पर्यायों का प्रत्यक्ष किया जा सकता है और चिन्त्यमान वस्तु को अनुमान से जाना जा सकता है। अनुमान परोक्षज्ञान है इसलिए उसका मनः पर्यवज्ञान से सीधा संबंध नहीं है।
ज्ञान के दो विभाग हैं- क्षायोपशमिक और क्षायिक । मति, श्रुत, अवधि और मनः पर्यव-ये चार ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं इसलिए क्षायोपशमिक हैं । केवलज्ञान ज्ञानावरण के सर्वथा क्षय से उत्पन्न होता है इसलिए वह क्षायिक है।
क्षायोपशमिक ज्ञान का विषय है मूर्त्तद्रव्य-पुङ्गलद्रव्य । क्षायिक ज्ञान का विषय मूर्त और अमूर्त दोनों द्रव्य है। धर्म, अधर्म, आकाश और जीव-ये अमूर्त्त द्रव्य हैं। क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा इनका प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकता। अमूर्त का ज्ञान परोक्षात्मक शास्त्र ज्ञान से होता है। "
दार्शनिक युग में केवलज्ञान की विषय वस्तु के आधार पर सर्वज्ञवाद की विशद चर्चा हुई है। पण्डित सुखलालजी ने उस चर्चा का समवतार इस प्रकार किया है- न्याय, वैशेषिक दर्शन जब सर्व
दव्यमणोपज्जाए जाणइ पासइ य तग्गएणं ते तेषावभासिए उण जाणड़ बज्झेऽणुमाणेणं ॥
४. ज्ञान. प्र. पृ. १८
५. वही, भूमिका पू. ४१-४२
६. नंदी चू. पृ. २४-सण्णिणा मणत्तेण मणिते मणोध अनंत अणनपदेसिए, दव्वट्टताए तग्गते य वण्णादिए भावे मणपज्जवणाणेणं पच्चक्खं पेक्खमाणी जाणातिनि भणितं । मणितमत्थं पुण पच्चवखं ण पेक्खति जेण मणालंबणं मुत्तममुत्तं वा सोय छदुमत्थो नं अणुमाणतो पेक्खति ति अनो पासणता भणिता ।
७. द्रष्टव्य भ. ८ १८५ ।
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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. १८८ विषयक साक्षात्कार का वर्णन करता है तब वह सर्व शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध द्रव्य, गुण आदि सातों पदार्थों को संपूर्ण भाव से लेता है। सांख्य योग जब सर्व विषयक साक्षात्कार का चित्रण करता है तब वह अपनी परंपरा में प्रसिद्ध प्रकृति। पुरुष आदि पच्चीस तत्त्वों के पूर्ण साक्षात्कार की बात कहता है। बौद्ध दर्शन सर्व शब्द से अपनी परम्परा में प्रसिद्ध पंच स्कन्धों को संपूर्ण भाव से लेता है। वेदान्त दर्शन सर्व शब्द से अपनी परंपरा में पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध एकमात्र पूर्ण ब्रह्म को ही लेता है। जैन दर्शन भी सर्व शब्द से अपनी परंपरा में प्रसिद्ध सपर्याय षड्द्रव्यों को पूर्णरूपेण लेता है। इस तरह उपर्युक्त सभी दर्शन अपनी-अपनी परंपरा के अनुसार माने जाने वाले सब पदार्थों को लेकर उनका पूर्ण साक्षात्कार मानते हैं और तदनुसारी लक्षण भी करते है।
पण्डित सुखलालजी की सर्वज्ञता विषयक मीमांसा का स्पष्ट फलित है कि 'सर्व' पद के विषय में सब दार्शनिक एक मत नहीं हैं। इसका मूल हेतु आत्मा और ज्ञान के संबंध की अवधारणा है। जैन । दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह एक है. अक्षर है, उसका नाम केवल ज्ञान है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने केवलज्ञान का लक्षण व्यवहार और निश्चय-दो दृष्टियों से किया है-व्यवहार नय से केवली भगवान सबको जानते हैं और देखते हैं। निश्चय से केवलज्ञानी अपनी आत्मा को जानते हैं और देखते हैं।
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान स्व-पर प्रकाशी है। वह स्वप्रकाशी है, इस आधार पर केवलज्ञानी निश्चय नय से आत्मा को जानतादेखता है, यह लक्षण संगत है। वह पर प्रकाशी है, इस आधार पर वह सबको जानता-देखता है, यह लक्षण संगत है।
केवल ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। वह स्वभाव है इसलिए मुक्त अवस्था में भी विद्यमान रहता है। प्रत्यक्ष अथवा साक्षात्कारित्व उसका स्वाभविक गुण है। ज्ञानावरण कर्म से आच्छन्न होने के कारण उसके मति, श्रुत आदि भेद बनते हैं। संग्रह दृष्टि से चार भेद किये गए हैं-मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव। तारतम्य के आधार पर असंख्य भेद बन सकते हैं। ज्ञानावरण का सर्व विलय होने पर ज्ञान के तारतम्य जनित भेद समाप्त हो जाते हैं और केवलज्ञान प्रकट हो जाता है।
___ केवलज्ञान का अधिकारी सर्वज्ञ होता है। सर्वज्ञ और सर्वज्ञता न्याय प्रधान दर्शन युग का एक महत्त्वपूर्ण चर्चनीय विषय रहा है। जैन दर्शन को केवलज्ञान मान्य है इसलिए सर्वज्ञवाद उसका सहज स्वीकृत पक्ष है। आगम युग में उसके स्वरूप और कार्य का १. दर्शन चिंतन पृ. ४२९.-३० २. नंदी सू. ११ ३. नियमसार गाथा १२.१.१५०
जाणदि परसदि सव्वं, ववहारणयेण केवली भगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि पियमेण अप्पाणं ।। ४. (क) नयचक्र लिखित प्रति पृ. १२३ अ.।
वर्णन मिलता है किन्तु उसकी सिद्धि के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया। दार्शनिक युग में मीमांसक, चार्वाक आदि ने सर्वज्ञत्व को अस्वीकार किया तब जैन दार्शनिकों ने सर्वजन्व की सिद्धि के लिए कुछ तर्क प्रस्तुत किए। ज्ञान का तारतम्य देखा जाता है। जिसका तारतम्य होता है, उसका अंतिम बिन्दु तारतम्य रहित होता है। ज्ञान का तारतम्य सर्वज्ञता में परिनिष्ठित होता है। इस युक्ति का उपयोग मल्लवादी, हेमचन्द्र, उपाध्याय यशोविजय आदि सभी दार्शनिकों ने किया है। पण्डित सुखलालजी ने इस युक्ति का ऐतिहासिक विश्लेषण करते हुए लिखा ह–'यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न है कि प्रस्तुत युक्ति का मूल कहां तक पाया जाता है और वह जैन परंपरा में कब से आई देखी जाती है। अभी तक के हमारे वाचनचिन्तन से हमें यही जान पड़ता है कि इस युक्ति का पुराणतम उल्लेख योगसूत्र के सिवाय अन्यत्र नहीं है। हम पातंजल योगसूत्र के प्रथम पाद में 'तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' (१.२५) ऐसा सूत्र पाते हैं, जिसमें साफ तौर से यह बतलाया गया है कि ज्ञान का तारतम्य ही सर्वज्ञ के अस्तित्व का बीज है जो ईश्वर में पूर्णरूपेण विकसित है। इस सूत्र के ऊपर के भाष्य में व्यास ने तो मानो सूत्र के विधान का आशय हस्तामलकवत् प्रकट किया है। न्याय-वैशेषिक परंपरा जो सर्वज्ञवादी है उसके सूत्र-भाष्य आदि प्राचीन ग्रंथों में इस सर्वज्ञास्तित्व की साधक युक्ति का उल्लेख नहीं है। हां, हम प्रशस्तपाद की टीका व्योमवती (पृ. ५६०) में उसका उल्लेख पाते हैं। पर ऐसा कहना नियुक्तिक नहीं होगा कि व्योमवती का वह उल्लेख योगसूत्र तथा उसके भाष्य के बाद का ही है। काम की किसी भी अच्छी दलील का प्रयोग जब एक बार किसी के द्वारा चर्चा क्षेत्र में आ जाता है तब फिर वह आगे सर्वसाधारण हो जाता है। प्रस्तुत युक्ति के बारे में भी यही हुआ जान पड़ता है। संभवतः सांख्ययोग परंपरा ने उस युक्ति का आविष्कार किया फिर उसने न्याय, वैशेषिक तथा बौन्द्र परंपरा के ग्रन्थों में भी प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त किया और उसी तरह वह जैन परंपरा में भी प्रतिष्ठित हुई।
जैन परंपरा के आगम, नियुक्ति, भाष्य आदि प्राचीन अनेक ग्रंथ सर्वज्ञत्व के वर्णन से भरे पड़े हैं, पर हमें उपर्युक्त ज्ञानतारतम्य वाली सर्वज्ञत्व साधक युक्ति का सर्वप्रथम प्रयोग मल्लवादी की कृति में ही देखने को मिलता है। अभी यह कहना संभव नहीं कि मल्लवादी ने किस परंपरा से वह युक्ति अपनाई। पर इतना तो निश्चित है कि मल्लवादी के बाद के सभी दिगंबर-श्वेताम्बर तार्किकों ने इस युक्ति का उदारता से उपयोग किया है।'
जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा का गुण है। वह अनावृत (ख) प्रमाण मीमांसा-अध्ययन?, आह्निक १. सूत्र १८ पृ. १५॥ (ग) ज्ञान. प्र. पृ. १९॥ ५. ज्ञान, प्र. भूमिका पृ. ४३-४४। ६. तत्त्व संग्रह पृ.८२५। ७. नयचक्र लिखित प्रति पृ. १२३ ।
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अवस्था में भेद या विभाग शून्य होता है। आवरण के कारण उसके विभाग होते हैं और तारतम्य होता है। ज्ञान के तारतम्य के आधार पर उसकी पराकाष्ठा को केवलज्ञान मानना एक पक्ष है किन्तु इससे अधिक संगत पक्ष यह है कि केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव अथवा गुण है । जानावरण कर्म के कारण उसमें तारतम्य होता है। ज्ञानावरण के क्षय होने पर स्वभाव प्रगट हो जाता है।
किसी अन्य दर्शन में ज्ञान आत्मा का स्वभाव या गुण रूप में स्वीकृत नहीं है इसलिए उनमें सर्वज्ञता का वह सिद्धान्त मान्य नहीं है। जो जैन दर्शन में है। पंडित सुखलालजी ने सर्व शब्द को दर्शन के साथ जोड़ा है। उनके अनुसार जो दर्शन जितने तत्त्वों को मानता है, उन सबको जानने वाला सर्वज्ञ होता है। जैन दर्शन ने 'सर्व' शब्द को स्वाभिमत द्रव्य की सीमा में आबद्ध नहीं किया है। उसे द्रव्य के अतिरिक्त क्षेत्र, काल और भाव के साथ संयोजित किया है। केवलज्ञान का विषय है
१. सर्व द्रव्य २. सर्व क्षेत्र ३. सर्व काल ४. सर्व भाव ।
द्रव्य का सिद्धान्त प्रत्येक दर्शन का अपना अपना होता है किन्तु क्षेत्र, काल और भाव ये सर्व सामान्य हैं। सर्वज्ञ सब द्रव्यों को सर्वथा सर्वत्र और सर्व काल में जानता देखता है।"
न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनों में ज्ञान आत्मा के गुण के रूप में सम्मत नहीं है इसलिए उन्हें मनुष्य की सर्वज्ञता का सिद्धांत मान्य नहीं हो सकता। बौद्ध दर्शन में अन्वयी आत्मा मान्य नहीं है इसलिए बौद्ध भी सर्वज्ञवाद को स्वीकार नहीं करते। वेदान्त के अनुसार केवल ब्रह्म ही सर्वज्ञ हो सकता है, कोई मनुष्य नहीं। सांख्य दर्शन में केवलज्ञान अथवा कैवल्य की अवधारणा स्पष्ट है। *
जैनदर्शन सम्मत सर्वज्ञता के विरोध में मीमांसकों ने प्रबल तर्क उपस्थिति किए। उनके अनुसार प्रत्यक्ष, उपमान, अनुमान, आगम, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि - किसी भी प्रमाण से सर्वज्ञत्व की सिद्धि नहीं हो सकती ।
न्याय और वैशेषिक ईश्वरवादी दर्शन हैं। वे ईश्वर को सर्वज्ञ १. नंदी चू. पृ. २८ - एते दव्वादिया सव्वे सव्वधा सव्वत्थ सव्वकालं उवयुत्तो सागाराऽणागारलक्खणेहिं णाणदंसणेहिं जाणति पासति य ।
२. सांख्यकारिका श्लोक ६४.६८
एवं तत्त्वाभ्यासान्नास्मि न मे नाहमित्यपरिशेषम। अविपर्ययाद् विशुद्धं केवलमुत्पद्यते ज्ञानम् ॥ प्राप्त शरीरभेदे चरितार्थत्वाद, प्रधानविनिवृत्ती । ऐकान्तिकमात्यन्तिकमुभयं केवल्यमाप्नोति ।।
३. न्यायमंजरी पृ. ५०८
तदेवं धिषणादीनां नवानामपि मूलतः । गुणानामात्मनो ध्वंसः सोपवर्गः प्रकीर्तितः ॥
४. तत्त्व संग्रह पृ. ८४६ ।
५. शास्त्रवार्ता समुच्चय ६२७-६४३।
६. आममीमांसा पृ. ७२ कारिका ५।
७. न्यायविनिश्चय कारिका न. ३६१, ३६२, ४१०, ४१४, ४६५ ।
८. अष्टसहस्री पृ. ५०।
६५
श. ८ : उ. २ : सू. १८८
मानते हैं। कालक्रम से उनमें योगि प्रत्यक्ष की अवधारणा प्रविष्ट हुई है। पर जैन दर्शन सम्मत सर्वज्ञत्व की अवधारणा उनमें नहीं है। जैन दर्शन में केवलज्ञान या सर्वज्ञत्व मोक्ष की अनिवार्य शर्त है। न्याय और वैशेषिक का मत है-मुक्त अवस्था में योगि प्रत्यक्ष नहीं रहता । ईश्वर का ज्ञान नित्य है और योगि प्रत्यक्ष अनित्य ।
शांतरक्षित ने कुमारिल के तर्कों का उत्तर दिया। किन्तु शांतरक्षित के उत्तर सर्वज्ञत्व की सिद्धि में बहुत महत्वपूर्ण नहीं हो सकते। बौद्ध दर्शन सर्वज्ञत्व के विरोध में अग्रणी रहा है। उत्तरवर्ती बौद्धों ने सर्वज्ञत्व का जो स्वीकार किया है. वह अस्वीकार और स्वीकार के मध्य झूलता दिखाई देता है। सर्वज्ञत्व की सिद्धि में सर्वाधिक प्रयत्न जैन दार्शनिकों का है। इस प्रयत्न की पृष्ठभूमि में दो हेतु हैं
१. सर्वज्ञता आत्मा का स्वभाव है।
२. मोक्ष के लिए सर्वज्ञत्व अनिवार्य है।
बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति ने सर्वज्ञता का खण्डन किया, उसका उत्तर आचार्य हरिभद्र ने दिया। कुमारिल के तर्कों का उत्तर समंतभद, अकलंक, विद्यानन्द, 'प्रभाचन्द आदि ने दिया है। यदि हम तर्कजाल को सीमित करना चाहें तो नंदी का यह सूत्र पर्याप्त है - ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। ज्ञानावरण के क्षीण होने पर सकल ज्ञेय को जानने की उसमें क्षमता है। " केवलज्ञान की परिभाषा
नंदी के अनुसार जो ज्ञान सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को जानता देखता है वह केवलज्ञान है।
आचारचूला से फलित होता है-केवलज्ञानी सब जीवों के सब भावों को जानता देखता है । ज्ञेय रूप सब भावों की सूची इस प्रकार है- १. आगति २. गति ३. स्थिति ४. च्यवन ५. उपपात ६. भुक्त ७. पीत ८. कृत ९. प्रतिसेवित १०. आविष्कर्म-प्रगट में होने वाला कर्म ११. रहस्य कर्म १२. लपित १३. कथित १४. मनो-मानसिक । १२ षट्खण्डागम में भी आचारचूला के समान ही सूत्र उपलब्ध है। देखें यंत्र
९. प्रमेयकमलमार्तण्ड पू. २५५।
१०. (क) नंदी सू. ७१।
(ख) नंदी सू. ३३/१
अह सव्वदव्यपरिणाम भाव विष्णत्ति कारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एगविहं केवलं नाणं ।।
११. नंदी सू. ३३ ।
१२. आ. चू. १५/३९ - से भगवं अरिहे जिणे जाए केवली सव्वण्णु सव्वभावदरिसी, सदेवमणुया सुरस्स लोयस्स पजाए जाणइ, तं जहा- आगतिं गतिं ठितिं चयणं उववायं भुत्तं पीयं कडं पडिसेवियं आवीकम्मं रहोकम्मं लवियं कहियं मणोमाणसियं सव्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पांसमाणे, एवं च णं विहरइ ।
१३. ष. ख. १३ / ५,५,८२ पृ. ३४६-सई भयवं उप्पण्णणाणदरिसी सदेवासुरमनुसस्स लोगस्स आगदि गदिं चयणोववादं बंधं मोक्खं इहिं द्विदि अणुभागं तक्कं कलं मृणोमाणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं रहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्मं समं जाणदि पस्सदि विहरदि ।
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श. ८ : उ. २ : सू. १८८
आयारचूला
१. आगति
२. गति
३. स्थिति
४. च्यवन
५. उपपात
६. भुक्त
७. पीत
८. कृत
९. प्रतिसेवित
१०. आविष्कर्म
११. रहस्य कर्म
१२. लपित
१३. कथित
१४. मनोमानसिक भाव
१५. सर्व लोक
१६. सर्व जीव
१७. सर्व भाव
षट्खण्डागम
१. आगति
२. गति
३. च्यवन
४. उपपात
५. बंध
६. मोक्ष
७. ऋद्धि
८. स्थिति
९. अनुभाग
१०. तर्क
११. कल
१२. मनोमानसिक भाव
१३. भुक्त
१४. कृत
१५. प्रतिसेवित
१६. आदि कर्म
१७. रहस्य कर्म
१८. सर्व लोक
१९. सर्व जीव २०. सर्व भाव
केवली मित और अमित दोनों को जानता है। अमित को जानता है यह नंदी आदि उत्तरवर्ती सूत्र-ग्रन्थों का वक्तव्य है । केवली मित को जानता है, इसकी व्याख्या आचारचूला के उक्त संदर्भ से स्पष्ट होती है। अमित और मित की व्याख्या दो नयों के आधार पर की जा सकती है। निश्चय नय का सिद्धान्त यह है कि केवली समग्र को जानता है. उसका ज्ञान अनावृत है। इसलिए उसमें सबको जानने की क्षमता है। व्यवहार नय के आधार पर कहा जा सकता है कि केवली मित को जानता है, जिस समय जितना प्रयोजनीय है, उतना जानता है । अभयदेवसूरि ने मित के उदाहरण के रूप में गर्भज मनुष्य, जीव द्रव्य आदि का उल्लेख किया है और अमित के उदाहरण के रूप में वनस्पति, पृथ्वी, जीव द्रव्य आदि का उल्लेख किया है। " किन्तु अमित को जानता है फिर मित को जानता है-इस वचन की सार्थकता प्रतीत नहीं होती। इसलिए मित की व्याख्या व्यवहार नय के आधार पर और अमित की व्याख्या निश्चय नय के आधार पर की जाए तो अधिक संगत प्रतीत होती है।
जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और १. भ. वृ. ५/६७ मियं पित्त परिणामवद् गर्भजमनुष्यजीवद्रव्यादि। अमियं पित्ति अनंतमसंख्येय वा वनस्पति, पृथिवी, जीव द्रव्यादि ।
२. नंदी चू. पू. २८ ।
३. द्रष्टव्य नियमसार गाथा १२.१.१५९ पृ. १४६ ।
४. बृ. भा. पीठिका गाथा ३८
दव्वादि कसिण विसयं केवलमेगं तु केवलन्नाणं। अणिवारियवावारं, अणतम विकप्पियं नियतं ।।
६६
सर्वकाल में जानता देखता है, वह केवलज्ञान है।"
आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार नय के आधार
पर केवलज्ञान की परिभाषा की है।
भगवई
बृहत्कल्प भाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बतलाए हैं
१. असहाय - इंद्रिय मन निरपेक्ष ।
२. एक- ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण ।
३. अनिवारित व्यापार - अविरहित उपयोग वाला।
४. अनंत अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला ।
५. अविकल्पित-विकल्प अथवा विभाग रहित। * तत्त्वार्थ भाष्य में केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से बतलाया गया है । वह सब भावों का ग्राहक, संपूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशायी कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई ज्ञेय नहीं है जो केवलज्ञान का विषय न हो। "
उक्त व्याख्याओं के सन्दर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती है- सर्व द्रव्य का अर्थ है - मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला । केवलज्ञान के अतिरिक्त कोई ज्ञान अमूर्त का साक्षात्कार अथवा प्रत्यक्ष नहीं
कर सकता।
सर्व क्षेत्र का अर्थ है- संपूर्ण आकाश (लोकाकाश और अलोकाकाश) को साक्षात् जानने वाला ।
सर्वकाल का अर्थ है-सीमातीत अतीत और भविष्य को जानने वाला। शेष कोई ज्ञान असीम काल को नहीं जान सकता । सर्व भाव का अर्थ है-गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला।
केवलज्ञान या सर्वज्ञता की इतनी विशाल अवधारणा किसी अन्य दर्शन में उपलब्ध नहीं है।
पण्डित सुखलालजी ने 'निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्' योगदर्शन के इस सूत्र को सर्वज्ञ - सिद्धि का प्रथम सूत्र माना है। जैन आचार्यों ने भी इस युक्ति का अनुसरण किया है किन्तु सर्वज्ञता की सिद्धि का मूल सूत्र आगम में विद्यमान है। वह प्राचीन है तथा योगदर्शन के सूत्र से सर्वथा भिन्न है। सर्वज्ञता की सिद्धि का हेतु हैं अनिन्द्रियता । इन्द्रिय ज्ञान स्पष्ट है। उसका प्रतिपक्ष है अनिन्द्रिय ज्ञान । जो सत् है, उसका प्रतिपक्ष अवश्य है । इन्द्रियज्ञान का प्रतिपक्ष है अनिन्द्रिय ज्ञान । सर्वज्ञता इन्द्रिय और मन से सर्वथा निरपेक्ष है।
केवलज्ञानी जानता देखता है-जाणई पासई- इन दो पदों का
५. त. सू. भा. वा. १/३० सर्वद्रव्येषु सर्वपययिषु च केवलज्ञानस्य विषयनिबंधो भवति । तद्धि सर्वभावग्राहकं संभिन्नलोकालोकविषयम्। नातः परं ज्ञानमस्ति । न च केवलज्ञानविषयात् किंचिदन्यज्ज्ञेयमस्ति । केवलं परिपूर्ण समग्रमसाधारणं निरपेक्षं विशुद्धं सर्वभावज्ञापकं लोकालोकविषयमनंतपर्यायमित्यर्थः ।
६. भ. ८/११७- अणिंदिया णं भंते! जीवा किं णाणी? जहा सिद्धा ।
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भगवई
श.८ : उ. २ : सू. १८८,१८९ उल्लेख किया है।
मलयगिरी (विक्रम की बारहवीं शताब्दी) ने हरिभद्रसूरि का ही अनुसरण किया है।
सन्मति के टीकाकार अभयदेवसूरि (विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी) ने तीनों वादों के प्रवक्ताओं के नामों का उल्लेख किया
प्रयोग मिलता है। प्रस्तुत सूत्र में साकार और अनाकार उपयोग की चर्चा नहीं है। नंदी में भी उनकी चर्चा नहीं है। भगवती में केवलज्ञान को साकार उपयोग और केवलदर्शन को अनाकार उपयोग बतलाया गया है। केवलज्ञान और केवलदर्शन के उपयोग के बारे में तीन मत मिलते हैं
१. क्रमवाद २. युगपत्वाद ३. अभेदवाद
क्रमवाद आगमानुसारी है। उसके मुख्य प्रवक्ता हैं जिनभद्रगणि। युगपत्वाद के प्रवक्ता हैं मल्लवादी। अभेदवाद के प्रवक्ता हैं सिद्धसेन दिवाकर।
जिनभद्रगणि ने विशेषणवती में तीनों पक्षो की चर्चा की है किन्तु किसी प्रवक्ता का नामोल्लेख नहीं किया। जिनदास महत्तर ने नंदी चूर्णि (विक्रम की आठवीं शताब्दी) में विशेषणवती को उद्धृत किया है। उन्होंने किसी वाद के पुरस्कर्ता का उल्लेख नहीं किया।
हरिभद्रसूरि (विक्रम की आठवीं शताब्दी) ने चूर्णिगत विशेषणवती की गाथाओं को उद्धृत किया है और पुरस्कर्ता आचार्यों का नामोल्लेख भी किया है। उनके अनुसार युगपतवाद के प्रवक्ता हैं-आचार्य सिद्धसेन आदि। क्रमवाद के प्रवक्ता हैं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि। अभेदवाद के प्रवक्ता के रूप में वृद्धाचार्य का
क्रमवाद के प्रवक्ता-जिनभद्र, युगपत्वाद के प्रवक्तामल्लवादी, अभेदवाद के प्रवक्ता-सिद्धसेन।
क्रमवाद के विषय में हरिभद्र और अभयदेव एक मत हैं। युगपत्वाद और अभेदवाद के बारे में दोनों के मत भिन्न हैं। सिद्धसेन अभेदवाद के प्रवक्ता हैं, यह सन्मति तर्क से स्पष्ट है। उन्हें युगपत्वाद का प्रवक्ता नहीं माना जा सकता। इस स्थिति में युगपतवाद के प्रवक्ता के रूप में मल्लवादी का नामोल्लेख संगत हो सकता है। उपलब्ध द्वादशार नयचक्र में इस विषय का कोई उल्लेख नहीं है। अभयदेव ने किस ग्रन्थ के आधार पर इसका उल्लेख किया, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
उपाध्याय यशोविजयजी ने तीनों वादों की समीक्षा की है और नय दृष्टि से उनके समन्वय का प्रयत्न किया है।'
१८९. मइअण्णाणस्स णं भंते ! केवतिए मति-अज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः १८९. 'भंते ! मति अज्ञान का विषय कितना विसए पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! से समासओ चउविहे गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम ! मति अज्ञान का विषय संक्षेप में चार पण्णत्ते, तं जहा-दव्वओ, खेत्तओ, यथा--द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः भावतः। प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, कालओ, भावओ।
क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की
दृष्टि से। दव्वओ णं मइअण्णाणी मइ. द्रव्यतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञान- द्रव्य की दृष्टि से मति अज्ञानी मनि-अज्ञान अण्णाणपरिगयाइं दव्वाई जाणइ. परिगतानि द्रव्याणि जानाति-पश्यति। के विषयभूत द्रव्यों को जानता-देखता है। पासइ। खेत्तओ णं मइअण्णाणी मइ. क्षेत्रत: मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरिगतं क्षेत्र की दृष्टि से मति अज्ञानी मति अज्ञान के अण्णाणपरिगयं खेत्तं जाणइ-पासइ। क्षेत्र जानाति पश्यति।
विषयभूत क्षेत्र को जानता-देखता है। कालओ णं मइअण्णाणी मइअण्णाण- कालतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरिगतं । काल की दृष्टि से मति अज्ञानी मति-अज्ञान परिगयं कालं जाणइ-पास। कालं जानाति-पश्यति।
के विषयभूत काल को जानता-देखता है। भावओ णं मइअण्णाणी मइ- भावतः मति-अज्ञानी मति-अज्ञानपरि- भाव की दृष्टि से मति अज्ञानी मति अज्ञान अण्णाणपरिगए भावे जाणइ-पासइ॥ गतान् भावान् जानाति-पश्यति।
के विषय भूत भावों को जानता-देखता है।
१. (क) भ. १६:१०८।
(ख) पण्ण, २०१३ २. विशेषणवती गाथा १५३-१५४)
केयी भणंति जुगवं जाणइ पासति य केवली नियमा। अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुतोवदेसेणं॥ अण्णे ण चेव वीसुं सणमिच्छति जिणपरिंदस्स।
जं चिय केवाननाणं तं चिय से दंसणं बैंति।। ३. नंदी चू. पृ. २८-३०। ४. नंदी वृ. पृ. ४० केचन सिद्धसेनाचार्यादयः भणति। किम? युगपद
एकस्मिन्नेव काले जानाति पश्यति च कः? केवली, न त्वन्यः: नियमाद नियमेन। अन्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रभृतयः एकांतरितं जानानि पश्यति
चेत्येवमिच्छन्ति श्रुतोपदेशेन यथाश्रुतागमानुसारेणेत्यर्थः अन्ये तु वृन्दाचार्या 'न' नैव विष्वक् पृथक् तदर्शनमिच्छंति जिनवरेन्द्रस्य केवलिनः इत्यर्थः। किं तर्हि? यदेव केवलज्ञानं तदेव नस्य केवलिनो न दर्शनं ब्रवते. क्षीणावरणस्य देशज्ञानाभावात् केवलदर्शनाभावादिति भावना। ५. नंदी वृ. पत्र १३४। ६. सन्मति. टीका पृ. ६०८। ७. ज्ञान. पृ.३३-४३।
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श. ८ : उ. २ : सू. १९०,१९१
१९०. सुयअण्णाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पण्णत्ते ?
गोमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ।
दव्वओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयाई दव्वाई आघ-वेइ, पण्णवेइ, परूवेई । खेत्तओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगयं खेत्तं आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ |
कालओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगय कालं आघवेइ, पण्णवेइ, परुवेइ ॥ भावओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगए भावे आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ ॥
१९१. विभंगनाणस्स णं भंते । केवतिए विस पण्णत्ते ?
गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ ।
दव्वओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयाई दव्वाई जाणइ पासइ । खेत्तओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयं खेत्तं जाणइ पासइ । कालओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगयं कालं जाणइ - पासइ । भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणइ - पासइ ।
१. त. सू. भा. वा. १ ३२ पृष्ठ ११२ ।
६८
श्रुत- अज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा-द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः,
भावतः ।
द्रव्यतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतानि द्रव्याणि आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति ।
क्षेत्रतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतं क्षेत्रम् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति ।
कालतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत - अज्ञानपरिगतं कालम् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति ।
भावतः श्रुत- अज्ञानी श्रुत- अज्ञानपरिगतान् भावान् आख्याति, प्रज्ञापयति, प्ररूपयति ।
विभंगज्ञानस्य भदन्त ! कियान् विषयः प्रज्ञप्तः ?
गौतम! सः समासतः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः तद् यथा- द्रव्यतः, क्षेत्रतः, कालतः, भावतः ।
द्रव्यतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतानि द्रव्याणि जानाति पश्यति ।
१. सूत्र ९८९-१९१
मति श्रुत और अवधि इन तीन का विपर्यय अज्ञान कहलाता है।
१. मति ज्ञान का विपर्यय-मति अज्ञान । २. श्रुतज्ञान का विपर्यय - श्रुत अज्ञान ३. अवधिज्ञान का विपर्यय-विभंगज्ञान । मिथ्यादर्शन से युक्त होने के कारण इनसे वस्तु के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान नहीं होता इसलिए इनकी संज्ञा अज्ञान है। "
अज्ञान के विषय का निरूपण नंदी में उपलब्ध नहीं है।
क्षेत्रतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतं क्षेत्रं जानाति पश्यति ।
कालतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतं कालं जानाति पश्यति ।
भावतः विभंगज्ञानी विभंगज्ञानपरिगतान् भावान् जानाति पश्यति ।
भाष्य
भगवई
१९०. भंते! श्रुत अज्ञान का विषय कितना प्रज्ञप्त है ?
गौतम! श्रुत अज्ञान का विषय संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से ।
द्रव्य की दृष्टि श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत द्रव्यों का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है।
क्षेत्र की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत क्षेत्र का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है।
काल की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषय भूतकाल का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है।
भाव की दृष्टि से श्रुत अज्ञानी श्रुत अज्ञान के विषयभूत काल का आख्यान, प्रज्ञापन और प्ररूपण करता है।
१९१. भंते! विभंगज्ञान का विषय कितना प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! विभंगज्ञान का विषय संक्षेप में चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-द्रव्य की दृष्टि से, क्षेत्र की दृष्टि से, काल की दृष्टि से, भाव की दृष्टि से ।
द्रव्य की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत द्रव्य को जानता देखता है। क्षेत्र की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत क्षेत्र को जानता देखता है। काल की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान
विषयभूत काल को जानता - देखता है। भाव की दृष्टि से विभंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत भावों को जानता देखता है।
विशेषावश्यक भाष्य भी इस विषय में मौन है। प्रज्ञापना में भी इसकी चर्चा नहीं है । मतिज्ञान सम्यग्दर्शन युक्त होता है इसलिए व्यापक बनता है । मति अज्ञान मिथ्यादर्शन युक्त होता है इसलिए उसका विषय मतिज्ञान की अपेक्षा सीमित है। मतिज्ञान से द्रव्य के जितने पर्याय सम्यक् रूप से जाने जाते हैं, वे मति अज्ञान से नहीं जाने जा सकते इसलिए सूत्रकार ने 'आएसेणं सव्वदव्वाई' के स्थान पर 'मइअण्णाणपरिगयाई दव्वाई' का प्रयोग किया है। यह नियम श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान पर भी लागू होता है।
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भगवई
नाणीणं संठिs - पदं
१९२. नाणी णं भंते! नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! नाणी दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - १. सादीए वा अपज्जवसिए २. सादीए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं छावट्ठि सागरोवमाई सातिरेगाई ॥
१९३. आभिणिबोहियनाणी णं भंते! आभिणिबोहियनाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! एवं चेव ॥
१९४. एवं सुयनाणी वि ॥
१९५. ओहिनाणी वि एवं चेव, नवरं-जह एक्कं समयं ॥
१९६. मणपज्जवनाणी णं भंते! मणपज्जव नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! जहणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं॥
१९७. केवलनाणी णं भंते! केवल नाणी ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए ।
१९८.
अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुअण्णाणी णं भंते! पुच्छा । गोमा ! अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी यतिविहे पण्णत्ते, तं जहा- १. अणादीए वा अपज्जव - सिए २. अणादीए वा सपज्जव- सिए ३. सादीए वा सपज्जव - सिए । तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंत कालं -अणंता ओसप्पिणी उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवडुं पोग्गलपरियट्टं देसूणं ॥
६९
ज्ञानिनां संस्थिति-पदम्
ज्ञानी भदन्त ! ज्ञानीति कालतः कियच्चिरं भवति ?
गौतम! ज्ञानी द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा - १. सादिकः वा अपर्यवसितः २. सादिकः वा सपर्यवसितः । तत्र यः एषः सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण षट्षष्टिं सागरोपमाणि सातिरेकाणि ।
आभिनिबोधिकज्ञानी भदन्त ! आभिनिबोधिकज्ञानीति कालतः कियच्चिरं भवति ?
गौतम! एवं चैव!
एवं श्रुतज्ञानी अपि ।
अवधिज्ञानी अपि एवं चैव, नवरं जघन्येन एक समयम् ।
मनः पर्यवज्ञानी भदन्त ! मनः पर्यवज्ञानीति कालतः कियच्चिरं भवति ?
गौतम! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण देशोनां पूर्वकोटिम् ।
केवलज्ञानी भदन्त ! केवलज्ञानीति कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम! सादिकः अपर्यवसितः।
अज्ञानी, मति - अज्ञानी, श्रुत- अज्ञानी भदन्त ! पृच्छा ?
गौतम! अज्ञानी, मति- अज्ञानी, श्रुतअज्ञानी च त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा - १. अनादिकः वा अपर्यवसितः २. अनादिकः वा सपर्यवसितः ३. सादिकः वा सपर्यवसितः । तत्र यः एषः सादिकः सपर्यवसितः स जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालम् अनन्ताः अवसर्पिणी- उत्सर्पिणीः कालतः, क्षेत्रतः अपार्थं पुलपरिवर्त्तं देशोनम् ।
श. ८ : उ. २ : सू. १९२-१९८
ज्ञानी का संस्थिति-पद
१९२. भंते! ज्ञानी ज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है?
गौतम! ज्ञानी दो प्रकार का प्रज्ञप्त है। जैसे- १. सादि अपर्यवसित २. सादि सपर्यवसित। जो सादि सपर्यवसित है, वह जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ अधिक छासठ सागरोपम तक ज्ञानी के रूप में रहता है।
१९३. भंते! आभिनिबोधिकज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है।
गौतम ! सादि सपर्यवसित ज्ञानी की भांति वक्तव्य है।
१९४. इसी प्रकार श्रुतज्ञानी की वक्तव्यता ।
१९५. इसी प्रकार अवधिज्ञानी की वक्तव्यता, इतना विशेष है-उसकी जघन्य स्थिति एक समय की है।
१९६. भंते! मनः पर्यवज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ?
गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः देशोन पूर्वकोटि ।
१९७. भंते! केवलज्ञानी केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम! केवलज्ञानी सादि अपर्यवसित होता है।
१९८. भंते! अज्ञानी, मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी की पृच्छा ।
गौतम ! अज्ञानी, मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी तीन प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. अनादि अपर्यवसित २. अनादि सपर्यवसित ३. सादि सपर्यवसित जो सादि सपर्यवसित है, वह जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल - अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, क्षेत्र की दृष्टि से देशोन अपार्द्ध पुलपरिवर्त।
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श.८ : उ. २ : सू. १९९
भगवई
है।
१९९. विभंगनाणी णं भंते! पुच्छा। विभंगज्ञानी भदन्त ! पृच्छा।
१९९. भंते ! विभंगज्ञानी की पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समय, गौतम ! जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि देशोनया पूर्व- देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम। पुव्वकोडीए अब्भहियाई॥
कोट्या अभ्यधिकानि।
भाष्य १.सूत्र १९२-१९९
मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव-ये चार ज्ञान क्षायोपशमिक प्रस्तुत आलापक में ज्ञानी की कालावधि पर विचार किया हैं-ज्ञानावरण के विलय की तरतमता से उत्पन्न होते हैं इसलिए गया है।
इसकी आदि भी है और पर्यवसान भी है। प्रथम तीन ज्ञान सम्यग १.केवलज्ञानी सादि-अपर्यवसित होता है इसलिए उसकी कोई दर्शन सापेक्ष हैं। मनःपर्यवज्ञान चारित्र सापेक्ष है। केवलज्ञान ज्ञानावरण कालावधि नहीं है।
के सर्वथा विलय होने पर उत्पन्न होता है। एक बार आवरण के सर्वथा २. सादि-सपर्यवसित-मति और श्रुतज्ञान की जघन्य स्थिति नष्ट होने पर पुनः ज्ञान आवृत नहीं होता इसलिए वह अपर्यवसित है अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है।
और वही आत्मा का स्वभाव है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्त अवस्था सादि सपर्यवसित मति, श्रुत और अवधि की उत्कृष्ट स्थिति में भी केवल-ज्ञान विद्यमान रहता है। कुछ अधिक छासठ सागर बतलाई गई है। उसकी अपेक्षा यह है-एक मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी के तीन विकल्प हैंसंयमी व्यक्ति विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित संज्ञक-इन चार १. अनादि अपर्यवसितअनुत्तर विमानों में से किसी एक में उत्पन्न होता है वहां से च्युत हो, इसका निदर्शन हैं अभव्य जीव, जिनमें मोक्ष जाने की अर्हता मनुष्य जन्म प्राप्त कर, मृत्यु के उपरान्त फिर वहीं (अनुत्तर विमान)
नहीं है। उत्पन्न होता है। अनुत्तर विमानों की स्थिति नैतीस सागर है। अतः २. अनादि सपर्यवसित३३ सागर मनुष्य भव की स्थितिx३३ सागर-६६ सागर से कुछ इसका निदर्शन है भव्य जीव, जिनमें मोक्ष जाने की अर्हता है। अधिक हो जाती है।
३. सादि सपर्यवसितअवधिज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय की है। वृत्तिकार ने सम्यक्त्व का प्रतिपतन हुआ और अंतर्मुहूर्त के बाद फिर इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-कोई विभंगज्ञानी सम्यक्त्वी सम्यक्त्व प्राप्त हो गया, इस अपेक्षा से उसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहर्त्त बनता है, उसके प्रथम समय में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है और उसके अनंतर समय में वह अवधिज्ञान प्रतिपतित हो सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जीव वनस्पति आदि में चला जाता है। इस अवस्था में अवधिज्ञान की जघन्य स्थिति एक समय की जाता है। वहां अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहकर वहां से होती है।
बाहर आ पुनः सम्यग दर्शन को प्राप्त होता है। उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट जयाचार्य ने एक समय की स्थिति का दूसरा हेतु भी बतलाया स्थिति का निरूपण किया गया है। अपार्ध पुद्गल परिवर्त क्षेत्र की है-अवधिज्ञान की उत्पत्ति के प्रथम समय में ही आयु पूर्ण होने पर अपेक्षा-देशोन अपार्ध पुद्गल परिवर्त चार प्रकार के होते हैं। प्रस्तुत उसकी जघन्य स्थिति एक समय की होती है।
प्रकरण में क्षेत्र पुद्गल परिवर्त का निर्देश है।' मनःपर्यव ज्ञान अप्रमत्त क्षण में वर्तमान संयमी के उत्पन्न होता विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ और उत्पत्ति के अनंतर ही उसका है। यदि उत्पत्ति के अनंतर ही वह विनष्ट हो जाता है तो उस स्थिति में प्रतिपतन हो गया, इस अवस्था में उसकी जघन्य स्थिति एक समय उसकी जघन्य स्थिति एक समय की घटित होती है। चारित्र का उत्कृष्ट की होती है। मनुष्य जीवन में देशोन पूर्वकोटि तक विभंग ज्ञान का कालमान देशोन पूर्व कोटि है। चारित्र की प्रतिपति के अनंतर ही अनुभव रहा और वह जीव मरकर सप्तम नरक में उत्पन्न हुआ, इस मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। और आजन्म उसका अनुवर्तन होता अपेक्षा से विभंगज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति देशोन पूर्व कोटि अधिक है, इस स्थिति में उसकी उत्कृष्ट स्थिति देशोन कोटि पूर्व हो जाती है। तैतीस सागर की बतलाई गई।' १. (क) भ. वृ.८ १९२-१९५।
४. भ. ७.८/१९६-संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्य मनः पर्यवज्ञानमुत्पन्न (ख) भ. जो.२.१३०-६-91
तत् उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं चेत्येवमेकं समयम् तथा चरणकाल २. भ. वृ. ८/१०२-१०५-यदा विभंगज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत् उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी,तत्प्रतिपत्ति-समनन्तरमेव च यदा मनः* प्रथमसमय एव विभंगमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा पर्यवज्ञानमुत्पन्नमाजन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते।
पूर्वकोटीति। ३. भ. जो. २ पृ. ३८१ वार्तिका-विभंग अज्ञानी नो अवधिज्ञानी किम हवे? अर्ने ५. भ. बृ. ८/१९७-सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तर्मुहूर्तोपरि सम्यक्त्वप्रतिपनी।
तेहनी एक समय नी थिति किम? देवता, नारक, मनुष्य, तियंच-पंचेंद्रिय ६. वही, ८/१९८-सम्यकत्वाद् भ्रष्टस्य बनस्पत्यादिष्वनंता मिथ्यादृष्टि तेहने तीन अज्ञान हवै। हिवै मिथ्यादृष्टि नो समदृष्टि थयो, निवारे उत्सर्पिण्यवसर्पिणी इति वाह्य पुनः प्राप्तसम्यग्दर्शनस्येति। तीन अज्ञान नां ज्ञान थया, विभंग ना अवधि थयों। तिवारै एक समय पछेज ७. भ. जो. २. वार्तिक-द्रव्यादिक मेयै करिकै च्यार प्रकार नो पुद्गलपरावर्त ते तेहनो आयु पूर्ण थयो अथवा अनेरे प्रकारे एक समय ते अवधि रही पालो मध्य क्षेत्र थकी पुद्गलपरावर्त जाणवो। पड़यो पिण सम्यक्त नहीं गई। कारण मति, श्रुत ज्ञान नी जघन्य स्थिति ८. भ. वृ. ८/१९९। अंतर्मुहर्न नी छ, सम्यक्त नी पिण एतलीज पूछै। इण न्याय अवधिज्ञान नीं १. वही, ८/१९९। स्थिति जघन्य एक समय नीं।
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भगवई
श.८ : उ.२: सू. २००-२०४
नाणीणं अंतर-पदं २००. आभिणिबोहियनाणिस्स णं भंते!अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ?
ज्ञानिनाम् अंतरपदम् आभिनिबोधिज्ञानिनः भदन्त! अन्तरं कालतः कियच्चिरं भवति?
ज्ञानी का अन्तर पद २००. भंते! आभिनिबोधिकज्ञानी कितने अंतराल के बाद पुनः आभिनिबोधिकज्ञानी बनता है। गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल यावत् क्षेत्र की दृष्टि से देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरिवर्त।
गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं॥
गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण अनन्तं कालं यावत्अपार्धं पुद्गलपरिवर्तं
देशोनम्।
२०१. सुयनाणि - ओहिनाणि -मण- पज्जवनाणीणं एवं चेव।
श्रुतज्ञानि - अवधिज्ञानि - मनःपर्यव- ज्ञानिनामेवं चैव।
२०१. श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यवज्ञानी आभिनिबोधिकज्ञानी की भांति वक्तव्य हैं।
२०२. केवलनाणिस्स पुच्छा। गोयमा! नत्थि अंतरं॥
केवलज्ञानिनः पृच्छा। गौतम! नास्ति अन्तरम्।
२०२. भंते ! केवलज्ञानी की पृच्छा। गौतम! अंतराल नहीं होता।
२०३. मइअण्णाणिस्स सुयअण्णा-णिस्स मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनश्च पृच्छा। य पुच्छा । गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहर्तम, उत्कर्षण उवक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाई षट्षष्टिः सागरोपमाणि सातिरेकाणि साइरेगाई॥
२०३. मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी की पृच्छा। गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कुछ अधिक छासठ सागरोपम।
२०४. विभंगनाणिस्स पुच्छा। विभंगज्ञानिनः पृच्छा।
२०४. विभंगज्ञानी की पृच्छा। गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्महर्त्तम. उत्कर्षण गौतम! जघन्यतः अन्तर्मुहर्त उत्कृष्टतः उक्कोसेणं वणस्सइकालो॥ वनस्पतिकालः।
वनस्पतिकाय।
भाष्य १.सूत्र-२००-२०४
इस प्रकार उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त्त प्रमाण होता है। दो सदृश अवस्थाओं के बीच का काल अन्तर काल होता है।
सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर जो जीव वनस्पति आदि में आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान
चला जाता है वहां अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी तक रहकर वहां सम्यक्त्व का प्रतिपतन होने पर आभिनिबोधिक ज्ञान और से बाहर आ पुनः सम्यगदर्शन को प्राप्त होता है। उसकी अपेक्षा श्रुतज्ञान मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान में बदल जाता है। अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्ट अन्तरकाल का निरूपण किया गया है। के पश्चात सम्यक्त्व की पुनः प्राप्ति होने पर वे पुनः ज्ञान बन जाते हैं।
पांच ज्ञान और तीन अज्ञान के अंतर काल की तालिकाजघन्य अन्तरकाल
उत्कृष्ट अन्तरकाल आभिनिबोधिक ज्ञान
अन्तर्मुहूर्त
अनंत काल तक अथवा कुछ
कम अपार्ध पुद्गल परिवर्त श्रुत ज्ञान, अवधिज्ञान,
अन्तर्मुहूर्त
अनंत काल तक अथवा कुछ मनःपर्यवज्ञान
कम अपार्थ पुद्गल परिवर्त केवलज्ञान
अंतरकाल नहीं
अंतरकाल नहीं मति अज्ञान
अंतर्मुहूर्त
कुछ अधिक छासठ श्रूत अज्ञान
सागरोपम विभंग ज्ञान
अंतर्मुहूर्त
वनस्पति काल (अनंत काल)
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श. ८ : उ. २ : सू. २०४,२०५
द्रव्य
ऋजुमति
मनोवर्गणा के
मनः पर्यव अनंत अनंत ज्ञानी
प्रदेशी स्कंधों को जानतादेखता है
विपुल मति उन स्कंधों को मनः पर्यव अधिकतर विपुलज्ञानी तर, विशुद्धतर उज्ज्वलतर रूप में
जानता देखता है।
आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान अवधिज्ञान
मनः पर्यवज्ञान
कवलज्ञान
मति अज्ञान श्रुत अज्ञान
७२
ऋजुमति विपुलमति मनः पर्यवज्ञान में अंतर क्षेत्र
काल
नीचे की ओर इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊर्ध्ववर्ती क्षुल्लक प्रतर से अधस्तन क्षुल्लक प्रतर तक, ऊपर की ओर ज्योतिष्चक्र के ऊपरी तल तक, तिरछे भाग में मनुष्य क्षेत्र के भीतर अढ़ाई द्वीप समुद्र तक, पंद्रह कर्म भूमि तीस अकर्म भूमि और छप्पन अंतद्वीपों में वर्तमान पर्याप्त समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों के मनोगत भावों को जानता देखता है।
उस क्षेत्र से अढ़ाई अंगुल अधिकतर विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर क्षेत्र को जानता देखता है।
सादि सपर्यवसित
पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति
जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्न
सादि सपर्यवसित
सादि सपर्यवसित
सादि अपर्यवसित
विभंग ज्ञान
नाणी अप्पाबहुयत्त-पदं २०५ एतेसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं, सुयना-णीणं, ओहिनाणीण मणपज्जव नाणीणं केवलनाणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखेज्ज
अनादि अपर्यवसित
अभव्य की अपेक्षा ।
अनादि सपर्यवसित
भव्य की अपेक्षा।
सादि सपर्यवसित
प्रतिपाति सम्यक्त्व की अपेक्षा । सादि सपर्यवसित
जघन्यतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग को. उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग अतीत और भविष्य को जानता देखता है।
उस काल अधिकतर,
खंड को उन भावों को अधिकतर, विपुलतर, विपुलतर, विशुद्धतर, उज्ज्वलतर विशुद्धतर. उज्ज्वलतर जानता देखता है जानता देखता है।
एक समय
एक समय
सादि सपर्यवसित की अपेक्षा
अंतर्मुहूर्त
एक समय
ज्ञानिनाम् अल्पबहुकत्व-पदम् एतेषां भदन्त ! जीवानाम् आभिनिबोधिकज्ञानिनां श्रुतज्ञानिनाम्, अवधिज्ञानिनां, मनः पर्यवज्ञानिनां केवलज्ञानिनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा?
गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः मनः पर्यवज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः असंख्येयगुणाः,
भाव
अनंत भावों को ही जानतादेखता है। सब भावों के अनंतवें भाग को ही जानतादेखता है।
उत्कृष्ट स्थिति
कुछ अधिक छासठ सागरोपम
भगवई
कुछ अधिक छासठ सागरोपम
देशोन पूर्वकोटि
सादि सपर्यवसित की
अपेक्षा अनंत काल
अनंत उत्सर्पिणी
अवसर्पिणी
देशोन पूर्व कोटि अधिक तैतीस सागरोपम
ज्ञानी का अल्प बहुत्व- पद २०५. भंते! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
गौतम! मनः पर्यवज्ञानी जीव सबसे अल्प, अवधिज्ञानी उनसे असंख्येय गुण अधिक,
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भगवई
गुणा, आभिणिबोहिय-नाणी सुयनाणी आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनः दो वि तुल्ला विसेसाहिया, केवलनाणी द्वावपि तुल्याः विशेषाधिकाः, केवलअणंत-गुणा॥
ज्ञानिनः अनन्तगुणाः।
श. ८ : उ. २ : सू. २०५-२०७ आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु अवधिज्ञानी से विशेषाधिक, केवलज्ञानी उनसे अनन्तगुण
२०६. भंते ! इन मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी विभंगज्ञानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहु. तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
२०६. एतेसि णं भंते ! जीवाणं मइअण्ण- एतेषां भदन्त ! जीवानां मति-अज्ञानिनां,
णीणं, सुयअण्णाणीणं, विभंगनाणीण श्रुत-अज्ञानिनां, विभंगज्ञानिनां च कतरे य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बया। कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? वा? विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा विभंग- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः विभंगज्ञानिनः, नाणी, मइअण्णाणी सुयअण्णाणी दो वि मति-अज्ञानिनः श्रुत-अज्ञानिनः द्वावपि तुल्ला अणंतगुणा।
तुल्याः अनन्तगुणाः।
गौतम ! विभंगज्ञानी जीव सबसे अल्प हैं। मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु विभंगज्ञानी से अनन्त गुण हैं।
२०७. भंते! इन आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी, विभंगज्ञानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
२०७. एतेसि णं भंते! जीवाणं एतेषां भदन्त ! जीवानाम् आभिनि- आभिणिबोहियनाणीणं सुयनाणीणं बोधिकज्ञानिनां श्रुतज्ञानिनां अवधिज्ञानिनां ओहिनाणीणं मणपज्जवनाणीणं ___ मनःपर्यवज्ञानिनां केवलज्ञानिनां मतिकेवलनाणीणं मतिअण्णाणीणं सुय- अज्ञानिनां श्रुतअज्ञानिनां विभंगज्ञानिनां च अण्णाणीणं विभंगनाणीण य कयरे कतरे कतेरभ्यः, अल्पाः वा ? बहुकाः वा? कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मण- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः मनःपर्यवपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखे- ज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनः असंख्येयगुणाः, ज्जगुणा, आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी आभिनिबोधिकज्ञानिनः, श्रुतज्ञानिनश्च य दो वि तुल्ला विसे-साहिया, द्वावपि तुल्याः विशेषाधिकाः, विभंगविभंगनाणी असंखेज्ज-गुणा, केवल- ज्ञानिनः असंख्येयगुणाः, केवलज्ञानिनः नाणी अणंतगुणा, मइअण्णाणी अनन्तगुणाः, मति-अज्ञानिनः श्रुतसुयअण्णाणी य दो वि तुल्ला अज्ञानिनश्च द्वावपि तुल्याः अनन्तगुणाः। अणंतगुणा॥
गौतम ! मनःपर्यवज्ञानी जीव सबसे अल्प, अवधिज्ञानी उनसे असंख्येय गुण अधिक, आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु अवधिज्ञानी से विशेषाधिक, विभंगज्ञानी उनसे असंख्येय गुण अधिक, केवलज्ञानी अनन्त गुण, मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी दोनों परस्पर तुल्य किंतु उनसे अनन्त गुण हैं।
भाष्य १. सूत्र २०५-२०७
सम्यकदर्शनी पंचेन्द्रिय जीवों में होता है। इसके अतिरिक्त मनःपर्यवज्ञान केवल ऋद्धि प्राप्त संयति के होता है इसलिए सास्वादन सम्यकदर्शन विकलेन्द्रिय (दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और मनःपर्यवज्ञानी अल्पसंख्यक हैं।'
चतुरिन्द्रिय) जीवों में भी होता है। अवधिज्ञान चारों गति के जीवों में होता है इसलिए अवधि
केवलज्ञानी इनसे अनंत गुणाधिक है। इसका हेतु यह है-सिद्ध ज्ञानी की संख्या मनःपर्यवज्ञानी से असंख्येयगुण अधिक है।
सर्व ज्ञानी जीवों से अनंतगुण अधिक होते हैं। आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों की सह व्याप्ति है केवल पंचेन्द्रिय जीव ही विभंगज्ञानी होते हैं, इसलिए इसलिए आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी परस्पर तुल्य तथा अल्पसंख्यक हैं। मति अज्ञानी और श्रुत अज्ञानी परस्पर तुल्य तथा अवधिज्ञानी की अपेक्षा विशेषाधिक होते हैं। मति और श्रुतज्ञान विभंगज्ञानी से अनंत गुण अधिक हैं।'
१. भ. वृ. ८/२०५.२०७-यस्माद् ऋद्धिप्राप्तादि संयतस्यैव तद्भवति। २. वही, ८/२०५-२९,७-अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु संतीति
तेभ्योऽसंख्येयगुणाः। ३. वही, ८/२०५-२०७-आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योन्यं तुल्याः अवधिज्ञानिभ्यस्तु विशेषाधिका यतस्तेऽवधिज्ञानिनोऽपि मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवधिमनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवध्यादिरहिता अपि
पंचेन्द्रिया भवन्ति सास्वादनसम्यग्दर्शनसद्भावे विकनेन्द्रियाऽपि च
श्रुतज्ञानिनो लभ्यन्त इति। ४. भ. वृ. ८/२०५-२०७- सिद्धानां सर्वज्ञानिभ्योनंतगुणत्वान्। ५. वही, ८/२०५-२०७-विभंगज्ञानिनः स्तोकाः यस्मान् पंचेन्द्रिया एव ते भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणाः मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति। तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः परस्परतश्च तुल्याः।
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श.८ : उ. २ : सू. २०८-२१४
७४
भगवई
नाणपज्जव-पदं २०८. केवतिया णं भंते! आभिणिबोहियनाणपज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता आभिणिबोहिया नाणपज्जवा पण्णत्ता।
ज्ञानपर्यव-पदम् कियन्तः भदन्त! आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः प्रज्ञप्ताः? गौतम! अनन्ताः आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः प्रज्ञप्ताः।
ज्ञानपर्यव-पद २०८. 'भंते! आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यव कितने प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यव अनन्त हैं।
२०९. भंते ! श्रुतज्ञान के पर्यव कितने प्रज्ञप्त
२०९. केवतिया णं भंते! सुयनाण- कियन्तः भदन्त ! श्रुतज्ञानपर्यवाः प्रज्ञसाः? पज्जवा पण्णत्ता? एवं चेव॥
एवं चैव।
गौतम ! श्रुतज्ञान के पर्यव अनन्त प्रज्ञप्त हैं।
२१०. एवं जाव केवलनाणस्स। एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स॥
एवं यावत् केवलज्ञानस्य। एवं मतिः अज्ञानस्य, श्रुत-अज्ञानस्य।
२१०. इसी प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान तथा मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान के पर्यव भी अनन्त प्रज्ञप्त हैं।
२११. केवतिया ण भंते! विभंगनाण- कियन्तः भदन्त! विभंगज्ञानपर्यवाः २११. भंते! विभंगज्ञान के पर्यव कितने पज्जवा पण्णत्ता? प्रज्ञप्साः?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! अणंता विभंगनाणपज्जवा गौतम! अनन्ताः विभंगज्ञानपर्यवाः गौतम ! विभंगज्ञान के पर्यव अनन्त प्रज्ञप्त पण्णत्ता।
प्रज्ञताः ।
ज्ञान पर्यवों का अल्प बहुत्व-पद २१२. भंते ! इन आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुत
ज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान के पर्यवों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
नाणपज्जवाणं अप्पाबइयत्त-पदं ज्ञानपर्यवाणाम् अल्पबहुकत्व-पदम् २१२. एतेसि णं भंते! आभिणि- एतेषां भदन्त! आभिनिबोधिकज्ञानबोहियनाणपज्जवाणं, सुयनाण-पज्ज- पर्यवाणां, श्रुतज्ञानपर्यवाणां, अवधिज्ञान- वाणं, ओहि-नाणपज्जवाणं, केवलन- पर्यवाणां, मनःपर्यवज्ञानपर्यवाणां, केवलगणपज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा ज्ञानपर्यवाणां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहया वा? तुल्ला वा? वा? बहकाः वा? तुल्याः वा? विसेसाहिया वा?
विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाण- गौतम! सर्वस्तोकाः मनःपर्यवज्ञानपर्यवाः, पज्जवा, ओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा, अवधिज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, श्रुतज्ञानसुयनाणपज्जवा अणंतगुणा, आभिणि- पर्यवाः अनन्तगुणाः, आभिनिबोधिकबोहियनाण-पज्जवा अणंतगुणा, ज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, केवलज्ञानपर्यवाः केवलनाण-पज्जवा अणंतगुणा॥ अनन्तगुणाः।
गौतम! मनःपर्यवज्ञान के पर्यव सबसे अल्प हैं। अवधिज्ञान के पर्यव उससे अनंतगुण हैं। श्रुतज्ञान के पर्यव उससे अनंतगुण, आभिनिबोधिकज्ञान के पर्यव उनसे अनंत- गुण, केवलज्ञान के पर्यव उनसे अनन्तगुण हैं।
२१३. भंते! इन मति अज्ञान, श्रुतअज्ञान
और विभंगज्ञान के पर्यवों में कौन किससे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
२१३. एएसि णं भंते! मइअण्णाणपज्ज- एतेषां भदन्त ! मति-अज्ञानपर्यवाणां, श्रुत- वाणं, सुयअण्णाणपज्जवाणं, विभंग- अज्ञानपर्यवाणां, विभंगज्ञानपर्यवाणां च नाणपज्जवाण य कयरे कयरेहिंतो कतरे कतरेभ्यः, अल्पाः वा ? बहुकाः वा? अप्पा वा? बहुया वा? तुल्ला वा? तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा विभंगनाण- गौतम! सर्वस्तोकाः विभंगज्ञानपर्यवाः, पज्जवा, सुयअण्णाणपज्जवा अणंत- श्रुत-अज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, मति- गुणा, मइ-अण्णाणपज्जवा अणंतगुणा॥ अज्ञान-पर्यवाः अनन्तगुणाः।
गौतम ! विभंगज्ञान के पर्यव सबसे अल्प हैं। श्रुत अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, मति अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण हैं।
२१४. एएसि णं भंते! आभिणि- एतेषां भदन्त ! आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणां बोहियनाणपज्जवाणं जाव केवल-नाण- यावत् केवलज्ञानपर्यवाणाम् मति-
२१४. भंते! इन मतिज्ञान पर्यवों यावत् केवलज्ञान के पर्यवों तथा मति अज्ञान,
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भगवई
श. ८ : उ. २ : सू. २१४,२१५ श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यवों में कौन किससे अल्प बहू, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं?
पज्जवाणं, मइअण्णाणपज्जवाणं, अज्ञानपर्यवाणां, श्रुत-अज्ञानपर्यवाणां, सुयअण्णाणपज्जवाणं, विभंगनाण- विभंगज्ञानपर्यवाणां च कतरे कतरेभ्यः पज्जवाण य कयरे कयरेहितो अप्पा अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः? वा? बहुया वा? तुल्ला वा? विशेषाधिकाः वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा मणपज्जवनाण- गौतम! सर्वस्तोकाः मनःपर्यवज्ञानपर्यवाः, पज्जवा, विभंगनाणपज्जवा अणंतगुणा, विभंगज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, अवधिओहिनाणपज्जवा अणंतगुणा, सुय- ज्ञानपर्यवाः अनन्तगुणाः, श्रुत-अज्ञानअण्णाणपज्जवा अणंतगुणा, सुयनाण- पर्यवाः अनन्तगुणाः, श्रुतज्ञानपर्यवाःपज्जवा विसेसाहिया, मइअण्णाण- विशेषाधिकाः, मति-अज्ञानपर्यवाः अनन्तपज्जवा अणंतगुणा, आभिणिबोहिय- गुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः नाण-पज्जवा विसेसाहिया, केवल- विशेषाधिकाः, केवलज्ञानपर्यवाः अनन्तनाणपज्जवा अणंतगुणा॥
गुणाः।
गौतम! मनःपर्यवज्ञान के पर्यव सबसे अल्प हैं। विभंगज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, अवधिज्ञान के पर्यव उनसे अनन्तगुण, श्रुत अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, श्रुतज्ञान के पर्यव उनसे विशेषाधिक, मति अज्ञान के पर्यव उनसे अनंतगुण, मतिज्ञान के पर्यव उनसे विशेषाधिक, केवलज्ञान के पर्यव उनसे अनन्तगुण हैं।
भाष्य
४३. सूत्र २०८-२१४
प्रस्तुत आलापक में ज्ञान के पर्यवों-विशेष धर्मों का प्रतिपादन किया गया है।
आभिनिबोधिक ज्ञान-यह सामान्य निर्देश है। उसका विकास सब आभिनिबोधिकज्ञानी जीवों में समान नहीं होता। अभयदेवसूरि ने क्षयोपशम की तरतमता के आधार पर पर्यवों को षट्स्थान पतित बतलाया है
१. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी अनन्त भाग वृद्धि से विशुद्ध। २. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी असंख्य भाग वृद्धि से विशुन्द्र। ३. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी संख्येय भाग वृद्धि से विशुद्ध। ४. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी संख्येय गुण वृद्धि से विशुद्ध। ५. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी असंख्येय गुण वृद्धि से विशुद्ध।
ज्ञानी अज्ञानी का अल्प बहुत्व
६. कोई आभिनिबोधिकज्ञानी अनंत गुण वृद्धि से विशुद्ध।'
अनंत पर्यव का दूसरा विकल्प आभिनिबोधिकज्ञान का ज्ञेय अनंत है और वह प्रत्येक ज्ञेय के प्रति भिन्न होता है इसलिए उसके पर्यव अनंत हैं।
अनंत पर्यव का तीसरा विकल्प-मतिज्ञान को अविभाग परिच्छेदों के द्वारा छिन्न करने पर उसके अनंत खण्ड हो जाते हैं। फलतः उसके अनंत पर्यव हैं।
यह प्रतिपादन स्वपर्याय की अपेक्षा से है। वृत्तिकार ने पर पर्याय की अपेक्षा से भी अनंत पर्यवों का प्रतिपादन किया है।
उसका आधार विशेषावश्यक भाष्य है। ज्ञानी- अज्ञानी और ज्ञान-अज्ञान के पर्यवों का अल्प बहत्व इस प्रकार है। देखें यंत्र
ज्ञान-अज्ञान के पर्यवों का अल्प-बहुत्व सबसे अल्प उनसे अनंत गुण
मनःपर्यवज्ञानी अवधिज्ञानी
मनःपर्यवज्ञान के पर्यव विभंगज्ञान के पर्यव
सबसे अल्प मनःपर्यवज्ञानी से असंख्येय गुण अधिक परस्पर तुल्य किन्तु अवधि ज्ञानी से विशेषाधिक उनसे असंख्येयगुण अधिक उनसे अनंत गुण
अवधिज्ञान के पर्यव
आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी | विभंगज्ञानी केवल ज्ञानी
उनसे अनंत गुण
श्रुत अज्ञान के पर्यव श्रुतज्ञान के पर्यव मति अज्ञान के पर्यव मतिज्ञान के पर्यव केवलज्ञान के पर्यव
उनसे अनंत गुण उनसे विशेषाधिक उनसे अनंत गुण उनसे विशेषाधिक उनसे अनंत गुण
मति अज्ञानी श्रुत अज्ञानी
परस्पर तुल्य किन्तु केवलज्ञानी से अनंत गुण अधिक
२१५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
२१५. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा
१. भ. वृ.८/२०८1 २. वही, ८/२०८-तज्ज्ञेयस्यानन्तत्वात प्रतिशेयं च तस्य भिद्यमानत्वात् अथवा मतिज्ञानमविभागपरिच्छदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनंतखंडं भवतीत्येवमनन्ता
स्तत्पर्यवाः। ३. वही, ८/२०८
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तइयो उद्देसो : तीसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
वनस्पति-पद २१६. भंते ! वृक्ष कितने प्रकार के प्रज्ञप्त हैं ?
वणस्सइ-पदं
वनस्पति-पदम् २१६. कतिविहा णं भंते! रुक्खा कतिविधा भदन्त ! रूक्षाः प्रज्ञसाः? पण्णता? गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तं गौतम ! त्रिविधाः रूक्षाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथाजहा-संखेज्जजीविया, असंखेज्ज- संख्येयजीविताः, असंख्येयजीविताः जीविया,अणंतजीविया॥
अनन्तजीविताः।
गौतम ! वृक्ष तीन प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसेसंख्येय जीव वाले. असंख्येय जीव वाले, अनंत जीव वाले।
२१७. से किं तं संखेज्जजीविया? संखेज्जजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाताल तमाले तक्कलि, तेयलि साले य सालकल्लाणे। सरले जावति केयइ, कंदलि तह चम्मरुक्खे य॥१॥ भुयरुक्ख हिंगुरुक्खे, लवंगरुक्खे य होति बोधव्वे । पूयफली
खज्जूरी, बोधव्वा नालिएरी य॥२॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। सेत्तं संखेज्जजीविया॥
अथ किं तत् संख्येयजीविताः ? संख्येय. २१७. भंते ! संख्येय जीव वाले वृक्ष कौनसे जीविताः अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा
ताल तमालः तक्कलि, गौतम ! संख्येय जीव वाले वृक्ष अनेक तेतलि सालौ च सालकल्याणः। प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ताल, तमाल, सरलः जावई केतकी, अरणी, तेतली, साल, साल-कल्याण, कन्दली तथा चर्मरुक्षश्च।।१।। चीड़, जावित्री, केवड़ा, कंदली तथा भुजरुक्षः हिंगरूक्षः, भोजपत्र, अखरोट, हींग का वृक्ष, लवंग लवङ्गरूक्षः च भवति बोधव्यः। वृक्ष, सुपारी, खजूर, नारियल। ये तथा इस पूगफली खजूरी, प्रकार के अन्य संख्येय जीविक वृक्ष हैं।
बोधव्याः नालिकेरी चा२।। ये यावदन्ये तथाप्रकाराः। ते तत् संख्येयजीविताः।
२१८. से किं तं असंखेज्जजीविया ?
असंखेज्जजीविया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा–एगट्ठिया य बहुबीयगा य॥
अथ किं तत् असंख्येयजीविताः? २१८. असंख्येय जीव वाले वृक्ष कौनसे हैं ? असंख्येयजीविताः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, असंख्येय जीव वाले वृक्ष दो प्रकार के प्रज्ञप्त तद्यथा-एकास्थिकाः च बहुबीजकाः च हैं, जैसे-एक अस्थि वाले, बहुबीज वाले।
२१९.से किं तं एगट्ठिया? एगट्ठिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहानिबंब जंबु कोसंब, साल अंकोल्ल पीलु सेलू य। सल्लइ मोयइ मालुय, बउय पलासे करंजे य॥१॥ पुत्तंजीवयरिटे, विभोलए हरडए य भल्लाए। उंबभरिया
खीरिणि, बोधब्वे धायइ पियाले॥२॥
अथ किं तत् एकास्थिकाः? एकास्थिकाः अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तयथानिम्बाम्रौ जम्बू कोशामः, सालः अंकोठः पीलुः सेलुश्च! सल्लकी मोचकी मालुकः, बकुलः पलाशः करुजश्च||१|| पुत्रंजीवकारिष्टौ, विभीतकः हरीतकी च भल्लातः। उंबभरिया
क्षीरिणी, बोधव्यः धातकी प्रियालः॥२॥
२१९. एक अस्थि वाले वृक्ष कौनसे हैं ? एक अस्थि वाले वृक्ष अनेक प्रकार के प्रजप्त हैं। जैसेनीम, आम, जामुन, कोसम, साल, ढेरा अंकोल, पीलू, लिसोड़ा, सलइ, शाल्मली, काली तुलसी, मौलसरी ढाक, कंटक करंज, जिया-पोता, रीठा, बेहड़ा, हरड़, भिलावा, वायविडंग, गंभीरी, धाय, चिरौंजी, पोई, महानीम-वकायन, निर्मली, सीसम, विजयसार, जायफल, सुलतान, चंपा, सेहूंड कायफल, अशोक।
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भगवई
श.८ : उ. ३ : सू. २१९,२२१ पूइयनिंबारग
सेण्हा, पोदकी निम्बारकः श्लक्ष्णकः, तह सीसवा य असणे य। तथा शिंशपाः चाशनं च। पुण्णाग नागरुक्खे, पुन्नागः
नागरुक्षः, सीवण्णि तहा असोगे य॥३॥ श्रीपर्णी तथा अशोकश्च॥३॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। एएसि णं ये यावदन्ये तथाप्रकाशः। एतेषां मूलान्यपि मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि असंख्येयजीवितानि, कन्दाः स्कन्धाः खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि। अपि त्वक् अपि, साला अपि प्रवालाः पत्ता पत्तेय-जीविया। पुप्फा अणेग- अपि। पत्राणि प्रत्येकजीवितानि। फलानि जीविया। फला एगट्ठिया। सेत्तं एकास्थिकानि। तत एतत् एकास्थिकाः। एगट्टिया॥
ये तथा इस प्रकार के अन्य असंख्येय जीविक वृक्ष एक अस्थिवाले हैं। इनके मूल भी असंख्येय जीव वाले हैं। स्कंध, त्वचा, शाखा और प्रवाल भी असंख्येय जीव वाले हैं। पत्र प्रत्येक जीव वाले हैं। पुष्प अनेक जीव वाले हैं। फल एक अस्थिवाले हैं। ये हैं-एक अस्थि वाले वृक्ष।
२२०. से किं तं बहुबीयगा?
अथ किं तत् बहुबीजकाः ? बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता, बहुबीजकाः अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, तं जहा
तयथाअत्थिय तिंदु कविढे, अस्थिकतिन्दुक कपित्था, अंबाडग माउलिंग बिल्ले य। आम्रातक मातुलिंगबिल्वाश्च। आमलग फणस दाडिम, आमलकपनसदाडिमाः, आसोत्थे उंबर वडे य॥१॥ अश्वत्थः उदुम्बरः वटश्च॥१॥ नग्गोह नंदिरुक्खे, न्यग्रोधः
नन्दिरुक्षः पिप्परि सयरी पिलुक्खरुक्खे य। पिप्पली शतावरी प्लक्षरूक्षश्च । काउंबरी
कुत्थंभरि, काकोदुम्बरिका कुस्तुम्भरी, बोधव्वा देवदाली य॥२॥ बोधव्या देवदाली च॥२॥ तिलए लउए छत्तोह, तिलकः लकुचः छत्रौघः, सिरीसे सत्तिवण्ण दहिवण्णे। शिरीषः सप्तपर्णः दधिपर्णः। लोद्ध धव चंदणज्जुण, लोधः धवः चन्दनार्जुनौ, नीमे कुडए कयंबे य॥३॥ नीमः कुटजः कदम्बश्च॥३॥ जे यावण्णे तहप्पगारा। एएसिणं ये चान्ये तथाप्रकारः। एतेषां मूलान्यपि मूला वि असंखेज्जजीविया, कंदा वि असंख्येयजीवितानि, कन्दाः अपि खंधा वि तया वि साला वि पवाला वि। स्कन्धाः अपि त्वक अपि साला अपि पत्ता पत्तेयजीविया। पुप्फा अणेग- प्रवालाः अपि। पत्राणि प्रत्येकजीवितानि। जीविया।
पुष्पाणि अनेकजीवितानि। फलानि फला बहुबीयगा। सेत्तं बहुबीयगा। सेत्तं बहुबीजकानि। तत् एतत् बहुबीजकाः। तत् असंखेज्जजीविया॥
एतत् असंख्येयजीविताः।
२२०. बहुबीज वाले वृक्ष कौनसे हैं?
बहुबीज वाले वृक्ष अनेक प्रकार के प्राप्त हैं, जैसेहडसंधारी-हृडजोड़ी, तेंदु-आबनूस, कैथ, आमड़ा, विजौरा, बेल, आंवला. कटहल्ल, अनार, पीपल, गूलर, बड़, खेजड़ी, तून, पीपर, शतावरी, पाकर, कटूमर, धनिया, धधर बेल, तिलिया, बडहर, गुण्डतृण, सिरस, छतिवन, कैथ, लोध, धौं, चंदन, अर्जुन, नीम, धाराकदम्ब, कुड़ा-कदम। ये तथा इस प्रकार के अन्य असंख्येय जीविक बहुबीज वाले हैं। इनके मूल भी असंख्येय जीव वाले हैं। कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा और प्रवाल भी असंख्येय जीव वाले हैं। पत्र प्रत्येक जीव वाले हैं। पुष्प अनेक जीव वाले हैं। फल बहुबीज वाले हैं। ये वृक्ष बहुबीज वाले जीव हैं। ये हैं असंख्येय जीव वाले वृक्ष।
२२१.से किं तं अणंतजीविया? अथ किं तत अनन्तजीविताः ?
२२१. अनंत जीव वाले वृक्ष कौनसे हैं? अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं अनन्तजीविताः अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, अनंत जीव वाले वृक्ष अनेक प्रकार के प्रज्ञप्त जहा-आलुए, मूलए, सिंगबेरे-एवं तद्यथा-आलुकः. मूलकः, शृंगबेरम्-एवं हैं, जैसे-आलू, मूली, अदरक, इसी प्रकार जहा-सत्तमसए जाव सिउंढी, मुसुंढी। यथा-सप्तमशते यावत् सिउण्ढी, मुषुण्ढी। सातवे शतक (भगवती ७/६६) में यावत् जे यावण्णे तहप्पगारा। सेत्तं ये चान्ये तथाप्रकारः। तत् एतत् योहर, काली मुसली। ये तथा इस प्रकार अणंतजीविया॥ अनन्तजीविताः।
के अन्य अनंत जीव वाले वृक्ष हैं। ये हैं भाष्य
अनंत जीव वाले वृक्ष। १. सूत्र २१६-२२१
ही उद्धृत है, ऐसा संक्षिप्त पाठ के अध्ययन से प्रतीत होता है। प्रस्तुत वनस्पति का प्रकरण प्रस्तुत आगम के अतिरिक्त प्रज्ञापना, आलापक के विवरण के लिए देखें वनस्पति कोष।' उत्तराध्ययन और जीवाजीवाभिगम में उपलब्ध है। प्रज्ञापना में यह शब्द विमर्श विषय विस्तार से वर्णित है। प्रस्तुत आगम में यह प्रकरण प्रज्ञापना से एकास्थिक-जिस फल में एक बीज होता है, वह एकास्थिक १. भ. वृ.८/१६-२१॥
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श. ८ : उ. ३ : सू. २२१
७८
भगवई
कहलाता है। अस्थि का अर्थ बीज अथवा गुठली हैं।
प्रस्तुत आगम में वनस्पति के संख्येयजीविक, असंख्येयजीविक बहुबीजक-जिस फल में बहुत बीज होते हैं, वह बहबीजक अथवा और अनंतजीविक-ये तीन भेद किए गए हैं। प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम अनेकास्थिक कहलाता है।
और उत्तराध्ययन में वनस्पति के मुख्य भेद दो किए गए हैं-प्रत्येक दशवैकालिक में बहुबीजक के अर्थ में बहु अठियं का प्रयोग शरीरी और साधारण शरीरी। देखें तालिकामिलता है।
(भगवती ८/२१६-२२१)
वनस्पति
संख्येयजीविक वृक्ष
असंख्येयजीविक वृक्ष
अनंतजीविक वृक्ष
एक अस्थि वाले
बहुबीज वाले
(प्रज्ञापना १/३३-४७)
वनस्पति
प्रत्येक वनस्पति
साधारण वनस्पति
साधारण वनस्पति
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
११
१२
वृक्ष
गुच्छ गुल्म
लता
वल्ली पर्वज
तृण
वलय
हरित
औषधि जलरुह कुहण
एक अस्थि वाले
बहुबीज वाले
(उत्तराध्ययन ३६/९३-९९)
वनस्पति
प्रत्येक वनस्पति
साधारण वनस्पति
वृक्ष
गुच्छ
गुल्म
लता
पर्वज
कुहुण जलरुह औषधि हरित
वल्ली तृण लता-वलय (जीवाजीवाभिगम १/६८-७२)
वनस्पति
प्रत्येक वनस्पति
साधारण वनस्पति
वृक्ष
गुच्छ गुल्म लंता वल्ली पर्वज तृण
वलय
हरित
औषधि जलरुह कुहण
बहबीज वाले
एक अस्थि वाले १. दसवे. ५३
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भगवई
श.८: उ. ३ : सू. २२२,२२३
जीविक
वाले
गूलर,
भगवती
प्रज्ञापना
जीवाजीवाभिगम |संख्येय
संख्यय | असंख्येय जीविक
असंख्येय जीविक संख्येयजीविक वृक्ष
असंख्येयजीविक वृक्ष जीविक एक अस्थिवाले बहुबीज वाले एक अस्थि बहुबीज वलय एक अस्थि बहुबीज वलय
वाले वनस्पति वाले वाले वनस्पति ताल, तमाल, अरणी नीम, आम, जामुन, हडसंधारी, हड़जोड़ी नीम हड़संधारी ताल- | नीम, आम | हड़संधारी ततली, साल, कोसम, साल ढेरा तेंदू, आबनूस, कैथ, आम हड़जोड़ी तमाल | जामुन, हड़जोड़ी प्रज्ञापनावत् सालकल्याण | अंकोल, पीलू, लिसोड़ा, आमड़ा, बिजौरा, यावत् यावत् अरणी | कोसम | तेंदू, चीड़,जावित्री,केवड़ा, सलइ, शाल्मली. बेल, आंवला, कायफल कुड़ा | यावत् | साल, कंदली, भोजपत्र, काली तुलसी, मौलसिरी, कटहल, अनार, अशोक |कदम | खजूर | ढेरा, अखरोट, हींग, ढाक, कंटक, करंज पीपल, गुलर बड़
नारियल अंकोल, आंवला, लवंग, सुपारी, | जियापोता, रीठा, बेहड़ा | खेजरी, तून, पीपर, भगवती भगवती भगवती | पीलू, | कटहल, खजूर, नारियल, | हरड़, मिलावा, कायविडंग| शतावरी, पाकर, |सूत्रवत् सूत्रवत् सूत्रवत् | लिसोड़ा, | अनार, गंभीरी, धाय कठूमर, धनिया,
खेजड़ी, चिरौजी, पोई घघरबेल, तिलिया,
प्रज्ञापनावत् कठूमर, महानीम-वकायन, बड़हर, गुण्डतृण
जायफल, तिलिया, निर्मली, सीसम, सिरस, घतिवन
सेहुंड, |
बड़हर विजयसार, जायफल, कैथ, लौय धौं,
कायफल, लोध, धौं सुलतान, चंपा, सेहुंड चंदन, अर्जुन,
अशोक कायफल, अशोक। धाराकदंब,
कुडाकदम
अनंतजीविक वनस्पति के लिए देखें भगवई ७/६६ का भाष्य। जीवपएसाणं-अंतर-पदं जीवप्रदेशानाम्-अन्तर-पदम्
जीव प्रदेशों का अन्तर-पद २२२. अह भंते! कुम्मे, कुम्मा-वलिया, अथ भदन्त ! कूर्मः, कूर्मावलिका, गोधा, २२२. 'भंते! कछुआ, कच्छुए की गोहा, गोहावलिया, गोणा, गोणा- गोधावलिका, गोणा, गोणावलिका, आवलिका, गोह, गोह की आवलिका, वलिया, मणुस्से मणुस्सावलिया, मनुष्यः, मनुष्यावलिका, महिषः, बैल, बैल की आवलिका, मनुष्य, मनुष्य महिसे, महिसा-वलिया-एएसि णं दुहा महिषावलिका-एतेषां द्विधा वा त्रिधा वा की आवलिका, भैंसा, भैंसे की वा तिहा वा संखेज्जहा वा छिन्नाणं जे संख्येयधा वा छिन्नानां ये अन्तरा ते अपि तैः आवलिका-इन जीवों के शरीर के दो, अंतरा ते विणं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा? जीवप्रदेशः स्पृष्टाः ?
तीन अथवा संख्येय खण्डों में छिन्न हो जाने पर जो अंतराल होता है. क्या वह
उन जीव-प्रदेशों से स्पृष्ट होता है? हंता फुडा॥ हन्त! स्पृष्टाः।
हां, स्पृष्ट होता है।
२२३. पुरिसे णं भंते! अंतरे हत्थेण वा पुरुषः भदन्त ! अन्तरं हस्तेन वा पादेन वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा अंगुलिकया वा शलाकया वा काष्ठेन वा कटेण वा किलिंचेण वा आमुसमाणे वा किलिंचेन वा आमृशन् वा संमृशन् वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा आलिखन् वा विलिखन् वा अन्यतरेण वा विलिहमाणे वा अण्णयरेण वा तिक्खेणं तीक्ष्णेण शस्त्रजातेन आछिन्दन् वा सत्थजाएणं आछिंदमाणे वा विछिंदमाणे विछिन्दन् वा अग्निकायेन वा समदह्यमानः वा, अगणिकाएण वा समोडहमाणे तेसिं तेषां जीवप्रदेशानां किंचित् आबाधां वा जीवपएसाणं किंचि आबाहं वा विबाहं विबाधां वा उत्पादयति? छविच्छेदं वा वा उप्पाएइ? छविच्छेद वा करेइ?
करोति?
२२३. भंते! कोई पुरुष जीव के छिन्न अवयवों के अंतराल का हाथ, पैर अथवा अंगुली से तथा शलाका, काष्ठ अथवा खपाची से स्पर्श, संस्पर्श आलेखन, विलेखन करता है अथवा किसी अन्य तीखे शस्त्र से उसका आच्छेदन विच्छेदन करता है अथवा अग्नि से उसको जलाता है। क्या ऐसा करता हुआ वह उन जीव-प्रदेशों के लिए किञ्चित् आबाधा अथवा विशिष्ट बाधा उत्पन्न
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श.८ : उ. ३ : सू. २२३,२२७
भगवई
करता है अथवा उनका छविच्छेद करता
णो तिणद्वे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं नो अयमर्थः समर्थः, नो खलु तत्र शस्त्रं यह अर्थ संगत नहीं है, उस अन्तर में शस्त्र कमइ॥ क्राम्यति॥
का संक्रमण नहीं होता।
भाष्य १. सूत्र २२२-२२३
दो या अधिक खण्डों में जो प्रकंपन होता है, उसका हेतु जीव प्रदेशों का ___ कूर्म आदि प्राणियों के शरीर के दो या अनेक खण्ड कर देने पर विस्तार है। मूल शरीरस्थित जीव से उन प्रदेशों की संलग्नता या उन सबमें स्पंदन होता है। उसके आधार पर जिज्ञासा की गई है क्या निरन्तरता बनी रहती है। शरीर के छिन्न खण्डों में जीव-प्रदेश का स्पर्श होता है ? इसका उत्तर वे जीव-प्रदेश सूक्ष्मतम हैं। उनसे जुड़ा हुआ कर्मशरीर सूक्ष्मतर स्वीकार में दिया गया है। इसका आधार है जीव का संकोच- है और तैजसशरीर सूक्ष्म है। इसलिए अंतरालवर्ती जीव-प्रदेश को विस्तारात्मक स्वभाव।' संकुचित होना और फैलना-ये दोनों किसी भी स्थूल वस्तु से आबाधा-विबाधा नहीं होती। क्रियाएं जीव-प्रदेशों में होती हैं। समुद्घात का सिन्द्रांत संकोच और अनुयोगद्वार में परमाणु के विषय में भी इसी प्रकार का वर्णन विस्तार का सिद्धांत है। समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश बाहर उपलबध है।' फैलते हैं और उसकी संपन्नता पर फिर सिमट कर जीवस्थ हो जाते हैं। चरिम-अचरिम-पदं चरिम-अचरिम पदं
चरम-अचरम-पद २२४. कइ णं भंते! पुढवीओ पण्णत्ताओ? कति भदन्त ! पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः?
२२४. 'भंते! पृथ्वियां कितनी प्रज्ञस है? गोयमा! अट्ठ पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं गौतम! अष्ट पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- गौतम! पृथ्वियां आठ प्रज्ञप्त हैं जैसेजहा-रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा, रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमा, ईषत्प्रारभारा। रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तमी और ईसीपब्भारा॥
इषतप्रारभारा।
२२५. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा? अचरिमा? चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव
इयं भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी किं चरमा? अचरमा? चरमपदं निरवशेषं भणितव्यम् यावत्
२२५. भंते ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या चरम है ? अथवा अचरम है? यहां प्रज्ञापना का चरम पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत्
२२६. वेमाणिया णं भंते! फासचरिमेणं किं चरिमा? अचरिमा? गोयमा! चरिमा वि, अचरिमा वि॥
वैमानिकाः भदन्त! स्पर्शचरमेण किं चरमाः? अचरमाः? गौतम ! चरमा अपि, अचरमा अपि।
२२६. भंते! वैमानिक देव स्पर्शचरम से क्या
चरम है अथवा अचरम है? गौतम ! चरम भी हैं, अचरम भी है।
भाष्य १.सूत्र २२४-२२६
इसका विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना के दसवें पद में है। रत्नप्रभा पृथ्वी के प्रस्तुत आलापक में चरम और अचरम का प्रतिपादन किया मध्य में अन्य पृथ्वी नहीं है इसलिए वह चरम नहीं हैं। उसके बाहरी गया है। ये दोनों शब्द सापेक्ष हैं। पर्यन्तवर्ती के अर्थ में चरम और भाग में अन्य पृथ्वी नहीं है इसलिए वह अचरम भी नहीं है।' मध्यवर्ती के अर्थ में अचरम का प्रयोग किया गया है।
विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना का दसवां पद। चरम अचरम का सूत्र यहां प्रज्ञापना से उद्धृत प्रतीत होता है। २२७. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।। २२७. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा
ही है।
१.त. भा. वृ.५/१६-प्रदेश संहार विसर्गाभ्यां प्रदीपवत्। २. अणु. सू. ३९६-३९८॥ ३. भ. वृ.८.२२४-२२६-चरमं नाम प्रान्तं पर्यन्तवर्ति आपेक्षिकं च चरमत्वं, यदुक्तम-'अन्य द्रव्यापेक्षयेदं चरमं द्रव्यमिति यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमशरीर- मिति, तथा अचरमं नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, आपेक्षिक चाचरमत्वं, यदुक्तम-अन्यद्रव्यापेक्षयेदमचरमं द्रव्यं यथाऽन्त्यशरीरापेक्षया
मध्यशरीरमिति। ४. वही, ८/२२४-२२४-यदि हि रत्नप्रभाया मध्येन्या पृथिवी स्यानदा तस्याश्चमरत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्न चरमासी तथा यदि तस्या बाद्यतोन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्या अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमासाविति।
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चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
किरिया-पदं २२८. रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ?
क्रिया-पदं राजगृहे यावत् एवमवादीत-कति भदन्त! क्रियाः प्रज्ञप्ताः?
गोयमा! पंच किरियाओ पण्णत्ता-ओ, गौतम! पञ्च क्रियाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- तं जहा-काइया, अहिगरणिया, कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पाओसिया, पारियाव-णिया, पाणाइ- पारितापनिकी, प्राणातिपातक्रिया-एवं वायकिरिया-एवं किरियापदं निरवसेसं क्रियापदं निरवशेष भणितव्यं यावत् भाणियव्वं जाव सव्वत्थोवाओ सर्वस्तोकाः मिथ्यादर्शनप्रत्ययाः क्रियाः, मिच्छादसण-वत्तियाओ किरियाओ, अप्रत्याख्यानक्रियाः विशेषाधिकाः, अप्पच्चक्खाणकिरियाओ विसेसा- पारिगहिक्यः क्रियाः विशेषाधिकाः, हियाओ, पारिग्गहियाओ किरियाओ आरम्भिकाः क्रियाः विशेषाधिकाः, विसेसाहियाओ, आरंभियाओ किरि- मायाप्रत्ययाः क्रियाः विशेषाधिकाः। याओ विसेसाहियाओ, मायावत्तियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ।।
क्रिया-पद २२८. 'राजगृह नगर में समवसरण यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते ! क्रियाएं कितनी प्रजप्त हैं? गौतम! क्रियाएं पांच प्रज्ञप्स हैं, जैसेकायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी, पारितापनिकी, प्राणातिपात क्रिया-इस प्रकार प्रज्ञापना का क्रिया-पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है। यावत् मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया सबसे अल्प है। अप्रत्याख्यान क्रिया उससे विशेषाधिक है। पारिग्रहिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है। आरंभिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है। मायाप्रत्ययिकी क्रिया उससे विशेषाधिक है।
भाष्य १.सूत्र २२८
इन तीनों प्रकार के जीवों में होती है इसलिए वह अप्रत्याख्यान क्रिया प्रस्तुत क्रियापद प्रज्ञापना (बाईसवां पद) से उद्धृत प्रतीत से विशेषाधिक है। आरंभिकी क्रिया मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यगृदृष्टि, होता है। क्रिया की जानकारी के लिए द्रष्टव्य है भगवई (३/१३४. देशविरत और प्रमत्त संयत-इन चारों जीवों में होती है इसलिए वह १३८) का भाष्य। पांच क्रियाओं का अल्प बहुत्व सापेक्ष दृष्टि से है। पारिग्राहिकी क्रिया से विशेषाधिक है। माया-प्रत्यया क्रिया मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया केवल मिध्यादृष्टि जीवों में ही होती है। मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत प्रमत्त संयत और अप्रमत्त अप्रत्याख्यान क्रिया मिथ्यादृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि-इन दोनों संयत-इन पांचों जीवों में होती है इसलिए वह आरंभिकी क्रिया से जीवों में होती है इसलिए वह मिथ्यादृष्टिप्रत्यया से विशेषाधिक है। विशेषाधिक है।' पारिग्रहिकी क्रिया मिथ्यादृष्टि, अविरत सम्यग्दृष्टि और देशविरत२२९. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।। २२२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा
१. भ. वृ.८/२२८
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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
आजीवियसंदब्भे समणोवासय-पदं आजीविकसंदर्भ श्रमणोपासक-पदम् आजीवक के संदर्भ में श्रमणोपासक-पद २३०. रायगिहे जाव एवं वयासी- राजगृहे यावत् एवमवादीत्-आजीविकाः २३०. 'राजगृह नगर में समवसरण यावत्
आजीविया णं भंते! थेरे भगवंते एवं भदन्त ! स्थविरान् भगवतः एवमवादिषुः- गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते ! वयासी-समणोवासगस्स णं भंते! श्रमणोपासकस्य भदन्त ! सामायिककृतस्य आजीवकों ने भगवान स्थविरों से इस सामाइयकडस्स समणो-वस्सए श्रमणोपाश्रये आसीनस्य कोऽपि भाण्डं प्रकार कहाअच्छमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा, से अपहरेत्, सः भदन्त! तत् भाण्ड भंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के णं भंते! तं भंड अणुगवेसमाणे किं सभंडं । अनुगवेषयन् किं स्वभाण्डं अनुगवेषयति? उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर अणु-गवेसइ? परायगं भंडं अणुग- परकं भाण्डं अनुगवेषयति?
रहा है। उस समय कोई पुरुष उसके वेसइ?
भाण्ड, वस्त्र आदि वस्तु का अपहरण कर लेता है, भंते! सामायिक पूर्ण होने के पश्चात् श्रमणोपासक उस भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है तो क्या अपने भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है अथवा
पराए भाण्ड की अनुगवेषणा कर रहा है? गोयमा! सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं गौतम ! स्वभाण्डम् अनुगवेषयति, नो परकं गौतम ! वह अपने भाण्ड की अनुगवेषणा भंडं अणुगवेसइ॥ भाण्डम् अनुगवेषयति।
करता है, पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता।
२३१. तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण-
वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवइ?
तस्य भदन्त! तैः शीलवत-गुणविरमण- प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः तद् भाण्डम् अभाण्डं भवति?
२३१. भंते! श्रमणोपासक शीलव्रत, गुणविरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास की आराधना करता है। क्या उसका भाण्ड अभाण्ड हो जाता है, पराया हो जाता है? हां, उसका भाण्ड अभाण्ड बन जाता है।
हंता भवइ।
हन्त भवति।
२३२. से केणं खाइ णं अटेणं भंते! एवं वुच्चइ-सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंड अणुगवेसइ?
तत् केन 'खाइ' अर्थेन भदन्त! एवमुच्यते-स्वभाण्ड अनुगवेषयति, नो परकं भाण्ड अनुगवेषयति?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-नो मे गौतम! तस्य एवं भवति-नो मे हिरण्यम्, नो हिरण्णे, नो मे सुवण्णे, नो मे कंसे, नो मे मे सुवर्णम्, नो मे कांस्यम्, नो मे दृष्यम्, नो दूसे, नो मे विपुलधण-कणग-रयण- मे विपुलधन-कनक-रत्न-मणि-मौक्तिकमणि - मोत्तिय - संख - सिलप्प - वाल- शंख - शिला - प्रवाल - रक्तरत्नादिके रत्तरयणमादीए संतसार-सावदेज्जे, सत्सार- स्वापतेये ममत्वभावः, पुनः तस्य
२३२. भंते! यह कैसे कहा जा सकता है
श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है, पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता? गौतम! उसका ऐसा संकल्प होता हैहिरण्य मेरा नहीं है, सुवर्ण मेरा नहीं है, कांस्य मेरा नहीं है, दृष्य (वस्त्र) मेरा नहीं है, विपुल धन, सोना, रत्न, मणि, मोती, शंख, मैनसिन, प्रवाल, रक्त-रत्न आदि
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भगवई
८३
श.८ : उ.५ : सू. २३२,२३५
ममत्तभावे पुण से अपरिण्णाए भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सभंडं अणुगवेसइ, नो परायगं भंडं अणुगवेसइ॥
अपरिज्ञातः भवति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते स्वभाण्डं अनुगवेषयति, नो परकं भाण्डम् अनुगवेषयति।
प्रवर सार-वर्ण का वैभव मेरा नहीं है, फिर भी उसका ममत्व भाव अपरिज्ञात होता है. प्रत्याख्यात नहीं होता। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-श्रमणोपासक अपने भाण्ड की अनुगवेषणा करता है,पराए भाण्ड की अनुगवेषणा नहीं करता।
२३३. समणोवासगस्स णं भंते! श्रमणोपासकस्य भदन्त ! सामायिककृतस्य २३३. भंते! कोई श्रमणोपासक श्रमणों के
सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छ- श्रमणोपाश्रये आसीनस्य कोऽपि जायां उपाश्रय में आसीन होकर सामायिक कर माणस्स केइ जायं चरेज्जा, से णं भंते! चरेत्, सः भदन्त! किं जायां चरति ? रहा है। उस समय कोई पुरुष उसकी किं जायं चरइ? अजायं चरइ? अजायां चरति?
जाया (भार्या) का सेवन करता है? तो क्या वह उसकी जाया का सेवन करता है। अथवा अजाया (अभार्या) का सेवन
करता है? गोयमा! जायं चरइ, नो अजायं चरइ॥ गौतम! जायां चरति, नो अजायां चरति।। गौतम! वह श्रमणोपासक की जाया का
सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता।
२३४. तस्स णं भंते! तेहिं सीलव्वय-गुण- वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ? हंता भवइ॥
तस्य भदन्त ! तैः शीलवत-गुण-विरमण- प्रत्याख्यान-पौषधोपवासैः सा जाया अजाया भवति? हन्त भवति।
२३४. भंते! वह श्रमणोपासक शीलव्रत, गुण-विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास की आराधना करता है, क्या उसकी जाया अजाया हो जाती है ? हां, उसकी जाया अजाया हो जाती है।
२३५. से केणं खाइ णं अटेणं भंते एवं वुच्चइ-जायं चरइ? नो अजायं चरइ?
तत् केन 'वाई' अर्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-जायां चरति ? नो अजायां चरति?
गोयमा! तस्सणं एवं भवइ-नो मे माता, गौतम ! तस्य एवं भवति-नो मे माता, नो मे नो मे पिता, नो मे भाया, नो मे भगिणी, पिता, नो मे भ्राता, नो मे भगिनी, नो मे नो मे भज्जा, नो मे पुत्ता, नो मे धूया, नो भार्या, नो मे पुत्राः, नो मे दुहिता, नो मे मे सुण्हा; पेज्जबंधणे पुण से स्नुषा, प्रेयोबन्धनं पुनः तस्य अव्यवच्छिन्नं अव्वोच्छिन्ने भवइ। से तेणद्वेणं गोयमा! भवति। तत् तेनार्थेन । गौतम! एवम् उच्यतेएवं वुच्चइ-जायं चरइ, नो अजायं जायां चरति, नो अजायां चरति। चरइ॥
२३५. भंते! यह कैसे कहा जा सकता हैकोई पुरुष श्रमणोपासक की जाया का सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता? गौतम! उसका ऐसा संकल्प होता है-माता मेरी नहीं है, पिता मेरा नहीं है, भाई मेरा नहीं है, बहिन मेरी नहीं है, भार्या मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं हैं. पुत्री मेरी नहीं है, वधू मेरी नहीं है, फिर भी उसका प्रेयस बंधन विच्छिन्न नहीं होता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष श्रमणोपासक की जाया का सेवन करता है, अजाया का सेवन नहीं करता।
भाष्य १.सूत्र २३०-२३५
मिलता है - भगवान महावीर के समय में श्रमणों के अनेक संप्रदाय थे। १. निग्रंथ, २. शाक्य, ३. तापस, ४. गैरिक-परिव्राजक, ५. उत्तरकालीन साहित्य में केवल पांच श्रमण संप्रदायों का उल्लेख आजीवक। १. (क) नि. भा. गा. ४४२०-निग्गंथसक्कनावसगेरुयआजीव पंचहा समणा। (ख) प्र. सा. गा. ७३१-७३३।
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श.८ : उ. ५ : सू. २३६
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भगवई
आजीवक संप्रदाय महावीर के काल में बहुत शक्तिशाली था। की चेतना जागृत होती है। इस ममत्व चेतना के आधार पर ही निग्रंथ और आजीवकों के पारस्परिक मिलन के अनेक प्रसंग आगम महावीर ने कहा-सामायिक में चुराए गए उपकरण की अनुगवेषणा
और उसके व्याख्या साहित्य में उपलब्ध हैं।' प्रस्तुत प्रसंग उसी करने वाला अपने उपकरण की अनुगवेषणा करता है, किसी दूसरे के शृंखला की एक कड़ी है। आजीवक संप्रदाय के कुछ व्यक्ति स्थविरों उपकरण की अनुगवेषणा नहीं करता। से मिले और उनके सामने अपने प्रश्न प्रस्तुत किए।
अभयदेवसूरि ने ममत्व और अनुमोदन की एकरूपता बतलाई आजीवक के शिष्य साधु थे अथवा गृहस्थ-इसका स्पष्ट है। उनका वक्तव्य है-अनुमोदन का प्रत्याख्यान नहीं होता इसलिए निर्देश नहीं है। स्थविरों का भी नाम निर्देश नहीं है। स्थविरों ने उत्तर सामायिक में चुराया गया उपकरण उसी का है, किसी दूसरे का दिए अथवा नहीं, इसका भी कोई निर्देश नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में नहीं। गौतम महावीर के सामने आजीवकों द्वारा पूछे गए प्रश्न रख रहे हैं जयाचार्य ने भिक्षु स्वामी को उद्धृत करते हए सामाथिक में
और भगवान महावीर उनका समाधान कर रहे हैं। इसका पूरा विवरण किए जाने वाले प्रत्याख्यान की तीन कोटियां बतलाई हैलिपि काल में संक्षिप्त किया गया अथवा किसी कारणवश त्रुटित हो १. छह कोटि-करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। गया. यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
__ कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। आजीवकों द्वारा पूछे गए प्रश्न का संबंध सामायिक की २. आठ कोटि-करूंगा नहीं मन से. वचन से, काया से। अवस्था से है। सामायिक काल में श्रमणोपासक अपने उपकरणों का
कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। परित्याग करता है फिर भी वे उपकरण उसी के रहते हैं। इन दोनों
अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से। क्रियाओं को अनेकांत दृष्टि से समझाया गया है। श्रमणोपासक ने २. नव कोटि-करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। सामायिक में उपकरणों का त्याग कर दिया, इस दृष्टि से वे उपकरण
__ कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। उसके नहीं रहे किन्तु उनके प्रति उसका ममत्व अपरित्यक्त है, इस
अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से. काया से। अपेक्षा से वे उपकरण उस श्रमणोपासक के हैं। इस उत्तर से दो तथ्य इन तीनों विकल्पों में भी ममत्व अथवा अनुमोदना का सर्वथा फलित होते हैं
परित्याग नहीं होता। १. वस्तु पर स्वामित्व।
जयाचार्य ने आगम साक्ष्य से प्रमाणित किया है कि सामायिक २. वस्तु के प्रति ममत्व की चेतना।
में आत्मा अधिकरण होती है इसलिए उसके सर्वथा त्याग नहीं श्रमणोपासक सामायिक काल में स्वामित्व का परित्याग होता। करता है। सूत्रकार ने उसका स्पष्ट निर्देश किया है-'हिरण्य मेरा नहीं दूसरा प्रश्न जाया (पत्नी) के विषय में है। सामायिक काल में है. स्वर्ण मेरा नहीं है आदि आदि। यह वस्तु के प्रति स्वामित्व की जाया अजाया नहीं होती। वह सामायिक काल में संकल्प करता चेतना का परिवर्तन है और सावधिक है। सामायिक का काल सम्पन्न है-माता मेरी नहीं है, पिता मेरा नहीं है, भाई मेरा नहीं है, फिर भी प्रेम होने पर उन पर स्वामित्व की चेतना फिर प्रारंभ हो जाती है। ममत्व का बंधन व्युच्छिन्न नहीं होता इसलिए जाया अजाया नहीं होती। का सूत्र सामायिक में भी अविच्छिन्न रहता है इसलिए पुनः स्वामित्व २३६. समणोवासगस्स णं भंते! पुवामेव श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव स्थूलः २३६. भंते! श्रमणोपासक के स्थूल थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ, प्राणातिपातः अप्रत्याख्यातः भवति, सः प्राणातिपात का पहले प्रत्याख्यान नहीं से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं भदन्त ! पश्चात् प्रत्याख्यान किं करोति? होता। भंते! फिर वह उसका प्रत्याख्यान करेइ?
करता हुआ क्या करता है? गोयमा! तीयं पडिक्कमति, पड़प्पन्नं गौतम! अतीतं प्रतिक्रामति, प्रत्युत्पन्न गौतम! वह अतीत का प्रतिक्रमण, वर्तमान संवरेति, अणागयं पच्चक्खाति॥ संवृणोति, अनागतं प्रत्याख्याति।
का संवरण और अनागत का प्रत्याख्यान
करता है। १.(क) सूप.२.६.१-५५/
काल अतीत तणी हिंसा प्रतै, न कर मन करि एम। (ख) भ. १५.१०१-११५॥
न करावै अनुमोदै न मन करी विहुँ निवर्ने नेम॥ २. भ. वृ. ८२३२-परिग्रहादिविषये मनोवाक्कायानां करणकारणे तेन ४. वहीं, २/१४१/२९-३२ प्रत्याख्याते ममत्वभावः पुनः हिरण्यादिविषये ममतापरिणामः पुनः
इम न करै हिंसा वचन करी, हा मुझ हणियो एण! अपरिज्ञातः अप्रत्याख्यातो भवति अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् ममत्वभावस्य
तिण दिन मैं इण. हणियो नहीं, इम बोल्यां थी नेण।। चानुमतिरूपत्वादिति।
करावे वच करि हिंसा प्रते, हा निण हणियो मोय। ३.भ.जा.२, १४१/२६-२८
अन्य पास तस म्है न हणावियो, इम बोल्यां थी सोय।। करता प्रति जे अनुमोदे नहीं. उपलक्षण थी आम।
वध प्रति अनुमोदै नहिं वच थकी, अतीत हिंसा प्रतेह। करावता प्रति अनुमोदै नहीं, अनुमोदता प्रति आम।।
अनुमोदै ते सरावै वध करी, रूड़ो हणियो एह ।। वध पर-कृत अथवा आतम कियो, अनुमोदै जहि जेह।
काय करी न करै नहिं करावै, अनुमोदै नहिं काय। मन कर वध चिंतवै करि तसुं अनुमोदन थी तेह॥
अंग विशेष तथाविध करण थी अनीत काल कृत ताय।।
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भगवई
२३७. तीयं पडिक्कममाणे किं ? १. तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति २. तिविहं दुविहेणं पडिक्कमति ? ३. तिविहं एगविहेणं पडिक्क मति ? ४. दुविहं तिविहेणं पडिक्क-मति ? ५. दुविहं दुव पडिक्क-मर्ति ? ६. दुविहं एगविहेणं पडिक्क-मति ? ७. एगविहे तिविहेणं पडिक्कमति ? ८. एगविहं दुविहेणं पडिक्कमति ? ९. एगविहं एगविणं पडिक्कमति ?
गोयमा ! तिविहं वा तिविहेणं पडिक्कमति, तिविहं वा दुविहेणं पडिक्कमति, एवं चेव जाव एगविहं वा एगविणं पडिक्कमति । १. तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ, करेंत नाणुजाणइ मणसा वयसा
कायसा ।
२. तिविहं दुविणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारखेड, करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा ३. अहवा न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा ४. अहवा न करेइ, न कारवेइ, करें नाणुजाण वयसा कायसा । ५. तिविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारखेड, करेंतं नाणुजाणइ मणसा ६. अहवा न करेड़, न कारवेइ, करेंतं नाणु - जाणइ वयसा ७. अहवा न करेइ, न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ कायसा । ८. दुविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ मणसा वयसा कायसा ९. अहवा न करेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा १०. अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा । ११. दुविहं दुविणं पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ, मणसा वयसा १२. अहवा न करेइ, न कारवेइ मणसा कायसा १३. अहवान करेड़, न कारवेइ वयसा कायसा १४. अहवा न करेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा १५. अहवा न करेड़, करेंतं नाणुजाणइ मणसा
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अतीतं प्रतिक्रामन् किम् ? १. त्रिविधं त्रिविधेन प्रतिक्रामति २. त्रिविधं द्विविधेन प्रतिक्रामति ? ३. त्रिविधम् एकविधेन प्रतिक्रामति ? ४. द्विविधं त्रिविधेन प्रतिक्रामति ५. द्विविधं द्विविधेन प्रतिक्रामति ? ६. द्विविधम् एकविधेन प्रतिक्रामति ? ७ एकविधं त्रिविधेन प्रतिक्रामति ? ८. एकविधं द्विविधेन प्रतिक्रामति ९ एकविधम् एकविधेन प्रतिकामति ?
गौतम ! त्रिविधं वा त्रिविधेन प्रतिक्रामति, त्रिविधं वा द्विविधेन प्रतिक्रामति, एवं चैव यावत् एकविधं वा एकविधेन प्रतिक्रामति । १. त्रिविधं त्रिविधेन प्रतिक्रामन् न करोति, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा कायेन । २. त्रिविधं द्विविधेन प्रतिक्रामन् न करोति, न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा ३. अथवा न करोति, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा कायेन ४. अथवा न करोति, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति वचसा कायेन । ५. त्रिविधम् एकविधेन प्रतिक्रामन् न करोति, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा ६. अथवा न करोति, न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति वचसा ७. अथवा न करोति, न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन ८. द्विविधं त्रिविधेन प्रतिक्रामन् न करोति, न कारयति मनसा वचसा, कायेन, ९. अथवा न करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा कायेन १०. अथवा न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा कायेन । ११. द्विविधं द्विविधेन प्रतिक्रामन् न करोति, न कारयति मनसा वचसा १२. अथवा न करोति न कारयति मनसा कायेन १३. अथवा न करोति, न कारयति वचसा कायेन १४. अथवा न करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा, १५. अथवा न करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा कायेन १६. अथवा न करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति वचसा कायेन १७ अथवा न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति
श. ८ : उ. ५ : सू. २३७
२३७. अतीत का प्रतिक्रमण करता हुआ क्या १. वह तीन योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करता है? २. तीन योग का दो करण से प्रतिक्रमण करता है ? ३. तीन योग का एक करण से प्रतिक्रमण करता है ? ४. दो योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करता है ? ५. दो योग का दो करण से प्रतिक्रमण करता है ? ६. दो योग का एक करण से प्रतिक्रमण करता है? ७. एक योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करता है ? ८. एक योग का दो करण से प्रतिक्रमण करता है? ० एक योग का एक करण से प्रतिक्रमण करता है ? गौतम! तीन योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करता है, तीन योग का दो करण से प्रतिक्रमण करता है, इस प्रकार यावत् एक योग का एक करण से प्रतिक्रमण करता है। १. तीन योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से काया से २. तीन योग का दो करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से ३. अथवा न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, काया से ४ अथवा न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, काया से ५. तीन योग का एक करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से ६. अथवा न करता है न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से ७. अथवा न करता है, न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से ८. दो योग का तीन करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है, न करवाता है मन से, वचन से, काया से ९. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, बचन से, काया से १०. अथवा न करवाता है. न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से, काया से ११. दो योग का दो करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता
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श.८ : उ.५ : सू. २३७
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भगवई
कायसा १६. अहवा न करेइ, करेंतं मनसा वचसा १८. अथवा न कारयति, नाणु-जाणइ वयसा कायसा १७. अहवा कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा कायेन १९. न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ मणसा अथवा न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति वयसा १८. अहवा न कारवेइ, करेंतं ।। नाणुजाणइ मणसा कायसा १९. अहवा २०. द्विविधम् एकविधेन प्रतिक्रामन् न न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ वयसा करोति, न कारयति मनसा २१. अथवा न कायसा। २०. दुविहं एक्कविहेणं करोति, न कारयति वचसा २२. अथवा न पडिक्कममाणे न करेइ, न कारवेइ करोति, न कारयति कायेन २३. अथवा न मणसा २१. अहवा न करेइ, न कारवेइ करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा २४. वयसा २२. अहवा न करेइ, न कारवेइ अथवा न करोति, कुर्वन्तं नानुजानाति कायसा २३. अहवा न करेइ, करेंतं वचसा २५. अथवा न करोति, कुर्वन्तं नाणुजाणइ मणसा २४. अहवा न करेइ, नानुजानाति कायेन २६. अथवा न करेंतं नाणुजाणइ वयसा २५. अहवा न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा २७. करेइ, करेंतं नाणुजाणइ कायसा २६. अथवा न कारयति, कुर्वन्तं नानुजानाति अहवा न कारवेइ, करेंतं नाणुजाणइ । वचसा २८. अथवा न कारयति, कुर्वन्तं मणसा २७. अहवा न कारवेइ, करेंतं नानुजानाति कायेन। २९. एकविधं त्रिविधेन नाणुजाणइ वयसा २८. अहवा न । प्रतिक्रामन् न करोति, मनसा वचसा कायेन कारखेइ, करेंतं नाणुजाणइ कायसा। ३०. अथवा न कारयति मनसा, वचसा, २९. एगविहं तिविहेणं पडिक्कम-माणे न कायेन ३१. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति करेइ, मणसा वयसा कायसा ३०. मनसा, वचसा, कायेन। ३२. एकविधं अहवा न कारवेइ मणसा वयसा कायसा। द्विविधेन प्रतिक्रामन् न करोति मनसा, ३१. अहवा करत नाणुजाणइ मणसा वचसा ३३. अथवा न करोति मनसा वयसा कायसा।
कायेन, ३४ अथवा न करोति वचसा, ३२. एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कम-माणे कायेन ३५ अथवा न कारयति मनसा वचसा न करेइ मणसा वयसा ३३. अहवा न ३६. अथवा न कारयति मनसा कायेन ३७. करेइ मणसा कायसा ३४. अहवा न अथवा न कारयति वचसा कायेन ३८ करेइ वयसा कायसा ३५. अहवा न अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा वचसा कारवेइ मणसा वयसा ३६. अहवा न । ३९. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति मनसा कारवेइ मणसा कायसा ३७. अहवा न कायेन १०. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति कारवेइ वयसा कायसा ३८. अहवा वचसा कायेन। ४१. एकविधम् एकविधेन करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा ३९. प्रतिक्रामन् न करोति मनसा ४२. अथवा न अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा करोति वचसा ४३. अथवा न करोति कायेन ४०. अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा ४४ अथवा न कारयति मनसा ४५. अथवा कायसा।
न कारयति वचसा ४६ अथवा न कारयति ४१. एगविहं एगविहणं पडिक्कम-माणे कायेन ४७. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति न करेइ मणसा ४२. अहवा न करेइ मनसा ४८. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति वयसा ४३. अहवा न करेइ कायसा ४४. वचसा ४९. अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति अहवा न कारवेइ मणसा ४५. अहवा न कायेन। कारवेइ वयसा ४६. अहवा न कारवेइ कायसा ४७. अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा ४८. अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा ४९. अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा॥
है, न करवाता है मन से, वचन से १२. अथवा न करता है न करवाता है मन से, काया से १३. अथवा न करता है न करवाता है वचन से, काया से १४. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से १५. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, काया से १६. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, काया से १७. अथवा न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से १८. अथवा न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है, मन से, काया से १९. अथवा न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, काया से २०. दो योग एक करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है, न करवाता है मन से २१. अथवा न करता है, न करवाता है वचन से २२. अथवा न करता है, न करवाता है काया से। २३. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से २४. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से २५. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से २६. अथवा न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से २७. अथवा न करवाता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, २८. अथवा न करता है, न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से २९. एक योग तीन करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है मन से, वचन से, काया से, ३०. अथवा न करवाता है मन से, वचन से, काया से, ३१. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन से, काया से, ३२. एक योग का दो करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है मन से, वचन से ३३. अथवा न करता है मन से काया से ३४. अथवा न करता है वचन से, काया से, ३५. अथवा न करवाता है मन से, वचन से ३६. अथवा न करवाता है मन से, काया से ३७. अथवा न करवाता है वचन से, काया से ३८. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, वचन
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भगवई
श. ८ : उ. ५ : सू. २३७-२४० से ३९. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से, काया से ४०. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से, काया से ४१. एक योग का एक करण से प्रतिक्रमण करने वाला न करता है मन से ४२. अथवा न करता है वचन से ४३. अथवा न करता है काया से ४४. अथवा न करवाता है मन से ४५. अथवा न करवाता है वचन से ४६. अथवा न करवाना है काया से ४७, अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है मन से ४८. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है वचन से ४९.. अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से।
२३८. पडुप्पन्नं संवरेमाणे किं तिविहं तिविहेणं संवरेइ? एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगणपन्नं भंगा भणिया एवं संवरमाणेण वि एगणपन्नं भंगा भाणियव्वा॥
प्रत्युत्पन्नं संवृण्वन किं त्रिविधं त्रिविधेन संवृणोति? एवं यथा प्रतिक्रामता एकोनपञ्चाशत् भंगाः भणिताः एवं संवृण्वता अपि एकोनपञ्चाशत भंगाः भणितव्याः।
२३८. वर्तमान का संवरण करने वाला
क्या तीन योग का तीन करण से संवरण करता है? जैसे प्रतिक्रमण करने वाले के उनपचास भंग कहे गए हैं उसी प्रकार संवरण करने वाले के उनपचास भंग वक्तव्य हैं।
२३९. अणागयं पच्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं पच्चक्खाइ? एवं एते चेव भंगा एगूणपन्नं भाणि-यव्वा जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा॥
अनागतं प्रत्याख्यान किं त्रिविधं त्रिविधेन प्रत्याख्याति। एवम् एते चैव भंगा एकोनपंचाशत् भणितव्याः यावत् अथवा कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन।
२३९. अनागत का प्रत्याख्यान करने वाला क्या तीन योग का तीन करण से प्रत्याख्यान करता है? इस प्रकार उनपचास भंग वक्तव्य हैं यावत अथवा न करने वाले का अनुमोदन करता है काया से।
२४०. समणोवासगस्स णं भंते ! पुव्वामेव थूलए मुसावाए अपच्चक्खाए भवइ, से णं भंते! पच्छा पच्चाइक्खमाणे किं करेइ? एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणियं, तहा मुसावायस्स वि भाणियव्वं । एवं अदिन्नादाणस्स वि, एवं थूलगस्स वि मेहुणस्स, थूलगस्स वि परिग्गहस्स जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा।
श्रमणोपासकस्य भदन्त ! पूर्वमेव स्थूलः २४०. भन्ते ! श्रमणोपासक के स्थूल मृषामृषावादः अप्रत्याख्यातः भवति. सः वाद का पहले प्रत्याख्यान नहीं होता। भदन्त ! पश्चात् प्रत्याख्यान किं करोति? भन्ते! फिर वह उसका प्रत्याख्यान
करता हुआ क्या करता है? एवं यथा प्राणातिपातस्य सप्तचत्वारिंशत् जैसे प्राणातिपात के एक सौ संतालीस भंगशतंभणितं. तथा मृषावादस्यापि भंग कहे गए हैं वैसे ही मृषावाद के भी एक भणितव्यम। एवम अदत्तादानस्यापि. एवं सौ सैंतालीस भंग वक्तव्य है। इसी प्रकार स्थूलकस्यापि मैथुनस्य. स्थूलकस्यापि स्थूल अदत्तादान. स्थूल मथुन और स्थूल परिग्रहस्य यावत् अथवा कुर्वन्तं परिग्रह की वक्तव्यता. यावत अथवा न नानुजानाति कायेना
करने वाले का अनुमोदन करता है काया
से।
एते खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, एते खलु ईदृशकाः श्रमणोपासकाः भवन्ति, नो खलु एरिसगा आजीविओवासगा नो खलु ईदृशकाः आजीविकोपासकाः भवंति॥
भवन्ति।
श्रमणोपासक ऐसे होते हैं. उक्त विधि से प्रतिक्रमण, संवर और प्रत्याख्यान करने वाले होते हैं। आजीवक के उपासक ऐग नहीं होते।
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श. ८ : उ. ५ : सू. २४०
१. सूत्र २३६- २४०
प्रस्तुत आलापक में श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान विधि के विकल्पों का निरूपण किया गया है। महावीर के श्रमणोपासक इन विधि विकल्पों का अनुपालन करते थे। निष्कर्ष में कहा गया है कि आजीवक के उपासक ऐसी विधि का अनुपालन नहीं करते थे। प्रत्याख्यान के तीन भंग हैं
विकल्प
?
२
३
४
६
करण योग
3
३
३
Ο
२
3
भंग ।
१
३
३
३
८८
भाष्य
१. भ. वृ. ८२३०-२४० अतीतकालकृतं प्राणातिपातं प्रतिक्रामति ततो निन्दाद्वारेण निवर्त्तत इत्यर्थः पडुप्पन्नं वर्तमानकालीनं प्राणानिपातं संवृणोति
१. अतीत का प्रतिक्रमण - प्रत्याख्यान करने वाला व्यक्ति अतीत में किए गए प्राणातिपात आदि से अपना निवर्तन करता है।
२. प्रत्युत्पन्न का संवरण वह वर्तमान काल में प्राणातिपात आदि का संबर करता है, उसका आचरण नहीं करता।
अतीत के प्रतिक्रमण के उनपचास भंग
प्रत्याख्यान के ४९ भंगों का विवरण
करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से. काया से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से। करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, काया से। करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं वचन से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं काया से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। करूंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से काया से। कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से। करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं मन से, वचन से काया से। करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं मन से, काया से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं वचन से काया से । करूंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से । करूंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, काया से । करूंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से। कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से। कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं मन से, काया से । कराऊंगा नहीं, अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं मन से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं वचन से । करूंगा नहीं, कराऊंगा नहीं काया से। करूंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं मन से । करूंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं वचन से। करूंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं काया से । कराऊंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं मन से । कराऊंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं वचन से । कराऊंगा नहीं अनुमोदूंगा नहीं काया से ।
भगवई
३. अनागत का प्रत्याख्यान- भविष्य में नहीं करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करता है। देखें तालिका
न करोतीत्यर्थः अनागतं भविष्यत्कालविषयं प्रत्याख्याति न करिष्यामीत्यादि प्रतिजानीते।
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भगवई
/२
श.८ : उ. ५ : सू. २४१-२४२
करूंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। कराऊंगा नहीं मन से, वचन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से. काया से। करंगा नहीं मन से, वचन से। करूंगा नहीं मन से, काया से। करूंगा नहीं वचन से, काया से। कराऊंगा नहीं मन से, वचन से। कराऊंगा नहीं मन से, काया से। कराऊंगा नहीं वचन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, वचन से। अनुमोदूंगा नहीं मन से, काया से। अनुमोदूंगा नहीं वचन से, काया से। करूंगा नहीं मन से। करूंगा नहीं वचन से। करंगा नहीं काया से। कराऊंगा नहीं मन से। कराऊंगा नहीं वचन से। कराऊंगा नहीं काया से। अनुमोदूंगा नहीं मन से। अनुमोदूंगा नहीं वचन से।
अनुमोदूंगा नहीं काया से। इसी प्रकार वर्तमान के संवरण और अनागत के प्रत्याख्यान के उनपचास-उनपचास भंग बनते हैं। ये एक सौ सैंतालीस भंग (१९४३) स्थूल प्राणातिपान विरमण व्रत के हैं। प्राणातिपात आदि पांच अणुव्रतों के कुल भंग (१४७४५) सात सौ पैंतीस होते हैं। २४१. आजीवियसमयस्स णं अय- आजीविकसमयस्य अयमर्थः-अक्षीण- २४१. आजीवक समय का यह अर्थ मढे-अक्खीणपडिभोइणो सव्वे सत्ता; प्रतिभोजिनः सर्वे सत्वाः, तत् हत्वा, प्रतिपाद्य है सब प्राणी सजीव का परिभोग से हंता,छेत्ता,भेत्ता,लुपित्ता, विलंपित्ता, छित्त्वा, भित्त्वा, लुप्त्वा, विलुप्य, उपद्रुत्य करने वाले हैं इसलिए वे जीवों को हनन, उद्दवइत्ता आहारमाहारेति।। आहारमाहरन्ति।
छेदन, भेदन, लोपन, विलोपन और प्राण वियोजन कर आहार करते हैं।
२४२. तत्थ खलु इमे दुवालस तत्र खलु इमे द्वादश-आजीविकोपासकाः २४२. आजीवक समय में बारह
आजीवियोवासगा भवंति,तं जहा- १. भवन्ति, तद्यथा- १. तालः २. आजीवकोपासक हैं, जैसे-१. ताल, २. ताले २. तालपलंबे ३. उब्बिहे ४. संविहे तालप्रलम्बः ३. उद्विधः ४. संविधः, ५. ताल प्रलंब ३. उद्विध ४. संविध ५. ५. अवविहे ६. उदए ७. नामुदए ८. अपविधः ६. उदकः ७. नामोदकः ८. अपविध ६. उदक ७. नामोदक ८. णम्मदए ९. अणुवालए १०. संखवालए नर्मोदकः ८. अनुपालकः १० शंखपालकः नर्मोदक . अनुपालक १० शंखपालक ११. अयपुले १२. कायरए-इच्चेते दुव- ११. अयम्पुलः १२. कायरकः--इत्येते ११. अयंपुल १२. कायरक-ये बारह लिस
आजीवि-ओवासगा। द्वादश आजीविकोपासकाः अर्हदेवतकाः, आजीवकोपासक अर्हत को अपना देवता अरहंतदेवतागा,
अम्मा- अम्बापितृशुश्रूषकाः पञ्चफलप्रतिक्रान्ताः । मानते हैं, माता-पिता की शुश्रूषा करने पिउसुस्सूसगा,पंचफलपडिक्कंता, (तं । (तद्यथा-उदुम्बरैः, वटः, बदरैः, सतरैः वाले हैं, पांच फलों का परित्याग करने जहा-उबेरेहि, वडेहिं, बोरेहिं, सतरेहिं, प्लक्षैः) पलाण्डुलशुन-कन्दमूलविवर्जकाः, वाले हैं, (जैसे-उदुम्बर, वट, पीपल पिलक्खूहि)
पलंडुल्ह- अनिाछितैः, अनकभिन्नैः गोभिः अंजीर, पाकर) प्याज, लहसुन, कंद और सुणकंदमूलविवज्जगा, अणिल्लं. त्रसप्राणविवर्जितैः क्षेत्रैः वृत्तिं कल्पमानाः मूल का वर्जन करने वाले हैं. नपुंसक छिएहिं अणक्कभिन्नेहिं गोणेहिं विहरन्ति। ते अपि तावत् एवम् इच्छन्ति बनाए बिना, नाक का छेदन किए बिना, तसपाणविवज्जिएहिं छेत्तेहिं वित्तिं किमंग! पुनः ये इमे श्रमणोपासकाः बैलों से खेत जोत कर नस जीवों की
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आजाव
श.८ : उ.५ : सू. २४२
९०
भगवई कप्पेमाणा विहरंति। एए वि ताव एवं भवन्ति. येषां नो कल्पन्ते इमानि पंचदश हिंसा न करते हुए कृषि द्वारा अपनी इच्छंति किमंग! पुण जे इमे कर्मादानानि स्वयं कर्तुं वा. कारयितुं वा, आजीविका चलाते हैं। समणोवासगा भवंति, जेसिं नो कप्पंति कुर्वन्तं वा अन्यं समनुज्ञातुम, तद्यथा- ये आजीविकोपासक भी इस प्रकार का इमाई पन्नरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए अंगारकर्म, वनकर्म, शकटीकर्म, भाटीकर्म, जीवन जीना चाहते हैं तो ये जो वा, कारवेत्तए वा, करेंत वा अन्नं स्फोटी कर्म, दन्त-वाणिज्यम, लाक्षावा- श्रमणोपासक होते है, उनका कहना ही समणुजाणेत्तए, तं जहा-इंगालकम्मे, णिज्यम, केश-वाणिज्यम, रसवाणिज्यम्, क्या ? उन श्रमणोपासकों के लिए इन वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, विषवाणिज्यम्, यन्त्रपीड़नकर्म. निलांछन- पन्द्रह कर्मादानों का आसेवन स्वयं करना, फोडी-कम्मे, दंतवा-णिज्जे, लक्ख- कर्म, दवाग्निदापनम्, सरोद्रह-तडागपरि- दूसरों से करवाना और करने वालों का वाणिज्जे, केसवाणिज्जे, रसवा-णिज्जे, शोषणम् असतीपोषणम्।
अनुमोदन करना-करणीय नहीं है. (पन्द्रह विसवाणिज्जे जंतपीलण-कम्मे, निल्लं
कर्मादान) जैसे-अंगारकर्म, वनकर्म, छणकम्मे, दवग्गि-दावणया, सर-दह
शकटकर्म, भाटककर्म, स्फोटनकर्म तलागपरिसोसणया, असतीपोसणया।
दंतवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, केशवाणिज्य रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्रपालनकर्म. निलांछनकर्म, दवाग्निदापन, यर-द्रह
तडाग-परिशोषण, असतीपोषण। इच्चेते समणोवासगा सुक्का, सुक्का- इत्येते श्रमणोपासकाः शुक्लाः, शुक्ला- ये श्रमणोपासक शुक्ल, शुक्ल अभिजाति भिजातीया भवित्ता कालमासे कालं भिजात्या भूत्वा कालमासं कालं कृत्वा । वाले होकर कालमास में काल कर किसी किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए अन्यतरेषु देवलोकेषु देवत्वेन उपपत्तारो देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते है। उववत्तारो भवंति॥
भवन्ति ।
भाष्य १. सूत्र २४१-२४२
आजीवक के बारह उपासकों के नाम बतलाए गए हैं। उनकी वृत्तिकार ने अक्षीण प्रतिभोजी का अर्थ अप्रासुक या सचित्त पांच विशेषाताओं का निर्देश हैभोजी किया है। इसका तात्पर्यार्थ आहार योग की आसक्ति वाला है।' १. अर्हत को अपना देव मानते हैं। श्रमणों में अर्हत का प्रयोग वेसम ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है। उनके अनुसार जिनकी व्यापक रूप से होता रहा है। जैन, बौद्ध, आजीवक-इन सब परम्पराओं उपभोग करने की शक्ति क्षीण नहीं हुई है, वे अक्षीण प्रतिभोजी हैं। में इस शब्द का प्रयोग मिलता है। इसकी व्यापकता का साक्ष्य है जोजेफ डेल्यू ने वृत्तिकार और वेसम दोनों के मत को अस्वीकार किया इसिभासियाई। उसमें पैंतालीस अर्हतों के प्रवचनों का संकलन है। है। उन्होंने सुबिंग के मत को मान्य कर अपनी व्याख्या की है। सुबिंग वे अर्हत अनेक परम्पराओं के हैं। के अनुसार अक्षीण प्रतिभोजी का अर्थ यह है--जिस कर्म के द्वारा २. माता-पिता की शुश्रूषा करने वाले। सात-असात का परिभोग होता है, उस कर्म का जिनमें उदय नहीं हुआ ३. उदुम्बुर आदि पांच फलों का वर्जन करने वाले। है, वे अक्षीण प्रतिभोजी हैं। क्योंकि सब जीवों को अवश्य सुख दुःख ४. मूल का वर्जन करने वाले। भोगना है, अतः आजीवक लोग सब तरह की हिंसा आहार संग्रह के ५. बधिया न किए हुए, नथनी न डाले हुए बैलों से त्रस प्राणी लिए करते हैं।
रहित खेतों में कृषि कर अपनी आजीविका चलाते हैं। सूत्रकार ने १. भ. वृ. ८/२४१-अक्षीण-अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुजन इत्येवंशीला reborn in the heavens. अक्षीणपरिभोगिनः अथवा इन प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरिभोगा--- I do not follow Abhny's explanation of akkhina (aksinam अनपगताहारभोगासक्तय इत्यर्थः ।
aksin' ayuskam aprasukam, i.e. Prakrit aphasuyam), nor २. Viyah PannottiJozef deleu Page 149--
BASHAM's (History and Doctrines of the Ajivikas, London (369b) According to the doctrine (samaya) of the ajiviyas 1951, P. 122: all beings whose (capacity for enjoyment all beings are akkhina-padibhoi (comm.. a.paribhoi), is unimpaired obtain their food oy killing...'), but which means that they experience (karman) not yet real- SCHUERING's (in his review of Basham's work. ZDMG ized (in agreeable or disagreeable feelings). Consequently 104 (1954). p. 262 seq.) --For the term arithaniadevata(scil because all beings are bound to suffer) the ajiviyas
ga, see BASHAM O.C., p. 140 and 276, and SCHUBRING (think it is allowed to use all kinds of violence to get their O.C..p.263.--There of the proper names also appeared tood. I welve ajiviya laymen, though, their names Tala, in Vilio, where they were names of annautthiyas, we Talapalamba, Uvviha, Samviha, Avaviha, Udaya. shall meet Ayampula again in XV C 8. Namudaya, Namudaya, Anuvalaya, Sankhavalaya, (370a) The four classes of (gods and their) abodes Ayambula, Kayaraya) shun five fruits as well as perform- ३. इसिभासियाई परिशिष्ट ? ing, causing and allowing fifteen practices. They will be
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भगवई
आजीवक उपासकों के आजीविका विवेक के संदर्भ में श्रमणोपासकों की आजीविका का विवेक प्रस्तुत किया है।
बारह व्रती श्रमणोपासक पंद्रह कर्मादानों का वर्जन कर आजीविका चलाते हैं। कर्मादान के वर्गीकरण में तत्कालीन पंद्रह व्यवसायों का उल्लेख है। हिंसा की अधिकता के कारण इन व्यवसायों को कर्मादान कहा गया।
सिद्धसेनगणि ने इन्हें बहुसावध कर्म बतलाया है।'
१. इंगाल कम्मे-अंगार कर्म, कोयला बनाना, ईंट बनाना आदि, उनका विक्रय करना।
२. वण कम्मे-वन कर्म, जंगल की कटाई, विक्रय।
३.साडी कम्मे-शकट कर्म, गाड़ी, रथ आदि का निर्माण, वाहन और विक्रय।
४. भाडी कम्मे-भाटी कर्म, बैलगाड़ी आदि के द्वारा दूसरों के माल को देशांतर ले जाना।
५. फोडी कम्मे स्फोट कर्म. सुरंग आदि बिछाकर विस्फोट करना, खाने खोदना।
६. दंतवाणिज्जे-दंतवाणिज्य, हाथी दांत आदि का व्यापार। ७. लक्खवाणिज्जे-लाक्षावाणिज्य, लाख का व्यापार।
८. केसवाणिज्जे-केशवाणिज्य, केश वाले जीव-गाय, भैंस, स्त्री आदि का व्यापार।
९. रसवाणिज्जे-रसवाणिज्य, मादक द्रव्यों का व्यापार। १०. विषवाणिज्जे-विष वाणिज्य, विष का व्यापार। ११. जंतपीलणकम्मे-यंत्रपालनकर्म, तिल, ईक्षु आदि को पेलना।
१२. निल्लंछणकम्मे-निलाछन कर्म, बैल आदि को बधिया करना।
१३. दवग्निदावणया-जंगल को जलाना।
१४. सरदहतलाय सोसणया-सरोवर, द्रह, तालाब आदि को सुखाना।
१५. असईजणपोसणया-असतीजन पोषणता, आजीविका के लिए दासी तथा कुर्कुट, मार्जार आदि का पोषण करना।
जयाचार्य ने असती पोषण पर विस्तार से विचार किया है। उसका निष्कर्ष है--आजीविका के लिए असंयमी का पोषण करना । असती पोषण है।
दिगम्बर साहित्य में कर्मादान के स्थान पर खरकर्म शब्द का प्रयोग मिलता है। इसका अर्थ प्राणियों को पीड़ा देने वाला क्रूरकर्म किया गया है।
१. वनजीविका-स्वयं टूटे हुए अथवा तोड़कर वृक्ष आदि को बेचना, गेहूं आदि धान्यों को पीस-कूट कर व्यापार करना। १. न. सू. भा. वृ. ७/१६-प्रदर्शनं चैतद् बहुसावधानां कर्मणाम्। २. भ. वृ.८.२४२। ३. भ. जो.२/१४३/३८-४७। ४. सागारधर्मामृत ५/२१-२३। ५. जै. सि. को. ४, पृ. ४२२। ६. भ. वृ.८.२४२-गते निग्रंथसत्का सुक्कत्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणी हितानुबंधाश्च सुक्काभिजाइयत्ति शुक्लाभिजात्याः
श. ८: उ.५ : सू. २४२ २. अग्निजीविका-कोयला तैयार करना।
३. अनोजीविका (शकट जीविका)-गाड़ी, रथ तथा उसके चक्र आदि स्वयं बनाना अथवा दूसरे से बनवाना, गाड़ी जोतने का व्यापार स्वयं करना।
४. स्फोटजीविका-पटाखे, आतिशबाजी आदि बारूद की चीजों से आजीविका करना।
५. भाटक जीविका-गाय, घोड़ा आदि से बोझा ढोकर आजीविका करना।
६. यंत्रपीड़न जीविका-तिल आदि को कोल्हू में पिलवाना, कोल्हू चलाना, तिल आदि के बदले तैल आदि लेना।
७. निर्लाग्छन कर्म-बैल आदि पशुओं के नाक आदि छेदने का धंधा करना, शरीर के अवयव छेदना।
८. असतीपोष-हिंसक प्राणियों का पालन पोषण करना. भाड़े की उत्पत्ति के लिए दास-दासियों का पोषण करना।
९.सरःशोष-अनाज बोने के लिए जलाशयों से नाली खोदकर पानी निकालना।
१०. दवदाह-वन में घास आदि को जलाने के लिए आग लगाना। ११. विष वाणिज्य-प्राणघातक विष का व्यापार करना।
१२. लाक्षा वाणिज्य-लाख का व्यापार। इसी प्रकार टाकनखार, मनसिल, गुगल, घाय के फूल, जिनसे मद्य बनता है, आदि पदार्थों का व्यापार करना।
१३. दंत वाणिज्य-भीलों आदि से हाथी दांत आदि खरीदना। १४. केश वाणिज्य-दास-दासी और पशुओं का व्यापार करना।
१५. रस वाणिज्य-मक्खन, मधु. चरबी, मद्य आदि का व्यापार करना।
श्रमणोपासकों के लिए शुक्ल और शुक्लाभिजाति-इन दो विशेषणों का प्रयोग किया गया है। अभयदेव सूरि ने शुक्ल का अर्थ अभिन्न चारित्र वाला, अमत्सरी, कृतज्ञ, सत्प्रवृत्ति वाला और हित का अनुबंध रखने वाला तथा शुक्लाभिजाति का अर्थ शुक्लप्रधान किया है। पूरणकाश्यप, आजीवक मत के आचार्य गोशालक तथा भगवान बुद्ध ने छह अभिजातियों का प्रतिपादन किया है। इससे ज्ञात होता है-अभिजाति का प्रयोग तत्कालीन श्रमण साहित्य में बहुत प्रचलित था। आगम साहित्य में इसका प्रयोग विरल रूप में ही मिलता है, केवल भगवती में ही उपलब्ध है।
श्रमणोपासक अन्यतर देवलोक में उपपन्न होते हैं। इसमें किसी देवलोक का नामोल्लेख नहीं है। प्रथम शतक में श्रमणोपासक के पुनर्जन्म के विषय में निर्देश मिलता है। श्रमणोपासक जघन्यतः प्रथम स्वर्ग और उत्कृष्टतः बारहवें स्वर्ग में उपपन्न होता है।
शुक्लप्रधानाः। ७. उत्तराध्ययनः एक समीक्षात्मक अध्ययन पृ. २४२-२४३। ८. (क) भ. १४/१३६ तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भविना तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति परिनिव्वायंति सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति।
(ख) वही १५/१०१। २. भ. वृ. सू.-१/११३।
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श. ८ : उ. ५ : सू. २४३,२४४
भगवई
सद्दालपुत्र बारहव्रती श्रावक था और वह कुम्भकार का बहुत बड़ा व्यवसाय करता था। वह व्यवसाय अंगारकर्म के अंतर्गत आता है। सहाल ने उसका वर्जन क्यों नहीं किया? यह प्रश्न समय-समय पर चर्चित होता रहा है। सेन प्रश्नोत्तर में बताया गया है कि पंद्रह कर्मादान का निषेध आधुनिक उत्तरकालीन है। उत्सर्गमार्ग में श्रावक
पंद्रह कर्मादान के व्यवसाय का वर्जन करे। अपवाद मार्ग में इनका वर्जन नहीं किया जाता।'
आचार्य भिक्षु का अभिमत यह है-श्रावक मर्यादा के उपरांत पंद्रह कर्मादान का प्रयोग न करे।'
२४३. कतिविहा णं भंते! देवलोगा कतिविधाः भदन्त ! देवलोकाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! चउव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं गौतम! चतुर्विधाः देवलोकाः प्रज्ञप्ताः, जहा-भवणवासी, वाणमंतरा जोइसिया, तद्यथा-भवनवासिनः, वानमन्तराः, वेमाणिया॥
ज्योतिष्काः, वैमानिकाः।
२४३. भन्ते! देवलोक कितने प्रकार के प्रज्ञप्त है? गौतम ! देवलोक चार प्रकार के प्रज्ञप्त है, जैसे-भवनवासी, वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक।
२४४. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त । तदेवं भदन्त ! इति।
२४४. भन्ते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही है।
१. सेन प्रश्नोनर उल्लास ?, प्रश्न १०४-नथा भगवत्यां श्राद्धानां पञ्चदश कर्मादाननिषध प्राक्ने नत्सवनं कल्पते न वा इति प्रश्नोत्रोत्तरम-श्रान्द्रानां पञ्चदश-कर्मादाननिषध आधुनिका जयः। अचवादपदे तु, परिहारशक्ती शकटानादीनामिव नानि कल्पन्नपीति।
२. बारह व्रत चौपाई, दाल ८.१६
ए पनरे कर्म तणो विसतार. मरजादा बांध कर परिहार। पनरेइ रह्या सावध व्यापार करे आजीविका चनावण हार।।
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छट्ठो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी व्याख्या
श्रमणोपासककृत दान का परिणाम पद
समणोवासगकयस्स दाणस्स परिणाम-पदं २४५.समणोवासगस्स णं भंते! तहा-रूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिज्जेणं असण . पाण - खाइम - साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ?
श्रमणोपासककृतस्य दानस्य परिणाम- पदम् श्रमणोपासकस्य भदन्त ! नथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रासुक-एषणीयेन अशन-पानखाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं क्रियते?
२४५. भन्ते! तथारूप श्रमण, माहन को प्रासुक एषणीय अशन, पान, खाद्य. स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है? गौतम ! उसके एकान्ततः निर्जरा होती है. पाप कर्म का बंध नहीं होता।
गोयमा! एगंतसो से निज्जरा कज्जइ, गौतम ! एकान्तशः तस्य निर्जरा क्रियते, नत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ॥ नास्ति च तस्य पापं कर्म क्रियते।
२४६.समणोवासगस्स णं भंते ! तहा-रूवं श्रमणोपासकस्य भदन्त! तथारूपं श्रमणं वा समणं वा माहणं वा अफासु-एणं माहनं वा अप्रासुकेन अनेषणीयेन अशनअणेसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम- पान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं साइमेणं पडिलाभे-माणस्स किं क्रियते? कज्जइ? गोयमा! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ, गौतम! बहुतरिका तस्य निर्जरा क्रियते, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ। अल्पतरका तस्य पापं कर्म क्रियते।
२४६. भन्ते! तथारूप श्रमण. माहन को
अप्रासुक अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है-उसे क्या फल मिलता है ? गौतम! उसे बहतर निर्जरा होती है, अल्पतर पाप कर्म का बंध होता है।
२४७. समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं
अस्संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खायपाव कम्मं फासुएण वा, अफासुएण वा, एसणिज्जेण वा, अणेसणिज्जेण वा असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ?
श्रमणोपासकस्य भदन्त! तथारूपम् असंयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्म प्रासुकेन वा, अप्रासुकेन वा, एषणीयेन वा, अनेषणीयेन वा अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन प्रतिलाभयतः किं क्रियते?
२४७. भन्ते! तथारूप असंयत, अविरत,
अप्रतिहत, अप्रत्याख्यातपापकर्म वाले व्यक्ति को प्रासुक अथवा अप्रासुक एषणीय अथवा अनेषणीय अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य से प्रतिलाभित करने वाले श्रमणोपासक के क्या होता है उसे क्या फल मिलता है? गौतम! उसके एकान्ततः पापकर्म का बंध होता है, कोई निर्जरा नहीं होती।
गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जड़, गौतम ! एकान्तशः तस्य पापं कर्म क्रियते. नत्थि से काइ निज्जरा कज्जइ॥ नास्ति तस्य काचित निर्जरा क्रियते।
भाष्य
१.सूत्र २४५-२४७
प्रस्तुत आलापक के तीन सूत्रों में दान के तीन रूप मिलते हैं। दान लेने वाला
देय वस्तु १.संयत
प्रासुक एषणीय २.संयत
अप्रासुक अनेषणीय ३. असंयत
प्रासुक अथवा अप्रासुक एषणीय अथवा अनेवषणीय
लाभ एकांत निर्जरा, पाप नहीं बहुतर निर्जरा, अल्पतर पाप एकांत पाप, निर्जरा नहीं
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भगवई
श.८ : उ. ६ : सू. २४७
अभयदेवसूरि ने बहुनिर्जरा और अल्प पाप के पाठ की समीक्षा की है। उन्होंने अप्रासुक आहार देने की स्थिति में बहतर निर्जरा का हेतु चारित्र काय का उपष्टम्भ और अल्पतर पाप का हेतु जीव-वध बननाया है। पाप की अपेक्षा निर्जरा बहुत होती है और निर्जरा की अपेक्षा पाप का बंध अल्पतर होता है।' उन्होंने भाष्यकार के मत को उद्धृत कर लिखा है--आहार पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो, उस स्थिति में अशुद्ध अप्रासुक अनवेषणीय दान देने वाला और उसे लेने वाला दोनों अहित पक्ष का आसेवन करते हैं। निर्वाह के लिए पर्याप्त आहार न मिलने की स्थिति में अशुद्ध आहार लेने और देने वाले हित पक्ष का सेवन करते हैं। इस मान्यता के आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि द्वादश वर्षीय दुष्काल जैसी परिस्थितियों में इस प्रकार की मान्यता स्थापित हुई है। भाष्यकार ने उसी मान्यता का प्रतिपादन किया है।
अभयदेव सूरि ने एक अन्य संप्रदाय का भी उल्लेख किया है। उसमें परिणाम के आधार पर बहतर निर्जरा और अल्पतर पाप का समर्थन है। परिणाम के प्रामाण्य को प्राधानता देकर मिश्र धर्म का समर्थन किया गया है। उनके मतानुसार किसी विशेष कारण के बिना भी गुणवान पात्र को कोई दाता अप्रासुक आदि दान देता है,
इस स्थिति में परिणाम की विशुद्धि होने पर बहतर निर्जरा और अल्पतर पाप का बंध होता है।
वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने इस विषय का उपसंहार 'तत्त्व केवलीगम्य है-इन शब्दों में किया है।
___आधाकर्म आहार का निषेध आचारांग सूत्र में है, वह सबसे प्राचीन उल्लेख है।"
सूत्रकृतांग, भगवती . उत्तराध्ययन', दशवैकालिक आदि अनेक आगमों में आधाकर्म का निषेध किया गया है। उन स्थलों में बहुतर निर्जरा और अल्पतर पाप का सूत्र कहीं नहीं है। संपूर्ण आगम साहित्य में बहुत निर्जरा और अल्पतर पाप का कोई उल्लेख नहीं है। आचार्य भिक्षु ने इस सूत्र की गहरी समीक्षा की है। जयाचार्य ने प्रस्तुत आलापक की व्याख्या में आचार्य भिक्षु के मत को उद्धृत किया है। उसका सारांश यह है-मुनि को दिया जाने वाला आहार सचित्त है और अनेषणीय है किन्तु दाता अपने व्यवहार में शुद्ध जान कर मुनि को देता है, उससे बहुतर निर्जरा होती है, पाप कर्म का बंध नहीं होता। यहां अल्पतर शब्द निषेध के अर्थ में है। आचार्य भिक्षु ने निष्कर्ष की भाषा में लिखा-मैंने सूत्र के आधार पर इस अर्थ का अनुमान किया है। वास्तविक तत्त्व केवलीगम्य है।"
१. भ. वृ. ८/२४६-गुणवते पात्रायाप्रासुकादि द्रव्यदाने चारित्र-कार्यापष्टम्भो
जीवघातो व्यवहारतश्च चारित्रबाधा च भवति, ततश्च चारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा, जीवधातादेश्च पापं कर्म नत्र च स्वहेतु सामर्थ्यान पापापक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति। २. भ. बृ. ८.२४६-इह च विवेचका मन्यन्ने असंस्तरणादिकारणत वापारसकादिवाने बहुनरनिर्जरा नाकारणे. अन उक्तम्
संथरणमि अशुद्धं दाण्हविगेण्हत दिनयाणहिय।
आउरदिनुतण नं चव हियं असंथरणे। ३, भ, वृ.८.२४६-अन्यत्वाह: अकारणेपि गुणवत्पावायाः प्रासुकादिदाने परिणामवशाद बहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं कर्मनि निर्विशेषणत्वान सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वात. आह च
परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगडारियसाराणं।
परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ।। ४. वहीं, ८.२४६ यत्पुनरिह नवं नत्केवलिगम्यम्। ५. आयाग २ १०८-सव्वामगंधं परिण्णाय, निरामगंधी परिवाए। ६. सय, २.१.६५.२२/४९,२५८-१। 9. भ. १.१.४३६.४.१६५.५.६/१४०॥ ८. उनस, २०/४०1 ०. दसवे.३.२-३ १०. भ. जा.२११४३५-१४
च्यार आहार सचिन नै असूझता है, त्यांने थावक नो निसंक सं जाणे सुध मान। आपरी तरफ यूं सूध व्यवहार करै नैं, साधा नै हरष सूं दियो छ दान॥ निण री पात्र में सचिन पायादिक न्हाख्यो,
अथवा सचिन रजादिक लानी छ आय। तिण श्रावक ने कांड खबर नहीं है, पिण व्यवहार सं सुध जाण दिया बहगय ।
इण रीते आहार सचित्त नैं असूझतो छ, श्रावक तो सुध जाणे ने वेहरावै। अल्प पाप ते पाप तणो छै नकारो, चोखा परिणाम सं बोहत निरजरा थावै।। के तो अजाणपणै साधु नैं वेहरावै. निणरी नरफ सूं फासू नैं सूझतो जाण। इण रीते ए पाठ नों अर्थ हुवै तो, अल्प पाप ने पाप तणो छै नकारो, चोखा परिणाम सं बोहत निर जरा थावै॥ के तो अजाणे साधु नैं वेहरावे, निणरी तरफ तूं फासू नै सूझना जाण। इण रीन ए पाठ नौ अर्थ हुवै तो, ने पिण केवलज्ञानी वदे ते प्रमाण।। ऊनी पाणी निसंक सूं श्रावक जाणे छै, तिण पाणी ने घर रा बावर दियो ताय। निण ठाम में काचो पाणी घर रा घाल्यो, निणरी तो श्रावक नैं खबर नै काय।। तिण पाणी नैं श्रावक ऊनो जाण ने, निसंक संसाधां ने दियो वेहराय। निणरै अल्प पाप नै बोहत निरजरा हवै तो, ने पिण केवली नैं देणो भन्लाय।। कोरा चिंणा पड्या छ भूगडादिक में, सचिन गेहं पड्या छ घाणी रे माय। निणरी श्रावक नैं खबर न कांड, सूझता जाणी साधां ने दिया वेहराय।। अचित्त दाखां में सचित्त दाखां पड़ी छै, अचिन खादम में सचित्त खादम छ ताय। निणरी थावक नैं तो खबर न कांड, ने सूझनो जाण नै दियो बहराय॥
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भगवई
आचार्य भिक्षु ने व्रताव्रत की चौपाई में भी इसी अर्थ का समर्थन किया है।
प्राचीन काल में पाठ शोधन और पाठ-मीमांसा की पद्धति प्रायः प्रचलित नहीं थी इसलिए पाठ के विषय में कोई समीक्षा प्राप्त नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर अनुमान किया जा
उवनिमंतितपिंडादि- परिभोगविहि-पदं २४८. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवापडिया अणुप्पविट्टं केइ दोहिं पिंडेहि उवनिमंतेज्जा- एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि । से य तं पडिग्गा हेज्जा, थेरा य से
वेस सिया । जत्थेव अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णसिं दाव, एते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वे सिया ||
२४९. निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंड - वायपडियाए अणुप्पविट्ठ केइ तिहिं पिंडेहि उवनिमंतेज्जा- एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दल - याहि । से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से Nagar सिया । जत्थेव अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अगवेसमा थेरे पासिज्जा ते नो अप्पणा भुंजेज्जा, नो अण्णेसिं दावए, एते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमज्जित्ता परिट्ठावेयव्वा सिया । एवं जाव दसहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा, नवरं एवं आ उसो ! अप्पणा भुंजाहि, नव थेराणं
इत्यादिक अनेक सचित्त वस्त छै तो श्रावक निसंक सूं अचित्त जाण ।
ते पिण आपरी तरफ सूं चोकस करने,
साधां नैं बेहरावे घणो हरष आण ||
९५
श. ८ : उ. ६ : सू. २४४, २४९
सकता है कि यह पाठ द्वादशवर्षीय दुष्काल जैसी स्थिति में रचा गया और फिर वह किसी कालखंड में प्रस्तुत आगम में प्रक्षिप्त हो गया। भाष्य के असंस्तरण और संस्तरण संबंधी उल्लेख से इस अनुमान की पुष्टि होती है।
उपनिमंत्रितपिण्डादि- परिभोगविधि पदम् निर्ग्रन्थं च 'गाहावइ' कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टं कोऽपि द्वाभ्यां पिण्डाभ्यां उपनिमन्त्रयेत्एकम् आयुष्यमन् ! आत्मना भुंक्ष्व, एकं स्थविरेभ्यः देहि । सः च तं प्रतिगृह्णीयात् स्थविरा: च तस्य अनुगवेषयितव्याः स्युः । यत्रैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तत्रैव अनुप्रदातव्यः स्यात्, नो चैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तं नो आत्मना भुञ्जीत, नो अन्येभ्यः दद्यात्, एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात् ।
निर्ग्रन्थं च ' गाहावइ' कुलं पिण्डपातप्रतिज्ञया अनुप्रविष्टं कोऽपि त्रीभिः पिण्डैः उपनिमन्त्रयेत् एकम् आयुष्यमन् ! आत्मना भुंक्ष्व, द्वौ स्थविरेभ्यः दद्यात्। सः च तान् प्रति गृहणीयात् स्थविरा: च तस्य अनुगवेष-यितव्याः स्युः । यत्रैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तत्रैव अनुप्रदातव्यः स्यात्, नो चैव अनुगवेषयन् स्थविरान् पश्येत् तान् नो आत्मना भुंजीत, नो अन्येभ्यो दद्यात्, एकान्ते अनापाते अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात् । एवं यावत् दशभिः पिण्डैः उपनिमन्त्रयेत्, नवरमएकम् आयुष्यमन्! आत्मना भुंजीत नव स्थविरेभ्यः दद्यात् । शेषं तच्चैव यावत्
उपनिमंत्रितपिण्डादि परिभोगविधि - पद २४८. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति दो पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है-आयुष्मान् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दूसरा पिण्ड स्थविरों को दे देना । वह निग्रंथ उन दोनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे।
गवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं एक पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे तो उस दूसरे पिण्ड को न स्वयं खाए, न किसी अन्य को दे, एकान्त, अनापात, अचित्त बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उस पिण्ड का वहां परिष्ठापन कर दे।
२४९. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति तीन पिण्डों का उपनिमंत्रण देता हैआयुष्मान् ! एक पिण्ड आप खा लेना और दो पिण्ड स्थविरों को दे देना। वह निर्ग्रथ उन तीनों पिण्डों को ग्रहण कर ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों को देखे वहीं दो पिण्ड उन्हें दे दे। अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई न दे, तो उन दो पिण्डों को न स्वयं खाएं, न किसी अन्य को दे एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर उन पिण्डों का वहां परिष्ठापन कर दे। इस प्रकार
इण ते श्रावक रे बोहत निरजरा होवे, तो पिण केवलज्ञानी जाणै ।
म्हैं तो अटकल सूं उनमान कर्यो छै,
वले सूतर रा अनुसारा प्रमाणै ॥
१. भिक्षु ग्रंथ रत्नाकार भाग-१ व्रताव्रत की चौपड़, ढाल १५/५-१२।
२. बृ. क. भा. गा. १६०८ ।
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भगवई
श. ८ : उ. ६ : सू. २४९,२५१ दलयाहि। सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयव्वा सिया।।
परिष्ठापयितव्याः स्युः।
यावत् कोई गृहपति दस पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है-जैसे आयुष्मान् ! एक आप खा लेना और नौ स्थविरों को दे देना। शेष पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् परिष्ठापन कर दे।
२५०. निग्गथं च णं गाहावइकुलं निर्ग्रन्थं च 'गाहावई' कुलं पिण्डपात- २५०. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविट्ठ केइ दोहिं प्रतिज्ञया अनुप्रविष्ट कोऽपि द्वाभ्यां में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा-एणं आउसो! प्रतिग्रहाभ्यां उपनिमन्त्रयेत् एकम् दो पात्रों का उपनिमंत्रण देता हैअप्पणा पडिभुंजाहि, एगं राणं आयुष्यमन् ! आत्मना प्रतिभुक्ष्व, एकं आयुष्मान् ! एक पात्र का आप परिभोग दलयाहि। से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा स्थविरेभ्यः दद्यात्। सः तं प्रतिगृह्णीयात् कर लेना और दूसरा स्थविरों को दे देना। य से अणुगवेसियव्वा सिया। जत्थेव । स्थविराः तस्य अनु-गवेषयितव्याः स्युः। वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेव । यत्रैव अनुगवेषयन्, स्थविरान् पश्येत् तत्रैव ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अनुप्रदातव्यः स्यात्, नौ चैव अनुगवेषयन अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा नो स्थविरान् पश्येत् तं नो आत्मना परिभुंजीत, को देखे, वहीं एक पात्र उन्हें दे दे। अप्पणा परिभुंजेज्जा, नो अण्णेसिं । नो अन्येभ्यः दद्यात्, एकान्ते अनापाते अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई दावए, एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य न दे तो उस दूसरे पात्र का न स्वयं थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पम्मज्जित्ता प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात्। एवं यावत् परिभोग करे, न किसी अन्य को दे, परिट्ठावेयव्वे सिया। एवं जाव दसहिं दशभिः प्रतिग्रहैः।
एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक पडिग्गहेहि।
स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया, एवं एवं यथा प्रतिग्रहवक्तव्यता भणिता, एवं प्रमार्जन कर उस पात्र का वहां परिष्ठापन गोच्छग - रयहरण - चोलपट्टग-कंबल- गोच्छक-रजोहरण-चोलपट्ट क-कंबल- कर दे। इसी प्रकार यावत् दस पात्रों का। लट्ठि-संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा यष्टि-संस्तारकवक्तव्यता च भणितव्या जैसे पात्र की वक्तव्यता कही गई, वैसे ही जाव दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेज्जा यावत् दशभिः संस्तारकैः उपनिमन्त्रयेत् गोच्छग, रजोहरण, चुल्लपट्टक, कंबल, जाव परिहावेयव्वा सिया॥ यावत् परिष्ठापयितव्यः स्यात्।
यष्टि, संस्तारक की वक्तव्यता कथनीय है यावत् दस संस्तारकों का उपनिमंत्रण
देता है यावत् उनका परिष्ठापन कर दे।
भाष्य १. सूत्र २४८-२५०
इस आलापक में प्रतिग्रह, गोच्छग, रजोहरण, चुल्लपट्टक, प्रस्तुत आलापक तृतीय महाव्रत-अदत्तादान विरमण से संबद्ध कंबल, यष्टि, बिछौना-इन सात उपकरणों का उल्लेख हुआ है। है। प्रामाणिकता इस तृतीय महाव्रत का महत्त्वपूर्ण अंग है। स्थविरों के उपकरणों की यह तालिका छेद सूत्र कालीन है। संकलन काल में लिए पिण्ड लेना संधीय चेतना का द्योतक है। स्थविरों के न मिलने पर प्रस्तुत आगम में इनका समावेश किया गया है। उस पिण्ड का स्वयं उपभोग न करना प्रामाणिकता का निदर्शन है। आलोयणाभिमुहस्स आराहय-पदं आलोचनाभिमुखस्य आराधक-पदम् आलोचनाभिमुख का आराधक-पद २५१. निग्गंथेण य गाहावइकुलं निर्ग्रन्थेन च 'गाहावइ' कुलं पिण्डपात- २५१. 'निग्रंथ ने भिक्षा के लिए गृहपति के पिंडवायपडियाए पविद्वेणं अण्णयरे पतिज्ञया प्रविष्ठेन अन्यतरे अकृत्यस्थाने कुल में प्रवेश कर किसी अकृत्य स्थान अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं प्रतिसेविते, तस्य एवं भवति इहैव तावत् का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में भवति-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स अहम् एतत् स्थानम् आलोचयामि, ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस अकृत्य आलोएमि, पडिक्कमामि, निंदामि, प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गहें, विवर्ते, स्थान की आलोचना करूं, प्रतिक्रमण गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, विशोधयामि, अकरणतया अभ्युतिष्ठामि, करूं, निंदा करूं, गर्दा करूं, विवर्तन करूं, अकरणयाए अब्भुट्टेमि, अहारियं यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्ये, ततः विशोधन करूं, पुनः न करने के लिए पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जामि, पश्चात् स्थविराणाम् अन्तिके आलोच- अभ्युत्थान करूं, यथायोग्य प्रायश्चित्त १. (क) दसवे. ४.२३॥
(ग) निसीह. १/१४०,२/२५, ४/२३, '/१९-२२। (ख) ववहारो८/५।
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भगवई
श.८ : उ. ६ : सू. २५१ तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोए- यिष्यामि यावत् तपःकर्म प्रतिपत्स्यत। रूप तपःकर्म स्वीकार करूं, तत्पश्चात् स्सामि जाव तवोकम्म पडिवज्जि- १.सः च संप्रस्थितः असम्प्राप्तः, स्थविराः स्थविरों के पास जाकर आलोचना स्सामि।
च पूर्वमेव अमुखाः स्युः। सः भदन्त ! किम् करंगा यावत् तपःकर्म स्वीकार करूंगा। १. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य आराधकः ? विराधकः?
१. उसने आलोचना के संकल्प के साथ पुव्वामेव अमुहा सिया। से णं भंते! किं
प्रस्थान किया, अभी स्थविरों के पास आराहए? विराहए?
पहुंचा नहीं, उससे पहले ही स्थविर अमुख (बोलने में असमर्थ) हो गए। भंते! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा
विराधक? गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम! आराधकः, नो विराधकः।
गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। २. से य संपढ़िए असंपत्ते, अप्पणा य २. सः च संप्रस्थितः असम्प्राप्तः, आत्मना २. उसने आलोचना के संकल्प के साथ पुवामेव अमुहे सिया। से णं भंते! किं च पूर्वमेव अमुखः स्यात्। सः भदन्त ! किम् प्रस्थान किया, अभी स्थविरों के पास आराहए? विराहए? आराधकः ? विराधकः?
पहुंचा नहीं, उससे पहले ही स्वयं अमुख (बोलने में असमर्थ) हो गया। भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा
विराधक? गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम ! आराधकः, नो विराधकः।
गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। ३. से य संपट्ठिए असंपत्ते, थेरा य कालं ३. सः च संप्रस्थितः असम्प्राप्तः, ३. उसने आलोचना के संकल्प के साथ करेज्जा। से णं भंते! किं आराहए? । स्थविराः च कालं कुर्युः। सः भदन्त ! किम् प्रस्थान किया, अभी स्थविरों के पास विराहए? आराधकः? विराधकः?
पहुंचा नहीं उससे पहले ही स्थविर काल कर गए। भंते! इस अवस्था में क्या वह
आराधक है अथवा विराधक ? गोयमा आराहए, नो विराहए। गौतम ! आराधकः, नो विराधकः।
गौतम! वह आराधक है, विराधक नहीं। ४. से य संपट्ठिए असंपत्ते, अप्पणा य । ४. सः च संप्रस्थितः असम्प्राप्तः आत्मना ४. उसने आलोचना के संकल्प के साथ पुवामेव कालं करेज्जा। से णं भंते! किं च पूर्वमेव कालं कुर्यात्। सः भदन्त ! किम् प्रस्थान किया, अभी स्थविरों के पास आराहए? विराहए? आराधकः ? विराधकः?
पहुंचा नहीं, उससे पहले ही स्वयं काल कर गया। भंते! इस अवस्था में क्या वह
आराधक है अथवा विराधक? गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम! आराधकः, नो विराधकः ।
गौतम! वह आराधक है विराधक नहीं। ५. से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य अमुहा ५.सः च संप्रस्थितः सम्प्राप्तः, स्थविराः च ५. उसने आलोचना के संकल्प के साथ सिया। से णं भंते! किं आराहए? अमुखाः स्युः। सः भदन्त! किम् प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच विराहए? आराधकः? विराधकः?
गया, उस समय स्थविर अमुख हो गए। भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है
अथवा विराधक? गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम! आराधकः, नो विराधकः।
गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। ६.से य संपट्टिए संपत्ते अप्पणा य अमुहे। ६. सः च संप्रस्थितः सम्प्राप्तः, आत्मना च. ६. उसने आलोचना के संकल्प के साथ सिया। से णं भंते! किं आराहए? अमुखः स्यात्। सः भदन्त! किम् । प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच विराहए? आराधकः? विराधकः?
गया, उस समय स्वयं अमुख हो गया। भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है
अथवा विराधक? गोयमा! आराहए, नो विराहए। गौतम! आराधकः, नो विराधकः। गौतम! वह आराधक है, विराधक नहीं। ७. से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य कालं ७. सः च संप्रस्थितः सम्प्राप्तः, स्थविराः च ७. उसने आलोचना के संकल्प के साथ करेज्जा। से णं भंते! किं आराहए? कालं कुर्युः। सः भदन्त ! किम् आराधकः ? प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच विराहए? विराधकः?
गया, उस समय स्थविर काल कर गए।
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श.८ : उ.६ : सू. २५१-२५४
भगवई
गोयमा! आराहए, नो विराहए। ८. से य संपट्ठिए संपत्ते अप्पणा य कालं करेज्जा। से णं भंते! किं आराहए? विराहए?
गौतम ! आराधकः, नो विराधकः। ८.सः च संप्रस्थितः सम्प्राप्तः, आत्मना च कालं कुर्यात्। सः भदन्त ! किम् आराधकः ? विराधकः?
भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा विराधक? गौतम ! वह आराधक है. विराधक नहीं। ८. उसने आलोचना के संकल्प के साथ प्रस्थान किया, वह स्थविरों के पास पहुंच गया, उस समय वह स्वयं काल कर गया। भंते ! इस अवस्था में क्या वह आराधक है अथवा विराधक? गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं।
गोयमा! आराहए, नो विराहए।
गौतम! आराधकः, नो विराधकः।
२५२. निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा निर्ग्रन्थेन च बहिः विचारभूमि वा विहारभूमि विहारभूमिं वा निक्खंतेणं अण्णयरे वा निष्क्रान्तेन अन्यतरत् अकृत्यस्थानं अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं प्रतिसेवितम्, तस्य एवं भवति-इहैव तावत भवति-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स अहम् एतद् स्थानं आलोचयामि-एवम् आलोएमि-एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ अत्रापि ते चैव अष्ट आलापकाः भणितव्याः आलावगा भाणियव्वा जाव नो यावत् नो विराधकः। विराहए।
२५२. निर्ग्रन्थ ने बाह्य विचारभूमि (शौच
भूमि) अथवा विहारभूमि के लिए निष्क्रमण कर किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की आलोचना करूं यहां भी पूर्ववत् आठ आलापक वक्तव्य है यावत् विराधक
नहीं।
२५३. निग्गंथेण य गामाणुगामं निर्ग्रन्थेन च ग्रामानुगामं दवता अन्यतरत् २५३. निर्ग्रन्थ ने ग्रामानुग्राम विहार करते दूइज्जमाणेणं अण्णयरे अकिच्चट्ठाणे अकृत्यस्थानं प्रतिसेवितम्, तस्य एवं हुए किसी अकृत्यस्थान का प्रतिसेवन पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ- इहेव भवति-इहैव तावत् अहम् एतत् स्थानं कर लिया, उसके मन में ऐसा संकल्प ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि- आलोचयामि, एवम् अत्रापि ते चैव अष्ट हुआ- मैं यहीं इस अकृत्यस्थान की एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा आलापकाः भणितव्याः यावत् नो आलोचना करूं, यहां भी पूर्ववत् आठ भाणियव्वा जाव नो विराहए॥ विराधकः।
आलापक वक्तव्य हैं यावत् विराधक नहीं।
२५४. निग्गंथीए य गाहावइकुलं निर्ग्रन्थ्या च 'गाहावई' कुलं पिण्डपात- २५४. निन्थिनी ने भिक्षा के लिए गृहपति पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अण्णयरे प्रतिज्ञया अनुप्रविष्टया अन्यतरत् अकृत्य- के कुल में प्रवेश कर किसी अकृत्यस्थान अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तीसे णं एवं स्थानं प्रतिसेवितम्, तस्याः एवं भवति- का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में भवइ-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स इहैव तावत् अहम् एतत् स्थानं आलोचयामि ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस आलोएमि जाव तवोकम्म पडिवज्जामि; यावत् तपःकर्म प्रतिपद्ये; ततः पश्चात् अकृत्यस्थान की आलोचना करूं यावत् तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलो- प्रवर्तिन्या अन्तिके आलोचयिष्यामि यावत् तपःकर्म स्वीकार करूं, तत्पश्चात् एस्सामि जाव तवोकम्मं पडि- तपःकर्म प्रतिपत्स्ये।
प्रवर्तिनी के पास जाकर आलोचना वज्जिस्सामि।
करूंगी यावत् तपःकर्म स्वीकार करूंगी। सा य संपट्ठिया असंपत्ता, पवत्तिणी य सा च संप्रस्थिता, असम्प्राप्ता, प्रवर्तिनी च । उसने आलोचना के संकल्प के साथ अमुहा सिया। सा णं भंते! किं अमुखा स्यात्। सा भदन्त! किम् प्रस्थान किया। अभी प्रवर्तिनी के पास आराहिया? विराहिया? आराधिका? विराधिका?
पहुंची नहीं, उससे पहले ही प्रवर्तिनी अमुख (बोलने में असमर्थ) हो गई। भंते! इस अवस्था में क्या वह आराधिका है
अथवा विराधिका? गोयमा! आराहिया, नो विराहिया। गौतम! आराधिका, नो विराधिका। गौतम! वह आराधिका है, विराधिका सा य संपट्ठिया जहा निग्गंथस्स तिण्णि सा च संप्रस्थिता यथा निर्ग्रन्थस्य त्रयः नहीं। उसने आलोचना के संकल्प के साथ गमा भणिया एवं निग्गंधीए वि तिण्णि गमाः भणिताः एवं निर्ग्रन्थ्याः अपि त्रयः प्रस्थान किया, जैसे निर्ग्रन्थ के तीन गमक
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भगवई
आलावगा भाणियव्वा जाव आराहिया, आलापकाः भणितव्याः यावत् आराधिका, नो विराहिया॥
नो विराधिका।
श.८ : उ. ६ : सू. २५४,२५५ कहे गए हैं वैसे ही निर्ग्रन्थिनी के तीन आलापक वक्तव्य हैं यावत् आराधिका है, विराधिका नहीं।
Tes.
२५५. से केणद्वेण भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते- २५५. भन्ते! यह किस अपेक्षा से कहा जा आराहए? नो विराहए? आराधकः? नो विराधकः ?
रहा है-वह आराधक है, विराधक नहीं ? गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे एगं गौतम ! सः यथानामकः कश्चित् पुरुषः एकं गौतम ! जैसे कोई पुरुष भेड़ के लोम, हाथी महं उण्णालोमं वा, गयलोम, वा, महत् ऊर्णालोमं वा, गजलोमं वा, शणलोम के लोम, शणक के सूत्र, कपास के धागे, सणलोमं वा, कप्पासलोमं वा, तणसूयं वा, कार्पासलोमं वा, तृणशूकं वा, द्विधा वा तृण के अग्रभाग को दो तीन अथवा संख्येय वा दुहा वा तिहा वा संखेज्जहा वा । त्रिधा वा संख्येधा वा छित्वा अग्निकाये खण्डों में छिन्न कर अग्नि में डालता है। छिंदित्ता अगणि-कायंसि पक्खिवेज्जा, प्रक्षिपेत्, तत् नूनं गौतम ! छिद्यमानं छिन्नं, गौतम! क्या छिद्यमान को छिन्न से नूणं गोयमा! छिज्जमाणे छिपणे, प्रक्षिप्यमानं प्रक्षिप्त, दह्यमानं दग्धम् इति । प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान को पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, दज्झमाणे दड्ढे वक्तव्यं स्यात्।
दग्ध कहा जा सकता है? त्ति वत्तव्वं सिया? हंता भगवं! छिज्जमाणे छिण्णे, हन्त भगवन् ! छिद्यमानं छिन्नं, प्रक्षिप्यमानं हां भगवन! छिद्यमान को छिन्न, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, दज्झमाणे दड्डे प्रक्षिसं, दह्यमानंदग्धम् इति वक्तव्यं स्यात्। प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्स और दह्यमान को त्ति वत्तव्वं सिया।
दग्ध कहा जा सकता है। से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा, सः यथा वा कश्चित् पुरुषः वस्त्रं अहतं वा, जैसे कोई पुरुष अभिनव धौत और अभी धोतं वा, तंतुग्गयं वा मंजिट्ठदोणीए धौतं वा, तन्त्रोद्गतं वा माञ्जिष्ठद्रोण्या अभी वस्त्र निर्माण तंत्र से निकले हुए कपड़े पक्खिवेज्जा, से नूणं गोयमा! प्रक्षिप्येत्। तत् नूनं गौतम ! उत्क्षिप्यमानम् को मंजिष्ठा-द्रोणी (रंगने के पात्र) में उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते, पक्खिप्पमाणे उत्क्षिप्त, प्रक्षिप्यमानं प्रक्षिप्त, रज्यमानं डालता है। गौतम! क्या उत्क्षिप्यमान को पक्खित्ते, रज्जमाणे रत्ते त्ति वत्तव्वं रक्तम इति वक्तव्यं स्यात्।
उत्क्षिप्त, प्रक्षिप्यमान की प्रक्षिप्त और सिया?
रज्यमान को रक्त कहा जा सकता है? हंता भगवं! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते, हन्त भगवन् ! उत्क्षिप्यमानम् उत्क्षिप्तं, हां, भगवन् ! उत्क्षिप्यमान को उत्क्षिप्त, पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते, रज्जमाणे रत्ते प्रक्षिप्यमानं प्रक्षिप्तं, रज्यमानं रक्तम् इति प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और रज्यमान को त्ति वत्तव्वं सिया। से तेणटेणं गोयमा! वक्तव्यं स्यात् तत् तेनार्थेन गौतम ! रक्त कहा जा सकता है। एवं वुच्चइ-आराहए, नो विराहए॥ एवमुच्यते-आराधकः, नो विराधकः। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा
है-जो आराधना के लिए कृतसंकल्प है, वह आराधक है, विराधक नहीं।
भाष्य
१.सूत्र २५१-२५५
प्रस्तुत आलापक में आलोचना के विधि-सूत्र निर्दिष्ट हैं। अकृत्य-स्थान की प्रतिसेवना-मूल अथवा उत्तरगुण में दोषाचरण करने वाला मुनि आलोचना के भाव में परिणत होकर प्रस्थान करता है
और अनुकूल स्थिति के अभाव में आलोचना नहीं कर पाता, फिर भी वह आलोचनात्मक परिणाम और भावविशुद्धि के कारण आराधक माना गया है। भाष्यकार ने भी इस विषय का उल्लेख किया है।'
आलोयणापरिणओ, सम्म संपट्ठिओ गुरुसगासे। जइ अंतरा कालं करेज्ज आराहओ तहवि॥
अभयदेवसूरि द्वारा उद्धृत गाथा निशीथ भाष्य की गाथा से कुछ भिन्न है
आलोयणापरिणओ, सम्मं संपट्ठिओ गुरुसगासे। जइ मरइ अंतरेच्चिय, तहावि सुद्धोत्ति भावाओ॥ आराधक और विराधक का प्रयोग अनेक संदर्भो में होता है१. ज्ञान का आराधक और विराधक। २. दर्शन का आराधक और विराधक। ३. चारित्र का आराधक और विराधक। ४. इहलोक का आराधक और विराधक। ५. परलोक का आराधक और विराधक।
६. स्वीकृत व्रत की निरतिचार अनुपालना करने वाला आराधक और न करने वाला विराधक होता है।
आलोचना की अभिमुखता के आठ विकल्प बतलाए गए हैं।
१.नि. भा. चू. गा. ६३२१॥
२.भ. वृ.८/२५१-५३।
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श.८ : उ.६ : सू. २५६,२५७
भगवई उन सब विकल्पों में अतिचार विशुद्धि मान्य की गई है।
सकता है। अकृत्यस्थान की आलोचना न होने पर विशुद्धि कैसे हो द्रष्टव्य भगवई (खंड १, शतक १ सू. ११-१२ का भाष्य)। सकती है? इसका समाधान "क्रियमाण-कृत' के सिद्धांत द्वारा शब्द-विमर्श किया गया है। क्रिया काल और निष्ठा काल में अभेद होता है, तृणशूक-तृण का अग्रभाग। प्रतिक्षण कार्य की निष्पत्ति होती है। इस सिद्धांत के अनुसार तंत्रोद्गत-तांत, करघा, कपड़ा बुनने के यंत्र से निकला हुआ।' छिद्यमान को छिन्न, प्रक्षिप्यमान को प्रक्षिप्त और दह्यमान के दग्ध मञ्जिष्ठा राग-मजीठ का रंग। कहा जाता है, वैसे ही आराधना में प्रवृत्त को आराधक कहा जा जोति-जलण-पदं ज्योतिर्खलन-पदम्
ज्योति ज्वलन-पद २५६. पदीवस्स णं भंते! झियाय- प्रदीपस्य भदन्त ! ध्मायतः किं प्रदीपः २५६. 'भन्ते! प्रदीप जलता है उस समय माणस्स किं पदीवे झियाइ? लट्ठी ध्मायति? यष्टिः ध्मायति? वर्तिः ध्मायति? क्या प्रदीप जलता है? दीपयष्टि जलती झियाइ? वत्ती झियाइ? तेल्ले झियाइ? तैलं ध्मायति? दीपचम्पकं ध्मायति? है? बाती जलती है? तेल जलता है? दीवचंपए झियाइ? जोती झियाइ? ज्योतिः ध्मायति? ।
ढक्कन जलता है ? ज्योति जलती है? गोयमा! नो पदीवे झियाइ, नो लट्ठी गौतम! नो प्रदीपः ध्मायति, नो यष्टिः गौतम! न प्रदीप जलता है, न दीपयष्टि झियाइ, नो वत्ती झियाइ, नो तेल्ले ध्मायति, नो वर्तिः ध्मायति, नो तैलं जलती है, न बाती जलती है, न तेल झियाइ, नो दीवचंपए झियाइ, जोती ध्मायति, नो दीपचम्पकं ध्मायति, ज्योति जलता है, न ढक्कन जलता है, ज्योति झियाइ॥ धर्मायति।
जलती है।
२५७. अगारस्स णं भंते! झियाय- अगारस्य भदन्त ! ध्मायतः किम् अगारः माणस्स किं अगारे झियाइ? कुड्डा ध्मायति? कुड्यं ध्मायति ? 'कंडना' झियाइ? कडणा झियाइ? धारणा ध्मायति? धारणा ध्मायति? बलहरणं झियाइ? बलहरणे झियाइ? वंसा ध्मायति? वंश ध्मायति ? 'मल्ला' झियाइ? मल्ला झियाइ? वागा ध्मायति? बल्कं ध्मायति? छितरा झियाइ? छित्तरा झियाइ? छाणे ध्मायति? 'छाणे' ध्मायति? ज्योति झियाइ? जोती झियाइ?
धर्मायति?
२५७. भन्ते! घर जलता है उस समय क्या घर जलता है? भीत जलती है? टाटी जलती है? खंभा जलता है? खंभे के ऊपर का काठ जलता है ? बांस जलता है? भीत को टिकाने वाला खंभा जलता है? बलका जलती है? बांस की खपाचियां जलती हैं ? दर्भपटल जलता है? ज्योति जलती है? गौतम ! न घर जलता है, न भींत जलती है यावत् न दर्भपटल जलता है,ज्योति जलती
गोयमा !नो अगारे झियाइ, नो कुड्डा गौतम! नो अगारः ध्मायति, नो कुड्यं झियाइ, जाव नो छाणे झियाइ, जोती ध्मायति यावत् नो 'छाणे' ध्मायति. ज्योति झियाइ।
ध्यति।
भाष्य
सा
१. सूत्र २५६-२५७
इस आलापक का प्रतिपाद्य है-क्रिया की सापेक्षता। जलना अग्निकायिक जीवों की क्रिया है। वह क्रिया दीप, तैल, बाती आदि सापेक्ष है। मिट्टी का दीप पृथ्वीकायिक जीव का मुक्त शरीर है। तैल
और बाती वनस्पतिकायिक जीवों केमुक्त शरीर हैं। अग्नि की ज्वलन क्रिया पृथ्वीकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के मुक्त शरीरों की अपेक्षा रखती है। इस प्रकार क्रिया की सापेक्षता का संबोध दिया गया है।
जयाचार्य के अनुसार दीया जलता है, यह व्यवहार नय का
वचन है और अग्नि जलती है, यह निश्चय नय का वचन है।'
इसी प्रकार गृह के प्रसंग में भी निश्चय नय की वक्तव्यता है-घर नहीं जलता, ज्योति जलती है। इस प्रकरण के आधार पर क्रिया के सिद्धांत को समझाया गया है। शब्द विमर्श
दीवचंपय-दीये का ढक्कन। कडना-टाटी। धारण-खंभा। बलहरण-खंभे के ऊपर का काठ।
१. भ. वृ. ८/२५५-क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते एवमसावालोचनापरिणती सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति। २. भ. वृ. ८.२५५-तन्त्रोद्गतं तूरिवेमादेरुत्तीर्णमात्रम्।
३. भ. जो.२/१४६/४-५
अथवा अग्नि बलै अछै? तब भाखै जिनराय दीवो न जले जाव तसु. बले ढाकणो नाय ।। तेऊ अग्नि बले अछ, ए निश्चय-नय वाय, अग्नि तणां प्रस्ताव थी बलि तेहिज कहिवाय।।
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भगवई
श.८: उ. ६ : सू. २५८-२६४
मल्ल-भीत को टिकाने वाला खंभा।
छिन्वर-बांस की खपाची। बलका-बांस को बांधने के लिए प्रयुक्त होने वाली वट आदि छाण-दर्भ आदि का पटल। की छाल। किरिया-पदं क्रियापदम्
क्रिया पद २५८. जीवे णं भंते! ओरालिय- जीवः भदन्त! औदारिकशरीरात् २५८. 'भन्ने! जीव औदारिकरशरीर से सरीराओ कतिकिरिए? कतिक्रियः?
कितनी क्रिया वाला है? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउ- गौतम ! स्यात त्रिकियः, स्यात् चतुष्क्रियः, गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात किरिए, सिय पंचकिरिए, सिय स्यात् पञ्चक्रियः, स्यात् अक्रियः।
चार क्रिया वाला, स्थात् पांच क्रिया वाला. अकिरिए॥
स्यात् अक्रिय-क्रिया रहित है।
२५९. नेरइए णं भंते! ओरालिय-सर- नैरयिकः भदन्त! औदारिकशरीरात राओ कतिकिरिए?
कतिक्रियः? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुष्क्रियः, चउकिरिए, सिय पंचकिरिए।
स्यात् पञ्चक्रियः।
२५९. भन्ते! नैरयिक औदारिकशरीर से कितनी क्रिया वाला है? गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चार क्रिया वाला, स्यात् पांच क्रिया वाला।
२६०. असुरकुमारे णं भंते! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए? एवं चेव। एवं जाव वेमाणिए, नवरंमणुस्से जहा जीवे॥
असुरकुमारः भदन्त ! औदारिकशरीरात् कतिक्रियः? एवं चैव। एवं यावत् वैमानिकः, नवरंमनुष्यः यथा जीवः।
२६०. भन्ते ! असुरकुमार औदारिकशरीर से कितनी क्रिया वाला है? नैरयिक की भांति वक्तव्यता, इयी प्रकार यावत् वैमानिक की वक्तव्यता, इतना विशेष है-मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य
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२६१. जीवे णं भंते ! आरोलियसरीरेहितो कतिकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए जाव सिय अकिरिए।
जीवः भदन्त! औदारिकशरीरेभ्यः २६१. भन्ते! जीव औदारिकशरीरों से कतिक्रियः?
कितनी क्रिया वाला है? गौतम! स्यात् त्रिक्रियः यावत् स्यात् गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला यावत् अक्रियः।
स्यात् अक्रिय।
२६२. नेरइए णं भंते ! आरोलिय-सरीरे- हिंतो कतिकिरिए? एवं एसो वि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियव्वो जाव वेमाणिए, नवरंमणुस्से जहा जीवे॥
नैरयिकः भदन्त! औदारिकशरीरेभ्यः २६२. भन्ते! नैरयिक औदारिकशरीरों से कतिक्रियः?
कितनी क्रिया वाला है? एवम् एषोऽपि यथा प्रथमः दंडकः तथा यह प्रथम दण्डक (नैरयिक सू.२५८) की भणितव्यः यावत् वैमानिकः, नवरं-मनुष्यः भांति वक्तव्य है। यावत् वैमानिक, इतना यथा जीवः।
विशेष है-मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य
२६३. जीवा णं भंते! ओरालिय-सरीर- जीवाः भदन्त ! औदारिकशरीरात कति- ओ कतिकिरिया?
क्रियाः? गोयमा! सिय तिकिरिया जाव सिय गौतम! स्यात् त्रिक्रियाः यावत् स्यात् अकिरिया।।
अक्रियाः।
२६३. भन्ते! जीव औदारिकशरीर से कितनी क्रिया वाले हैं? गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाले यावत अक्रिय हैं।
औदारिकशरीरात्
२६४. नेरझ्या णं भंते! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया?
नैरयिकाः भदन्त ! कतिक्रियाः?
२६४. भन्ते! नैरयिक औदारिकशरीर से कितनी क्रिया वाले हैं?
१. भ. बृ.८.२५०-भगारं-कुटीगृहं कुहुनि भित्तयः कड़णति त्रटिकाः धारणनि बलहरणाधारभूत स्थूण, बलहरणेति धारणयोरुपरिवर्नितिर्यगायतकाष्ठं मोम' इति यन्प्रसिद्ध वंसति वंशाश्छिन्वगधारभूताः मल्लनि मल्ला:कुड्यावष्टम्भस्थाणय: बलहरणा धारणाश्रितानि वा छिन्वराधारभतानि
ऊर्ध्वायनानि काष्टानि वागत्ति वल्का-वंशादि बंधनभूतावटादित्वचः छिनरनि छिन्वराणि-वंशादिमयानि छादनाधारभूतानि किलिजानि छान-छादनं दर्भादिमयं पटलमिति।
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भगवई
श.८ : उ. ६ : सू. २६४-२६९
१०२ एवं एसो वि जहा पढमो दंडओ तहा एवं एषोऽपि यथा प्रथमः दंडकः तथा भाणियव्यो जाव वेमाणिया, नवरं- भणितव्यः यावत् वैमानिकाः, मणुस्सा जहा जीवा॥
नवरं-मनुष्याः यथा जीवाः।
यह भी प्रथम दण्डक की भांति वक्तव्य है यावत् वैमानिक, इतना विशेष है-मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य हैं।
२६५. जीवा णं भंते! ओरालिय-सरीरेहितो कतिकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि,चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि॥
२६५. भन्ते! जीव औदारिकशरीरों से कितनी क्रिया वाले हैं? गौतम ! तीन क्रिया वाले भी, चार क्रिया वाले भी, पांच क्रिया वाले भी और अक्रिय
गौतम ! त्रिक्रियाः अपि, चतुष्क्रियाः अपि, पञ्चक्रियाः अपि. अक्रियाः अपि।
२६६. नेरइया णं भंते! ओरालिय-सरीरे- हिंतो कतिकिरिया? गोयमा! तिकिरिया वि.चउकिरिया वि. पंचकिरिया वि। एवं जाव वेमाणिया, नवरं-मणुस्सा जहा जीवा।।
नैरयिकाः भदन्त ! औदारिकशरीरात कति- क्रियाः? गौतम । त्रिक्रियाः अपि, चतुष्क्रियाः अपि. पञ्चक्रियाः अपि। एवं यावत वैमानिकाः, नवरं- मनुष्याः यथा जीवाः।
२६६. भन्ते! नैरयिक औदारिकशरीरों से कितनी क्रिया वाले हैं? गौतम! तीन क्रिया वाले भी. चार क्रिया वाले भी और पांच क्रिया वाले भी है, यावत वैमानिक, इतना विशेष है-मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य हैं।
२६७. जीवे णं भंते! वेउब्वियसरीराओ जीवः भदन्त ! वैक्रियशरीरात कतिक्रियः? कतिकिरिए? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय गौतम ' स्यात् त्रिक्रियः, स्यात चतुष्क्रियः, चउकिरिए, सिय अकिरिए।
स्यात अक्रियः।
२६७. भन्ते! जीव वैक्रियशरीर से कितनी क्रिया वाला है ? गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चार क्रिया वाला, स्यात् अक्रिय।
२६८. नेरइए णं भंते ! वेउब्वियसरीराओ नैरयिकः भदन्त! वैक्रियशरीरात् कतिकिरिए?
कतिक्रियः? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए। एवं जाव वेमाणिए, नवरं-मणुस्से एवं यावत् वैमानिकः, नवरं-मनुष्यः यथा जहा जीवे । एवं जहा ओरालियसरीरेणं । जीवः। एवं यथा औदारिकशरीरेण चत्वारः चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउब्विय- दण्डकाः भणिताः तथा वैक्रियशरीरेण अपि सरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियब्बा, चत्वारः दण्डकाः भणितव्याः, नवरंनवरं- पंचमकिरिया न भण्णइ, सेसं तं। पञ्चमक्रिया न भण्यते, शेषं तच्चैवम्। एवं चेव। एवं जहा वेउब्वियं तहा आहारगं । यथा वैक्रियं तथा आहारकमपि, पि, तेयगं पि कम्मगं पि भाणियब्वं- तेजस्कमपि. कर्मकमपि भणितव्यम्एक्केक्के चत्तारि दंडगा भाणियव्वा एकैकस्मिन चत्वारः दण्डकाः भणितव्याः जाव
यावत
२६८. भन्ते! नैरयिक वैक्रियशरीर से कितनी क्रिया वाला है? गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चार क्रिया वाला यावत् वैमानिक, इतना विशेष है-मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य है। जैसे औदारिकशरीर से चार दण्डक कहे गए हैं वैसे वैक्रियशरीर से भी चार दण्डक वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-पांची क्रिया का निर्देश नहीं है, शेष सब पूर्ववत्। जैसे वैक्रियशरीर की वक्तव्यता है वैसे ही आहारकशरीर, तैजसशरीर और कर्मशरीर भी वक्तव्य हैं। प्रत्येक शरीर के चार-चार दण्डक वक्तव्य हैं यावत्
२६९. वेमाणिया णं भंते! कम्मग- वैमानिकाः भदन्त ! कर्मकशरीरेभ्यः कति- २६९. भन्ने! वैमानिक कर्मशरीरों से सरीरेहिंतो कतिकिरिया ? क्रियाः?
कितनी क्रिया वाले हैं? गोयमा! तिकिरिया वि, चउकिरिया गौतम ! त्रिक्रियाः अपि, चतुष्क्रियाः अपि। गौतम! तीन क्रियावाले भी हैं, चार क्रिया वि॥
वाले भी हैं।
भाष्य १.सूत्र २५८-२६९
किया गया है। तीन क्रियाएं शरीर के आधार पर भी हो सकती है प्रस्तुत आलापक में औदारिक आदि शरीर तथा औदारिक किन्तु चार और पांच क्रियाएं जीव युक्त शरीर सापेक्ष होती है। प्रज्ञापना आदि शरीर युक्त जीव-इन दोनों की अपेक्षा से क्रिया का विचार में जीव की अपेक्षा क्रिया और शरीर की अपेक्षा क्रिया-ये दोनों सूत्र
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भगवई
१०३
श.८ : उ. ६ : सू. २७० भिन्न-भिन्न है।' वृत्तिकार न पर शरीर तथा नारक के प्रसंग में के ही होता है। इस अवस्था में आहारक शरीर की अपेक्षा नैरयिक औदरिकशरीरवान का भी उल्लेख किया है।'
स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय कैसे हो सकता है ? वृत्तिकार ने इसका यहां कायिकी, आधिकरणिकी. प्रादोषिकी, पारितापनिकी और समाधान पूर्व शरीर की अपेक्षा से किया है। इसका तात्पर्य है कि एक प्राणातिपात क्रिया-इन पांच क्रियाओं की विवक्षा है। इनमें क्रिया के नैरयिक पूर्व जन्म में मनुष्य है और मृत्यु के पश्चात् वह नरक में उत्पन्न तीन वर्ग बनते है।
होता है। उसने पूर्व जन्म में मनुष्य के शरीर का निर्माण किया था। १. कायिकी, आधिकरणिकी, प्रादोषिकी-ये तीनों क्रियाएं एक मृत्यु के पश्चात् वह शरीर जब तक जीव निर्वर्तित परिणाम को नहीं साथ नियमतः होती है।
त्याग देता तब तक वह निर्वर्तक जीव का ही शरीर कहलाता है। इस २. पारितापनिकी क्रिया होती है तब आद्यवर्ती तीन क्रियाएं नय के अनुसार नैरयिक का पूर्वभववर्ती शरीर नैरयिक जीव का ही अवश्य होती हैं।
कहलाएगा उस शरीर के अस्थि आदि किसी एक देश से आहारक ३. प्राणातिपात क्रिया के साथ आद्यवर्ती चारों क्रियाएं नियमतः शरीर का स्पर्श या परिताप होता है, इस अपेक्षा से वह नैरयिक जीव होती है।
स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय होता है। इस नियम के आधार पर स्यात् त्रिक्रिय, स्यात् चतुष्क्रिय, पूर्ववर्ती शरीर से क्रिया का संबंध कैसे माना जाए? यह एक स्यात् पंचक्रिय-ये तीन विकल्प बनते हैं।
जटिल प्रश्न है। इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवई (शतक ५. अक्रिय केवल वीतराग होता है।
१३३-१३४) का भाष्य द्रष्टव्य है। जयाचार्य ने अप्रमत्त का भी अक्रिय के रूप में निर्देश किया है। तैजस शरीर सूक्ष्म और कार्मण शरीर सूक्ष्मतर है। उनको इसका आधार भगवती का पहला शतक है। उसमें अप्रमत्त संयत को परितापित नहीं किया जा सकता और वे सदा औदारिक अथवा वैक्रिय अनारंभ बतलाया गया है। अनारंभ अक्रिय होता है।
शरीर के आश्रित ही होते हैं। अतः उनकी अपेक्षा क्रिया कैसे संभव हो नैरयिक, देव और तिर्यंच-ये अक्रिय नहीं होते। केवल मनुष्य सकती है ? इस प्रश्न का समाधान यह है-औदारिक अथवा वैक्रिय ही वीतराग और अप्रमत्त हो सकता है इसलिए अक्रिय वही हो सकता शरीर को परिताप पहुंचाने पर तैजस और कार्मण शरीर भी परितप्त हो
जाते हैं। वैक्रिय शरीर का प्राण वियोजन नहीं किया जा सकता इसलिए "धुणे कम्मसरीरगं" इस सूत्र से प्रस्तुत विषय की पुष्टि होती वैक्रिय शरीर की अपेक्षा स्यात् पंचक्रिय का विकल्प नहीं बनता। है। नैरयिक अधोलोक में रहते हैं और आहारक शरीर केवल संयमी मनुष्य २७०.सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति । २७०. भन्ते! वह ऐसा ही है। भन्ते! वह
ऐसा ही है।
१.पण्ण.२०३२.३01 २. भ. वृ. ८२५८-औदारिकशरीरात-परकीयऔदारिकशरीरमाश्रित्य
कतिक्रियो जीवः? ३. पण्ण. २२/४८.५२। ४. भ. वृ. ८.२५८-सिय अकिरियनि वीतरागावस्यामाश्रित्य नस्या हि
वीतरागत्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया इति। ५. भ. जो. २. १४६ २५.२८
०. वही, ८/२६७-२०८-अथ नारकल्याधोलोकवर्तित्वाद् आहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकवर्तित्वेन तत्क्रियाणामविषयत्वात् कथमाहारकशरीरमाश्रिन्य नारकः स्यात्त्रिक्रियः स्याच्चतुष्क्रिय इति? अत्रोच्यते, यावत पूर्वशरीरमत्युत्सृष्ट जीवनिर्वर्तितपरिणामं न त्यजति नावन पूर्वभावप्रज्ञापनानयमन निर्वर्नकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते घृतघटन्यायेन इत्यतो नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव नद्देशेन च मनुष्यनोक-वर्तिनास्थ्याविरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा तदाहारकदहा-नारकस्त्रिक्रियचतुष्क्रिया वा भवति कायिकी भावे इतरयारवश्यं भावात पारितापनिकी भाव चाद्य त्रयस्यावश्यं
भावादिति। १०. वही, ८/२६७-२६८-यच्च जसकार्मणशरीरापक्षया जीवानां परितापकत्वं तदौदारिकादि आश्रितत्वेन नयारवसंयं, स्वरूपेण तयोः परिनापयिनुमशक्यत्वान। ११. आयारो २ १६३ और उसका भाष्य।
9. भ. वृ. ८२५० क्रियस्त्वयं न भवति, अवीतरागत्वेन क्रियाणामवश्यं
भावित्वादिति। ८. वहीं, ८.००-२६८--अनेन आहारकादिशरीरत्रयमप्याश्रित्य दण्डकचतुष्टयन नरयिकादिजीवानां त्रिक्रियत्वं चतुष्क्रियत्वं चोक्तं. पंचक्रियत्वं तु निवारितं मारयितुमशक्यन्वानस्येति।
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सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी व्याख्या
अण्णउत्थियसंवाद-पदं
अन्ययूथिकसंवाद-पदम् अदत्तं पडुच्च
अदत्तं प्रतीत्य २७१. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे। तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहं नयरे-वण्णओ, गुणसिलए चेइए- नगरम्- वर्णकः, गुणशिलकं वण्णओ जाव पुढविसिला-बट्टओ। चैत्यम्-वर्णकः यावत् पृथ्वीशिलापट्टकः। तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स तस्य गुणशिलकस्य चैत्यस्य अदूरसामन्ते अदूरसामंते बहवे अण्ण-उत्थिया बहवः अन्ययूथिकाः परिवसन्ति। तस्मिन् परिवति। तेणं कालेणं तेणं समएणं काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव महावीरः आदिकरः यावत् समवसृतः यावत् समोसढे जाव परिसा पडिगया॥ पर्षत् प्रतिगता।
अन्ययूथिक संवाद-पद अदत्त की अपेक्षा २७१. 'उस काल और उस समय में राजगृह नगर था-वर्णन, गुणशीलक नाम का चैत्य था-वर्णन, यावत् पृथ्वीशिलापट्टक। उस गुणशीलक चैत्य के न अति दूर और न अति निकट अनेक अन्ययूथिक रहते थे। उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीर आदिकर यावत् वहां समवसृत हुए। परिषद् आई, धर्मदेशना सुन वह लौट गई।
२७२. तेणं कालेणं तेण समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे भगवतः महावीरस्य बहवः अन्तेवासिनः अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना __ स्थविराः भगवन्तः जातिसम्पन्नाः कुलकुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना। सम्पन्नाः बलसम्पन्नाः रूपसम्पन्नाः विणयसंपन्ना नाणसंपन्ना दंसण-संपन्ना विनयसम्पन्नाः ज्ञानसम्पन्नाः दर्शनचरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघव- सम्पन्नाः चरित्र-सम्पन्नाः लज्जासंपन्ना ओयंसी तेयंसी वच्चंसी जसंसी सम्पन्नाः लाघवसम्पन्नाः ओजस्विनः जियकोहा जियमाणा जिय-माया तेजस्विनः वर्चस्विनः यशस्विनः जितजियलोभा जियनिद्दा जिइंदिया क्रोधाः जितमानाः जितमायाः जितलोभाः जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्प- जितनिद्राः जितेन्द्रियाः जितपरीषहाः मुक्का समणस्स भगवओ महावीरस्स जीविताशा-मरणभय-विप्रमुक्ताः श्रमणस्य अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरा भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्ते झाणकोट्टोवगया संजमेणं तवसा अप्प- ऊर्ध्वजानवः अधःशिरसः ध्यानणं भावमाणा विहरंति।।
कोष्ठोपगताः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तो विहरन्ति।
२७२. उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर के अनेक अन्तेवासी स्थविर भगवान् जातिसंपन्न, कुलसम्पन्न, बलसंपन्न, रूपसंपन्न, विनयसम्पन्न, ज्ञानसंपन्न, दर्शनसंपन्न, चारित्रसंपन्न, लज्जासंपन्न, लाघवसंपन्न, ओजस्वी, तेजस्वी, वर्चस्वी, यशस्वी, क्रोधजयी, मानजयी, मायाजयी, लोभजयी, निद्राजयी, जितेन्द्रिय, परीषहजयी, जीने की आशंसा और मृत्यु के भय से विप्रमुक्त थे। वे श्रमण भगवान महावीर के न अति दूर और न अति निकट उर्ध्वजानु अधःसिर (उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यानकोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार करते हैं।
२७३. तए णं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा ततः ते अन्ययूथिकाः यत्रैव स्थविराः २७३. वे अन्ययूथिक जहां स्थविर भगवान भगवंतो तेणेव उवागच्छंति, उवाग- भगवन्तः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य थे वहां आए, आकर इस प्रकार च्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे तान् स्थविरान् भगवतः एवमवादिषुः- बोले-आर्यो! तुम तीन योग और तीन णं अज्जो तिविहं तिविहेणं अस्संजय- यूयम् आर्याः त्रिविधं त्रिविधेन असंयत- करण से असंयत, अविरत, अतीत के विरय-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा, विरत · प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्माणः, पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले,
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भगवई
१०५
श.८ : उ. ७ : सू. २७३-२७७
सकिरिया, असंवुडा, एगंतदंडा सक्रियाः, असंवृताः, एकान्तदण्डाः एगंतबाला या वि भवह||
एकान्तबालाश्चापि भवथ।
भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले, कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्त दण्ड और एकान्त बाल भी हो।
२७४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय - विरय - पडिहय - पच्च- क्खायपावकम्मा, सकिरिया, असंवुडा, एगंतदंडा, एगंतबाला या वि भवामो?
ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् २७४. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिका अन्ययूथिकान एवमवादिषुः-केन कारणेन से इस प्रकार कहा-आर्यो ! किस कारण आर्य! वयं त्रिविधं त्रिविधेन असंयत- से हम तीन योग और तीन करण से अविरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्माणः, असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का सक्रियाः, असंवृताः, एकान्तदण्डाः, प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के एकान्तबालाश्चापि भवामः?
पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले. कायिकी आदि क्रिया से युक्त, असंवृत, एकान्त दण्ड और एकान्त बाल भी हैं ?
२७५. तए ण ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्यूयथिकाः तान् स्थविरान २७५. अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-यूयं आर्य! अदत्तं इस प्रकार कहा-आर्यो ! तुम अदत्त ले रहे अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुंजह, अदिन्नं गृह्णीथ, अदत्तं भुङ्ग्ध्वे, अदत्तं स्वादयथा हो, अदत्त का उपभोग कर रहे हो, अदत्त सातिज्जह। तए णं ते तुब्भे अदिन्नं ततः ते यूयं अदत्तं गृह्णन्तः, अदत्तं का अनुमोदन कर रहे हो। अदत्त का गेण्हमाणा, अदिन्नं भुंजमाणा, अदिन्नं । भुजानाः, अदत्तं स्वादयन्तः त्रिविधं ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के सातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं । त्रिविधेन असंयत-विरत-प्रतिहत- कारण तुम तीन योग और तीन करण से अस्संजय-विरय-पडिहय-पच्चक्खाय- प्रत्याख्यातपापकर्माणः यावत एकान्त- असंयत, अविरत. अतीत के पापकर्म का पावकम्मा जाव एगंत-बाला या वि बालाश्चापि भवथ।
प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के भवह||
पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो।
२७६. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अन्यूथिकान एवमवादिषुः-केन कारणेन अज्जो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं आर्य! वयम् अदत्तं गृह्णीमः, अदत्तं भुंजामो, अदिन्नं सातिज्जामो, जए णं भुजामहे, अदत्तं स्वादयामः, यतः वयम् अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा, अदिन्नं अदत्तं गृह्णन्तः, अदत्तं भुजानाः, अदत्तं भुंजमाणा अदिन्नं सातिज्जमाणा, तिविह स्वादयन्तः, त्रिविधं त्रिविधेन असंयततिविहेणं अस्संजय-विरय-पडिहय- विरत-प्रतिहत प्रत्याख्यातपापकर्माणः पच्चक्खायपावकम्मा जाव एगंतबाला यावत् एकान्तबालाश्चापि भवामः। या वि भवामो?
२७६. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययथिकों
से इस प्रकार कहा-आर्यो: कैसे हम अदत्त ले रहे हैं, अदत्त का उपभोग कर रहे हैं, अदत्त का अनुमोदन कर रहे हैं? अदत्त का ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के कारण तीन योग और नीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हैं?
२७७. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्ययूथकाः तान् स्थविरान् २७७. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों
भगवंते एवं वयासी-तुब्भण्णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-युष्मभ्यम् आर्य! से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम्हें जो दिज्जमाणे अदिन्ने, पडिग्गाहेज्जमाणे दीयमानम् अदत्तं, प्रतिगृह्यमानं अप्रति- दिया जा रहा है वह अदत्त है, तुम्हारे द्वारा अपडिग्गाहिए, निस्सिरिज्जमाणे गृहीतं, निसृज्यमानम् अनिसृष्टमा युष्मभ्यम् जो प्रतिगृह्यमाण है वह अप्रतिगृहीन है. अणिसिट्टे। तुब्भण्णं अज्जो! दिज्जमाणं आर्य! दीयमानं प्रतिग्रहकम् असम्प्राप्तम् जो निसृज्यमाण (पात्र में डाला जा रहा) पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अत्र अन्तरा कोऽपि अपहरेत् ‘गाहावइस्स' है वह अनिसृष्ट है। आर्यो ! जो द्रव्य दिया अवहरेज्जा गाहावइस्स णं तं, नो खलु तत्, नो खलु तत् युष्माकं, ततः यूयं अदत्तं जा रहा है और वह पात्र में गिरा नहीं है. तं तुब्भं, तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हह, गृह्णीथ, अदत्तं भुग्ध्वे, अदत्तं स्वादयथा बीच में ही कोई पुरुष उस द्रव्य का
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अदिन्नं भुंजह, अदिन्नं सातिज्जह। तए णं ततः यूयम् अदत्तं गृह्णन्तः यावत् तुब्भे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतबाला एकान्तबालाश्चापि भवथ। या वि भवह।।
अपहरण कर लेता है वह द्रव्य गृहपति का है, तुम्हारा नहीं है। इस हेतु से हम कह रहे हैं-तुम अदत्त ले रहे हो, अदत्त का उपभोग कर रहे हो, अदन का अनुमोदन कर रहे हो। अदत्त का ग्रहण, उपभोग
और अनुमोदन करने के कारण तुम असंयत यावत् एकान्त बाल भी हो।
२७८. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिको से इस प्रकार कहा-आर्यो! हम अदत्त
२७८ तए णं थेरा भगवंतो ते अण्ण- ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान उत्थिए एवं वयासी-नो खलु अज्जो! अन्ययूथिकान् एवमवादिषुःनो खलु अम्हे अदिन्नं गेण्हामो, अदिन्नं भुंजामो, आर्य! वयम् अदत्तं गृह्णीमः, अदत्तं अदिन्नं सातिज्जामो। अम्हे णं अज्जो! भुजामहे, अदत्तं स्वादयामः। वयम् आर्य। दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं दत्तं गृह्णीमः दत्तं भुजामहे, दत्तं स्वादयामः। सातिज्जामो। तए णं अम्हे दिन्नं ततः वयं दत्तं गृह्णन्तः, दत्तं भुञ्जानाः, दनं गेण्हमाणा, दिन्नं भुंजमाणा, दिन्नं स्वादयन्तः त्रिविधं त्रिविधेन संयत-विरतसातिज्जमाणा तिविहं तिविहेणं संजय- प्रतिहत . प्रत्याख्यात - पापकर्माणः, विरय-पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मा, अक्रियाः, संवृताः, एकान्तपंडिताश्चापि अकिरिया, संवुडा एगंतपंडिया या वि भवामः। भवामो।
रहे हैं, अदन का अनुमोदन नहीं कर रहे हैं। आर्यो! हम दन ले रहे हैं, दत्त का उपभोग कर रहे हैं, दन का अनुमोदन कर रहे हैं। दत्त का ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के कारण हम तीन योग और तीन करण से संयत, विरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन करनेवाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाले, कायिकी आदि क्रिया से मुक्त, संवृत और एकान्त पण्डित भी हैं।
२७०. तए ण अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २७९. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरा एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! भगवतः एवमवादिषु:-केन कारणेन आर्य! से इस प्रकार कहा--आर्यो ! कैसे तुम दत्त तुम्हे दिन्नं गेण्हह, दिन्नं भुजह, दिन्नं यूयं दत्तं गृह्णीथ, दत्तं भुझ्ध्वे. दत्तं स्वादयथ, का ग्रहण कर रहे हो. दत्त का उपभोग कर सातिज्जह, जए णं तुब्भे दिन्नं गेण्हमाणा यतः यूयं दत्तं गृह्णन्तः यावत एकान्त- रहे हो, दत्त का अनुमोदन कर रहे हो? जाव एगंतपंडिया या वि भवह ? पंडिताश्चापि भवथ।
दत्त का ग्रहण, उपभाग और अनुमोदन करने के कारण तुम संयत यावत एकान्त पण्डित हो?
२८०. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् २८०. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययथिकों अण्णउत्थिए एवं वयासी-अम्हण्णं अन्यूथिकान, एवमवादिषुः-अस्मभ्यम् से इस प्रकार कहा-आर्यों ! हमें जो दिया अज्जो! दिज्जमाणे दिन्ने, पडिग्गा- आर्य! दीयमानं दत्तं. प्रतिगृह्यमाणं जा रहा है वह दत्त है. हमारे द्वारा जो हिज्जमाणे पडिग्गाहिए, निस्सि- प्रतिगृहीतं. निसृज्यमानं निसृष्टम्। प्रतिगृह्यमाण है, बह प्रतिगृहीत है, जो रिज्जमाणे निसिटे। अम्हण्णं अज्जो! अस्मभ्यम् आर्य! दीयमानं प्रतिग्रहकम निसृज्यमाण है, वह निसृष्ट है। आर्यो! हमें दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं असम्प्राप्तम् अत्र अन्तरा कोऽपि अपहरेत्, जो द्रव्य दिया जा रहा है और वह पात्र में अंतरा केइ अवहरेज्जा, अम्हण्णं तं, अस्माकं तत् नो खलु तत् 'गाहावइस्स', गिरा नहीं है, बीच में ही कोई पुरुष उस नो खलु तं गाहावइस्स, तए णं अम्हे ततः वयं दत्तं गृह्णीमः, दत्तं भुजामहे, दत्तं द्रव्य का अपहरण कर लेता है। वह द्रव्य दिन्नं गेण्हामो, दिन्नं भुंजामो, दिन्नं ।। स्वादयामः, ततः वयं दत्तं गृह्णन्तः, दत्तं हमारा है, गृहपति का नहीं। इस हेतु से सातिज्जामो तए णं अम्हे दिन्नं गेह- भुजानाः, दत्तं स्वादयन्तः त्रिविधं त्रिविधेन हम कह रहे हैं-हम दत्त का ग्रहण करते हैं, माणा, दिन्नं भुजमाणा, दिन्नं सातिज्ज- संयत अविरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात-पाप- दत्त का उपभोग करते हैं, दत्न का माणा तिविहं तिविहेणं संजय-विरय- कर्माणःयावत् एकान्तपंडिताश्चापि भवामः। अनुमोदन करते है। दन का ग्रहण, पडिहय-पच्चक्खाय-पावकम्मा जाव। यूयम् आर्य ! आत्मना चैव त्रिविधं त्रिविधेन उपभोग और अनुमोदन करने के कारण एगंतपंडिया या वि भवामो। तुब्भे णं असंयत-विरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यातपाप- हम तीन योग और तीन करण से संयत,
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श.८: उ. ७ : सू. २८०-२८४
अज्जो! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं कर्माण: यावत् एकान्तबालाश्चापि भवथ। अस्संजय-विरयपडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा जाव एगंतबला या वि भवह।
विरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने वाले यावत एकान्त पण्डित भी हैं। आर्यो ! तुम स्वयं तीन योग
और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पाप कर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत एकान्त बाल भी हो।
२८१. तए णं अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते ततः अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान भगवतः २८१. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! एवमावादिषुः-केन कारणेन आर्य ! वयं से इस प्रकार कहा-आर्यो ! कैसे हम तीन अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय-विरया त्रिविधं त्रिविधेन असंयत-अविरत-प्रतिहत- योग और तीन करण से असंयत, पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा जाव। प्रत्याख्यातपापकर्माणः यावत् अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन एगंतबाला या वि भवामो? एकान्तबाला-श्चापि भवामः।
न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत एकान्त बाल भी हैं?
२८२. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवतः तान् अण्णउत्थिए एवं वयासी-तुब्भे णं अन्ययूथिकान एवमवादिषुः-यूयम् आर्य ! अज्जो! अदिन्नं गेण्हह, अदिन्नं भुंजह, अदत्तं गृह्णीथ, अदत्तं भुङ्ग्ध्वे, अदत्तं अदिन्नं सातिज्जह, तए णं तुम्भे अदिन्नं स्वादयथ, ततः यूयम् अदत्तं गृह्यन्तः यावत् गेण्हमाणा जाव एगंतबाला या वि एकान्तबालाश्चापि भवथ। भवह।।
२८२. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! तुम अदत्त का ग्रहण कर रहे हो, अदत्त का उपभोग कर रहे हो, अदत्त का अनुमोदन कर रह हो। अदत्त का ग्रहण, उपभोग और अनुमोदन करने के कारण तुम असंयत यावत एकान्त बाल भी हो।
२८३. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो जाव एगंतबाला या वि भवामो?
ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २८३. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों भगवतः एवमादिषुः केन कारणेन आर्य! से इस प्रकार कहा-आर्यो! कैसे हम वयम् अदत्तं गृह्णीमः यावत् एकान्त- अदत का ग्रहण कर रहे हैं यावत् एकान्त बालाश्चापि भवामः?
बाल भी हैं?
२८४. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्ण- ततः ते स्थविराः भगवतः तान
उत्थिए एवं वयासी-तुब्भण्णं अज्जो! अन्ययूथिकान एवमवादिषुः-युष्मभ्यम् दिज्जमाणे अदिन्ने पडिग्गाहेज्जमाणे आर्य ! दीयमानम् अदत्तं, प्रतिगृह्यमाणम् अपडिग्गाहिए, निस्सिरिज्जमाणे अप्रतिगृहीतं, निसृज्य-मानम् अनिष्सृष्टम्। अणिसिटे। तुब्भण्णं अज्जो! दिज्जमाणं युष्मभ्याम् आर्य ! दीयमानं प्रतिग्रहकम् पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ असम्प्राप्तम् अत्र अन्तरा कोऽपि अपहरेत. अवह रेज्जा, गाहावइस्स णं तं, नो 'गाहावइस्स'। तत्, नो खलु तत् युष्माकम्। खलु तं तुब्भं । तए णं तुब्भे अदिन्नं गेण्हह ततः यूयम् अदत्तं गृहीथ यावत् जाव एगंतबाला या वि भवह॥
एकान्तबालाश्चापि भवथ।
२८४. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों
से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम्हें जो द्रव्य दिया जा रहा है, वह अदन है, जो प्रतिगृह्यमाण है, वह अप्रतिगृहीत है, जो निसृज्यमाण है, वह अनिसृष्ट है। आर्यो! तम्हें जो द्रव्य दिया जा रहा है और वह पात्र में गिरा नहीं है बीच में ही कोई पुरुष उस द्रव्य का अपहरण कर लेता है, वह द्रव्य गृहपति का है, तुम्हारा नहीं। इस हेतु से तुम अदत्त का ग्रहण करते हो यावत् एकान्त बाल भी हो।
भाष्य
१.सूत्र २७१-२८४
संवाद उल्लिखित है। प्रस्तुत आगम में अन्यथूथिकों का महावीर के प्रस्तुत आलापक में अन्ययूथिक साधुओं और स्थविरों का शिष्यों के साथ होने वाले संवादों का अनेक बार उल्लेख हुआ है।' १.भ.६ १०.१७१-१७३.१.१०.२०२-२१६.८.१०.४४०-४५०।१८.८/१६३-१६७.१०/२/२५-३१.
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श.८ : उ. ७ : सू. २८५-२८७
प्रस्तुत आलापक में निर्दिष्ट अन्ययूथिक किस परम्परा के थे, इसका स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं है। किन्तु असंजय, अविरय, सकिरिय. असंवुड इन पदों के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि ये अन्ययूथिक श्रमण परंपरा के थे। इन पदों का प्रयोग बौद्ध, सांख्य, तापस अथवा आजीवक परंपरा के साहित्य में ही उपलब्ध हो सकता है। सातवें, सतरहवें और अठारहवें शतक में उपलब्ध नाम सूची के आधार पर अनुमान किया जा सकता है कि ये अन्ययूथिक सांख्य अथवा आजीवक परम्परा के थे। अधिक संभावना आजीवक संघ की है। राजगृह के बाहर जेतवन के पीछे आजीवकों का बड़ा संघ रहता था।
अन्ययूथिकों ने स्थविरों के पास आकर एक चर्चा शुरू की- आप अदत्त का ग्रहण कर रहे हैं, अदत्त का उपभोग कर रहे हैं। गृहस्थ
भगवई के द्वारा जो दीयमान है, वह दत्त नहीं होता। दीयमान वर्तमान काल है और दत्त अतीत काल। वर्तमान और अतीत अत्यंत भिन्न होते हैं। गृहस्थ दे रहा है और वह आहार पात्र में अभी गिरा नहीं है। उसे यदि दत्त मानो तो दत्त का ग्रहण माना जा सकता है।'
स्थविरों ने इसका प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा-क्रिया काल और निष्ठाकाल में अभेद होता है इस सिद्धांत के आधार पर दीयमान दत्त है। हम अदत्त का उपभोग नहीं करते। तुम दीयमान को अदत्त मानते हो, अतः तुम अदत्त का उपभोग कर रहे हो।
अन्ययूथिकों ने वर्तमान और अतीत के कालभेद के आधार पर जो आक्षेप किया, स्थविरों ने क्रियाकाल और निष्ठाकाल के अभेद के आधार पर उसे समाहित कर दिया।
हिंसं पडुच्च२८५. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! तिविहं तिविहेणं अस्संजय-विरयपडिहय-पच्च-क्खायपावकम्मा जाव एगंतबाला या वि भवह।।
हिंसा प्रतीत्यततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् भगवतः एवमवादिषुः- यूयम् आर्य! त्रिविधं त्रिविधेन असयंत-अविरत-प्रतिहतप्रत्याख्यातपाप-कर्माण: यावत् एकान्तबालाश्चापि भवथ।
हिंसा की अपेक्षा २८५. 'उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत एकान्त बाल भी हो।
२८६. तए णं ते थेरा भगवंता ते
अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो?
ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अन्य- यूथिकान एवमावादिषु-केन कारणेन आर्य! वयं त्रिविधं त्रिविधेन यावत् एकान्त- बालाश्चापि भवामः?
२८६. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! कैसे हम तीन योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्त बाल भी हैं?
२८७. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २८७. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों भगवंते एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! भगवतः एवमवादिषुः-यूयं आर्य! तं से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम गमन रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह अभि-हणह रीयमाणाः पृथिवीम् आक्रमथ अभिहथ करते हुए पृथ्वी को आक्रांत, अभिहत, वत्तेह लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावेह वर्त्तयथ श्लेषयथ संघातयथ संघट्टयथ क्षुण्ण, श्लिष्ट, संहत, स्पृष्ट, परितप्त, किलामेह उद्दवेह, तए णं तुब्भे पुढवि परितापयथ क्लमयथ उद्वयथ, ततः यूयं क्लान्त और उपद्रुत (प्राण रहित) करते पेच्चेमाणा अभिहण-माणा वत्तेमाणा पृथिवीम् आक्रामन्तः अभिहन्तः वर्तमानाः हो। तुम पृथ्वी को आक्रांत, अभिहत, लेसेमाणा संघाए-माणा संघट्टेमाणा श्लिष्यन्तः संघातयन्तः संघट्टयन्तः परिता- क्षुण्ण, श्लिष्ट, संहत, स्पृष्ट, परितप्त, परितावेमाणा किला-मेमाणा उद्दवेमाणा पयन्तः क्लाम्यन्तः उद्रवन्तः त्रिविधं क्लान्त और उपद्रुत करने के कारण तिविहं तिविहेणं अस्संजय-विरय- त्रिविधेन असंयत-अविरत-प्रतिहत-प्रत्या- तीन योग और तीन करण से असंयत, पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मा जाव ख्यात-पापकर्माणः यावत् एकान्त- अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन एगंत-बाला या वि भवह।। बालाश्चापि भवथ।
न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो।
१. बौन्द्र धर्म और बिहार, श्री धवलदार त्रिपाठी 'सहृदय'-पृ. १९। २. भ. वृ. ८/२७७-दीयमानमदत्तं, दीयमानस्य वर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालवर्तित्वाद् वर्तमानातीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवनि दलमेव दत्तमिति व्यपदिश्यते एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि, तत्र दीयमानं
दायकापेक्षयाः प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया। ३. वही, ८/२८०-दिज्जमाणे दिन्नं इत्यादि यदुक्तं तत्र क्रियाकालनिष्ठा
कालयोरभेदाद्दीयमानत्वादे दत्तत्वादि समवसेयमिति। अथ दीयमानमदनमित्यादेर्भवन्मत-त्वाद् यूयमेवाऽसंयतत्वादिगुणा।
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भगवई
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श.८:५.७ : सू. २८८-२९१ २८८. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ते स्थविराः तान् अन्ययूथिकान् २८८. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु एवमवादिषु:-नो खलु आर्य! वयं रीयमाणा से इस प्रकार कहा-आर्यो! हम गमन अज्जो! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं पृथिवीम् आक्रामामः अभिहन्मः करते हुए पृथ्वी को न आक्रांत, अभिहत, पेच्चामो अभिहणामो जाव उहवेमो। यावत् उद्वयामः। वयं आर्य! रीतं यावत् उपद्रुत करते हैं। आर्यो! हम अम्हे णं अज्जो! रीयं रीयमाणा कायं । रीयमाणाः कायं वा, योगं वा, ऋतं वा शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति, सेवा वा, जोयं वा, रियं वा पडुच्च देसं देसेणं प्रतीत्य देशं देशेन व्रजामः, प्रदेशं प्रदेशेन आदि कार्य तथा संयम की दृष्टि से वयामो, पदेसं पदेसेणं वयामो, तेणं व्रजामः, तेन वयं देशं देशेन व्रजन्तः, प्रदेश गमन करते हुए पृथ्वी के समुचित देश अम्हे देसं देसेणं वय-माणा, पदेसं पदे- प्रदेशेन वजन्तः नो पृथिवीम् आक्रामामः पर, समुचित प्रदेश पर गमन करते हैं। सेणं वयमाणा नो पुढविं पेच्चेमो अभिहन्मः यावत् उद्वयामः, ततः वयं अतः समुचित देश और समुचित अभिहणामो जाव उद्देवेमो, तए णं अम्हे पृथिवीम् आक्रामन्तः अनिभिध्नन्तः यावत् प्रदेश पर गमन करते हुए हम पृथ्वी को पुढविं अपेच्चमाणा अणभि-हणमाणा अनुद्वयन्तः त्रिविधं त्रिविधेन संयत- आक्रांत, अभिहत यावत् उपद्रुत नहीं जाव अणोहवेमाणा तिविहं तिविहेणं । विरत-प्रतिहत -प्रत्याख्यात-पापकर्माणः करते हैं। पृथ्वी को अनाक्रांत, अनभिहत संजय-विरय-पडिहयपच्चक्खाय-पाव. यावत् एकान्तपंडिताश्चापि भवामः। यूयं यावत् अनुपद्रुत करते हुए हम तीन योग कम्मा जाव एगंतपंडिया या वि भवामो। आर्य! आत्मना चैव त्रिविधं त्रिविधेन और तीन करण से संयत, विरत, अतीत तुब्भे णं अज्जो! अप्पणा चेव तिविहं । असंयत-अविरत-प्रतिहत-प्रत्याख्यात- के पापकर्म का प्रतिहनन करने वाले, तिविहेणं अस्संजय-विरय-पडिहय- पापकर्माणः यावत् एकान्तबालाश्चापि भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान करने पच्चक्खायपावकम्मा जाव एगंत-बाला भवथ।
वाले यावत् एकान्त पण्डित भी हैं। या वि भवह।।
आर्यो! तुम स्वयं तीन योग और तीन करण से असंयत, अविरत, अतीत के पापकर्म का प्रतिहनन न करने वाले, भविष्य के पापकर्म का प्रत्याख्यान न करने वाले यावत् एकान्त बाल भी हो।
२८९. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला या वि भवामो?
ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् २८९. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों भगवतः एवमवादिषु:-केन कारणेन आर्य! से इस प्रकार कहा-आर्यो! कैसे हम तीन वयं त्रिविधं त्रिविधेन यावत् योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्तबालाश्चापि भवामः ?
एकान्त बाल भी हैं?
२९०. तए णं ते थेरा भगवंतो ते अण्ण- ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् उत्थिए एवं वयासी-तुब्भे णं अज्जो! अन्ययूथिकान् एवमवादिषुः-यूयम् आर्य! रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह जाव उद्द- रीतं रीयमाणाः पृथिवीम् आक्रामथ यावत् वेह, तए णं तुब्भे पुढविं पेच्चमाणा जाव उद्वयथ ततः यूयं पृथिवीम् आक्रामन्तः उद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव यावत् उद्रवन्तः त्रिविधं त्रिविधेन यावत् एगंतबाला या वि भवह॥
एकान्तबालाश्चापि भवथ।
२९०. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम गमन करते हुए पृथ्वी को आक्रांत यावत् उपद्रुत करते हो। पृथ्वी को आक्रांत यावत् उपद्रुत करते हुए तीन योग और तीन करण से असंयत यावत् एकान्त बाल भी हो।
गममाणगयं पडुच्च
गम्यमानगतं प्रतीत्य२९१. तए णं ते अण्णउत्थिया ते थेरे ।
ततः ते अन्ययूथिकाः तान् स्थविरान् भगवते एवं वयासी-तुब्भण्णं अज्जो!
भगवतः एवमवादिषुः-युष्माकम् आर्य! गम्ममाणे अगते, वीतिक्कमिज्जमाणे गम्यमानः अगतः, व्यतिक्रम्यमाणः अवीतिक्कते, रायगिहं नगरं
अव्यतिक्रान्तः, राजगृहं नगरं सम्प्राप्सुकामः संपाविउकामे असंपत्ते॥
असम्प्राप्तः।
गम्यमान गत की अपेक्षा २९१. उन अन्ययूथिकों ने भगवान स्थविरों से इस प्रकार कहा-आर्यो! तुम्हारे मत के अनुसार गम्यमान अगत (नहीं गया हुआ) व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त होता है।
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भगवई
श. ८ : उ. ७ : सू. २९२,२९३ २९२. तए णं ते थेरा भगवंतो ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः तान् अन्य- अण्णउत्थिए एवं वयासी-नो खलु यूथिकान् एवमवादिषुः-नो खलु आर्य! अज्जो! अम्हं गम्ममाणे अगते, अस्माकं गम्यमानः अगतः, वीतिक्कमिज्जमाणे अवीतिक्कते, व्यतिक्रम्यमाणः अव्यतिक्रान्तः, राजगृहं रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते। नगरं सम्प्राप्तुकामः असम्प्राप्तः। अस्माकम् अम्हण्णं अज्जो! गम्ममाणे गए, आर्य! गम्यमानः गतः, व्यतिक्रम्यमाणः वीतिक्कमिज्जमाणे वीतिक्कते, व्यतिक्रान्तः, राजगृहं नगरं सम्प्राप्सुकामः रायगिह नगरं संपावि-उकामे संपत्ते। सम्प्राप्तः। युष्माकम् आत्मना चैव गम्यमानः तुब्भण्णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगते, अगतः, व्यति-क्रम्यमाणः अव्यतिक्रान्तः, वीति-क्कमिज्जमाणे अवीतिक्कते, राजगृहं नगरं सम्प्राप्लुकामः असम्प्राप्तः। रायगिह नगरं संपाविउकामे असंपत्ते ततः ते स्थविराः भगवन्तः अन्ययूथिकान् तए ण ते थेरा भगवंतो अण्णउत्थिए एवं एवं प्रतिभणन्ति. प्रतिभण्य गतिप्रवादं नाम पडिभणंति, पडिभणित्ता गइप्पवायं नाम अध्ययनम् ज्ञापयन्। अज्झयणं पण्णवइंसु॥
२९२. भगवान स्थविरों ने उन अन्ययूथिकों से इस प्रकार कहा-आर्यो ! हमारे मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त नहीं होता। आर्यो! हमारे मत के अनुसार गम्यमान गत, व्यतिक्रम्यमान व्यतिक्रान्त, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला संप्राप्त होता है। तुम्हारे अपने मत के अनुसार गम्यमान अगत, व्यतिक्रम्यमान अव्यतिक्रांत, राजगृह नगर को संप्राप्त करने की कामना करने वाला असंप्राप्त होता है। भगवान स्थविरों ने अन्ययूथिकों की इस प्रकार प्रत्युत्तर दिया, प्रत्युत्तर देकर 'गतिप्रवाद' नाम के अध्ययन का प्रज्ञापन किया।
२९३. कतिविहे णं भंते! गइप्पवाए कतिविधः भदन्त ! गतिप्रवादः प्रज्ञप्तः ? । पण्णत्ते? गोयमा! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तं गौतम! पंचविधः गतिप्रवादः प्रज्ञप्तः, जहा-पयोगगई, ततगई, बंधण- तद्यथा-प्रयोगगतिः, ततगतिः, बंधनछेयणगई, उववायगई, विहायगई। एत्तो च्छेदनगतिः, उपपातगतिः, विहायोगतिः। आरब्भ पयोगपयं निरवसेसं भाणियव्वं __इतः आरभ्य प्रयोगपदं निरवशेष भणितव्यं जाव सेत्तं विहायगई।
यावत् सा तत् विहायोगतिः।
२९३. भंते! गतिप्रवाद कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम ! गतिप्रवाद पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-प्रयोगगति, ततगति, बंधच्छेदनगति, उपपातगति, विहायगति, इस गति सूत्र से प्रारंभ कर विहायगति के व्याख्या सूत्र तक प्रज्ञापना (सोलह) का प्रयोग पद निरवशेष रूप में वक्तव्य है।
भाष्य
१.सूत्र २८५-२९३
२. तत गति–एक गांव के लिए प्रस्थान किया, वहां पहुंचा नहीं, अन्ययूथिकों ने गति के आधार पर हिंसा का आक्षेप प्रस्तुत ___अंतराल पथ में वर्तमान व्यक्ति की गति। किया। उन्होंने कहा-'तुम चलते समय पृथ्वी का उपघात करते हो ३. बंध छेदन गति-जीव का शरीर से मुक्त होना अथवा शरीर इसलिए तुम हिंसा से बच नहीं सकते। स्थविरों ने इसके प्रतिवाद में का जीव से मुक्त होना। कहा-हम पृथ्वी के एक देश-जीव रहित भूखंड पर चलते हैं। हम पृथ्वी ४. उपपात गति-एक भव से मरकर दूसरे भव अथवा क्षेत्र में के एक प्रदेश-जीव रहित भूखंड पर चलते हैं इसलिए हम हिंसा से उपपात के लिए होने वाली गति। बच जाते हैं।
५. विहाय गति-इसके स्पृशद्गति आदि सतरह प्रकार हैं।' तुम सजीव देश अथवा निर्जीव देश का विवेक नहीं करते इसलिए विस्तार के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद १६/१७-५५। तुम्ही पृथ्वी का उपघात करते हो। इस प्रसंग में गम्यमान गत के भगवई शतक ७/१० का भाष्य। सिद्धांत का प्रतिपादन कर स्थविरों ने 'गतिप्रवाद' नामक अध्ययन शब्द विमर्श का प्रज्ञापन किया।
पेच्चेह-आक्रमण कर रहे हो। गति-प्रवाद के पांच प्रकार हैं
अभिहणइ-पैरों से आहत कर रहे हो। १. प्रयोग गति-मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति।
वत्तेह-पैरों से चूर्ण कर रहे हो।
१. भ. वृ. ८/२८८-देसं देसेणं वयामो ति प्रभूतायाः पृथिव्या ये विवक्षिताः देशास्तेर्वजामा नाविशेषण ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतनदेशपरिहार- तोऽचननदेशैर्वजामः इत्यर्थः एवं पएसं पासेणं वयामो इत्यपि नवरं देशो
भूमेर्महत्खण्डं प्रदेशस्तु लघुतरमिति। २. वही, ८/२९३।
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भगवई
१११
श.८ : ५.७: सू. २९४
लेसेह-भूमि पर श्लिष्ट कर रहे हो।
उवद्दवेह-वध कर रहे हो। संघाएह-संघात कर रहे हो।
देश-बृहत्-भूखण्ड। संघट्टेह-स्पर्श कर रहे हो।
प्रदेश-लघु-भूखंड। किलामेह-कलांत-मरणासन्न कर रहे हो। २९४. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥ तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। २९४. भते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा
ही है।
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मूल
पडिणीय पदं
२९५. रायगिहे जाव एवं वयासी-गुरूणं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?
गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - आयरियपडिणीए, पडणी, थेरपडिणी ॥
उवज्झाय
२९६. गति णं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?
गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए, दुहओलोगपडिणीए ।
२९७. समूहणणं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?
गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - कुलपडिणी, गणपsि-णी, संघपडिणीए ॥
२९८. अणुकंपं पडुच्च कति पडि - णीया पण्णत्ता ?
गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए ॥
३०० भावण्णं भंते! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?
अट्टमो उद्देसो : आठवां उद्देशक
संस्कृत छाया
प्रत्यनीक-पदम्
राजगृहे यावत् एवमवादिषुः- गुरून् भदन्त ! प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः ?
गौतम ! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाआचार्य प्रत्यनीकः, उपाध्यायप्रत्यनीकः, स्थविरप्रत्यनीकः ।
गतिं भदन्त ! प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः ?
गौतम ! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाइहलोक प्रत्यनीकः, परलोकप्रत्यनीकः, द्वयलोकप्रत्यनीकः ।
समूहं भदन्त ! प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः ?
गौतम! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाकुलप्रत्यनीकः, गणप्रत्यनीकः, संघप्रत्यनीकः ।
अनुकम्पां प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः ?
२९९. सुयण्णं भंते! पडुच्च कति श्रुतं भदन्त ! प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः पडिणीया पण्णत्ता ? प्रज्ञप्ताः ? गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा - सुत्तपडिणीए, अत्थपडि णीए, तदुभयपडिणीए ॥
गौतम! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथासूत्रप्रत्यनीकः, अर्थप्रत्यनीकः, तदुभय प्रत्यनीकः ।
गौतम ! त्रय प्रत्यनीकाः, प्रज्ञप्ताः, तद् यथातपस्वी प्रत्यनीकः, ग्लानप्रत्यनीकः, शैक्षप्रत्यनीकः ।
भावं भदन्त ! प्रतीत्य कति प्रत्यनीकाः प्रज्ञसाः ?
हिन्दी अनुवाद
प्रत्यनीक - पद
२९५. 'राजगृह में समवसरण यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार कहा-भंते! गुरु की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! गुरु की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, स्थविर का प्रत्यनीक ।
२९६. भंते! गति की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ?
सौतम! गति की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- इहलोक प्रत्यनीक, परलोक प्रत्यनीक, उभयलोक प्रत्यनीक |
२९७. भंते! समूह की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम! समूह की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- कुल प्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक, संघ प्रत्यनीक ।
२९८. भंते! अनुकंपा की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! अनुकंपा की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे - तपस्वी प्रत्यनीक, ग्लान प्रत्यनीक, शैक्ष प्रत्यनीक ।
२९९. भंते! श्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! श्रुत की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-सूत्र प्रत्यनीक, अर्थ प्रत्यनीक, तदुभय प्रत्यनीक |
३००, भंते! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं ?
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भगवई
श.८ : उ.८ : सू. ३००
गोयमा! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-नाणपडिणीए, दंसणपडि-णीए, चरित्तपडिणीए॥
गौतम! त्रयः प्रत्यनीकाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-ज्ञानप्रत्यनीकः, दर्शनप्रत्यनीकः, चरित्रप्रत्यनीकः।
गौतम! भाव की अपेक्षा तीन प्रत्यनीक प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञान प्रत्यनीक, दर्शन प्रत्यनीक, चारित्र प्रत्यनीक
भाष्य १.सूत्र २९५-३००
से संघ बृहत् होता है। एक आचार्य का शिष्य-समूह कुल. तीन कुलों प्रत्यनीक का अर्थ है प्रतिकूल। प्रस्तुत आलापक में प्रत्यनीक का समूह गण और सब गणों का समूह संघ कहलाता है। लौकिक व्यक्तियों के विभिन्न दृष्टियों से वर्गीकरण किए गए हैं।
पक्ष में भी कुल, गण और संघ की व्यवस्था घटित होती है। इनकी प्रथम वर्गीकरण गुरु की अपेक्षा से है। आचार्य, उपाध्याय और निंदा करना, इन्हें विघटित करने का प्रयत्न करना समूह के प्रतिकूल स्थविर-ये तीन गुरु वर्ग के हैं। आचार्य अर्थ के व्याख्याता हैं। व्यवहार है। उपाध्याय सूत्रदाता हैं। स्थविर के तीन प्रकार है
चौथा वर्गीकरण अनुकंपनीय व्यक्तियों की अपेक्षा से है। १. जाति स्थविर-साठ वर्ष की अवस्था वाला।
तपस्वी, ग्लान-रोग, वार्धक्य आदि से असमर्थ और शैक्ष-नव २. श्रुत स्थविर-समवाय आदि अंगों को धारण करने वाला।। दीक्षित-ये तीन अनुकंपनीय होते हैं। इनकी सेवा न करना और न ३. पर्याय स्थविर-बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाला।
करवाना प्रत्यनीक व्यवहार है। गुरु के प्रति किए जाने वाले प्रत्यनीक व्यवहार का निरूपण पांचवां वर्गीकरण शास्त्र-ग्रंथों की अपेक्षा से है। संक्षिप्त और बृहत्कल्प भाष्य में मिलता है
व्याख्येय ग्रंथ का नाम है-सूत्र। विस्तृत और व्याख्या ग्रंथ का नाम १. गुरु की जाति-मातृपक्ष विशुद्ध नहीं है।
है-अर्थ। पाठ और अर्थ मिश्रित रचना का नाम है-तदुभय ग्रंथ। सूत्र २. गुरु का कुल-पितृपक्ष विशुद्ध नहीं है।
पाठ का यथार्थ उच्चारण न करने वाला सूत्र के प्रतिकूल व्यवहार करता ३. व्यवहारकुशल नहीं है।
है। सूत्र की तोड़-मरोड़ कर व्याख्या करने वाला अर्थ के प्रतिकूल ४.सेवा नहीं करता।
व्यवहार करता है। सूत्र और अर्थ दोनों के प्रति होने वाला प्रतिकूल ५. अहित करता है।
व्यवहार तदुभय प्रत्यनीकता है। ६. छिद्र देखता रहता है।
अभयदेव सूरि ने सूत्र की प्रत्यनीकता को समझाने के लिए ७. सबके सामने दोष बतलाता है।
बृहत्कल्प भाष्य की एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य है-कुछ ८. प्रतिकूल व्यवहार करता है।
दुर्विदग्ध व्यक्ति कहते हैं-बार-बार षट्काय का निरूपण, बार-बार जो व्यक्ति अवर्णवाद आदि के रूप में गुरु के प्रतिकूल व्यवहार । व्रतों तथा प्रमाद और अप्रमाद का निरूपण शास्त्र की मूल्यवत्ता को करता है, वह गुरु की अपेक्षा प्रत्यनीक है।
कम करता है। उसका प्रतिपाद्य मोक्षाधिकार है फिर ज्योतिषशास्त्र दूसरा वर्गीकरण जीवन-पर्याय की अपेक्षा से है। जो इन्द्रियों और योनिप्राभूत जैसे ग्रंथों की क्या अपेक्षा है ? इस प्रकार का चिन्तन को अज्ञानपूर्ण तप से पीड़ित करता है, वह इहलोक-मनुष्यत्व लक्षण श्रुत की प्रत्यनीकता है। पर्याय का प्रत्यनीक होता है। जो केवल इन्द्रिय-विषयों के भोग में छठा वर्गीकरण भाव की अपेक्षा से है। ज्ञान को दुःख का मूल तत्पर रहता है, वह परलोक-जन्मान्तर का प्रत्यनीक होता है। और अज्ञान को सुख का मूल मानना ज्ञान की प्रत्यनीकता है। दर्शन
जो चोरी आदि गलत उपायों का सहारा लेता है और इन्द्रिय और चारित्र की व्यर्थता का प्रतिपादन करना क्रमशः दर्शन और चारित्र विषयों के भोग में तत्पर रहता है, वह इहलोक और परलोक दोनों का के प्रति दोषपूर्ण व्यवहार है।' प्रत्यनीक होता है। उक्त निरूपण से स्पष्ट होता है कि जैन धर्म व्यवहार विज्ञान की दृष्टि से यह आलापक अतिशय उपयोगी इंन्द्रिय-संताप और इन्द्रिय आसक्ति दोनों के पक्ष में नहीं है। है। इसका तात्पर्यार्थ है-विधायक भाव से जो विकास हो सकता है,
तीसरा वर्गीकरण समूह की अपेक्षा से है। कुल से गण और गण वह निषेधात्मक भाव से कभी नहीं हो सकता। कर्तव्य की अनुपालना १. (क) भ. वृ.८/२०५।
५.बृ. क. भा. गा. १३०३(ख) ठाणं १०/१३६।
काया वया य तेच्चिय, ने चेव पमाय अप्पमाया य। २. (क) बृ.क. भा. गा.१३०५
मोक्खाहिगारिगाणं, जोइसजोणीहि किं च पुणो।। जच्चाईहिं अवण्णं भासइ वट्टइ न यापि उववाए।
इह केचिद् दुर्विदग्धाः प्रवचनाशातनापानकमगणयन्त इन्थं श्रुतस्यावणं बवत, अहितो छिद्दप्पेही, पगासवादी अणणुकूलो॥
यथा-षड़जीवनिकाययामपि षट्कायाः प्ररुप्यन्ते, शास्त्रपरिज्ञायामपि न एव, (ख) भ. वृ. ८/२०५-२०६।
अन्येष्वप्यध्ययनेषु बहुशस्त एवोपवय॑ते, एवं वनान्यपि पुनः पुनस्तान्ग्रेव ३. वही, ८/२०६-गतिं मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य तत्रेहल्लोकस्य प्रत्यक्षस्य प्रतिपाद्यन्ते; तथा न एव प्रमादाप्रमादाः पुनः पुनर्वर्ण्यन्त, यथा-उत्तगध्ययनेषु मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीकः, इन्द्रियार्थ प्रतिकूलकारित्वात् आचारांगेवा, एवं च पुनरुक्तदोषः किञ्च यदि केवलस्यैव मोक्षस्य साधनार्थमयं पञ्चाग्नितपस्विवद् इहलोक-प्रत्यनीकः परत्नोको-जन्मान्तरं प्रत्यनीकः प्रयासस्तहि मोक्षाधिकारिणां साधूनां सूर्यप्रज्ञप्त्यादिना ज्योतिषशास्त्रण इन्द्रियार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चीर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः। योनिप्राभृतेन वा किं पुनः कार्यम? न किञ्चिदित्यर्थः । ४. वहीं.८ २०६।
६. भ. वृ. ८/३००।
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श. ८ : उ.८ : सू. ३०१
११४
भगवई
से जो विकास हो सकता है, वह कर्तव्य-विमुखता से कभी नहीं हो सकता। आदरणीय के प्रति आदर भाव से जो विकास हो सकता है, वह अनादर भाव से कभी नहीं हो सकता। प्रस्तुत आलापक में
मूल्यांकन का जो दृष्टिकोण दिया है, वह जीवन की सफलता की महार्घ्य कुंजी है। द्रष्टव्य ठाणं ३/४८८-९३ का टिप्पण।
जीतः।
पंचववहार-पदं पंचववहार-पदम्
पांच व्यवहार पद ३०१. कतिविहे णं भंते ! ववहारे पण्णत्ते? कतिविधः भदन्त ! व्यवहारः प्रज्ञप्तः ? ३०१. 'भंते! व्यवहार कितने प्रकार का
प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं गौतम! पञ्चविधः व्यवहारः प्रज्ञप्तः, तद् गौतम! व्यवहार पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जहा-आगमे, सुतं, आणा, धारणा, यथा-आगमः, श्रुतम्, आज्ञा, धारणा, जैसे-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीए।
जीत। जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं । यथा सः तत्र आगमः स्यात् आगमेन । जहां आगम हो वहां आगम से व्यवहार की ववहारं पट्टवेज्जा । व्यवहारं प्रस्थापयेत्।
प्रस्थापना करें। णो य से तत्थ आगमे सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र आगम: स्यात्, यथा सः तत्र जहां आगम न हो, श्रुत हो वहां श्रुत, सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्ठवेज्जा। श्रुतः स्यात्, श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत।। व्यवहार की प्रस्थापना करे। णो य से तत्थ सुए सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र श्रुतः स्यात् यथा सः तत्र जहां श्रुत न हो, आज्ञा हो वहां आज्ञा से आणा सिया, आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। आज्ञा स्यात् आज्ञया व्यवहारं प्रस्थापयेत् । व्यवहार की प्रस्थापना करे। णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ नो च सः तत्र आज्ञा स्यात्, यथा सः तत्र जहां आज्ञा न हो, धारणा हो, वहां धारणा धारणा सिया, धारणाए ववहारं धारणा स्यात्, धारणया व्यवहार से व्यवहार की प्रस्थापना करे। पट्ठवेज्जा ।
प्रस्थापयेत्। णो य से तत्थ धारणा सिया, जहा से नो च सः तत्र धारणा स्यात् यथा सः तत्र जहां धारणा न हो, जीत हो, वहां जीत से तत्थ जीए सिया, जीएणं ववहारं जीतः स्यात, जीतेन व्यवहारं प्रस्थापयेत्। व्यवहार की प्रस्थापना करे। पट्ठवेज्जा । इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेज्जा, तं इत्येतैः पञ्चभिः व्यवहारं प्रस्थापयेत् इन पांचों से व्यवहार की प्रस्थापना करेजहा-आगमेणं, सुएणं आणाए धारणाए, तद्यथा-आगमेन, श्रुतेन, आशया, आगम से, श्रुत से, आज्ञा से, धारणा से जीएण। धारणया, जीतेन।
और जीत से। जहा-जहा से आगमे सुए आणा धारणा यथा-यथा सः आगमः श्रुतः आज्ञा धारणा जिस समय आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा जीए तहा-तहा ववहारं पट्ठवेज्जा। जीतः तथा तथा व्यवहारं प्रस्थापयेत्। और जीत में से जो प्रधान हो, उसी से
व्यवहार की प्रस्थापना करे। से किमाहु भंते! आगमबलिया समणा अथ किमाहु भदन्त ! आगमबलिकाः भंते! आगमबलिक श्रमण निग्रंथों ने इस निगंथा? श्रमणाः निर्गन्थाः?
विषय में क्या कहा है? इच्चेतं पंचविहं ववहारं जदा-जदा जहिं- इत्येतं पञ्चविधं व्यवहारं यदा-यदा यत्र-यत्र इन पांचों व्यवहारों में जब-जब जिस-जिस जहिं तदा तदा तहिं-तहिं अणिस्सि- तदा तदा तत्र-तत्र अनिश्रितोपश्रितं सम्यक विषय में जो व्यवहार हो. तब-तब वहां
ओवस्सितं सम्मं ववहर-माणे समणे व्यवहारमाणः श्रमणः निर्ग्रन्थः आज्ञायाः वहां अनिश्रितोपाश्रित मध्यस्थभाव से निग्गंथे आणाए आराहए भवइ॥ आराधकः भवति।
सम्यग व्यवहार करता हुआ श्रमण निग्रंथ आज्ञा का आराधक होता है।
भाष्य
१. सूत्र ३०१
पंचविध व्यवहार का पाठ व्यवहार सूत्र, स्थानांग और भगवती-इन तीनों आगमों में मिलता है। व्यवहार छेद सूत्र है, इसलिए प्रस्तुत पाठ मूलतः उसी से संबद्ध है। स्थानांग में वह संकलित और भगवती में संकलन काल में निक्षिप्त हुआ प्रतीत होता है। पांच व्यवहार
भगवान महावीर तथा उत्तरवर्ती आचार्यों ने संघ- व्यवस्था की दृष्टि से एक आचार संहिता का निर्माण किया। उसमें मुनि के कर्तव्य
और अकर्तव्य या प्रवृत्ति और निवृत्ति के निर्देश है। उसकी आगमिक संज्ञा 'व्यवहार' है। जिनसे यह व्यवहार संचालित होता है, वे व्यक्ति भी कार्य-कारण की अभेद दृष्टि से 'व्यवहार' कहलाते हैं।
प्रस्तुत सूत्र में व्यवहार संचालन में अधिकृत व्यक्तियों की ज्ञानात्मक क्षमता के आधार पर प्राथमिकता बतलाई गई है।
व्यवहार संचालन में पहला स्थान आगमपुरुष का है। उसकी अनुपस्थिति में व्यवहार का प्रवर्तन श्रुतपुरुष करता है। उसकी अनुपस्थिति में आज्ञापुरुष, उसकी अनुपस्थिति में धारणापुरुष और
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भगवई
उसकी अनुपस्थिति में जीतपुरुष व्यवहार का प्रवर्तन करता है।
१. आगम व्यवहार-इसके दो प्रकार हैं-प्रत्यक्ष और परोक्षा' प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं
१. अवधि प्रत्यक्ष, २. मनःपर्यव प्रत्यक्ष, ३. केवलज्ञान प्रत्यक्ष। परोक्ष के तीन प्रकार हैं१. चतुर्दशपूर्वधर, २. दशपूर्वधर, ३. नवपूर्वधर।
शिष्य ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया कि परोक्षज्ञानी साक्षात् रूप से श्रुत से व्यवहार करते हैं तो भलावे आगम-व्यवहारी कैसे कहे जा सकते हैं?
आचार्य ने कहा-जैसे केवलज्ञानी अपने अप्रतिहत ज्ञानबल से पदार्थों को सर्वरूपेण जानता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी श्रुतबल से जान लेता है। जिस प्रकार प्रत्यक्षज्ञानी भी समान अपराध में न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है, वैसे ही श्रुतज्ञानी भी आलोचक के रागद्वेषात्मक अध्यवसायों को जानकर उनके अनुरूप न्यून या अधिक प्रायश्चित्त देता है।
शिष्य ने पुनः प्रश्न किया-प्रत्यक्षज्ञानी आलोचना करने वाले व्यक्ति के भावों को साक्षात् जान लेते हैं किन्तु परोक्षज्ञानी ऐसा नहीं कर सकते अतः न्यूनाधिक प्रायश्चित्त देने का उनका आधार क्या
आचाय ने कहा-'वत्स! नालिका से गिरने वाले पानी के द्वारा समय जाना जाता है। वहां का अधिकारी व्यक्ति समय को जानकर, दूसरों को उसकी अवगति देने के लिए. समय-समय पर शंख बजाता है। शंख के शब्द को सुनकर दूसरे लोग समय का ज्ञान कर लेते हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञानी भी आलोचना तथा शुद्धि करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को सुनकर यथार्थ स्थिति का ज्ञान कर लेते हैं। फिर उसके अनुसार उसे प्रायश्चित्त देते हैं।
यदि वे यह जान लेते हैं कि अमुक व्यक्ति ने सम्यक रूप से आलोचना नहीं की हैं, तो वे उसे अन्यत्र जाकर शोधि करने की बात कहते हैं। आगमव्यवहारी के लक्षण
आचार्य के आठ प्रकार की संपदा होती है-आचार, श्रुत, १.व्य, भा, उ.१० गा. २०१
आगमतो ववहारो मुणह जहा धीरपुरिसपन्नत्तो।
पच्चक्खो य परोक्खो सो वि य दुविहो मुणेयव्यो। २. वही, २०३
ओहिमणपज्जवे य केवलनाणे य पच्चक्खे। ३. वही. गा. २०६
परोक्खं यवहारं आगमतो सुयधरा ववहरति।
चोदसदसपुव्वधरा नवपुब्वियगंधहत्थी य॥ ४. वहीं, २१० वृनि कथं केन प्रकारेण साक्षात श्रुतेन व्यवहरन्तः आगम
व्यवहारिणः। ५. वही, गा, २११
जह केवली वि जाणइ दव्वं च खेनं च कालभावं च।
तह चउलक्खणमेवं सुयनाणीमेव जाणानि ।। ६. वही, गा. २१३ वृत्ति 9. वही, गा. २१६ वृनि-जिनास्तीर्थकृतः परोक्षे आगमे उपसंहारं नालीधमकेन कुर्वन, श्यमत्र भावनाः नाडिकायां गलन्त्यामुदकगलनपरिमाणतो जानाति एतावत्युदके गलिते यामो दिवसस्य रात्रेर्वा गत इनि ततोऽन्यस्य परिज्ञानाय
श. ८ : उ. ८ : सू. ३०१ शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रहपरिज्ञा। इनके प्रत्येक के चार-चार प्रकार हैं।
इस प्रकार इसके ३२ प्रकार होते हैं। (देखें भगवई ८/१५ का टिप्पण)
चार विनय प्रतिपत्तियां हैं। १. आचारविनय-आचार विषयक विनय सिखाना। २. श्रुतविनय-सूत्र और अर्थ की वाचना देना।
३. विक्षेपणाविनय-जो धर्म से दूर हैं, उन्हें धर्म में स्थापित करना, जो स्थित हैं उन्हें प्रव्रजित करना, जो च्युतधर्मा हैं, उन्हें पुनः धर्मनिष्ठ बनाना और उनके लिए हित संपादन करना।
४. दोषनिर्धातविनय-क्रोध-विनयन, दोष-विनयन तथा कांक्षाविनयन के लिए प्रयत्न करना।
जो इन ३६ गुणों में कुशल, आचार आदि आलोचनार्ह आठ गुणों से युक्त, अठारह वर्जनीय स्थानों का ज्ञाता, दस प्रकार के प्रायश्चित्तों को जानने वाला, आलोचना के दस दोषों का विज्ञाता, व्रतषट्क और कायषट्क को जानने वाला तथा जो जातिसम्पन्न आदि दस गुणों से युक्त है-वह आगमव्यहारी होता है।"
शिष्य ने पूछा-भंते ! वर्तमान काल में इस भरतक्षेत्र में आगमव्यवहारी का विच्छेद हो चुका है। अतः यथार्थ शुद्धिदायक न रहने के कारण तथा दोषों की यथार्थशुद्धि न होने के कारण वर्तमान में चारित्र की विशुद्धि नहीं है। न कोई आज मासिक या पाक्षिक प्रायश्चित्त ही देता है और न कोई उसे ग्रहण करता है, इसलिए वर्तमान में तीर्थ केवल ज्ञान-दर्शनमय है, चारित्रमय नहीं। केवली का व्यवच्छेद होने के बाद थोड़े समय में ही चौदह पूर्वधरों का भी व्यवच्छेद हो जाता है। अतः विशुद्धि कराने वालों के अभाव में चारित्र की विशुन्द्रि भी नहीं रहती। दूसरी बात है कि केवली, जिन आदि अपराध के अनुसार प्रायश्चित्त देते थे, न्यून या अधिक नहीं। उनके अभाव में छेदसूत्रधर मनचाहा प्रायश्चिन देते हैं, कभी थोड़ा और कभी अधिक।
___ अतः वर्तमान में प्रायश्चित्त देने वाले के व्यवच्छेद के साथसाथ प्रायश्चित्त का भी लोप हो गया है।
शंख धमति। तत्र यथा सोऽन्यो जनः शंखस्य शब्देन श्रुतेन कालं वा यामलक्षणं जानानि यथापरोक्षागमगामिनोऽपि शोधिमालोचनां श्रुत्वा तस्य यथावस्थितं भावं जानाति। ज्ञात्वा च तदनुसारेण प्रायश्चित्तं ददाति। ८. वही, गा. ३०३
आयारे सुय विणए विक्खेवण चेव होई बोधब्बे।
दोसरस निग्याए विणए चरहेस पडिवत्ती।। ९. वही, गा. ३०५-३२७॥ १०. वही, गा. ३२८-३३४। ११. वही, गा.३३५-३३८
एवं भणिते भणती ते वोच्छिन्ना उपसंपय इहई। तेसु य वोच्छिन्नेसु नत्थि विसुद्धी चरित्तस्स। देतावि न दीसंती न वि करेता उपसंपया केई। तित्थं च नाणदसणनिज्जवगा चेव वोच्छिन्ना ।। चोदसपुव्वधराणं वोच्छेदो केवलीण वुच्छेए। केसि वी आदेसो पायच्छित्तं पि वोच्छिन्नं ।। जं जत्तिएण सुज्झइ पावे तस्स नहा देंति पच्छित्तं । जिण, चोहसपुव्वधरा विवरीया जहिच्छाए।
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श.८ : उ.८ : सू. ३०१
भगवई
आचार्य ने कहा-वत्स! तू यह नहीं जानता कि प्रायश्चित्तों का मूल विधान कहां हुआ है ? वर्तमान में प्रायश्चित्त है या नहीं?'
प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व की तीसरी वस्तु में समस्त प्रायश्चित्तों का विधान हैं। उस आकरग्रंथ से प्रायश्चित्तों का नि!हण कर निशीथ, बृहत्कल्प और व्यवहार-इन तीनों सूत्रों में उनका समावेश किया गया है। आज भी विविध प्रकार के प्रायश्चित्तों को वहन करने वाले हैं। वे अपने प्रायश्चित्तों को विशेष उपायों से वहन करते हैं, अतः उनका वहन करना हमें दृग्गोचर नहीं होता। आज भी तीर्थ चारित्र सहित है तथा उसके निर्यापक भी हैं।
(विस्तृत वर्णन के लिए देखें व्यवहार, उद्देशक १० भाष्य ३५१६०२)।
२. श्रुत व्यवहार-जो बृहत्कल्प और व्यवहार को बहुत पढ़ चुका है और उनको सूत्र तथा अर्थ की दृष्टि से निपुणता से जानता है, वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।
यहां श्रुत के भाष्यकार ने केवल इन दो सूत्रों का निर्देश किया
आकांक्षी हैं। वे सोचते हैं-आलोचना देने वाले आचार्य दूरस्थ हैं। मैं अशक्त हो गया हूं, अतः उनके पास जा नहीं सकता तथा वे आचार्य भी यहां आने में असमर्थ हैं, अतः मुझे आज्ञा व्यवहार का प्रयोग करना चाहिए। 'वे शिष्य को बुलाकर उन आचार्य के पास भेजते हैं और कहलाते हैं-आर्य ! मैं आपके पास शोधि करना चाहता हूं।' शिष्य वहां जाता है और आचार्य को यथोक्त बात कहता है। आचार्य भी वहां जाने में अपनी असमर्थता को लक्षित कर अपने मेधावी शिष्य को वहां भेजने की बात सोचते हैं। तब वे अपने गण में जो शिष्य आज्ञापरिणामकर, अवग्रहण और धारणा में क्षम, सूत्र और अर्थ में मूढ़ न होने वाला होता है, उसे वहां भेजते हुए कहते हैं-'वत्स! तुम वहां आलोचना आकांक्षी आचार्य के पास जाओ और उनकी आलोचना को सुनकर यहां लौट आओ,
आचार्य द्वारा प्रेषित मुनि के पास आलोचनाकांक्षी आचार्य सरल हृदय से सारी आलोचना करते हैं। आगन्तुक मुनि आलोचक आचार्य की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमपरिपाटी का सम्यक अवग्रहण और धारण कर लेता है। वे कितने आगमों के ज्ञाता है ? उनकी प्रव्रज्या-पर्याय तपस्या से भावित है या अभावित ? उनकी गृहस्थ तथा व्रत-पर्याय कितनी है? शारीरिक बल की स्थिति क्या है? वह क्षेत्र कैसा है ? ये सारी बातें श्रमण उन आचार्य को पूछता है। उनके कथनानुसार तथा स्वयं के प्रत्यक्ष दर्शन से उनका अवधारण कर वह अपने प्रदेश में लौट आता है। वह अपने आचार्य के पास जाकर उसी क्रम से निवेदन करता है जिस क्रम से उसने सभी तथ्यों का अवधारण किया था।
आचार्य भद्रबाह ने कुल, गण, संघ आदि में कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का व्यवहार उपस्थित होने पर द्वादशांगी से कल्प और व्यवहार-इन दो सूत्रों का निर्वृहण किया था। जो इन दोनों सूत्रों का अवगाहन कर चुका है और इनके निर्देशानुसार प्रायश्चित्तों का विधान करता है वह श्रुतव्यवहारी कहलाता है।
३. आज्ञा व्यवहार-कोई आचार्य भक्तप्रत्याख्यान अनशन में व्याप्त हैं। वे जीवन गत दोषों की शुद्धि के लिए अंतिम आलोचना के
१.व्य. भा. उ.१०गा. ३४४
एवं तु चोइयम्मी आयरितो भणइ न हु तुमे नायं।
पच्छित्तं कहियंतू किं धरती किं व वोच्छिन्नं ।। २.वही, ३४५
सव्वं पि य पच्छित्तं पच्चक्खाणस्स ततिय बत्थुमि।
तत्तो वि य निच्छूढा पकप्पकप्पो य ववहारो॥ ३. वही, ३४६, वृत्ति। ४. वही, ६०५,६०७
जो सुयमहिज्जइ बहु सुतत्थं च निउणं विजाणाति। कप्पे ववहारम्मि य सो उ पमाणं सुयहराणं॥ कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्स व परमनिउणस्स।
जो अत्थतो वियाणइ क्वहारी सो अणुण्णती॥ ५. वही, ६०८, वृत्ति-कुलादिकार्येषु व्यवहारे उपस्थिते यद्भगवता भद्रबाहुस्वामिना कल्पव्यवहारात्मकं सूत्रं निथुढं तदेवानुमज्जननिपुणतरार्थं परिभावनेन तन्मध्ये प्रविशन व्यवहारविधिं यथोक्तं सूत्रमुच्चार्य तस्यार्थं निर्दिशन् यः प्रयुक्ते स
श्रुतव्यवहारी धीरपुरुषैः प्रज्ञप्तः। ६. वही, ६१०-६१५,६२७।
समणस्स उत्तमटे सल्लुद्धरणकरणे अभिमुहस्स। दूरत्था जत्थ भवे छत्तीसगुणा उ आयरिया।। अपरक्कमो सि जाओ गंतुं जे कारणं च उप्पन्न । अठारसमन्नयरे वसवगतो इच्छिमो आणं॥ अपरकम्मो तवस्सी गंतु जो सोहिकारगसमीवं। आगंतुं न वाएई सो सोहिकारोवि देसाउ।
अह पट्टवेइ सीसं देसंतरगमणनट्टचेट्टागो। इच्छामज्जो काउंसोहि तुब्भं सगासम्मि॥ सोवि अपरक्कमगती सीसं पेसेइ धारणाकुसनं। एयस्स दाणि पुरओ करेइ सोहिं जहावत्तं॥ अपरक्कमो य सीसं आणापरिणामगं परिच्छेज्जा। रुक्खे य बीयकाए सुत्ते वा मोहणाधारिं। एवं परिच्छिऊणं नाऊण पेसवे तं तु।
बच्चाहि तस्सगासं सोहिं सोऊण आगच्छ।। ७. वही, गा. ६२८
अह सो गतो उ तहियं सगासम्मि सो करे साहिं।
दुगतिगचउविसुद्ध विविहं काले विगडभावो॥ ८. वही, गा. ६५९, वृत्ति-श्रुत्वा तस्यालोचनकस्य प्रतिसेवनामालोचनाक्रमविधि
च आलोचनाक्रमपरिपार्टी चावधार्य तथा तस्य यावनागमोस्ति तावन्तमागमं तथा पुरुषजातं तमष्टमादिभिर्भावितमभावितं वा पर्यायं गृहस्थपर्यायो यावनासीत् यावांश्च तस्य व्रतपर्यायः तावन्तमुभयं वा पर्यायं बलं शारीरिकं तस्य तथा यादृशं तत् क्षेत्रमेतत्सर्वमालोचकाचार्यकथनतः स्वतो दर्शनतश्चावधार्य स्वदेश
गच्छति। ९. वही, ६६०
आहारेउ सत्वं सो गंतूर्ण पुणो गुरुसगासं। तेसिं निवेदेइ तहा जहाणुपुब्बिं गत सव्वं॥
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भगवई
श.८: उ.८: सू. ३०१
आचार्य अपने शिष्य के कथन को अवधानपूर्वक सुनते हैं और छेदसूत्रों (कल्प और व्यवहार) में निमग्न हो जाते हैं। वे पौर्वापर्य का अनुसंधान कर, सूत्रगत नियमों के तात्पर्य की सम्यक् अवगति करते हैं। उसी शिष्य को बुलाकर कहते हैं-'जाओ, उन आचार्य को यह प्रायश्चित्त निवेदित कर आओ।' वह शिष्य वहां जाता है और अपने आचार्य द्वारा कथित प्रायश्चित्त उन्हें सुना देता है। यह आज्ञा व्यवहार
वृत्तिकार के अनुसार आज्ञा व्यवहार का अर्थ इस प्रकार है-दो गीतार्थ आचार्य भिन्न-भिन्न देशों में हो, वे कारणवश मिलने में असमर्थ हों, ऐसी स्थिति में कहीं प्रायश्चित्त आदि के विषय में एक दूसरे का परामर्श अपेक्षित हो, तो वे अपने शिष्यों को गूढ़पदों में प्रष्टव्य विषय को निहित कर उनके पास भेज देते हैं। वे गीतार्थ आचार्य भी उसी शिष्य के साथ गूढपदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं। यह आज्ञा व्यवहार है।
४. धारणा व्यवहार-किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य के अपराध की शुद्धि के लिए जो प्रायश्चित्त दिया हो, उसे याद रखकर, वैसी ही परिस्थिति में उसी प्रायश्चित्त-विधि का उपयोग करना धारणा व्यवहार कहलाता है। अथवा वैयावृत्य आदि विशेष प्रवृत्ति में संलग्न तथा अशेष छेदसूत्र के धारण करने में असमर्थ साधु को कुछ विशेष-विशेष पद उद्धृत कर धारणा करवाने को धारणा व्यवहार कहा जाता है।
उद्धारणा, विधारणा, संधारणा और संप्रधारणा-ये धारणा के पर्यायवाची शब्द हैं।
१. उद्धारणा-छेदसूत्रों से उद्धृत अर्थपदों को निपुणता से जानना। २. विधारणा-विशिष्ट अर्थपदों को स्मृति में धारण करना। ३. संधारणा-धारण किए हुए अर्थपदों को आत्मसात् करना।
४. संप्रधारणा-पूर्व रूप से अर्थपदों को धारण कर प्रायश्चित्त का विधान करना।
जो मुनि प्रवचनयशस्वी, अनुग्रहविशारद, तपस्वी, सुश्रुत, बहुश्रुत, विनय और औचित्य से युक्त वाणी वाला होता है, वह यदि प्रमादवश मूलगुणों या उत्तरगुणों में स्खलना कर देता है, तब पूर्वोक्त तीन व्यवहारों के अभाव में भी आचार्य छेदसूत्रों से अर्थपदों को धारण कर उसे यथायोग्य प्रायश्चित्त देते हैं। वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से छेदसूत्र के अर्थ का सम्यक् पर्यालोचन कर धीर, दान्त और प्रलीन मुनियों द्वारा कथित तथ्यों के आधार पर प्रायश्चित्त का विधान करते है। यह धारणा व्यवहार कहलाता है।
यह भी माना जाता है कि किसी ने किसी को आलोचनाशुद्धि करते हुए देखा। उसने यह अवधारण कर लिया कि इस प्रकार के अपराध के लिए यह शोधि होती है। परिस्थिति उत्पन्न होने पर वह उसी प्रकार का प्रायश्चित्त देता है तो वह धारणा व्यवहार कहलाता है।
कोई शिष्य आचार्य की वैयावृत्य में संलग्न है या गण में प्रधान शिष्य है या यात्रा के अवसर पर आचार्य के साथ रहता है, वह छेदसूत्रों के परिपूर्ण अर्थ को धारण करने में असमर्थ होता है। अब आचार्य उस पर अनुग्रह कर छेदसूत्रों के कई अर्थ पद उसे धारण करवाते हैं। वह छेदसूत्रों का अंशतः धारक होता है। वह भी धारणा व्यवहार का संचालन
१. व्य. भा. उ, १०, गा.६६१--
सो क्वहारविहण्णू अणुमज्जिना सुतोवएसेणं।
सीसस्स देई आणं नस्स इमं देहि पच्छितं। २. वही १०.गा. ६७३
एवं गंतृणं नहिं जहोवएसेण देहि पच्छित्तं।
आणाए एस भणितो ववहारो धीरपुरुसेहिं।। ३.स्था. वृ.प.३०२-यदगीनार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थ-निवेदना
यातिचारालोचनमितरस्यापि तथैव शुद्धिदानं साज्ञा। ४. वही, प. ३०२-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्यापेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृतातामवधाय यदन्यस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुङ्क्ते सा धारणा। वैयावृत्त्यकरादेवा गच्छोपग्रहकारिणो अशेषानुचितस्योचितप्रायश्चितपदानां प्रदर्शितानां धरणं
धारणेति। ५. व्य. भा. उ. १० गा. ६७५
उद्धारणा विधारणा संधारणा संपधारणा चेव ।
नाऊण धीरपुरिसा धारणववहारं तं बिंति॥ ६. वही, गा.६७६-६७८
पाबल्लेण उवेच्च व उद्धियपयधारणा उ उद्धारा। विविहेहिं पगारेहिं धारेयव्वं वि धारेउ। सं एगी भावस्सी छियकरणा ताणि एक्कभावेण। धारेयस्थपयाणि उ तम्हा संधारणा होइ॥ जम्हा संपहारेउं ववहारं पउंजति। तम्हा कारणा तेण नायव्वा संपहारणा||
७. वही १०, गा.६८०-६८६
पवयण जसंसि पुरिसे अणुग्णह विसारए नवस्सिंमि। सुस्सुयबहुस्सुयंमि य विवक्कपरियागसुद्धम्मि।। एएसु धीरपुरिसा पुरिसजाएसु किंचि खलिए। रहिावि धारयंता जहारिहं देंति पच्छित्।। रहिए नाम असन्ने आइल्लम्मि ववहारतियगंमि। ताहेवि धारइत्ता बीमसेऊण जं मणियं ।। पुरिसस्स अझ्यारं वियारइत्ताण जम्स जे जोग। तं देति उ पच्छितं जेणं देती उतं सुणए।। जो धारितो सुतत्थो अणुओगविहीए धीरपुरिसेहि। आलीणपत्नीणेहिं जयणाजुत्तेहिं दन्तेहि॥ अल्लीणो णाणादिसु पदे पदे लीआ उ होति पलीणा। कोहादी वा पलयं जेसि गया ते पलीणा उ॥ जयणाजुनो पयत्तवा दंतो जो उवरतो उ पावेहि।
अहवा दंतो इंदियदमेण नोइंदिएणं च ॥ ८. वही, १०, गा. ६८७-६८९
अहवा जेणण्णझ्या दिट्टा सोही परस्स कीरंति। तारिसयं चेव पुनो उपण्णं कारणं तस्स।। सो तंमि चेव दव्वे खेने काले य कारिणे पुरिसो। तारिसयं अकरेंतो न उ सो आराहतो होइ।। सो तंपि चेव दव्वे खेने काले य कारणे पुरिसे। तारिसयं चिय भूया, कुव्वं आराहगो होई।।
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श.८ : उ. ८ : सू. ३०१
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भगवई
कर सकता है।
उत्पन्न हो जाता है। ऐसी स्थिति में शासन और लोगों में उस अपराध ५. जीत व्यवहार-किसी समय किसी अपराध के लिए की विशुद्धि की अवगति कराने के लिए अपराधी मुनि को गधे पर आचार्यों ने एक प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया। दूसरे समय में चढ़ाकर सारे नगर में घुमाते हैं, पेट के बल रेंगते हुए नगर में जाने को देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए कहते हैं, शरीर पर राख लगाकर लोगों के बीच जाने को प्रेरित करते जो दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त-विधान किया जाता है. उसे जीत हैं, कारागृह में प्रविष्ट करते हैं ये सब सावध जीत व्यवहार के उदाहरण व्यवहार कहते हैं।
किसी आचार्य के गच्छ में किसी कारणवश कोई सूत्रातिरिक्त दस प्रकार के प्रायश्चित्तों का व्यवहरण करना निरवद्य जीत प्रायश्चित्त प्रवर्तित हुआ और वह बहुतों द्वारा अनेक बार, अनुवर्तित व्यवहार है। अपवाद रूप में सावध जीत व्यवहार का भी आलम्बन हुआ। उस प्रायश्चित्त-विधि को 'जीत' कहा जाता है। शिष्य ने यह लिया जाता है। प्रश्न उपस्थित किया कि चौदहपूर्वी के उच्छेद के साथ-साथ आगम, जो श्रमण बार-बार दोष करता है, बहृदोषी है, सर्वथा निर्दय है श्रुत, आज्ञा और धारणा-ये चारों व्यवहार भी व्यवच्छिन्न हो जाते हैं। तथा प्रवचन-निरपेक्ष है, ऐसे व्यक्ति के लिए सावध जीत व्यवहार क्या यह सही है?
उचित होता है। आचार्य ने कहा-'नहीं, यह सही नहीं है। केवली, मनःपर्यवज्ञानी, जो श्रमण वैराग्यवान, प्रियधर्मा, अप्रमत्त और पापभीरू है उसके अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वी दशपूर्वी और नौपूर्वी-ये सब आगम- व्यवहारी कहीं स्खलित हो जाने पर निरवद्य जीत व्यवहार उचित होता है। होते हैं। कल्प और व्यवहार सूत्रधर. श्रुतव्यवहारी होते हैं, जो छेदसूत्र जो जीत व्यवहार पार्श्वस्थ, प्रमत्तसंयत मुनियों द्वारा आचीर्ण के अर्थधर होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज है, भले फिर वह अनेक व्यक्तियों द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि भी छेदसूत्रों के सूत्र और अर्थ को धारण करने वाले हैं, अतःकरने वाला नहीं होता। व्यवहारचतुष्क का व्यवच्छेद चौदहपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत जो जीत व्यवहार संवेगपरायण दांत मुनि द्वारा आचीर्ण है, भले नहीं है।'
फिर वह एक ही मुनि द्वारा आचीर्ण क्यों न हो, वह शुद्धि करने वाला जीत व्यवहार दो प्रकार का होता है-सावध जीत व्यवहार और होता है। निरवद्य जीत व्यवहार। वस्तुतः निरवद्य से ही व्यवहरण हो सकता है, व्यवहार साधु-संघ की व्यवस्था का आधार -बिन्दु रहा है। इसके सावध से नहीं। परन्तु कहीं-कहीं सावध जीत व्यवहार का आश्रय माध्यम से संघ को निरंतर जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न भी लिया जाता है। जैसे-कोई मनि ऐसा अपराध कर डालता है कि किया जा रहा है इसलिए चारित्र की आराधना में इसका महत्त्वपूर्ण जिससे समूचे श्रमण संघ की अवहेलना होती है और लोगों में तिरस्कार स्थान है।
१. व्या. भा. उ.१० गा. ६९०,६९१--
वेयावच्चकरो वा सीसो वा देसहिंडगो वावि। धुम्मेहना न तरइ आराहेर बहं जो उ॥ तस्स उ उन्दरिऊण अत्यपयाई देति आयरियो।
जेहिं उ करेइ कज्ज आहारेन्तो उ सो देसं॥ २. वही, ३०२--द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिषेवानानुवृत्या संहननधृत्यादिपरिहाणि
मपेक्ष्य यत्प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तकारणतः प्रायश्चित्त. व्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तितस्तज्जीतमिति। ३. वही, १०, गा. ६९६
ववहार चउक्कंपि य चोदसपुव्वंमि वोच्छिन्नं। ४. वही १०.गा, ७०१-०३
केवलमणपज्जवनाणिणो य तत्तो य ओहिनाणजिणा। चोदसदसनवपुवी आगमववहारिणो धीरा।। सुत्नेण ववहरते कप्पववहारं धारिणो धीरा। अत्थधरववहारते आणाए धारणा ए य॥ ववहारं चउक्कस्स चोहसपुविम्मि छेदो जं।
भणियं तं ते मिच्छा जम्हा सुत्तं अन्थो य धरए य ।। ५. वही, गा.८१५
जं जीतं सावज्जन नेण जीएण होइ ववहारो। जं जीयमसावज्ज तेण उ जीएण ववहारो।।
६. वही, गा. ७१६ वृत्ति
छारहड्डिहड्डयालापोट्टेण य रिंगणं तु सावज्ज।
दसविह पायच्छित् होइ असावजं जीयं त॥ यत प्रवचने लोके चापराधविशुद्धये समाचरितं क्षारावगण्डनं हडी गुप्तिगृहप्रवेशनं खरमारोपणं पोट्टेण उदरेण रंगणं तु शब्दत्वात् खराब्दं कृत्वा ग्रामे सर्वतः पर्यटनमित्येवमादि सावधं जीतं, यत्तु दशविधमालोचनादिकं प्रायश्चित्तं तदसावा, जीतं अपवादतः कदाचित्सावद्यमपि जीतं दधान्। ७. वही,१० गा. ७१७
उसण्णबहूदोसे निद्रंधसे पवयणे य निरवेक्खो।
एयारिसंमि पुरिसे दिज्जइ सावज नीयंपि।। ८. वही, गा. ७१८--
संविग्गे पियधम्मे अपमने य वज्जभीरुम्मि।
कम्हिइयमाइ खलिए देयमसावज्जं जीयं तु॥ ९. वही, ७२०
जंजीयमसोहिकरं पासत्थपमत्तसंजयाईण्णं।
जइवि महाजणाइन्नं न तेन जीएण ववहारो॥ १०. वही, ७२१
जं जीयं सोहिकरं संवेगपरायणेन दंतेण। एगेण वि आइन्नं तेणं उ जीएण ववहारो।।
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भगवई
श.८ : उ.८ : सू. ३०२-३०४
बंध-पदं ३०२. कतिविहे णं भंते! बंधे पण्णत्ते?
बन्ध-पदम् कतिविधः भदन्त ! बन्धःप्रज्ञप्तः?
बंध पद ३०२. भंते! बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं गौतम ! द्विविधः बन्धः प्रज्ञप्तः, तद् यथाजहा-इरियावहियबंधे य,संपराइय-बंधे ईपिथिकबन्धश्च, साम्परायिकबन्धश्च।
गौतम ! बंध दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेऐपिथिक बंध, सांपरायिक बंध।
इरियावहियबंध-पदं
ईर्यापथिकबन्ध-पदम्३०३. इरियावहियं णं भंते! कम्मं किं ने ईर्यापथिकं भदन्त ! कर्म किं नैरयिकः रइओ बंधइ? तिरिक्ख-जोणिओ बध्नाति? तियग्योनिकः बध्नाति? बंधइ? तिरिक्खजोणिणी बंधइ? तिर्यग्योनिका बध्नाति? मनुष्यः बध्नाति? मणुस्सो बंधइ? मणुस्सी बंधइ? देवो मानुषी बध्नाति? देवः बध्नाति? देवी बंधइ? देवी बंधइ?
बध्नाति? गोयमा! नो नेरइओ बंधइ, नो गौतम! नो नैरयिकः बध्नाति. नो तिरिक्खजोणिओ बंधइ, नो तिरिक्ख- तिर्यगयोनिकः बध्नाति. नो तिर्यगयोनिका जोणिणी बंधइ, नो देवो बंधइ, नो देवी बध्नाति, नो देवः बध्नाति, नो देवी बंधइ। पुव्व पडिवन्नए पडुच्च मणुस्सा य बध्नाति। पूर्वप्रतिपन्नकान् प्रतीत्य मणुस्सीओ य बंधति, पडिवज्ज-माणए मनुष्याश्च मनुष्यश्च बध्नन्ति, प्रतिपद्यपडुच्च १. मणुस्सो वा बंधइ २. मणुस्सी मानकान् प्रतीत्य १. मानुष्यो वा बध्नाति वा बंधइ ३. मणुस्सा वा बंधंति ४. २. मानुषी वा बध्नाति ३. मनुष्याः वा मणुस्सीओ वा बंधति ५. अहवा मणुस्सो बध्नन्ति ४. मानुष्यः वा बध्नन्ति य मणुस्सी य बंधइ ६. अहवा मणुस्सो ५. अथवा मनुष्यश्च मानुषी च बध्नाति य मणुस्सीओ य बंधंति ७. अहवा ६. अथवा मनुष्यश्च मानुष्यश्च बध्नन्ति मणुस्सा य मणुस्सी य बंधति ८. अहवा ७. अथवा मनुष्याश्च मानुषी च बध्नन्ति मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधति॥ ८. अथवा मनुष्याश्च मानुष्यश्च बध्नन्ति।
ऐर्यापथिक बंध-पद ३०३. भंते! ऐयापथिक कर्म का बंध क्या नैरयिक करता है? तिर्यकयोनिक करता है? तिर्यकयोनिक स्त्री करती है ? मनुष्य करता है? स्त्री करती है ? देव करता है? देवी करती है? गौतम ! नैरयिक बंध नहीं करता, तिर्यकयोनिक बंध नहीं करता, तिर्यकयोनिक स्त्री बंध नहीं करती, देव बंध नहीं करता, देवी बंध नहीं करती। पूर्व प्रतिपन्न की अपेक्षा मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियां बंध करती है। १. प्रतिपद्यमान की अपेक्षा मनुष्य बंध करता है २. अथवा मनुष्य स्त्री बंध करती है ३. मनुष्य बंध करते हैं ४. मनुष्य स्त्रियां बंध करता हैं ५. अथवा मनुष्य और मनुष्य स्त्री बंध करता है ६. अथवा मनुष्य और मनुष्य स्त्रियां बंध करती हैं 9. अथवा मनुष्य (अनेक) और मनुष्य स्त्री बंध करती है, ८. अथवा मनुष्य (अनेक) और मनुष्य स्त्रियां बंध करती है।
३०४. तं भंते! किं इत्थी बधंइ? पुरिसो तत् भदन्त ! किं स्त्री बध्नाति? पुरुषः बंधइ? नपुंसगो बंधइ? इत्थीओ बध्नाति? नपुंसकः बध्नाति? स्त्रियः बंधति? पुरिसा बंधंति? नपुंसगा बध्नन्ति? पुरुषाः बध्नन्ति? नपुंसकाः बंधति? नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसगो बध्नन्ति? नो स्त्री नो पुरुषः नो नपुंसकः बंधइ?
बध्नाति?
गोयमा! नो इत्थी बंधइ, नो पुरिसो गौतम! नो स्त्री बध्नाति, नो पुरुषः बंधइ, नो नपुंसगो बंधइ, नो इत्थीओ बध्नाति, नो नपुंसकः बध्नाति, नो स्त्रियः बंधंति, नो पुरिसा बंधंति, नो नपुंसगा बध्नन्ति, नो पुरुषाः बध्नन्ति, नो बंधति, नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसगो नपुंसकाः बध्नन्ति, नो स्त्री नो पुरुषः नो बंधइ-पुव-पडिवन्नए पडुच्च अवगय- नपुंसकः बध्नाति-पूर्व-प्रतिपन्नकान् वेदा बंधंति, पडिवज्जमाणए पडुच्च प्रतीत्य अपगतवेदाः बध्नन्ति, प्रतिपद्यअवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा मानकान् प्रतीत्य अपगतवेदः वा बध्नाति बंधंति॥
अपगतवेदाः वा बध्नन्ति।
३०४. भंते ! क्या स्त्री बंध करती है ? पुरुष बंध करता है? नपुंसक बंध करता है? क्या स्त्रियां बंध करती हैं? पुरुष बंध करते हैं? नपुंसक बंध करते हैं? क्या नो स्त्री, नो पुरुष और नो नपुंसक बंध करता है? गौतम ! स्त्री बंध नहीं करती, पुरुष बंध नहीं करता, नपुंसक बंध नहीं करता, स्त्रियां बंध नहीं करती, पुरुष बंध नहीं करते, नपुंसक बंध नहीं करते, नो स्वी नो पुरुष और नो नपुंसक बंध करता है-पूर्व प्रतिपन्न की अपेक्षा वेद रहित बंध करते हैं, प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वेद रहित बंध करता है अथवा वेद रहित बंध करते हैं।
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श. ८ : उ ८ : सू. ३०५,३०६
३०५. जइ भंते! अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा वा बंधंति तं भंते! किं १. इत्थीपच्छाकडो बंधइ ? २. पुरिसपच्छाकडो बंधइ ? ३. नपुंसगपच्छाकडो बंधइ ? ४. इत्थीपच्छाकडा बंधंति ५. पुरिस-पच्छाकडा बंधंति ? ६. नपुंसग पच्छाकडा बंधंति ? उदाहु इत्थी - पच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ४ ? उदाहु इत्थीपच्छाकडो य नपुंसग - पच्छाकडो य बंधइ४ ? उदाहु पुरिसपच्छाकडो य नपुंसग पच्छाकडो य बंधइ ४ ? उदाहु इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छा-कडो य नपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ८ एवं एते छव्वीसं भंगा जाव उदाहु इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ?
गोयमा ! १ इत्थीपच्छाकडो वि बंध २. पुरिसपच्छाकडो वि बंधड़ ३. नपुंसगपच्छाकडो वि बंधइ ४. इत्थी - पच्छाकडा वि बंधंति ५. पुरिसपच्छाकडा वि बंधंति ६. नपुंसगपच्छाकडा वि बंधंति ७. इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधs, एवं एए चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्वा जाव २६. अहवा इत्थीपच्छाकडा जय पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छा कडा य बंधंति ॥
अहवा
३०६. तं भंते! किं १. बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? २. बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ? ३. बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ? ४. बंधी न बंधs न बंधिस्सइ ? ५. न बंधी बंधइ बंधिस्सइ ? ६. न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ? ७. न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ? ८ न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ?
१२०
यदि भदन्त ! अपगतवेदः वा बध्नाति, अपगतवेदाः वा बध्नन्ति तत् भदन्त ! किं १. स्त्रीपश्चात्कृतः बध्नाति ? २. पुरुषपश्चात् - कृतः बध्नाति ? ३. नपुंसकपश्चात्कृतः बध्नाति ? ४. स्त्रीपश्चात्कृताः बध्नन्ति ? ५. पुरुषपश्चात्कृताः बध्नन्ति ? ६. नपुंसक पश्चात्कृताः बध्नाति ? उताहो स्त्रीपश्चात्कृतश्च पुरुषपश्चात्कृतश्च बध्नाति ४ ? उताहो स्त्रीपश्चात्कृतश्च, नपुंसकपश्चात्कृतश्चबध्नाति ४ ? उताहो पुरुषपश्चात्कृतश्च नपुंसकपश्चात्कृतश्च बध्नाति४ ? उताहो स्त्रीपश्चात्कृतश्च पुरुष पश्चात्कृतश्च नपुंसकपश्चात्कृतश्च बध्नाति८ ? एवम् एते षड्विंशतिः भंगाः यावत् उताहो स्त्रीपश्चात्कृताश्च पुरुषपश्चात् कृताश्च नपुंसकपश्चात्कृताश्च बध्नन्ति ?
गौतम ! १. स्त्रीपश्चात्कृतः अपि बध्नाति २. पुरुषपश्चात्कृतः अपि बध्नाति ३. नपुंसकपश्चात्कृतः अपि बध्नाति ४. स्त्रीपश्चात्कृताः अपि बध्नन्ति ५. पुरुष - पश्चात्कृताः अपि बध्नन्ति ६. नपुंसक - पश्चात्कृताः अपि बध्नन्ति ७. अथवा स्त्री- पश्चात्कृतश्च पुरुषपश्चात्कृतश्च बध्नाति एवम् एते चैव षड्विंशतिः भंगाः भणितव्याः यावत् २६. अथवा स्त्रीपश्चात्कृताश्च पुरुषपश्चात्कृताश्च नपुंसकपश्चात्कृताश्च बध्नन्ति ।
तत् भदन्त किं १. बंधी बध्नाति भन्त्स्यति ? २. बन्धी बध्नाति न भन्त्स्यति ? ३. बन्धी न बध्नाति भन्त्स्यति ? ४. बन्धी न बध्नाति न भन्त्स्यति ? ५. न बन्धी बध्नाति भन्त्स्यति ? ६. न बन्धी बध्नाति न भन्त्स्यति ? ७. न बन्धी न बध्नाति भन्त्स्यति ? ८. न बन्धी न बध्नाति न भन्त्स्यति ?
गोयमा ! भवागरसं पडुच्च अत्थे गतिए गौतम ! भवाकर्षं प्रतीत्य अस्त्येककः बन्धी
भगवई
३०५. भंते! यदि वेद रहित बंध करता है अथवा वेद रहित बंध करते हैं तो क्या भंते! १. स्त्री पश्चात्कृत बंध करती है। २. पुरुष पश्चात्कृत बंध करता है ३. नपुंसक पश्चात् कृत बंध करता है ४. स्त्री पश्चात्कृत बंध करती हैं ५. पुरुष पश्चात्कृत बंध करते हैं ६. नपुंसक पश्चात्कृत बंध करते हैं ७. अथवा स्त्री पश्चात्कृत और पुरुष पश्चात्कृत बंध करता है (चार) ? अथवा स्त्री पश्चात् कृत और नपुंसक पश्चात्कृत बंध करता है (चार) ? अथवा पुरुष पश्चात्कृत और नपुंसक पश्चात्कृत बंध करता है (चार) ? अथवा स्त्री पश्चात्कृत, पुरुष पश्चात्कृत और नपुंसक पश्चात्कृत बंध करता है (आठ) ? इस प्रकार ये छब्बीस भंग होते हैं यावत् अथवा स्त्री पश्चात्
कृत, पुरुष पश्चात्कृत नपुंसक पश्चात्कृत बंध करते हैं ?
गौतम ! १. स्त्री पश्चात्कृत भी बंध करती है २. पुरुष पश्चात्कृत भी बंध करता है ३. नपुंसक पश्चात्कृत भी बंध करता है ४. स्त्री पश्चात्कृत भी बंध करती हैं । ५. पुरुष पश्चात्कृत भी बंध करते हैं । ६. नपुंसक पश्चात्कृत भी बंध करते हैं। ७. अथवा स्त्री पश्चातकृत और पुरुष पश्चात्कृत बंध करता है, इस प्रकार ये छब्बीस भंग वक्तव्य हैं यावत् २६. अथवा स्त्री पश्चात् कृत, पुरुष पश्चात्कृत और नपुंसक पश्चात्कृत बंध करते हैं।
३०६. भंते! क्या जीव ने उस ऐर्यापथिक कर्म का बंध किया, करता है और करेगा ? २. क्या बंध किया, करता है और नहीं करेगा ? ३. क्या बंध किया, नहीं करता है और करेगा ? ४. बंध किया, नहीं करता है और नहीं करेगा ? ५. बंध नहीं किया, करता है और करेगा ? ६. बंध नहीं किया, करता है और नहीं करेगा ? ७. बंध नहीं किया, नहीं करता है और करेगा ? ८. बंध नहीं किया, नहीं करता है और नहीं करेगा ?
गौतम! भवाकर्ष की अपेक्षा किसी जीव ने
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भगवई
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श.८ : उ.८: सू. ३०७-३०९
बंधी बंधइ बंधिस्सइ, अत्य-गतिए बंधी बध्नाति भन्त्स्यति, अस्त्येककः बन्धी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सव्वं जाव बध्नाति न भन्त्स्यति, एवं तच्चैव सर्वं अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ। यावत् अस्त्येककः न बन्धी न बध्नाति न
भन्त्स्य ति।
गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी ग्रहणाकर्षं प्रतीत्य अस्त्येककः बन्धी बंधइ बंधिस्सइ, एवं जाव अत्थे-गतिए न बध्नाति भन्त्स्यति, एवं यावत् अस्त्येककः बंधी बंधइ बंधिस्सइ, नो चेव णं न बंधी न बन्धी बध्नाति भन्त्स्यति, नो चैव न बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिएन बंधीन बन्धी बध्नातिन भन्त्स्यति, अस्त्येककःन बंधइ बंधि-स्सइ, अत्थेगतिए न बंधी न बन्धी न बध्नाति भन्त्स्यति, अस्त्येककः न बंधइ न बंधिस्सइ॥
बन्धी न बध्नाति न भन्त्स्यति।
बंध किया, करता है और करेगा। किसी जीव ने बंध किया, करता है और नहीं करेगा, इस प्रकार सर्व वक्तव्य है यावत् किसी जीव ने बंध नहीं किया, नहीं करता है और नहीं करेगा। ग्रहणाकर्ष की अपेक्षा किसी जीव ने बंध किया, करता है और करेगा, इस प्रकार यावत् किसी जीव ने बंध नहीं किया, करता है और करेगा, किसी जीव ने बंध नहीं किया, करता है और नहीं करेगा, किसी जीव ने बंध नहीं किया, नहीं करता है और करेगा, किसी जीव ने बंध नहीं किया, नहीं करता है और नहीं करेगा।
३०७. तं भंते ! किं सादीयं सपज्ज-वसियं बंधइ? सादीयं अपज्जवसियं बंधइ? अणादीयं सपज्जवसियं बंधइ? अणादीयं अपज्जवसियं बंधइ? गोयमा ! सादीयं सपज्जवसियं बंधइ, नो सादीयं अपज्जवसियं बंधइ, नो अणादीयं सपज्जवसियं बंधइ, नो अणादीयं अपज्जवसियं बंधइ॥
तद् भदन्त ! किं सादिकं सपर्यवसितं ३०७. भंते ! क्या उस ऐपिथिक कर्म का बध्नाति ? सादिकम् अपर्यवसितं बध्नाति? बंध सादि-सपर्यवसित होता है? सादि अनादिकं सपर्यवसितं बध्नाति? अपर्यवसित होता है ? अनादि सपर्यवसित अनादिकम् अपर्यवसितंबध्नाति?
होता है? अनादि अपर्यवसित होता है? गौतम ! सादिकं सपर्यवसितं बध्नाति, नो गौतम! वह सादि-सपर्यवसित होता है, सादिकम् अपर्यवसितं बध्नाति, नो । सादि-अपर्यवसित नहीं होता। अनादि अनादिकं सपर्यवसितं बध्नाति, सपर्यवसित नहीं होता, अनादि नोअनादिकम् अपर्यवसितं बध्नाति।
अपर्यवसित नहीं होता।
३०८. तं भंते! किं देसेणं देसं बंधइ ? दे- सेणं सव्वं बंधइ? सव्वेणं देसं बंधइ? सव्वेणं सव्वं बंधइ?
तद् भदन्त ! किं देशेन देशं बध्नाति ? देशेन सर्वं बध्नाति? सर्वेण देशं बध्नाति , सर्वेण सर्वं बध्नाति?
३०८. भंते! क्या देश के द्वारा देश का बंध होता है? देश के द्वारा सर्व का बंध होता है? सर्व के द्वारा देश का बंध होता है? सर्व के द्वारा सर्व का बंध होता है ? गौतम! देश के द्वारा देश का बंध नहीं होता, देश के द्वारा सर्व का बंध नहीं होता, सर्व के द्वारा देश का बंध नहीं होता, सर्व के द्वारा सर्व का बंध होता है।
गोयमा! नो देसेणं देसं बंधइ, नो देसेणं सव्वं बंधइ, नो सव्वेणं देसं बंधइ, स- वेणं सव्वं बंधइ॥
गौतम ! नो देशेन देशं बध्नाति, नो देशेन सर्वं बध्नाति, नो सर्वेण देशं बध्नाति, सर्वेण सर्वं बध्नाति
संपराइयबंध-पदं
साम्परायिकबन्ध-पदम् ३०९. संपराइयं णं भंते! कम्मं किं नेर- साम्परायिकं भदन्त! कर्म किं नैरयिकः इओ बंधइ ?तिरिक्खजोणिओ? बंधइ बध्नाति? तिर्यग्योनिकः बध्नाति यावत् जाव देवी बंधइ?
देवी बध्नाति? गोयमा! नेरइओ वि बंधइ, तिरि- गौतम ' नैरयिकः अपि बध्नाति, तिर्यगक्खजोणिओ वि बंधइ, तिरिक्ख- योनिकः अपि बध्नाति, तिर्यग्योनिका अपि जोणिणी वि बंधइ, मणुस्सो वि बंधइ, बध्नाति, मनुष्यः अपि बध्नाति, मानुषी मणुस्सी वि बंधइ, देवो वि बंधइ, देवी वि अपि बध्नाति. देवः अपि बध्नाति, देवी बंधइ॥
अपि बध्नाति।
सांपरायिक बंध पद ३०९. भंते! सांपरायिक कर्म का बंध क्या, नैरयिक करता है? तिर्यक्योनिक करता है? यावत् देवी करती है? गौतम् ! नैरयिक भी बंध करता है, तिर्यक्- योनिक भी बंध करता है, तिर्यक्योनिक स्त्री भी बंध करती है, मनुष्य भी बंध करता है, मनुष्य-स्त्री भी बंध करती है, देवता भी बंध करता है, देवी भी बंध करती है।
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भगवई
श.८ : उ.८ : सू. ३१०.३१४
१२२ ३१०. तं भंते ! किं इत्थी बंधइ? पुरिसो तद् भदन्त! किं स्त्री बध्नाति ? पुरुषः बंधइ? तहेव जाव नोइत्थी नोपुरिसो बध्नाति ? तथैव यावत् नो स्त्री नो पुरुषः नो नोनपुंसगो बंधइ?
नपुंसकः बध्नाति? गोयमा! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ गौतम! स्त्री अपि बध्नाति, पुरुषः अपि जाव नपुंसगा वि बंधंति, अहवा एते य । बध्नाति यावत् नपुंसकाः अपि बध्नन्ति, अवगयवेदो बंधइ, अहवा एते य अथवा एते च अपगतवेदश्च बध्नाति, अवगयवेदाय बंधंति॥
अथवा एते च अपगतवेदाश्च बध्नन्ति।
३१०. भते! क्या स्त्री बंध करती है ? पुरुष बंध करता है उसी प्रकार यावत नो-स्त्री, नो-पुरुष, नो-नपुंसक बंध करता है? गौतम! स्त्री भी बंध करती है, पुरुष भी बंध करता है, यावत् नपुंसक भी बंध करते हैं, अथवा ये स्त्री आदि और वेद रहित (एक वचन) बंध करता है। अथवा ये स्त्री आदि और वेद रहित बंध करते हैं।
३११. जइ भंते! अवगयवेदो य बंधइ, यदि भदन्त ! अपगतवेदश्च बध्नाति,
अवगयवेदा य बंधंति तं भंते! किं अपगतवेदाश्च बध्नन्ति तद् भदन्त! किं इत्थीपच्छाकडो बंधइ? पुरिस- स्त्री-पश्चात्कृतः बध्नाति? पुरुषपश्चात्पच्छाकडो बंधइ? एवं जहेव कृतः बध्नाति? एवं यथैव ईपिथिकबन्ध- इरियावहियबंधगस्स तहेव निरवसेसं । कस्य तथैव निरवशेषं यावत् अथवा जाव अहवा इत्थी-पच्छाकडा य स्त्रीपश्चात्कृताश्च पुरुषपश्चात्कृताश्च पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा नपुंसकपश्चात्कृताश्च बध्नन्ति। य बंधति॥
३११. भंते! यदि वेद रहित बंध करता है, वेद रहित बंध करते हैं तो क्या भंते। स्त्री पश्चात्कृत बंध करती है? पुरुष पश्चात्कृत बंध करता है? इस प्रकार जैसे ऐयापथिक बंध की वक्तव्यता है वैसे ही निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत् अथवा स्त्री पश्चात्कृत, पुरुष पश्चात्कृत, नपुंसक पश्चात् कृत बंध करते हैं।
३१२. तं भंते! किं १. बंधी बंधइ बंधिस्सइ? २. बंधी बंधइ न बंधिस्सइ? ३. बंधी न बंधइ बंधिस्सइ? ४. बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ?
तद् भदन्त ! किम् ? १. बन्धी बध्नाति भन्त्स्यति? २. बन्धी बध्नाति न भन्त्स्यति? ३. बन्धी न बध्नाति भन्त्स्यति? ४. बन्धी न बध्नाति न भन्त्स्यति?
३१२. भंते! १. क्या जीव ने उस सांप
रायिक कर्म का बंध किया, करता है और करेगा? २. बंध किया, करता है और नहीं करेगा? ३. बंध किया, नहीं करता है और करेगा? ४. बंध किया, नहीं करता है और नहीं करेगा? गौतम! १. किसी जीव ने बंध किया, करता है और करेगा। २. किसी जीव ने बंध किया, करता है और नहीं करेगा ३. किसी जीव ने बंध किया, नहीं करता है और करेगा ४. किसी जीव ने बंध किया, नहीं करता है और नहीं करेगा।
गोयमा! १. अत्थेगतिए बंधी बंधइ गौतम! १. अस्त्येककः बन्धी बध्नाति बंधिस्सइ २. अत्थेगतिए बंधी बंधइ न भन्त्स्यति २. अस्त्येककः बन्धी बध्नातिन बंधिस्सइ ३. अत्थेगतिए बंधी न बंधइ भन्त्स्यति ३. अस्त्येककः बन्धी न बध्नाति बंधिस्सइ ४. अत्थेगतिए बंधी न बंधइन भन्त्स्यति ४. अस्त्येककः बन्धी न बध्नाति बंधिस्सइ॥
नभन्स्यति।
३१३. तं भंते ! किं सादीयं सपज्ज-वसियं बंधइ? पुच्छा तहेव।
तद् भदन्त ! किं सादिकं सपर्यवसितं बध्नाति? पृच्छा तथैव।
गोयमा! सादीयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणादीयं वा सपज्जवसियं बंधइ, अणादीयं वा अपज्जवसियं बंधइ, नो चेव णं सादीयं अपज्जवसियं बंधई।
गौतम! सादिकं वा सपर्यवसितं बध्नाति, अनादिकं वा सपर्यवसितं बध्नाति, अनादिकं वा अपर्यवसितं बध्नाति, नो चैव सादिकम् अपर्यवसितं बध्नाति।
३१३. भंते! क्या सांपरायिक कर्म का बंध
सादि सपर्यवसित होता है? पूर्ववत् पृच्छा। गौतम! वह सादि-सपर्यवसित होता है, अनादि सपर्यवसित होता है, अनादिअपर्यवसित होता है, सादि-अपर्यवसित नहीं होता।
३१४. तं भंते! किं देसेणं देसं बंधइ?
तद् भदन्त ! किं देशेन देशं बध्नाति?
३१४. भंते! क्या देश के द्वारा देश का बंध होता है? ऐपिथिक बंध की भांति वक्तव्यता यावत् सर्व के द्वारा सर्व का बंध होता है।
एवं जहेव इरियावहियबंधगस्स जाव सव्वेणं सव्वं बंधइ।
एवं यथैव ईर्यापथिकबन्धकस्य यावत् सर्वेण सर्वं बध्नाति।
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भगवई
१२३
श. ८ : उ. ८ : सू. ३१४
भाष्य १.सू. ३०२-३१४
१. उपशांत मोह मनुष्य प्रस्तुत आगम में ऐयापथिकी और सांपरायिकी क्रिया का उल्लेख २.क्षीण मोह मनुष्य अनेक प्रसंगों में हुआ है-भगवती १/४४४, ६/७१, ७/२०-२१, ३. सयोगी केवली मनुष्य ७/१२६.१०/१४, १८.१५९।
ऐर्यापथिक बंध अवेदक (वेदातीत) के होता है इसलिए स्त्री, ईर्यापथिक बंध का हेतु केवल योग-मन, वचन, काया की प्रवृत्ति पुरुष और नपुंसक वेद वालों के उनका बंध नहीं होता। है। उससे केवल वेदनीय कर्म का बंध होता है। सांपरायिक बंध का जो जीव स्त्री वेद को उपशांत या क्षीण कर अवेदक बनता है, मुख्य हेतु है-कषाय। उससे सभी कर्मों का बंध होता है।
वह स्त्री पश्चात्कृत है। जो जीव पुरुष वेद को उपशांत या क्षीण कर ऐपिथिक बंध-नैरयिक, तिर्यकयोनिक और देव वीतराग नहीं अवेदक बनता है, वह पुरुष पश्चात्कृत है। जो जीव कृत नपुंसक अवस्था होते इसलिए इनके ऐपिथिक बंध नहीं होता।
से अवेदक बनता है, वह नपुंसक पश्चात्कृत है।' ऐयापथिक बंध का अधिकारी मनुष्य है। उसकी तीन श्रेणियां हैं
ऐपिथिक कर्म बंध का विचार भवाकर्ष और ग्रहणाकर्ष-इन
ऐयापथिक कर्म का बंध पूर्व प्रतिपन्नक
प्रतिपद्यमान की अपेक्षा की अपेक्षा असंयोगी की अपेक्षा द्विसंयोगी की अपेक्षा
त्रिसंयोगी की अपेक्षा अनेक पुरुष | १. पुरुष बांधता है।
५. एक पुरुष और एक स्त्री बांधती है। और स्त्रियां | २. स्त्री बांधती है।
६. एक पुरुष और बहुत स्त्रियां बांधती हैं। बांधती हैं। ३. पुरुष बांधते हैं।
|७. अनेक पुरुष और एक स्त्री बांधती है। ४. स्त्रियां बांधती हैं।
८. अनेक पुरुष और अनेक स्त्रियां बांधती है। १.स्त्री पश्चात्कृत जीव बांधता है। ७. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव और एक १९. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव, एक २. पुरुष पश्चातकृत जीव बांधता पुरुष पश्चात्कृत जीव बांधता है। पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक
८. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव औरअनेक पश्चात् कृत जीव बांधता है।। ३. नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधता पुरुष पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। २०. एक स्त्री पश्चातकृत जीव, एक
९. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव और पुरुष पश्चातकृत जीव और अनेक ४. स्त्री पश्चातकृत जीव बांधते हैं। एक पुरुष पश्चात्कृत जीव बांधता है। नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। ५. पुरुष पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। १०. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव और २१. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव अनेक ६. नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते | अनेक पुरुष पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक
११. एक स्त्री पश्चातकृत जीव और एक पश्चात्कृत जीव बांधता है। नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधता है। २२. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव, अनेक १२. एक स्त्री पश्चात्कृत जीव और अनेक | पुरुष पश्चातकृत जीव और अनेक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। १३. अनेक स्त्री-पश्चात्कृत जीव और एक | २३. अनेक स्त्री पश्चातकृत जीव, एक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधता है। पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक १४. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव और पश्चात्कृत जीव बांधता है। अनेक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। २४. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव, एक १५. एक पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक पुरुष पश्चातकृत जीव और अनेक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधता है। | नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। १६. एक पुरुष पश्चात्कृत जीव और अनेक २५. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव, अनेक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक १७. अनेक पुरुप पश्चात्कृत जीव और एक | पश्चात्कृत जीव बांधता है। नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधता है। २६. अनेक स्त्री पश्चात्कृत जीव, अनेक १८. अनेक पुरुष पश्चात्कृत जीव और अनेक पुरुष पश्चात्कृत जीव और अनेक नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं। नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं।
१. (क) भ. वृ.८/३०२॥
(ख) द्रष्टव्य सूयगडो २/२/१६ का टिप्पण। (ग) ठाणं,२/२-३६ का टिप्पण।
२. भ. वृ. ८/३०५-भावप्रधानत्वान्निदेशस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं भूतता नीतं येनावेदकेनासी स्वीपश्चात्कृतः।
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श. ८ : उ. ८ : सू. ३१४
दृष्टियों से किया गया है। ऐर्यापथिक कर्माणुओं का ग्रहण अनेक भवों में होता है, वह भवाकर्ष है।
ऐर्यापथिक कर्माणुओं का ग्रहण वर्तमान भव में होता है, वह ग्रहणाकर्ष है । इन दोनों के आठ-आठ भंग बतलाए गए हैं। प्रथम भंग बंधी, बंधई, बंधिस्सइ का है वृत्तिकार ने बंधिस्स का अर्थ अनागत काल में बांधेगा, ऐसा किया है। जयाचार्य ने अनागत शब्द पर विस्तार से विमर्श किया है। उनके अनुसार अनागत का तात्पर्य भविष्य काल है, अग्रिम जन्म नहीं है। इसका हेतु यह है-उपशम श्रेणी दो जन्म में ही प्राप्त होती है। उत्कर्षतः एक जन्म में दो बार और दूसरे जन्म में दो बार। इसके समर्थन में भगवती (२५/५३२) १. वही ८/३०६ - पूर्वभव उपशांतमोहत्वे सत्येयोपथिकं कर्म बद्धवान् वर्तमानमव चोपशांत मोहत्वे बध्नाति अनागते चोपशांतमोहावस्थायां 'भन्त्स्यतीति ।
२. भ. २५/७ ५३२ - सुहुमसंपरागस्स जहणणेणं दाण्णि उक्कोसेणं नव । ३. भ. जी. २ १५० का वार्तिक पृ. ४४६ ४४७ - इहां वृत्ति में को- पूर्व भवे ग्यारमें गुणठाणे बांध्या, वर्तमान भव में पिण ग्यारमें गुणठाणे बांधे, वलि अनागत पिण स्यारमें गुणठाणे बांधसी। इहा अनागत शब्द में अनागत काल लेवे जद तो कोई अटकाव नहीं। जिम तिण भव में उपशमश्रेणी लेई बलि तिणहिज भव में अनागत काले उपशमश्रेणी लहीने इरियावहि बांधे। पर अनागत शब्दे अनागत भव लैवे तो बात मिलै नहीं। कारण उपशमश्रेणी तीन भव में आवे नहीं । जिम भगवती शतक २५ उद्देशक ७ में इम कह्यो सूक्ष्म सम्पराय चारित्र उत्कृष्ट नो बार आवै, ते पिण उत्कृष्टो तीन भव में आवै। बे भव में तो उपशमश्रेणी थी आठ बार अनै तीजै भव में खपकश्रेणी थी एक बार इण न्याय उपशमश्रेणी तीन भव में आवै नहीं।
४. भ. २५ / ४२२ - नियंटस्स णं पुच्छा।
गोयमा! जहणेणं दोण्णि उक्कोसेणं पंच।
५. भ. वृ. २५-निर्ग्रथस्योत्कर्षनस्त्रीणि भवग्रहणान्युक्तानि एकत्र च भवे छावाकर्षावित्येवमेकत्र द्वावन्यत्र च द्वावपरत्र चैकं क्षपकनिर्गंथत्वाकर्षं कृत्वा सिद्ध्यतीति कृत्वाच्यते पञ्चेति ।
६. वही. ८/३०६--षष्ठस्तु नास्त्येव तत्र न बद्धवान् बध्नातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात् तथाहि आयुषः पूर्वभागे उपशांतमहत्वादि न लब्धमिति न बन्द्रवान् तल्लाभसमये च बध्नाति ततोऽनन्तरसमयेषु च भन्त्स्यत्येव न तु न भन्त्स्यति, समयमात्रस्य बंधस्वभावात् यस्तु मोहोपशम-निर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबंध: समयमात्रो भवति नासी षष्ठविकल्पहेतुः तदनन्तरैर्यापथिककर्म्मबंधाभावस्य भवान्तरवर्तित्वाद ग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रांतत्वात्, यदि पुनः सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोनन्तरं न मन्त्स्यतीति विवक्ष्येत तदा यत्सयोगि चरमसमये बध्नातीति बंधपूर्वकमेव स्यान्नाबंधपूर्वकं, तत्पूर्वसमये तस्य बंधकत्वात् एवं च द्वितीय एवं भंगः स्यान्न पुनः षष्ठ इति ।
७. भ. जी. २/१५० १४१ से १५५ से पहले तक दोनों वार्तिक ।
नहिं बांधियो बांधे अछे, नहिं बांधस्यै इक भव मही । ए भंग छट्टो शून्य से इह रीत कोई है नहीं । नहिं बांधियो बांधे अछे ए दोय ऊपजता छता। नहिं बांधस्यै ए बोल तीजो, तिणज भव नहिं सर्वथा ॥ तसु न्याय कहिये आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही। उपशांत- मोहादिक न लाधूं, ते भणी बांध्यो नहीं ॥ ते वीतराग धुर समय में, बांधे अछे इरियावही । तसु समय बीजे बांधस्यै इज वीतराग गुणे रही ॥
१२४
भगवई
का पाठ प्रस्तुत किया है-सूक्ष्म संपराय चारित्र उत्कर्षतः नौ बार प्राप्त होता है। वह तीन भव में ही सम्पन्न होता है। दो भव में उपशम श्रेणी के आरोहण-अवरोहण के आधार पर आठ बार और तीसरे भव में क्षपक श्रेणी के आधार पर एक बार इसका निष्कर्ष है कि उपशम श्रेणी तीन भव में प्राप्त नहीं होती । *
निग्रंथ के आकर्ष से भी जयाचार्य द्वारा प्रतिपादित तथ्य की पुष्टि होती है। अभयदेव सूरि ने भी प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में इस विषय का स्पष्ट निर्देश किया है।"
ग्रहणाकर्ष का छठा भंग शून्य होता है। अभयदेव सूरि ने शून्यता का हेतु स्पष्ट किया है। जयाचार्य ने उस पर विस्तृत वार्तिक लिखा है । " आयुष्य के पूर्वभाग में उपशांत मोह अवस्था प्राप्त नहीं हुई, इस
पण बांधस्यै नहिं इम न होवे, समय मात्र इरियावही ।
तसु बंधनोज अभाव छे, ते भणी बंध ह्रस्यै सही ॥
न बांध्यो, बांधे, न बांधसी ए छठो भांगो शून्य छे, ते किम ? छठे भांगे कोई एक जीव नहीं । ते छठा भांगा नै विषे न बांध्यू, बांधे छे-ए दोई उपजता थकां पिण 'न बांधस्यै' ए तीजे बोल न ऊपजे तो देखाड़े ले-आउखां नां पूर्वभाग ने विषे उपशम-मोहत्वादि न लाधूं, एतला नाटे न बांध्यूं ने लाभ समय नै विषै बांधस्यैज पिण इम नहीं जे न बांधस्यै समय मात्र नां बंध नो इहां अभाव छे ते मांटे।
ग्यारमें गुणठाण में इक समय रहि मरणे करी । सुर भवे इरियावहि न बंधे, समय बंध इम उच्चरी ॥ इम कहे नेहनों एह उत्तर. वे भवे ए आखियो । पिण ग्रहण आकर्षे भवे इक, भंग ए नहिं भाखियां ॥ नहि बांधियो बांधे अछे, नहिं बांधस्य इरियावहि । इक भवे बोलज बे हुवै, पिण तृतीय बोल हुवै नहीं ॥ ते भणी भांगो एह छट्टो, ग्रहण आकर्षे नहीं ।
ते कारणे ए भंग नीं छै, शून्यता इक भव मही ॥ नाहि बांधियो बांधे अछे ए बोल बे नर भव मही । मरि सुर भवे नहिं बांधस्यै, ए ग्रहण आकर्षे नहीं ॥ ते भणी ग्रहणाकर्ष ते भव, एक आश्री जाणियै ।
ए भंग छठा तणी शून्यता, प्रवर न्याय पिछाणियै ।। जो तेरमा नै चरम समय, बंधै अछे इरियावही । फुन समय बीजे बांधस्यै नहिं तास बांछा जो हुई || इम तदा जे गुण तेरमां नैं चरम समये बंध ही । तेह कीजे पूर्व समये बांधियो इम संध ही ॥ ते भणी ए भंग द्वितीय है. पिण भंग छट्टो है नहीं। इम भंग षष्ठम शून्यता ए. ग्रहण आकर्षे कही ।। बांध्यो अने तेरमा गुण
इम तदा जे गुण तेरमा चरम समये बंध हो । तेह थी जे पूर्व बांधियो इम संध ही ॥
भणी ए भंग द्वितीय हैं. पिण भंग छट्टो है नहीं । इम भंग षष्टम शून्यता ए, ग्रहण आकर्ष कही ॥
कोई कहे - अतीतकाले इरियावहि सकषाइपण न बांध्यो अने तेरमा गुणठाणा रैछेह समये बांधै छे अने अजोगीपण न बांधस्यै, इम छट्टो भांगो किम न हुवे ? तेहनो उत्तर-इम दूजो हुवे, पिण छट्टो न हवे ते किम ? जिवारे संयोगी चरम समये बांधे, ते चरिम समय थकी पूर्व समये इरियावहि नो बंध कहीजे, पण पूर्व समये अबंधक नहीं। इम दूजो भांगो हीज हुवे. पिण छड़ो नहीं। नहिं बांधियो फुन नथी बांधे, बांधस्यै इरियावही । शिवगमन योग्यज भाव छै, ते आश्रयी सप्तम सही ॥
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भगवई
अपेक्षा से 'न बंधी' यह विकल्प समीचीन है। उपशांत अवस्था होने पर ऐर्यापथिक कर्म बांधता है, यह विकल्प भी सही है किन्तु अनंतर समयों में नहीं बांधेगा, यह विकल्प सम्यक् नहीं है क्योंकि बंध एक समय का नहीं होता। जो निर्ग्रथ उपशांत मोह अवस्था (ग्यारहवें गुणस्थान) में रहकर काल-धर्म को प्राप्त होता है, उसके ऐर्यापथिक
अतीत
भवाकर्ष की १. बांधा था अपेक्षा
२. बांधा था ३. बांधा था
ग्रहणाकर्ष की अपेक्षा
४. बांधा था
१४वें गुणस्थानवर्ती जीव नहीं बांधता की अपेक्षा
५. नहीं बांधा था उपशम श्रेणी की अपेक्षा बांधता है
६. नहीं बांधा था उपशम श्रेणी की अपेक्षा ७. नहीं बांधा था उपशम श्रेणी की अपेक्षा
१२. बांधा था
३. बांधा था
श्रेणी
उपशम श्रेणी की अपेक्षा
उपशम श्रेणी की अपेक्षा उपशम श्रेणी की अपेक्षा
८. नहीं बांधा था अभव्य जीव की अपेक्षा नहीं बांधता १. बांधा था उपशम या क्षपक श्रेणी की बांधता है। अपेक्षा
१३वें गुणस्थानवर्ती जीव बांधता है की अपेक्षा
४. बांधा था
द्रष्टव्य- भवाकर्ष और ग्रहणाकर्ष का यंत्र
वर्तमान
श्रेणी
बांधता है
उपशम श्रेणी की अपेक्षा
बांधता है नहीं बांधता
क्षपक श्रेणी की अपेक्षा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा
१२५
१३ वे गुणस्थान के अंतिम नहीं बांधता समय जीव की अपेक्षा
५. नहीं बांधा था (आयुष्य के पूर्वभाग की बांधता है
अपेक्षा) उपशम क्षपक श्रेणी न करने के कारण
६. नहीं बांधा था (शून्य) किसी जीव में
नहीं
७. नहीं बांधा था भव्य जीव की अपेक्षा ८. नहीं बांधा था अभव्य की अपेक्षा
१. देसेणं-जीव का एक भाग ।
बांधता है नहीं बांधता
उपशम श्रेणी से गिरने की नहीं बांधता अपेक्षा
देस - बद्ध्यमान कर्म का एक भाग ।
२. देसेणं - जीव का एक भाग । सव्वं बद्ध्यमान सर्व कर्म- पुद्गल ।
३. सव्वेणं-जीव के सब प्रदेश ।
प्रस्तुत अलापक में प्रयुक्त देसेण देस सव्वेणं सव्वं- ये शब्द बंध सापेक्ष हैं। बंध के संदर्भ में
नहीं बांधता
नहीं बांधता नहीं बांधता
श. ८ : उ ८ : सू. ३१४
कर्म का बंध मात्र एक समय का होता है, वह छठे भंग का हेतु नहीं बनता । सयोगी केवली चरम समय में ऐर्यापथिक कर्म का बंध करता है। उसके अनंतर ऐर्यापथिक कर्म का बंध नहीं करता। इस विवक्षा में 'न बंधी' यह विकल्प नहीं होता। वह पूर्व समय में बंध करता है इसलिए द्वितीय भंग समुचित है, छठा भंग शून्य है।
अनागत
श्रेणी
उपशम श्रेणी की अपेक्षा
बांधेगा नहीं बांधेगा उपशम श्रेणी की अपेक्षा बांधेगा उपशम या क्षपक श्रेणी की अपेक्षा १४ वे गुणस्थानवर्ती जीव नहीं बांधेगा १४वें गुणस्थानवर्ती जीव की अपेक्षा की अपेक्षा उपशम या क्षपक श्रेणी
उपशम श्रेणी की अपेक्षा बांधेगा
की अपेक्षा
"
क्षपक श्रेणी की अपेक्षा क्षपक श्रेणी की अपेक्षा
| सास्वादन सम्यकदृष्टि की अपेक्षा
अभव्य की अपेक्षा उपशम या क्षपक श्रेणी की बांधेगा अपेक्षा
१३ वें गुणस्थान में एक समय शेष रहता है उसकी अपेक्षा
१४ वे गुणस्थान की अपेक्षा
नहीं बांधेगा बांधेगा
उपशम या क्षपक श्रेणी की अपेक्षा नहीं बांधेगा अभव्य की अपेक्षा
उपशम या क्षपक श्रेणी की बांधेगा अपेक्षा
32
उपशम या क्षपक श्रेणी की अपेक्षा
नहीं बांधेगा शैलेशी अवस्था की
अपेक्षा
नहीं बांधेगा उपशम श्रेणी की अपेक्षा
नहीं बांधेगा शैलेशी अवस्था की अपेक्षा उपशम या क्षपक श्रेणी की अपेक्षा
किसी जीव की अपेक्षा से नहीं बांधेगा किसी जीव की अपेक्षा से नहीं नहीं बांधेगा भव्य जीव की अपेक्षा नहीं बांधेगा अभव्य की अपेक्षा
भव्य जीव की अपेक्षा अभव्य की अपेक्षा
देसंबद्धयमान कर्म का एक भाग । ४. सव्वेणं-जीव के सर्व प्रदेश ।
सव्वं बद्ध्यमान सर्व कर्म पुद्गल । इनमें सव्वेणं सव्वे का भंग सम्मत है।
द्रष्टव्य भगवती १ / ३१८-३३३ का भाष्य |
मनुष्य और मानुषी को छोड़कर शेष सब सांपरायिक कर्म का
बंध करते हैं। मनुष्य और मानुषी सकषाय अवस्था में सांपरायिक कर्म
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श. ८ : उ. ८ : सू. ३१५-३१९
का बंध करते हैं. अकषाय अवस्था में नहीं करते। अपगत वेद वाले व्यक्ति के सांपरायिक कर्म का बंध अल्पकालीन होता है। यथाख्यात चारित्र आने पर ऐर्यापथिक कर्म का बंध प्रारंभ हो जाता है।"
सांपरायिक कर्म का बंध अनादि है इसलिए 'बंधी' यह विकल्प सब जीवों में प्राप्त होगा। ऐर्यापथिकी क्रिया के विषय में जो प्राणी मत कम्मप्पगडी परीसह - समवतार-पदं ३१५. कइ णं भंते! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ ?
अट्ठ
गोयमा ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - नाणावरणिज्जं दंसणावर णिज्जं वेदणिज्जं मोह- णिज्जं आउगं नाम गोयं अंतराइयं ।।
३१६. कइ णं भंते! परीसहा पण्णत्ता ? गोयमा ! बावीस परीसहा पण्णत्ता, तं जहा - दिगिछापरीसहे, पिवासापरीसहे सीतपरीसहे उसिणपरीसहे दंसमसगपरीसहे अचेलपरीसहे अरइपरीसहे इत्थिपरीसहे चरियापरीसहे निसीहियापरीसहे सेज्जापरीसहे अक्कोसपरीसहे वहपरीसहे जायणापरीसहे अलाभपरीसहे रोगपरीसहे तणफासपरीसहे जल्लपरीसहे सक्कारपुरक्कारपरीसहे पण्णापरीसहे नाणपरीसहे दंसण-परीसहे ॥
३१७. एए णं भंते! बावीस परीसहा कति कम्मप्पगडीसु समोयरंति ? गोयमा ! चउसु कम्मप्पगडीसु समोयरंति, तं जहा -नाणावर - णिज्जे, वेदणिज्जे, मोहणिज्जे, अंतराइए ।
३१८. नाणावरणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ?
गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा - पण्णापरीसहे नाणपरीसहे य ॥
३१९. वेदणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति ?
गोमा ! एक्कारस परीसहा समोयरंति, तं जहा
१२६
भगवई
उपलब्ध है, उसे विस्तार से प्रस्तुत किया गया है। उसके विषय में समीक्षात्मक दृष्टिकोण भी प्रस्तुत है। उनके तुलनात्मक अध्ययन के लिए निम्न निर्दिष्ट संदर्भों का अध्ययन आवश्यक है-भगवई ७/ २०-२१,१२५-१२६, १०/११-१४, १८/१५९-१६०, सूयगडो २/ १६, आचारांगभाष्यम् ५ / ७२ ।
कर्मप्रकृतिषु परीषहसमवतार-पदम् कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः ?
गौतम! अष्ट कर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-ज्ञानावरणीयं दर्शनावरणीयं वेदनीयं मोहनीयं आयुष्कं नाम गोत्रम् आन्तरायिकम्।
कति भदन्त ! परीषहाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्वाविंशतिः परीषहाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-दिगिंछापरीषहः, पिपासापरीषहः शीतपरीषहः, उष्णपरीषहः, 'दंशमशकपरीषहः, अचेलपरीषहः, अरतिपरीषहः, स्त्रीपरीषहः, चर्यापरीषहः. निषीधिकापरीषहः, शय्यापरीषहः, आक्रोशपरीषहः, वधपरीषहः, याचनापरीषहः, अलाभपरीषहः, रोगपरीषहः, तृणस्पर्शपरीषहः, जल्लपरीषहः, सत्कारपुरस्कारपरीषह : प्रज्ञापरीषहः, ज्ञानपरीषहः, दर्शनपरीषहः ।
एते भदन्त ! द्वाविंशतिः परीषहाः कतिषु कर्मप्रकृतिषु समवतरन्ति ? गौतम! चतसृषु कर्मप्रकृतिषु समवतरन्ति, तद् यथा-ज्ञानावरणीये. वेदनीये. मोहनीये. आन्तरायिके।
ज्ञानावरणीये भदन्त ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति ?
गौतम ! द्वौ परीषहौ समवतरतः, तद् यथाप्रज्ञापरीषहः, ज्ञानपरीषहश्च ।
कर्म प्रकृतियों में परीषह समवतार - पद ३१५. भंते! कर्म प्रकृतियां कितनी प्रज्ञस हैं ?
गौतम! कर्म प्रकृतियां आठ प्रज्ञप्त हैं, जैसे - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अंतराया
३१६. भंते! परीषह कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! परीषह बाईस प्रज्ञप्त हैं, जैसेक्षुधापरीषह, पिपासा परीषह, शीत परीषह, उष्ण परीषह, दंशमशक परीषह, अचेल परीषह, अरति परीषह, स्त्री परीषह, चर्या परीषह, निषद्या परीषह, शय्या परीषह आक्रोश परीषह, वध परीषह, याचना परीषह, अलाभ परीषह, रोग परीषह, तृणस्पर्श परीषह, जल्ल (स्वेद जनित मैल) परीषह, सत्कारपुरस्कार परीषह, प्रज्ञा परीषह, ज्ञान परीषह, दर्शन परीषह ।
वेदनीये भदन्त ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति ?
गौतम! एकादश परीषहाः समवतरन्ति तद्
यथा
१. भ. वृ. ८/३१०-अपगतवेदश्च सांपरायिकबंधको वेदत्रये उपशांते क्षीणे वा यावद्यथाख्यातं न प्राप्नोति तावल्लभ्यत इति ।
३१७. भंते! इन बाईस परीषहों का कितनी कर्म प्रकृतियों में समवतार होता है ? गौतम ! चार कर्म प्रकृतियों में समवतार होता है, जैसे- ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अंतराय ।
३१८. भंते! ज्ञानावरणीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? गौतम ! ज्ञानावरणीय कर्म में दो परीषहों का समवतार होता है जैसे- प्रज्ञा परीषह, ज्ञान परीषह ।
३१९. भंते! वेदनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ?
गौतम! वेदनीय कर्म में ग्यारह परीषहों का समवतार होता है, जैसे- प्रारंभ से पांच
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भगवई
१२७
श.८: उ.८: सू. ३१९-३२४
पंचेव आणुपुव्वी, चरिया सेज्जा वहे य रोगे य। तणफास-जल्लमेव एक्कारस वेदणिज्जम्मि॥१॥
पञ्चैव आनुपूर्व्या,
चर्या शय्या वधश्च रोगश्च । तृणस्पर्श-जल्लमेव च,
एकादश वेदनीये।।
यथाक्रम-(क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक), चर्या, शय्या, वध, रोग, तृण स्पर्श, जल्ल-इन ग्यारह परीषहों का वेदनीय कर्म में समवतार होता है।
३२०. दंसणमोहणिज्जे णं भंते !कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे दंसणपरीसहे समो-यरइ॥
दर्शनमोहनीये भदन्त! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम ! एकः दर्शनपरीषहः समवतरति।
३२०. भंते! दर्शन मोहनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है। गौतम ! दर्शन मोहनीय कर्म में एक दर्शनपरीषह का समवतार होता है।
३२१. चरित्तमोहणिज्जे णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! सत्त परीसहा समोयरंति, तं जहा
अरती अचेल इत्थी , निसीहिया जायणा य अक्कोसे। सक्कार . पुरक्कारे, चरित्तमोहम्मि सत्तेते॥१॥
चरित्रमोहनीये भदन्त! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम! सप्त परीषहाः समवतरन्ति, तद्यथा
अरतिः अचेलः स्त्री, निषीधिका याचना च आक्रोशः। सत्कार . पुरस्कारः, चरित्रमोहे
सौते॥
३२१. भंते! चारित्र मोहनीय में कितने
परीषहों का समवतार होता है? गौतम! चारित्र मोहनीय कर्म में सात परीषहों का समवतार होता है, जैसेअरति, अचेल, स्त्री, निषद्या, याचना, आक्रोश, सत्कार-पुरस्कार-चरित्र मोहनीय कर्म में इन सात परीषहों का समवतार होता है।
३२२. अंतराइए णं भंते! कम्मे कति परीसहा समोयरंति? गोयमा! एगे अलाभपरीसहे समोयरइ॥
आन्तरायिके भदन्त ! कर्मणि कति परीषहाः समवतरन्ति? गौतम! एकः अलाभपरीषहः समवतरति।।
३२२. भंते! अंतराय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है? गौतम! अंतराय कर्म में एक अलाभ परीषह का समवतार होता है।
३२३. सत्तविहबंधगस्स णं भंते! कति परीसहा पण्णत्ता?
सप्तविधबन्धकस्य भदन्त। कति परीषहाः प्रज्ञसाः।
३२३. भंते! सात प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के कितने परीषह प्रज्ञप्त
गोयमा! बावीसं परीसहा पण्णत्ता। वीसं गौतम! द्वाविंशतिः परीषहाः प्रज्ञप्ताः। पुण वेदेइ-जं समयं सीय-परीसहं वेदेइ विंशतिः पुनः वेदयति-यं समयं शीतपरीषह नो तं समयं उसिण-परीसहं वेदेइ, जं वेदयति नो तं समयम् उष्णपरीषहं वेदयति, समयं उसिण-परीसहं वेदेइ नो तं समयं यं समयं उष्णपरीषहं वेदयति नो तं समयं सीय-परीसहं वेदेइ, जं समयं चरिया- शीतपरीषहं वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं परीसह वेदेइ नो तं समयं निसी- वेदयति, नो तं समयं निषीधिकापरीषहं हियापरीसहं वेदेइ, जं समयं निसी. वेदयति, यं समयं निषीधिका परीषहं हियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं वेदयति नो तं समयं चर्या-परीषहं वेदयति॥ चरियापरीसहं वेदे।
गौतम ! सात प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के बाईस परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन बीस परीषहों का करता है-जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता है, जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता। उस समय शीत परीघह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन करता है, उस समय निषद्या परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय निषद्या परीषह का वेदन करता है, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता।
३२४. एवं अट्ठविहबंधगस्स वि॥
एवम् अष्टविधबन्धकस्याति।
३२४. इसी प्रकार आठ प्रकार के कर्म का बंध करने वाले पुरुष के परीषह की वक्तव्यता।
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श.८ : उ. ८ : सू. ३२५-३२८
૨૨૮
भगवई
३२५. छविहबंधगस्स णं भंते! षधिबन्धकस्य भदन्त ! सरागछद्मस्थस्य
सरागछउमत्थस्स कति परीसहा कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! चोइस परीसहा पण्णत्ता। गौतम! चतुर्दश परीषहाः प्रज्ञताः। द्वादश बारस पुण वेदेइ-जं समयं सीयपरीसहं पुनः वेदयति-यं समयं शीतपरीषहं वेदयति वेदेइनो तं समयं उसिणपरीसह वेदेइ, जं नो तं समयं उष्णपरीषहं वेदयति, यं समयं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं । उष्णपरीषहं वेदयति नो तं समयं शीतपरीषहं सीय-परीसहं वेदेइ, जं समयं वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं वेदयति, नो तं चरियापरीसहं वेदइ नो तं समयं समयं शय्यापरीषहं वेदयति, यं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ, जं समयं शय्यापरीषहं वेदयति. नो तं समयं सेज्जापरीसहं वेदेइ नो तं समयं चर्यापरीषहं वेदयति। चरियापरीसहं वेदेइ॥
३२५. भंते! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ के कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गौतम! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ के चौदह परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन बारह परीषहों का करता है-जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता है, उस समय शीत परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन करता है, उस समय शय्या परीषह का वेदन नहीं करता, जिस समय शय्या परीषह का वेदन करता है, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता।
३२६. एक्कविहबंधगस्स णं भंते ! वीय- एकविधबन्धकस्य भदन्त! वीतराग- रागछउमत्थस्स कति परीसहा । छद्मस्थस्य कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? पण्णत्ता? गोयमा! एवं चेव-जहेव छविह- गौतम! एवं चैव-यथैव षड़िधबन्धकस्य। बंधगस्स॥
३२६. भंते! एक प्रकार के कर्म का बंध करने वाले वीतराग छदमस्थ के कितने परीषह प्रज्ञाप्त हैं? गौतम ! छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ की भांति व्यक्तव्यता।
३२७. एगविहबंधगस्स णं भंते! एकविधबन्धकस्य भदन्त! सयोगिभव- ३२७. भंते! एक प्रकार के कर्म का बंध
सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा स्थकेवलिनः कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः? करने वाले सयोगी भवस्थ केवली के पण्णता?
कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। गौतम ! एकादश परीषहाः प्रज्ञप्ताः। नव पुनः । गौतम! एक प्रकार के कर्म का बंध करने नव पुण वेदे। सेसं जहा वेदयति। शेषं यथा षड़िधबन्धकस्य। वाले सयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह छव्विहबंधगस्स॥
परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन नौ परीषहों का करता है। शेष छह प्रकार के कर्म का बंध करने वाले सराग छद्मस्थ की भांति वक्तव्य है।
३२८. अबंधगस्स णं भंते! अयोगि- अबन्धकस्य भदन्त! अयोगिभवस्थ-
भवत्थकेवलिस्स कति परीसहा केवलिनः कति परीषहाः प्रज्ञप्ताः ? पण्णत्ता? गोयमा! एक्कारस परीसहा पण्णत्ता। गौतम ! एकादश परीषहाः प्रज्ञप्ताः। नव पुनः नव पुण वेदेइ-जं समयं सीयपरीसहं वेदयति-यं समयं शीतपरीषहं वेदयति नो तं वेदेइ नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ, जं समयम् उष्णपरीषहं वेदयति, यं समयम् समयं उसिणपरीसहं वेदेइ नो तं समयं उष्णपरीषहं वेदयति नोतं समयं शीतपरीषहं सीयपरीसहं वेदइ, जं समयं चरिया- वेदयति, यं समयं चर्यापरीषहं वेदयति नो तं परीसहं वेदेइ नो तं समयं सेज्जा-परीसहं समयं शय्यापरीषहं वेदयति, यं समयं शय्या वेदइ, जं समयं सेज्जा -परीसहं वेदेइ नो परीषहं वेदयति नो तं समयं चर्यापरीषहं तं समयं चरिया-परीसह वेदेइ।। वेदयति।
३२८. भंते! कर्म का बंध न करने वाले
अयोगी भवस्थ केवली के कितने परीषह प्रज्ञप्त हैं? गौतम! कर्म का बंध न करने वाले अयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह परीषह प्रज्ञप्त हैं। वह वेदन नौ परीषहों का करता है। जिस समय शीत परीषह का वेदन करता है, उस समय उष्ण परीषह का वेदन नहीं करता।
जिस समय उष्ण परीषह का वेदन करता __ है, उस समय शीत परीषह का वेदन नहीं
करता। जिस समय चर्या परीषह का वेदन
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भगवई
१. सूत्र ३१५-३२८
प्रस्तुत आलापक में कर्म प्रकृति और परीषह के संबंध का प्रतिपादन किया गया है।
भूख प्यास आदि अनेक शारीरिक, मानसिक और परिस्थितिजनित समस्याएं हैं। उनकी संज्ञा परीषह है।' मुनि के लिए विधान है कि वह परीषह पर विजय पाए।
उमास्वाति ने परीषह विजय के दो उद्देश्य बतलाए हैंमार्गाच्यवन और निर्जरा । *
प्रज्ञा परीषह और ज्ञान परीषह- ये दोनों परीषह ज्ञान से संबद्ध है इसलिए इनका समवतार ज्ञानावरणीय कर्म में होता है। उत्तराध्ययन" में ज्ञान के स्थान पर अज्ञान परीषह का उल्लेख मिलता है। अभयदेव सूरि ने ज्ञान परीषह के दो अर्थ किए हैं१. ज्ञान होने पर मद का वर्जन ।
२. ज्ञान न होने पर दीनता का परिवर्जन । "
सिद्धसेन गणि ने ज्ञान परीषह की व्याख्या की है। उनके अनुसार अपने विशिष्ट ज्ञान का गर्व न करना ज्ञान परीषह जय है । अज्ञान ज्ञान का प्रतिपक्ष है। वह भी परीषह बनता है। तप आदि के अनुष्ठान द्वारा अज्ञान पर विजय पाई जा सकती है।
अकलंक ने अज्ञान परीषह जय का उल्लेख किया है। " भगवती के कुछ आदर्शों में अज्ञान - ' अन्नाणं' पाठ भी मिलता है। अकलंक ने अकार को लुप्त मानकर अज्ञानपरक व्याख्या की है और सिद्धसेन गणि ने अकार को लुप्त नहीं माना इसलिए उन्होंने ज्ञानपरक व्याख्या की है। तात्पर्यार्थ में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। ज्ञान में अहंकार न हो और अज्ञान में दीनता का भाव न हो, यह प्रतिपक्ष परक अर्थ ज्ञान और अज्ञान- दोनों में विवक्षित है।
वेदन का संबंध वेदनीय कर्म से है इसलिए भूख प्यास आदि ग्यारह परीषहों का समवतार वेदनीय कर्म में किया गया है। "पंचेव आणुपुवी"-इस पद के द्वारा एक क्रम में आने वाले भूख, प्यास, शीत, उष्ण और दंशमशक-इन पांच परीषहों का ग्रहण किया गया है।
१. विस्तार के लिए द्रष्टव्य ६ / ३३-३४ का भाष्य ।
२. द्रष्टव्य उत्तर, अध्ययन २ का आमुख और टिप्पण |
३. न. सू. ९/८ ।
भाष्य
४. उत्तर २ / ४२-४३।
५. भ. वृ. ८/३१६ - ज्ञानं मत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जन ग्रंथांतरे त्वज्ञानपरीषह इति पठ्यते ।
६. त. सू. भा. वृ. १/१ - ज्ञानं तु श्रुताख्यं चतुर्दशपूर्वाण्येकादशांगानि, समस्तश्रुतधरोऽहमिति गर्वमुद्वहते तत्रागर्वकरणात् ज्ञानपरीषहजयः । ज्ञानप्रतिपक्षेणाप्यज्ञानेनागमशून्यतया परीषहो भवति, ज्ञानावरणक्षयोपशमोदयविजृम्भितमेतदिति स्वकृतकर्मफलपरिभोगादपैति तपोनुष्ठानेन चेत्येव
१२९
श. ८ : उ. ८ : सू. ३२८
करता है, उस समय शय्या परीषह का वेदन नहीं करता। जिस समय शय्या परीषह का वेदन करता हैं, उस समय चर्या परीषह का वेदन नहीं करता ।
अभयदेव सूरि ने इस प्रकरण में एक महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रस्तुत की है। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी और दंशमशक का निमित्त पाकर जो वेदना अथवा पीड़ा होती है, वह वेदनीय कर्म से उत्पन्न है। मच्छर काटता है, सर्दी लगती है, गर्मी लगती है-वह वेदनीय कर्म से उत्पन्न नहीं है। भूख, प्यास आदि परीषहों को सहन करना चारित्र है। उसका संबंध चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से है।
आत्मा, पुनर्जन्म आदि परोक्ष तत्त्वों के प्रति होने वाला संशय मन को विचलित कर देता है। इस स्थिति में दर्शन एक परीषह बन जाता है। इस संशय का कारण दर्शन मोहनीय कर्म है। इसलिए दर्शन परीषह का समवतार दर्शन मोहनीय कर्म में किया गया है। उमास्वाति ने दर्शन परीषह के स्थान पर अदर्शन परीषह का उल्लेख किया है।"
चारित्र धर्म में अरुचि पैदा हो जाती है, मन चारित्र में रमण नहीं करता, इसका हेतु अरति मोहनीय कर्म है। इसलिए अरति परीषह का समवतार अरति मोहनीय कर्म में किया गया है।
वस्त्र लज्जानिवारण के लिए होता है। अचेल रहना एक परीषह है। इसका समवतार जुगुप्सा मोहनीय कर्म में होता है। स्त्री परीषह का समवतार पुरुष वेद मोहनीय कर्म में होता है।
अभयदेव सूरि ने स्त्री परीषह के प्रतिपक्ष के रूप में पुरुष परीषह का भी उल्लेख किया है। उनके अनुसार पुरुष परीषह का समवतार स्त्री वेद-मोहनीय कर्म में होता है। "
निषद्या - एकांत भूमि में उपसर्ग के भय की संभावना रहती है इसलिए इसका समवतार भय मोहनीय कर्म में किया गया है । याचना के क्षण में अभिमान समस्या पैदा करता है इसलिए याचना परीषह का समवतार मान मोहनीय कर्म में किया गया है।
आक्रोश परीषह का क्रोध मोहनीय कर्म और सत्कार - पुरस्कार परीषह का मान मोहनीय कर्म में समवतार होता है।
सामान्यतः इन सबका समावेश चारित्र मोहनीय में होता है। इष्ट वस्तु की प्राप्ति में बाधक अंतराय कर्म है इसलिए अलाभ परीषह का समवतार अंतराय - कर्म में होता है। "
परीषह उत्पत्ति के कारण इस प्रकार बताए गए हैं
मालोचयतो ज्ञानपरीषहजयो भवति ।
७. त. रा. वा. ९/९ की वृत्ति ।
८. भ. वृ. ८/३१९-पंचेव आणुपुव्वीति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीषहाः इत्यर्थः एतेषु च पीडैव वेदनीयोत्थाः तदधिसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसंभवं अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति ।
९. त. सू. भा. वृ. ९/९ तथा उसका भाष्य ।
१०. भ. वृ. ८ / ३२१ -स्त्रीपरीषहपुरुषवेदमोहे स्त्र्यपेक्ष्या तु पुरुषपरीषहस्त्रीवेदमोहे, तत्त्वत्तः स्त्र्याद्यभिलासरूपत्वात्तस्य । १९. वही ८/३२१।
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श.८ : उ.८ : सू. ३२८,३२९
भगवई
१२. क्षुधा
परीषह उत्पत्ति का कारण कर्म
२१. तृण स्पर्श
वेदनीय कर्म १.प्रज्ञा ज्ञानावरणीय कर्म
२२. जल्ल
वेदनीय कर्म २. अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म
कर्मबंध की पांच भूमिकाएं हैं३. अलाभ अन्तराय
१. आयुष्य कर्म का बंध नहीं होता, उस क्षण में प्राणी समविध ४. अरति चारित्र मोहनीय कर्म
कर्म का बंधक होता है। ५. अचल चारित्र मोहनीय कर्म
२. आयुष्य कर्म के बंधकाल में प्राणी अष्टविध कर्म का बंधक ६. स्त्री चारित्र मोहनीय कर्म
होता है। ७. निषद्या चारित्र मोहनीय कर्म
३. सराग छद्मस्थ आयु और मोह कर्म की वर्जना कर षविध ८. याचना चारित्र मोहनीय कर्म
कर्म का बंधक होता है। ९. आक्रोश चारित्र मोहनीय कर्म
४. वीतराग छद्मस्थ एकविध कर्म का बंधक होता है। १०. सत्कार-पुरस्कार चारित्र मोहनीय कर्म
५. सयोगा-भवस्थ केवली एकविध कर्म का बंधक होता है। ११.दर्शन दर्शन मोहनीय कर्म
६. अयोगी-भवस्थ केवली कर्म का अबंधक होता है। वेदीय कर्म
तत्त्वार्थ सूत्र में युगपत् उन्नीस परीषहों की भजना (विकल्प) १३. पिपासा वेदनीय कर्म
बतलाई गई है। भाष्य के अनुसार चर्या, शय्या और निषद्या-इनमें १४. शीत वेदनीय कर्म
से किसी एक के होने पर शेष दो का अभाव होता है। सप्तविध बंधक १५. उष्ण वेदनीय कर्म
के प्रकरण में चर्या और निषद्या का विरोध बतलाया गया है। षडविध १६. दंश मशक वेदीय कर्म
बंधक के प्रकरण में चर्या और शय्या का विरोध बतलाया गया है। १७. चर्या वेदनीय कर्म
अभयदेव सूरि के अनुसार सप्तविध बंधक में औत्सुक्य होता है, १८.शय्या वेदनीय कर्म
इसलिए वह चर्या के मध्यावधि में अल्पकालिक शय्या का प्रयोग कर १२.वध वेदनीय कर्म
लेता है। इस अपेक्षा से चर्या और निषद्या का विरोध बतलाया गया २०. रोग
वेदनीय कर्म
द्रष्टव्य-सप्तविधादि बंधक के साथ परीषहों के साहचर्य का यंत्र--- कर्म बंधक
परीषह सप्तविध और अष्टविध बंधक जीवों के
बावीस (२२)
उत्कृष्ट एक साथ बीस (२०) परीषह। षइविध बंधक सराग छद्मस्थ के
चौदह (१४)
उत्कृष्ट एक साथ बारह (१२) परीषह। एकविध बंधक वीतराग छद्मस्थ के
चौदह (१४)
उत्कृष्ट एक साथ बारह (१२) परीषह। एकविध बंधक सयोगी भवस्थ केवली के ग्यारह (११)
उत्कृष्ट एक साथ नौ (९) परीषह। अबंधक अयोगी भवस्थ केवली के
ग्यारह (११)
उत्कृष्ट एक साथ नौ (९) परीषह।
वेदन
सूरिय-पदं
सूर्य-पदम् ३२९.जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यो उद्गमनमुहूर्ते उम्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? दूरे च मूले च दृश्येते? मध्यान्तिकमुहूर्ने मूले मज्झंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य च दूरे च दृश्येते? अस्तमनमुहूर्ते च दूरे च दीसंति? अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य मूले च दृश्येते? दीसंति? हंता गोयमा! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया हन्त गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यो उग्गमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते, मन्झंतियमुहत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, मध्यान्तिकमुहूर्ते मूले च दूरे च दृश्यते, अत्थमणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति॥ अस्तमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्यते।
सूर्य-पद ३२९. भंते! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं? मध्याह्न के मुहूर्त में निकट होने पर भी दूर दिखाई देते हैं ? अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते है? हां, गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं। मध्याह्न के मुहूर्त में निकट होने पर भी दूर दिखाई देते हैं। अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं।
१. उत्तरा. नि.गा, ७३-७८)
४. भ. वृ. ८/३२३-अथ नैषेधिकीवच्छय्यापिचर्यया सह विरुद्रेति न तयोरेकदा संभवस्ततश्चैकोनविंशतिरेव परीषहाणामुत्कर्षेणैकदा बेदनं प्रापमिति नेवं, यतोग्रामदिगमनप्रवृत्ती यदा कश्चिदौत्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम एव विश्राम भोजनाद्यर्थमित्वरशय्यायां वर्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव ।
३. न. स. भा. वृ. ८.१७-तथा चर्याशय्यानिषद्यापरीषहाणामेकस्य संभवे द्वयोरभावः।
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भगवई
३३०. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झतियमुहु-तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं ?
हंता गोयमा ! जंबुडीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झं तियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं ॥
३३१. जइ णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि, मज्झं तियमुहुत्तंसि य, अत्थमणमुहुत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं, से केणं खाइ अद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ - जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण - मुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति? जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूलेय दीसंति ?
गोयमा! लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, लेसाभितावेणं मज्झंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति, लेसापडिघा एणं अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ॥
३३२. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छति ? पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति ? अणागयं खेत्तं गच्छति ?
गोयमा ! नो तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति, नो अणागयं खेत्तं गच्छति ॥
३३३. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति ? पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति ? अणायं खेत्तं ओभासंति ?
गोयमा ! नो तीयं खेत्तं ओभासंति,
१३१
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यौ उद्गमनमुहूर्ते, मध्यान्तिकमुहूर्ते च, अस्तमनमुहूर्ते च सर्वत्र समौ उच्चत्वेन ?
हन्त गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ उद्गमनमुहूर्ते. मध्यान्तिकमुहूर्ते च, अस्तमनमुहूर्ते च सर्वत्र समौ उच्चत्वेन ।
यदि भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ उद्गमनमुहूर्ते, मध्यान्तिकमुहूर्ते च, अस्तमनमुहूर्ते च सर्वत्र समौ उच्चत्वेन, तत्केन 'खाइ' अर्थेन भदन्त ! एवमुच्यते - जम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ उद्गमनमुहूर्त्ते दूरे च मूले च दृश्येते यावत् अस्तमनमुहूर्त्ते दूरे च मूले च दृश्येते ?
गौतम! लेश्याप्रतिघातेन उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते लेश्याभितापेन मध्यान्तिकमुहूर्ते मूले च दूरे च दृश्येते लेश्याप्रतिघातेन अस्तमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यतेजम्बूद्वीपे द्वीपे सूर्यौ उद्गमनमुहूर्ते दूरे च मूले च दृश्येते यावत् अस्तमनमुहूर्ते मूले च दृश्येते ।
च
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यौ किम् अतीतं क्षेत्रं गच्छतः ? प्रत्युत्पन्नं क्षेत्रं गच्छतः ? अनागतं क्षेत्रं गच्छतः ?
गौतम ! नो अतीतं क्षेत्रं गच्छतः, प्रत्युत्पन्नं क्षेत्र गच्छतः, नो अनागतं क्षेत्रं गच्छतः ।
जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यौ किम् अतीतं क्षेत्रम् अवभास्यतः ? प्रत्युत्पन्नं क्षेत्रम् अवभासयतः ? अनागतं क्षेत्रम् अवभा सयतः ?
गौतम ! नो अतीतं क्षेत्रम् अवभासयतः,
श. ८ : उ. ८ : सू. ३३०-३३३ ३३०. भंते! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त्त में मध्याह्न के मुहूर्त में और अस्तमन के मुहूर्त में सूर्य ऊंचाई की दृष्टि से सर्वत्र तुल्य होते हैं ?
हां, गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में, मध्याह्न के मुहूर्त में और अस्तमन के मुहूर्त में सूर्य ऊंचाई की दृष्टि से सर्वत्र तुल्य होते हैं।
३३१. भंते! यदि जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में, मध्याह्न के मुहूर्त में और अस्तमन के मुहूर्त में सूर्य ऊंचाई की दृष्टि से सर्वत्र तुल्य होते हैं तो यह कैसे कहा जाता है- जंबूद्वीप द्वीप में उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं, यावत् अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते है ? गौतम! तेज का प्रतिघात होने के कारण उदय के मुहूर्त में सूर्य दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं, तेज का अभिताप होने के कारण मध्याह्न के मुहूर्त में निकट होने पर भी दूर दिखाई देते हैं, तेज का प्रतिघात होने के कारण अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं।
गौतम ! इस कारण से यह कहा जाता हैजंबूद्वीप द्वीप में सूर्य उदय के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं यावत अस्तमन के मुहूर्त में दूर होने पर भी निकट दिखाई देते हैं।
३३२. भंते! क्या जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र में गमन करते हैं? वर्तमान क्षेत्र में गमन करते हैं? अनागत क्षेत्र में गमन करते हैं ?
गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र में गमन नहीं करते, वर्तमान क्षेत्र में गमन करते हैं, अनागत क्षेत्र में गमन नहीं करते।
३३३. भंते! क्या जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र को अवभासित करते हैं? वर्तमान क्षेत्र को अवभासित करते हैं ? अनागत क्षेत्र को अवभासित करते हैं ? गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र
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श.८ : उ. ८ : सू. ३३३-३३९ पड़प्पन्न खेत्तं ओभासंति, नो अणागयं खेत्तं ओभासंति॥
प्रत्युत्पन्न क्षेत्रम् अवभासयतः, नो अनागतं क्षेत्रम् अवभासयतः।
भगवई को अवभासित नहीं करते, वर्तमान क्षेत्र को अवभासित करते हैं, अनागत क्षेत्र को अवभासित नहीं करते।
३३४. तं भंते! किं पुढे ओभासंति ? अपुटुं
ओभासंति?
तत् भदन्त ! किं स्पृष्टम् अवभासयन्ति अस्पृष्टम् अवभासयन्ति?
गोयमा! पुढे ओभासंति, नो अपुढे ओभासंति जाव नियमा छद्दिसिं।।
गौतम ! स्पृष्टम् अवभासयन्ति, नो अस्पृष्टम् अवभासयन्ति यावत् नियमात् षइदिशम्।
३३४. भंते! क्या सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करते हैं ? अथवा अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करते हैं? गौतम! सूर्य स्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित करते हैं, अस्पृष्ट क्षेत्र को अवभासित नहीं करते यावत् नियमतः छहों दिशाओं को अवभासित करते हैं।
३३५. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोवेंति? एवं चेव जाव नियमा छद्दिसिं॥
जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे सूर्यों किम् अतीतं क्षेत्रम् उद्योतयतः? एवं चैव यावत् नियमात् षड्दिशम्।
३३५. भंते! क्या जंबद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र को उद्योतित करते हैं ? गौतम! इसी प्रकार यावत् नियमतः छहों दिशाओं को उद्योतित करते हैं।
३३६. एवं तवेंति, एवं भासंति जाव नियमा
छद्दिसिं॥
एवं तपयतः एवं भासयतः यावत् नियमात् षदिशम्।
३३६. इसी प्रकार तप्त और प्रभासित की वक्तव्यता यावत् नियमतः छहों दिशाओं को तप्त और प्रभासित करते हैं।
३३७. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरियाणं किं जम्बूद्वीपे भदन्त! द्वीपे सूर्याभ्यां किम् तीए खेत्ते किरिया कज्जइ? पडुप्पन्ने अतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते ? प्रत्युत्पन्ने क्षेत्रे खेते किरिया कज्जइ? अणागए खेत्ते क्रिया क्रियते? अनागते क्षेत्रे क्रिया क्रियते? किरिया कज्जइ? गोयमा! नो तीए खेत्ते किरिया कज्जइ, गौतम! नो अतीते क्षेत्रे क्रिया क्रियते, पड़प्पन्ने खेत्ते किरिया कज्जइ, नो प्रत्युत्पन्ने क्षेत्रे क्रिया क्रियते ? नो अनागते अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ॥ क्षेत्रे क्रिया क्रियते।
३३७. भंते! क्या जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य
अतीत क्षेत्र में क्रिया करते हैं ? वर्तमान क्षेत्र में क्रिया करते हैं? अनागत क्षेत्र में क्रिया करते हैं? गौतम ! जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य अतीत क्षेत्र में क्रिया नहीं करते, वर्तमान क्षेत्र में क्रिया करते हैं, अनागत क्षेत्र में क्रिया नहीं करते।
३३८. सा भंते! किं पुट्ठा कज्जइ? अपुट्ठा कज्जइ? गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ, नो अपुट्ठा कज्जइ जाव नियमा छद्दिसिं॥
सा भदन्त ! किं स्पृष्टा क्रियते? अस्पृष्टा क्रियते? गौतम! स्पृष्टा क्रियते, नो अस्पृष्टा क्रियते यावत् नियमात् षड्दिशम्।
३३८. भंते! क्या वह क्रिया स्पृष्ट होती है ? अस्पृष्ट होती है? गौतम! वह क्रिया स्पृष्ट होती है, अस्पृष्ट नहीं होती यावत् नियमतः छहों दिशाओं में स्पृष्ट होती है।
३३९. भंते ! जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य कितने ऊर्ध्व क्षेत्र में तपते हैं? कितने अधो क्षेत्र में तपते हैं? कितने तिर्यक् क्षेत्र में तपते
३३९. जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया जम्बूद्वीपे भदन्त ! द्वीपे सूर्यौ कियन्तं क्षेत्रम् केवतियं खेत्तं उहुं तवंति ? केवतियं उर्ध्वं तपतः ? कियन्तं क्षेत्रम् अधः तपतः? खेत्तं अहे तवंति? केवतियं खेत्तं तिरियं कियन्तं क्षेत्रं तिर्यग तपतः? तवंति? गोयमा! एगं जोयणसयं उर्दु तवंति. गौतम! एकं योजनशतम् उर्ध्वं तपतः, अट्ठारस जोयणसयाई अहे तवंति, अष्टादश योजनशतानि अधः तपतः, सीयालीसं जोयणसहस्साइं दोणि य सप्तचत्वारिंशत् योजनशतानि द्वे च वैशष्टे तेवढे जोयणसए एक्कवीसं च सद्विभाए योजनशते एकविंशति च षष्टिभागान
गौतम! जंबूद्वीप द्वीप में सूर्य ऊर्ध्व क्षेत्र में एक सौ योजन में तपते है, अधो क्षेत्र में अठारह सौ योजन में तपते हैं, तिर्यक् क्षेत्र में सैंतालीस हजार दो सौ तिरसठ योजन
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भगवई
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श. ८ : उ.८ : सू. ३३९-३४४
जोयणस्स तिरियं तवंति॥
योजनस्य तिर्यग तपतः।
इक्कीस/साठ (४७२६३ २१/६०) योजन क्षेत्र में तपते हैं।
जोइसियाणं उववत्ति-पदं
ज्योतिष्काणाम् उपपत्ति-पदम् ३४०. अंतो णं भंते! माणुसुत्तर- अन्तः भदन्त! मानुषोत्तरपर्वतस्य ये पव्वयस्स जे चंदिम-सूरिय-गह- चन्द्रमस्सूर्य ग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपाः ते गणणक्खत्ततारारुवा ते णं भंते! देवा. भदन्त ! देवाः किम् उर्वोपपन्नकाः? किं उड्ढोववन्नगा?
यथा जीवाभिगमे तथैव निरवशेषं यावत्जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव
ज्योतिष्कों का उपपत्ति-पद ३४०. भंते ! मानुषोत्तर पर्वत के अंतर्वर्ती जो
चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप हैं, भंते ! वे देव क्या ऊर्ध्व उपपन्नक हैं? जीवाभिगम की भांति निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत्
३४१. इंदट्ठाणे णं भंते! केवतियं कालं विरहिए उववाएणं? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा॥
इन्द्रस्थानं भदन्त ! कियन्तं कालं विरहितम् उपपातेन? गौतम! जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षण षण्मासान्।
३४१. भंते! इन्द्रस्थान उपपात से कितने काल तक विरहित रहता है ? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः छह मास।
३४२. बहिया णं भंते! माणुसुत्तर- पव्वयस्स जे चंदिय-सूरिय-गह-गण- णक्खत्त-तारारूवा ते णं भंते! देवा किं उड्ढोववन्नगा? जहा जीवाभिगमे जाव
बहिः भदन्त! मानुषोत्तरपर्वतस्य ये चन्द्रमस्सूर्य-ग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपाः ते भदन्त ! देवाः किम उोपपन्नकाः?
३४२. भंते! मानुषोत्तर पर्वत के बाह्यवर्ती
चंद्र, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र और तारा रूप हैं। भंते ! वे क्या ऊर्ध्व उपपन्नक हैं ?
यथा जीवाभिगमे यावत्
जीवाभिगम की भांति वक्तव्यता यावत्
३४३. इंदट्ठाणे णं भंते! केवतियं कालं । इन्द्रस्थानं भदन्त! कियन्तं कालम् उववाएणं विरहिए पण्णत्ते?
उपपातेन विरहितं प्रज्ञप्तम् ? गोयमा! जहण्णेणं एक्कं समयं, गौतम! जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षण उक्कोसेणं छम्मासा॥
षण्मासान्।
३४३. भंते! इन्द्रस्थान उपपात से कितने काल तक विरहित प्रज्ञप्त है? गौतम! जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः छह मासा
३४४. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति !
३४४. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा
ही है।
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नवमो उद्देशक : नौवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
बंध-पदं ३४५. कतिविहे णं भंते! बंधे पण्णत्ते!
बन्ध-पदम् कतिविधः भदन्त ! बन्धः प्रज्ञप्तः ?
बंध-पद ३४५. भंते! बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त
गोयमा! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पयोगबंधे य, वीससाबंधे य॥
गौतम ! द्विविधः बन्धः प्रज्ञप्सः, तद्यथाप्रयोगबन्धश्च, विस्रसाबन्धश्च।
गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-प्रयोग बंध, विरसा बंध।
वीससाबंध-पदं
विस्रसाबंध-पदम् ३४६. वीससाबंधे णं भंते! कतिविहे विस्रसाबन्धः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ? पण्णते? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सादिकसादीयवीससाबंधे य, अणादीय. विस्रसाबन्धश्च, अनादिकविस्रसाबन्धश्च। वीससाबंधे य॥
विस्रसा बंध-पद ३४६. भंते! विरसा बंध कितने प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गौतम! दो प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसेसादिक विस्रसा बंध, अनादिक विस्रसा बंध।
३४७. अणादियवीससाबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहाधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे, अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे,आगासत्थिकायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे॥
अनादिकविस्रसाबन्धः भदन्त ! कतिविधः ३४७. भंते! अनादिक विस्रसा बंध कितने प्रज्ञप्तः?
प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- गौतम! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेधर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविससा- धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविससा बन्धः, अधर्मास्तिकाय-अन्योन्यअनादिक बंध, अधर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिक विस्रसा-बन्धः,आकाशास्तिकायअन्योन्य- विस्रसा बंध, आकाशास्तिकाय अन्योन्यविस्रसाबन्धः।
अनादिक विस्रसा बंध।
३४८. धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणा- धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविस्रसा- ३४८. भंते! धर्मास्तिकाय अन्योन्य दीयवीससाबंधे णं भंते ! किं देस-बंधे? बन्धः भदन्त ! किं देशबन्धः? सर्वबन्धः? अनादिक विस्रसा बंध क्या देश बंध है? सव्वबंधे?
सर्व बंध है? गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं गौतम! देशबन्धः, नो सर्वबन्धः। एवम् गौतम ! देश बंध है, सर्व बंध नहीं है। इसी अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणादीय- धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविससा- प्रकार अधर्मास्तिकाय अन्योन्य अनादिक वीससाबंधे वि, एवं आगासत्थि- बन्धोऽपि, एवम् आकाशास्तिकाय- विस्रसा बंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार कायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंचे अन्योन्य-अनादिकविस्रसाबन्धोऽपि। आकाशास्तिकाय अन्योन्य अनादिक वि॥
विस्रसा बंध की वक्तव्यता।
३४९. धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणा- धर्मास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविस्रसा- ३४९. भंते! धर्मास्तिकाय-अन्योन्यदीयवीससाबंधे णं भंते! कालओ बन्धः भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति? अनादिक विस्रसा बंध काल की अपेक्षा केवच्चिरं होइ?
कितने काल तक रहता है ? गोयमा! सव्वद्धं। एवं अधम्मत्थि- गौतम ! सर्वाद्धम्। एवम् अधर्मास्तिकाय- गौतम! सर्व काल तक। इसी प्रकार
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भगवई
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श.८ : उ.९ : सू. ३४९-३५३
कायअण्णमण्णअणादीयवीससाबंधे वि, एवं आगासत्थिकायअण्ण-मण्णअणादीयवीससाबंधे वि॥
अन्योन्य-अनादिकविस्रसाबन्धोऽपि, एवम् आकशास्तिकाय-अन्योन्य-अनादिकविस्रसाबन्धोऽपि।
अधर्मास्तिकाय अन्योन्य अनादिक विस्रसा बंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार आकाशास्तिकाय अन्योन्य अनादिक विस्रसा बंध की वक्तव्यता।
३५०. सादीयवीससाबंधे णं भंते! सादिकविस्रसाबन्धः भदन्त ! कतिविधः ३५०. भंते! सादिक विस्रसा बंध कितने कतिविहे पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-बन्धन गौतम! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, बंधणपच्चइए, भायणपच्चइए, परि- प्रत्ययिकः, भाजनप्रत्ययिकः, परिणाम- जैसे-बंधन प्रत्ययिक, भाजन प्रत्ययिक, णामपच्चइए॥ प्रत्ययिकः।
परिणाम प्रत्ययिक।
३५१. से किं तं बंधणपच्चइए?
अथ किं तत् बंधनप्रत्ययिकः ? बंधणपच्चइए-जण्णं परमाणु- बंधनप्रत्ययिकः-यत् परमाणुपुद्गल द्विपोग्गलदुप्पदेसियतिप्पदेसिय जाव। प्रदेशिकः त्रिप्रदेशिकः यावत् दशप्रदेशिकदसपदेसियसंखेज्जपदेसियअसंखेज्ज- संख्येयप्रदेशिक-असंख्येयप्रदेशिकअनन्तपदेसिय-अणंतपदेसियाण खंधाणं प्रदेशिकानां स्कन्धानां विमात्रस्ग्धितया, वेमायनिळ्याए, वेमायलुक्खयाए, विमात्ररूक्षतया, विमात्रस्निग्धरूक्षतया वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपच्चएणं बंधे बन्धनप्रत्ययेन बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन समुप्पज्जइ, जहण्णेणं एक्कं समयं, एकं समयम्. उत्कर्षेण असंख्येयं कालम्। उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं। सेत्तं सः एषः बन्धनप्रत्ययिकः। बंधणपच्चइए।
३५१.वह बंधन प्रत्ययिक क्या है? बंधन प्रत्ययिक-परमाणु पुद्गल, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् दशप्रदेशिक, संख्येय प्रदेशिक, असंख्येय प्रदेशिक, अनंत प्रदेशिक स्कंधों की विमात्र (विषम मात्रा वाली) स्निग्धता, विमात्र रूक्षता, विमात्र स्निग्ध-रूक्षता से होने वाले बंधन-प्रत्यय के कारण जो बंध-उत्पन्न होता है, वह बंधन प्रत्ययिक है। इसका कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः असंख्येय काल है। यह है बंधन प्रत्ययिक।
३५२. से किं तं भायणपच्चइए?
अथ किं तत् भाजनप्रत्ययिकः? भायणपच्चइए-जण्णं जुण्णसुरजुण्ण- भाजनप्रत्ययिकः यत् जीर्णसुरा-जीर्णगुडगुल-जुण्णतंदुलाणं भायण-पच्चएणं बंधे जीर्णतन्दुलानां भाजनप्रत्ययेन बन्धः समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम्, उत्कर्षण उक्कोसेणं संखेज्ज कालं। सेत्तं संख्येयं कालम्। सः एषः भाजनप्रत्ययिकः। भायणपच्चइए॥
३५२. वह भाजन प्रत्ययिक क्या है? भाजन प्रत्ययिक-जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़, जीर्ण तंदुलों का भाजन-प्रत्यय के कारण जो बंध उत्पन्न होता है, वह भाजन प्रत्ययिक है। इसका कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः असंख्येय काल है। यह है भाजन प्रत्ययिक।
३५३. से किं तं परिणामपच्चइए? अथ किं तत् परिणामप्रत्ययिकः? परिणाम- ३५३. वह परिणाम प्रत्ययिक क्या है? परिणामपच्चइए-जण्णं अब्भाणं, प्रत्ययिकः-यत् अभ्राणाम्, अभ्र-रुक्षाणां परिणाम प्रत्ययिक-अभ्र, अभवृक्ष जैसेअब्भरुक्खाणं, जहा ततियसए जाव यथा तृतीयशते यावत् अमोघानां परिणाम- तीसरे शतक में यावत् अमोघा का अमोहाणं परिणामपच्चएणं बंधे प्रत्ययेन बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन एक परिणाम प्रत्यय के कारण जो बंध उत्पन्न समुप्पज्जइ, जहण्णेणं एक्कं समयं. समयम्, उत्कर्षेण षण्मासान्। सः एषः होता है, वह परिणाम प्रत्ययिक है। उक्कोसेणं छम्मासा। सेत्तं परिणामप्रत्ययिकः।
इसका कालमान जघन्यतः एक समय, परिणामपच्चइए। सेत्तं सादीय- सः एषः सादिकविससाबन्धः। सः एषः उत्कृष्टतः छह मास है। यह है परिणाम वीससाबंधे। सेत्तं वीससाबंधे। विस्रसाबन्धः।
प्रत्ययिक। यह है सादिक विससा बंध !
यह है विरसा बंध।
भाष्य १. सूत्र ३४५-३५३
प्रदेशात्मक अस्तित्व है। धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय-प्रत्येक बंध स्वाभाविक और प्रायोगिक-दोनों प्रकार का होता है। के असंख्य प्रदेश परमाणु जितना भाग अवयव है। आकाश के दो स्वाभाविक बंध के दो प्रकार हैं-अनादि कालीन और सादिकालीन। विभाग है-लोकाकाश और अलोकाकाश। लोकाकाश के असंख्य धर्मास्तिकाय, अधमास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-इनका और अलोकाकाश के अनंत प्रदेश हैं। प्रत्येक अस्तिकाय के प्रदेशों
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श.८ : उ.९ : सू. ३५३
भगवई का परस्पर स्वभाविक संबंध है। वह अनादिकालीन है। इसका हेतु परमाणुओं का परस्पर बंध होता है। प्रज्ञापना में विसदृश और सदृश यह है-ये तीनों अस्तिकाय व्यापक हैं। प्रत्येक अस्तिकाय के प्रदेश दोनों प्रकार के बंधनों का निर्देश है। प्रस्तुत आगम में विसदृश बंध व्यवस्थित हैं। उनका संकोच विस्तार नहीं होता। वे अपने स्थान को कभी का विवरण नहीं है। नहीं छोड़ते।
सदृश बंध का नियम-प्रज्ञापना के अनुसार स्निग्ध परमाणुओं बंध दो प्रकार का होता है-देश बंध और सर्व बंध। सांकल की। का स्निग्ध परमाणुओं के साथ, रूक्ष परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के कड़ियों का देश बंध होता है। एक कड़ी दूसरी कड़ी से जुड़ी रहती है साथ संबंध दो अथवा उनसे अधिक गुणों का अंतर मिलने पर होता किन्तु अंतर्भूत नहीं होती। क्षीर और नीर का संबंध सर्व बंध है। है। उनका समान गुण वाले अथवा एक गुण अधिक वाले परमाणु के
धर्मास्तिकाय के प्रदेशों में परस्पर संस्पर्शात्मक संबंध है। साथ संबंध नहीं होता। अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के प्रदेशों का भी यही नियम स्निग्ध के साथ स्निग्ध के बंध का नियम-स्निग्ध का दो गुण है। यदि इनके प्रदेशों का सर्व बंध हो तो एक प्रदेश में दूसरे प्रदेशों का अधिक स्निग्ध के साथ बंध होता है। अंतर्भाव हो जाएगा। इस स्थिति में प्रदेशों की स्वतंत्र अवस्थिति नहीं रूक्ष के साथ रूक्ष के बंध का नियम-रूक्ष का दो गुण अधिक रह सकती।' यह संबंध अनादि अनंत है।
रूक्ष के साथ बंध होता है। सादि स्वाभाविक बंध के तीन प्रकार बतलाए गए हैं--
उत्तराध्ययन चूर्णि में इसे उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया १.बंधन प्रत्ययिक
है-एक गुण स्निग्ध का तीन गुण स्निग्ध के साथ बंध होता है। तीन २. भाजन प्रत्ययिक
गुण स्निग्ध का पांच गुण स्निग्ध के साथ बंध होता है। पांच गुण ३. परिणाम प्रत्ययिक
स्निग्ध का सात गुण स्निग्ध के साथ बंध होता है। इस सदृश बंध में बंधन प्रत्ययिक
जघन्य वर्जन का नियम लागू नहीं है। रूक्ष के सदृश बंध का भी यही यह स्कंध निर्माण का सिद्धांत है। दो परमाणु मिलकर नियम है। द्विप्रदेशी स्कंध का निर्माण करते हैं। इसी प्रकार तीन परमाणु विसदृश बंध के नियम-स्निग्ध के साथ रूक्ष के बंध का मिलकर तीन प्रदेशी, चार परमाणु मिलकर चार प्रदेशी यावत् अनंत नियम-जघन्य गुण का बंध नहीं होता-एक गुण स्निग्ध का एक गुण परमाणु मिलकर अनंत प्रदेशी स्कंध का निर्माण करते हैं। इस बंधन रूक्ष के साथ बंध नहीं होता। द्विगुण स्निग्ध का द्विगुण रूक्ष के साथ के तीन हेतु बतलाए गए हैं
संबंध हो सकता है। यह सम गुण का बंध है। द्विगुण स्निग्ध का १. विमात्र स्निग्धता
त्रिगुण, चतुर्गुण रूक्ष आदि के साथ संबंध होता है। यह विषम गुण का २. विमात्र रूक्षता
बंध है।' विसदृश संबंध में सम का संबंध और विषम का संबंध-ये ३. विमात्र स्निग्ध रूक्षता
दोनों नियम मान्य है। समगुण स्निग्ध का समगुण स्निग्ध परमाणु के साथ बंध नहीं षड्खण्डागम में प्रयोग बंध और विरसा बंध का वर्णन होता। समगुण रूक्ष परमाणु का समगुण रूक्ष परमाणु के साथ बंध व्यवस्थित रूप में मिलता है। नहीं होता। स्निग्धता और रूक्षता की मात्रा विषम होती है, तब
प्रज्ञापना पद (१३), उत्तराध्ययन चूर्णि पृ. १७ और भगवती जोड़ खण्ड-२ ढाल १५४ के अनुसार स्वीकृत यंत्रक्रमांक गुणांश
सदृश विसदृश जघन्य+एकाधिक
नहीं
नहीं जघन्य+जघन्य जघन्य+व्याधिक जघन्य+त्र्यादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिकतर जघन्येतर+व्यधिकतर
जघन्येतर+त्र्यादि अधिकतर १. भ. वृ. ८/३८४-देशबंधेत्ति देशतो देशापेक्षया बंधो देशबंधो यथा ३. पण्ण. १३/२१/२२। संकलिकाकटिकानां सव्वबंधेत्ति सर्वतः सर्वात्मना बंध सर्वबंधो यथा क्षीर- ४. उत्तरा, चू. पृ. १७-एक गुण णिद्धो तिगुणणिद्रेणं बज्झति, तिगुणणिद्धो पंच नीरयोः देशबंधे नो सव्वबंधेत्ति धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्पर संस्पर्शन गुणनिदेन पंचगुणो सप्तगुणणि ण एवं दुयाहिएण बंधो भवति, नहा दुगुण व्यवस्थितत्वादेशबंध एव न पुनः सर्वबंधः तत्र हि एकस्य प्रदेशस्य गिद्धो चउगुणणिद्रेण चउगुणणिद्धो छगुणणिद्रेण, छगुणणिन्द्रो अगुणप्रदेशान्तरः सर्वथा बंधे अन्योन्यान्तभविनैक प्रदेशत्वमेव स्यात् णिन्द्रेण, एवं णेयं लुक्खेवि एवं चेव। नासंख्येयप्रदेशत्वमिति।
५. पण्ण. १३/२१-२२ तथा प्रज्ञा. व. प. २८८। २.वही.८/३५१।
६. ष. खं. पु. १४, खं.५, भा. ४-५.६.२६-३७।
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भगवई
श.८: उ.९: सू. ३५३ बंध के संबंध में सभी परम्पराएं सदृश नहीं हैं। द्रष्टव्य-यंत्र
तत्त्वार्थभाष्यानुसारिणी टीका ५/३५ के अनुसार क्रमांक गुणांश
सदृश
विसदृश जधन्य+जघन्य जघन्य+ऐकाधिक
नहीं जघन्य+व्याधिक जघन्य+त्र्यादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिकजघन्येतर जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर जघन्येतर+अधिकजघन्येतर
दिगम्बर-ग्रंथ सर्वार्थसिद्धि के अनुसार क्रमांक
सदृश विसदृश जघन्य+जघन्य
नहीं
नहीं जघन्य+एकाधिक जघन्य+व्याधिक जघन्य+त्र्यादिअधिक
नहीं जघन्येतर+समजघन्येतर
नहीं
नहीं जघन्येतर+एकाधिकजघन्येतर जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर जघन्येतर+त्र्यादि अधिकजघन्येतर
नहीं
दिगम्बर-ग्रंथ षड्खण्डागम के अनुसार क्रमांक गुर्णाश
सदृश
विसदृश जधन्य+जघन्य
नहीं
नहीं जघन्य+ऐकाधिक जघन्येतर+समजघन्येतर जघन्येतर+एकाधिकजघन्येतर जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर जघन्येतर+त्र्यादि अधिकजघन्येतर
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार क्रमांक गुणांश
सदृश
विसदृश जघन्य+जघन्य
नहीं
नहीं जघन्य+एकादिअधिक जघन्येतर+समजघन्येतर
नहीं जघन्येतर+ एकाधिकजघन्येतर
नहीं जघन्येतर+व्यधिकजघन्येतर जघन्येतर+व्यादि अधिकजघन्येतर
नहीं
नहीं भाजन प्रत्ययिक बंध
परिणाम प्रत्ययिक भाजन में रखी हुई वस्तु का स्वरूप दीर्घकाल में बदल जाता है, परमाणु स्कंधों का बादल आदि अनेक रूपों में परिणमन होता वह भाजन प्रत्ययिक बंध है। जैसे पुरानी मदिरा अपने तरल रूप को है, वह परिणाम प्रत्ययिक बंध है। छोड़कर गाढ़ी बन जाती है, जीर्ण गुड़ और जीर्ण तंदुल पिण्डीभूत हो द्रष्टव्य ८/१ का भाष्य।
FFFFFFFFF ....
नहीं
नहीं
नहीं
stointent
नहीं
नहीं
नहीं
कर
नहीं
नहीं
जाते हैं।
१. भ. वृ. ८/३५२-तत्र जीर्ण सुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो बंध: जीर्णगुडस्य, जीर्ण तंदुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः ।
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भगवई
श. ८ : उ. ९ : सू. ३५४
१३८ पयोगबंध-पदं
प्रयोगबन्ध-पदम् ३५४.से किं तं पयोगबंधे?
अथ किं तत् प्रयोगबन्धः? पयोगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रयोगबन्धः त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- अणादीए वा अपज्जवसिए, सादीए वा अना-दिकः वा अपर्यवसितः, सादिकः वा अपज्जवसिए, सादीए वा सपज्जवसिए। अपर्यव-सितः, सादिकः वा सपर्यवसितः। तत्थ णं जे से अणादीए अपज्ज-वसिए से तत्र यः सः अनादिकः अपर्यवसितः सः णं अट्ठण्हं जीवमज्झपए-साणं, तत्थ वि अष्टानां जीव-मध्यप्रदेशानाम, तत्रापि णं तिण्हं-तिण्हं अणादीए अपज्जवसिए, त्रयाणां-त्रयाणाम् अनादिकः अपर्यवसितः, सेसाणं सादीए। तत्थ णं जे से सादीए शेषानां सादिकः। तत्र यः सः सादिकः अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं। तत्थ णं जे अपर्यवसितः सः सिद्धानाम्। तत्र यः सः से सादीए सपज्जवसिए से णं चउबिहे सादिकः सपर्यवसितः सः चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, पण्णत्ते, तं जहा-आला-वणबंधे, तद्यथा- आलापनबन्धः, अल्लियावणअल्लियावणबंधे, सरीर-बंधे, सरीर बन्धः, शरीरबन्धः, शरीरप्रयोगबन्धः । प्पयोगबंधे।
प्रयोग बंध-पद ३५४. वह प्रयोग बंध क्या है?
प्रयोग बंध तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अनादिक अपर्यवसित, सादिक अपर्यवसित, सादिक सपर्यवसिता जीव के आठ मध्यप्रदेशों का बंध अनादिक अपर्यवसित है, जीव के उन आठ मध्य प्रदेशों में तीन तीन प्रदेशों का एक एक प्रदेश के साथ होने वाला बंध अनादिक अपर्यवसित है। शेष प्रदेशों का बंध सादिक है। सिद्धों के जीव प्रदेशों का बंध सादिक-अपर्यवसित है। सादिक सपर्यवसित बंध चार प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसे-आलापन बंध, आलीनकरण बंध, शरीर बंध, शरीर प्रयोग बंध।
भाष्य
१.सूत्र ३५४
जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार होता रहता है। शरीर बड़ा होता है. जीव के प्रदेश फैल जाते हैं। शरीर छोटा होता है, वे संकुचित हो जाते हैं। समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश फैलते हैं। समुद्घात की संपन्नता पर संकुचित हो जाते है। इसलिए जीव के प्रदेश बंध का अनादि विससा बंध से पृथक् निर्देश किया गया है।
जीव के प्रदेश फैलते हैं और संकुचित होते हैं, इस अपेक्षा से उनका बंध है। प्रस्तुत आगम के पच्चीसवें शतक में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीव-इनमें से प्रत्येक के आठ मध्यप्रदेश बतलाए गए हैं। जीव के आठ प्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित है इसलिए इनका बंध अनादि विससा बंध होना चाहिए फिर भी जीव के अन्य प्रदेशों के अनवस्थित संबंध के कारण इन्हें प्रयोग बंध के विभाग में रखा गया है। अभयदेवसूरि ने प्रयोग बंध जीव के व्यापार से होने वाला प्रदेशों का संबंध किया है। इसका वैकल्पिक अर्थ है-जीव प्रदेशों का और औदारिक आदि पुद्गलों का संबंध।'
जीव के आठ मध्य प्रदेशों की स्थापना गोस्तन के आकार की हैकघ-उपरिवर्तीप्रतर चझ-अधोवर्तीप्रतर
ख
प्रस्तुत चित्र में आठ मध्य (रुचक) प्रदेश हैं। इनको क से झ तक संज्ञापित किया गया है। आठ छमध्य प्रदेशों में तीन-तीन प्रदेशों का एक-एक प्रदेश के साथ अनादि
अपर्यवसित बंध है। चार प्रदेशों का एक अधोवर्ती प्रतर तथा चार प्रदेशों का एक उपरिवर्ती प्रतर। उनमें से किसी एक विवक्षित प्रदेश का दो पार्श्ववर्ती प्रदेशों तथा एक अधोवर्ती प्रदेश से संबंध होता है। शेष चार व्यवहित हो जाते हैं इसलिए उनके साथ संबंध नहीं होता। जैसे क प्रदेश का संबंध क ख+क घ+क च से है। ख प्रदेश का संबंध ख क+ख ग+खछ से है। घ प्रदेश का संबंध घ क +घ ग+घ झ से है। ग प्रदेश का संबंध ग ख+ग घ+ग ज से है। च प्रदेश का संबंध च छ+च झ+च क से है। छ प्रदेश का संबंध छ ज+छ च+छ ख से है। झ प्रदेश का संबंध झ ज+झ च+झ घसे है। ज प्रदेश का संबंध ज छ+ज ग+ज झ से है।
अभयदेव सूरि ने चूर्णि को अपनी व्याख्या का आधार बनाया है। टीकाकार की व्याख्या को दुर्बोध मानकर उसकी उपेक्षा की है।" वृत्तिकार ने चतुर्भंगी का निर्देश किया है
१.जीव के आठ मध्य प्रदेशों का बंध अनादि अपर्यवसित और शेष प्रदेशों का बंध सादि।।
२. अनादि अपर्यवसित-यह भंग शून्य है।
३. सादि अपर्यवसित-सिद्ध जीवों के प्रदेशों का संबंध सादि अपर्यवसित होता है। शैलेशी अवस्था चतुर्दश गुणस्थान में जीव प्रदेशों की जो रचना होती है, वह सिद्ध अवस्था में वैसी ही रहती है। उसका चलन नहीं होता।
४. सादि सपर्यवसित-इसके चार प्रकार हैं-आलापन बंध,
१.त. स. भा. ७.५/१६-प्रदेशसंहारविसर्गाभ्यां प्रदीपवत्। २. भग.२५/२४०-२४४। ३. भ. ७.८:३५४-जीवव्यापारबंधः सः जीवप्रदेशानामौदारिकादि-पुद्गलानां
सहानादिरपर्यवसितो बंधः तथाहि-पूर्वोक्तप्रकारेणावस्थिताना मष्टानामु. परितनप्रतरस्य यः कश्चिद् विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्तिना-वेकश्चाधोवर्तीत्येतेः वयः संबध्यन्ने शेषस्त्वेक उपरितनस्ययश्चाधस्तना न संबध्यन्ने व्यवहितत्वात् एवमधस्तनप्रतरापेक्षयाऽपीति चूर्णिकार व्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु दुखगमत्वात्परिहतेहि।
वा।
४. वही, ८/३५४-तत्रापि तेष्वष्टासु जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणांमेकैकेन
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भगवई
आलीन-करण बंध, शरीर बंध, शरीर प्रयोग बंध।
षट्खंडागम में जीव के आठ मध्य प्रदेशों के बंध को अनादि शरीरबंध कहा गया है। सिद्धसेन गणि ने भाष्यानुसारिणी में आठ मध्य प्रदेशों की चर्चा की है। तत्त्वार्थ वार्तिक में जीव के आठ मध्य आलावणं पडुच्चआलापनं प्रतीत्य ३५५. से किं तं आलावणबंधे ? आलावणबंधे-जण्णं तणभाराण वा, कट्टभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेत्तलता-वाग वरत-रज्जुवल्लि कुस दब्भमा दीएहिं आलावणबंधे समुपज्जइ, जहणणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं आलावण- बंधे ॥
१. सूत्र ३५५
आलापन बंध- रस्सी आदि से होने वाला बंध। सूत्र में बंध के साधनों का नामोल्लेख किया गया है
वेत्रलता - जलीय बांस की खपाची ।
वल्क--छाल।
रज्जु-सन आदि की रस्सी ।
वरत्रा - चमड़े की रस्सी ।
अल्लियावणं पडुच्च३५६. से किं तं अल्लियावणबंधे ? अल्लियावणबंधे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुच्चयबंधे, साहणणाबंधे ॥
३५७. से किं तं लेसणाबंधे ? लेसणाबंधे - जणं कुड्डाणं, कोट्टि माणं, खंभाणं, पासायाणं, कट्ठाणं, चम्माणं, घडणं, पडाणं, कडाणं छुहाचिक्खल्ल-सिलेस लक्ख-महुसित्थमाईएहिं लेसण - एहिं बंधे समुप्पज्जइ, जहणणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं लेसणाबंधे।
१३९
अथ किं तत् आलापनबन्धः ? आलापनबन्धः- यत् तृणभाराणां वा, काष्ठभाराणां वा, पत्रभाराणां वा, पलालभाराणां वा, वेत्रलता वल्क- वरत्र-रज्जुवल्ली - कुश-दर्भादिभिः समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं कालम् । सः एषः आलापनबन्धः ।
आलापनबन्धः
श. ८ : उ. ९ : सू. ३५५-३५७ प्रदेशों की अवस्थिति ऊपर और नीचे बतलाई गई । वे सदा परस्पर संबद्ध रहते हैं इसलिए उनका बंध अनादि होता है। जीव के अन्य प्रदेशों का कर्म के निमित्त से संहरण और विसर्पण होता रहता है इसलिए वे आदिमान हैं। *
भाष्य
१. भ. वृ. ८ / ३५४ - शेषाणां मध्यमाष्टाभ्योन्येषां सादिविपरिवर्तमानात्वात्, एतेन प्रथमभंग उदाहृतः अनादिसपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भंग इह न संभवति, अनादिसंबद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्तमानत्वेन बंधस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति । अथ तृतीयो भंग उदाहियते- 'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि सिद्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशबंध: शैलेश्यवस्थायां संस्थापित प्रदेशानां सिद्धत्वेऽपि चलनाभावादिति । अथ चतुर्थभ भदन्त आह तत्थं णं जे से साइए इत्यादि ।
२. ष. खं. पु. १४,५,६,६३ - जो अणादिय सरीरिबंधोणाम यथा अट्टण्णां जीवमज्झपदेसाणं अण्णोष्णापदेस बंधो भवदि सो सत्वो अणादियसरीरि-बंधोणाम।
वल्ली - ककड़ी आदि की बेल ।
कुश - कड़ी और नुकीली पत्तियों वाली घास । दर्भ - डाभ |
अल्लियावणं प्रतीत्य अथ किं तत् अल्लियावणबन्धः ? अल्लियावणबन्धः चतुर्विधः प्रज्ञसः तद्यथा - श्लेषणाबन्धः, उच्चयबन्धः, समुच्चय-बन्धः, संहननबन्धः,
वृत्तिकार के निर्मूल कुश को कुश और समूल कुश को दर्भ कहा है। आदि शब्द के द्वारा वस्त्र आदि का ग्रहण किया है।
षट्खण्डागम' और तत्त्वार्थवार्तिक' में बंधन के साधनों की सूचि में लोह का भी उल्लेख है।
अथ किं तत् श्लेषणाबन्धः ? श्लेषणाबन्धः - यत् कुड्यानां, कुट्टिमानां, स्तम्भानां, प्रासादानां काष्ठानां, चर्माणां, घटानां. पटानां, कटानां सुधा'चिक्खल्ल' - श्लेष - लाक्षा - मधुसिक्थ दिभिः श्लेषणैः बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं कालम् । स एषः श्लेषणाबन्धः ।
आलापन की अपेक्षा
३५५. वह आलापन बंध क्या है ? आलापन बंध तृण, काष्ठ, पत्र और पलाल के समूह, वेत्रलता, छाल, चर्म, रज्जु सन आदि की रज्जु ककड़ी आदि की बेल, कुश, डाभ और चीवर आदि से बांधना आलापन बंध है। इसका कालमान जघन्यतः अन्तमुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है- आलापन बंध |
आलीनकरण बंध की अपेक्षा
३५६. वह आलीनकरण बंध क्या है ? आलीनकरण बंध चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- श्लेष बंध, उच्चय बंध, समुच्चय बंध, संहनन बंध |
३५७. वह श्लेष बंध क्या है?
श्लेष बंध - भित्ति, मणि, प्रांगण, स्तंभ, प्रासाद, काठ, चर्म, घट, पट और कट का चूना, चिकनी मिट्टी, श्लेष, लाख, मोम आदि श्लेष द्रव्यों से जो बंध होता है, वह श्लेष बंध है। इसका कालमान जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है श्लेष बंध |
३. त. सू. भा. वृ. २/९ का भाष्य पृ. १५१,१५४।
४. त. रा. वा. ५/२४ की वृत्ति - अष्टजीवमध्यप्रदेशानामुपर्यधश्चतुर्णा, रुचकवदवस्थितानां सर्वकालमन्योन्यपरित्यागात अनादिबंधः । इतरेषां प्रदेशानां कर्मनिमित्तं संहरण- विसर्पणस्वभावत्वादादिमान् ।
५. भ. वृ. ८/३५५ - वेत्रलता - जलवंशकम्बा, वागति वल्कः वरवा चर्ममयी रज्जुः सनादिमयी वल्ली-त्रपुष्यादिका, कुशा-निर्मूलदर्भाः, दर्भास्तु समूला, आदि शब्दाच्चीवरादिग्रहः ।
६. ष. खं. पु. १४,५,६,४१ पृ. ३८।
७. त. रा. वा. ५/२४ की वृत्ति पृ. ४८७-८८३
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श. ८ : उ. ९ : सू. ३५८-३६२
१४० ३५८. से किं तं उच्चयबंधे? उच्चय- अथ किं तत् उच्चयबन्धः? बंधे-जण्णं तणरासीण वा, कट्टरा-सीण उच्चयबन्धः-यत् तृणराशीनां वा, काष्ठवा, पत्तरासीण वा, तुसरा-सीण वा, राशीनां वा, पत्रराशीनां वा, तुषराशीनां वा, भुसरासीण वा गोमय-रासीण वा, अव- बुशराशीनां वा, गोमयराशीनां वा, अवकरगररासीण वा, उच्चत्तेणं बंधे राशीनां वा, उच्चत्वेन बन्धः समुत्पद्यते, समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम, उत्कर्षेण संख्येयं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं। सेत्तं कालम्। सः एषः उच्चयबन्धः। उच्चयबंधे।
भगवई ३५८. वह उच्चय बंध क्या है?
उच्चयबंध-तृण, काठ, पत्र, तुष, भूषा, गोबर और कचरे की राशि (ढेर या पुंज) की जाती है, वह ऊंचाई के कारण उच्चय बंध कहलाता है। इसका कालमान जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है उच्चय बंधा
३५९. से किं तं समुच्चयबंधे?
अथ किं तत् समुच्चयबन्धः? समुच्चयबंधे-जण्णं अगड-तडाग-नदी. समुच्चयबन्धः-यत् अगड-तडाग-नदी- दहवावी - पुक्खरिणी - दीहियाणं द्रह-वापी-पुष्करिणी-दीर्घिकानां गुंजालि- गुंजालियाणं, सराणं,सरपंति-याणं, कानां, सरसो, सर:पंक्तीनां, सरस्सरःसरसरपंति-याणं, बिलपंति-याणं पंक्तीनां, बिलपंक्तीनां देवकुल-सभा-प्रपादेवकुल-सभ-प्पव-थूभ-खाइ-याणं, स्तूप-खातिकानां परिखाना, प्राकाराफरिहाणं, पागार-ट्टालग-चरिय - दार · डालक - चरिका - द्वार - गोपुर - तोरणानां, गोपुर • तोरणाणं, पासाय-घर-सरण- प्रासाद - गृह - शरण - लयन - आपणानां, लेण-आवणाणं, सिंघाडग-तिय- शृंगाटक - त्रिक - चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुखचउक्क-चच्चर • चउम्मुह - महापह- महापथ-पथादीनां, सुधा-चिक्खल्लपहमादीणं, छुहा-चिक्खल्ल-सिला- शिलासमुच्चयेन बन्धः समुत्पद्यते, समुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेण संख्येयं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जं कालं। कालम्। सः एष : समुच्चयबन्धः। सेत्तं समुच्चयबंधे।
३५९. वह समुच्चय बंध क्या है?
समुच्चय बंध-कूप, तालाब, नदी, द्रह बावड़ी, पुष्करणी, दीर्घिका, गुंजालिका, सर, सरपंक्ति, सर सर की पंक्ति, बिल की पंक्ति, देवकुल, सभा, प्रपा, स्तूप, खाई, परिघा, प्राकार, अट्टालक (बुर्ज), चरिका, द्वार, गोपुर, तोरण, प्रासाद, घर, कुटीर, पर्वतगृह, दुकान, दुराहा, तिराहा, चौक, चौराहा, चारों ओर दरवाजे वाला देवल, महापथ और पथ आदि का चूना, चिकनी मिट्टी और शिला के समुच्चय से जो बंध किया जाता है, वह समुच्चय बंध है। इसका कालमान जधन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है समुच्चय
बंध।
३६०. से किं तं साहणणाबंधे? साहणणाबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-देससाहणणाबंधे य, सव्व- साहणणाबंधे य॥
अथ किं तत् संहननबन्धः? संहननबन्धः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथादेशसंहननबन्धश्च, सर्वसंहननबन्धश्च।
३६०. वह संहनन बंध क्या है? संहनन बंध दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेदेश संहनन बंध, सर्व संहनन बंध।
३६१. से किं तं देससाहणणाबंधे ? अथ किं तत् देशसंहननबन्धः ? देससाहणणाबंधे-जण्णं सगड-रह- देशसंहननबंधः-यत शकट-रथ-यान-युग्म- जाण-जुग्ग-गिल्लि-थिल्लि-सीय- संद- गिल्लि-थिल्लि-शिविका-स्यन्दमानिकमाणी - लोही - लोह-कडाह-कडच्छ्य • लौही-लोहकटाह-कडच्छ्य -आसन-शयनआसण-सयण खंभ-भंडमत्तोवगरण- स्तम्भ-भाण्डमात्रोपकरणादीनां देशसंहननमादीणं देस-साहणणाबंधे समुप्पज्जइ, बन्धः समुत्पद्यते, जघन्येन अन्तमुहूर्तम्, जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं उत्कर्षेण संख्येयं कालम् । संखेनं कालं। सेत्तं देससाहणणाबंधे। सः एषः अल्लियावणबन्धः ।
३६१. वह देश संहनन बंध क्या है ?
देश संहनन बंध-शकट, रथ, यान, युग्य गिल्लि, थिल्लि, शिबिका, स्यंदमानिका, तवा, लोह-कटाह, करछी, आसन, शयन, स्तंभ, भांड, पात्र, उपकरण आदि का देश संहनन बंध होता है। इसका कालमान जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः संख्येय काल है। यह है देश संहनन बंध।
३६२. से किं तं सव्वसाहणणाबंधे? अथ किं तत् सर्वसंहननबन्धः ?
सव्वसाहणणाबंधे-से णं खीरोदग- सर्वसंहननबन्धः-सः क्षीरोदकादीनाम्। स माईणं। सेत्तं सव्वसाहणणाबंधे। सेत्तं एषः सर्वसंहननबन्धः। स एषः संहननसाहणणाबंधे। सेत्तं अल्लिया-वणबंधे॥ बन्धः। सः एषः अल्लियावणबन्धः।
३६२. वह सर्व संहनन बंध क्या है?
सर्व संहनन बंध-क्षीर का उदक आदि से संबंध सर्व संहनन बंध है। यह है सर्व संहनन बंध। यह है संहनन बंध। यह है आलीनकरण बंध।
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भगवई
श.८: उ.९: सू. ३६३-३६५
भाष्य १.सूत्र ३५६-३६२
राशीकरण होता है और समुच्चय बंध में ईंट अथवा पत्थर की चिनाई आलीनकरण बंध-एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के श्लेष से होने होती है। इसी प्रकार मार्ग के निर्माण में सड़कें बिछाई जाती है। इस वाला बंध। उसके चार प्रकार बतलाए गए हैं
उल्लेख से पता चलता है कि प्राचीन काल में चिकनी मिट्टी अथवा १.श्लेष बंध
पत्थरों के पक्के मार्गों का निर्माण किया जाता था। श्लेष द्रव्य के द्वारा दो द्रव्यों का संबंध। जैसे-दीवार, स्तंभ ४.संहनन बंधआदि का संबंध।' इसके कुछ साधनों का उल्लेख किया गया है, संयोग से होने वाला आकृति निर्माण । जैसे-सुधा-चूना, चिखल-चिकनी मिट्टी, श्लेष, लाख, मोम आदि। इसके दो प्रकार है२. उच्चय बंध
१. देश संहनन बंध-अनेक अवयवों की संयोजना से होने राशीकरण, ऊर्ध्वचय अथवा ढेर। जैसे-घास की राशि। वाला बंध। जैसे-शकट का निर्माण। ३. समुच्चय बंध
२. सर्व संहनन बंध-एकीभाव, जैसे-दूध और पानी का समुच्चय बंध में भी ऊर्ध्वचयन होता है। उच्चय बंध में केवल संबंध। सरीरं पडुच्चशरीरं प्रतीत्य
शरीर की अपेक्षा ३६३. से किं तं सरीरबंधे? अथ किं तत्शरीरबन्धः?
३६३. वह शरीर बंध क्या है? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- शरीरबन्धः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- शरीर बंध दो प्रकार का प्रज्ञप्त है जैसेपुव्वपयोगपच्चइए य, पडुप्पन्न पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकश्च, प्रत्युत्पन्नप्रयोग- पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक, प्रत्युत्पन्न प्रयोग पयोगपच्चइए य॥ प्रत्ययिकश्च।
प्रत्ययिक।
३६४. से किं तं पुव्वपयोगपच्चइए? अथ किं तत्पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः? पुव्वपयोगपच्चइए-जण्ण नेरइयाणं । पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः यत् नैरयिकाणां संसारत्थाणं सव्वजीवाणं तत्थ-तत्थ । संसारस्थानां सर्वजीवानां तत्र-तत्र तैः-तैः तेसु-तेसु कारणेसु समोहण्ण-माणाणं कारणैः समवहन्यमानानां जीवप्रदेशानां जीवप्पदेसाणं बंधे समुप्प-ज्जइ। सेत्तं । बन्धः समुत्पद्यते। सः एषः पूर्वप्रयोगपुव्वापयोगपच्चइए॥
प्रत्ययिकः।
३६४. वह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक क्या है?
पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक नैरयिक आदि संसारस्थ सब जीव विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारणों से अपने प्रदेशों का समुद्घात (शरीर से बाहर प्रक्षेपण) करते हैं, उस समय जीव प्रदेशों का बंध (विशेष विन्यास) उत्पन्न होता है। यह पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक है।
३६५. से किं तं पड़प्पन्नपयोग-पच्चइए? अथ किं तत् प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः? पडुप्पन्नपयोगपच्चइए-जण्णं केवल प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः-यत् केवल- नाणस्स अणगारस्स केवलि- ज्ञानिनः अनगारस्य केवलिसमुद्घातेन समुग्याएणं समोहयस्स ताओ। समवहतस्य तस्मात् समुद्घातात् प्रतिसमुग्घायाओ पडिनियत्तमाणस्स अंतरा निवर्तमानस्य अन्तरा मन्थे वर्तमानस्य मंथे वट्टमाणस्स तेया-कम्माणं बंधे । तैजसकामणयोः बन्धः समुत्पद्यते। किं समुप्पज्जइ। किं कारणं? ताहे से पएसा कारणम् ? तदा तस्य प्रदेशाः एकत्वगताः एगत्तीगया भवंति। सेत्तं पड़प्पन्न- भवन्ति। सः एषः प्रत्युत्पन्नप्रयोगपयोगपच्चइए। सेत्तं सरीरबंधे। प्रत्ययिकः। सः एषःशरीरबन्धः ।
३६५. वह प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक क्या है? प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक केवलज्ञानी अनगार जब केवली समुद्घात से समवहत होकर जीव प्रदेशों का विस्तार कर, उस समुद्धात से प्रतिनिवर्तमान होता है-जीव प्रदेशों का संकोच करता है, उस समय अंतरालवर्ती मंथ की क्रिया के क्षण में तैजस और कार्मण शरीर का बंध उत्पन्न होता है। इसका कारण क्या है? समुद्घात से निवृत्ति के समय केवली के जीव प्रदेश एकत्र (संघात) दशा को प्राप्त होते हैं। यह है प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक। यह है शरीर बंध।
१. (क) भ.वृ.८/३५६/
(ख) ष. खं, पृ. १४,५,६,४१,४४॥
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श. ८ : उ. ९ : सू. ३६६
सरीरप्पयोगं पडुच्च३६६. से किं तं सरीरप्पयोगबंधे ? सरीरप्पयोगबंधे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- ओरालियसरीरप्पयोगबंधे, वे उब्विय- सरीरप्पयोगबंधे, आहारगसरीरप्पयोगबंधे, तेयासरीरप्पयोगबंधे कम्मासरीरप्पयोगबंधे ॥
१. सूत्र ३६३-३६५
जीव असंख्य प्रदेशों का संघात है। वे प्रदेश सदा अविभक्त रहते हैं। कर्म शरीर के कारण उनकी रचना बदलती रहती है। उनका संकोच और विस्तार होता रहता है। जीव के प्रदेशों का संकोच होता है, उसके अनुरूप तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का भी संकोच हो जाता है। इसी प्रकार जीव के प्रदेशों के विस्तार के अनुरूप ही तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का विस्तार हो जाता है। इस संकोच और विस्तार की प्रक्रिया को शरीर बंध कहा गया है। इसका मुख्य हेतु है समुद्घात । समुद्घात की अवस्था में जीव के प्रदेश शरीर से बाहर निकलते हैं और पुनः शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं। इसे समझाने के लिए समुद्घात के दो रूप बतलाए गए हैं
१. पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक २. प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक | अभयदेव सूरि ने 'शरीर बंध' इस पक्ष का उल्लेख किया है। शरीर बंध के पक्ष में तैजस और कर्म के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है। जीव के प्रदेश गौण हैं । शरीरी बंध के पक्ष में जीव के प्रदेशों की विवक्षा मुख्य है, तैजस और कर्म शरीर के प्रदेश गौण हैं।' षट्खण्डागम' और तत्त्वार्थ वार्तिक में शरीरी बंध का शरीर बंध से पृथक् निरूपण मिलता है। शरीर बंध दो प्रकार का होता है-पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक और प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक |
१. पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक-शरीर बंध का अर्थ है- तैजस और
१. सूत्र ३६६
शरीर के पांच प्रकार हैं।
१. औदारिक शरीर
२. वैक्रिय शरीर
३. आहारक शरीर
४. तैजस शरीर
५. कर्म शरीर
ये सब पृथक् वर्गणाओं से निर्मित होते हैं।
१४२
१. भ. वृ. ८ / ३६४ - जीवपासाणत्ति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीर बंधाधिकारात् तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इतिन्यायेन जीव प्रदेशाश्रिततैजसकार्म्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं शरीरिबंध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य संकोचितानामुपसर्जनीकृततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानां जीव प्रदेशानामेवेति ।
२. ष. खं. पु. १४.५,६,४४-६२ पृ. ४१-४५१
भाष्य
कर्म शरीर के प्रदेशों की रचना । उस रचना का प्रत्यय (मूल कारण) है जीव का प्रयोग | वेदना, कषाय आदि समुद्घात जीव के प्रयत्न से निर्मित होते हैं। सब जीव विभिन्न कारणों से समुद्घात करते हैं। समुद्घात काल में जीव प्रदेशों का बंध होता है। इस बंध में जीव का प्रयोग अतीत कालीन है इसलिए इसे पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक कहा गया है । *
प्रज्ञप्तः
शरीरप्रयोगं प्रतीत्य३६६. अथ किं तत्शरीरप्रयोगबन्धः ? शरीरप्रयोगबन्धः पञ्चविधः तद्यथा - औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः, आहारकशरीरप्रयोगबन्धः, तैजसशरीरप्रयोगबन्धः, कर्मशरीरप्रयोग-बन्धः ।
२. प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक - केवली समुद्घात का कालमान आठ समय है। प्रथम चार समयों में जीव के प्रदेशों का विस्तार और शेष चार समयों में उनका संकोच होता हैं। पांचवां समय संकोच का पहला समय है। उसकी संज्ञा 'मंथ' है। इस अवस्था में जीव के प्रदेशों का एकत्रीभाव-संघात होना प्रारंभ होता है। यह मंथ का समय ही वर्तमान प्रत्ययिक बंध है। जीव के प्रदेशों का अनुवर्तन करते हुए तैजस और कर्म शरीर के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। यह संघात छठे, सातवें और आठवें समय में भी होता है, किन्तु संघात का प्रारंभ पांचवें समय में होता है। यह अभूतपूर्व संघात है इसलिए वर्तमान प्रयोग प्रत्ययिक के लिए यही समय विवक्षित है। वृत्तिकार ने शरीरी बंध के पक्ष का भी उल्लेख किया है। इस पक्ष के अनुसार तैजस और कर्म शरीर वाले जीव के प्रदेशों का बंध अथवा संघात होता है। "
समुद्घात के लिए द्रष्टव्य २/७४ का भाष्य । शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३६६. वह शरीर प्रयोग बंध क्या है ? शरीरप्रयोगबंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-औदारिकशरीरप्रयोगबंध वैक्रियशरीरप्रयोगबंध, आहारकशरीरप्रयोगबंध, तैजस शरीरप्रयोगबंध, कर्मशरीर प्रयोगबंध!
भाष्य
भगवई
शरीर
औदारिक शरीर
वैक्रिय शरीर
वर्गणा
औदारिक वर्गणा
वैक्रिय वर्गणा
आहारक शरीर
आहारक वर्गणा
तैजस शरीर
तैजस वर्गणा कर्म वर्गणा
कर्म शरीर
प्रथम तीन वर्गणाएं पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श वाली होती हैं इसलिए उनके द्वारा निर्मित शरीर स्थूल होते हैं। तैजस और कर्म वर्गणाओं में पांच वर्ण, दो गंध और पांच रस होते हैं किन्तु ३. त. रा. वा. ५ / २४ की वृत्ति पृ. ४८८ ।
४. भ. वृ. ८ / ३६३ - पूर्वः प्राक्कालासेवितप्रयोगे जीवव्यापारो वेदनाकषायादि समुद्घातरूपः प्रत्ययः कारणं यत्र शरीरबंधे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः ।
५. वही, ८ / ३६४ ।
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भगवई
स्पर्श चार (स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण) होते हैं। '
औदारिक शरीर स्थूल, वैक्रिय शरीर उससे सूक्ष्म, आहारक शरीर उससे सूक्ष्म तैजस, उससे सूक्ष्म, कार्मण शरीर (कर्म शरीर) उससे सूक्ष्म होता है।
३६८. एगिंदियओरालियसरीरप्पयोग-बंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा
औदारिक शरीर के स्वामी मनुष्य और तिर्यंच होते हैं। वैक्रिय शरीर के स्वामी एकेन्द्रिय-वायुकायिक जीव और पंचेन्द्रिय-तिर्यंच, मनुष्य, नारक और देव होते हैं। आहारक शरीर के स्वामी केवल मुनि होते हैं। " तैजस और कार्मण शरीर के स्वामी सब संसारी जीव होते हैं।
शरीर का स्वरूप और कार्य
औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से निर्मित और रस आदि सप्त धातुमय होता है। यह प्रत्यक्ष और आधार भूत शरीर है। परिवर्तन और विकास इसी के द्वारा संभव है।
वैक्रिय शरीर में विविध रूप निर्माण की शक्ति होती है। यह लब्धि-योगजविभूतिजन्य भी होता है।
आहारक शरीर - यह शरीर केवल लब्धि-योगज विभूति जन्य मुनि के होता है। आहारक लब्धि से संपन्न मुनि अपनी संदेह निवृत्ति के लिए अपने आत्म-प्रदेशों से एक पुतले का निर्माण करते हैं और उसे सर्वज्ञ के पास भेजते हैं। वह उसके पास जाकर उनसे संदेह की निवृत्ति कर पुनः मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है।
तैजस शरीर - इस शरीर का निर्माण तैजस अथवा आग्नेय परमाणु स्कंधों से होता है। इसका कार्य पाचन और दीप्ति है। यह ओरालियसरीरप्पयोगं पडुच्च औदारिकशरीरप्रयोगं प्रतीत्य ३६७. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कति कतिविहे पण्णत्ते ? विधः प्रज्ञप्तः ?
गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियओरालिय सरीरप्पयोगबंधे, बेइंदियओरालियासरीरप्पयोगबंधे जाव पंचिदिय ओरालियसरीरप्पयोगबंधे ॥
गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाएकेन्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोगबन्धः द्वीन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः पञ्चेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः ।
१. कर्म प्रकृति ७१-७२।
२. त. सू. भा. वृ. २/ ३८ - परं परं सूक्ष्मम् ।
३. भ. ८/३६७-३८७
४. वही. ८ / ३८६-४०४ ।
५. वही, ८/४०५-४०६ ।
१४३
६. वही, ८/४१२-४३३॥
७. त. सू. भा. वृ. २/४९ का भाष्य-कर्मणो विकारः कर्मात्मकं कर्मण्यमिति कार्मणम् ।
श. ८ : उ. ९ : सू. ३६७,३६८
लब्धि - योगज विभूतिजन्य भी होता है। तेजोलब्धि वाला पुरुष शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ होता है।
कार्मण शरीर-कार्मण शरीर कर्म से निष्पन्न होता है। तत्त्वार्थ भाष्य में उसके तीन अन्वर्थक बतलाए गए हैं
१. कर्म का विकार
८. (क) वही, ८/२१ का भाष्य-शरीरनाम पञ्चविधम्, तद्यथा-औदारिकशरीर नाम, वैक्रियशरीरनाम, आहारकशरीरनाम, तेजसशरीरनाम, कार्मण शरीरनामेति ।
२. कर्मात्मक
३. कर्ममय । '
कार्मण शरीर कर्म से भिन्न है। कार्मण शरीर कर्म से निष्पन्न होता है और वह संपूर्ण कर्म राशि का आधार बनता है। कर्म और कार्मण शरीर की भिन्नता का मुख्य हेतु यह है - कार्मण शरीर नाम कर्म की प्रकृति है।' इसलिए कर्म और कार्मण शरीर को एक नहीं माना जा सकता।"
कार्मण शरीर अपना तथा अन्य शेष शरीरों का कारण है। सूर्य स्वयंप्रकाशी है और वह दूसरे पदार्थ को भी प्रकाशित करता है। वैसे ही कार्मण शरीर स्वयं अपने शरीर की अवस्थिति बनाएं रखता है। और दूसरे का भी कारण है।
प्रस्तुत प्रकरण के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है-कर्म शरीर अनादिकालीन है। कर्म प्रवाह रूप में आते हैं, उदय में आकर चले जाते हैं।
एकेन्द्रिय भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञसः ?
गौतम! पञ्चविधः प्रज्ञसः, तद्यथा
कर्मबंध का प्रवाह अविच्छिन्न चलता है। उससे कर्म शरीर को पोषण मिलता रहता है। वह जीर्ण नहीं होता। पोषण के बाह्य हेतु और आंतरिक हेतु दोनों का निर्देश सूत्रकार ने किया है। "
औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः
औदारिक शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३६७. भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम! औदारिकशरीरप्रयोगबंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध, द्वीन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध यावत् पंचेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंधा
३६८. भंते! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? गौतम ! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग
(ख) पण्ण. २३/३८,४३।
९. त. सू. भा. वृ. २/ ३७ भाष्यानुसारिणी टीका पृ. १९५ - कर्मणा निर्वृत्तं कार्मणम् अशेष कर्मशरीराधारभूतं कुण्डवद् बदरादीनामशेषकर्मप्रसवसमर्थं वा यथा बीजमंकुरादीनाम् एषा च किलोनरप्रकृतिः शरीरनामकर्मणः पृथगेव कर्माष्टकात् समुदयभूतादित्यतः कर्मैव कार्मणम् ।
१०. वही, २/४९ का भाष्य-कर्म हि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणामादित्यप्रकाशवत् । यथादित्यः स्वात्मानं प्रकाशयति अन्यान्यानि च द्रव्याणि न चास्यान्यः प्रकाशकः एव कार्मणमात्मनश्च कारणमन्येषां च शरीराणामिति ।
११. भ. ८/४२०-४३२।
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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ३६८.३७२ पुढविक्काइय . एगिदियओरालिय- पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीरसरीरप्पयोगबंधे, एवं एएणं अभि-लावेणं प्रयोग-बन्धः, एवम् एतेन अभिलापेन भेदः भेदो जहा ओगाहणसंठाणे ओरालिय- यथा अवगाहनासंस्थाने औदारिकशरीरस्य सरीरस्स तहा भाणियव्वो जाव पज्जत्ता तथा भणितव्यः यावत् पर्याप्तकगर्भावगन्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदियओरालिय- क्रान्तिक- मनुष्यपंचेन्द्रिय-औदारिकशरीरसरीरप्पयोगबंधे य, अप्पज्जत्तागब्भ- प्रयोगबन्ध-श्च, अपर्याप्तकगर्भावक्रान्तिकवक्कंतिय-मणुस्सपंचिंदियओरालिय- मनुष्य-पञ्चेन्द्रिय-औदारिकशरीरप्रयोगसरीरप्प-योगबंधे य॥
बन्धश्च।
बंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-पृथ्वीकायिकएकेन्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोग बंध--इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध के भेद प्रज्ञापना के अवगाहना संस्थान (नामक पद २१/३२०) में वर्णित औदारिकशरीर की भांति वक्तव्य हैं यावत् पर्याप्तक गर्भावक्रांतिकमनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोग बंध, अपर्याप्तक गभावक्रांतिक मनुष्यपंचेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग बंध।
३६९. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कस्स कम्मस्स उदएणं?
कर्मणः उदयेन? गोयमा! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सव्व्यतया प्रमादपमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च आउयं च पडुच्च ओरालिय- प्रतीत्य औदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मण: सरीरप्पयोगनाम-कम्मस्स उदएणं उदयेन औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः । ओरालियसरीर-प्पयोगबंधे।।
३६९. भंते ! औदारिकशरीरप्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम ! औदारिकशरीरप्रयोग बंध के तीन हेतु हैं१. वीर्यसयोगसव्व्यतावीर्ययोग तथा तथाविध पुगल सामग्री। २. प्रमाद-प्रमादहेतुक। ३. कर्म-(एकेन्द्रिय जाति आदि का उदयवर्ती कर्म), योग, (काय आदि योग) भव (तिर्यंच आदि का अनुभूयमान जन्म) और आयुष्य (उदयवर्ती आयुष्य) सापेक्ष औदारिक शरीरप्रयोग नाम कर्म का उदय।
३७० एगिदियओरालियसरीरप्प-योगबंधे एके न्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोगबन्धः ३७०.भंते! एकन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग कस्स कम्मरस उदएणं? भन्ते! कस्य कर्मणः उदयेन ?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? एवं चेव। पुढविक्काइयएगिदिय- एवं चैव। पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय- औदारिकशरीरप्रयोगबंध की भांति ओरालियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव, एवं औदारिक-शरीरप्रयोगबन्धः एवं चैव, एवं वक्तव्यता। इसी प्रकार पृथ्वीकायिक जाव वण-स्सइकाइया। एवं बेइंदिया, यावत वन-स्पतिकायिकाः। एवं द्वीन्द्रियाः, एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबंध की एवं तेइंदिया, एवं चउरिदिया। एवं त्रीन्द्रियाः, एवं चतुरिन्द्रियाः।
वक्तव्यता यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय
और चतुरिन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध की वक्तव्यता।
३७१. तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालिय- तिर्यग्योनिकपञ्चेन्द्रिय-औदारिकशरीर- ३७१. भंते ! तिर्यंचयोनिकपंचेन्द्रिय औदारिक
सरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स प्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन? शरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से कम्मस्स उदएण? एवं चैव।
होता है? एवं चेव॥
औदारिकशरीरप्रयोगबंध की भांति वक्तव्यता।
३७२. मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीर- मनुष्यपचेन्द्रिय-औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः प्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन?
३७२. भंते! मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीरप्रयोगबंध किस कर्म के उदय से
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भगवई
१४५
श.८: उ.९ : सू. ३७२-३७५
उदएण?
होता है? गोयमा! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया प्रमाद- गौतम! मनुष्यपंचेन्द्रियऔदारिकशरीर पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च । प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं-वीर्य सयोग आउयं च पडुच्च मणुस्स- प्रतीत्य मनुष्यपञ्चेन्द्रिय औदारिकशरीर- सद्व्यता, प्रमाद तथा कर्म, योग, भव पंचिंदियओरालिय - सरीरप्पयोगनाम- प्रयोगनामकर्मणः उदयेन मनुष्यपञ्चेन्द्रिय- और आयुष्य सापेक्ष मनुष्य पंचेन्द्रिय कम्मस्स उदएणं मणुस्स-पंचिंदिय- औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः।
औदारिकशरीरप्रयोग नामकर्म का उदय। ओरालियसरीरप्पयोगबंधे॥
भाष्य १.सूत्र ३६७-३७२
की प्रवृत्ति। सद्र्व्य -औदारिक वर्गणा के पुद्गल। ये औदारिक शरीर __ जीव अपने शरीर का निर्माण करता है। सूक्ष्म और सूक्ष्मतर प्रयोग बंध के निमित्त बनते हैं। शरीर-तैजस और कार्मण शरीर सदा जीव के साथ रहते हैं। स्थूल द्रष्टव्य भगवती ५/११० का भाष्य। शरीर का निर्माण नए जन्म के साथ होता है और जीवन की समाप्ति के
२.प्रमाद साथ वह छूट जाता है। औदारिक-वैक्रिय और आहारक-ये तीन ३. कर्म, योग, भव और आयुष्य सापेक्ष शरीर प्रयोग नामकर्म स्थूल शरीर हैं। औदारिकशरीर का निर्माण मनुष्य और तिर्यंच (पशु, का उदय-उदयवर्ती कर्म, काय आदि की प्रवृत्ति, अनुभूयमान मनुष्य पक्षी आदि) करते हैं। वैक्रिय शरीर का निर्माण नैरयिक और देव करते। __ आदि का भव, उदयवर्ती मनुष्य आदि का आयुष्य-इन सबसे सापेक्ष हैं। आहारक शरीर का निर्माण लब्धि या योगज विभूति से किया होकर औदारिक शरीर प्रयोग नाम कर्म औदारिक शरीर के प्रयोग का जाता है। द्रष्टव्य भगवती १/३४०-३४९ का भाष्य।
संपादन करता है। औदारिक शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु बतलाए हैं--
औदारिक शरीर की रचना का मुख्य हेतु नाम कर्म है। वीर्य, १.वीर्य सयोग सद्व्यता
योग, पुद्गल आदि सब उसके सहकारी कारण है। षट्खण्डागम में वीर्य-वीर्यान्तर क्षय जनित शक्ति। योग-मन, वचन, काया शरीर बंध की गणना नोकर्म की कोटि में की गई है।' ३७३. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्तः किं ३७३. 'भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबंध क्या किं देसबंधे? सव्वबंधे? देशबन्धः ? सर्वबन्धः?
देश बंध है ? सर्व बंध है? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि।। गौतम ! देशबन्धोऽपि, सर्वबन्धोऽपि। गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है।
३७४. एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एकेन्द्रिय - औदारिक - शरीर - प्रयोगबन्धः णं भंते! किं देसबंधे? सव्वबंधे? भदन्त ! किं देशबन्ध? सर्वबन्धः? एवं चेव। एवं पुढविक्काइया एवं जाव- । एवं चैव। एवं पृथिवीकायिकाः एवं यावत्।
३७४. भंते ! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध क्या देश बंध है? सर्व बंध है?
औदारिकशरीरप्रयोगबंध की भांति वक्तव्यता इसी प्रकार पृथ्वीकायिक यावत्
३७५. मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीर- मनुष्यपञ्चेन्द्रिय - औदारिक- शरीरप्रयोग- ३७५. भंते! मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक प्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे? बन्धः भदन्त ! किं, देशबन्धः ? सर्वबन्धः? शरीरप्रयोगबंध क्या देश बंध है? सर्व सव्वबंधे?
बंध है? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि।। गौतम! देशबन्धोऽपि. सर्वबन्धोऽपि। गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है।
भाष्य १.सूत्र ३७३-३७५
लौटने का पहला समय भी सर्व बंध का समय होता है। द्रष्टव्य औदारिक शरीर प्रयोग बंध की दो अवस्थाएं होती हैं
भगवती ८/३७६। १.देश बंध २. सर्वबंध
द्वितीय आदि समयों में ग्रहण के साथ विसर्जन की प्रक्रिया एक जीव पूर्व शरीर का परित्याग कर नए शरीर का चालू हो जाती है। जीव पुद्गलों का ग्रहण करता है और उनका निर्माण करता है। निर्माण के प्रथम समय में वह शरीर के योग्य विसर्जन भी करता है। उस अवस्था में केवल बंध (ग्रहण) नहीं होता पुद्गलों का केवल ग्रहण करता है इसलिए वह सर्व बंध है। है इसलिए वह देश बंध है, इसका तात्पर्यार्थ है-प्रथम समय में निर्मित इसका तात्पर्यार्थ है-जीवन यात्रा के लिए आवश्यक शक्तियों का शक्तियों के लिए आवश्यक साधनों का ग्रहण और अनावश्यक का निर्माण। वैक्रिय शरीर के निर्माण के पश्चात पुनः औदारिक शरीर में उत्सर्जन। १. भ. वृ.८.३६०
२. ष, खं, पु. १४.५.६,४० पृ. ३७)
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१४६
श. ८ : उ. ९ : सू. ३७६-३७८
भगवई अभयदेव सूरि ने अपूप के दृष्टांत द्वारा इसे समझाया है। तैल का ग्रहण करता है, शेष क्षणों में ग्रहण और विसर्जन दोनों तेल या घी से भरी कढ़ाई में प्रक्षिप्त 'पूआ' पहले समय में घी अथवा करता है।' ३७६. ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! औदारिकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ३७६. 'भंते! औदारिक शरीर प्रयोग बंध कालओ केवच्चिरं होइ? कालतः कियच्चिरं भवति?
काल की अपेक्षा कितने काल तक रहता
गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्केसेणं तिण्णि जघन्येन एकं समयं, उत्कर्षेण त्रीणि पलिओवमाइं समयूणाई॥
पल्योपमानि समयोनानि।
गौतम ! सर्व बंध का कालमान एक समय। देश बंध का कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तीन पल्योपम है।
३७७. एगिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एकेन्द्रिय - औदारिकशरीर - प्रयोगबन्धः ३७७. भंते! एकेन्द्रिय औदारिकशरीरप्रयोग णं भंते! कालओ केवच्चिर होइ? भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति? बंध काल की अपेक्षा कितने काल तक
रहता है? गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः गौतम! सर्व बंध का कालमान एक समय। जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षेण द्वाविंशति । देश बंध का कालमान जघन्यतः एक बावीसं वाससहस्साइं समयूणाई। वर्षसहस्राणि समयोनानि।
समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून बाईस हजार वर्ष है।
३७८. पुढविक्काइयएगिदियपुच्छा। पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय पच्छा। ३७८. पृथ्वीकायएकेन्द्रिय औदारिकशरीरगोयमा! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे। गौतम! सर्वबन्ध: एकं समयं, देशबन्धः प्रयोग बंध की पृच्छा। जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, जघन्येन 'खुड्डाग भवग्रहणं त्रिसमयोनम् गौतम ! सर्व बंध का कालमान एक समय। उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई उत्कर्षेण द्वाविंशति वर्षसहस्राणि समयो- देश बंध का कालमान जघन्यतः तीन समयूणाई। एवं सव्वेसिं सव्वबंधो एक्कं नानि। एवं सर्वेषां सर्वबन्धः एकं समय, समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः समयं, देसबंधो जेसिं नत्थि देशबन्धः येषां नास्ति वैक्रियशरीरं तेषां एक समय न्यून बाईस हजार वर्ष है। इसी वेउब्वियसरीरं तेसिं जहण्णेणं खुड्डागं जघन्येन 'खुड्डाग' भवग्रहणं त्रिसमयोनम, प्रकार सबके सर्व बंध का कालमान एक भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं जा सा उत्कर्षेण या सा स्थितिः सा समयोना समय। देश बंध का नियम यह है-जिनके ठिती सा समयूणा कायव्वा, जेसिं पुण कर्त्तव्या, येषां पुनः अस्ति वैक्रियशरीरं तेषां वैक्रिय शरीर नहीं है, उनके जघन्यतः तीन अत्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं देसबंधो देशबन्धः जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षण समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण है, जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जा या यस्य स्थितिः सा समयोना कर्त्तव्या उत्कृष्टतः जो स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक जस्स ठिती सा समयूणा कायव्वा जाव यावत् मनुष्याणां देशबन्धः जघन्येन एकं समय न्यून कर देना चाहिए। मणुस्साणं देसबंधे जहण्णेणं एक्कं समयम्, उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि जिनके वैक्रिय शरीर है, उनके देश बंध का समयं, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं समयोनानि।
कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः समयूणाई।
जिसके जितनी स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक समय न्यून कर देना चाहिए यावत मनुष्यों के देश बंध का कालमान जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तीन
पल्योपम है।
भाष्य १. सूत्र ३७६-३७८
लौटते हैं तब एक समय की अवधि वाला सर्व बंध होता है। उसके देश बंध की जघन्य स्थिति एक समय कैसे हो सकती है? इस अग्रिम समय में देश बंध करता है और एक समय के अनंतर उसकी प्रश्न का समाधान वृत्तिकार ने किया है। वायुकाय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय मृत्यु हो जाती है। इस अपेक्षा से देश बंध की जघन्य स्थिति एक और मनुष्य वैक्रिय शरीर का निर्माण कर पुनः औदारिक शरीर में समय बतलाई गई है। १. भ, वृ. ८.३०३-तत्र यथा अपूपः स्नेहभृततापतापिकायां प्रक्षिप्सः प्रथम समये २. भ. वृ. ८/३७३-तत्र यदा वायुमनुष्यादिर्वा वैकियं कृत्वा विहाय च गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबंधः। ततो द्वितीयादिषु समयेष नान गृह्णाति विसृजति चेत्येवं पुनरीदारिकस्य समयमेकं सर्वबंधं कृत्वा पुनस्तस्य देशबंधं कुर्वन नेकरामयानंतर दश बंधः।
मियते तदा जघन्यत: एकसमयं देशबंधोस्य भवतीति ।
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भगवई
१४७
श.८ : उ.९ : सू. ३७९,३८० एकेन्द्रिय के देश बंध की उत्कृष्ट स्थिति एक समय न्यून होता है।' बाईस हजार वर्ष बतलाई गई है। उत्पत्ति के पहले समय में सर्व बंध ६५५३६२३७७३८१७१३९५/३७७३। होता है। इस अपेक्षा से एक समय न्यून किया गया है।
गोम्मटसार के अनुसार एक मुहूर्त में क्षुल्लक भव ग्रहण की औदारिक शरीर वाले जीवों का सबसे छोटा जीवन दो सौ संख्या छासठ हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) होती है फलतः एक छप्पन आवलिका का होता है। इसकी संज्ञा है क्षुल्लक भव ग्रहण। श्वासोच्छवास क्षुल्लक भव ग्रहण की संख्या अठारह होती है। अंतमुहर्त में पैंसठ हजार पांच सौ छत्तीस क्षुल्लक भव होते हैं। एक पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाला तीन समय की विग्रह गति से मुहर्त में क्षुल्लक भव ग्रहण की राशि तीन हजार सात सौ तिहत्तर उत्पत्ति स्थान में आता है। प्रथम दो समयों में अनाहारक रहता है और (३७७३) होती है। उससे उच्छवास राशि का भाग देने पर जो लब्ध तीसरे समय में वह आहार ग्रहण करता है। वह सर्व बंध का समय है। होता है वह एक उच्छवास में क्षुल्लक भव का परिमाण बनता है। इस इस अपेक्षा से देश बंध की जघन्य स्थिति तीन समय न्यून क्षुल्लक प्रकार एक श्वासोच्छवास में कुछ अधिक सतरह क्षुल्लक भव ग्रहण भव ग्रहण बतलाई गई है। ३७९. ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते! औदारिकशरीरबन्धान्तरं भदन्त ! कालतः ३७९. 'भते! औदारिक शरीर के बंध का कालओ केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति?
अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तेत्तीसं भवग्रहणं त्रिसमयोनम,उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोवमाई पुव्वकोडिसमयाहियाई। सागरोपमानि पूर्वकोटिसमयाधिकानि। देसबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, देशबन्धान्तरं जघन्येन एक समयम्, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि त्रितिसमया-हियाई॥
समयाधिकानि।
गौतम! औदारिक शरीर के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः तैतीस सागरोपम एक समय अधिक पूर्व कोटि है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टत: तीन समय अधिक तैतीस सागरोपम है।
३८०. एगिदियओरालियपुच्छा।
एकेन्द्रिय औदारिकपृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं गौतम ! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं बावीसं भवग्रहणं त्रिसमयोनम, उत्कर्षेण द्वाविंशति वाससहस्साई समयाहियाई। देसबंधंतरं। वर्षसहस्राणि समयाधिकानि। देशबन्धान्तरं जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतो- जघन्येन एक समयम्, उत्कर्षण मुहत्तं॥
अन्तर्मुहूर्त्तम्।
३८०. एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के बंध के
अंतर की पृच्छा। गौतम ! एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त है।
भाष्य
१. सूत्र ३७९-३८०
सर्व बंध का अंतर-दो सर्व बंधों का मध्यकाल सर्व बंध का अंतर होता है। सर्व बंध का जघन्य कालमान तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण है। उदाहरण स्वरूप कोई जीव तीन समय विग्रह गति कर औदारिक शरीर के रूप में उत्पन्न होता है, उसमें विग्रह गति के प्रथम दो समय अनाहारक अवस्था में रहता है, तीसरे समय में वह सर्व बंधक होता है। क्षुल्लक भव के कालमान तक जीवित रहकर मरता है और पुनः औदारिक शरीर के रूप में उत्पन्न होता है। वहां प्रथम समय में सर्व बंधक होता है। इस प्रकार सर्व बंध से सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यनक्षल्लक भव प्रमाण है।* १. (क) भ. बृ.८.३०८
(ख) भ. जो. २,१५८,३१ का वार्निका। २. गोम्मटसार, जीवकांड, गा. १२३
तिणि सया छनीसा, छविट्टिसहस्सगाणि मरणाणि। अंतो मुहुनकाले तावदिया चेव खुद्दभवा॥
अविग्रह गति से उत्पन्न होने वाला मनुष्य प्रथम समय में सर्वबंध करता है। करोड़ पूर्व तक आयुष्य भोगकर तैतीस सागरोपम स्थिति वाला नारक अथवा सर्वार्थसिद्ध का देवता होता है। वह वहां से च्युत होकर तीन समय वाली विग्रह गति से पुनः औदारिक शरारी बनता है। वह अनाहारक के दो समयों को छोड़कर तीसरे समय में सर्व बंध करता है। औदारिक शरीर के दो अनाहारक समयों में से एक समय पूर्व कोटि में सर्व बंध के समय के स्थान पर प्रक्षेप करने पर पूर्व कोटि पूर्ण हो जाती है। इस प्रकार सर्व बंध के अंतर का उत्कृष्ट कालमान संगत होता है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच के लिए भी यही नियम है। वह नरक में ही उत्पन्न होता है, सर्वार्थ सिद्ध में नहीं।' ३. भ. वृ.८/३७८॥ १. वही, ८/३८०॥ ५.भ.वृ.८.३८०1
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श. ८ : उ. ९ : सू. ३८१-३८३ ३८१. पुढविक्काइयएगिंदियपुच्छा ।
सव्वबंधंतरं जहेव एगिंदियस्स तहेव भाणियव्वं । देसबंधंतरं जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तिण्णि समया। जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चउरिंदियाणं वाउक्का - इयवज्जाणं, नवरं सव्व बंधंतर उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायव्वा । वाउक्काइ-याणं सव्वबंधंतरं जहणेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिण्णि वाससहस्साई समयाहियाई । देसबंधंतरं जहणणेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥
पुच्छा ।
सव्वबंधंतरं जहणेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी समयाहिया । देसबंधंतरं जहा एगिंदियाणं तहा पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं, एवं मस्साण वि निरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं ॥
३८३. जीवस्स णं भंते! एगिंदियत्ते, नो एगिंदियत्ते, पुणरवि एगंदियत्ते एगिंदियओरालियसरीरप्पयोग बंधंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ?
१. भ. वृ. ८ ३८१|
१४८
पृथिवीकायिक- एकेन्द्रियपृच्छा ।
सर्वबन्धान्तरं यथैव एकेन्द्रियस्य तथैव भणितव्यम् । देशबन्धान्तरं जघन्येन एकं समयम्, उत्कर्षेण त्रीन् समयान्। यथा पृथिवीकायिकानां एवं यावत् चतुरिन्द्रियाणां वायुकायिकवर्जानाम्, नवरं सर्वबन्धान्तरम् उत्कर्षेण या यस्य स्थितिः सा समयाधिका कर्त्तव्या । वायुकायिकानां सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्रहणं त्रिसमयोनम्, उत्कर्षेण त्रीणि वर्षसहस्राणि समयाधिकानि ।
१. सूत्र ३८१
देश बंध का जघन्य अंतर - पृथ्वीकायिक जीव ने देशबंधक होकर आयुष्य पूर्ण किया । पुनः अविग्रह गति से पृथ्वीकायिक में उत्पन्न हुआ। इस प्रकार देश बंध के अंतर का जघन्य कालमान एक समय हुआ ।
देश बंध का उत्कृष्ट अंतर- पृथ्वीकायिक जीव ने देशबंधक की अवस्था में आयुष्य पूर्ण किया। वह तीन समय की विग्रह गति से पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न हुआ। दो समय अनाहारक अवस्था में रहा। तीसरे समय में सर्व बंधक होकर पुनः देश बंधक ३८२. पंचिंदियतिरिक्खजोणिय ओरालिय
देशबन्धान्तरं जघन्येन एकं समयं, उत्कर्षेण अर्मुहूर्तम् ।
भाष्य
बना। इस प्रकार देश बंध के अंतर का उत्कृष्ट कालमान तीन समय का होता है। "
वायुकायिक जीव के देश बंध का अंतर-वायुकायिक जीव औदारिक शरीर का देशबंधक है। वह वैक्रिय लब्धि से वैक्रिय शरीर का निर्माण कर अंतर्मुहूर्त्त तक उस स्थिति में रहता है, पुनः औदारिक शरीर के निर्माण के प्रथम समय में सर्व बंधक होता है। द्वितीय समय में औदारिक शरीर का देशबंधक होता है। इस प्रकार देशबंध के अंतर का उत्कृष्ट कालमान अंतर्मुहूर्त है।
पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक- औदारिकपृच्छा ।
सर्वबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्रहणं त्रिसमयोनम्, उत्कर्षेण पूर्वकोटिः समयाधिका । देशबन्धान्तरं यथा एकेन्द्रियाणां तथा पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिकानाम्, एवं मनुष्याणामपि निरवशेषं भणितव्यं यावत् उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्तम्।
भगवई
३८१. पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक शरीर के बंध के अन्तर की पृच्छा । सर्व बंध का अन्तर एकेन्द्रिय की भांति वक्तव्य है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः तीन समय है। जैसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय की वक्तव्यता है, वैसे वायुकाय वर्जित यावत् चतुरिन्द्रिय की वक्तव्यता, इतना विशेष है- सर्व बंध का अंतर उत्कृष्टतः जिसकी जितनी स्थिति निर्दिष्ट है, उसमें एक समय अधिक कर देना चाहिए। वायुकायिक के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भव ग्रहण, उत्कृष्टतः एक समय अधिक तीन हजार वर्ष है। देश बंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त है।
जीवस्य भदन्त ! एकेन्द्रियत्वे, नो एकेन्द्रियत्वे, पुनरपि एकेन्द्रियत्वे एकेन्द्रियऔदारिकशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ?
३८२. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक औदारिक शरीर के बंध के अन्तर की पृच्छा । पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक औदारिक शरीर के सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन समय न्यून क्षुल्लक भवग्रहण उत्कृष्टतः एक समय अधिक पूर्वकोटि है। देश बंध का अंतर एकेन्द्रिय औदारिक शरीर की भांति पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक औदारिक शरीर का वक्तव्य है। इस प्रकार मनुष्यों का भी निरवशेष रूप में वक्तव्य है यावत् उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त्त है।
३८३. भंते! एकेन्द्रिय जीव नोएकेन्द्रिय
( द्वीन्द्रिय आदि) में जन्म लेकर पुनः एकेन्द्रिय में जन्म लेता है, उस अवस्था में एकेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग के बंध
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भगवई
श. ८ : उ. ९ : सू. ३८३,३८४ का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल
का है? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाइं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वे खुड्डाई गौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्यतः तीन भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं दो भवग्रहणे त्रिसमयोने, उत्कर्षेण द्विसाग- समय न्यून दो क्षुल्लक भव ग्रहण, सागरोवमसहस्साई संखेज्जवा- रोपमसहस्रे संख्येयवर्षाभ्यधिके। देश- उत्कृष्टतः संख्येय वर्ष अधिक दो हजार समब्भहियाई। देसबंधंतरं जहण्णेणं बन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं भवग्रहणं सागरोपम है। देश बंध का अंतर जघन्यतः खुड्डागं भवग्गहणं समया-हियं, समयाधिकम् उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण, उक्कोसेणं दो सागरोवमसह-स्साई संख्येय- वर्षाभ्यधिके।
उत्कृष्टतः संख्येय वर्ष अधिक दो हजार संखेज्जवासमब्भहियाई॥
सागरोपम है।
भाष्य १. सूत्र ३८३
सागरोपम त्रसकाय की उत्कृष्ट काय स्थिति में रहा। पुनः एकेन्द्रिय में औदारिक शरीर के निर्माण के अंतरकाल का वैकल्पिक रूप उत्पन्न होकर सर्वबंध किया। इस प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट इस प्रकार है। एक एकेन्द्रिय जीव तीन समय की विग्रह गति से उत्पन्न अंतरकाल सर्वबंध के एक समय से हीन एकेन्द्रिय की उत्कृष्ट भव हुआ। वह दो समय अनाहारक रहा और तीसरे समय में उसने सर्व स्थिति (बाईस हजार वर्ष) का त्रसकाय की स्थिति में प्रक्षेपण करने बंध किया। सर्व बंध के समय से न्यून क्षुल्लक भव का जीवन जीया। पर संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम होता है। संख्यात स्थानों वहां से मरकर द्वीन्द्रिय आदि में पुनः क्षुल्लक भव का जीवन जीकर के संख्यात भेद होते हैं इसलिए संख्यात वर्ष कहना संगत है।' मरा और अविग्रह गति से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर सर्वबंधक कोई एकेन्द्रिय जीव देशबंधक होकर मरा, द्वीन्द्रिय आदि में बना। इस प्रकार एकेन्द्रिय से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न होनेवाले जीव क्षुल्लक भव पूरा कर अविग्रह गति से पुनः एकेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ। के सर्वबंध का जघन्य अंतरकाल दो क्षुल्लक भव ग्रहण होता है।' प्रथम समय में सर्वबंध कर दूसरे समय में देशबंधक बना। इस प्रकार
कोई जीव अविग्रह गति से एकेन्द्रिय में उत्पन्न होकर प्रथम देश बंध का जघन्य अंतर काल एक समय अधिक क्षुल्लक भव होता समय में सर्वबंधक बना। वहां बाईस हजार वर्ष का जीवन पूरा कर है। देशबंध का उत्कृष्ट अंतर काल सर्वबंध के अंतर काल की भांति त्रसकाय में उत्पन्न हुआ। वहां संख्यात वर्ष अधिक दो हजार वक्तव्य है। ३८४. जीवस्स णं भंते! पुढविक्का- जीवस्य भदन्त! पृथिवीकायिकत्वे, नो ३८४. भंते! पृथ्वीकायिक जीव नो इयत्ते, नोपुढविक्काइयत्ते, पुणरवि पृथिवीकायिकत्वे, पुनरपि पृथ्वीकायिकत्वे पृथ्वीकायिक में जन्म लेकर पुनः पुढविक्काइयत्ते पुढविक्काइय-एगिदिय- पृथिवीकायिक-एकेन्द्रिय-औदारिकशरीर- पृथ्वीकायिक में जन्म लेता है। उस ओरालिय-सरीरप्पयोग-बंधतरं कालओ। प्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं अवस्था में पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय केवच्चिरं होइ? भवति?
औदारिक शरीर प्रयोग के बंध का अंतर
काल की अपेक्षा कितने काल का है? गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाई गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वे खुड्डाई गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः तीन भवग्गहणाई तिसमयूणाई, उक्कोसेणं भवग्रहणे त्रिसमयोने, उत्कर्षेण अनन्तं समय न्यून दो क्षुल्लक भवग्रहण, अणंतं कालं-अणंताओ ओसप्पिणीओ कालम्-अनन्ताः अवसर्पिणीः उत्सर्पिणीः उत्कृष्टतः अनंत काल-अनंत उत्सर्पिणीउस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता कालतः, क्षेत्रतः अनन्ताः लोकाः- अवसर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की लोगा- असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते असंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ता,: ते पुद्गल- अपेक्षा अनंत लोक-असंख्येय पुद्गल णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए परिवर्ताः आवलिकायाः असंख्येयतमः । परिवर्त, वे पुद्गल परिवर्त आवलिका के असंखेज्जइभागो। देसबंधंतरं जहण्णेणं भागः। देशबन्धान्तरं जघन्येन खुड्डागं असंख्यातवें भाग जितने हैं। देशबंध का खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, भवग्रहणं समयाधिकम्, उत्कर्षेण अनन्तं अंतर जघन्यतः एक समय अधिक क्षुल्लक उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव कालं यावत् आवलिकायाः असंख्येयतमः भव ग्रहण, उत्कृष्टतः अनंत काल यावत् आवलियाए असंखेज्जइ-भागो। जहा भागः। यथा-पृथिवीकायिकानाम् एवं आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने हैं। पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइय- वनस्पतिकायिकवर्जानां यावत् मनुष्या- जैसे-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय की वज्जाणं जाव मणुस्साणं। वणस्सइ- णाम्। वनस्पतिकायिकानां द्वे खुड्डाइं एवं वक्तव्यता है, वैसे वनस्पतिकायिक वर्जित काइयाण दोण्णि खुड्डाई एवं चेव, चैव, उत्कर्षेण असंख्येयं कालम्- यावत् मनुष्य की वक्तव्यता। उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं- असंख्येयाः अवसर्पिणीः उत्सर्पिणीः वनस्पतिकायिक के सर्वबंध का अंतर १. भ. वृ.८/३८३।
३. वही,८/३८३1 २. वही.८३८३
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श. ८ : उ. ९ : सू. ३८४-३८७
ओसप्पिणीओ
असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोगा, एवं देसबंधंतरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो ॥
१. सूत्र ३८४
पृथ्वीकायिक जीव के सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल अनंत काल है। पृथ्वीकायिक जीव मर कर वनस्पतिकाय में उत्पन्न हुआ । वनस्पतिकाय का स्थिति काल अनंत काल है। इस अपेक्षा से सर्वबंध का अंतर काल अनंत काल बतलाया गया है। सूत्रकार ने अनंत के तात्पर्य का प्रतिपादन किया है-अनंत काल के समयों की राशि का उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी की राशि से अपहार करे तो अनंत अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी हो जाती हैं।"
क्षेत्र की अपेक्षा अनंत का तात्पर्य है-अनंत लोक । अनंत काल ३८५. एएसि णं भंते! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा, अबंधगा विसेसाहिया, देसबंधगा असंखेज्जगुणा ॥
३८६. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियवे उव्वियसरीरप्पयोगबंधे य पंचेंदियवेउब्विय सरीरप्पयोगबंधे य ॥
१५०
कालतः, क्षेत्रतः असंख्येयाः लोकाः एवं देशबन्धान्तरमपि उत्कर्षेण पृथिवीकालः ।
३८७. जइ एगिंदियवेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउक्काइयएगिंदिय१. भ. वृ. ८/३८४ |
भाष्य
की समय राशि का लोकाकाश की प्रदेश राशि से भाग देने पर अनंत लोक हो जाते हैं। उन अनंत लोकों के असंख्य पुद्गल परिवर्त हो जाते हैं।
दस कोड़ाक्रोड़ अर्ध पल्योपम का एक सागरोपम, दस कोड़ाक्रोड़ सागरोपम का एक अवसर्पिणी काल और अनंत उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का एक पुद्गल परिवर्त होता है। पुदल परिवर्त के लिए द्रष्टव्य अनुयोगद्वार ६१६ का भाष्य । पृथ्वीकाल के लिए द्रष्टव्य जीवाभिगम ५/८, पन्नवणा १८ / २६ ।
एतेषां भदन्त ! जीवानाम् औदारिकशरीरस्य देशबन्धकानाम्, सर्वबन्धकानाम्, अबन्धकानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः
वा ?
गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धकाः, अबन्धकाः विशेषाधिकाः, देशबन्धकाः असंख्येयगुणाः ।
१. सू. ३८५
औदारिक शरीर के सर्वबंधक उत्पत्ति के समय में ही होते हैं इसलिए वे सबसे अल्प हैं। उसके अबंधक विग्रह गतिक और सिद्ध वेडव्वियसरीरप्पयोगं पडुच्चवैक्रियशरीरप्रयोगं प्रतीत्यवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद् यथाएकेन्द्रिय वैक्रियशरीर प्रयोगबन्धश्च पञ्चेन्द्रिय वैक्रिय - शरीरप्रयोगबन्धश्च।
भाष्य
भगवई जघन्यतः तीन समय न्यून दो क्षुल्लक भवग्रहण पूर्ववत् है, उत्कृष्टतः असंख्येय काल- असंख्येय अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय लोक, इसी प्रकार देशबंध का अंतर जघन्यतः एक समय अधिक क्षुल्लक भवग्रहण, उत्कृष्टतः पृथ्वी काल असंख्येय अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा- असंख्येय लोक ।
यदि एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः किं वायुकायिक- एकेन्द्रियशरीरप्रयोगबन्धः ?
होते हैं इसलिए वे सर्वबंधक की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। देशबंध का काल सर्वबंध की अपेक्षा असंख्यात गुना अधिक है इसलिए वह उससे असंख्यात गुना अधिक है।
वैक्रिय शरीर प्रयोग की अपेक्षा ३८६. भंते! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध दो प्रकार का प्रज्ञम है - जैसे- एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध, पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध |
३८५. भंते! इन औदारिक शरीर के देश बंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुन्य अथवा विशेषाधिक हैं?
गौतम! औदारिक शरीर के सर्वबंधक जीव सबसे अल्प हैं। अबंधक विशेषाधिक हैं। देशबंधक असंख्येय गुण हैं।
३८७. यदि एकेन्द्रियवैक्रियशरीर प्रयोग बंध है तो क्या वह वायुकायिकएकेन्द्रियशरीर
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भगवई
श. ८ : उ. ९ : सू. ३८७-३९१ सरीरप्पयोगबंधे? अवाउक्काइय- अवायुकायिक-एकेन्द्रियशरीरप्रयोगबन्धः? प्रयोग बंध है? अवायुकायिक एकेन्द्रिय एगिदियसरीरप्पयोगबंधे?
शरीर प्रयोग बंध है? एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगा. एवम् एतेन अभिलापेन यथा अवगाहन इसी प्रकार इस अभिलाप के अनुसार हणसंठाणे वेउब्वियसरीरभेदो तहा संस्थाने वैक्रिय-शरीरभेदः तथा भणितव्यः अवगाहन संस्थान नामक प्रज्ञापना के पद भाणियव्यो जाव पज्जत्तासव्वट्ठ-सिद्ध- यावत् पर्याप्तक-सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोप- की भांति वैक्रिय शरीर का भेद वक्तव्य है अणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेव- पातिककल्पातीत-वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रिय- यावत् पर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध, अनुत्तरोपपंचिंदियवेउब्बियसरीरप्पयोगबंधे य, वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धश्च, अपर्याप्तक- पातिक और कल्पातीत वैमानिक देव अपज्जत्तासव्वट्ठ-सिद्धअणुत्तरोववाइय- सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरोप-पातिककल्पातीत- पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग बंध, अपर्याप्तक कप्पातीयवेमा . णियदेवपंचिंदिय- वैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियवैक्रिय-शरीरप्रयोग- सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीतवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य॥ बन्धश्च।
वैमानिकदेव पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग
बंध।
भाष्य १.सूत्र ३८७
ओगाहण संठाणे-यह प्रज्ञापना का इक्कीसवां पद है। वैक्रिय शरीर की जानकारी के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद २१/४९-५५।
३८८. वेउव्विसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! कस्य कस्स कम्मरस्स उदएण?
कर्मणः उदयेन? गोयमा! बीरिय-सजोग-सहव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया प्रमाद- पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च आउयं च लद्धिं वा पडुच्च लब्धिं वा प्रतीत्य वैक्रियशरीरप्रयोगनाम्नः वेउब्वियसरीरप्पयोगनामाए कम्म-स्स कर्मणः उदयेन वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः। उदएणं वेउब्विय-सरीरप्पयोग-बंधे।।
३८८. भंते! वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध के तीन हेतु हैं-१. वीर्यसयोग सद्रव्यता, २. प्रमाद, ३. कर्म योग, भव. आयुष्य और लब्धि सापेक्ष वैक्रिय शरीर प्रयोग नाम कर्म।
३८९. वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीर- वायुकायिक-एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग- प्पयोगपुच्छा।
पृच्छा। गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए एवं गौतम ! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया एवं चैव चेव जाव लद्धिं पडुच्च वाउ. यावत् लब्धिं प्रतीत्य वायुकायिकक्काइयएगिंदियवे उब्वियसरीरप्प. एकेन्द्रिय- वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः। योगबंधे॥
३८९. वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग के बंध की पृच्छा। गौतम! वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं-वीर्य सयोग सद्रव्यता यावत् लब्धि सापेक्ष वैक्रिय शरीर प्रयोग नाम कर्म।
३९०. रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदिय- रत्नप्रभापृथिवीनरयिकपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीर- ३९०. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक
वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! प्रयोगबन्धः भदन्त कस्य कर्मणः उढयेन? पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोग बंध किस कस्स कम्मस्स उदएणं?
कर्म के उदय से होता है? गोयमा! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सव्व्यतया यावत् । गौतम ! रत्नपप्रभा पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रिय जाव आउयं वा पडुच्च रयणप्पभा- आयुष्कं वा प्रतीत्य रत्नप्रभापृथिवीनैरयिक- वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु हैंपुढविनेरइयपंचिंदिय · वेउब्वियसरीर- पञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः, एवं वीर्य सयोग सद्रव्यता यावत् आयुष्य प्पयोगबंधे, एवं जाव अहेसत्तमाए।। यावत् अधःसप्तम्याः।
सापेक्ष वैक्रिय शरीर प्रयोग नाम कर्म। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता।
३९१. तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्विय- तिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरपृच्छा। ३९१. तिर्यक्योनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर सरीरपुच्छा ।
प्रयोग बंध की पृच्छा। गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया यथा- गौतम! तिर्यकयोनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय जहा वाउक्काइयाण। मणुस्सपंचिंदिय- वायुकायिकानाम्। मनुष्यपञ्चेन्द्रि-वैक्रिय।। शरीर प्रयोग बंध वीर्य सयोग सद्व्यता
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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ३९१-३९५ वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव। शरीरप्रयोगबन्धः एवं चैव। असुरकुमारअसुरकुमारभवणवासि - देवपंचिंदिय- भवनवासिदेवपञ्चेन्द्रिय-वैक्रियशरीरवेउब्वियसरीरप्पयोग-बंधे जहा रयण- प्रयोग-बन्धः यथा रत्नप्रभा-पृथिवीप्पभापुढविनेरइ-याणं। एवं जाव नैरयिकाणाम्। एवं यावत् स्तनित-कुमाराः। थणियकुमारा। एवं वाणमंतरा। एवं एवं वानमन्तराः। एवं ज्योतिष्काः। एवं जोइसिया। एवं सोहम्मकप्पोवया सोधर्म-कल्पोपकाः वैमानिकाः। एवं यावत् । वेमाणिया। एवं जाव अच्चुय- अच्युतग्रैवेयक-कल्पातीताः वैमानिकाः। गेवेज्जकप्पातीया वेमाणिया। अणुत्तरो- अनुत्तरोपपातिक-कल्पातीताः वैमानिकाः ववाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव। एवं चैव।
वायुकायिक की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार मनुष्यपंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग बंध की वक्तव्यता। असुरकुमार भवनवासी देव पंचेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग बंध रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् स्तनित-कुमार, वानव्यंतर और ज्योतिष्क की वक्तव्यता। इसी प्रकार सौधर्म कल्पोपपन्न वैमानिक यावत् अच्युत ग्रैवेयक कल्पातीत वैमानिक और अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक की वक्तव्यता।
३९२. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! किं किं देसबंधे? सव्वबंधे?
देशबन्धः ? सर्वबन्धः? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि। गौतम! देशबन्धोऽपि, सर्वबन्धोऽपि। वाउक्काइयएगिदिय - वेउब्वियसरीर- वायुकायिक-एकेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोगप्पयोगबंधे वि एवं चेव। रयणप्पभा- बन्धोऽपि एवं
चैव। पुढविनेरइया एवं चेव। एवं जाव रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकाः एवं चैव। एवं अणुत्तरोववाइया॥
यावत् अनुत्तरोपपातिकाः।
३९२. भंते! वैक्रियशरीरप्रयोग बंध क्या देश बंध है? सर्व बंध है? गौतम ! देश बंध भी है, सर्व बंध भी है। इसी प्रकार वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रियशरीरप्रयोग बंध की वक्तव्यता। इसी प्रकार रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक यावत् अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक की वक्तव्यता।
३९३. वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते। वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कालतः कालओ केवच्चिरं होइ?
कियच्चिरं भवति? गोयमा! सव्वबंधे जहण्णेणं एक्कं गौतम! सर्वबन्धः जघन्येन एकं समयम, समयं, उक्कोसेणं दो समया। देसबंधे। उत्कर्षेण द्वौ समयौ। देशबन्धः जघन्येन एक जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं समयम, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि तेत्तीसंसागरोवमाई समयूणाई॥ समयोनानि।
३९३. भंते ! वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध काल
की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! सर्वबंध जघन्यतः एक समय उत्कृष्टतः दो समय है। देशबंध जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तैतीस सागरोपम है।
३९४. वाउक्काइयएगिदियवेउब्विय- वायुकायिक-एकेन्द्रियवैक्रियपृच्छा। पुच्छा । गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं जघन्येन एकं समयम् उत्कर्षेण अन्तर्मुहूर्त्तम्। अंतोमुहुत्तं॥
३९४. वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के कालमान की पृच्छा।। गौतम! सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अंतर्मुहूर्त
३९५. रयणप्पभापुढविनेरइयपुच्छा।
रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकपृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे गौतम! सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जहण्णणं दसवाससहस्साई तिस- जघन्येन दशवर्षसहस्राणि त्रिसमयोनानि, मयूणाई, उक्कोसेणं सागरोवमं उत्कर्षेण सागरोपमं समयोनम्। एवं यावत् समयूणं। एवं जाव अहेसत्तमा, अधःसप्तमी, नवरं-देशबन्धः यस्य या नवरं-देसबंधे जस्स जा जहणिया ठिती जघन्यिका स्थितिः सा त्रिसमयोना कर्त्तव्या सा तिसमयूणा कायव्वा जाव यावत् उत्कर्षिता सा समयोना। पञ्चेन्द्रिय- उक्कोसिया सा समयूणा। पंचिं. तिर्यग्योनिकानां मनुष्यानां च यथा वायु- दियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य कायिकानाम्. असुरकुमार-नागकुमार
३९५. रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के कालमान की पृच्छा। गौतम! सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः तीन समय न्यून दस हजार वर्ष, उत्कृष्टतः एक समय न्यून सागरोपम है। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता, इतना विशेष है-देशबंध में जिसकी जो जघन्य स्थिति है, उसमें तीन समय न्यून कर देना चाहिए यावत् उत्कृष्टतः उसे एक समय न्यून कर देना
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भगवई
श.८: उ.९ : सू. ३९५-३९८
जहा बाउक्काइयाणं, असुरकुमार. यावत्अनुत्तरोपपातिकानां यथा नैरयिकानागकुमार जाव अणुत्तरोव-वाइयाणं णाम्, नवरं-यस्य या स्थितिः सा जहा नेरइयाणं, नवरं-जस्स जा ठिती सा भणितव्या यावत् अनुत्तरोपपातिकानां भाणियव्वा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सर्वबन्धः एकं समयं, देशबन्धः जघन्येन सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एकत्रिंशत् सागरोपमानि त्रिसमयोनानि, एक्कतीसं सागरोवमाई तिसमयूणाई, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमानि उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयोनानि। समयूणाई॥
चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यकयोनिक और मनुष्यों की वायुकायिक की भांति वक्तव्यता। असुरकुमार, नागकुमार यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों की नैरयिक की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसकी जो स्थिति है, वह वक्तव्य है यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों के सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः तीन समय न्यून इकत्तीस सागरोपम, उत्कृष्टतः एक समय न्यून तैतीस सागरोपम है।
भदन्त!
३९६. वेउव्वियसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिर होइ?
वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं भवति?
३९६. भंते ! वैक्रिय शरीर प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन एकं समयं, उक्कोसेणं अणंतं कालं- समयम्. उत्कर्षेण अनन्तं कालम्अणंताओ ओसप्पिणीओ उस्स- अनन्ताः अवस-र्पिणीः उत्सर्पिणीः प्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता कालतः, क्षेत्रतः-अनन्ताः लोकाःलोगा-असंखेज्जा पोग्गल-परियट्टा, ते असंख्येयाः पुगल परिवर्ताः, ते पुगलणं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए परिवर्ताः आवलिकायाः असंख्येयतमः असंखेज्जइभागो। एवं देसबंधंतरं पि॥ भागः। एवं देशबन्धान्तरमपि।
गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः अनंतकाल-अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा अनंत लोक-असंख्येय पुद्गल परिवर्त, वे पुद्गल परिवर्त आवलिका के असंख्यातवें भाग जितने हैं। इसी प्रकार देश बंध के अंतर की वक्तव्यता।
३९७. वाउक्काइयवेउब्वियसरीर-पुच्छा।
वायुकायिकवैक्रियशरीरपृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तअंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवम-स्स मुंहतम, उत्कर्षेण पल्योपमस्य असंख्येयअसंखेज्जइभागं। एवं देस-बंधंतरं पि॥ तमः भागः। एवं देशबन्धान्तरमति।
३९७. 'वायुकायिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गौतम! सर्व बंध का अंतर जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार देश बंध के अंतर की वक्तव्यता।
भाष्य
१.सूत्र ३९७
वायुकाय का मूल शरीर औदारिक होता है। उसमें वैक्रिय शरीर का निर्माण करने की शक्ति भी होती है। उसने वैक्रिय शरीर का निर्माण किया। वह प्रथम समय में सर्वबंध होकर मरा। पुनः वायुकायिक में उत्पन्न हुआ। अपर्याप्त अवस्था में वैक्रिय शक्ति प्रकट नहीं होती। वह अन्तर्मुहूर्त के बाद पर्याप्तक होकर वैक्रिय शरीर का निर्माण करता है। वैक्रिय शरीर निर्माण के प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का जघन्य अंतर काल
अंतर्मुहूर्त है।
कोई वायुकायिक वैक्रिय शक्ति को प्राप्त कर प्रथम समय में सर्वबंधक हुआ। द्वितीय समय में देशबंधक होकर मरा। उससे आगे
औदारिक शरीरी वायुकाय में पल्योपम के असंख्येय भाग को बिताकर अवश्य वैक्रिय करता है। उसके प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल पल्योपम असंख्येय भाग होता है।
३९८. तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्विय- तिर्यगयोनिकपञ्चेन्द्रियवैक्रियशरीरप्रयोग- ३९८. 'तिर्यकयोनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय सरीरप्पयोगबंधंतरं-पुच्छा। बन्धान्तरम्-पृच्छा।
शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तर्मुहर्तम् गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडीपुहत्तं। उत्कर्षेण पूर्वकोटि पृथक्त्वम्। एवं देश- अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व पूर्व कोटि है।
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श.८ : उ. ९ : सू. ३९८-४००
भगवई एवं देसबंधंतरं पि। एवं मणसस्स वि॥ बन्धान्तरमपि। एवं मनुष्यस्यापि।
इसी प्रकार देशबंध के अंतर की वक्तव्यता। इसी प्रकार मनुष्य वैक्रिय
शरीर प्रयोग बंध के अंतर की वक्तव्यता!
भाष्य १.सूत्र ३९८
तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव वैक्रिय कर प्रथम समय में सर्वबंधक बना। दूसरे सर्वबंध का जघन्य अंतर काल-कोई तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव समय में देशबंधक होकर कालान्तर में मरा। वह पूर्व कोटि आयु वाले वैक्रिय कर प्रथम समय में सर्वबंधक बना। अंतर्मुहर्त्त तक देश बंधक तिर्यंच पंचेन्द्रिय में ही उत्पन्न हुआ। वहां उसने पूर्व जन्म सहित पूर्व रहकर पुनः औदारिक शरीर में सर्वबंधक बना अंतर्मुहर्त्त तक देश कोटि आयु वाले सात-आठ भव किए। सातवें या आठवें भव में वैक्रिय बंधक रहा। फिर उसके मन में वैक्रिय करने की श्रद्धा उत्पन्न हुई। शरीर का निर्माण किया। वहां प्रथम समय में सर्वबंध करता है। इस पुनः वैक्रिय शरीर का निर्माण करता हुआ वह प्रथम समय में प्रकार सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल प्रत्येक पूर्व कोटि होता है। सर्वबंधक होता है। इस प्रकार सर्वबंधक का जघन्य अंतर काल देशबंध का अंतर काल सर्वबंध की भांति वक्तव्य है। मनुष्य पंचेन्द्रिय अंतर्मुहूर्त होता है।
वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध का अंतर काल तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर सर्वबंध का उत्कृष्ट अंतर काल-पूर्व कोटि आयु वाला कोई प्रयोग बंध के अंतर काल की भांति वक्तव्य है।' ३९९. जीवस्स णं भंते! वाउक्का-इयत्ते, जीवस्य भदन्त! वायुकायिकत्वे, नोवायु- ३९९. भंते! वायुकायिक जीव नो नोवाउकाइयत्ते, पुणरवि वाउकाइयत्ते कायिकत्वे, पुनरपि वायुकायिकत्वे वायु- वायुकायिक में जन्म लेकर पुनः वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियपुच्छा। कायिकएकेन्द्रियवैक्रियपृच्छा।
वायुकायिक में जन्म लेता है। उस अवस्था में वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय
शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गोयमा! सव्वबंधतरं जहणणेणं गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्त- गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं- मुंहतम्, उत्कर्षेण अनन्तं कालं-वनस्पति- अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पति वणस्सइकालो। एवं देस-बंधंतरं पि॥ कालः। एवं देशबंधान्तरमपि।
काल है। इसी प्रकार देशबंध के अंतर की वक्तव्यता
४००. जीवस्स णं भंते! रयणप्पभा- जीवस्य भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकत्वे, ४००. भंते ! जीव रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक से पुढविनेरइयत्ते, नोरयणप्पभापुढवि. नोरत्नप्रभापृथिवीनरयिकत्वे, पुनरपि रत्न- नोरत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक में जन्म लेकर नेरइयत्ते, पुणरवि रयणप्पभापुढवि. प्रभापृथिवीनैरयिकत्वे पृच्छा।
पुनः रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक में जन्म लेता नेरइयत्ते-पुच्छा।
है। उस अवस्था में रत्नप्रभा पृी नैरयिक वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के अंतर
की पृच्छा। गोयमा' सव्वबंधंतरंजहण्णेणं दसवास- गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन दशवर्ष- गौतम ! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः सहस्साइं अंतोमुहत्तमब्भ-हियाई, सहस्राणि अन्तर्मुहूर्ताभ्यधिकानि, उत्कर्षेण अन्तर्मुहर्त अभ्यधिक दस हजार वर्ष, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। देसबंधंतरं वनस्पतिकालः। देशबन्धान्तरं जघन्येन उत्कृष्टतः वनस्पति काल है। देश बंध का जहण्णेणं अंतोमुहृत्तं, उक्कोसेणं अणतं अन्तर्मुहर्तम्. उत्कर्षेण अनन्तं कालं- अंतर जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः कालं-वणस्सइ-कालो। एवं जाव वनस्पतिकालः। एवं यावत् अधःसप्तमम्याः, अनंतकाल-वनस्पति काल है। इसी अहेसत्तमाए, नवरं-जा जस्स ठिती नवरं-या यस्य स्थितिः जयन्यिका सा प्रकार यावत् अधःसप्तमी की वक्तव्यता, जहणिया सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तर्मुहर्ताभ्यधिका इतना विशेष है-जिसकी जो जघन्य अंतोमहत्त-मब्भहिया कायव्वा, सेसं तं कर्त्तव्या, शेषं तच्चैव। पञ्चेन्द्रियतिर्यग- स्थिति है, उसमें सर्वबंध का अंतर चेव। पंचिंदियतिरिक्खजोणिय- योनिकमनुष्याणां च यथा वायु-कायिका- जघन्यतः अंतर्मुहूर्त अभ्यधिक कर देना मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं। नाम्।असुरकुमार-नागकुमार यावत् चाहिए, शेष उसी प्रकार वक्तव्य है। असुरकुमार-नागकुमार जाव सहस्सार- सहस्रारदेवानाम्-एतेषां यथा रत्नप्रभा- पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक और मनुष्य देवाणं-एएसिं जहा रयणप्पभा-पुढवि. पृथिवीनैरयिकाणाम्, नवरं--सर्वबन्धान्तरं वायुकायिक की भांति वक्तव्य हैं। नेरझ्याणं, नवरं-सव्वबंधंतरं जस्स जा यस्य या स्थितिः जघन्यिका सा अन्त- असुरकुमार, नागकुमार यावत् सहस्रार
१. म. वृ.८.३०.८।
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भगवई
श.८ : उ.९: सू. ४००-४०४
ठिती जहणिया सा अंतोमुत्तमब्भ- महाभ्यधिका कर्त्तव्या, शेषं तच्चैव। हिया कायव्वा, सेसं तं चेव॥
देव ये रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है-सर्व बंध के अंतर की जिसकी जो जघन्य स्थिति है, उसमें अंतर्मुहूर्त अभ्यधिक कर देना चाहिए शेष उसी प्रकार वक्तव्य है।
४०१. जीवस्स णं भंते! आणय-देवत्ते, नोआणयदेवत्ते, पुणरवि आणयदेवत्ते पुच्छा ।
जीवस्य भदन्त! आनतदेवत्वे. नो आनतदेवत्वे. पुनरपि आनतदेवत्वे पृच्छा।
गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अट्ठारस गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अष्टादश सागरोवमाई वासपुहत्त-मब्भहियाई, सागरोपमानि वर्षपृथक्त्वाभ्यधिकानि, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइ. उत्कर्षेण अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। एवं कालो। एवं जाव अच्चुए, नवरं-जस्स यावत् अच्युतः, नवरं--यस्य या स्थितिः सा जा ठिती सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं सर्वबन्धान्तरं जघन्येन वर्षपृथक्त्वावासपुहत्त-मन्भहिया कायव्वा, सेसं तं भ्यधिका कर्त्तव्या, शेषं तच्चैव। चेव॥
४०१. भंते! जीव आनतदेव से नो आनतदेव में जन्म लेकर पुनः आनतदेव में जन्म लेता है। उस अवस्था में आनतदेव वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध के अंतर की पृच्छा। गौतम ! सर्व बंध का अंतर जघन्यतः पृथक्त्व वर्ष अभ्यधिक अठारह सागरोपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पति काल हैं। इसी प्रकार यावत अच्युत की वक्तव्यता, इतना विशेष है-जिसकी जो स्थिति है, उसमें सर्वबंध का अंतर जघन्यतः पृथक्त्व वर्ष अभ्यधिक कर देना चाहिए, शेष उसी प्रकार वक्तव्य है।
४०२. गेवेज्जाकप्पातीतापुच्छा। ग्रैवेयककल्पातीतकपृच्छा। गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं बावीसं गौतम ! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोवमाई वासपुहत्त-मब्भहियाई, सागरोपमानि वर्षपृथक्त्वाभ्यधिकानि, उक्कोसेणं अणंतं काल-वणस्सइ. उत्कर्षेण अनन्तं कालं-वनस्पतिकालः। कालो। देसबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, देशबन्धान्तरं जघन्येन वर्षपृथक्त्वम्, उक्कोसेणं वणस्सइकालो।
उत्कर्षेण वनस्पतिकालः।
४०२. ग्रैवेयक कल्पातीत की पृच्छा। गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः पृथक्त्व वर्ष अभ्यधिक बाईस सागरोपम, उत्कृष्टतः अनंतकाल-वनस्पति काल है। देश बंध का अंतर जघन्यतः पृथक्त्व वर्ष, उत्कृष्टतः वनस्पति काल है।
४०३. जीवस्स णं भंते! अणुत्तरो- जीवस्य भदन्त ! अनुत्नरोपपातिकपृच्छा।। ४०३. भंते! अनुत्तरोपपातिक जीव की ववाइयपुच्छा। गोयमा! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं गौतम ! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन एकत्रिंशत- गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः एक्कतीसं सागरोवमाइं वासपुहत्त- सागरोपमानि वर्षपृथक्त्वाभ्यधिकानि, पृथक्त्व वर्ष अभ्यधिक इकास
उत्कर्षेण संख्येयानि सागरोपमाणि सागरोपम, उत्कृष्टतः संख्येय सागरोपम सागरोवमाई। देसबंधंतरं जहण्णेणं देशबन्धान्तरं जघन्येन वर्षपृथक्त्वम्, है। देशबंध का अंतर जघन्यतः पृथक्त्व वासपुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्जाइं उत्कर्षेण संख्येयानि सागरोपमाणि। वर्ष, उत्कृष्टतः संख्येय सागरोपम है। सागरोवमाई॥
भाष्य १.सूत्र ४०३
संसरण नहीं करता इसलिए सर्वबंध और देशबंध का अंतरकाल अनुत्तर विमान देव से च्युत जीव अनंत काल तक संसार में संख्यात सागरोपम होता है।'
४०४. एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्विय- एतेषां भदन्त! जीवानां वैक्रियशरीरस्य सरीरस्स देसबंधगाणं, सव्वबंधगाणं, देशबन्धकानाम् सर्वबन्धकानाम्, अबन्ध- अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा कानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? वा? बहया वा? तुल्ला वा? बहुकाः वा ? तुल्याः वा? विसेसाहिया वा?
४०४. भंते ! इन वैक्रिय शरीर के देशबंधक,
सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बह, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
१. भ. वृ.८/४०४
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१५६
श.८ : उ.९ : सू. ४०४-४०९
भगवई गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा वेउब्विय- गौतम ! विशेषाधिकाः वा? सर्वस्तोकाः गौतम! वैक्रिय शरीर के सर्वबंधक जीव सरीरस्स सव्वबंधगा, देसबंधगा जीवाः वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धकाः, देश- सबसे अल्प है, देशबंधक असंख्येय गुण असंखेज्जगुणा, अबंधगा अणंतगुणा। बन्धकाः असंख्येयगुणाः, अबन्धकाः हैं, अबंधक अनंत गुण हैं।
अनन्तगुणाः।
भाष्य १.सूत्र ४०४
देशबंधक सर्वबंधक की अपेक्षा असंख्येय गुण अधिक है। सिद्ध और काल की अल्पता के कारण वैक्रिय शरीर के सर्वबंधक अल्प वनस्पति आदि की अपेक्षा से अबंधक देशबंधक से अनंत गुण हैं। सर्वबंध की अपेक्षा देशबंध का काल असंख्यात गुण है इसलिए अधिक हैं।' आहारगसरीरप्पयोगं पडुच्चआहारकशरीरप्रयोगं प्रतीत्य
आहारक शरीर प्रयोग की अपेक्षा ४०५. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ४०५. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध कतिविहे पण्णत्ते? कतिविधः प्रज्ञप्तः?
कितने प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गोयमा! एगागारे पण्णत्ते॥ गौतम! एकाकारः प्रज्ञप्तः।
गौतम! आहारक शरीरप्रयोग बंध एक आकार का प्रज्ञाप्त है।
४०६. जइ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्सा- यदि एकाकारः प्रज्ञप्तः किं मनुष्याहारकहारगसरीरप्पयोगबंधे? अमणुस्सा- शरीर-प्रयोगबन्धः? अमनुष्याहारकशरीरहारगसरीरप्पयोगबंधे?
प्रयोगबन्धः। गोयमा! मणुस्साहारगसरीरप्प- गोयमा ! मनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः, नो योगबंधे, नो अमणुस्साहारगसरीर- अमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः। एवम् प्पयोगबंधे। एवं एएणं अभिलावेणं जहा एतेन अभिलापेन यथा अवगाहना-संस्थाने
ओगाहणसंठाणे जाव इड्वि-पत्तपमत्त- यावत् ऋद्धिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिसंजयसम्मदिट्ठिपज्जत्तसंखेज्ज- वासा- पर्याप्तसंख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमकगर्भाव- उयकम्मभूमागब्भवक्कंतिय- मणुस्सा- क्रान्ति-कमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः, हारगसरीरप्पयोगबंधे, नो अणिति नो अनृन्द्रिप्राप्तप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्टि - पज्जत्त- पर्याप्त-संख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमकगर्भावसंखेज्जवासाउयकम्म . मागब्भ- क्रान्तिकमनुष्याहारकशरीरप्रयोगबन्धः। वक्कंतियमणुस्साहारग- सरीरप्पयोगबंधे॥
४०६.यदि एक आकार का प्रज्ञप्त है तो क्या मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है? अमनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है? गौतम ! वह मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है, अमनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है। इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार अवगाहन संस्थान नामक प्रज्ञापना पद यावत् ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत सम्यक् दृष्टि, पर्याप्सक, संख्येयवर्षायुष्क, कर्मभूमिकगर्भावक्रांतिक मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध है, ऋद्धि रहित प्रमत्त संयत सम्यकदृष्टि, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क कर्म भूमिक गर्भावक्रांतिक मनुष्य आहारक शरीर प्रयोग बंध नहीं है।
४०७. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! कस्य कस्स कम्मस्स उदएणं?
कर्मणः उदयेन? गोयमा! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए गौतम! वीर्य-सयोग-सद्व्यतया प्रमादपमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च । प्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं च आउयं च लद्धिं वा पडुच्च आहा- लब्धिं वा प्रतीत्य आहारकशरीरप्रयोगरगसरीरप्पायोगनामाए कम्मस्स नाम्नः कर्मणः उदयेन आहरकशरीरप्रयोगउदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे।
बन्धः ।
४०७. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम ! आहारक शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं- १. वीर्य सयोग सद्व्यता, २. प्रमाद ३. कर्म, योग. भव, आयुष्य और लब्धि सापेक्ष आहारक शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
४०८. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे ? सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि॥
आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! किं देशबन्धः? सर्वबन्धः? गौतम ! देशबन्धोऽपि. सर्वबन्धोऽपि।
४०८. 'भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध
क्या देशबंध है ? सर्वबंध है ? गौतम! देशबंध भी है सर्वबंध भी है।
४०९. आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते!
आहारकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कालतः
४०९. भंते! आहारक शरीर प्रयोग बंध
१. भ. वृ.८.४०४
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________________
भगवई
कालओ केवच्चिरं होइ ? गोमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसे व अंतोमुहुत्तं ॥
४१०. आहारगसरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ?
गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहणणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं - अणताओ ओसप्पिणीओ उस्सप्पिओकालओ, खेत्तओ अणंता लोगाअवडपोग्गलपरियट्टं देसूणं । एवं देसबंधंतरं पि ॥
४११. एएसि णं भंते! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं, सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा ? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा ?
गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्वबंधगा, देसबंधगा संखेज्जगुणा, अबंधगा अनंत गुणा ।।
तेयासरीरप्पयोगं पडुच्च
४१२. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहाएगिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे, बेइंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे जाव पंचिंदिय तेयासरीरप्पयोगबंधे ॥
४१३. एगिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
एवं एएणं अभिलावेण भेदो जहा ओगाहणसंठाणे जाव पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय - कप्पातीतवेमाणिय
१. भ. वृ. ८/४०८-४१०।
१५७
कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सर्वबन्धः एकं समयं देशबन्धः, जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम्, उत्कर्षेणापि अन्तमुहूर्त्तम् ।
१. सूत्र ४०८-४११
आहारक शरीर की जघन्य और उत्कृष्ट अवधि अंतर्मुहूर्त है। आहारक शरीर का निर्माण करने वाला जीव प्रथम समय में सर्वबंधक
आहारकशरीरप्रयोगबन्धान्तरं कालतः कियच्चिरं भवति ?
भदन्त !
गौतम! सर्वबन्धान्तरं जघन्येन अन्तमुहूर्तम् उत्कर्षेण अनन्तं कालम् अनन्ताः अवसर्पिणीः उत्सर्पिणीः कालतः, क्षेत्रतः अनन्ताः लोकाः- अपार्धपुद्गलपरिवर्त देशोनम् । एवं देशबन्धान्तरमपि ।
एतेषां भदन्त ! जीवानाम् आहारक- शरीरस्य देशबन्धकानां सर्वबन्धकानाम्, अबन्धकानां च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाधिकाः
वा ?
गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः आहारकशरीरस्य सर्वबन्धकाः, देशबन्धकाः संख्येयगुणाः, अबन्धकाः अनन्तगुणाः ।
भाष्य
तैजसशरीरप्रयोगं प्रतीत्यतैजसशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञसः ?
गौतम! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाएकेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्धः, द्वीन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्धः यावत् पञ्चेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्धः ।
एकेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
एवम् एतेन अभिलापेन भेदः यथा अवगाहनासंस्थाने यावत् पर्याप्तसर्वार्थसिद्धअनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिक
श. ८ : उ. ९ : सू. ४०९-४१३ काल की अपेक्षा कितने काल का है ? गौतम! सर्वबंध एक समय, देशबंध जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त्त, उत्कृष्टतः भी अंत -
है।
४१०. भंते! आहारक शरीर प्रयोग के बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है ? गौतम! सर्वबंध का अंतर जघन्यतः अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः अनंत काल - अनंत अवसर्पिणी उत्सर्पिणी काल की अपेक्षा, क्षेत्र की अपेक्षा अनंत लोक-देशोन अपार्ध पुल परिवर्त। इसी प्रकार देशबंध के अंतर की वक्तव्यता ।
और उत्तरकाल में देश बंधक होता है। अंतर्मुहूर्त पश्चात् उसे अवश्य औदारिक शरीर में आना होता है, इसलिए देश बंध का जघन्य और उत्कृष्ट अंतर काल अन्तर्मुहूर्त होता है। '
४११. भंते! इन आहारक शरीर के देश बंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है ?
गौतम! आहारक शरीर के सर्वबंधक जीव सबसे अल्प हैं, देशबंधक संख्येय गुण हैं, अबंधक अनंतगुण हैं।
तैजस शरीर प्रयोग की अपेक्षा४१२. भंते! तैजस शरीर प्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम! तैजस शरीर प्रयोग बंध पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- एकेन्द्रिय तैजस शरीरप्रयोग बंध, द्वीन्द्रिय तैजस शरीर प्रयोग बंध यावत् पंचेन्द्रिय तैजस शरीर प्रयोग बंध |
४१३. भंते! एकेन्द्रिय तैजसशरीर प्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ? इस प्रकार इस अभिलाप के अनुसार एकेन्द्रिय तैजस शरीर प्रयोग बंध के भेद प्रज्ञापना के अवगाहन संस्थान पद की
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श. ८ : उ. ९ : सू. ४१३-४१५
य,
देवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे अपज्जत्तासव्ववसिद्ध अणुत्तरोववाइयकप्पातीत वेमाणियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्प-योगबंधेय ॥
४१४. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं ?
गोयमा ! वीरिय- सजोग - सद्दव्वयाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च
आउयं वा पडुच्च तेयासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पयोगबंधे ॥
४१५. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे ? सव्वबंधे ?
गोयमा ! देसबंधे, नो सव्वबंधे ॥
समुच्चय
औदारिक शरीर-प्रयोग
बंध
एकेन्द्रिय शरीर प्रयोग
बंध
पृथ्वी औदारिक शरीर प्रयोग
बंध
अप, तैजस
वनस्पति, द्वीन्द्रिय त्रिन्द्रिय, चतुरि न्द्रिय, औदारिक शरीर प्रयोग बंध
एक समय-द्रष्टव्य | सूत्र ३७६-३७८ का भाष्य
33
१. सूत्र ४१५
और कर्म शरीर अनादि हैं। नए जन्म के साथ इनकी रचना नहीं शरीर रचना के प्रथम समय में जब सर्व पर्याप्तियों के लिए होती इसलिए इनका सर्वबंध नहीं होता, केवल देशबंध ही होता पुद्गलों का ग्रहण किया जाता है, उस समय सर्वबंध होता है। तैजस है।' द्रष्टव्य यंत्रऔदारिक, वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध की स्थिति एवं अंतर काल का यंत्र
बंध स्थिति
शरीर प्रयोग बंध सर्वबंध स्थिति
1:
देवपञ्चेन्द्रियतैजस शरीरप्रयोगबन्धश्च, अपर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिककल्पातीतवैमानिकदेवपञ्चेन्द्रियतैजसशरीरप्रयोगबन्धश्च ।
तैजसशरीरप्रयोगबन्धः कर्मणः उदयेन ? गौतम ! वीर्य सयोग सद्द्रव्यतया प्रमादप्रत्ययात् कर्म च योगं च भवं च आयुष्कं वा प्रतीत्य तैजसशरीरप्रयोगबन्धः ।
देश बंध स्थिति
जघन्य
एक समय-द्रष्टव्य सूत्र ३६७-३६८ का भाष्य
31
तैजसशरीरप्रयोगबन्धः भदन्तः ! किं देशबन्धः ? सर्वबन्धः ?
गौतम ! देशबन्धः, नो सर्वबन्धः ।
भाष्य
तीन समय कम | क्षुल्लक भवद्रष्टव्य सूत्र ३७९३८१ का भाष्य
१५८
11
-
33
31
भदन्त ! कस्य
75
एक समय कम द्रष्टव्य सूत्र ३७६-३७८ का भाष्य
एक समय कम जिसकी जितनी
| उत्कृष्ट स्थिति हैजैसे अपकाय की उत्कृष्ट स्थिति
| सात हजार वर्ष है।
१. भ. बृ. ८/४१५- तेजसशरीरस्यानादित्वान्न सर्वबंधोस्ति तस्य प्रथमतः पदलोपादानरूपत्वादिति ।
31
जघन्य
सर्वबंध का अंतर उत्कृष्ट एक समय तीन पल्ल्योपम
देशबंध का अंतर उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट तीन समय एक समयाधिक एक समय तीन समयाकम क्षुल्लक सागर पूर्वकोटि द्रष्टव्य सूत्र धिक ३३ सागर भव द्रष्टव्य और ३३ सागर- ३७९-३८१ द्रष्टव्य सूत्र सूत्र ३७९का भाष्य ३७९-३८१ ३८१ का भाष्य।
द्रष्टव्य सूत्र ३७६-३७८ का भाष्य ।
द्रष्टव्य सूत्र ३७९-३८१ का भाष्य
भाष्य ।
एक समयाधिक द्रष्टव्य सूत्र
| ३७९-३८१ का
भाष्य
33 13
23
भगवई
भांति वक्तव्य है यावत् पर्याप्तक सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक, कल्पातीत वैमानिक देव-पंचेन्द्रिय तेजस शरीर प्रयोग बंध। अपर्यासक सर्वार्थसिद्धअनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेन्द्रिय तैजस शरीर प्रयोग बंध।
22
४१४. भंते! तैजस शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ?
गौतम ! तैजस शरीर प्रयोग बंध के तीन हेतु हैं - १. वीर्य सयोग सद्द्रव्यता २. प्रमाद ३. कर्म, योग, भव और आयुष्य सापेक्ष तैजस शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय ।
४१५. भंते! तैजस शरीर प्रयोग बंध क्या देश बंध है ? सर्व बंध है ?
गौतम ! देशबंध है, सर्वबंध नहीं है ?
13
अंतरकाल
एक समयाधिक | जिसकी जितनी उत्कृष्ट है।
33
11
"
१९
31
33
अन्तर्मुहूर्त३७९-३८१ का भाष्य |
तीन समय
द्रष्टव्य सूत्र
३७१ का भाष्य ।
11
33 35
11
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भगवई
श. ८ : उ.९ : सू. ४१५ वायु काय एक समय- एक समय कम
एक समयाधिका
अतमहतंऔदारिक द्रष्टव्य सूत्र तीन हजार वर्ष।
तीन हजार वर्ष।
द्रष्टव्य सूत्र शरीर-प्रयोग बंध ३७६ का भाष्य।
३७९-३८१
का भाष्य। तिर्यंच मनुष्य
एक समय कम
पूर्वकोटि एक
अंतर्मुहूर्तऔदारिक शरीर
तीन पल्योपम
समयाधिक।
द्रष्टव्य सूत्र प्रयोग बंध
द्रष्टव्य ३७६. तिर्यंच पंचेन्द्रिय
३७९-३८१ ३७८ का भाष्य। मरकर वापस
का भाष्य अन्तर रहित तिर्यंच पंचंन्द्रिय में जन्में इसलिए पूर्वकोटि एक
समयाधिक। समुच्चय वैकिय- जघन्य-एक एक समय- | एक समय एक समय-| अनन्त वनस्पति | एक समय | अनन्त वनस्पति शरीर प्रयोग बंध समय। उत्कृष्ट-२ औदारिक शरीरी |कम ३३ सागर
काल-वनस्पति
काल द्रष्टव्य समय। वैक्रिय जीव वैक्रिय शरीर नरक या देवों में
काय की काय
अनयोगद्वार शरीरी जीवों में | करते हुए प्रथम उत्पद्यमान जीव
स्थिति अनंत
सूत्र ६१६ का उत्पन्न होता है। | समय में सर्वबंध | प्रथम समय में
काल की हैं।
का भाष्य। हुआ प्रथम समय | तथा दूसरे समय | सर्वबंधक होकर
द्रष्टव्य अनुयोगमें सर्व बंधक में देश बंधक। |शेष समय में
द्वार ६१६ का होता है। होकर तुरन्त मर | देश बंधक ही
भाष्य। यदि औदारिक | जाए तो देश बंध | होता है। शरीर वाला जघन्य एक समय वैक्रिय रूप बनते | का। समय मरकर देव या नरक में उत्पन्न होता है तो वह प्रथम समय मेंसर्व बंध करता है इसलिए जघन्य एक समय उत्कृष्ट-२
समय। तिर्यच पंचेन्द्रिय एक समय- एक समय- अंतर्मुहर्न । अन्तर्मुहूर्त | प्रत्येक पूर्ण-कोटि अन्तर्मुहूर्त | प्रत्येक पूर्वकोटि मनुष्य वैक्रिय तिर्यंच पंचेन्द्रिय | वैक्रिय का निर्माण | द्रष्टव्य सूत्र | द्रष्टव्य सूत्र द्रष्टव्य सूत्र | द्रष्टव्य द्रष्टव्य सूत्र शरीर प्रयोग बंध वैक्रिय के प्रथम | करते समय |३७९-३८१ ३७९-३८१ | ३६८ का भाष्य। सूत्र ३६८ ३६८ का भाष्य। समय में सर्वबंध | दूसरे बंधक समय का भाष्य। | का भाष्य।
का भाष्य करके मृत्यु को | में देश होकर ।
प्राप्त होता है । मृत्यु हो जाती है। वायू वैक्रिय शरीर जघन्य-एक
पल्यापम का
पल्यापम का प्रयोग बंध समय ऊपरवत
असंख्यातवां
असंख्यातवां रत्नप्रभा वैक्रिय
भाग
भाग शरीर प्रयोग बंध
तीन समय कम | एक समय कम शेष छहनरक और ..
१० हजार वर्ष | एक सागर १० भवनपति,
तीन समय कम एक समय कम व्यंतर, ज्योतिष, ...
जिसकी जितनी | जिसकी जितनी वैमानिक देव वैक्रिय
स्थिति है उतनी स्थिति है उतनी शरीर प्रयोग बंध
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श. ८ : उ.९ : सू. ४१६-४२०
भगवई
४१६. तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कालओ केविच्चरं होइ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- अणादीए वा अपज्जवसिए, अणा-दीए वा सपज्जवसिए॥
तैजसशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! कालतः ४१६. भंते! तैजस शरीर प्रयोग बंध काल कियच्चिरं भवति?
की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- गौतम ! तैजस शरीर प्रयोग बंध काल की अनादिकः वा अपर्यवसितः, अनादिकः वा अपेक्षा दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेसपर्यवसितः।
अनादिक अपर्यवसित, अनादिक सपर्यवसित।
४१७. तेयासरीरप्पयोगबंधंतरं णं भंते! तैजसशरीरप्रयोगबन्धान्तरं भदन्तकालतः ४१७. भंते! तैजस शरीर प्रयोग बंध का कालओ केवच्चिरं होइ? कियच्चिरं भवति?
अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का
गोयमा! अणादीयस्स अपज्ज- गौतम ! अनादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्ति वसियस्स नत्थि अंतरं, अणादी-यस्स। अन्तरम, अनादिकस्य सपर्यवसितस्य सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं॥ नास्ति अन्तरम।
गौतम! अनादिक अपर्यवसित में अंतर नहीं है, अनादिक सपर्यवस्मित में अंतर नहीं
४१८. भंते! इन तैजस शरीर के देशबंधक
और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
४१८. एएसि णं भंते! जीवाणं तेया- एतेषां भदन्त! जीवानां तैजसशरीरस्य
सरीरस्स देसबंधगाणं, अबंधगाण य देशबन्धकानाम्. अबन्धकानां च कतरे कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? कतरेभ्यः अल्पाः वा ? बहुकाः वा? तुल्याः तुल्ला वा ? विसेसा-हिया वा? वा. विशेषाधिकाः वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा तेया- गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः तैजसशरीरस्य सरीरस्स अबंधगा, देसबंधगा अबन्धकाः, देशबन्धकाः अनन्तगुणाः। अणंतगुणा॥
गौतम! तैजस शरीर के अबंधक जीव सबसे अल्प हैं, देशबंधक अनंतगुण हैं।
कम्मासरीरप्पयोगं पड़च्च
कर्मकशरीरप्रयोगं पडुच्च४१९. कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कतिविधः कतिविहे पण्णत्ते?
प्रज्ञप्तः? गोयमा! अट्ठविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम ! अष्टविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-ज्ञानानाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोग-बंधे वरणीयकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः यावत् जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे। आन्तरायिककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः।
कर्म शरीर प्रयोग की अपेक्षा ४१९. 'भंते ! कर्म शरीर प्रयोग बंध कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम ! कर्म शरीर प्रयोग बंध आठ प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध यावत् आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध।
४२०. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्प- ज्ञानावरणीयकर्मक . शरीरप्रयोगबन्धः ४२०. भंते ! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग योगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है ? उदएणं? गोयमा! नाणपडिणीययाए, नाण- गौतम! ज्ञानप्रत्यनीकतया, ज्ञाननिह्नवनेन, गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग णिण्हवणयाए, नाणंतराएण, नाण- ज्ञानान्तरायण, ज्ञानप्रदोषेण, ज्ञानात्या- बंध के सात हेतु हैं-ज्ञान का विरोध अथवा प्पदोसेणं,नाणच्चासातणयाए,नाण. शातनया, ज्ञानविसंवादनायोगेन ज्ञाना- प्रतिकूल आचरण, ज्ञान का अपलाप, ज्ञान विसंवादणाजोगेणं नाणावरणिज्ज- वरणीयकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः के ग्रहण में विघ्न उपस्थित करना, ज्ञान के कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदयेन ज्ञानावरणीयकर्मकशरीरप्रयोग- प्रति अप्रीति रखना, ज्ञान की अवहेलना उदएणं नाणावरणिज्जकम्मासरीर- बन्धः।
करना, ज्ञान में विसंवाद दिखलाना, प्पयोगबंधे॥
ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग नामकर्म
का उदय।
For Private & Personal use only
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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ४२१,४२२
भाष्य १.सूत्र ४१९.४२०
में पूज्यपाद ने ज्ञान प्रदोष का अर्थ विशिष्ट किया है। किसी के द्वारा कर्मबंध का हेतु है-आस्रव। उसके पांच प्रकार हैं-मिथ्यात्व, तत्त्वज्ञान के महत्त्व का प्रतिपादन करने पर मौन रहना अंतः-पैशुन्य अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । प्रस्तुत आलापक में आश्रवजनित का परिणाम है, वह प्रदोष है। प्रवृत्तियों का बाह्य हेतु के रूप में और कर्म के उदय का अंतरंग हेतु के ज्ञान अत्याशातना-श्रुत अथवा श्रुतवान् की अवहेलना रूप में विधान किया गया है।
करना। सर्वार्थसिद्धि के अनुसार ज्ञानाशातना का अर्थ है-दूसरा कोई ज्ञानावरणीय कर्म शरीर निर्माण के दो हेतु हैं-बाह्य और ज्ञान का प्रकाश कर रहा है, उस समय वचन और काया से उसका अंतरंग। बाह्य हेतु ज्ञान प्रत्यनीकता आदि छह बतलाए गए हैं। निषेध करना आशातना है। उसका अंतरंग हेतु ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग नामक कर्म का ज्ञान-विसंवादना-श्रुत और श्रुतवान् के प्रति विसंवाद दिखाने उदय है। कर्म के परमाणु-स्कंधों से कर्म शरीर की रचना होती है। का प्रयत्न करना, उनकी निश्चायकता में प्रश्नचिह्न उपस्थित कर्म की अनेक प्रवृत्तियां हैं-कर्म शरीर में उन सब प्रकृतियों के करना। प्रकोष्ठ बन जाते हैं। अतीत में निर्मित कर्म शरीर सक्रिय होता है तब उमास्वाति ने ज्ञानावरण और दर्शनावरण के छह आस्रव नए कर्म परमाणु स्कंधों को ग्रहण कर उन्हें अपने साथ जोड़ता रहता बतलाए है। है। बंध का मुख्य हेतु कर्म शरीर है। तत्त्वार्थ सूत्र और भाष्यानुसारिणी तत्त्वार्थ सूत्र और प्रस्तुत आगम में नाम भेद और क्रम में इसका स्पष्ट संकेत उपलब्ध है।' इस दृष्टि से ज्ञानावरण भेद-दोनों मिलते हैं। कर्मशरीर के निर्माण का मुख्य कारण ज्ञानावरण कर्म शरीर प्रयोग भगवती
तत्त्वार्थ सूत्र नामक कर्म का उदय बनता है।
ज्ञान प्रत्यनीकता
ज्ञान-प्रदोष शब्द विमर्श
ज्ञान निलवन
ज्ञान-निव ज्ञान प्रत्यनीकता-ज्ञान (श्रुत) और ज्ञानी (श्रुतवान्) के
ज्ञानांतराय
ज्ञान-मात्सर्य प्रतिकूल आचरण करना।
ज्ञान-प्रदोष
ज्ञानांतराय ज्ञान निलवन-श्रुत और श्रुत गुरु का अपलाप करना।
ज्ञान-अत्याशातना
ज्ञान-आसादन ज्ञानांतराय-श्रुत के ग्रहण में विघ्न उपस्थित करना।
ज्ञान-विसंवादना
ज्ञान-उपघात सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार ज्ञान का विच्छेद करना अंतराय है। दर्शनावरण ज्ञानावरण की भांति वक्तव्य है।
ज्ञान प्रदोष-श्रुत एवं श्रुतवान् के प्रति अप्रतीति। सर्वार्थ सिद्धि ४२१. दरिसणावरणिज्जकम्मासरीर- दर्शनावरणीयकर्मकशरीर - प्रयोगबन्धः ४२१. भंते! दर्शनावरणीय कर्म शरीर प्रयोग प्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? उदएण? गोयमा! दंसणपडिणीययाए, दसण- गौतम ! दर्शनप्रत्यनीकतया, दर्शननिह्नवेन, गौतम! दर्शनावरणीय कर्म शरीर प्रयोग णिण्हवणयाए, सणंतराएणं, सण- दर्शनान्तरायण, दर्शनप्रदोषेण, दर्शनात्या- बंध के सात हेतु हैंप्पदोसेणं, सणच्चासातणयाए, दंसण- शातनया, दर्शनविसंवादनायोगेन दर्शना- दर्शन का विरोध अथवा प्रतिकूल आचरण, विसंवादणाजोगेणं सणावरणिज्ज- वरणीयकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः दर्शन का अपलाप, दर्शन के ग्रहण में विघ्न कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदयेन दर्शनावरणीयकर्मकशरीरप्रयोग- उपस्थित करना, दर्शन के प्रति अप्रीति उदएणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीर बन्धः
रखना, दर्शन में विसंवाद दिखलाना, प्पयोगबंधे॥
दर्शनावरणीय शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
४२२. सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोग- बंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?
सातावेदनीयकर्मक - शरीरप्रयोगबन्धः ४२२. 'भंते ! सातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है ?
१. न. सू. भा. वृ.८/३ तथा भाष्य-स बंधः।.......स एष कर्मशरीर पुद्गलग्रहणकृतो बंधो भवति।......कर्मशरीरमिति कार्मणशरीरमात्मैक्याद् योग-कषायपरिणतियुक्तमपि च कर्मयोगपुद्गलग्रहणे आत्मसात्करणे एकत्वपरिणामापादने समर्थम्। २. भ. वृ. ८/४१०-४२९-ज्ञानावरणिज्जमित्यादि ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोगनाम तत्तथा तस्य कर्मणस्य
उदयेनैति। ३. सर्वार्थसिद्धि, ६/१० की वृत्ति-ज्ञानव्यवच्छेदकरणमंतरायः। ४. वही, ६/१० की वृत्ति-तत्त्वज्ञानस्य मोक्षसाधनस्य कीर्तने कृते कस्य
चिदनभिव्याहरतः अंतःपैशुन्यपरिणामः प्रदोषः। ५. वही, ६/१० की वृत्ति-कायेन वाचा च परप्रकाश्यज्ञानस्य वर्जनमासादनम्। ६.त.स. ६/११-तत्प्रदोषनिहवमात्सर्यान्तरायाखादनोपधाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ।
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भगवई
श. ८ : उ.९ : सू. ४२२,४२३
१६२ गोयमा! पाणाणुकंपयाए, भूयाणु- गौतम! प्राणानुकम्पया, भूतानुकम्पया, कंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणु- जीवानुकम्पया, सत्वानुकम्पया. बहूनां कंपयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं प्राणानां भूतानां जीवानां सत्वानाम् अदु:- सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए खनेन अशोचनेन अखेदनेन ‘अतिप्पणअजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए याए', अपिट्टनेन, अपरितापनेन साताअपरिया-वणयाए सायावेयणिज्ज- वेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः कम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदयेन सातावेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगउदएणं सायावेयणिज्जकम्मासरीर- बन्धः। प्पयोगबंधे॥
गौतम! सातावेदनीय कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के हेतु है-प्राणों की अनुकंपा, भूतों की अनुकंपा,जीवों की अनुकंपा, सत्त्वों की अनुकंपा अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःखित न करना, उन्हें दीन न बनाना, शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा न करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा न करना, लाठी आदि का प्रहार न करना,शारीरिक परिताप न देना,साता-वेदनीय शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
४२३. असायावेयणिज्जकम्मासरीरप्प- असातावेदनीयकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः ४२३. भंते! असातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग योगबंधे णं भंते! कस्स कम्मरस उदएणं? । भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? गोयमा! परदुक्खणयाए, परसोयण- गौतम! परदुःखनेन, परशोचनेन, परखे- गौतम! असातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग याए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, दनेन, ‘परतिप्पणयाए', परपिट्टनेन, पर- बंध के हेतु हैं-प्राणों की अनुकंपा न करना, परपिट्टणयाए, परपरियावणयाए, बहूणं परितापनेन, बहूनां प्राणानां भूतानां जीवानां भूतों की अनुकंपा न करना, जीवों की पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं सत्वानां दुःखनेन शोचनेन जूरणेन,तिप्पण- अनुकंपा न करना, सत्त्वों की अनुकंपा न दुक्खणयाए सोयणयाए जूरणयाए याए पिट्टनेन परितापनेन असातावेद- करना, अनेक प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों तिप्पणयाए पिट्टणयाए परियावणयाए नीयकर्मशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन को दुःखित करना, उन्हें दीन बनाना, असायावेयणिज्ज-कम्मासरीरप्पयोग- असाता-वेदनीयकर्मशरीरप्रयोगबन्धः। शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा बंधे।
करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा करना, लाठी आदि का प्रहार करना, शारीरिक परिताप देना, असातवेदनीय
शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
भाष्य १.सूत्र ४२२-४२३
नामक कर्म का उदय है। सातवेदनीय कर्म शरीर निर्माण के बाह्य हेतु प्राणानुकंपा आदि शब्द विमर्श के लिए द्रष्टव्य भगवती ७/११३-११६ का हैं। उसका अंतरंग हेतु सातवेदनीय कर्म शरीर प्रयोग नामक कर्म का भाष्य। उदय है।
उमास्वाति ने सात वेदनीय के सात और असातवेदनीय के असातवेदनीय कर्म शरीर निर्माण के बाह्य हेतु पर को दुःख छह आश्रव बतलाए हैं। वे प्रस्तुत आगम में निर्दिष्ट हेतुओं से देना आदि हैं। उसका अंतरंग हेतु असातवेदनीय कर्म-शरीर प्रयोग भिन्न है।' भगवती सूत्र
तत्त्वार्थ सूत्र सात वेदनीय असातवेदनीय
सातवेदनीय
असातवेदनीय १.प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों । १. दूसरों को दुःख देने से। १. भूतानुकंपा के प्रति अनुकंपा करने से। २. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों २. दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न २.व्रती-अनुकंपा
२.शोक को दुःख न देने से।
करने से। ३. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों ३. जीवों को विषाद या चिंता उत्पन्न | ३. दान-अनुकंपा
३.ताप को शोक उत्पन्न न करने से। करने से। ४. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों दूसरों को रुलाने या विलापक ४. सराग संयम
४. आक्रन्दन को चिंता उत्पन्न न कराने से। कराने से।
१. (क)त. सू.६/१२-दुःखशोकतापाकन्दनवद्यपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थानान्यसवेद्यस्य।
(ख) वही, ६ १३-भृतव्रत्यनुकंपा दानं सरागसंयमादि योगः क्षान्ति शीचमिति सवेद्यस्य।
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भगवई
श.८ : उ.९ : सू. ४२४
सात वेदनीय असातवेदनीय
सातवेदनीय
असातवेदनीय ५. प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों ५. दूसरों को पीटने से।
५. संयमासंयम
५. वध को विलाप या रुदन कराकर आंसून बहाने से। ६. प्राण, भूत. जीव और सत्त्वों ६. दूसरे जीवों को परिताप देने से । ६. अकामनिर्जरा ६. परिवेदन-ये असानाको न पीटने से।
७. बालतपोयोग वेदनीय कर्म के आस्रव है। ७. प्राण. भूत, जीव और सत्वों ७. बहुत से प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों ८. क्षांति। को परिताप न देने से।
को दुःख पहुंचाने से यावत परिताप | ९. शौच-ये सात वेदनीय देने से।
कर्म के आस्रव हैं। ४२४. मोहणिज्जकम्मासरीरप्पयोग-बंधे ___मोहनीयकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः? भदन्त! ४२४. 'भंते! मोहनीय कर्म शरीर प्रयोग बंध णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? कस्य कर्मणः उदयेन!
किस कर्म के उदय से होता है? गोयमा! तिव्वकोहयाए, तिव्व- गौतम! तीवक्रोधेन, तीव्रमानेन, तीव्र- गौतम! मोहनीय कर्म शरीरप्रयोग बंध के माणयाए, तिव्वमाययाए तिव्व- मायया, तीव्रलोभेन, तीव्रदर्शनमोहनीयेन, सात हेतु हैं-तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीव्र लोभयाए, तिव्वदंसणमोहणिज्ज-याए, तीव्रचरित्र-मोहनीयेन, मोहनीयकर्मकशरीर. माया, तीव्र लोभ, तीव्र दर्शन मोहनीय, तिव्वचरित्तमोहणिज्जयाए मोहणिज्ज - प्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन मोहनीयकर्मक- तीव्र चारित्र मोहनीय, मोहनीय कर्म शरीर कम्मासरीरप्पयोग-नामाए कम्मस्स शरीरप्रयोग-बन्धः।
प्रयोग नामकर्म का उदय। उदएणं मोहणिज्ज-कम्मासरीरप्पयोगबंधे॥
भाष्य १ सूत्र ४२४
होने वाला तीव्र आत्म परिणाम बतलाया गया है। सिद्धसेनगणि ने मोहनीय कर्म के दो प्रकार है-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रवों का विस्तारपूर्वक उल्लेख किया हैमोहनीय। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चारित्र मोहनीय के भेद नो कषाय : बंध के हेतु हैं। तीव्र चारित्र मोहनीय का पृथक उल्लेख हास्य, रति, अरति स्त्रीवेद-शब्द आदि इन्द्रिय विषयों में आसक्ति, ईर्ष्यालुता,
आदि नो- कषाय के लिए किया गया है, यह वृत्तिकार का अभिमत अनृतवादिता, वक्रता, परस्त्री सेवन। है। यह संभावना भी की जा सकती है कि तीव्र क्रोध आदि के पुरुषवेद-ऋजु आचरण, क्रोध आदि की मंदता, स्वदार संतोष, उल्लेख के पश्चात मोहनीय कर्म की दो मूल प्रकृतियों का उल्लेख अनीालुता। किया गया है।
नपुंसकवेद-तीव्र क्रोध आदि से पशुओं का वध करना, मुंडन तीव्र क्रोध-तीव्र क्रोध के उदय से होने वाला आत्म परिणाम। आदि करना, अप्राकृतिक मैथुन, परस्त्री से बलात्कार, विषय की तीव्र तीव्र मान-तीव्र मान के उदय से होने वाला आत्मपरिणाम। ग्रंथि। तीव्र माया-तीव्र माया के उदय से होने वाला आत्म परिणाम।
हास्य-अट्टहास अथवा व्यंग्य, दीन मनुष्य का मखील करना, तीव्र लोभ-तीव्र लोभ के उदय से होने वाला आत्म परिणाम। कुत्सित रोग को बढ़ाने वाला हंसी मजाक करना, बहुत प्रलाप करना,
तीव्र दर्शन मोहनीय-तीव्र मिथ्यात्व के उदय से होने वाला हास्यशीलता आदि। आत्म परिणाम।
शोक-स्वयं शोकातुर होना, दूसरे के शोक को बढ़ाना, दूसरों उमास्वाति ने दर्शन मोहनीय बंध के पांच हेतु बतलाए हैं।' का शोक देखकर राजी होना आदि।
१. केवली का अवर्णवाद २. श्रुत का अवर्णवाद ३. संघ का रति-विचित्र प्रकार की क्रीड़ा करना, दूसरे के चित्त को अवर्णवाद ४. धर्म का अवर्णवाद ५. देव का अवर्णवाद।
आकृष्ट करना, उत्सुकता आदि। स्थानांग में दुर्लभ बोधि के पांच हेतु बतलाए हैं। वे तुलना के अरति-दूसरे के रहस्य का प्रकाशन करना, रति में बाधा लिए द्रष्टव्य है।
डालना, पापशीलता, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना, चोरी तीव्र चारित्र मोहनीय तीव्र चारित्र मोह के उदय से होने वाला। आदि। आत्म परिणाम।
भय-स्वयं भयभीत होना, दूसरों को भयभीत करना, निर्दयता. तत्त्वार्थ सूत्र में चारित्रमोह का आस्रव तीव्र कषाय के उदय से त्रास देना आदि।
१. भ. वृ.८.४१०.४२९। । २. न. स. ६.१४ केवलीश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादी दर्शनमोहस्य।
३. ठाणं, ५/१३३। १. न. सू. ६/१५-कषायोदयात् नीवात्मपरिणामश्चारित्रमाहस्य।
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श. ८ : उ. ९ : सू. ४२५-४२८
जुगुप्सा - सदाचार से घृणा करना, अपवाद में रुचि रखना
आदि ।
चारित्र मोहनीय के बंध के हेतु साधुजनों की गर्हा करना । धर्माभिमुख लोगों के सामने विघ्न उपस्थित करना, देशव्रती
४२६. तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदपणं ?
गोयमा ! माइल्लयाए, नियडिल्ल-याए, अलियवयणेणं, कूडतुल- कूडमाणेणं
कम्मासरीर
तिरिक्खजोणियाउय प्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं तिरिक्खजोणियाउयकम्मा सरीरप्पयोगबंधे ॥
४२५. नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे नैरयिकायुष्क कर्मकशरीर प्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन ? गौतम ! महारम्भेण, महापरिग्रहेण, पञ्चेन्द्रियवधेन, कुणपाहारेन नैरयिकायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन नैरियकायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः ।
णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे ॥
-
४२७.
मस्साउयकम्मासरीरप्पयोग
बंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुक्कोसयाए, अमच्छरियाए मणुस्साउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदपणं मस्साउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे ॥
भगवई
व्यक्तियों की साधना में विघ्न डालना, मद्यमांस आदि का सेवन, चारित्र गुण को दूषित करना, दूसरे के क्रोध आदि कषाय और हास्य आदि नो कषाय की उदीरणा करना आदि।
तुलना के लिए तत्त्वार्थ वार्तिक और सर्वार्थसिद्धि द्रष्टव्य है ।
१. न. सू. भा. वृ. ६/ १५ का भाष्य ।
२. त. रा. वा. ६/ १४ की वृत्ति।
१६४
तिर्यग्योनि कायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन ?
गौतम! मायितया, निकृतया, अलीकवचनेन, कूटतुला - कूटमानेन तिर्यग्योनिकायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणःउदयेन तिर्यग्योनिकायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः ।
४२८. देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं देवायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन ?
भंते! कस्स कम्मस्स उदएण ? गोयमा ! सरागसंजमेणं, संजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामनिज्जराए देवाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदपणं देवाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधे ॥
गौतम! सरागसंयमेन, संयमासंयमेन, बालतपःकर्मणा, अकामनिर्जरया देवायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन देवायुष्ककर्मशरीरप्रयोगबन्धः ।
१. सूत्र ४२५-४२८
आयुष्य कर्म के चार प्रकार हैं-नरकायु, तिर्यंच आयु, मनुष्य आयु और देवायु । प्रत्येक आयुष्य बंध के चार-चार हेतु बतलाए गए हैं।
मनुष्यायुष्ककर्मक शरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन ? गौतम ! प्रकृतिभद्रतया, प्रकृतिविनीततया, सानुक्रोशेन, अमत्सरितया मनुष्यायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन मनुष्यायुष्ककर्मकशरीरप्रयोगबन्धः ।
भाष्य
४२५. भंते! नैरयिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? गौतम! नैरयिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध के पांच हेतु हैं - महारंभ, महापरिग्रह पंचेन्द्रिय वध, मांसाहार, नैरयिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय ।
४२६. भंते! तिर्यक्योनिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ?
गौतम ! तिर्यक्ोनिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध के पांच हेतु हैं- माया, कूट माया, असत्य वचन, कूटतोल- कूटमाप, तिर्यक्योनिक आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय ।
४२७. भंते! मनुष्य आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय होता है ? गौतम ! मनुष्य आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध के पांच हेतु हैं-प्रकृति भद्रता, प्रकृति विनीतता, सानुक्रोशता, अमत्सरता. मनुष्य आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग नामकर्म
का उदय ।
४२८. भंते! देव आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? गौतम! देव आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग बंध के पांच हेतु हैं-सराग संयम, संयमासंयम, बालतपः कर्म, अकाम निर्जरा, देवायुष्य कर्म शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय ।
नरका - नरकायु के चार हेतु
१. महारंभ - अभयदेवसूरि ने महा का अर्थ अपरिमित तथा आरंभ का अर्थ कृषि आदि का आरंभ किया है।" तत्त्वार्थ में महा के
३. सर्वार्थसिद्धि, ६ / १४ की वृत्ति ।
४. भ. वृ. ८/४१९-४२३- अपरिमितिकृष्यादि आरंभतया ।
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भगवई
श. ८ : उ.९ : सू. ४२८
स्थान पर बहु शब्द का प्रयोग हुआ है।'
आरंभ शब्द के तीन अर्थ मिलते हैं१. प्राणी के प्राण का व्यपरोपण।२ २. हिंस्र कर्म। ३. प्राणी पीड़ा का हेतुभूत व्यापार।'
इसका तात्पर्य है-असीम आरंभ का अनवरत प्रयोग नरकायु का हेतु बनता है।
२. महा परिग्रह-परिमाण अथवा सीमा रहित संग्रह। परिग्रह के अनेक अर्थ हैं। तात्पर्यार्थ में वे भिन्न नहीं हैं
• ममत्व, मूर्छा, गृद्धि। शरीर आदि में ममत्व आंतरिक परिग्रह है। वस्तु समूह के प्रति ममत्व बाहरी परिग्रह है।'
• यह मेरा है, इस प्रकार का संकल्प। ३.पंचेन्द्रिय वध। ४. कुणिमाहार-मांसाहार।
मांसाहार और पंचेन्द्रिय वध-इन प्रवृत्तियों का आसेवन और उनमें रागात्मकभाव अथवा द्वेषात्मक भाव की तीव्रता नरकायु का हेतु बनती है।
उमास्वाति ने नरक आयु के बहु आरंभ और बहु परिग्रह इन दो हेतुओं का ही उल्लेख किया है। प्रश्न उपस्थित होता है क्या चार हेतुओं का उल्लेख उमास्वाति से उत्तरवर्ती है।
सिद्धसेनगणि ने अन्य अनेक हेतुओं का भी उल्लेख किया
मनुष्य आयु के चार हेतु
१. प्रकृति भद्रता दूसरों को अनुतप्त न करने का स्वभाव। २. प्रकृति विनीतता-विनम्र स्वभाव। ३. स्वानुकंपा-अनुकंपा।
४. अमत्सरिता-दूसरे के गुणों को सहन करने की मनोवृत्ति, प्रमोद भावना।
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में मनुष्य आयु के चार हेतु भिन्न प्रकार से निर्दिष्ट है
१. अल्पारंभ २. अल्पपरिग्रह ३. स्वभाव की मृदुता ४. स्वभाव की ऋजुता। सर्वार्थ सिद्धि में आर्जव का उल्लेख नहीं है।'
उमास्वाति ने निःशीलव्रतत्व को सब आयुष्यों का आस्रव बतलाया है। इसका तात्पर्य है-शील और व्रत रहित दशा में सब प्रकार के आयुष्य का बंध होता है। व्रत की अवस्था में केवल वैमानिक देव आयुष्य का ही बंध होता है। देवायु के चार हेतु
व्यक्ति भेद से संयम दो प्रकार का होता है-- १. सराग संयम-कषाययुक्त मुनि का संयम।
२. वीतराग संयम-उपशांत या क्षीण कषाय वाले मुनि का संयम।
वीतराग संयमी के आयुष्य का बंध नहीं होता इसलिए यहां सराग संयम (सकषाय चरित्र) को देवायु के बंध का कारण बतलाया गया है।
२. संयमासंयम आंशिक रूप से व्रत स्वीकार करने वाले गृहस्थ के जीवन में संयम और असंयम दोनों होते हैं इसलिए उसका संयम संयमासंयम कहलाता है।
३. बालतपःकर्म-मिथ्यादृष्टि का आचरण।
४. अकाम निर्जरा-निर्जरा की अभिलाषा के बिना कर्म निर्जरण का हेतुभूत आचरण।
जयाचार्य ने आयुष्य चतुष्क के हेतुभूत तत्त्वों की समीक्षा की है। उनके अनुसार नरक आयु और तिर्यंच आयु के हेतु सावध हैं। मनुष्य आयु और देव आयु के हेतु निरवद्य है। प्रस्तुत प्रकरण में यौगलिक तिर्यंच और असंज्ञी मनुष्य विवक्षित नहीं है।
हो सकता है-प्राचीन परम्परा दो हेतुओं की रही, उत्तरकाल में उसका विस्तार हुआ और चार हेतुओं की परम्परा मान्य हो गई। तिर्यच आयु
तिर्यंच आयु के चार हेतु-माया, निकृति, अलीक वचन और कूटतौल-कूटमाप।
माया-प्रवंचना।
निकृति-प्रवंचना की चेष्टा। वृत्तिकार ने दो मतांतरों का उल्लेख किया है--
१. माया को ढांकने के लिए दूसरी माया करना। २. अति आदर प्रदर्शित कर ठगना।
उमास्वाति ने तिर्यग आयु के केवल एक हेतु-माया का उन्लेख किया है।"
१. न. सू. ६/१६-बहारंभपरिग्रहत्वं च नारकाण्यायुषः । २.त. सू. भा. य. भा. १ भाष्यानुसारिणी प. २२-आरंभः-प्राणिप्राणव्य
परोपणम्। ३. न, सू. भा. वृ. ६.१५ की वृत्ति-आरंभो हैंसं कर्म। ४. सर्वार्थ सिन्द्रि. ६.१५ की वृत्ति-आरंभः प्राणिपीड़ाहेतुव्यापारः। ५.त. सू. भा. वृ.६१५ की वृत्ति। ६. (क) न. रा. वा. ६.१५ की वृत्ति।
(ख) सर्वार्थसिन्द्रि, ६.१५ की वृत्ति। ७. न. सू. भा. वृ. ६.१६-बहारंभपरिग्रहवं च नारकास्यायुषः। ८. वही. भा. २-भाष्यानुसारिणी पृ. २०॥ १.. भ. व. ८.१०.-४२० -निकृतिः वंचनार्थ चेष्टमाया प्रच्छादनार्थ
मायान्तरामित्येके, अन्यादरकरणेन परवंचनमित्यन्ये। १०. न. सू. ६/१७-माया तैर्यक्योनस्य। ११. भ. वृ.८/४१९-४२९/ १२. न. सू. भा, वृ. ६/१८-अल्पारंभपरिग्रहत्वं स्वभावमार्दवार्जवं च
मानुषस्य। १३. सर्वार्थसिद्धि, ६.१७-१८-अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य। स्वभावमार्दवं
१४. त. स. भा. वृ. ६.१९-निःशीलवतत्वं सर्वेषाम्। १५. भ. जो. २/१६३/५५-६३
नरकायु नां धार, कारण चिहं सावध कह्या। चिहुं जिन आज्ञा बार, पाप प्रकृति है ने भणी॥
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श.८ : उ.९ : सू. ४२९-४३१
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भगवई
४२९. सुभनामकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? गोयमा! काउन्जुययाए,भावुज्जुययाए, भासुन्जुययाए, अविसंवादणाजोगेणं सुभनामकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं सुभनामकम्मासरीरप्पयोगबंधे।
शुभनामकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! कस्य कर्मणः उदयेन? गौतम! कायर्जुकतया, भावर्जुकतया, भाषर्जुकतया, अविसंवादनायोगेन शुभनामकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन शुभनामकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः।
४२९. 'भंते! शुभनाम कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम ! शुभनाम कर्म शरीर प्रयोग बंध के पांच हेतु है-काया की ऋजुता, भाव की ऋजुता, भाषा की ऋजुता, अविसंवादन योग, शुभ नाम कर्म शरीर प्रयोग नामकर्म का उदय।
४३०. असुभनामकम्मासरीरप्पयोग बंधे अशुभनामकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ४३०. भंते! अशुभ नाम कर्म शरीर प्रयोग णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता है? गोयमा! कायअणुज्जुययाए, भाव- गौतम! कायानजुकतया, भावानृजुकतया गौतम! अशुभ नामकर्म शरीर प्रयोग बंध अणुज्जुययाए, 'भासअणुज्जुययाए भाषानृजुकतया, विसंवादनायोगेन अशुभ- के पांच हेतु हैं-काया की अऋजुता, भाव विसंवादणाजोगेणं असुभनाम-कम्मा. नामकर्मकशरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयन की अऋजुता, भाषा की अऋजुता, सरीरप्पयोग-नामाए कम्मस्स उदएणं अशुभनामकर्मकशरीरप्रयोबन्धः।
विसंवादन योग, अशुभ नाम कर्म शरीर असुभनामकम्मासरीरप्प-योगबंधे॥
प्रयोग नामकर्म का उदय।
भाष्य
१. सूत्र ४२९.४३०
नाम कर्म के दो प्रकार हैं-शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म। शुभ नाम कर्म के चार हेतु१. काया का ऋजु व्यवहार।। २. भाषा का ऋजु व्यवहार। ३. भाव का ऋजु व्यवहार।
४. अविसंवादन योग-अविरोधी, धोखा न देने वाली या प्रतिज्ञात अर्थ को निभाने वाली प्रवृत्ति ।
विशेष जानकारी के लिए ठाणं (४/१०२) और उत्तराध्ययन
(२९/४९-५१) द्रष्टव्य है।
अशुभ नाम कर्म के चार हेतु१. काया का माया पूर्ण व्यवहार। २. भाषा का माया पूर्ण व्यवहार। ३. भाव का माया पूर्ण व्यवहार। ४. विसंवादन योग-अन्यथा स्वीकार और अन्यथा आचरण।'
तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में अशुभ नाम कर्म के योग वक्रता और विसंवादन ये हेतु निर्दिष्ट हैं। भाष्य में योग वक्रता का अर्थ मन, वचन और काया का वक्रतापूर्ण व्यवहार किया गया है।
ला या
४३१. उच्चागोयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे उच्चगोत्रकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः भदन्त! ४३१. "भंते! उच्च गोत्र कर्म शरीर प्रयोग णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? कस्य कर्मणः उदयेन?
बंध किस कर्म के उदय से होता हे ? गोयमा! जातिअमदेणं, कुलअम-देणं, गौतम! जात्यमदेन, कुलामदेन, बला- गौतम ! उच्च गोत्र कर्म शरीर प्रयोग बंध बलअमदेणं, रुवअमदेणं, तव-अमदेणं. मदेन.रूपामदेन, तपः अमदेन, श्रुतामदेन, . के नौ हेतु है-जाति का मद न करना, कुल सुयअमदेणं, लाभअमदेणं, इस्सरिय- लाभामदेन, ऐश्वर्यामदेन उच्चागोत्रकर्मक- का मद न करना, बल का मद न करना, अमदेणं उच्चागोयकम्मा सरीरप्पयोग- शरीरप्रयोगनाम्नः कर्मणः उदयेन उच्च- रूप का मद न करना, तप का मद न नामाए कम्मरस उदएणं उच्चागोय- गोत्रकर्मकशरीरप्रयोगबन्धः।
करना, श्रुत का मद न करना, लाभ का मद कम्मा-सरीरप्पयोगबंधे ॥
न करना, ऐश्वर्य का मद न करना, उच्च गोत्र कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
निरि आय ना धार. ते पिण एकारण चिई। सावध आज्ञा बार, एपिण प्रकृति पाप नीं।। नियंच युगलिया जंत, तेह तणो जे आउखो। पुन्य प्रकृति दीसंत, निश्चै जाणे केवली।। मनुष्य आयु नां ताहि, बहलपणे कारण चिह। निरवद्य आज्ञा माहि, पुन्य प्रकृति ए तो भणी।। असन्नी मनुष्य नों जोय, आयु पाप प्रकृति अछ। तेह तणो अवलोय. कथन इहां कीधो नहीं।। देव आयु ना देव, कारण चिहं निरवद्य कया। चिउं आज्ञा में पेख, पुन्य प्रकृति ए ने भणी।।
आयु कर्म अवलोय, पुण्य पाप कहियै बिहु। सावणद निरवद सोय, प्रत्यक्ष करणी पेखत्नो।। पुन्य आयु कर्म जेह, तनु नाम कर्म मैं उदय करि। जोग भला प्रक्तेह, मोह रहित कारज अछै॥ पाप आउखो पेख, तनु नाम उदय जोग प्रवर्ते।
मोह सहित सुविशेख, ते माटै अशुभ जोग छ।। (ज, स.) १. भ. वृ. ८/४१९-४२९-विसंवादनं अन्यथा प्रतिपन्नस्य अन्यथा करणम। २.त. सू. भा. वृ. ६/२१-योगवकता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः ।
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४३२. नीयागोयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे नीचगोत्रकर्मशरीरप्रयोबन्धः भदन्त ! कस्य णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएण? कर्मणः उदयेन? गोयमा! जातिमदेणं, कुलमदेणं, बल- गौतम ! जातिमदेन, कुलमदेन, बलमदेन, मदेणं, रूबमदेणं, तवमदेणं, सुयमदेणं, रूपमदेन, तपःमदेन, श्रुतमदेन, लाभमदेन, लाभमदेणं, इस्सरिय-मदेणं नीयागोय- ऐश्वर्यमदेन नीचगोत्रकर्मकशरीरप्रयोगकम्मासरीरप्पयोग-नामाए कम्मस्स नाम्नः कर्मणः उदयेन नीचगोत्रकर्मकशरीरउदएणं नीयागोय-कम्मासरीरप्पयोग- प्रयोगबन्धः।
श. ८ : उ.९ : सू. ४३२,४३३ ४३२. भंते! नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? गौतम ! नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग बंध के नौ हेतु हैं-जाति का मद करना, कुल का मद करना, बल का मद करना, रूप का मद करना, तप का मद करना, श्रुत का मद करना, लाभ का मद करना, ऐश्वर्य का मद करना, नीच गोत्र कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
बंधे।
भाष्य १.सूत्र ४३१-४३२
उच्च गोत्र और नीच गोत्र के बंध के हेतु स्पष्ट हैं। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में उच्च गोत्र और नीच गोत्र के आश्रवों का निर्देश भिन्न है।
नीच गोत्र परनिंदा आत्म प्रशंसा सद्गुण का उच्छादन असद्गुण का उद्भावन
उच्च गोत्र पर प्रशंसा आत्मनिंदा सद्गुण का उद्भावन असद्गुण का उच्छादन नम्र वृत्ति अनुत्सेक
४३३. अंतराइयकम्मासरीरप्पयोग-बंधे आन्तरायिककर्मक - शरीरप्रयोग - बन्धः
णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं? भदन्त ! कस्य कर्मणः उदयेन? गोयमा! दाणंतराएणं, लाभंतरा-एणं, गौतम! दानान्तरायेन, लाभान्तरायेन भोगंतराएणं, उवभोगंतराएणं, वीरियंत. भोगान्तरायेन, उपभोगान्तरायेन, वीर्या- राएणं, अंतराइयकम्मासरीरप्पयोग- न्तरायेन आन्तरायिककर्मकशरीरप्रयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइय- नाम्नः कर्मणः उदयेन आन्तरायिककम्मासरीरप्पयोगबंधे।
कर्मकशरीरप्रयोगबन्धः।
४३३. 'भंते! आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है? गौतम! आन्तरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध के छह हेतु हैं-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यांतराय, आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय।
भाष्य
१.सूत्र ४३३ अंतराय कर्म के हेतु
१. दानान्तराय-दान में विघ्न उपस्थित करना, जिससे दाता न दे सके।
२. लाभान्तराय-लाभ में विघ्न उपस्थित करना, जिससे आदाता न ले सके।
३. भोगान्तराय-शब्द आदि विषय के अनुभव में विघ्न उत्पन्न करना, जिससे भोक्ता भोग न कर सके।
४. उपभोगान्तराय-अन्न, पान. वस्त्र आदि के आसेवन में विघ्न उपस्थित करना, जिससे उपभोक्ता उपयोग न कर सके।
५. वीर्यान्तराय-विशिष्ट चेष्टा में विघ्न उपस्थित करना, जिससे उत्साह और पराक्रम मंद हो जाए।
कर्मशरीर प्रयोग के बंध के आलापक (८/४१९.४३३) में बंध के अनेक हेतु बतलाए गए हैं। इस विषय में पूज्यपाद ने एक प्रश्न उपस्थित किया है-तत्प्रदोष, निहव आदि ज्ञानावरण और दर्शनावरण के प्रतिनियत आश्रव हैं अथवा सब कर्मों के सामान्य आश्रव? यदि प्रतिनियत आश्रव माना जाए तो आगम-विरोध का प्रसंग आएगा। आगम का सिद्धांत यह है कि आयुष्य को वर्ज कर सात कर्म का बंध प्रतिक्षण होता है। यदि बंध हेतुओं को सब कर्मों के लिए सामान्य माना जाए तो प्रस्तुत प्रकरण में विशेष उल्लेख सार्थक नहीं होगा। इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया गया है-तत्प्रदोष निव आदि आश्रव सब कर्मों के प्रदेश बंध में सामान्य हेतु बनते हैं। वे ज्ञानावरण दर्शनावरण के अनुभाग बंध के विशेष हेतु बनते हैं इसलिए इनका विशेष आश्रव के रूप में उल्लेख किया गया है।*
१. न. स. भा. वृ. ६/२४.२५--परात्मनिंदाप्रशंसासदसद्गुणाच्छादनोदभावने
च नीचैर्गावस्या नविपर्ययी नीचैर्वृत्त्यनुत्सको चोनरस्य। २. (क) त. सू. भा. वृ. ६.२६-विघ्नकरणमंतरायस्य. दानादीनां विघ्नकरणमंतरायाश्रवो भवतीति। (ख) वही, खंड-२ भाष्यानुसारिणी पृ. ३०-४०।
३. (क) भ.६/१६२।
(ख) पण्ण.२६/१-१२। ४. (क) सर्वार्थसिद्धि. ६/२७ का भाष्य।
(ख) त, रा. वा. ६/२७ की वृत्ति।
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श.८ : उ.९ : सू. ४३४-४३८ पयोगबंधस्स देसबंध-सव्वबंध-पदं ४३४. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे? सव्वबंधे? गोयमा! देसबंधे, नो सव्वबंधे। एवं जाव अंतराइयं॥
प्रयोगबन्धस्य देशबन्ध-सर्वबन्ध-पदम् ज्ञानावरणीयकर्मक - शरीरप्रयोग - बन्धः भदन्त ! किं देशबन्धः? सर्वबन्धः? गौतम ! देशबन्धः, नो सर्वबन्धः? एवं यावत् आन्तरायिकम्।
प्रयोगबंध का देशबंध सर्वबंध-पद ४३४. 'भंते ! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध क्या देश बंध है? सर्व बंध है?
गौतम! देश बंध है, सर्व बंध नहीं है। इसी प्रकार यावत् आन्तरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध की वक्तव्यता।
भाष्य
१.सूत्र ४३४
द्रष्टव्य ८/४१५ का भाष्य।
४३५. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोग- बंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ?
ज्ञानावरणीयकर्मक - शरीरप्रयोगबन्धः भदन्त ! कालतः कियच्चिारं भवति ?
गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाअणादीए वा अपज्जवसिए, अणा-दीए अनादिकः वा अपर्यवसितः, अनादिकः वा वा सपज्जवसिए। एवं जाव सपर्यवसितः। एवं यावत् आन्तरायिकस्य। अंतराइयस्स॥
४३५. भंते! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध काल की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध काल की अपेक्षा दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-अनादिक अपर्यवसित. अनादिक सपर्यवसित। इसी प्रकार यावत आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध की वक्तव्यता।
४३६. नाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोग- ज्ञानावरणीयकर्मकशरीरप्रयोगबन्धान्तरं बंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिरं भदन्त! कालतः कियच्चिरं भवति?
होइ?
गोयमा! अणादीयस्स अपज्जव- गौतम ! अनादिकस्य अपर्यवसितस्य नास्ति सियस्स नत्थि अंतरं, अणादीयस्स अन्तरम, अनादिकस्य सपर्यवसितस्य सपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं। एवं जाव। नास्ति अन्तरम् ! एवं यावत् आन्तरायिअंतराइयस्स॥
कस्य।
४३६. भंते ! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर प्रयोग बंध का अंतर काल की अपेक्षा कितने काल का है? गौतम! अनादिक अपर्यवसित में अंतर नहीं है, अनादिक सपर्यवसित में अंतर नहीं है। इसी प्रकार यावत् आंतरायिक कर्म शरीर प्रयोग बंध के अंतर की बक्तव्यता।
४३७. 'भंते ! इन ज्ञानावरणीय कर्म शरीर के देश बंधक और अबंधक जीवों में कौन किनसे अल्प, बहू, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
४३७. एएसि णं भंते! जीवाणं एतेषां भदन्त ! जीवानां ज्ञानावरणीयस्य नाणावरणिज्जस्स कम्मस्स देस- कर्मणः देशबन्धकानाम्, अबन्धकानां च बंधगाणं, अबंध-गाण य कयरे कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहुकाः वा? कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा? तुल्याः वा, विशेषाधिकाः वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा नाणा- गौतम ! सर्वस्तोकाः जीवाः ज्ञानावरणीयस्य वरणिज्जस्स कम्मस्स अबंधगा। कर्मणः अबन्धकाः, देशबन्धकाः अनन्तदेसबंधगा अणंतगुणा। एवं आउय-वज्जं गुणाः। एवम् आयुष्कवण यावत् जाव अंतराइयस्स॥
आन्तरायि-कस्य।
गौतम! ज्ञानावरणीय कर्म शरीर के अबंधक जीव सबसे अल्प हैं, देश बंधक अनन्त गुण है। इसी प्रकार आयुष्य वर्जित यावत् आंतरायिक कर्म शरीर की वक्तव्यता।
४३८. आउयस्स पुच्छा!
आयुष्कस्य पृच्छा!
गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स गौतम! सर्वस्तोकाः जीवाः आयुष्कस्य कम्मस्स देसबंधगा, अबंधगा कर्मणः देशबन्धकाः, अबन्धकाः संख्येयसंखेज्जगुणा॥
गुणाः।
४३८. आयुष्य कर्म शरीर प्रयोग देश बंधक
और अबंधक जीवों की पृच्छा। गौतम! आयुष्य कर्म शरीर के देश बंधक जीव सबसे अल्प हैं, अबंधक संख्येय गुण हैं।
१. भ. वृ.८.४३८
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श.८: उ.९: सू. ४३९-४४२
भाष्य १. सूत्र ४३७-४३८
की अपेक्षा से विरचित है और वे संख्यात जीवी होते है। आयु बंध का समय अल्प है और उसके अबंध का समय इसलिए आयुष्य के देश बंध जीवों की अपेक्षा अबंधक संख्यात अधिक है। प्रस्तुत सूत्र संख्यात-जीवी वनस्पतिकायिक जीवों गुण होते हैं।' ४३९.जस्स णं भंते !ओरालियसरीरस्स यस्य भदन्त ! औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धः ४३९. 'भंते! जिसके औदारिक शरीर का सव्वबंधे, से णं भंते वेउब्वियसरीरस्स। स भदन्त ! वैक्रियशरीरस्य किं बन्धकः? सर्व बंध है भंते ! क्या वह वैक्रिय शरीर किं बंधए? अबंधए? अबन्धकः?
का बंधक है? अबंधक है? गोयमा! नो बंधए, अबंधए।। गौतम ! नो बन्धकः अबन्धकः।
गौतम ! बंधक नहीं है. अबंधक है। आहारगसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? आहारकशरीरस्य किं बन्धकः ?अबन्धकः ? वह आहारक शरीर का बंधक है ? अबंधक
गोयमा! नो बंधए? अबंधए। तेयासरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? गोयमा! बंधए, नो अबंधए। जइ बंधए किं देसबंधए? सव्व-बंधए?
गोयमा! देसबंधए, नो सव्वबंधए। कम्मासरीरस्स किं बंधए ?अबंधए? गोयमा! बंधए, नो अबंधए। जइ बंधए किं देसबंधए? सव्व-बंधए?
गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। तैजसशरीरस्य किं बंधकः ? अबन्धकः? गौतम ! बन्धकः. नो अबन्धकः।। यदि बन्धकः किं देशबन्धकः? सर्वबन्धकः? गौतम! देशबन्धकः, नो सर्वबन्धक। कर्मक-शरीरस्य किं बन्धकः ? अबन्धकः? गौतम ! बन्धकः, नो अबन्धकः। यदि बन्धकः किं देशबन्धकः? सर्वबन्धकः? गौतम! देशबन्धकः, नो सर्वबन्धकः।
गौतम ! बन्धक नहीं है, अबन्धक है। वह तैजस शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम ! बंधक है, अबन्धक नहीं है। यदि बंधक है तो क्या देश बन्धक है ? सर्व बंधक है? गौतम ! देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है। वह कर्म शरीर का बंधक है ? अबंधक है ? गौतम ! बंधक है अबंधक नहीं है। यदि बंधक है तो क्या देश बंधक है? सर्व बंधक है? गौतम ! देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
गोयमा! देसबंधए, नो सव्वबंधए।
४४० जस्स णं भंते!ओरालियसरीर-स्स यस्य भदन्त ! औदारिकशरीरस्य देशबन्धः, ४४०. भंते! जिसके औदारिक शरीर का
देसबंधे, से णं भंते! वेउब्बिय-सरीरस्स स भदन्त ! वैक्रियशरीरस्य किं बन्धकः? देश बन्ध है, भंते! क्या वह वैक्रिय शरीर किं बंधए? अबंधए? अबन्धकः?
का बंधक है? अबंधक है? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं जहेव गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं यथैव गौतम! बंधक नहीं है, अबन्धक है। इस सव्वबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेण वि। सर्वबन्धेन भणितं तथैव देशबन्धेनापि प्रकार जैसे सर्व बंध की वक्तव्यता वैसे ही भाणियव्वं जाव कम्मगस्स॥ भणितव्यं यावत् कर्मकस्य।
देश बंध की वक्तव्यता यावत् कर्म शरीर देश बंधक है, सर्व बन्धक नहीं है।
अवधए!
४४१. जस्स ण भंते! वेउब्वियसरीरस्स सव्वबंधे, से णं भंते! ओरालिय- सरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। आहारगसरीरस्स एवं चेव। तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेवं भाणियव्वं जाव देसबंधए, नो सव्वबंधए।
यस्य भदन्त ! वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धः,स भदन्त! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। आहारकशरीरस्य एवं चैव। तैजसकस्य कर्मकस्य च यथैव औदारिकेण समं भणितं तथैव भणितव्यं यावत् देशबन्धकः, नो सर्वबन्धकः।
४४१. भंते ! जिसके वैक्रिय शरीर का सर्व बंध है भंते ! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है? अबंधक है? गौतम ! बंधक नहीं है. अबंधक है। इसी प्रकार आहारक शरीर की वक्तव्यता। तैजस और कर्म शरीर की औदारिक शरीर के साथ जो वक्तव्यता है, वहीं यहां वक्तव्य है यावत कर्म शरीर देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
४४२.जस्स णं भंते! वेउब्वियसरीर-स्स
देसबंधे, से णं भंते ओरालिय-सरीरस्स किंबंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं जहेव
यस्य भदन्त ! वैक्रियशरीरस्य देशबन्धः स भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं यथैव
४४२. भंते ! जिसके वैक्रिय शरीर का देश बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है? अबंधक है? । गौतम! बंधक नहीं है, अबंधक है। इस
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श.८ : उ.९ : सू. ४४२-४४५ सव्वबंधेणं भणियं तहेव देस-बंधेण वि। सर्वबन्धेन भणितं तथैव देशबन्धेनापि भाणियव्वं जाव कम्म-गस्स॥
भणितव्यं यावत् कर्मकस्य।
प्रकार जैसे सर्व बंध की वक्तव्यता है वही देश बंध के विषय में वक्तव्य है, यावत् कर्म शरीर देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
४४३. जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स
सव्वबंधे, से णं भंते ! ओरालिय- सरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं वेउब्वियस्स वि। तेयाकम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियव्वं॥
यस्य भदन्त ! आहरकशरीरस्य सर्वबन्धः, स भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं वैक्रियस्यापि। तैजस-कर्मणोः यथैव औदारिकेण समं भणितं तथैव भणितव्यम्।
४४३. भंते! जिसके आहारक शरीर का सर्व बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम! बंधक नहीं है, अबंधक है। इसी प्रकार वैक्रिय शरीर की वक्तव्यता। तैजस और कर्म शरीर की औदारिक शरीर के साथ जो वक्तव्यता है, वहीं यहां वक्तव्य है।
४४४. जस्स णं भंते! आहारगसरीरस्स
देसबंधे. से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। एवं जहा आहारगस्स सव्वबंधेणं भणियं तहा देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स।
यस्य भदन्त ! आहारकशरीरस्य देशबन्धः, स भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? अबन्धकः? गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। एवं यथा आहारकस्य सर्वबन्धेन भणितं तथा देशबन्धेनापि भणितव्यं यावत् कर्मकस्य।
४४४. भंते ! जिसके आहारक शरीर का देश बंध है, भंते ! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम ! बंधक नहीं है, अबंधक है। इस प्रकार जैसे सर्व बंध की वक्तव्यता है, वहीं देशबंध के विषय में वक्तव्य है, यावत् कर्म शरीर देश बंधक है. सर्व बंधक नहीं है।
भाष्य
१.सूत्र ४३९-४४४
जिस समय औदारिक शरीर की रचना होती है, उस समय वैक्रिय शरीर की रचना नहीं होती इसलिए औदारिक शरीर की रचना करने वाला जीव वैक्रिय शरीर का अबंधक होता है। आहारक शरीर के लिए भी यही नियम है।
औदारिक शरीर की रचना के प्रथम समय (सर्व बंध के समय) में तैजस और कार्मण शरीर की पुनर्रचना होती है, इसलिए जीव को तैजस और कार्मण शरीर का बंधक कहा गया है। वह रचना देश बंध
(आंशिक) होती है। उनका सर्वबंध नहीं होता। उनकी पुनर्रचना का उद्देश्य है भवधारणीय शरीर (औदारिक और वैक्रिय शरीर) के साथ सामंजस्य स्थापित करना। सिद्धसेनगणि ने उनके प्रमाण की चर्चा की है। उससे सामंजस्य का तत्त्व फलित होता है। तैजस और कार्मण शरीर का जघन्य प्रमाण अंगुल का असंख्येय भाग, उत्कृष्ट प्रमाण औदारिक शरीर जितना, केवली समुद्घात के समय वे पूरे लोक में व्याप्त हो जाते हैं और मारणांतिक समुद्घात के समय वे लम्बाई में लोकांत से लोकांत तक फैल जाते हैं।'
४४५. जस्स णं भंते! तेयासरीरस्स
देसबंधे, से णं भंते! ओरालियसरीरस्स किं बंधए ? अबंधए? गोयमा! बंधए वा, अबंधए वा। जइ बंधए किं देसबंधए?सव्वबंधए?
यस्य भदन्त ! तैजसशरीरस्य देशबन्धः? स ४४५. 'भंते! जिसके तैजस शरीर का देश भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर अबन्धकः?
का बंधक है? अबंधक है? गौतम! बन्धकः वा, अबन्धकः वा। गौतम ! बंधक है अथवा अबंधक है। यदि बन्धकः किं देशबन्धकः? सर्व- यदि बंधक है तो क्या देश बंधक है? सर्व बन्धकः?
बंधक है? गौतम! देशबन्धकः वा, सर्वबन्धकः वा।। गौतम ! देश बंधक है अथवा सर्व बंधक है। वैक्रियशरीरस्य किं बन्धकः ? अबन्धकः? वैक्रिय शरीर का बंधक है? अबंधक है?
गोयमा!देसबंधए वा,सव्वबंधए वा। वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए?
१. भ. वृ.८/४३१. न हि ।कसमये औदारिकवैक्रिययोबंधो विद्यत इति कृत्वा
नो बंधक इति। २. वही. ८.४३९.-नैजसस्य पुनः संदेवाविरहित्वाद् बंधको देशबंधकेन
सर्वबंधस्तु नास्त्येव नस्येनि। ३. (क) त, यू. भा. वृ. २/४०.-एनयोश्च नैजसकार्मणोरवरतः प्रमाण
मंगुलासंख्येयभागः उत्कृष्टतश्चौदरिकशरीरप्रमाणे, केवलिनः समुद्घाने लोकप्रमाणे वा भवतः, मारणान्निकसमुद्घाते वा आयामती लोकान्ता:श्लोकान्तायते स्यातामिति। (ख) त. रा. वा. २/४८ की वृत्ति-तैजसकार्मण जघन्येन यथोपानीदारिक शरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलीसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे।
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श.८: उ.९ : सू. ४४५-४४७
एवं चैव। एवम् आहारकस्यापि।
अबंधए? एवं चेव । एवं आहारगस्स वि। कम्मगसरीरस्स किं बंधए? अबंधए? गोयमा! बंधए, नो अबंधए। जइ बंधए किं देसबंधए? सव्व-बंधए?
कर्मकशरीरस्य किं बन्धकः ? अबन्धकः ? गौतम ! बन्धकः, नो अबन्धकः। यदि बन्धकः किं देशबन्धकः ? सर्वबन्धकः।
इसी प्रकार वक्तव्य है। इसी प्रकार आहारक शरीर की वक्तव्यता। कर्म शरीर का बंधक है? अबंधक है? गौतम ! बन्धक है, अबंधक नहीं है। यदि बंधक है तो क्या देश बंधक है? सर्व बंधक है? गौतम ! देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
गोयमा! देसबंधए, नो सव्वबंधए।
गौतम! देशबन्धकः नो सर्वबन्धकः।
४४६. जस्स णं भंते! कम्मासरीरस्स यस्य भदन्त ! कर्मकशरीरस्य देशबन्धः, स देसबंधे, से णं भंते! ओरालिय- भदन्त ! औदारिकशरीरस्य किं बन्धकः? सरीरस्स किं बंधए? अबंधए?
अबन्धकः? गोयमा! नो बंधए, अबंधए। जहा। गौतम! नो बन्धकः, अबन्धकः। यथा तेयगस्स वत्तव्वया भणिया तहा। तैजस-कस्य वक्तव्यता भणिता तथा कम्मगस्स वि भाणियव्वा जाव- कर्मकस्यापि भणितव्या यावत्तेयासरीरस्स किं बंधए? अबंधए? तैजसशरीरस्य किं बन्धकः ? अबन्धकः?
४४६. भंते! जिसके कर्म शरीर का देश बंध है, भंते! क्या वह औदारिक शरीर का बंधक है ? अबंधक है? गौतम ! बंधक है अथवा अबंधक है, जैसेतैजस शरीर की वक्तव्यता वैसे ही कर्म शरीर की वक्तव्यता, यावतक्या तैजस शरीर का बंधक है? अबंधक
गोयमा! बंधए, नो अबंधए। जइ बंधइ किं देसबंधए? सव्व-बंधए?
गौतम ! बन्धकः, नो अबन्धकः। यदि बध्नाति किं देशबन्धकः ? सर्वबन्धकः।
गौतम ! बंधक है, अबंधक नहीं है। यदि बंधक है तो क्या देश बंधक है ? सर्व बंधक है? गौतम ! देश बंधक है, सर्व बंधक नहीं है।
गोयमा! देसबंधए, नो सव्वबंधए।
गौतम ! देशबन्धकः नो सर्वबन्धकः।
भाष्य
१.सूत्र ४४५-४४६
तैजस और कार्मण शरीर की पुनर्रचना (देशबंध) के समय जीव औदारिक शरीर का बंधक होता है अथवा अबंधक ? इस प्रश्न का उत्तर वैकल्पिक है। विग्रह गति (अंतराल गति) में जीव
औदारिक शरीर का अबंधक होता है। अविग्रह गति (एक समय की अंतराल गति, ऋजुगति) वाला जीव उत्पनि के प्रथम समय में औदारिक शरीर का सर्वबंधक और द्वितीय आदि समयों में देश बंधक होता है।
४४७. एएसि णं भंते! जीवाणं ओरा- एतेषां भदन्त ! जीवानाम औदारिक-वैक्रिय- १४७. भंते! इन औदारिक. वैक्रिय, लियवेउब्विय-आहारगतेयाकम्मा-सर- आहारक-तैजसकर्मकशरीरकाणां देशबन्ध- आहारक, तैजस और कर्म शरीर के देश रिगाणं देसबंधगाणं, सव्वबंध-गाणं, कानां, सर्वबन्धकानाम्, अबन्धकानां च बंधक, सर्व बंधक और अबंधक जीवों में अबंधगाण य कयरे कयरे-हिंतो अप्पा कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा ? बहुकाः वा? कौन किनसे अल्प, बहु, तुल्य अथवा वा? बहया वा?तुल्ला वा? विसेसाहिया तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा?
विशेषाधिक है? वा? गोयमा!१. सव्वत्थोवा जीवा आहारग- गौतम! १. सर्वस्तोकाः जीवाः आहारक- गौतम! १. आहारक शरीर के सर्व बंधक सरीरस्स सव्वबंधगा २. तस्स चेव शरीरस्य सर्वबन्धकाः? २. तस्य चैव जीव सबसे अल्प हैं। २. उसके देश बंधक देसबंधगा संखेज्जगुणा ३. वेउब्विय- देशबन्धकाः संख्येयगुणाः ३. वैक्रियशरीर- उससे संख्येयगुण हैं। ३. वैक्रिय शरीर के सरीरस्स सव्वबंधगा असंखेज्जगुणा ४. स्य सर्वबन्धकाः असंख्येयगुणाः ४. तस्य सर्व बंधक उससे असंख्येय गुण हैं। ४. तस्स चेव देस-बंधगा असंखेज्जगुणा ५. चैव देशबन्धकाः असंख्येयगुणाः ५.तैजस- उसके देश बंधक उससे असंख्येय गुण हैं। तेया-कम्मगाणं अबंधगा अणंत-गुणा ६. कर्मकाणाम् अबन्धकाः अनन्तगुणाः ६. ५. तैजस और कर्म शरीर के अबंधक ओरालियसरीरस्स सव्वबंधगा अणंत- औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धकाः अनन्त- उससे अनंत गुण हैं। ६. औदारिक शरीर गुणा ७. तस्स चेव अबंधगा विसेसाहिया गुणा: ७. तस्य चैव अबन्धकाः विशेषा- के सर्वबंधक उससे अनंत गुण हैं। ७. ८. तस्स चेव देस-बंधगा असंखेज्जगुणा धिकाः ८. तस्य चैव देशबन्धकाः असंख्- उसके अबंधक उससे विशेषाधिक हैं। ८. १. भ. वृ. ८/४४५-लैजसदेशबंधकः औदारिकशरीरस्य बंधको वा स्याद- क्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबंधक, द्वितीयादी नु देशबंधक इनि, एवं बंधको वा, तब विग्रह वर्तमानो बंधकोऽविग्रहस्यः पुनबंधकः स एवोत्पत्ति- कार्मणशरीरदेश-बंधकदण्डकेपि वाच्यमिति।
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श. ८ : उ. ९ : सू. ४४७,४४८
९. या कम्मगाणं सबंधगा विसेसाहिया १० वेउब्वियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ११. आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ।।
४४८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
१७२
येयगुणाः ९. तैजस- कर्मकाणां देशबन्धकाः विशेषाधिकाः १०. वैक्रियशरीरस्य अबन्धकाः विशेषाधिकाः ११. आहारकशरीरस्य अबन्धकाः विशेषाधिकाः ।
१. भ. वृ. ८ ४४०
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
१. सूत्र ४४७
१. चतुर्दशपूर्वी विशिष्ट प्रयोजनवश आहारक शरीर का निर्माण करते हैं। उसका प्रथम समय सर्वबंध का होता है। इस अपेक्षा से आहारक शरीर के सर्वबंधक सबसे अल्प होते हैं। द्वितीय समय से देश बंध का प्रारंभ हो जाता है।
भाष्य
२. आहारक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्त है। इस अपेक्षा से आहारक शरीर के देशबंधक असंख्येयगुण हैं।
३. वैक्रिय शरीर देव और नारक के भवधारणीय होता है तथा मनुष्य और तिर्यंच के लब्धिजन्य होता है। इस प्रकार वह बहुत व्यापक है इसलिए आहारक की अपेक्षा वैक्रिय शरीर के सर्वबंधक असंख्यात गुण अधिक होते हैं।
४. सर्वबंधक की अपेक्षा देशबंधक का काल अधिक होता है, इस अपेक्षा से वैक्रिय शरीर के देशबंधक सर्वबंधक की अपेक्षा असंख्यात गुण अधिक होते हैं।
५. सिद्ध जीव वनस्पति के जीवों को छोड़कर शेष सब जीवों से अनंत गुण अधिक हैं। उनके तैजस और कार्मण शरीर नहीं होता । इस अपेक्षा से तैजस कार्मण के अबंधक वैक्रिय शरीर देशबंधकों से अनंतगुण अधिक होते हैं।
६. वनस्पति आदि जीवों की अपेक्षा से औदारिक शरीर के सर्वबंधक तैजस कार्मण के अबंधकों से अनन्तगुण अधिक हैं। ७. विग्रह गति वाले जीव सर्वबंधकों से बहुतर होते हैं। इस
भगवई
उसके देश बंधक उससे असंख्येय गुण हैं। ९. तैजस और कर्मशरीर के देश बंधक उससे विशेषाधिक हैं । १०. वैक्रियशरीर के अबंधक उससे विशेषाधिक हैं । ११. आहारक शरीर के अबंधक उससे विशेषाधिक हैं।
४४८. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है।
अपेक्षा से औदारिक शरीर के अबंधक विशेषाधिक बतलाए गए हैं। सिद्ध इसमें विवक्षित नहीं है।
८. विग्रह काल की अपेक्षा देशबंध का काल असंख्यान गुण अधिक होता है, इस अपेक्षा से औदारिक के देशबंधक उसके अबंधक की अपेक्षा असंख्यात गुणा हैं।
९. सब संसारी जीव तैजस और कार्मण शरीर के देशबंधक होते हैं। विग्रह गति वाले, औदारिक शरीर के सर्व बंधक और वैक्रिय और आहारक शरीर के बंधक औदारिक के देशबंधकों से अतिरिक्त होते हैं। इस अपेक्षा से तैजस और कार्मण के देशबंधक विशेषाधिक बतलाए गए हैं।
१०. वैक्रिय शरीर के बंधक प्रायः देव और नारक ही हैं। शेष संसारी जीव और सिद्ध उसके अबंधक हैं। इस अपेक्षा से वैक्रिय शरीर के अबंधक तैजस कार्मण के देशबंधकों से विशेषाधिक बतलाए गए हैं।
११. आहारक शरीर के बंधक केवल मनुष्य ही होते हैं। वैक्रिय शरीर के बंधक दूसरे जीव भी होते हैं इसलिए आहारक के बंधक वैक्रिय के बंधकों से अल्प होते हैं। इस अपेक्षा से आहारक शरीर के अबंधक वैक्रिय शरीर के अबंधकों से विशेषाधिक हैं।
वृत्तिकार ने इस प्रसंग में छत्तीस गाथाएं उद्धृत की हैं। बंध की विस्तृत जानकारी के लिए द्रष्टव्य यंत्र
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भगवई
(भगवती शतक ८/९ के अनुसार)
बंध
प्रयोग बंध
7 विससा बंध
सादिक विससा बंध
अनादिक विससा बंध
अनादि अपर्यवसित
सादि-अपर्यवसित
आलापन बंध आलीन करण बंध
शरीर बंध बंधन प्रत्ययिक भोजन प्रत्ययिक परिणाम प्रत्यधिक
आकाशास्तिकाय पूर्वप्रयोग प्रत्ययिक बंध प्रत्युत्पन्न प्रयोग त्ययिक बंध
शरीर प्रयोग बंध
अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य का अन्योन्य श्लेषणा बंध उव्यय बंध समुच्चयबंध संहनन
धर्मास्तिकाय का अन्योन्य । बिससा बंध अनादिक विससा बंध -
अनादिक विससा बंध देश संहनन बंध सर्व संहननबंध
आहारकरीर तैजस शरीर कामण शरीर प्रयोग बंध औदारिक शरीर प्रयोग बंध वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध प्रयोग बंध
प्रयोग बंध
(केवल मनुष्य के आहारक शरी एकेन्द्रिय औदारिकॉन्द्रिय औदारिक वीन्द्रिय औदारिक चतुरिन्द्रिय औदारिक पंचेन्द्रिय औदारिक
प्रयोग बंध से होता है। शरीर प्रयोग बंध शरीर प्रयोग बंध शरीर प्रयोग बंध शरीर प्रयोग बंध।
शरीर प्रयोग बंध
एकेन्द्रिय वैक्रिय भरीर प्रयोग बंध (पृथ्वीकायिक, एकेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बंध से लेकर
'एकेन्द्रिय तेजस शरीर प्रयोग बंध से यावत् पंचेन्द्रिय तक। यावत प्रज्ञापना पद २१ के पर्याप्ति-गर्भज-मनुष्य-पंचेन्द्रिय औदारिक
पंचेन्द्रिय वैक्रिय शेष भेद प्रज्ञापना पदम के अनुसारशरीर प्रयोग बंध और अपर्याप्त गर्भज-मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक
शरीर प्रयोगबंध शरीर-प्रयोग बंध तक के समस्त भेद)
(ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग बंध यावत् अन्तराय
कर्मणशरीर प्रयोग बंध)
१७३
अनादि अपर्यवसित (काल की अपेक्षा)
अनादि सपर्यवसित (काल की अपेक्षा)
(वायुकायिक एकेन्द्रिय बैक्रिय शरीरबप्रयोग बंध से लेकर यावत् प्रज्ञापना पद २१ के पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरीपपातिक कल्पातीत-वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध तक के समस्त भेद)
श.८ : उ.९ : सू. ४४७
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श.८ : उ.९: सू. ४४७
(षट्खंडागम बंधन अनुयोगद्वार सूत्र २-६४ के अनुसार)
बध
नाम बंध
स्थापना बंध
द्रव्य बंध
भावबंध
सदभाय स्थापना बंध संदभाव स्थापना
आगमभावबंध
नो आगमभाव बंध,
जीवभाव बंध
अजीव भाव बंध
आगमद्रव्य बंधनो आगम द्रव्य बंध
प्रयोग बंध
विखसा बंध
विपाक प्रत्ययिक जीव भाव बंध
अविपाक प्रत्ययिक जीव भाव बंध
तदुभय प्रत्ययिक विपाक अविपाक तदुभय जीव 'भाव बंध अत्यधिक प्रत्यायिक प्रत्ययिक
अजीवभाव अनीवभाव अनीवभाव बंध बंध कर्मबंध
सादि विससा बंध / अनादि विससा बंध
कर्मबंध कर्म बंध के ६४ भेद कर्म अनुयोग द्वारा
मा कर्मबंध
धर्मास्तिकाय विषयक अनादि अनादि विससा बंध
अधमास्तिकाय विषयक आकाशास्तिकाय विषयक अनादि विससाबंध अनादि विससा बंध
आलापनबंध
अन्लीणबंध संरक्ष
शरीर बंध
शरीर बंध
औदारिक शरीर बंध. वैक्रिय शरीर बंध
आहारक शरीर बंध *
तैजस शरीर बंध
* कर्मण शरीर बंध
सादि शरीर बंध
अनादि शरीर बध
भगवई
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दसमो उद्दसो : दसवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
सुय-सील-पदं ४४९. रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव एवं परुति- एवं खलु १. सील सेयं २. सुयं सेयं ३. सुयं सील सेयं॥
श्रुतशील-पदम् राजगृहे नगरे यावत् एवमवादिषुः- अन्ययूथिकाः भदन्त ! एवमाख्यान्ति यावत् एवं प्ररूपयन्ति-एवं खलु १. शीलं श्रेयः २. श्रुतं श्रेयः ३. श्रुतं शीलं श्रेयः।
श्रुतशील पद ४४९. 'राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते ! अन्ययूथिक इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं१. शील श्रेय है २. श्रुत श्रेय है ३. श्रुत और शील श्रेय है।
४५०. से कहमेयं भंते ! एवं? अथ कथमेतद् भदन्त । एवम् ?
४५०. भंते! यह कैसे है? गोयमा! जण्णं ते अण्णउत्थिया गौतम ! यत् ते अन्ययूथिकाः एवमाख्यान्ति गौतम! जो अन्ययूथिक इस प्रकार एवमाइक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु, यावत् ये ते एवमाहुः, मिथ्या ते एवमाहुः। अहं आख्यान करते हैं यावत् इस प्रकार कहते मिच्छा ते एवमाहंसु। अहं पुण गोयमा! पुनः गौतम! एवमाख्यामि यावत् हैं, वे मिथ्या कहते हैं। गौतम ! मैं इस एवमाइक्खामि जाव परूवेमिप्ररूपयामि
प्रकार आख्यान करता हूं यावत् प्ररूपणा
करता हूंएवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया एवं खलु मया चत्वारः पुरुषजाताः प्रज्ञप्ताः, मैंने चार प्रकार के पुरुषों का प्रज्ञापन पण्णत्ता, तं जहा-१. सीलसंपन्ने नाम तद्यथा-१. शीलसम्पन्नः नाम एकः नो किया जैसे-१. कोई पुरुष शील संपन्न एगे नो सुयसंपन्ने २. सुयसंपन्ने नाम एगे श्रुतसम्पन्नः २. श्रुतसम्पन्नः नाम एकः नो होता है, श्रुत संपन्न नहीं होता २. कोई नो सीलसंपन्ने ३. एगे सीलसंपन्ने वि शीलसम्पन्नः३. एकः शीलसम्पन्नोऽपि पुरुष श्रुत संपन्न होता है, शील संपन्न सुयसंपन्ने वि ४. एगे नो सीलसंपन्ने नो श्रुतसम्पन्नोऽपि ४. एकः नो शीलसम्पन्न: नहीं होता। ३. कोई पुरुष शील संपन्न भी सुयसंपन्ने। नो श्रुतसम्पन्नः।
होता है, श्रुत संपन्न भी होता है ४. कोई पुरुष न शील संपन्न होता है और न श्रुत
संपन्न होता है। तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से णं तत्र यः सः प्रथमः पुरुषजातः सः पुरुषः । जो प्रथम प्रकार का पुरुष है वह शीलवान पुरिसे सीलवं असुयवं-उवरए, शीलवान् अश्रुतवान्-उपरतः, अविज्ञात- है, श्रुतवान नहीं है-उपरत है, धर्म का अविण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए धर्माः। एष गौतम ! मया पुरुषः देशाराधकः विज्ञाता नहीं है। गौतम ! उस पुरुष को मैंने पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः।
देशाराधक कहा है। तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए से णं तत्र यः सः द्वितीयः पुरुषजातः सः पुरुष जो दूसरे प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान पुरिसे असीलवं सुयवं-अणुवरए, अशीलवान् श्रुतवान्-अनुपरतः, विज्ञात- नहीं है. श्रुतवान है-उपरत नहीं है. धर्म का विण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए धर्मा। एष गौतम ! मया पुरुषः देशविराधकः विज्ञाता है। गौतम! उस पुरुष को मैंने पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः ।
देशविराधक कहा है। तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं तत्र यः सः तृतीयः पुरुषजातः सः पुरुषः जो तीसरे प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान पुरिसे सीलवं सुयवं-उवरए, शीलवान् श्रुतवान्-उपरतः विज्ञातधर्मा। है श्रुतवान भी है-उपरत है। धर्म का
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श.८ : उ. १० : सू. ४५०
भगवई विण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए एष गौतम! मया पुरुषः सर्वाराधकः विज्ञाता भी है। गौतम ! उस्स पुरुष को मैंने पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते। प्रज्ञप्तः ।
सर्वाराधक कहा है। तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए से णं । तत्र यः सः चतुर्थः पुरुषजातः सः पुरुषः जो चतुर्थ प्रकार का पुरुष है वह शीलवान पुरिसे असीलवं असुयवं-अणुवरए, अशीलवान् - अश्रुतवान् अनुपरतः,अवि- नहीं है. श्रुतवान भी नहीं है-उपरत नहीं है, अविण्णायधम्मे। एस णं गोयमा! मए ज्ञातधर्मा। एष गौतम ! मया पुरुषः धर्म का विज्ञाता भी नहीं हैं। पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते॥ सर्वविराधकः प्रज्ञप्तः।
गौतम! उस पुरुष को मैंने सर्व विराधक
कहा है।
भाष्य १. सूत्र ४४९-४५०
तीसरा पुरुष शील और श्रुत-दोनों से संपन्न है इसलिए वह भगवान महावीर के समय में अनेक मतवाद प्रचलित थे। समग्रता से मोक्षमार्ग की आराधना करने वाला है। प्रस्तुत प्रकरण में ज्ञानवाद, क्रियावाद और उभयवाद-इन तीन मतों प्रथम पक्ष मिथ्यादृष्टि का है। दूसरा पक्ष व्रत रहित सम्यगदृष्टि का उल्लेख किया गया है।
का है। तीसरा पक्ष सम्यग् दृष्टि सम्पन्न व्रती का है।' शील श्रेय है-यह क्रियावाद की अवधारणा है। श्रुत (ज्ञान) प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपादित अनेकांत दृष्टि को नियुक्तिकार ने श्रेय है-यह ज्ञानवाद की अवधारणा है। श्रुत भी श्रेय है और शील भी विस्तार से समझाया है--कोरे श्रुतज्ञान से मोक्ष नहीं मिलता यदि तप श्रेय है-कोई व्यक्ति श्रुत से पवित्र बनता है और कोई शील से पवित्र और संयम का योग न मिले। चरित्र नहीं है तो बहुत पढ़ा हुआ श्रुत भी बनता है, यह उभयवाद की अवधारणा है।
प्रकाश नहीं करता। कोटि-कोटि दीप भी अंधपुरुष को प्रकाश नहीं दे क्रियावाद के बीज मीमांसक दर्शन में खोजे जा सकते है। पाते। ज्ञानवाद की अवधारणा वेदांत में उपलब्ध है।
___ चरित्र है तो अल्प श्रुत भी प्रकाशित कर देता है। चक्षुष्मान भगवान् महावीर ने अनेकांत दर्शन के आधार पर इन तीनों पुरुष को एक दीप भी प्रकाश दे देता है। चंदन का भार ढोने वाला मतभेदों को अस्वीकार किया। उनका दर्शन है-श्रुत और शील गधा चंदन का भागी नहीं, केवल चंदन का भार ढोता है। इसी प्रकार समुदित रूप में ही श्रेय हैं। इस सिद्धांत का अनेकांतात्मक स्वरूप चरित्र शून्य ज्ञानी-मोक्ष का भागी नहीं है, केवल ज्ञान का भार ढोता आराधक और विराधक-इन दोनों पदों के द्वारा समझाया गया। है। क्रियाहीन ज्ञान पूर्णता की ओर नहीं ले जाता। ज्ञान शून्य क्रिया
एक पुरुष शीलवान है, श्रुतवान नहीं है-उसे मैं देशाराधक भी पूर्णता की ओर नहीं ले जाती। क्रिया शून्य ज्ञान पंगु है, ज्ञान शून्य कहता हूं। मोक्ष का मार्ग है-सम्यग् दर्शन, सम्यग ज्ञान और सम्यग् क्रिया अंध है। चारित्र। वह पुरुष शीलवान है, उपरत (अकरणीय से निवृत्त) है किन्तु एक चक्के से रथ नहीं चलता। संयोग ही सफल होता है। ज्ञान श्रुतवान नहीं है, विज्ञात धर्मा नहीं है इसलिए वह मोक्ष मार्ग का प्रकाश करता है। तप कर्म का शोधन करता है। संयम कर्म का निरोध देशाराधक है। सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान रहित है इसलिए वह करता है। इनका समायोग ही मोक्ष का मार्ग है।' मोक्ष मार्ग का पूर्ण आराधक नहीं है। शीलवान है, क्रिया करने वाला प्रस्तुत सूत्र भगवान महावीर की सार्वभौम धर्म की दृष्टि का है इसलिए वह आंशिक आराधना करने वाला है।
प्रतिनिधि सूत्र है। जिन जीवों में सम्यग दर्शन, सम्यग् ज्ञान और दूसरा पुरुष श्रुतवान है, विज्ञात धर्मा है किन्तु शीलवान नहीं सम्यग चारित्र की समुदित आराधना नहीं है, वे अपनी एकांगी है, उपरत नहीं है, इसलिए वह देश विराधक है, त्रयात्मक मोक्ष मार्ग आराधना पर भी मोक्ष मार्ग की ओर चरण बढ़ा सकते हैं। इस सूत्र के के केवल चारित्र अथवा शील का अनुपालन नहीं कर रहा है इसलिए आधार पर आचार्य भिक्षु ने प्रथम गुणस्थानवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव की वह आंशिक विराधना करने वाला है।
क्रिया. आचरण को विशुद्ध बतलाया था। जयाचार्य ने इस विषय में १. भ. वृ. ८/३४०.-३५०-पुरिस जाय ति पुरुषप्रकाराः सीलवं असुयमिति
सुबहुंपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पहीणस्स। कोपर्थः १ उवराए अविन्नाय धम्मेनि 'उपरतः निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात्
अंधस्स जह पालित्ता दीवसयसहस्स कोडीवि॥ अविज्ञातधर्मा भावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः गीतार्थानिथितत
अप्पपिसूयमहीयं पयासयं होइ चरणजुतस्य। पश्चरणनिरतोऽगीतार्थ इत्यन्येदेसाराहा'नि देशं-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधय
इक्कोवि जह पईपो सचक्खुस्सा पयासेड़।। तीत्यर्थः सम्यगबोधरहितत्वात् क्रियापरत्वाच्चेति असीलवं सुयवं ति कोऽर्थः ?
जहा खरो चंदणं भारवाही, भारस्य भागी न हु चंदणस्स। अणुवरणविनायधम्मेति पापादनिवृत्तो विज्ञानधर्मा चाविरतिसम्यग्दृष्टिरितिभावः
एवं खु नाणी चरणेण हीणो नाणस्स भागी न हु सोग्गईए।। देशविराहा ति देश-स्तोकमंशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं
हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणओ किया। चारिखं विराधयतीत्यर्थः प्राप्सस्य तस्यापालनाद-प्राप्तोर्वा । सव्वाराहए त्ति
पासंतो पंगुलो दइठो धावमाणो य अंधओ|| सव्वत्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयो:
संजोगसिद्धीइ फलं वयंति न हु एगचक्केण रहो पयाइ। संगृहीतत्वात् नहि मिथ्यादृष्टि विज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति, एतेन समुदितयो
अंधो य पंगु य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्टा ॥
नाणं पयासगं सोहओ-तवा संजमो य गुसि करो। शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति ‘सव्वाराहए' त्युक्तम॥
निग्रहंपि समाजोगे, मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥ २. आ. नि. गा.९८-१०३ पृ. १२२-१२४
३. मिध्यात्वी की करणी री चौपई।
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भगवई
१७७
श.८ : उ. १० : सू. ४५१-४५६ होने वाले प्रश्न का सम्यक समाधान दिया। उनके सामने प्रश्न दोनों आराधना के अंग हैं। था-मिथ्यादृष्टि तपस्वी के संवर नहीं होता फिर वह मोक्ष मार्ग का देश मिथ्यादृष्टि को निर्जरा की अपेक्षा देश आराधक कहा गया आराधक कैसे हो सकता है?
है। द्रष्टव्य भगवती ७/१५६-१५७ जयाचार्य ने इसके समाधान में लिखा-संवर और निर्जरा-ये
आराहणा-पदं
आराधना-पदम ४५१. कतिविहा णं भंते! आराहणा कतिविधा भदन्त ! आराधना प्रज्ञप्ता? पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं गौतम! त्रिविधा आराधना प्रज्ञप्ता, जहा-नाणाराहणा, दसणाराहणा, तद्यथा-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चरित्ताराहणा॥
चरित्राराधना।
आराधना पद ४५१. 'भंते! आराधना के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम! आराधना के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना, चरित्राराधना।
४५२. नाणाराहणा णं भंते! कतिविहा ज्ञानाराधना भदन्त ! कतिविधा प्रज्ञप्ता? पण्णत्ता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम! त्रिविधा प्रज्ञप्ता. तद्यथाउक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा॥ उत्कर्षिका, मध्यमा, जघन्या।
४५२. भंते! ज्ञानाराधना के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं? गौतम ! तीन प्रकार प्रजप्त है, जैसे-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य।
४५३. दंसणाराहणा णं भंते! कतिविहा दर्शनाराधना भदन्त ! कतिविधा प्रज्ञप्ता? पण्णता? गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- गौतम ? त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाउक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा॥ उत्कर्षिका, मध्यमा, जघन्या।
४५३. भंते! दर्शनाराधना के कितने प्रकार प्रज्ञात हैं? गौतम! तीन प्रकार प्रजप्त हैं, जैसे-उत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य।
चरित्राराधना भदन्त ! कतिविधा प्रज्ञप्ता?
४५४. चरित्ताराहणा णं भंते ! कति-विहा पण्णत्ता! गोयमा! तिविहा पण्णत्ता, तं जहाउक्कोसिया, मज्झिमा, जहण्णा ॥
४५४. भंते! चरित्राराधना के कितने प्रकार प्रज्ञप्त है ? गौतम! तीन प्रकार प्रज्ञप्त है, जैसेउत्कृष्ट, मध्यम, जघन्य।
गौतम! त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाउत्कर्षिका, मध्यमा, जघन्या।
४५५. जस्स णं भंते! उक्कोसिया नाणा- यस्य भदन्त ! उत्कर्षिका ज्ञानाराधना तस्य ४५५. भंते! जिसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है राहणा तस्स उक्कोसिया दंसणारा- उत्कर्षिका दर्शनाराधना ? यस्य उत्कर्षिका क्या उसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना है? हणा? जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा दर्शनाराधना तस्य उत्कर्षिका ज्ञानाराधना? जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना है क्या तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा?
उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है? गोयमा! जस्स उक्कोसिया नाणा- गौतम! यस्य उत्कर्षिका ज्ञानाराधना तस्य गौतम! जिसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है, राहणा तस्स दसणाराहणा उक्कोसा वा दर्शनाराधना उत्कृष्टा वा अजघन्योत्कृष्टा उसके दर्शनाराधना उत्कृष्ट अथवा अजहण्णुक्कोसा वा। जस्स पुण वा, यस्य पुनः उत्कर्षिका दर्शनाराधना तस्य अजघन्य-उत्कृष्ट होती है। जिसके उत्कृष्ट उक्कोसिया सणाराहणा तस्स ज्ञानाराधना उत्कृष्टा वा, जघन्या वा, दर्शनाराधना है, उसके ज्ञानाराधना नाणाराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजघन्यानुत्कृष्टा वा।
उत्कृष्ट- जघन्य अथवा अजघन्य-अनुत्कृष्ट अजहण्णमणुक्कोसा वा॥
होती है।
४५६. जस्स णं भंते! उक्कोसिया नाणा- यस्य भदन्त उत्कर्षिका ज्ञानाराधना तस्य ४५६. भंते ! जिसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है, राहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ता- उत्कर्षिका चरित्राराधना ? यस्य उत्कर्षिका क्या उसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है, राहणा? जस्स उक्कोसिया चरित्ता. चरित्राराधना तस्य उत्कर्षिका जिसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है, क्या राहणा तस्स उक्कोसिया नाणाराहणा? ज्ञानाराधना?
उसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है?
१. भमविध्वंसनम मिथ्यात्वी क्रियाधिकार।
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श. ८ : उ. १० : सू. ४५६-४६०
गोयमा ! जस्स उक्कोसिया नाणाराहणा तस्स चरिताराहणा उक्कोसा वा अजहण्णुक्कोसा वा । जस्स पुण उक्कोसिया चरिताराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुक्कोसा वा ॥
४५७. जस्स णं भंते! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरिताराहणा ? जस्स उक्कोसिया चरिताराहणा तस्स उक्कोसिया
दंसणाराहणा ?
गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दसणाराहणा तस्स चरिताराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजह urमणुक्कोसा वा । जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स दंसणाराहणा नियमा उक्कोसा ॥
४५८. उक्कोसियण्णं भंते! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवरगहणेहिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भव-ग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करेति, अत्थेगतिए कप्पोवएस वा कप्पातीएस वा उववज्जति ॥
४५९. उक्कोसियण्णं भंते! दंसणा राहणं आराहेत्ता कति हिं भवग्गह- हिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भव-ग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व - दुक्खाणं अंतं करेति, अत्थेगतिए कप्पोवएस वा कप्पातीएस वा उववज्जति ।।
४६०. उक्कोसियण्णं भंते! चरित्ता- राहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गह- हिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करेति, अत्थेगतिए कप्पातीएसु उववज्जति ॥
१७८
गौतम ! यस्य उत्कर्षिका ज्ञानाराधना तस्य चरित्राराधना उत्कृष्टा वा अजघन्योत्कृष्टा वा यस्य पुनः उत्कर्षिका चरित्राराधना तस्य ज्ञानाराधना उत्कृष्टा वा जघन्या वा अजघन्यानुत्कृष्टा वा ।
यस्य भदन्त ! उत्कर्षिका दर्शनाराधना तस्य उत्कर्षिका चरित्राराधना ? यस्य उत्कर्षिका चरित्राराधना तस्य उत्कर्षिका दर्शनाराधना ?
गौतम ! यस्य उत्कर्षिका दर्शनाराधना तस्य चरित्राराधना उत्कृष्टा वा जघन्या वा, अजघन्यानुत्कृष्टा वा । यस्य पुनः उत्कर्षिका चरित्राराधना तस्य दर्शनाराधना नियमात् उत्कृष्टा ।
उत्कर्षिकां ज्ञानाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, अस्त्येककः कल्पोपकेषु वा कल्पातीतेषु वा उपपद्यते ।
उत्कर्षिका भदन्त! दर्शनाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, अस्त्येककः कल्पोपकेषु वा कल्पातीतेषु वा उपपद्यते ।
उत्कर्षिका भदन्त ! चरित्राराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः तेनैव भवग्रहणेण सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति अस्त्येककः कल्पातीतेषु उपपद्यते ।
भगवई गौतम ! जिसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना है। उसके चरित्राराधना उत्कृष्ट अथवा अजघन्य उत्कृष्ट होती है। जिसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है, उसके ज्ञानाराधना उत्कृष्ट, जघन्य अथवा अजघन्य अनुत्कृष्ट होती है।
४५७. भंते! जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना है क्या उसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है ? जिसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है क्या उसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना है ?
गौतम ! जिसके उत्कृष्ट दर्शनाराधना है, उसके चरित्राराधना उत्कृष्ट, जघन्य अथवा अजघन्य - अनुत्कृष्ट होती है। जिसके उत्कृष्ट चरित्राराधना है उसके दर्शनाराधना नियमतः उत्कृष्ट होती है।
४५८. भंते! उत्कृष्ट ज्ञानाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है?
गौतम ! कोई जीव उसी भव में सिद्ध हो जाता है यावत् सब दुःखों का अंत कर देता है। कोई जीव कल्प अथवा कल्पातीत स्वर्ग में उपपन्न हो जाता है।
४५९. भंते! उत्कृष्ट दर्शनाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करना है ?
गौतम ! कोई जीव उसी भव में सिद्ध हो जाता है यावत् सब दुःखों का अंत कर देता है। कोई जीव कल्प अथवा कल्पातीत स्वर्ग में उपपन्न हो जाता है।
४६०. भंते! उत्कृष्ट चरित्राराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ? गौतम! कोई जीव उसी भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत कर देता है। कोई जीव कल्पातीत स्वर्ग में उपपन्न हो जाता है।
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भगवई
४६१. मज्झिमियण्णं भंते! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवरगहणेहिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व- दुक्खाणं अंत करेति, तच्चं पुण भवग्गहणं
नाइक्कमइ ॥
४६२. मज्झिमियण्णं भंते! दंसणा राहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गह- हिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंत करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए दोच्चणं भवगहणं सिज्झति जाव सव्व - दुक्खाणं अंतं करेति, तच्चं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ ॥
४६३. मज्झिमियण्णं भंते! चरित्ता राहणं आराहेत्ता कतिहि भवग्गह- हिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करेति, तच्चं पुण भवरगहणं
नाइक्कमइ ॥
४६४. जहण्णियण्णं भंते! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहि भवरगहणेहिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा! अत्थेगतिए तच्चेणं भवगहणं सिज्झति जाव सव्व- दुक्खाणं अंत करेति, सत्तट्ठ भवग्गहणाई पुण
नाइक्कमइ ||
४६५. जहण्णियण्णं भंते! दंसणा - राहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गह- हिं सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ?
गोयमा ! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झति जाव सव्व दुक्खाणं अंतं करेति, सत्तट्ठ भवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ ॥
१७९
माध्यमिकी भदन्त ! ज्ञानाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः द्वितीयेन भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, तृतीयं पुनः भवग्रहणं नातिक्रामति ।
माध्यमिक भदन्त! दर्शनाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः द्वितीयेन भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, तृतीयं पुनः भवग्रहणं नातिक्रामति ।
माध्यमिकी भदन्त ! चरित्राराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः द्वितीयेन भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति तृतीयं पुनः भवग्रहणं नातिक्रामति ।
जघन्यिकां भदन्त ! ज्ञानाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम ! अस्त्येककः तृतीयेन भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, सप्ताष्टौ भवग्रहणानि पुनः नातिक्रामति ।
जघन्यिकां भदन्त! दर्शनाराधनाम् आराध्य कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
गौतम! अस्त्येककः तृतीयेन भवग्रहणेन सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति, सप्ताष्टौ भवग्रहणानि पुनः नातिक्रामति ।
श. ८ : उ. १० : सू. ४६१-४६५ ४६१. भंते! मध्यम ज्ञानाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ?
गौतम! कोई जीव दूसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता।
४६२. भंते! मध्यम दर्शनाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ?
गौतम! कोई जीव दूसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता।
४६३. भंते! मध्यम चरित्राराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ?
गौतम ! कोई जीव दूसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करता।
४६४. भंते! जघन्य जानाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ?
गौतम ! कोई जीव तीसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता ।
४६५. भंते! जघन्य दर्शनाराधना की आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है ? गौतम ! कोई जीव तीसरे भव में सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता।
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श.८ : उ.१० : सू. ४६६
१८०
भगवई
४६६. जहणियण्णं भंते! चरित्ता- जघन्यिकां भदन्त ! चरित्राराधनाम् आराध्य ४६६. भंते! जघन्य चरित्राराधना की
राहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्ग-हणे- कतिभिः भवग्रहणैः सिध्यति यावत् आराधना कर जीव कितने भवों में सिद्ध हिं सिन्झति जाव सव्व- दुक्खाणं सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ?
होता है यावत् सब दुःखों का अंत करता अंतं करेति?
है? गोयमा! अत्थेगतिए तच्चेणं भवग्गह- गौतम! अस्त्येककः तृतीयेन भवग्रहणेन गौतम! कोई जीव तीसर भव में सिद्ध होता णेणं सिन्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति. है यावत् सब दुःखों का अंत करता है, करेति, सत्तट्ठ भवग्गहणाइं पुण सप्लाष्टौ भवग्रहणानि पुनः नातिक्रामति। सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करता। नाइक्कमइ॥
भाष्य १. सूत्र ४५१-४६६
है, चेतन और अचेतन जगत के प्रति दृष्टिकोण सम्यक् बन जाता है। साध्यसिन्द्रि के लिए आवश्यक है-साध्य और साधना दर्शनाराधना के अंग है-आचार का अनुपालन और अतिचार का आराध्य और आराधना का निर्धारण आध्यात्मिक विकास के तीन वर्जन। उसके व्यावहारिक आचार के आठ अंग बतलाए गए हैं। साधन है- ज्ञान, दर्शन और चारित्र। इस त्रयी के आधार पर -निःशंका, निष्कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि, उपबंहण आराधना के तीन प्रकार बतलाए गए है
(सम्यक् दर्शन की पुष्टि), स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना। १. ज्ञानाराधना।
द्रष्टव्य उत्तराध्ययन २८/३१ का टिप्पण। २. दर्शनाराधना।
१. उत्कृष्ट-दर्शनाराधना का प्रकृष्ट प्रयत्न ३. चारित्राराधना।
२. मध्यम-दर्शनाराधना का मध्यम प्रयत्न ज्ञानाराधना-अध्ययन, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, उद्दीपन और ३. जघन्य-दर्शनाराधना का अल्पतम प्रयत्न। महत्व का प्रकाशन, ज्ञान के काल, विनय आदि' आचार का चारित्राराधना-सावध योग का परित्याग, सामायिक का अनुपालन, अतिचार का वर्जन, स्वाध्यायानुरूप तप का अनुष्ठान-ये निरतिचार अनुपालन चारित्राराधना है। ज्ञानाराधना के अंग है।
चारित्राराधना के तीन प्रकार . ज्ञानाराधना के तीन प्रकार हैं
१. उत्कृष्ट-चारित्राराधना का प्रकृष्ट प्रयत्न। १. उत्कृष्ट-ज्ञानाराधना का उत्कृष्ट प्रयत्न।
२. मध्यम-चारित्राराधना का मध्यम प्रयत्न। २. मध्यम-ज्ञानाराधना का मध्यम प्रयत्न।
३. जघन्य चारित्राराधना का अल्पतम प्रयत्न। ३. जघन्य-ज्ञानाराधना का अल्पतम प्रयत्न।
आराधनात्रयी के साहचर्य और विकास की लरतमता की दर्शनाराधना-मोह की प्रबल ग्रंथि का भेद हो जाने पर दर्शन जानकारी के लिए देखें यंत्रकी चेतना जागृत होती है। उससे सम्यक दृष्टिकोण का निर्माण होता ज्ञान दर्शन
चारित्र उत्कृष्ट | मध्यम | जघन्य | उत्कृष्ट | मध्यम | जघन्य| उत्कृष्ट| मध्यम |
जघन्य प्रयत्न | प्रयत्न प्रयत्न | प्रयत्न | प्रयत्न प्रयत्न प्रयत्न | प्रयत्न प्रयत्न ज्ञान के उत्कृष्ट प्रयत्न में दर्शन के उत्कृष्ट प्रयत्न में चरित्र के उत्कृष्ट प्रयत्न में
CIL
है
जिसके उत्कृष्ट ज्ञानाराधना होती है, उसके दर्शनाराधना जघन्य नहीं होती। अभयदेव सूरि ने इसका हेतु स्वभाव बतलाया है। १. (क) व्य, भा. ६३--
काले विणए बहमाने, उवहाणे नहा अनिण्हवणे।
वंजण तदुभए अट्टविहो नाणमायारो॥ (ख) मूलाचार २/६९। २.उनरा. २८/३१
जयाचार्य का अभिमत भी यही है। स्वभाव की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-ज्ञानाराधना दर्शनाराधना के विकास का प्रबल हेतु
निस्संकिय निस्कंखिय निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्टी य।
उववृह थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ट। ३. भ. वृ. ८/४५५.४५७-उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि आये द्वे दर्शनाराधने
भवतो न पुनस्तृतीयः तथा स्वभावत्वानस्येति। १. भ. जो. २/१६६/१६॥
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भगवई
१८१
श.८ : उ. १० : सू. ४६७,४६८ है अतः उसके प्रकर्ष में दर्शनाराधना का प्रयत्न अल्पतम नहीं हो भगवती आराधना में आराधना के चार प्रकार बतलाए गए हैं सकता। उत्कृष्ट ज्ञानाराधना के प्रसंग में चारित्र के प्रति अल्पतम उसमें त्रिविध आराधना के अतिरिक्त तप आराधना का उल्लेख है।" प्रयत्न नहीं होता। अभयदेव सूरि ने इसे स्वीकार किया है।'
द्वितीय भव ग्रहण-अधिकृत मनुष्य भव की अपेक्षा दूसरा मनुष्य दर्शनाराधना और चारित्राराधना के प्रकर्ष में ज्ञानाराधना का जन्म। जघन्य हो सकती है। यथाख्यात चारित्र (वीतराग चारित्र) में जघन्य तृतीय भव ग्रहण-अधिकृत मनुष्य भव की अपेक्षा। तीसरा ज्ञान अष्ट प्रवचन माता का हो सकता है। बकुश निग्रंथ में जघन्य मनुष्य का जन्म। यहां चारित्राराधना युक्त ज्ञानाराधना और ज्ञान अष्ट प्रवचन माता का होता है।
दर्शनाराधना का उल्लेख है। इसमें अंतरालवर्ती देव भव का ग्रहण जैन साधना पद्धति में ज्ञानाराधना का बहत महत्व है। स्वाध्याय
नहीं है। के समान कोई तपस्या नहीं है --यह उसी का सूचक वाक्य है। प्रकृष्ट सप्त अष्ट भव ग्रहण-इसमें अधिकृत मनुष्य भव की अपेक्षा ज्ञानाराधना करने वाले व्यक्ति का दर्शनाराधना और चारित्राराधना आठ भव चारित्रयुक्त है। सात भव देवता के विविक्षित हैं। में अल्पतम प्रयत्न नहीं होता। प्रकृष्ट दर्शनाराधना और प्रकृष्ट बकुश, प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशील निर्गथ के उत्कृष्ट चारित्राराधना में ज्ञानाराधना अल्पतम हो सकती है। इससे यह फलित आठ भव बतलाए गए है। होता है कि प्रकृष्ट दर्शन और प्रकृष्ट चारित्र के लिए प्रकृष्ट ज्ञानाराधना चारित्राराधना रहित ज्ञान और दर्शन की आराधना करने वालों की अनिवार्यता नहीं है। उनकी स्थिति अल्पतम ज्ञानाराधना में भी के लिए अष्ट भव ग्रहण का नियम नहीं है, उनके असंख्येय जन्म हो हो सकती है किन्तु प्रकृष्ट ज्ञानाराधना में प्रकृष्ट अथवा मध्यम जाते हैं। आराधनाद्वर्या की अनिवार्यता है। पोग्गलपरिणाम-पदं पुद्गल परिणाम-पदम
पुद्गल परिणाम-पद ४६७. कतिविहे णं भंते! पोग्गल- कतिविधः भदन्त! पुगलपरिणामः । ४६७. भंते! पुद्गल का परिणाम कितने परिणामे पण्णत्ते? प्रज्ञप्तः?
प्रकार का प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहे पोग्गलपरिणामे । गौतम ! पञ्चविधः पुदलपरिणामः प्रज्ञप्तः, गौतम! पुद्गल परिणाम पांच प्रकार का पण्णत्ते, तं जहा–वण्णपरिणाम, तद्यथा-वर्णपरिणामः, गन्धपरिणामः, प्रज्ञप्त है, जैसे-वर्ण परिणाम. गंध परिणाम. गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फास- रसपरिणामः. स्पर्शपरिणामः. संस्थान- रस परिणाम, स्पर्श परिणाम. संस्थान परिणामे, संठाणपरिणामे॥ परिणामः।
परिणाम।
४६८. वण्णपरिणामे णं भंते! कतिविहे वर्णपरिणामः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः? ४६८. भंते ! वर्ण परिणाम कितने प्रकार का पण्णत्ते?
प्रज्ञप्त है? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-- गौतम ! पांच प्रकार का प्रजम है, जैसेकालवण्णपरिणामे जाव सुक्किल- काल-वर्णपरिणाम:
यावत् कालवर्ण परिणाम यावत शुक्लवर्ण वण्णपरिणामे। एवं एएणं अभि-लावणं । शुक्लवर्णपरिणामः। एवम् एतेन अभिलापेन परिणाम! इस प्रकार इस अभिलाप के गंधपरिणामे दुविहे, रस-परिणामे गन्धपरिणामः द्विविधः, रसपरिणामः अनुसार गंध परिणाम दो प्रकार का. रस पंचविहे, फासपरिणामे अट्ठविहे। पञ्चविधः, स्पर्शपरिणामः अष्टविधः। परिणाम पांच प्रकार का और स्पर्श
परिणाम आठ प्रकार का प्रजाल है।
भाष्य १.सूत्र ४६७ ४६८
अल्पकालिक भी होता है और दीर्घकालिक भी। एक परमाणु काले पुल के चार गुण हैं-वर्ण, गंध, रस और स्पर्श। प्रस्तुत प्रकरण वर्ण का है। वह कुछ समय के बाद पीले वर्ण का हो जाता है। पदल के में उनके परिणाम बतलाए गए हैं। द्रव्य में परिणमन होता रहता है। वह परिणाम का अर्थ है-वर्ण आदि का परिवर्तन। १. म. वृ. ८४५५-४५१-उत्कृष्टज्ञानाराधनावना हि चारित्र प्रति श्रुतादतोष्टप्रवचनमातृप्रतिपादनपरं श्रुतं बकुशस्य जघन्यतोऽपि भवतीति। नाल्पतमप्रत्यत्नता स्यात, तत्त्वभावानम्गेति।
४.(क) बृ. क, भा. ३०१ गा. १९६० २. भ.२५ ४१२-अहक्खाए संजा पुच्छा।
बारसविलम्मि वि नवे सब्मिंतर बाहिर कुरालदिद। गोथमा ! जहणणं अनुपवयणमाया ओ. उक्कोसणं चोहसपुव्वाई अहिज्जेज्जा
न वि अन्थेि न वि अ होही सज्दायसमं नवो कम्म। सुयवनिरिने वा हाज्जा।
(ख) मूलाचार ४०९। ३. (क) भ, २५.३१६-१०-बउसे पृच्छा।
५. भगवती आराधना २-दंसणणाणचरित्नतवाणमाराहणा भणिया। गोयमा ! नहणणं अपवयणमाया उक्कोसेणं दसपुव्वाई अहिज्जेज्जा ६. भ. वृ.८/४५५-४५७/ एवं पडिसेवणा कुसीले वि।
१. भ. २५/११४१ (ख) भ. वृ. २५-अष्टप्रवचनमातृपालनरूपत्वाच्चारिवस्य तद्वतोअष्टप्रवचन
८. (क) त. सू. भा. वृ.५.२३-वर्णगंधरसस्पर्शवतः पदलाः। मातृपरिज्ञानेनावश्यं भाव्यं ज्ञानपूर्वकत्वाच्चारित्रस्य, नदपरिज्ञानं च
(ख) उत्तरा. २८/१२।
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श.८ : उ. १० : सू. ४६९-४७२ १८२
भगवई यह परिवर्तन गुणात्मक और रूपान्तर दोनों प्रकार का होता स्थिति जघन्यतः एक समय, उत्कृष्टतः असंख्य काल बतलाई गई है। वर्ण का गुणात्मक परिवर्तन, जैसे-एक गुण काला परमाणु, दो, है। कोई वर्ण, गंध, रस और स्पर्श एक समय के बाद बदल जाता है। तीन, चार यावत् अनंत गुण काला हो जाता है। रूपान्तर परिवर्तन जैसे कोई दो समय बाद, अंततः असंख्य समय के बाद सभी में निश्चित काले रंग का परमाणु पीले रंग में बदल जाता है। यह परिणाम गंध, ही परिवर्तन होता है। परिणाम स्वाभाविक भी होता है और प्रायोगिक रस, स्पर्श, संस्थान आदि सब में होता रहता है।'
भी होता है। प्रायोगिक परिणाम के लिए द्रष्टव्य भगवती (८/३६) परमाणु से लेकर अनंत प्रदेशी स्कंध तक सभी पुद्गलरूपों की का भाष्य।
४६९. संठाणपरिणामे णं भंते! कतिविहे । संस्थानपरिणामः भदन्त! कतिविधः पण्णते?
प्रज्ञप्तः? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- गौतम ! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तदयथा-परिपरिमंडल . संठाणपरिणामे जाव मंडलसंस्थानपरिणामः यावत् आयतआयतसंठाणपरिणामे॥
संस्थानपरिणामः।
४६९. भंते! संस्थान परिणाम कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गौतम! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेपरिमंडल संस्थान परिणाम यावत् आयत संस्थान परिणाम।
पोग्गलपएसस्स दव्वादीहिं भंग-पदं पुद्गलप्रदेशस्य द्रव्यादिभिः भंग-पदम् ४७०. एगे भंते! पोग्गलत्थिकाय-पदेसे एकः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशः किं १. किं १. दव्वं ? २. दव्वदेसे? ३. दव्व- द्रव्यम् ? २. द्रव्यदेशः? ३. द्रव्याणि? ४. इं?४. दव्वदेसा? ५.उदाहु दव्वं च द्रव्यदेशाः ? ५. उताहो द्रव्यं च द्रव्यदेशश्च? दव्वदेसे य? ६. उदाहु दव्वं च दव्वदेसा ६. उताहो द्रव्यं च द्रव्यदेशश्च ? ७. उताहो य? ७. उदाहु दव्वाइं च दव्वदेसे य? ८. द्रव्याणि च द्रव्यदेशश्च ? ८. उताहो द्रव्याणि उदाहु दव्वाइं च दव्वदेसा य? च द्रव्यदेशाश्च।
पुद्गलप्रदेश का द्रव्यादि भंग-पद ४७०. 'भंते! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश
क्या १. द्रव्य है? २. द्रव्य देश है? ३. अनेक द्रव्य हैं ? ४. अनेक द्रव्य देश हैं ? ५. अथवा द्रव्य और द्रव्य देश है? ६. अथवा द्रव्य और अनेक द्रव्य देश हैं? ७. अथवा अनेक द्रव्य और द्रव्य देश हैं ? ८. अथवा अनेक द्रव्य और अनेक द्रव्य देश
गोयमा! १. सिय दव्वं २. सिय दव्वदेसे गौतम! १. स्यात् द्रव्यम् २. स्यात् दव्यदेशः ३. नो दव्वाई ४. नो दव्वदेसा ५. नो दव्वं ३. नो द्रव्याणि ४. नो द्रव्यदेशाः ५. नो द्रव्यं च दव्वदेसे य ६.नो दव्वं च दव्वदेसाय च द्रव्यदेशश्च ६. नो द्रव्यं च द्रव्यदेशाश्च ७. नो दव्वाई च दव्वदेसेय ८. नो दव्वाई। ७. नो द्रव्याणि च द्रव्यदेशश्च ८. नो च दव्वदेसाय॥
द्रव्याणि च द्रव्यदेशाश्च।
गौतम! १. वह स्यात् द्रव्य है। २. स्यात द्रव्य देश है ३. अनेक द्रव्य नहीं है ४. अनेक द्रव्य देश नहीं हैं ५. द्रव्य और द्रव्य देश नहीं हैं। ६. द्रव्य और अनेक द्रव्य देश नहीं हैं। ७. अनेक द्रव्य और द्रव्य देश नहीं हैं। ८. अनेक द्रव्य और अनेक द्रव्य देश नहीं हैं।
४७१. दो भंते! पोग्गलत्थिकाय-पदेसा द्वौ भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशौ किं किं दव्वं? दव्वदेसे?-पुच्छा। द्रव्यम् ? द्रव्यदेशः?-पृच्छा। गोयमा! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, सिय गौतम! स्यात् द्रव्यम्, स्यात् द्रव्यदेशः, दव्वाई, सिय दव्वदेसा, सिय दव्वं च स्यात् द्रव्याणि, स्यात् द्रव्यदेशाः, स्यात् दव्वदेसे य। सेसा पडि-सेहेयव्वा।। द्रव्यं च द्रव्यदेशश्च। शेषाः प्रतिषेद्धव्याः।
४७१. भंते! पुद्गत्लास्तिकाय के दो प्रदेश
क्या द्रव्य है? द्रव्य देश है?-पृच्छा। गौतम ! स्यात् द्रव्य है. स्यात् द्रव्य देश है; स्यात् अनेक द्रव्य हैं, स्यात् अनेक द्रव्य देश हैं, स्यात् द्रव्य और द्रव्य देश है। शेष भंग नहीं बनते इसलिए उनका प्रतिषेध करणीय है।
४७२. तिण्णि भंते! पोग्गलत्थि-काय- त्रयः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः किं पदेसा किं दव्वं? दव्वदेसे?-पुच्छा। द्रव्यम् द्रव्यदेशः?-पृच्छा।
४७२. भंते! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश क्या द्रव्य है? द्रव्य देश है?-पृच्छा।
२. भ.५/१७१-१८०-तथा उसका भाष्य।
१. भ. वृ.८/४६७–वण्णपरिणामेति यत्पुद्गलो वर्णान्तरत्यागाद वर्णान्तरं यान्यसी वर्णपरिणाम इति वमन्यत्रापि।
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भगवई
१८३
गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, एवं गौतम ! स्यात द्रव्यम, स्यात् द्रव्यदेशः, एवं सत्त भंगा भाणियव्वा जाव सिय दव्वाइं सप्त भंगाः भणितव्याः यावत् स्यात् द्रव्याणि च दव्वदेसे य, नो दव्वाई च दव्वदेसा च द्रव्यदेशश्च, नो द्रव्याणि च द्रव्यदेशाश्च। य॥
श. ८ : उ. १० : सू. ४७२-४७४ गौतम ! वे स्यात् द्रव्य है, स्यात द्रव्य देश है इसी प्रकार सात भंग वक्तव्य है यावत स्यात अनेक द्रव्य और द्रव्य देश हैं। अनेक द्रव्य और अनेक द्रव्य देश नहीं है।
४७३. चत्तारि भंते! पोग्गलत्थिकाय- चत्वारः भदन्त ! पुद्गलास्तिकायप्रदेशाः किं पदेसा किं दव्वं?-पुच्छा।
द्रव्यम् ?-पृच्छा। गोयमा! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, अट्ठ । गौतम! स्यात् द्रव्यम्, स्यात् द्रव्यदेशः, विभंगा भाणियव्वा जाव सिय दव्वाइंच ___ अष्टावपि भंगाः भणितव्याः । यावत् स्यात् दव्वदेसा य। जहा चत्तारि भणिया एवं द्रव्याणि च द्रव्यदेशाश्च। यथा चत्वारः पंच, छ, सत्त जाव असंखेज्जा । भणिताः एवं पञ्च, षट्, सप्त यावत्
असंख्येयाः।
४७३. भंते ! पुद्गलास्तिकाय के चार प्रदेश
क्या द्रव्य है?-पृच्छा गौतम ! वे स्यात् द्रव्य है, स्यात् द्रव्य देश हैं, आठों भंग वक्तव्य हैं यावत् स्यात अनेक द्रव्य और अनेक द्रव्य देश है। जैसे पुङलास्तिकाय के चार प्रदेशों के भंग बतलाए गए हैं वैसे ही पांच, छह, सात यावत् असंख्येय प्रदेशों के भंग वक्तव्य हैं।
४७४. अणंता भंते! पोग्गलत्थिकाय- अनन्ताः भदन्त ! पुनलास्तिकायप्रदेशाः किं ४७४. भंते! पुगलास्तिकाय के अनंत प्रदेश पदेसा कि दव्वं? द्रव्यम्?
क्या द्रव्य है? एवं चेव जाव सिय दब्वाइं च दव्वदेसा । एवं चैव यावत् स्यात् द्रव्याणि च द्रव्य- इसी प्रकार स्यात् द्रव्य है यावत् अनेक य। देशाश्च।
द्रव्य और अनेक द्रव्य देश हैं।
भाष्य १.सूत्र ४७०-४७४
द्वि प्रदेशी स्कंध में पांच विकल्प मान्य हैंपरमाणु और प्रदेश दोनों तुल्य होते हैं। स्कंध संयुक्त की १. वह स्यात द्रव्य-दो परमाणु, द्विप्रदेशी स्कंध रूप में परिणत संज्ञा प्रदेश और उससे वियुक्त अवस्था में उसकी संज्ञा परमाणु है।'
हैं। इस अपेक्षा से वह द्रव्य है। पुगत्लास्तिकाय का प्रदेश-यह निरूपण नय की दृष्टि से किया गया २. स्यात द्रव्य देश-वह द्विप्रदेशी स्कंध रूप में परिणत रहता है। परमाणु की अतीत और भावी अवस्थाओं के आधार पर उसे
हुआ दूसरे द्रव्य से मिल जाता है। इस अपेक्षा से द्रव्य देश पढ़नास्तिकाय का प्रदेश कहा गया है। जयाचार्य ने इस विषय का विस्तार से विवेचन किया है। उसका निष्कर्ष है कि परमाणु को ३. स्यात् द्रव्य (बहुवचन)-द्विप्रदेशी स्कंध विभक्त होकर दो अनेक स्थानों पर प्रदेश कहा गया है।
परमाणु के रूप में चला जाता है। उस अवस्था में दो द्रव्य परमाणु के विषय में आठ प्रश्न प्रस्तुत किए गए हैं। चार एक
बन जाते हैं। वचन के और चार बहवचन से संबद्ध हैं। उनमें दो विकल्प मान्य है। ४. स्यात् द्रव्य देश (बहुवचन)-दो परमाणु व्यणु स्कंध में शेष प्रश्नों का परमाणु के साथ संबंध नहीं है।
परिणत न होकर बहप्रदेशी स्कंध के साथ मिल जाते हैं। द्रव्य गुण पर्याय से युक्त होता है। द्रव्य देश का अर्थ है द्रव्य का इस अपेक्षा से वे द्रव्य देश कहलाते हैं। अवयव
५. स्यात् द्रव्य और स्यात् द्रव्य देश-द्विप्रदेशी स्कंध के दो (१) परमाणु स्यात द्रव्य है-वह किसी दूसरे द्रव्य से संयुक्त
परमाणुओं में से एक परमाणु के रूप में अवस्थित है, दूसरा नहीं है स्वतंत्र हैं।
किसी द्रव्यांतर से संबद्ध है। इस अपेक्षा से द्रव्य और द्रव्य (२) परमाणु स्यात द्रव्य का देश-स्कंध की अवस्था में वह
देश-यह विकल्प संगत है। द्रव्य का एक देश है।
तीन प्रदेशी स्कंध में सात विकल्प मान्य है१. भ. वृ. ८४००-पुत्लास्तिकायस्य-एकाणकादिपुढनराशेः प्रदेशो निरंशोशः
जे परमाणु होय, प्रदेश करिक नुल्य है। पुद्गलास्तिकायप्रदश:-परमाणु।
ते माटे ए जोय, प्रदेश करि बोलाविया ॥ २. म. जी. २१६१८-१३- सोरठा
भूत भविष्यत् काल, ते नय वचन करी इहां। इक अणुकादि प्रसंस, पुगन्नराशि तणा निको।
परमाणु पिण न्हाल, प्रदेश संज्ञा कर का।। प्रदेश निरंश अंश, प्रदेश परमाणु कयो।
वर्तमान जे काल, नेह नणीण अपेक्षया। पुद्गल राशि नी नाय, परमाण खंध थी मिल्यो ।
परमाणू - न्हाल, अप्रदेश बहु ठामें का।। नसु प्रदेश कहिवाय, जुदा नहीं तिण कारणे ।।
३. भ. ५/१६०-१६४ का भाष्य। पुदगल राशि नी जाण, खंध थकी जे नहि मिल्यो।
४. भ, वृ.८/४७१-स्याद् द्रव्यं द्रव्यान्तरासंबंधे सति, स्यान द्रव्यदशी ने परमाण पिछाण. ए प्रदेश तुल्य जाणवो।।
द्रव्यांतरसंबंधे सति।
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श. ८ : उ. १० : सू. ४७७-४७६
१. स्यात द्रव्य-तीन परमाणु त्रिप्रदेशी स्कंध के रूप में परिणत है इसलिए वह द्रव्य है।
२. स्यात द्रव्य देश वह त्रिप्रदेशी स्कंध रूप में परिणत रहता हुआ दूसरे द्रव्य से मिल जाता है। इस अपेक्षा से द्रव्य देश
है।
३. स्यात् द्रव्य (बहुवचन) - त्रिप्रदेशी स्कंध विभक्त होकर तीन परमाणु के रूप में चला जाता है। उस अवस्था में तीन द्रव्य बन जाते हैं अथवा त्रिप्रदेशी स्कंध विभक्त होकर एक द्विप्रदेश स्कंध और एक परमाणु रूप में चला जाता है। ४. स्यात द्रव्य देश (बहुवचन) - तीन परमाणु त्र्यणु स्कंध में परिणत न होकर बहुप्रवेशी स्कंध के साथ मिल जाते हैं। दो परमाणु द्विप्रदेशी स्कंध के रूप में परिणत होकर और एक परमाणु, परमाणु रूप में न रहकर द्रव्यांतर से संबद्ध हो जाता है। इस अपेक्षा से वे द्रव्य देश हैं। ५. स्यात द्रव्य और स्यात् द्रव्य देश-त्रिप्रदेशी स्कंध के तीन
अथवा
परमाणु के दो विकल्प - स्थापना
2. B २० →
द्विप्रदेशी स्कन्ध के ५ विकल्प
१0+00२0
४. 0+0
३.00+0
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४७६. एगमेगस्स णं भंते! जीवस्स केवइया जीवपदेसा पण्णत्ता ? गोयमा ! जावतिया लोयागास-पदेसा, एगमेगस्स णं जीवस्स एवतिया जीवपदेसा पण्णत्ता ॥
६
प्रदेश- परिमाण-पदम्
कियन्तः
त्रिप्रदेशी स्कन्ध के ७ विकल्प
१. 0+3+0
२. E
४. 0+2+0 अथवा
५
१. सूत्र ४७५-४७६
आकाश लोकाकाश और अलोकाकाश- इन दो भागों में विभक्त है। यह जैन दर्शन की मौलिक स्थापना है। लोकाकाश के प्रदेश अथवा परमाणु स्कंध असंख्येय हैं। स्थानांग में प्रदेश परिमाण की दृष्टि से चार तुल्य तुल्य बतलाए गए हैं
१. भ. वृ. ८/४७२।
भगवई
परमाणुओं में से दो परमाणु द्विप्रदेशी स्कंध रूप में परिणत हैं, एक परमाणु किसी द्रव्यांतर से संबद्ध है। इस प्रकार द्विप्रदेश स्कंध द्रव्य तथा परमाणु द्रव्य देश है। अथवा एक परमाणु रूप में स्थित है. दो परमाणु द्विप्रदेशी स्कंध रूप में परिणत होकर द्रव्यांतर से संबद्ध है, इस विकल्प में परमाणु द्रव्य है, द्विप्रदेशी स्कंध द्रव्य देश है।
६. स्यात् द्रव्य और स्यात् द्रव्य देश (बहुवचन) - त्रिप्रदेशी स्कंध का एक परमाणु परमाणु रूप में स्थित है, दो परमाणु द्रव्यांतर से संबद्ध है। इस अपेक्षा से वे द्रव्य और द्रव्य देश है।
७. स्यात् द्रव्य (बहुवचन) और द्रव्य देश-विप्रदेशी स्कंध के दो परमाणु स्वतंत्र रूप में स्थित है और एक परमाणु द्रव्यांतर से संबद्ध है। इस अपेक्षा से वे द्रव्य और द्रव्य देश है। त्रिप्रदेशी स्कंध में आठवां विकल्प संभव नहीं होता। दोनों रूपों में बहुवचन नहीं बन सकता । चतुष्षादेशी स्कंध में आठवां विकल्प है।
भाष्य
पएस परिमाण-पदं
४७५. केवतिया णं भंते! लोया गासपद`सा पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः ?
गोयमा ! असंखेज्जा लोयागास-पदेसा गौतम! असंख्येयाः लोकाकाशप्रदेशाः
पण्णत्ता ॥
प्रज्ञप्ताः ।
000
四十四
३.0+0+ अथवा
भदन्त ! लोकाकाशप्रदेशाः
→ अथवा 0 0 0
एकैकस्य भदन्त ! जीवस्य कियन्तः जीवप्रदेशाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! यावन्तः लोकाकाशप्रदेशाः. एकैकस्य जीवस्य एतावन्तः जीवप्रदेशाः प्रज्ञप्ताः ।
२. ठाणं ४.४९५
प्रदेश परिमाण - पद
४७५. भंते! लोकाकाश के प्रदेश कितने प्रज्ञस हैं ?
गौतम! लोकाकाश के असंख्येय प्रदेश प्रजप्त हैं।
१. धर्मास्तिकाय
२. अधर्मास्तिकाय
३. लोकाकाश
४. एक जीव । २
प्रस्तुत प्रकरण में एक जीव के प्रदेश लोकाकाश परिमाण
४७६. भंते! एक एक जीव के जीव प्रदेश कितने प्रजप्त हैं ?
गौतम! जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं. उतने ही प्रत्येक जीव के जीव- प्रदेश प्रम
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भगवई
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श. ८ : उ. १० : सू. ४७७-४८२ असंख्य बतलाए गए हैं। साधारणतया जीव शरीर परिमाण होता है। के समय वे पूरे लोकाकाश में व्याप्त हो जाते हैं।' उसके प्रदेशों में संकोच और विस्तार की क्षमता है। इसलिए समुद्घात विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवती २/१२४-१३५ का की स्थिति में उसके प्रदेश शरीर से बाहर फैलते हैं। केवली समुद्धात भाष्य। कम्माणं अविभागपलिच्छेद-पदं कर्मणाम् अविभागपरिच्छेद-पदम्- कर्मों का अविभाग परिच्छेद-पद ४७७. कति णं भंते! कम्मपगडीओ कति भदन्त ! कर्मप्रकृतयः प्रलप्ताः? ४७७. 'भंते! कर्म प्रकृतियां कितनी प्रज्ञप्त पण्णत्ताओ? गोयमा! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्ण- गौतम ! अष्टकर्मप्रकृतयः प्रज्ञप्ताः , तद्- गौतम! कर्म प्रकृतियां आठ प्रज्ञप्त हैं? ताओ, तं जहा-नाणावरणिज्जं जाव यथा-ज्ञानावरणीयं यावत् आन्तरायिकम्। जैसे-ज्ञानावरणीय यावत् आंतरायिक। अंतराइयं॥
४७८. नेरइयाणं भंते! कति कम्म- नैरयिकाणां भदन्त ! कति कर्मप्रकृतयः ४७८. भंते! नैरयिकों के कर्म प्रकृतियां पगडीओ पण्णत्ताओ? प्रज्ञप्ताः ?
कितनी प्रज्ञप्त हैं? गोयमा! अट्ठ। एवं सव्वजीवाणं अट्ठ गौतम! अष्ट। एवं सर्वजीवानाम् अष्टकर्म- गौतम ! नैरयिकों के कर्म प्रकृतियां आठ कम्मपगडीओ ठावेयव्वाओ जाव प्रकृतयः स्थापयितव्याः यावत् वैमानि- प्रज्ञप्त हैं। इस प्रकार वैमानिक पर्यंत सब वेमाणियाणं॥ कानामा
जीवों के आठ कर्म प्रकृतियां स्थापनीय हैं।
४७९. नाणावरणिज्जस्स णं भंते! ज्ञानावरणीयस्य भदन्त ! कर्मणः कियन्तः ४७९. भंते! ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग कम्मस्स केवतिया अविभाग- अविभागपरिच्छेदाः प्रज्ञप्ताः?
परिच्छेद कितने प्रज्ञप्त हैं? पलिच्छेदा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता अविभाग-पलिच्छेदा गौतम! अनन्ताः अविभागपरिच्छेदाः गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद प्रज्ञप्त हैं। पण्णत्ता॥
मज्ञप्ताः ।
४८०. भंते! नैरयिकों के ज्ञानावरणीय कर्म के अविभाग परिच्छेद कितने प्रज्ञप्त हैं?
४८०. नेरइयाणं भंते! नाणावर- नैरयिकाणां भदन्त! ज्ञानावरणीयस्य णिज्जस्स कम्मस्स केवतिया कर्मणः कियन्तः अविभागपरिच्छेदाः अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः ? गोयमा! अणंता अविभाग-पलिच्छेदा गौतम! अनन्ताः अविभागपरिच्छेदाः पण्णत्ता॥
प्रज्ञप्ताः ।
गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद प्रज्ञप्त है।
४८१.एवं सव्वजीवाणं जाव वेमाणि- एवं सर्वजीवानां यावत् वैमानिकानाम्- ४८१. इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त सब याणं-पुच्छा। पृच्छा ।
जीवों की पृच्छा। गोयमा! अणंता अविभागपलि-च्छेदा गौतम! अनन्ताः अविभागपरिच्छेदाः गौतम ! अनंत अविभाग परिच्छेद प्रजाप्त हैं। पण्णत्ता। एवं जहा नाणा-वरणिज्जस्स प्रज्ञप्ताः। एवं यथा ज्ञानावरणीयस्य जिस प्रकार ज्ञानावरणीय के अनंत अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्ठण्ह अविभागपरिच्छेदाः भणिताः तथा अविभाग परिच्छेद कहे गए हैं, उसी वि कम्मपग-डीणं भाणियव्वा जाव। अष्टानामपि कर्मप्रकृतीनां भणितव्याः यावत् प्रकार आठों कर्म प्रकृतियों के वक्तव्य हैं वेमाणियाणं अंतराइयस्स। वैमानिकानाम् आन्तरायि-कस्य।
यावत् वैमानिकों के आंतरायिक कर्म अनंत अविभाग परिच्छेद प्रज्ञप्त हैं।
४८२. एगमेगस्स णं भंते! जीवस्स एकैकस्य भदन्त! जीवस्य एकैकः ४८२. भंते! एक एक जीव का एक एगमेगे जीवपदेसे नाणावरणिज्ज-स्स जीवप्रदेशः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः एक जीव प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कम्मस्स केवतिएहिं अविभाग- कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टित- कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टितपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए? परिवेष्टितः?
परिवेष्टित है? १. (क) भ. वृ. ८.४७६-एकै कस्यजीवस्य जावन्तः प्रदेशाः यावन्तो (ख) भ. २/७४ का भाष्य। लोकाकाशस्य कथं ? यस्माज्जीवः केवलीसमुद्घातकाले सर्व लोकाकाशं (ग) ठाणं ८/१७४ का टिप्पण। व्याप्यावतिष्ठति तस्याल्लोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्त इति।
(घ) सम. ७/२ का टिप्पण।
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श.८ : उ. १० : सू. ४८२-४८४
भगवई
गोयमा ! सिय आवेढिय-परिवेढिए, सिय नो आवेढिय-परिवेढिए। जइ आवेढिय- परिवेढिए नियमा अणंतेहिं॥
गौतम ! स्यात् आवेष्टित-परिवेष्टितः स्यात् नो आवेष्टित-परिवेष्टितः। यदि आवेष्टित- परि-वेष्टितः नियमात अनन्तैः।
गौतम! स्यात् आवेष्टित परिवेष्टित है, स्यात् आवेष्टित परिवेष्टित नहीं है। यदि आवेष्टित-परिवेष्टित है तो वह नियमतः अनंत अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित है।
४८३. भंते! एक एक नैरयिक का एक एक जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित
४८३. एगमेगस्स णं भंते! नेरइयस्स एकैकस्य भदन्त! नैरयिकस्य एकैकः एगमेगे जीवपदेसे नाणावरणिज्ज-स्स जीवप्रदेशः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः कम्मस्स केवतिएहिं अविभाग- कियद्भिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेदिए? परिवेष्टितः? गोयमा! नियम अणंतेहिं। जहा गौतम ! नियमम् अनन्तैः। यथा नैरयिकस्य नेरझ्यस्स एवं जाव वेमाणियस्स, एवं यावत् वैमानिकस्य, नवरं-मनुष्यस्य नवरं-मणूसस्स जहा जीवस्स॥ यथा जीवस्य।
गौतम! नियमतः अनंत अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित है। नैरयिक की भांति वैमानिक तक के दण्डकों की वक्तव्यता, इतना विशेष है--मनुष्य जीव की भांति वक्तव्य है।
४८४. एगमेगस्स णं भंते। जीवस्स एकैकस्य भदन्त! जीवस्य एकैकः एगमेगे जीवपदेसे दरिसणावरणि- जीवप्रदेशः दर्शनावरणीयस्य कर्मणः ज्जस्स कम्मस्स केवतिएहिं अवि- कियन्दिः अविभागपरिच्छेदैः आवेष्टितभागपलिच्छेदेहिं आवेढिय-परिवेढिए? परिवेष्टितः? गोयमा! नियम अणंतेहिं। जहा जीवस्स गौतम! नियमम अनन्तैः। यथा जीवस्य एवं एवं जाव वेमाणियस्स, नवरं-मणूसस्स यावत् वैमानिकस्य, नवरम्-मनुष्यस्य यथा जहा जीवस्स। एवं जहेव नाणावर- जीवस्य एवं यथैव ज्ञानावरणीयस्य तथैव णिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियव्वो जाव दण्डकः भणितव्यः यावत् वैमानिकस्य। एवं वेमाणिय-स्स। एवं जाव अंतराइयस्स यावत् आन्तरायिकस्य भणितव्यम्, भाणि-यव्यं, नवरं-वेयणिज्जस्स, नवरम्-वेदनीयस्य, आयुष्कस्य, नाम्नः, आउय-स्स, नामस्स, गोयस्स-एएसिं गोत्रस्य-एतेषां चतुर्णामपि कर्मणां मनुष्यस्य चउण्ह वि कम्माण मणूसस्स जहा यथा नैरयिकस्य तथा भणितव्यम् ? शेषं तत् नेरइयस्स तहा भाणियव्वं । सेसं तं चेव॥ चैव।
४८४. भंते! एक एक जीव का एक-एक जीव-प्रदेश दर्शनावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टितपरिवेष्टित है? इस प्रकार जैसे ज्ञानावरणीय की वक्तव्यता वैसे ही दर्शनावरणीय के वैमानिक तक के दण्डकों की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् आंतरायिक की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र-इन चार कर्मों के विषय में मनुष्य की नैरयिक की भांति वक्तव्यता।
भाष्य
१.सूत्र ४७७-४८४
कर्म प्रकृति की जानकारी के लिए द्रष्टव्य ६/३३-३५ का भाष्य। अभयदेवसूरि ने अविभाग प्रतिच्छेद का शाब्दिक अर्थ किया है। प्रतिच्छेद का अर्थ है अंश। जिसका कोई विभाग न हो, वह अंश अविभाग प्रतिच्छेद-निरंश अंश कहलाता है।'
कर्म ग्रंथ, पंच संग्रह, गोम्मटसार' और धवला' में इसका
विशद वर्णन उपलब्ध है।
जघन्य गुण अनंत अविभागी प्रतिच्छेदों से निष्पन्न होता है। धवला में इसकी प्रक्रिया का निर्देश है। सर्व मंद अनुभाग से युक्त परमाण को ग्रहण करके वर्ण, गंध, रस को छोड़कर केवल स्पर्श (एक गुण) का ही बुद्धि से ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञा के द्वारा छेद करना चाहिए। नहीं छेदने योग्य वह अंतिम खण्ड
१.भ. वृ.८/४७९ २. कर्मग्रंथ भाग ५ गाथा ९५| ३. पंचसंग्रह गाथा २२२-२८३। 2. गोम्मटसार अजीवकांड ना.२२३-२२६ ।
५. धवला १४,५.६,५३९/४५०। ६. धवला १४,५,६,५३९/४५०/६ सो च जहण्णगुणो अणंतेहि अविभाग
पडिच्छेदेहिं णिप्पण्णो।
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भगवई
श.८ : उ. १० : सू. ४८५ अविभाग प्रतिच्छेद द्रव्य, गुण, अनुभागः, योग वीर्य आदि में यह सिद्धसेन गणि का निरूपण है।' होता है।
४. अन्योन्य अनुप्रवेश-आत्मा के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों जीव का प्रत्येक प्रदेश कर्म के अनंत अविभाग प्रतिच्छेदों से का परस्पर अनुप्रवेश हो जाता है, उसका नाम बंध है। यह पूज्यपाद आवेष्टित-परिवेष्टित होता है। यह वाक्य जीव के प्रदेश और कर्म की व्याख्या है। स्कंध के संबंध का व्याख्या सूत्र है।
५. एक क्षेत्रावगाह-जीव के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों के बंध काल में जीव के प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंध-दोनों का परस्पर परिणमन का निमित्त पाकर एक क्षेत्र में अवगाह होता है, वह विशिष्ट प्रकार का परिणमन होता है। इस संबंध अथवा परिणमन को तदुभय बंध है। यह आचार्य कुन्दकुन्द का अभिमत है। अनेक पदों और उपमाओं के द्वारा निरूपित किया गया है।
उक्त सब निरूपणों से दो सिद्धांत फलित होते हैं। १. आवेष्टन-परिवेष्टन
१. आवेष्टन आदि का फलित यह है कि जीव प्रदेश और कर्म २. दूध और पानी की भांति परस्पर अनुगत।
पुद्गल के सकंधों में परस्पर आश्लेष होता है। ३. दूध और पानी की भांति परस्पराश्लेष।
२. एक क्षेत्रावगाह के सिद्धांत का फलित यह है कि जीव प्रदेश १. आत्मा और कर्म का अन्योन्य अनुप्रवेश।
और कर्म पुद्गल के स्कंधों का एक क्षेत्र में अवगाह होता है, अग्नि और ५. जीव और कर्म का एक क्षेत्र में अवगाह।
लोह पिण्ड की भांति अन्योन्य अनुप्रवेश नहीं होता। १. आवेष्टन-परिवेष्टन-इसके अनुसार जीव के एक प्रदेश को आचार्य कुन्दकुन्द के सिद्धांत में सांख्यदर्शन का वह प्रतिबिम्ब ज्ञानावरणीय आदि कर्म समूह के अनंत-अनंत अविभाग प्रतिच्छेद दिखाई देता है, जिससे आत्मा सदा मुक्त है, बंध और मोक्ष प्रकृति के आवृत करते हैं, ढक्कन बन जाते हैं, लपेटते हैं, चारों ओर से घेर होता है। लेते हैं।
इस अवगाह के सिद्धांत में एक प्रश्न अनुत्तरित रहता है कि २. अन्योन्य अनुगमन-जैसे दूध और पानी में परस्पर अनुगमन आकाश के प्रदेशों में जीव का अवगाह है किन्तु न आकाश के प्रदेशों होता है, वैसे जीव-प्रदेश और कर्म के पुल स्कंधों में परस्पर अनुगमन से जीव के प्रदेश प्रभावित होते हैं और न जीव के प्रदेशों से आकाश के होता है-यह सिद्धसेन दिवाकर का निरूपण है।'
प्रदेश प्रभावित होते है। केवल अवगाह मात्र से प्रभावित होने या ३. परस्पर श्लेष-जैसे दूध और पानी में परस्पर आश्लेष होता विशिष्ट परिणमन होने का सिद्धांत विमर्शनीय है। है, वैसे जीव प्रदेश और कर्म पुद्गल स्कंधों में परस्पर आश्लेष होता है, कम्माणं परोप्परं नियमा-भयणा-पद कर्मणा परस्परं नियम-भजना पदम् कर्मों का परस्पर नियम-भजना पद ४८५. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्ज यस्य भदन्त ! ज्ञानावरणीयं तस्य दर्शना- ४८५. 'भंते! जिसके ज्ञानावरणीय है, क्या तस्स दरिसणावरणिज्ज? जस्स वरणीयाम् ? यस्य दर्शनावरणीयं तस्य उसके दर्शनावरणीय होता है? जिसके दंसणावरण्णिजं तस्स नाणावर- ज्ञानावरणीयम् ?
दर्शनावरणीय है, क्या उसके ज्ञानाणिज्जं?
वरणीय होता है ? गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जं तस्स गौतम ! यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य दर्शना- गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय है; उसके दसणावरणिज्जं नियम अत्थि, जस्स णं वरणीयं नियमम अत्थि. यस्य दर्शनावरणीय दर्शनावरणीय नियमतः होता है। जिसके दरिसणावरणिज्जं तस्स वि तस्यापि ज्ञानावरणीयं नियमम् अस्ति। दर्शनावरणीय है, उसके ज्ञानावरणीय नाणावरणिज्ज नियम अत्थि।।
नियमतः होता है।
१. धवला १२.४.२.८.१०.९/१२१० सव्वमंदाणुभागपरमाणुधेनूण वण्णगंधासे मोनूण पासं चेव बुद्धीए धेत्तूण तस्स पण्णाच्छेदो कायव्वो जाव विभागवज्जिदछेदोति। तस्य अंतिमस्स खण्डस्स उच्छेज्जस्स अविभाग पडिच्छेद इदिसण्णा। २.गोम्मटसार जीवकाण्ड ५९/१५४/१८ 3.(क) धवला १४.५.६.५३९, ४५०।
(ख) प्रवचनसार गाथा ७२, तथा उसकी वृत्ति। ४. धवला १२,४.२,७.१९९/१२/३। ५. धवला १०,४,२,४.१७८/४४०/५। ६.पंचसंग्रह गाथा ३९७१ ७. सन्मति तर्क १/४७-४८ द्रष्टव्य भगवई। १.३१२-१३ का भाष्य। ८. नत्त्वार्थ सूत्र ८/३-भाष्यानुसारिणी वृनि-बंधनं बंधः परस्पराश्लेषः प्रदेश
पुद्गलानां क्षीरोदकवत् प्रकृत्यादिभेदः। ... सर्वार्थसिद्धि १/४ की वृत्ति-आत्मकर्मणोरन्योन्यप्रदेशानुप्रवेशात्मको बंधः ।
१०. प्रवचनसार २/८५/
फासेहिं पुग्गलाणं बंधो, जीवस्स रागमादीहिं।
अण्णोण्णस्सवगाहो, पुग्गलजीवप्पगो भणिदो। यः पुनः जीवकर्मपुद्गलयोः परस्परपरिणामनिमित्तमात्रत्वेन विशिष्टनर: परस्परमवगाहः स तदुभयबंधः। ११. प्रवचनसार २/९३-९४
गेहदि णेव ण मुंचदि करेदि ण दि पोग्गलाणि कम्माणि। जीवो पुग्गलमज्झे वट्टण्णपि सव्वकालेसु॥ स इदाणिं कत्ता संसग्गपरिणामस्स दव्यजादस्य।
आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं। १२. सांख्यकारिका ६२
तस्मान्न बध्यतेऽन्द्रा न मुच्यते नापि संसरति कश्चिद। संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः॥
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श.८ : उ.१० : सू. ४८६-१९० १८८
भगवई ४८६. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्जं यस्य भदन्त ! ज्ञानावरणीयं तस्य वेदनीयम् ? ४८६. भंते ! जिसके ज्ञानावरणीय है, क्या तस्स वेयणिज्ज? जस्स वेयणिज्जं यस्य वेदनीयं तस्य ज्ञाना-वरणीयम् ? उसके वेदनीय होता है जिसके वेदनीय है, तस्स नाणा-वरणिज्जं?
क्या उसके ज्ञानावरणीय होता है? गोयमा! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य वेदनीयं गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय है. उसके वेयणिज्जं नियम अत्थि जस्स पुण नियमम् अस्ति, यस्य पुनः वेदनीयं तस्य वेदनीय नियमतः होता है। जिसके वेदनीय वेयणिज्जं तस्स नाणावर-णिज्जं सिय ज्ञानावरणीयं स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति।। है, उसके ज्ञानावरणीय स्यात् होता है, अत्थि, सिय नत्थि॥
स्यात् नहीं होता है।
४८७. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्जं यस्य भदन्त! ज्ञानावरणीयं तस्य तस्स मोहणिज्ज? जस्स मोह-णिज्जं । मोहनीयम् ? यस्य मोहनीयं तस्य ज्ञानातस्स नाणावरणिज्जं?
वरणीयम्?
४८७. भंते! जिसके जानावरणीय है, क्या उसके मोहनीय होता है? जिसके मोहनीय है, क्या उसके ज्ञानावरणीय होता
गोयमा! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य मोहनीयं मोहणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि; स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, यस्य पुनः जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स मोहनीयं तस्य ज्ञानावरणीयं नियमम् अस्ति। नाणावरणिज्जं नियम अत्थि॥
गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय है, उसके मोहनीय स्यात् होता है, स्यात् नहीं होता। जिसके मोहनीय है, उसके ज्ञानावरणीय नियमतः होता है।
४८८. जस्स णं भंते! नाणावरणिज्जं यस्य भदन्त! ज्ञानावरणीयं तस्य तस्स आउयं? जस्स आउयं तस्स आयुष्कम् ? यस्य आयुष्कं तस्य ज्ञानानाणावरणिज्जं?
वरणीयम् ? गोयमा! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयं तस्य आयुष्कं आउयं नियम अत्थि, जस्स पुण आउयं नियमम् अस्ति, यस्य पुनः आयुष्कम् तस्य तस्स नाणावरणिज्जं सिय अस्थि, सिय ज्ञानावरणीयं स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति। नत्थि। एवं नामेण वि, एवं गोएण वि समं, एवं नाम्ना अपि, एवं गोत्रेणापि समम् अंतराइएण जहा दरिसणावर-णिज्जेण आन्तरायिकेण यथा दर्शनावरणीयेन समं समं तहेव नियम परोप्परं तथैव परस्परं भणितव्यानि। भाणियव्वाणि॥
४८८. भंते! जिसके ज्ञानावरणीय है, क्या उसके आयुष्य होता है? जिसके आयुष्य है क्या उसके ज्ञानावरणीय होता है? गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय है उसके आयुष्य नियमतः होता है। जिसके आयुष्य है, उसके ज्ञानावरणीय स्यात होता है, स्यात् नहीं होता। इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्म के साथ ज्ञानावरणीय कर्म की वक्तव्यता। जैसे ज्ञानावरणीय के साथ दर्शनावरणीय की वक्तव्यता है, वैसे ज्ञानावरणीय और आंतरायिक परस्पर नियमतः वक्तव्य हैं।
४८९. जस्स णं भंते! दरिसणा-वरणिज्जं यस्य भदन्त! दर्शनावरणीयं तस्य तस्स वेयणिज्ज? जस्स वेयणिज्ज वेदनीयम् ? यस्य वेदनीयं तस्य दर्शना- तस्स दरिसणावरणिज्ज?
वरणीयम् ? जहा नाणावरणिज्जं उवरिमेहिं सत्तहिं यथा ज्ञानावरणीयं उपरितनैः सप्तभिः कम्मेहि सम भणियं तहा कर्मभिः भणितं यथा दर्शनावरणीयमपि दरिसणावरणिज्जं पि उवरिमेहिं छहिं उपरितनैः षड्भिः कर्मभिः समं भणितव्यं कम्मेहि सम भाणियव्वं जाव यावत् आन्तरायिकेण। अंतराइएणं॥
४८९. भंते! जिसके दर्शनावरणीय है, क्या उसके वेदनीय होता है? जिसके वेदनीय है. क्या उसके दर्शनावरणीय होता है? जैसे ज्ञानावरणीय की उत्तरवर्ती सात कर्मों के साथ वक्तव्यता है वैसे दर्शनावरणीय उत्तरवर्ती छह कर्मों के साथ वक्तव्य है यावत् दर्शनावरणीय और आंतरायिक परस्पर नियमतः वक्तव्य हैं।
४९०. जस्स णं भंते! वेयणिज्जं तस्स यस्य भदन्त! वेदनीयं तस्य मोहनीयम् ? मोहणिज्ज? जस्स मोह-णिज्जं तस्स यस्य मोहनीयं तस्य वेदनीयम् ? वेयणिज्जं? गोयमा! जस्स वेयणिन्जं तस्स गौतम ! यस्य वेदनीयं तस्य मोहनीयं स्यात्
४९०. भंते! जिसके वेदनीय है क्या उसके मोहनीय होता है? जिसके मोहनीय है क्या उसके वेदनीय होता है? गौतम ! जिसके वेदनीय है, उसके मोहनीय
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भगवई
श.८ : उ. १० : सू. ४९०-४९५
मोहणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि; अस्ति. स्यात् नास्ति, यस्य पुनः मोहनीयं जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं तस्य वेदनीयं नियमम अस्ति। नियम अत्थि॥
स्यात् होता है, स्यात नहीं होता। जिसके मोहनीय है उसके वेदनीय नियमतः होता
४९१. जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं जस्स आउयं तस्स वेयणिज्ज?
यस्य भदन्त ! वेदनीयं तस्य आयुष्कम्? यस्य आयुष्कं तस्य वेदनीयम?
एवं एयाणि परोप्परं नियम। जहा आउएण सम एवं नामेण वि गोएण वि समं भाणियव्वं॥
एवम्. एतानि परस्परं नियमम्। यथा आयुष्केन समं एवं नाम्ना अपि गोत्रेणापि सम भणितव्यम्।
४९१. भंते! जिसके वेदनीय है, क्या उसके
आयुष्य होता है? जिसके आयुष्य है, क्या उसके वेदनीय होता है ? ये परस्पर नियमतः होते हैं, जैसे आयुष्य के साथ वेदनीय की वक्तव्यता उसी प्रकार नाम और गोत्र के साथ भी वेदनीय वक्तव्य है।
४९२. जस्स णं भंते! वेयणिज्जं तस्स यस्य भदन्त ! वेदनीयं तस्य आन्तरायिकम? अंतराइयं? जस्स अंतराइयं तस्स यस्य आन्तरायिकंतस्य वेदनीयम् ? वेयणिज्जं? गोयमा! जस्स वेयणिज्जं तस्स गौतम! यस्य वेदनीयं तस्य आन्तराविक अंतराइयं सिय अत्थि, सिय नत्थि; स्यात् अस्ति. स्यात् नास्ति, यस्य पुनः जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेय-णिज्ज आन्तरायिकं तस्य वेदनीयं नियमम् अस्ति! नियम अत्थि॥
४९२. भंते ! जिसके वेदनीय है. क्या उसके
आंतरायिक होता है? जिसके आंतरायिक है, उसके वेदनीय होता है? गौतम! जिसके वेदनीय है, उसके
आंतरायिक स्यात् होता है, स्यात् नहीं होता। जिसके आंतरायिक है उसके वेदनीय नियमतः होता है।
४९३. जस्स णं भंते! मोहणिज्ज तस्स यस्य भदन्त ! मोहनीयं तस्य आयुष्यकम् ?
आउयं? जस्स आउयं तस्स यस्य आयुष्कं तस्य मोहनीयम् ? मोहणिजं? गोयमा! जस्स मोहणिज्ज तस्स आउयं गौतम ! यस्य मोहनीयं तस्य आयुष्कं नियम अत्थि, जस्स पुण आउयं तस्स नियमम् अस्ति, यस्य पुनः आयुष्कं तस्य मोहणिज्जं सिय अत्थि, सिय नत्थि। एवं मोहनीयं स्यात् अस्ति. स्यात् नास्ति। एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियव्वं ॥ नाम गोत्रं आन्तरायिकं च भणितव्यम्।
४९३. भंते ! जिसके मोहनीय है, क्या उसके
आयुष्य होता है? जिसके आयुष्य है क्या उसके मोहनीय होता है ? गौतम ! जिसके मोहनीय है, उसके आयुष्य नियमतः होता है। जिसके आयुष्य है, उसके मोहनीय स्यात होता है, स्यात नहीं होता। इसी प्रकार नाम, गोत्र और आंतरायिक की वक्तव्यता।
४९४. जस्स णं भंते! आउयं तस्स नाम? जस्स नामं तस्स आउयं?
यस्य भदन्त ! आयुष्कं तस्य नाम? यस्य नाम तस्य आयुष्कम्?
४९.४. भंते ! जिसके आयुष्य है, क्या उसके नाम होता है? जिसके नाम है, क्या उसके आयष्य होता है? गौतम ! ये दोनों परस्पर नियमतः होते हैं, इसी प्रकार गोत्र कर्म के साथ नाम कर्म की वक्तव्यता।
गोयमा! दो वि परोप्परं नियम। एवं गोत्तेण वि समं भाणियव्वं ।।
गौतम! द्वे अपि परस्परं नियमम्। एवं गोत्रेणापि समं भणितव्यम्।
४९५. जस्स णं भंते! आउयं तस्स ४९५. यस्य भदन्त! आयुष्कं तस्य ४९५. भंते! जिसके आयुष्य है, क्या उसके अंतरा-इयं? जस्स अंतराइयं तस्स आन्तरायिकम् ? यस्य आन्तरायिकं तस्य आंतरायिक होता है? जिसके आंतरायिक आउयं? आयुष्कम् ?
है, क्या उसके आयुष्य होता है? गोयमा! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं गौतम ! यस्य आयुष्कं तस्य आन्तरायिकं गौतम! जिसके आयुष्य है, उसके सिय अत्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, यस्य पुनः आंतरायिक स्यात् होता है, स्यात् नहीं अंतराइयं तस्स आउयं नियम अत्थि॥ आन्तरायिकं तस्य आयुष्कं नियमम् अस्ति।। होता। जिसके आंतराविक है, उसके
आयुष्य नियमतः होता है।
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श. ८ : उ. १० : सू. ४९६-५००
१९०
भगवई
४९६. जस्स णं भंते! नामं तस्स गोयं जस्स गोयं तस्स नाम?
यस्य भदन्त ! नाम तस्य गोत्रम् ?, यस्य गोत्रं तस्य नाम?
१९६. भंते! जिसके नाम है, क्या उसके गोत्र होता है? जिसके गोत्र है. क्या उसके नाम होता है? गौतम ! ये दोनों परस्पर नियमतः होते हैं।
गोयमा! दो वि एए परोप्परं नियमा अत्थि ॥
गौतम ! द्वे अपि एते परस्परं नियमम् स्तः।
यस्य भदन्त ! नाम तस्य आन्तरायिकम् ? यस्य आन्तरायिकं तस्य नाम?
४९७. जस्स णं भंते! नाम तस्स अंतराइय? जस्स अंतराइयं तस्स नामं? गोयमा! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि, सिय नस्थि: जस्स पुण अंतराइयं तस्स नामं नियम अत्थि॥
गौतम ! यस्य नाम तस्य आन्तरायिकं स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, यस्य पुनः आन्तरायिकं तस्य नाम नियमम् अस्ति।
४९७. भंते! जिसके नाम है, क्या उसके
आंतरायिक होता है ? जिसके आंतरायिक है, क्या उसके नाम होता है? गौतम! जिसके नाम है, उसके आंतरायिक स्यात् होता है स्यात नहीं होता। जिसक आंतरायिक है, उसके नाम नियमतः होता
४९८. जस्स णं भंते! गोयं तस्स अंतराइयं ? जस्स अंतराइयं तस्स गोयं? गोयमा! जस्स गोयं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि, सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियम अत्थि॥
यस्य भदन्त ! गोत्रं तस्य आन्तरायिकम् ? ४९८. भंते! जिसके गोत्र है क्या उसके यस्य आन्तरायिकं तस्य गोत्रम् ?
आंतरायिक होता है? जिसके आंतरायिक
है, क्या उसके गोत्र होता है ? गौतम ! यस्य गोत्रं तस्य आन्तरायिकं स्यात् गौतम! जिसके गोत्र है उसके आंतरायिक अस्ति, स्यात् नास्ति, यस्य पुनः स्यात होता है, स्यात नहीं होता। जिसके आन्तरायिकं तस्य गोत्रं नियमम् अस्ति। आंतरायिक है, उसके गोत्र नियमतः होता
भाष्य १.सूत्र ४८५-४९८
और अंतराय की व्याप्ति नहीं होती है। केवली वीतराग के वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र-ये चार छद्मस्थ वीतराग के मोहनीय कर्म नहीं होता, शेष सात कर्म कर्म होते हैं इसलिए उनके साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय होते हैं।
___ आठ कर्मों में परस्पर नियमा, भजनानियमा
भजना १. ज्ञानावरणीय कर्म के साथ
चार अघाती कर्म वेदनीय आयुष्य, दर्शनावरणीय कर्म की नियमा। नाम, गोत्र के साथ चार घाति कर्म २. दर्शनावरणीय कर्म के साथ। (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय,
ज्ञानावरणीय कर्म की नियमा। अंतराय कर्म) की भजना। ३. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय कर्म के साथ वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र (चार अघाति कर्म) की नियमा।
पुद्गली पुद्गल पद ४९९. भंते! जीव क्या पुगली है ? पुद्गल है?
पोग्गलि-पोग्गल-पदं
पुद्गली-पुद्गल-पदम् ४९९. जीवे णं भंते! किं पोग्गली? जीवः भदन्त ! किं पुद्गली ? पुद्गलः ? पोग्गले? गोयमा! जीवे पोग्गली वि. पोग्गले वि॥ गौतम! जीवः पुद्गली अपि, पुद्गलोऽपि।
गौतम ! जीव पुद्गली भी है, पुद्गल भी है।
५००. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते पुद्गली अपि, पुद्गलोऽपि?
५००. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीव पुद्गली भी है. पुढ़ल भी है।
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भगवई
गोयमा! से जहानामए छत्तेणं छत्ती, गौतम ! स यथानामकः छत्रेण छत्री, दण्डेन दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं दण्डी, घटेन घटी, पटेन पटी, करेण करी, करी, एवामेव गोयमा! जीवे वि एवमेव गौतम! जीवोऽपि श्रोत्रेन्द्रियसोइंदिय- चक्खिदिय-घाणिं दिय- चक्षुरिन्द्रिय - घ्राणेन्द्रिय - जिह्वेन्द्रियजिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च स्पर्शेन्द्रियाणि प्रतीत्य पुद्गली, जीवं प्रतीत्य । पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले। से। पुदलः। तत् तेनार्थेन गौतम ! एवम् उच्यतेतेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-जीवे जीवः पुगली अपि, पुद्गलोऽपि। पाग्गली वि, पोग्गले वि।।
श.८ : उ. १० : सू. ५०१-५०४ गौतम ! जैसे छत्र के कारण छत्री, दण्ड के कारण दण्डी, घट के कारण घटी, पट के कारण पटी, कर के कारण करी कहलाता है, गौतम ! इसी प्रकार जीव भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा पुद्गली और अपने चैतन्यमय स्वरूप की अपेक्षा पुगल कहलाता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जीव पुद्गली भी है, पुद्गल भी है।
५०१. नेरइए णं भंते! किं पोग्गली! नैरयिकः भदन्त ! किं पुद्गली ? पुद्गलः ? ५०१. भंते! क्या नैरयिक पुद्गली है ? पुद्गल पोग्गले? एवं चेव। एवं जाव वेमाणिए, नवरं- एवं चैव। एवं यावत् वैमानिकः, नवरं यस्य । नैरयिक से लेकर वैमानिक तक के सभी जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ यति इन्द्रियाणि तस्य तति भणितव्यानि। दण्डक जीव की भांति वक्तव्य हैं, इतना भाणियव्वाई॥
विशेष है-जिसके जितनी इन्द्रियां हैं, उसके उतनी इन्द्रियां वक्तव्य हैं।
५०२. भंते! क्या सिद्ध पुद्गली है ? पुद्गल है।
५०२. सिद्धे णं भंते! किं पोग्गली? सिद्धः भदन्त ! किं पुद्गली ? पुद्गलः? पोग्गले? गोयमा! नो पोग्गली, पोग्गले। गौतम ! नो पुद्गली, पुद्गलः।
गौतम ! पुद्गली नहीं है, पुद्गल है।
५०३. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-सिद्धे तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते-सिद्धः ५०३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा नो पोग्गली, पोग्गले? नो पुद्गली. पुद्गलः?
रहा है-सिद्ध पुद्गली नहीं है, पुद्गल है ? गोयमा! जीवं पडुच्च। से तेणद्वेणं गौतम ! जीवं प्रतीत्य। तत् तेनार्थेन गौतम ! गौतम! जीव की अपेक्षा से। गौतम ! इस गोयमा! एवं वुच्चइ-सिद्धे नो पोग्गली, एवम् उच्यते-सिद्धः नो पुदली, पुद्गलः। अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-सिद्ध पुद्गली पोग्गले॥
नहीं है, पुद्गल है।
भाष्य १. सूत्र ४९९-५०३
में आत्मा के अर्थ में इसका प्रयोग मिलता है।२ पुद्गल शब्द के अनेक अर्थ है। प्रस्तुत सूत्र में उसका प्रयोग मूर्त जीव अपने स्वरूप में पुद्गल है। पौद्गलिक इंद्रियों की अपेक्षा द्रव्य–परमाणु और परमाणु स्कंध तथा जीव के अर्थ में हुआ है। जीव के वह पुद्गली है। सिद्ध शरीर मुक्त हैं इसलिए वे पुद्गली नहीं हैं, केवल अर्थ में पुद्गल शब्द का प्रयोग वर्तमान में प्रचलित नहीं है। आगम पुगल हैं। साहित्य में केवल भगवती में ही इसका प्रयोग मिलता है। बौद्ध साहित्य ५०४. सेवं भंते! सेवं भंते! ति।। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ५०४. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा
ही है।
१. आप्टे-पुद्गल-Beaulitul. Lovely, Handoome. 1. Atom पुद्गलाः परमाणवः Sridnara. 2. The Body Matter. 3. The Sou! 4. The Egoor Indiuidual. 5. The Man.
6. The Epithat of Siva. २. कथावस्थु पालि १/१/९४--
खंधेसु भिज्जमानेसु सो चे भिज्जति पुग्गलो। उच्छेदा भवति दिट्टि या बुद्धेन विवज्जिता॥ खंधेसु भिज्जमानेसु, नो चे भिज्जति पुग्गलो। पुग्गलो सस्सतो होति, नित्वानेन समसमोति॥
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नवमं सयं
नौवां शतक
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आमुख
प्रस्तुत शतक में भूगोल, खगोल, तत्त्वचचो अहिंसा दर्शन और जीवन-वृत्त इन सबका समाहार हुआ है।
जम्बूद्वीप के वर्णन का संबंध जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति नामक उपांग से है। चंद्र के वर्णन का संबंध जीवाभिगम उपांग से है। एकोसक आदि मनुष्यों का संबंध जीवाभिगम उपांग से है। यह समूचा प्रकरण प्रस्तुत आगम में प्रक्षिप्त प्रतीत होता है।
सूत्रांक ९ से ५१ तक असोच्चा केवली का वर्णन है। असोच्चा केवली का सिद्धांत आत्मा की आंतरिक पवित्रता और तज्जनित विकास पर आधारित है। इसे धर्म का सार्वभौम रूप अथवा असांप्रदायिक रूप कहा जा सकता है। भगवान् महावीर ने धर्म के क्षेत्र में आत्मा को केन्द्र में रखा। संप्रदाय, वेश आदि को परिधि में। संप्रदाय, धर्म की उपलब्धि में उपयोगी है। वह धर्म का उपादान नहीं है। उसका उपादान है आत्मा की विशुद्धि। एक पाठक असोच्चा केवली के प्रकरण को पढ़ता है तब उसके सामने कोई संप्रदाय नहीं होता, केवल आत्मा होती है। सांप्रदायिक विद्वेष या उन्माद को मिटाने का यह अपूर्व आलेख है। समाज और राजनीति से जुड़े हुए धर्म के प्रवचनों से इसका संबंध नहीं है, इसका संबंध विशुद्ध आध्यात्मिक चेतना से है।
सूत्रांक ५२ से ७५ तक 'सोच्चा' का प्रकरण है। किसी गुरु से धर्म की उपलब्धि होने के बाद जो आध्यात्मिक विकास करता है, वह 'श्रुत्वा' अतीन्द्रिय ज्ञानी है। अश्रुत्वा और श्रुत्वा दोनों की स्वीकृति धर्म के समग्र स्वरूप का एक सुंदर निदर्शन है।
प्रस्तुत आगम में पार्खापत्यिक अणगारों का अनेक बार उल्लेख हुआ है। पार्वापत्यिक अणगार स्थविरों के पास आता है उनसे सामायिक, प्रत्याख्यान, संयम, संवर, विवेक, व्युत्सर्ग आदि विषयों पर चर्चा करता है और अंत में संबुद्ध होकर महावीर के शासन में प्रव्रजित हो जाता है।
राजगृह में पार्खापत्यिक स्थविर भगवान महावीर के पास आते हैं, और रात-दिन के बारे में जिज्ञासा करते हैं अंत में महावीर के शासन में दीक्षित हो जाते है।
प्रस्तुत शतक में पाश्र्वापत्यिक गांगेय अणगार भगवान महावीर के पास आता है। उत्पत्ति, च्यवन और प्रवेशन के विषय में अनेक प्रश्न पूछता है। महावीर उनका उत्तर देते हैं। यह प्रश्नोत्तर 'गांगेय के भंग' इस दृष्टि से प्रसिद्ध है। गणित की दृष्टि से ये भंग बहुत महत्त्वपूर्ण है।
गांगेय अणगार ने एक प्रश्न पूछा, वह मन को चमत्कृत करने वाला है। प्रश्न था-भंते! उत्पत्ति, च्यवन और उद्वर्तन के बारे में आप जो जानते हैं, वह अपने ज्ञान से जानते हैं या किसी दुसरे से सुनकर जानते हैं ? यह प्रश्न पूरी परंपरा पर एक प्रश्नचिह्न उपस्थित करता है। यदि भगवान महावीर चौबीसवें तीर्थंकर थे तो क्या तेईस तीर्थंकर के शिष्य उनसे अनजान थे? यदि महावीर को वे तीर्थंकर की परंपरा में चौबीसवां तीर्थंकर मानते तो तीर्थंकर के विषय में ऐसा प्रश्न कैसे उपस्थित करते-भंते! उत्पत्ति, च्यवन और उद्वर्तन के बारे में आप जो जानते हैं, वह अपने ज्ञान से जानते हैं या किसी दूसरे से सुनकर जानते हैं?
___ यदि गांगेय अणगार को तीर्थंकर परंपरा की अवधारणा स्पष्ट होती तो ऐसा प्रश्न कभी नहीं होता। पार्श्व की परंपरा से महावीर के शासन में प्रवजित होने की घटना भी शासन-परंपरा की भिन्नता को सूचित करती है। भगवान पार्श्व की परंपरा के सभी श्रमण महावीर की परंपरा में दीक्षित नहीं हुए तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों के प्रश्नों का समाधान करने वाले पांच सौ अणगारों से परिवृत स्थविरों का भगवान महावीर के शासन में दीक्षित होने का कोई उल्लेख नहीं है। भगवान महावीर और भगवान पार्श्व के शासन की एकसूत्रता के आधार-बिन्दु ये हो सकते हैं
• भगवान महावीर के माता-पिता भगवान पार्श्व के अनुयायी थे। • भगवान महावीर के पार्श्व की परंपरा में प्रचलित ज्ञान-राशि (चौदहपूर्वो) को अपने शासन में स्थान दिया था।
यह अनुमान करना कठिन भी नहीं है और असंगत भी नहीं है कि भगवान पार्श्व का प्रभाव बहुत व्यापक था। उससे बुद्ध भी प्रभावित हुए। उनकी ज्ञान-राशि का भगवान बुद्ध ने उपयोग भी किया। भगवान महावीर ने जिस समग्रता से पार्श्व की परंपरा को स्थान दिया, उस समग्रता से भगवान बुद्ध ने नहीं दिया, भगवान महावीर के शासन से भगवान पार्श्व के शासन की एकात्मकता हुई। वह एकात्मकता भगवान बुद्ध के शासन से नहीं हो सकी। इसी एकात्मकता के आधार पर तीर्थंकरों की संख्या का संकलन किया गया प्रतीत होता है।
प्रस्तुत शतक में उत्पत्ति, च्यवन और प्रवेशन का लंबा प्रकरण है। ये सब स्वतः अपने-अपने कर्म से संचालित हैं, किसी ईश्वरीय शक्ति के द्वारा संचालित नहीं हैं। कोई शक्ति इनकी नियामक नहीं है। १. भ. ९/१।
५. भ.५/२५४-२५७। २. वही, ९/३.५
६. वही, ९/७८-१२० का भाष्य। ३. वही, ९/७।
७. वही, २/९५-११३। ४. वही, १/४२३-४३३।
८. वही, ९/१२५.१३२॥
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श.९: आमुख
भगवई
गति चतुष्टय में उत्पन्न होने के अनेक कारण बतलाए गए हैं। इन कारणों का उल्लेख प्रस्तुत आगम में ही हुआ है। अन्यत्र दूसरे-दूसरे कारणों का उल्लेख है।
तेतीसवें उद्देशक में ऋषभदत्त और देवानंदा का वर्णन है। इनका वर्णन आयार-चूला और पज्जोसवणा कप्प में भी उपलब्ध है। आयार-चूला का पाठ संक्षिप्त है फिर भी उसमें गर्भ-संहरण का उल्लेख है। पज्जोसवणा कप्प में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण में महावीर के गर्भ संहरण का कोई उल्लेख नहीं है। देवानंदा के स्तन में से दूध की धारा निकलने पर महावीर ने गौतम आदि श्रमणों से कहा-देवानंदा मेरी मां है, मैं इसका आत्मज हूं।"
देवानंदा का प्रकरण गर्भ संहरण से जुड़ा हुआ है। यह श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में एक विवाद का विषय है। डॉ. हर्मन जेकोबी आदि ने इस विषय की मीमांसा की है
आयार-चूला और पर्युषणा कल्प' में गर्भ संहरण का विषय चर्चित है। देवानंदा का महावीर के पास आने का कोई उल्लेख नहीं है। प्रस्तुत शतक में गर्भ संहरण के विषय में कोई वक्तव्यता नहीं है। भगवती सूत्र में देवानंदा का प्रकरण आयार-चूला और पर्युषणा कल्प के उत्तरकाल में प्रक्षिप्त हुआ है अथवा उनसे पहले? यह अन्वेषणीय विषय है। यह अनुमान करने में कोई कठिनाई नहीं है कि रचनाकार को गर्भ संहरण की पुष्टि के लिए-देवानंदा मेरी मां है, मैं इसका आत्मज हं-इस वाक्य की संवादिता आवश्यक प्रतीति हुई है।
जमालि का प्रकरण भी श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं में विवाद का विषय है। दिगम्बर परम्परा महावीर के विवाह को अस्वीकार करती है इसलिए पुत्री और दामाद होने का प्रश्न ही नहीं उठता।
स्थानांग सूत्र में सात प्रवचन-निह्नवों का उल्लेख है। पहला बहुरतवाद है। उसके धर्माचार्य जमालि है। भगवती सूत्र की रचना शैली प्रश्नोत्तर शैली की है। वर्तमान स्वरूप में अनेक जीवन प्रसंग उपलब्ध हैं। इन सबके विषय में यह निर्णय करना सरल नहीं है कि इनमें कौन-सा मौलिक है और कौन-सा प्रक्षिप्त ? सात निवों में से पांच उत्तरवर्ती है। जमालि और तिष्यगुप्त महावीर के शासन काल में हुए हैं। इसलिए जमालि के अस्तित्व को अप्रामाणिक मानने का कोई कारण नहीं है। भगवती में उसका वर्णन प्राचीन है अथवा उत्तरवर्ती ? यह विषय मीमांसनीय हो सकता है।
चौतीसवें उद्देशक में अहिंसा के विषय में गंभीर चर्चा हुई है। एक मनुष्य का वध करने वाला अनेक जीवों का वध करता है किन्तु एक ऋषि का वध करने वाला अनंत जीवों का वध करता है। ये अहिंसा के अत्यंत रहस्यपूर्ण सिद्धांत है।
स्थावर जीवों के श्वास-प्रश्वास के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। इस प्रकार प्रस्तुत शतक में चिंतन के नए नए आयाम उद्घाटित हुए हैं। इनका गंभीर अध्ययन ज्ञान कोश को समुन्द्र बना सकता है।
१. द्रष्टव्य- भ. ९/१२५-१३२ का भाष्य। २. आ.चू.१५/३-७४ ३. पज्जो . २-१९। ४. भ.९.१४०-१४८1 ५. कल्पसूत्र सू. २७)
६.आ. चू.१५/१,३,५,६। ७.ठाण ७/१४०-१४२। ८. भ.९/२४६-२५०। ९. वही, १/२५३-२५७१
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नवमं सतं : नौवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी छाया
संगहणी गाहा संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा १. जंबुद्दीवे २. जोइस, १. जम्बूद्वीपः २. ज्योतिषः, नौवें शतक में चौतीस उद्देशक हैं ३०. अंतरदीवा ३१. असोच्च ३२. गंगेय। ३-३०. अंतर्वीपाः३१. अश्रुत्वा ३२. १. जम्बूद्वीप २. ज्योतिष्क ३-३० अन्तर-द्वीप ३३. कुंडग्गामे ३४. पुरिसे, गांङ्गेयः ३३. कुण्डग्रामः ३४. पुरुषः ३१. अश्रुत्वाके वली ३२. गांगेय ३३. णवमम्मि सतम्मि चोत्तीसा ॥१॥ नवमे शते चतुस्त्रिंशत् ॥१॥ कुण्डग्राम ३४. पुरुष।
भगव
जंबुद्दीव-पदं
जम्बूद्वीप-पदम् १. तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिला नाम तस्मिन् काले तस्मिन् समये मिथिला नाम नगरी होत्था-वण्णओ।
नगरी आसीत्-वर्णकः। मणिभद्रः चैत्यः- माणिभद्दे चेतिए-वण्णओ। सामी वर्णकः । स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता समोसढे, परिसा निग्गता जाव भगवं यावत् भगवान् गौतमः पर्युपासीनः एवम् गोयमे पज्जुवासमाणे एवं वदासी-कहि । अवादीत्-कुत्र भदन्त! जम्बूद्वीप? द्वीपः? णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे! किंसंठिए णं भंते! किं संस्थितः भदन्त! जम्बूद्वीपः द्वीपः। जंबुद्दीवे दीवे? एवं जंबुद्दीवपण्णत्ती भाणियव्वा जाव एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः भणितव्याः यावत् एवामेव सपुव्वावरेणं जंबुद्दीवे दीवे चोइस एवमेव संपूर्णापरेण जम्बूद्वीपे द्वीपे चतुर्दश सलिला-सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा सलिला-शतसहस्राः षटपञ्चाशत् च भवंतीति मक्खाया॥
सहस्राः भवन्तीति आख्याताः।
जम्बूद्वीप-पद १. उस काल और उस समय में मिथिला नाम की नगरी थी-वर्णन। माणिभद्र चैत्यवर्णन । स्वामी आए। परिषद् ने नगर से निगमन किया, यावत भगवान गौतम पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले-भंते जम्बूद्वीप द्वीप कहां है? भंते! जम्बूद्वीप द्वीप किस संस्थान वाला है? इस प्रकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (वक्षस्कार १-६) का विषय वक्तव्य है यावत पूर्व समुद्र की ओर तथा पश्चिम समुद्र की ओर जाने वाली चौदह लाख छप्पन हजार नदियां बतलाई गई हैं।
२. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति।
२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
है।
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बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी छाया
जोइस-पदं
ज्योतिष-पदम् ३.रायगिहे जाव एवं वयासी-जंबुद्दीवे णं । राजगृहे यावत् एवम् अवादीत्-जम्बूद्वीपे भंते! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा? भदन्त! द्वीपे कियन्तः चन्द्राः प्राभासिषत पभासेंति वा? पभासिस्संति वा? वा? प्रभासन्ते वा ? प्रभासिष्यन्ते वा?
ज्योतिष-पद ३. भगवान् राजगृह नगर में आए यावत् गौतम इस प्रकार बोले-भंते! जम्बूद्वीप द्वीप में कितने चन्द्रों ने प्रभास किया? प्रभास करते हैं? प्रभास करेंगे? इस प्रकार जीवाभिगम (३/७०३) की भांति वक्तव्यता यावत् जम्बूद्वीप द्वीप में तारागण की संख्या एक लाख तैतीस हजार नौ सौ पचास क्रोडाकोड़ है।'
एवं जहा जीवाभिगमे जावएगं च सयसहस्सं,
तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई। नव य सया पन्नासा,
तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ सोभिंसु, सोभिंति, सोभिस्संति॥
एवं यथा जीवाभिगमे यावत्एकं च शतसहस्रं,
त्रयस्त्रिंशत् खलु भवेत् सहस्राणि। नव च शतानि पञ्चाशत्,
तारागणकोटिकोटीनाम् ॥१॥ अशोभिषत, शोभन्ते, शोभिष्यन्ते।
४. लवणे णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा लवणे भदन्त! समुद्रे कियन्तः चन्द्राः ४. भंते! लवण समुद्र में कितने चन्द्रों ने पभासिंसु वा? पभासेंति वा? प्राभासिषत वा? प्रभासन्ते वा? प्रभास किया? प्रभास करते हैं? प्रभास पभासिस्संति वा? प्रभासिष्यन्ते वा?
करेंगे? एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ। एवं यथा जीवाभिगमे तथा ताराः। धातकी- इस प्रकार जीवाभिगम (३/७२२) की धायइसंडे, कालोदे, पुक्खरखरे, षण्डे, कालोदे, पुष्करवरे, आभ्यन्तर- भांति वक्तव्यता यावत् लवण समुद्र में अभंतरपुक्खरद्धे, मणुस्सखेत्ते-एएसु पुष्कराः, मनुष्यक्षेत्रे-एतेषु सर्वेषु यथा . तारागण की संख्या दो लाख सड़सठ सव्वेसु जहा जीवाभिगमे जाव- जीवा-भिगमे यावत् एकशशिपरिवारः, हजार नौ सौ है। धातकीखंड, कालोएगससीपरिवारो, तारागणकोडि- तारागण-कोटिकोटीनाम्।
दधि, पुष्करवर द्वीप, आभ्यन्तर पुष्करार्द्ध कोडीणं॥
और मनुष्यक्षेत्र-इन सबमें जीवाभिगम (३/८३८ गाथा ३१) की भांति वक्तव्य है, यावत् एक चन्द्रमा के परिवार में तारागण की संख्या छासठ हजार नौ सौ पचहत्तर है।
वा?
५. पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवतिया पुष्करोदे भदन्त! समुद्रे कियन्तः चन्द्राः ५. भंते! पुष्करोद समुद्र में कितने चन्द्रों ने चंदा पभासिंसु वा? पभासेंति वा? प्राभासिषत वा ? प्रभासन्ते वा प्रभासिष्यन्ते प्रभास किया? प्रभास करते हैं? प्रभास पभासिस्संति वा?
करेंगे? एवं सव्वेसु दीव-समुद्देसु जोति-सियाण एवं सर्वेषु द्वीप-समुद्रेषु ज्योतिष्काणां इस प्रकार सब द्वीप-समुद्रों में ज्योतिष्क भाणियव्वं जाव सयंभूरमणे जाव भणितव्यं यावत् स्वयंभूरमणे यावत्- की वक्तव्यता यावत् स्वयंभूरमण में यावत् सोभिंसु वा, सोभिंति वा, सोभिस्संति अशोभिषत वा, शोभन्ते वा, शोभित हुए थे, हो रहे हैं और होंगे। वा॥
शोभिष्यन्तेवा।
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भगवई
श.९ : उ. २ : सू. ५-६
भाष्य
१. सूत्र ३-५
जम्बूद्वीप आदि में चन्द्रमा आदि की संख्या
११२
४२
१४४
चंद्रमा सूर्य | नक्षत्र महाग्रह | तारागण जम्बूद्वीप
२
१७६ १३३९५० कोडाकोडी लवणसमुद्र
३५२ २६७९०० कोडाकोडी धातकी खंड द्वीप १२
३३६ १०५६ ८०३७०० कोडाकोडी कालोदधि समुद्र ४२
११७६ ३६९६ २८१२९५० कोडाकोडी पुष्करद्वीप
४०३२
१२६७२ ९६४४४०० कोडाकोडी अभ्यन्तर पुष्करार्ध |७२
| २०१६ ६३३६ ४८२२२०० कोडाकोडी | समय-क्षेत्र-मनुष्य क्षेत्र १३२
३६९६
| ८८४०७०० कोडाकोडी पुष्करोद समुद्र संख्यात | संख्यात | संख्यात |संख्यात संख्यात रुचकाद समुद्र स असंख्यात असंख्यात असंख्यात | असंख्यात | असख्यात
|स्वंभूरमण समुद्र तक ६. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
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३-३० उद्देसो
मूल
हिन्दी छाया
अन्तर्वीप पद ७. 'भगवान् राजगृह नगर में आए यावत् गौतम इस प्रकार बोले
संस्कृत छाया अंतरदीव-पदं
अन्तर्वीप-पदम् ७. रायगिहे जाव एवं बयासी-कहि णं राजगृहे यावत् एवम् अवादीत्-कुत्र भदन्त! भंते! दाहिणिल्लाणं एगूरुयमणुस्साणं दाक्षिणात्यानाम् एकोरुक मनुष्याणाम् एगूरुयदीवे नाम दीवे पण्णत्ते?
एकोरुकद्वीपः नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः? गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स गौतम! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य पव्वयस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स दक्षिणे क्षुल्लहिमवतः वर्षधरपर्वतस्य वासहरपव्ययस्स पुरथिमिल्लाओ पौरस्त्स्य चरमान्तात् लवणसमुद्रम् चरिमंताओ लवणसमुई उत्तरपुरस्थिमे उत्तरपौरस्त्ये त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य णं तिण्णि जोयण-सयाई ओगाहित्ता अत्र दाक्षिणात्यानाम् एकोरुकमनुष्याणाम् एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगूरुय- एकोरुकद्वीपः नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः-त्रीणि मणुस्साणं एगूरुयदीवे नाम दीवे योजनशतानि आयाम-विष्कम्भेण नव पण्णत्ते-तिण्णि जोयणसयाई आयाम- एकोनपञ्चाशत् योजनशते किंचित् विक्खंभेणं, नव एगूणवन्ने जोयणसए विशेषोने परिक्षेपेण सः एकया पद्मवर किंचि-विसेसूणे परिक्खेवेणं। से णं वेदिकया एकेन च वनषंडेन सर्वतः समन्तात् एगाए पउमवरवेड्याएएगेण य वणसंडेणं सम्परिक्षितः। द्वयोः प्रमाणं वर्णकः च । एवम् सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। दोण्ह वि एतेन क्रमेण एवं यथा जीवाभिगमे यावत् पमाणं वण्णओ य। एवं एएणं कमेणं एवं शुद्धदन्तद्वीपे यावत् देवलोकपरिग्रहाः ते जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे जाव मनुजाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! देवलोग-परिग्गहाणं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो!
भंते ! दक्षिण दिशा में एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक द्वीप नामक द्वीप कहां प्रज्ञप्त है? गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के दक्षिण दिशा में क्षुल्लहिमवंत वर्षधर पर्वत के पूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र के उत्तरपूर्व में तीन सौ योजन का अवगाहन करने पर वहां दक्षिण दिशा वाले एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नाम का द्वीप है। वह तीन सौ योजन लम्बा चौड़ा है। उसकी परिधि नौ सौ उनपचास योजन से कुछ विशेष न्यून है। वह एकोरुक द्वीप एक पद्मवर-वेदिका
और एक वनषण्ड से चारों तरफ घिरा हुआ है। दोनों का प्रमाण और वर्णन। इस क्रम से इस प्रकार जीवाभिगम (३/२१७) की भांति वक्तव्यता यावत् शुद्धदंत द्वीप है और उन द्वीपों के वासी मनुष्य मृत्यु के पश्चात् देवलोक में उत्पन्न होते हैं आयुष्मान् श्रमण! इस प्रकार अट्ठाईस अंतर्वीप अपनी अपनी लम्बाई और चौड़ाई के साथ वक्तव्य हैं। इतना विशेष है कि प्रत्येक द्वीप का एक उद्देशक है। इस प्रकार अट्ठाईस उद्देशक हो जाते हैं।
एवं अट्ठावीसंपि अंतरदीवा सएणं-सएणं एवम् अष्टविंशतिः अपि अन्तरद्वीपाः । आयामविक्खंभेणं भाणियव्वा, नवरं- स्वकेन-स्वकेन आयाम-विष्कम्भेण दीवे-दीवे उद्देसओ, एवं सव्वे वि। भणितव्याः , नवरं-द्वीपे-द्वीपे उद्देशकः, एवं अट्ठावीसं उद्देसगा।
सर्वेऽपि अष्टाविंशतिः उद्देशकाः।
भाष्य १.सूत्र-७
उत्तर दिशा में। प्रस्तुत उद्देशक समूह में अट्ठाईस दक्षिण दिशा के द्वीपों छप्पन अन्तर्वीप है-अट्ठाईस दक्षिण दिशा में और अट्ठाईस का निर्देश है। उत्तर दिशा के द्वीप समूह यहां विवक्षित नहीं है।' ८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
१. जीवा. ३/२१७
२.जीवा ३/२१७-२२६॥
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एगतीसइमो उद्देसो : इकतीसवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी छाया
असोच्चा उवलद्धि-पद
अश्रुत्वा उपलब्धि-पदम् ९. रायगिहे जाव एवं वयासी-असोच्चा राजगृहे यावत् एवम् अवादीत्-अश्रुत्वा णं भंते! केवलिस्स वा, केवलि-साव- भदन्त! केवलिनः वा, केवलि-श्रावकस्य गस्स वा, केवलिसावियाए वा, वा, केवलि-श्राविकायाः वा केवलि- केवलिउवासगस्स वा, केवलि- उपासकस्य वा केवलि-उपासिकायाः वा, उवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा, तत्पाक्षिकस्य वा, तत्पाक्षिक-श्रावकस्य वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्पक्खिय. तत्पाक्षिक-श्राविकायाः वा, तत्पाक्षिकसावियाए वा, तप्पक्खियउवासगस्स उपासकस्य वा तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा, तप्प-क्खियउवासियाए वा केवलि. वा, केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणाय? पण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए?
अश्रुत्वा उपलब्धि-पद ९. 'भगवान राजगृह नगर में आए, यावत्
गौतम इस प्रकार बोले-भंते! क्या कोई पुरुष केवली, केवली के श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के उपासक, केवली की उपासिका, तत्पाक्षिक (स्वयंबुद्ध), तत्पाक्षिक के श्रावक, तत्पाक्षिक की श्राविका, तत्पाक्षिक के उपासक, तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, कोई नहीं कर सकता।
गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् जाव तप्पक्खियउवासियाए वा तत्पाक्षिक उपासिकायाः वा, अस्त्येककः अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज । केवलिप्रज्ञप्तं धर्म नो लभेत श्रवणाय, सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत धम्म नोलभेज्ज सवणयाए॥
श्रवणाय।
१०. से केगटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा १०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज यावत् नो लभेत श्रवणाय?
है-कोई पुरुष सुने बिना केवली प्रज्ञप्त सवणयाए?
धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और
कोई नहीं कर सकता? गोयमा! जस्स णं नाणावर-णिज्जाणं गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं क्षयोपशमः कृतः भवति स अश्रुत्वा क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्प- केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना क्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं । उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत।। केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है। धम्मं लभेज्ज सवणयाए, जस्स णं यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ-वसमे कृतः भवति स अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् नो कडे भवइ से णं असोच्चा णं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्त तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- धर्म नो लभेत श्रवणाय। तत् तेनार्थेन गौतम! केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो एवम् उच्यते अश्रुत्वा यावत् नो लभेत
सकता। लभेज्ज सवणयाए। से तेणटेणं गोयमा! श्रवणाय।
गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव नो लभेज्ज
है-कोई पुरुष सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म सवणयाए॥
का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. ११-१४
२०२ ११. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं बोधिं बोहिं बुन्झेज्जा?
बुध्येत? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् जाव तप्पक्खियउवासियाए वा । तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः अत्थेगतिए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, केवलं बोधिं बुध्येत, अस्त्येककः केवलं अत्थेगतिए केवलं बोहिं नो बुज्झेज्जा॥ बोधिं नो बुध्येत।
११. भंते! क्या कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
१२. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- असोच्चा णं जाव केवलं बोहिं नो बुज्झेज्जा?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलं बोधिं नो बुध्येत।
गोयमा! जस्स णं दरिसणावरणि- गौतम! यस्य दर्शनावरणीयानां कर्मणां ज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइसे । क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिकतप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं उपासिकायाः वा केवलं बोधिं बुध्येत, यस्य बुज्झज्जा, जस्स णं दरिसणा- दर्शनावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो वरणिज्जाणं कम्माणं खओ-वसमे नो कृतः भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलंबोधिंनो जाव तप्प-क्खिउवासियाए वा केवलं बुध्येत। तत्तेनार्थेन गौतम! एवम् बोहिं नो बुज्झेज्जा। से तेणतुणं गोयमा! उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलं बोधिं नो एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं बुध्येत। बोहिं नो बुज्झेज्जा॥
१२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम! जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है। जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त नहीं कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
१३. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् १३. भंते! कोई पुरुष केवली यावत्
जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं मुण्डः तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं भूत्वा अगारात अनगारितां प्रव्रजेत्? मुंड होकर अगार से केवल अनगार धर्म में पव्वएज्जा?
प्रव्रजित हो सकता है? गोयमा! असोच्चाणं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थे-गतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः । तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना मुंड केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ केवलं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां होकर अगार से केवल अनगार धर्म में अणगारियं पव्वएज्जा, अत्थेगतिए प्रव्रजेत्। अस्त्येककः केवलं मुण्डः भूत्वा प्रवृजित हो सकता है और कोई नहीं हो केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अगारात् अनगारितां नो प्रव्रजेत्।
सकता। अणगारियं नो पव्वएज्जा॥
१४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा १४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव केवलं मुंडे भवित्ता यावत् केवलं मुण्डः भूत्वा अगारात् है-कोई पुरुष सुने बिना मुंड होकर अगार अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा? अनगारितां नो प्रव्रजेत्?
से केवल अनगार धर्म में प्रव्रजित हो
सकता है और कोई नहीं हो सकता। गोयमा! जस्स णं धम्मंतराइयाणं गौतम! यस्य धर्मान्तरायिकाणां कर्मणां गौतम! जिसके धर्मान्तराय कर्म का कम्माणं खओवसमे कडे भवति से णं क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत्
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श.९ : उ. ३१ : सू. १४-१७
भगवई
२०३ असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिकतप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे उपासिकायाः वा केवलं मुण्डः भूत्वा भवित्ता अगाराओ अणगारियं । अगारात् अनगारितां प्रव्रजेत, यस्य पव्वएज्जा, जस्स णं धम्म-तराइयाणं धर्मान्तरायिकाणं कर्मणां क्षयोपशमः नो कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं कृतः भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् असोच्चा केवलिस्स वा जाव। तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं मुण्डः तप्पक्खिय-उवासियाए वा केवलं मुंडे भूत्वा अगारात् अनगारितां नो प्रव्रजेत्। तत् भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा पव्वएज्जा। से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं यावत् केवलं मुण्डः भूत्वा अगारात् बुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं मुंडे अनगारितां नो प्रव्रजेत्। भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा।
तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना मुंड होकर अगार से केवल अनगार धर्म में प्रव्रजित हो सकता है। जिसके धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना मुंड होकर अगार से केवल अनगार धर्म में प्रव्रजित नहीं हो सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना मुंड होकर अगार से केवल अनगार धर्म में प्रव्रजित हो सकता है और कोई नहीं हो सकता।
१५. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा
जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा? गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेज्जा॥
अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् १५. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना ब्रह्मचर्यवासम् आवसे?
केवल ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है? गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः। तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलं ब्रह्मचर्यवासम् आवसति अस्त्येककः केवल ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है और केवलं ब्रह्मचर्यवासंनो आवसेत् ।
कोई नहीं रह सकता।
सकता?
१६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा १६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव केवलं बंभचेरवासं नो यावत् केवलं ब्रह्मचर्यवासंनो आवसेत? है-कोई पुरुष सुने बिना केवल आवसेज्जा?
ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है और कोई
नहीं रह सकता? गोयमा ! जस्स णं चरित्तावरणि-ज्जाणं गौतम! यस्य चरित्रावरणीयानां कर्मणा गौतम! जिसके चरित्रावरणीय कर्म का कम्माणं खओवसमे कुडे भवइ से णं क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं उपासिकायाः वा केवलं ब्रह्मचर्यवासम् केवल ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है। बंभचेवासं आवसेज्जा, जस्स णं आवसेत्, यस्य चरित्रा-वरणीयानां कर्मणां जिसके चरित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओव- क्षयोपशमः नो कृतः भवति सः अश्रुत्वा नहीं होता, वह केवली यावत् तत्पाक्षिक समे नो कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलं ब्रह्मचर्यवासं नो ब्रह्मचर्यवास में नहीं रह सकता। गौतम! उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं नो आवसेत् तत् तेनार्थेन गौतम! एवम उच्यते- इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई आवसेज्जा। से तेणटेणं गोयमा ! एवं अश्रुत्वा यावत् केवलं ब्रह्मचर्यवासं नो पुरुष सुने बिना केवल ब्रह्मचर्यवास में रह वुच्चइ- असोच्चा णं जाव केवलं आवसेत्।
सकता है और कोई नहीं रह सकता। बंभचेरवासंनो आवसेज्जा॥
१७. असोच्चा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा?
अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलेन संयमेन संयच्छेत्?
१७. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल संयम से संयमित हो सकता है?
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श.९ : उ. ३१ : सू. १७-२०
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गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलेणं संजमेणं संजमेज्जा, अत्थेगतिए । केवलेन संयमेन संयच्छेत, अस्त्येककः केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा॥ केवलेन संययेमेन नो संयच्छेत्।
गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल संयम से संयमित हो सकता है और कोई नहीं हो सकता।
१८. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा १८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव केवलेणं संजमेणं नो यावत केवलेन संयमेन नो संयच्छेत? है-कोई पुरुष सुने बिना केवल संयम से संजमेज्जा ?
संयमित हो सकता है और कोई नहीं हो
सकता? गोयमा ! जस्स णं जयणावर-णिज्जाणं गौतम! यस्य यतनावरणीयानां कर्मणा । गौतम! जिसके यतनावरणीयकर्म का कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा । क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्प- केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना क्खियउवासियाए वा केवलेणं संजमेणं उपासिकायाः वा केवलेन संयमेन संयच्छेत्, केवल संयम से संयमित हो सकता है। संजमेज्जा, जस्स णं जयणा- यस्य यतनावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः जिसके यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो नो कृतः भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा यावत तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलेन तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं संयमेन नो संयच्छेत्। तत् तेनार्थेन गौतम! केवल संयम से संयमित नहीं हो सकता। संजमेणं नो संजमेज्जा। से तेणटेणं एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलेन गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा गोयमा! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव संयमेन नो संयच्छेत्।
है-कोई पुरुष सुने बिना केवल संयम से केवलेणं संजमेणं नो संजमेज्जा॥
संयमित हो सकता है और कोई नहीं हो सकता।
१९. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलेन संवरेणं संवरेज्जा ?
संवरेण संवृणुयात्? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेन संवरेण संवृणुयात्। अस्त्येककः केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा। केवलेन संवरेण नो संवृणुयात्।
१९. भंते! क्या कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल संवर से संवृत हो सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल संवर से संवृत हो सकता है और कोई नहीं हो सकता।
२०. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-
असोच्चा णं जाव केवलेणं संवरेणं नो संवरेज्जा ?
अथ केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत केवलेन संवरेण नो संवण्यात?
गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणा- गौतम! यस्य अध्यवसानावरणीयानां वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा भवइ सेणं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिकतप्पक्खियउवासियाए वा केवलेणं उपासिकायाः वा केवलेन संवरेण संवरेणं संवरेज्जा, जस्स णं अज्झ- संवृणुयात्. यस्य अध्यवसानावर-णीयानां वसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओव- कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः भवति, सः समे नो कडे भवइ से णं असोच्चा अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक-
२०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवल संवर से संवृत हो सकता है और कोई नहीं हो सकता? गौतम! जिसके अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल संबर से संवृत हो सकता है। जिसके अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने
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श.९ : उ. ३१ : सू. २०-२३
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२०५ केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलेन संवरेण नो उवासियाए वा केवलेणं संवरेणं नो संवृणुयात्। तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् संवरेज्जा। से तेणेद्वेणं गोयमा! एवं उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलेन संवरेण नो बुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलेणं संवृणुयात। संवरेणं नो संवरेज्जा।
बिना केवल संवर से संवृत नहीं हो सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई पुरुष सुने बिना केवल संवर से संवृत हो सकता है और कोई नहीं हो सकता।
२१. असोच्चा णं भंते केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् २१. भंते! कोई पुरुष केवनी यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा? केवलम् आभिनिबोधिकज्ञानम् उत्पादयेत? केवल आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न कर गोयमा ! असोच्चा णं केवलिस्स वा गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् सकता है? जाव तप्पक्खियउवासियाए वा तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः गौतम! कोई पुरुष केवली यावत अत्थेगतिए केवलं आभिणिबोहिय- नाणं केवलम् आभिनिबोधिकज्ञानम् उत्पादयेत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलं अस्त्येककः केवलम् आभिनिबोधिकज्ञानं नो केवल आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न कर आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा॥ उत्पादयेत्।
सकता है और कोई नहीं कर सकता।
२२. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा २२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
असोच्चा णं जाव केवलं आभिणि यावत् केवलम् आभिनिबोधिकज्ञानम् नो है-कोई पुरुष सुने बिना केवल बोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा? उत्पादयेत?
आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न कर सकता है
और कोई नहीं कर सकता? गोयमा! जस्स णं आभिणिबोहिय- गौतम! यस्य आभिनिबोधिकज्ञाना- गौतम! जिसके आभिनिबोधिक ज्ञानानाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ- वरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति । वरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह वसमे कडे भवइ से णं असोच्चा सः अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलम् आभिनिबोधिक- उपासिका से सुने बिना केवल आभिनिउवासियाए वा केवलं आभिणिबो- ज्ञानम् उत्पादयेत्. यस्य आभिनिबोधिक- बोधिकज्ञान उत्पन्न कर सकता है। हियनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं । ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः जिसके आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आभिणिबोहिय - नाणावरणिज्जाणं भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् कर्म का क्षयोपशम नहीं होता वह पुरुष कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलम केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका असोच्चा केवलिस्स वा जाव आभिनिबोधिकज्ञानं नो उत्पादयेत्। तत् से सुने बिना केवल आभिनिबोधिकज्ञान तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा उत्पन्न नहीं कर सकता। गौतमः इस आभिणिबोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा। से यावत् केवलम् आभिनिबोधिकज्ञानं नो । अपेक्षा से यह कहा जा रहा है कोई पुरुष तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-असोच्चा उत्पादयेत्।
सुने बिना केवल आभिनिबोधिक ज्ञान णं जाव केवलं आभिणि-बोहियनाणं नो
उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर उप्पाडेज्जा॥
सकता।
२३. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः यावत् जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा?
श्रुतज्ञानम् उत्पादयेत्? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलं सुयनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलं श्रुतज्ञानम् उत्पादयेत्, अस्त्येककः
२३. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न कर सकता है और
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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. २३-२६ केवलं सुयनाणं नो उप्पाडेज्जा॥
केवलं श्रुतज्ञानं नो उत्पादयेत्।
कोई नहीं कर सकता।
२४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत् २४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव केवलं सुयनाणं नो केवलं श्रुतज्ञानं नो उत्पादयेत्।
है-कोई पुरुष सुने बिना केवल श्रुतज्ञान उप्पाडेज्जा?
उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर
सकता? गोयमा! जस्स णं सुयनाणावरणि- गौतम! यस्य श्रुतज्ञानावरणीयानां कर्मणां गौतम! जिसके श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का ज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा । क्षयोपशम होता है वह पुरुष केवली यावत् णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं उपासिकायाः वा केवलं श्रुतज्ञानम् केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न कर सकता है। सुयनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं उत्पादयेत्, यस्य श्रुतज्ञाना-वरणीयानां जिसके श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोसुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः भवति सः पशम नहीं होता वह पुरुष केवली यावत् खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलं श्रुतज्ञानं नो केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता। उवासियाए वा केवलं सुयनाणं नो उत्पादयेत्। तत् तेनार्थेन गौतम' एवम् गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा उप्पाडेजा। से तेणटेणं गोयमा! एवं उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलं श्रुतज्ञानं नो है-कोई पुरुष सुने बिना केवल श्रुतज्ञान वुच्चइ-असोच्चा ण जाव केवलं उत्पादयेत्।
उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सुयनाणं नो उप्पाडेज्जा॥
सकता।
२५. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलम् ओहिनाणं उप्पाडेज्जा?
अवधिज्ञानम् उत्पादयेत्? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव। गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलं ओहिनाणं उप्पा-डेज्जा, केवलम् अवधिज्ञानम् उत्पादयेत्, अत्थेगतिए केवलं ओहिनाणं नो अस्त्येककः केवलम् अवधिज्ञानम् नो उप्पाडेज्जा॥
उत्पादयेत्।
२५. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल अवधिज्ञान उप्पन्न कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल अवधिज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
२६. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-
असोच्चा णं जाव केवलं ओहिनाणं नो उप्पाडेज्जा?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलम् अवधिज्ञानं नो उत्पादयेत्?
गोयमा! जस्स णं ओहिनाणावर- गौतम! यस्य अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणां णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ । क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं उपासिकायाः वा केवलं अवधिज्ञानम् ओहिनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं उत्पादयति, यस्य अवधिज्ञानावरणीयानां ओहिनाणावरणिज्जाणं कम्माणं कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः भवति स खओवसमे नो कडे भवइ सेणं असोच्चा अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलम् अवधिज्ञानं नो उवासियाए वा केवलं ओहिनाणं नो उत्पादयति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवम्
२६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवल अवधिज्ञान उपन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम! जिसके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल अवधिज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जिसके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा
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भगवई
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श.९ : उ. ३१ : सू. २६-३०
उप्पाडेज्जा। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं ओहिनाणं नो उप्पाडेजा।
उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलम् अवधिज्ञानं नो उत्पादयेत्।
है-कोई पुरुष सुने बिना केवल अवधिज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
२७. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मणप- तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं ज्जवनाणं उप्पाडेज्जा?
मनःपर्यवज्ञानम् उत्पादयेत्?
२७. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर सकता
गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलं मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, केवलं मनःपर्यवज्ञानम् उत्पादयेत्, अत्थेगतिए केवलं मणपज्जवनाणं नो अस्त्येककः केवलं मनःपर्यवज्ञानं नो उप्पाडेज्जा॥
उत्पादयेत्।
गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
२८. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा २८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा असोच्चा णं जाव केवलं मणपज्ज- यावत् केवलं मनःपर्यवज्ञानं नो उत्पादयेत्? है-कोई पुरुष सुने बिना केवल मनःवनाणं नो उप्पाडेज्जा?
पर्यवज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई
नहीं कर सकता? गोयमा! जस्स णं मणपज्जव- गौतम! यस्य मनःपर्यवज्ञानावरणीयानां गौतम! जिसके मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति सः अश्रुत्वा का क्षयोपशम होता है वह पुरुष केवली कडे भवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं उपासिकायाः वा केवलं मनःपर्यवज्ञानम् । बिना केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, जस्स णं उत्पादयेत, यस्य मनः- सकता है। जिसके मनःपर्यवज्ञानावरणीय मण-पज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं पर्यवज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह पुरुष खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोच्चा कृतः भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय:- तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलं सुने बिना केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न नहीं वासियाए वा केवलं मण-पज्जवनाणं नो मनःपर्यवज्ञानं नो उत्पादयेत् । तत् तेनार्थेन कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह उप्पाडेज्जा। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा यावत् केवलं कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलं मनःपर्यवज्ञानं नो उत्पादयति ?
केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर सकता है मणपज्जवनाणं नो उप्पाडेज्जा।
और कोई नहीं कर सकता।
२९. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा केवलनाणं तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलज्ञानम् उप्पाडेज्जा?
उत्पादयेत्? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थे-गतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वाः अस्त्येककः केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलज्ञानम् उत्पादयेत्। अस्त्येककः केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा॥
केवल-ज्ञानं नो उत्पादयेत्।
२९. भंते! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है? गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
३०. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा असोच्चा णं जाव केवलनाणं नो यावत् केवलज्ञानं नो उत्पादयेत्?
३०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा _है कोई पुरुष सुने बिना केवलज्ञान
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उप्पाडेज्जा?
गोयमा! जस्स णं केवलनाणावर. गौतम! यस्य केवलज्ञानावरणीयनां कर्मणां णिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं क्षयः कृतः भवति सः अश्रुत्वा केवलिनः वा असोच्चा केवलिस्स वा जाव यावत् तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवल- तप्पक्खियउवासियाए वा केवल-नाणं ज्ञानम् उत्पादयेत्। यस्य केवलज्ञानाउप्पाडेज्जा, जस्स णं केवल- वरणीयानां कर्मणां क्षयः नो कृतः भवति सः नाणावरणिज्जाण कम्माणं खए नो कडे अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिकभवइ से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव उपासिकायाः वा केवलज्ञानं नो उत्पादयेत्। तप्पक्खियउवासियाएवा केवलनाणं नो । तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा उप्पाडेज्जा। से तेणद्वेणं गोयमा! एवं यावत् केवलज्ञानं नो उत्पादयेत्। वुच्चइ-असोच्चा णं जाव केवलंनाणं नो उप्पाडेज्जा॥
उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम! जिसके केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है। जिसके केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं होता, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवलज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
३१. असोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा जाव अश्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा यावत् ३१. भंते! क्या कोई पुरुष केवली यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा-१. केवलि- तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा १. केवलि- तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना पण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए २. प्रज्ञप्तं धर्मं लभेत श्रवणाय २. केवलबोधिं १.केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर केवलं बोहिं बुज्झेज्जा ३. केवलं मुंडे । बुध्येत ३. केवलं मुण्डः भूत्वा अगारात् सकता है? २. केवल बोधि को प्राप्त कर भवित्ता अगाराओ अणगारियं । अनगारितां प्रव्रजेत् ४. केवलं ब्रह्मचर्यवासम् सकता है? ३. मुंड होकर अगार से केवल पव्वएज्जा ४. केवलं बंभचेरवासं आवसेत् ५. केवलेन संयमेन संयच्छेत् ६. अनगार धर्म में प्रवजित हो सकता है? ४. आवसेज्जा ५. केवलेणं संजमेणं केवलेन संवरेण संवणुयात् ७. केवलं केवल ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है? ५. संजमेज्जा ६. केवलेणं संवरेणं आभिनिबोधिक-ज्ञानम् उत्पादयेत् ८. केवलं केवल संयम से संयमित हो सकता है? संवरेज्जा ७. केवलं आभिणि- श्रुतज्ञानम् उत्पादयेत् ९. केवलं अवधिज्ञानम् ६. केवल संवर से संवृत हो सकता है? बोहियनाणं उप्पा-डेज्जा ८. केवलं उत्पादयेत् १०. केवलं मनःपर्यवज्ञानम् ७. केवल आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न कर सुय-नाणं उप्पा-डेज्जा ९. केवलं उत्पादयेत् ११. केवलज्ञानम् उत्पादयेत? सकता है? ८. केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न कर ओहिनाणं उप्पा-डेज्जा १०. केवलं
सकता है ९. केवल अवधिज्ञान उत्पन्न मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा ११.
कर सकता है? १०. केवल मनःपर्यवज्ञान केवलनाणं उप्पाडेज्जा?
उत्पन्न कर सकता है? ११. केवलज्ञान
उत्पन्न कर सकता है? गोयमा! असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव गौतम! अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् गौतम! केवली यावत् तत्पाक्षिक की तप्पक्खियउवासियाए वा-१. अत्थे- तत्पाक्षिक - उपासिकायाः वा-१. उपासिका से सुने बिना १. कोई पुरुष गतिए केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्ज अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभेत केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सवणयाए, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं श्रवणाय अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्तं धर्म नो सकता है और कोई नहीं कर सकता। २. धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए २. अत्थे- लभेत श्रवणाय २. अस्त्येककः केवलं बोधिं कोई पुरुष केवल बोधि को प्राप्त कर गतिए केवलं बोहिं बुज्झेज्जा, बुध्येत अस्त्येककः केवलं बोधिं नो बुध्येत सकता है और कोई नहीं कर सकता। ३. अत्थेगतिए केवलं बोहिं नो बुज्झेज्जा ३. ३. अस्त्येककः केवलं मुण्डः भूत्वा अगारात् कोई पुरुष मुण्ड होकर अगार से केवल अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अनगारितां प्रव्रजेत् अस्त्येककः केवलं अनगार धर्म में प्रव्रजित हो सकता है और अगाराओ अणगारियं पव्वएज्जा, मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां नो कोई नहीं हो सकता। ४. कोई पुरुष केवल अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता प्रव्रजेत् ४. अस्त्येककः केवलं ब्रह्मचर्यवास में रह सकता है और कोई अगाराओ अणगारियं नो पव्वएज्जा ४. ब्रह्मचर्यवासम् आवसेत्. अस्त्येककः केवलं नहीं रह सकता। ५. कोई पुरुष केवल अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं ब्रह्मचर्यवासं नो आवसेत् ५. अस्त्येककः । संयम से संयमित हो सकता है और कोई आवसेज्जा, अत्थेगतिए केवलं केवलेन संयमेन संयच्छेत्, अस्त्येककः नहीं हो सकता। ६. कोई पुरुष केवल संवर बंभचेखासं नो आवसेज्जा ५. केवलेन संयमेन नो संयच्छेत्। ६. से संवृत हो सकता है और कोई नहीं हो
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अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संज- अस्त्येककः केवलेन संवरेण संवणुयात्, मेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं संज-मेणं अस्त्येककः केवलेन संवरेण नो संवृणुयात्। नो संजमेज्जा ६. अत्थेगतिए केवलेणं ७. अस्त्येककः केवलं आभिनिबोधिकसंवरेणं संवरेज्जा, अत्थेगतिए केवलेणं ज्ञानम् उत्पादयेत्, अस्त्येककः केवलं संवरेणं नो संवरेज्जा ७. अत्थेगतिए आभिनिबोधिकज्ञानम् उत्पादयेत् ८. केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेज्जा, अस्त्येककः केवलं श्रुतज्ञानम् उत्पादयेत्, अत्थेगतिए केवलं आभिणि-बोहियनाणं अस्त्येककः केवलं श्रुतज्ञानं नो उत्पादयेत् नो उप्पाडेज्जा ८. अत्थेगतिए केवलं ९. अस्त्येककः केवलम् अवधिज्ञानम् . सुयनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलं उत्पादयेत्, अस्त्येककः केवलं अवधिज्ञानं, सुयनाणं नो उप्पाडेज्जा ९. अत्थेगतिए नो उत्पादयेत् १०. अस्त्येककः केवलं केवलं ओहिनाणं उप्पाडेज्जा मनःपर्यवज्ञानम् उत्पादयेत्, अस्त्येककः अत्थेगतिए केवलं ओहिनाणं नो केवलं मनःपर्यवज्ञानं नो उत्पादयेत्। ११. उप्पाडेज्जा १०. अत्थेगतिए केवलं अस्त्येककः केवलज्ञानम् उत्पादयेत, मणपज्जवनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए अस्त्येककः केवलज्ञानं नो उत्पादयेत् । केवलं मणपज्जवनाणं नो उप्पाडेज्जा ११. अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा।
सकता। ७. कोई पुरुष केवल आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ८. कोई पुरुष केवल श्रुतज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ९. कोई पुरुष केवल अवधिज्ञान उत्पन्न कर सकता है
और कोई नहीं कर सकता। १०. कोई पुरुष केवल मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। ११. कोई पुरुष केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
३२. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवम उच्यते-अश्रुत्वा
असोच्चा णं तं चेव जाव अत्थे-गतिए तच्चैव यावत् अस्त्येककः केवलज्ञानम् केवलनाणं उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए उत्पादयेत, अस्त्येककः केवलज्ञानं नो केवलनाणं नो उप्पाडेन्जा?
उत्पादयेत्?
गोयमा! १. जस्स णं नाणावरणि- गौतम! १. यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां ज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे क्षयोपशमः नो कृतः भवति २. यस्य दर्शनाभवइ २. जस्स णं दरिसणावर- वरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः णिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे । भवति ३. यस्य धर्मान्तरायिकानां कर्मणां भवइ ३. जस्स णं धम्म-तराइयाणं क्षयोपशमः नो कृतः भवति ४. यस्य कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ४. चरित्रावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो जस्स णं चरित्ता-वरणिज्जाणं कम्माणं कृतः भवति ५. यस्य यतनावरणीयानां खओवसमे नो कडे भवइ ५. जस्स णं कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः भवति ६. यस्य जयणावरणिज्जाणं कम्माणं खओ- अध्यवसानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः वसमे नो कडे भवइ ६. जस्स णं नो कृतः भवति ७. यस्य आभिनिबोधिक- अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माण ज्ञानावारणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो खओवसमे नो कडे भवइ ७. जस्स णं कृतःभवति ८. यस्य श्रुतज्ञानावरणीयानां आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं कर्मणां क्षयोपशमः नो कृत :भवति ९. यस्य कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ८. अवधिज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः जस्स णं सुयनाणा-वरणिज्जाणं नो कृतः भवति १०. यस्य मनःपर्यवकम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ९. ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो जस्स णं ओहिनाणावरणिज्जाणं कतः भवति ११. यस्य केवलज्ञाना
३२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता यावत् कोई पुरुष केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता? गौतम ! १. जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता २. जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ३. जिसके धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ४. जिसके चरित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ५. जिसके यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ६. जिसके अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ७. जिसके आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ८. जिसके श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ९. जिसके अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता १०. जिसके मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता ११. जिसके केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय नहीं होता, वह पुरुष
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केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त नहीं कर सकता यावत् केवल ज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३२ कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ १०. वरणीयानां कर्मणां क्षयः नो कृतः भवति, सः जस्स णं मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं अश्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिककम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ११. उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं नो लभेत जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं श्रवणाय, केवलं बोधिं नो बुध्येत यावत् कम्माणं खए नो कडे भवइ, से णं केवलज्ञानं नो उत्पादयेत्। असोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय-उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं नो बुज्झेजा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं यस्य ज्ञानावारणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः खओवसमे कडे भवइ, जस्स णं दरिस- कृतः भवति, यस्य दर्शनावरणीयानां कर्मणां णावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे क्षयोपशमः कृतः भवति, यस्य धर्मान्तकडे भवइ, जस्स णं धम्मंतराइयाणं रायिकानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति कम्माण खओवसमे कडे भवइ, एवं जाव एवं यावत् यस्य केवलज्ञानावरणीयानां जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कर्मणा क्षयः कृतः भवति, स अश्रुत्वा कम्माणं खए कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिककेवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- उपासिकायाः वा केवलि-प्रज्ञप्तं धर्म लभेत उवासियाए वा केवलिपण्णत्तं धम्म । श्रवणाय, केवलं बोधिं बुध्येत यावत् लभेज्ज सवणयाए, केवलं बोहिं केवलज्ञानं उत्पादयेत्। बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं उप्पाडेज्जा।
१. जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है २. जिसके दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है ३. जिसके धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है इस प्रकार यावत् जिसके केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होता है वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुने बिना १. केवली प्रज्ञप्त धर्म को प्राप्त कर सकता है २. केवल बोधि को प्राप्त कर सकता है यावत् ११. केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है।
भाष्य
१. सूत्र-९-३२
जैन धर्म आध्यात्मिक धर्म है। उसमें आध्यात्मिक विकास की कसौटी आत्मा की शुद्धि और अशुद्धि पर आधारित है। आध्यात्मिक चिंतन में जाति, वर्ण, वेश और सम्प्रदाय का कोई स्थान नहीं है। इस आध्यात्मिक चिंतन का स्वयंभू प्रमाण है असोच्चा और सोच्चा का सूक्त।
अध्यात्म के मूल तत्त्व हैं१. धर्म का ज्ञान
५.संयम २. बोधि
६.संवर ३. गृह त्याग (अपरिग्रह) ७ ज्ञान ४. ब्रह्मचर्यवास
इनकी उपलब्धि आंतरिक शुद्धि से होती है। आंतरिक शुद्धि के दो सूत्र बतलाए गए हैं
१. क्षयोपशम (कर्म का विलय) २. क्षय ( कर्म का विनाश)
धर्म का ज्ञान और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम-धर्म का ज्ञान करने के लिए आभिनिबोधिक ज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम अपेक्षित है। इसलिए इन दोनों का ही क्षयोपशम यहां प्रासंगिक है।
बोधि और दर्शनावरणीय कर्म-बोधि का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, इसलिए यहां दर्शनावरणीय का अर्थ होगा दर्शन मोहनीय। बोधि का लाभ दर्शन मोहनीय के क्षयोपशम से होता है।
अनगारिता और धर्मान्तरायिक कर्म-आठवें शतक में आन्तरायिक कर्म के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। उनमें पांचवां है वीर्यान्तराय। स्थानांग में धर्म के दो प्रकार बतलाए गए हैं-श्रुतधर्म
और चारित्र धर्म। धर्मान्तरायिक कर्म का अर्थ है-चारित्र धर्म में विघ्न डालने वाला वीर्यान्तराय कर्म। स्थानांग में अंतराय कर्म के केवल दो प्रकारों का निर्देश है
१. प्रत्युत्पन्न विनाशक-वर्तमान में प्राप्त वस्तु का विनाश करने वाला।
१.(क) भ. बृ.९.१३॥
(ख) भ. जो. ३.१२०९/२६-३०.।
२.भ.८/४३३। ३. ठाणं. २/१०७
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२. आगामी पथ का अवरोधक-भविष्य में होने वाले लाभ के मार्ग को रोकने वाला।
___ प्रस्तुत प्रकरण में यह दूसरा प्रकार विवक्षित है। यह चारित्र धर्म के पथ में अवरोध उत्पन्न करता है।
आंतरायिक कर्म का संबंध ज्ञान, दर्शन और चारित्र सबकी उपलब्धि के साथ है। धर्मान्तरायिक कर्म का क्षायोपशमिक भाव चारित्र मोहनीय कर्म के क्षायोपशमिक भाव के अनुरूप नहीं होता, उस अवस्था में गृह त्याग की प्रव्रज्या प्राप्त नहीं होती। वृत्तिकार के मत से भी इस आशय का समर्थन होता है।'
ब्रह्मचर्यवास और चारित्रावरणीय कर्म-यहां ब्रह्मचर्यवास का अर्थ साधु जीवन का आचार प्रासंगिक है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ मैथुन विरति किया है। वेद (काम-वासना) ब्रह्मचर्यवास का आवारक है इसलिए चारित्रावरणीय का अर्थ वेद लक्षण चारित्रावरणीय किया
मोहनीय कर्म की दो प्रकृतियां बतलाई गई हैं-दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। चारित्र मोहनीय का व्यापक अर्थ हैसामायिक आदि की चेतना में विघ्न पैदा करने वाला कर्म। इस आधार पर ब्रह्मचर्यवास का अर्थ आचार किया जा सकता है।
संयम और यतनावरणीय कर्म-संयम, संवर, ब्रह्मचर्यवास और अष्ट प्रवचन माता-इन चारों का अपना स्वतंत्र अर्थ है। संयम के दो अर्थ है--
१. इन्द्रिय और मन का निग्रह २.सतरह प्रकार का संयम।'
यतना का अर्थ है संयम की साधना में किया जाने वाला प्रयत्न।
उत्तराध्ययन में ईर्या समिति के प्रसंग में यतना के चार प्रकार बतलाए गए हैं
१.द्रव्यतः यतना २.क्षेत्रतः यतना ३. कालतः यतना ४. भावतः यतना
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३२ इन्द्रिय और मन का संयम करना तथा सतरह प्रकार के संयम में जागरूक रहना चारित्र साधना के विशेष प्रयोग हैं। उनकी सफलता वीर्यान्तराय के क्षयोपशम पर निर्भर है। अतः संयम के लिए यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम अनिवार्य बतलाया गया।
वीर्यान्तराय आन्तरायिक कर्म का एक प्रकार है। वीर्य का प्रयोग अनेक दिशाओं में होता है। वीर्यान्तराय सब प्रकार के वीर्यों में बाधक नहीं बनता। इस प्रकार जितने वीर्य प्रयोग के प्रकार हैं, उतने ही वीर्यान्तराय के प्रकार बन जाते हैं। ध्यान विचार में वीर्य योग के बहत्तर प्रकार बतलाए गए हैं
वीर्यायोगालंबनानि-ज्ञानाचार ८, दर्शनाचार ८, चारित्राचार ८,तप आचार १२, वीर्याचार-३६-७२।।
संवर और अध्यवसानावरणीय कर्म-अध्यवसान का अर्थ है चेतना की सूक्ष्म परिणति। अभयदेव सूरि ने इसका तात्पर्य भाव किया है। अध्यवसान, परिणाम और लेश्या-इन तीनों का एक गुच्छक है। लेश्या का अर्थ भाव है। वह सूक्ष्म क्रिया है। परिणाम चेतना की सूक्ष्मतर क्रिया है। अध्यवसान चेतना की सूक्ष्मतम क्रिया है। अध्यवसानावरणीय के उदयकाल में अध्यवसान का संवर नहीं होता, निरोध नहीं होता।
अभयदेव सूरि के अनुसार यहां संवर शब्द शुभाध्यवसाय की वृत्ति के अर्थ में विवक्षित है। किंतु यह विमर्शनीय है। जयाचार्य ने इसकी समीक्षा की है। उनके अनुसार कर्म निरोध का अध्यवसाय संवर है। योग प्रवृत्ति है, चंचलता है। संवर का स्वभाव निरोधात्मक है इसलिए संवर शुभ योग नहीं है।१२
अनगारिता, ब्रह्मचर्यवास, संयम और संवर-ये अध्यात्म विकास की उत्तरोत्तर भूमिकाएं हैं।
स्थानांग में 'सोच्चा असोच्चा' प्रकरण का सार-संक्षेप उपलब्ध है।
__ ज्ञान पांच हैं-आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इसमें प्रथम चार ज्ञान ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। केवलज्ञान ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होता है।
१. ठाणं २.४३११ २. भ वृ. ९/१६-अंतरायो-विघ्नः सास्ति येष तान्यान्तरायिकाणि धर्मस्य ।
चारित्रप्रतिपनिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि तेषां वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीयभेदानामित्यर्थः। ३. द्रष्ट. भ. १२००-२०९ का भाष्य। ४. भ. व.२.१८-वेदलक्षणानि चारित्रावरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुन
विरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात्। ५.भ.८.३२०-३२१ ६. द्रष्टव्य भ. १.२००-२०२. का भाष्य। ७. उत्तर. २४, ६-८ ८. भ. व. १९१८ इह तु यतनावरणीयानि चारित्रविशेषविषयवीर्यान्तराय
लक्षणानि मंतव्यानि। ९. ध्यान विचार ८ पृ. २३८।
१०. भ. वृ.१२०॥ ११. वही, ९/२०-संवरशब्देन शुभाध्यवसायवृत्तेर्विवक्षितत्वात नस्याश्च
भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात अध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीयान्युक्तानीति। १२. भ. जो. ३॥ १७१।४४-४७
आख्या शुभ अध्यवसाय, चारित्ररूपपणे करी। तसु आवरणी ताय, चारित्रावरणी वृति में।। कर्म रूंधण रा सार, अध्यवसाय संवर तिके। त्रिहुं जोगा थी न्यार, बुद्धिवंत न्याय विचारज्यो। जोग व्यापार कहाय, चंचल स्वभाव जेहनो।
संवर गुण सुखदाय, स्थिर स्वभाव है तेहनों।। १३. ठाणं २/४१-७३।
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श.९ : उ. ३१ : सू. ३३ २१२
भगवई आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान-ये दो ज्ञान सर्व साधारण विशेष जानकारी के लिए द्रष्टव्य यंत्रहै। इनका क्षयोपशम प्रत्येक जीव में होता है। सम्यक दृष्टि जीव के ये
अध्यात्म के सूत्र आन्तरिक शुद्धि के सूत्र दोनों ज्ञान कहलाते हैं और मिथ्यादृष्टि जीव के इन दोनों के नाम भिन्न
१. धर्म का ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होते हैं-मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान। इस स्थिति में इस प्रतिपादन
२. बोधि दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम का अर्थ है-जिसके आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम
३. गृहत्याग धर्मान्तराय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह आभिनिबोधिकज्ञान उत्पन्न करता है। जिसके
४. ब्रह्मचर्यवास चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता वह
५. संयम यतनावरणीय कर्म का क्षयोपशम आभिनिबोधिक ज्ञान उत्पन्न नहीं करता? इसका उत्तर अज्ञान और
। ६. संवर
अध्यवसानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ज्ञान के भेद में ही खोजा जा सकता है। अनुयोगद्वार में क्षायोपशमिक
७. आभिनिबोधिक आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय भाव के अनेक प्रकारों का निर्देश है। उनमें मतिज्ञानावरण,
कर्म का क्षयोपशम श्रुतज्ञानावरण और अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से मति
८. श्रुतज्ञान श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम अज्ञानावरण, श्रुतअज्ञानावरण और विभंगज्ञानावरण के क्षयोपशम 18. अवधिज्ञान अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम भिन्न बतलाए गए हैं। जिसके मतिज्ञानाबरण का क्षयोपशम नहीं होता |१०. मनःपर्यवज्ञान मनःपर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम
और मतिअज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है उसके आभिनिबोधिक- 1११. केवलज्ञान | केवल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। श्रुतज्ञान के लिए भी यही नियम है।
३३. तस्स णं छटुंछडेणं अणिक्खित्तेणं तस्य षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिसेन तपःकर्मणा तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय- ऊर्ध्वं बाहू प्रगह्य-प्रगह्य सूराभिमुखस्य पगिन्झिय सूराभि-मुहस्स आयावण- आतापन-भूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभूमीए आया-वेमाणस्स पगइभद्दयाए, भद्रतया प्रकृति-उपशान्ततया, प्रकृति प्रतनु पगइ-उवसंतयाए, पगइपयणुकोह- क्रोध-मान-माया-लोभतया, मृदुमार्दव- माण-माया-लोभयाए, मिउमद्दव- सम्पन्नतया, आलीनतया, विनीततया, संपन्न-याए, अल्लीणयाए, विणीय- अन्यदा कदापि शुभेन अध्यव-सानेन, याए, अण्णया कयावि सुभेणं अज्झ- शुभेन परिणामेन लेश्याभिः विशुद्धयवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं मानाभिः-विशुद्ध्यमानाभिः तदावरणीयानां विसुज्झमाणीहिं . विसुज्झमाणीहिं कर्मणां क्षयोपयशमेन ईहापोहमार्गणातयावरणिज्जाणं कम्माणं खओव- गवेषणां कुर्वतः विभंग नाम अज्ञानं समेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करे- समुत्पद्यते। सः तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन माणस्स विब्भंगे नामं अण्णाणे जघन्येन अंगुल-स्य असंख्येयतमभागम्, समुप्पज्जइ। से णं तेणं विभंग-नाणेणं उत्कर्षेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अंगुल-स्स जानाति-पश्यति। सः तेन विभंगज्ञानेन असंखेज्जतिभागं, उक्कोसेणं- समुत्पन्नेन जीवान् अपि जानाति, अजीवान् असंखेज्जाइं जोयण-सहस्साइं जाणइ- अपि जानाति, पाषण्ड-स्थान् सारम्भान् पासइ। से णं तेणं विब्भंग-नाणेणं सपरिग्रहान् संक्लिश्य-मानान् अपि समुप्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि। जानाति, विशुद्धयमानान् अपि जानाति। जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे सः पूर्वमेव सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, सम्यक्त्वं संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झ- प्रतिपद्य श्रमणधर्मं रोचते, श्रमणधर्म माणे वि जाणइ। से णं पुव्वामेव सम्मत्तं रोचित्वा चरित्रं प्रतिपद्यते, चरित्रं प्रतिपद्य पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता लिङ्गं प्रतिपद्यते। तस्य तैः मिथ्यात्व-पर्यवैः समणधम्म रोएति, समण-धम्मं रोएत्ता परिहीयमानैः-परीहीयमानः सम्यग-दर्शनचरित्तं पडिवज्जइ, चरित्तं पडिवज्जित्ता पर्यवैः परिवर्धमानैः-परिवर्धमानैः तत् लिंगं पडिवज्जइ। तस्स णं तेहिं । विभंग-अज्ञानं सम्यक्त्वपरीगृहीते क्षिप्रमेव मिच्छत्तपज्जवेहिं परिहायमाणेहिं- अवधौ परावर्तते।
३३. 'जो निरन्तर बेले-बेले (दो-दो दिन का
उपवास) के तप की साधना करता है, जो दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया
और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव सम्पन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की उत्तरोतर होने वाली विशुद्धि से तदावरणीय (विभंगज्ञानावरणीय) कर्म का क्षयोपशम होता है। उसे ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए विभंग नामक अज्ञान उत्पन्न होता है। वह पुरुष समुत्पन्न विभंगज्ञान के द्वारा जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः असंख्येय हजार योजन को जानता-देखता है। वह समुत्पन्न विभंगज्ञान के द्वारा जीव को भी जानता है, अजीव को भी जानता है। वे पासंडस्थ (अन्य सम्प्रदाय में स्थित व्रती) आरंभ सहित और परिग्रह सहित होने के कारण संक्लिश्यमान है, इसे जानता है तथा आरंभ और परिग्रह को छोड़कर वे विशुद्धयमान होते हैं, इसे भी जानता है। वह विभंगज्ञानी जीव-अजीव आदि के यथार्थ स्वरूप के प्रति समर्पित होकर
१. (क) अनु. सू. २८५।
(ख) अनु. वृ. पृ. ११०॥
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भगवई
सम्मदंसणपज्जवेहिं
परिहायमाणेहिं परिवड्ढमाणेहिं परिवड्डमाणेहिं विब्भंगे अण्णाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ ॥
१. सूत्र ३३
निर्दिष्ट हैं।
प्रस्तुत सूत्र में अश्रुत्वा पुरूष के आध्यात्मिक विकास के साधन
१. निरन्तर दो उपवास ( बेला की तपस्या)
२. सूर्याभिमुखी आतापना
३. प्रकृति की भद्रता
से
४. प्रकृति का उपशम
५. क्रोध, मान माया और लोभ की प्रतनुता ६. मृदु - मार्दव संपन्नता ७. आलीनता
३४. से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा ?
गोयमा! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा - तेउलेस्साए, पम्हलेस्साए, सुक्कलेस्साए ॥
१. सूत्र ३४
३५. से णं भंते! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु-आभिणिबोहियनाणसुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा ॥
३६. से णं भंते! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ?
गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा |
१. भ. २/६२ का भाष्य ।
२. वही ३ / २१ का भाष्य ।
२१३
भाष्य
पूर्व सूत्र में उल्लिखित सम्यक्त्व आदि की प्राप्ति विशुद्ध लेश्या
स भदन्त ! कतिषु लेश्यासु भवति ?
८. विनीतता ।
इन साधनों का विकास होते होते एक समय आता है कि अध्यवसान, परिणाम और लेश्या की विशुद्धि के क्षणों में उसे विभंग नाम का अतीन्द्रिय ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। उस अश्रुत्वा पुरुष की सूक्ष्म सत्यों को जानने की शक्ति बढ़ जाती है। वह जीव अजीव, आरंभ, परिग्रह तथा अनारंभ और अपरिग्रह, संक्लेश और विशुद्धि को जान लेता है । वह बोध उसे सम्यक्त्व तक पहुंचा देता है। मिथ्यात्व के पर्यवों की हानि और सम्यक्दर्शन के पर्यवों की वृद्धि होने पर उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है। "
गौतम! तिसृषु विशुद्धलेश्यासु भवति, तद् यथा-तेजोलेश्यायाम्, पद्मलेश्यायाम्, शुक्ललेश्यायाम् ।
भाष्य
स भदन्त कतिषु ज्ञानेषु भवति ? गौतम! त्रिषु - आभिनिबोधिकज्ञान - श्रुतज्ञान अवधिज्ञानेषु भवति ।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ३३-३६ पहले सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होता है। सम्यक्त्व को प्रतिपन्न होकर श्रमण धर्म में रुचि करता है। श्रमण धर्म में रुचि कर चारित्र को प्रतिपन्न होता है । चारित्र को प्रतिपन्न होकर लिंग को स्वीकार करता है। मिथ्यात्व पर्यवों के उत्तरोत्तर परिहानि तथा सम्यक् दर्शन के पर्यवों की उत्तरोत्तर परिवृद्धि होने के कारण उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है और सम्यक्त्व प्राप्ति के क्षण में ही विभंगज्ञान अवधिज्ञान में बदल जाता है।
३४. भंते! सम्यक्त्व आदि की प्रतिपत्ति के
की अवस्थिति में ही होती है इसलिए उसमें तीन प्रशस्त लेश्या की प्राप्ति का उल्लेख किया गया है।
स भदन्त ! किं संयोगी भवति ? अयोगी भवति ?
गौतम! संयोगी भवति, नो अयोगी भवति ।
समय उस अश्रुत्वा पुरुष में कितनी लेश्याएं होती हैं?
गौतम! तीन विशुद्ध लेश्याएं होती हैं, जैसे-तैजस लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या ।
३५. भंते! उसमें कितने ज्ञान होते हैं ? गौतम! तीन ज्ञान होते हैं- आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान ।
३६. भंते! क्या वह योग सहित होता है? योग रहित होता है?
गौतम! योग सहित होता है, योग रहित नहीं होता।
३. द्रष्टव्य भ. जो. ३/१७२ / १७-३०।
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श. ९ : उ. ३१ : सू. ३६-३९
जइ सजोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा ? वइजोगी होज्जा ? काय - जोगी होज्जा ?
गोमा! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा ॥
गोयमा! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणगारोवउत्ते वा होज्जा ॥
१. सूत्र ३६
एक समय में एक योग की प्रवृत्ति होती है इसलिए मन, वचन और काययोग को वैकल्पिक रूप में स्वीकार किया गया है। अभयदेवसूरि ने विकल्प की व्याख्या एक योग की प्रधानता की अपेक्षा से की है । " याचार्य ने इसी मत की पुष्टि की है। तात्पर्यार्थ यह है-स्थूल व्यवहार में तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ दिखाई देती है। सूक्ष्म ३७. से णं भंते! किं सागारोवउत्ते होज्जा ? अणागारोवउत्ते होज्जा?
१. सूत्र ३८
द्रष्टव्य भगवती १ / ९ का भाष्य । ३९. से णं भंते! कयरम्मि संठाणे होज्जा ?
२१४
यदि सयोगी भवति, किं मनोयोगी भवति, वाग्योगी भवति, काययोगी भवति ?
गोयमा ! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होज्जा ॥
गौतम! मनोयोगी वा भवति, वाग्योगी वा भवति, काययोगी वा भवति ।
भाष्य
१. सूत्र ३७
सब लब्धियां साकारोपयोग के क्षण में ही होती हैं-इस आगमिक नियम के आधार पर इस विधि का निर्देश किया गया है कि अवधिज्ञान की उपलब्धि मतिज्ञान अथवा श्रुतज्ञान के उपयोग के क्षण में ही होती है।" जिनभद्रगणि ने इस सिद्धान्त का समर्थन किया है-मुक्त होने की लब्धि भी साकार उपयोग के क्षण में ३८. से णं भंते! कयरम्मि संघयणे होज्जा ? गोयमा ! वइरोसभनारायसंघयणे
होज्जा ।
स भदन्त ! किं साकारोपयुक्तः भवति अनाकारोपयुक्तः भवति ?
दृष्टि का निर्णय यह है-प्रत्येक योग का प्रवर्तक अध्यवसाय स्वतंत्र होता है। एक समय में दो क्रिया हो सकती है - यह व्यवहार नय का प्रतिपादन है। प्रवर्तक अध्यवसाय एक साथ दो नहीं हो सकते। ' सिद्धांत चक्रवर्ती नेमीचन्द्र के अनुसार एक समय में एक ही योग हो सकता है, दो अथवा तीन नहीं हो सकते।*
गौतम! साकारोपयुक्तः वा भवति, अनाकारोपयुक्तः वा भवति ।
भाष्य
होती है।' सब 'लब्धियां साकार उपयोग में ही होती हैं- इस नियम का अपवाद सूत्र भी है। परिणाम परिवर्द्धमान होता है, उस अवस्था में सब उपलब्धियां साकार उपयोग में होती हैं। परिणाम अवस्थित होता है उस अवस्था में अनाकार उपयोग में सामायिक आदि कुछ लब्धियां हो सकती हैं।" अभयदेवसूरि ने भी इस आशय का उल्लेख किया है। "
स भदन्त ! कतरे संघयने भवति ? गौतम! वज्रऋषभनाराचसंघयने भवति ।
१. भ. वृ. ९ / ३६ - मनजोगीत्यादि चैकतरयोगप्राधान्यापेक्षया अवगंतव्यम् ।
२. भ. जो. ३/१७२/५३/
भाष्य
स भदन्त ! कतरे संस्थाने भवति ?
गौतम! षण्णां संस्थानानाम् अन्यतरे संस्थाने भवति ।
३. वि. भा. गा. ३६३
४. गो. जी. गा. २४२
जोगे वि एक्काले एक्केण य होदि नियमेण ।
५. भ. वृ. ९/३०-तस्य हि विभंगज्ञानान्निवर्तमानस्योपयोगद्वयेपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिरस्वीति ।
भगवई
यदि वह योग सहित होता है, तो मनोयोगी होता है? वचनयोगी होती है? काययोगी होता है?
गौतम! मनोयोगी भी होता है, वचनयोगी भी होता है, काययोगी भी होता है।
३७. 'भंते! वह साकार- उपयोग से भी युक्त होता है? अनाकार - उपयोग से युक्त होता है?
गौतम! वह साकार- उपयोग से युक्त होता है, अनाकार उपयोग से भी युक्त होता है।
३८. भंते! वह किस संहनन वाला होता है? गौतम! वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है।
३९. भंते! वह किस संस्थान वाला होता है?
गौतम ! छह संस्थानों में से किसी एक संस्थान वाला होता है।
६. वि. भा. गा. ३०८९
सव्वाओ लद्धीओ जं सागारोव ओगलाभाओ । तेणेह सिद्धलद्धी उप्पज्जइ तदुवउत्तस्स ॥ ७.वि. भा. गा. २७३२
सो किर नियमो परिवहमाणपरिणामयं पर। जोऽवडियपरिणामो लभेज्ज स लभेज्ज बीए वि ।। ८. भ. वृ. ९/३७।
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भगवई
१. सूत्र ३९
द्रष्टव्य ठाणं ६ / ३१ का टिप्पण ।
४०. से णं भंते! कयरम्मि उच्चत्ते होज्जा ? गोयमा! जहणणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होज्जा ॥
४१. से णं भंते! कयरम्मि आउए होज्जा ? गोयमा ! जहणणेणं सातिरेगट्ठवासाउए, उक्कोसेणं पुव्वकोडिआउए होज्जा ।।
२१५
भाष्य
१. सूत्र ४०
भगवान महावीर के समय में शरीर की ऊंचाई सात रत्नी की थी और भगवान ऋषभ के समय में शरीर की ऊंचाई पांच सौ धनुष्य
जइ सवेदए होज्जा किं इत्थवेदए होज्जा ? पुरिसवेदए होज्जा ? पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ? नंपुसगवेदए होज्जा ?
गोयमा ! नो इत्थिवेदए होज्जा, पुरिसवेदए, होज्जा, नो नपुंसग - वेदए होज्जा, पुरिसनपुंसगवेदए वा होज्जा ॥
स भदन्त ! कतरे उच्चत्वे भवति ? गौतम! जघन्येन सप्तरत्नौ, उत्कर्षेण पञ्चधनुः शतके भवति ।
४२. से णं भंते! किं सवेदए होज्जा ? अवेदए होज्जा ?
स भदन्त ! किं सवेदकः भवति? अवेदकः भवति ?
गोयमा! सवेदए होज्जा, नो अवेदए गौतम ! सवेदकः भवति, नो अवेदकः होज्जा । भवति । यदि सवेदकः भवति ? पुरुषनपुंसकवेदकः भवति ? किं स्त्रीवेदकः भवति ? पुरुषवेदकः भवति, नपुंसक वेदकः भवति ?
भाष्य
की थी। उसके आधार पर शरीर की जघन्य उंचाई सात रत्नी और उत्कृष्ट ऊंचाई पांच सौ धनुष्य बतलाई गई है । द्रष्टव्य समवायांग ७/३ का टिप्पण।
स भदन्त! कतरे आयुष्के भवति ? गौतम! जघन्येन सातिरेकाष्टवर्षायुष्के, उत्कर्षेण पूर्वकोट्यायुष्के भवति ।
गौतम! नो स्त्रीवेदकः भवति, पुरुषवेदकः भवति, नो नपुंसकवेदकः भवति, पुरुषनपुंसकवेदकः वा भवति ।
१. सूत्र ४२
अश्रुत्वा पुरुष के लिए स्त्रीवेद का निषेध किया गया है। अभयदेवसूरि ने इस निषेध का हेतु स्वभाव बतलाया है। संभावना की जा सकती है - अश्रुत्वा पुरुष प्रबल आंतरिक पुरुषार्थ से अवधिज्ञान
४३. से णं भंते! किं सकसाई होज्जा ? अंकसाई होज्जा ?
गोयमा ! सकसाई होज्जा, नो अकसाई होज्जा |
जइ सकसाई होज्जा से णं भंते! कतिसु यदि सकषायी भवति स भदन्त ! कतिषु कसाएस होज्जा ?
गोयमा ! चउसु - संजलणकोह- माणमाया- लोभे होज्जा ।
१. भ. ९/४२ - स्त्रियां एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाभावात ।
स भदन्त ! कि सकषायी भवति? अकषायी भवति ? गौतम! सकषायी भवति, नो अकषायी भवति ।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ४०-४३
कषायेषु भवति ?
गौतम! चतुर्षु-संज्वलनक्रोध-मान-मायालोभेषु भवति ।
४०. भंते! वह कितनी ऊंचाई वाला होता है ? गौतम! जघन्यतः सात रत्नी, उत्कृष्टतः पांच सौ धनुष्य की ऊंचाई वाला होता है।
भाष्य
की स्थिति तक पहुंचता है, वह पुरुषार्थ स्त्री में संभव न हो। पुरुषनपुंसक - यह जन्मना नपुंसक नहीं होता, कृत नपुंसक
होता है।
४१. भंते! वह किस आयु वाला होता है? गौतम! जघन्यतः कुछ अधिक आठ वर्ष, उत्कृष्टतः पूर्व कोटि आयु वाला होता है।
४२. भंते! वह वेद सहित होता है? वेद रहित होता है?
गौतम! वेद सहित होता है, वेद रहित नहीं होता।
यदि वेद सहित होता है तो क्या स्त्री वेद वाला होता है? पुरुष वेद वाला होता है? पुरुषनपुंसक वेद वाला होता है ? नपुंसक वेद वाला होता है?
गौतम! वह स्त्री वेद वाला नहीं होता, पुरुष वेद वाला होता है, नपुंसक वेद वाला नहीं होता, पुरुषनपुंसक वेद वाला होता है।
४३. "भंते! वह कषाय सहित होता है? कषाय रहित होता है? गौतम! कषाय सहित होता है, कषाय रहित नहीं होता।
यदि कषाय सहित होता है तो कितने कषायों वाला होता है?
गौतम! चार-क्रोध, मान, माया और लोभ वाला होता है।
२. वही ९ - वर्द्दिकत्वादित्वे नपुंसकः पुरुष नपुंसकः ।
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श. ९ : उ. ३१ : सू. ४४-४६
२१६
भगवई
भाष्य १.सूत्र ४३
चारित्र अवस्था में केवल संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ का कषाय के चार भेद है-अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, उदय होता है।' प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन।
४४. 'भंते! उसमें कितने अध्यवसान प्रज्ञप्त
४४. तस्स णं भंते! केवइया अज्झ-वस- तस्य भदन्त! कियन्ति अध्यवसानानि णा पण्णत्ता?
प्रज्ञाप्लानि? गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा गौतम! असंख्येयानि अध्यवसानानि पण्णत्ता।
प्रज्ञसानि।
गौतम! असंख्येय अध्यवसान प्रज्ञप्त हैं।
४५. ते णं भंते! किं पसत्था? अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था, नो अप्पसत्था॥
तानि भदन्त! किं प्रशस्तानि? ४५. भंते! वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं या अप्रशस्तानि?
अप्रशस्त? गौतम! प्रशस्तानि, नो अप्रशस्तानि। गौतम! प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं
होते।
भाष्य
१. सूत्र-४४-४५
द्रष्टव्य भगवती ९/९.३२ का भाष्य।
४६.से णं भंते!तेहिं पसत्थेहिं अज्झ-वस- स भदन्त! तैः प्रशस्तैः अध्यवसानैः ४६. 'भंते! वह अश्रुत्वा अवधिज्ञानी उन
णेहिं वट्टमाणेहिं अणंतेहिं वर्तमानैः अनन्तेभ्यः नैरयिकभवग्रहणेभ्यः वर्तमान प्रशस्त अध्यवसानों के द्वारा नेरइयभवग्गहणेहितो अप्पाणं आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः अनन्त नैरयिक जन्मों (भव-ग्रहण) से विसंजोएइ, अणंतेहिं तिरिक्ख- तिर्यग्योनिक-भवग्रहणेभ्यः आत्मानं अपने आपको विसंयुक्त कर लेता है। जोणियभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः मनुष्य- अनन्त तिर्यक्योनिक जन्मों से अपने विसंजोएइ, अणंतेहिं मणुस्स- भवग्रहणेभ्यः आत्मानं विसंयोजयति, आपको विसंयुक्त कर लेता है, अनंत भवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंजोएइ, अनन्तेभ्यः देवभवग्रहणेभ्यः आत्मानं मनुष्य जन्मों से अपने आपको विसंयुक्त अणतेहिं देवभवग्गहणेहितो अप्पाणं विसंयोजयति। या अपि च तस्य इमाः कर लेता है, अनंत देव जन्मों से अपने विसंजोएइ। जाओ वि य से इमाओ नैरयिक-तिर्यगयोनिक-मनुष्य-देवगति- आपको विसंयुक्त कर लेता है, जो नेरइय तिरिक्खजोणिय-मणुस्स- नाम्न्यः चतस्रः उत्तरप्रकृतयः, तासां च नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति नाम देवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपगडीओ, औपग्रहिकान अनन्तानुबंधिनः क्रोध-मान- की चार उत्तर प्रकृतियां हैं, उनके तासिं च णं ओवग्गहिए अणंताणुबंधी माया-लोभान् क्षपयति, क्षपयित्वा औपग्रहिक (आलंबनभूत) अनन्तानुकोह-माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता प्रत्याख्यानावरणान् क्रोध-मान-माया- बंधी-क्रोध, मान, माया और लोभ को अपच्चक्खाणकसाए कोह-माण-माया लोभान् क्षपयति, क्षपयित्वा अप्रत्या- क्षीण करता है। उसे क्षीण कर लोभे खवेइ, खवेत्ता पच्च-क्खाणावरणे ख्यानावरणान् क्रोध-मान-माया-लोभान् अप्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया कोह-माण-माया-लोभे-खवेइ, खवेत्ता क्षपयति, क्षपयित्वा संज्वलन क्रोध-मान- और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण संजलणे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, माया-लोभान् क्षपयति, क्षयित्वा पंचविधं कर प्रत्याख्यानावरण-क्रोध, मान, माया खवेत्ता पंचविहं नाणावरणिज्जं, नवविह ज्ञानावरणीयम्, नवविधं दर्शनावरणीयम्, और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण दरिसणावरणिज्जं, पंचविहं अंतराइयं, पञ्चविधम् आन्तरायिकं, तालमस्तककृतं कर संज्वलन-क्रोध, मान, माया और तालमत्थाकडं च णं मोहणिज्जं कट्ट च मोहनीयं कृत्वा कर्मरजोविकिरणकरम् लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर कम्मरय-विकिरणकरं अपुव्वकरणं अपूर्वकरणम् अनुप्रविष्टस्य अनन्तम् पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध अणु-पविट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्वा. अनुत्तरं नियाघातं निरावरणं कृत्स्नं दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक और घाए निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे प्रतिपूर्णं केवल- वरज्ञानदर्शनं समुत्पद्यते। मोहनीय को सिर से छिन्न किए हुए ताल केवलवरनाणदसणे समुपज्जति।।
वृक्ष की भांति क्षीण कर, कर्मरज के
विकिरणकारक अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट १. भ. ७.१/४३-तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात् संज्वलना एव क्रोधादया भवतीति।
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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. ४६-४८
होता है। उसके अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण. कृत्स्न, प्रतिपूर्ण, केवलज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है।
भाष्य
१.सूत्र-४६
प्रस्तुत सूत्र में क्षपकश्रेणी के आरोहण की प्रक्रिया बतलाई गई है। क्षपकश्रेणी में आरोहण करने वाला सर्वप्रथम अनंत काल से चले आ रहे भवग्रहण का विसंयोजन करता है
१. नैरयिक भवग्रहण का विसंयोजन। २. तिर्यक्योनिक भवग्रहण का विसंयोजन। ३. मनुष्य भवग्रहण का विसंयोजन। ४. देव भवग्रहण का विसंयोजन।
तत्पश्चात् नामकर्म की चार उत्तर प्रकृतियों का विसंयोजन करता है
१. नैरयिक गति नामकर्म का विसंयोजन। २. तिर्यक्योनिक गति नामकर्म का विसंयोजन। ३. मनुष्य गति नामकर्म का विसंयोजन। ४. देव गति नामकर्म का विसंयोजन।
तत्पश्चात् गति चतुष्टय के हेतुभूत अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात् संज्वलन कषाय चतुष्क-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। तत्पश्चात्
पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक
और मोहनीय कर्म को क्षीण कर अपूर्वकरण में प्रविष्ट होता है, केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है।
- इस प्रक्रिया के पश्चात् दुबारा मोहनीय कर्म का कथन विशेष उद्देश्य से किया गया है। सूत्रकार यह बतलाना चाहते हैं-मोहनीय कर्म का क्षय होने पर ही ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्म का क्षय होता है। जैसे-ताल वृक्ष की मस्तक स्थित सूई के विनिष्ट होने पर तालवृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के क्षीण होने पर ज्ञानावरणीय आदि तीन कर्म क्षीण हो जाते हैं।' शब्द विमर्श
तालमत्थाकडं-इस वाक्य में तीन पद हैं-ताल, मस्तक और कृत। इसका तात्पर्य है मस्तक सूची के छिन्न होने पर तालवृक्ष नष्ट हो जाता है।
___ अपूर्वकरण-असदृश अध्यवसाय, ऐसा अध्यवसाय, जो पहले कभी नहीं आया। सामान्यतः ऐसे दो स्थान प्रसिद्ध हैं-प्रथम अपूर्वकरण सम्यक्त्व प्राप्ति के समय होता है। दूसरा अपूर्वकरण श्रेणी आरोहण के समय होता है।
तीसरा अपूर्वकरण केवल ज्ञान के पूर्व क्षण में होता है। इस अध्यवसाय में अनुप्रविष्ट जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है।
४७. से णं भंते! केवलिपण्णत्तं धम्म
आघवेज्ज वा? पण्णवेज्ज वा? परवेज्ज वा? नो तिणढे समढे, नत्थ एगनाएण वा, एगवागरणेण वा॥
स भदन्त! केवलिप्रज्ञप्तं धर्ममाख्याति वा? प्रज्ञापयति वा? प्ररूपयति वा? गौतम! नो अयमर्थः समर्थः, नान्यत्र एकज्ञाताद वा, एकव्याकरणाद् वा।
४७. भंते! क्या वह अश्रुत्वा केवलज्ञानी केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान, प्रज्ञापना अथवा प्ररूपण करता है? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। केवल इतना अपवाद है-एक ज्ञात (दृष्टान्त) अथवा एक व्याकरण (एक प्रश्न का उत्तर) करता है।
स भदन्तः प्रव्राजयति वा? मुण्डयति वा?
४८. से णं भंते! पव्वावेज्ज वा? मुंडावेज्ज वा? णो तिणढे समटे, उवदेसं पुण करेज्जा॥
४८. भंते! क्या वह प्रव्रज्या देता है, मुण्ड
करता है? गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह प्रव्रज्या और मुंडन के लिए उपदेश देता है।
गौतम! नो अयमर्थः समर्थः. उपदेशं पुनः करोति।
१. भ. वृ. १/४६-तालमस्तकमोहनीययोश्च क्रियासाधर्म्यमेव। यथा हि तालमस्तिष्कविनाशक्रियाऽवश्यंभावितालविनाश। एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाप्यवश्यंभाविविशेषकर्मविनाशेति, आह च
मस्तकसूचिविनाशे, तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तवतकर्मविनाशोऽपि, मोहनीयक्षये नित्यम॥
२. वही, १/४६ मस्तकं-मस्तकशूचीकृतं छिन्नं यस्यासी मस्तकं कृतः तालश्चासौ मस्तककृत्नश्च तालमस्तककृतः तालश्चासी छन्दसत्वाच्चैवं निर्देशः, नालमस्तककृत्त इव यत्ततालमस्तककृतम्।
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२१८
भगवई
श. ९ : उ. ३१ : सू. ४९-५१ ४९. से णं भंते! सिज्झति जाव सव्वदु-
क्खाणं अंतं करेति? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेति ।।
स भदन्त! सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति? हन्त सिध्यति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति।
४९. भंते! क्या वह सिद्ध होता है यावत् सब दुःखों का अन्त करता है? हां, वह सिद्ध होता है यावत सब दुःखों का अन्त करता है।
५०. से णं भंते! किं उर्ल्ड होज्जा? अहे होज्जा? तिरिय होज्जा?
स भदन्त किं ऊर्ध्वं भवति? अधः भवति? तिर्यग् भवति?
५०. भंते! क्या वह ऊर्ध्व देश में होता है? अधो देश में होता है? तिर्यक् देश में होता
गोयमा! उर्ल्ड वा होज्जा, अहे वा होज्जा, तिरियं वा होज्जा। उर्ल्ड होमाणे सद्दावइवियडावइ-गंधा-वइमालवंतपरियाएसु वट्टवेयड्डपव्वएसुहोज्जा, साहरणं पडुच्च सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होज्जा। अहे होमाणे गड्डाए वा दरीए वा होज्जा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होज्जा। तिरियं होमाणे पण्णरससु कम्म-भूमीसु होज्जा, साहरणं पडुच्च अड्ढाइज्जदीव-समुह-तदेक्क-देसभाए होज्जा॥
गौतम! ऊर्ध्वं वा भवति, अधः वा भवति तिर्यग् वा भवति। ऊर्ध्वं भवन् शब्दापातिविकटापाति-गन्धापाति-माल्यवतपर्यायेषु वृत्तवैताढयपर्वतेषु भवति, संहरणं-प्रतीत्य सौमनसवने वा पण्डकवने वा भवति। अधः भवन गर्ने वा, दर्यां वा भवति, संहरणप्रतीत्य पाताले वा भवने वा भवति। तिर्यग भवन् पञ्चदशसु कर्मभूमीषु भवति, संहरणं प्रतीत्य अर्धतृतीयद्वीप-समुद्र-तदेकदेशभागे। भवति।
गौतम! वह ऊर्ध्व देश में भी होता है, अधो देश में भी होता है, तिर्यक देश में भी होता है। ऊर्ध्व देश में होता है-शब्दापाति, विकटापाति, गंधापाति, मालवंत पर्वतों में
और वृत्त वैताढ्य पर्वतों में होता है। संहरण (अपहरण) की अपेक्षा सोमनस वन में भी होता है, पंडकवन में भी होता है। अधोदेश में होता है-गड्ढे में भी होता है, कंदरा में भी होता है। संहरण की अपेक्षा पाताल में भी होता है, भवन में भी होता है। तिर्यक लोक में होता है-पंद्रह कर्मभूमि में होता है। संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्र के एक देश भाग में होता है।
५१. ते णं भंते! एगसमए णं केवतिया ते भदन्त! एक समये कियन्तः भवन्ति? ५१. 'भंते! अश्रुत्वा केवलज्ञानी एक समय होज्जा?
में कितने होते हैं? गोयमा! जहण्णणं एक्को वा दो वा गौतम! जघन्येन एकः वा. द्वौ वा, त्रयः वा. गौतम! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस। से तेणद्वेणं उत्कर्षेण दश।
उत्कृष्टतः दस। गोयमा! एवं वुच्चइ-असोच्चा णं तत् तेनार्थेन गौतम! एवम् उच्यते-अश्रुत्वा गौतम! यह इस अपेक्षा से कहा जा रहा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- है-केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका उवासियाए वा अत्थे-गतिए केवलि- उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्त से सुने बिना कोई पुरुष केवली प्रज्ञप्स धर्म पण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, अत्थे- धर्मं लभते श्रवणाय, अस्त्येककः अश्रुत्वा का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं गतिए असोच्चा णं केवलिस्स वा जाव केवलिनः वा यावत् तत्पाक्षिक- कर सकता यावत् केवली यावत् तत्पाक्षिक तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपण्णत्तं उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं नो की उपासिका से सुने बिना कोई पुरुष धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए जाव लभते श्रवणाय यावत् अस्त्येककः केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा, केवलज्ञानम् उत्पादयति, अस्त्येककः नहीं कर सकता। अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेज्जा। केवलज्ञानं नो उत्पादयति।
भाष्य १. सूत्र ५१
उत्तराध्ययन सूत्र में बतलाया गया है-अन्य लिंगी के वेश में एक समय में उत्कृष्टतः दस सिद्ध हो सकते हैं।' सोच्चा उवलद्धि-पदं श्रुत्वा उपलब्धि-पदम्
श्रुत्वा उपलब्धि-पद ५२. सोच्चा णं भंते! केवलिस्स वा, श्रुत्वा भदन्त! केवलिनः वा, केवलि- ५२. भंते! कोई पुरुष केवली. केवली के
केवलिसावगस्स वा, केवलिसावियाए श्रावकस्य वा, केवलिश्राविकायाः वा, श्रावक, केवली की श्राविका, केवली के १. उत्तर.३६.५१-५२
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भगवई
श.९: उ. ३१ : सू. ५१-५४ उपासक, केवली की उपासिका, तत्पाक्षिक, तत्पाक्षिक के श्रावक, तत्पाक्षिक की श्राविका, तत्पाक्षिक के उपासक, तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है?
वा, केवलि-उवासगस्स वा, केवलि- केवलि-उपासकस्य वा, केवलिउवा-सियाए वा, तप्पक्खियस्स वा, उपासिकायाः वा, तत्पाक्षिकस्य वा, तप्पक्खियसावगस्स वा, तप्प- तत्पाक्षिकश्रावकस्य वा, तत्पाक्षिकक्खियसावियाए वा, तप्पक्खिय-उव- श्राविकायाः वा . तत्पाक्षिक- उपासकस्य सिगस्स वा, तप्पक्खिय-उवासियाए वा, तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलि वा केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज प्रज्ञप्तं धर्मं लभेत श्रवणाय? सवणयाए? गोयम! सोच्चा ण केवलिस्स वा जाव गौतम! श्रुत्वा केवलिनः वा यावत् तप्पक्खियउवासियाए वा अत्थेगतिए तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्ज सवणयाए, केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं लभते श्रवणाय, अत्थेगतिए केवलिपण्णत्तं धम्म नो अस्त्येककः केवलिप्रज्ञप्तं धर्मं नो लभेत लभेज्ज सवणयाए॥
श्रवणाय।
गौतम! कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
५३. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-सोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवम् उच्यते-श्रुत्वा यावत् नो लभेत श्रवणाय?
गोयमा! जस्स णं नाणावरणिज्जाणं गौतम! यस्य ज्ञानावरणीयानां कर्मणां कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं क्षयोपशमः कृतः भवति स श्रुत्वा सोच्चा केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- केवलिप्रज्ञप्तं धर्म लभेत श्रवणाय, यस्य उवासियाए वा केवलि-पण्णत्तं धम्म ज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः नो कृतः लभेज्ज सवणयाए, जस्स णं नाणा- भवति स श्रुत्वा केवलिनः वा यावत् वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो। तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञप्त कडे भवइ से णं सोच्चा केवलिस्स वा धर्म नोलभेत श्रवणाय। तत् तेनार्थेन गौतम! जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलि- एवम् उच्यते-श्रुत्वा यावत् नो लभेत पण्णत्तं धम्मं नो लभेज्ज सवणयाए। से । श्रवणाय। तेणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सोच्चा णं जाव नो लभेज्ज सवणयाए।
५३. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुनकर केवली प्रज्ञप्स धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता। गौतम! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुन कर केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है। जिसके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं होता, वह केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म का ज्ञान प्राप्त कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
५४. एवं जा चेव असोच्चाए वत्तव्वया सा एवं या चैव अश्रुत्वायाः वक्तव्यता सा चैवं ५४. इस प्रकार जो अश्रुत्वा पुरुष की
चेव सोच्चाए वि भाणियव्वा, नवरं- श्रुत्वायाः अपि भवितव्या, नवरम्- वक्तव्यता है, वहीं श्रुत्वा पुरुष की अभिलावो सोच्चे त्ति, सेसं तं चेव । अभिलापः श्रुत्वेति, शेषं तच्चैव निरवशेष वक्तव्यता है, इतना विशेष है-असोच्चा निरवसेसं जाव जस्स णं मणपज्जव- यावत् यस्य मनःपर्यवज्ञानावरणीयानां के स्थान पर सोच्चा का अभिलाप नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कर्मणां क्षयोपशमः कृतः भवति, यस्य (पाठोच्चारण) है, शेष वही पूर्णरूप से कडे भवइ, जस्स णं केवलनाणा- केवलज्ञानावरणीयानां कर्मणां क्षयः कृतः वक्तव्य है यावत् जिसके मनःपर्यववरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से भवति स श्रुत्वा केवलिनः वा यावत् ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है, णं सोच्चा केवलिस्स वा जाव तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा केवलिप्रज्ञसं जिसके केवलज्ञानावरण का क्षय होता है, तप्पक्खियउवासियाए वा केवलि- धर्मं लभेत श्रवणाय, केवलं बोधिं बुध्येत वह पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की पण्णत्तं धम्म लभेज्ज सवणयाए, केवलं यावत् केवलज्ञानम् उत्पादयेत्।
उपासिका से सुनकर केवली प्रज्ञप्त धर्म बोहिं बुज्झेज्जा जाव केवलनाणं
का ज्ञान प्राप्त कर सकता है, केवल बोधि उप्पाडेज्जा॥
को प्राप्त कर सकता है यावत् केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है।
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भगवई
श.९ : उ. ३१ : सू. ५५,५६
२२० ५५. तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अणि- तस्य अष्टमम्अष्टमेन अनिक्षिप्तेन तपः- क्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं कर्मणा आत्मानं भावयतः प्रकृतिभद्रतयाभावेमाणस्स पगइभद्दयाए, पगइ- प्रकृत्युपशांततया प्रकृतिप्रतनुक्रोध-मानउवसंतयाए, पगइपयणुकोह-माण- माया-लोभतया, मृदुमार्दवसम्पन्नतया, माया-लोभयाए, मिउ-मद्दव-संपन्न- आलीनतया, विनीततया, अन्यदा कदापि याए, अल्लीणयाए, विणीययाए, शुभेन अध्यवसायेन, शुभेन परिणामेन, अण्णया कयावि सुभेणं अज्झवसाणेणं, लेश्याभिः विशुद्धयमानाभिः - विशुद्ध्यसुभेणं परिणामेणं, लेस्साहिं विसुज्झ. मानाभिः तदावरणीयानां कर्मणां माणीहिं-विसुज्झमाणीहिं तयार. क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणागवेषणां कुर्वतः णिज्जाणं कम्माणं खओव-समेणं अवधिज्ञानं समुत्पद्यते। स तेन अविधज्ञानेन ईहापोह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स समुत्पनेन जघन्येन अंगुल्यस्य ओहिनाणे समुप्पज्जइ। से णं तेणं असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण असंख्येयानि ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहण्णेणं अलोके लोकप्रमाण-मात्राणि खंडानि अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं जानाति-पश्यति। असंखेज्जाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खंडाई जाणइ-पासइ॥
५५. 'जो निरन्तर तेले-तेले के तप (तीनतीन दिन के उपवास) की साधना के द्वारा आत्मा को भावित करता है, उसके प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव सम्पन्नता, आत्म-लीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और लेश्या की उत्तरोत्तर होने वाली विशुद्धि से तदावरणीय (अवधिज्ञानावरणीय) कर्म का क्षयोपशम होता है, उसे ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए अवधिज्ञान उत्पन्न होता है। वह पुरुष समुत्पन्न अवधिज्ञान के द्वारा जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग, उत्कृष्टतः अलोक में असंख्येय लोकप्रमाण खण्डों को जानता-देखता है।
भाष्य
१. सूत्र ५५
अश्रुत्वा पुरुष और श्रुत्वा पुरुष की स्थिति में कुछ समानता है, कुछ भिन्नता है। प्रस्तुत प्रकरण में केवल भिन्नता का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। अश्रुत्वा पुरुष का अवधिज्ञान देशावधि की कोटि
का होता है इसलिए वह असंख्येय हजार योजन तक जानता-देखता है। श्रुत्वा पुरुष का अवधिज्ञान परमावधि की कोटि का होता है इसलिए वह अलोक में लोक प्रमाण मात्र असंख्येय खण्डों को जानता-देखता है।'
५६. से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होज्जा?
स भदन्त! कतिषु लेश्यासु भवति?
गोयमा! छस् लेस्सासु होज्जा, तं गौतम! षट्सु लेश्यासु भवति, तद् यथाजहा-कण्हलेस्साए जाव सुक्क- कृष्णलेश्यायां यावत्, शुक्ललेश्यायाम्। लेस्साए॥
५६. 'भंते! उस श्रुत्वा अवधिज्ञानी में कितनी लेश्याएं होती हैं? गौतम! छह लेश्याएं होती हैं, जैसे-कृष्ण लेश्या यावत शुक्ल लेश्या।
भाष्य
१. सूत्र ५६
अश्रुत्वा पुरुष अवधिज्ञानी में तीन प्रशस्त लेश्याएं बतलाई गई हैं। श्रुत्वापुरुष अवधिज्ञानी में छहों लेश्याएं निर्दिष्ट हैं। अभयदेवसूरि का अभिमत है-अवधिज्ञान की प्राप्ति तीन प्रशस्त भाव लेश्याओं में ही होती हैं। शेष तीन लेश्याओं का प्रतिपादन द्रव्यलेश्या की अपेक्षा से किया गया है। द्रव्य लेश्या की अपेक्षा से छहों लेश्याओं में सम्यक्त्व
और श्रुत का लाभ होता है, वैसे अवधिज्ञान की उपलब्धि भी हो सकती है। उसकी उपलब्धि के पश्चात् अप्रशस्त अध्यवसाय होने पर अप्रशस्त भाव लेश्याएं भी होती हैं। जयाचार्य ने प्रस्तुत विषय की समीक्षा की है। उसमें वृत्तिकार के अभिमत का समर्थन किया है। उनका तर्क यह है-श्रुत्वा पुरुष अवधिज्ञानी हुआ है, वह केवलज्ञान सन्मुख है, श्रेणी का आरोहण कर रहा है इसलिए अश्रुत्वा पुरुष की
१. विशेषावश्यक भाष्य गाथा ६८५
परमोहि असंखेज्जा लोगमित्ता समा असंखेज्जा।
ख्वगयं लहइ सव्वं खेत्तोवमिया अगणिजीवा।। २. (क) द्रव्य लेश्या की जानकारी के लिए द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि के ३४ वें अध्ययन का आमुख।
(ख) उत्तर. नि. गा. ५३४-४४| ३. भ. वृ. ९/५६-यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिरस्वपि ज्ञानं लभते तथापि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु लभते सम्यक्त्वश्रुतवत्। यदाह-सम्मत्त सुयं सव्वासु लब्भइ ति तल्लाभे चासी षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति।
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भगवई
भांति वह प्रशस्त लेश्या में ही अवधिज्ञानी हुआ है, उसमें प्रशस्त लेश्या का ही ग्रहण होना चाहिए। उसमें कृष्ण आदि तीन लेश्याएं
५७. से णं भंते! कतिसु नाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु वा, चउसु वा होज्जा । तिसु होमाणे आभिणि-बोहियनाणसुयना - ओहिनाणेसु होज्जा, चउसु star आभिणि बोहियनाण-सुयनाणओहिनाण-मणपज्जवनाणेसु होज्जा ॥
५८. से णं भंते! किं सजोगी होज्जा ? अजोगी होज्जा ?
गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा ।
जइ सजोगी होज्जा, किं मणजोगी होज्जा ? वइजोगी होज्जा ? काय जोगी होज्जा ?
गोयमा! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा ॥
१. सूत्र ५७
अश्रुत्वा पुरुष सम्यक्त्व और चारित्र की उपलब्धि के पश्चात् तत्काल अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है अतः उसे मनः पर्यवज्ञान की
५९. से णं भंते! किं सागारोवउत्ते होज्जा ? अणागारोवउत्ते होज्जा ?
गोयमा! सागारोवउत्ते वा होज्जा, अणागारोवउत्ते वा होज्जा ।।
६०. से णं भंते! कयरम्मि संघयणे होज्जा ?
स भदन्त! कतिषु ज्ञानेषु भवति ? गौतम! त्रिषु वा, चतुर्षु वा भवति । त्रिषु भवन् आभिनिबोधिकज्ञान श्रुतज्ञानअवधिज्ञानेषु चतुर्षु भवन् आभिनिबोधिकज्ञान- श्रुतज्ञान- अवधिज्ञान- मनः पर्यवज्ञानेषु भवति ।
भाष्य
२२१
श. ९ : उ. ३१ : सू. ५७-६०
द्रव्यलेश्या हो सकती हैं, भाव-लेश्या नहीं।' श्रुत्वा प्रकरण के लिए द्रष्टव्य ५/९४-९९ का भाष्य ।
स भदन्त ! किं सयोगी भवति ? अयोगी भवति?
गौतम! सयोगी भवति, नो अयोगी भवति ।
यदि सयोगी भवति, किं मनोयोगी भवति ? वागयोगी भवति ? काययोगी भवति ?
प्राप्ति नहीं होती । श्रुत्वा पुरुष पहले से ही मुनि दीक्षा में दीक्षित होता है और वह मनः पर्यवज्ञान की उपलब्धि भी कर लेता है। अतः अवधिज्ञान की उत्पत्ति के समय वह चार ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है। *
गौतम! मनोयोगी वा भवति, वाग्योगी वा भवति, काययोगी वा भवति ।
१. भ. जो. ३ । पू. ३२ का वार्तिक- ईहा वृत्तिकार कह्यं यद्यपि भावलेश्या त्रिण प्रशस्त नैं विष हीज अवधिज्ञान लहे तो पिण द्रव्यलेश्या आश्रयी छह लेश्या विषे पिण लाभ, सम्यक्त्व श्रुत नीं परै, यदाह - 'समत्तसुयं सव्वासु 'लभ' इति । वलि ते सम्यक्त्व अ श्रुत ते ज्ञान ए पाम्ये छते छहुं लेश्या मैं विषे हुवै इम कहिये इति वृत्ती ।
स भदन्त ! साकारोपयुक्तः भवति ? अनाकारोपयुक्तः भवति?
इहा ए भाव सम्यक्त्व अर्ने ज्ञान पार्मे ते वेलां तीन भली लैश्याहीज हुवे अर्ने सम्यक्त्व ज्ञान पाया पर्छ छहुं लेश्या हुवै। तिम अवधिज्ञान उपजै ते वेला तीन भी लेश्या ही हुवै। ते माटै इहां छ लेश्या कही ते द्रव्य श्या आश्रयी संभवे इति ।
जे अवधिज्ञान पायां पर्छ अप्रशस्त वर्ते तेहमें ते अप्रशस्त लेश्या पण हुवे जे
गौतम! साकारोपयुक्तः वा भवति, अनाकारोपयुक्तः वा भवति ।
स भदन्त ! कतरे संहनने भवति ?
५७. भंते! उसमें कितने ज्ञान होते हैं? गौतम! तीन अथवा चार। तीन होने पर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान । चार होने पर आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान |
५८. भंते! क्या वह योग सहित होता है? योग रहित होता है?
गौतम! योग सहित होता है, योग रहित नहीं होता।
यदि योग सहित होता है तो क्या मनोयोगी होता है? वचनयोगी होता है? काययोगी होता है?
गौतम! मनोयोगी भी होता है, वचनयोगी भी होता है. काययोगी भी होता है।
५९. भंते! क्या वह साकार उपयोग से युक्त होता है? अनाकार उपयोग से युक्त होता है?
गौतम! वह साकार उपयोग से भी युक्त होता है, अनाकार उपयोग से भी युक्त होता है।
६०. भंते! वह किस संहनन वाला होता है?
पन्नवणा पद १७ में च्यार ज्ञानी में ६ लेश्या कही । निहां वृत्तिकार मंद अध्यवसाय रूप कृष्णलेश्या मनपर्यायज्ञानी नैं कही। ते भणी माठा अध्यवसाय हुवै ते वेला अशुभ भाव लेश्या कहिये। अर्ने ए तो केवल सन्मुख छै ने भणी ऊंचो चढ़े। अवधि पायां पछे तत्काल चढते परिणामे करि केवल पावै, ते भणी असोच्या नीं परे भला अध्यवसाय कह्या अर्ने माठा वर्ज्या । तेणे करी माठी भाव लेश्या पिण न हवै, ते माटे द्रव्य छ लेश्या नै विषे अवधि ऊपजै छै ।
२. भ. वृ. ९/५७ - मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनोवधिज्ञानोत्पत्तौ ज्ञानचतुष्ट्यभावाच्चतुर्षु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति ।
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श. ९ : उ. ३१ : सू. ६०-६५
गोयमा !
होज्जा ॥
वइरोस भनारायसंघयणे
६१. से णं भंते! कयरम्मि संठाणे होज्जा ? गोयमा! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे होज्जा ॥
६२. से णं भंते! कयरम्मि उच्चत्ते होज्जा ?
गोयमा ! जहणणं सत्तरयणीए, उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होज्जा ॥
६३. से णं भंते! कयरम्मि आउए होज्जा ? गोयमा! जहणेणं सातिरेगट्ट - वासाउए, उक्कोसेणं पुव्वकोडि - वाउए होज्जा ॥
६४. से णं भंते! किं सवेदए होज्जा ? अवेदए होज्जा ?
गोयमा ! सवेदए वा होज्जा, अवेदए वा होज्जा !
जड़ अवेदए होज्जा किं उवसंतवेदए होज्जा ? खीणवेदए होज्जा ? गोयमा ! नो उवसंतवेदए होज्जा, खीणवेदए होज्जा ।
जइ सवेदए होज्जा किं इत्थीवेदए होज्जा ? पुरिसवेदए होज्जा ? पुरिसनपुंसगवेदए होज्जा ?
गोयमा ! इत्थीवेदए वा होज्जा, पुरिसवेदए वा होज्जा, पुरिसनपुंसगवेदए वा होज्जा ॥
६५. से णं भंते! किं सकसाई होज्जा ? अकसाई होज्जा ?
गोयमा! सकसाई वा होज्जा, अकसाई वा होज्जा ।
जइ अकसाई होज्जा किं उवसंत कसाई होज्जा ? खीणकसाई होज्जा ?
२२२
गौतम! वज्रऋषभनाराचसंहनने भवति ।
स भदन्त ! कतरे संस्थाने भवति ? गौतम! षण्णां संस्थानानाम् अन्यतरे संस्थाने भवति ।
स भदन्त ! कतरे उच्चत्वे भवति?
गौतम! जघन्येन सप्तरत्नौ, उत्कर्षेण पञ्चधनुः शतके भवति ।
स भदन्त ! कतरे आयुष्के भवति ? गौतम! जघन्येन सातिरेकाष्टवर्षायुष्के, उत्कर्षेण पूर्वकोट्यायुष्के भवति ।
स भदन्त ! किं सवेदकः भवति? अवेदकः भवति ?
गौतम! सवेदकः वा भवति, अवेदकः वा भवति ।
यदि अवेदकः भवति किम् उपशान्तवेदकः भवति ? क्षीणवेदकः भवति? गौतम! नो उपशान्तवेदकः भवति, क्षीणवेदकः भवति ।
यदि सवेदकः भवति किं स्त्रीवेदकः भवति ? पुरुषवेदकः भवति ? पुरुष नपुंसकवेदकः भवति ?
गौतम! स्त्रीवेदकः वा भवति, पुरुषवेदकः वा भवति, पुरुष नपुंसकवेदकः वा भवति ।
१. सूत्र ६४
अश्रुत्वा पुरुष अवेद अवस्था में अवधिज्ञान उत्पन्न नहीं करतायह पूर्व सूत्र (९ / ४२ ) में बताया जा चुका है। श्रुत्वा पुरुष वेद को
भाष्य
१. भ. वृ. ० / ६४ - क्षीणवेदस्य चावधिज्ञानोत्पत्ताववेदकः सन्नयं स्यात् ।
स भदन्त ! किं सकषायी भवति ? अकषायी भवति?
गौतम! सकषायी वा भवति, अकषायी वा भवति ।
यदि अकषायी भवति किम् उपशान्तकषायी भवति ? क्षीणकषायी भवति ?
भगवई
गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन वाला होता है।
६१. भंते! वह किस संस्थान वाला होता है? गौतम! छह संस्थानों में से किसी एक संस्थान वाला होता है।
६२. भंते! वह कितनी ऊंचाई वाला होता है?
गौतम! जघन्यतः सात रत्नी, उत्कृष्टतः पांच सौ धनुष्य की ऊंचाई वाला होता है।
६३. भंते! वह किस आयु वाला होता है? गौतम! जघन्यतः कुछ अधिक आठ वर्ष, उत्कृष्टतः पूर्व कोटि आयु वाला होता है।
६४. भंते! वह वेद सहित होता है? वेद रहित होता है?
गौतम! वेद सहित भी होता है, वेद रहित भी होता है।
क्षीण कर अवेदक हो जाता है, उस अवस्था में अवधिज्ञान को उपलब्ध कर सकता है। "
यदि वेद रहित होता है तो उपशान्त वेद वाला होता है, क्षीण वेद वाला होता है? गौतम! उपशांत वेद वाला नहीं होता, क्षीण वेद वाला होता है।
यदि वेद सहित होता है तो क्या वह स्त्री वेद वाला होता है? पुरुष वेद वाला होता है ? पुरुषनपुंसक वेद वाला होता है? गौतम! स्त्री वेद वाला भी होता है, पुरुष वेद वाला भी होता है, पुरुषनपुंसक वेद वाला भी होता है।
६५. भंते! क्या वह कषाय सहित होता है? कषाय रहित होता है?
गौतम! वह कषाय सहित भी होता है, कषाय रहित भी होता है।
यदि कषाय रहित होता है तो क्या उपशांत कषाय वाला होता है, क्षीण कषाय वाला होता है ?
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भगवई
२२३
श.९ : उ.३१ : सू. ६५-६८
गोयमा! नो उवसंतकसाई होज्जा, गौतम! नो उपशान्तकषायी भवति, क्षीणखीणकसाई होज्जा।
कषायी भवति। जइ सकसाई होज्जा से णं भंते! कतिसु यदि सकषायी भवति स भदन्त! कतिषु कसाएसु होज्जा?
कषायेषु भवति? गोयमा! चउसु वा तिसु वा दोसु वा गौतम! चतुषु वा त्रिषु वा द्वयोः वा एकस्मिन् एक्क-म्मि वा होज्जा। चउसु होमाणे वा भवति। चतुर्षु भवन चतुर्षु-संज्वलनचउसु-संजलणकोह-माण-माया- क्रोध-मान-माया-लोभेषु भवति, त्रिषु भवन लोभेसु होज्जा, तिसु होमाणे त्रिषु-संज्वलनमान-माया-लोभेषु भवति, तिसु-संजलणमाण - माया - लोभेसु द्वयोः भवन द्वयोः संज्वलनमाया-लोभयोः होज्जा, दोसु होमाणे दोसु-संजलण- भवति. एकस्मिन् भवन् एकस्मिन्माया-लोभेसु होज्जा, एगम्मि होमाणे संज्वलन-लोभे भवति। एगम्मि-संजलण-लोभे होज्जा।
गौतम! उपशांत कषाय वाला नहीं होता। क्षीण कषाय वाला होता है। भंते! यदि कषाय सहित होता है तो कितने कषायों वाला होता है? गौतम! चार. तीन, दो अथवा एक कषाय वाला होता है। चार कषाय वाला होने पर चार संज्वलन-क्रोध, मान, माया और लोभ वाला होता है। तीन कषाय वाला होने पर तीन संज्वलन-मान, माया और लोभ वाला होता है। दो कषाय वाला होने पर दो संज्वलन-माया और लोभ वाला होता है। एक कषाय वाला होने पर एक संज्वलन-लोभ वाला होता है।
भाष्य
१. सूत्र ६५
___ माया के क्षीण होने पर एक कषाय शेष रहता है। इन चारों विकल्पों में संज्वलन क्रोध के क्षीण होने पर तीन कषाय, संज्वलन क्रोध अवधिज्ञान की उत्पत्ति हो सकती है। और मान के क्षीण होने पर दो कषाय तथा संज्वलन क्रोध, मान और
६६. भंते! उसमें कितने अध्यवसान प्रज्ञप्त
६६. तस्स णं भंते ! केवतिया अज्झ- तस्य भदन्त! कियन्ति अध्यवसानानि वसाणा पण्णत्ता?
प्रज्ञप्लानि? गोयमा! असंखेज्जा अज्झवसाणा । गौतम! असंख्येयानि अध्यवसानानि पण्णत्ता॥
प्रज्ञप्लानि?
गौतम! असंख्येय अध्यवसान प्रज्ञप्स हैं।
६७. ते णं भंते! किं पसत्था?
अप्पसत्था? गोयमा! पसत्था, नो अप्पसत्था ।।
तानि भदन्त! किं प्रशस्तानि? अप्रशस्तानि? ६७. भंते! वे अध्यवसान प्रशस्त होते हैं
अथवा अप्रशस्त? गौतम! प्रशस्तानि. नो अप्रशस्तानि। गौतम! प्रशस्त होते हैं, अप्रशस्त नहीं
होते।
६८. से णं भंते! तेहिं पसत्थेहिं अज्झव- स भदन्त! तैः प्रशस्तैः अध्यवसानैः ६८. भंते! वह श्रुत्वा अवधिज्ञानी उन साणेहिं वट्टमाणेहिं अणंतेहिं नेरइय- वर्तमानैः अनन्तेभ्यः नैरयिकभवग्रहणेभ्यः वर्तमान प्रशस्त अध्यवसानों के द्वारा भवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः अनन्त नैरयिक जन्मों (भवग्रहण) से अणंतेहिं तिरिक्खजोणियभवग्गहणे- तिर्यगयोनिक-भवग्रहणेभ्यः आत्मानं अपने आपको विसंयुक्त कर होता है, हिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, अणंतेहिं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः देवभवग्रहणेभ्यः अनन्त तिर्यक जन्मों से अपने आपको मणुस्सभवग्गहणेहितो अप्पाणं आत्मानं विसंयोजयति, अनन्तेभ्यः विसंयुक्त कर लेता है, अनंत मनुष्य जन्मों विसंजोएइ, अणंतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो देवभवग्रहणेभ्यः आत्मानं विसंयोजयति। या से अपने आपको विसंयुक्त कर लेता है. अप्पाणं विसंजोएइ। जाओ वि य से अपि च तस्य इमाः नैरयिक-तिर्यग्योनिक- अनंत देव जन्मों से अपने आपको इमाओ नेरइय-तिरिक्ख-जोणिय- मनुष्य-देवगतिनाम्न्यः चतस्रः उत्तर- विसंयुक्त कर लेता है। जो ये नैरयिक, मणुस्स-देवगतिनामाओ चत्तारि प्रकृतयः तासां च औपग्रहिके अनन्तानु- तिर्यकयोनिक, मनुष्य और देव गति नाम उत्तरपगडीओ, तासिं च णं ओवग्गहिए । बंधिनः क्रोध-मान-माया लोभान क्षपयति, की चार उत्तर प्रकृतियां हैं, उनके अणंताणुबंधी कोह-माण-माया-लोभे । क्षपयित्वा अप्रत्याख्यानकषायान् क्रोध- औपग्रहिक अनन्तानुबंधी-क्रोध, मान, खवेइ, खवेत्ता अपच्चक्खाणकसाए मान-माया-लोभान् क्षपयति क्षपयित्वा माया और लोभ को क्षीण करता है। उसे कोह-माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता प्रत्याख्याना-वरणान् क्रोध-मान-माया- क्षीण कर अप्रत्याख्यानावरण कषायपच्चक्खाणावरणे कोह-माण-माया- लोभान् क्षपयति, क्षपयित्वा संज्वलान क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण लोभे खवेइ, खवेत्ता संजलणे कोह- क्रोध-मान-माया-लोभान्क्ष पयति, करता है। उसे क्षीण कर प्रत्याख्या
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भगवई
श. ९ : उ. ३१ : सू. ६८-७४
२२४ माण-माया-लोभे खवेइ, खवेत्ता क्षपयित्वा पञ्चविधं ज्ञानावरणीम्, नवविधं पंचविहं नाणावरणिज्जं, नवविहं दर्शनावरणीयम्, पञ्चविधम् आन्तदरिसणावरणिज्जं, पंच-विहं अंतराइयं रायिकम, तालमस्तककृतंच मोहनीयं कृत्वा तालमत्थाकडं च णं मोहणिज्जं कट्ट। कर्मरजोविकिरणम् अपूर्वकरणम् अनुकम्मरयवि-किरणकरं अपुव्वकरणं । प्रविष्टस्य अनन्तम् अनुत्तरं नियाघातं अणुप-विट्ठस्स अणंते अणुत्तरे निव्व- निरावरणं कृत्स्नं प्रतिपूर्णं केवलवरज्ञानघाए निरावरण कसिणे पडिपुण्णे दर्शनं समुत्पद्यते। केवलवरनाण-दंसणे समुप्पज्जइ॥
नावरण-क्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर संज्वलनक्रोध, मान, माया और लोभ को क्षीण करता है। उसे क्षीण कर पंचविध ज्ञानावरणीय, नवविध दर्शनावरणीय, पंचविध आंतरायिक और मोहनीय को सिर से छिन्न किए हुए तालवृक्ष की भांति क्षीणकर कर्मरज के विकिरणकारक अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होता है। उसके अनंत, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, प्रतिपूर्ण केवलज्ञान-दर्शन समुत्पन्न होता है।
६९. से णं भंते! केवलिपण्णत्तं धम्मं स भदन्त! केवलिप्रज्ञसं धर्ममाख्याति वा?
आघवेज्ज वा? पण्णवेज्ज वा? प्रज्ञापयति वा? प्ररूपयति वा? परवेज्ज वा? हंता आघवेज्ज वा, पण्णवेज्ज वा, हन्त आख्याति वा, प्रज्ञापयति वा, परवेज्ज वा॥
प्ररूपयति वा।
६९. भंते! क्या वह श्रुत्वा केवलज्ञानी केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान, प्रज्ञापन अथवा प्ररूपण करता है? हां, वह केवली प्रज्ञप्त धर्म का आख्यान भी करता है, प्रज्ञापन भी करता है, प्ररूपण भी करता है।
स भदन्त! प्रव्राजयति वा? मुण्डयति वा?
७०. भंते! वह प्रव्रज्या देता है? मुंड करता
७०. से णं भंते! पव्वावेज्ज वा? मुंडावेज्ज वा? हंता पव्वावेज्ज वा, मुंडावेज्ज वा॥
हन्त प्रव्राजयति वा, मुण्डयति वा।
हां, प्रव्रज्या भी देता है, मुंड भी करता है।
७१. से णं भंते! सिज्झति बुज्झति जाव स भदन्त! सिद्धयति 'बुज्झति' यावत् सव्वदुक्खाणं अंतं करेइ?
सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति? हंता सिज्झति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्धयति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं करेति॥
करोति।
७१. भंते! वह सिद्ध, बुद्ध यावत् सब दुःखों
का अंत करता है? हां, वह सिद्ध होता है. यावत् सब दुःखों का अंत करता है।
७२. तस्स णं भंते! सिस्सा वि सिझंति तस्य भदन्त! शिष्या अपि सिद्ध्यन्ति यावत् ७२. भंते! क्या उसके शिष्य सिद्ध होते हैं? जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति? सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति?
यावत् सब दुःखों का अंत करते हैं? हंता सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्ध्यन्ति यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं हां, सिद्ध होते हैं, यावत् सब दुःखों का अंत करेंति॥ कुर्वन्ति।
करते हैं।
७३. तस्स णं भंते! पसिस्सा वि सिज्झंति तस्य भदन्त! प्रशिष्या अपि सिद्ध्यन्ति ७३. भंते! क्या उसके प्रशिष्य सिद्ध होते हैं
जाव सव्वदुक्खाणं अंतं करेंति? यावत् सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति? यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं? हंता सिझंति जाव सव्वदुक्खाणं अंतं हन्त सिद्धयन्ति यावत् सर्व दुःखानाम् अन्तं हां, सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का करेंति॥ कुर्वन्ति।
अन्त करते हैं।
७४. से णं भंते! किं उड़े होज्जा? जहेव। स भदन्त! किम् ऊर्ध्वं भवति? यथैव
असोच्चाए जाव अड्ढाइज्ज-दीवसमुद्द- अश्रुत्वायाः यावत् अर्धतृतीयद्वीपसमुद्र- तदेक्कदेसभाए होज्जा॥
तदेकदेशभागे भवति।
७४. भंते! क्या वह ऊर्ध्व देश में होता है?
जैसे असोच्चा की वक्तव्यता यावत् संहरण की अपेक्षा अढ़ाई द्वीप समुद्र के एक देश भाग में होता है।
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भगवई
२२५ ७५. ते णं भंते! एगसमए णं केवतिया ते भदन्त! एकसमये कियन्तः भवन्ति? होज्जा? गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा गौतम! जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, तिण्णि वा, उक्कोसेणं अट्ठसयं। से उत्कर्षेण अष्टशतम्। तत् तेनार्थेन गौतम! तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सोच्चा णं एवम् उच्यते-श्रुत्वा केवलिनः वा यावत् केवलिस्स वा जाव तप्पक्खिय- तत्पाक्षिक-उपासिकायाः वा अस्त्येककः उवासियाए वा अत्थेगतिए केवल-नाणं केवलज्ञानम् उत्पादयेत्, अस्त्येककः उप्पाडेज्जा, अत्थेगतिए केवलनाणं नो केवलज्ञानं नो उत्पादयेन। उप्पाडेज्जा।
श. ९ : उ. ३१ : सू. ७४-७६ ७५. "भंते! श्रुत्वा केवलज्ञानी एक समय में कितने होते हैं? गौतम! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन उत्कृष्टतः एक सौ आठ। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कोई पुरुष केवली यावत् तत्पाक्षिक की उपासिका से सुनकर केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है और कोई नहीं कर सकता।
भाष्य
चत्तारि य गिहिलिंगे, अन्नलिंगे दसेव य। सलिंगेण य अट्ठसयं, समएणेगेण सिन्झई।।
१. सूत्र ७५
द्रष्टव्य उत्तरज्झयणाणि ३६/५१-५२दस चेव नपुंसेसु, वीसं इत्थियासु य। पुरिसेसु य अट्ठसय, समएणेगेण सिज्झई।
७६. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त! इति।
७६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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बत्तीसइमो उद्देसो : बत्तीसवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
पासावच्चिज्जगंगेय-पसिण-पदं ७७. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नयरे होत्थावण्णओ। दूतिपलासए चेइए। सामी समोसढे। परिसा निग्गया। धम्मो कहिओ। परिसा पडिगया।
पापित्यीयगाङ्गेय-प्रश्न-पदम् पापित्यीय गांगेय प्रश्न पद तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामः ७७. उस काल उस समय वणिकग्राम नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः। नामक नगर था-वर्णक। दूतिपलाशक दूतिपलाशकः चैत्यः। स्वामी समवसृतः। चैत्य। भगवान महावीर आए। परिषद् ने पर्षत् निर्गता। धर्मः कथितः। पर्षत नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म प्रतिगता।
कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई।
प
७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं पासा- तस्मिन् काले तस्मिन् समये पापित्यीयः ७८. 'उस काल उस समय पापियाय वच्चिज्जे गंगेए नाम अणगारे जेणेव । गाङ्गेयः नाम अनगारः यत्रैव श्रमणः भगवान् गांगेय नामक अनगार, जहां श्रमण समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा- महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवान् महावीर हैं, वहां आते हैं, वहां गच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्तः आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति भगवओ महावीरस्स अदूरसासंते स्थित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं एवम् दूर और न अति निकट स्थित होकर ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं अवादीत
श्रमण भगवान महावीर से इस प्रकार वदासी
बोले
भाष्य
१. सूत्र-७८
पावपित्यीय गांगेय द्रष्टव्य भ.५/२५४-२५६ का भाष्य। संतर-निरंतर-उववज्जणादि -पदं सान्तर-निरन्तर-उपपदनादि पदम् ७९. संतरं भंते! नेरइया उववज्जति? सान्तरं भदन्त! नैरयिकाः उपपद्यन्ते? निरंतरं नेरइया उववज्जंति?
निरन्तरं नैरयिकाः उपपद्यन्ते? गंगेया! संतरं पि नेरइया उववज्जति, गाङ्गेय! सान्तरमपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते, निरंतर पिनेरइया उववति ॥ निरन्तरमपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते।
सांतर-निरन्तर उपपन्न आदि पद ७९. 'भंते! नैरयिक अंतर-सहित उपपन्न होते हैं? निरन्तर उपपन्न होते हैं? गांगेय! नैरयिक अंतर-सहित भी उपपन्न होते हैं और निरन्तर भी उपपन्न होते हैं।
८०. भंते! असुरकुमार अंतर-सहित उपपन्न
होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं?
८०. संतरं भंते! असुरकुमारा उवव. सान्तरं भदन्त! असुरकुमाराः उपपद्यन्ते, ज्जंति? निरंतरं असुरकुमारा निरन्तरम् असुरकुमाराः उपपद्यन्ते? उववज्जति? गंगेया! संतरं पि असुरकुमारा गाङ्गेय! सान्तरमपि असुरकुमाराः उपपद्यउववज्जंति, निरंतरं पि असुर-कुमारा न्ते, निरन्तरमपि असुरकुमाराः उपपद्यन्ते। उववज्जति। एवं जाव थणियकुमारा॥ एवं यावत् स्तनितकुमाराः।
गांगेय! असुरकुमार अंतर सहित भी उपपन्न होते हैं और निरन्तर भी उपपन्न होते हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता।
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होत हा निरत
भगवई
२२७
श.९ : उ. ३२ : सू. ८१-८६ ८१. संतरं भंते! पुढविक्काइया उववज्जति? सान्तरं भदन्त! पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते? ८१. भंते! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जति? निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते? होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं? गंगेया! नो संतरं पुढविक्काइया । गाङ्गेय! नो सान्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्य- गांगेय! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न उववज्जंति, निरंतरं पुढविक्काइया न्ते, निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते। एवं नहीं होते, निरंतर उपपन्न होते हैं। इसी उववज्जति। एवं जाव वणस्सइ. यावत् वनस्पतिकायिकाः। द्वीन्द्रियाः यावत् प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तकाइया। बेइंदिया जाव वेमाणिया एते वैमानिका एते यथा नैरयिकाः।
व्यता। जहा नेरइया॥
द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं।
४२. संतरं भंते नेरइया उव्व,ति? निरंतरं सान्तरं भदन्त! नैरयिकाः उद्वर्तन्ते? निरन्तरं नेरइया उव्वद्वृति?
नैरयिका उद्वर्तन्ते? गंगेया! संतरं पि नेरइया उव्वटुंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि नैरयिकाः उद्वर्तन्ते, निरंतरं पि नेरइया उव्वट्ठति । एवं जाव। निरंतरमपि नैरयिकाः उद्धर्तन्ते। एवं यावत् थणियकुमारा॥
स्तनितकुमाराः।
८२. भंते! नैरयिक अंतर-सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? गांगेय! नैरयिक अंतर-सहित भी उद्वर्तन करते हैं और निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता।
८३. संतरं भंते! पुढविक्काइया सान्तरं भदन्त! पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते?-- ८३. भंते! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उद्उव्वदृति?-पुच्छा। पृच्छा।
वर्तन करते हैं?-पृच्छा। गंगेया! नो संतरं पुढविक्काइया गाङ्गेय! नो सान्तरं पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते, गांगेय! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उद्उव्वटुंति, निरंतरं पुढविक्काइया निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते। एवं यावत् वर्तन नहीं करते, निरंतर उद्वर्तन करते हैं। उव्वट्ठति। एवं जाव वणस्सइ. वनस्पतिकायिकाः-नो सान्तरं, निरन्तरं इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक अंतरकाइया-नो संतरं, निरंतरं उव्वद्वृति॥ उद्धर्तन्ते।
सहित उद्वर्तन नहीं करते, निरन्तर उद्वर्तन करते हैं।
८४. संतरं भंते! बेइंदिया उव्वदृति? सान्तरं भदन्त! द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते? ८४. भंते! द्वीन्द्रिय अंतर-सहित उवर्तन निरंतरं बेइंदिया उव्वद॒ति? निरन्तरं द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते?
करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? गंगेया! संतरं पि बेइंदिया उव्वटुंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते, गांगेय! द्वीन्द्रिय अंतर-सहित भी उद्वर्तन निरंतरं पि बेइंदिया उज्वम॒ति । एवं जाव। निरन्तरमपि द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् । करते हैं, निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। वाणमंतरा॥ वानमन्तराः।
इसी प्रकार यावत् वाणमंतर की वक्तव्यता।
८५. संतरं भंते! जोइसिया चयंति? सान्तरं भदन्त! ज्योतिष्काः च्यवन्ते? ८५. भंते! ज्योतिष्क अंतर-सहित च्यूत होते -पुच्छा ।
-पृच्छा । गंगेया! संतरं पि जोइसिया चयंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि ज्योतिष्काः च्यवन्ते. गांगेय! ज्योतिष्क अंतर-सहित भी च्युत निरंतरं पि जोइसिया चयंति। एवं । निरन्तरमपि ज्योतिष्काः च्यवन्ते। एवं होते हैं और निरंतर भी च्युत होते हैं। इसी वेमाणिया वि॥ वैमानिकाः अपि।
प्रकार वैमानिक की वक्तव्यता।
पवेसण-पदं ८६. कतिविहे णं भंते! पवेसणए पण्णत्ते?
प्रवेशन-पदम् कतिविधः भदन्त! प्रवेशनकः प्रज्ञप्तः?
प्रवेशन-पद ८६. भंते! प्रवेशनक कितने प्रकार का प्रज्ञप्स
गंगेया! चउविहे पवेसणए पण्णत्ते, तं गाङ्गेय! चतुर्विधः प्रवेशनकः प्रज्ञप्तः, तद् जहा-नेरइयपवेसणए, तिरिक्ख- यथा-नैरयिकप्रवेशनकः, तिर्यग्योनिक, जोणियपवेसणए, मणुस्सपवेसणए, प्रवेशनकः, मनुष्यप्रवेशनक, देवप्रवेशनकः। देवपवेसणए॥
गांगेय! प्रवेशनक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-नैरयिकप्रवेशनक, तिर्यक्योनिक प्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशनक और देवप्रवेशनक।
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श. ९ : उ. ३२ : सू. ८७-८९
१. सूत्र ७९-८६
प्रस्तुत आलापक में जीव की उत्पत्ति, उद्वर्तना और गत्यंतर में प्रवेश - इन तीन प्रश्नों पर विचार किया गया है। किसी निर्दिष्ट स्थान पर जीव उत्पन्न होता है, वह उसकी उत्पत्ति है। उस स्थान से मृत्यु या च्युत होने का नाम उद्वर्तना है। मृत्यु के पश्चात् किसी अन्य गति में जाने का नाम प्रवेशन है।
वर्षा का मौसम आता है, चारों तरफ हरियाली फैल जाती है। प्रश्न होता है-एक साथ इतने जीव कहां से आए? और भी अनेक स्थल हैं, जहां चुटकी बजाते ही असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। अनुकूल योग मिलता है और मनुष्य भी जन्म धारण कर लेता है। प्रश्न होता है- क्या आत्माएं घूमती रहती हैं? जहां भी अवसर मिलता है, वहां आकर अपना अधिकार जमा लेती हैं ? इन सब प्रश्नों पर उत्तर प्रस्तुत प्रकरण से मिलता है। एकेन्द्रिय के पांच कायों में जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु का क्रम निरंतर चलता है। एक समय भी ऐसा नहीं होता, जिस समय में जीव उत्पन्न और उद्वृत्त न हों, इसीलिए एकेन्द्रिय के पांचों कार्योंों में जीवों की
८७. नेरइयपवेसणए णं भंते! कति विहे पण्णत्ते?
गंगेया! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहारयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए ।।
जाव
८८. एगे भंते! नेरइए नेरइयपवेसण - एणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होज्जा, सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ?
गंगेया! स्यणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा ॥
८९. दो भंते! नेरइया नेरइय-पवेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहेस-तमाए होज्जा | अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे
२२८
भाष्य
उत्पत्ति और उद्वर्तना निरंतर अन्तर रहित बतलाई गई है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और उद्वर्तना निरंतर नहीं होती। उनके अंतर काल अथवा विरह काल की जानकारी के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद ६ / १०-५९ ।
ज्योतिष्क और वैमानिक देव ऊर्ध्व क्षेत्र में रहते हैं इसलिए उनका उद्वर्तन नहीं, च्यवन होता है।
१. भ. वृ. ९/७९-८२ - संतरंति समयादिकालापेक्षया सविच्छेदं तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयमुत्पादात् निरन्तरत्वमन्येषां तूत्पादे विरहस्यापि भावात्
जीव का मृत्यु के उपरांत गत्यंतर में प्रवेश - एक गति से दूसरी गति में प्रवेश होता है। गतियां चार हैं-नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति। इसीलिए प्रवेशन के चार प्रकार बतलाए गए हैं
हैं।
१. नैरयिक प्रवेशन
२. तिर्यक्ोनिक प्रवेशन
कतिविधः
नैरयिकप्रवेशनकः भदन्त ! प्रज्ञप्तः ? गाङ्गेय! सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथारत्नप्रभा पृथिवीनैरयिकप्रवेशनकः यावत् अधः सप्तमी पृथिवीनैरयिकप्रवेशनकः ।
३. मनुष्य प्रवेशन
४. देव प्रवेशन
उत्तरवर्ती सूत्रों में प्रवेशन के सहस्राधिक विकल्प किए गए
एकः भदन्त ! नैरयिकः नैरयिक- प्रवेशनकेन प्रविशन् किं रत्नप्रभायां भवति, शर्कराप्रभायां भवति यावत् अधः सप्तम्यां भवति ?
गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवति यावत् अधः सप्तम्यां वा भवति ।
द्वौ भदन्त ! नैरयिकौ नैरयिकप्रवेशन केन प्रविशन्तौ किं रत्नप्रभायां भवतः यावत् अधः सप्तम्यां भवतः ? गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवतः यावत् अधः सप्तम्यां वा भवतः ।
भगवई
अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां भवति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुका-प्रभायां भवति यावत् एकः रत्नप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवति । अथवा एकः शर्करा प्रभायाम् एकः
८७. भंते! नैरयिक प्रवेशनक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है?
गांगेय ! सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेरत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक यावत् अधः सप्तमी पृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक ।
८८. भंते! एक नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में
प्रवेश करता हुआ क्या रत्नप्रभा में होता है ? शर्कराप्रभा में होता है? यावत् अधः सप्तमी में होता है?
गांगेय! रत्नप्रभा में होता है यावत् अधःसप्तमी में होता है।
८९. भंते! दो नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं ? . यावत् अधः सप्तमी में होते हैं? गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधः सप्तमी में होते हैं।
अथवा एक रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है, अथवा एक रत्नप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है यावत् एक रत्नप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक
सांतरत्वं निरंतरत्वं च वाच्यमिति । उत्पन्नानां च सतामुवर्त्तना भवति.......उद्वृत्तानां च केषाञ्चिद् गत्यन्तरे प्रवेशनं भवति ।
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भगवई
२२९
वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे वालुकाप्रभायां भवति यावत् अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। शर्कराप्रभायाम् एकः वालुका-प्रभायां अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए भवति। यावत् अथवा एकः शर्करा-प्रभायाम् होज्जा, एवं जाव अहवा एगे एकः अधःसप्सम्यां भवति। अथवा एकः वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। वालुकाप्रभायाम् एकः पंकप्रभायां भवति, एवं एक्केका पुढवी छड्डेयव्वा जाव एवं यावत् अथवा एकः वालुका-प्रभायाम् अहवा एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए एकः अधःसप्तम्यां भवति। एवम् एकैका होज्जा॥
पृथिवी छर्दितव्या यावत् अथवा एकः तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवति।
श.९ : उ. ३२ : सू. ८९-९० शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में
और एक अधःसप्तमी में होता है अथवा एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है, इस प्रकार यावत् अथवा एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। इस प्रकार एक-एक पृथ्वी को छोड़ देना चाहिए यावत अथवा एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता हैं।
९०. तिण्णि भंते! नेरइया नेरइय- त्रयः भदन्त! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन ९०. भंते! तीन नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में पवेसणएणं पविसमाणा किं प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति यावत् प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं रयणप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति?
यावत् अधःसप्तमी में होते हैं? होज्जा? गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अहेसत्तमाएवा होज्जा। अधःसप्तम्यां वा भवन्ति।
अधःससमी में होते हैं। अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्कर- अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां अथवा एक रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे भवतः यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ प्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक रत्नप्रभा रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। अधःसप्तम्यां भवतः।
में और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्कर- अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् अथवा दो रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा प्पभाए होज्जा जाव अहवा दो भवति यावत् द्वौ रत्नप्रभायाम् एकः में होता है यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। अधःसप्तम्यां भवति।
और एक अधःसप्तमी में होता है। अहवा एगे सक्करप्पभाए दो अथवा एकः शर्कराप्रभायाम् द्वौ वालुका- अथवा एक शर्कराप्रभा में और दो वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे। प्रभायां भवतः यावत् एकः शर्कराप्रभायां द्वौ वालुकाप्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। अधःसप्तम्यां भवतः।
शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते
हैं।
अवा दो सक्करप्पभाए एगे अथवा द्वौ शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकावालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा दो प्रभायां भवति यावत् अथवा द्वौ शर्करा- सक्कर-प्पभाए एगे अहेसत्तमाए प्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवति, एवं होज्जा, एवं जहा सक्करप्पभाए यथा शर्कराप्रभायां वक्तव्यता भणिता, तथा वत्तव्वया भणिया, तहा सव्वपुढवीणं सर्वपृथिवीनां भणितव्यं यावत् अथवा द्वौ भाणियव्वं जाव अहवा दो तमाए एगे तमायाम् एकः अधःसप्सम्यां भवति। अहेसत्तमाए होज्जा॥ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे। अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करासक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए प्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायां भवन्ति, होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करासक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा प्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां भवन्ति यावत् जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करासक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। प्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, वालुकाप्रभायाम् एकः पंकप्रभायां भवन्ति, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्न-प्रभायाम् एकः वालुकावालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, एवं प्रभायाम् एकः धूमप्रभायां भवन्ति, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायां एकः वालुका-
अथवा दो शर्कराप्रभा में और एक वालुका प्रभा में होता है, यावत् अथवा दो शर्करा प्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। इस प्रकार जैसे शर्कराप्रभा की वक्तव्यता है, वैसे ही सब पृथ्वियों की वक्तव्यता यावत् अथवा दो तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है, यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है, इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा
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श.९ : उ. ३२ : सू.९०
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भगवई
वालुयप्पभाए एगे अहे-सत्तमाए होज्जा। प्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एगे धूमप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे एकः धूमप्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे रत्न-प्रभायाम् एकः पंकप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए। रत्नप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां होज्जा, अहवा एगे रयप्पभाए एगे। भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, धूमप्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहवा एगे रयप्पभाए एगे तमाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः तमायाम् अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे। एकः अधः-सप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः सक्कप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे शर्करा-प्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पंकप्पभाए होज्जा, अहवा एगे पंक-प्रभायां भवन्ति, अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे धूमप्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे वालुय-प्पभाए एगे शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे धूमप्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे शर्कराप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे धूमप्रभायां भवन्ति, यावत् अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे। शर्कराप्रभायाम् एकः पंक-प्रभायाम् एकः तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः । एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, शर्कराप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे। तमायां भवन्ति अथवा एकः शर्कराप्रभायाम् अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे एकः धूमप्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे भवन्ति, अथवा एकः शर्कराप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए होज्जा, अहवा एगे तमायाम् एक अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् होज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे एकः धूमप्रभायां भवन्ति, अथवा एक वालुकापंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। प्रभायाम् एकः पंकप्रभायाम् एकः तमायां अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए भवन्ति, अथवा एकः वालुका-प्रभायाम् एकः एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुय- पंकप्रभायाम् एकः अधः-सप्तम्यां भवन्ति। प्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहे-सत्तमाए अथवा एकः वालुका-प्रभायाम् एकः धूमहोज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे। प्रभायाम एकः तमायां भवन्ति, अथवा एकः तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः वालुकाहोज्जा, अहवा एगे पंकप्प-भाए एगे प्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधःसप्तम्या धूमप्पभाए एगे अहेसत्त-माए होज्जा, भवन्ति, अथवा एकः पंकप्रभायाम् एकः अहवा एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा अहसत्तमाए होज्जा॥ अहवा एगे एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए अधःससम्यां भवन्ति, अथवा एकः होज्जा,
पंकप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः धूमप्रभायाम् एक: तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति,
में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में. एक पंकप्रभा में
और एक धूमप्रभा में होता है यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता हैं अथवा एक रत्नप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है, अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में
और एक धूमप्रभा में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में
और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक धूमप्रभा में एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है।
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श.९: उ.३२ : सू.९०
भाष्य
१. सूत्र ८८.९० तीन जीवों के एक सांयोगिक भंग-७ |रश वा पंधू त अधः
शर्कराप्रभा के भंग १० रश वा पंधू त अधः
३
पंकप्रभा के विकल्प २, भंग ६ र श वा पंधू त अधः
७100ccc.co..
तीन जीवों के द्वि सांयोगिक
विकल्प २, भंग-४२ रत्नप्रभा के विकल्प २, भंग १२
|श वा पं | धूत अधः
|
धूमप्रभा के विकल्प २, भंग ४ र श वा पंधू त अधः
वालुकाप्रभा के भंग ६ श वा पंधूत | अधः
२
१
-
२
३
तमप्रभा के विकल्प २, भंग २ रश वा पंधू त अधः १] ।
१ २
पंक-धूमप्रभा के भंग २ रश वा| पंधू त अधः
१२२
तीन जीवों के त्रि सांयोगिक भंग ३५
रत्नप्रभा के भंग १५ र श वा पंधू त अधः
शर्कराप्रभा के विकल्प २, भंग १० रश वा पंधू | त अधः
पंक-तमप्रभा का भंग १ र श वा पंधू त अधः
३११ | ४११
धूम-तमप्रभा का भंग १ श वा पंधूत अधः
|
ها را به همام اقوام
| श वा पंधू त अधः
श
इस प्रकार तीन जीवों के एक सांयोगिक भंग ७, द्वि-सांयोगिक भंग ४२, त्रिसांयोगिक भंग ३५, सर्व भंग-८४
|
-
-
वालुकाप्रभा के विकल्प २, भंग ८ रश वा| पंधू त अधः
१२
|१०१ |१११ |१२१
a welve
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________________
२३२
भगवई
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९१ ९१. चत्तारि भंते! नेरझ्या नेरइयपवे. चत्वारः भदन्त! नैरयिकाः नैरयिक- सणएणं पविसमाणा किं रयणप्प-भाए प्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां होज्जा?-पुच्छा।
भवन्ति?-पृच्छा। गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् अहेसत्तमाए वा होज्जा।
अधःसप्तम्यां वा भवन्ति। अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि अथवा एकः रत्नप्रभायां त्रयः शर्कराप्रभायां सक्करप्पभाए होज्जा, अहवा एगे भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायां त्रयः रयणप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए वालुकाप्रभायां भवन्ति. एवं यावत् अथवा होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एकः रत्नप्रभायां त्रयः अधःसप्तम्यां तिण्णि अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा दो। भवन्ति। अथवा द्वौ रत्नप्रभायां द्वौ रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होज्जा, शर्कराप्रभायां भवतः, एवं यावत् अथवा द्वौ एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो रत्नप्रभायां द्वौ अधःसप्तम्यां भवतः। अथवा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा तिण्णि त्रयः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, भवन्ति, एवं यावत् अथवा त्रयः रत्नप्रभायां एवं जाव अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे एकः अधःसप्सम्यां भवन्ति। अथवा एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे शर्कराप्रभायां त्रयः वालुकाप्रभायां भवन्ति, सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए एवं यथैव रत्नप्रभायाम् उपरितनैः समं होज्जा, एवं जहेव रयणप्पभाए चारितं तथा शर्कराप्रभायाम् अपि उपरितनैः उवरिमाहिं समं चारियं तहा समं चारयितव्यम्, एवम् एकैकया समं सक्करप्पभाए वि उवरिमाहिं समं चारयितव्यं यावत् अथवा त्रयः तमायाम चारेयव्वं, एवं एक्केक्काए समं एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। चारेयव्वं जाव अहवा तिण्णि तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा॥
९१.'भंते! चार नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं? पृच्छा । गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में
और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा तीन रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् तीन रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना की, वैसे ही शर्कराप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना करनी चाहिए। इस प्रकार प्रत्येक पृथ्वी के साथ विकल्पना करनी चाहिए यावत् अथवा तीन तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है।
अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा, शर्कराप्रभायां द्वौ वालुकाप्रभायां भवन्ति, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः । सक्करप्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा, शर्कराप्रभायां द्वौ पङ्कप्रभायां भवन्ति, एवं एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे यावत् एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां । सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। द्वौ अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः अहवा एगे रयणप्पभाए दो रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायाम् एकः सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए वालुकाप्रभायां भवन्ति, एवं यावत् अथवा होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एकः रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायाम् एकः दो सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा द्वौ होज्जा। अहवा दो रयणप्पभाए एगे रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए वालुकाप्रभायां भवन्ति, एवं यावत् अथवा होज्जा, एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए द्वौ रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः एगे सक्करप्पभाए एगे अहेसतमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायां द्वौ वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए होज्जा जाव पङ्कप्रभायाम् भवन्ति यावत् अथवा एकः
अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में
और दो वालुकाप्रभा में होते हैं अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में
और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं। यावत् अथवा एक
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________________
भगवई
अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो आहेसत्तमाए होज्जा । एवं एएणं गमएणं जहा तिन्हं तियासंजोगो तहा भाणियव्वो जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, अहवा एगे स्यणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे स्यणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा,
२३३
रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायां द्वौ अधः सप्तम्यां भवन्ति । एवम् एतेन गमकेन यथा त्रयाणां त्रिकसंयोगः तथा भणितव्यः यावत् अथवा द्वौ धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति ।
अथवा
एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां एकः धूमप्रभायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः धमूप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति अथवा
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९१ रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो अधः सप्तमी में होते हैं। इस प्रकार इस गमक से जैसे तीन नैरयिकों के त्रिसंयोगज भंग किए गए हैं, वैसे ही चार नैरयिकों का त्रि-संयोगज भंग वक्तव्य हैं यावत् अथवा दो धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है।
अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक बालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में एक पंकप्रभा में और एक धमूप्रभा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में एक पंकप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमा में होता है । अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, और एक अधः सप्तमी
Page #256
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________________
श.९: उ.३२ : सू. ९१
२३४
भगवई
अहवा एगे रयणप्पभाए एगे एकः रत्नप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए। तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे । एकः रत्नप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए तमायाम् एक अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायां भवन्ति। अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे एवं यथा रत्नप्रभायाम् उपरितनाः पृथिव्यः रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए चारिताः तथा शर्कराप्रभया अपि उपरितनाः एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे चारयितव्याः यावत् अथवा एकः शर्करारयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए प्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा। एवं धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् चारियाओ तहा सक्करप्पभाए वि एकः धूमप्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां उवरिमाओ चारियव्वाओ जाव अहवा भवन्ति, अथवा एकः वालुकाप्रभायाम् एकः एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे । तमायाम् एकः अधःसप्सम्यां भवन्ति, अथवा वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, तमायाम् एकः अधःससम्यां भवन्ति। अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा॥
में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है, अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुका-प्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना की है, वैसे ही शर्कराप्रभा के साथ ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों की विकल्पना करनी चाहिए यावत् अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है, अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक
अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है।
भाष्य
१. सूत्र ९१
चार जीवों के एक सांयोगिक भंग-७ रिस वा पंधू त अधः
चार जीवों के द्वि सांयोगिक
विकल्प ३, भंग ६३ रत्नप्रभा के विकल्प ३, भंग १८ र | श वा पंधू त अधः
vo Majorjoor
११/२ |१२२
|१४|३| |१५३
१६३ 1१७३ |१८|३|
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________________
भगवई
श.९: उ. ३२ : सू. ९१
२३५ धूमप्रभा के विकल्प ३, भंग ६ रश वा पंधू त अधः
शर्कराप्रभा के विकल्प ३, भंग १५ रश वा पंधू त अधः
[९२
११०
-
000/
oror
रत्न-पंकप्रभा के विकल्प ३, भंग ९
रश वा पंधू त अधः ११ |२१
३ तमःप्रभा के विकल्प ३, भंग ३ र| श वा पंधू त अधः
५१
|७२११
الد الده. له اند
८२
१३३
९२
|
२२ ।।। ।३१ चार जीवों के त्रि-सांयोगिक
विकल्प ३, भंग १०५ रत्न-शर्कराप्रभा के विकल्प ३,
भंग १५ र शवा पंधू त अधः
रत्न-धूमप्रभा के विकल्प ३, भंग ६ रश वा पंधू त अधः
वालुकाप्रभा के विकल्प ३, भंग १२
शवा | पंधू | त अधः
|२|१|
orarlor
१३
0000
४१ १
0000
10-10-1000rolorammimar
|६१ २ ७१२ ८१२
रत्न-तमप्रभा के विकल्प ३, भंग ३ | रश वा पंधूत अधः
१२
१०१२ ११ारा शश११
शर्करा-वालुकाप्रभा के विकल्प ३, भंग १२
धू त अधः
पंकप्रभा के विकल्प ३, भंग ९ रश वा पंधू त अधः
| वा
|१
१४२१ |१५|२|१ रत्न-वालुकाप्रभा के विकल्प ३.
भंग १२ रश वा पंधू त अधः |११ १२
५१.
اسامه اتمی همراه امام
c/m
أمر
९ २११
२१ ११ १ १२
هام
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________________
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९१
शर्करा- पंकप्रभा के विकल्प ३, भंग ९
र श वा पं
धू त अधः
१
२
१
१
१
२
3
४
५
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७
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२
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२
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१
२
3
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१
१
७
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१
१
२
२
२
२
१
शर्करा - धूमप्रभा के विकल्प ३, भंग ३
र
श वा पं धू त अधः
१
१
१
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१
२
२
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२
२
१
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१
१
१
१
१
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१
२
२
१
१
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१
शर्करा - तमप्रभा के विकल्प ३, भंग ३
र श वा पं
धू त अधः
१
१ २
१
२
१
१
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१
१
१
२
१
वालुका - पंकप्रभा के विकल्प ३,
भंग ९
२
रश वा प धू त अधः
१ १ २
१ १
१ १
१
२
१
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१
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१
१
२
१
वालुका- धूमप्रभा के विकल्प ३,
भंग ६
१
र श वा पं धू त अधः
१
२
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३
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१
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३
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१
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२
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धू त अधः
१ २
१
२ १
२
१ १
पंकधूमप्रभा के विकल्प ३, भंग ६
२३६
१
वालुका - तमप्रभा के विकल्प ३,
भंग ३
jajanan
३ १
१
श वा
१
श वा प
१
१
१
१ १
१
१
8 १ १ १
१
२
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२
१
२ १
१
पंक- तमप्रभा के विकल्प ३, भंग ३
१
१
१ २
१
५ १ १
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१० १
र श वा पं धू त अधः
१
3 २
१
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१
९ १ १
पं
१
२ १
२
१
१
१
१
१
१ १
चार जीवों के चतुष्क-सांयोगिक भंग ३५,
रत्नप्रभा के भंग २०
१
धूमप्रभा के विकल्प ३, भंग ३
र श वा पं धू त अधः
१ १ २
१
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१
२
२
१
१
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१
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१
१
१
१
१
१
१
१ १
१
१
शर्करा - प्रभा के भंग १०
१
१
१
धू त अधः
१
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१
१
१
१
१
१
१
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१ १
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१
वालुकाप्रभा के भंग ४
१
१ १
१
भगवई
धूत अधः
१
१
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१
१
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१
१
१
१ १
१ १ १
श वा प | धूत अधः
१ १ १ १
१
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१ १
१
१
पंक प्रभा के भंग १
१
१ १
१ १
१
१ १ १ १
चार जीवों के चतुष्कसांयोगिक भंगरत्नप्रभा २०, शर्कराप्रभा १०, वालुकाप्रभा
४, पंकप्रभा १, सर्वभंग-३५
चार जीवों का एक सांयोगिक-७,
द्विसांयोगिक- ६३. त्रिसांयोगिक-१०५,
चतुष्कसांयोगिक-३५, सर्वभंग-२१०।
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भगवई
२३७
९२. पंच भंते! नेरइया नेरइय- पञ्च भदन्त! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन प्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयप्पभाए प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति?- होज्जा?-पुच्छा।
पृच्छा। गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् अहेसत्तमाए वा होज्जा।
अधःसप्तम्यां वा भवन्ति। अहवा एगे रयणप्पभाए चत्तारि । अथवा एकः रत्नप्रभायां चत्वारः शर्करासक्करप्पभाए होज्जा जाव अहवा एगे प्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः रत्नरयणप्पभाए चत्तारि अहेसत्त-माए प्रभायां चत्वारः अधःसप्तम्यां भवन्ति। होज्जा। अहवा दो रयणप्प-भाए तिण्णि अथवा द्वौ रत्नप्रभायां त्रयः शर्कराप्रभायां सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा। भवन्ति, एवं यावत् अथवा द्वौ रत्नप्रभायां दो रयणप्पभाए तिण्णि अहेसत्तमाए त्रयः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा त्रयः होज्जा। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां भवन्ति, एवं दोण्णि सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव। यावत् अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा चत्तारि । चत्वारः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, भवन्ति, एवं यावत् अथवा चत्वार: एवं जाव अहवा चत्तारि रयणप्पभाए एगे रत्नप्रभायां एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे। अथवा एकः शर्करा-प्रभायां चत्वारः सक्करप्पभाए चत्तारि वालुयप्पभाए वालुकाप्रभायां भवन्ति । एवं यथा रत्नप्रभया होज्जा। एवं जहा रयणप्पभाए समं समं उपरितनपृथिव्यः चारिताः तथा उवरिम-पुढवीओ चारियाओ तहा। शर्कराप्रभया अपि समं चारयितव्या यावत् सक्कर-प्पभाए वि समं चारेयव्वाओ अथवा चत्वारः शर्करा-प्रभायाम् एकः जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अधःसप्तम्यां भवन्ति। एवम् एकैकया समं अहेसत्तमाए होज्जा। एवं एक्के-क्काए चारयितव्याः यावत् अथवा चत्वारः समं चारेयव्वाओ जाव अहवा चत्तारि तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा।
अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः अहवा एगे रयणप्पभाए एगे शर्कराप्रभायां त्रयः वालुकाप्रभायां भवन्ति, सक्करप्पभाए तिण्णि वालुयप्पभाए। एवं यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए शर्कराप्रभायां त्रयः अधःसप्तम्यां भवन्ति। एगे सक्करप्पभाए तिण्णि अहेसत्तमाए अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां द्वौ होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए दो । वालुकाप्रभायां भवन्ति, एवं यावत् एकः सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा, रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां द्वौ अधः एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो सप्तम्यां भवन्ति। अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् सक्कर-प्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। एकः शर्कराप्रभायां द्वौ वालुकाप्रभायां अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्कर- भवन्ति, एवं यावत् अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् प्पभाए दो वालुयप्पभाए होज्जा, एवं एकः शर्कराप्रभायां द्वौ अधःसप्तम्यां जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे भवन्ति। अथवा एकः रत्नप्रभायां त्रयः सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होज्जा। शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायां अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि भवन्ति, एवं यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायां सक्करप्पभाए एगे वालुय-प्पभाए त्रयः शर्कराप्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए भवन्ति। अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् द्वौ तिण्णि सक्कर-प्पभाए एगे अहेसत्तमाए शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् होज्जा। अहवा दो रयणप्पभाए दो भवन्ति, एवं यावत् अधःसप्तम्याम् । अथवा सक्कर-प्पभाए एगे वालुयप्पभाए त्रयः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः होज्जा, एवं जाव अहेसत्तमाए। अहवा वालुकाप्रभायां भवन्ति, एवं यावत् अथवा
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९२ ९२. 'भंते! क्या पांच नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए रत्नप्रभा में होते हैं? पृच्छा। गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और चार शर्कराप्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन शर्कराप्रभा में होते है। इस प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और तीन अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा तीन रत्नप्रभा में और दो शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् तीन रत्नप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा चार रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा चार रत्नप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में और चार वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना की गई है, वैसे ही शर्कराप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना करनी चाहिए यावत् अथवा चार शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। इस प्रकार प्रत्येक ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ यह विकल्पना करनी चाहिए यावत् अथवा चार तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और तीन अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा में होते है। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और एक
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भगवई
श.९ : उ. ३२ : सू. ९२
२३८ तिण्णि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए त्रयः रत्नप्रभायां एकः शर्कराप्रभायाम् एकः एगे वालुयप्पभाए होज्जा, एवं जाव । अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। वालुकाप्रभायां त्रयः पङ्कप्रभायां भवन्ति, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे एवम् एतेन क्रमेण यथा चतुर्णां त्रिकसंयोगः वालुयप्पभाए तिण्णि पंकप्प-भाए भणितः तथा पञ्चानाम् अपि त्रिकसंयोगः होज्जा। एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं भणितव्यः, नवरम्-तत्र एकः संचार्यते इह तियासंजोगो भणितो तहा पंचण्ह वि द्वौ, शेषं तच्चैव यावत् अथवा त्रयः तियासंजोगो भणियव्वो, नवरं-तत्थ । धूमप्रभायाम् एकः तमायां एकः अधःसप्तम्यां एगो संचारिज्जइ, इह दोण्णि, सेसं तं भवन्ति । चेव जाव अहवा तिण्णि धूमप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करा- तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा। प्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् द्वौ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर- पङ्कप्रभायां भवन्ति, एवं यावत् अथवा एकः प्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो पंकप्पभाए रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः होज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए। वालुकाप्रभायां द्वौ अधःसप्तम्यां भवन्ति। एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए दो अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराअहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे प्रभायां द्वौ वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो भवन्ति, एवं यावत् अधःसप्तम्याम् । अथवा वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, एकः रत्नप्रभायाम् द्वौ शर्कराप्रभायाम् एकः एवं जाव अहेसत्तमाए। अहवा एगे वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां भवन्ति, रयणप्पभाए दो सक्कर-प्पभाए एगे एवं यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा, शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो अधःसप्सम्यां भवन्ति। अथवा द्वौ रत्न- सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे प्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा दो वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां भवन्ति रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे यावत् अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् एकः वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे अधः सप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे वालयप्पभाए एगे रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे पङ्कप्रभायां द्वौ धूमप्रभायां भवन्ति, एवं यथा रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे यावत् चतुर्णां चतुष्कसंयोगः भणितः तथा पंकप्पभाए दो धूमप्पभाए होज्जा, एवं पञ्चानाम् अपि चतुष्कसंयोगः भणितव्यः जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो भणिओ नवरम्-अभ्यधिकम् एकः संचारयितव्यः, तहा पंचण्ह वि चउक्कसंजोगो एवं यावत् अथवा द्वौ पंकप्रभायाम् एकः भाणियव्वो नवरं-अब्भहियं एगो धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधःसंचारेयव्वो, एवं जाव अहवा दो सप्तम्यां भवन्ति। पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराअहेसत्तमाए होज्जा।
प्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्रभायाम् एकः धूमप्रभायां भवन्ति, सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करा- पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा, प्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे एकः रत्नप्रभायां यावत् एकः पंकप्रभायाम् पंकप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः
अधःसप्तमी में होता है। अथवा दो रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है-इस प्रकार यावत् अधःसप्तमी में होता है। अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक वालुकाप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और तीन पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से जैसे चार नैरयिकों के त्रि-संयोगज भंग किए हैं, वैसे ही पांच नैरयिकों के त्रिसंयोगज भंग वक्तव्य है, इतना विशेष है-जैसे चतुःसंयोगज भंग एक से संचारित होता है वैसे यहां पंच संयोगज भंग दो से संचारित होगा, शेष पूर्ववत् यावत् अथवा तीन धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और दो अधःसप्तमी में होते हैं अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है। इस प्रकार यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में एक वालुकाप्रभा में और एक अधःसतमी में होता है। अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और एक पंकप्रभा में होता है, यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में और दो धूमप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे चार नैरयिकों के चतुष्क संयोगज भंग किए गए हैं, वैसे ही पांच नैरयिकों के चतुष्कसंयोगज भंग वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-एक अधिक संचारणीय है। इस प्रकार यावत् अथवा दो पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा
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भगवई
रयणप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे errorभाए एगे सक्करप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय- प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय- प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्प - भाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय- प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे - सत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयण- प्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे असत्तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए जाव एगे पंकप्पभाए एगे तमाए एगे असत्तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए
२३९
रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एक शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः पंकप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः पंकप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एक: रत्नप्रभायाम् एक: शर्कराप्रभायाम् एकः पंकप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एक: पंकप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एक: वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायाम् यावत् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः शर्कराप्रभायां यावत् एकः पङ्कप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधः ससम्यां भवन्ति, अथवा एकः शर्कराप्रभायां यावत् एकः पङ्कप्रभायाम् एक: तमायाम् एक: अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः शर्कराप्रभायाम् एकः वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायाम् एक: तमायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति, अथवा एक: शर्कराप्रभायाम् एकः पङ्कप्रभायां यावत् एकः
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९२
में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है।
अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक धूमप्रभा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधः सप्तमी होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में एक पंकप्रभा में यावत् एक
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भगवई
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९२ एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा॥
अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक तमा में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है।
भाष्य र श वा पंधू त अधः
१. सूत्र ९२ पांच जीवों के एक सांयोगिक भंग-७
र स वा पंधू त अधः १५
||रश | वा| पंधू | त अधः |१६ ४१ |१७ ४ १ |१८ ४
१ ।
१४३
|१६ ३
Mc0000
000000000000www.
२०४ वालुकाप्रभा के विकल्प ४, भंग १६ रश | वा पंधू त अधः|
२३ ४
पांच जीवों के द्वि सांयोगिक
विकल्प-४, भंग-८४ रत्नप्रभा के विकल्प ४, भंग २४
शर्कराप्रभा के विकल्प ४, भंग २० रश वा पंधू त अधः
रश वा पंधू त अधः
| २१ | ३१
१
MG0200.0
७/२३ ८२ |९२
aaja.orl "
Jaroooorammar
पंकप्रभा के विकल्प ४, भंग १२ रश वा| पं| धूत अधः
१४
११२
१शश
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भगवई
8
५
६
७
८
९
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११
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१
२
३
४
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धूमप्रभा के विकल्प ४, भंग ८
त अधः।
२
२
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२
र ST बा पं धू त अधः
१ ४
१
१
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३
३
४ १ ४
३
२
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तमप्रभा के विकल्प ४, भंग ४
र श वा पंधू त अधः
१
४
४ १ इस प्रकार पांच जीवों के द्वि-सांयोगिक भंग - रत्नप्रभा - २४, शर्कराप्रभा - २०, वालुकाप्रभा-१६, पंकप्रभा - १२, धूमप्रभा८, तमप्रभा-४, सर्व भंग-८४ ।
पांचों जीवों के त्रि-सांयोगिक विकल्प ६, भंग- २१०
रत्न- शर्कराप्रभा के विकल्प ६, भंग- ३०
र श वा पं धू त अधः
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२२ २ २ २३ २
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२४ २
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२५ २
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१३ १
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२
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१
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१
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१
१
१
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धू त अधः
२
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३
३
३
२
१
१
१
रत्न - वालुकाप्रभा के विकल्प ६,
भंग २४
र श वा प धू त अधः
१
१
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१
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१
रत्न-पंकप्रभा के विकल्प ६, भंग १८
र श वा पं धू त अधः
१
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१
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१
१
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१
रत्न- धूमप्रभा के विकल्प ६, भंग १२
र ST वा पं
१
१
२
१
१
१
१
१
२
२
१
धू त अधः १ 3
१
१
२ १
२
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१
२
२
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१
१
3
२
२
१
१
१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श.९ : उ. ३२ : सू. ९२
२४२
भगवई
र | श | वा पंधू त अधः
रत्नतमप्रभा के विकल्प ६, भंग ६
र श वा| पंधू त अधः
४
वालका-पंकप्रभा के विकल्प ६,
भंग १८ रश वा पंधू त अधः
३
६
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|३२|
500 jorjarworla-Jamroo
Parororoor10mmmotorolar
५. २
२१
शर्कराप्रभा के विकल्प ६, भंग ६० शर्करा-वालुकाप्रभा के विकल्प ६,
भंग २४ रश वा पंधू त अधः १११
la.antiy
१३
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३
.
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|१८
४१
शर्करा-धूमप्रभा के विकल्प ६,
भंग १२ र शवा पंधु त अधः १ १
१३ । | २१
३११
१२
arlal
२
वालुका-धूमप्रभा के विकल्प ६,
भंग १२ र श वा पंधू त अधः
११३
१२१
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१५ १३
१२
|१०
१२
२२ रार
१२ ३
१ शर्करा-तमप्रभा के विकल्प ६, भंग ६ रश वापंधू त अधः
शर्करा-तमप्रभा के विकल्प ६, भंग ६
र श वा पंधू त अधः
श-३११ २ ३१ २३ ३१ २४ । शर्करा-पंकप्रभा के विकल्प ६,
भंग १८ रश वा वधूत अधः ११३ २११३ ३११३
५ ।
। २१
aara
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवई
श.९ : उ. ३२ : सू. ९२
राश वा पंधूत अधः
२४३ पांच जीवों के चतुष्क-सांयोगिक विकल्प
४, भंग-१४० रत्न-शर्करा-वालुकाप्रभा के
विकल्प ४, भंग १६ र शवा पंधू त अधः
रश वा पंधू त अधः ७२ १ ८२ १११ रत्न-शर्करा-तमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ४ | रश वा पंधूत अधः
पंक-धूमप्रभा के विकल्प ६,
भग १२ र | श | वा पंधू त अधः
११३ ११३
१
२
|२१|११ । | ३१११ |४|१| ११
| २
१२ २
६११२
|२|११
२१ |३|| ४२१
रत्न-वालुका-पंकप्रभा के
विकल्प ४, भंग १२ र श | वा पंधू त अधः
6
.
८११२
|२
१०१ २१ १११२| १२ १२१
२
१२१
३१||
२
७/ १२/११
पंक-तमप्रभा के विकल्प ६, भंग ६ रश वा पंधू त अधः
१३
|१३|२१ १४२ ११ १५/२११ १६२ ११
रत्न-शर्करा-पंकप्रभा के
विकल्प ४, भंग १२ रश वा पंधू त अधः ११ ११२ २१११
८१
a-arololo.
|२||
२०२१११ ११२११ (१२२ ११ रत्न-वालुका-धूमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ८ | वा पंधूत अधः
१
३
४|११२१ ।
६
धूमप्रभा के विकल्प ६, भंग ६
श वा पंधू त अधः
८१ २
|१०२१
११
|१२ २१ रत्न शर्करा-धूमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ८ यश वा पंधू त अधः
रत्न-वालुका-तमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ४ रश वा पंधू त अधः
ve.
इस प्रकार पांच जीवों त्रि-सांयोगिक
भंग-रत्नप्रभा ९०, शर्कराप्रभा ६०, वालुकाप्रभा ३६, पंकप्रभा १८, धूमप्रभा-६,
सर्वभंग-२१०
O
| ६१२
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
श. ९ : उ, ३२ : सू. ९२
र
१ १
२ १
रत्न-पंक- धूमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ८
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१
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१
१
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रत्न-पंक- तमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ४
१
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१ १
र श वा पं धू त अधः
१
१ २
१
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१ १
रत्न- धूम - तमप्रभा के विकल्प ४,
भंग ४
१
१ २ १
१ २ १
१
१
र श वा पं धू त अधः
१
१ २
१
शर्करा - वालुका- पंकप्रभा के विकल्प ४, भंग १२
र श वा प
१
१
१
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२ १ १.
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१
२
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१
२
२४४
शर्करा - वालुका- धूमप्रभा के विकल्प ४, भंग ८
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१ १
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शर्करा - वालुका-तमप्रभा के
विकल्प ४, भंग ४
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शर्करा- पंक- धूमप्रभा के विकल्प ४, भंग ८
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शर्करा - पंक- तमप्रभा के
विकल्प ४, भंग ४
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शर्करा - धूम - तमप्रभा के
विकल्प ४, भंग ४
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१
वालुका - पंक- धूमप्रभा के विकल्प ४, भंग ८
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धू त अधः
१
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१
१
वालुका- धूम-तमप्रभा के विकल्प ४, भंग ४
त अधः
१ १
१ १
वालुका- पंक-तमप्रभा के विकल्प ४, भंग ४
रश बा पं धू त अधः
१ १
१ २
१
२
१
भगवई
१
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१
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१
श वा पं धू त अधः
१
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१
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१
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२
पंक- धूम - तमप्रभा के विकल्प ४, भंग ४
र श वा पं धू त अधः
१ १ १ २
१ १
१ १ २ १
१ २
१ १
४
२ १
१ १
इस प्रकार पांच जीवों के चतुष्कसांयोगिक भंग-रत्नप्रभा - ८०, शर्कराप्रभा - ४०, वालुकाप्रभा-१६, पंकप्रभा - ४ - कुल भंग १४०
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवई
२४५
९३. छब्भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः पविसमाणा कि रयणप्पभाए वालकाप्रभायां यावत एकः अधःसप्तम्यां होज्जा?-पुच्छा।
भवन्ति। गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव
षड् भदन्त नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन अहेसत्तमाए वा होज्जा।
प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति? अहवा एगे रयणप्पभाए पंच
-पृच्छा । सक्करप्पभाए होज्जा, अहवा एगे
गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् रयणप्पभाए पंच वालुयप्पभाए होज्जा अधःसप्तम्यां वा भवन्ति। जाव अहवा एगे रयण-प्पभाए पंच। अथवा एकः रत्नप्रभायां पञ्च शर्कराप्रभायां अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा दो
भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायां पञ्च रयणप्पभाए चत्तारि सक्करप्पभाए वालुकाप्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः होज्जा जाव अहवा दो रयणप्पभाए
रत्नप्रभायां पञ्च अधःसप्तम्यां भवन्ति। चत्तारि अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा अथवा द्वौ रत्नप्रभायां चत्वारः शर्कराप्रभायां तिण्णि रयणप्पभाए तिण्णि
भवन्ति यावत् अथवा द्वौ रत्नप्रभायां सक्करप्पभाए। एवं एएणं कमेणं जहा
चत्वारः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा पचण्हं दुयासंजोगो तहा छण्ह वि त्रयः रत्नप्रभायां त्रयः शर्कराप्रभायाम् एवम् भाणियव्वो, नवरं-एक्को अब्भहिओ एतेन क्रमेण यथा पञ्चानाम् द्विकसंयोगः संचारेयव्वो जाव अहवा पंच तमाए एगे
तथा षण्णाम् अपि भणितव्यः, नवरम्-एकः अहेसत्तमाए होज्जा।
अभ्यधिकः संचारयितव्यः यावत् अथवा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे
पञ्च तमायाम् एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति। सक्करप्पभाए चत्तारि वालुय-प्पभाए।
अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराहोज्जा, अहवा एगे रयण-प्पभाए एगे
प्रभायां चत्वारः वालुकाप्रभायां भवन्ति, सक्करप्पभाए चत्तारि पंकप्पभाए
अथवा एकः रत्नप्रभायाम एकः शर्कराहोज्जा, एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए
प्रभायां चत्वारः पङ्कप्रभायां भवन्ति, एवं एगे सक्कर-प्पपभाए चत्तारि
यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः अहेसत्तामाए होज्जा। अहवा एगे
शर्कराप्रभायां चत्वारः अधःसप्तम्यां रयणप्पभाए दा सक्करप्पभाए तिणि भवन्ति। अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ वालुयप्पभाए होज्जा। एवं एएणं कमेणं
शर्करा-प्रभायां त्रयः वालुकाप्रभायां भवन्ति। जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा एवम एतेन क्रमेण यथा पञ्चानाम् छह वि भाणियव्यो, नवरं-एक्को त्रिकसंयोगः भणितः तथा षण्णाम् अपि अहिओ उच्चारेयव्वो, सेसं तं चेव। भणितव्यः नवरम्-एकः अधिकः चउक्कसंजोगो वि तहेव, पंचग-संजोगो उच्चारयितव्यः, शेषं तत् चैव। वि तहेव, नवरं-एक्को अब्भहिओ चतुष्कसंयोगः अपि तथैव, पञ्चकसंयोगः संचारेयव्वो जाव पच्छिमो भंगो, अहवा अपि तथैव, नवरम्-एकः अभ्यधिकः दो वालुय-प्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे संचारयितव्यः यावत पश्चिमः भंगः अथवा धम-प्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए द्वौ वालकाप्रभायाम एकः पङ्कप्रभायाम् एकः होज्जा।
धूमप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः अहवा एगे रयणप्पभाए एगे
अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एकः सक्करप्पभाए जाव एगे तमाए होज्जा,
रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां यावत् एकः अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे तमायां भवन्ति अथवा एकः रत्नप्रभाया धूमप्पभाए एगे अहेसत्त-माए होज्जा,
यावत् एकः धूमप्रभायाम् एकः अधःसप्तम्यां अहवा एगे रयण-प्पभाए जाव एगे।
भवन्ति, अथवा एकः रत्नप्रभायां यावत् पंकप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए
एकः पङ्कप्रभायाम् एकः तमायाम् एकः होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे
अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९३ ९३. 'भंते! छह नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं?-पृच्छा । गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच शर्कराप्रभा में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और पांच वालुकाप्रभा में होते हैं यावत्
एक रत्नप्रभा में और पांच अधःसप्तमी में __ होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में और चार
शर्कराप्रभा में होते हैं यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और चार अधःसप्तमी में होते है। अथवा तीन रत्नप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से जैसे पांच नैरयिकों के द्वि-संयोगज भंग किए गए हैं, वैसे ही छह नैरयिकों के द्वि-संयोगज भंग वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-एक अभ्यधिक संचारणीय है यावत् अथवा पांच तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में
और चार वालुकाप्रभा में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और चार अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और तीन वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से जैसे पांच नैरयिकों के त्रि-संयोगज भंग किए गए हैं, वैसे ही छह नैरयिकों के त्रि-संयोगज भंग वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-एक अभ्यधिक संचारणीय है, शेष पूर्ववत् । चतुष्क संयोगज और पंच संयोगज भंग भी उसी प्रकार वक्तव्य है, इतना विशेष है-एक अभ्यधिक संचारणीय है यावत् पश्चिम (अंतिम) भंग तक। अथवा दो वालुकाप्रभा में, एक पंकप्रभा में, एक धूमप्रभा में, एक तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत एक तमा में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक धूमप्रभा में और एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक पंकप्रभा में, एक
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
भगवई
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९३ सक्करप्प्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः धूमप्पभाए जाव एगे अहेसत्त-माए वालुकाप्रभायाम् एकः धूमप्रभायां यावत् होज्जा, अहवा एगे रयण-प्पभाए एगे एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः सक्करप्पभाए एगे पंकप्पभाए जाव एगे रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे __पङ्कप्रभायां यावत् एकः अधसप्तम्यां भवन्ति, रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुकाप्रभायां यावत् एकः अधःसप्तम्यां सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव भवन्ति, अथवा एकः शर्कराप्रभायाम् एकः एगे अहेसत्तमाए होज्जा।।
वालुकाप्रभायां यावत् एकः अधःसप्तम्यां । भवन्ति।
तमा में और एक अधःसप्तमी में होता है, अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में, एक धूमप्रभा में, यावत् एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक पंकप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है।
भाष्य
रश वा | पंधू त अधः
१. सूत्र ९३ छह जीवों के एक सांयोगिक भंग-७ रस वा पं धू त अधः
रश वा| पंधूत अधः |१६४२ |१७
|१८
00000000
।
000000
१९/ | २०
२४|४
२१ ५१
५
८
૨૭)
५
छह जीवों के द्वि सांयोगिक
विकल्प-५, भंग-१०५ रत्नप्रभा के विकल्प ५, भंग ३० रश वा पंधू त अधः
वालुकाप्रभा के विकल्प ५, भंग २०
र |शवा पंधू त अधः
३० ५ शर्कराप्रभा के विकल्प ५, भंग २५ रश वा पं | धूत अधः
|२|१
IN00
|४|१
रा४
श ९२ १०२
نام ماه های امام
ororoommmmm
0I
३
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवई
२४७
श.९ : उ. ३२ : सू. ९३
रश वा पंधू त अधः
शवा पंधूत अधः
इस प्रकार छह जीवों के द्वि-सांयोगिक
भंग-रत्नप्रभा-३०, शर्कराप्रभा-२५, वालुकाप्रभा-२०, पंकप्रभा-१५, धूमप्रभा
१०, तमप्रभा-५, कुल भंग-१०५।
र श वा पंधू त अधः ३११४ ३२१४
|१४ ३४ १४
पंकप्रभा के विकल्प ५, भंग १५
र श वा पंधू त अधः
३६ २३ ३७२ ३८ २३
४०२३
छह जीवों के त्रिसांयोगिक विकल्प-१०, भंग-३५० रत्न-शर्कराप्रभा के विकल्प-१०,
भंग-५० रिश वा पंधू त अधः 1१1११४
११
४२३२ ४३३२
४५|३|२
|४६४११
र शवा पंधू त अधः
४८४१ ४९४१ ५०४|१ रत्न-वालुकाप्रभा के विकल्प १०,
भंग ४० रश वा पंधू त अधः
२१ १०१२
धूमप्रभा के विकल्प ५, भंग १० रश वा पंधू त अधः
११२१३ १२२१३ १३२१ १४२१ १५ २१
२४
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1
Jowar20
१३
८||
21३
।
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२१२२ २२ २३२२
१२२
तमप्रभा के विकल्प ५, भंग ५ शवा पंधु त अधः
१५
२५२२
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२७ ३१
१७२
३३
१८२ १९२
१२
२०
२
।
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९३
२४८
भगवई
रश वा पंधू त अधः
| श वा पंधू त अधः
र श वा | पं| धूत अधः १९ १
३
२२
२०१
२१/१
२३३ २४३
पारा २२
शश २२
२४२
|२६/१ २७/१ २८१
२५
२७
३०२
0/0/00am
३२/२
१
३०४
३३३ |३४/३
शर्करा-वालुकाप्रभा के विकल्प १०,
भंग ४० रश वा | पं | धूत अधः
| www
रत्न-धूमप्रभा के विकल्प १०,
भंग २० । रश वा पंधू त अधः ।११
Jala
३७ |३८४
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५२
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रत्न-पंकप्रभा के विकल्प १०,
भग ३० रश वा पंधूत अधः
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|२१ ११) २१
२१
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|४|१|
११३
१३ १३
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१७ शशश १८
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Immorior
१७३ १८३
र शवा पंधत अधः
१३ २
१४/श
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रत्न-तमप्रभा के विकल्प १०,
भंग १० रश वा पंधू त अधः
१४
१८३१
२१२३
१४
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवई
२४९
श.९ : उ. ३२ : सू. ९३
रश वा | पंधू त अधः
रश वा पाच त अधः
२९/
र श वा पंधू त अधः २८४
8 १
२३ २३
|३०।।
शर्करा-धूमप्रभा के विकल्प १०,
वालुका-पंकप्रभा के विकल्प १०,
भंग ३० रश वा पंधू त अधः
११४
३३३
भंग २०
३२
र शवा वधू त अधः
१४
३७/
१२
|४१
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४० ४१ शर्करा-पंकप्रभा के विकल्प १०,
भंग ३० रश वा पंधू त अधः
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३१
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१८ । ३
४ |१श २०७४ शर्करा-तमप्रभा के विकल्प १०,
भंग १० रश वा पंधू त अधः | ११
१४
२३ २३
1010
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२३
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२८
४१
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0/ 0
|४|१| वालुका-धूमप्रभा के विकल्प १०,
भग २० र श वा पंधू त अधः
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१
१४
به بهانه
३
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श. ९ : उ. ३२ : सू. ९३
२५०
भगवई
रश वा पंधू त अधः
रश वा | पंधू त अधः
र शवा पंधूत अधः
१३
Naravar
२।
२
११०
इस प्रकार छह जीवों के विसांयोगिक भंग-रत्नप्रभा-१५०. शर्कराप्रभा-१००, वालुकाप्रभा-६०, पंकप्रभा-३०, धूमप्रभा
१०, कुल भंग-३५०
به اسم
LOW
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|१८
।
१७३
| loooor0
२०
|१
१२ २०
पंक-तमप्रभा के विकल्प १०,
भंग १० श वा| पंधू त अधः
वालुका-तमप्रभा के विकल्प १०,
भंग १० रश वा पंधू त अधः
छह जीवों के चतुष्कसायोगिक
विकल्प १० भंग ३५० पांच जीवों के चतुष्कसायोगिक भंग की भांति छह जीवों के चतुष्सांयोगिक भंग ज्ञातव्य है किन्तु इसमें एक नैरयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिए।
छह जीवों पंचसायोगिक
विकल्प ५, भंग १०५ पांच जीवों के पंचसांयोगिक भंग की भांति छह जीवों के पंचसांयोगिक भंग ज्ञातव्य है किन्तु इसमें एक नैरयिक जीव का अधिक संचार करना चाहिए।
छह जीवों के षट् सांयोगिक
विकल्प-१, भंग ७ र स वा पंधू | न अधः
११
८
। ।
३१।
Javarli
१
|
२
७१ १ ११११
धूम-तमप्रभा के विकल्प १०,
भंग १० र श वा पंधू त अधः
पंक-धूमप्रभा के विकल्प १०,
भंग २० |रश बा | पं धू त अधः
इस प्रकार छह नैरयिक जीवों के एक सांयोगिक भंग ७, द्वि-सायोगिक भंग १०५. त्रि-सांयोगिक भंग ३५०, चतुष्क-सांयोगिक भंग ३५०, पंच-सायोगिक भंग १०५, षट्सायोगिक भंग ७, सर्व भंग-९२४
१२३ १ २
३
२.
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________________
भगवई
९४. सत्त भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? -पुच्छा
गंगेया! स्यणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए होज्जा एवं एएणं कमेणं जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्तण्ह वि भाणियव्वं, नवरं - एगो अब्भ- हिओ संचारिज्जइ, सेसं तं चेव । तियासंजोगो, चउक्कसंजोगो, पंचसंजोगो, छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्ह वि भाणियव्वं, नवरं - एक्केक्को अब्भहिओ संचारेयव्वो जाव छक्कगसंजोगो अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे असत्तमाए होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा ॥
२५१
सप्त भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति - पृच्छा ।
गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् अधः सप्तम्यां वा भवन्ति ।
अथवा एकः रत्नप्रभायां षट् शकरप्रभायां भवन्ति । एवम् एतेन क्रमेण यथा षण्णां द्विकसंयोगः तथा सप्तानाम् अपि भणितव्यम् नवरम् - एकः अभ्यधिकः सञ्चार्यते, शेषं तत् चैव । त्रिकसंयोगः, चतुष्कसंयोगः, पञ्चसंयोगः, षट्संयोगः च षण्णां यथा तथा सप्तानाम् अपि भणितव्यम्, नवरम्एकैकः अभ्यधिकः सञ्चारयितव्यः यावत् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति । अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां यावत् एकः अधः सप्तम्यां भवन्ति ।
भाष्य
१. सूत्र - ९४
• (सात जीवों के एक असांयोगिक भंग ७) द्रष्टव्य ९/९१९३ का यंत्र
सात जीवों के द्वि-सांयोगिक विकल्प ६ भंग १२६ स्थापना
१-६, २-५, ३-४, ४-३.५-२, ६-१, ये छह विकल्प हैं। इनसे रत्नप्रभादि के संयोग से होने वाले २१ भंगों को गुणन करने पर २१x६ = १२६ भंग
सात जीवों के त्रि-सांयोगिक विकल्प १५ भंग ५२५ स्थापना
१-१-५, १-२-४२-१-४१-३-३,२-२-३,३-१-३, १४.२, २-३-२, ३-२-२, ४-१-२, १-५१, २-४-१, ३३-१, ४-२-९ और ५-१-१।
९५.
सात जीवों के चतुष्क-सांयोगिक विकल्प २०, भंग ७०० स्थापना १-१-१-४, १-१-४-११-४-१-१, ४-१-१-१, १-१२-३ १-१-३-२, १-३-१-२, ३-१-१-२, १-२-१-३, अट्ठ भंते! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? -- पुच्छा । गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव असत्तमाए वा होज्जा ।
अहवा एगे रयणप्पभाए सत्त सक्कर
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९४,९५
९४. "भंते! सात नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं? -पृच्छा ।
गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधः सप्तमी में होते हैं ।
२-१-१-३, ३-२-११, २ २ २ १ २-१-२-२, १-२२२,२-२-१-२, १-२-३-११-३-२-१२-१-३-१ और ३-१-२-१।
• सात जीवों के पंच- सांयोगिक विकल्प १५, भंग ३१५ स्थापना
अथवा एक रत्नप्रभा में और छह शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से जैसे छह नैरयिकों के द्वि-संयोगज भंग किए गए हैं, वैसे ही सात नैरयिकों के द्विसंयोगज भंग वक्तव्य हैं, इतना विशेष है- एक अभ्यधिक संचारणीय है, शेष पूर्ववत् । जैसे छह नैरयिकों के त्रि-संयोगज, चतुष्क- संयोगज, पंच-संयोगज, षट्कसंयोगज भंग किए गए हैं वैसे ही सात नैरयिकों के वक्तव्य हैं, इतना विशेष है इन भंगों में एक एक अभ्यधिक संचारणीय है यावत् एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधः सप्तमी में होता है।
१-१-१-१-३, ११-१-३-११-१-१-२-२, १-१-२-१२, १-१-२-१-२, २-१-१-१-२, १-२-२-२-१, १-२-१२-१२-१-१-२-१, १-१-३-१-१, १२-२-१-१, २-१२-१-१, १-३-१-१-१२-२-१-१-१३-१-१-१-१। • सात जीवों के षट्- सांयोगिक विकल्प ६, भंग ४२ । स्थापना
१-१-१-१-१-२, १-१-१-१-२-११-१-१-२-१-१,११-२-१-१-११-२-१-१-१-१, २१-१-१-१-१ • सात जीवों के सप्त- सांयोगिक विकल्प १, भंग १ स्थापना
अष्ट भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति ?पृच्छा ।
गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् अधः सप्तम्यां वा भवन्ति ।
अथवा एकः रत्नप्रभायां सप्त शर्कराप्रभायां
१-१-१-१-१-१-१, विस्तार के लिए द्रष्टव्य ९ / ९१-९३ का यंत्र
९५. भंते! आठ नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं ? -पृच्छा । गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधः सप्तमी में होते हैं।
अथवा एक रत्नप्रभा में और सात
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श.९ : उ. ३२ : सू. ९५.९७ ૨ષર
भगवई . प्पभाए होज्जा। एवं दुया-संजोगो जाव भवन्ति। एवं द्विकसंयोगः यथा षट्क- शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे छह छक्कसंजोगो य जहा सत्तण्हं भणिओ संयोगः च यथा सप्तानां भणितः तथा नैरयिकों के द्वि-संयोगज यावत् षट्कतहा अट्ठण्ह वि भाणियव्वो, नवरं- अष्टानाम् अपि भणितव्यः नवरम्-एकैकः । संयोगज भंग कहे गए हैं, वैसे ही आठ एक्केक्को अब्भहिओ संचारेयब्वो, सेसं अभ्यधिकः सञ्चारयितव्यः शेषं तत् चैव । नैरयिकों के वक्तव्य हैं, इतना विशेष तं चेव जाव छक्कगसंजोगस्स अहवा। यावत् षट्कसंयोगस्य अथवा त्रयः है-एक एक अभ्यधिक संचारणीय है, शेष तिण्णि सक्करप्पभाए एगे वालुय- शर्कराप्रभायाम एकः वालुकाप्रभायां यावत् पूर्ववत् यावत् षट्क-संयोग तक। अथवा प्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। एकः अधःसप्तम्यां भवन्ति।
तीन शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में
यावत् एक अधःसप्तमी में होता है। अहवा एगे रयणप्पभाए जाव एगे तमाए अथवा एकःरत्नप्रभायां यावत् एकः तमायां अथवा एक रत्नप्रभा में यावत् एक तमा में दो अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे द्वौ अधःसप्तम्यां भवन्ति, अथवा एकः और दो अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रयणप्पभाए जाव दो तमाए एगे। रत्नप्रभायां यावत् द्वौ तमायाम् एकः रत्नप्रभा में यावत् दो तमा में और एक अहेसत्तमाए होज्जा। एवं संचारेयव्वं अधःसप्तम्यां भवन्ति, एवं सञ्चारयितव्यं अधःसप्तमी में होता है। अथवा एक जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे यावत् अथवा द्वौ रत्नप्रभायाम् एकः रत्नप्रभा में यावत् एक तमा में और दो सक्करप्पभाए जाव एगे अहेसत्तमाए शर्कराप्रभायां यावत् एकः अधःसप्तम्यां अधःसप्तमी में होते हैं। इस प्रकार होज्जा॥ भवन्ति।
संचारणीय है यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है।
९६. नव भंते! नेरइया नेरइयप्प- नव भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन वेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति?- प्पभाए होज्जा?- पुच्छा।
पृच्छा । गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् अहेसत्तमाए वा होज्जा।
अधःसप्तम्यां वा भवन्ति। अहवा एगे रयणप्पभाए अट्ठ अथवा एकः रत्नप्रभायाम् अष्ट शर्करासक्करप्पभाए होज्जा। एवं दुयासंजोगो प्रभायां भवन्ति। एवं द्विकसंयोगः यावत् जाव सत्तगसंजोगो य जहा अट्ठण्हं ससकसंयोगः च यथा अष्टानां भणितं तथा भणियं तहा नवण्हं पि भाणियव्वं, नवानाम् अपि भणितव्यं, नवरम्-एकैकः नवरं-एक्केक्को अब्भहिओ अभ्यधिकः सञ्चारयितव्यः, शेषं तत् चैव संचारेयव्यो, सेसं तं चेव पच्छिमो पश्चिमः आलापकः-अथवा त्रयः रत्नआलावगो-अहवा तिण्णि रयणप्पभाए। प्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायाम् एकः एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए वालुकाप्रभायाम यावत् एकः अधःसप्तम्यां जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा। भवन्ति।
९६. भंते! नौ नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में
प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं?-पृच्छा। गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और आठ शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे आठ नैरयिकों के द्वि-संयोगज यावत् सप्तसंयोगज भंग कहे गए हैं वैसे ही नौ नैरयिकों के वक्तव्य हैं, इतना विशेष है-एक एक अभ्यधिक संचारणीय है, शेष पूर्ववत् पश्चिम आलापक-अथवा तीन रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है।
९७. दस भंते! नेरइया नेरइयप्प- दश भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिकप्रवेशनकेन ९७. भंते! दस नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में
वेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां भवन्ति?- प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते प्पभाए होज्जा?- पुच्छा पृच्छा ।
हैं?-पृच्छा । गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अहेसत्तमाए वा होज्जा।। अधःसप्तम्यां वा भवन्ति।
अधःसप्तमी में होते हैं। अहवा एगे रयणप्पभाए नव सक्कर- अथवा एकः रत्नप्रभायां नव शर्कराप्रभायां अथवा एक रत्नप्रभा में और नौ प्पभाए होज्जा। एवं दुयासंजोगो जाव भवन्ति। एवं द्विकसंयोगः यावत् सप्तक- अधःसप्तमी में होते हैं। इस प्रकार जैसे नौ सत्तसंजागो य जहा नवण्हं, नवरं- संयोगः च यथा नवानाम्, नवरम्-एकैकः नैरयिकों के द्वि-संयोगज यावत् सप्तएक्केक्को अब्भहिओ संचारेयव्वो, सेसं अभ्यधिकः सञ्चारयितव्यः शेषं तत् चैव संयोगज भंग कहे गए हैं, वैसे ही दस
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भगवई
२५३ तं चेव पच्छिमो आलावगो-अहवा पश्चिमः आलापकः-अथवा चत्वारः रत्नचत्तारि रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए प्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां यावत् एकः । जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा।
अधःसप्तम्यां भवन्ति।
श.९ : उ. ३२ : सू.९७,९८ नैरयिकों के वक्तव्य है, इतना विशेष है-एक एक अभ्यधिक संचारणीय है, शेष पूर्ववत् पश्चिम आलापक-अथवा चार रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में यावत् एक अधःसप्तमी में होता है।
भाष्य १. सूत्र ९५-९७
• आठ जीवों के एक सांयोगिक भंग ७ • आठ जीवों के द्वि-सांयोगिक विकल्प ७, भंग १४७ • आठ जीवों के त्रि-सांयोगिक विकल्प २१, भंग ७३५ • आठ जीवों के चतुष्क-सांयोगिक विकल्प ३५, भंग १२२५ • आठ जीवों के पंच-सांयोगिक विकल्प ३६. भंग ७३५ • आठ जीवों के षट्-सांयोगिक विकल्प २१, भंग १४७ • आठ जीवों के सप्त-सांयोगिक विकल्प ७, भंग ७ इन सात विकल्पों का प्रत्येक नरक के साथ संयोग करने
पर सर्व भंग ३००३ होते हैं। •९ जीवों के एक सांयोगिक भंग.९,जीवों के द्वि-सांयोगिक विकल्प ८, भंग १६८ .९जीवों के त्रि-सांयोगिक विकल्प २८, भंग ९८० •९ जीवों के चतुष्क-सांयोगिक विकल्प ५६, भंग १९६० .९ जीवों के पंच-सांयोगिक विकल्प ७०, भंग १४७०
.९जीवों षट्क-सांयोगिक विकल्प ५६. भंग ३१२ .९ जीवों के सप्ल-सांयोगिक विकल्प २८, भंग २८ इन सात विकल्पों का प्रत्येक नरक के साथ संयोग करने पर सर्व भंग ५००५ होते हैं। .१०जीवों के एक सांयोगिक भंग ७ .१० जीवों के द्वि-सांयोगिक विकल्प ९, भंग १८९ .१० जीवों के त्रि-सांयोगिक विकल्प ३६, भंग १२६० .१०जीवों के चतुष्क-सांयोगिक विकल्प ३५. भंग २९,४० .१० जीवों के पञ्च-सांयोगिक विकल्प १२६, भंग २६४६ .१० जीवों के षट्क-सांयोगिक विकल्प १२६, भंग ८८२ .१०जीवों के सप्त-सांयोगिक विकल्प ८४. भंग ८४ इन सात विकल्पों का प्रत्येक नरक के साथ संयोग करने पर सर्व भंग-८००८ होते हैं। विस्तार के लिए द्रष्टव्य ९/-९१.९३ का यंत्र।
९८. संखेज्जा भंते! नेरझ्या नेरझ्य- संख्येयाः भदन्त! नैरयिकाः नैरयिक- ९८. भंते! संख्येय नैरयिक नैरयिकप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां प्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या प्पभाए होज्जा?-पुच्छा। भवन्ति?-पृच्छा।
रत्नप्रभा में होते हैं?-पृच्छा। गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अहेसत्तमाए वा होज्जा। अधःसप्तम्यां वा भवन्ति ।।
अधःसप्तमी में होते हैं। अहवा एगे रयणप्पभाए संखेज्जा । अथवा एकः रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्करा- अथवा एक रत्नप्रभा में और संख्येय सक्करप्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा प्रभायां भवन्ति, एवं यावत् अथवा एकः । शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत् एगे रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए रत्नप्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा एक रत्नप्रभा में और संख्येय होज्जा । अहवा दो रयणप्पभाए संखेज्जा अथवा द्वौ रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्करा- अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा सक्कर-प्पभाए होज्जा, एवं जाव अहवा प्रभायां भवन्ति। एवं यावत् अथवा द्वौ में और संख्येय शर्कराप्रभा में होते हैं। इस दो रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए रत्नप्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। प्रकार यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में और होज्जा। अहवा तिण्णि रयणप्पभाए अथवा त्रयः रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्करा- संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा तीन संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा। एवं प्रभायां भवन्ति। एवम् एतेन क्रमेण एकैकः रत्नप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में एएणं कमेणं एक्कोक्को संचारेयव्वो सञ्चारयितव्यः यावत् अथवा दश रत्न- होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से एक एक जाव अहवा दस रयणप्पभाए संखेज्जा प्रभायां संख्येयाः शर्कराप्रभायां भवन्ति । एवं संचारणीय है. यावत् अथवा दस रत्नप्रभा सक्कर-प्पभाए होज्जा। एवं जाव अहवा यावत् अथवा दश रत्नप्रभायां संख्येयाः में और संख्येय शर्कराप्रभा में होते हैं। इस दस रयणप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा संख्येयाः प्रकार यावत् अथवा दस रत्नप्रभा में और होज्जा। अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्कराप्रभायां भवन्ति संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं, अथवा संखेज्जा सक्करप्पभाए होज्जा जाव यावत् अथवा संख्येयाः रत्नप्रभायां संख्येय रत्नप्रभा में और संख्येय अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा शर्कराप्रभा में होते हैं यावत् अथवा संख्येय अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे एकः शर्कराप्रभायां संख्येयाः वालुकाप्रभायां रत्नप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में
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भगवई
सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए भवन्ति, एवं यथा रत्नप्रभा उपरितन होज्जा, एवं जहा रयण-प्पभा पृथिवीभिः समं चारिता एवं शर्कराप्रभा अपि उवरिमपुढवीहिं समं चारिया एवं उपरितनपृथिवीभिः समं चारयितव्या, एवम् सक्करप्पभा वि उवरिम-पुढवीहिं समं एकैका पृथिवी उपरितनपृथिवीभिः समं चारेयव्वा, एवं एक्केक्का पुढवी चारयितव्या यावत् अथवा संख्येयाः तमायां उवरिमपुढवीहिं समं चारेयव्वा जाव संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अहवा संखेज्जा तमाए संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्कर- अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, प्रभायां संख्येयाः वालुकाप्रभायां भवन्ति, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे। अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करासक्करप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए प्रभायां संख्येयाः पङ्कप्रभायां भवन्ति यावत् होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्करासक्करप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए प्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए दो अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां सक्कर-प्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए संख्येयाः वालुकाप्रभायां भवन्ति यावत् होज्जा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ शर्कराप्रभायां सक्करप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए संख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए तिण्णि एकः रत्नप्रभायां त्रयः शर्कराप्रभायां सक्करप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए संख्येयाः वालुकाप्रभायां भवन्ति, एवम् होज्जा, एवं एएणं कमेणं एक्केक्को एतेन क्रमेण एकैकः सञ्चारयितव्यः शर्करासंचारेयव्यो सक्करप्पभाए जाव अहवा प्रभायां यावत अथवा एकः रत्नप्रभायां एगे रयणप्पभाए संखेज्जा सक्कर- संख्येयाः शर्कराप्रभायां संख्येयाः वालुकाप्पभाए संखेज्जा वालयुप्पभाए होज्जा प्रभायां भवन्ति यावत् अथवा एकः रत्न- जाव अहवा एगे रयण-प्पभाए संखेज्जा प्रभायां संख्येयाः वालुकाप्रभायां संख्येयाः वालुयप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए अधःसप्तम्यां भवन्ति। अथवा द्वौ होज्जा। अहवा दो रयणप्पभाए रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्कराप्रभायां संखेज्जा सक्करप्पभाए संखेज्जा संख्येयाः वालुका-प्रभायां भवन्ति यावत् वालुयप्पभाए होज्जा जाव अहवा दो अथवा द्वौ रत्नप्रभायां संख्येयाः रयणप्प्पाभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए शर्कराप्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा। अहवा भवन्ति। अथवा त्रयः रत्नप्रभायां संख्येयाः तिण्णि रयणप्पभाए संखेज्जा सक्क- शर्कराप्रभायां संख्येयाः वालुकाप्रभायां रप्पभाए संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा, भवन्ति, एवम् एतेन क्रमेण एकैकः रत्नप्रभया एवं एएणं कमेणं एक्केक्को रयणप्पभाए सञ्चारयितव्यः यावत् अथवा संख्येयाः संचारेयव्वो जाव अहवा संखेज्जा रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्कराप्रभायां रयणप्पभाए संखेज्जा सक्करप्पभाए संख्येयाः वालुकाप्रभायां भवन्ति यावत् संखेज्जा वालुयप्पभाए होज्जा जाव अथवा संख्येयाः रत्नप्रभायाम् संख्येयाः अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा शर्कराप्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां सक्करप्प-भाए संखेज्जा अहेसत्तमाए भवन्ति। अथवा एकः रत्नप्रभायां एकः होज्जा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुकाप्रभायां संख्येयाः पङ्कप्रभायां वालुयप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए भवन्ति । यावत् अथवा एकः रत्नप्रभायाम्
होते हैं, अथवा एक शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना की गई है वैसे ही शर्कराप्रभा से ऊर्ध्ववर्ती पृथ्वियों के साथ विकल्पना करनी चाहिए यावत् अथवा संख्येय तमा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्येय पंकप्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक शर्कराप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं, यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, दो शर्कराप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, तीन शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से एक एक शर्कराप्रभा में संचारणीय है यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, संख्येय वालुकाप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं यावत् अथवा दो रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा तीन रत्नप्रभा में, संख्येय शर्करा-प्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से प्रत्येक रत्नप्रभा में संचारणीय है, यावत् अथवा संख्येय रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में और संख्येय वालुकाप्रभा में होते हैं यावत् अथवा संख्येय रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं अथवा एक रत्नप्रभा में, एक वालुकाप्रभा में और संख्येय पंकप्रभा में होते हैं यावत् अथवा एक रत्नप्रभा में, एक
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भगवई
२५५ होज्जा। जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एकः वालुकाप्रभायां संख्येयाः अधःसप्तम्यां एगे वालुयप्पभाए संखेज्जा अहेसत्तमाए भवन्ति। अथवा एकः रत्नप्रभायां द्वौ होज्जा। अहवा एगे रयणप्पभाए दो बालुकाप्रभायां संख्येयाः पङ्कप्रभायां वालुयप्पभाए संखेज्जा पंकप्पभाए भवन्ति, एवम् एतेन क्रमेण त्रिकसंयोगः. होज्जा, एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो. चतुष्कसंयोगः यावत सप्तसंयोगः च यथा चउक्कसंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य दशानाम् तथैव भणितव्यः । जहा दसण्हं तहेव भाणियव्यो। पच्छिमो पश्चिमः आलापकः सप्तसंयोगस्य-अथवा आलावगो सत्तसंजोगस्स-अहवा संख्येयाः रत्नप्रभायां संख्येयाः शर्करासंखेज्जा रयणप्पभाए संखेज्जा प्रभायां यावत् संख्येयाः अधःसप्तम्यां सक्करप्पभाए जाव संखेज्जा अहेसत्त- भवन्ति। माए होज्जा॥
श. ९ : उ. ३२ : सू. ९८-१०० वालुकाप्रभा में और संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में, दो वालुकाप्रभा में और संख्येय पंकप्रभा में होते हैं। इस प्रकार इस क्रम से जैसे दस नैरयिकों के त्रि-संयोगज, चतुष्क-संयोगज यावत् सप्त-संयोगज भंग कहे गए हैं वैसे ही यहां वक्तव्य हैं। सप्त संयोगज का पश्चिम आलापक-अथवा संख्येय रत्नप्रभा में, संख्येय शर्कराप्रभा में यावत् संख्येय अधःसप्तमी में होते हैं।
९९.असंखेज्जा भंते! नेरइया नेरइय- असंख्येयाः भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिक- ९९. भंते! असंख्येय नैरयिक नैरयिकप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां प्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या प्पभाए होज्जा?-पुच्छा भवन्ति ?-पृच्छा।
रत्नप्रभा में होते हैं?-पृच्छा। गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवन्ति यावत् गांगेय ! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अहेसत्तमाए वा होज्जा।
अधःसप्तम्यां वा भवन्ति। अथवा एकः अधःसप्तमी में होते हैं। अहवा एगे रयणप्पभाए असंखेज्जा रत्नप्रभायाम् असंख्येयाः शर्कराप्रभायां अथवा एक रत्नप्रभा में और असंख्येय सक्करप्पभाए होज्जा, एवं दुयासंजोगो भवन्ति, एवं द्विकसंयोगः यावत् ससक- शर्कराप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखेज्जाणं संयोगः च यथा संख्येयानां भणितः तथा संख्येय नैरयिकों के द्वि-संयोगज यावत् भणिओ तहा असंखेज्जाण वि असंख्येयानाम् अपि भणितव्यः, नवरम्- सप्त-संयोगज भंग कहे गए हैं, वैसे ही भाणियव्यो, नवरं-असंखेज्जो असंख्येयः अभ्यधिकः भणितव्यः, शेषं तत् असंख्येय नैरयिकों के वक्तव्य हैं, इतना अब्भहिओ भाणियव्वो, सेसं तं चेव चैव यावत् सप्तकसंयोगस्य पश्चिमः विशेष है-असंख्येय अभ्यधिक वक्तव्य है, जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो आला- आलापकः अथवा असंख्येया रत्नप्रभायाम्। शेष पूर्ववत्, यावत् सप्त संयोग का पश्चिम वगो अहवा असंखेज्जा रयण-प्पभाए असंख्येयाः शर्कराप्रभायां यावत् आलापक-अथवा असंख्येय रत्नप्रभा में, असंखेज्जा सक्करप्पभाए जाव असंख्येयाः अधःसप्तम्यां भवन्ति।
असंख्येय शर्कराप्रभा में यावत् असंख्येय असंखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा।
अधःसप्तमी में होते हैं।
१००. उक्कोसेणं भंते! नेरइया नेरइय- उत्कर्षेण भदन्त! नैरयिकाः नैरयिक- प्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्रवेशनकेन प्रविशन्तः किं रत्नप्रभायां प्पभाए होज्जा?-पुच्छा।
भवन्ति?-पृच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव रयणप्पभाए गाङ्गेय! सर्वे अपि तावत् रत्नप्रभायां होज्जा, अहवा रयणप्पभाए य भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां च शर्कराप्रभायां सक्करप्पभाए य होज्जा, अहवा च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां च रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होज्जा वालुकाप्रभायां च भवन्ति यावत् अथवा जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए रत्नप्रभायां च अधः सप्तम्यां च भवन्ति, य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए य अथवा रत्नप्रभायां च शर्कराप्रभायां च सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य वालुकाप्रभायां च भवन्ति, एवं यावत् अथवा होज्जा, एवं जाव अहवा रयणप्पभाए य रत्नप्रभायां च शर्कराप्रभायां च अधःसप्तम्यां सक्कर-प्पभाए य अहेसत्तमाए य च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां वालुका- होज्जा, अहवा रयणप्पभाए प्रभायां पङ्कप्रभायां च भवन्ति, यावत अथवा
१००. भंते! उत्कृष्ट नैरयिक नैरयिक
प्रवेशनक में प्रवेश करते हए क्या रत्नप्रभा में होते हैं?-पृच्छा। गांगेय! सब रत्नप्रभा में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में और शर्कराप्रभा में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में और वालुकाप्रभा में होते हैं यावत् अथवा रत्नप्रभा में और अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में और वालुकाप्रभा में होते हैं। इस प्रकार यावत अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में और अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, वालुकाप्रभा में और पंकप्रभा में होते हैं
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श. ९ : उ. ३२ : सू. १००
वालुयप्पभाए पंकप्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्पभाए वालुयप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए धूमाए होज्जा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिन्ह तियासंजोगो भणिओ तहा भाणि यव्वं जाव अहवा रयणप्पभाए तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा | अहवा रयणप्पभाए य सक्कर- प्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा जाव अहवा रयणप्प भए सक्करप्पभाए वालुय- प्पभाए असत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभए
पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्हं चक्कगसंजोगो भणितो तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयणप्पभाए धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए य होज्जा | रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए पंकप्पभाए धूमप्पभाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य होज्जा, अहवा रयण- प्पभाए जाव पंकप्पभाए अहेसत्त-माए य होज्जा,
अहवा
अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयपभाए धूम - प्पभाए तमाए य होज्जा, एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्ह पंचगसंजोगो तहा भाणियव्वं जाव अहवा रयणप्पभाए पंकप्पभाए जाव असत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए जाव धूमप्पभाए तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए जाव धूमप्पभाए अहेसत्तमाए य होज्जा अहवा रयणप्पभाए सक्रप्पभाए जाव पंकप्पभाए तमाए य असत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुयप्पभाए धूमप्पभाए तमाए असत्तमाए य होज्जा, अहवा
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रत्नप्रभायां वालुकाप्रभायाम् अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां पङ्कप्रभायां धूमायां भवन्ति, एवं रत्नप्रभाम् अमुञ्चत्सु यथा त्रयाणां त्रिकसंयोगः भणितः तथा भणितव्यं यावत् अथवा रत्नप्रभायां तमायां च अधः सप्तम्यां च भवन्ति । अथवा रत्नप्रभायां च शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां पङ्कप्रभायां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां धूमप्रभायां च भवन्ति यावत् अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायाम् अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां पङ्कप्रभायां धूमप्रभायां च भवन्ति एवं रत्नप्रभाम् अमुञ्चत्सु यथा चतुर्णां चतुष्कसंयोगः भणितः तथा भणितव्यं यावत् अथवा रत्नप्रभायां धूमप्रभायां तमायाम् अधः सप्तम्यां च भवन्ति । अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां पङ्कप्रभायां धूमप्रभायां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां यावत् पङ्कप्रभायां तमायां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां यावत् पङ्कप्रभायां अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायाम् शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां धूमप्रभायां तमायां च भवन्ति एवं रत्नप्रभाम् अमुञ्चत्सु यथा पञ्चानाम् पञ्चकसंयोगः तथा भणितव्यं यावत् अथवा रत्नप्रभायां पङ्कप्रभायां यावत् अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां यावत् धूमप्रभायां तमायां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां यावत् धूमप्रभायाम् अधः सप्तम्यां च भवन्ति,
अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां यावत् पङ्क-प्रभायां तमायां च अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां यावत् पङ्कप्रभायां तमायां च अधः सप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां वालुकाप्रभायां धूमप्रभायां तमायाम् अधःसप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां शर्कराप्रभायां पङ्कप्रभायां यावत् अधःसप्तम्यां च भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां वालुकाप्रभायां यावत् अधः सप्तम्यां च
भगवई यावत् अथवा रत्नप्रभा में, बालुकाप्रभा में और अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, पंकप्रभा में और धूमप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए तीन पृथ्वियों के त्रिसंयोगज भंग कहे गए हैं, वैसे ही वक्तव्य हैं यावत अथवा रत्नप्रभा में तमा में और अधः सप्तमी में होते हैं।
अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में, वालुकाप्रभा में और पंकप्रभा में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में शर्कराप्रभा में. वालुकाप्रभा में और धूमप्रभा में होते है यावत् अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में. वालुकाप्रभा में और अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में शर्कराप्रभा में, पंकप्रभा में और धूमप्रभा में होते हैं। इस प्रकार जैसे रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए चार पृथ्वियों के चतुष्क- संयोगज भंग कहे गए हैं, वैसे ही वक्तव्य हैं यावत् अथवा रत्नप्रभा में, धूमप्रभा में, तमा में और अधः सप्तमी में होते हैं।
अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में, वालुकाप्रभा में, पंकप्रभा में और धूमप्रभा में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा यावत् पंकप्रभा में और तमा में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में यावत् पंकप्रभा में और अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में, वालुकाप्रभा में, धूमप्रभा में और तमा में होते हैं। इस प्रकार रत्नप्रभा को न छोड़ते हुए पांच पृथ्वियों के पंच- संयोगज भंग वैसे ही वक्तव्य हैं, यावत् अथवा रत्नप्रभा में, पंकप्रभा में यावत् अधः सप्तमी में होते हैं अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में यावत धूमप्रभा में और तमा में होते हैं, अथवा रत्नप्रभा में यावत् धूमप्रभा में और अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में यावत् पंकप्रभा में, तमा में और अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में, वालुकाप्रभा में, धूमप्रभा में, तमा में और अधः सप्तमी
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भगवई
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श. ९ : उ. ३२ : सू. १००-१०४
रयणप्पभाए सक्करप्पभाए पंकप्पभाए भवन्ति, अथवा रत्नप्रभायां च जाव अहेसत्तमाए य होज्जा, अहवा शर्कराप्रभायां च यावत् अधःसप्तम्यां च । रयणप्पभाए वालुयप्पभाए जाव भवन्ति। अहेसत्तमाए य होज्जा, अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य जाव अहेसत्तमाए य होज्जा॥
में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में, पंकप्रभा में यावत् अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, वालुकाप्रभा में यावत् अधःसप्तमी में होते हैं। अथवा रत्नप्रभा में, शर्कराप्रभा में यावत् अधःसप्तमी में होते हैं।
१०१. भंते! रत्नप्रभा पृथ्वी में प्रवेश करने वाले, शर्कराप्रभा पृथ्वी में प्रवेश करने वाले यावत् अधःसप्तमी पृथ्वी में प्रवेश करने वाले नैरयिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक
१०१. एयस्स णं भंते! रयणप्पभापुढवि- एतस्य भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी नैरयिक- नेरइयपवेसणगस्स सक्करप्पभापुढवि. प्रवेशनकस्य शर्कराप्रभापृथिवीनैरयिकनेरइयपवेसणगस्स जाव अहेसत्तमाः प्रवेशनकस्य यावत् अधःसप्तमीपृथिवीपुढविनेरइयपवेसणगस्स कयरे कयरे- नैरयिकप्रवेशनकस्य कतरे कतरेभ्यः अल्पाः हिंतो अप्पा वा ? बहुया वा? तुल्ला वा? वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषाविसेसाहिया वा?
धिकाः वा? गंगेया! सव्वात्थोवे अहेसत्तमा-पुढवि. गाङ्गेय! सर्वस्तोकाः अधःसप्तमीपृथिवीनेरइयपवेसणए, तमापुढविनेरइय- नैरयिकप्रवेशनके, तमापृथिवीनैरयिकपवेसणए असंखेज्जगुणे, एवं पडिलोमगं प्रवेशनके असंख्येयगुणाः, एवं प्रतिलोमकं जाव रयणप्पभापुढवि-नेरइयपवेसणए यावत् रत्नप्रभापृथिवीनैरयिकप्रवेशनके असंखेज्जगुणे॥
असंख्येयगुणाः।
गांगेय! अधःसप्तमी पृथ्वी में प्रवेश करने वाले नैरयिक सबसे अल्प हैं। तमा पृथ्वी में प्रवेश करने वाले नैरयिक उनसे असंख्येय गुण हैं। इस प्रकार प्रतिलोमक (उल्टा चलने पर) यावत् रत्नप्रभा पृथ्वी में प्रवेश करने वाले नैरयिक असंख्येय गुण हैं।
१०२. तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते! तिर्यगयोनिकप्रवेशनकः भदन्त ! कतिविधः १०२. भंते! तिर्यक्योनिकप्रवेशनक कितने कतिविहे पण्णत्तो? प्रज्ञप्तः?
प्रकार का प्रज्ञाप्त है? गंगेया! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा- गाङ्गेय! पञ्चविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- गांगेय! पांच प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसेएगिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए जाव एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रवेशनकः यावत् एकेन्द्रियतिर्यकयोनिक-प्रवेशनक यावत पंचिंदियतिरिक्खजोणिय-पवेसणए। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रवेशनकः। पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक-प्रवेशनक।
१०३. एगे भंते! तिरिक्खजोणिए एकः भदन्त! तिर्यगयोनिकः तिर्यग- तिरिक्खजोणियपवेसणएणं पवि- योनिकप्रवेशकेन प्रविशन् किम् एकेन्द्रियेषु समाणे किं एगिदिएसु होज्जा जाव भवति यावत् पञ्चेन्द्रियेषु भवति? पंचिंदिएसु होज्जा? गंगेया! एगिदिएसु वा होज्जा जाव गाङ्गेय! एकेन्द्रियेषु वा भवति यावत् पंचिंदिएसुवा होज्जा॥
पञ्चेन्द्रियेषु वा भवति।
१०३. भंते! एक तिर्यक्योनिक तिर्यक् - योनिकप्रवेशनक में प्रवेश करता हुआ क्या एकेन्द्रिय में होता है यावत् पंचेन्द्रिय में होता है? गांगेय ! एकेन्द्रिय में होता है यावत् अथवा पंचेन्द्रिय में होता है।
१०४. दो भंते! तिरिक्खजोणिया द्वौ भदन्त! तिर्यगयोनिको तिर्यग- १०४. भंते ! दो तिर्यक्योनिक तिर्यक्तिरिक्खजोणियपवेसणएणं-पुच्छा। योनिकप्रवेशनकेन-पृच्छा।
योनिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या एकेन्द्रिय में होते हैं यावत् पंचेन्द्रिय में
होते हैं? गंगेया! एगिदिएसु वा होज्जा जाव गाङ्गेय! एकेन्द्रियेषु वा भवतः यावत् गांगेय! एकेन्द्रिय में होते हैं यावत् अथवा पंचिंदिएसु वा होज्जा। अहवा एगे पञ्चेन्द्रियेषु वा भवतः। अथवा एकः पंचेन्द्रिय में होते हैं। अथवा एक एकेन्द्रिय एगिदिएसु होज्जा एगे बेइंदिएसु होज्जा, एकेन्द्रियेषु भवति एकः द्वीन्द्रियेषु भवति, में और एक द्वीन्द्रिय में होता है। इस
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भगवई
श.९ : उ. ३२ : सू. १०४-१०९
२५८ एवं जहा नेरइयपवेसणए तहा तिरिक्ख- एवं यथा नैरयिकप्रवेशनकः तथा तिर्यगजोणियपवेसणए वि भाणियब्वे जाव योनिकप्रवेशनकोऽपि भणितव्यः यावत् असंखेज्जा॥
असंख्येयाः।
प्रकार जैसे नैरयिकप्रवेशनक वैसे तिर्यक्योनिक-प्रवेशनक वक्तव्य है यावत् असंख्येय।
१०५. उक्कोसा भंते! तिरिक्ख-जोणिया उत्कर्षाः भदन्त ! तिर्यग्योनिकाः तिर्यग- १०५. भंते ! उत्कृष्ट तिर्यकयोनिक तिर्यक् - तिरिक्खजोणियपवेसण-एणं-पुच्छा। योनिकप्रवेशकेन-पृच्छा।
योनिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए
एकेन्द्रिय में होते हैं?-पृच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव एगिदिएसुहोज्जा, गाङ्गेय! सर्वे अपि तावत् एकेन्द्रियेषु भवन्ति, गांगेय! सब एकेन्द्रिय में होते हैं, अथवा अहवा एगिदिएसु वा बेइंदिएसु वा अथवा एकेन्द्रियेषु वा द्वीन्द्रियेषु वा भवन्ति। एकेन्द्रिय में और द्वीन्द्रिय में होते हैं। इस होज्जा। एवं जहा नेरझ्या चारिया तहा एवं यथा नैरयिकाः चारिताः तथा तिर्यग- प्रकार जैसे नैरयिकों की चारणा की, वैसे तिरिक्ख-जोणिया वि चारेयव्वा। योनिकाः अपि चारयितव्याः। एकेन्द्रियान् ही तिर्यक्योनिकों की भी चारणा करनी एगिदिया-अमुयंतेसुदुयासंजोगो, तिया- अमुञ्चत्सु द्विकसंयोगः, त्रिकसंयोग, चाहिए। एकेन्द्रियों को न छोड़ते हुए संजोगो, चउक्कसंजोगो, पंच-संजोगो चतुष्कसंयोगः, पञ्चसंयोगः उपयुज्य द्विसंयोग, त्रि-संयोग, चतुष्क-संयोग, उवमुंजिऊण भाणियन्वो जाव अहवा भणितव्यः यावत् अथवा एकेन्द्रियेषु वा पंच-संयोग उपयुक्त योजना कर वक्तव्य हैं एगिदिएसु वा, बेइंदिएसु वा जाव द्वीन्द्रियेषु वा यावत् पञ्चेन्द्रियेषु वा, यावत् अथवा एकेन्द्रिय में, द्वीन्द्रिय में पंचिंदिएसुवा होज्जा॥ भवन्ति।
यावत् पंचेन्द्रिय में होते हैं।
१०६. भंते! इन एकेन्द्रिय में प्रवेश करने वाले यावत् पंचेन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यकयोनिकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है?
१०६. एयस्स णं भंते! एगिदियतिरिक्ख- एतस्य भदन्त! एकेन्द्रियतिर्यग्योनिक-
जोणियपवेसणगस्स जाव पंचिदिय- प्रवेशनकस्य यावत् पञ्चेन्द्रियतिर्यग- तिरिक्खजोणियपवेसणगस्स य कयरे योनिकप्रवेशनकस्य च कतरे कतरेभ्यः कयरेहितो अप्पा वा? बहुया वा? अल्पाः वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? विशेषाधिकाः वा। गंगेया! सव्वथोवे पंचिंदियतिरिक्ख- गाङ्गेय! सर्वस्तोकाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्- जोणियपवेसणए, चउरिंदियतिरिक्ख- योनिकप्रवेशनके, चतुरिन्द्रियतिर्यगजोणियपवेसणए विसेसाहिए, तेइंदिय- योनिकप्रवेशनके विशेषाधिकाः, त्रीन्द्रियतिरिक्खजोणियपवेसणए विसेसाहिए, तिर्यग्योनिकप्रवेशनके विशेषाधिकाः, बेइंदियतिरिक्ख . जोणियपवेसणए द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकप्रवेशनके विशेषाविसेसाहिए, एगिदियतिरिक्खजोणिय- धिकाः, एकेन्द्रियतिर्यगयोनिकप्रवेशनके पवेसणए विसेसाहिए।
विशेषाधिकाः।
गांगेयः पंचेन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यक्योनिक सबसे अल्प हैं, चतुरिन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यक्योनिक उनसे विशेषाधिक हैं, त्रीन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यक्योनिक उनसे विशेषाधिक हैं, द्वीन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यक्योनिक उनसे विशेषाधिक हैं, एकेन्द्रिय में प्रवेश करने वाले तिर्यक्योनिक उनसे विशेषाधिक हैं।
१०७. मणुस्सपवेसणए णं भंते! कतिविहे मनुष्यप्रवेशनकः भदन्त! कतिविधः प्रज्ञप्तः? १०७. भंते! मनुष्यप्रवेशनक कितने प्रकार पण्णत्ते?
का प्रज्ञाप्त है ? गंगेया! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- गाङ्गेय! द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- गांगेय! दो प्रकार का प्रज्ञाल है, जैसेसमुच्छिममणुस्सपवेसणए, गब्भ- सम्मूर्छिममनुष्यप्रवेशनकः गर्भाव- सम्मूर्छिममनुष्यप्रवेशनक, गर्भावक्रांतिक वक्कंतियमणुस्सपवेसणए य॥ क्रान्तिकमनुष्यप्रवेशनकः च।
मनुष्यप्रवेशनक।
१०८. एगे भंते! मणुस्से मणुस्स-पवेस- एकः भदन्त ! मनुष्यः मनुष्यप्रवेशनकेन णएणं पविसमाणे किं संमुच्छिम- प्रविशन् किं सम्मूर्छिममनुष्येषु भवति? मणुस्सेसु होज्जा? गम्भवक्कंतिय- गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु भवति?
१०८. भंते! एक मनुष्य मनुष्यप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या सम्मूर्छिम मनुष्यों में होता है? गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में
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भगवई
२५९
श. १ : उ. ३२ : सू. १०८-११२
मणुस्सेसु होज्जा? गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गाङ्गेय! सम्मूर्छिममनुष्येषु वा भवति. गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा। गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु वा भवति।
होता है? गांगेय! समूर्छिम मनुष्यों में होता है अथवा गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होता है।
१०९. दो भंते! मणुस्सा-पुच्छा। द्वौ भदन्त ! मनुष्यौ-पृच्छा।
१०९. भंते! दो मनुष्य-पृच्छा। गंगेया! समुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा, गाङ्गेय! सम्मूर्छिममनुष्येषु वा भवतः गांगेय! सम्मूर्छिम मनुष्यों में होते हैं गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा। गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु वा भवतः अथवा अथवा गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं। अहवा एगे समुच्छिम-मणुस्सेसु होज्जा एकः सम्मूर्छिममनुष्येषु भवति एकः अथवा एक सम्मूर्छिम मनुष्यों में और एगे गब्भव-क्कंतियमणुस्सेसु होज्जा, गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु भवति, एवम् एतेन । एक गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होता है। एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए क्रमेण यथा नैरयिकप्रवेशनके तथा मनुष्य- इस प्रकार इस क्रम से जैसे तहा मणुस्सपवेसणए वि भाणियव्वे जाव प्रवेशनके अपि भणितव्यौ यावत् दश। नैरयिकप्रवेशनक वैसे ही मनुष्यप्रवेशनक दस॥
वक्तव्य है यावत् दश।
११०. संखेज्जा भंते! मणुस्सा-पुच्छा। संख्येयाः भदन्त ! मनुष्याः-पृच्छा। गंगेया! संमुच्छिममणुस्सेसु वा । गाङ्गेय! सम्मूछिममनुष्येषु वा भवन्ति, होज्जा,गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु वा भवन्ति। अथवा होज्जा। अहवा एगे संमुच्छिम- एकः सम्मूर्छिममनुष्येषु भवति संख्येयाः मणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गब्भ- गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु वा भवन्ति, अथवा वक्कंतिमणुस्सेसु होज्जा, अहवा दो द्वौ सम्मूर्छिममनुष्येषु भवतः संख्येयाः समुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु भवन्ति, एवम् गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा, एवं एकैकम उत्सारितेषु यावत् अथवा संख्येयाः एक्केक्कं उस्सारितेसु जाव अहवा सम्मूर्छिममनुष्येषु भवन्ति संख्येयाः संखेज्जा संमुच्छिम-मणुस्सेसु होज्जा गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु भवन्ति। संखेज्जा गब्भ-वक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा।
११०. भंते! संख्येय मनुष्य पृच्छा। गांगेय! सम्मूर्छिम मनुष्यों में होते हैं अथवा गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं। अथवा एक सम्मूर्छिम मनुष्यों में और संख्येय गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं, अथवा दो सम्मूर्छिम मनुष्यों में और संख्येय गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं। इस प्रकार एक एक की वृद्धि करने पर यावत् अथवा संख्येय सम्मूर्छिम मनुष्यों में और संख्येय गर्भावक्रान्तिक मनुष्यों में होते हैं।
१११. भंते! असंख्येय मनुष्य-पृच्छा।
१११. असंखेज्जा भंते! मणुस्सा- असंख्येयाः भदन्त ! मनुष्याः-पृच्छा। पुच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव संमुच्छिम- गाङ्गेय! सर्वे अपि तावत् सम्मूर्छिममनुष्येषु मणुस्सेसु होज्जा। अहवा असंखेज्जा भवन्ति। अथवा असंख्येयाः सम्मूर्छिम- संमुच्छिममणुस्सेसु एगे गब्भ- मनुष्येषु एकः गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु वक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा, अहवा भवति, अथवा असंख्येयाः सम्मूर्छिम- असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु दो। मनुष्येषु द्वौः गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु गब्भवक्कंतिय-मणुस्सेसु होज्जा, एवं भवतः एवम् यावत् असंख्येयाः सम्मूर्च्छिमजाव असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु मनुष्येषु भवन्ति संख्येयाः गर्भावक्रान्तिहोज्जा संखेज्जा गब्भवक्कंतिय- कमनुष्येषु भवन्ति। मणुस्सेसु होज्जा॥
गांगेय ! सब सम्मूर्छिम मनुष्यों में होते हैं। अथवा असंख्येय सम्मूर्छिम मनुष्यों में और एक गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होता है। अथवा असंख्येय सम्मूर्छिम मनुष्यों में और दो गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं। इस प्रकार यावत् असंख्येय सम्मूर्छिम मनुष्यों में और संख्येय गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं।
११२. उक्कोसा भते! मणुस्सा-पुच्छा। उत्कषाः भदन्त ! मनुष्याः-पृच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव संमुच्छिम- गाङ्गेय! सर्वे अपि तावत् सम्मूर्छिममनुष्येषु मणुस्सेसु होज्जा। अहवा संमुच्छिम- भवन्ति। अथवा सम्मूर्छिममनुष्येषु च
११२. भंते! उत्कृष्ट मनुष्य-पृच्छा। गांगेय! सब सम्मूर्छिम मनुष्यों में होते हैं। अथवा सम्मूर्छिम मनुष्यों में और
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भगवई
श. ९ : उ. ३२ : सू. ११२-११७
२६० मणुस्सेसु य गब्भवक्कंतियमणुस्सेसु गर्भावक्रान्तिकमनुष्येषु च भवन्ति। य होज्जा॥
गर्भावक्रांतिक मनुष्यों में होते हैं।
११३. एयस्स णं भंते! संमुच्छिम- एतस्य भदन्त ! सम्मूर्छिममनुष्यप्रवेशन- ११३. भंते ! इन सम्मूर्छिम में प्रवेश करने
मणुस्सपवेसणगस्स गब्भवक्कं- कस्य गर्भावक्रान्तिक- मनुष्यप्रवेशन-कस्य वाले और गर्भावक्रांतिक में प्रवेश करने तियमणुस्सपवेसणगस्स य कयरे च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा ? बहुकाः वा? वाले मनुष्यों में कौन किससे अल्प, कयरेहिंतो अप्पा वा? बहुया वा? तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा?
बहुत. तुल्य अथवा विशेषाधिक है? तुल्ला वा? विसेसाहिया वा? गंगेया! सव्वत्थोवे गब्भवक्कंतिय- गाङ्गेय! सर्वस्तोकाः गर्भावक्रान्तिक- गांगेय! गर्भावक्रांतिक में प्रवेश करने वाले मणुस्सपवेसणए समुच्छिममणुस्स- मनुष्यप्रवेशनके सम्मूर्छिममनुष्यप्रवेशनके मनुष्य सबसे अल्प हैं। सम्मूर्छिम में पवेसणए असंखेज्जगुणे॥ असंख्येयगुणाः।
प्रवेश करने वाले उनसे असंख्येय गुण हैं।
देवप्रवेशनकः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः?
११४. देवपवेसणए णं भंते! कतिविहे पण्णते? गंगेया! चउविहे पण्णत्ते, तं जहा- भवणवासिदेवपवेसणए जाव वेमाणिय- . देवपवेसणए॥
गाङ्गेय! चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद् यथा भवन- वासिदेवप्रवेशनकः यावत् वैमानिकदेवप्रवेशनकः।
११४. भंते ! देवप्रवेशनक कितने प्रकार का
प्रज्ञप्त है? गांगेय! चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेभवनवासी देवप्रवेशनक यावत् वैमानिक देवप्रवेशनक।
११५. एगे भंते! देवे देवपवेसणएणं ११५. एकः भदन्त ! देवः देवप्रवेशनकेन पविसमाणे किं भवणवासीसु होज्जा? प्रविशन् किं भवनवासिषु भवति? वानमंतर. वाणमंतरजोइसियवेमा-णिएसु होज्जा? ज्योतिष्क-वैमानिकेषु भवति?
११५. भंते ! एक देव देवप्रवेशनक में प्रवेश
करता हुआ क्या भवनवासी में होता है? वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक में होता है? गांगेय! भवनवासी में होता है, वाणमंतर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक में होता है।
गंगेया! भवणवासीसु वा होज्जा, गाङ्गेय! भवनवासिषु वा भवति, वानमंतर वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु वा ज्योतिष्क-वैमानिकेषु वा भवन्ति। होज्जा।
११६. दो भंते देवा देवपवेसणएणं- द्वौ भदन्त ! देवौ देवप्रवेशनकेन-पृच्छा। पुच्छा । गोयमा! भवणवासीसु वा होज्जा, गाङ्गेय! भवनवासिषु वा भवतः, वानमंतर- वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएस वा ज्योतिष्क-वैमानिकेषु वा भवतः। अथवा होज्जा। अहवा एगे भवणवासीसु एगे एकः भवनवासिषु एकः वानमन्तरेषु भवति, वाणमंतरेसु होज्जा, एवं जहा एवं यथा तिर्यग्योनिकप्रवेशनकः तथा तिरिक्खजोणियपवेसणए तहा देवप्रवेशनकोऽपि भणितव्यः यावत् देवपवेसणए वि भाणियब्वे जाव असंख्येयः इति। असंखेज ति॥
११६. भंते ! दो देव देवप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए भवनवासी में होते हैं? पृच्छा। गांगेय! भवनवासी में होते हैं, वाणमंतर, ज्योतिष्क अथवा वैमानिक में होते हैं। अथवा एक भवनवासी में और एक वाणमंतर में होता है। इस प्रकार जैसे तिर्यक्योनिकप्रवेशनक वैसे देवप्रवेशनक वक्तव्य है यावत् असंख्येय।
११७. उक्कोसा भंते!-पुच्छा।
उत्कर्षाः भदन्त !-पृच्छा। गंगेया! सव्वे वि ताव जोइसिएसु गाङ्गेय! सर्वे अपि तावत् ज्योतिष्केषु होज्जा, अहवा जोइसिय-भवणवासीसु भवन्ति, अथवा ज्योतिष्क-भवनवासिषु च य होज्जा, अहवा जोइसिय-वाणमंतरेसु भवन्ति, अथवा ज्योतिष्क-वानमन्तरेषु य होज्जा, अहवा जोइसियवेमाणिएसुय भवन्ति, अथवा ज्योतिष्क-वैमानिकेषु च
११७. भंते ! उत्कृष्ट देव-पृच्छा। गांगेय ! सब ज्योतिष्क में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क और भवनवासी में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क और वाणमंतर में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क और वैमानिक में
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भगवई
२६१
श.९ : उ.३२ : सू. ११७-१२०
होज्जा,अहवा जोइसिएसु य भवण- भवन्ति, अथवा ज्योतिष्केषु च भवनवासिषु वासीसुय वाणमंतरेसु य होज्जा, अहवा च वानमन्तरेषु च भवन्ति, अथवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य ज्योतिष्केषु च भवनवासिषु च वैमानिकेषु वेमाणिएसु य होज्जा, अहवा जोइसिएसु च भवन्ति, अथवा ज्योतिष्केषु च य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होज्जा, वानमन्तरेषु च वैमानिकेषु च भवन्ति, अहवा जोइसिएसु य भवणवासीसु य अथवा ज्योतिष्केषु च भवनवासिषु च वाणमंतरेसु य वेमाणिएसुय होज्जा॥ वानमन्तरेषु च वैमानिकेषु च भवन्ति।
होते है। अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी
और वाणमंतर में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी और वैमानिक में होते हैं। अथवा ज्योतिष्क, वाणमंतर और वैमानिक मे होते हैं। अथवा ज्योतिष्क, भवनवासी, वाण-मंतर और वैमानिक में होते हैं।
११८. एयस्स णं भंते! भवणवासिदेव- एतस्य भदन्त ! भवनवासिदेवप्रवेशनकस्य, ११८. भंते! इन भवनवासी में प्रवेश करने पवेसणगस्स, वाणमंतरदेवपवेसण- वानमन्तरदेवप्रवेशनकस्य, ज्योतिष्कदेव- वाले, वाणमंतर मे प्रवेश करने वाले, गस्स, जोइसियदेवपवेसणगस्स, प्रवेशनकस्य, वैमानिकदेवप्रवेशनकस्य च ज्योतिष्क में प्रवेश करने वाले और वेमाणियदेव-पवेसणगस्स य कयरे कतरे कतरेभ्यः अल्पाः वा ? बहुकाः वा? वैमानिक में प्रवेश करने वाले देवों में कौन कयरेहितो अप्पा वा? बहया वा? तुल्ला तुल्याः वा ? विशेषाधिकाः वा?
किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा वा? विसेसाहिया वा?
विशेषाधिक है? गंगेया! सव्वत्थोवे वेमाणियदेव- गाङ्गेय! सर्वस्तोकाः वैमानिकदेवप्रवेशनके, गांगेय! वैमानिक में प्रवेश करने वाले देव पवेसणए, भवणवासिदेवपवेसणए भवनवासिदेवप्रवेशनके असंख्येयगुणाः, सबसे अल्प हैं, भवनवासी में प्रवेश करने असंखेज्जगुणे, वाणमंतरदेवपवे-सणए वानमन्तरदेवप्रवशनके असंख्येयगुणाः, वाले देव उनसे असंख्येय गुण हैं, वाणमंतर असंखेज्जगुणे, जोइसियदेव-पवेसणए ज्योतिष्कदेवप्रवेशनके संख्येयगुणाः। में प्रवेश करने वाले देव उनसे असंख्येय संखेज्जगुणे॥
गुण हैं, ज्योतिष्क में प्रवेश करने वाले देव उनसे संख्येय गुण हैं।
११९. भंते! इन नैरयिक में प्रवेश करने वालों, तिर्यक्योनिक में प्रवेश करने वालों, मनुष्य में प्रवेश करने वालों और देव में प्रवेश करने वालों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक
११९. एयस्स णं भंते! नेरइयप- एतस्य भदन्त ! नैरयिकप्रवेश्नकस्य तिर्यग्- वेसणगस्स तिरिक्खजोणियपवेस- योनिकप्रवेशनकस्य मनुष्यप्रवेशन-कस्य णगस्स मणुस्सपवेसणगस्स देव- देवप्रवेशनकस्य च कतरे कतरेभ्यः अल्पाः पवेसणगस्स य कयरे कयरेहितो अप्पा वा? बहुकाः वा? तुल्याः वा? विशेषावा? बहुया वा? तुल्ला वा? धिकाः वा? विसेसाहिया वा? गंगेया! सव्वत्थोवे मणुस्सपवे-सणए, गाङ्गेय! सर्वस्तोकाः मनुष्यप्रवेशनके, नेरइयपवेसणए असंखेज्ज-गुणे, नैरयिकप्रवेशनके असंख्येयगुणाः देवदेवपवेसणए असंखेज्जगुणे, प्रवेशनके असंख्येयगुणाः तिर्यग्योनिकतिरिक्खजोणियपवेसणए असंखे. प्रवेशनके असंख्येयगुणाः। ज्जगुणे॥
गांगेय! मनुष्य में प्रवेश करने वाले सबसे अल्प हैं, नैरयिक में प्रवेश करने वाले उनसे असंख्येय गुण हैं, देव में प्रवेश करने वाले उनसे असंख्येय गुण हैं, तिर्यक् - योनिक में प्रवेश करने वाले उनसे असंख्येय गुण हैं।
संतर-निरंतर उववज्जणादि-पदं सान्तर-निरन्तर-उपपदनादि-पदम् १२०. संतरं भंते! नेरइया उवव-ज्जति सान्तरं भदन्त! नैरयिकाः उपपद्यन्ते निरंतरं नेरइया उववज्जति संतरं निरन्तरं नैरयिकाः उपपद्यन्ते सान्तरम् असुरकुमारा उववज्जति निरंतरं असुरकुमाराः उपपद्यन्ते निरन्तरम् असुरकुमारा उववज्जति जाव संतरं असुरकुमाराः उपपद्यन्ते यावत् सान्तरं वेमाणिया उववज्जति निरंतरं वैमानिकाः उपपद्यन्ते निरन्तरं वैमानिकाः वेमाणिया उववज्जति?
उपपद्यन्ते?
सांतर-निरंतर उपपन्न आदि पद १२०. भंते! नैरयिक अंतर सहित उपपन्न होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं? असुरकुमार अंतर सहित उपपन्न होते हैं ? निरंतर उपपन्न होते है ? यावत् वैमानिक अंतर सहित उपपन्न होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं?
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श. ९ : उ. ३२ : सू. १२०,१२१
२६२ संतरं नेरइया उव्वद्वृति निरंतरं नेरइया सान्तरं नैरयिकाः उद्वर्तन्ते निरन्तरं उव्वटुंति जाव संतरं वाण-मंतरा नैरयिकाः उद्धर्तन्ते यावत् सान्तरं वानउव्वदृति निरंतरं वाणमंतरा उव्वद्वृति? मन्तराः उद्वर्तन्ते निरन्तरं वानमन्तराः संतरं जोइसिया चयंति निरंतरं उद्वर्तन्ते? सान्तरं ज्योतिष्काः च्यवन्ते जोइसिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरन्तरं ज्योतिष्काः च्यवन्ते? सान्तरं निरंतरं वेमाणिया चयंति?
वैमानिकाः च्यवन्ते निरन्तरं वैमानिकाः
च्यवन्ते? गंगेया! संतरं पि नेरझ्या उवव-ज्जंति। गाङ्गेय! सान्तरम् अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते निरंतरं पि नेरइया उवव-जंति जाव। निरन्तरम् अपि नैरयिकाः उपपद्यन्ते यावत् संतरं पि थणियकुमारा उववज्जति सान्तरम् अपि स्तनितकुमाराः उपपद्यन्ते, निरंतरं पि थणिय-कुमारा उववज्जंति, निरंतरम् अपि स्तनितकुमाराः उपपद्यन्ते, नो संतरं पुढविक्काइया उववज्जंति नो सान्तरं पृथिवीकायिकाः उपपद्यन्ते निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जंति, एवं निरन्तरं पृथिवीकायिकाः उपपद्यन्ते, एवं जाव वणस्सइकाइया। सेसा जहा यावत् वनस्पतिकायिकाः। शेषाः यथा नेरइया जाव संतरं पि वेमाणिया नैरयिकाः यावत् सान्तरम् अपि वैमानिकाः उववन्जंति निरंतरं पि वेमाणिया उपपद्यन्ते निरन्तरम् अपि वैमानिकाः उववज्जंति।
उपपद्यन्ते। सान्तरम् अपि नैरयिकाः । संतरं पि नेरइया उव्वद्वृति निरंतरं पि उद्वर्तन्ते निरन्तरम् अपि नैरयिकाः उद्वर्तन्ते, नेरइया उव्वटुंति, एवं जाव एवं यावत् स्तनितकुमाराः। नो सान्तरं थणियकुमारा। नो संतरं पुढवि- पृथिवी-कायिकाः उद्वर्तन्ते, निरन्तरं क्काइया उव्वदृति निरंतरं पुढवि- पृथिवी-कायिकाः उद्वर्तन्ते, एवं यावत् क्काइया उव्वटुंति, एवं जाव वनस्पति-कायिकाः। शेषाः यथा नैरयिकाः, वणस्सइकाइया। सेसा जहा नेरर-इया, नवरम्- ज्योतिष्क-वैमानिकाः च्यवन्ते नवरं-जोइसिय वेमाणिया चयंति अभिलापः यावत् सान्तरम् अपि वैमानिकाः अभिलावो जाव संतरं पि वेमाणिया च्यवन्ते निरन्तरम् अपि वैमानिकाः चयंति निरंतरं पि वेमा-णिया चयंति॥ च्यवन्ते।
भगवई नैरयिक अंतर सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? यावत वाणमंतर अंतर सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? ज्योतिष्क अंतर सहित च्युत होते हैं? निरन्तर च्युत होते हैं? वैमानिक अंतर सहित च्युत होते हैं? निरंतर च्युत होते हैं? गांगेय! नैरयिक अंतर सहित भी उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं यावत् स्तनितकुमार अंतर सहित भी उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं। पृथ्वीकायिक अंतर सहित उपपन्न नहीं होते. निरंतर उपपन्न होते हैं। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक। शेष जैसे नैरयिक यावत् वैमानिक अंतर सहित भी उपपन्न होते हैं, निरंतर भी उपपन्न होते हैं। नैरयिक अंतर सहित भी उद्वर्तन करते हैं, निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार। पृथ्वीकायिक अंतर सहित उद्वर्तन नहीं करते, निरंतर उद्वर्तन करते हैं। इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक। शेष जैसे-नैरयिक, इतना विशेष है-ज्योतिष्क, वैमानिक च्युत होते हैं आलापक यावत् वैमानिक अंतर सहित भी च्युत होते हैं, निरंतर भी च्युत होते हैं।
सतो असतो उववज्जणादि-पदं १२१.सतो भंते! नेरइया उववज्जति,
असतो नेरइया उववज्जति, सतो असुरकुमारा उववन्जंति जाव सतो वेमाणिया उववज्जंति, असतो वेमाणिया उवव- ज्जंति? सतो नेरइया उव्वद॑ति, असतो नेरइया उव्वट्ठति, सतो असुरकुमारा उव्व-टुंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, असतो वेमाणिया चयंति? गंगेया! सतो नेरइया उववजंति, नो असतो नेरइया उववजंति, सतो असुरकुमारा उववज्जति, नो असतो असुरकुमारा उववज्जंति जाव सतो वेमाणिया उववजंति, नो असतो
सतः असतःउपपन्नादि-पदम्
सत् असत् उपपन्न आदि-पद सतः भदन्त ! नैरयिकाः उपपद्यन्ते, असतः १२१. 'भंते! सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं? नैरयिकाः उपपद्यन्ते, असतः असुरकुमाराः असत् उपपन्न होते हैं? सत् असुरकुमार उपपद्यन्ते यावत् सतः वैमानिकाः उपपन्न होते हैं, यावत् सत् वैमानिक उपपन्न उपपद्यन्ते, असतः वैमानिकाः उपपद्यन्ते? होते हैं? असत् वैमानिक उपपन्न होते हैं? सतः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते, असतः नैरयिकाः सत् नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? असत् उद्वर्तन्ते सतः असुरकुमाराः उद्वर्तन्ते यावत् नैरयिक उद्वर्तन करते हैं? सत् असुरसतः वैमानिकाः च्यवन्ते, असतः कुमार उद्वर्तन करते हैं? यावत् सत् वैमानिकाः च्यवन्ते?
वैमानिक च्युत होते हैं? असत् च्युत होते हैं? गाङ्गेय! सतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, नो गांगेय! सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, सतः असुर- असत् उपपन्न नहीं होते। सत् असुरकुमार कुमाराः उपपद्यन्ते नो, असतः असुर- उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते कुमाराः उपपद्यन्ते यावत् सतः वैमानिकाः यावत् सत् वैमानिक उपपन्न होते हैं, उपपद्यन्ते, सतः नैरयिकाः उद्वर्तन्ते, नो असत् उपपन्न नहीं होते। सत् नैरयिक
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भगवई
श.९ : उ. ३२ : सू. १२१,१२२
२६३ वेमाणिया उववज्जंति, सतो नेरइया असतः नैरयिकाः उद्धर्तन्ते यावत् सतः उव्वटुंति, नो असतो नेरइया उव्वदृति वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः जाव सतो वेमाणिया चयंति. नो असतो च्यवन्ते। वेमाणिया चयंति॥
उद्वर्तन करते हैं, असत् उद्वर्तन नहीं करते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते।
भाष्य
१.सूत्र-१२१
पापित्यीय गांगेय ने उत्पत्ति, उद्वर्तना, और प्रवेशन के पश्चात् सत् और असत् का प्रश्न उपस्थित किया-नैरयिक आदि सभी जीव उत्पन्न होते हैं। वे उत्पत्ति से पूर्व सत् हैं अथवा असत्। उत्तर में महावीर ने कहा-गांगेय! सत् ही उत्पन्न होता है, असत् उत्पन्न नहीं होता। जो उत्पन्न होता है, वह द्रव्यार्थ नय की दृष्टि से सत् होता है । जो सर्वथा असत् है, वह कभी भी उत्पन्न नहीं होता।
सभी जीव जीवद्रव्य की अपेक्षा से सत् हैं। मनुष्य आदि पर्याय
की दृष्टि से असत् हैं। द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सत् ही उत्पन्न होता है और पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से असत् ही उत्पन्न होता है। भगवान का उत्तर द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से है। इसीलिए भगवान ने कहा-गांगेय! सत् उत्पन्न होता है, असत् उत्पन्न नहीं होता।
गांगेय के प्रतिप्रश्न के उत्तर में भगवान ने अर्हत् पार्श्व के सिद्धांत को उद्धृत किया। गांगेय उससे बहुत प्रभावित हुआ। भगवान द्वारा पार्श्व के सिद्धांत का उल्लेख भगवती ५/२५४-२५६ में भी है।
द्रष्टव्य भगवती ५/२५४-२५६ का भाष्य।
१२२. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ-सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति?
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते- सतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते नो असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, यावत् सतः वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते।
से नूणं भे गंगेया! पासेणं अरहया स नूनं भो! गाङ्गेय! पाइँन अर्हता पुरुषापुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए दानीयेन शाश्वतः लोकः ब्रूतः अनादिकः अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवुडे हेट्ठा अनवदनः परीतः परिवृतः अधः विच्छिन्नः, विच्छिण्णे, मज्झे संखित्ते, उप्पि मध्ये संक्षिप्तः, उपरिविशालः, अधः पर्यङ्कविसाले; अहे पलियंकसंठिए, मज्झे संस्थितः, मध्ये वरवज्रवैग्रहिकः, उपरि वरवइरविग्गहिए, उप्पिं उद्धमुइंगाकार- उर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः। तस्मिन् च संठिए। तसिं च णं सासयंसि लोगंसि शाश्वते लोके अनादिके अनवदग्रे परीते अणादियंसि अणवदग्गंसि परित्तंसि परिवते अधः विच्छिन्ने, मध्ये संक्षिप्ते, परिखुडंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि, मज्झे । उपरिविशाले अधः पर्यङ्कसंस्थिते, मध्ये संखि-तंसि, उप्पि विसालंसि, अहे वरवज्रवैग्रहिके, उपरि उर्ध्वमृदङ्गाकारपलियंकसंठियंसि, मज्झे वरखइर- संस्थिते अनन्ताः जीवधनाः उत्पद्य-उत्पद्य विग्गहियंसि, उप्पि उद्धमुइंगा-कार- निलीयन्ति, परीताः जीवधनाः उत्पद्यसंठियंसि अणंता जीवघणा उप्पज्जित्ता- उत्पद्य निलीयन्ति। उप्पज्जित्ता निली-यंति, परित्ता सः भूतः उत्पन्नः विगतः परिणतः. अजीवैः जीवघणा उप्पज्जित्ता-उप्पग्जित्ता लोक्यते प्रलोक्यते, यः लोक्यते सः लोकः। निलीयंति।
तत् तेनार्थेन गाङ्गेय! एवम् उच्यते यावत् से भूए उप्पण्णे विगए परिणए, अजीवेहिं सतः वैमानिकाः च्यवन्ते नो असतः लोक्कइ पलोक्कइ, जे लोक्कइ से वैमानिकाः च्यवन्ते। लोए। से तेणद्वेणं गंगेया! एवं बुच्चइजाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति॥
१२२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते? हे गांगेय! आपके पूर्ववर्ती पुरुषादानीय अर्हत् पार्श्व ने लोक को शाश्वत कहा है, वह अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त
और ऊपर विशाल है। वह निम्न-भाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत अनादि अनंत, परीत, अलोक से परिवृत, निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त ऊपर में विशाल, निम्नभाग में पर्यंक, मध्य में श्रेष्ठ वज्र और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में अनंत जीव-धन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं, परीत जीव-घन उत्पन्न होकर, उत्पन्न होकर विलीन हो जाते हैं। वह लोक सद्भूत. उत्पन्न, विगत और परिणत है। अजीव-पुद्गल आदि के विविध परिणमनों के द्वारा जिसका लोकन किया जाता है, प्रलोकन किया जाता है, वह लोक है। गांगेय! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते।
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श. ९ : उ. ३२ : सू. १२३, १२४
सतो परतो वा जाणणा-पदं १२३. सयं भंते! एतेवं जाणह, उदाहु असयं, असोच्चा एतेवं जाणह, उदाहु सोच्चा-सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जति जाव सतो वेमाणिया, चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति ?
गंगेया ! सयं एतेवं जाणामि, नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा-सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववजंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति ॥
१२४. से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ - सयं एतेवं जाणामि, नो असयं, असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा-सतो नेरइया उववज्जंति, नो असतो नेरइया उववज्जंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, नो असतो वेमाणिया चयंति ?
गंगेया! केवली णं पुरत्थमे णं मियं पि जाइ, अमियं पि जाणइ । दाहिणे णं. पच्चत्थिमे णं, उत्तरे णं, उड्डुं अहे मियं पि जाइ, अमियपि जाणइ ।
सव्वं जाणइ केवली, सव्वं पासइ केवली ।
सव्वओ जाणइ केवली, सव्वओ पासइ केवली ।
सव्वकालं जाणइ केवली, सव्वकालं पासइ केवली ।
सव्वभावे जाणइ केवली, सव्वभावे पासइ केवली ।
अणते नाणे केवलिस्स, अणंते दंसणे केवलिस्स ।
२६४
स्वयं परतः वा ज्ञान-पदम् स्वयं भदन्त ! एतद् एवं जानीत, उताहो अस्वयम् अश्रुत्वा एतद् एवं जानीत, उताहो श्रुत्वा सतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते नो असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, यावत् सतः वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते?
गाङ्गेय ! स्वयम् एतद् एवं जानामि, नो अस्वयम् अश्रुत्वा एतद् एवं जानामि, नो श्रुत्वा सतः नैरयिकाः उपद्यन्ते, नो असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते यावत् सतः वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते स्वयम् एतद् एवं जानामि, नो अस्वयम्, अश्रुत्वा एतद् एवं जानामि, नो श्रुत्वा - सतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते, नो असतः नैरयिकाः उपपद्यन्ते यावत् सतः वैमानिकाः च्यवन्ते, नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते?
गाङ्गेय! केवली पौरस्त्ये मितम् अपि जानाति, अमितम् अपि जानाति । दक्षिणे, पाश्चात्ये, उत्तरे, ऊर्ध्व अधः मितम् अपि जानाति अमितम् अपि जानाति ।
सर्वं जानाति केवली, सर्वं पश्यति केवली ।
सर्वतः जानाति केवली, सर्वतः पश्यति केवली ।
सर्वकालं जानाति केवली, सर्वकालं पश्यति केवली । सर्वभावान् जानाति केवली, सर्वभावान् पश्यति केवली ।
अनन्तं ज्ञानं केवलिनः अनंतं दर्शनं केवलिनः ।
भगवई
स्वतः अथवा परतः ज्ञान पद १२३. भंते! आप स्वयं इस प्रकार जानते हैं अथवा किसी अन्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर जानते हैं? आप किसी से सुने बिना, आगम आदि का अध्ययन किए बिना जानते हैं अथवा सुनकर, आगम आदि का अध्ययन कर जानते हैं- सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते? गांगेय! मैं स्वयं इस प्रकार जानता हूं, किसी अन्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर नहीं जानता। मैं सुने बिना आगम आदि का अध्ययन किए बिना जानता हूं, सुनकर, आगम आदि का अध्ययन कर नहीं जानता - सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते, सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते।
१२४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- मैं स्वयं इस प्रकार जानता हूं किसी अन्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर नहीं जानता? मैं सुने बिना, किसी आगम आदि का अध्ययन किए बिना जानता हूं, सुनकर, आगम आदि का अध्ययन कर नहीं जानता - सत् नैरयिक उपपन्न होते हैं, असत् उपपन्न नहीं होते यावत् सत् वैमानिक च्युत होते हैं, असत् च्युत नहीं होते ?
गांगेय! केवली पूर्व में परिमित को भी जानता है, अपरिमित को भी जानता है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊर्ध्व और अधः दिशाओं में परिमित को भी जानता है, अपरिमित को भी जानता है। केवली सबको जानता है, केवली सबको देखता है।
केवली सब ओर से जानता है, केवली सब ओर से देखता है।
केवली सब काल में जानता है, केवली सब काल में देखता है।
केवली का ज्ञान अनन्त है, केवली का दर्शन अनन्त है।
केवली का ज्ञान निरावरण है, केवली का दर्शन निरावरण है।
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भगवई
२६५
निव्वुडे नाणे केवलिस्स, निव्वुडे दंसणे निर्वृतं ज्ञानं केवलिनः निर्वृतं दर्शनं
केवलिस्स ।
केवलिनः ।
से तेणद्वेणं गंगेया! एवं वुच्चइ-सयं एतेवं जाणामि, नो असयं असोच्चा एतेवं जाणामि, नो सोच्चा-तं चैव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति ॥
सयं असयं उववज्जणा-पदं
१२५. सयं भंते! नेरइया नेरइएस उववज्जंति? असयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति ?
१. सूत्र - १२३-१२४
गांगेय ने पूछा- भंते! सत् उत्पन्न होता है, असत् उत्पन्न नहीं होता । यह आपका स्वयं का ज्ञान है या किसी दूसरे से प्राप्त ज्ञान है ? यह आप आगम का अध्ययन किए बिना जानते हैं अथवा आगम का अध्ययन कर जानते हैं?
गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएसु उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्जति ॥
१२६. से केणट्टेणं भंते! एवं 'वुच्चइ- सयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति, नो असयं रइया नेरइएस उवव-ज्जंति ?
गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मगुरुयत्ताए, कम्मभारियत्ताए, कम्मगुरु-संभारियत्ताए; असुभाणं कम्माणं उदएणं, असुभाणं कम्माणं विवा-गेणं, असुभाणं कम्माणं फलविवा- गेणं सयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएस उववज्जति । से तेणेट्टेणं गंगेया! एवं वच्चइ सयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति, नो असयं नेरइया नेरइएसु उववज्र्ज्जति ॥
१२७. सयं भंते! असुरकुमारा- पुच्छा ।
तत् तेनार्थेन गाङ्गेय! एवम् उच्यते स्वयं एतद् एवं जानामि, नो अस्वयम् अश्रुत्वा एतद् एवं जानामि, नो श्रुत्वा तच्चैव यावत् नो असतः वैमानिकाः च्यवन्ते ।
भाष्य
1
है।
उत्तरवर्ती दर्शन के ग्रंथों में स्वतः और परतः प्रामाण्य की चर्चा
हुई है। उसका बीज इस प्रश्न में मिलता है।
स्वयम् अस्वयम् उपपदना-पदम्
स्वयं भदन्त ! नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ? अस्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ?
स्वतः ज्ञान हेतु निरपेक्ष होता है। परतः ज्ञान हेतु सापेक्ष होता
गाङ्गेय! स्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपद्यन्ते, नो अस्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवम् उच्यते स्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते ।
श. ९ : उ. ३२ : सू. १२४-१२७
गाङ्गेया! कर्मोदयेन, कर्मगुरुकत्वेन कर्मभारिकत्वेन कर्मसम्भारिकत्वेन अशुभानां कर्मणाम् उदयेन, अशुभानां कर्मणां विपाकेन, अशुभानां कर्मणां फलविपाकेन स्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते । तत् तेनार्थेन गाङ्गेयाः ! एवम् उच्यते - स्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयं नैरयिकाः नैरयिकेषु उपपद्यन्ते।
गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - मैं स्वयं इस प्रकार जानता हूं, किसी अन्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर नहीं जानता। मैं सुने बिना आगम आदि का अध्ययन किए बिना जानता हूं, सुनकर, आगम आदि का अध्ययन कर नहीं जानता। इसी प्रकार यावत् असत् वैमानिक च्युत नहीं होते।
स्वयं भदन्त ! असुरकुमाराः पृच्छा।
स्वतः परतः उपपन्न पद
१२५. 'भंते! नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न होते हैं- किसी दूसरी शक्ति के द्वारा उपपन्न किए जाते हैं ? गांगेय ! नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते।
१२६. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है--नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं ? नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते - किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा उपपन्न नहीं किए जाते ? गांगेय ! कर्म के उदय, कर्म की गुरुता, कर्म की भारिकता, कर्म की गुरुसंभारिकता, अशुभ कर्म के उदय, अशुभ कर्म के विपाक और अशुभ कर्म के फल- विपाक से नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते। गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-नैरयिक नैरयिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, नैरयिक नैरयिकों में परतः उपपन्न नहीं होते।
१२७. भंते! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं? पृच्छा ।
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श. ९ : उ. ३२ : सू. १२७-१३०
गंगेया ! सयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उववज्जंति, नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारेसु उववज्जति ॥
१२८. से केणद्वेणं तं चेव जाव उववज्जंति ?
गंगेया ! कम्मोदएणं, कम्मविगतीए, कम्मविसोहीए, कम्मविसुद्धीए सुभाणं कम्माणं उदएणं, सुभाणं कम्माणं विवाणं सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जति, नो असयं असुरकुमारा असरकुमारत्ताए उववज्जति । से तेणट्टेणं जाव उववज्जंति । एवं जाव थणियकुमारा ॥
१२९. सयं भंते! पुढविक्काइया - पुच्छा ।
गंगेया ! सयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएस उववज्जति नो असयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएस उववज्जति ॥
१३०. से केणट्टेणं जाव उववज्जंति ?
गंगेया! कम्मोदएणं, कम्मगुरुय-ताए, कम्मभारित्ताए कम्मगुरु- संभारियत्ताए; सुभासुभाणं कम्माणं उदरणं, सुभासुभाणं कम्माणं विवागेणं, सुभासुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं पुढविक्काइया पुढविक्काइएस उववज्जति, नो असयं पुढविक्काइया पुढवि क्काइएस उववज्जति । से तेणद्वेणं जाव उववज्जति ॥
२६६
गाङ्गेयाः ! स्वयम् असुरकुमाराः असुरकुमारेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयम् असुरकुमाराः असुरकुमारेषु उपपद्यन्ते ।
तत् केनार्थेन तच्चैव यावत् उपपद्यन्ते ?
गाङ्गेयाः ! कर्मोदयेन, कर्मविगत्या कर्मविशोध्या कर्मविशुद्धया शुभानां कर्मणाम् उदयेन, शुभानां कर्मणां विपाकेन शुभानां कर्मणां फलविपाकेन स्वयम् असुरकुमाराः असुरकुमारत्वेन उपपद्यन्ते, नो अस्वयम् असुरकुमाराः असुरकुमारत्वेन उपपद्यन्ते । तत् तेनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते एवं यावत् स्तनितकुमाराः ।
स्वयं भदन्त ! पृथिवीकायिकाः पृच्छा ।
गाङ्गेय! स्वयं पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते नो अस्वयं पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते ।
तत् केनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते ?
गाङ्गेया! कर्मोदयेन, कर्मगुरु कत्वेन, कर्मभारिकत्वेन, कर्मगुरुसंभारिकत्वेन शुभाशुभानां कर्मणाम् उदयेन, शुभाशुभानां कर्मणां विपाकेन, शुभाशुभानां कर्मणां फलविपाकेन स्वयं पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते नो अस्वयं पृथिवीकायिकाः पृथिवीकायिकेषु उपपद्यन्ते । तत् तेनार्थेन यावत् उपपद्यन्ते ।
भगवई
गांगेय ! असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमारों में परतः उपपन्न नहीं होते।
१२८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-असुरकुमार असुरकुमारों में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमारों में परत: उपपन्न नहीं होते? गांगेय ! कर्म के उदय, कर्म के विगमन, कर्म- विशोधि, कर्म- विशुद्धि, शुभ कर्म के उदय, शुभ कर्म के विपाक और शुभ कर्म के फल- विपाक से असुरकुमार असुरकुमार के रूप में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमार के रूप में परतः उपपन्न नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-असुरकुमार असुरकुमार के रूप में स्वतः उपपन्न होते हैं, असुरकुमार असुरकुमार के रूप में परत: उपपन्न नहीं होते। इस प्रकार यावत् स्तनितकुमार ।
१२९. भंते! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं? - पृच्छा गांगेय! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में परत उत्पन्न नहीं होते।
१३०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है - पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते ? गांगेय! कर्म के उदय, कर्म की गुरुता, कर्म की भारिकता, कर्म की गुरुसंभारिकता, शुभाशुभ कर्म के उदय, शुभाशुभ कर्म के विपाक और शुभाशुभ कर्म के फल विपाक से पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है- पृथ्वीकायिक पृथ्वी - कायिक में स्वतः उत्पन्न होते हैं, पृथ्वी - कायिक पृथ्वीकायिक में परतः उत्पन्न नहीं होते।
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भगवई
१३१. एवं जाव मणुस्सा ॥
१३२. वाणमंतर - जोइसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा । से तेणद्वेणं गंगेया! एवं वुच्चइ सयं वेमाणिया वेमाणिएसु उववज्जंति, नो असयं वेमाणिया माणिएस उववज्जति ॥
२६७
एवं यावत् मनुष्याः ।
वानमन्तर- ज्योतिष्क- वैमानिकाः यथा असुरकुमाराः । तत् तेनार्थेन गाङ्गेय! एवम् उच्यते - स्वयं वैमानिकाः वैमानिकेषु उपपद्यन्ते, नो अस्वयं वैमानिकाः वैमानिकेषु उपपद्यन्ते ।
भाष्य
१. सूत्र - १२५-१३२
प्रस्तुत प्रकरण में 'पुनर्जन्म' की व्यवस्था स्वतः चालित है, इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। कर्म अपना किया हुआ होता है, यह कर्मवाद का प्रथम सिद्धांत है।' स्वकृत कर्म के फल विपाक के अनुसार ही जीव नरक आदि नाना स्थानों में उत्पन्न होता है। वह अपनी उत्पत्ति में ईश्वर आदि किसी शक्ति के परतंत्र नहीं है। यदि कोई दूसरी शक्ति पुनर्जन्म की नियंता हो तो नरक और स्वर्ग में जन्म लेने की व्यवस्था निष्पक्ष नहीं रह सकती। दूसरी शक्ति कर्म के आधार पर ही पुनर्जन्म की व्यवस्था करती है-इस अभिमत में प्रक्रिया गौरव का तार्किक दोष है। पुनर्जन्म की व्यवस्था का मुख्य हेतु कर्म ही है। कर्म की अपना फल विपाक देने की प्रक्रिया स्वतः चालित है फिर उसमें दूसरे का हस्तक्षेप अहेतुक है।
नैरयिक स्वतः अपने ही कर्मों से नरक में उत्पन्न होते हैं। उसके सात हेतु बतलाए गए हैं
१. कर्म का उदय २. कर्म की गुरुता ३. कर्म का भारत्व ४. कर्म की गुरु संभारिता ५. अशुभ कर्मों का उदय ६. अशुभ कर्मों का विपाक ७. अशुभ कर्मों का फल विपाक ।
कर्म की गुरुता, कर्म का भारत्व और कर्म की इन तीन हेतुओं का उल्लेख प्रस्तुत आगम में उपलब्ध है।
गुरु संभारिताअनेक स्थलों पर
• कर्मोदय-नरकोचित कर्म का उदय । कर्म का उदय सब संसारी जीवों के होता है। केवल कर्म के उदय मात्र से जीव नरक में नहीं जाता। वहां जाने के लिए कुछ शर्तें हैं। उन शर्तों की सूचना देने के लिए छह विशेषण बतलाए गए।
• कर्म गुरु हो ।
• कर्म का भार हो ।
• कर्म की गुरुता और भार दोनों हो -कर्म का अति प्रकर्ष हो ।
१. भ. १७/६०-६१ ।
२. भ. ५ १३५ ७ १२।
३. भ. वृ. ९ / १२६ - कर्मोदरणं त्ति कम्र्म्मणामुदितत्त्वेन न च कर्मोदयमात्रेण नारकेषूत्पद्यन्ते, केवलिनामपि तस्य भावाद्, अत आह— 'कम्मगुरुयत्ताए' त्ति कर्मणां गुरुकता कर्मगुरुकता तया 'कम्मभारियत्ताए' ति भारोस्ति येषां तानि भारिकाणि तदभावो भारिकता कर्माणां भारिकता तया चेत्यर्थः, तथा महदपि किञ्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि च किञ्चिदमहदित्यत आह-कम्म 'कम्मगुरु संभारियताए' त्ति गुरोः संभारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता चेत्यर्थः, कर्मणां गुरुसंभारिकता कर्मगुरुसंभारिकता तया, अतिप्रकर्षावस्था चेत्यर्थः
श. ९ : उ. ३२ : सू. १३१
१३१. इस प्रकार यावत् मनुष्य ।
• अशुभ कर्म का उदय हो ।
• अशुभ कर्म का विपाक - रसानुभूति हो ।
• अशुभ कर्म का फल विपाक-रस का प्रकर्ष हो । ये सब शर्ते पूरी होती है तब जीव नरक में उत्पन्न होता है। * देवगति में उत्पत्ति के सात हेतु
१. कर्मोदय- देवोचित कर्म का उदय
२. कर्म विगति - अशुभ कर्म की विगति-स्थिति की अपेक्षा ३. कर्म विशोधि - कर्म का विशोधन-रस विपाक की अपेक्षा । ४. कर्म विशुद्धि-कर्म की विशुद्धि-कर्म-प्रदेश राशि की अपेक्षा * ५. शुभ कर्म का उदय
६. शुभ कर्म का विपाक
७. शुभ कर्म का फल विपाक
तिर्यंच एवं मनुष्य गति में उत्पत्ति के सात हेतु
१३२. वाणमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक असुरकुमार की भांति वक्तव्य हैं। गांगेय ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - वैमानिक वैमानिकों में स्वतः उपपन्न होते हैं, वैमानिक वैमानिकों में परतः उपपन्न नहीं होते।
१. कर्म का उदय तिर्यक् एवं मनुष्योचित कर्म का उदय । २. कर्म की गुरुता
३. कर्म का भारत्व
४. कर्म का गुरु भारत्व
५. शुभाशुभ कर्म का उदय
६. शुभाशुभ कर्म का विपाक
७. शुभाशुभ कर्म का फल विपाक
नरक गति में जीव केवल अशुभ कर्म के उदय से उत्पन्न होता है। देव गति में शुभ कर्म के उदय से जीव की उत्पत्ति होती है। " तिर्यच और मनुष्य इन दोनों गतियों में शुभाशुभ कर्म के उदय से जीव पैदा होता है।
गति चतुष्टय में जाने के हेतुओं का वर्गीकरण अनेक आगमों में मिलता है। स्थानांग और औपपातिक' में चार-चार हेतुओं का निर्देश है। वे चरित्रमूलक हैं। चरित्र गति-भ्रमण का परोक्ष हेतु है। चरित्र के
५. ठाणं ४ / ६२८-६३१। ६. ओव. सू. ७३।
एतच्च त्रयं शुभकम्मपिक्षयाऽपि स्यादत आह- असुभानमित्यादि उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत आह- 'विवागणं' नि विपाको यथा बद्धरसानुभूतिः, स च मन्दोपि स्यादत आह- फलविवागेणं ति फलस्येवालाबुकादेर्विपाको - विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेन ।
४. भ. वृ. ९ / १२८ - कम्मविगईए ति कर्म्मणामशुभानां विगत्या विगमेन स्थितिमाश्रित्य 'कम्मविसोहीए' त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविशुद्धीए ति प्रदेशापेक्षया एकार्था वैते शब्दा इति ।
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उदय
स्य
श.९ : उ. ३२ : सू. १३२-१३४ २६८
भगवई साथ जो कर्म का बंध होता है उससे जीव किसी गति में जन्म लेता है प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों प्रकार के हेतुओं का वर्गीकरण है। प्रस्तुत इसलिए वह गति में उत्पत्ति का प्रत्यक्ष हेतु है। स्थानांग और औपपातिक शतक में गति-उत्पत्ति के हेतुओं का निर्देश है, वह प्रत्यक्ष हेतुओं का में गति-हेतुओं का निर्देश है, वह परोक्ष हेतुओं का वर्गीकरण है। प्रस्तुत वर्गीकरण है। आगम के आठवें शतक में गति-उत्पत्ति के हेतुओं का निर्देश है, वह द्रष्टव्य यंत्र
गति | प्रत्यक्ष हेतु नरक | कर्मों का | कर्म की | कर्म का | कर्म का गुरु अशुभ कर्म | अशुभ कर्म |
गुरुता भारत्व | भारत्व का उदय का उदय फल विपाक तिर्यंच कर्मों का कर्म की | कर्म का । कर्म का गुरु | शुभाशुभ कर्म शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म उदय गुरुता
भारत्व
भारत्व का उदय का उदय का फल विपाक मनुष्य कर्मों का कर्म की कर्म का कर्म का गुरु| शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म | शुभाशुभ कर्म
गुरुता भारत्व | भारत्व का उदय का उदय का फल विपाक कर्मों का कर्म की । कर्म का | कर्म की गुरु शुभ कर्म का | शुभ कर्म का | शुभ कर्म का उदय विगति | विशोधन| विशुद्धि उदय
विपाक
फल विपाक गति| परोक्ष हेतु
गति । प्रत्यक्ष परोक्ष हेतु नरक महारंभामहापरिग्रह | पंचेन्द्रिया मांसाहार | अशुभ कर्म नरक महारंभ महापरिग्रह पंचेन्द्रिय मांसाहार नरयिक आयुष्य कर्म शरीर
वध का उदय
प्रयोग नाम कर्म का उदय तिर्यंच माया कूट माया | असत्य कूट तोल |शुभाशुभ कर्म तिर्यंच माया | कूट माया असत्य | कूट तोल तिर्यंच योनिक आयुष्य कर्म | वचन कूप माप का उदय
वचन कूप माप शरीर प्रयोग नाम कर्मका उदय मनुष्य प्रकृति प्रकृति सानु- अमत्सरता शुभाशुभ कर्म मनुष्य प्रकृति प्रकृति सानु- | अमत्सरता मनुष्य आयुष्य कर्म शरीर | भद्रता विनीतता | क्रोशता
का उदय
भद्रता | विनीतता कोशता प्रयोग नाम कर्म का उदय देव |सराग संयमासंयम बाल अकाम शुभ कर्म का देव सराग | संयमा- |बाल अकाम | देवायुष्य कर्म शरीर प्रयोग तपःकर्म |निर्जरा | उदय
संगम |संयम तपःकर्म | निर्जरा कर्म का उदय
उदय
वध
| संयम
गंगेयस्स संबोधि-पदं गाङ्गेयस्य संबोधि-पदम्
गांगेय का संबोधि-पद १३३. तप्पभितिं च णं से गंगेये अणगारे तत्प्रभृतिं च सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं १३३. 'उसके पश्चात् गांगेय अनगार को समणं भगवं महावीरं पच्चभिजाणइ भगवन्तं महावीरं प्रत्यभिजानाति सर्वशं यह प्रत्यभिज्ञा होती है-श्रमण भगवान् सवण्णुं सव्वदरिसिं। तए णं से गंगेये सर्वदर्शिनम्। ततः सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं महावीर सर्वज्ञ सर्वदर्शी हैं। अब वह अणगारे समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां गांगेय अनगार श्रमण भगवान् महावीर तिक्खुत्तो आया-हिणपयाहिणं करेइ, करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा को दाईं ओर से तीन बार प्रदक्षिणा करेत्ता, वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यित्वा एवम् अवादीत्-इच्छामि भदन्त! करता है, वंदन नमस्कार करता है, एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुब्भं युष्माकम् अन्तिकं चातुर्यामात् धर्मात् वंदन नमस्कार कर उसने इस प्रकार अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पञ्चमहाव्रतिकं सप्रतिक्रमणं धर्म उपसम्पद्य कहा-भंते! मैं आपके पास चतुर्याम पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म विहर्तुम्।
धर्म से (मुक्त होकर) सप्रतिक्रमण पंच उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।
महाव्रतात्मक धर्म को स्वीकार करना
चाहता हूं। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं ।। यथासुखं देवानुप्रिया ! मा प्रतिबन्धम्।
देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
१३४. तए णं से गंगेये अणगारे समणं ततः सः गाङ्गेयः अनगारः श्रमणं भगवन्तं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता महावीरं वन्दते, नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा नमंसित्ता चाउज्जामाओ धम्माओ चातुर्यामात् धर्मात् पञ्चमहाव्रतिकं पंचमहव्वइयं सपडि-क्कमणं धम्म सप्रतिक्रमणं धर्म उपसंपद्य विहरति।
१३४. वह गांगेय अनगार श्रमण भगवान्
महावीर को वंदन नमस्कार करता है। वंदन नमस्कार कर चतुर्याम धर्म से मुक्त होकर सप्रतिक्रमण पंच महा
१.भ.८/४२५-४२८॥
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भगवई
२६९
उवसंपज्जित्ता णं विहरति॥
श. ९ : उ. ३२ : सू. १३५,१३६ व्रतात्मक धर्म को स्वीकार कर विहार करता है।
१३५. तए णं से गंगेये अणगारे बहणि ततः सः गाङ्गेयः अनगारः बहूनि वर्षाणि वासाणि सामण्णपरियाणं पाउणइ, श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, प्राप्य यस्यार्थं पाउणित्ता जस्सट्टाए कीरइ नग्गभावे क्रियते नग्नभावः मुण्डभावः अस्नानकं मुंडभावे अण्हाणयं अदंतवणयं अच्छत्तयं अदन्तवनकम् अछत्रकम् अनुपानत्कं । अणोवाहणयं भूमिसेज्जा फलहसेज्जा भूमिशय्या फलकशय्या काष्ठशय्या कट्ठसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो केशलोचः ब्रह्मचर्यवासः परगृहप्रवेशः परघर-प्पवेसो लद्धावलद्धी उच्चावया लब्धापलब्धिः उच्चावचाः ग्रामकण्टकाः गामकंटगा बावीसं परिसहोवसग्गा द्वाविंशतिः परीषहोपसर्गाः अधिसह्यन्ते, अहियासिज्जंति, तम8 आराहेइ, तमर्थम् आराध्यति, आराध्य चरमैः आराहेत्ता चरमेहिं उस्सासनीसासेहिं उच्छवास-निश्वासैः सिद्धः बुद्धः मुक्तः सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिव्वुडे सव्व- परिनिवृतः सर्वदुःखप्रहीनः। दुक्खप्पहीणे॥
१३५. वह गांगेय अनगार बहुत वर्षों तक
श्रामण्य पर्याय का पालन करता है, पालन कर जिस प्रयोजन से नग्नभाव, मुण्डभाव, स्नान न करना, दतौन न करना, छत्र धारण न करना, पादुका न पहनना, भूमिशय्या, फलकशय्या, काष्ठशय्या, ब्रह्मचर्यवास, भिक्षा के लिए गृहस्थों के घर में प्रवेश करना, लाभअलाभ, उच्चावच-ग्रामकंटक, बाईस परीषहों और उपसर्गों को सहन किया जाता है, उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छवास निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है।
भाष्य
१.सूत्र-१३३-१३५
__अर्हत् पार्श्व और श्रमण भगवान महावीर की परम्परा में शासन भेद था । पहला भेद चतुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म का था। गौतम
और केशी स्वामी के मिलन पर यह प्रश्न उठा था-पार्श्व ने चतुर्याम धर्म की देशना दी थी और महावीर पांच महाव्रत रूप धर्म की देशना दे रहे हैं। स्थानांग में बतलाया गया है कि मध्यवर्ती बाईस तीर्थंकर चतुर्याम धर्म का प्रज्ञापन करते हैं।
दस कल्प की व्यवस्था में प्रतिक्रमण आठवां कल्प है। अर्हत
पार्श्व की शासन व्यवस्था में वह अनिवार्य नहीं है। श्रमण भगवान महावीर की परंपरा में वह अनिवार्य है।
महापद्म के प्रकरण में भगवान महावीर स्वयं कहते हैं-मैंने जैसे श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए नग्न भाव, मुण्डभाव आदि की व्यवस्था की, अर्हत् महापद्म भी वैसी व्यवस्था करेंगे। इससे ज्ञात होता है कि नग्नभाव, मुण्डभाव आदि की व्यवस्था महावीर द्वारा कृत विशेष व्यवस्था थी। अनगार गांगेय ने उसी व्यवस्था की आराधना की।
१३६. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
१३६. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा
ही है।
१. उत्तर.२३/१२। २. ठाणं, ४/१३६।
३. द्रष्टव्य ठाणं ६/१०३ का टिप्पण पृ-७०२। ४. ठाणं ९/६२।
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तेत्तीसइमो उद्देसो : तेतीसवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
उसभदत्त-देवाणंदा-पदं
ऋषभदत्त-देवानन्दा-पदम् १३७. तेणं कालेणं तेणं समएणं माहण- तस्मिन् काले तस्मिन् समये माहनकुण्डग्रामं कुंडग्गामे नयरे होत्था-वण्णओ। बहु- नगरम् आसीत्-वर्णकः बहुशालकं चैत्यम्सालए चेइए-वण्णओ। तत्थ णं माहण- वर्णकः। तत्र माहन-कुण्डग्रामे नगरे ऋषभकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नामं माहणे । दत्तः नाम माहनः परिवसति-आढ्यः दीप्तः परि-वसइ-अड्ढे दित्ते वित्ते जाव बहुज- वित्तः यावत् बहुजनस्य अपरिभूतः ऋग्वेदणस्स अपरिभूए रिव्वेद-जजुव्वेद- यजुर्वेद-सामवेद-अथर्ववेद-इतिहासपंचसामवेद · अथव्वणवेद - इतिहास- मानां निघण्टुषष्ठानां-चतुर्णां वेदानां साङ्गो- पंचमाणं निघंदुछट्ठाणं-चउण्हं वेदाणं । पाङ्गानां सरहस्यानां सारकः धारकः पारगः संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए धारए षडङ्गविद् षष्ठितन्त्रविशारदः, संख्याने पारए सडंगवी सद्वितंतविसारए, संखाणे । शिक्षाकल्पे व्याकरणे छन्दे निरुते ज्यौतिसिक्खा-कपे वागरणे छंदे निरुत्ते षायणे, अन्येषु च बहषु ब्राह्मण्यकेषु नयेषु जोति-सामयणे, अण्णेसु य बहसु सुपरिनिष्ठितः श्रमणोपासकः अभिगत- बंभण्ण-एसु नयेसु सुपरिनिट्ठिए समणो- जीवाजीवः उपलब्धपुण्यपापः यावत् यथावासए अभिगयजीवाजीवे उवलद्ध- परिगृहीतैः तपःकर्मभिः आत्मानं भावयन् पुण्णपावे जाव अहापरिग्गहिएहिं तवो- विहरति। तस्य ऋषभदत्तस्य माहनस्य देवाकम्मेहि अप्पाणं भावे-माणे विहरइ। नन्दा नाम माहनी आसीत्-सुकुमारपाणितस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स पादाः यावत् प्रियदर्शना सुरूपा श्रमणोदेवाणंदा नाम माहणी होत्था- पासिका अभिगतजीवाजीवा उपलब्धपुण्यसुकुमालपाणिपाया जाव पियदंसणा पापा यावत् यथापरिगृहीतैः तपःकर्मभिः सुरूवा समणोवासिया अभिगय आत्मानं भावयती विहरति। जीवाजीवा उवलद्धपुण्ण-पावा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणी विहरइ॥
ऋषभदत्त देवानंदा-पद १३७. 'उस काल उस समय ब्राह्मणकुंडग्राम नामक नगर था-वर्णक। बहुशालक चैत्य-वर्णक। उस ब्राह्मणकुंडग्राम नगर में ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता है-वह संपन्न, दीप्तिमान और विश्रुत है यावत् बहूजन के द्वारा अपरिभवनीय है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद-ये चार वेद, पांचवां इतिहास, छठा निघण्टु इनका सांगोपांग रहस्य सहित सारक (प्रवर्तक) धारक और पारगामी है। वह छह अंगों का वेत्ता, षष्टितंत्र का विशारद, संख्यान, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष शास्त्र, अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी नयों में निष्णात है। वह श्रमणोपासक जीव-अजीव को जानने वाला, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाला, यावत् यथा परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रहा है। उस ऋषभदत्त ब्राह्मण के देवानंदा नाम की ब्राह्मणी थी-सुकुमाल हाथ-पैर वाली यावत् प्रियदर्शिनी, सुरूप श्रमणोपासिका, जीव अजीव को जानने वाली, पुण्य पाप का मर्म समझने वाली यावत् यथा परीगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए रह रही है।
भाष्य
१.सूत्र-१३७
इस सूत्र में दो बिन्दु विमर्शनीय हैं। क्या ऋषभदत्त ब्राह्मण पहले ब्राह्मण नय का पारगामी विद्वान था फिर बाद में श्रमणोपासक, श्रमणनय का अनुयायी बना? प्रथम वर्णन ब्राह्मण - नय का है। अभिगयजीवाजीवे-यह वर्णन श्रमण-नय का है। जैसे गौतम आदि
ग्यारह गणधर पहले ब्राह्मण-नय के पारंगत थे, फिर महावीर के शिष्य बने।
दूसरा विमर्शनीय बिन्दु यह है कि आगम रचना में एक शैलीगत वर्णन होता है। जहां भी ब्राह्मण परंपरा में निष्ठा रखने वाले व्यक्ति का वर्णन है, वहां ऋग्वेद से लेकर 'जोतिसामयणे' तक का पाठ
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भगवई
श.९: उ. ३३ : सू. १३८-१४०
उल्लिखित किया जाता है।
प्रस्तुत प्रकरण में संभावना की जा सकती है कि ऋषभदत्त पहले ब्राह्मण परंपरा का अनुयायी था फिर वह श्रमण परंपरा का
अनुगामी बना।
द्रष्टव्य भगवती २/२४ का भाष्य |
१३८. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी १३८. उस काल उस समय स्वामी आए। समोसढे। परिसा पज्जु-वासइ॥ समवसृतः परिषद् पर्युपास्ते।
परिषद् ने पर्युपासना की।
१३९. तए णं से उसभदत्ते माहणे इमीसे ततः सः ऋषभदत्तः माहनः अस्यां कथायां १३९. 'वह ऋषभदत्त ब्राह्मण इस कथा की
कहाए लद्धडे समाणे हट्ठतुट्ठचित्त- लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः जानकारी प्राप्त कर हृष्ट-तुष्ट चित्त माणदिए णदिए पीइमणे परमसो- नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन मणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए। हर्षवश-विसर्पद्मानहृदयः यत्रैव देवानन्दा वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव माहनी तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य विकस्वर हृदय वाला हो गया। जहां उवागच्छति, उवागच्छित्ता देवाणंदं देवानन्दां माहनी एवम् अवादीत्-एवं खलु। देवानंदा ब्राह्मणी है वहां आता है, आकर माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवानुप्रिये! श्रमणः भगवान् महावीरः देवानंदा ब्राह्मणी से इस प्रकार कहता देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे आदिकरः यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी है-देवानुप्रिये! श्रमण भगवान महावीर आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी आकाशगतेन चक्रेण यावत् सुखं-सुखेन आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरन् बहशालके चैत्ये यथा प्रतिरूपं आकाशगत धर्मचक्र से शोभित यावत् विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूवं अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं सुखपूर्वक विहार करते हुए बहुशालक
ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा भावयन् विहरति। तत् महत्फलं खलु चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति अप्पाणं भावेमाणे विहरइ।
देवानुप्रिये! तथारूपाणां अर्हतां भगवतां लेकर संयम और तप से अपने आपको तं महप्फलं खलु देवाणुप्पिए! तहारूवाणं नामगोत्रस्यापि श्रवणं, किमङ्ग पुनः भावित करते हुए रह रहे हैं। अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि अभिगमन-वन्दन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन- देवानुप्रिये! ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण- पर्युपासनम् ?
गोत्र का श्रवण भी महान् फलदायक है फिर वंदण-नमसणपडिपुच्छण . पज्जु । एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रति-पृच्छा वासणयाए? एगस्स वि आरियस्स श्रवणं, किमङ्ग पुनः विपुलस्य अर्थस्य और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक धम्मियस्स सुवय-णस्स सवणयाए, ग्रहणम्?
भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान् किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स तत् गच्छामः देवानुप्रिये! श्रमणं भगवन्तं फलदायक है फिर विपुल अर्थ-ग्रहण का गहणयाए? तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए! महावीरं वन्दामहे नमस्यामः सत्कारयामः कहना ही क्या? समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं इसलिए देवानुप्रिये! हम चलें, श्रमण सक्कारेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं पर्युपास्महे। एतन् नः प्रेत्यमेव इहमेव च भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार करें, देवयं चेइयं पज्जुवासमो। एयं णे इहभवे हिताय शुभाय क्षमाय निःश्रेयसाय सत्कार-सम्मान करें, भगवान कल्याणय परभवे य हियाए सुहाए खमाए आनुगामिकत्वाय भविष्यति।
कारी, मंगल, देव और प्रशस्त चित्त वाले निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ॥
हैं। हम उनकी पर्युपासना करें। यह हमारे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के
लिए होगा।
भाष्य १.सूत्र-१३९
गया है। इस पाठ-समूह में छत्र, चामर, सिंहासन और धर्मध्वज का आगासगएणं चक्केणं यह पाठ-समूह औपपातिक से लिया वर्णन है। यह मूल भगवती का प्रतीत नहीं होता। १४०. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा माहनी ऋषभदत्तेन १४०. देवानंदा ब्राह्मणी ऋषभदत्त ब्राह्मण के उसभदत्तेण माहणेणं एवं वुत्ता समाणी माहनेन एवम् उक्ता सती हृष्टतुष्टचित्ता यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली हट्टतुट्ठ-चित्तमाणंदिया णंदिया पीइमणा आनन्दिता नन्दिता प्रीतिमना परमसौम- आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली १. (क) भ.२.२४॥
(ग) वही १५/१५। (ख) वही. ११ १८६।
२.ओवा. सृ.१९॥
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १४०,१४१
परमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्पमाहिया करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु उसभदत्तस्स माहणस्स एयम विणणं पडि - सुणेइ ॥
१४९. तए णं से उसभदत्ते माहणे कोडुंबियपुरिसे सहावेs, सद्दावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणु - प्पिया ! लहुकरणजुत्त- जोइय-सम खुवालिहाण - समलिहियसिंगेहिं, जंबूणयामयकलावजुत्तपतिविसिद्धेहिं, रययामयघंटासुत्तरज्जुयपवर कंचणनत्थपग्गहोग्गाहियएहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं, पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुग-जोत्त रज्जुयजुग पसत्थसुविर - चियनिमियं पवरलक्खणोववेयं धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एत-माणत्तियं पच्चप्पिणह ।।
१. सूत्र - १४१ शब्द-विमर्श
• खुर-खुर
बलियाण- पूंछ ।
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२७२
नस्थिता हर्षवशविसर्पद्मानहृदया करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा ऋषभदत्तस्य माहनस्य एतमर्थं विनयेन प्रतिशृणोति ।
बहुकरण जुत्त जोइय-यह पाठ भगवती और ज्ञातधर्मकथा' में सदृश है। अभयदेवसूरि ने भगवती वृत्ति में लहुकरण जुत्त का अर्थ शीघ्र क्रिया करने में दक्षता से युक्त तथा जोइय का अर्थ यौगिक-प्रशस्त योग वाला किया है। ज्ञातधर्मकथा की वृत्ति में उन्होंने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है - लघुकरण युक्त-शीघ्र क्रिया करने में दक्षता से युक्त पुरुष के द्वारा योजित यानप्रवर-यंत्र यूप आदि से व्यवस्थित। * यह प्रवरगोणजुवाणय का विशेषण है इसलिए प्रसंग के आधार पर इसका अर्थ- शीघ्र गति क्रिया की दक्षता से युक्त होने के कारण वे रथ में जोते गए हैं-होना चाहिए।
प्रवरकाञ्चन
ततः सः ऋषभदत्तः माहनः कौटुम्बिक - पुरुषान् शब्दयति शब्दयित्वा एवममादीत्क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! लघुकरणयुक्तयौगिक- समखुरबालधान-समलिखितशृङ्गैः जाम्बूनदमय-कलापयुक्त प्रतिविशिष्टैः रजतमयघण्टा - सूत्ररज्जुक 'नत्था' प्रग्रहगुहीतैः नीलोत्पलकृत 'आमेलएहिं' प्रवरगोयुवभिः नानामणिरत्नघण्टिकाजाल - परिगतं सुजातयुग-योक्त्ररज्जुकयुग प्रशस्तसुविरचितनिर्मितं प्रवरलक्षणोपपेतं धार्मिक यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थपयत, उपस्थाप्य माम् एतामाझसिकां प्रत्यर्पयत ।
भाष्य
१. नाया. १ / ३ / १०, १८ / ५२ ।
२. भ. वृ. ९ / १४१ -लघुकरणं- शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्तौ योगिको च प्रशस्तयोगवन्नी प्रशस्तसदृशरूपत्वाद्यौ तौ तथा ।
भगवई
परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। वह दोनों हथेलियों से निष्पन्न सम्पुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर ऋषभदत्त ब्राह्मण के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार करती है।
• सम लिहियसिंग - शस्त्र के द्वारा बाहर की चमड़ी का अपनयन किया गया है।
१४१. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो ! शीघ्र गति - क्रिया की दक्षता से युक्त, समान खुर और पूंछ वाले, समान रूप से उल्लिखित सींग वाले, स्वर्णमय कलाप से युक्त, प्रतिविशिष्ट-प्रधान रजतमय घण्टा वाले, धागे की डोरी तथा प्रवर कंचनमय नथिनी की डोरी से बंधे हुए, नील उत्पल के सेहरे वाले, प्रवर तरुण बैल जिसमें जोते गए हैं, जिस पर नाना मणि, रत्न और घंटिका जाल वाली झूल डाली हुई है, श्रेष्ठ काठ की जुआ और जोत (जूए को बैल की गर्दन से जोतने वाली रस्सी) रज्जुयुग्म प्रशस्त, सुविरचित और निर्मित है, प्रवर लक्षण से उपेत है वैसे धार्मिक यानप्रवर को तैयार कर शीघ्र उपस्थित करो। उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
• जंबूनदमय कलाप - स्वर्णमय कलाप, कण्ठाभरण । • पइविसिट्ठ-प्रधान ।
• रयणमय घंटा-चांदी का घंटा।
• पग्गह-लगाम
• ओग्गहिय-बद्ध
• सुत्त रज्जुय - रूई से बनी हुई डोरी ।
• नत्थ - नासिका रज्जु
• आसेलय- सेहरा
• घंटिया जाल - घंटिका युक्त जाल
• जुग-जूआ
३. ज्ञाता वृ. प. ९९- लघुकरणं गमनादिका शीघ्रक्रियार्थः दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ताः ये पुरुषास्तैर्यो ।
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भगवई
२७३ १४२. तए णं ते कोडुबियपुरिसा उसभ- ततः कौटुम्बिकपुरुषाः ऋषभदत्तेन माहनेन दत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा एवम् उक्ता सन्तः हृष्टतुष्टचित्ताः आन- हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया शंदिया पीइमणा न्दिताः नन्दिताः प्रीतिमानसः परमसौमनपरमसोमणस्सिया हरिसवसविसप्प- स्थिताः हर्षवशविसर्पमान-हृदयाः करमाणहियया करयलपरिग्गहियं दसनहं तलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं अञ्जलिं कृत्वा एवं स्वामिन्! तथेति आज्ञया सामी! तहत्ताणाए विणएणं वयणं विनयेन वचनं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य, पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव क्षिप्रमेव लघुकरणयुक्तं यावत् धार्मिक लहुकरणजुत्त जाव धम्मियं जाणप्पवरं यानप्रवरं युक्तमेव उपस्थाप्य तम् जुत्तामेव उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं आज्ञाप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति। पच्चप्पिणंति॥
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४२-१४५ १४२. वे कौटुम्बिक पुरुष ऋषभदत्त ब्राह्मण के यह कहने पर हृष्ट-तुष्ट चित्त वाले, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाले, परमसौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाले हो गए। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'स्वामी! आपकी आज्ञा के अनुसार ऐसा ही होगा', यह कहकर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर शीघ्र गतिक्रिया की दक्षता से युक्त यावत् धार्मिक यानप्रवर को शीघ्र उपस्थित कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित करते हैं।
१४३. तए णं से उसभदत्ते माहणे ण्हाए ततः सः ऋषभदत्तः माहनः स्नातः यावत् १४३. ऋषभदत्त ब्राह्मण ने स्नान यावत् जाव अप्पमहग्याभरणालं-कियसरीरे अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरः स्वस्मात् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों साओ गिहाओ पडिणिक्खमति, पडि- गृहात् प्रतिनिष्क्रामति प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव से शरीर को अलंकृत किया। (इस प्रकार णिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण- बाहिरिका उपस्थानशाला यत्रैव धार्मिकः सज्जित होकर) अपने घर से निकले. घर साला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव यानप्रवरः तत्रैव उपागच्छति उपागत्य से निकलकर जहां बाहरी उपस्थानशाला उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियं धार्मिकं यानप्रवरम् आरूढः।
है, जहां धार्मिक यानप्रवर है वहां आए। जाणप्पवरं दुख्ढे॥
वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गए।
१४४. तए णं सा देवाणंदा माहणी ण्हाया ततः सा देवानन्दा माहनी स्नाता यावत् १४४. 'देवानंदा ब्राह्मणी ने स्नान यावत् जाव अप्पमहग्घाभरणालं-कियसरीरा अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरा बहुभिः ___ अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभूषणों बहूहिं खुज्जाहिं, चिलातियाहिं जाव कुब्जाभिः किरातिकाभिः यावत् चेटिका- से शरीर को अलंकृत किया। बहुत चेडियाचक्कवाल - वरिसधर - थेर - चक्रवाल-वर्षधर-स्थविरकञ्चकीय-महत्तरक- कुब्जा, किरात देशवासिनी यावत् चेटिका कंचुइज्ज . महत्तरगवंदपरिक्खित्ता वृन्दपरिक्षिप्ता। अन्तःपुरात् निर्गच्छति, समूह, वर्षधर (कृतनपुंसकपुरुष) स्थविर, अंतेउराओ निग्गच्छति, निग्गच्छित्ता निर्गत्य यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला कंचुकी जनों, प्रतिहार गण और महत्तरक जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव यत्रैव धार्मिकः यानप्रवरः तत्रैव गण के वृन्द से घिरी हुई अन्तःपुर से धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छति, उपागत्य धार्मिकं यानप्रवरम् निकली। निकलकर जहां बाहरी उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवर आरूढा।
उपस्थानशाला है, जहां धार्मिक यानप्रवर दुरुढा॥
है, वहां आई। वहां आकर धार्मिक यानप्रवर पर आरूढ़ हो गई।
भाष्य
१. सूत्र-१४४ शब्द-विमर्श
वषहर-अन्तःपुर का रक्षक।
घेरकंचुइ-अंतःपुर के प्रयोजन का निवेदन करने वाला, प्रतिहारी।
महत्तरग-अन्तःपुर के कार्य का चिंतन करने वाला।
१४५. तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणं- ततः सः ऋषभदत्तः माहनः देवानन्दया १४५. 'ऋषभदत्त ब्राह्मण देवानंदा ब्राह्मणी दाए माहणीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं माहन्या सार्धं धार्मिक यानप्रवरं आरूढः सन् के साथ अपने परिवार से परिवृत होकर दुरुढे समाणे नियग-परियालसंपरिखुडे निजकपरिवारसंपरिवृतः माहनकुण्डग्रामं ब्राह्मणकुंडग्राम नगर के बीचोबीच
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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४५,१४६ माहणकुंडग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थकरातिसए पासइ, पासित्ता धम्मियं जाण-प्पवरं ठवेइ, ठवेत्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ, पच्चोरु-हित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि- गच्छति, (तं जहा-१. सच्चित्ता णं दव्वाणं विओसरणयाए २. अचित्ताणं दव्वाणं अविओसरण-याए ३. एगसाडिएणं उत्तरासंग-करणेणं ४. चक्खुप्फासे अंजलि-प्पगहेणं ५. मणसो एगत्ती-करणेणं) जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ॥
२७४ नगरं मध्यंमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव बहुशालके चैत्ये तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य छत्रादीन् तीर्थंकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा धार्मिक यानप्रवरं स्थापयति, स्थापयित्वा धार्मिकात् यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेन अभिगमेन अभिगच्छति (तद् यथा-१. सचित्तानां द्रव्याणां व्युत्सर्जनेन २. अचित्तानां द्रव्याणां अव्युत्सर्जनेन ३. एकशाटिकेन उत्तरासंगकरणेण ४. चक्षुस्स्पर्श अञ्जलिप्रग्रहेण ५. मनसः एकत्वीकरणेण) यत्रैव श्रमणं भगवन्तं महावीरं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपास्ते।
निर्गमन करते हैं। निर्गमन कर जहां बहुशालक चैत्य है वहां आते हैं, वहां आकर तीर्थंकर के छत्र आदि अतिशयों को देखते हैं। देखकर धार्मिक यानप्रवर को स्थापित करते हैं, स्थापित कर धार्मिक यानप्रवर से उतरते हैं। उतरकर पांच प्रकार के अभिगमों से श्रमण भगवान महावीर के पास जाते हैं, (जैसे-१. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना ३. एक शाटक वाला उत्तरासंग करना ४. दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आते हैं। वहां आकर दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करते हैं, प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करते हैं, वंदन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना करते हैं।
भाष्य
१. सूत्र-१४५
अभिगम के लिए द्रष्टव्य भगवती २/९७ का भाष्य।
१४६. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानंदा माहनी धार्मिकात् धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चो- यानप्रवरात् प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य बहुभिः रुहति पच्चोरुहित्ता बहहिं खुज्जाहिं कब्जाभिः यावत् चेटिकाचक्रवाल-वर्षधर- जाव चेडियाचक्कवाल-वरिसधर- स्थविरकंचुकीय-महत्तरकवृन्दपरिक्षिप्ता थेरकंचइज्ज - महत्तरगवंदपरि-क्खित्ता श्रमण भगवन्तं महावीरं पञ्चविधेन अभिसमणं भगवं महावीरं पंचविहेणं गमेन अभिगच्छति (तद्यथा-१.सचित्तानां अभिगमेणं अभिगच्छइ, (तं जहा-१.
द्रव्याणां व्युत्सर्जनन २. अचित्तानां सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए २.
द्रव्याणाम् अव्युत्सर्जनेन ३. विनयावनतया अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाए ३.
गात्रयष्ट्या ४. चक्षुःस्पर्श अञ्जलिप्रग्रहेण विण-योणयाए गायलट्ठीए ४. चक्खु
५. मनसः एकत्वीभावकरणेण) यत्रैव प्फासे अंजलिपग्गहेणं ५. मणस्स
श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागएगत्तीभावकरणेणं) जेणेव समणे भगवं
च्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं महावीरे तेणेव उवागच्छइ,
त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर
वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ,
ऋषभदत्तं माहनं पुरतः कृत्वा स्थिता चैव करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता
सपरिवारा शुश्रूषमाना नमस्यती अभिमुखा उसभदत्तं माहणं पुरओ कट्ट ठिया चेव
विनयेन प्राञ्जलिकता पर्युपासते। सपरिवारा सुस्सू-समाणी नमसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिकडा पन्जुवासइ॥
१४६. देवानंदा ब्राह्मणी धार्मिक यानप्रवर से उतरती है। उतरकर बहुत कुब्जा , यावत् चेटिकासमूह, वर्षधर, स्थविर, कंचुकीजनों, महत्तरक गण के वृन्द से घिरी हुई पांच प्रकार के अभिगमों से श्रमण भगवान् महावीर के पास जाती है। (जैसे-१. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना २. अचित्त द्रव्यों को छोड़ना ३. शरीरयष्टि को विनयावनत करना ४. दृष्टिपात होते ही बद्धांजलि होना ५. मन को एकाग्र करना) जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आती है। आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करती है। प्रदक्षिणा कर वंदन-नमस्कार करती है, वंदननमस्कार कर ऋषभदत्त ब्राह्मण को आगे कर, स्थित हो परिवार सहित शुश्रूषा और नमस्कार करती हुई सम्मुख रहकर विनयपूर्वक बद्धांजलि पर्युपासना कर रही है।
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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १४७,१४८ १४७. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा माहनी आगतप्रस्नया १४७. उस समय देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों आगयपण्हया पप्पुयलोयणा संवरिय- प्रप्लुतलोचना संवृतवलयबाहा कञ्चुक- से दूध की धार बह चली और नेत्र जल वलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धारा- परिक्षिप्सका धाराहतकदम्बकम् इव से भीग गए। हर्षातिरेक से स्थूल होती यकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समुच्छ्रितरोमकूपा श्रमणं भगवन्तं अनिमि- हुई भुजा के लिए बाजूबंध अवरोध बन समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए षया दृष्ट्या पश्यन्ती-पश्यन्ती तिष्ठति। गए, कंचुकी विस्तृत हो गई, मेघ की दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ॥
धारा से आहत कदम्बपुष्प की भांति रोमकूप समुच्छवसित हो गए। वह श्रमण भगवान महावीर को अनिमेष दृष्टि से देख रही है।
१४८. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि! भगवान् गौतमः श्रमणं १४८. भंते! यह कहकर भगवान गौतम ने महावीरं बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा श्रमण भगवान महावीर को वंदनएवं वयासी-किं णं भंते! एसा देवाणंदा नमस्यित्वा एवम् अवादीत्-किं भदन्त! एषा नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर वे माहणी आगयपण्हया पप्पुयलोयणा । देवानन्दा माहनी आगतप्रस्नया प्रप्लुत- इस प्रकार बोले-भंते! क्या देवानंदा संव-रियवलयबाहा कंचुयपरिक्खि. लोचना संवृतवलयबाहा कञ्चुक- ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की धार बह त्तिया धाराहयकलंबगं पिव समूसविय- परिक्षिप्तिका धाराहतकदम्बकम् इव चली? नेत्र जल से भीग गए? हर्षातिरेक रोमकूवा देवाणुप्पियं अणिमिसाए समुच्छ्रितरोमकूपा देवानुप्रियं अनिमिषया से स्थूल होती हुई भुजा के लिए बाजूबंध दिट्ठीए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ? दृष्ट्या पश्यन्ती पश्यन्ती तिष्ठति? अवरोध बन गए? कंचुकी विस्तृत हो
गई? मेघ की धारा से आहत कदम्बपुष्प की भांति रोमकूप उच्छवसित हो गए? वह देवानुप्रिय को अनिमेष दृष्टि से देख
रही है? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं अयि गौतमः! श्रमणः भगवान महावीरः हे गौतम! श्रमण भगवान महावीर ने गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! श्रमणं भगवन्तं एवं अवादीत्-एवं खलु भगवान गौतम से इस प्रकार कहादेवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहण्णं गौतमदेवानन्दा माहनी मम अम्बा, अहं । गौतम! देवानंदा ब्राह्मणी मेरी माता है, मैं देवाणंदाए माह-णीए अत्तए। तण्णं एसा देवानन्दायाः माहन्याः आत्मजः। 'तत् एषा' देवानंदा ब्राह्मणी का आत्मज हूं। इसलिए देवाणंदा माहणी तेणं पुव्वपुत्त- देवानंदा माहनी तेन पूर्वपुत्रस्नेहरागेन उस पूर्व पुत्र-स्नेह राग के कारण सिणेहरागेणं आगयपण्हया पप्पुय. आगतप्रस्नया प्रप्लुतलोचना संवृत देवानंदा ब्राह्मणी के स्तनों से दूध की लोयणा, संवरियवलयबाहा कंचुय- बलयबाहा कञ्चुकपरिक्षिप्तिका धाराहत- धार बह चली। नेत्र जल से भींग गए। परिक्खित्तिया धाराहयकलंबगं पिव कदम्बकम् इव समुच्छितरोमकूपा मम हर्षातिरेक से स्थूल होती हुई भुजा के समूसविय-रोमकूवा ममं अणिमिसाए अनिमिषया दृष्ट्या पश्यन्ती पश्यन्ती लिए बाजूबंध अवरोध बन गए, कंचुकी दिट्ठए देहमाणी-देहमाणी चिट्ठइ॥ तिष्ठति।
विस्तृत हो गई। मेघ की धारा से आहत कदम्ब पुष्प की भांति रोमकूप उच्छवसित हो गए। वह मुझे अनिमेष दृष्टि से देख रही है।
भाष्य
१.सू. १४८
१. आत्मज हूं.......पूर्वपुत्र स्नेह राग के कारण अत्तयं.... पुव्वपुत्तसिणेहरागेणं भगवान महावीर बता रहे हैं-मैं देवानंदा का आत्मज हूं। पूर्व
पुत्र-स्नेह राग के कारण यह पाठ इस घटना का सूचक है-मेरा प्रथम गर्भाधान देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में हुआ था। गर्भ-संहरण के पश्चात् त्रिशला मेरी माता बनी।'
१. भ. वृ. ९/१४८-अत्तानि आत्मजः पुत्रः पुव्वपुनसिणेहाणुराएणं ति पूर्वः-प्रथमगर्भाधानकालसंभवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोनुरागः स पूर्वपत्रस्नेहानुरागस्नेन।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १४९
१४९. तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिप रिसाए मुणिपरिसाए जइप - रिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेगसयवंदपरियालाए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमियबलवीरियतेय माहप्प कंति - जुत्ते सारयनवत्थणिय महुरगंभीर कोंचणिघोस- दुंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए कंठे वट्टियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्तक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिणा सरेणं अर्द्धमागहाए भासाए भासइ-धम्मं परि कहेइ जाव परिसा पडिगया ।
२. सू० १/१६.१
३. (क) म. वृ. ९ १४९ ।
१. सूत्र - १४९
प्रस्तुत सूत्र में भगवान महावीर की परिषद् का वर्णन किया गया है। उस परिषद् के चार विभागों का उल्लेख है
१. महर्षि परिषद् २. मुनि परिषद् ३. यति परिषद् ४. देव परिषद् । प्रत्येक परिषद् में अनेक सैकड़ों, अनेक सैकड़ों के वृन्द तथा अनेक सैकड़ों के वृन्द रूपी परिवार विद्यमान थे।
सूत्रकृतांग में मुनि के लिए श्रमण, माहण, भिक्षु और निर्ग्रथ-इन चार शब्दों का प्रयोग किया गया है। उनमें ऋषि, मुनि और यति का प्रयोग नहीं है।
(ख) औप. वृ. प. १४६,१४७।
२७६
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः ऋषभदत्तस्य माहनस्य देवानंदायाः महान्याः तस्यां च महामहत्याम् ऋषिपरिषदि यतिपरिषदि
अभयदेव सूरि ने ऋषि का अर्थ द्रष्टा किया है। यास्क - निरुक्त में भी ऋषि का अर्थ द्रष्टा किया गया है।" सूत्रकृतांग में भगवान १. औप. वृ. प. १४७- अणेगसयवंदाए त्ति अनेकानि शत प्रमाणानि वृन्दानि यस्यां सा तथा तस्याः अणेगसयबंदपरियालाए अनेन शतमानानि यानि वृन्दानि तानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्याः ।
2.
५. सू. १/६/२२॥
अनेकशतायाम् अनेकशतवृन्दायाम् अनेकशतवृन्दपरिवारे ओघबलः अतिबलः महाबलः अपरिमितिबल-वीर्य तेजसमाहात्म्य - कान्तियुक्तः शारद-नवस्तनितमधुरगम्भीर - क्रौञ्चनिर्घोष- दुन्दुभिस्वरः उरसिविस्तृतया कण्ठे वर्तितया शिरसि समाकीर्णया अगरलया अमन्मनया सुव्यक्ताक्षरया - सन्निपातिकया पूर्णरक्तया सर्वभाषानुगामिन्या सरस्वत्या योजन निर्धारिणा स्वरेण मागध्यां भाषायां भाषतेधर्मं परिकथयति यावत् परिषद् प्रतिगता ।
भाष्य
भगवई
१४९. श्रमण भगवान महावीर ने ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानंदा ब्राह्मणी को उस विशाल परिषद् में धर्म का प्रतिबोध दिया, जिस परिषद् में ऋषि परिषद्, मुनि परिषद्, यति परिषद् और देवपरिषद् का समावेश है। उन परिषदों में सैकड़ों सैकड़ों मनुष्यों के समूह बैठे हुए थे। भगवान महावीर का बल ओघबल, अतिबल और महाबल-इन तीन रूपों में प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नव गर्जन, क्रौंच के निर्घोष तथा दुंदुभि की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म कथन के समय भगवान की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गुनगुनाहट और अस्पष्टता से रहित थी। उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वर- कला से पूर्ण और ज्ञेय राग से अनुरक्त थी। वह सर्व भाषानुगामिनी - स्वतः ही सब भाषाओं में अनुदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में अर्द्धमागधी भाषा में बोले । प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई।
महावीर को ऋषियों में श्रेष्ठ कहा गया है। उत्तराध्ययन में भी ऋषि शब्द का अनेक बार प्रयोग हुआ है ।"
मुनि शब्द बहुत बार प्रयुक्त है। इसका अर्थ है ज्ञानी- नाणेण य मुणी हो ।' अभयदेवसूरि ने मुनि का अर्थ वाचंयम किया है । " अभयदेव सूरि ने यति का अर्थ धर्म क्रिया में प्रयतमान किया है। यति शब्द यम धातु से निष्पन्न है इसलिए इसका अर्थ संयमी होना चाहिए। ओघ बल आदि पद-समूह भगवान महावीर के विशेषण के रूप में प्रयुक्त है।
ओघबल - ओघ का एक अर्थ है अविच्छेद। जिसका बल प्रवाह रूप में अविच्छिन्न रहता है, वह व्यक्ति ओघबल कहलाता है। अभयदेवसूरि ने ओघबल का अर्थ अव्यवच्छिन्न बल किया है। " ६. उत्तर. १२/४४, ४७।
७. उत्तर. २५/३० /
८. (क) भ. वृ. ९ / ९४९ - मुनयो वाचंयमाः ।
(ख) औप. वृ. प. १४० मौनवत्साधूनां वाचंयमसाधूनामित्यर्थः ।
९. (क) भ. वृ. ९/१४९ - यतयस्तु धर्मक्रियासु प्रयतमानाः ।
(ख) औप वृ. प. १४७ यतन्ते चारित्रं प्रति प्रयता भवन्तीति यतयः । १०. वही. प. १४७- ओहबले ति अव्यवच्छिन्न बलः
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भगवई
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श.९ : उ. ३३ : सू. १५०
अतिशय बल-अतिशय बल वाला।' महाबल-प्रशस्त बल वाला।' अपरिमित बल-असीम बल वाला।'
अभयदेव सूरि ने बल का अर्थ शारीरिक प्राण और वीर्य का अर्थ जीव से उत्पन्न शक्ति किया है। प्रथम शतक में बतलाया गया है-वार्य शरीर से उत्पन्न होता है। इन दोनों भिन्न वक्तव्यों का नय दृष्टि से समाधान किया जा सकता है। वीर्य के दो प्रकार हैं-लब्धिवीर्य और करणवीर्य। लब्धिवीर्य अन्तराय कर्म का क्षायोपशमिक भाव है, वह जीव से उत्पन्न शक्ति है। करणवीर्य शरीर नामकर्म का औदयिक भाव है, वह शरीर से उत्पन्न शक्ति है।
तेज-दीप्ति। माहात्म्य-महानता। कांति-कमनीयता।
शारदनवस्तनित-प्रस्तुत आलापक में भगवान महावीर की धर्म देशना का निरूपण है। उसमें स्वर, सरस्वती, भाषा--इन तीन तत्त्वों का प्रतिपादन है। भगवान का स्वर शरद् ऋतु के मेघ, कोंच के निर्घोष और दुन्दुभि के स्वर के समान मधुर और गंभीर था।
उनकी वाणी (सरस्वती) वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और मूर्धा-मुख के भीतर का तालु और कंठ के बीच का वह भाग जो मस्तक या शीर्षस्थान के ठीक नीचे पड़ता है और जहां से मूर्धन्य वर्गों का उच्चारण होता है-में संकीर्ण थी।
संस्कृत व्याकरण में वर्गों के स्थान और आस्य-प्रयत्न बतलाए
से प्रयत्न-प्रेरित प्राण नाम का वायु ऊपर की ओर जाता है। बह उर आदि स्थानों में से किसी स्थान पर चोट करता है. उससे ध्वनि उत्पन्न होती है।
संगीतसमयसार में स्वर आदि की उत्पत्ति के संक्षेप में तीन ही स्थान बतलाए गए हैं-हृदय, कंठ और सिर।
प्रतीत होता है-सूत्रकार ने संगीत विधि का उपयोग कर इन तीन स्थानों का निर्देश किया है।
वृत्तिकार ने वक्ष को विस्तीर्ण, कंठ विवर को वर्तुल और मूर्धा को संकीर्ण बतलाया है।"
अगरल-सुविभक्त अक्षरवाली। अमम्मणा स्पष्ट उच्चारण वाली।
सुव्वत्तक्खरसण्णिवाइया-सुव्यक्त अक्षर सन्निपात (वर्ण संयोग) वाली।
पुण्णा-पूर्णा, स्वर कला से पूर्ण रत्ता-गेय राग से अनुरक्त।
सर्वभाषानुगामिनी-औपपातिक में बतलाया गया है कि तीर्थंकर की वाणी अनेक भाषाओं में परिणत हो जाती है।"
आवश्यक नियुक्ति और चूर्णि के अनुसार तीर्थकर की वाणी को सुनने वाले सब लोग अपनी-अपनी भाषा में सुनते-समझते हैं। इस आशय का एक संस्कृत श्लोक प्रसिद्ध है
देवा देवी नरा नारी शबराश्चापि शाबरीम। तिर्यंचोऽपि हि तैरिश्चिं भेदिरे भगवदगिरम ।
जोयण नीहारिणा तीर्थंकर की वाणी एक योजन तक सुनाई देती है। यह ज्योतिष अतिशयों में से एक अतिशय है।
इस प्रसंग में ध्वनि की उत्पनि बतलाई गई है। नाभिप्रदेश
१५०. तए णं से उसभदत्ते माहणे ततः सः ऋषभदत्तः माहनः श्रमणस्य १५०. ऋषभदन ब्राह्मण श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्टे उठाए निशम्य हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, कर हृष्ट-तुष्ट होकर उठने की मुद्रा में उद्वेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीर उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः उठता है, उठकर श्रमण भगवान महावीर तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा करता है. प्रदक्षिणा कर वंदनएवं वदासी-एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! एवमवादीत्-एवमेतद् भदन्त! तथैतद् नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर
अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! भदन्त ! अवितथमेद भदन्त ! असंदिग्धमेतद् वह इस प्रकार बोला-भंते! यह ऐसा ही १. वही. प. १४७- अइबल ति अनिशय बलः ।
स्थानाभिवानाद ध्वनिरुत्पद्यने आकाशे. सा वर्णश्रुति, स वर्णरयात्मलाभः । २. वही. प.१४०-महब्बलेनि प्रशस्तबलः।
०.. संगीतसार १२.१० ३. वहीं, प. १४०-अपरिमितानि अनंतानि यानि बलादीनि।
स्वरादीनां उत्पनिहत्त्वात् स्थानम। 2. औप. वृ. प.१४१-बल-शरीरः प्राण: वीर्य जीवप्रभवं।
श्रीणि स्थानानि हत्कंठशिरांसीति समासतः ।। ५. भ. ११४४
१०. ऑप. व. प. १४०-उरे वित्थडाए-उरसि विस्ततया उरसो विस्तीर्णत्वात. ६.भ.१३०६-३८२ का भाष्य।
सरस्वत्येति योगः 'कंठेश्वट्टियाए गलविवरस्य बनन्वात् , 'सिरे हेम प्रकाश महाव्याकरण, पूर्वाधं, गाथा २१,२५
समाइण्णाः मूर्ध्नि संकीर्णया आयामस्य मूर्ना स्युलितत्वात। अष्टी स्थनानि वर्णानामरः कण्ठः शिरस्तथा।
११. ओव, सू.७१-सावियणं अन्दमागहा भासा तेसि सव्यसि आरियमणारिया जिहा मूलं च दंताश्च. नासिकाष्टी च नाल च।
णं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमड। आरय प्रयत्नाः स्पृष्टाद्याः विवाराद्यास्तु बाह्यकाः ।।
१२. श्री भिक्षु आगम विषय कोश पृ.-३०४ ८. हेम प्रकाश व्याकरण, पूर्वार्ध, गाथा २५ की वृत्ति-नाभि-प्रदेशात- १३. अभिधान चिन्तामणिः १/५८-५२.प्रयत्नप्रेरितः प्राणो नाम वायुरूद्धमाकामन उर:प्रभृतीनां स्थानानामन्यन
क्षेत्र स्थिनिर्योजनमात्रके पि. नृदेवतिर्यगजनकोटिकाटेः। मस्मिन स्थाने प्रयत्नेन विधार्यते स विधार्यमाणः स्थानमभिहन्ति, नस्मात्
वाणी नृनिर्यकसुरलोकभाषा, संवादिनी योजनगामिनी च।।
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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. १५०
२७८ इच्छियमेयं भंते! पडि-च्छियमेयं भंते! भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् इच्छिय-पडि-च्छियमेयं भंते! से जहेयं भदन्त! इष्टप्रतीष्ट-मेतद् भदन्त! तद् यथेदं तुब्भे वदह त्ति कट्ट उत्तरपुरत्थिमं यूयं वदथ इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिसिभागं अवक्कमति, अवक्क-मित्ता दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्राम्य स्वयमेव सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, आभरणमाल्यालंकारम् अवमुञ्चति, ओमुइत्ता सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, अवमुच्य स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे करोति, कृत्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आया-हिण- श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद्-आदीप्त: णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, भदन्त ! लोकः, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आलित्त-पलित्ते णं भंते! लोए जराए आदीस-प्रदीप्तः भदन्त! लोकः जरसा मरणेण य।
मरणेन च। अथ यथानामकः कश्चिद् से जहानामाए केइ गाहावई अगारंसि गाहावई अगारे ध्मायमाने यः सः तत्र झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ । भाण्डः भवति अल्पभारः मूल्यगुरुकः तं अप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए गृहीत्वा आत्मना एकान्तमन्तम् एगंतमंतं अवक्क-मइ। एस मे नित्थारिए अपक्रामति। एष मम निस्तारितः सन् समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए पश्चात् पुरा च हिताय सुखाय क्षमाय खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति। भविस्सइ।
एवमेव देवानुप्रिय! ममापि आत्मा एकः एवामेव देवाणुप्पिया! मज्झ वि आया भाण्डः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः मणामे एगे भंडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे । स्थेयान् वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः थेज्जे वेस्सासिए सम्मए बहुमए अणुमए अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः, मा शीतं, भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं, मा णं । मा उष्णं, मा क्षुधा, मा पिपासा, मा चौराः, उण्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं मा व्यालाः, मा दंशाः, मा मशकाः, मा चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं वाातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक-सान्निपातिकाः मसया, मा णं वाइय-पित्तिय- विविधाः रोगांतकाः परीषहोपसर्गाः सेंभियसन्निवाइय विविहा रोगायंका स्पृशन्तु इति कृत्वा एषः मम निस्तारितः परीसहोवसग्गा फुसंतु त्ति कट्ट एस मे सन् परलोकस्य हिताय, सुखाय, क्षमाय नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति तद् सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए इच्छामि देवानुप्रिय! स्वयमेव प्रव्राजितं भविस्सइ।
स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शैक्षापितं, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सयमेव स्वयमेव शिक्षापितं स्वयमेव आचार-गोचरं पव्वावियं सयमेव मुंडावियं, सयमेव विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रामात्रासेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव प्रत्ययं धर्ममाख्यातम्। आयारगोयरं विणय-वेणइय-चरणकरण - जायामाया . वत्तियं धम्ममाइक्खियं।
है, भंते! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है, भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है और भंते! यह इष्टप्रतीप्सित हैजैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर जाता है, जाकर स्वयं ही आभरण अलंकार उतारता है, उतार कर स्वयं ही पंचमुष्टि लोच करता है, लोच कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं, वहां आता है, आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर बंदन-नमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है) भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त हो रहा है। भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्त-प्रदीप्त हो रहा है। जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग जाने पर वह वहां जो अल्पभार वाला और बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं एकान्त स्थान में चला जाता है। (और सोचता है)-अग्नि से निकाला हुआ यह आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूखप्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, हिंस्र पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म और सन्निपात-जनित विविध प्रकार के रोग और आतंक, परीषह और उपसर्ग इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा, इसलिए देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा ही प्रव्रजित होना चाहता हूं, मैं
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भगवई
२७९
श. ९ : उ. ३३ : सू. १५१
आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय-वैनयिक-चरण-करण-यात्रा-मात्रामूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं।
भाष्य
१.सूत्र-१५०
द्रष्टव्य २/५२ का भाष्य। १५१. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः ऋषभदत्तं १५१. 'श्रमण भगवान महावीर ऋषभदत्त उसभदत्तं माहणं सयमेव पव्वावेइ, माहनं स्वयमेव प्रव्राजयति, स्वयमेव ब्राह्मण को स्वयं ही प्रवृजित करते हैं, स्वयं सयमेव मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, मुण्डयति, स्वयमेव शैक्षयति स्वयमेव ही मुंडित करते हैं, स्वयं ही शैक्ष बनाते हैं, सयमेव सिक्खावेइ, सयमेव आयार- शिक्षयति, स्वयमेव आचार-गोचरं विनय- स्वयं ही शिक्षित करते हैं और स्वयं ही गोयरं विणय-वेणइय-चरण-करण वैनयिक -चरण-करण-यात्रामात्रा-प्रत्ययं आचार-गोचर, विनय-वैनयिक-चरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ- धर्ममाख्याति-एवं देवानुप्रिय! गन्तव्यम्, करण-यात्रा-मात्रा-मूलक धर्म का आख्यान एवं-देवाणुप्पिया गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं स्थातव्यम्, एवं निषत्तव्यम्, एवं करते हैं-देवानुप्रिय! इस प्रकार चलना एवं निसीइयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं त्वकवर्तितव्यम्, एवं भोक्तव्यम्, एवं चाहिए, इस प्रकार ठहरना चाहिए, इस भुजियव्वं, एवं भासियव्वं एवं उट्ठाय- भाषितव्यम् एवं उत्थाय-उत्थाय प्राणेषु प्रकार बैठना चाहिए, इस प्रकार करवट उट्ठाय पाणेहिं भूएहिं जीवहिं सत्तेहिं भूतेषु जीवेषु सत्वेषु संयमेन संयतितव्यम्. लेनी चाहिए, इस प्रकार भोजन करना संजमेणं संजमियव्वं अस्सिं च णं अटे अस्मिन् च अर्थे न किञ्चिदपि प्रमादित- चाहिए, इस प्रकार बोलना चाहिए, इस णो किंचि वि पमाइयव्वं ।
प्रकार पूर्ण जागरूकता से प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों के प्रति संयम से रहना चाहिए। इस अर्थ में किंचित् भी प्रमाद नहीं करना
चाहिए। तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स ततः सः ऋषभदत्तः माहनः श्रमणस्य वह ऋषभदत्त ब्राह्मण श्रमण भगवान् भगवओ महावीरस्स इमं एयारूवं भगवतः महावीरस्य इमम् एतद्रूपं महावीर के इस प्रकार के धार्मिक उपदेश धम्मियं उवएसं सम्म संपडिवज्जइ जाव धार्मिकम् उपदेशं सम्यक् सम्प्रतिपद्यते को सम्यक प्रकार के स्वीकार करता है सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई यावत् सामायिकादिकानि एकादश अंगानि यावत सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहहिं चउत्थ- अधीते, अधीत्य बहुभिः चतुर्थ-षष्ठ- अध्ययन करता है। अध्ययन कर अनेक छट्ठट्ठम-दसम-दुवाल-सेहिं, मासद्ध- अष्टम-दशम- द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणैः चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम भक्त, मासखमणेहिं विचि-त्तेहिं तवोकम्मेहिं विचित्रैः तपः- कर्मभिः आत्मानं भावयन् दशम-भक्त, द्वादश-भक्त, अर्धमास और अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, मासक्षपण--इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, जोषति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन करता झूसेत्ता सढि भत्ताई अणसणाए छेदेइ, छिनत्ति, छित्वा यस्यार्थं क्रियते नग्नभावः । है। पालन कर एक मास की संलेखना से छेदेत्ता जस्सट्ठाए कीरति नग्गभावे जाव यावत् तमर्थम् आराधयति आराध्य चरमेषु अपने शरीर को कृश बना, अनशन के तमढें आराहेइ, आराहेत्ता चरमेहिं उच्छवास-निश्वासेषु सिद्धः बुद्धः मुक्तः द्वारा साठभक्त (भोजन के समय) का उस्सासनीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिवृतः सर्वदुःखप्रहीनः ।
छेदन करता है, छेदन कर जिस प्रयोजन से परिनिव्वुडे सव्वदुक्खप्पहीणे॥
नग्नभाव यावत् उस प्रयोजन की आराधना करता है। उसकी आराधना कर चरम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है।
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श.९: उ.३३ : सू. १५२-१५५
२८०
भगवई
भाष्य १. सूत्र-१५१
द्रष्टव्य भगवई २/५३ का भाष्य १५२. तए णं सा देवाणंदा माहणी ततः सा देवानन्दा महनी श्रमणस्य भगवतः १५२. देवानंदा ब्राह्मणी श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं महावीरस्य अन्तिक धर्मं श्रुत्वा निशम्य महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठा समणं हृष्टतुष्टा श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः कर, हृष्ट-तुष्ट होकर श्रमण भगवान भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते. महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन पयाहिणं करेड़, करेत्ता वंदइ नमसइ, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा बार प्रदक्षिणा करती है. प्रदक्षिणा कर वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं एवमवादीद्-एवमेतद् भदन्त! तथैतद् वंदन-नमस्कार करती है, वंदन-नमस्कार भंते! तहमेयं भंते! एवं जहा उसभदत्तो । भदन्त! एवं यथा ऋषभदत्तः तथैव यावत् कर वह इस प्रकार बोली-भंते! यह ऐसा तहेव जाव धम्ममाइ-क्खियं॥ धर्मः आचक्षितः।
ही है, भंते! यह तथा (संवादिता पूर्ण)- इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त ने कहा वैसे ही यावत् धर्म का आख्यान चाहती हूं।
१५३. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः देवानन्दा
देवाणंदं माहणिं सयमेव पव्वावेइ, माहनी स्वयमेव प्रव्राजयति, प्रव्राज्य पव्वावेत्ता सयमेव अज्जचंदणाए । स्वयमेव आर्यचन्दनायाः शिष्यात्वाय अज्जाए सीसिणित्ताए दलयइ॥ ददाति।
१५३. 'श्रमण भगवान महावीर देवानंदा ब्राह्मणी को स्वयं ही प्रव्रजित करते हैं, प्रव्रजित कर स्वयं ही आर्या चंदना की आर्या शिष्या के रूप में सौंप देते हैं।
१५४. तए णं सा अज्जचंदणा अज्जा ततः सा आर्यचन्दना आर्या देवानन्दा १५४. आर्या चंदना आर्या देवानंदा ब्राह्मणी देवाणंदं माहणिं सयमेव मुंडावेति, माहनीं स्वयमेव मुण्डयति स्वयमेव शैक्षयति। को स्वयं ही मुंडित करती हैं, स्वयं ही सयमेव सेहावेति। एवं जहेव उसभदत्तो एवं यथैव ऋषभदत्तः तथैव आर्यचन्दनायाः शैक्ष बनाती हैं। इस प्रकार ऋषभदत्त की तहेव अज्ज चंदणाए अज्जाए इमं आर्यायाः इमम् एतद्रूपं धार्मिकम् उपदेशं भांति देवानंदा ब्राह्मणी आर्या चंदना के एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं संपडि- सम्यक सम्प्रतिपद्यते, तदाज्ञया तथा इस प्रकार के धार्मिक उपदेश को सम्यक वज्जइ, तमाणाए तह गच्छइ जाव गच्छति यावत् संयमेन संयच्छति।
प्रकार से स्वीकार करती है, उसे भली संजमेणं संजमति॥
भांति जानकर वैसे ही संयमपूर्वक चलती है यावत संयम से संयत रहती है।
१५५. तए णं सा देवाणंदा अज्जा ततः सा देवानंदा आर्या आर्यचन्दनायाः १५५. आर्या देवानंदा आर्या चंदना के पास
अज्जचंदणाए अज्जाए अंतियं आर्यायाः अन्तिकं सामायिकादिकानि सामायिक आदि ग्यारह अंगों का सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई ___ एकादश अङ्गानि अधीते, अधीत्य बहुभिः अध्ययन करती है। अध्ययन कर अनेक अहिज्जइ, अहिजित्ता बहहिं चउत्थ- चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः, मासा- चतुर्थ-भक्त, षष्ठ-भक्त, अष्टम भक्त छट्टट्ठम-दसम-दुवालसेहि, मासद्धमास- द्रमासक्षपणैः, विचित्रैः तपःकर्मभिः दशम-भक्त, अर्धमास और मासक्षपणखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं आत्मानं भावयती बहुनि वर्षाणि श्रामण्य इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा अप्पाणं भावेमाणी बहूई वासाइं पर्यायं प्रापनोति, प्राप्य मासिक्या आत्मा को भावित करती हुई बहुत सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता संलेखनया आत्मानं जोषति, जोषित्वा वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेइ, षष्टिं भक्तानि अनशनेन छिनत्ति-छित्वा करती है। पालन कर एक मास की झूसेत्ता सद्धिं भत्ताई अणसणाए छेदेइ, चरमेषु उच्छवास-निश्वासेषु 'बुद्धा' मुक्ता संलेखना से अपने शरीर को कृश बना, छेदेत्ता चरमेहिं उस्सास-नीसासेहिं परिनिर्वृता सर्वदुःखप्रहीना।
अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्बुडा
करती है। छेदन कर चरम उच्छ्वाससव्वदुक्खप्पहीणा।।
निःश्वास में सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों को क्षीण करने वाली हो जाती है।
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भगवई
२८१
श.९: उ. ३३ : सू. १५६,१५७
भाष्य १. सूत्र-१५३-१५५
साहित्य में आर्या चंदना का विस्तृत वर्णन मिलता है। आर्या आर्या चन्दना भगवान महावीर की प्रथम शिष्या थी।' चन्दना ने देवानंदा ब्राह्मणी को दीक्षित किया-आगम साहित्य में पर्युषणा कल्प में आर्या चन्दना को महावीर की छत्तीस हजार इस प्रकार का यह प्रथम उल्लेख है। साध्वी-शिष्याओं में प्रमुख बतलाया गया है। आगम के व्याख्या जमालि-पदं जमालि-पदम्
जमालि-पद १५६. तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगर- तस्य माहनकुंडग्रामस्य पाश्चात्ये अत्र १५६. ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के पश्चिम
स्स पच्चत्थिमे णं एत्य णं खत्तिय क्षत्रियकुण्डग्रामः नाम नगरमासीत्- भाग में क्षत्रियकुण्डग्राम नामक नगर थाकुंडग्गामे नाम नयरे होत्था- वण्णओ।। वर्णकः। तत्र क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे जमालिः वर्णक! उस क्षत्रियकुण्डग्राम नगर में तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमाली नाम क्षत्रियकुमारः परिवसति-आढ्यः दीप्तः जमालि नामक क्षत्रियकुमार रहता है-वह नाम खत्तियकुमारे परिवसइ-अड्डे दित्ते यावत् बहुजनस्य अपरिभूतः, उपरि सम्पन्न, दीप्तिमान यावत् बहुजन के द्वारा जाव बहुज-णस्स अपरिभूते, उप्पि प्रासादवरगतः स्फुटदिभः मृदङ्गमस्तकैः अपरिभवनीय है। वह अपने प्रवर प्रासाद पासाय-वरगए फुट्टमाणेहिं मुइंग- द्वात्रिंशद्बद्धैः नाटकैः वरतरुणीसम्प्रयुक्तैः के उपरिभाग में स्थित है। उसके सामने मत्थएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं णाडएहिं उपनृत्यमानः-उपनृत्यमानः, उपगीयमानः- मृदंग-मस्तकों की प्रबल होती हुई ध्वनि वरत-रुणीसंपउत्तेहिं उवनच्चिज्जमाणे- उपगीयमानः, उपलाल्यमानः-उपलाल्य- के साथ वर तरुणियों द्वारा संप्रयुक्त उवनच्चिज्जमाणे, उवगिज्जमाणे- मानः प्रावृद-वर्षारात्र-शरद-हेमन्त-वसन्त- बीस प्रकार के नाटक किए जा रहे हैं। उवगिज्जमाणे, उवलालिज्जमाणे- ग्रीष्मपर्यन्तान् षडपि ऋतून् यथाविभवेन उसके लिए नृत्य किया जा रहा है, उवलालिज्जमाणे, पाउस-वासारत्त- मानयन्, कालं गालयन्, इष्टान् शब्द- इसलिए वह उपनृत्यमान है। उसके सरद-हेमंत-वसंतगिम्ह-पज्जते छप्पि स्पर्श-रस-रूप-गन्धान् पञ्चविधान गुणगान किए जा रहे हैं, उपलालन किया उऊ जहाविभवेणं माणेमाणे, कालं । मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् जा रहा है। प्रावृड, वर्षा-रात्र, शीत, गालेमाणे, इढे सद्द-फरिस-रस-रूव. विहरति।
हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म पर्यंत छहों गंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे
ऋतुओं के विविध अनुभाव का अनुभव पच्चणुब्भव-माणे विहरइ।।
करता हुआ, उनका अंति संचरण करता हुआ. इष्ट शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध-इस पंचविध मनुष्य संबंधी कामभोग को भोगता हुआ विहार कर रहा है।
भाष्य १. सूत्र-१५६
१. मृदंग मस्तक-ढोल का ऊपरी भाग, पुट । बत्तीस प्रकार के नाटक : द्रष्टव्य रायपसेणइयं ७४-१२०
१५७. तए णं खत्तियकुण्डग्गामे नयरे ततः क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक- सिंघाडग - तिक - चउक्क - चच्चर- चतुष्क - चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जण-सद्दे महान् जनशब्दः इति वा जनव्यूहः इति वा इ वा जणवूहे इ वा जणबोले इ वा जनबोलः इति वा जनकलकलः इति वा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जनोर्मिः इति वा जनोत्कलिका इति वा जणुक्कलिया इ वा जणसण्णि-वाए इ जनसन्निपातः इति वा बहुजनः अन्योन्यम् वा बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमा- एवमाख्याति एवं भाषते, एवं प्रज्ञापयति, एवं इक्खइ एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं । प्ररूपयति, एवं खलु देवानुप्रियाः! श्रमणः परूवेइ, एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवान् महावीरः आदिकरः यावत् सर्वज्ञः भगवं महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सर्वदर्शी माहनकुण्डग्रामस्य नगरस्य बहिः सव्वदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स बहुशालके चैत्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्
१५७. 'क्षत्रियकुंडग्राम नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान् जन-शब्द, जनव्यूह, जनबोल, जनकलकल, जन-उर्मि, जन-उत्कलिका, जनसन्निपात, बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करते हैं-देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर धर्मतीर्थ के आदिकर्ता यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर के बाहर बहशालक चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और
१. सम. प. २३३.३।
२. पज्जो . सू. ९४ ।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १५७, १५८
ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
तं महम्फलं खलु देवाणुप्पिया! तहारुवाणं अरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि सवणयाए जहा ओववाइए जाव एगाभिमुहे खत्तिय कुण्डग्गामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए, तेणेव उवागच्छंति एवं जहा ओववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज्जुवासंति ॥
१. सूत्र - १५७
द्रष्टव्य भगवती २ / ३० का भाष्य । १५८. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसदं वा जाव जणसन्निवार्य वा सुणमा णस्स वा पासमाणस्स वा अयमे यारुवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - किण्णं अज्ज खत्तिय कुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा, खंदम इवा, मुगुंदमहे इ वा, नागमहे इ वा, जक्खमहे इ वा, भूयमहे इ वा, कूवम इवा, तडागमहे इ वा, नईमहे इ वा, दहमहे इ वा, पव्वयमहे इ वा, रुक्महे इवा, चेइयमहे इ वा, थूभमहे इ वा, जण्णं एते बहवे उग्गा, भोगा, राइण्णा, इक्खागा, णाया, कोरव्वा, खत्तिया, खत्तियपुत्ता, भडा, भडपुत्ता, जोहा पसत्थारो मल्लई लेच्छई लेच्छईपुत्ता अण्णे य बहवे राईसरतलवर - माडंबिय - कोडुं - बिय- इब्भ-सेट्ठिसेणावइ- सत्य - वाहप्पभितयो ण्हाया कयबलिकम्मा जहा ओववाइए जाव खत्तियकुंड - ग्गामे नयरे मज्झं-मज्झेणं निग्ग च्छंति ?- एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कंचुइ - पुरिसं सहावेइ, सहावेत्ता एवं वदासी- किण्णं देवाणुप्पिया! अज्ज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छति ?
२८२
विहरति । तत् महत्फलं खलु देवानुप्रियाः ! तथारूपाणाम् अर्हतां भगवतां नामगोत्रस्यापि श्रवणं यथा औपपातिके यावत् एकाभिमुखाः क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं मध्यंमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गत्य यत्रैव माहनकुण्डग्रामः नगरं यत्रैव बहुशालकं चैत्यं, तत्रैव उपागच्छन्ति, एवं यथा औपपातिके यावत् त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते ।
भाष्य
ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य तं महज्जनशब्दं वा यावत् जनसन्निपातं वा श्रृण्वतः वा पश्यतः वा अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपद्यत - किमद्य क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे इन्द्रमहः इति वा, स्कंदमहः इति वा, मुकुन्दमहः इति वा, नागमहः इति वा, यक्षमहः इति वा, भूतमहः इति वा, कूपमहः इति वा, तडागमहः इति वा, नदीमहः इति वा, द्रहमहः इति वा, पर्वतमहः इति वा, रूक्षमहः इति वा, चैत्यमहः इति वा, स्तूपमहः इति वा, यत् एते बहवः उग्राः भोजाः राजन्याः, इक्ष्वाकाः, नागाः कौरव्याः क्षत्रियाः, क्षत्रियपुत्राः, भटाः, भटपुत्राः, योधाः, प्रशास्तारः मल्लवयः लिच्छवयः लिच्छविपुत्राः अन्ये च बहवः राजेश्वर - 'तलवर' - माडम्बिक-कौटुम्बिकइभ्यः श्रेष्ठि-सेनापति सार्थवाहप्रभृतयः स्नाताः कृतबलिकर्माणः यथा औपपातिके यावत् क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति ?- एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कञ्चुकि- पुरुषं शब्दयति, शब्दयित्वा एवम् अवादीत् किं देवानुप्रियाः ! अद्य क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे इन्द्रमहः इति वा यावत् निर्गच्छन्ति ?
भगवई तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं।
देवानुप्रियो ! ऐसे अर्हत् भगवानों के नामगोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है, औपपातिक की भांति वक्तव्य है, यावत् एक दिशा के अभिमुख क्षत्रियकुंडग्राम नगर के ठीक मध्य से निकलते हैं, निकलकर जहां ब्राह्मणकुंडग्राम नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, वहां आते हैं। इस प्रकार औपपातिक की भांति वक्तव्य है यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना कर रहे हैं।
१५८. क्षत्रिय कुमार जमालि उस महान् जनशब्द यावत् जनसन्निपात को सुन रहा है, देख रहा है। उसके इस प्रकार का आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिला षात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ क्या आज क्षत्रियकुंडग्राम नगर में इन्द्र महोत्सव है? स्कंद महोत्सव है? मुकुन्द महोत्सव है? नाग महोत्सव है? यक्ष महोत्सव है? भूत महोत्सव है ? कूप महोत्सव है? तालाब महोत्सव है? नदी महोत्सव है? द्रह महोत्सव है? पर्वत महोत्सव है ? वृक्ष महोत्सव है ? चैत्य महोत्सव है? स्तूप महोत्सव है? जिससे कि ये बहुत उग्र, भोज, राजन्य, इक्ष्वाकु, नाग, कौरव, क्षत्रिय, क्षत्रियपुत्र, भट, भटपुत्र, योद्धा, प्रशासक, मल्लवी, लिच्छवी, लिच्छविपुत्र तथा अन्य अनेक राजे, युवराज, कोटवाल, मडंबपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति, सार्थवाह आदि स्नात होकर, बलिकर्म कर औपपातिक की भांति वक्तव्य है, यावत् क्षत्रियकुंडग्राम नगर के ठीक मध्य से निकल रहे हैं? उसने इस प्रकार देखा, देखकर कंचुकीपुरुष को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार बोला- देवानुप्रियो ! क्या आज क्षत्रियकुण्डग्राम नगर इन्द्र महोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं ?
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भगवई
२८३
श.९: उ. ३३ : सू. १५९.१६१
भाष्य १.सूत्र-१५८
और भूत- ये दिव्य शक्तियां हैं। इनकी पूजा प्रचलित थी। कूप, प्राचीन काल में महोत्सव मनाने की परंपरा थी। कुछ तालाब, नदी, द्रह, पर्वत, वृक्ष, चैत्य और स्तूप-इनकी पूजा का भी महोत्सव दिव्य शक्तियों को लक्ष्य कर मनाए जाते थे और कुछ प्रचलन था। इनकी पूजा के अवसर पर महोत्सव मनाया जाता था। प्राकृतिक पदार्थों को लक्ष्य कर मनाए जाते थे। इससे ज्ञात होता है उग्र, भोज आदि के लिए द्रष्टव्य २/३० का भाष्य। कि उस समय देव पूजा और प्रकृति पूजा-दोनों का जनमानस पर कंचुकी-द्वारपाल, अन्तःपुर का अध्यक्ष। प्रभाव था। इन्द्र, स्कंद (कार्तिकेय) मुकुन्द (वासुदेव) नाग, यक्ष
१५९. तए णं से कंचुइ-पुरिसे जमा-लिणा ततः सः कञ्चुकिपुरुषः जमालिना १५९. क्षत्रिय कुमार जमालि के यह कहने
खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्ठतुट्टे क्षत्रियकुमारेण एवम् उक्ते सति हृष्टतुष्टः पर वह कंचुकीपुरुष हृष्ट-तुष्ट हो गया। समणस्स भगवओ महावीरस्स आग । श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य आगमन- उसने श्रमण भगवान महावीर के आगमन मणगहियविणिच्छए करयलपरि- गृहीतविनिश्चयः करतलपरिगृहीतं दशनखं का निश्चय होने पर दोनों हथेलियों से ग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए शिरसावर्त्तम् मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जमालिं निष्पन्न संपुट आकार वाली दस अंजलिं कट्ट जमालिं खत्तियकुमारं क्षत्रियकुमारं जयेन विजयेन वर्धापयति, नखात्मक अंगुली को सिर के सम्मुख जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावेत्ता एवं । वर्धापयित्वा एवम् अवादीत्-नो खलु घुमाकर, मस्तक पर टिका कर वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! अज्ज देवानुप्रिय! अद्य क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे क्षत्रियकुमार जमालि को जय-विजय के खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहे इ वा इन्द्रमहः इति वा यावत् निर्गच्छन्ति। एवं द्वारा वर्धापित किया, वर्धापित कर इस जाव निग्गच्छति। एवं खलु। खलु देवानुप्रिय! अद्य श्रमणः भगवान् प्रकार बोला-देवानुप्रिय! आज देवाणुप्पिया! अज्ज समणे भगवं महावीरः आदिकरः यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी क्षत्रियकुंडग्राम नगर में न इन्द्र महोत्सव है महावीरे आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्व. माहनकुण्डग्रामस्य नगरस्य बहिः बहुशालके यावत् सार्थवाह आदि निगमन कर रहे हैं। दरिसी माहणकुंडग्गामस्स नयरस्स चैत्ये यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य देवानुप्रिय! आज श्रमण भगवान महावीर बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, आदिकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा ततः एते बहवः उग्राः भोजाः यावत् ब्राह्मणकुंडग्राम नगर के बाहर बहुशालक अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तए णं एते निर्गच्छन्ति।
चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति बहवे उग्गा, भेगा जाव निग्गच्छंति॥
लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे हैं। इसलिए ये बहुत उग्र, भोज यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं।
१६०. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः कञ्चुकि- १६०. क्षत्रियकुमार जमालि कंचुकी- पुरुष कंचुइ-पुरिसस्स अंतियं एयमढे सोच्या पुरुषस्य अन्तिकम एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण निसम्म हट्ठतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, हृष्टतुष्टः कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, कर हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने कौटुम्बिक सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो शब्दयित्वा एवम अवादीत्-क्षिप्रमेव भो पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार देवाणुप्पिया! चाउग्घंटं आसरह देवानुप्रियाः! चतुर्घण्टम् अश्वरथं युक्तमेव कहा-देवानुप्रियोः शीघ्र ही चार घण्टाओं जुत्तामेव उवट्टवेह, उवट्ठवेत्ता मम उपस्थापथ उपस्थाप्य माम् एताम् वाले अश्वरथ को जोत कर उपस्थित एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह॥ आज्ञप्तिका प्रत्यर्पयथ।
करो, उपस्थित कर मेरी आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
१६१. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः जमालिना क्षत्रिय- १६१. कौटुम्बिक पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता कुमारेण एवम् उक्ताः सन्तः चतुर्घण्टम् जमालि के यह कहने पर चार घण्टाओं समाणा चाउग्घंटे आसरहं जुत्तामेव अश्वरथं युक्तमेव उपस्थापयन्ति, वाले अश्वरथ को जोतकर उपस्थित उवट्ठवेंति, उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं उपस्थाप्य ताम् आज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति। किया। उपस्थित कर उस आज्ञा का पच्चप्पिणंति।
प्रय॑पण किया।
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भगवई
श.९:उ.३३ : सू. १६२-१६३
२८४ १६२. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः यत्रैव जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, मज्जनगृहं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य उवागच्छित्ता प्रहाए कयबलिकम्मे जाव स्नातः कृतबलिकर्मा यावत् चन्दनोत्क्षिप्त- चंदणुक्खित्तगायसरीरे सव्वालंकारवि. गावशरीरः सर्वालङ्कारविभूषितः मज्जनभूसिए मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ, गृहात प्रतिनिष्क्राम्यति. प्रतिनिष्क्रम्य यत्रैव पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उव- बाहिरिका उपस्थानशाला, यत्रैव चतुर्घण्टः ट्ठाणसाला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे। अश्वरथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्यतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउ- चतुर्घण्टम् अश्वरथम् आरोहति, आरुह्य ग्घंट आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण धार्यमाणेन सकोरेंटमल्लदा-मेणं छत्तेणं धरिज्ज- महत् भट-'चडकर' 'पहकर' वृन्दपरिक्षिप्तः माणेणं, महया-भडचडकर-पहकरवंद- क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं नगरं ति, निर्गत्य यत्रैव माहनकुण्डग्रामः नगरं मज्झं-मज्झेणं निगच्छइ, निग्गच्छित्ता यत्रैव बहशालकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव । उपागम्य तुरगान निगृह्णाति, निगृह्य रथं बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् प्रत्यारोहति, उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हेइ, निगि- प्रत्यारुह्य पुष्पताम्बूलायुधादिकम् उपानहः ण्हेत्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता रहाओ च विसृजति, विसृज्य एकशाटिकम् पच्चोरुहति, पच्चोरुहिता पुप्फतंबोला- उत्तरासङ्गं करोति, कृत्वा आचान्तः चोक्षः उहमादियं पाहणाओ य विसज्जेति, परमशुचीभूतः अञ्जलिमुकुलितहस्तः यत्रैव विसज्जेत्ता एग-साडियं उत्तरासंगं । श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागच्छति करेइ, करेत्ता आयं ते चोक्खे उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः परमसुइब्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, नमस्यति. वन्दित्वा-नमस्यित्वा त्रिविधया उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पर्युपासनया पर्युपास्ते। तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता तिविहाए पन्जुवासणाए पजुवासइ॥
१६२. क्षत्रियकुमार जमालि जहां मर्दन घर है, वहां आता है। वहां आकर स्नान तथा बलिकर्म कर यावत् शरीर के अवयवों पर चंदन का लेप कर, सर्व अलंकारों से विभूषित होकर मर्दन घर से निकलता है, निकलकर जहां बाहर उपस्थानशाला है जहां चार घण्टाओं वाला अश्वरथ है, वहां आता है, आकर चार घण्टाओं वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होता है। आरूढ़ होकर कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण करता है, महान् सुभटों के सुविस्तृत संघातवृन्द से परिक्षिप्त होकर क्षत्रिय कुण्डग्राम नगर के ठीक मध्य से निर्गमन करता है, निर्गमन कर जहां ब्राह्मणकुंडग्राम नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, वहां आता है, आकर घोड़ों की लगाम को खींचता है, खींचकर रथ को ठहराता है, ठहराकर रथ से उतरता है, उतरकर पुष्प, तंबोल, आयुध आदि तथा उपानत को विसर्जित करता है, विसर्जित कर एक शाटक वाला उत्तरासंग करता है। उत्तरासंग कर आचमन करता है, अशुचि द्रव्य का अपनयन करता है, परम शुचीभूत होकर अंजलियों को मुकुलित कर सिर पर रखता है, जहां श्रमण भगवान महावीर है वहां आता है, आकर श्रमण भगवान को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करता है।
१६३. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालेः १६३. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रिय
जमालिस्स खत्तियकुमारस्स, तीसे य क्षत्रियकुमारस्य तस्यां च महामहत्याम् कुमार जमालि को उस विशाल-परिषद् में महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणि- ऋषिपरिषदि मुनिपरिषदि यतिपरिषदि धर्म का प्रतिबोध दिया, जिस परिषद् में परिसाए जइपरिसाए देवपरि-साए देवपरिषदि अनेकशतायाम् अनेकशत- ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, यतिपरिषद् और अणेगसयाए अणेगसयवंदाए अणेग- वृन्दायाम् अनेकशतवृन्दपरिवारे ओघबलः देवपरिषद् का समावेश है। उन परिषदों में सयवंदपरियालाए ओहबले अइबले अतिबलः महाबलः अपरिमित-बल-वीर्य- सैकड़ों-सैकड़ों व्यक्ति और सैकड़ोंमहब्बले अपरिमियबल-वीरिय - तेय- तेजस्-माहात्म्य-कान्तियुक्तः शारद- सैकड़ों मनुष्यों के समूह बैठे हुए थे। माहप्पकंति-जुत्ते सारय - नवत्थणिय .. नवस्तनित - मधुरगम्भीर - क्रोञ्च-निर्घोष - भगवान महावीर का बल ओघबल, महुरगंभीर-कोंचणिग्योस-दुंदुभिस्सरे उरे दुन्दुभिस्वरः उरसि विस्तृतया कण्ठे वर्तितया अतिबल और महाबल-इन तीन रूपों में वित्थ-डाए कंठे वट्टियाए सिरे समा- शिरसि समाकीर्णया अगरलया अमन्मनया प्रकट हो रहा था। वे अपरिमित बल, इण्णाए अगरलाए अमम्मणाए सुव्वत्त सुव्यक्ताक्षर सन्निपातिकया पूर्णरक्तया वीर्य, तेज, माहात्म्य और कांति से युक्त
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भगवई
२८५
क्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्व- सर्वभाषानुगामिन्या सरस्वत्या योजनभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयण- निर्झरिणा स्वरेण अर्द्धमागध्यां भाषायां णीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भाषते-धर्म परिकथयति यावत् परिषद् भासइ-धम्म परिकहेइ जाव परिसा प्रगता। पडिगया।
श.९ : उ. ३३ : सू. १६३-१६५ थे। उनका स्वर शरद ऋतु के मेघ के नवगर्जन, क्रोञ्च के निर्घोष तथा दुन्दुभिः की ध्वनि के समान मधुर और गंभीर था। धर्म कथन के समय महावीर की वाणी वक्ष में विस्तृत, कंठ में वर्तुल और सिर में संकीर्ण होती थी। वह गुनगुनाहट और अस्पष्टता से रहित थी। उसमें अक्षर का सन्निपात स्पष्ट था। वह स्वरकला से पूर्ण
और गेय रोग से अनुरक्त थी। वह सर्वभाषानुगामिनी-स्वतः ही सब भाषाओं में अनूदित हो जाती थी। भगवान एक योजन तक सुनाई देने वाले स्वर में अर्द्धमागधी भाषा में बोले। प्रवचन के पश्चात् परिषद् लौट गई।
१६४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए महावीरस्य अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य धम्म सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठचित्त- हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः माणदिए णदिए पीइमणे परमसोम- प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविणस्सिए हरिस-वसविसप्पमाणहियए सर्पहृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता समणं भगवं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणमहावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्नमंसित्ता एवं वयासी-सहहामि णं भंते! श्रद्दधामि, भदन्त! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्, निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते! प्रत्येमि भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम, रोचे
___भदन्त ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनम्. अभ्युत्तिष्ठामि निग्गंथं पावयणं, अब्भुढेमि णं भंते! भदन्त ! नैर्ग्रन्थे प्रवचने. एवमेतद् भदन्त ! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं भंते! तहमेयं । तथैतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं । असंदिग्धमेतद् भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं प्रतीष्टमेतद् भदन्त! इष्टप्रतीष्टमेतद् भंते! इच्छि-यपडिच्छियमेयं भंते!-से । भदन्त!-तत् यथेदं यूयं वदथ, यत् नवरंजहेयं तुब्भे वदह, जं नवरं-देवाणु- देवानुप्रियाः! अम्बापितरौ आपृच्छामि. प्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि, तए । ततः अहं देवानुप्रियाणाम् अन्तिकं मुण्डः णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भूत्वा अगाराद् अनगारतां प्रव्रजामि। भवित्ता अगाराओ अणगारियं यथासुखं देवानुप्रिय ! मा प्रतिबन्धम्। पव्वयामि।
१६४. वह क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट चित्तवाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मनवाला, परम सौमनस्ययुक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। वह उठने की मुद्रा में उठता है। उठकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हूं। भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में प्रतीति करता हूं, भंते ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि करता हूं. भंते! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में अभ्युत्थान करता हूं। भंते! यह ऐसा ही है! भंते ! यह तथा (संवादिता-पूर्ण) है। भंते! यह अवितथ है। भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है। भंते! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसे आप कह रहे हैं, इतना विशेष है-देवानुप्रिय! मैं माता-पिता से पूछ लेता हूं, तत्पश्चात् मैं देवानुप्रिय के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होऊंगा। देवानुप्रिय! जैसे सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं॥
१६५. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणेन
१६५. 'क्षत्रियकुमार जमालि श्रमण भगवान
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श.९ : उ. ३३ : सू. १६५,१६६
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भगवई
समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं हृष्टतुष्टः श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता । नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा तम् एव तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, चतुर्घण्टम् अश्वरथम आरोहति, आरुह्य दुरुहित्ता समणस्स भगवओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकाद् महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ बहुशालकाद् चैत्याद् प्रतिनिष्कामति, चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख. प्रतिनिष्क्रम्य सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण मित्ता सकोरेंट-मल्लदामेण छत्तेणं धार्यमाणेन महाभट-'चडकर' 'पहकर' धरिज्जमाणेणं महयाभडचडगर- वृन्दपरिक्षिप्तः, यत्रैव क्षत्रियकुण्डग्रामः नगरं पहकरवंद-परिक्खित्ते, जेणेव खत्तिय- तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य क्षत्रियकुंड-ग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, कुण्डग्राम नगरं मध्यमध्येन यत्रैव स्वकं गृहं उवागच्छित्ता खत्तिय-कुंडग्गामं नयरं यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला तत्रैव मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव उपागच्छति, उपागम्य तुरगान् निगृह्णाति, बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव निगृह्य रथं स्थापयति, स्थापयित्वा रथात् उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तुरण प्रत्यारोहति, प्रत्यारुह्य यत्रैव आभ्यन्तरिकी निगिण्हइ, निगिण्हित्ता रहं ठवेइ, ठवेत्ता उपस्थानशाला यत्रैव अम्बापितरौ तत्रैव रहाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव । उपागच्छति, उपागम्य अम्बापितरौ जयेन अभिंतरिया उवट्ठाणसाला, जेणव । विजयेन वर्द्धयति. वर्द्धयित्वा एवम् अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, अवादीत्-एवं खलु अम्बतातः! मया उवागच्छित्ता अम्मापियरो जएणं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मः विजएणं वद्धावेइ, बद्धावेत्ता एवं निशान्तः सः अपि च मया धर्मः इष्टः, वयासी- एवं खलु अम्मताओ! मए प्रतीष्टः, अभिरुचितः। समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए अभिरुइए।
महावीर के इस प्रकार कहने पर हृष्टतुष्ट हो गया। वह श्रमण भगवान् महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है, वंदन-नमस्कार कर वह उसी चार घण्टाओं वाले अश्वस्थ पर आरूढ़ होता है। आरूढ़ होकर श्रमण भगवान महावीर के पास से बहुशालक चैत्य से निर्गमन करता है। निर्गमन कर कटसरैया के फूलों से बनी मालाओं से युक्त छत्र को धारण करता है। महान् सुभटों के सुविस्तृत संघात वृन्द से परिक्षिप्त होकर जहां क्षत्रियकुण्डग्राम नगर है, वहां आता है। वहां आकर क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचो-बीच जहां अपना घर है, जहां बाहर उपस्थानशाला है, वहां आता है, वहां आकर घोड़ों की लगाम को खींचता है, खींचकर रथ को ठहराता है, ठहराकर रथ से उतरता है, उतरकर जहां आभ्यंतर उपस्थानशाला है, जहां मातापिता हैं, वहां आता है, वहां आकर जय हो-विजय हो, इस प्रकार (माता पिता का) वर्धापन करता है, वर्धापन कर इस प्रकार बोला-माता-पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुना है। वही धर्म मुझे इष्ट, प्रतीप्सित और अभिरुचित है।
भाष्य
१.सूत्र-१६५
द्रष्टव्य २/५२ का भाष्य।
१६६. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारं अम्बापितरौ १६६. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि
अम्मापियरो एवं वयासी- धन्ने सि णं एवम् अवादीत-धन्योऽसि त्वं जात! को इस प्रकार कहा-पुत्र! तुम धन्य हो, तुमं जाया! कयत्थे सि णं तुम जाया! कृतार्थोसि त्वं जात! कृतपुण्योऽसि त्वं पुत्र! तुम कृतार्थ हो, पुत्र! तुम कृतपुण्य कयपुण्णे सि णं तुमं जाया! जात ! कृतलक्षणोऽसि त्वं जात! यत् त्वया (भाग्यशाली) हो, पुत्र! तुम कृतलक्षण कयलक्खणे सि णं तुम जाया! जण्णं श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मः (लक्षण-सम्पन्न) हो। जो कि तुमने श्रमण तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स निशान्तः, सः अपि च त्वया धर्मः, इष्टः, भगवान महावीर के पास धर्म को सुना है, अंतियं धम्मे निसंते, से वि य ते धम्मे प्रतीष्टः, अभिरुचितः।
वह धर्म तुम्हें इष्ट, प्रतीप्सित और इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए।
अभिरुचित है।
भाष्य
१.सूत्र-१६६
कृतार्थ-वह व्यक्ति जिसने अपना प्रयोजन सिन्द्र किया है।
कृतलक्षण-वह व्यक्ति जिसने शरीर के लक्षण-देह चिह्न सार्थक किए हैं।
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भगवई
२८७
श. ९ : उ. ३३ : सू. १६७,१६८ १६७. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- १६७. वह क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता
अम्मापियरो दोच्चं पि एवं वयासी-एवं पितरौ द्वितीयम् अपि एवम् अवादीत-एवं से दूसरी बार इस प्रकार बोला-माताखलु मए अम्मताओ! समणस्स खलु अम्बतातः श्रमणस्य भगवतः महा- पिता! मैंने श्रमण भगवान महावीर के भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे वीरस्य अन्तिके धर्मः निशान्तः, सः अपि पास धर्म सुना है, वह धर्म मुझे इष्ट, निसंते, से वि य मे धम्मे इच्छिए, च मया धर्मः इष्ट, प्रतीष्टः अभिरुचितः। प्रतीप्सित और अभिरुचित है। मातापडिच्छिए, अभि-रुइए। तए णं अहं ततः अहं अम्बतात! संसारभयोद्विग्नः, पिता! मैं संसार के भय से उद्विग्न और अम्मताओ! संसारभउन्विग्गे, भीते भीतः जन्म-मरणेन, तत् इच्छामि अम्ब- जन्म-मरण से भीत हूं। माता-पिता! मैं जम्मण-मरणेणं, तं इच्छामि णं अम्म. तात! युवाभ्यां अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य चाहता हूं-आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर श्रमण ताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा भगवान महावीर के पास मुण्ड होकर समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं । अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्।
अगार से अनगारिता में प्रवजित होऊ। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥
१६८. तए णं सा जमालिस्स खत्तिय- ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता ताम् १६८. क्षत्रियकुमार जमालि की उस कुमारस्स माता तं अणि8 अकंतं अनिष्टाम् अकान्तां अप्रियाम् अमनोज्ञाम् अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ, अप्पियं अमणुण्णं अमणामं अस्सुय- 'अमणाम' अश्रुतपूर्वां गिरं निशम्य अमनोहर और अश्रुतपूर्व वाणी को सुनकर, पुव्वं गिरं सोच्चा निसम्म सेया- स्वेदागतरोमकूपप्रगलत् 'चिलिण' गात्रा, अवधारण कर माता के रोमकूपों में स्वेद गयरोमकूवपगलंतचिलिणगत्ता, सोग- शोकभरप्रवेपितङ्गाङ्गी निस्तेजा दीनविमन- आ गया, उसके स्रवण से शरीर गीला हो भरपवेवियंगमंगी नित्तेया दीणविमण- वदना, करतलमलिता इव कमलमाला,
गया। शोक के आघात से उसके अंग वयणा, करयलमलियव कमलमाला, तत्क्षणावरुग्णदुर्बलशरीर लावण्यशून्य
कांपने लगे। वह निस्तेज हो गई। उसका तक्खणओलुग्ग-दुब्बलसरीरलायण्ण- निश्छाया, गतश्रीका प्रशिथिलभूषणपतत्
मुख दीन और विमनस्क हो गया। वह हाथ सुन्ननिच्छाया, गयसिरीया पसिढिल- 'खुण्णिय' संचूर्णित-धवलवलय-प्रभ्रष्टोत्त
से मली हुई कमलमाला की भांति हो गई। भूसण-पडत-खुण्णियसंचुण्णियधवल- रीया, मूविशनष्टचेतःगुर्वी, सुकुमार
उसका शरीर उसी क्षण म्लान, दुर्बल, वलय-पन्भट्ठ-उत्तरिज्जा, मुच्छा- विकीर्ण-केश-हस्ता, परशुनिकृता इव
लावण्यशून्य, आभाशून्य और श्री विहीन वसणढ-चेतगरुई, सुकुमालवि-किण्ण- चम्पकलता, निवृतमह इव इन्द्रयष्टिः,
हो गया। गहने शिथिल हो गए। धवलकेस-हत्था, परसुणियत्त व्व चंपगलया, विमुक्तसन्धि-बन्धना कुट्टिमतले धस इति
कंगन धरती पर गिरकर मोच खाकर सङ्गिः निपतिता। निव्वत्तमहे व्व इंदलट्ठी, विमुक्क
खण्ड-खण्ड हो गए। उत्तरीय खिसक
गया। मूच्छविश चेतना के नष्ट होने पर संधिबंधणा कोट्टिमत-लंसि धसत्ति
शरीर भारी हो गया। सुकोमल केशराशि सव्वंगेहिं सनिवडिया॥
बिखर गई। परशु से छिन्न चंपकलता की भांति और उत्सव से निवृत्त होने पर इन्द्र यष्टि की भांति उसके संधि-बंधन शिथिल हो गए. वह अपने सम्पूर्ण शरीर के साथ रत्नजटित आंगन में धम से गिर पड़ी।
भाष्य १. सूत्र-१६८
आलुग-अवरुग्ण, म्लान। शब्द विमर्श
निच्छाय-निष्प्रभ। चिलिण-क्लिन्न, भीगा हुआ।
खण्णिय-धरती पर गिरने के कारण मोच खाया हआ।' वृत्ति में विलीन पाठ का अर्थ क्लिन्न किया गया है-विलीनानि केसहत्थ-केश-समूह। च क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः।'
इंदयट्ठी-इन्द्र महोत्सव के अवसर पर एक काष्ठमय स्तूप दीणविमण वयण-दीन और विमनस्क मुख वाला।
बनाया जाता था ।द्रष्टव्य भगवई ९/१५८ वृत्ति में इसका अर्थ दीन और विमनस्क जैसे मुख वाला किया विमुक्कसंधिबंधण-संधि-बंधन शिथिल हो गया-श्लथीगया है -दीनस्य इव विमनस इव वदनं यस्याः सा तथा।
कृत-संधिबंधनाः।
१.भ, वृ. ९.१६८ २. भ. वही.०/१६८
३. भ. वही. ९/१६८-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि। ४. भ. वही. ९/१६८।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १६९
१६९. तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गय सीयलजलविमलधारपरिसिच्चमाण
सफुसिएणं
निव्वावियगायलट्ठी, उक्खेवय-तालि यंटवीयणगजणियवाएणं, अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी रायमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी- तुमं सि णं जाया! अम्हं एगे पुट्टे कंते पिए मणुणे मणामे थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणब्भूए जीविऊसविए हिययनंदिजणणे उंबरपुष्कं पिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! पुणपासणयाए ? तं नो खलुजाया! अम्हे इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पयोगं, तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवए वड्डियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरव यक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥
१. सूत्र - १६९ शब्द-विमर्श
२८८
ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता ससम्भ्रमापवर्त्तितया त्वरितं काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गत शीतलजलविमलधारापरिषिच्यमान निर्वापितगात्रयष्टिः उत्क्षेपक तालवृन्त वीजनकजनितवातेन, स्पृशता अन्तःपुरपरिजनेन आश्वासिता सती रुदती क्रन्दती शोकमानी विलपति जमालिं क्षत्रियकुमारम् एवम् अवादीत्-त्वम् असि जातः अस्माकम् एकः पुत्रः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः 'मणामे' स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डक समानः रत्नः रत्नभूतः जीवितोत्सविकः हृदयानन्दिजनकः उदुम्बरपुष्पम् इव दुर्लभः श्रवणे, 'किमङ्ग' पुनः दर्शने ? तत् नो जात! आवाम् इच्छावः तव क्षणमपि विप्रयोगम् तत् आस्व तावत् जात! यावत् आवां जीवावः ततः पश्चात् आवयोः कालगतयोः सतोः परिणतवयाः वर्धितकुलवंशतन्तुकार्ये निरवकाङ्क्ष- श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यसि ।
ओवत्तया - वृत्तिकार ने इसके दो संस्कृत रूप किए हैं- १. अपवर्तिका २. अपवर्तिता । '
उक्खेवगं बांस से बना हुआ पंखा, जिस दण्डे का मध्य भाग मुट्ठी से पकड़ा जाता है।
तालियंट-ताड़ के पत्रों से बना हुआ पंखा । वृत्तिकार ने इसका दूसरा अर्थ किया है-ताड़पत्र के आकार वाला चर्ममय पंखा ।
वीयणग- बांस से बना हुआ पंखा । इसका दण्ड भीतर से पकड़ा १. भ. वृ. ९ / १६९ - अपवर्त्तयति-क्षिपति या सा तथा तया ससंभ्रमापवर्त्तिकया चेदयति गम्यते..... अथवा ससंभ्रमापवर्त्तितया ससंभ्रमक्षिमया ।
२.
वही ९ / १६९ - उत्क्षेपको - वंशदनादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागः तालवृन्तं - तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा चर्मवीजनकं तु वंशादिमयमेवान्तग्रह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातः स तथा तेन ।
•
भाष्य
जाता है।
भगवई १६९. संभ्रम और त्वरा के साथ चेटिका द्वारा डाली गई सोने की झारी के मुंह से निकली शीतल जल की निर्मल धारा के परिसिंचन से क्षत्रियकुमार जमालि की माता की गात्र यष्टि में शीतलता व्याप गई। उत्क्षेपक और तालवृंत के पंखों से उठने वाली जलमिश्रित हवा के संस्पर्श से तथा अंतःपुर के परिजनों द्वारा वह आश्वस्त हुई। वह रोती, कलपती, आंसू बहाती, शोक करती और विलपती हुई क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार बोली- जात! तुम हमारे एकमात्र पुत्र इष्ट, कमनीय, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, बहुमत, अनुमत और आभरण करण्डक के समान हो। तुम रत्न, रत्नभूत ( चिन्तामणि आदि रत्न के समान) जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाले हो। तुम उदुम्बुर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ हो फिर दर्शन का तो प्रश्न ही क्या?
जात! हम क्षणभर भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते इसलिए जात! तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात् जब हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए, तुम संतान रूपी तंतु को बढ़ाने के कार्य से निरपेक्ष हो जाओ, तब श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो
जाना।
इ "समाणे- द्रष्टव्य भगवती २ / ५२ का भाष्य । सफुसिय-उदक बिन्दु सहित ।
जीविऊसविए-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं- १. जीवन में उत्सव २. जीवन में उत्सव के समान । *
उंबरपुष्पं-पासणाए - वृत्तिकार के अनुसार उदुम्बर का पुष्प अलभ्य होता है इसलिए उसकी उपमा दी गई है। "
कुलवंश - संतान | तंतु दीर्घत्व के साधर्म्य से कुलवंश को तंतु कहा गया है।
३. भ. वृ. ९ / १६९ - सफुसिएणं सोदकबिन्दुना ।
४. वही, ९ / १६९ - जीवितुमुत्सूते प्रसूत इति जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः जीवितविषये वा उत्सवो महः स इव यः स जीवितोत्सविकः ।
५. वही, ९ / १६९ - उदुम्बरपुष्पं ह्यलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमानम् । ६. वही. ९ / १६९ - कुलवंशः संतानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वसाधर्म्यान् कुलवंशनंतुः ।
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भगवई
१७०. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे अम्मपियरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्मताओ! जण्णं तुब्भे मम एवं वदह - तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते तं चेव जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सए भवे अणेगजाइ जरा मरण रोग सारीरमाणसपकाम दुक्खवेयण वसणसतोववाभिभूए अधुवे अणितिए असासए संझब्भरागसरिसे जल- बुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुविणदंसणोवमे विज्जुलयाचंचले अणिच्चे सडणपडण- विद्वंसण धम्मे, पुव्वि वा पच्छा वा अवस्स - विप्पजहियव्वे भविस्सर, से केस णं जाणइ अम्मताओ ! के पुव्वि गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए ।
-
१७१. तए णं तं जमालिं खत्तिय कुमारं अम्मापयरो एवं वयासी- इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिगुरूवं लक्खणवंजण-गुणोववे उत्तमबल-वीरिय सत्तत्तं विण्णाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमूि अभिजाय महखमं विविह वाहि रोगरहियं, निरुवहयउदत्त - लट्ठ - पंचिंदियपडुं पढमजोव्वणत्थं अणेग- उत्तमगुणेहिं संजुत्तं तं अणुहोहि ताव जाया ! नियगसरीररूव-सोहग्गजोव्वणगुणे, तओ पच्छा अणुभूय नियगसरीररूव - सोहग्ग- जोव्वणगुणे अम्हेहि कालगएहिं समाणेहिं परिणयवए वड्डियकुल- वंसतंतुकज्जम्मि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि ॥
२८९
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बापितरौ एवम् अवादीत्-तथाऽपि तत् अम्बतात ! यत् युवां माम् एवं वदथः-त्वम् असि जात! अस्माकम् एकः पुत्रः इष्टः कान्तः तत् चैव यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतातः! मानुष्यकः भवः अनेकजाति जरा मरण रोग शरीर मानसप्रकामदुःखवेदनव्यसनशतोपद्र - वाभिभूतः अध्रुवः अनित्यः अशाश्वतः संध्याभ्ररागसदृशः जलबुदबुदसमानः कुशाग्रजलबिन्दुसन्निभः स्वप्नदर्शनोपमः विद्युत्लताचञ्चलः अनित्यः शटन पतन- विध्वंसनधर्मा, पूर्वं वा पश्चात् वा अवश्यविप्रहातव्यः भविष्यति, सः कः एषः जानाति अम्बतातः ! कः पूर्वं गमने, कः पश्चात् गमने ? तत् इच्छामि अम्बतात ! युवाभ्याम्
अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितम् ।
ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ एवम् अवादीत् इदं च ते जात! शरीरकं प्रविशिष्टरूपं लक्षण व्यञ्जन - गुणोपपेतम् उत्तमबल-वीर्यसत्वयुक्तं विज्ञातविचक्षणं ससौभाग्यगुणसमुच्छ्रितम् अभिजातमहत्क्षमं विविधव्याधिरोगरहितं, निरुपहतउदा-लष्ट-पंचेन्द्रिय- पटुं प्रथमयौवनस्थं अनेकोत्तमगुणैः संयुक्तं, तत् अनुभव तावत् जात! निजकशरीररूप-सौभाग्य-यौवनगुणान्, ततः पश्चात् अनुभूय निजकशरीररूप-सौभाग्य-यौवन-गुणान् अस्मत्सु कालगतेषु सत्सु परिणतवयाः वर्द्धित - कुलवंशतन्तुकार्ये निरवकाङ्क्षः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजिष्यसि ॥
श. ९ : उ. ३३ : सू. १७०,१७१ १७०. क्षत्रियकुमार जमालि माता पिता से इस प्रकार बोला- माता-पिता! यह वैसा ही है जो तुम मुझे यह कह रहे हो - जात ! तुम हमारे एक पुत्र इष्ट कांत यावत् प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह मनुष्य का भव अनेक जन्म, जरा, मरण, रोग, शारीरिक और मानसिक प्रकाम दुःखों के वेदन, सैकड़ों कष्टों और उपद्रवों से अभिभूत, अध्रुव, अनियत, अशाश्वत, संध्या के अभ्रराग के समान, जल बुदबुद के समान, कुश की नोक पर टिकी हुई जलबिंदु के समान, स्वप्न-दर्शन के समान और विद्युल्लता की भांति चंचल और अनित्य है, सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है। पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है - कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं- तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रब्रजित हो जाऊं।
१७९. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा जात! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप, लक्षण, व्यंजन और गुण से उपेत, उत्तम बल, वीर्य और सत्व से युक्त, विज्ञान से विचक्षण, सौभाग्य सहित गुण से उन्नत, अभिजात और महान् क्षमता वाला, विविध व्याधि और रोग से रहित, उपपात रहित, उदात्त, मनोहर और पटु पांच इन्द्रियों से युक्त, प्रथम यौवन में स्थित और अनेक गुणों से संयुक्त है इसलिए हे जात! तुम अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन गुणों का अनुभव करो। उसके पश्चात्- अपने शरीर के रूप, सौभाग्य और यौवन गुणों का अनुभव करने के पश्चात् हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था परिपक्व हो जाए, कुलवंश के तंतु से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १७२, १७३
१७२. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे अम्मापियरो एवं वयासी- तहा वि णं तं अम्मताओ! जण्णं तुब्भे ममं एवं वदह- इमं च णं ते जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पव्वइहिसि एवं खलु अम्मताओ ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं, विविहवाहिसयसंनिकेतं, अट्टिय कट्टिय छिराण्हारुजालओणन्द्र-संपिणन्द्धं, मट्टियभंडं व दुब्बलं, असुइसकिलिट्टं, अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयं, जराकुणिम
सडण पडण
जज्जरघरं व विद्धंसणधम्मं, पुवि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियव्वं भविस्सा | से केस णं जाणइ अम्मताओ ! के पुठिंव गमणयाए, के पच्छा गमणयाए ? तं इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय
पव्वइत्तए ॥
१. सूत्र - १७२ शब्द विमर्श
अट्ठियकछुट्टिय-कठिनता के साधर्म्य से अस्थि की तुलना काठ से की गई है। '
१७३. तए णं तं जमालिं खत्तिय - कुमारं अम्मापियरो एवं वयासी- इमाओ य ते जाया! विपुलकुल- बालियाओ कलाकुसलसव्व-काल- लालिय- सुहोचियाओ, मह-वगुणजुत्त निउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ, मंजुल मिय - महुरभणिय विहसिय विप्पेक्खिय गति
मनुष्य का शरीर अस्थियों के ढांचे पर टिका हुआ है। आयुर्वेद में अस्थि संस्थान को शरीर का सार और आधार कहा गया है। आधारश्च तथा सारः कायेस्थीनि बुधा जगुः आभ्यन्तरगतः सार, आधारो भूरुहां यथा । शिरा - रक्तवहा नाड़ी, जो शरीर की कोशिकाओं से रक्त को वापस हृदय तक ले जाती है।
-
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बापितरौ एवम् अवादीत् तथा अपि तत् अम्बतात ! यत् युवां माम् एवं वदथः इदं च ते जात ! शरीरकं तच्चैव यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतात ! मानुष्यकं शरीरं दुक्खायतनं विविधव्याधिशतसंनिकेतम्, अस्थिककाष्ठोत्थितं, शिराण्हारुजाल - उपनद्धसंपिनद्धं, मृतिकाभाण्डम्
इव दुर्बलम्, अशुचिसंक्लिष्टम्, अनिष्ठापित सर्वकालसंस्थाप्यतां जराकुणप जर्जर-गृहम् इव शटन-पतनविध्वसनधर्माणं, पूर्व वा पश्चात् वा अवश्यविप्रहातव्यं भविष्यति । सः कः एषः जानाति अम्बतातः! कः पूर्वं गमने कः पश्चात् गमने ? तत् इच्छामि युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम् ।
२. शार्ङ्गधर संहिता पृ. ८९। ३. वही. पृ. ८७1
२९०
भाष्य
१. भ. वृ. ९ १७२ - अडियकट्टिय ति अस्थिकान्येव काष्ठानि काठिन्य
साश्रम्यत्तिभ्यो यदुत्थितं तत्तथा ।
स्नायु - स्नायुओं को शरीर की मांसपेशियों, अस्थियों, मेदस् और संधियों का बन्धन कहा जाता है। ये स्नायु या बंधन शिराओं की अपेक्षा अधिक मजबूत होते हैं
स्नायवो बंधनं प्रोक्ता, देहे मांसास्थिमेदसाम् । संधीनामपि यत्तास्तु, शिराभ्यः सुदृढाः मताः । ' अणिविय - अनिष्ठापित, जो समाप्त नहीं होता। संप्पया-संस्थाप्यता, शरीर के लिए स्थापित, निर्धारित
कार्य। *
ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ एवम् अवादीत् - इमाः च ते जात! विपुलकुलबालिकाः कलाकुशल सर्वकाल ललितसुखोचिताः मार्दव-गुणयुक्त-निपुणविनयोपचारपण्डित-विचक्षणाः, मञ्जुलमितमधुरभणित- विहसित- विप्रेक्षित-गतिविलासचेष्टित- विशारदाः, अविकलकुल
भगवई
१७२. क्षत्रियकुमार जमालि माता-पिता से इस प्रकार बोला- माता-पिता! यह वैसा ही है, जो तुम मुझे कह रहे हो जात! तुम्हारा यह शरीर प्रविशिष्ट रूप वाला है यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह मनुष्य का शरीर दुःख का आयतन है. विविध प्रकार की सैकड़ों व्याधियों का संनिकेत (घर) है। अस्थिरूपी काठ के ढांचे पर खड़ा हुआ है, शिरा और स्नायुओं के जाल से अतिवेष्टित है, मिट्टी के पात्र के समान दुर्बल है, अशुचि से संक्लिष्ट है, जिसका कृत्यकार्य सर्वकाल चलता है, कभी पूरा नहीं होता, बुढ़ापे से निष्प्राण बना हुआ जर्जर घर सड़न, पतन और विध्वंसधर्मा है, पहले या पीछे अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन पहले जाएगा? कौन पश्चात् जाएगा? मातापिता! इसलिए मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं।
जराकुणिमजज्जरघर - बुढ़ापे के कारण शव जैसे शरीर के लिए "जरा कुणप का प्रयोग किया गया है।
१७३. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता ने इस प्रकार कहा जात! ये तुम्हारी आठ गुणवल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कलाकुशल, सर्वकाल - लालित, सुख भोगने योग्य, मार्दव गुण से युक्त, निपुण, विनय के उपचार में पण्डित और विचक्षण, मनोरम,
४. भ वृ. ९/१०२ - अनिष्ठापिता-असमापिता सर्वकालं सदा संस्थाप्यता
तत्कृत्यकरणं यस्य स तथा ।
५. वही, ९/१७२ - जरा कुणपश्च- जीर्णनाप्रधानशवो जर्जरगृहं च जोगिह समाहारद्वन्द्वाज्जराकुणपजर्जरगृहं ।
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भगवई
श.९ : उ. ३३ : सू. १७३,१७४ विलास-चिट्ठियविसारदाओ, अविकल- शीलशालिन्यः विशुद्धकुलवंशसन्तानतन्तु- मित और मधुर बोलने वाली, विहसन, कुल-सीलसालिणीओ, विसुद्धकुलवंस- वर्द्धन-प्रगल्भोद्भवप्रभाविन्यः मनोनुकूल- विप्रेक्षण (कटाक्ष), गति, विलास और संताणतंतुवद्धणप्पगब्भुब्भवपभाविणीओ, हृदयेष्टाः, अष्ट तव गुण वल्लभाः उत्तमाः, चेष्टा में विशारद, समृद्ध कुल वाली और मणाणु-कूलहियइच्छियाओ, अट्ठ तुज्झ नित्यं भावानुरक्तसर्वाङ्गसुन्दर्यः। तत! शीलशालिनी, विशुद्ध, कुलवंश की गुणवल्लहाओ उत्तमाओ, निच्चं भुक्ष्व तावत जात ! एताभिः सार्धं विपुलान् संतान रूपी तंतु की वृद्धि के लिए गर्भ के भावाणुरत्तसव्वंगसुंदरीओ। तं भुंजाहि ताव मानुष्यकान् कामभोगान, ततः पश्चात् उद्भव में समर्थ, मनोनुकूल और हृदय से जाया! एताहिं सद्धिं विउले माणुस्सए भुक्तभोगी विषय-विगतव्यवच्छिन्नकुतू- इष्ट, उत्तम और नित्य भाव से अनुरक्त कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगी हलः आवयोः कालगतयोः सतोः सर्वांग सुंदरियां हैं इसलिए जात! तुम विसयविगय-वोच्छिण्ण-को उहल्ले परिणतवयाः वर्द्रितकुल-वंशतंतुकार्ये निर- इनके साथ विपुल मनुष्य संबंधी कामअम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं वकासः-श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य भोगों का भोग करो। उसके पश्चात् परिणयवए वड्डियकुल-वंसतंतुकज्जम्मि अन्तिकं मुण्डःभूत्वा अगारात् अनगारितां भुक्तभोगी तथा विषयों के प्रति तुम्हारा निरवयक्खे समणस्स भगवओ प्रव्रजिष्यसि।
कौतुहल विगत और व्युच्छिन्न हो जाए. महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता
हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी अवस्था अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि॥
परिपक्व हो जाए. तुम कुलवंश के तंतु कार्य से निरपेक्ष हो जाओ तब तुम श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार
से अनगारिता में प्रवजित हो जाना।
भाष्य १.सूत्र-१७३
अविकल कुल-ऋद्धि परिपूर्ण कुल। शब्द-विमर्श
पगब्भुन्भवपभाविणीओ-प्रकृष्ट गर्भ को उत्पन्न करने की विलास-नेत्र विकार।
सामर्थ्य वाली।
१७४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- 174. 'क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं पितरौ एवम् अवादीत्-तथापि तत् से इस प्रकार कहा-माता-पिता! यह अम्मताओ! जण्णं तुब्भे मम एयं वदह- अम्बतात! यत् युवां माम् एवं वदथः-इमाः वैसा ही है, जैसा आप कह रहे हैं-जात! इमाओ ते जाया! विपुलकुलबालियाओ। तेजात ! विपुलकुलबालिकाः यावत् प्रव्रजि- ये तुम्हारी आठ पत्नियां विशाल कुल की जाव पव्वइहिसि, एवं खलु अम्मताओ! ष्यसि, एवं खलु अम्बतात! मानुष्यकाः बालिकाएं हैं यावत् तुम अगार से माणुस्सगा कामभोगा उच्चार- कामभोगाः उच्चार-प्रस्रवण-क्ष्वेल-शिंधा- अनगारिता में प्रवजित हो जाना। मातापासवण-खेल - सिंघाणग - वंत-पित्त- णक - वान्त - पित्त - पूय - शुक्र शोणित- पिता! ये मनुष्य संबंधी कामभोग, मल, पूय · सुक्क · सोणिय · समुब्भवा, समुद्भवाः, अमनोज्ञ ‘दुरुय'-मूत्र-पूतिक- मूत्र, कफ, नाक के मैल, वमन, पित्त, अमणुण्णदुरुय · मुत्त-पूइय-पुरीस- पुरीषपूर्णाः- मृतगन्धोच्छ्वास-अशुभनिः मवाद, शुक्र और शोणित से समुत्पन्न पुण्णा, मयगंधुस्सास . असुभनि- श्वासोवेजनकाः, बीभत्साः, अल्प- होते हैं। अमनोज्ञ, विकृत और कुथित मल स्सासउव्वेयणगा, बीभच्छा, अप्प- कालिकाः, लघुस्वकाः, 'कलमल अधि- मूत्र से परिपूर्ण हैं। मृतक की गंध जैसे कालिया, लहुसगा, कलम-लाहिवास- वासदुक्खाः बहुजनयाधारणाः, परिक्लेश- उच्छवास और अशुभ निःश्वास से उद्वेग दुक्खा बहुजणसाहारणा, परिकिलेस- कृच्छदुःखसाध्याः अबुधजननिसेविताः, पैदा करने वाले, बीभत्स, अल्पकालिक, किच्छदुक्खसज्झा, अबुहजणणिसेविया, सदा साघुगर्हणीयाः, अनन्तसंसारवर्द्धनाः, स्वल्पसार सहित (तुच्छ), जठर में होने सदा साहुगरहणिज्जा, अणंतसंसार- कट्रकफलविपाकाः, 'चुडल्लि' इव अमुच्य. वाले मल की अवस्थिति से दुःखद, वद्धणा, कडुगफलविवागा चुडल्लिव मानाः, दुक्खानुबन्धिनः सिद्धिगमन- बहुजनसाधारण-सर्वसुलभ, महान अमुच्चमाण, दुक्खाणुबंधिणो सिद्धि- विघ्नाः। सः कः एषः जानाति अम्बतात! मानसिक और शारीरिक कष्ट साध्य, गमणविग्या। से केस णं जाणइ कः पूर्वं गमने कः पश्चात् गमने? तम् अबुधजनों के द्वारा आसेवित, साधु-जनों अम्मताओ! के पुट्वि गमणयाए ? के इच्छामि अम्बतात ! युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः के द्वारा सदैव गर्हणीय, अनन्त संसार को पच्छा गमणयाए? तं इच्छामि णं सन् श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं बढ़ाने वाले, कटु फल-विधाक वाले, इन्हें अम्मताओ! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए मुण्डः भूत्वा अगारात अनगारितां न छोड़ने पर ये प्रदीप्त तृण पूलिका के १. भ. वृ.../१७३-प्रगल्भाः-प्रकृष्टगर्भास्तेषां यः उद्भवः संभूतिस्तत्र यः प्रभावः--सामर्थ्य स यासामस्ति नाः।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. १७४-१७६ ૨૧૨
भगवई समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स प्रव्रजितुम्।
समान दुःखानुबंधी और सिद्धि गमन के अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ
विघ्न हैं। माता-पिता! यह कौन जानता अणगारियं पव्वइत्तए॥
है-कौन पहले जाएगा? कौन पीछे जाएगा? माता-पिता ! इसलिए मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार
से अनगारिता में प्रवजित हो जाऊं।
भाष्य १.सूत्र-१७४
गंधि' उच्छवास का विशेषण किया है। शब्द-विमर्श
लहुस्गा-लघु-स्वभाव वाले। दुरुय-विकृत। वृत्तिकार ने इसका अर्थ दुरूप, विरूप किया कलमल-शरीर में होने वाला अशुभ द्रव्य। है।' यह देशी शब्द है। इसका अर्थ है दुर्गंध युक्त, मलमूत्र युक्त परिक्लेश-मानसिक आयास। कर्दम।
किच्छदुक्ख-कष्टप्रद शारीरिक आयास। मयगंधुस्सास.......उव्वेयणगा-मृतशरीर की गंध के तुल्य चुडल्लिव-प्रदीप्त तृण पूलिका के समान। उच्छवास और निःश्वास से उद्वेग पैदा करने वाले। वृत्तिकार ने 'मृत
ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १७५. माता-पिता ने क्षत्रियकुमार जमालि अम्मापियरो एवं वयासी- इमे य ते एवम् अवादीत्-इदं च ते जात! आर्यक- से इस प्रकार कहा-जात! तुम्हारे जाया! अज्जय-पज्जय-पिउपज्जयागए प्रार्यक-पितृप्रार्यकागतं सुबहु हिरण्यं च, पितामह (दादा) प्रपितामह (परदादा) सुबहू हिरण्णे य, सुवण्णे य, कंसे य, सुवर्णं च, कांस्यं च, दूष्यं च, विपुलधन- और प्र-प्रपितामह (परदादा के पिता) से दूसे य, विउलधण-कणग-रयण-मणि- कनक-रत्न-मणि-मौक्तिक-शङ्ख-शिला- प्राप्त यह बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, मोत्तिय-संख - सिलप्पवालर-त्तरयण- प्रवालरक्तरत्न-सतसार-स्वापतेयम्, अलं कांस्य, दूष्य (बहुमूल्य वस्त्र) विपुल संतसार - सावएज्जे, अलाहि जाव यावत् आसप्तमात् कुलवंशात् प्रकामं दातुं, वैभव-कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, आसत्तमाओ कुल-वंसाओ पकामं दाउं, प्रकामं भोक्तुं, परिभाजयितुं तत् अनुभव शंख, मेनसिल, प्रवाल, लालरत्न और पकामं भोत्तुं, परिभाएउं, तं अणुहोहि तावत् जात! विपुलान् मानुष्यकान् ऋद्धि- श्रेष्ठसार-इन वैभवशाली द्रव्यों से, जो ताव जाया! विउले माणुस्सए इड्डि सत्कार-समुदयान्, ततः पश्चात् अनुभूत- सातवीं पीढ़ी तक प्रकाम देने के लिए, सक्कार-समुदए, तओ पच्छा अणुहूय- कल्याणः, वर्द्धिकुलवंशतन्तुकार्ये निर. प्रकाम भोगने और बांटने के लिए समर्थ कल्लाणे, वड्डियकुलवंसतंतुकज्ज-म्मि वकाङ्कः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य हैं इसलिए जात! तुम मनुष्य संबंधी निरवयक्खे समणस्स भगवओ अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारिता विपुल ऋद्धि, सत्कार और समुदय का महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता प्रव्रजिष्यसि।
अनुभव करो। कुलवंश के तंतु कार्य से अगाराओ अणगारियं पव्वइहिसि।
निरपेक्ष हो जाओ, उसके पश्चात् कल्याण का अनुभव कर श्रमण भगवान महावीर के पास मुंड हो अगार से
अनगारिता में प्रवजित हो जाना।
भाष्य १.सूत्र-१७५
अज्जय-पज्जय-पिउपज्जय-पितामह, प्रपितामह, प्रप्रपितामह। ये देशी शब्द हैं।"
१७६. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः अम्बा- १७६. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता
अम्मापियरो एवं वयासी-तहा वि णं तं पितरौ एवम् अवादीत्-तथापि तत् से इस प्रकार कहा-यह वैसा ही है, जैसा
अम्मताओ! जण्णं तुब्भे ममं एवं अम्बतात! यत् युवां माम् एवं वदथः-इदं च आप कह रहे हैं-जात! पितामह, १. भ. वृ.९/१७४-इह च दूरूपं-विरूपं।
३. वही, ९/१७४-परिक्लेशेन-महामानसायासेन कृच्छदुःखेन च-गाढ़ २. वही, ९/१७४-मृतस्येव गंधो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छवासश्च शरीरायासेन ये साध्यन्ते-वशीक्रियन्ते ये ते तथा। मृतगन्ध्युच्छ्वासस्ते नाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनका-उद्वेगकारिणो जनस्य ४. देखें-देशी शब्दकोश। ये ते तथा।
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भगवई
२९३ वदह-इमं च ते जाया! अज्जय-पज्जय- ते जात! आर्यक-प्रार्यक-पितृप्रार्यकगतं पिउपज्जयागए जाव पव्वइहिसि, एवं यावत् प्रव्रजिष्यसि एवं खलु अम्बतात! खलु अम्मताओ! हिरणे य, सुवण्णे य हिरण्यं च सुवर्णं च यावत् स्वापतेयम? जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए, चोर- अग्नि-स्वामिकं, चोरस्वामिकं, राजस्वासाहिए, रायसाहिए, मच्चुसाहिए, मिकं, मृत्युस्वामिकं, दायिकस्वामिकं, दाइयसाहिए, अग्गिसामण्णे, चोर- अग्निसामान्यं, चोरसामान्यं, राजसमान्यं, सामण्णे, रायसामण्णे, मच्चुसामण्णे, मृत्युसामान्यं, दायिकसामान्यं, अध्रुवम् दाइ-यसामण्णे, अधुवे, अणितिए, अनित्यम्. अशाश्वतं, पूर्वं वा पश्चात् वा असासए, पुद्वि वा पच्छा वा। अवश्यविप्रहातव्यं भविष्यति, सः क एषः अवस्सविप्पजहियव्वे भविस्सइ, से जानाति अम्बतात! कः पूर्वं गमने, कः केस णं जाणइ अम्मताओ! के पुव्वि पश्चात् गमने? तत् इच्छामि अम्बतात! गमणयाए, के पच्छा गमण-याए? तं युवाभ्याम् अभ्यनुज्ञातः सन् श्रमणस्य इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अब्भणुण्णाए समणे समणस्स भगवओ अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम्। महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥
श.९ : उ. ३३ : सू. १७६,१७७ प्रपितामह, प्रप्रपितामह से प्राप्त हिरण्य यावत् अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाना। माता-पिता! यह हिरण्य, सुवर्ण यावत् वैभवशाली द्रव्य अग्नि साधित हैं-अग्नि जला सकती है, चोर साधित हैं-चोर चुरा सकते हैं, राज साधित हैं-राजा अधिकृत कर सकता है. मृत्यु साधित है, मृत्यु उससे वंचित कर सकती है। दायाद साधित हैं-भागीदार विभाजित कर सकते हैं। अग्नि सामान्य-अग्नि का स्वामित्व है, चोर सामान्य-चोर का स्वामित्व है, राज-सामान्य-राज का स्वामित्व है. मृत्यु सामान्य मृत्यु का स्वामित्व है और दायाद सामान्यभागीदार का स्वामित्व है। अध्रुव, अनियत और अशाश्वत हैं। पहले या पीछे, अवश्य छोड़ना है। माता-पिता! कौन जानता है-पहले कौन जाएगा? पीछे कौन जाएगा? इसलिए माता-पिता! मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाऊं।
१७७. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बातातः १७७. 'माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को
अम्मताओ जाहे नो संचाएंति यदा नो शक्नोति विषयानुलोमाभिः बहुभिः विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले बहुत विसयाणुलोमाहिं बहूहिं आघवणाहि य । आख्यापनाभिश्च प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञा- आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य पनाभिश्च विज्ञापनाभिश्च आख्यातुं वा विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त, विण्णवणाहि य, आघवेत्तए वा प्रज्ञापयितुं वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुंवा, संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए पण्णवेत्तए वा सण्णवेत्तए वा विण्णवेत्तए तदा विषयप्रतिकूलाभिः संयम-भयोवेजन- तब विषय से विरक्त किन्तु संयम के वा, ताहे विसयपडिकूलाहिं संजम- करोभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन एवम् विषय में भय दिखाकर उद्धेग पैदा करने भयुव्वेयणकरीहिं पण्णवणाहिं पण्णवे- अवादीत्-एवं खलु जात! निर्ग्रन्थं प्रावचनं वाले प्रज्ञापन के द्वारा प्रज्ञापना करते हुए माणा एवं वयासी-एवं खलु जाया! सत्यम अनुत्तरं केवलं प्रतिपूर्ण नैतृकं इस प्रकार बोले-जात! यह निर्ग्रन्थ निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले । संशुद्धं शल्यकर्त्तनं सिद्धिमार्ग मुक्तिमार्ग प्रवचन सत्य, अनुत्तर, अद्वितीय, प्रतिपडिपुण्णे नेयाउए संसुद्धे सल्लगत्तणे निर्याणमार्गम् अवितथम् अविसंधि पूर्ण, नैर्यात्रिक, मोक्ष तक पहुंचाने वाला, सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निज्जाणमग्गे सर्वदुःखपहीणमार्गम. अत्र स्थिताः जीवाः संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि निव्वाण-मग्गे अवितहे अविसंधि सव्व- सिध्यन्ति 'बुज्झंति' मुञ्चन्ति परिनिर्वान्ति का मार्ग, मुक्ति का मार्ग, मोक्ष का मार्ग, दुक्खप्पहीणमग्गे, एत्थं ठिया जीवा । सर्वदुःखानाम् अन्तं कुर्वन्ति।
शांति का मार्ग, अवितथ, अविच्छिन्न और सिझंति बुज्झति मुच्चंति परि- अहेरिव एकान्तदृष्टिकः, क्षुरस्य इव समस्त दुःखों के क्षय का मार्ग है। इस निव्वायंति सव्व-दुक्खाणं अंत करेंति।। एकान्तधारा, लोहमया यवाः चर्वितव्या, निर्ग्रन्थ प्रवचन में स्थित जीव सिद्ध, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंत- वालुकाकवलस्य इव निःस्वादा, गंगा वा प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों धाराए, लोहमया जवा चावे-यव्वा, महानदी प्रतिस्रोतोगमनं, महासमुद्रः वा का अन्त करते हैं। संयम सांप की भांति वालुयाकवले इव निस्साए, गंगा वा भुजाभ्यां दुस्तरः, तीक्ष्णं क्रमितव्यं, गुरुकं एकान्त (एकाग्र) दृष्टि द्वारा साध्य है। महानदी पडिसोयंगमणयाए, महासमुद्दो लम्बितव्यम्, असिधारकं व्रतं चरितव्यम्। क्षुर की भांति एकान्त धार द्वारा साध्य
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श.९ : उ.३३ : सृ. १७७
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भगवई
वा भुयाहि दुत्तरो, तिक्खं कमियव्वं, नो खलु कल्पते जात! श्रमणेभ्यः गरुयं लंबेयव्वं, असिधारगं वयं निर्ग्रन्थेभ्यः आधाकर्मिक इति वा, चरियव्वं।
औद्देशिक इति वा, मिश्रजात इति वा, नो खलु कप्पइ जाया! समणाणं अध्यवतरक इति वा, पूतिक इति वा, क्रीत निग्गंथाणं अहाकम्मिए इ वा, उद्देसिए इ । इति वा, प्रामित्य इति वा, आच्छेद्य इति वा, वा, मिस्सजाए इ वा, अज्झोयरए इ वा, अनिसृष्ट इति वा. अभिहत इति वा, पूइए इ वा, कीते इ वा, पामिच्चे इ वा, कान्तारभक्त इति वा. दुर्भिक्षभक्त इति वा. अच्छेज्जे इवा, अणिसटे इवा, अभिहडे ग्लानभक्त इति वा, वार्दलिकाभक्त इति इवा, कंतारभत्ते इ वा, दुब्भिक्खभत्ते इ वा. प्राघुणकभक्त इति वा, शय्यातरपिण्ड वा, गिलाणभत्ते इ वा, वहलियाभत्ते इ । इति वा, राजपिण्ड इति वा, मूलभोजनम् वा, पाहणगभत्ते इ वा, सेज्जायरपिंडे इ इति वा, कन्दभोजनम् इति वा फलभोजनम् वा, रायपिंडे इ वा, मूलभोयणे इ वा, इति वा, हरितभोजनम् इति वा, भोक्तुं वा कंदभोयणे इ वा, फलभोयणे इ वा, पातुं वा। त्वम् असि च जातः सुखसमुचितः बीयभोयणे इ वा, हरियभोयणे इवा, भोत्तए नो चैव दुःखसमुचितः, नालं शीतं, नालम् वा पायए वा।
उष्णं, नालं क्षुधा, नालं पिपासा, नालं तुम सि च ण जाया! सुहसमुचिए नो चेव चौरान. नालं व्यालान, नालं दंशान, नालं णं दुहसमुचिए, नालं सीय, नालं उण्हं, मशकान. नालं वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिकनालं खुहा, नालं पिवासा, नालं चोरा, सन्निपातिकान् विविधान् रोगातङ्कान, नालं वाला, नालं दंसा, नालं मसगा, परीषहोपसर्गान् उदीर्णान अध्यासितुम। तत् नालं वाइय-पित्तिय सेंभिय-सन्निवाइए नो जात ! आवाम् इच्छावः तव क्षणमपि विविहे रोगायके, परिस्सहोवसग्गे विप्रयोगम, तत आस्व यावत् तावत् आवां उदिण्णे अहियासेत्तए। तं नो खलु जाया! जीवावः ततः पश्चात आवयोः कालगतयोः अम्हे इच्छामो तुब्भं खणमवि विप्पयोगं, सतोः परिणतवयाः वर्द्रितकुलवंशतन्तुकार्ये तं अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे । निरवकाक्षः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य जीवामो तओ पच्छा अम्हेहिं कालगएहिं अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात अनगारितां समाणेहिं परिणयवए, वढिकुल- प्रव्रजिष्यसि। वंसतंतकज्जम्मि निरव-यक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइहिसि।
है। इसमें लोह के यव चबाने होते हैं। यह बालू के कौर की तरह निःस्वाद है। यह महानदी गंगा में प्रतिस्रोत गमन जैसा है, यह महासमुद्र को भुजाओं से तैरने जैसा दुस्तर है। यह तीक्ष्ण कांटों पर चंक्रमण करने, भारी-भरकम वस्तु को उठाने और तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलने जैसा है। जात! श्रमण निर्ग्रन्थ आधाकर्मी,
औदेशिक, मिश्रजात, अध्यवतर. पूति, क्रीत, प्रामित्य-उधार लिया गया, आछेद्य-छीना गया, भागीदार द्वारा अननुमत, सामने लाया गया, कान्तारभक्त, दुर्भिक्ष-भक्त, ग्लान-भक्त, वादलिका-भक्त, प्राभृतिक-भक्त, शय्यातरपिण्ड, राजपिंड, मूल-भोजन, कन्दभोजन, फल-भोजन, बीज-भोजन और हरित भोजन खा पी नहीं सकता। जात! तुम सुख भोगने योग्य हो, दुःख भोगने योग्य नहीं हो। तुम सर्दी, गर्मी, भूख
और प्यास तथा कीट, हिंस्र पश, दंशमशक, वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक और सान्निपातिक. विविध प्रकार के रोग और आतंक तथा उीर्ण परीषह और उपसर्ग को सहन करने में समर्थ नहीं हा। जात हम क्षण भर के लिए भी तुम्हारा वियोग सहना नहीं चाहते इसलिए तुम तब तक रहो, जब तक हम जीवित हैं। उसके पश्चात हम कालगत हो जाएं, तुम्हारी वय परिपक्व हो जाए. तुम कुल-वंश के तंतु कार्य से निरपेक्ष होकर श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो, अगार से अनगारिता में प्रवजित हो जाना।
भाष्य
१.सूत्र-१७७ शब्द-विमर्श
निर्ग्रन्थ प्रवचन-प्रवचन का अर्थ है शासन। भगवान महावीर के समय में जैनधर्म निर्गन्य प्रवचन के नाम से प्रख्यात था।
सत्य-सत्पुरुषा के लिए हितकर है इसलिए वह सत्य है-यह
अर्थ अभयदेव सूरि का है। आवश्यक चूर्णि में इसका दूसरा अर्थ भी मिलता है-यह सद्भूत-यथार्थ होने के कारण सत्य है।
केवलं-अद्वितीय। ऐसा हितकर दूसरा प्रवचन नहीं है इसलिए यह अद्वितीय है-यह चूर्णि की व्याख्या है।'
१. भ. वृ. १.१००/- सच्चेनि सद्भ्यो हितत्वान। २. आव. च. पृ. २४२-जथा सच्चं सद्भ्यो हितं सच्चं. सद्भूतं वा सच्चं । ३. भ. व. ०.१91- केवलं अद्वितीयम।
४. आय, च. पृ. २४२-केवलं अद्वितीयं एतदेवकं हितं नान्यत द्वितीय
प्रवचनमस्निा
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भगवई
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श.९ : उ. ३३ : सू. १७८
पडिपुण्ण-निर्ग्रन्थ प्रवचन में ज्ञान दर्शन और चारित्र-तीनों का समन्वय है इसलिए यह प्रतिपूर्ण है।
नेयाउए-नैर्यातृक, मोक्ष की ओर ले जाने वाला। आवश्यक चूर्णि में इसका अर्थ न्याय से अबाधित किया है। वृत्तिकार ने इसका शब्दार्थ नायक-मोक्ष गमक किया है।
संसुन्द्र-हेतु आदि की कसौटी पर खरा उतरने वाला।
सल्लगत्तणं-माया, निदान और मिथ्यादर्शन शल्य का कर्तन करने वाला।
मुक्ति का मार्ग-आवश्यक चूर्णि में मुक्ति का अर्थ निस्संगता किया है।
निर्याण मार्ग-सिद्धि क्षेत्र में जाने का उपाय।
निर्वाण-आत्म-स्वास्थ्य का मार्ग, सकल कर्म निरपेक्ष सुख का मार्ग।
अवितथ-तथ्य। प्रत्येक युग में अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करन वाला!'
अविसंधि-अव्यवच्छिन्न।
सिझंति......अंतं करेंति-इन पदों का अर्थ प्रस्तुत आगम के १.४७ के भाष्य में किया जा चुका है। आवश्यक चूर्णि में इन पदों का अर्थ तीन नयों से किया गया है। उनमें चूर्णिकार का अपना मत है और दो अन्य मतों को उद्धृत किया गया है।
सिझंति--सिन्द्र होते हैं. सब प्रयोजन परिनिष्ठित हो जाते हैं।
बुज्झंति-बुद्ध होते हैं, केवली हो जाते हैं। मुच्चंति-सब कर्मों के संग से मुक्त हो जाते हैं। परिनिव्वायंति-परिनिर्वृत-परम सुखी हो जाते हैं।
सव्वदुक्खाणमंतं करेंति-सब शारीरिक और मानसिक दुःखों का अंत कर देते हैं। अन्य मत के अनुसार
। सिज्झति-मोहनीय कर्म क्षय होने के कारण उनके सब प्रयोजन निष्ठित हो जाते हैं।
कुछ आचार्यों के मतानुसार-सिझंति-अणिमा, महिमा आदि सिद्धियों से संपन्न हो जाते है।
बुज्झंति-अतिशय बोध से युक्त, विज्ञान युक्त हो जाते हैं। मुच्चंति-सब संगों से मुक्त हो जाते हैं। परिनिव्वायंति-उपशांत-प्रशांत हो जाते हैं। सव्वदुक्खाणमंतं करेंति-सब दुःखों से रहित हो जाते हैं।
अहीव एगंतदिट्टीए-सर्प की आंखों में पलकें नहीं होती. दोनों पलक मिलकर एक पारदर्शी झिल्ली बन जाती है। वह झिल्ली आंखों के उपर मढ़ी रहती है। यही कारण है कि उसकी आंखें सदा खुली रहती है। इस तथ्य को ध्यान में रखकर संयम के प्रति होने वाली एकाग्र दृष्टि की सर्प की एकाग्र दृष्टि से तुलना की गई है।
तुलना के लिए द्रष्टव्य उज्झयणाणि १०.३८ । __अहाकम्मिए......पायए वा-द्रष्टव्य ठाणं १/६२ तथा दसवआलियं ३/२ का टिप्पण।
१७८. तए णं से जमाली खत्तियकुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमार: अम्बा- १.०८. क्षत्रियकुमार जमालिन माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-तहा विणं तं पितरी एवमवादीत-तथापि तत अम्बतात! से इस प्रकार कहा-माता-पिता ! यह अम्मताओ! जणं तुब्भे ममं एवं यत् युवां माम् एवं वदधः-एवं खलु जात! वैसा ही है. जैसा आप कह रहे है-जात! बदह-एवं खलु जाया ! निग्गंथे पावयणे । नम्रन्थं प्रवचनं सत्यम अनुत्तरं केवलं तच्चैव यह निर्गन्थ प्रवचन सत्य, अनुनर सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव जाव यावत् प्रव्रजिष्यसि, एवं खलु अम्बतात! अद्वितीय यावत अगार से अनगारिता में पव्वइहिसि, एवं खलु अम्मताओ! नैर्ग्रन्थं प्रवचनं कलीवानां कातराणां प्रवृजित हो जाना। निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरुषाणाम इहलोकप्रतिबद्धानां परलोक- माता-पिता' कलीब, कायर, कापुरुष, कापुरिसाणं इहलोगपडिबद्धाणं पर- पराङ्मुखानां विषयतृषितानां दुग्नचरः । इहलोक से प्रतिबन्द्र, परलोक से पराङ्गख. लोगपरंमुहाणं विसयतिसियाणं दुर- प्राकृतजनस्य. धीरस्य निश्चितस्य व्यवसि- विषय की तृष्णा रखने वाले और णुचरे पागयजणस्स, धीरस्स तस्य नो खलु अत्र किंचित अपि दुष्कर प्राकृतजन-साधारण मनुष्य के लिए निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं कर्तुम. तत् इच्छामि अम्बतात! युवाभ्याम निग्रंथ प्रवचन आचरण करना दुष्कर है। किंचि वि दुक्करं करणयाए, तं अभ्यनुज्ञातः सन श्रमणस्य भगवतः धीर, कृतनिश्चय और व्यवसाय सम्पन्न इच्छामि णं अम्मताओ! तुब्भेहिं महावीरस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् (उपाय- प्रवृत्त) के लिए उसका आचरण
१. वही, पृ. २४२-न्यायन चरति नयायिक, न्यायाबाधिनमित्यर्थः । २. भ. वृ.१.१991-नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः। ३. आव, चू, पृ. २४२..समस्नं सुलं संसुद्धं बहुविधचालणााहि पयालिन्जन। ४. वही, पृ.-२४२--निव्वाणं-निव्वनी आत्मस्वास्थ्यमित्यर्थः । ५. भ. वृ...2051-सकन्नकर्मविरहजसुखापायः। ६. आव. च. पृ. २४२. अवितथं-नथ्यं। १. भ. वृ.०2001-अवितह-कालान्तरेऽनपगतनथाविधाभिमनप्रकारम। ८. आ. च. पृ. २४२-२४३-सिज्झंति सिद्धा भवंति, परिनिष्ठिनार्थाः
भवन्तीत्यर्थः, ते य बुज्झनि अन आह-बुज्झनि-बुद्धा भवंति, केवली भवतीत्यर्थः, एवं मच्चंति मुच्चंति: नाम सब्वकम्मादिसंगण मुक्ता भवंति,
परिनिव्वायंनि परिनिव्व्या भवंति, परमसुक्षिणा भवतीत्यर्थः कवनी भवंतीत्यर्थः, सव्वदुक्याणं अंनं कांति सबसि सारीरमाणसाण दक्खाण अंतकरा भवति, वाच्छिण्णसव्वद्या भवतीत्यर्थः । अण्ण भणनि-सिन्हानि मोहनीयकवागणं निष्ठितार्थः भवंति। बुन्झनि कवली भवंति। मुञ्चति सब्बकम्गुणा, परिनिव्यानंति निव्वाणं गच्छनि एवं च सत्यदुक्माण थनं करतिनि। अण्ण पुण भणनि--सिन्धांति अणिमामहिमादिगिन्द्रिसम्पन्ना 'भवंति, बुज्झंति अतिसयबोधजुता भवंति विण्णाणयुना इत्यर्थः, मुनि मुक्ता भवंति सव्वसंगहिः परिणिव्वायंनि वसंतपयंता भवन्ति. सव्वदुक्माणमतं करति सव्वदुक्खरहिता भवति।
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श.९ : उ. ३३ : सू. १७८-१८२
भगवई
२९६ अनगारितां प्रव्रजितम्।
अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए॥
किंचित भी दुष्कर नहीं है। इसलिए मातापिता ! मैं चाहता हूं-तुम्हारे द्वारा अनुज्ञात होकर मैं श्रमण भगवान महावीर के पास मुण्ड हो अगार से अनगारिता में प्रव्रजित हो जाऊं।
१७९. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १७९. क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता
अम्मापियरो जाहे नो संचाएंति यदा नो शक्नुतः विषयानुलोमाभिश्च विषय के प्रति अनुरक्त बनाने वाले और विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलाहि विषयप्रतिकूलाभिश्च बहुभिः आख्यापना- विषय से विरक्त किन्तु संयम के विषय में य बहूहिं आघ-वणाहि य पण्णवणाहि य । भिश्च प्रज्ञापनाभिश्च संज्ञापनाभिश्च भय दिखाकर उद्वेग पैदा करने वाले बहुत सण्ण-वणाहि य विण्णवणाहि य आघ- विज्ञापनाभिश्च आख्यातुं वा प्रज्ञापयितुं वा आख्यान, प्रज्ञापन, संज्ञापन और वेत्तए वा पण्णवेत्तए वा सण्णवेत्तए वा संज्ञापयितुं वा विज्ञापयितुं वा तदा अकामं विज्ञापन के द्वारा उसे आख्यात, प्रज्ञप्त विण्णवेत्तए वा, ताहे अकामाई चेव चैव जमालेः क्षत्रियकुमारस्य निष्क्रमणम् संज्ञप्त और विज्ञप्त करने में समर्थ नहीं हुए जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अन्वमन्यताम्।
तब क्षत्रियकुमार जमालि को अनिच्छानिक्खमणं अणुमण्णित्था॥
पूर्वक निष्क्रमण की अनुज्ञा दे दी।
१८०. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रिकुमारस्य पिता १८०. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कुमारस्स पिया कोइंबियपुरिसे सहावेइ, कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो एवम् अवादीत-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्षत्रियदेवाणुप्पिया! खत्तियकुंडग्गामं नयरं क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं साभ्यन्तरबाह्यकम् कुंडग्राम नगर के भीतर और बाहर पानी सब्भितर-बाहिरियं आसिय-सम्मज्जि- आसिक्त-सम्मर्जितोपलिप्तं यथा औप- का छिड़काव करो, झाड़, बुहार जमीन की ओवलितं जहा ओववाइए जाव पातिके यावत् सुगन्धवरगन्धगन्धिकं- सफाई करो, गोबर की लिपाई करो, जैसे सुगंधवरगंधगंधियं गंधवट्टिभूयं करेह य गन्धवर्तिभूतं कुरुथ च कारयथ च, कृत्वा च औपपातिक की वक्तव्यता यावत् प्रवर कारवेह य, करेता य कारवेत्ता य कारयित्वा च एनाम आज्ञप्लिका प्रत्यर्पयथ। सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तहेव तेऽपि तथैव प्रत्यर्पयन्ति।
गंधवर्ती तुल्य करो, कराओ। ऐसा कर पच्चप्पिणंति॥
और कराकर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। उन्होंने वैसा कर आज्ञा का प्रत्यर्पण किया।
१८१. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता १८१. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने पुनः
कुमारस्स पिया दोच्चं पि कोडु- द्वितीयमपि कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर बियपुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! क्षत्रियकुमार वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-प्पिया! देवानुप्रियाः! जमालेः क्षत्रियकुमारस्य महार्थं जमालि का महान् अर्थ वाला, महान् जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महायं महाहं विपुलं निष्क्रमणाभिषेकम् मूल्य वाला, महान अर्हता वाला और महग्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उपस्थापयत। ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः विपुल निष्क्रमण-अभिषेक उपस्थित उवट्ठवेह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा तथैव यावत् उपस्थापयन्ति।
करो। कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही तहेव जाव उवट्ठवेंति॥
निष्क्रमण-अभिषेक उपस्थित किया।
१८२. तए णं तं जमालिं खत्तिय-कुमारं ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ १८२. माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को
अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरत्था- सिंहासनवरे पुरस्तादभिमुखं निषादयतः, पूर्वाभिमुख कर प्रवर सिंहासन पर बिठाते भिमुहं निसीयावेंति, निसीया-वेत्ता निषाद्य अष्टशतेन सौवर्णिकानां कलशानाम् हैं, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्ण-कलश, अट्ठसएणं सोवणियाणं कलसाणं अष्टशतेन रूप्यमयानां कलशानाम्, एक सौ आठ रजत-कलश, एक सौ आठ
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भगवई अट्ठसएणं रुप्पमयाणं कलसाणं, अष्टशतेन मणिमयानां कलशानाम्, अट्ठसएणं मणिमयाणं कलसाणं, अष्टशतेन सुवर्णरूप्यकमयानां कलशानाम्, अट्ठसएणं सुवण्णरुप्पामयाणं कलसाणं, अष्टशतेन सुवर्णमणिमयानां कलशानाम् अट्ठसएणं सुवण्णमणिमयाणं कलसाणं, अष्टशतेन रूप्यमणिमयानां कलशानाम्, अट्ठ-सएणं रुप्पमणिमयाणं कलसाणं, अष्टशतेन सुवर्णरूप्यमणिमयानां कलशाअट्ठसएणं सुवण्णरुप्पमणिमयाणं । नाम्, अष्टशतेन भौमेयानां कलशानां कलसाणं, अट्ठसएणं भोमेज्जाणं सर्वर्द्धया सर्वद्युत्या सर्वबलेन सर्वसमुदयेन कलसाणं सविड्ढीए सव्वजुतीए सर्वादरेण सर्वविभूत्या सर्वविभूषया सर्व सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वा-दरेणं । सम्भ्रमेण सर्वपुष्पगन्धमाल्यालंकारेण सर्व सव्वविभूईए सव्वविभूसाए सव्वसंभमेणं "तुडिय' शब्द-सन्निनादेन महत्या श्रद्ध्या सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्व महत्या द्युत्या महता बलेन महता समुदयेन तुडिय-सह-सण्णि-णाएणं महया महता वर 'तुडिय'-'जमगसमग' प्रवादितेन इड्ढीए महया जुईए महया बलेणं महया शङ्ख-पणव-पटह-भेरी-झल्लरी-खरमुखीसमुदएणं महया वरतुडिय जमगस- हुडुक्क-मुरज-मृदङ्ग-दुन्दुभि-निर्घोषणादिमगप्पवाइएणं संख-पणव-पडह-भेरि- करवेण महता-महता निष्क्रमणाभिषेकेण झल्लरि-खर-मुहि - हुडुक्क - मुरय- अभिसिञ्चति, अभिषिञ्च्य करतलमुइंग · दुंदुहि - णिग्घोसणाइयरवेणं परिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त मस्तके महया-महया निक्खमणाभिसेगेणं अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयतः, अभिसिंचंति, अभिसिंचित्ता करयल वर्धयित्वा एवम् अवादिष्टाम्-भण जात! किं परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए दद्वः, किं प्रयच्छावः? कथं च ते अर्थः? अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वद्धावंति, वद्धावेत्ता एवं वयासी-भण जाया! किं देमो? किं पयच्छामो? किणा व ते अट्ठो?
श.९ : उ. ३३ : सू. १८२-१८४ मणिमय कलश, एक सौ आठ स्वर्णरजतमय कलश, एक सौ आठ स्वर्णमणिमय कलश, एक सौ आठ रजतमणिमय कलश, एक सौ आठ स्वर्णरजत-मणिमय कलश और एक सौ आठ भौमेय (मिट्टी के) कलश के द्वारा उसका निष्क्रमण-अभिषेक करते हैं। संपूर्ण ऋद्धि, द्युति, बल, समुदय, आदर, विभूति, विभूषा, ऐश्वर्य, पुष्प, गंध, माल्यांकार और सब वाद्यों के शब्द निनाद के द्वारा तथा महान् ऋद्धि, महान् द्युति, महान् बल, महान् समुदय, महान् वर वाद्यों का एक साथ प्रवादन, शंख, प्रणव, पटह, भेरी, झालर, खरमुहीकाहला, हुडुक्क-डमरु के आकार का वाद्य. मुरज--ढोलक, मृदंग और दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के द्वारा महान् निष्क्रमण-अभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। अभिषिक्त कर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर 'जय हो-विजय हो के द्वारा वर्धापित करते हैं। वर्धापित कर इस प्रकार बोले-जात! बताओ हम क्या हैं? क्या वितरण करें? तुम्हें किस वस्तु का प्रयोजन है?
१८३. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमार: अम्बा- १८३. क्षत्रियकुमार जमालि ने माता-पिता अम्मापियरो एवं वयासी-इच्छामि णं पितरौ एवमवादीत्-इच्छामि अम्बतात! से इस प्रकार कहा-माता-पिता! मैं अम्मताओ! कुत्तिया-वणाओ रयहरणं कुत्रिकापणात्, रजोहरणं च प्रतिग्रहं च कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र को च पडिग्गहं च आणियं, कासवगं च आनीतं, काश्यपकं च शब्दायितम।
लाना तथा नापित को बुलाना चाहता हूं। सहावियं॥
१८४. तए णं से जमालिस्स खत्तिय-
कुमारस्स पिता कोडुबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिरिघराओ तिण्णि सयसहस्साइं गहाय दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहं च आणेह, सयसहस्सेणं कासवगं सद्दावेह॥
ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता १८४. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! श्री- इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! शीघ्र ही गृहात् त्रीणि शतसहस्राणि गृहीत्वा द्वाभ्यां श्रीगृह से तीन लाख मुद्रा लेकर दो लाख शतसहस्राभ्यां कुत्रिकापणात् रजोहरणं च मुद्रा के द्वारा कुत्रिकापण' से रजोहरण प्रतिग्रहं च आनयत, शतसहस्रेण काश्यपकं और पात्र लाओ। एक लाख मुद्रा से शब्दयत।
नापित को बुलाओ।
भाष्य
१.सूत्र-१८४
श्रीगृह-कोश, कुत्रिकापण-द्रष्टव्य भवगती २/९५-९६ का भाष्य।
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तुष्ट
श.९: उ.३३ : सू. १८५-१८८ २९८
भगवई १८५. तए णं ते कोडुबियपुरिसा ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः जमालेः क्षत्रिय- १८५. कौटुम्बिक पुरुष क्षत्रियकुमार जमालि
जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कुमारस्य पित्रा एवमुक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टाः के पिता के इस प्रकार कहने पर हष्टएवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा करयल• करतलगृहीतं दशनखं शिर-सावर्त्त मस्तके तुष्ट हो गए। दोनों हथेलियों से निष्पन्न परिग्गहियं दसनहं सिरसा-वत्तं मत्थए अजलिं कृत्वा एवं स्वामिन ! तथेति आज्ञया संपुट आकार वाली दस-नखात्मक अंजलिं कट्ट एवं सामी! तहत्ताणाए विनयेन वचनं प्रतिश्रृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकरविणएणं वयणं, पडि-सुणेति, पडिसुणेत्ता क्षिप्रमेव श्रीगृहात् त्रीणि शतसहस्राणि 'स्वामी ! आपकी आज्ञा के अनुसार ऐसा खिप्पामेव सिरिघराओ तिण्णि गृहणन्ति, गृहीत्वा द्वाभ्यां शतसहस्राभ्यां ही होगा, यह कहकर विनयपूर्वक वचन सयसहस्साई गिण्हति, गिणिहत्ता दोहिं कुत्रिकापणात रजोहरणं च प्रतिग्रहं च को स्वीकार करते हैं। स्वीकार कर शीघ्र सय-सहस्सेहि कुत्तियावणाओ रयहरणं आनयन्ति, शतसहस्रेण काश्यपकं ही श्रीगृह से तीन लाख मुद्राएं ग्रहण च पडिग्गहं च आणेति, सय-सहस्सेणं शब्दयन्ति।
करते हैं। ग्रहण कर दो लाख मुद्राओं के कासवगं सद्दावेंति॥
द्वारा कुत्रिकापण से रजोहरण और पात्र लाते हैं, एक लाख मुद्रा के द्वारा नापित को बुलाते हैं।
१८६. तए णं से कासवए जमालिस्स । ततः सः काश्यपकः जमालेः क्षत्रियकुमारस्य १८६. वह नापित क्षत्रियकुमार जमालि के
खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडु- पित्रा कौटुम्बिकपुरुषः शब्दायितः सन् पिता के निर्देशानुसार कौटुम्बिक पुरुषों बियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हट्टतुढे हृष्टतुष्टः स्नातः कृतबलिकर्मा कृत- द्वारा बुलाए जाने पर हृष्ट-तुष्ट हो गया। पहाए कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल- कौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि उसने बलि-कर्म किया. कौतुक, मंगल पायच्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई मंगलानि वस्त्राणि प्रवरं परिहितः और प्रायश्चित्त किया, शुद्धप्रवेश्य (सभा वत्थाई पवर परिहिए अप्पमहग्या- अल्पमहाभिरणालंकृतशरीरः यत्रैव में प्रवेशोचित), मांगलिक वस्त्रों को भरणालंकिय-सरीरे, जेणेव जमालिस्स। जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तत्रैव विधिवत् पहना, अल्पभार और बहुमूल्य खत्तिय कुमारस्स पिया तेणेव उपागच्छति, उपागम्य करतलपरिगृहीतं वाले वस्त्रों से शरीर को अलंकृत किया। उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल- दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा जहां क्षत्रियकुमार जमालि के पिता हैं, परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पितरं जयेन वहां आया, वहां आकर दोनों हथेलियों से अंजलिं कट्ट जमालिस्स खत्तिय- विजयेन वर्धयति वर्धयित्वा एवमवादीत् - निष्पन्न संपुट आकार वाला दस. कुमारस्स पियरं जएणं विजएणं संदिशन्तु देवानुप्रियाः यत् मया करणीयम्। नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख वद्धावेइ वद्धावेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु
घुमाकर क्षत्रियकुमार जमालि के पिता को णं देवाणुप्पिया! जं मए करणिज्ज?
'जय हो-विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोला-देवानुप्रिय! मुझे जो करणीय है, उसका संदेश दें।
१८७. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तं कुमारस्स पिया तं कासवगं एवं काश्यपकम् एवमवादीत-त्वं देवानुप्रिय! वयासी-तुमं देवाणुप्पिया! जमालि-स्स जमालेः क्षत्रियकुमारस्य परेण यत्नेन खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउ- चतुरङ्गलवान् निष्क्रमणप्रायोग्यान् रंगुलवज्जे निक्खमणपाओग्गे अग्ग- अग्रकेशान् कल्पस्व। केसे कप्पेहि॥
१८७. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता नापित
को इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! तुम परम यत्न से क्षत्रियकुमार जमालि के चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण-प्रायोग्य अग्र केशों को काटो।
१८८. तए णं से कासवगे जमालिस्स
खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हठ्ठतुढे करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं सामी! तहत्ताणाए विणएणं वयणं
ततः सः काश्यपकः जमालेः क्षत्रिय- १८८. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के इस कुमारस्य पित्रा एवमुक्ते सति हृष्टतुष्टः प्रकार कहने पर नापित हृष्ट-तुष्ट हो करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावल गया। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट मस्तके अंजलिं कृत्वा एवं स्वामिन् ! तथेति आकार वाली दस-नखात्मक अंजलि को आज्ञया विनयेन वचनं प्रतिश्रृणोति, सिर के सम्मुख घुमाकर 'स्वामी! आपकी
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भगवई
पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सुरभिणा गंधोदणं हत्थपादे पक्खालेइ, पक्खालेत्ता सुद्धा अपडला पोत्तीए मुहं बंधइ, बंधित्ता जमालिस खत्तियकुमारस्स परेण जत्तेणं चउरंगुलवज्जे निक्खमणपाओगे अग्गकेसे कप्पेइ ॥
१८९. त णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडणं अग्गकेसे पडिच्छर, पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदणं पक्खालेइ, पक्खालेत्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहिं अच्चेति, अच्चेत्ता सुद्धे वत्थे बंधइ, बंधित्ता रयणकरंडगंसि पक्खिवति, पक्खि वित्ता हारवारिधारसिंदुवार - छिण्णमुत्ता वलिप्पगासाई सुयवियोगदूसहाई अंसूई विणिम्मुयमणीविणिम्यमाणी एवं क्यासी- एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स बहू तिहीसु य पव्वणीसु य उस्सवेसु य जण्णेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सतीति कट्टु ऊसीसगमूले ठवेति ॥
१. सूत्र १८८
अग्रकेशों को काटने की परंपरा दक्षिण भारत के पुजारियों में आज भी प्रचलित है। अभिनिष्क्रमण के समय केश कर्तन की दो
१. सूत्र - १८९ शब्द-विमर्श
प्रतिश्रुत्य सुरभिणा गन्धोदकेन हस्तपादौ प्रक्षालयति, पक्षाल्य शुद्धया अष्टपटलया 'पोत्तीए' मुखं बध्नाति, बद्ध्वा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य परेण यत्नेन चतुरङ्गुलवर्ज्यान् निष्क्रमणप्रायोग्यान् अग्रकेशान कल्पते।
हंस लक्षण - वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं१. सफेद २. हंस से चिह्नित । "
१. पज्जो. सू. ७५ ।
२. (क) नाया० १/१/१२५।
हार........प्पगासाई - आंसू की श्वेतिमा बतलाने के लिए चार उपमाओं का प्रयोग किया गया है
२९९
(ख) भ. ९/१८७ ।
३. भ. वृ. ९ / ९८० - हंसलक्खणेणं शुक्लेन हंसचिह्नेन वा ।
४. वही, १/१८९ - तिहीसु य नि मदनत्रयोदश्यादि तिथिषु ।
भाष्य
ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता हंसलक्षणेन पटशाटकेन अग्रकेशान प्रतीच्छति, प्रतीष्य सुरभिणा गन्धोदकेन प्रक्षालयति, प्रक्षाल्य अग्रैः वरैः गन्धैः माल्यैः अर्चति, अर्चित्वा 'शुद्धे वस्त्रे' बध्नाति, बद्ध्वा रत्नकरण्डके प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य हार - वारिधारा- सिन्दुवारछिन्नमुक्तावलि - प्रकाशानि सुतवियोगदुस्सहानि अश्रूणि विनिर्मुञ्चतीविनिर्मुञ्चती एवमवादीत् एतद् अस्माकं जमालेः क्षत्रियकुमारस्य बहुषु तिथिषु च पर्वणीषु च उत्सवेषु च यज्ञेषु च क्षणेषु च अपश्चिमं दर्शनं भविष्यतीति कृत्वा उच्छीर्षकमले स्थापयति ।
भाष्य
परंपराएं मिलती हैं
१. पंच मुष्टिक लोच की परंपरा । *
२. चतुरंगुल वर्ज अग्रकेश काटने की परंपरा । "
श. ९ : उ. ३३ : सू. १८८, १८९ आज्ञा के अनुसार ऐसा ही होगा।' यह कहकर विनयपूर्वक वचन को स्वीकार किया। स्वीकार कर सुरभित गंधोदक से हाथ पैर का प्रक्षालन किया। प्रक्षालन कर आठ पट वाले शुद्ध वस्त्र से मुख को बांधा, बांधकर परम यत्न से क्षत्रियकुमार जमालि के चार अंगुल छोड़कर निष्क्रमण प्रायोग्य अग्रकेशों को काटा।
१८९. क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने हंसलक्षण पटशाटक में अग्रकेशों को ग्रहण किया। ग्रहण कर सुरभित गंधोदक से प्रक्षालन किया। प्रक्षालन कर प्रधान और प्रवर गंध माल्य से अर्चा की, अर्चित कर शुद्ध वस्त्र में बाधा | बांधकर रत्नकरंडक में रखा। रख कर हार, जलधारा, सिंदुवार (निर्गुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों की लड़ी के समान दुःस्सह पुत्र वियोग के कारण बार-बार आंसू बहाती हुई इस प्रकार बोली- बहुत तिथि, पर्वणी (पूर्णिमा आदि) उत्सव, नाग पूजा, यज्ञ, इन्द्रोत्सव आदि के अवसर पर क्षत्रियकुमार जमालि का यह अंतिम दर्शन होगा। यह चिन्तन कर उस रत्नकरंडक को अपने सिरहाने के नीचे रखा ।
१. हार २. वारिधारा ३. सिंदुवार ४. छिन्नमुक्तावलि ।
तिथि - मदन त्रयोदशी आदि । *
पर्वणि - कार्तिक पूर्णिमा आदि। " उत्सव- प्रिय-संगम आदि।
यज्ञ - नागपूजा आदि । '
क्षण - इन्द्रोत्सव आदि । '
५. वही, ९ / ९८९ -- पर्व्वणीषु च कार्तिक्यादिषु ।
६. वही, ९ / ९८९ - उस्सवेसु ति य प्रियसंगमादिमहेषु ।
७. वही, ९/१८९ - जन्नेसु यत्ति नागादि पूजासु ।
८. वही, ९ / १८० - छणेसु यत्ति इन्द्रोत्सवादि लक्षणेषु ।
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श.९ : उ.३३ : सू. १९० ३००
भगवई १९०. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य अम्बा- १९०. 'क्षत्रियकुमार जमालि के माता-पिता कुमारस्स अम्मापियरो दोच्चं पि पितरौ द्वितीयमपि उत्तराप्रकमणं सिंहासनं ने दूसरी बार उत्तराभिमुख सिंहासन की उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति, रचयतः, रचयित्वा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य रचना कराई। कराकर क्षत्रियकुमार रयावेत्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स श्वेत-पीतकैःकलशैः स्नपयतः स्नपयित्वा जमालि को श्वेत-पीत कलशों से स्नान सेयापीयएहिं कलसेहिं ण्हावेंति, पक्ष्मलसुकुमालया सुरभिणा गन्धकाषा- कराया। स्नान कराकर रोएंदार, सुकुमाल ण्हावेत्ता पम्हलसुकुमालाए सुरभीए । यिणा गात्राणि रुक्षयतः, रुक्षयित्वा सरसेन सुरभित गंध-वस्त्र से गात्र को पौंछा। गंधकासाईए गायाई लूति, लूहेत्ता गोशीर्षचन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पतः, पौंछकर सरस गोशीर्षचंदन का गात्र पर सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अनुलिप्य नासानिःश्वासवातोह्यं चक्षुःहरं अनुलेप किया। अनुलेप कर नासिका की अणुलिंपति, अणुलिंपित्ता नासानिस्सा- वर्ण-स्पर्शयुक्तं हयलालापेलवातिरेकं धवलं निःश्वास वायु से उड़ने वाला, चक्षुहर वर्ण सवायवोज्झं चक्खुहरं वण्ण- कनकखचितांत-कर्म महार्ह हंसल-क्षण- और स्पर्श से युक्त, अश्व की लाल से भी फरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं पटशाटकं परिधत्तः, परिधाय हारं पिनह्यतः, अधिक प्रतनु, धवल किनार पर सोने के कणखचिंततकम्मं महरिहं हंसलक्खण- पिनह्य अद्वहारं पिनह्यतः, पिनह्य एकावलिं तार से जड़ा हुआ बहुमूल्य अथवा पडसाडगं परिहिंति, परिहित्ता हारं पिनह्यतः पिनह्य मुक्तावलिं पिनह्ययतः, महापुरुष योग्य हंस लक्षण वाला पिणन्द्रेति, पिणद्वेत्ता अद्धहारं । पिनह्य रत्नावलिं पिनह्यतः, पिनह्य एवम्- पटशाटक पहनाया। पहनाकर हार पिणद्धेति, पिणवेत्ता एगावलिं। अङ्गदानि केयूराणि कटकानि 'तुडियाइ' पहनाया। हार पहनाकर अर्द्धहार पहनाया। पिणन्द्रेति, पिणद्वेत्ता मुत्तावलिं कटिसूत्रकं दशमुद्रा-नन्तकं वैकक्षसूत्रकं अर्द्धहार पहनाकर एकावली पहनाई। पिण-ति, पिणछेत्ता रयणावलिं। 'मुरविं' कंठ 'मुरविं' प्रालम्ब-कुण्डलानि एकावली पहनाकर मुक्तावली पहनायी। पिणछेति, पिणद्वेत्ता एवं-अंगयाइं चूड़ामणिं चित्रं रत्न-सङ्कटोत्कटं मुकुटं मुक्तावली पहनाकर रत्नावली पहनायी। केयूराई कडगाइं तुडियाई कडिसुत्तगं पिनह्यतः, किं बहुना ? ग्रथित-वेष्टिम- रत्नावली पहनाकर इसी प्रकार-अंगद, दसमुद्दाणंतगं विकच्छसुत्तगं मुरविं पूरिम-संघातिमेन चतुर्विधेन माल्येन कल्प- केयूर, कड़े, बाजूबंध, करधनी, दसों कंठमुरविं पालंबं कुंडलाइं चूडामणिं रुक्षकं इव अलंकृत-विभूषितं-कुर्वतः । अंगुलियों में मुद्रिकाएं, विकक्षसूत्र चित्तं रयणसंकड़क्कडं मउर्ड पिणछेति,
(उत्तरासंग पर पहना जाने वाला आभरण) किं बहुणा? गंथिम-वेढिम-पूरिम
सूरज के आकार का आभरण, कण्ठसंघातिमेणं चउविहेणं मल्लेणं
मुरवि, मुक्तामाला, कुण्डल, चूड़ामणि, कप्परुक्खगं पिव अलंकिय-विभूसियं
रत्नों की प्रचुरता से उत्कृष्ट बना हुआ करेंति॥
विचित्र मुकुट पहनाया। और अधिक क्या? गूंथी हुई, वेष्टित, पूरित और संहत की हुई-इन चार प्रकार की मालाओं से क्षत्रियकुमार जमालि को कल्पवृक्ष की
भांति अलंकृत, विभूषित कर दिया।
भाष्य १.सूत्र-१९०
कडग-कड़ा, चूड़ी के आकार का आभूषण, जो हाथ और पांव में शब्द-विमर्श
पहना जाता है। उत्तरावक्रमण-उत्तराभिमुख-उत्तरापक्रमण।'
तुडिया बाजूबंध, भुजा पर पहनने का आभूषण। सेयापीए-चांदी और सोने से बना हुआ।'
कटिसूत्र-करधनी, सोने चांदी की पट्टी या लड़ियों का गहना, जो पम्हसुउमाल-रोएंदार सुकुमाल।
कमर में पहना जाता है। गंधकासाईए-सुगंध युक्त वस्त्र।
विकच्छसुत्तग-विकक्ष-सूत्र, यज्ञोपवीत की तरह पहना हुआ हार, एकावलि-मोतियों की एक हाथ लम्बी माला। वृत्ति के अनुसार उत्तरासंग पर पहना जाने वाला आभरण।" इसका अर्थ है विचित्र मणियों की माला।'
मुरवी-मुरज के आकार का आभरण। मुक्तावलि-मुक्ताहार।
कंठ मुरवि-कंट में पहना जाने वाला मुरज के आकार का आभरण। रत्नावलि-रत्नहार।
प्रालंब-सीने तक लटकने वाली माला। अंगद-वह आभरण, जो कोहनी के उपर भुजा में पहना जाता है। कुंडल-कान में पहनने वाला आभूषण।
केयूर-भुजा का आभरण। वृत्तिकार ने अंगद और केयूर में आकार- चूड़ामणि-शीश-फूल। भेद माना है। १६. भ. वृ.९/१०
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भगवई
१९१. तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सहाas, सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसण्णिविट्ठ लीलट्ठियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवण्णओ जाव मणिरयणघंटिया जालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहिणि सीयं उबट्टवेह, उववेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पच्चप्पिणंति ॥
१. सूत्र - १९१
सालभंजिया - पुतली । '
१९२. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे केसालंकारेणं, वत्थालंकारेणं, मल्लालंकारेणं, आभरणा लंकारेणंचउव्विहेणं - अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुट्ठेइ, अब्भुट्ठेत्ता सीयं अणुप्प - दाहिणीकरेमाणे सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे ।
१९३. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माता पहाया कयबलि-कम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणा-लंकियसरीरा हंसलक्खणं पड साडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणी- करेमाणी सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणवरंसि सण्णिसण्णा ॥
१९४. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मधाती पहाया कयबलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा रयहरणं पडिग्गहं च गाय सीयं अणुप्पदाहिणी- करेमाणी सीयं दुरुहइ, दुरुहित्ता जमालिस्स
१. भ. वृ. ९ / १९१ - शालभञ्जिकाः पुत्रिका विशेषा ।
३०१
ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रदेव भो देवानुप्रियाः ! अनेकस्तम्भशतसन्निविष्टां, लीलास्थिकशालभञ्जिकां यथा राजप्रश्नीये विमानवर्णकः यावत् मणिरत्नघण्टिका जालपरिक्षिप्तां पुरुषसहस्रावाहिनीं शिबिकाम् उपस्थापयत, उपस्थाप्य माम् एतामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयत । ततः कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रत्यर्पयन्ति ।
भाष्य
सीयं शिविका ।
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः केशालं - कारेण, वस्त्रालंकारेण, माल्यालंकारेण, आभारणालंकारेण चतुर्विधेनालंकारेण अलंकारितः सन् प्रतिपूर्णालंकारः सिंहानात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय शिबिकाम् अनुप्रदक्षिणीकुर्वन् शिबिकाम् आरोहति आरुह्य सिंहासनवरे पुस्तादभिमुखः संनिषण्णः ।
ततः सः जमालेः क्षत्रियकुमारस्यः माता स्नाता कृतबलिकर्मणी यावत् अल्पमहार्घ्या - भिरणालंकृतशरीरा हंसलक्षणं पट्टशाटकं गृहीत्वा शिबिकाम् अनुप्रदक्षिणी कुर्वती शिबिकाम् आरोहति, आरुह्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य दक्षिणे पार्श्वे भद्रासनवरे संनिषण्णः ।
ततः सः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्यः अम्बधात्री स्नाता कृतबलिकर्मणी यावत् अल्पमहार्घ्याभरणालंकृतशरीरा रजोहरणं प्रतिग्रहं च गृहीत्वा शिबिकाम् अनुप्रदक्षिणी कुर्वती शिबिकाम् आरोहति, आरुह्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य वामे पार्श्वे
श. ९ : उ. ३३ : सू. १९१-१९४ १९१. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! शीघ्र ही अनेक सैकड़ों खंभों से युक्त, नृत्य करती हुई पुतलियों से उत्कीर्ण, जैसे रायपसेणीय के विमान वर्णक में वक्तव्य है यावत् मणिरत्न जटित घंटिका जाल से घिरी हुई हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका उपस्थित करो। उपस्थित कर मेरी इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो। तब कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा कर यावत् आज्ञा का प्रत्यर्पण किया।
१९२. क्षत्रियकुमार जमालि को केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार, आभरणालंकार- इस चतुर्विध अलंकार से अलंकृत किया गया। वह प्रतिपूर्ण अलंकृत होकर सिंहासन से उठा । उठकर शिविका की अनुप्रदक्षिणा कर शिविका पर आरूढ़ हो गया। आरूढ़ होकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख आसीन हुआ।
१९३. क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने स्नान किया, बलिकर्म किया, अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। वह हंसलक्षण वाला पटशाटक ग्रहण कर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करती हुई शिविका पर आरूढ़ हो गई। आरूढ़ होकर वह क्षत्रियकुमार जमालि के दक्षिण पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन हुई।
१९४. क्षत्रियकुमार जमालि की धायमाता ने स्नान किया, बलिकर्म किया यावत् अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत किया। वह रजोहरण और पात्र को लेकर शिविका की अनुप्रदक्षिणा करती हुई शिविका पर
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श.९: उ. ३३ : सू. १९४-१९६
भगवई
३०२ भद्रासनवरे संनिषण्णा।
पासे
खत्तियकुमारस्स वामे भद्दासणवरंसि सण्णिसण्णा॥
आरूढ़ होकर क्षत्रियकुमार जमालि के वाम पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन
१९५. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पृष्ठतः १९५. क्षत्रियकुमार जमालि के पीछे एक
कुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी । एका वरतरुणी भंगाराकारचारवेषा प्रवर तरुणी मूर्तिमान श्रृंगार और सुन्दर सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- सङ्गत-गत · हसित - भणित - चेष्टित- वेशवाली, चलने, हंसने, बोलने और हसिय-भणिय - चेट्ठिय - विलास-सल- विलास-सललित - संलाप-निपुण-युक्तो- चेष्टा करने में निपुण तथा विलास और लिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयारकुसला । पचारकुशलः सुन्दरस्तन-जघन-वचनकर- लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण, समुचित सुंदरथण - जघण · वयण-कर-चरण- चरण-नयन-लावण्य-रूप-यौवन-विलास- उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, नयण-लावण्ण-रूव-जोव्वण-विलास- कलिता शरदभ्र-हिम-रजत-कुमुद कुन्देन्दु- मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, कलिया सरदब्भ-हिम - स्यय - कुमुद- प्रकाशं सकोरेंटमाल्यदाम् धवलम् आतपत्रं यौवन और विलास से कलित, शारद कुंदे-दुप्पगासं सकोरेंटमल्लदाम धवलं । गृहीत्वा सलीलाम् अवधारयती-अवधार- मेघ, हिम, रजत, कुमुद, कुन्द और आयवत्तं गहाय सलीलं ओधरे-माणी- यती तिष्ठति।
चन्द्रमा के समान कटसरैया की माला ओधरेमाणी चिट्ठति॥
और दाम तथा धवल छत्र को लेकर लीला सहित धारण करती हुई, धारण
करती हुई खड़ी हो गई। भाष्य
संलाप-परस्पर संभाषण। वृत्ति में एक श्लोक उद्वत हैशब्द-विमर्श
अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। सिंगारागारचारुवेसा-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
क क्वा वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः॥' १. शृंगार रस के गृह तुल्य और चारुवेश वाली।
जुत्तोवयारकुसल-उचित उपचार में कुशल। २. शृंगार प्रधान आकार और चारुवेश वाली।'
रूप-आकृति संगय-उचित।
विलास-यहां विलास का अर्थ स्थान, गमन आदि में एक चेट्ठिय-चेष्टा करने में निपुण।
विशेष स्थिति का प्रयोग है। विलास-नेत्र विकार। वृत्ति में एक श्लोक उद्धृत है
सरदब्भ-शरद ऋतु का मेघ। हावो मुखविकारः स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भूसमुद्भवः॥
१९६. तए णं तस्स जमालिस्स (खत्तिय- ततः तस्य जमालेः (क्षत्रिय कुमारस्य?) १९६. क्षत्रियकुमार जमालि के दोनों ओर दो कुमारस्स?) उभओ पासिं दुवे उभयतः पार्वे द्वे वरतरुण्यौ शृङ्गाराकार- प्रवर तरुणियां मूर्तिमान शृंगार और वरतरुणीओ सिंगारागार चारुवेसाओ चारवेषे सङ्गत - गत - हसित - भणित- सुन्दर वेशवाली, चलने, हंसने, बोलने, संगय-गय-हसिय-भणिय-चे ट्ठिय- चेष्टित-विलास-सललित-संलाप- निपुण- और चेष्टा करने में निपुण, विलास और विलास-सललिय-संलाव-निउणजुत्तो युक्तोपचारकुशले सुन्दरस्तन-जधन-वदन- लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण, समुचित वयारकुसलाओ सुंदरथण-जघण- कर-चरण-नयन-लावण्य-रूप-यौवन- उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि. वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव. विलासकलिते नाना-मणि-कनकरत्न मुख, हाथ, पैर, नयन-लावण्य, रूप, जोव्वण-विलास कलियाओ नाणा- विमलमहार्हतपनीयोज्ज्वलविचित्रदण्डे, यौवन और विलास से कलित, नाना मणि-कणग - रयण - विमलमहरिहत- 'चिल्लिये' शङ्खाङ्क-कुन्द-दकरजो- मणिरत्न (कनक) विमल और महामूल्य वणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ, चिल्लि- ऽमृत-महित-फेनपुञ्जसन्निकाशे धवले तपनीय (रक्तस्वर्ण) से निर्मित, उज्ज्वल याओ, संखंक-कुंद - दगरय - अमय - चामरे गृहीत्वा सलीलां वीजयत्यौ- और विचित्र दण्ड वाले दीप्तिमान शंख, महिय . फेणपुंजसण्णि - कासाओ वीजयत्यौ तिष्ठतः।
अंकरत्न, कुन्द, जलकण, अमृत और १. भ. वृ. ९/१०५--शृंगारस्य-रसविशेषस्यागारमिव यश्चारुश्च वेषो नेपथ्यं ४. वही, ९/१९५- इह विलासशब्देन स्थानासनगमनादीनां सुश्लिष्ये यो सा तथा, अथवा शृंगारप्रधान आकारश्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा।
विशेषोऽसावुच्यते, यदाह२. वही, ९/१९५।
स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। ३. वही, १/१९५।
उत्पद्यते विशेषो यः, श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात।।
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भगवई
३०३
धवलाओ चामराओ गहाय सलीलं वीयमाणीओ-वीयमाणीओ चिट्ठति।।
श.९ : उ. ३३ : सू. १९६-२०० मथित फेनपुञ्ज जैसे चामरों को लेकर लीला के साथ वीजन करती हुई, वीजन करती हुई खड़ी हो गई।
१९७. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य १९७. क्षत्रियकुमार जमालि के उत्तरकुमारस्स उत्तरपुत्थिमे णं एगा उत्तरपौरस्त्ये एका वरतरुणी शृङ्गाराकार- उत्तरपौरस्त्ये एका वरतरुणी श्रङाराकार- पश्चि
पश्चिम में एक प्रवर तरुणी मूर्तिमान वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगय. चारुवेषा सङ्गत-गत-हसित-भणित-चेष्टि- श्रृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने गय-हसिय भणिय-चेट्ठिय-विलास- त विलास-सललित-संलाप निपुण- हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, सललिय - संलाव - निउणजुत्तोवयार- युक्तोपचारकुशला सुन्दरस्तन जघन विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में कुसला सुंदरथण-जघण-बयण-कर- वदन-कर - चरण - नयन - लावण्य-रूप- निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर चरण-नयण-लावण्ण - रूव - जोव्वण- यौवन-विलासकलिता श्वेतं रजतमयं स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, विलास कलिया सेतं रययामयं विमल- विमल-सलिलपूर्ण मत्तगजमहामुखाकृति- लावण्य, रूप, यौवन और विलास से सलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहाकिति- समानं भृङ्गारं गृहीत्वा तिष्ठति।
कलित, श्वेत, रजतमय विमल सलिल से समाणं भिंगारंगहाय चिट्ठइ।
परिपूर्ण, मत्त हार्थी के विशाल मुख की आकृति के समान झारी लेकर खड़ी हो गई।
१९८. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य १९८. क्षत्रियकुमार जमालि के दक्षिण
खत्तियकुमारस्स दाहिणपुरस्थिमे णं दक्षिणपौरस्त्ये एका वरतरुणी शृंङ्गाराकार- पश्चिम में एक प्रवर तरुणी मूर्तिमान एगा वरतरुणी सिंगारागार-चारुवेसा चारवेषा सङ्गत-गत-हसित-भणित- शृंगार और सुन्दर वेश वाली, चलने, संगय - गय - हसिय - भणिय-चेट्ठिय- चेष्टित - विलास - सललित - संलाप- हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, विलास - सललिय - संलाव - निउण- निपुणयुक्तोपचारकुशला सुन्दरस्तन- बिलास और लालित्यपूर्ण संलाप में जुत्तोवयार-कुसला सुंदरथण-जघण. जघन - वदन - कर - चरण-नयन-लावण्य- निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर वयण - कर - चरण-नयण - लावण्ण- रूप-यौवन-विलासकलिता चित्रकनकदण्डं स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन. रूव-जोव्वण-विलास कलिया चित्तः । तालवृन्तं गृहीत्वा तिष्ठति।
लावण्य, रूप, यौवन और विलास से कणगदंडं तालवेंट गहाय चिट्ठइ।।
कलित, विचित्र स्वर्णदण्ड वाले तालवृंत (वीजन ) लेकर खड़ी हो गई।
१९९. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- कुमारस्स पिया कोडुबिय-पुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी- खिप्पामेव भो देवाणु-प्पिया! सरिसयं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावण्ण-रूवजोव्वण-गुणोववेयं, एगाभरणवसणगहिय-निज्जोयं कोडुबियवरतरुणसहस्सं सद्दावेह॥
ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता १९९. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! शीघ्र ही सदृशकं सदृक्त्वग् सदृग्वयः सदृश- सदृश, समान त्वचा वाले. समान वय लावण्य-रूप-यौवन-गुणोपपेतम्, एका- वाले, सदृश लावण्य रूप और यौवन गुणों भरण-वसन-गृहीतनिर्योगं कौटुम्बिक- से उपेत, एक जैसे आभरण, वेश और वरतरुणसहस्रं शब्दयत।
कमर-बंध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को
बुलाओ।
२००. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य २००. कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् विनयपडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं सरित्तयं क्षिप्रमेव सदृशकं सदृक्त्वग् सदृग्वयः पूर्वक वचन को स्वीकार कर शीघ्र ही सरिव्वयं सरिसलावण्ण-रूव-जोव्वण- सदृशलावण्य - रूप - यौवन - गुणोपपेतम् सदृश, समान त्वचा वाले, समान वय गुणोववेयं एगाभरण-बसणगहिय- एकाभरणवसन-गृहीतनिर्योगं कौटुम्बिक- वाले, समान लावण्य, रूप और यौवन निज्जोयं कोडुबियवर-तरुणसहस्सं वरतरुणसहसं शब्दयन्ति।
गुणों से उपेत, एक जैसे आभरण, वेश
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श.९: उ.३३ : सू. २००-२०४
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भगवई
सहावेंति॥
और कमरबंध धारण किए हुए एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया।
२०१. तए णं ते कोडुबियवरत-रुणपुरिसा ततः ते कौटुम्बिकवरतरुणपुरुषाः जमालेः २०१. वे प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुष जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स पिउणा क्षत्रियकुमारस्य पित्रा कौटुम्बिकपुरुषैः क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के कोडुबिय-पुरिसेहिं सहाविया समाणा शब्दायिताः सन्तः हृष्टतुष्टाः स्नाताः निर्देशानुसार कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा हट्ठतुट्ठा बहाया कयबलिकम्मा कयको. कृतबलिकर्माणः कृतकौतुक-मंगल-प्राय- बुलाये जाने पर हृष्ट-तुष्ट हो गए। उय-मंगल-पायच्छित्ता एगाभरण- श्चित्ताः एकाभरणवसनगृहीतनिर्योगाः उन्होंने स्नान और बलिकर्म किया, वसणगहियनिज्जोया जेणेव जमा- यत्रैव जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तत्रैव कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया। लिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतलपरिगृहीतं एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल- दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा धारण कर जहां क्षत्रियकुमार जमालि के परिग्गहियं दसनहं सिर-सावत्तं मत्थए जयेन विजयेन वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा पिता हैं, वहां आए, आकर दोनों हथेलियों अंजलिं कट्ट जएणं विजएणं वदावेंति, एवमवादीत्-संदिशन्तु देवानुप्रियाः! यत् से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसवद्धावेत्ता एवं वयासी-संदिसंतु णं अस्माभिः करणीयम्।
नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख देवाणुप्पिया! जं अम्हेहिं करणिज्जं॥
घुमाकर 'जय हो-विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! हमें जो करणीय है, उसका संदेश दें।
२०२. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता तं कुमारस्स पिया तं कोडुंबिय-वरतरुण- कौटुम्बिकवरतरुणसहस्रं एवमवादीत-यूयं सहस्सं एवं वयासी-तुब्भे णं देवानुप्रियाः! स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतदेवाणुप्पिया! ण्हाया कयबलि-कम्मा कौतुकमंगल-प्रायश्चित्ताः, एकाभरणकयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता एगा- वसन-गृहीतनिर्योगाः जमालेः क्षत्रियभरण - वसण - गहिय - निज्जोया कुमारस्य शिबिकां परिवहत। जमालिस्स खत्तिय-कुमारस्स सीयं परिवहेह॥
२०२. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने उन एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक पुरुषों से इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! तुम स्नान और बलिकर्म कर, कौतुक, मंगल
और प्रायश्चित्त कर, एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन करो।
२०३. तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा ततः ते कौटम्बिकवरतरुणपुरुषाः जमालेः २०३. एक हजार प्रवर तरुण कौटुम्बिक जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा क्षत्रियकुमारस्य पित्रा एवम् उक्ताः सन्तः पुरुषों ने क्षत्रियकुमार जमालि के पिता के एवं वुत्ता समाणा जाव पडिसुणेत्ता यावत् प्रतिश्रुत्य स्नाताः यावत् एकाभरण- इस प्रकार कहने पर यावत् विनयपूर्वक ण्हाया जाव एगाभरणवसणगहिय- वसनगृहीतनिर्योगाः जमालेः क्षत्रिय- वचन को स्वीकार कर स्नान किया यावत् निज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स कुमारस्य शिबिकां परिवहन्ति।
एक जैसे आभरण, वेश और कमरबंध सीयं परिवहंति॥
धारण कर क्षत्रियकुमार जमालि की शिविका को वहन किया।
२०४. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य २०४. 'हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने कुमारस्स पुरिससहस्स-बाहिणिं सीयं पुरुषसहसवाहिनीं शिबिकाम् आरूढस्य वाली शिविका पर आरूढ़ क्षत्रियकुमार दुरुढस्स समाणस्स तप्पढमायाए इमे ___ सतः तत्प्रथमतया इमे अष्टाष्टमंगलकाः जमालि के आगे-आगे सबसे पहले ये अट्ठमंगलगा पुरओ आहाणुपुव्वीए पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः तद्यथा- आठ-आठ मंगल प्रस्थान कर रहे थे, संपट्ठिया, तं जहा-सोत्थिय-सिरिवच्छ- स्वस्तिक-श्रीवत्स-नन्द्यावर्त-वर्द्धमानक- जैसे-स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त्त, णंदिया - वत्त - बद्धमाणग - भद्दासण- कलश-मत्स्य-दर्पणाः। तदनन्तरं च। वर्धमानक, भद्रासन, कलश, मत्स्य और कलस-मच्छदप्पणा। तदाणंतरं च णं पूर्णकलशभृङ्गारं, दिव्या च छत्रपताका दर्पण। उसके बाद पूर्ण कलश, झारी,
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भगवई
पुण्णकलसभिंगार, दिव्वा य छत्तपडागा सचामरा दंसण-रइय-आलोयदरिस - णिज्जा, वाउदय - विजयवेजयंती ऊसिया गगण- तलम णुलिहंती पुरओ अणुवी संपट्टिया । तदाणंतरं च णं वेरुलिय-भिसंतविमलदंड पलंबकोरंटमल्लदामोव-सोभियं चंदमंडलणिभं समूसियं विमलं आयवत्तं, पवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउया - जोयसमाउत्तं बहुकिंकर - कम्मकर पुरिस पायत्त परिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं । तदाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलग-ग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कूवग्गाहा हडप्पग्गाहा पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्टिया ।
तदाणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो जडिणो पिंछिणो हासकरा डमरकरा - दवकरा चाडु करा कंदप्पिया कोक्कुइया किडु - करा य वायंता य गायंता य णच्चंता य हसंता य भासता य सासंताय सावेंता य रक्खता य आलोयं च करेमाणा जय-जय सद्दं पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया । तदाणंतरं च णं बहवे उग्गा भोगा खत्तिया इक्खागा नाया कोरव्वा जहा ओववाइए, जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ य मग्गतो य पासओ अहाणुपुवीए संपट्टिया ॥
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९. सूत्र - २०४ शब्द-विमर्श
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३०५
सचामरा दर्शनरचित-आलोक दर्शनीया, वातोद्धूता विजय वैजयन्ती च उच्छ्रिता गगनतलमनुलिखन्ती पुरतः आनुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च वैडूर्य-भासमानविमलदंड प्रलम्ब कोरण्टमाल्यदामन्नुपशोभितं चन्द्रमण्डलनिभं समुच्छ्रितं विमलम् आतपत्रं, प्रवरं सिंहासनं वरमणिरत्नपादपीठं सपादुका 'जोय' समायुक्तं, बहुकिङ्कर - कर्मकर- 'पुरुषपादात परिक्षिमं पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थितम् । तदनन्तरं च बहवः यष्टिग्राहाः कुन्तग्राहाः चामरग्राहाः पाशग्राहाः चापग्राहाः पुस्तकग्राहाः फलकग्राहाः पीठग्राहाः वीणाग्राहाः ‘कूव' ग्राहा: 'हडप्प' ग्राहाः पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च बहवः दण्डिनः मुण्डिनः शिखण्डिनः जटिन: पिच्छिनः हास्याकराः डमरकराः दवकराः चाटुकराः कन्दर्पिकाः कौकुच्यकाः क्रीडाकराः च वादयन्तः च गायन्तः च नृत्यन्तः च हसन्तः च भाषमानाः च शासन्तः च श्रावयन्तः च
रक्षन्तः च आलोकं च कुर्वाणाः जय-जय शब्द प्रयुञ्जानाः पुरतः यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः । तदनन्तरं च बहवः उग्राः भोगाः क्षत्रियाः इक्ष्वाकाः नागाः कौरव्याः यथा औपपातिके यावत् महापुरुषवागुरापरिक्षिप्ताः जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पुरतः च मार्गतः च पार्श्वतः च यथानुपूर्व्या सम्प्रस्थिताः ।
भाष्य
कूवगाहा - तैल आदि स्नेह-पात्र लिए हुए ।
हडप्प - सिक्कों का पात्र, सुपारी आदि रखने की पेटी ।' अभयदेव
१. भ. वृ. ९ २०४ हडप्पो दम्मादि भाजनं तांबूलार्थं पूगफलादि भाजनं वा ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २०४ दिव्य छत्र, पताका, चामर तथा जमालि के दृष्टिपथ में आए, उस प्रकार आलोक में दर्शनीय, वायु से प्रकंपित विजयवैजयंती ऊंची और तल का स्पर्श करती हुई आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रही थी ।
उसके पश्चात वैर्य से दीप्यमान विमल दंड वाला, लटकती हुई कटसरैया की माला और दाम से शोभित, चन्द्रमंडल की आभा वाला ऊंचा विमल छत्र तथा प्रवर मणिरत्न जटित पादपीठ और अपनी दोनों पादुकाओं से समायुक्त प्रवर सिंहासन, बहुत किंकर, कर्मकर, पुरुष पदाति से परिक्षिप्त होकर आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे।
उसके पश्चात् बहुत यष्टि, माला, चामर (बंधन-रज्जु अथवा चाबुक), धनुष्य, पुस्तक, फलक, पीठ, वीणा, स्नेह-पात्र और सिक्कों का पात्र लिए हुए आगे-आगे यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे। उसके बाद बहुत दंडी, मुंडी, शिखंडी. जटी, पिच्छी, हास्यकर, शोर करने वाले, परिहास करने वाले, चाटुकर, काम प्रधान क्रीड़ा करने वाले, भांड, खेल तमाशा करने वाले-ये वाद्य बजाते हुए, गाते, हंसते, नाचते, बोलते, सिखाते और भविष्य में होने वाली घटना को सुनाते हुए, रक्षा करते हुए, पृष्ठगामी राजा की ओर निहारते हुए, 'जय जय' शब्द का प्रयोग करते हुए यथानुपूर्वी आगे-आगे प्रस्थान कर रहे थे।
उसके पश्चात् बहुत उग्र, भोज, क्षत्रिय, इक्ष्वाकु, नाग, कौरव, औपपातिक की भांति वक्तव्य है यावत् महान् पुरुष वर्ग से परिक्षिप्त क्षत्रियकुमार जमालि के आगे, पीछे और पार्श्व में यथानुपूर्वी प्रस्थान कर रहे थे।
सूरि ने ज्ञाता की वृत्ति में इसका अर्थ आभूषण का करण्डक किया है।" शिखंडी - शिखा धारण करने वाले ।
जटी- जटा धारण करने वाले।
पिच्छी - मयूर आदि की पिच्छी धारण करने वाले।
२. ज्ञाता वृ. ६३-हडपोत्ति आभरणकरण्डकं ।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २०५-२०७ ३०६
भगवई डमरकर-शोर करने वाले।' ज्ञाता की वृत्ति में इसका अर्थ माध्यम है-प्रतीक। भाषा की विभिन्नता और सीमा को ध्यान में रखकर 'परस्पर कलाह करने वाले किया है।
कला के विशेषज्ञों ने प्रतीकों का विकास किया। वे प्रतीक नाना प्रकार दवकर-परिहास करने वाले।
के भावों, भावजन्य मुद्राओं और मांगलिक अवसरों को अभिव्यक्त चाटुकर-प्रिय बोलने वाले।
करते हैं। कंदप्पिया-कामप्रधान क्रीड़ा करने वाले।
आगम साहित्य में अष्ट मंगल का अनेक बार उल्लेख हुआ कोक्कुइया-भांड
है। मांगलिक द्रव्यों की सूची वैदिक और बौद्ध साहित्य में भी किडुकरा-खेल-तमाशा करने वाले
मिलती है किन्तु अष्ट मंगल की व्यवस्थित सूची केवल जैन आगमों सासंता-सिखाते हुए।
में ही मिलती है। सुश्रुत में शुभ अशुभ शकुनों की एक तालिका दी गई साता-भविष्य में होने वाली घटना सुनाते हुए। ज्ञाता की है। उसमें स्वस्तिक, मत्स्य आदि को शुभ शकुन माना गया है।' वृत्ति में इसका अर्थ आशीर्वचन सुनाते हुए' किया है।'
संभावना की जा सकती है कि शकुन शास्त्र में शुभ मानी जाने वाली अष्ट मंगल
वस्तुओं में से अष्ट मंगल का चयन किया गया है। विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम है-भाषा। दूसरा
२०५. तए णं से जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पिता २०५. क्षत्रियकुमार जमालि के पिता ने
कुमारस्स पिया पहाए कयबलि-कम्मे स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुकमंगल- स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक. कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ते सव्वा प्रायश्चित्तः सर्वालङ्कारविभूषितः हस्ति- मंगल और प्रायश्चित्त किया। सर्व लंकारविभूसिए हत्थि-क्खंधवरगए स्कन्धवरगतः सकोरेण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण अलंकारों से विभूषित होकर हाथी के सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं ध्रियमाणेण श्वेतवरचामरैः उधूयमानैः- स्कंध पर आरूढ़ हुए। कटसरैया की धरिज्जमाणेणं सेयवर-चामराहिं उधूयमानैः हय-गज-रथ-प्रवरयोधकलि- माला, दाम तथा छत्र को धारण करते उद्धव्वमाणीहिं-उद्धव्व-माणीहिं हय तया चतुरंगिण्या सेनया सार्धं सम्परिवृतः हुए, प्रवर श्वेत चामरों का वीजन लेते गय - रह - पवर जो ह - क लियाए महत्भटचटकरवृन्दपरिक्षिसः जमालिं हुए, हय, गज, रथ और पदातिक-प्रवर चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे क्षत्रियकुमारं पृष्ठतः अनुगच्छति। यौद्धा से कलित चातुरंगिणी सेना महयाभड चडगर-विंदपरिक्खित्ते
संपरिवृत, महान् सुभटों के विस्तृत वृंद से जमालिं खत्तिय कुमारं पिट्ठओ
परिक्षिप्त होकर क्षत्रियकुमार जमालि के अणुगच्छइ॥
पृष्ठभाग में रहकर अनुगमन कर रहे थे।
२०६. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पुरतः २०६. उस क्षत्रिय कुमार जमालि के आगे खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा महाश्वाः अश्ववराः उभतः पार्वं नागाः महान घोड़े और घुड़सवार, दोनों पार्श्व में आसवरा, उभओ पासिं नागा नागवरा, नागवराः पृष्ठतः रथाः, रथ- 'संगेल्ली'। हाथी और महावत, पीछे रथ और रथ पिट्ठओ रहा, रह-संगेल्ली॥
समूह चल रहे थे।
२०७. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे
अब्भुग्गतभिंगारे, परिग्ग-हियतालियटे, ऊसवियसेतछत्ते, पवी-इयसेतचामरबालवीयणीए, सव्वि-ड्ढीए जाव दुंदुहिणिग्घोसणादि-तरवेणं खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झं-मज्झेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे, जेणेव बहुसालए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पाहारेत्थ गमणाए।
ततः सः जमाली क्षत्रियकुमारः अभ्युद्ग- २०७. क्षत्रियकुमार जमालि के आगे जल से तभृङ्गारः परिगृहीततालवृन्तः उच्छ्रितश्वेत- भरी झारी लिए हुए, तालवृंत लिए हुए, छत्रः प्रवीजितशेषचामर-बालवीजनिकः. श्वेत छत्र तानते हुए. श्वेत चामर और सर्वर्द्धया यावत् दुन्दुभिनिर्घोष-नादितरवेण बाल वीजनी को डुलाते हुए, सर्व ऋद्धि क्षत्रियकुण्डग्राम नगरं मध्यमध्येन यत्रैव यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द माहनकुण्डग्रामं नगरं यत्रैव बहुशालकं करते हुए क्षत्रियकुंडग्राम नगर के बीचोंचैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः बीच जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नगर है, जहां तत्रैव प्रधारयेत् गमनाय।
बहुशालक चैत्य है, जहां श्रमण भगवान महावीर हैं वहां जाने के लिए उद्यत हुए।
१. भ. वृ.../२०४-डमरकरा-विड्वकारिणः। २. ज्ञाता वृ. ६३. डमरकराः परस्परेण कलहं विधायकाः। ३. भ. वृ.९/२०४।-साज्ञिता य शिक्षयंतः। ४. वही, १/२०४।- साविता य इदं चेदं भविष्यतीत्येवं भूतवासि श्रावयंतः।
५. ज्ञाता वृ. प. ६३-साविता य श्रावयंत आशीर्वचनानि। ६. (क) ओवा. सू. ६४।
(ख) राय. सू. २१, २९१ । सुश्रुत संहिता, सूत्रस्थानम् अध्याय २१, श्लोक २७-४०
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भगवई
वद्धमाणा
२०८. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छ माणस्स सिंघा डग तिय- चउक्क चच्चरचउम्मुह - महापह पहेसु बहवे अत्थत्थिया कामत्थिया भोगत्थिया लाभत्थिया किव्विसिया कारो-डिया कारवाहिया संखिया चक्किया नंगलिया मुहमंगलिया पूसमाणया खंडियगणा ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं मणामाहिं मणाभि - रामाहिं हिययगमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजयमंगलसएहिं अणवरयं अभिनंदता य अभित्थुणंता य एवं वयासी - जय जय नंदा! धम्मेणं, जयजय नंदा! तवेणं, जय-जय नंदा! भदं ते अभग्गेहिं नाण- दंसण-चरित्तेहिमुत्तमेहिं, अजियाइं जिणाहि इंदियाई, जियं पालेहि समणधम्मं, जियविग्घो वि य वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे, निहणाहि य रागदोसमल्ले तवेणं धितिधणियबद्धकच्छे, माहिय अट्ठ कम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं, अप्पमत्तो हराहि आराहणपडागं च धीर ! तेलोक्क- रंगमज्झे, पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं च नाणं, गच्छ य मोक्खं परं पदं जिणवरोवदिद्वेणं सिद्धि-मग्गेणं अकुडिलेणं हंता परीसहचमूं अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धमत्थु त्ति कट्टु अभिनंदंति य अभित्थुणंति य ॥
३०७
ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य क्षत्रियकुण्डग्रामं नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छतः श्रृंगाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वरचतुर्मुख - महापथ- पथेषु बहवः अर्थार्थिकाः कामार्थिकाः भोगार्थिकाः लाभार्थिकाः किल्विषिकाः कारोटिकाः कारवाहिकाः शाङ्खिकाः चक्रिका: लाङ्गलिकाः मुखमाङ्गलिकाः वर्धमानाः पुष्यमानवाः खण्डितगणाः ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः मनोज्ञाभिः 'मणामाहिं' मनोभिरामाभिः हृदयगमनीयाभिः वग्गूहिं जय-विजयमङ्गलशतैः अनवरतम् अभिनन्दन्तः च अभिष्टुवन्तः च एवमवादिषुः जय जय नंदा! धर्मेण, जय-जय नंदा! तपसा, जयजय नंदा! भद्रं तव अभग्नैः ज्ञान-दर्शनचारित्रैः उत्तमैः, अजितानि जय इन्द्रियाणि, जितं पालय श्रमणधर्मं, जितविघ्नोऽपि च वस त्वं देव! सिद्धिमध्ये, निजहि च रागद्वेषमल्लान् तपसा धृतिधणियबद्धकच्छः मृद्नीहि च अष्टकर्मशत्रून् ध्यानेन उत्तमेन शुक्लेन, अप्रमत्तः हर आराधनपताकां च धीर! त्रैलोक्यरंगमध्ये, प्राप्नुहि वितिमिरम् अनुत्तरं केवलं च ज्ञानम्, गच्छ च मोक्षं परं पदं जिनवरोपदिष्टेन सिद्धिमार्गेण अकुटिलेन हत्वा परीषहचमूम् अभिभूय ग्रामकण्टकोपसर्गान् धर्मे तव अविघ्नः अस्तु इति कृत्वा अभिनन्दन्ति च अभिष्टुवन्ति च ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २०८ २०८. क्षत्रियकुमार जमालि का क्षत्रियकुण्डग्राम नगर के बीचोबीच निष्क्रमण करते हुए शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुत धनार्थी, कामार्थी, भोगार्थी, लाभार्थी, किल्विषिक (विदूषक) कापालिक, कर पीड़ित अथवा सेवा में व्यापृत, शंख बजाने वाले, चक्रधारी, कृषक, मंगल- पाठक, विशिष्ट प्रकार का नृत्य करने वाले घोषणा करने वाले, छात्रगण, उन इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम, हृदय का स्पर्श करने वाली वाणी और जय-विजय सूचक मंगल शब्दों के द्वारा अनवरत अभिनंदन और अभिस्तवन करते हुए इस प्रकार बोले
हे नंद - समृद्ध पुरुष! तुम्हारी जय हो, विजय हो धर्म के द्वारा।
नंद पुरुष ! तुम्हारी जय हो विजय हो तप के द्वारा |
हे नंद पुरुष ! तुम्हारी जय हो विजय हो, भद्र हो अभग्न उत्तम ज्ञान दर्शन चारित्र के
द्वारा ।
इन्द्रियां अजित हैं, उन्हें जीतो । श्रमण धर्म जित है, उसकी पालना करो। हे देव! विघ्नों को जीतकर सिद्धि मध्य में निवास करो। धृति का सुदृढ़ कच्छा बांधकर तप के द्वारा राग-द्वेष रूपी मल्लों को निहत करो। उत्तम शुक्लध्यान के द्वारा अष्टकर्म रूपी शुत्रओं का मर्दन करो। हे धीर! इस त्रिलोकी के रंग मध्य में अप्रमत्त होकर आराधना पताका को हाथ में थामो । तम रहित अनुत्तर केवलज्ञान को प्राप्त करो ।
जिनवर उपदिष्ट ऋजु सिद्धिमार्ग के द्वारा, परीषह सेना को हत - प्रहत कर, इन्द्रिय समूह के कंटक बने हुए उपसर्गों को अभिभूत कर परम मोक्ष पद को प्राप्त करो। तुम्हारी धर्म की आराधना विघ्न रहित हो । इस प्रकार जन समूह क्षत्रियकुमार जमालि का अभिनंदन और अभिस्तवन कर रहा था।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २०९, २१०
१. सूत्र - २०८ शब्द-विमर्श
किव्विसिया - भाण्ड आदि ।' ज्ञाता की वृत्ति में इसका अर्थ पाप का फल भोगने वाले गरीब, अंधा. पंगु आदि किया है। कारोडिया - कापालिक, तांत्रिक साधना करने वाला। कारवाहिया - सेवा में व्यापृत। इसका वैकल्पिक अर्थ है करपीड़ित । *
संखिया-शंख बजाने वाला, चंदन गर्भित शंख को हाथ में लेकर चलने वाला।"
चक्किया-चक्र-अस्त्र को हाथ में रखने वाले । नगलिया - गले में सुवर्णमय हल की प्रतिकृति धारण करने
२०९. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे नयणमालासहस्सेहिं पेच्छि-ज्जमाणेपेच्छिज्जमाणे हियय - मालासहस्सेहिं अभिणं दिज्जमाणे- अभिणं दिज्जमाणे मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणेविच्छिप्पमाणे वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे- अभिथुव्वमाणे कंतिसोहग्गगुणेहिं पत्थिज्जमाणे- पत्थिज्जमाणे बहूणं नरनारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमाला - सहस्साई पडिच्छमाणे- पडिच्छ-माणे मंजुमंजुणा घोसेणं आपडिपुच्छमाणे- आपडिपुच्छमाणे भवण-पंतिसहस्साई समइच्छमाणे समइच्छमाणे खत्तियकुंडग्गामे नयरे मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंड - ग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थरातिसए पासइ, पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणि सीयं ठवेइ, पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुहइ ॥
२१०. तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं
१. भ. वृ. ९ / २०८ - कित्विषिका भाण्डादयः इत्यर्थः ।
२. जाता वृ. प. ६४- किल्विषिकाः पातकफलवंतो निःस्वांधपंग्वादयः
३. वही. २/ २०८ - करोडिया कापालिकाः ।
४. वही. वृ. ९ २०८ - कार - राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः, करबाधिता वा ।
वही, वृ.९ २०८ - संखिया-चंदनगर्भशंखहस्ताः शंखवादका था।
६. वही. वृ. ९ २०८ - चाक्रिका:- चक्रप्रहरणाः कुंभकारादयो वा ।
५.
३०८
भाष्य
वाला किसान अथवा भाट ।
मांगल्यकारिणः
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः नयनमालासहस्रैः प्रेक्ष्यमाणः प्रेक्ष्यमाणः हृदयमालासहस्रैः अभिनन्द्यमानः अभिनन्द्यमानः मनोरथमालासहस्रैः विस्पृश्यमान:विस्पृश्यमानः वचनमालासहस्रैः अभिष्ट्रयमानः - अभिष्ट्रयमानः कान्तिसौभाग्यगुणैः प्रार्थ्यमानः - प्रार्थ्यमानः बहूनां नरनारीसहस्राणां दक्षिणहस्तेन अञ्जलिमालासहस्राणि प्रतीच्छन्-प्रतीच्छन् मञ्जुमञ्जुना घोषेण आप्रतिपृच्छन्- आप्रतिपृच्छन् भवनपंक्तिसहस्राणि समतिक्रामन्समतिक्रामन् क्षत्रियकुण्डग्रामे नगरे मध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव माहनकुण्डग्रामः नगरं यत्रैव बहुशालकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य छत्रादीन् तीर्थंकरातिशयान् पश्यति, दृष्ट्वा पुरुषसहस्रवाहिनीं शिबिकां स्थापयति, पुरुषसहस्रवाहिन्याः शिबिकायाः प्रत्यारोहति ।
मुंहमंगलिया - चाटुकार | ' वद्धमाण-संस्कृत शब्दकोश में वर्द्धमान और वर्द्धमानक-ये दो
शब्द हैं।
वर्द्धमान-नृत्य में विशेष प्रकार का दृष्टिकोण रखने वाला। वर्द्धमानक-नर्तक की एक श्रेणी, जिसके सदस्य शिर अथवा हाथ में लैंप लेकर नृत्य करते हैं।" अभयदेव सूरि ने वर्द्धमान का अर्थ स्कंधारोपित पुरुष किया है। "
माण घोषणा करने वाला। अभयदेव सूरि ने इसका अर्थ मागध किया है। " खंडियगण - छात्रगण ।
ततः तं जमालिं क्षत्रियकुमारम् अम्बापितरौ
भगवई
२०९. क्षत्रियकुमार जमालि हजारों नयन - मालाओं से देखा जाता हुआ, देखा जाता हुआ, हजारों हृदय-मालाओं से अभिनंदित होता हुआ, अभिनंदित होता हुआ, हजारों मनोरथ-मालाओं से स्पृष्ट होता हुआ, स्पृष्ट होता हुआ, हजारों वचन-मालाओं से अभिस्तवन लेता हुआ, अभिस्तवन लेता हुआ, बहुत हजारों नर नारियों की हजारों अंजलि मालाओं को दाएं हाथ से स्वीकार करता हुआ स्वीकार करता हुआ, मंजु-मंजु घोष से नमस्कार करने वाले जनों की स्थिति को पूछते हुए, पूछते हुए, हजारों गृहपंक्तियों को अतिक्रांत करता हुआ, अतिक्रांत करता हुआ, क्षत्रियकुंडग्राम नगर के बीचोबीच निर्गमन कर रहा था । निर्गमन कर जहां ब्राह्मणकुण्डग्राम नामक नगर है, जहां बहुशालक चैत्य है, वहां आया। वहां आकर छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशयों को देखा। देखकर हजारों पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका को ठहराया। हजार पुरुष द्वारा वहन की जाने वाली शिविका से उतरा।
२१० माता-पिता क्षत्रियकुमार जमालि को
७. वही, ९ / २०८ - नंगलिया - गलावलंबित सुवर्णादिमयनांगलप्रतिकृ धारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा।
८. वही, ९ / २०८ - मुहमंगलिया - मुखे मंगलं येषामस्ति ते मुखमंगलिकाः चाटुकारिणः।
९. आप्टे पृ. १३९६, ९७
१०. (क) भ. वृ. ९/२०८ - वद्धमाणाः- स्कंधारोपिनपुरुषाः ।
(ख) औप. वृ. १३८ ।
११. भ. वृ. ९/२०८-पूषमाणवाः मागधाः ।
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अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे पुरतः कृत्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, तत्रैव उपागच्छतः. उपागम्य श्रमण उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेंति, कुरुतः, कृत्वा वन्देते, नमस्यतः, वन्दित्वा करेत्ता वंदति नमसंति, वंदित्ता नमस्यित्वा एवम् अवादिष्टाम् एवं खलु नसत्ता एवं वयासी एवं खलु भंते! भदन्त ! जमालिः क्षत्रियकुमारः आवयोः जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते एकः पुत्रः इष्टः कान्तः प्रियः मनोज्ञः eg कंते पिए मणुणे मणामे थेज्जे 'मणामे' स्थैर्यः वैश्वासिकः सम्मतः बहुमतः वेसासिए संमए बहुमए अणुमए अनुमतः भाण्डकरण्डकसमानः रत्नः भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणन्भूए रत्नभूतः जीवितोत्सविकः हृदयाजीविऊसविए हिययनंदिजणणे उंबर- नन्दिजनकः उदुम्बर- पुष्पम् इव दुर्लभः पुप्फंपिव दुल्लभे सवणयाए, किमंग ! श्रवणे. 'किमङ्ग' पुनः दर्शने ? सः पुण पासणयाए ? से जहानामए उप्पले यथानामकः उत्पल इति वा, पद्म इति वा, इवा, पउमे इ वा जाव सहस्स पत्ते इ यावत् सहस्रपत्रम् इति वा, पङ्के जातः जले वा पंके जाए जले संबुडे नोवलिप्पति संवृतः नोपलिप्यते पङ्करजसा, नोपलिप्यते पंकरएणं, नोवलिप्पति जलरएणं, जलरजसा, एवमेव जमालिः क्षत्रियकुमारः एवामेव जमाली वि खत्तियकामरे कामेषु जातः, भोगेषु संवृद्धः नोपलिप्यते कामेहि जाए भोगेहिं संबुड्ढे कामरजसा, नोपलिप्यते भोगरजसा. नोवलिप्पति कामरएणं, नोवलि-प्पति नोपलिप्यते मित्र ज्ञाति-निजक स्वजनभोगरएणं, नोवलिप्पति मित्त-णाइ- संबंधिपरिजनेन । एषः देवानुप्रियाः ! णियग-सयण संबंधि- परिजणेणं । एस संसारभयोद्विग्नः भीतः जन्ममरणेण, इच्छति देवानुप्रियाणाम् अन्तिके मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितुम् । तत् एनं देवानुप्रियेभ्यः ! आवां शिष्यभिक्षां दद्वः, प्रतीच्छन्तु देवानुप्रियाः ! शिष्यभिक्षाम् ।
देवाप्पिया! संसारभयुव्विग्गे भीए जम्मण-मरणेणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वत्तए । तं एयं णं देवाणुप्पियाणं अम्हे सीसभिक्ख दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं ॥
२११. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासीअहाहं देवाप्पिया ! मा पडिबंधं ॥
२१२. तए णं से जमाली खत्तिय कुमारे समणेण भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे तु समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण -पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदs नमसs, वंदित्ता नमसित्ता उत्तर - पुरित्थिमं दिसिभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता सयमेव आभरण
ततः श्रमणः भगवान् महावीर : जमालिं क्षत्रियकुमारं एवमवादीत्-यथासुखं देवानुप्रियाः ! मा प्रतिबंधम् ।
ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः श्रमणेण भगवता महावीरेण एवम् उक्ते सति हृष्टतुष्टः श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्थित्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य स्वयमेव आभरण माल्यालंकारम्
श. ९ : उ. ३३ : सू. २१०-२१२ आगे कर जहां श्रमण भगवान महावीर हैं. वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार बोले- भंते! क्षत्रियकुमार जमालि हमारा एक पुत्र है, इष्ट कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत बहुमत, अनुमत और आभरणकरण्डक समान है। रत्न, रत्नभूत ( चिन्तामणि आदि रत्न के समान), जीवन उत्सव और हृदय को आनंदित करने वाला है। वह उदुम्बर पुष्प के समान श्रवण दुर्लभ है फिर दर्शन का तो कहना ही क्या ? जैसे उत्पन्न, पद्म यावत सहस्रपत्र- कमल पंक में उत्पन्न और जल में संवर्द्धित होता है किन्तु वह पंक-रज और जल - रज से उपलिप्त नहीं होता वैसे ही क्षत्रियकुमार जमालि कामों से उत्पन्न हुआ है, भोगों में संवर्द्धित हुआ है किन्तु वह काम - रज और भोग-रज से उपलिप्त नहीं है। मित्र ज्ञाति, निजक, स्वजनसंबंधी और परिजन से उपलिप्त नहीं है। देवानुप्रिय ! यह संसार भय से उद्विग्न है, जन्म-मरण से भीत है, देवानुप्रिय के पास मुण्ड होकर अगार से अनगारिता में प्रवर्जित होना चाहता है इसलिए हम इसे देवानुप्रिय को शिष्य की भिक्षा के रूप में देना चाहते हैं। देवानुप्रिय ! शिष्य की भिक्षा को स्वीकार करो।
२११. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार जमालि से इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! जैसा सुख हो, प्रतिबंध मत करो।
२१२. श्रमण भगवान महावीर के इस प्रकार कहने पर क्षत्रियकुमार जमालि हृष्ट-तुष्ट हो गया । श्रमण भगवान महावीर को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में गया।
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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. २१२-२१४ मल्लालंकारं ओमुयइ॥
अवमुञ्चति।
जाकर स्वयं आभरण, माल्य और अलंकार उतारे।
२१३. तए णं सा जमालिस्स ततः सा जमालेः क्षत्रियकुमारस्य माता २१३. 'क्षत्रियकुमार जमालि की माता ने
खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्ख-णेणं हंसलक्षणेन पटशाटकेन आभरणमाल्या- हंसलक्षण युक्त पटशाटक में आभरण, पडसाडएणं आभरण-मल्लालंकारं लंकारं प्रतीच्छति, प्रतीष्य हार-वारि-धार- माल्य और अलंकार स्वीकार किए। पडिच्छइ, पडिच्छित्ता हार-वारिधार- सिन्दुवार . छिन्नमुक्तावलि - प्रकाशानि स्वीकार कर हार, जल-धारा, सिन्दुवार सिंदुवार - छिन्नमुत्तावलिप्पग्गासाइं अश्रूणि विनिर्मुञ्चती-विनिर्मुञ्चती जमालिं (निगुण्डी) के फूल और टूटी हुई मोतियों अंसूणि विणिम्मुयमाणी - विणिम्मुय- क्षत्रियकुमारम् एवमवादीत्-यतितव्यं जात! की लड़ी के समान बार-बार आंसू बहाती माणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं घटितव्यं जात! पराक्रमितव्यं जात! अस्मिन् हुई इस प्रकार बोलीवयासी-जइयव्वं जाया! घडियव्वं च अर्थे नो प्रमत्तव्यम् इति कृत्वा जमालेः जात ! संयम में प्रयत्न करना। जाया! परक्कमियव्वं जाया! अस्सि क्षत्रियकुमारस्य अम्बा-पितरौ श्रमणं भगवंतं जात! संयम में चेष्टा करना। च णं अढे णो पमाएतव्वं ति कट्ट महावीरं वन्देते नमस्यतः वन्दित्वा जात! संयम में पराक्रम करना। जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मा- नमस्यित्वा यामेव दिशं प्रादुर्भूतौ तामेव दिशं जात! इस अर्थ में प्रमाद मत करना यह पियरो समणं भगवं महावीरं वंदंति प्रतिगतौ।
कहकर क्षत्रियकुमार जमालि के माता नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं
पिता ने श्रमण भगवान महावीर को वंदनपाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट
गए।
भाष्य १.सूत्र २१३
हैं-यतना, घटना, पराक्रम और अप्रमाद। मां ने कहा-पुत्र ! प्राप्त १.समय में........प्रमाद मत करना (जइयव्वं...........णो
संयम योग में प्रयत्न करते रहना। अप्राप्त संयम योग की प्राप्ति के पमाएतव्वं।)
लिए घटना-चेष्टा करते रहना, पराक्रम करते रहना। लक्ष्य की माता ने क्षत्रियकुमार जमालि को शिक्षा दी। उसके चार सूत्र सिद्धि के लिए अप्रमत्त रहना।'
२१४. तए णं से जमाली खत्तिय-कुमारे ततः सः जमालिः क्षत्रियकुमारः स्वमेव २१४. क्षत्रियकुमार जमालि ने स्वयं ही सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा यत्रैव पंचमुष्टि लोच किया। लोच कर जहां जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव श्रमण भगवान महावीर है. वहां आया। उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता समणं उपागच्छति, उपागत्य श्रमणं भगवन्तं वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण- महावीरं त्रिःआदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर बंदनवंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-आलित्ते एवमवादीत्-आदीसः भदन्त! लोकः, नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस णं भंते! लोए, पलित्ते णं भंते! लोए, प्रदीप्तः भदन्त ! लोकः, आदीप्त प्रदीप्तः प्रकार बोला-भंते! यह लोक बुढ़ापे और आलित्तपलित्ते णं भंते! लोए जराए भदन्त ! लोकः जरया मरणेण च।
मौत से आदीप्त हो रहा है (जल रहा है)। मरणेण य।
अथ यथानामकः कोऽपि 'गाहावई अगारे भंते! यह लोक बुढ़ापे और मौत से प्रदीप्त से जहानामए केइ गाहावई अगारंसि ध्मायमाने यः सः तत्र भाण्डः भवति हो रहा है (प्रज्वलित हो रहा है)। भंते! झियायमाणंसि जे से तत्थ भंडे भवइ अल्पभारः मूल्यगुरुकः, तं गृहीत्वा आत्मना यह लोक बुढ़ापे और मौत से आदीप्तअप्पभारे मोल्लगरुए, तं गहाय आयाए एकांतमंतम् अपक्रामति । एष मम प्रदीप्त हो रहा है। एगंतमंतं अवक्क-मइ। एस मे नित्थारिए निस्तारितः सन् पश्चात् पुरा च हिताय जैसे किसी गृहपति के घर में आग लग समाणे पच्छा पुरा य हियाए सुहाए । सुखाय क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय जाने पर वहां जो अल्प भार वाला और खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविष्यति। एवमेव देवानुप्रिय! ममापि बहुमूल्य आभरण होता है, उसे लेकर स्वयं भविस्सइ।
आत्मा एकः भाण्डः इष्ट: कांतः प्रियः एकांत स्थान में चला जाता है। (और १. भ. वृ. ९/२१९।- जइयव्वं ति प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः, 'जाया!" भावः, किमुक्तं भवति?-अस्सिं चेत्यादि, अस्मिंश्चार्थे-प्रव्रज्यानुपालनहे पुत्र! घडियव्वं ति अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या, लक्षणे न प्रमादयितव्यमिति। परिक्कमियव्वं ति पराक्रमः कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्त्तव्य इति
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श.९ : उ. ३३ : सू. २१४,२१५
एवामेव देवाणुप्पिया! मज्झ वि आया मनोज्ञः 'मणामे' स्थेयान् वैश्वासिकः सोचता है-) अग्नि से निकाला हुआ यह एगे भंडे इढे कंते पिए मणुण्णे मणामे सम्मतः बहुमतः अनुमतः भाण्डकरण्डक- आभरण पहले अथवा पीछे मेरे लिए हित, थेज्जे वेस्सासिए सम्मए बहमए अणुमए । समानः, मा शीतं, मा उष्णं, मा क्षुधा, मा सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता भंडकरंडगसमाणे, मा णं सीयं, मा णं । पिपासा, मा चौराः, मा व्यालाः, मा दंशाः, के लिए होगा। उण्ह, मा णं खुहा, मा णं पिवासा, मा णं मा मशकाः, मा वातिक-पैत्तिक-श्लैष्मिक- देवानुप्रिय! इसी प्रकार मेरा शरीर भी एक चोरा, मा णं वाला, मा णं दंसा, मा णं सान्निपातिकाः विविधाः रोगातंकाः उपकरण है। वह इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मसया, मा णं वाइय-पित्तिय सेभिय- परीषहोपसर्गाः स्पृशन्तु इति कृत्वा एष मम मनोहर, स्थिरतर, विश्वसनीय, सम्मत, सन्निवाइय विविहा रोगा-यंका निस्तारितः सन् परलोकस्य हिताय सुखाय बहुमत, अनुमत और आभरण-करण्डक के परीसहोवसग्गाफुसंतु त्ति कट्ट एस मे क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय समान है। इसे सर्दी-गर्मी न लगे, भूखनित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए भविष्यति।
प्यास न सताए, चोर पीड़ा न पहुंचाए, सुहाए खमाए नीसेसाए आणुगामियत्ताए तद् इच्छामि देवानुप्रिय! स्वयमेव प्रव्रजितं, हिंस पशु इस पर आक्रमण न करे, दंश भविस्सइ।
स्वयमेव मुण्डितं, स्वयमेव शिक्षापितं, और मशक इसे न काटे, वात, पित्त, श्लेष्म तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! सयमेव । स्वयमेव आचार-गोचरं, विनय-वैनयिक- और सन्निपात जनित विविध प्रकार के रोग पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सय-मेव चरण-करण-यात्रा-मात्राप्रत्ययं धर्म- और आतंक तथा परीषह और उपसर्ग सेहावियं, सयमेव सिक्खावियं, सयमेव माख्यातम!।
इसका स्पर्श न करे, इस अभिसंधि से मैंने आयार-गोयरं विणय-वेणइय-चरण
इसे पाला है। मेरे द्वारा इसका निस्तार करण . जायामाया . वत्तियं धम्म
होने पर यह परलोक में मेरे लिए हित, माइक्खियं॥
सुख, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा। इसलिए देवानुप्रिय! मैं आपके द्वारा प्रवजित होना चाहता हूं. मैं आपके द्वारा ही मुण्डित होना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शैक्ष बनना चाहता हूं, मैं आपके द्वारा ही शिक्षा प्राप्त करना चाहता हूं तथा आपके द्वारा ही आचार, गोचर, विनय-वैनयिक, चरण-करण-यात्रा-मात्रा
मूलक धर्म का आख्यान चाहता हूं।
भाष्य २. सूत्र-२१४
शिष्य महावीर के पास मुण्डित हुए। उनके मंडन को महावीर की नापित द्वारा अग्रकेशों का कर्तन', जमालि द्वारा स्वयं सन्निधि में किया गया मुंडन कहा जा सकता है। पांच सौ का एक साथ पंचमुष्टिक लोच और महावीर द्वारा मुंडन-लोच के विषय में ये तीन . महावीर के द्वारा मुंडन करना संभव नहीं लगता। प्रकल्प मिलते हैं। उनमें सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है। पंचमुष्टिक लोच एक शैलीगत वर्णन है। अग्रकेशों का कर्तन नापित ने अग्रकेशों का कर्तन किया। जो केश शेष बचे, उनका पहले हो चुका था इसलिए पंचमुष्टि लोच की संभावना कैसे हो (पंचमुष्टिक) लोच स्वयं जमालि ने किया। जमालि आदि पांच सौ सकती है?
२१५. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालिं जमालिं खत्तियकुमारं पंचहिं पुरिस- क्षत्रियकुमारं पञ्चभिः पुरुषशतैः सार्धं सएहिं सद्धिं सयमेव पव्वावेइ जाव स्वयमेव प्रव्राजयति, यावत् सामायिकादिसामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई कानि, एकादश अंगानि अधीते, अधीत्य अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ- बहुभिः चतुर्थ-षष्ठ-अष्टम-दशम-द्वादशैः छट्ठट्टम-दसम-दुवालसेहिं मासद्ध- मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपःकर्मभिः मासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं आत्मानं भावयन् विहरति। अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥
२१५. श्रमण भगवान महावीर ने क्षत्रियकुमार
जमालि को पांच सौ पुरुषों के साथ स्वयं ही प्रव्रजित किया यावत् क्षत्रियकुमार जमालि ने सामायिक, आचारांग आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, अध्ययन कर अनेक चतुर्थ भक्त,षष्ठभक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, अर्धमास और मासखमण-इस प्रकार विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहरण किया।
३.वही, ९४२१५।
१.भ.वृ.९/१८८ २. वही, ९/२१०
,
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श.९ : उ. ३३ : सू. २१६-२२२
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भगवई
२१६. तए णं से जमाली अणगारे अणया ततः सः जमालिः अनगार: अन्यदा कदापि कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे यत्रैव श्रमण: भगवान महावीरः तत्रैव तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवंतं समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि नमस्यित्वा एवमवादीत्-इच्छामि भदन्त ! णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे । युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् पञ्चभिः पंचहिं अणगार-सएहिं सद्धिं बहिया अनगारशतैः सार्धं बहिः जनपदविहारं जणवयविहारं विहरित्तए।
विहर्तुम्।
२१६. जमालि अनगार किसी समय जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोला-भंते! तुम्हारी अनुज्ञा से मैं पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद विहार करना चाहता हूं।
२१७. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालेः २१७. श्रमण भगवान महावीर ने जमालि जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं नो अनगारस्य एतमर्थं नो आद्रियते, नो अनगार के इस अर्थ को आदर नहीं दिया, आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए परिजानाति. तूष्णीकः सन्तिष्ठते।
स्वीकार नहीं किया, मौन रहे। संचिट्ठइ।
२१८. तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए॥
ततः सः जमालिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं महावीरं द्विः अपि त्रिः अपि एवमवादीत्- इच्छामि भदन्तः! युष्माभिः अभ्यनुज्ञातः सन् पञ्चभिः अनगारशतैः सार्धं बहिः जनपदविहारं विहर्तुम् ।
२१८. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को दूसरी और तीसरी बार भी इसी प्रकार कहा-भंते! मैं तुम्हारी अनुज्ञा से पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद विहार करना चाहता हूं।
२१९. तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोच्चं पि, तच्चं । पि एयमद्वं नो आढाइ, नो परिजाणइ, तुसिणीए संचिट्ठइ।
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः जमालेः २१९. श्रमण भगवान् महावीर ने जमालि अनगारस्य द्विः अपि, त्रिः अपि एतदर्थं नो अनगार के इस कथन को दूसरी और आद्रियते, नो परिजानाति. तूष्णीकः तीसरी बार भी आदर नहीं दिया, सन्तिष्ठते।
स्वीकार नहीं किया. मौन रहे।
२२०. तए णं से जमाली अणगारे समणं ततः सः जमालिः अनगारः श्रमणं भगवन्तं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमंसित्ता समणस्स भगवओ नमस्यित्वा श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ अन्तिकाद् बहुशालकात् चैत्यात् चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनि- प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य पञ्चभिः क्खमित्ता पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं अनगारशतैः सार्ध बहिः जनपदविहारं बहिया जणवयविहारं विहरइ॥
विहरति।
२२०. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर श्रमण भगवान महावीर के पास से बहुशालक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर पांच सौ अनगारों के साथ बाहर जनपद विहार करने लगा।
२२१. तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रावस्ती नाम नाम नयरी होत्था- वण्णओ, कोट्ठए नगरी आसीत्-वर्णकः, कोष्ठकं चैत्यम्चेइए-वण्णओ जाव वणसंडस्स। तेणं वर्णकः यावत् वनषण्डस्य। तस्मिन् काले कालेणं तेण समएणं चंपा नाम नयरी तस्मिन् समये चंपा नाम नगरी-वर्णकः। होत्था- वण्णओ। पुण्णभद्दे पूर्णभद्रं चैत्यम्-वर्णकः यावत् पृथ्वी- चेइए-वण्णओ
जाव शिलापट्टकः। पुढविसिलापट्टओ॥
२२१. उस काल और उस समय श्रावस्ती नाम की नगरी थी-वर्णक। कोष्ठक
चैत्य-वर्णक यावत् वनखण्ड तक। उस काल और उस समय चंपा नामक नगरी थी-वर्णक। पूर्णभद्र चैत्य-वर्णक यावत् पृथ्वीशिला पट्टक
२२२. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः अन्यदा कदापि २२२. जमालि अनगार किसी समय पांच अण्णया कयाइ पंचहिं अणगार-सएहिं पञ्चभिः अनगारशतैः सार्धं संपरिवृतः सौ अनगारों के साथ संपरिवृत होकर
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भगवई
सद्धिं संपरिवुडे पुव्वाणुपुब्विं चरमाणे गामाग्गामं दुइज्जमाणे जेणेव सावत्थी नयरी जेणेव कोट्टए चेइए तेणेव उवागच्छइ उवाग- च्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्es, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥
२२३. तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णा कयाइ पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाग्गामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहा- पडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
२२४. तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य, विरसेहि य अंतेहि य, पंतेहि य, लूहेहि य, तुच्छेहि य, काला - इक्कंतेहि य, पमाणाइक्कंतेहि य पाणभोयणेहिं अण्णया कयाइ सरीरगंसि विउले रोगातंके पाउब्भूए- उज्जले विउले पगाढे कक्कसे कडुए चंडे दुक्खे दुग्गे तिब्वे दुरहियासे । पित्तज्जरपरिगतसरीरे, दाहवक्कंतिए या वि
विहरइ ॥
२२५. तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभू समाणे समणे निग्गंथे सहावे, सहावेत्ता एवं वयासी - तुब्भे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जा - संथारगं
संथरह ||
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पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् यत्रैव श्रावस्ती नगरी यत्रैव कोष्ठकं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं अवग्रहं अवगृह्णाति अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा कदाचित् पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं दवन् सुखंसुखेन विहरन् यत्रैव चंपानगरी यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यं तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य यथाप्रतिरूपं अवग्रहं अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन विहरति ।
१. सूत्र - २२४
१. कालातिक्रांत, प्रमाणातिक्रांत- (कालाइक्कंतेहि य पमागइक्कंतेहि य)
भगवती ७/२४ में कालातिक्रांत और प्रमाणातिक्रांत का प्रयोग भिन्न अर्थ में हुआ है। प्रस्तुत प्रकरण में कालातिक्रांत का अर्थ
ततः तस्य जमालेः अनगारस्य तैः अरसैः च विरसैः च अन्त्यैः च प्रान्त्यैः च, रूक्षैः च, तुच्छैः च, कालातिक्रान्तैः च, प्रमाणातिक्रान्तैः च प्राणभोजनैः अन्यदा कदाचित् शरीरे विपुलः रोगांतङ्कः प्रादुर्भूतः - 'उज्जले' विपुलः प्रगाढः कर्कशः कटुकः चण्डः दुक्खः 'दुग्गे' तीव्रः दुरध्यासः । पित्तज्वरपरिगतशरीरः, दाहावक्रान्तिकः चापि विहरति ।
भाष्य
ततः सः जमालिः अनगारः वेदनया अभिभूतः सन् श्रमणान् निर्ग्रन्थान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यूयं देवानुप्रियय! मम शय्या संस्तारकं स्तृणीत ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २२२-२२५ क्रमानुसार विचरण ग्रामानुग्राम मैं परिव्रजन करते हुए जहां श्रावस्ती नगरी थी. जहां कोष्ठक चैत्य था, वहां आया। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह
रहा था।
२२३. श्रमण भगवान महावीर किसी समय क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए जहां चंपानगरी थी, जहां पूर्णभद्र चैत्य था, वहां आए। आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
है - प्यास और भूख के काल का अतिक्रमण हो जाने पर काम में लिया जाने वाला पानी और आहार ।
प्रमाणातिक्रांत का अर्थ है-प्रमाण से अतिरिक्त जल और आहार का प्रयोग।
२२४. उस जमालि अनगार के अरस, विरस, अंत, प्रांत, रूक्ष, तुच्छ, कालातिक्रांत प्रमाणातिक्रांत, ' पानभोजन से किसी समय शरीर में विपुल रोग- आतंक प्रकट हुआ- उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ, कर्कश, कटुक, चण्ड, दुःखद, कष्टसाध्य तीव्र और दुःसह। उसका शरीर पित्तज्वर से व्याप्त हो गया। और उसमें जलन पैदा हो गयी।
१. भ. वृ. ९ / २२४-कालाइक्कंनेहिं य त्ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तेः पमाणाइक्कंते हिं य नि बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः ।
२२५. जमालि अनगार ने वेदना से अभिभूत होकर श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित किया। संबोधित कर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय ! तुम मेरे शय्या संस्तारक बिछा दो ।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २२६-२२८
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भगवई
२२६. तए णं ते समणा निग्गथा ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः जमालेः २२६. श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार
जमालिस्स अणगारस्स एतमट्ठ अनगारस्य एतमर्थ प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य के इस अर्थ को विनयपूर्वक स्वीकार विणएणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जमालेः अनगारस्य शय्या-संस्तारकं किया। स्वीकार कर जमालि अनगार का जमालिस्स अणगारस्स सेज्जा- स्तणन्ति।
शय्या-संस्तारक बिछाने लगे। संथारगं संथरंति॥
२२७. प्रबलतर वेदना से अभिभूत जमालि
अनगार ने दूसरी बार भी श्रमण-निर्ग्रथों को संबोधित कर इस प्रकार कहादेवानुप्रिय! क्या मेरा शय्या संस्तारक बिछा दिया? अथवा बिछा रहे हैं?
२२७. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः बलिकतरं बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे वेदनया अभिभूतः सन् द्विः अपि श्रमणान् दोच्चं पि समणे निग्गंथे सद्दावेइ, निर्ग्रन्थान् शब्दयति, शब्दयित्वा एवमसहावेत्ता एवं वयासी-ममं णं वादीत-मम देवानुप्रिया! शय्या-संस्तारकः देवाणुप्पिया! सेज्जा संथारए किं कडे? किं कृतः? क्रियते? कज्जइ? तते णं ते समणा निग्गंथा जमालिं ततः ते श्रमणाः निर्ग्रन्थाः जमालिं अनगारम् अणगारं एवं वयासी-नो खलु। एवमवादीत-नो खलु देवानुप्रियाणां शय्यादेवाणुप्पियाणं सेज्जा-संथारए कडे, संस्तारकः कृतः, क्रियते। कज्जइ॥
वे श्रमण निग्रंथ जमालि अनगार से इस प्रकार बोले-देवानुप्रिय! शय्या-संस्तारक अभी बिछाया नहीं, बिछा रहे हैं।
२२८. जमालि अनगार के मन में इस प्रकार
२२८. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः अनगारस्य अयमेतद्- अणगारस्स अयमेयारूवे अन्झ-थिए रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः चिंतिए पत्थिए मणागए संकप्पे मनोगतः संकल्पः समुदपादि-यत् श्रमणः समुप्पज्जित्था-जण्णं समणे भगवं। भगवान् महावीरः एवमाख्याति यावत् एवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव एवं प्ररूपयति-एवं खलु चलत् चलितम्, परूवेइ-एवं खलु चलमाणे चलिए, उदीर्यमाणम् उदीरितम्, वेद्यमानं वेदितम्, उदीरिज्जमाणे उदीरिए, वेदिज्जमाणे प्रहीयमानं प्रहीनम्, छिद्यमानं छिन्नम्, वेदिए, पहिज्जमाणे पहीणे, छिज्जमाणे । भिद्यमानं भिन्नम, दह्यमानं दग्धं म्रियमाणं छिण्णे, भिज्जमाणे भिण्णे, दज्झमाणे मृतम्, निर्जीर्यमाणं निर्जीर्णम् तत् मिथ्या। दड्ढे, मिज्जमाणे मए, निजरिज्ज-माणे इदं च प्रत्यक्षमेव दृश्यते शय्या-संस्तारकः निन्जिणे, तण्णं मिच्छा। इमं च णं । क्रियमाणः अकृतः, संस्तीर्यमाणः पच्चक्खमेव दीसइ सेज्जा-संथारए असंस्तृतः। तस्मात् चलत् अपि अचलितम् कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे यावत् निर्जीर्यमाणम् अपि अनिर्जीर्णम् एवं असंथरिए। जम्हा णं सेज्जा-संथारए। संप्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य श्रमणान् निर्ग्रन्थान् कज्जमाणे अकडे, संथरिज्जमाणे शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-यत् असंथरिए। तम्हा चलमाणे वि अचलिए देवानुप्रिया! श्रमणः भगवान् महावीरः जाव निज्जरिज्जमाणे वि एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति एवं खलु अनिज्जिण्णे-एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता चलत् चलितम् यावत् निर्जीर्यमाणम् समणे निग्गंथे सद्दावेइ, सहावेत्ता एवं निर्जीर्णम्, तत् मिथ्या। इदं च प्रत्यक्षमेव वयासी-जण्णं देवाणुप्पिया! समणे दृश्यते शय्या-संस्तारकः क्रियमाणः भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव अकृतः, संस्तीर्यमाणः असंस्तृतः। यस्मात् पस्वेइ-एवं खलु चलमाणे चलिए जाव शय्या-संस्तारकः क्रियमाणः अकृतः, निज्जरिज्जमाणे निज्जिण्णे, तण्णं संस्तीर्यमाणः असंस्तृतः। तस्मात् चलत् मिच्छा। इमं च णं पच्चक्खमेव दीसइ अपि अचलितम् यावत् निर्जीर्यमाणम् अपि सेज्जा-संथारए कज्जमाणे अकडे, अनिजीर्णम्। संथरिज्जमाणे असंथरिए। जम्हा णं सेज्जा-संथारए कज्जमाणे अकडे,
षात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-जो श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं-चलमान चलित, उदीर्यमाण उदीरित, वेद्यमान वेदित, प्रहीणमान प्रहीण, छिद्यमान्न छिन्न, भिद्यमान भिन्न, दह्यमान दग्ध, म्रियमाण मृत, निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण होता है-वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष ही दिखाई देता है-शय्या-संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है। जिस हेतु से शय्या-संस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है, उसी हेतु से चलमान भी अचलित यावत् निर्जीर्यमाण भी अनिर्जीर्ण है-इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर श्रमण-निग्रंथों को संबोधित किया, संबोधित कर इस प्रकार कहा- देवानुप्रियो! श्रमण भगवान महावीर जो इस प्रकार आख्यान करते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं-चलमान चलित यावत् निर्जीर्यमाण निर्जीर्ण है, वह मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष दिखाई देता है-शय्यासंस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है। जिस हेतु से शय्यासंस्तारक क्रियमाण अकृत है, संस्तीर्यमाण असंस्तृत है, उसी हेतु से चलमान
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भगवई संथरिज्जमाणे असंथरिए। तम्हा चलमाणे वि अचलिए जाव निजरिज्जमाणे वि अनिज्जिण्णे।।
श.९ : उ.३३ : सू. २२८,२२९ भी अचलित है यावत् निर्जीर्यमार्ण भी अनिर्जीर्ण है।
२२९. तए णं तस्स जमालिस्स ततः तस्य जमालेः अनगारस्य एवमा- २२९. जमालि अनगार के इस प्रकार अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव चक्षाणस्य यावत् प्ररूपयतः अस्त्येके आख्यान यावत् प्ररूपणा करने पर कुछ परूवेमाणस्स अत्थेगतिया समणा श्रमणाः निर्ग्रन्थाः एनमर्थं श्रद्दधति श्रमण-निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, निग्गंथा एयमद्वं सद्दहति पत्तियंति प्रतीयन्ति रोचन्ते, अस्त्येके श्रमणाः प्रतीति और रुचि की. कुछ श्रमणरोयंति, अत्थेगतिया समणा निग्गंथा निर्ग्रन्थाः एनमर्थं नो श्रद्दधति नो निर्ग्रन्थों ने इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति एयम४ नो सद्दहति नो पत्तियंति नो प्रतीयन्ति नो रोचन्ते। तत्र ये ते श्रमणाः । और रुचि नहीं की। जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों रोयंति। तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा निर्ग्रन्थाः जमालेः अनगारस्य एनमर्थ ने जमालि अनगार के इस अर्थ पर श्रद्धा, जमालिस्स अणगारस्स एयमटुं सद्दहति श्रद्दधति, प्रतीयन्ति रोचन्ते, ते जमालिं प्रतीति और रूचि की, वे जमालि अनगार पत्ति-यंति रोयंति, ते णं जमालिं चेव अनगारम् उपसंपद्य विहरन्ति। तत्र ये ते को ही उपसंपन्न कर विहार करने लगे। अणगारं उवसंपन्जित्ता णं विहरंति। तत्थ श्रमणाः निर्ग्रन्थाः जमालेः अनगारस्य जिन श्रमण-निर्ग्रन्थों ने जमालि अनगार णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स एनमर्थं नो श्रद्दधति नो प्रतीयन्ति नो के इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि अणगारस्स एयमद्वं नो सद्दहति नो । रोचन्ते, ते जमालेः अनगारस्य अन्तिकात् नहीं की, उन्होंने जमालि अनगार के पास पत्तियंति नो रोयंति, ते णं जमालिस्स कोष्ठकात् चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामन्ति, से कोष्ठक चैत्य से प्रतिनिष्क्रमण किया, अणगारस्स अंतियाओ कोट्ठगाओ प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्वी चरन्तः ग्रामानुग्राम प्रतिनिष्क्रमण कर क्रमानुसार विचरण चेइयाओ पडिनिक्खमंति, पडिनि- दवन्तः यत्रैव चम्पानगरी, यत्रैव पूर्णभद्रं और ग्रामानुग्राम विहरण करते हुए जहां क्खमित्ता पुव्वाणुपुदि चरमाणा चैत्यम् यत्रैव श्रमण: भगवान् महावीरः । चंपा नगरी थी. जहां पूर्णभद्र चैत्य था. गामाणुग्गामं दूइज्जमाणा जेणेव चंपा तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य श्रमणं जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां नयरी, जेणेव पुण्णभहे चेइए, जेणेव भगवन्तं महावीरं त्रिःआदक्षिण-प्रदक्षिणां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर समणे भगवं महावीरे तेणेव कुर्वन्ति, कृत्वा वन्दते नमस्यन्ति, वन्दित्वा को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार उवागच्छंति, उवागच्छित्ता समणं भगवं नमस्यित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरम् प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा कर वंदनमहावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं उपसंपद्य विहरन्ति।
नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर करेंति, करेत्ता वंदंति नमसंति, वंदित्ता
श्रमण भगवान महावीर को उपसंपन्न कर नमंसित्ता समणं भगवं महावीरं उवसंप
विहार करने लगे। ज्जित्ता णं विहरंति॥
भाष्य
१. सूत्र-२२६-२२९
इस आलापक में बहुरतवाद की स्थापना से संबद्ध घटना का उल्लेख है। स्थानांग में भगवान महावीर के शासन में होने वाले सात निलवों का निर्देश है। इनमें प्रथम निाव का नाम बहुरतवाद और उसके धर्माचार्य का नाम जमालि बतलाया गया है।
भगवान महावीर को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई, उसके चौदह वर्ष बीत जाने पर बहुरतवादी दृष्टि का उद्भव हुआ। उद्भव का प्रसंग सूत्रांक ९/२२३ से २२९ में वर्णित है।
आवश्यक नियुक्तिकार ने इस सिद्धांत की समीक्षात्मक चर्चा की है। चर्चा के प्रारंभ में बहुरतवाद के प्रवर्तक जमालि का संक्षिप्त परिचय भी दिया है। उनके अनुसार भगवान महावीर की ज्येष्ठ भगिनी का नाम सुदर्शना। उसके पुत्र का नाम जमालि। महावीर की पुत्री के दो नाम अनवद्या और प्रियदर्शना। उसका विवाह जमालि के साथ हुआ था।
___ मल्लधारी हेमचन्द्र ने उक्त गाथा की व्याख्या में लिखा है-जमालि कुण्डपुर का राजकुमार और महावीर का भानजा था। इसमें
१. ठाणं ७/१४०-१४२ २. आवश्यक नियुक्ति गा. १२५
चोदसवासाणि तया जिणेण, उप्पाडियस्स नाणस्स। तो बहुरयाण दिट्ठी, सावत्थी ए समुप्पन्ना।।
३. वही, गा. १२६
जिट्टा सुदंसणा जमालिणोज्ज, सावत्थि तेंदुगुज्जाणे। पंचसया य सहस्सं, ढंकेण जमालि मोत्तूणं ।।
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श.९ : उ. ३३ : सू. २२९
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भगवई
हे?
महावीर की बहिन का नामोल्लेख नहीं है। महावीर की पुत्री सुदर्शना अभिभूत होकर उन्होंने श्रमण-निर्ग्रन्थों को बिछौना करने को कहा। का जमालि के साथ विवाह हुआ था। उसके तीन नाम बतलाए गए श्रमण-निर्ग्रन्थों ने उनके आदेश को शिरोधार्य कर बिछौना करना हैं-ज्येष्ठा, सुदर्शना और अनवद्यांगी। जमालि पांच सौ पुरुषों के शुरू कर दिया। साथ महावीर के पास दीक्षित हुआ और सुदर्शना हजार स्त्रियों के जमालि ने उनसे पूछा-क्या बिछौना कृत है या किया जा रहा साथ प्रवजित हुई।
मल्लधारी हेमचन्द्र की यह व्याख्या नियुक्ति की गाथा से श्रमण-निर्ग्रन्थ-बिछौना कृत नहीं है, किया जा रहा है। संवादी नहीं है। इस गाथा की संवादी व्याख्या नियुक्ति की दीपिका इस उत्तर को सुनकर जमालि के मन में ऊहापोह उत्पन्न हुआ। में मिलती है। उसके अनुसार महावीर की बड़ी बहिन का नाम महावीर कहते हैं-चलमाणे चलिए यह सिद्धांत मिथ्या है। यह प्रत्यक्ष था-सुदर्शना, उसका पुत्र था जमालि। महावीर की पुत्री उसकी भार्या दिखाई दे रहा है-बिछौना क्रियमाण है, कृत नहीं है। थी। उसके दो नाम थे अनवद्यांगी और प्रियदर्शना।'
जमालि के ऊहापोह को जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण ने तार्किक आयारचूला और पर्युषणा कल्प से दीपिकाकार के मत को शैली में प्रस्तुत किया है। यदि क्रियमाण कृत है तो सत् को करने की समर्थन मिलता है। श्रमण भगवान महावीर की ज्येष्ठ भगिनी का नाम स्थिति उत्पन्न होगी। असत् को किया जाता है। सत् को कभी नहीं सुदर्शना और उनकी पुत्री का नाम अनवद्या और प्रियदर्शना था। किया जाता। इसलिए कृत क्रियमाण नहीं हो सकता। यह पक्ष है।
प्रस्तुत शतक में उल्लेख है-जमालि के आठ पत्नियां थी। इसका हेतु है-कृत विद्यमान होता है इसलिए इसका पुनः करण नहीं उनका नामोल्लेख नहीं है।
होता। कृत को किया जाता है, यह अभ्युपगम हो तो करने की क्रिया अनगार जमालि ने भगवान महावीर के पास स्वतंत्र विहार की अनवरत चलेगी। क्रिया की परिसमाप्ति कभी नहीं होगी। अनुमति मांगी। भगवान मौन रहे और जमालि ने स्वतंत्र विहार के दूसरा तर्क है-क्रिया के आरंभ क्षण में कार्य निष्पन्न नहीं होता। लिए प्रस्थान कर दिया। इस घटना के साथ अनेक प्रश्न जुड़े हुए हैं- क्रिया के अंतिम क्षण में निष्पन्न होता है इसलिए क्रियमाण कृत नहीं
भगवान् मौन क्यों रहे? जमालि को स्वतंत्र विहार करने से हो सकता।" क्यों नहीं रोका ? क्या जमालि का स्वतंत्र विहार अनुशासन का अभयदेव सूरि के अनुसार बहरतवाद का पक्ष यह है-कृत अतिक्रमण नहीं है?
अतीत काल का निर्देश है। क्रियमाण वर्तमान काल का निर्देश है। इन प्रश्नों के उत्तर में वृत्तिकार द्वारा प्रस्तुत हेतु यह है-भगवान बिछौना करने वाले साधुओं ने कहा-बिछौना किया जा रहा है, महावीर ने भावी दोष को ध्यान में रखकर जमालि की प्रार्थना की। बिछौना किया नहीं गया है। इस पर विमर्श कर जमालि ने उपेक्षा की।
कहा-क्रियमाण कृत है. यह अभ्युपगम संगत नहीं है। जमालि के पक्ष वीतराग के अनुशासन के तीन तत्त्व होते हैं
का निरसन करने में अभयदेव सूरि ने विशेषावश्यक भाष्य का • हितानुकूल निर्देश।
अनुसरण किया है। भाष्यकार के अनुसार अकृत अविद्यमान है, उसे • हितानुकूल निषेध।
किया नहीं जाता। विद्यमान वस्तु में पर्याय विशेष का आधान होता है • अहितानुगामी आग्रह की उपेक्षा।
इसलिए किसी दृष्टि से उसमें क्रिया संगत है। अविद्यमान वस्तु में यह जमालि पित्तज्वर की व्याधि से ग्रस्त हो गए। वेदना से सर्वथा असंभव है। यदि करणावस्था में कार्य को असत माना जाए तो १. वि. भा. गा. २३०६ की वृत्ति इहव भरतक्षेत्रे कुंडपुर नाम नगरम। तत्र च ५. भ. वृ.९/२१७- भाविदोषत्वेनोपक्षणीयत्वात्तस्यति।
भगवतः महावीरस्य भागिनेयो जमालि म राजपुत्र आसीत्। तस्या च भार्या ६.वि. भा. गा. २३१०श्रीमन्महावीरस्य दुहिता। तस्याश्च ज्येष्ठेति वा सुदर्शनति वा
कयमिह न कज्जमाणं. सब्भावाओ चिरंतनघदोव्व। अनवद्यांगीति वा नामेति। तत्र पंचशतपुरुषपरिवारो जमालिर्भगवान्
अहवा कयंपि कीरइ. कीरउ किच्छ न य सम्मनी।। महावीरस्यान्तिके प्रव्रज्यां जग्राह्र। सुदर्शनाऽपि सहस्रस्त्रीपरिवारा .वि. भा. गा. २३१२तदनुप्रवजिता ॥
नारंभेच्चियं दीसइ. न सिवादद्धाप दीसइ नदंते। २. आवश्यक नि, दीपिका, पृ. १४२. गाथा १२६-श्रीवीरस्य ज्येष्ठस्वसुः
नो नहि किरियाकाने, जुत्तं कन्जं नदंतम्मि। सुदर्शनायाः सुतो जमालि पंचशतयुक् तद् भार्या च श्री वीरपुत्री अनवधांगी ८. भ, वृ.९/२२८-किं कडे कज्जइ ति किं निष्पन्न उत निष्पाद्यते? अनेनातीत प्रियदर्शनाउन्याह्या सहसयुक् प्रावाजीत्।
काल निर्देशन वर्तमानकालनिर्देशन च कृतक्रियमाणयोभेद उक्तः। ३. (क) आ. चूला १५/२, २३१- समणस्स णं भगवओ महावीरस्स जेट्ठा उत्तरेऽप्येवमेव, तदेवं संस्तारक-कर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्का,
भइणी सुदंरणा कासवी गोत्तेणं। समणस्स णं भगवओ महावीरस्स धूया ततश्चासी स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोर्विमर्शात् प्ररूपितवानकासवी गोतेणं। तीस णं दो नामधेज्जा एवमाहिति तं जहा-१. अणोज्जा क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते। ति वा २. पियदखणा ति वा।
९.वि. भा. गा.२३१३(ख) पज्जो० स. ७०-११।
थेराण मयं नाकयमभावो कीराा खपुप्फ व। ४. भ.१.११३॥
अह व अकयं पि कीरइ कीरउ नो खरविसाणं पि॥
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भगवई
३१७
श.९: उ.३३ : सू. २३०
मृत्पिण्ड से घट की भांति खर विषाण क्यों नहीं पैदा होगा?
जमालि ने श्रमण निग्रंथों के द्वारा दिए गए इस उत्तर को अपने मत का आधार बनाया-बिछौना किया नहीं गया है, किया जा रहा है। (भगवती ९/२२७-२८) इस विषय में भाष्यकार की वक्तव्यता यह है-जिस आकाश देश में जिस समय बिछौना बिछाया गया, वह आस्तीर्ण है। जिस आकाश देश में जिस समय बिछौना बिछाया जा रहा है, वह आस्तीर्यमाण है। इस नय से आस्तीर्यमाण को आस्तीर्ण कहा गया है।
भगवान महावीर के सिद्धांत को व्यवहार नय और निश्चय नय-दो दृष्टियों से देखना आवश्यक है। व्यवहार नय के अनुसार क्रियमाण अकृत है, यह माना जा सकता है। निश्चय नय के अनुसार कार्य-काल और निष्ठा-काल एक होता है इसलिए मिट्टी के खनन का काल और उसका निष्ठा-काल एक है। जो कार्य जिस समय प्रारंभ किया जाता है, वह उस समय निष्पन्न हो जाता है। इस अपेक्षा से क्रियमाण कृत होता है।
जमालि ने क्रियमाण कृत' के सिद्धांत के प्रति अनास्था व्यक्त की। उस समय कुछ श्रमण निर्ग्रन्थों ने जमालि के विचार से सहमति प्रकट की और वे उनके साथ रह गए। कुछ श्रमण निर्ग्रन्थों ने उनके विचार से असहमति प्रकट की और वहां से प्रस्थान कर भगवान
महावीर के पास आ गए।
जिनभद्रगणी ने प्रियदर्शना के प्रतिबुद्ध होने की घटना का उल्लेख किया है। प्रस्तुत आगम में उसकी कोई चर्चा नहीं है। साध्वी प्रियदर्शना जमालि के अनुराग से उनके ही पास रही। एक बार वह कुंभकार द्रंक घर में ठहरी। ढंक के भगवान महावीर का श्रावक था और तत्त्व का जानकार था। उसने साध्वी प्रियदर्शना को प्रतिबोध देने के लिए योजना बनाई। आवा से एक अंगारा लिया और साध्वी प्रियदर्शना की संघाटी(साड़ी, उत्तरीय वस्त्र) पर डाल दिया। संघाटी का अंचल जलने लगा।
प्रियदर्शना बोली-श्रावक! यह क्या किया? मेरी संघाटी जल गई।
ढंक-संघाटी जल रही है। जल गई है, यह कैसे कहा? आपके मतानुसार वह दह्यमान है, अभी दग्ध नहीं है-जल रही है, अभी जली नहीं है।
इस प्रज्ञापना के साथ ही वह प्रतिबुद्ध हो गई। वह जमालि के पास गई और उसे समझाने का प्रयत्न किया। जमालि अपने आग्रह को छोड़ नहीं सका। उसके पास जो श्रमण-निर्ग्रन्थ थे. वे प्रतिबुद्ध हो गए। प्रियदर्शना और सब श्रमण-निर्ग्रन्थ जमालि को छोड़कर भगवान महावीर की शरण में चले गए।
२३०. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः अन्यदा २३०. 'जमालि अनगार किसी समय उस
अण्णया कयाइ ताओ रोगायंकाओ कदाचित् तस्मात् रोगातङ्कात् विप्रमुक्तः रोग आतंक से विप्रमुक्त होकर हृष्ट हो विप्पमुक्के हटे जाए, अरोए वलिया। हृष्टः जातः, अरोगः बलितशरीरः गया। नीरोग और शरीर से बलवान सरीरे सावत्थीओ नयरीओ कोट्ठगाओ श्रावस्त्याः नगर्याः कोष्ठकात् चैत्यात् होकर श्रावस्ती नगरी से कोष्ठक चैत्य से चेइयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख- प्रतिनिष्क्राम्यति, प्रतिनिष्क्रम्य पूर्वानुपूर्वी प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर मित्ता पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे, गामा- चरन, ग्रामानुग्रामं दवन् यत्रैव चम्पानगरी, क्रमानुसार विचरण और ग्रामानुग्राम णुग्गामं दूइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी, यत्रैव पूर्णभद्रं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् विहरण करते हुए जहां चंपा नगरी थी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य
जहां पूर्णभद्र चैत्य था, जहां श्रमण भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अदूरसामन्ते भगवान महावीर थे, वहां आया। वहां उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ स्थित्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं एवम- आकर श्रमण भगवान महावीर के न अति महावीरस्स अदूरसामते ठिच्चा समणं वादीत-यथा देवानुप्रियाणां बहवः अन्ते- दूर न अति निकट स्थित होकर श्रमण भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं वासिनः श्रमणाः निर्ग्रन्थाः छद्मस्थापक्रम- भगवान महावीर से इस प्रकार कहादेवाणप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णेन अपक्रान्ताः , नो खलु अहं तथा देवानुप्रिय! जैसे बहुत अंतेवासी श्रमणनिग्गंथा छउमत्थावक्कमणेणं अवक्कंता, छद्मस्थापक्रमणेन अपक्रान्तः. अहं उत्पन्न- निग्रंथ छद्मस्थ- अपक्रमण से अपक्रात
१. वि. भा.गा.२३१४ की वृनि। २. वि. भा. गा.२३२१
जे जत्थ नभादेसे अत्थुव्वइ जत्थ जत्थ समयम्मि।
तं तत्थ तत्थमत्थुयमत्थुव्वंतं पि तं चेव॥ आस्तीर्यमाणसंस्तारकस्य यद्यावन्मात्र नभोदेशे यत्र यत्र समये 'अत्युव्वइ' आस्तीर्यत तत् तावन्मात्र तस्मिन्नभोदेशे तत्र तत्र समय आस्तीर्णमेव भवति, आस्तीर्यमाणमपि च नदेवोच्यते। ३. वि. भा. गा. २३२१ की वृत्ति-सर्वनयात्मकं हि भगवद्वचनम्। नतश्च 'क्रियमाणमकृतम्' इत्यपि भगवान महावीर कथञ्चिद् व्यवहारनयमतेन मन्यत एवं परं 'चनमाणे चलिः' 'उईरिजमाणे उईशि' इत्यादि सूत्राणि
निश्चयनयमतेनैव प्रवृत्तानि। तन्मतेन च 'क्रियमाणं कृतं' 'संस्तीर्यमाणं संस्तृतम्' इत्यादि सर्वमुपपद्यत एव। निश्चयो हि मन्यते-प्रथमसमयादेव घटः कर्तुं नारब्धः किंतु मृदानयनमर्दनादीनि प्रतिसमयं परापर. कार्याण्यारभ्यते, तेषां च मध्ये यद् यत्र समय प्रारभ्यते तत्तत्रैव निष्पद्यते, कार्यकालानिष्ठाकालयोरेकत्वात् अन्यथा पूर्वोक्तदोषप्रसंगात्। ततः क्रियमाणं कृतमेव भवति। ४. वि. भा. गा. २३२५-२३३१॥ ५. वही, गा. २३३२
इच्छामो संबोहणमज्जो! पियदसणादओ दकं । वो जमालिमेक्कं मोत्तॄण गया जिणसगासं॥
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भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. २३०-२३३ नो खलु अहं तहा छउमत्था-वक्कमणेणं अवक्कते, अहं णं उप्पन्ननाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कम-णेणं अवक्कते॥
३१८ ज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् जिनः केवली भूत्वा केवलि-अपक्रमणेन अपक्रान्तः।
पृथक् हुए हैं, वैसे मैं छद्मस्थ- अपक्रमण से अपक्रांत नहीं हुआ हूं, मैं उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर, अर्हत्, जिन, केवली होकर केवली-अपक्रमण से अपक्रांत हुआ हूं।
२३१. तए णं भगवं गोयमे जमालिं ततः भगवान् गौतमः जमालिम् अनगारम् २३१. भगवान गौतम ने जमालि अनगार से अणगारं एवं वयासी-नो खलु जमाली! एवमवादीत-नो खलु जमाले! केवलिनः इस प्रकार कहा-जमालि! केवली का केवलिस्स नाणे वा दंसणे वा सेलसि वा ज्ञानं वा दर्शनं वा शैलेन वा स्तभेन वा, ज्ञान और दर्शन पर्वत, स्तम्भ अथवा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिज्जइ वा स्तूपेन वा, आद्रियते वा निर्वार्यते वा, यदि स्तूप से आवृत नहीं होता, निवारित नहीं निवारिज्जइ वा, जदि णं तुम जमाली! त्वं जमाले! उत्पन्नज्ञान-दर्शनधरः अर्हत् होता। जमालि! यदि तुम उत्पन्न ज्ञानउप्पन्न-ना-दसणधरे अरहा जिणे जिनः केवली भूत्वा केवलि अपक्रमणेन दर्शनधर, अर्हत्, जिन, केवली होकर केवलि भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अपक्रान्तः, तदा इमे द्वे व्याकरणे व्याकुरु- केवली-अपक्रमण से अपक्रांत हुए हो तो अवक्कते, तो णं इमाई दो वागरणाई शाश्वतः लोकः जमाले! अशाश्वतः लोकः इन दो प्रश्नों का व्याकरण करोवागरेहि-सासए लोए जमाली! जमाले! शाश्वतः जीवः जमाले! जमालि! लोक शाश्वत है? जमालि! असासए लोए जमाली? सासए जीवे अशाश्वतः जीवः जमाले?
लोक अशाश्वत है? जमालि! जीव जमाली! असासए जीवे जमाली?
शाश्वत है? जमालि! जीव अशाश्वत है?
२३२. तए णं से जमाली अणगारे भगवया ततः सः जमालिः अनगारः भगवता गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए गौतमेन एवम उक्तः सन् शङ्कितः कांक्षितः वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुस- विचिकित्सकः भेदसमापन्नः कलुषसमापन्नः समावण्णे जाए या वि होत्था, नो जातः चापि अभवत्, नो शक्नोति भगवतः संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचि गौतमस्य किंचिदपि प्रमोक्षमाख्यातुं, वि पमोक्खमाइक्खित्तए, तुसिणीए तृष्णीकः सन्तिष्ठते। संचिट्ठइ॥
२३२. जमालि अनगार भगवान गौतम के
इस प्रकार कहने पर शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुषसमापन्न हो गया। उसने भगवान गौतम को कुछ भी उत्तर देने में अपने आपको समर्थ नहीं पाया। वह मौन हो गया।
२३३. जमालीति! समणे भगवं महावीरे जमाले इति! श्रमणः भगवान् महावीरः जमालिं अणगारं एवं वयासी-अस्थि णं जमालिम् अनगारम् एवमवादीत्-अस्ति जमाली! ममं बहवे अंतेवासी समणा जमाले ! मम बहवः अन्तेवासिनः श्रमणाः निग्गंथा छउमत्था, जे णं पभू एयं निर्ग्रन्थाः छद्मस्थाः, ये प्रभवः एनं व्याकरणं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं, नो व्याकर्तुम्, यथा अहं, नो चैव एतदप्रकारां चेव णं एतप्पगारं भासं भासित्तए, जहा भाषां भाषितुम्, यथा त्वम्। णं तुम। सासए लोए जमाली! जंन कयाइ नासि, शाश्वतः लोकः जमाले ! यत् न कदापि न कयाइ न भवइ, न कयाइ न नासीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविस्सइ-भुविं च, भवइ य, भविस्सइ भविष्यति-अभूत् च, भवति च, भविष्यति य-धुवे, नितिए, सासए, अक्खए, च,-ध्रुवः. नियतः. शाश्वतः, अक्षयः, अव्वए, अवट्ठिए, निच्चे।
अव्ययः अवस्थितः, नित्यः। असासए लोए जमाली! जं ओसप्पिणी अशाश्वतः लोकः जमाले! यत् अवसर्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भूत्वा उत्सर्पिणी भवति, उत्सर्पिणी भूत्वा भवित्ता ओसप्पिणी भवइ।
अवसर्पिणी भवति। सासए जीवे जमाली! जंन कयाइ नासि, शाश्वतः जीवः जमाले! यत् न कदापि
२३३. जमालि! श्रमण भगवान महावीर ने
जमालि अनगार से इस प्रकार कहाजमालि! मेरे बहुत अंतेवासी श्रमणनिर्ग्रन्थ छद्मस्थ हैं, वे इन प्रश्नों का व्याकरण करने में समर्थ हैं, जैसे मैं । वे इस प्रकार की भाषा नहीं बोलते, जैसे तुम। जमालि! लोक शाश्वत है। वह कभी नहीं था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है-वह था, है और होगा-वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। जमालि! लोक अशाश्वत है। वह अवसर्पिणी होकर उत्सर्पिणी होता है, उत्सर्पिणी होकर अवसर्पिणी होता है। जमालि! जीव शाश्वत है। वह कभी नहीं
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भगवई
श.९ : उ. ३३ : सू. २३३,२३४
न कयाइ न भवइ, न कयाइ न नासीत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविस्सइ-भुविं च, भवइ य, भविस्सइ भविष्यति-अभूत च, भवति च, भविष्यति य-धुवे,नितिए, सासए, अक्खए, च-धुवः, नियतः, शाश्वतः, अक्षयः, अब्बए, अवट्ठिए, निच्चे।
अव्ययः, अवस्थितः, नित्यः। असासए जीवे जमाली! जण्णं नेरइए। अशाश्वतः जीवः जमाले! यत् नैरयिकः भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ, भूत्वा तिर्यग्योनिकः भवति, तिर्यग्योनिकः तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ, भूत्वा मनुष्यः भवति मनुष्यः भूत्वा देवः मणुस्से भवित्ता देवे भवइ॥
भवति।
था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है-वह था, है और होगा-वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। जमालि! जीव अशाश्वत है। वह नैरंयिक होकर तिर्यक्योनिक होता है, तिर्यकयोनिक होकर मनुष्य होता है, मनुष्य होकर देव होता है।
२३४. तए णं से जमाली अणगारे ततः सः जमालिः अनगारः श्रमणस्य २३४. जमालि अनगार ने श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमा- भगवतः महावीरस्य एवमाचक्षाणस्य यावत् महावीर के इस प्रकार आख्यान यावत् इक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स । एवं प्रख्पयतः एनमर्थं नो श्रद्दधाति नो प्ररूपणा करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा, एतमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, प्रत्येति नो रोचते, एनमर्थम् अश्रद्दधत् प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर एतमट्ठ असहह-माणे अपत्तियमाणे । अप्रतियन अरोचमानः द्विः अपि श्रमणस्य अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करते हुए अरोएमाणे दोच्चं पि समणस्स भगवओ। भगवतः महावीरस्य अन्तिकाद् आत्मना दूसरी बार भी श्रमण भगवान महावीर के महावीरस्स अंतियाओ आयाए अपक्रामति, अपक्रम्य बहुभिः असद्भवोद्- पास से स्वयं अपक्रमण किया। अपक्रमण अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहहिं भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं कर बहुत असद्भाव की उद्भावना की असब्भा-वुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणि- च परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यत् व्युत्पादयत् और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा वेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति, प्राप्य स्व, पर और दोनों को भ्रांत करता हुआ, बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाइं अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषति, मिथ्या धारणा में व्युत्पन्न करता हुआ सामण्णपरियागं पाउणइ, पाउणित्ता जोषित्वा त्रिंशत् भक्तानि अनशनेन छिनत्ति, बहुत वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचित- किया। पालन कर अर्द्धमासिकी संलेखना झूसेइ, झूसेत्ता तीसं भत्ताई अणसणाए प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके के द्वारा शरीर को कृश बना लिया। छेदेइ, छेदेत्ता तस्स ठाणस्स। कल्पे त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देव- शरीर को कृश बना अनशन के द्वारा अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किल्विषिकेषु देवेषु देवकिल्विषिकतया तीस भक्त (भोजन के समय) का छेदन किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोव- उपपन्नः।
किया। उस स्थान की आलोचना और मठितीएसु देवकिव्विसिएसु देवेसु
प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल देवकिवि-सियत्ताए उववन्ने।
(मृत्यु) को प्राप्त कर लांतककल्प में तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ।
भाष्य १. सूत्र-२३०-२३४
अशाश्वत की पारदर्शी व्याख्या नय के द्वारा की जा सकती है। उस इस आलापक में अनेकांत के सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है। व्याख्या का अधिकारी दृष्टिवाद (बारहवां अंग) का अध्येता हो जमालि ने अपने आपको केवली बतलाया तब गौतम ने दो प्रश्न पूछे- सकता है। जमालि ने दृष्ट्रिवाद का अध्ययन नहीं किया था इसलिए १. लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत?
वह इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर नहीं दे सका। उसका मन शंका से भर २. जीव शाश्वत है अथवा अशाश्वत?
उठा। उस युग में शाश्वत और अशाश्वत का प्रश्न बहुचर्चित था। भगवान महावीर ने जमालि की शंकाकुल मनोदशा को देखकर दर्शन की दो धाराएं बनी हुई थी-कुछ दार्शनिक शाश्वतवादी थे और कहा-'मेरे बहुत सारे अंतेवासी छद्मस्थ होते हुए भी इन प्रश्नों का कुछ अशाश्वतवादी।
व्याकरण कर सकते हैं, जैसा कि मैं करता हूं पर वे अहंकार की भाषा जमालि ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। शाश्वत और में नहीं बोलते। छद्मस्थ होते हुए अपने आपको केवली नहीं बतलाते,
१.भ.९२१५
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३२०
भगवई
श. ९ : उ. ३३ : सू. २३५,२३६ जैसा कि तुम बतला रहे हो।' इस प्रज्ञापना के पश्चात् भगवान महावीर ने लोक और जीव के शाश्वत और अशाश्वत होने की नय-दृष्टि से व्याख्या की। अनेकांत की भाषा में उसका निष्कर्ष यह है-अस्तित्व की दृष्टि से लोक और जीव-दोनों शाश्वत है। पर्याय--परिणमन की दृष्टि से वे दोना अशाश्वत हैं।
जमालि का दृष्टिकोण एकांगी हो चुका था इसलिए उसने इस अनेकांत के सिद्धांत को मान्य नहीं किया और वह वहां से चला गया।
शब्द-विमर्श
ध्रुव आदि के लिए द्रष्टव्य २/४५ का भाष्य। असब्भावुब्भावणा-वितथ अर्थ का प्रकटीकरण। मिच्छत्ताभिनिवेस-मिथ्यात्व का अभिनिवेश। बुग्गाहेमाण-विरुद्ध बात समझाता हुआ। वुप्पाएमाण-दूसरों के पंडितमानी बनाता हुआ।
२३५. तए णं भगवं गोयमे जमालिं ततः भगवान् गौतमः जमालिम् अनगारं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव कालगतं ज्ञात्वा यत्रैव श्रमणः भगवान् समणे भगवं महावीरे तेणेव उवाग- महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागत्य च्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं। श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसिता वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत्-एवं खलु एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं देवानुप्रियाणाम् अन्तेवासी कुशिष्यः अंतेवासी कुसिस्से जमाली नामं जमालिः नाम अनगारः सः भदन्त! अणगारे से णं भंते! जमाली अणगारे जमालिः अनगारः कालमासे कालं कृत्वा कालमासे कालं किच्चा कहिं गए? कुत्र गतः? कुत्र उपपन्नः। कहिं उववन्ने? गोयमादी! समणे भगवं महावीरे भगवं अयि गौतम! श्रमणः भगवान् महावीरः गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत-एवं खलु ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम गौतम! मम अन्तेवासी कुशिष्यः जमालिः अणगारे, से णं तदा ममं एवमाइ- नाम अनगारः, सः तदा मम एवमाचक्षाणस्य क्खमाणस्स एवं भास-माणस्स एवं एवं भाषमाणस्य एवं प्रज्ञापयतः एवं पण्णवेमाणस्स एवं पख्वेमाणस्स प्ररूपयतः एनमर्थं नो श्रद्दधाति नो प्रत्येति एतमद्वं नो सद्दहइ नो पत्तियइ नो रोएइ, नो रोचते, एनमर्थं अश्रद्दधत् अप्रतियन् एतमढे असदह-माणे अपत्तियमाणे । अरोचमानः, द्विः अपि मम अन्तिकात अरोएमाणे, दोच्चं पि ममं अंतियाओ आत्मना अपक्रामति, अपक्रम्य बहुभिः आयाए अवक्कमइ, अवक्कमित्ता बहूहिं। असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवैशैः असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिः । च आत्मानं च परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यत् णिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च व्युत्पादयत् बहुनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं बुग्गाहेमाणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाई प्राप्य, अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्धमा- जोषित्वा, त्रिंशत्भक्तानि अनशनेन छित्त्वा सियाए संलेह-णाए अत्ताणं झूसेत्ता, तस्य स्थानस्य अनालोचित-प्रतिक्रान्तः तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता तस्स कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते काल- त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु देवकिमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस- विषिकेषु देवकिल्विषिकतया उपपन्नः । सागरोवमठितीएसु देवकिब्विसि-एसु देवेसु देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने।
२३५. भगवान गौतम जमालि अनगार को दिवंगत जानकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय का अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामक अनगार था। भंते! वह जमालि अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर कहा गया है? कहां उपपन्न हुआ है? अयि गौतम! इस संबोधन से संबोधित कर श्रमण भगवान महावीर ने भगवान् गौतम से इस प्रकार कहा-गौतम ! मेरा अंतेवासी कुशिष्य जमालि नामक अनगार था। उसने तब मेरे इस प्रकार के आख्यान, भाषण, प्रज्ञापन और प्ररूपण करने पर, इस अर्थ पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति और अरुचि करते हुए उसने दूसरी बार भी मेरे पास से स्वयं अपक्रमण किया। अपक्रमण कर बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्व, पर तथा दोनों को भ्रांत करता हुआ, मिथ्याधारणा से व्युत्पन्न करता हुआ बहुत वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिकी संलेखना से शरीर को कृश बना, अनशन के द्वारा तीसभक्त का छेदन कर, उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही कालमास में काल को प्राप्त कर, लांतक कल्प में तेरह सागर की स्थिति वाले किल्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ है।
२३६. कतिविहा णं भंते! देवकिवि-सिया कतिविधाः भदन्त! देवकिल्विषिकाः २३६. भंते ! किल्विषिक देव कितने प्रकार पण्णत्ता? प्रज्ञप्ताः ?
के प्रज्ञप्त है? गोयमा! तिविहा देवकिब्विसिया गौतम ! त्रिविधाः देवकिल्विषिकाः प्रज्ञप्लाः, गौतम! किल्विषिक देव तीन प्रकार के
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भगवई
पण्णत्ता, तं जहा - तिपलिओवम-ट्ठिया
तिसागरोवमट्टिया
तेरस
सागरोवमट्टिइया ॥
२३७. कहिं णं भंते! तिपलिओव-मडिया देवकिव्विसिया परिवसंति ? गोयमा ! उप्पिं जोइसियाणं हिट्ठि सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिपलिओवमट्टिइया देवकिव्वि- सिया परिवसति ॥
२३८. कहिं णं भंते! तिसागरोव-मट्टिया देवकिव्विसिया परिवसंति ॥ गोयमा! उप्पिं सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं, हिट्ठि सणकुमार - माहिंदेसु कप्पेसु, एत्थ णं तिसागरोव-मट्टिइया देवकिव्विसिया परिवसंति ॥
२३९. कहिं णं भंते! तेरससागरो-मट्टिया देवकिव्विसिया परिवसंति ? गोयमा ! उप्पिं बंभलोगस्स कप्पस्स, हिट्ठि लंतए कप्पे, एत्थ णं तेरस - सोगरोवमइया देवकिव्वि- सिया देवा परिवसंति ॥
२४०. देवकिव्विसिया णं भंते! केसु कम्मादासु देवकिव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति ?
गोयमा ! जे इमे जीवा आयरि पडिणीया, उवज्झायपडिणीया, कुलपडिणीया, गणपडिणीया, संघपडिणीया, आयरिय उवज्झायाणं अयसकारा अवण्णकारा अकित्तिकारा बहूहिं असब्भा- वुब्भावणाहिं, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गामाणा वुप्पाएमाणा बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति, पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणा लोइय पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवकिव्विसिएस देव- किव्विसियत्ताए उववत्तारो भवंति तं जहा - तिपलिओवमट्ठितिए वा तिसागरोव - मट्ठतिएसु वा, तेरससागरोवमट्ठितिएस
वा ॥
३२१
तद्यथा - त्रिपल्योपमस्थितिकाः, त्रिसागरोपमस्थितिकाः, त्रयोदशसागरोपमस्थिति
काः ।
कुत्र भदन्त ! त्रिपल्योपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ? गौतम ! उपरि ज्योतिष्काणां, अधः सोधर्मेशानां कल्पानाम्, अत्र त्रिपल्योपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ।
कुत्र भदन्त ! त्रिसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ! गौतम ! उपरि सौधर्मेशानानां कल्पानाम्, अधः सनत्कुमार- माहेन्द्र कल्पानाम्, अत्र त्रिसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ।
कुत्र भदन्त ! त्रयोदशसागरोपम- स्थितिकाः देवकिल्विषिकाः परिवसन्ति ? गौतम ! उपरि ब्रह्मलोकस्य कल्पस्य, अधः लन्तकस्य कल्पस्य अत्र त्रयोदशसागरोपमस्थितिकाः देवकिल्विषिकाः देवाः परिवसन्ति ।
देवकिल्विषिकाः भदन्त ! कैः कर्मादानैः देवकिल्विषिकतया उपपत्तारः भवन्ति ?
गौतम! ये इमे जीवाः आचार्यप्रत्यनीकाः, उपाध्यायप्रत्यनीकाः, कुलप्रत्यनीकाः, गणप्रत्यनीकाः संघप्रत्यनीकाः, आचार्यउपाध्यायानाम् अयशस्काराः अवर्णकाराः अकीर्तिकाराः बहुभिः असद्भावोद्भावनाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं परं च तदुभयं च व्युद्ग्राह्यन्तः व्युत्पादयन्तः बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नुवन्ति,
प्राप्य
तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ताः कालमासे कालं कृत्वा, अन्यतरेषु देवकिल्विषिकेषु देवकिल्विषिकतया उपपत्तारः भवन्ति तद् यथात्रिपल्यो- पमस्थितिकेषु वा, त्रिसागरोपमस्थितिकेषु वा त्रयोदशसागरोपमस्थितिकेषु वा ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २३६-२४० प्रज्ञप्त हैं, जैसे- तीन पल्योपम स्थिति वाले, तीन सागरोपम स्थिति वाले तेरह सागरोपम स्थिति वाले।
२३७. भंते! तीन पल्योपम स्थिति वाले किल्विषिक देव कहां रहते हैं? गौतम! ज्योतिष्क देवों के ऊपर सौधर्म ईशानकल्प देवों के नीचे इनमें तीन पल्योपम स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं।
२३८. भंते! तीन सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव कहां रहते हैं? गौतम! सौधर्म ईशान कल्प के ऊपर सनत्कुमार- माहेन्द्र कल्प से नीचे इनमें तीन सागरोपम स्थिति वाले किल्विषिक देव रहते हैं।
२३९. भंते! तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव कहां रहते हैं ? गौतम ! ब्रह्मलोक कल्प से ऊपर, लतिक कल्प से नीचे इनमें तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विषक देव रहते हैं।
२४०. भंते! किल्विषक देव किन कर्मादानकर्मबंध के हेतुओं के कारण किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं? गौतम ! जो ये जीव आचार्य प्रत्यनीक, उपाध्याय- प्रत्यनीक. कुल- प्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक, संघ-प्रत्यनीक, आचार्य उपाध्याय का अयश, अवर्ण और अकीर्ति करने वाले, बहुत असद्भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्व. पर तथा दोनों को भ्रांत करते हुए, मिथ्या धारणा से व्युत्पन्न करते हुए बहुत वर्ष तक श्रामण्यपर्याय का पालन करते हैं। पालन कर उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना ही कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर किन्विषिक देवों में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न होते हैं, जैसे- तीन पल्योपम की स्थिति वालों में, तीन सागरोपम की स्थिति वालों में अथवा तेरह सागरोपम की स्थिति वालों में।
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श. ९ : उ. ३३ : सू. २४१-२४३ २४१. देवकिव्विसिया णं भंते! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्ख एणं, ठितिक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कह गच्छंति ? कहिं उववज्जंति ? गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइयतिरिक्खजोणिय मणुस्स देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झति बुज्झति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्व- दुक्खाणं अंतं करेंति, अत्थेगतिया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं अणुपरि हंति ॥
२४२. जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे हाहारे तुच्छाहारे अरसजीवी विरसजीवी अंतजीवी पंतजीवी लहजीवी तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी ?
हंता गोयमा ! जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे
जाव
विवित्तजीवी ॥
२४३. जति णं भंते! जमाली अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमट्ठितिएस देवकिव्विसिएस देवेसु देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने ?
गोयमा ! जमाली णं अणगारे आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, आयरिय-उवज्झायाणं अयसकारए अवण्णकार अकित्ति - कारए बहूहिं असम्भाबुब्भावणाहिं, मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य अप्पाणं परं च तदुभयं च बुग्गाहे-माणे वुप्पाएमाणे बहूई वासाई सामण्णपरियागं पाउणित्ता, अद्ध-मासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे तेरस - सागरोवमट्ठितिएस देवकिव्विसिएसु देवेस देवकिव्विसियत्ताए उववन्ने ।
३२२
देवकिल्विषिकाः भदन्त ! तस्मात् देवलोकात् आयुक्षयेण, 'भवक्षयेण, स्थितिक्षयेणं अनन्तरं चयं च्युत्वा कुत्र गमिष्यन्ति ? कुत्र उपपत्स्यन्ते ? गौतम! यावत् चत्वारि पञ्च नैरयिकतिर्यग्योनिक मनुष्य देवभवग्रहणानि संसारम् अनुपर्यय ततः पश्चात् सिध्यन्ति 'बुज्झंति' मुञ्चन्ति परिनिर्वान्ति सर्वदुक्खानाम् अन्तं कुर्वन्ति, अस्त्येक अनादिकं च 'अणवदरगं' दीर्घमध्वानं चतुरन्तं संसारकन्तारम् अनुपर्यटन्ति ।
जमालिः भदन्त ! अनगारः अर-साहारः विरसाहार: अन्त्याहारः प्रान्त्याहारः रूक्षाहार : तुच्छाहारः अरसजीवी विरसजीवी प्रान्त्यजीवी रूक्षजीवी तुच्छ जीवी उपशान्तजीवी प्रशान्तजीवी विविक्तजीवी ?
हन्त गौतम! जमालिः अनगारः अरसाहारः विरसाहारः यावत् विविक्तजीवी ।
यदि भदन्त । जमालिः अनगारः अरसाहारः विरसाहारः यावत् विविक्तजीवी कस्मात् भदन्त ! जमालिः अनगारः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे त्रयोदश-सागरोपमस्थितिकेषु देवकिल्विषिकेषु देवेषु देवकिल्विषिकतया उपपन्नः ?
गौतम! जमालिः अनगारः आचार्यप्रत्यनीकः, उपाध्यायप्रत्यनीकः, आचार्यउपाध्यायानाम् अयशस्कारकः अवर्णकारकः अकीर्तिकारकः बहुभिः असद्भावोद्भाव - नाभिः मिथ्यात्वाभिनिवेशैः च आत्मानं परं च तदुभयम् च व्युद्ग्राह्यन् व्युत्पादयन् बहूनि वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्य, अर्द्धमासिक्या संलेखनया त्रिंशत भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचित प्रतिक्रान्तः कालमासे कालं कृत्वा लन्तके कल्पे त्रयोदश-सागरोपमस्थितिकेषु देवकिल्वि-षिकेषु देवेषु देवकित्विषिकतया उपपन्नः ।
भगवई
२४१. भंते! किल्विषक देव आयु-क्षय भवक्षय और स्थिति क्षय के अनंतर उन देवलोकों से च्यवन कर कहां जाते हैं? कहां उपपन्न होते हैं?
गौतम ! यावत् चार-पांच नैरयिक, तिर्यक् -योनिक, मनुष्य और देव भव ग्रहण कर संसार में अनुपर्यटन कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशान्त, मुक्त और परिनिर्वृत होते हैं, सब दुःखों का अंत करते हैं। कुछ देव आदि अंतहीन, दीर्घ पथ वाले चतुर्गत्यात्मक संसार- कांतार में अनुपर्यटन करते हैं।
२४२. भंते! जमालि अनगार ने अरसआहार, विरस आहार, प्रांत आहार, रूक्ष आहार और तुच्छ आहार किया । दह अरसजीवी, विरसजीवी, अंतजीवी, प्रांतजीवी, रुक्षजीवी, तुच्छजीवी, उपशांतजीवी, प्रशांतजीवी और विविक्तजीवी था। हां, गौतम! जमालि अनगार ने अरस आहार, विरस आहार किया यावत् वह विविक्तजीवी था।
२४३. भंते! यदि जमालि अनगार ने अरस आहार, विरस आहार किया यावत् वह विविक्तजीवी था तो भंते! जमालि अनगार कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर लांतककल्प में तेरह सागरोपम स्थिति वाले किल्विधिक देवलोक में किल्विषिक देव के रूप में उपपन्न हुआ ? गौतम! जमालि अनगार आचार्य का प्रत्यनीक, उपाध्याय का प्रत्यनीक, आचार्य उपाध्याय का अयश, अवर्ण और अकीर्ति करने वाला था। वह बहुत असद् भाव की उद्भावना और मिथ्यात्व अभिनिवेश के द्वारा स्व. पर तथा दोनों को भ्रांत करता हुआ, मिथ्याधारणा में व्युत्पन्न करता हुआ, वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन कर, अर्द्धमासिकी संलेखना में अनशन के द्वारा तीस भक्त का छेदन कर, उस स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल को प्राप्त कर लांतक कल्प में तेरह सागरोपम की स्थिति वाले किल्विषिक
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भगवई
२४४. जमाली णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भव-क्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहि गच्छहिति ? कहिं उववज्जिहिति ? गोयमा ! चत्तारि पंच तिरिक्ख
- मस्स- देवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति सव्वदुक्खाणं अंतं
काहिति ॥
३२३
जमालिः भदन्त ! देवः तस्मात् देवलोकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उपपत्स्यन्ते ?
गौतम! चत्वारि पञ्च तिर्यग्योनिकमनुष्य- देवभवग्रहणानि संसारम् अनुपर्यट्य ततः पश्चात् सेत्स्यति, 'बुज्झिहिति' मोक्ष्यति परिनिर्वास्यति सर्वदुःखानाम् अन्तं करिष्यति ।
भाष्य
१. सूत्र - २४२-२४४
जमालि का जीवन विरोधाभास का निदर्शन था। एक ओर वह तपस्वी था, दूसरी ओर वह मिथ्यात्व के अभिनिवेश से ग्रस्त था । जीवन का प्रत्येक पक्ष अपना अपना कार्य करता है। तपस्वी था
२४५. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
श. ९ : उ. ३३ : सू. २४३-२४५ देवों में किल्विषक देव के रूप में उपपन्न हुआ है।
इसलिए पुण्य का संचय कर वह मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग में उपपन्न हुआ और मिथ्यात्व का अभिनिवेश था इसलिए वह अनेक गतियों में पर्यटन करेगा।
२४४. भंते! जमालि अनगार आयु क्षय, भव-क्षय और स्थिति-क्षय के अनन्तर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा ? गौतम! चार-पांच तिर्यक्योनिक, मनुष्य, देव भव ग्रहण कर, संसार का अनुपर्यटन कर उसके पश्चात् सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अंत करेगा।
२४५. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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चोत्तीसइमो उद्देसो : चौतीसवां उद्देशक
हिन्दी व्याख्या
मूल
संस्कृत छाया एगस्स वधे अणेगवध-पदं
एकस्य वधे अनेकवध-पदम् २४६. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः यावत् जाव एवं वयासी-पुरिसे णं भंते! पुरिसं एवम् अवादीत-पुरुषः भदन्त ! पुरुषं घ्नन् हणमाणे किं पुरिसं हणइ? नोपुरिसे किं पुरुषं हन्ति ? नोपुरुषान् हन्ति? हणइ?
एक के वध में अनेक-वध पद २४६. 'उस काल और उस समय राजगृह नगर यावत् गौतम इस प्रकार बोलेभंते ! पुरुष पुरुष का हनन करता हुआ क्या पुरुष का हनन करता है? नो-पुरुष का हनन करता है? गौतम ! पुरुष का भी हनन करता है, नोपुरुष का भी हनन करता है।
गोयमा! पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ॥
गौतम ! पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति ।
२४७. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ?
तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति?
गोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि, से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणगे जीवे हणइ। से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-पुरिसं पि हणइ, नोपुरिसे वि हणइ॥
गौतम! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहम एक पुरुषं हन्मि. सः एक पुरुषं घ्नन्
अनेकान् जीवान' हन्ति। तत् तेनार्थेन गौतम! एवमुच्यते-पुरुषम् अपि हन्ति, नोपुरुषान् अपि हन्ति।
२४७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-पुरुष का भी हनन करता है ? नोपुरुष का भी हनन करता है? गौतम ! वह इस प्रकार सोचता है-मैं एक पुरुष का हनन करता हूं किन्तु वह एक पुरुष का हनन करता हुआ अनेक जीवों का हनन करता है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-वह पुरुष का भी हनन करता है, नो-पुरुष का भी हनन करता है।
२४८. पुरिसे णं भंते! आसं हणमाणे किं
आसं हणइ? नोआसे हणइ? गोयमा! आसं पि हणइ, नोआसे वि हणइ॥ से केणद्वेणं? अट्ठो तहेव । एवं हत्थि, सीह, वग्धं जाव चिल्ललगं॥
पुरुषमः भदन्त ! अश्वं घ्नन् किम् अश्वं हन्ति? नोअश्वान हन्ति? गौतम ! अश्वम् अपि हन्ति, नोअश्वान अपि हन्ति । तत् केनार्थेन? अर्थः तथैव । एवं हस्तिनं, सिंह. व्याघ्रं यावत् 'चिल्ललगं'।
२४८. भते! पुरुष अश्व का हनन करता हुआ क्या अश्व का हनन करता है, नोअश्व का हनन करता है? गौतम! वह अश्व का भी हनन करता है, नो-अश्व का भी हनन करता है। भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है?-इसका अर्थ उक्त अर्थ की भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार हार्थी, सिंह, व्याघ्र यावत् चित्रल की वक्तव्यता।
भाष्य १.सूत्र-२४६-२४८
हैं, कृमि-कीटाणु होते हैं। उसका रुधिर भी दूसरे जीवों के वध का प्रस्तुत आलापक में हिंसा के एक सूक्ष्म पक्ष की ओर ध्यान हेतु बन जाता है इसलिए पुरुष का हनन करने वाला नो-पुरुष का आकृष्ट किया गया है। एक पुरुष की हत्या वास्तव में अनेक जीवों की भी हनन करता है। अश्व और नोअश्व की व्याख्या भी इसी नय से हत्या है। जिसकी हत्या की जाती है उसके शरीर में अनेक जीव होते की जा सकती है।
१. भ. ७.९/२४६-४८
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भगवई
३२५ इसिस्स वधे अणंतबध-पदं
ऋषेःवधे अनंतवध-पदम् २४९. पुरिसे णं भंते! इसिं हणमाणे किं । पुरुषः भदन्त ऋषिं घ्नन किम् ऋषिं हन्ति? इसिं हणइ? नोइसिं हणइ?
नोऋषि हन्ति?
श. ९ : उ. ३४ : सू. २४९-२५२ ऋषि के वध में अनंत-वध पद २४९. भंते! पुरुष ऋषि का हनन करता हुआ क्या ऋषि का हनन करता है ? नोऋषि का हनन करता है? गौतम ! वह ऋषि का भी हनन करता है, नो-ऋषि का भी हनन करता है।
गोयमा! इसिंपि हणइ, नोइसि पि हणइ॥
गौतम ! ऋषिम् अपि हन्ति, नोऋषिम् अपि हन्ति ।
नाशताहण
२५०. से केणद्वेण भंते ! एवं वुच्चइ-इसिं २५०. तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- २५०. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा पि हणइ, नोइसिं पि हणइ?
ऋषिम् अपि हन्ति, नो ऋषिम् अपि हन्ति ? रहा है-ऋषि का भी हनन करता है, नोगोयमा! तस्स णं एवं भवइ-एवं खलु गौतम ! तस्य एवं भवति-एवं खलु अहम् । ऋषि का भी हनन करता है? अहं एगं इसिं हणामि, से णं एगं इसिं एकम् ऋषि हन्मि, सः एकम् ऋषिं घ्नन् गौतम! वह इस प्रकार सोचता है-मैं एक हणमाणे अणंते जीवे हणइ। से तेणद्वेणं ___ 'अनन्तान जीवान्' हन्ति। तत् तेनार्थेन ऋषि का हनन करता हूं किन्तु वह एक गोयमा! एवं वुच्चइ-इसिं पि हणइ, गौतम! एवमुच्यते-ऋषिम् अपि हन्ति, ऋषि का हनन करता हुआ अनंत जीवों का नोइसिं पि हणइ॥ नोऋषिम् अपि हन्ति।
हनन करता है। गौतम ! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-ऋषि का भी हनन करता
है, नो-ऋषि का भी हनन करता है।
भाष्य १.सूत्र-२४९-२५०
१. ऋषि अनंत जीवों के वध से विरत होता है। मृत्यु के पूर्व आलापक में बतलाया गया है कि एक पुरुष का हनन पश्चात वह अविरत हो जाता है, अनंत जीवों के हनन के प्रति करने वाला अनेक जीवों का हनन करता है। प्रस्तुत आलापक का उसकी विरति नहीं होती इसलिए ऋषि का हंता अनंत जीवों वक्तव्य है--एक ऋषि का हनन करने वाला अनंत जीवों का हनन का हंता है। करता है। अनेक जीवों का हनन करता है. यह बात बुद्धिगम्य है। २. ऋषि अपने जीवन काल में बहुत जीवों को प्रतिबोध देता एक जीव के आश्रित अनेक जीव होते हैं इसलिए एक जीव का है। वे प्रतिबद्ध प्राणी अनंत जीवों के अघातक बन जाते हैं। ऋषि हनन करने वाला अनेक जीवों का हनन करता है। अनंत जीव एक का वध होने पर यह प्रतिबोध का कार्य रुक जाता है। इस अपेक्षा जीव के आश्रित नहीं होते इसलिए यह सिद्धांत बुद्धि से अगम्य से ऋषि का हनन करनेवाला अनंत जीवों का हनन करता है।' प्रतीत हो रहा है। अभयदेव सूरि ने इसे बुद्धिगम्य बनाने के लिए ___ इनमें प्रथम हेतु स्पष्ट है। दूसरा हेतु बहुत दूर की कल्पना दो हेतु दिए हैं
जैसा प्रतीत होता है। वेर-बंध-पदं वैर-बन्ध-पदम्
वैर बंध-पद २५१. पुरिसे णं भंते! पुरिसं हणमाणे किं पुरुषः भदन्त ! पुरुषं घ्नन किं पुरुषवेरेण २५१. भंते ! पुरुष पुरुष का हनन करता पुरिसवेरेणं पुढे ? नोपुरिसवेरेणं पुढे? स्पृष्टः? नोपुरुषवैरेण स्पृष्टः?
हुआ क्या पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है ?
नो-पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है ? गोयमा! नियम-ताव पुरिसवेरेणं पुढे, गौतम ! नियमम्-तावत् पुरुषवैरेण स्पृष्टः, गौतम ! नियमतः उस पुरुष के वैर से स्पृष्ट अहवा पुरिसवेरेण य नो-पुरिसवेरेण य । अथवा पुरुषवैरेण च नोपुरुषवैरेण च होता है, अथवा पुरुष के वैर से और नोपुढे, अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिस- स्पृष्टः, अथवा पुरुषवैरेण च नोपुरुषवैरैः पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है, अथवा पुरुष वेरेहि य पुढे। एवं आसं जाव चिल्ललगं च स्पृष्टः । एवम् अश्वं यावत् 'चिल्ललगं' के वैर से और नो-पुरुषों के वैर से स्पृष्ट जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य । यावत् अथवा 'चिल्लग' वैरेण च नो होता है नोचिल्ललग-वेरेहि य पुढे॥ 'चिल्ललग' वैरैः च स्पृष्टः।
इसी प्रकार अश्व यावत् चित्रल यावत् अथवा चित्रल के वैर से और नो-चित्रलों के वैर से स्पष्ट होता है।
२५२. पुरिसे णं भंते! इसिं हणमाणे किं
इसिवेरेणं पुढे ? नोइसिवरेणं पुढे? १. भ. वृ../२४९-५०
पुरुषः भदन्त ! ऋषिं घ्नन किम् ऋषिवैरेण स्पृष्टः? नोऋषिवैरेण स्पृष्टः?
२५२. भंते! पुरुष ऋषि का हनन करता हुआ क्या ऋषि के वैर से स्पृष्ट होता है,
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श.९ : उ. ३४ : सू. २५२-२५४
३२६
भगवई
इसिवेरेण
य
गोयमा! नियम नोइसिवेरेहि य पुढे॥
गौतम! नियमम ऋषिवैरेण च नोऋषिवैरैः च स्पृष्टः।
नो-ऋषि के वैर से स्पृष्ट होता है? गौतम ! नियमतः ऋषि के वैर से और नोऋषियों के वैर से स्पृष्ट होता है।
भाष्य १.सूत्र-२५१-२५२
चूर्णिकार का आशय है कि एक व्यक्ति दूसरे को मारता है, वध और वैर-दोनों का गहरा संबंध है। वध करने वाला वैर से बांधता है, दंडित करता है, देश निकाला देता है, वह अनेक व्यक्तियों स्पृष्ट होता है, यह एक सामान्य सिद्धांत है। पुरुष का वध करने वाला के साथ वैर बांधता है। जैसे चोर, पारदारिक, ब्याजखोर आदि नियमतः पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है। पुरुष का वध करने वाला नो- व्यक्ति अनेक व्यक्तियों से वैर का अनुबंध करते हैं। पुरुष के वैर से भी स्पष्ट होता है। इसके दो विकल्प हैं
वृत्तिकार का अभिमत है-जीवों का उपमर्दन करने वाला वैरी १. नो पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है।
होता है। वह सैकड़ों जन्मों तक चलने वाले वैर का बंध करता है। उस २. अनेक नो-पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है।'
एक वैर के कारण वह अनेक दूसरे वैरों से संबंधित होता है और वैर शब्द के अनेक अर्थ है-१. आठकर्म, २. पाप, ३. वैर, ४. उसकी वैर परंपरा अविच्छिन्न रूप से चलने लगती है।' वर्ग्य।
पुरुष का हनन करने वाला पुरुष के वैर से स्पृष्ट होता है, इस प्रस्तुत प्रकरण में वैर का अर्थ दो संदों में किया जा सकता वाक्य में कर्मबंध की अपेक्षा वैरानुबंध का अर्थ अधिक उजागर होता है-१. कर्मबंध २. शत्रुता का भाव। वैर-स्पर्श का उल्लेख प्रस्तुत है। आचार्य भिक्षु ने स्नेहानुबंधी स्नेह और वैरानुबंधी वैर का सुन्दर आगम के प्रथम शतक में हुआ है। उससे वैर का अर्थ कर्म-बंध फलित विवेचन किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, होता है। भगवई १/३७०-७१ के भाष्य में वैरानुबंधी वैर पर विचार उसके साथ उसका स्नेह-बंध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किया गया है। वैरानुबंधी वैर की स्पष्ट अवधारणा सूत्रकृतांग में है- किंतु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो वेराई कुव्वती वेरी, ततो वेरेहिं रज्जती।'
व्यक्ति किसी जीव को मारता है, उसके साथ उसका द्वेष-बंध हो इसकी व्याख्या में चूर्णिकार और वृत्तिकार ने वैरानुबंध का जाता है। पर-जन्म में भी उसे देखकर द्वेष भाव उभर आता है। मित्र के स्पष्ट उल्लेख किया है।
साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है।
पुढविक्काइयादीणं आणपाण-पदं पृथ्वीकायिकादीनाम् आनपान पदम् २५३. पुढविक्काइए णं भंते! पुढ- पृथ्वीकायिकः भदन्त !, पृथ्वीकायं चैव विक्कायं चेव आणमइ वा? पाण-मइ आनिति वा अपानिति वा? उच्छ्वसिति वा? ऊससइ वा? नीससइ वा?
वा? निःश्वसिति वा? हंता गोयमा! पुढविक्काइए पुढवि- हन्त गौतम! पृथ्वीकायिकः पृथ्वीकायिक क्काइयं चेव आणमइ वा जाव नीससइ चैव आनिति वा यावत् निःश्वसिति वा। वा॥
पृथ्वीकायिक आदि का आनपान पद २५३. भंते! क्या पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक का ही आन और अपान तथा उच्छ्श्वास और निःश्वास लेते हैं? हां, गौतम ! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक का ही आन यावत् निःश्वास लेते हैं।
२५४. पुढविक्काइए णं भंते! आउ- पृथ्वीकायिकः भदन्त! अप्कायिकम्
क्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ वा? आनिति वा यावत निःश्वसिति वा? हंता गोयमा! पुढविक्काइए णं हन्त गौतम! पृथ्वीकायिकः अप्कायिकम्
२५४. भंते! पृथ्वीकायिक अप्कायिक का आन यावत् निःश्वास लेते हैं ? हां, गौतम ! पृथ्वीकायिक अप्कायिक का
१. भ. वृ.०२५१-२५२- पुरुषस्य हतत्वान्नियमात् पुरुषवधपापेन स्पृष्ट
इत्येको भङ्गः, नत्र च यदि प्राण्यंतरमपि हतं नदापुरुषवरेण नोपुरुषवरेण चेति द्वितीयः, यदि तु बहवः प्राणिनः हतास्तत्र तदा पुरुषवरेण नोपुरुषवैरैश्चेति
तृतीयः। २. सूत्र, चू. पृ. २२, द्रष्टव्य सूयगडो १/१/३ तथा १/९/३ का टिप्पण। ३. भ. १/३७०-३७१। ४. वही, १/३७०-३७१ का भाष्य, पृ.१६४. ५. सूय.१/८/७। ६. सूत्र. चू. पृ. १६७- स वैराणि कुरुने वैरी। ततो अण्णे मारेति, अण्णे बंधति,
अण्णे दंडेत्ति, अण्णे णिव्विसए, आणवेत्ति चोरपारदारियचोपगादिबहुजणं वेरियं करेंति।
७. सूत्र. व. प. १७०- बैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमईकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपरररनुरज्यते, संबध्यते,
वैरपरंपरानुषङ्गो भवतीत्यर्थः। ८. (क) भिक्षु विचार दर्शन पृ. ५१॥ (ख) अनुकंपा की चौपई-११/४३-४५
जीव ने जीवां बचावे तिण सूं, बंध जाए निणरो राग सनेह। जो पर भव में आय मिले तो, देखत पण जागे तिण सूं नेह । जीव में जीव मारे छे तिण सूं, बंध जावे तिण सूं धेष वशेख। ते पर भव में आय मिले तो, देखत पाण जागे तिण सूं धेष।। मित्र सूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चालीयो जावे। ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ने श्री जिणधर्म माहे नहीं आवे॥
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भगवई
आउक्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ वा। एवं तेउक्काइयं, वाउक्काइयं, एवं वणस्सइकाइयं॥
३२७ आनिति वा यावत् निःश्वसिति वा। एवं तेजस्कायिकं वायुकायिकम् एवं वनस्पतिकायिकम्।
श. ९ : उ. ३४ : सू. २५४-२६० आन यावत् निःश्वास लेते हैं। इसी प्रकार तैजसकायिक, वायुकायिक, इसी प्रकार वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता।
२५५. आउक्काइए णं भंते! पुढ- अप्कायिकः भदन्त! पृथ्वीकायिकम् २५५. भंते ! अप्कायिक पृथ्वीकायिक का विक्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ आनिति वा यावत् निःश्वसिति वा ?
आन यावत् निःश्वास लेते हैं? वा? हंता गोयमा! आउक्काइए णं हन्त गौतम! अप्कायिकः पृथ्वीकायिकम् हां, गौतम! अप्कायिक पृथ्वीकायिक का पुढविक्काइयं आणमइ वा जाव नीससइ आनिति वा यावत् निःश्वसिति वा। आन यावत् निःश्वास लेते हैं।
वा।।
२५६. आउक्काइए णं भंते! आउ- क्काइयं चेव आणमइ वा? एवं चेव। एवं तेउवाउवणस्सइ-काइयं॥
अप्कायिकः भदन्त! अप्कायिकं चैव आनिति वा? एवं चैव। एवं तेजस्-वायु-वनस्पतिकायिकम्।
२५६. भंते! अप्कायिक अप्कायिक का
आन यावत् निःश्वास लेते हैं ? अप्कायिक अप्कायिक का आन यावत् निःश्वास लेते हैं। इसी प्रकार तैजसकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता।
२५७. तेउक्काइए णं भंते! पुढ- तेजस्कायिकः भदन्त! पृथ्वीकायिकम् २५७. भंते! क्या तैजसकायिक पृथ्वीकायिक विक्काइयं आणमइ वा? एवं जाव। आनिति वा? एवं यावत् वनस्पतिकायिकः का आन यावत् निःश्वास लेते हैं? भंते! वणस्सइकाइए णं भंते! वणस्सइ. भदन्त ! वनस्पतिकायिकं चैव आनिति वा? यावत् वनस्पतिकायिक वनस्पतिकायिक काइयं चेव आणमइ वा ? तहेव॥ तथैव।
का आन यावत् निःश्वास लेते हैं? पूर्ववत वक्तव्यता।
किरिया-पदं क्रिया-पदम्
क्रिया पद २५८. पुढविक्काइए णं भंते! पुढवि- पृथ्वीकायिकः भदन्त ! पृथ्वीकायिकं चैव २५८. भंते! पृथ्वीकायिक पृथ्वीकायिक का
क्काइयं चेव आणममाणे वा, आनन् वा, अपानन वा. उच्छ्व सन् वा, आन अथवा अपान अथवा उच्छ्वास पाणममाणे वा, ऊससमाणे वा, निःश्वसन् वा कतिक्रियः?
अथवा निःश्वास लेता हुआ कितनी क्रिया नीससमाणे वा कतिकिरिए?
वाला होता है? गोयमा! सिय तिकिरिए, सिय गौतम! स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुःक्रियः, गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। स्यात् पञ्चक्रियः।
चार क्रिया वाला, स्यात् पांच क्रिया वाला होता है।
२५९. पुढविक्काइए णं भंते! आउ. पृथ्वीकायिकः भदन्त! अप्कायिकं आनन् क्काइयं आणममाणे वा?
वा? एवं चैव। एवं यावत् वनस्पतिएवं चेव। एवं जाव वणस्सइकाइयं। एवं कायिकम्। एवम् अप्कायिकेन अपि सर्वे आउक्काएण वि सव्वे भाणियव्वा। एवं भणितव्याः। एवं तैजसकायिकेन अपि, एवं तेउक्काइएण वि, एवं वाउक्काइएण वि वायुकायिकेन अपि यावत्जाव
२५९. भंते! पृथ्वीकायिक अप्कायिक का
आन यावत् निःश्वास लेता हुआ कितनी क्रिया वाला होता है? पूर्ववत् वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् अप्कायिक के सर्व विकल्प वक्तव्य है। इसी प्रकार तैजसकायिक और वायुकायिक की वक्तव्यता यावत्
२६०. वणस्सइकाइए णं भंते! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा-पुच्छा?
वनस्पतिकायिकः भदन्त! वनस्पति- २६०. भंते ! वनस्पतिकायिक वनस्पतिकायिकं चैव आनन् वा-पृच्छा?
कायिक का आन यावत निःश्वास लेता
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श. ९ : उ. ३४ : सू. २६०-२६३
गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए ।
२६१. वाउक्काइए णं भंते! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ?
गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए। एवं कंद, एवं जाव
२६२. बीयं पचालेमाणे वा-पुच्छा ?
गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकिरिए ||
२६३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
३२८
गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुः क्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः ।
वायुकायिकः भदन्त रूक्षस्य मूलं प्रचालयन् वा प्रपातयन् वा कतिक्रियः ?
गौतम! स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुः क्रियः स्यात पञ्चक्रियः एवं कन्दम् एवं यावत्
बीजं प्रचालयन वा पृच्छा ?
गौतम ! स्यात् त्रिक्रियः स्यात् चतुः क्रियः, स्यात् पञ्चक्रियः ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
भगवई
हुआ कितनी क्रिया वाला होता है? पृच्छा।
गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला स्यात् चार क्रिया वाला, स्यात् पांच क्रिया वाला।
२६१. भंते! वायुकायिक वृक्ष के मूल को प्रकंपित करता हुआ गिराता हुआ कितनी क्रिया वाला होता है ? गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चार क्रिया वाला, स्यात पांच क्रिया वाला होता है। इसी प्रकार कंद यावत्
२६२. वायुकायिक बीज को प्रकंपित करता हुआ कितनी क्रिया वाला होता है? पृच्छा ।
गौतम! स्यात् तीन क्रिया वाला, स्यात् चार क्रिया वाला, स्यात् पांच क्रिया वाला होता है।
२६३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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दशम सयं
दसवां शतक
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आमुख
वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य नौ हैं, उनमें सातवां द्रव्य-दिक् दिशा है। जैन दर्शन के अनुसार दिशा स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। वह आकाश का एक विभाग है। प्रस्तुत प्रकरण में दिशा मुख्यतः प्रतिपाद्य नहीं है। प्रतिपाद्य विषय है-दिशा में व्याप्त होने वाले जीव और अजीव का बोध कराना।
प्रस्तुत आगम में शरीर का निरूपण पहले हो चुका है। प्रस्तुत शतक में पुनः शरीर का निरूपण किया गया है, उसमें प्रज्ञापना के पांचवें पद का समवतार है। इसी प्रकार योनि पद में प्रज्ञापना के नौवें पद और वेदना पद में प्रज्ञापना के पैंतीसवें पद का समवतार है। भिक्षु प्रतिमा में दशाश्रुतस्कंध की सातवीं दशा (सूत्र-४.२५) का समवतार है। द्वीप से संबद्ध अट्ठाईस उद्देशक में जीवाभिगम' की भांति वक्तव्यता का निर्देश है। अंग में अंगबाह्य श्रुत का समवतार सूचित करता है कि आगमों के संकलन काल में कुछ प्रश्नोत्तरों का संवर्द्धन किया गया है। प्रस्तुत आगम में शरीर, योनि, वेदना, भिक्षु प्रतिमा आदि का पाठ होता और प्रज्ञापना में उन पाठों का समवतार होता-'जहा विआहपण्णत्तीए'-तो रचना अधिक संगत होती। यह समवतार संकलन काल में किया गया अथवा लिपि काल में ? यह अन्वेष्टव्य विषय है। यदि लिपिकाल में होता तो पूर्ण पाठ प्रज्ञापना आदि में लिखा गया, वैसा भगवती में लिखा जाता, प्रज्ञापना आदि में भगवती का समवतार कर दिया जाता। तात्पर्य में कोई अंतर नहीं आता। अधिक संभव है संकलन काल में ही यह परिवर्तन हुआ है। हो सकता है अंगश्रुत की संवादिता के लिए ऐसा किया गया हो।
प्रस्तुत आगम में ईर्यापथिकी क्रिया का उल्लेख अनेक स्थलों पर हुआ है। प्रथम उल्लेख प्रथम शतक" में, द्वितीय उल्लेख तीसरे शतक' में, तीसरा उल्लेख छठे शतक' में, चौथा उल्लेख सातवें शतक में, पांचवां उल्लेख आठवें शतक" में और छठा उल्लेख प्रस्तुतशतक' में हुआ है। ईर्यापथिकी क्रिया का विस्तृत वर्णन सूत्रकृतांग में भी है। स्थानांग में अजीव क्रिया के दो भेद बतलाए गए हैं-ईर्यापथिकी क्रिया और सांपरायिकी क्रिया। प्रज्ञापना में ऐपिथिक बंध की अपेक्षा सातवेदनीय की दो समय की स्थिति बतलायी गयी है। भगवती के अठारहवें शतक में भावितात्मा अणगार के ईर्यापथिकी क्रिया होती है, इस विषय का उल्लेख है। उत्तराध्ययन में ईर्यापथिकी क्रिया केवली के होती है इसका उल्लेख है। इन सबका समग्रता से अध्ययन करने पर ईर्यापथिकी के व्यापक स्वरूप को समझा जा सकता है।
आलोचना के विषय में आठवें शतक में बतलाया गया है। यहां उससे भिन्न निर्देश है। तुलना के लिए दोनों प्रकरणों को एक साथ पढ़ना जरूरी है।
प्रस्तुत आगम में देवों का अनेक रूपों में वर्णन किया गया है। सूत्रांक २३ से ३८ तक पारस्परिक शिष्टाचार का निर्देश है। यह व्यवहार कौशल का सुंदर निदर्शन है। इससे यह प्रमाणित होता है कि व्यवहार कौशल का मूल्य सर्वत्र है।
प्रस्तुत आगम में महावीर और गौतम के संवाद प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। कुछ संवाद भगवान पार्श्व के शिष्यों के साथ भी मिलते हैं। क्वचित् महावीर के अपने शिष्यों के साथ भी संवाद मिलते हैं। अणगार श्याम हस्ती का संवाद गौतम के साथ हुआ है, यह एक उल्लेखनीय घटना है। इस संवाद में वायस्त्रिंश अथवा तावत्त्रिंश देवों की उत्पत्ति की घटना का श्यामहस्ती द्वारा उल्लेख करना, गौतम का संदिग्ध होना, श्रमण
१. वै. सू.--१/१/५ पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति ।
द्रव्याणि। २. द्रष्टव्य सूत्र १०.१-७ का भाष्य। ३. भ. १/३४३ ४. वही, १०८ ५. वही, १०.१५॥ ६. वही, १०/१६-१७ ७. वही, १०.१८ ८. वही १०/१०२। ९.जीवा. ३/२२७१ १०. भ. १/४४४-४४५ ११. वही ३/१४८।
१२. भ. ६/२९। १३. वही, ७/१२५-१२६ । १४. वही, ८/३०२-३०३। १५. वही, १०/११-१४॥ १६. सूय. २/२/१६। १७. ठाणं २/४1 १८. पण्ण.सू.२३-६३,१७९॥ १९. भ. १८/१५९। २०. उत्तर. २९/७२। २१. भ.८/२५१-३५५॥ २२. वही, १०/१०-२१॥ २३. वही, १०/४०-५१॥
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श. १०: आमुख
३३२
भगवई
महावीर के द्वारा श्यामहस्ती के अभिमत का निराकरण करना एक विशिष्ट प्रसंग है। इस प्रसंग में अनेकांत दृष्टि और अव्यवच्छित्ति नय का प्रयोग हुआ है।
भगवान महावीर के द्वारा त्रायस्त्रिंश देवों की उत्पत्ति का वर्णन बहुत ही रसप्रद और मननीय है। "
प्रस्तुत आगम के अध्ययन से प्रतीत होता है कि परोक्ष के विषय में जिज्ञासा अत्यधिक रहती थी। स्थविरों ने भगवान महावीर से देवताओं की अग्रमहिषियों के विषय में प्रश्न पूछे और महावीर ने उनके उत्तर दिए। देवताओं के सुख, भोग आदि विषय भी चर्चित रहे हैं। प्रस्तुत शतक आकार में छोटा है पर विषय वस्तु के कारण काफी बोधप्रद और रसप्रद है।
१. भ. १०/५२-६२॥
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संगहणी गाहा
१. दिस २. संवुड अणगारे,
३. आइइढी ४. सामहत्थि ५. देवि
मूल
७- ३४ उत्तरअंतरदीवा,
दसमम्मि सयम्मि चउत्तीसा ॥ १ ॥
६. सभा।
दिसा-पदं
९. रायगिहे जाव एवं वयासी - किमियं भंते! पाईणा ति पवुच्चइ ?
गोयमा ! जीवा चेव, अजीवा चेव ॥
२. किमियं भंते! पडीणा ति पवुच्चइ ?
गोयमा ! एवं चेव । एवं दाहिणा, एवं उदीणा, एवं उड्ढा, एवं अहो वि ॥
३. कति णं भंते! दिसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा - १. पुरत्थिमा २. पुरत्थिम- दाहिणा ३. दाहिणा ४. दाहिणपच्च-त्थिमा ५. पच्चत्थिमा ६. पच्चत्थि-मुत्तरा ७. उत्तरा ८. उत्तरपुरस्थिमा ९. उड्ढा १०. अहो ॥
जहा
४. एयासि णं भंते! दसण्हं दिसाणं कति नामधेज्जा पण्णत्ता ?
गोयमा ! दस नामधेज्जा पण्णत्ता, तं
इंदा अग्गेयी जम्मा,
य नेरई वारुणी य वायव्वा । सोमा ईसाणी या, विमला य तमा य बोद्धव्वा ॥ १ ॥
दसमं सतं : दसवां शतक
पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
संस्कृत छाया
संग्रहणी गाथा
१. दिशा २. संवृत अनगारः
३. आत्मर्धिकः ४. श्यामहस्ती ५. देवी
७-३४. उत्तर अन्तरद्वीपाः, दशमे शते चतुस्त्रिंशत् ॥
६. सभा ।
दिशा-पदम् राजगृह: भदन्त ! 'प्राचीना' इति प्रोच्यते ?
गौतम! जीवा चैव अजीवा चैव ।
किमियं भदन्त ! प्रतीचीना इति प्रोच्यते ?
गौतम! एवं चैव । एवं दक्षिणा, एवं उदीचीना, एवं ऊर्ध्वा, एवं अधः अपि ।
यावत् एवमवादीत् किमियं
कति भदन्त ! दिशाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! दश दिशाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा - १. पौरस्त्या २. पौरस्त्यदक्षिणा ३. दक्षिणा ४. दक्षिणपाश्चात्या ५. पाश्चात्या ६. पाश्चात्योत्तरा ७. उत्तरा ८. उत्तरपौरस्त्या ९. ऊर्ध्वा १०. अधः ।
एतासां भदन्त दशानां दिशानां कति नामधेयाः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! दश नामधेयाः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा
इन्द्रा आग्नेयी याम्या,
च नैर्ऋती वारुणी च वायव्या । सौम्या ऐशानी वा, विमला च तमा च बोद्धव्या ॥
हिन्दी अनुवाद
संग्रहणी गाथा
दशवे शतक में चौतीस उद्देशक है
१. दिशा २. संवृत - अनगार ३. आत्म- ऋद्धि ४. श्यामहस्ती ५. देवी ६. सभा ७-३४. उत्तरवर्ती अन्तद्वीप
दिशा-पद
१. राजगृह नगर यावत् गौतम इस प्रकार बोले- भंते! इस पूर्व दिशा को क्या कहा जाता है ? गौतम ! वह जीव है और अजीव है
२. भंते! इस पश्चिम दिशा को क्या कहा जाता है ?
गौतम! जीव है और अजीव है। इसी प्रकार दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व और अधः दिशा जीव है और अजीव है।
३. भंते! दिशाएं कितनी प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! दश दिशाएं प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. पूर्व दिशा २. पूर्व-दक्षिण ३. दक्षिण ४. दक्षिणपश्चिम ५. पश्चिम ६. पश्चिम उत्तर ७. उत्तर ८. उत्तर-पूर्व ९. ऊर्ध्व १०. अधः ।
४. भंते! इन दश दिशाओं के कितने नाम प्रज्ञप्त हैं ?
गौतम ! दश नाम प्रज्ञप्त हैं, जैसे- ऐन्द्री (पूर्व) आग्नेयी (पूर्व-दक्षिण का कोण) याम्या (दक्षिण) नैर्ऋती (दक्षिण-पश्चिम का कोण) वारुणी (पश्चिम) वायव्य (पश्चिम-उत्तर का कोण) सौम्य (उत्तर) ईशान ( उत्तर-पूर्व का कोण) विमला
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श. १० : उ. १ : सू. ५,६
भगवई
(ऊर्ध्व) और तमा (अधो दिशा) ज्ञातव्य
५. इंदा णं भंते! दिसा किं १. जीवा २. इन्द्रा भदन्त ! दिशा किं १. जीवा २. जीवदेसा ३. जीवपदेसा ४. अजीवा ५. जीवदेशा ३. जीवप्रदेशा ४. अजीवा ५. अजीवदेसा ६. अजीवपदेसा?
अजीवदेशा ६. अजीवप्रदेशा?
गोयमा! जीवा वि, जीवदेसा वि, गौतम! जीवा अपि, जीवदेशा अपि, जीव- जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा प्रदेशा अपि। अजीवा अपि, अजीवदेशा वि, अजीवपदेसा वि।
अपि, अजीवप्रदेशा अपि। जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया ये जीवाः ते नियमात एकेन्द्रियाः द्वीन्द्रियाः । तेइंदिया चउरिंदिया पंचिं-दिया, त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः अनिअणिंदिया।
न्द्रियाः। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव ये जीवदेशाः ते नियमात् एकेन्द्रियदेशाः अणिंदियदेसा।
यावत् अनिन्द्रियदेशाः। जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदिय-पदेसा ये जीवप्रदेशाः ते नियमात एकेन्द्रियप्रदेशाः बेइंदियपदेसा जाव अणिंदिय-पदेसा। यावत् अनिन्द्रियप्रदेशाः।
५. भंते ! ऐन्द्री दिशा क्या १. जीव है? २. जीव देश है? ३. जीव प्रदेश है? ४. अजीव है ? ५. अजीव देश है? ६. अजीव प्रदेश है? गौतम ! ऐन्द्री दिशा जीव भी है, जीव देश भी है, जीव प्रदेश भी है. अजीव भी है, अजीव देश भी है, अनीव प्रदेश भी है। जो जीव है, वे नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं। जो जीव देश है, वे नियमतः एकेन्द्रिय-देश यावत अनिन्द्रिय-देश हैं। जो जीवप्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रियप्रदेश, द्वीन्द्रियप्रदेश यावत् अनिन्द्रियप्रदेश हैं। जो अजीव हैं वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रूपी-अजीव, अल्पा-अजीव। जो रूपी- अजीव है, वे चार प्रकार के प्रजप्स हैं, जैसे-स्कंध, स्कंध-देश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु-पुद्गल। जो अरूपी-अजीव हैं. वे सात प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. धर्मास्तिकाय नहीं हैं. धर्मास्तिकाय का देश है, २. धर्मास्तिकाय के प्रदेश है ३. अधर्मास्तिकाय नहीं है. अधर्मास्तिकाय का देश है ४. अधर्मास्ति-काय के प्रदेश हैं ५. आकाशास्तिकाय नहीं है, आकाशास्तिकाय का देश है ६. आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं ७. अध्यासमय है,
जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा- ये अजीवाः ते द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-- रूविअजीवा य, अरूवि-अजीवा य। रुपि-अजीवाः च, अरूपि-अजीवाः च। जे रूविअजीवा ते चउन्विहा पण्णत्ता, तं ये रूपिअजीवाः ते चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् जहा-खंधा, खंधदेसा, खंधपदेसा, यथा-स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः. स्कन्धपरमाणुपोग्गला।
प्रदेशाः, परमाणुपुदलाः। जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, ये अरूपिअजीवाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तं जहा
तद् यथा१. नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स १. नो धर्मास्तिकायः धर्मास्ति-कायस्य देसे २. धम्मत्थिकायस्स पदेसा ३. नो- देशः २. धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः ३. नोअधम्मत्थिकाए अधम्मत्थि-कायस्स अधर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायस्य देश: देसे ४. अधम्मत्थिकायस्स पदेसा ५. ४. अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः ५. नो नोआगासत्थिकाए आगासत्थि-कायस्स आकाशास्तिकायः आकाशास्तिकायस्य देसे ६. आगासत्थि-कायस्स पदेसा ७. देशः ६. आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः ७. अद्धासमए॥
अद्धासमयः।
६. अग्गेयी णं भंते! दिसा किं जीवा, आग्नेयी भदन्त! दिशा किं जीवा, ६. भंते! आग्नेयी दिशा क्या जीव है? जीवदेसा, जीवपदेसा-पुच्छा। जीवदेशा, जीवप्रदेशा--पृच्छा।
जीवदेश है ? जीवप्रदेश है ? पृच्छा। गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, गौतम! नो जीवा, जीवदेशा अपि, जीव- गौतम! जीव नहीं है, जीव-देश भी है. जीवपदेसा वि अजीवा वि, अजीवदेसा प्रदेशा अपि, अजीवा अपि, अजीवदेशा जीव-प्रदेश भी है, अजीव भी है, अजीववि, अजीवपदेसा वि। अपि, अजीवप्रदेशा अपि।
देश भी है, अजीव-प्रदेश भी है। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदिय-देसा, ये जीवदेशाः ते नियमात एकेन्द्रियदेशाः, जो जीवदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के अहवा एगिदियदेसा य बेइंदि-यस्स य अथवा एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य च देश हैं, अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और देसे, अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देशः, अथवा एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य द्वान्द्रिय का देश है. अथवा एकेन्द्रिय के य देसा, अहवा एगि-दियदेसा य च देशाः अथवा एकेन्द्रियदेशा च द्वीन्द्रि- देश है और द्वीन्द्रिय के देश हैं अथवा बेइंदियाण य देसा। अहवा एगिदियदेसा यानां च देशाः। अथवा एकेन्द्रियदेशाः च एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रियों के देश य तेइंदियस्स य देसे। एवं चेव तियभंगो त्रीन्द्रियस्य च देशः। एवं चैव त्रिकभंगः हैं। अथवा एकेन्द्रिय के देश हैं और भाणि-यव्वो। एवं जाव अणिंदियाणं भणितव्यः। एवं यावत् अनिन्द्रियाणां त्रीन्द्रिय का देश है। इसी प्रकार तीन
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भगवई
३३५
तिय-भंगो। जे जीवपदेसा ते नियमा त्रिकभंगः। ये जीवप्रदेशाः ते नियमात् एगिदियपदेसा। अहवा एगिंदियपदेसाय एकेन्द्रियप्रदेशाः। अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः च बेइंदियस्स पदेसा, अहवा एगिंदिय- द्वीन्द्रियस्य प्रदेशः, अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः पदेसा य बेइंदियाण य पदेसा। एवं च द्वीन्द्रियाणां च प्रदेशाः। एवम् । आइल्लविरहिओ जाव अणिंदियाणं। आदिमविरहितः यावत् अनिन्द्रियाणाम्।
श. १० : उ. १ : सू. ६,७ विकल्प वक्तव्य है। इसी प्रकार यावत् अनिन्द्रिय के तीन भंग वक्तव्य है। जो जीव के प्रदेश हैं, वे नियमतः एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं
और द्वीन्द्रिय के प्रदेश हैं, अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रियों के प्रदेश हैं। इसी प्रकार प्रथम विकल्प विरहित यावत् अनिन्द्रिय की वक्तव्यता। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रूपी-अजीव, अरूपी अजीव।
जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं ये अजीवाः ते द्विविधाः प्रज्ञप्लाः, तद् जहा-रूविअजीवा य, अरूवि-अजीवा यथा-रूपिअजीवाः च, अरूपिअजीवाः।
य।
जे रूविअजीवा ते चउव्विहा पण्णत्ता, तं ये रूपि-अजीवाः ते चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद् । जहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला। यथा-स्कन्धाः यावत् परमाणुपुद्गलाः। जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, ये अरूपि-अजीवाः ते सप्तविधाः प्रज्ञसाः, तं जहा-नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थि- तद्यथा-नोधर्मास्तिकायः धर्मास्तिकायस्य कायस्स देसे, धम्मत्थि-कायस्स पदेसा, देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, एवम् एवं अधम्मत्थि-कायस्स वि जाव अधर्मास्तिकायस्य अपि यावत् आगासत्थि-कायस्स पदेसा, आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः, अद्धासमयः। अद्धासमए॥
जो रूपी-अजीव हैं, वे चार प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-स्कन्ध यावत् परमाणु पुद्गल। जो अरूपि-अजीव है-वे सात प्रकार के प्रज्ञाप्त हैं, जैसे नोधर्मास्तिकाय-धर्मास्तिकाय नहीं है, धर्मास्तिकाय का देश है, धर्मास्तिकाय के प्रदेश है। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय की वक्तव्यता यावत् आकाशास्तिकाय के प्रदेश हैं। अध्वा समय है।
७. जम्मा णं भंते! दिसा किं जीवा? याम्या भदन्त ! दिशा किं जीवाः ? ७. भंते! क्या याम्या दिशा जीव है ? जहा इंदा। तहेव निरवसेसं नेरतीय जहा यथा इन्द्रा तथैव निरवशेषम्। नैर्ऋतीच यथा जैसे ऐन्द्री वैसे ही याम्या की निरवशेष अग्गेयी। वारुणी जहा इंदा। वायव्वा । आग्नेयी। वारुणी यथा इन्द्रा। वायव्या यथा वक्तव्यता। नैर्ऋती आग्नेयी की भांति, जहा अग्गेयी। सोमा जहा इंदा। ईसाणी आग्नेयी। सौम्या यथा इन्द्रा। ऐशानी यथा वारुणी ऐन्द्री की भांति, वायव्या आग्नेयी जहा अग्गेयी। विमलाए जीवा जहा आग्नेयी। विमलायाः जीवाः यथा की भांति, सौम्या ऐन्द्री की भांति, अग्गेयीए, अजीवा जहा इंदाए। एवं आग्नेय्याः, अजीवाः यथा इन्द्रायाः। एवं ऐशानी आग्नेयी की भांति, विमला के तमाए वि, नवरं-अरूवी छविहा, तमायाः अपि, नवरम्-अरूपिणः जीव आग्नेयी की भांति और अजीव ऐन्द्री अद्धासमयो न भण्णति॥ षविधाः, अध्वसमयः न भण्यते।
की भांति वक्तव्य हैं। इसी प्रकार तमा की वक्तव्यता, इतना विशेष है-अरूपी अजीव के छह प्रकार हैं, अध्वा समय वक्तव्य
नहीं है।
भाष्य १. सूत्र १-७
अपेक्षा छह दिशाएं और चार विदिशाएं हैं। प्रस्तुत आलापक में दश दिशाओं का निरूपण है। स्थानांग जैन दर्शन के अनुसार दिशा स्वतंत्र द्रव्य नहीं है। वह के छठे स्थान में छह और दसवें स्थान में दश दिशाएं बतलाई गई आकाश के प्रदेशों की विशिष्ट रचना है। तिरछे लोक के मध्य में हैं। वास्तव में दिशाएं छह हैं, चार विदिशाएं हैं। जीवों की गति आकाश के आठ प्रदेश वाला रुचक है। उसके आठ प्रदेश गोस्तनआदि सभी प्रवृत्तियां छहों दिशाओं में ही होती हैं, चार विदिशाओं आकार वाले हैं-चार ऊपर और चार नीचे। वह रुचक सब दिशाओं में नहीं होती। इसलिए दिशा और विदिशा का विभाग बहुत सार्थक और विदिशाओं का प्रवर्तक है। सिद्धसेन गणि के अनुसार आठ है। समुच्चय की अपेक्षा दश दिशाएं बतलाई गई है किन्तु कार्य की प्रदेश वाला रुचक नैश्चयिक दिशा है। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और
१. (क) ठाणं, ६/३७।
(ख) वही, १०/३०-३१॥
(ग) भ..२/२-७। २. नंदी, मवृ. प.११०।
३. (क) त. सू. भा. वृ. ३/१० पृ. २५४-अथ नैश्चयिकी दिक कथं
प्रतिपत्तव्येत्यत आह(ख) वही ३/१० का भाष्य-लोकमध्यावस्थितं त्वष्टप्रदेशं रुचकं दिग्नियम
हेतुं प्रतीत्य यथासंभवं भवतीति।
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श. १० : उ. १ : सू. ८,९
दक्षिण- ये चार महादिशाएं हैं।
इनका प्रारंभ दो दो आकाशप्रदेश से होता है। क्रमशः चार, छह, आठ- इस प्रकार वृद्धि होते होते लोकाकाश में असंख्यप्रदेशात्मक और अलोकाकाश में अनंत प्रदेशात्मक हो जाती हैं। ऊर्ध्व और अधः दिशा चार-चार आकाश-प्रदेशों से निष्पन्न होती हैं। चार विदिशाएं चार दिशाओं के कोणों में होती हैं। उनकी रचना एक एक प्रदेश से निष्पन्न है !
चार महादिशाओं की रचना गाड़ी के उन्द्वी के आकार वाली प्रारंभ में संकड़ी और अंत में विस्तृत होती है। चार विदिशाओं की रचना मुक्तावली संस्थान वाली है। ऊर्ध्व और अधः दिशा की रचना रुचक आकार वाली है। भगवती के तेरहवें शतक में दिशा का वर्णन उपलब्ध है। '
आवश्यक नियुक्ति में दिशा के सात प्रकार बतलाए गए हैं१. नाम दिशा २ स्थापना दिशा ३ द्रव्य दिशा ४. क्षेत्र दिशा ५. ताप क्षेत्र दिशा ६. प्रज्ञापक दिशा ७. भाव दिशा ।
व्यवहार में दिशा का प्रयोग सूर्य के उदय से संबद्ध है। वह ताप - क्षेत्र दिशा है। रुचक के आठ प्रदेशों से उद्भूत होने वाली दिशा क्षेत्र दिशा है। जीव के वर्तमान पर्याय का बोध कराने वाली दिशा भाव दिशा है। प्रस्तुत आलापक में क्षेत्र दिशा और भाव दिशा की दृष्टि से विमर्श किया गया है। भाव दिशा के साथ अजीव द्रव्य का परामर्श भी उपलब्ध है ।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय के
सरीर - पदं
८. कति णं भंते! सरीरा पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तं जहा - ओरालिए वेडव्विए आहारए तेयए
कम्मए ॥
९. ओरालियसरीरे णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
एवं ओगाहणासंठाणं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अप्पाबहुगं ति ॥
३३६
१. आव वृ. प. ४३८
सगडुद्धि संठियाओ, महादिशाओ हवंति चत्तारि । मुक्तावली य चउरो दो चेव य हुति रु अगनिभा ॥
२. भ. १३ / ५२-५४।
भगवई
साथ अनिन्द्रिय जीव का उल्लेख है । अनिन्द्रिय का अर्थ है-केवली ।* एकेन्द्रिय जीव प्राची आदि दिशाओं में व्याप्त हैं। धर्मास्तिकाय आदि का देश-भाग भी दिशाओं में व्याप्त है। इस अपेक्षा से छहो दिशाओं को जीव और अजीव दोनों बतलाया गया है।
विदिशाएं एक प्रदेशात्मक हैं इसलिए उनके अनेक विकल्प बनते हैं।
जीव असंख्य प्रदेशात्मक आकाशप्रदेश के बिना नहीं रह सकते इसलिए विदिशा, ऊर्ध्व दिशा और अधोदिशा में केवल जीव के देश का ही अस्तित्व हो सकता है।
पुद्गल स्कन्ध एक आकाशप्रदेश में भी रह सकता है इसलिए उसका अस्तित्व सभी दशों दिशाओं में हो सकता है।
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय अखंड द्रव्य हैं इसलिए इनके देश का अस्तित्व सभी दिशाओं में हो सकता है| देखें यंत्र
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भाष्य
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१. सूत्र - ८-९
द्रष्टव्य- भगवती १ / ३४०-३४४ तथा भगवती ८ / ३६६-३७२ का भाष्य ।
१०. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
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शरीर-पदम्
कति भदन्त ! शरीराः प्रज्ञप्ताः ? गौतम! पञ्च शरीराः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा-औदारिकः वैक्रियः आहारकः तैजसः कर्मकः ।
औदारिकशरीरः कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
एवम् अवगाहना संस्थानं निरवशेषं भणितव्यं यावत् अल्पबहुकम् इति ।
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शरीर पद
८. भंते! शरीर कितने प्रज्ञप्त हैं ? गौतम ! शरीर पांच प्रज्ञप्त हैं, जैसेऔदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
९. भंते! औदारिक शरीर कितने प्रकार के प्रज्ञम हैं ?
इस प्रकार अवगाहन संस्थान पढ (प्रज्ञापना २१) निरवशेष वक्तव्य है यावत् अल्प- बहुत्व तक।
१०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
३. आव. ८०५ - विशेष वर्णन के लिए द्रष्टव्य श्री भिक्षु आगम विषयकोश पृ. ५६७-५६८।
४. (क) भ. वृ. ९-तत्र ते जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनः (ख) भ. जो. ३/२१७/२३/
५. भ. वृ. ९१ ।
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बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
संवृत का क्रिया पद ११. 'राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखना है। भंते! क्या उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है? सांपरायिकी क्रिया होती
संवुडस्स किरिया-पदं
संवृतस्य क्रिया-पदं ११. रायगिहे जाव एवं वयासी-संवु- राजगृहः यावत् एवमवादीत-संवृतस्य डस्स णं भंते! अणगारस्स वीयी-पंथे भदन्त! अनगारस्य वीचिपथि स्थित्वा ठिच्चा पुरओ रुवाइं निज्झायमाणस्स, पुरतः रूपाणि निध्यायतः, 'मग्गओ मग्गओ ख्वाई अवयक्खमाणस्स, रूपाणि पश्यतः, पार्वतः रूपाणि अवलोकपासओ रूवाई अवलोएमाणस्स, उड्ढे मानस्य, ऊर्ध्वं रूपाणि अवलोकमानस्य, रूवाई ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई अधः रूपाणि आलोकमानस्य तस्य भदन्त! आलोएमाणस्स तस्स णं भंते! किं । किम् ऐर्यापथिकी क्रिया क्रियते? इरियावहिया किरिया कज्जइ? साम्परायिकी क्रिया क्रियते? संपराइया किरिया कज्जइ? गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स गौतम! संवृतस्य अनगारस्य वीचिपथि वीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रूवाइं स्थित्वा पुरतः रूपाणि निध्यायतः, निज्झायमाणस्स, मग्गओ रुवाई ‘मग्गओ' रूपाणि पश्यतः, पार्वतः अवयक्खमाणस्स, पासओ रुवाइं रूपाणि अवलोकमानस्य, उर्ध्व रूपाणि अवलोएमाणस्स उड्ढे ख्वाई। अवलोकमानस्य, अधः रूपाणि ओलोएमाणस्स, अहे रूवाई आलोकमानस्य तस्य नो ऐापथिकी क्रिया आलोएमाणस्स तस्स णं नो क्रियते, साम्परायिकी क्रिया क्रियते। इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ॥
गौतम! कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है, पृष्ठवर्ती रूपों को देखता है, पार्श्ववर्ती रूपों को देखता है, ऊर्ध्ववर्ती रूपों को देखता है, अधोवर्ती रूपों को देखता है, उसके ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती, सांपरायिकी क्रिया होती है।
१२. से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य संवुडस्स णं जाव संपराइया किरिया यावत् साम्परायिकी क्रिया क्रियते? कन्जइ?
गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया- गौतम! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः । लोभा वोच्छिण्णा भवंति तस्स णं व्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ईर्यापथिकी इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं क्रिया क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया- कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा लोभाः अव्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य भवंति तस्स णं संपराइया किरिया साम्परायिकी क्रिया क्रियते। यथासूत्रं कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- रीयमाणस्य ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीय- उत्सूत्रं रीयमाणस्य साम्परायिकी क्रिया माणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।। क्रियते। सः उत्सूत्रमेव रीयते। तत् तेनार्थेन से णं उस्सुत्तमेव रीयति। से तेणटेणं यावत् साम्परायिकी क्रिया क्रियते। जाव संपराइया किरिया कज्जइ॥
१२. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार के यावत् सांपरायिकी क्रिया होती है? गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं, उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के ऐपिथिकी क्रिया होती है। उत्सूत्र-सूत्र के विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते) उत्सूत्र ही
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श. १० : उ.२ : सू. १२-१४
३३८
भगवई
चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-कषाय की तरंग में स्थित संवृत अनगार के सांपराविकी क्रिया होती है।
१३. भंते ! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अनगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है यावत् भंते! क्या उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है ? पृच्छा।
१३. संवुडस्स णं भंते! अणगारस्स संवृतस्य भदन्त ! अनगारस्य अवीचिपथि
अवीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रुवाइं स्थित्वा पुरतः रूपाणि निध्यायतः यावत् निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते! तस्य भदन्त! किं ऐपिथिकी क्रिया किं इरियावहिया किरिया कज्जइ?- क्रियते?-पृच्छा। पुच्छा । गोयमा! संवुडस्स णं अणगारस्स गौतम! संवृतस्य अनगारस्य अवीचिपथि अवीयीपंथे ठिच्चा जाव तस्स णं स्थित्वा यावत् तस्य ऐपिथिकी क्रिया इरियावहिया किरिया कज्जइ, नो क्रियते, नो साम्परायिकी क्रिया क्रियते। संपराइया किरिया कज्जइ॥
गौतम ! जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, वह संवृत अणगार पुरोवर्ती रूपों को देखता है यावत् उसके ऐपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती।
१४. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-संवृतस्य १४. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा संवुडस्स णं जाव इरियावहिया किरिया यावत् ऐपिथिकी क्रिया क्रियते, नो है-जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, कज्जइ, नो संपराइया किरिया साम्परायिकी क्रिया क्रियते ?
उस संवृत अणगार के ऐपिथिकी क्रिया कज्जइ?
होती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं होती? गोयमा! जस्स णं कोह-माण-माया- गौतम! यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः व्य. गौतम! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभा वोच्छिणा भवंति तस्स णं वच्छिन्नाः भवन्ति तस्य ऐपिथिकी क्रिया लोभ व्युच्छिन्न हो जाते हैं उसके इरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं क्रियते, यस्य क्रोध-मान-माया-लोभाः । ऐपिथिकी क्रिया होती है। जिसके क्रोध, कोह-माण-माया-लोभा अवोच्छिण्णा । अव्यवच्छिन्नाः भवन्ति तस्य साम्परायिकी मान, माया और लोभ व्युच्छिन्न नहीं होते, भवंति तस्स णं संपराइया किरिया क्रिया क्रियते। यथासूत्रं रीयमाणस्य ईर्या- उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। कज्जइ। अहासुत्तं रीयमाणस्स इरिया- पथिकी क्रिया क्रियते उत्सूत्रं रीयमाणस्य यथासूत्र-सूत्र के अनुसार चलने वाले के वहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं रीय- साम्परायिकी क्रिया क्रियते। सः यथासूत्रमेव ऐपिथिकी क्रिया होती है, उत्सूत्र-सूत्र के माणस्स संपराइया किरिया कज्जइ।से रीयते। तत् तेनार्थेन यावत् नो साम्परायिकी विपरीत चलने वाले के सांपरायिकी क्रिया णं अहासुत्तमेव रीयति। से तेणद्वेणं जाव क्रिया क्रियते।
होती है। वह (जिसके क्रोध, मान, माया नो संपराइया किरिया कज्जइ।।
और लोभ व्युच्छिन्न होते हैं) यथासूत्र ही चलता है। इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-जो कषाय की तरंग में स्थित नहीं है, उस संवृत अणगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है, सांपरायिकी क्रिया नहीं होती।
भाष्य
१.सूत्र-११-१४
भगवती ७/२० में बतलाया गया है-अनायुक्त प्रवृत्ति करने वाले मुनि के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती। भगवती ७/१२५ में बतलाया गया है-आयुक्त प्रवृत्ति करने वाले मुनि के ऐपिथिकी की
ह-आयुक्त प्रवृत्ति करन वाल मुनि के एयापथिकी की क्रिया होती है। प्रस्तुत प्रकरण में उल्लेख है-अवीचि पथ में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया होती है। वीचि पथ में स्थित संवृत अनगार के ऐपिथिकी क्रिया नहीं होती। ऐर्यापथिकी क्रिया के स्वरूप को समझने के लिए इन तीनों प्रकरणों का तुलनात्मक
अध्ययन बहुत महत्त्वपूर्ण है।
ऐपिथिकी क्रिया के संदर्भ में सर्वत्र आयुक्त और अनायुक्त शब्द का प्रयोग हुआ है। अवीचि-पथ और वीचि-पथ का प्रयोग केवल प्रस्तुत प्रकरण में मिलता है।
वीचि शब्द के अनेक अर्थ होते हैं-संप्रयोग', तरंग, प्रकाश की किरण, आह्लाद, निर्विचार, विधाम, असंगति'., अविवेक, सुख, चमक, दीप्ति, अल्पता, अवकाश, आकाश, संबंध, पृथग्भाव, लघु रथ्या, छोटा मुहल्ला। वृत्तिकार ने वीचि के चार
Delight, Rest, Leisure, ३. पाइय
१. भ. वृ१०.११। २. आप्ट-Wave,
Incanrtancy,
thoughtiessness
Pleasure,
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भगवई
अर्थ किए हैं- संप्रयोग, पृथग् भाव, विचिन्त्य और विकृति | तात्पर्यार्थ में वीचि का अर्थ है कषायवान । जो संवृत अणगार वीचि पथ - राग मार्ग में स्थित होकर रूपों को देखता है, उसके सांपरायिकी क्रिया होती है। जो संवृत अणगार अवीचि पथअनासक्ति के मार्ग में स्थित होकर रूपों को देखता है, उसके
जोणी पदं
१५. कतिविहा णं भंते! जोणी पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तं जहा - सीया, उसिणा, सीतोसिणा । एवं जोणीपदं निरवसेसं भाणियव्वं ॥
१. सूत्र १५
वेदणा-पदं
१६. कतिविहा णं भंते! वेयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा वेयणा पण्णत्ता, तं जहा -सीया, उसिणा, सीओसिणा । एवं वेयणापदं भाणियव्वं जाव
योनि का अर्थ है-जीवों का उत्पत्ति स्थान ।
जिस प्रदेश में तेजस - कार्मण युक्त शरीर का औदारिक अथवा वैक्रिय शरीर के योग्य पुद्गल स्कंध समूह के साथ जीव मिश्रण करते हैं, उसका नाम है योनि । २
वैज्ञानिक जनन प्रक्रिया के अनुसार शुक्राणु और अण्ड के निषेचन की क्रिया दो प्रकार की होती है- बाह्य निषेचन और
१७. नेरइया णं भंते! किं दुक्खं वेयणं वेदेंति ? सुहं वेयणं वेदेंति, अदुक्खमसुहं वेणं वेदेंति ?
गोमा ! दुक्खं पिवेणं वेदेंति, सुहं पि वेणं वेदंति, अंदुक्खमसुहं पिवेयणं
वेदेति ॥
३३९
योनि-पदम्
कतिविधा भदन्त ! योनिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा योनिः प्रज्ञप्ता, तद् यथाशीता, उष्णा, शीतोष्णा । एवं योनिपदं निरवशेषं भणितव्यम् ।
भाष्य
ऐर्यापथिकी क्रिया होती है।
द्रष्टव्य भगवती १/४४-४७ तथा भगवती ७/२०-२१ का भाष्य । इस विषय में आचारांग ५/७१ से ७२ का भाष्य द्रष्टव्य है।
वेदना-पदम्
कतिविधा भदन्त ! वेदना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा वेदना प्रज्ञप्ता, तद्यथाशीता, उष्णा, शीतोष्णा । एवं वेदनापदं भणितव्यं यावत्
१. भ. वृ. १०/११ - वीचि शब्दः संप्रयोगे, स च संप्रयोगोर्द्वयोर्भवति ततशचेद् कषायाणां जीवस्य च संबंधो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च वीचिमतः कषायवतो मतुरप्रत्ययस्य षष्ठ्याश्च लोपदर्शनात् अथवा विचिर् पृथग्भावे इति वचनाद विविच्य - पृथग्भूय यथाख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः अथवा विरूपा कृतिः - क्रिया
आंतरिक निषेचन। मछली, मेंढक आदि में यह क्रिया स्त्री के शरीर के बाहर होने के कारण इसे बाह्य निषेचन कहते है। गाय, भैंस, कुत्ता, बंदर और मनुष्य में यह क्रिया स्त्री के शरीर के अंदर होने से इसे आंतरिक निषेचन कहते हैं।
नैरयिकाः भदन्त ! किं दुक्खं वेदनां वेदयन्ति ? सुखं वेदनां वेदयन्ति ? अदुक्खम-सुखं वेदनां वेदयन्ति ? गौतम! दुक्खम् अपि वेदनां वेदयन्ति, सुखम् अपि वेदनां वेदयन्ति, अदुक्खमसुखम् अपि वेदनां वेदयन्ति ।
सूत्रकार ने विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापना के योनि पद को देखने का निर्देश दिया है।
भाष्य
१. सूत्र १६-१७
वेदना शरीर और मन के द्वारा होने वाला संवेदन है। द्रष्टव्य ६ / १८५ का भाष्य
श. १० : उ. २ : सू. १५-१७
योनि - पद
१५. भंते! योनि के कितने प्रकार प्रज्ञप्त हैं ? गौतम! योनि के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- शीत, उष्ण और शीतोष्ण । इस प्रकार योनिपद (प्रज्ञापना पद ९) निरवशेष वक्तव्य है।
वेदना-पद
१६. भंते! वेदना के कितने प्रकार प्रज्ञप्स हैं ? गौतम ! वेदना के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे-शीत, उष्ण, शीतोष्ण । इसी प्रकार वेदना- पद (प्रज्ञापना पद ३५) वक्तव्य है यावत्
१७. "भंते! क्या नैरयिक दुःख का वेदन करते हैं ? सुख का वेदन करते हैं ? अदुःख - असुख का वेदन करते हैं ? गौतम ! दुःख का वेदन भी करते हैं, सुख का वेदन भी करते हैं, अदुःख असुख का वेदन भी करते हैं।
सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीति ।
२. भ. वृ. १०/१५ - तैजसकार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरीरयोग्यस्कंध समुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवाः यस्यां सा योनिः ।
३. पण्ण. पद. ९ ।
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श. १० : उ. २ : सू. १८-२१
३४०
भगवई
भिक्खुपडिमा-पदं भिक्षु-प्रतिमा-पदम्
भिक्षुप्रतिमा-पद १८. मासियण्णं भिक्खुपडिमं पडि- मासिकी भिक्षुप्रतिमां प्रतिपन्नस्य अनगा- १८. मासिकी भिक्षु-प्रतिमा प्रतिपन्न वन्नस्स अणगारस्स, निच्चं वोसट्ठकाए, रस्य, नित्यं व्युत्सृष्टकाये, त्यक्तदेहे ये अनगार, जो नित्य व्युत्सृष्ट काय और चियत्तदेहे जे केइ परीसहोवसग्गा केऽपि परीषहोपसर्गाः उत्पद्यन्ते, तद् यथा- त्यक्त देह है, के अनेक परीषह-उपसर्ग उप्पज्जति, तं जहा-दिव्वा वा माणुसा। दिव्याः वा, मानुषाः वा, तिर्यग्योनिकाः वा उत्पन्न होते हैं, जैसे-दिव्य, मानुषिक वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्म तान् उत्पन्नान् सम्यक् सहते क्षमते तितिक्षते अथवा तिर्यक्योनिक। वह इन उत्पन्न सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ। एवं अध्यासते। एवं मासिकी भिक्षुप्रतिमा परीषहों को सम्यक् सहन करता है, मासिया भिक्खु-पडिमा निरवसेसा निरवशेषा भणितव्या, यथा दशासु यावत् उनकी क्षमा, तितिक्षा और अधिसहन भाणियन्वा, जहा दसाहिं जाव आराधिता भवति।
करता है। आराहिया भवइ॥
इस प्रकार मासिकी भिक्षुप्रतिमा निरवशेष वक्तव्य है, जैसे-दशाश्रुतस्कंध में यावत्
आराधित होती है।
भाष्य १. सूत्र १८
भिक्ष प्रतिमा का उल्लेख है। शेष प्रतिमाओं के लिए दशाश्रूतस्कंध को भिक्ष-प्रतिमा का नामोल्लेख समवाओ में मिलता है। उसका देखने का निर्देश दिया है। विस्तृत विवरण दशाश्रुतस्कंध में मिलता है प्रस्तुत सूत्र में मासिकी अकिच्चट्ठाणपडिसेवण-पदं अकृत्यस्थानप्रतिसेवन-पदम्
अकृत्य-स्थान-प्रतिसेवन-पद १९. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यतरत् अन्यस्थानं प्रतिषेव्य १९. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का सेवन पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स सः तस्य स्थानस्य अनालोचित-प्रति- कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण अणालोइयपडिक्कत्ते कालं करेइ नत्थि क्रान्तः कालं करोति नास्ति तस्य आरा- किए बिना काल (मृत्यु) को प्राप्त करता तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स धना, सः तस्य स्थानस्य आलोचित-प्रति- है, उसके आराधना नहीं होती। जो उस आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ अत्थि क्रान्तः कालं करोति अस्ति तस्य आरा- स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर तस्स आराहणा।। धना।
काल को प्राप्त होता है, उसके आराधना होती है।
२०. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यतरत् अकृत्यस्थानं प्रतिषेव्य २०. 'भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का प्रतिपडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-पच्छा तस्य एवं भवति-पश्चादपि अहं सेवन कर इस प्रकार सोचता है-मैं वि णं अहं चरिमकाल-समयंसि एयस्स चरमकालसमये एतत् स्थानं आलोचयि- पश्चात् चरमकाल के समय में इस स्थान ठाणस्स आलोएस्सामि, पडिक्क- ष्यामि, प्रतिक्रमिष्यामि, निन्दिष्यामि, की आलोचना करूंगा, प्रतिक्रमण मिस्सामि, निंदिस्सामि, गरिहिस्सामि, गर्हिष्ये, व्यावर्तिष्ये, विशोधयिष्यामि, करूंगा, निंदा करूंगा, गर्दा करूंगा, विउट्टिस्सामि, विसोहिस्सामि, अकरणतया अभ्युत्स्थास्यामि, यथारीतं विवर्तन करूंगा, विशोधन करूंगा, पुनः न अकरणयाए अब्भुट्ठिस्सामि, अहारियं प्रायश्चित्तं तपः कर्म प्रतिपत्स्ये, सः तस्य करने के लिए अभ्युत्थान करूंगा। जो पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवन्जि- स्थानस्य अनालोचित-प्रतिक्रान्तः कालं उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण स्सामि, से णं तस्स ठाणस्स करोति नास्ति तस्य, आराधना, सः तस्य किए बिना काल को प्राप्त करता है, अणालोइय-पडिक्कंते कालं करेइ स्थानस्य आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं उसके आराधना नहीं होती। जो उस नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स करोति अस्ति तस्य आराधना।
स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर ठाणस्स आलोइय-पडिक्कते कालं
काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना करेइ अत्थि तस्स आराहणा।।
होती है।
२१. भिक्खू य अण्णयरं अकिच्चट्ठाणं भिक्षुः च अन्यरत् अकृत्यस्थानं प्रतिषेव्य २१. भिक्षु किसी अकृत्य स्थान का पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ-जइ तस्य एवं भवति-यदि तावत् श्रमणो प्रतिसेवन कर इस प्रकार सोचता हैताव समणोवासगा वि कालमासे कालं पासकाः अपि कालमासे कालं कृत्वा अन्य- यदि श्रमणोपासक कालमास में काल को १. समवाओ १२/१।
२. दसाओ ७/१.३५।
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भगवई
३४१
श. १० : उ.२ : सू. २१,२२
किच्चा अण्ण-यरेसु देवलोएसु देवत्ताए तरेषु देवलोकेषु देवतया उपपत्तारः भवन्ति, उववत्तारो भवंति, किमंग! पुण अहं किमंग ! पुनः अहं अणपन्निकदेवत्वम् अपि अण-पन्नियदेवत्तणपि नो लभिस्सामि नो लप्स्ये इति कृत्वा सः तस्य स्थानस्य त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अनालोचित प्रतिक्रान्तः कालं करोति अणालोइयपडिक्कंते कालं करेइ नत्थि नास्ति तस्य आराधना, सः तस्य स्थानस्य तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोचित-प्रतिक्रान्तः कालं करोति अस्ति आलोइय-पडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्य आराधना। तस्स आराहणा।
प्राप्त कर किसी देवलोक में देवरूप में उपपन्न होते हैं तो क्या मैं अणपन्निक देवत्व को भी प्राप्त नहीं होऊंगा? ऐसा सोचकर जो उस स्थान की आलोचना प्रतिक्रमण किए बिना काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना नहीं होती। जो उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण कर काल को प्राप्त करता है, उसके आराधना होती है।
भाष्य
दोष प्रतिसेवणा अंतिम समय में आलोचना का संकल्प
आलोचना - आराधना अकृत्य स्थान और आलोचना के विषय में निम्नलिखित स्थल
१. सूत्र १९-२१
प्रस्तुत आलापक में दोष की प्रतिसेवना के पश्चात् होने वाली दशा पर विचार किया गया है।दोष प्रतिसेवना के साथ आराधना और विराधना का सामान्य नियम यह है
१.. दोष प्रतिसेवना आलोचना - आराधना
• दोष प्रतिसेवना आनालोचना - विराधना २. दोष प्रतिसेवना अंतिम समय में आलोचना का संकल्प
अनालोचना - विराधना
० भगवती ८/२५१-५५ का भाष्य।
० व्यवहार-सूत्र १/३३ तथा २/१-५। शब्द विमर्श
अणपन्नियं-यह व्यन्तर देव की एक जाति है।
२२. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
२२. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. (क) ओवा. सू. ४९।
(ख) भ. वृ.१०/।
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तइयो उद्देसो : तृतीय उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
आइड्डीए परिड्डीए वीइवयण-पदं आत्मा परया व्यति-व्रजन-पदम् २३. रायगिहे जाव एवं वयासी-आइडीए राजगहः यावत एवमवादीत-आत्मा णं भंते! देवे जाव चत्तारि, पंच भदन्त ! देवः यावत् चत्वारि, पञ्च देवावासंतराई वीतिक्कंते, तेण परं । देवावासान्तराणि व्यतिक्रान्तः, तेनं परं परिड्डीए?
परद्धा ।
हंता गोयमा! आइड्डीए णं देवे जाव हन्त गौतम! आत्मा देवः यावत् चत्तारि, पंच देवावासंतराई वीतिक्कते, चत्वारि, पञ्च देवावासान्तराणि व्यतितेण परं परिड्डीए। एवं असुरकुमारे वि, क्रान्तः, तेन परं परा । एवम् असुर- नवरं-असुर-कुमारावासंतराई, सेसं तं __ कुमारोऽपि, नवरम् असुरकुमारावासाचेव। एवं एएणं कमेणं जाव थणिय- न्तराणि, शेषं तच्चैव । एवम् एतेन क्रमेण कुमारे, एवं वाणमंतरे,जोइसिए वेमाणिए यावत् स्तनितकुमारः, एवं वानमन्तरः, जाव तेण परं परिड्डीए॥
ज्योतिष्कः वैमानिकः यावत् तेन परं परद्ध्या ।
आत्मर्धिक परर्धिक व्यतिव्रजन पद २३. 'राजगह नगर यावत गौतम ने इस प्रकार कहा-भंते! देव आत्म-ऋद्धि के द्वारा यावत् चार-पांच देव-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है, उसके पश्चात् पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है ? हां गौतम ! देव आत्मऋद्धि के द्वारा यावत् चार-पांच देव-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है, उसके पश्चात पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है। इसी प्रकार असुरकुमार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-असुरकुमार-आवासांतरों को व्यतिक्रांत करता है शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार इस क्रम से यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। इसी प्रकार वाणमंतर, ज्योतिष्क, वैमानिक यावत उसके पश्चात् पर-ऋद्धि के द्वारा व्यतिक्रांत करता है।
भाष्य
१.सूत्र २३
प्रस्तुत सूत्र में देव की गति-शक्ति का नियम बतलाया गया है। सामान्यतः एक देव आत्मऋद्धि-अपनी शक्ति से चार-पांच देवावास तक जा सकता है। उससे आगे जाना हो तो उसे परऋद्धि-पर शक्ति की अपेक्षा रहती है।
इस प्रकरण में आत्मऋद्धि और परऋद्धि-ये दोनों शब्द विमर्शनीय है।देव के स्थूल शरीर-वैक्रिय शरीर होता है। उसके दो प्रकार हैं-भव धारणीय और उत्तर वैक्रियक। भवधारणीय वैक्रिय शरीर की शक्ति को आत्मऋद्धि, उत्तर वैक्रयिक शरीर की शक्ति
को पर-ऋद्धि कहा जा सकता है। भगवती के अनुसार भवधारणीय शरीर जन्म के मूल स्थान में रहते हैं। उत्तर वैक्रियक शरीर बाहर जाते हैं।२. तिलोयपण्णत्ती में भी इसका उल्लेख मिलता है।
तात्पर्य यह है कि देव मूल शरीर अथवा भवधारणीय शरीर से अधिक गति नहीं कर सकते। उनकी लंबी यात्रा उत्तर-वैक्रिय शरीर के द्वारा ही निष्पन्न होती है।
पर-ऋद्धि का एक अर्थ दूसरे का सहारा हो सकता है। असुरराज चमर भगवान महावीर का सहारा लेकर सौधर्म कल्प तक गया था। पर-ऋद्धि का एक अर्थ पराभियोग भी हो सकता है।'
१. पण्ण. २१/७०। २. भ, वृ.१० देवः किल प्रायो देवस्थान एवं वर्तत इति तत्र गतानदेवलोकादिगतान् यतः कृतोत्तरः वैक्रियरूपः एव प्रायोन्यत्र गच्छतीति नो इह गतान पुदगलान पर्यादाय इत्याधुक्तमिति। ३. तिलोयपण्णत्ति ५९५
गम्भावयारपहुदिसु उत्तरदेहासुराण गच्छंति। जम्मण ठाणेसु सुह, मूल सरीराणि चेटुंति॥
४. भ. ३/९५. ११२। ५. त. सू. भा. वृ. ४/२२ भाष्य-यस्माच्चाचरित्तिर्यगूध्वं च त्रीनपि लोकान स्पृशन्तः स्वातन्त्र्यात, पराभियोगाच्च प्रायेण प्रतिपत्नन्त्य नियतगतिप्रचाराः।...........स्वातंत्र्यात्-स्वेच्छया,पराभियोगाच्च शक्रादिदेवेन्द्राशया चक्रवादिपुरुषाज्ञया वा प्रायोऽनियतगतिप्रचारा भवन्तीति।
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भगवई
देवाणं विणयविहि-पदं
२४. अप्पिड्डीए णं भंते! देवे महिड्डि यस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइव एज्जा ?
नो इणट्ठे समट्ठे ॥
२५. समिट्टीए णं भंते! देवे समिड्डीयस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइव एज्जा ?
नो इणट्ठे समट्टे, पमत्तं पुण वीइव -
एज्जा ॥
२६. से भंते! किं विमोहित्ता पभू ? अविमोहित्ता पभू ?
गोयमा ! विमोहित्ता पभू, नो अविमो हित्ता पभू ॥
२७. से भंते! किं पुव्विं विमोहित्ता पच्छा वीइवएज्जा ? पुव्विं वीइ - वइत्ता पच्छा विमोहेज्जा ?
गोयमा ! पुव्विं विमोहित्ता पच्छा वीज्जा, नोपुव्विं वीइवइत्ता पच्छा वीमोहेज्जा ॥
२८. महिड्डीए णं भंते! देवे अप्पिड्डि- यस्स देवरस मज्झमज्झेणं वीइव एज्जा ?
हंता वीइवएज्जा ॥
२९. से भंते! किं विमोहित्ता पभू ? अविमोहित्ता पभू ?
गोयमा ! विमोहित्ता वि अविमोहित्ता वि पभू॥
पभू,
३०. से भंते! किं पुव्विं विमोहित्ता पच्छा वीइवएज्जा ? पुव्विं वीइ - वइत्ता पच्छा विमोहेज्जा ?
गोयमा ! पुब्वि वा विमोहेत्ता पच्छा
३४३
देवानां विनयविधि-पदम् अल्पर्धिकः भदन्त ! देवः महर्धिकस्य देवस्य मध्यंमध्ये व्यतिव्रजेत् ?
नो अयमर्थः समर्थः ।
समर्धिकः भदन्त ! देवः समर्धिकस्य देवस्य मध्यं मध्येन व्यतिव्रजेत ?
नो अयमर्थः समर्थः, प्रमत्तं पुनः व्यति
व्रजेत् ।
स भदन्त ! किं विमोह्य प्रभुः अविमो प्रभुः ?
गौतम ! विमोह्य प्रभुः, नो अविमोह्य प्रभुः ।
स भदन्त ! किं पूर्वं विमोह्य पश्चात् व्यतिव्रजेत् ? पूर्वं व्यतिव्रज्य पश्चात् विमोहयेत ?
गौतम ! पूर्वं विमोह्य पश्चात् व्यतिव्रजेत्, नो पूर्वं व्यतिव्रजेत् पश्चात् विमोहयेत् ।
महर्धिकः भदन्त ! देवः अल्पर्धिकस्य देवस्य मध्यंमध्ये व्यतिव्रजेत् ?
हन्त व्यतिव्रजेत ।
स भदन्त ! किं विमोह्य प्रभुः ? अविमोह्य प्रभुः ?
गौतम ! विमोह्य अपि प्रभुः, अविमोह्य अपि प्रभुः ।
स भदन्त ! किं पूर्वं विमोह्य पश्चात् व्यतिव्रजेत् ? पूर्वं व्यतिव्रज्य पश्चात् विमोहयेत् ?
गौतम ! पूर्वं वा विमोद्य पश्चात् व्यति
श. १० : उ. ३ : सू. २४-३०
देवों का विनयविधि-पद
२४. भंते! क्या अल्पऋद्धि वाला देव महान ऋद्धि वाले देव के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ?
यह अर्थ संगत नहीं है ।
२५. भंते! समऋद्धि वाला देव समऋद्धि वाले देव के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ?
यह अर्थ संगत नहीं है। वह समऋद्धि वाले प्रमत्त देव का व्यतिक्रमण कर सकता है।
२६. भंते! क्या वह समऋद्धि वाले देव को विमोहित कर जाने में समर्थ है ? विमोहित किए बिना जाने में समर्थ है ? गौतम ! वह समऋद्धि वाले देव को विमोहित कर जाने में समर्थ है, विमोहित किए बिना जाने में समर्थ नहीं है।
२७. भंते! क्या वह पहले विमोहित कर पश्चात् व्यतिक्रमण करता है? पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात विमोहित करता है ?
गौतम ! पहले विमोहित कर पश्चात् व्यतिक्रमण करता है. पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात् विमोहित नहीं करता ।
२८. भंते! महान ऋद्धि वाला देव अल्पऋद्धि वाले देव के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ?
हां, व्यतिक्रमण करता है।
२९. भंते! क्या वह विमोहित कर व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? विमोहित किए बिना व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? गौतम ! वह विमोहित कर व्यतिक्रमण करने में समर्थ है। विमोहित किए बिना भी व्यतिक्रमण करने में समर्थ है।
३०. भंते! क्या वह पहले विमोहित कर पश्चात् व्यतिक्रमण करता है? पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात् विमोहित करता है ?
गौतम! पहले विमोहित कर पश्चात
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श. १० : उ. ३ : सू. ३१-३६
वीइवएज्जा, पुव्वि वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा ॥
३१. अप्पिढिए णं भंते! असुर- कुमारे महिटियस्स असुरकुमार-स्स
मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ?
नो इट्टे समट्ठे । एवं असुरकुमारेण वि तिणि आलावगा भाणियव्वा जहा ओहिएणं देवेण भणिया । एवं जाव थणियकुमारेणं । वाणमंतर-जोइसियवेमाणिएणं एवं चेव ॥
३२. अप्पिढिए णं भंते! देवे महिड्ढियाए देवीए मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?
नो इणट्ठे समट्ठे ॥
३३. समिढिए णं भंते! देवे समिढियाए देवीए मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?
एवं तहेव देवेण य देवीए य दंडओ भाणियव्वो जाव वेमाणियाए ।
३४. अप्पिढिया णं भंते! देवी महिड्डियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ?
एवं एसो वि ततिओ दंडओ भाणियव्वो
जाव
३५. महिड्ढिया वेमाणिणी अप्पिढियस्स वेमाणिस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?
हंता वीइवएज्जा |
३६. अप्पिढिया णं भंते! देवी महिड्डियाए देवीए मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा ?
नो इणट्टे समट्ठे । एवं समिढिया देवी समिढियाए देवीए तहेव । महिड्डिया वि देवी अप्पिटियाए देवीए तहेव । एवं एक्केक्के तिण्णि-तिण्णि आलावगा भाणियव्वा जाव
३४४
व्रजेत् पूर्वं वा व्यतिव्रज्य पश्चात् विमोहयेत्।
अल्पर्धिकः भदन्त ! असुरकुमारः महर्धिकस्य असुरकुमारः मध्यंमध्येन व्यति व्रजेत् ?
नो अयमर्थः समर्थः । एवम् असुरकुमारेण अपि त्रयः आलापकाः भणितव्याः, यथा औधिकेन देवेन भणिता । एवं यावत् स्तनितकुमारेण । वानमन्तर- ज्योतिष्कवैमानिकेन एवं चैव ।
अल्पर्धिकः भदन्त ! देवः महर्धिकायाः देव्याः मध्यंमध्येन व्यतिव्रजेत ?
नो अयमर्थः समर्थः ।
समर्धिकः भदन्त ! देवः समर्धिकायाः देव्याः मध्यंमध्येन व्यतिव्रजेत ?
एवं तथैव देवेन च देव्या च दण्डकः भणितव्यः यावत् वैमानिकायाः ।
अल्पर्धिका भदन्त ! देवी महर्धिकस्य वैमानिकस्य मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ?
एवम् एषोऽपि तृतीयः दण्डकः भणित
व्यः यावत्-
महर्धिका वैमानिकी अल्पर्धिकस्य वैमानिकस्य मध्यंमध्ये व्यतिव्रजेत् ?
हन्त व्यतिव्रजेत् ।
अल्पर्धिका भदन्त ! देवी महर्धिकायाः देव्याः मध्यमध्येन व्यतिव्रजेत् ?
नो अयमर्थः समर्थः । एवं समर्धिका देवी समर्धिकायाः देव्याः तथैव । महर्धिका अपि देवी अल्पर्धिकायाः देव्याः तथैव । एवम् एकैके त्रयः त्रयः आलापकाः भणितव्याः यावत्
भगवई व्यतिक्रमण करता है अथवा पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात् विमोहित करता है ।
३१. भंते! अल्पऋद्धि वाला असुरकुमार महान् ऋद्धि वाले असुरकुमार के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ? यह अर्थ संगत नहीं है। इस प्रकार असुरकुमार के तीन आलापक वक्तव्य हैं, जैसे सामान्य देव के कहे गए हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता । इसी प्रकार बानमंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक की वक्तव्यता ।
३२. भंते! अल्पऋद्धि वाला देव महान् ऋद्धि वाली देवी के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ?
यह अर्थ संगत नहीं है।
३३. समऋद्धि वाला देव समऋद्धि वाली देवी के बीच से होकर व्यतिक्रमण करता है ?
इसी प्रकार देव और देवी का दंडक (पाठ पद्धति) वक्तव्य है यावत् वैमानिक |
३४. भंते! अल्पऋद्धि वाली देवी महान् ऋद्धि वाले देवों के बीच से होकर व्यतिक्रमण करती है ?
इस प्रकार यहां भी तृतीय दण्डक वक्तव्य है। यावत्
३५. भंते! क्या महान् ऋद्धि वाली वैमानिक देवी अल्पऋद्धि वैमानिक देव के बीच से होकर व्यतिक्रमण करती है ?
हाँ, व्यतिक्रमण करती है।
३६. भंते! क्या अल्पऋद्धि वाली देवी महान ऋद्धिवाली देवी के बीच से होकर व्यतिक्रमण करती है ?
यह अर्थ संगत नहीं है। समऋद्धि वाली देवी की समऋद्धि वाली देवी के संदर्भ में पूर्ववत् वक्तव्यता (१० / २५-२७) महान् ऋद्धि वाली देवी की अल्पऋद्धि वाली देवी के संदर्भ में पूर्ववत वक्तव्यता (१०/२८
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भगवई
३४५
श. १० : उ. ३ : सू. ३६-४०
३०)। इस प्रकार प्रत्येक के तीन तीन आलापक वक्तव्य है यावत्
३७. महिड्ढिया णं भंते! वेमाणिणी महर्धिका भदन्त! वैमानिकी ३७. भंते ! महान ऋद्धि वाली वैमानिक देवी
अप्पिढियाए वेमाणिणीए मज्झं- अल्पर्धिकायाः वैमानिक्याः मध्यंमध्येन अल्पऋद्धि वाली देवी के बीच से होकर मज्झेणं वीइवएज्जा? व्यतिव्रजेत् ?
व्यतिक्रमण करती है? हंता वीइवएज्जा॥ हन्त व्यतिव्रजेत्।
हां, व्यतिक्रमण करती है।
३८. सा भंते! किं विमोहित्ता पभू? सा भदन्त! किं विमोह्य प्रभुः अविमोद्य ३८. भंते! क्या वह विमोहित कर अविमोहित्ता पभू? प्रभुः?
व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? विमोहित
किए बिना व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? गोयमा! विमोहित्ता वि पभू, अवि- गौतम् ! विमोह्य अपि प्रभुः, अविमोह्य गौतम : विमोहित कर व्यतिक्रमण करने मोहित्ता वि पभू। तहेव जाव पुव्वि वा अपि प्रभुः। तथैव यावत् पूर्वं वा व्यति- में भी समर्थ है. विमोहित किए बिना वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा। एए व्रज्य पश्चात् विमोहयेत्। एते चत्वारः भी व्यतिक्रमण करने में समर्थ है। इसी चत्तारि दंडगा। दण्डकाः॥
प्रकार यावत् पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात् विमोहित करती है। ये चार
दण्डक वक्तव्य हैं।
भाष्य १.सूत्र २४-३८
उल्लेख है। अभयदे वसूरि ने विमोहन का अर्थ वातावरण को प्रस्तुत आलापक में अल्पर्धिक और महर्द्धिक देवों के अंधकारमय बनाना किया है।'. विमोहन का अर्थ सम्मोहन भी किया शिष्टाचार का निरूपण है। इस प्रसंग में विमोहन की प्रक्रिया का जा सकता है।
आसस्स 'खु-खु' करण-पदं ३९. आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं 'खु-खु' ति करेंति? गोयमा! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कडए नाम वाए संमुच्छइ, जेणं आसस्स धावमाणस्स 'खु-खु' त्ति करेति॥
अश्वस्य 'खु-खु करण-पदम् अश्वस्य भदन्त! धावतः किं खु-खु' इति करोति? गौतम ! अश्वस्य धावतः हृदयं च जगत् च अन्तरा अत्र 'कर्कटकः नाम' वातः सम्मूर्च्छति, येन अश्वस्य धावतः 'खुखु' इति करोति।
अश्व का 'खु-खु' करण-पद ३९. 'भंते! दौड़ते हुए अश्व के क्या 'खु-खु यह शब्द होता है? गौतम! दौड़ते हुए अश्व के हृदय और यकृत के बीच कर्कटक वायु समुत्पन्न होती है, इस कारण दौड़ते हुए अश्व के 'खुखु'-शब्द होता है।
भाष्य
१. सूत्र-३९
दौड़ते हुए अश्व के हृदय और यकृत के मध्य कर्कटक नाम का वायु सम्मूर्च्छित होता है।
पण्णवणी-भासा-पदं प्रज्ञापनी-भाषा-पदम्
प्रज्ञापनी भाषा-पद ४०. अह भंते! आसइस्सामो, सइ- अथ भदन्त! आसिष्यामहे, शयिष्यामहे, ४०. 'भंते! मैं ठहरूंगा, सोऊंगा, खड़ा स्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइ-स्सामो, स्थास्यामः, निषत्स्यामः, त्वग्वर्तिष्या- रहूंगा, बैलूंगा, लेढुंगा-क्या यह प्रज्ञापनी तुयट्टिस्सामो-पण्णवणी णं एसा महे-प्रज्ञापनी एषा भाषा? न एषा भाषा भाषा है ? क्या यह मृषा भाषा नहीं है ? भासा? न एसा भासा मोसा?
मृषा। हंता गोयमा! आसइस्सामो, सइ. हन्त गौतम! आसिष्यामहे शयिष्यामहे, हां, गौतम ! ठहरंगा, सोऊंगा, खड़ा रहूंगा, स्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइ-स्सामो, स्थाष्यामः, निषत्स्यामः, त्वगवर्तिष्या- बैलूंगा, लेढुंगा-यह प्रज्ञापनी भाषा है, मृषा तुयट्टिस्सामो-पण्णवणी णं एसा भासा, महे-प्रज्ञापनी एषा भाषा, न एषा भाषा भाषा नहीं है। न एसा भासा मोसा।
मृषा। १. भ. वृ.१०/२६ विमोह्य-महिकाद्यन्धकारकरणेन मोहमुत्पाद्य अपश्यंतमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः।
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श. १० : उ. ३ : सू. ४१
३४६
१. सूत्र - ४०
प्रज्ञापना में व्यवहार (असत्यामृषा) भाषा के बारह प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें पांचवां प्रकार है प्रज्ञापनी ।' भाषा पद में प्रज्ञापनी भाषा के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इस भाषा का प्रयोग प्रज्ञापन, व्यवहार संचालन के लिए किया जाता है इसलिए यह न सत्य है और न मृषा है किन्तु असत्यामृषा
४१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
१. पण ११/३७ । २. वही, ११४-१०
३. भ. जो. २२०, पृ. ३२९ - इहां वेसस्यूं सुवस्यूं इत्यादिक अनागतकाल आश्रयी कहै, जद तो निश्चयकारिणी हुवे । पिण ए वर्तमान काल में
भाष्य
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ।
व्यवहार भाषा है। जयाचार्य ने भविष्यकालीन क्रिया के संदर्भ में विमर्श किया है। उनके अनुसार खड़ा होऊंगा, बैठूंगा-यह अवधारिणी, निश्चयकारिणी भाषा है फिर प्रज्ञापनी कैसे ? उन्होंने इस प्रश्न का समाधान भी किया है यह भविष्य के आसन्न वर्तमान है इसलिए निश्चयकारिणी नहीं किन्तु प्रज्ञापनी है। .
भगवई
४१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
है।
बैसण, सूवण का भाव तिवारे कहे-हिवड़ा बेसूं शयन करू छू अथवा ए आश्रयवा जोग वस्तु हिवड़ा आश्रू छं, इत्यादि अनागत काल छे. ते माटे वर्तमान कार्य ने विषे आसइस्सामो ए अनागत पाठ जणाय छे।
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मूल
तावत्तीसगदेव-पदं
४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था - वण्णओ । दूतिपलासए चेइए । सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया ||
४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे जाव उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरs ||
४४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणु- कोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड़ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोare संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥
४५. तए णं से सामहत्थी अणगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवास-माणे एवं वयासी
चउत्थो उद्देसो : चतुर्थ उद्देशक
संस्कृत छाया
तावत्त्रिंशकदेव-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामः नगरम् आसीत् वर्णकः । दूतिपलाशकं चैत्यम् । स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यावत् ऊर्ध्वजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी श्यामहस्ती नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृति उपशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्त ऊर्ध्वजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
ततः सः श्यामहस्ती अनगारः जातश्रद्धः यावत् उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव भगवान् गौतमः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवन्तं गौतमं त्रिः यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्
हिन्दी अनुवाद
तावत्त्रिंशक देव पद
४२. उस काल और उस समय वणिक्ग्राम नामक नगर था - वर्णक । दूतिपलाशक चैत्य | वहां भगवान् महावीर आए यावत् परिषद् वापिस नगर में चली गई।
४३. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अणगार यावत् ऊर्ध्वजानु अधः सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यान कोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
४४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी श्यामहस्ती नामक अणगार था । वह प्रकृति से भद्र और उपशांत था। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह मृदुमार्दवसंपन्न, आलीन ( संयतेंद्रिय) और विनीत था । वह श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट ऊर्ध्वजानु अधः सिर- इस मुद्रा में और ध्यान - कोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था।
४५. उस समय श्यामहस्ती अणगार के मन में एक श्रद्धा (इच्छा) यावत् उठने की मुद्रा में 'उठा, उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, वहां आकर भगवान् गौतम को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोला
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श. १० : उ. ४ : सू. ४६-४९
४६. अस्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा देवा ? हंता अत्थि ॥
४७. से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइचमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवातावत्ती - सगा देवा ?
एवं खलु सामहत्थी ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कायंदी नामं नयरी होत्था-वण्णओ। तत्थ णं कायंदीए नयरीए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया परिवसंति - अड्ढा जाव बहुजणस्स अपरिभूता अभिगयजीवाजीवा, उवलद्वपुण्णपावा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पा भावेमाणा विहरंति ॥
४८. तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुव्विं उग्गा उग्गविहारी, संविग्गा संविग्ग - विहारी भवित्ता तओ पच्छा पासत्था पासत्थविहारी, ओसन्ना ओसन्नविहारी, कुसीला कुसीलविहारी, अहाच्छंदा अहाच्छंद - विहारी बहूई वासाई समणो वासगपरियागं पाउणित्ता, अद्धमा- सियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेत्ता, तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता तस्स ठाणस्स अणालोइय-पडिक्कंता कालमासे कालं किच्चा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए उववण्णा ॥
४९. जप्पभिई च णं भंते! ते कायंदगा तायत्तीस सहाया गाहावई समणोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगदेव-त्ताए उववन्ना, तप्पभिई च णं भंते! एवं वुच्चइ - चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवाताबत्तीसगा देवा ?
तए णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा
३४८
अस्ति भदन्त ! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः तावतत्रिंशकाः देवाः ? हन्त अस्ति ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवाः - तावत्त्रिंशकाः देवाः ?
एवं खलु श्यामहस्तिन् ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे काकन्दी नाम नगरी आसीत्वर्णकः । तत्र काकन्द्यां नगर्या त्रयस्त्रिंशत् सहायाः 'गाहावई' श्रमणोपासकाः परिवसन्ति- आढ्याः यावत् बहुजनस्य अपरिभूताः अभिगतजीवाजीवाः, उपलब्धपुण्यपापाः यावत् यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं विहरन्ति ।
भावयन्तः
ततः ते त्रयस्त्रिंशत् सहायाः 'गाहावई' श्रमणोपासकाः पूर्वम् उग्राः उग्रविहारिणः, संविग्नाः संविग्नविहारिणः भूत्वा ततः पश्चात् पार्श्वस्थाः पार्श्वस्थविहारिणः, अवसन्नाः अवसन्नविहारिणः, कुशीलाः कुशीलविहारिणः यथाच्छंदाः यथाच्छंदविहारिणः बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्याय प्राप्य, अर्द्धमासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा त्रिंशत् भक्तानि अनशनेन छित्त्वा तस्य स्थानस्य अनालोचितप्रतिक्रान्ताः कालमासे कालं कृत्वा चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तावत्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नः ।
यत्प्रभृतिं च भदन्त! ते काकन्दकाः त्रयस्त्रिंशत् सहायाः 'गावावई' श्रमणोपासकाः चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकु मारराजस्य तावत्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नाः, तत्प्रभृति च भदन्त ! एवं उच्यते-चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवा:- तावत्त्रिंशकाः देवाः ।
ततः भगवान् गौतमः श्यामहस्तिना
भगवई
४६. भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रयस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
हां, हैं ।
४७. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है- असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के वायस्त्रिंशक देव वायस्त्रिंशक देव है ?
श्यामहस्ती ! उस काल और उस समय इसी जम्बूद्वीप द्वीप में भारतवर्ष में काकंदी नामक नगरी थी वर्णक । उस काकंदी नगरी में त्रायस्त्रिंशक- तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक रहते थे-सम्पन्न यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय, जीवअजीव को जानने वाले, पुण्य-पाप के मर्म को समझने वाले यावत् यथापरिगृहीत तपः कर्म के द्वारा अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
४८. वे तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक पहले उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी हुए उसके पश्चात् पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थविहारी, अवसन्न, अवसन्नविहारी, कुशील, कुशीलविहारी, यथाछंद, यथाछंदविहारी हो गए। वे बहुत वर्षों श्रामण्य पर्याय का पालन कर, अर्धमासिकी संलेखना से शरीर को कृश बना, अनशन के द्वारा तीस - भक्त (चौदह दिन) का छेदन कर उस स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण किए बिना कालमास में काल (मृत्यु) को प्राप्त कर असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए।
४९. भंते! जिस समय वे काकंदक त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए। भंते! क्या उस समय से इस प्रकार कहा जाता है-असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव वायस्त्रिंशक देव हैं ? श्यामहस्ती अणगार के इस प्रकार कहने
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भगवई
३४९
अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए अनगारेण एवमुक्ते सति शंकितः कांक्षितः कंखिए वितिगिच्छिए उट्ठाए उढेइ, उद्वेत्ता विचिकित्सकः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धिं जेणेव । श्यामहस्तिना अनगारेण साधू यत्रैव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा
नमस्यित्वा एवमवादीत्
श. १० : उ. ४ : सू. ४९-५१ पर भगवान् गौतम शंकित, कांक्षित और विचिकित्सित हो गए। वे उठने की मुद्रा में उठे, उठकर श्यामहस्ती अणगार के साथ जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को वंदन-नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार बोले
५०. भंते! क्या असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव
५०. अत्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा देवा? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य तावतत्रिंशकाः देवाःतावत्रिंशकाः देवाः? हन्त अस्ति।
हां, है।
५१. से केणद्वेण भंते! एवं वुच्चइ-एवं तं तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-एवं तत् ५१. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
चेव सव्वं भाणियव्वं जाव जप्पभिई च चैव सर्वं भणितव्यं यावत् यत्प्रभृति च है-इसी प्रकार सर्व वक्तव्य है यावत् भंते! णं भंते! ते कायंदगा तायत्तीसं सहाया भदन्त! ते काकन्दकाः त्रयस्त्रिंशत् जिस समय से वे काकंदक बायस्त्रिंशक-- गाहावई समणो वासगा चमरस्स सहायाः 'गाहावई' श्रमणोपासकाः तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो ताव- चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य गृहपति श्रमणोपासक असुरकुमारराज त्तीसगदेवत्ताए उववन्ना, तप्पभिई च णं तावत्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नाः, तत्प्रभृति असुरेन्द्र चमर के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप भंते! एवं बुच्चइ-चमरस्स असुरिंद- च भदन्त ! एवमुच्यते-चमरस्य असुरेन्द्र में उपपन्न हुए, भंते! उस समय से क्या स्स असुरकुमाररण्णो तावत्तीसगा स्य असुरकुमाराजस्य तावत्रिंशकाः इस प्रकार कहा जा रहा है-असुरकुमारदेवातावत्तीसगा देवा? देवाः तावत्रिंशकाः देवाः ?
राज असुरेन्द्र चमर के बायस्त्रिंशक देव
त्रायस्त्रिंशक देव हैं? नो इणद्वे समढे। गोयमा! चमरस्स णं नो अयमर्थः समर्थः।
यह अर्थ संगत नहीं है। असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो ताव- गौतम! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमा- गौतम ! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के त्तीसगाणं देवाणं सासए नाम-धेज्जे रराजस्य तावत्त्रिंशकानां देवानां शाश्वतः त्रायस्त्रिंशक देवों का शाश्वत नामधेय पण्णत्ते-जं न कयाइ नासी, न कयाइन नामधेयः प्रज्ञप्तः यत् न कदापि नासीत् प्रज्ञप्त है-वह कभी नहीं था, कभी नहीं है भवइ, न कयाइ न भविस्सइ, भविंसु य, न कदापि न भवति, न कदापि न भवि- और कभी नहीं होगा, ऐसा नहीं है-वह था, भवति य, भविस्सइ य-धुवे नियए ष्यति, अभवत् च, भवति च, भविष्यति है और होगा-वह ध्रुव, नियत, शाश्वत, सासए अक्खए अव्वए अवट्ठिए निच्चे, च-ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षयःअव्ययः अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। अव्वोच्छित्तिनयट्ठयाए अण्णे चयंति, अवस्थितः नित्यः, अव्यवच्छित्तिनयार्थेन । अव्युच्छित्ति नय की दृष्टि से कुछ च्यवन अण्णे उववति॥ अन्ये च्यवन्ते, अन्ये उपपद्यन्ते।
करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
भाष्य १.सूत्र ४६-५१
शब्द विमर्शदेव निकायों में दस प्रकार के देव होते हैं। उनमें वायरिंवंश उग्र, उग्रविहारी-विधिपूर्वक आचार का अनुशीलन तीसरा प्रकार है। इनका स्थान मंत्री अथवा पुरोहित के समान करने वाला। उदात्त और उदात्त आचारवाला, यह वृत्तिकार माना गया है। प्रस्तुत आलापक में त्रायस्त्रिशक देवों के पूर्व का अर्थ है।' जन्म का विवरण दिया गया है। उसके साथ अव्यवच्छित्ति संविग्न, संविग्नविहारी-वैराग्यपूर्ण आचार वाला। नय की दृष्टि से बतलाया गया है-त्रायस्त्रिशक देव च्युत और पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थविहारी-पासत्थ आदि पदों का प्रयोग उत्पन्न होते रहते हैं।
प्रायः साधु के लिए हुआ है। यहां इनका प्रयोग श्रावक के प्रसंग में
१.त. सू. ४/४-इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिशपरिषद्यात्मरक्षलोकपालानीक
प्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विषिकाश्चैकशः। २. (क) भ. बृ. १०४६-त्रायस्त्रिशाः-मन्त्रिविकल्पाः ।
(ख) त. सू. भा. वृ. ४/४ पृ. २७५-त्रायस्त्रिशाः-मन्त्रिपुरोहितग्थानीयाः। ३. भ. वृ. १०/४८।। ४. वव. १/२६-३०॥
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भगवई
श. १० : उ. ४ : सू.५२-५६
३५० हुआ है। पासत्थ और पासत्थविहारी का अर्थ है शिथिल कुसील, कुसीलविहारी-आचार की विराधना करने वाला। आचारवाला।
यथाछंद, यथाछंदविहारी-स्वछंदविहारी, आगम-निरपेक्ष ओसन्न, ओसन्नविहारी-आलस्य और प्रमाद के कारण होकर विहार करने वाला।' आचार का सम्यक् अनुष्ठान न करने वाला।
५२. भंते ! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के बायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव है?
५२. अत्थि णं भंते! बलिस्स वइरो- अस्ति भदन्त ! बलिनः वैरोचनेन्द्रस्य यणिंदस्स वइरोयणरण्णो तावत्ती-सगा। वैरोचनराजस्य तावतत्रिंशकाः देवा- देवातावत्तीसगा देवा?
तावतत्रिंशकाः देवाः? हंता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
हां, हैं।
५३. से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त! एवमुच्यते-बलिनः ५३. भंते ! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयण- वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य तावत्- है-वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के रण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा त्रिंशकाः देवाः-यावत्रिंशकाः देवाः ? बायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? देवा? एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं एव खलु गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् गौतम! उस काल और उस समय इसी समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे समये इहैव जम्बूद्वीपे द्वीपे भारत वर्षे जम्बूद्वीप द्वीप में भारतवर्ष में बेभेल नाम बेभेले नाम सण्णिवेसे होत्था-वण्णओ। बेभेलः नाम सन्निवेशः आसीत-वर्णकः। का सन्निवेश था-वर्णक। उस बेभेल तत्थ णं बेभेले सण्णिवेसे तायत्तीसं तत्र बेभेले सन्निवेशे त्रयस्त्रिंशत् सहायाः सन्निवेश में वायस्त्रिंशक तैतीस परस्पर सहाया गाहावई समणो-वासया परिव- 'गाहावई' श्रमणोपासकाः परिवसन्ति- सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक संति-जहा चमरस्स जाव ताव- यथा चमरस्य यावत् तावत्त्रिंशकदेवत्वेन रहते थे-जैसे चमर की वक्तव्यता यावत् त्तीसगदेवत्ताए उववण्णा।। उपपन्नाः ।
त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए।
५४. जप्पभिई च णं भंते! ते बेभेलगा यत्प्रभृति च भदन्त ! ते बेभेलकाः ताव- तायत्तीसं सहाया गाहावई समणो- त्रिंशत् सहायाः 'गाहावई' श्रमणो- वासगा बलिस्स वइरोयणिंदस्स पासकाः बलिनः, वैरोचनेन्द्रस्य वैरो- वइरोयणरण्णो तावत्तीसगदेवत्ताए चनराजस्य तावत्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नाः, उववन्ना, सेसं तं चेव जाव निच्चे, शेषं तच्चैव यावत् नित्यः, अव्यवच्छिअव्वोच्छित्तिनयट्ठयाए अण्णे चयंति, तिनयार्थेन अन्ये च्यवन्ते, अन्ये उपपअण्णे उववज्जति॥
द्यन्ते।
५४. भंते! जिस समय से वे बेभेलक वायस्त्रिंशक तैतीस परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक वैरोचनराज, वैरोचनेन्द्र बलि के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए। शेष पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् नित्य है, अव्युच्छित्ति नय की दृष्टि से कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
५५. अत्थि णं भंते! धरणस्स नाग- कुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा देवा? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य ५५. भंते! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः- धरण के बायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव तावत्रिंशकाः देवाः? हन्त अस्ति।
हां, हैं।
५६. से केणद्वेणं जाव तावत्तीसगा देवा- तत् केनार्थेन यावत् तावत्रिंशकाः ५६. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा तावत्तीसगा देवा? देवाः-तावत्रिंशकाः देवाः ?
है-नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के गोयमा! धरणस्स नागकुमारिंदस्स गौतम! धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नाग- वायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ? नागकुमाररण्णो तावत्तीसगाणं देवाणं कुमारराजस्य तावत्त्रिंशकानां देवानां गौतम ! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण सासए नामधेज्जे पण्णत्ते-जं न कयाइ शाश्वतः नामधेयः प्रज्ञप्तः-यत्न कदापि के त्रायस्त्रिंशक देवों का शाश्वत नामधेय नासी जाव अण्णे चयंति, अण्णे नासीत यावत् अन्ये च्यवन्ते, अन्ये प्रज्ञप्त है-वह कभी नहीं था यावत् कुछ उववज्जंति। एवं भूयाणंदस्स वि, एवं उपपद्यन्ते। एवं भूतानन्दस्यापि एवं यावत् च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
१.भ.वृ.१०.४८।
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भगवई
३५१
जाव महाघोसस्स॥
महाघोषस्य।
श. १० : उ. ४ : सू. ५६-६० इसी प्रकार भूतानन्द की वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् महाघोष की वक्तव्यता।
५७. भंते! देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
५७. अत्थि ण भंते! सक्कस्स देविंद-स्स अस्ति भदन्त! शक्रस्य देवेन्द्रस्य
देवरण्णो तावत्तीसगा देवा-तावत्तीसगा देवराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः-तावत्- देवा?
त्रिंशकाः देवाः? हंता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
हां, हैं।
५८. से केणटेणं जाव तावत्तीसगा तत् केनार्थेन यावत् तावत्त्रिंशकाः ५८. यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा देवातावत्तीसगा देवा?
देवाः-तावत्रिंशकाः देवाः? एवं खलु है-देवराज देवेन्द्र शक्र के त्रायस्त्रिंशक देव एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं गौतम! तस्मिन् काले तस्मिन् समये इहैव त्रायस्त्रिंशक देव हैं? समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे जम्बूद्वीपे द्वीपे भारते वर्षे पालकः नाम गौतम! उस काल और उस समय पालए नाम सण्णिवेसे होत्था-वण्णओ। सन्निवेशः आसीत्-वर्णकः। तत्र पालके जम्बूद्वीप द्वीप के भारतवर्ष में पालक नाम तत्थ णं पालए सण्णिवेसे तायत्तीसं सन्निवेशे तावत्रिंशत सहायाः 'गाहावई ___ का सन्निवेश था-वर्णक। उस पालक सहाया गाहावई समणो-वासया जहा श्रमणोपासकाः यथा चमरस्य यावत् सन्निवेश में तैतीस परस्पर सहाय्य करने चमरस्स जाव विहरति॥ विहरन्ति।
वाले गृहपति श्रमणोपासक रहते थे। चमर की भांति वक्तव्यता यावत् अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
५९. तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई तत्र ते तावत्त्रिंशत् सहायाः 'गाहावई' समणोवासया पुब्बिं पि पच्छा वि उग्गा श्रमणोपासकाः पूर्वम् अपि पश्चादपि उग्गविहारी, संविग्गा संविग्गविहारी उग्रा: उग्रविहारिणः, संविग्नाः संविग्नबहूई वासाइं समणोवासगपरियागं विहारिणः बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपाउणिता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं पर्यायं प्राप्य, मासिक्या संलेखनया झूसेत्ता, सढि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आत्मानं जोषित्वा, षष्टि भक्तानि आलोइय-पडिक्कंता समाहिपत्ता अनशनेन छित्त्वा, आलोचित-प्रतिक्रान्ताः कालमासे कालं किच्चा सक्कस्स समाधि प्राप्ताः कालमासे कालं कृत्वा देविंदस्स देवरणो तावत्तीसगदेवत्ताए शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तावत्उववन्ना। जप्पभिई च णं भंते! ते त्रिंशकदेवत्वेन उपपन्नाः। यत्प्रभृति पालगा तायत्तीसं सहाया गाहावई भदन्त ! ते पालकाः तावतत्रिंशत् सहायाः समणोवासगा, सेसं जहा चमरस्स जाव 'गाहावई' श्रमणोपासकाः, शेषं यथा अण्णे उववज्जति॥
चमरस्य यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
५९. वे त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक पहले और पश्चात् उग्र, उग्रविहारी, संविग्न, संविग्नविहारी थे। वे बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन कर मासिकी संलेखना से शरीर को कश बना, अनशन के द्वारा साठभक्त (भोजन के समय) का छेदन कर, आलोचना प्रतिक्रमण कर, समाधि को प्राप्त कर, कालमास में काल (मृत्यु) प्राप्त कर देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए। भंते! जिस समय से वे पालक वायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति श्रमणोपासक देवराज देवेन्द्र शक के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न हुए, शेष चमर की भांति वक्तव्य है यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६०. भंते! देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं ?
देवा?
६०. अत्थि णं भंते! ईसाणस्स देविंदस्स अस्ति भदन्त! ईशानस्य देवेन्द्रस्य देवरण्णो तावत्तीसगा देवातावत्तीसगा देवराजस्य तावत्त्रिंशकाः देवाः तावत्-
त्रिंशकाः देवाः? एवं जहा सक्कस्स, नवरं चंपाए नयरीए एवं यथा शक्रस्य, नवरं-चम्पायां नगर्यां जाव उववण्णा जप्पभिइं च णं भंते! ते यावत् उपपन्नाः यत्प्रभृति च भदन्त ! ते चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चेव चंपिज्जा' तावत्रिंशत् सहायाः शेष
शक्र की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-चंपानगरी में यावत् देवराज देवेन्द्र ईशान के त्रायस्त्रिंशक देव के रूप में उपपन्न
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श. १० : उ. ४ : सू. ६०-६३
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भगवई
जाव अण्णे उववज्जति॥
तच्चैव यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
हुए। भंते! जिस समय से वे चंपानगरी में त्रायस्त्रिंशक परस्पर सहाय्य करने वाले गृहपति रहते थे, शेष पूर्ववत् यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६१. भंते! देवराज देवेन्द्र सनत्कुमार के त्रायस्त्रिंशक देव त्रायस्त्रिंशक देव हैं?
६१. अस्थि णं भंते! सणंकुमारस्स देविं. दस्स देवरण्णो तावत्तीसगा देवा, ता. वत्तीसगा देवा? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! सनत्कुमारस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य तावत्रिंशकाः देवाः, तावत्रिंशकाः देवाः? हन्त अस्ति।
हां, हैं।
६२. से केणटेणं?
तत् केनार्थेन ?
६२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा
जहा धरणस्स तहेव, एवं जाव पाणयस्स, एवं अच्चुयस्स जाव अण्णे उववज्जति॥
यथा धरणस्य तथैव, एवं यावत् प्राणतस्य, एवम् अच्युतस्य यावत् अन्ये उपपद्यन्ते।
धरण की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् प्राणत की वक्तव्यता। इसी प्रकार अच्युत की वक्तव्यता यावत् कुछ च्यवन करते हैं, कुछ उपपन्न हो जाते हैं।
६३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
६३. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
है।
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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी छाया
देवाणं तुडिएण सद्धिं दिव्वभोग-पदं देवानां 'तुडिएण' सद्धिं दिव्य-भोग-
पदम ६४. तेणं कालेणं तेणं समएणं राय-गिहे तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः नाम नाम नयरे। गुणसिलए चेइए जाव । नगरम्। गुणशिलकं चैत्यम् यावत् परिषद् परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं प्रतिगता। तस्मिन् काले तस्मिन् समये समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य बहवः बहवे अंते-वासी थेरा भगवंतो अन्तेवासिनः स्थविराः भगवन्तः जातिजाइसंपन्ना जहा अट्ठमे सए सत्तमुद्देसए सम्पन्नाः यथा अष्टमे शते सप्लमोद्देशके जाव संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा यावत् संयमेन तपसा आत्मानं भावयन्तः विहरंति। तए णं ते थेरा भगवंतो। विहरन्ति। ततः ते स्थविराः भगवन्तः जायसड्डा जायसंसया जहा गोयम- जात-श्रद्धाः जातसंशयाः यथा गौतमस्वामी सामी जाव पज्जुवासमाणा एवं यावत् पर्युपासीनाः एवमवादिषुःवयासी
देवों का अंतःपर के साथ दिव्य-भोगपद ६४. उस काल और उस समय राजगृह नाम
का नगर था। गुणालक चैत्य यावत् भगवान् ने धर्म कहा। परिषद वापस नगर में चली गई। उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के बहुत अंतेवासी स्थविर भगवान जाति-संपन्न जैसे आठवें शतक के सातवें उद्देशक (सूत्र २७२) की वक्तव्यता यावत् संयम और तप से अपने आपको भावित करते हए रह रहे थे। उन स्थविर भगवान के मन में एक श्रद्धा (इच्छा) एक संशय (जिज्ञासा) जैसे गौतम स्वामी की वक्तव्यता यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोले
६५.भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं ?
६५. चमरस्स णं भंते असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त! असुरेन्द्रस्य असुर-
असुरकुमाररण्णो कति अग्गम. कुमारराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः? हिसीओ पण्णत्ताओ? अज्जो! पंच अग्गमहिसीओ पण्ण- आर्य! पञ्च अग्रमहिष्यः प्रज्ञाप्ताः, तद् ताओ, तं जहा-काली, रायी, रयणी, यथा-काली. रात्री, रजनी, विद्युत्, मेघा। विज्जू, मेहा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए तत्र एकैकस्याः देवाः अष्टाष्टदेवीसहसं अट्ठट्ट देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो॥ परिवारः प्रज्ञप्तः।
आर्य ! पांच अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसेकाली, राजी, रजनी, विद्युत्, मेघा। उनमें से प्रत्येक देवी के आठ आठ हजार देवी का परिवार प्रज्ञाप्त हैं।
६६. पभू णं भंते! ताओ एगमेगा देवी
अण्णाई अट्ठट्ठ देवसहस्साई परि-यारं विउवित्तए? एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा। सेत्तं तुडिए॥
प्रभुः भदन्त ! ताः एकैका देवी अन्यानि ६६. भंते! क्या एक एक देवी अन्य आठ अष्टाष्ट देवीसहस्राणि परिवारं विकर्तुम? आठ हजार देवी परिवार की विक्रिया
(रूप निर्माण) करने में समर्थ है ? एवमेव सपूर्वापरेण चत्वारिंशत् । हां, है। इसी प्रकार पूर्व अपर सहित देवीसहस्राणि तदेतत् 'तुडिए।
चालीस हजार देवी परिवार विक्रिया करने में समर्थ है। यह है तुडिय (अंतःपुर) की वक्तव्यता।
६७. पभू णं भंते! चमरे असुरिंदे असुर- प्रभुः भदन्त ! चमरः असुरेन्द्रः असुर- कुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए, कुमारराजः चमरचञ्चायां राजधान्यां,
६७. 'भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मा सभा में
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भगवई
श. १० : उ. ५ : सू. ६७-६९
३५४ सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने 'तुडिएण' तुडिएणं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई सद्धिं दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः भुंजमाणे विहरित्तए?
विहर्तुम? नो इणढे समढे॥
नो अयमर्थः समर्थः।
चमर सिंहासन पर अंत:पुर के साथ दिव्य भोग भोगता हुआ विहरण करने में समर्थ
यह अर्थ संगत नहीं है।
६८. से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ-नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए?
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-नो प्रभुः ६८. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा चमरः असुरेन्द्रः असुरकुमारराजः चमर- है-असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर चमरचञ्चायां राजधान्यां यावत् विहर्तुम् ? चंचा राजधानी में यावत् दिव्य भोग
भोगता हुआ विहरण करने में समर्थ नहीं
अज्जो! चमरस्स णं असुरिंदस्स आर्य! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरअसुरकुमाररण्णो चमरचंचाए राय- कुमारराजस्य चमरचञ्चायां राजधान्यां, हाणीए, सभाए सुहम्माए, माणवए चेइय. सभायां सुधर्मायां, माणवके चैत्यस्तम्भे खंभे वइरामएसु गोलवट्ट-समुग्गएसु ___ वज्रमयेषु गोल-वृत्त-समुद्गतेषु बहवः बहुओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ जिनसक्थिनः सन्निक्षिप्ताः तिष्ठन्ति, याः चिट्ठति, जाओ णं चमरस्स असुरिंदस्स चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य असुरकुमार-रण्णो अण्णेसिं च बहूणं अन्येषां च बहूनाम् असुरकुमाराणां देवानां असुर-कुमाराणं देवाण य देवीण य च देवीनां च अर्चनीयाः वन्दनीयाः अच्च-णिज्जाओ वंदणिज्जाओ नमस- नमनीयाः पूजनीयाः सत्करणीयाः सम्मानणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कार- नीयाः कल्याणं मङ्गलं दैवतं चैत्यं णिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं पर्युपासनीयाः भवन्ति । तत् तेनार्थेन आर्य! मंगलं देवयं चेइयं पज्जु-वासणिज्जाओ एवमुच्यते-नो प्रभुः चमरः असुरेन्द्रः भवंति। से तेणटेणं अज्जो! एवं वुच्चइ- असुरकुमारराजा चमरचञ्चायां राजधान्यां, नो पभू चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने 'तुडिएणं' चमरचंचाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, साघु दिव्यानि भोगभोगानि भुजानः चमरंसि सिहासणंसि तुडिएणं सद्धिं विहर्तुम्। दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए।
आर्यो! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मा सभा में माणवक चैत्य स्तंभ में वज्रमय गोलवृतवर्तुलाकार पेटियों में जिनेश्वर देव की अनेक अस्थियां रखी हुई हैं, जो असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर तथा अन्य बहुत असुरकुमार देव-देवियों के लिए अर्चनीय, वंदनीय, नमस्करणीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय, कल्याणकारी, मंगल, दैवत, चैत्य और पर्युपासनीय होती है। आर्यो! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-असुरकुमारराज असुरेन्द्रचमर चमरचंचा राजधानी की सुधर्मा सभा में, चमर सिहासन पर अंतःपुर केसाथ दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ नहीं है।
भाष्य
१.सूत्र ६७-६८
जयाचार्य ने 'जिणसकहाओ' की लंबी समीक्षा की हैजिण नी दाढा होय, तो छै एह अशाश्वती। असंख्य काल अवलोय, तेहनी स्थिति कही नथी।।
जिन दाढा आकार, पुद्गल स्थित्या तैहनें। कहि जिन-दाढ़ा सार, तो तसु कहियै शाश्वती ।।
इस विषय में पूरा प्रकरण द्रष्टव्य है।'. जिण सकहाओ का उल्लेख समवाओं में भी मिलता है।
६९. पभू णं अज्जो! चमरे असुरिंदे असुर- प्रभुःआर्य! चमरः असुरेन्द्रः असुर-
कुमारराया चमरचंचाए रायहाणीए, कुमाराजः चमरचञ्चायां राजधान्यां, सभाए सुहम्माए, चमरंसि सीहासणंसि सभायां सुधर्मायां, चमरे सिंहासने चतुष्- चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं, ताय- षष्ट्याः सामानिकसाहस्रीभिः, त्रयस्त्रिंशत् त्तीसाए तावत्तीसगेहिं, चउहिं लोग- तावत्त्रिंशकैः, चतुर्भिः लोकपालैः, पालेहि, पंचहिं अग्गमहिसीहिं सपरि- पञ्चभिः अग्रमहिषीभिः सपरिवारैः चतुष्वाराहिं चउसठ्ठीए आयरक्खदेव- षष्ट्या आत्मरक्षदेवसाहस्रीभिः, अन्यैः च साहस्सीहिं, अण्णेहि य बहूहिं असुर- बहुभिः असुरकुमारैः देवैः च, देवीभिः च
६९. आर्यो! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर चमरचंचा राजधानी की सभा सुधर्मा में चमर सिंहासन पर चौसठ हजार सामानिक, तैतीस त्रायस्त्रिंशक, चार लोकपाल, पांच अग्रमहिषियां, सपरिवार चौसठ हजार आत्मरक्षक देव, अन्य बहुत असुरकुमार देव और देवियों के साथ संपरिवृत है। वह आहत नाट्यों, गीतों
१. भ. जो. ३/२२२ पृ.३३७-३३९।
२. सम. ३५/५/
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भगवई
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श. १० : उ. ५ : सू. ६९-७३
कमारेहिं देवेहि य, देवीहि य सद्धिं सार्धं सम्परिवतः, महत आइतनाट्य-गीतसंपरिखुडे महयाहय नट्ट-गीय-वाइय- वादित-तन्त्री-तल-ताल-'तुडिय- घनमृदङ्गतंती-तल-ताल-तुडिय-घणमुइंगपडुप्प- पटुप्रवादितरवेण भोगभोगानि भुञ्जानः । वाइयरवेणं दिव्वाई भोगभोगाइं भुंज- विहर्तुम ? माणे विहरित्तए ? केवलं परियारिड्डीए, नो चेव णं केवलं परिचार या, नो चेव मैथुनप्रत्ययम्। मेहुणवत्तियं॥
तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित्र, तंत्री, तल. ताल, त्रुटित धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हआ रहता है ?
केवल परिचारणा (शब्द श्रवण, रूप दर्शन) ऋद्धि का उपभोग करते हैं, मैथुन रूप भोग का नहीं।
७०. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुर- असुरकुमाररण्णो सोमस्स महा-रण्णो कुमारराजस्य सोमस्य महाराजस्य कति कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? अग्रमहिष्यः प्रज्ञसाः? अज्जो! चतारि अग्गमहिसीओपणत्ताओ, आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् तंजहा कणगा, कणग-लता, चित्तगुत्ता, यथा-कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता, वसुंधरा। तत्थ णं गएमेगाए देवीए एगमेगं वसुन्धरा। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्सं परिवारे पण्णत्ते॥
देवीसहस्रं परिवारः प्रज्ञप्तः।
७०, भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज सोम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं? आर्य ! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे कनका, कनकलता, चित्रगुप्ता, वसुंधरा। उनमें से प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी परिवार प्रजप्त है। यह है अंतःपुर की वक्तव्यता।
७१. पभू णं ताओ एगामेगा देवी अण्णं एगमेगं देवीसहस्सं परियारं विउवित्तए? एवामेव सपुव्वावरेणं चत्तारि देवीसहस्सा । सेतं तुडिए॥
प्रभुः ताः एकैका देवी अन्यम् एकैकं देवी- सहस्रं परिवारं विकर्तुम् ? एवमेव सपूर्वापरेण चत्वारि देवीसहस्राणि। तदेतत् 'तुडिए'।
७१. क्या एक देवी अन्य एक हजार देवी परिवार की विक्रिया करने में समर्थ है ? हां, है। इसी प्रकार पूर्व अपर सहित चार हजार देवी परिवार विक्रिया करने में समर्थ
७२. पभू णं भंते! चमरस्स असुरिं-दस्स प्रभुः भदन्त! चमरस्य असुरेन्द्रस्य असुरकुमाररण्णो सोमे महाराया असुरकुमारराजस्य सोमः महाराजः सोमायां सोमाए रायहाणीए, सभाए सुहम्माए, राजधान्यां, सभायां सुधर्मायां, सोमे सोमंसि सीहासणसि तुडिएणं सद्धिं सिंहासने 'तुडिएणं सद्धिं दिव्यानि दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे भोगभोगानि भुञ्जानः विहर्तुम ? अवशेष विहरितए? अवसेसं जहा चमरस्स । यथा चमरस्य, नवरं-परिवारः यथा नवरं-परियारो जहा सूरियाभस्स। सेसं सूर्याभस्य। शेषं तच्चैव यावत् नो चैव तं चेव जाव नो चे णं मेहणवत्तियं। मैथुनप्रत्ययम्।
७२. भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज सोम सोम राजधानी की सुधर्मा सभा में सोम सिंहासन पर अंतःपुर के साथ दिव्य भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ हैं ? अवशेष चमर की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष है-परिवार सूर्याभदेव की भांति (रायपसेणइय ७) वक्तव्य है। शेष पूर्ववत यावत् मैथुन रूप भोग का नहीं।
७३. चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स चमरस्य भदन्त ! असुरेन्द्रस्य असुरकुमार- असुरकुमार रण्णो जमस्स महा-रण्णो राजस्य यमस्य महाराजस्य कति कति अग्गमहिसीओ?
अग्रमहिष्यः? एवं चेव, नवरं-जमाए रायहाणीए, सेसं एवं चैव, नवरं यमायां राजधान्यां, शेषं जहा सोमस्स। एवं वरुणस्स वि, यथा सोमस्य। एवं वरुणस्यापि, नवरं नवरं-वरुणाए रायहाणीए। एवं वरुणायां राजधान्याम्। एवं वैश्रमणस्यापि, वेसमणस्स वि, नवरं-वेसमणाए नवरं-वैश्रमणायां राजधान्याम्। शेषं रायहाणीए। सेसंतं चेव जाव नो चेव णं तच्चैव यावत् नो चैव मैथुनप्रत्ययम्। मेहुणवत्तियं।
७३. भंते! असुरकुमारराज असुरेन्द्र चमर के लोकपाल महाराज यम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त हैं? पूर्ववत, इतना विशेष है-यम राजधानी में शेष सोम की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार वरुण की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वरुण राजधानी में। इसी प्रकार वैश्रमण की वक्तव्यता, इतना विशेष है-वैश्रमण राजधानी में। शेष पूर्ववत् यावत मैथुन रूप भोग का नहीं।
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श. १० : उ. ५ : सू. ७४-७८
७४. बलिस्स णं भंते! वइरोयणिदस्स- पुच्छा ।
अज्जो ! पंच अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - सुंभा, निसुंभा, रंभा, निरंभा, मदणा । तत्थ णं एगमंगाए देवीए अट्ठ देवीसहस्सं परिवारो, सेसं जहा चमरस्स, नवरं - बलिचंचाए राय हाणीए, परि-यारो जहा मोउद्देसए । सेसं तं चैव जाव नो चेवणं मेहुणवत्तियं ॥
७५. बलिस्स णं भंते! वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ? अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - मीणगा, सुभद्दा, विज्जुया, असणी । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो, सेसं जहा चमरसोमस्स एवं जाव वरुणस्स ॥
७६. धरणस्स णं भंते! नाग- कुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ ?
अज्जो! अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - अला, सक्का, सतेरा, सोदामिणी, इंदा, घणविज्जुया । तत्थ णं एगमेगाए देवीए छ-छ देवीसहस्सं परिवारो पण्णत्तो ॥
छ-छ
७७. पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई देवि सहस्साई परियारं विउब्वित्तए ? एवामेव सपुव्वावरेणं छत्तीसाई देवि - सहस्साइं । सेत्तं तुडिए ।
७८. पभू णं भंते! धरणे ? सेसं तं चेव, नवरं - धरणाए रायहाणीए, धरणंसि सीहासणंसि, सओ परियारो । सेसं तं चेव ॥
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बलिनः भदन्त ! वैरोचनेन्द्रस्य-पृच्छा ।
आर्य! पञ्च अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- शुम्भा, निशुम्भा, रम्भा, निरम्भा, मदना । तत्र एकैकस्याः देव्याः अष्टाष्ट देवीसहस्रं परिवारः शेषं यथा चमरस्य, नवरं- बलिचञ्चायां राजधान्याम् परिवारः यथा मोयोकद्देसके शेषं तच्चैव यावत् नो चैव मैथुनप्रत्ययम् ।
बलिनः भदन्त ! वैराचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य सोमस्य महाराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ? आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा - मीनका, सुभद्रा, विद्युत् अशनि । तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं परिवारः शेषं यथा चमरसोमस्य एवं यावत् वरुणस्य |
धरणस्य भदन्त ! नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः ?
आर्य! षट् अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथाअला, शक्रा, शतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घनविद्युत् । तत्र एकैकस्याः देव्याः षट् षट् देवीसहस्रं परिवारः प्रज्ञप्तः ।
प्रभुः ताः एकैका देवी अन्यानि षट् षट् देवीसहस्राणि परिवारं विकर्तुम् ? एवमेव पूर्वापरेण षट्त्रिंशत् देवीसहस्राणि । तदेतत् 'तुडिए' ।
प्रभुः भदन्त ! धरणः ? शेषं तच्चैव, नवरंधरणायां राजधान्यां धरणे सिंहासने, स्वकः परिवारः । शेषं तच्चैव ।
भगवई
७४. भंते! वैरोचनेन्द्र बलि की पृच्छा ।
आर्यो! पांच अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसेशुंभा, निशुंभा, रंभा, निरंभा, मदना । उनमें से प्रत्येक देवी के आठ आठ हजार देवी का परिवार प्रज्ञप्त है। शेष चमर की भांति वक्तव्य है, इतना विशेष हैबलिचंचा राजधानी में, परिवार की मोक उद्देशक (भगवई ३/४ ) की भांति वक्तव्यता । शेष पूर्ववत् यावत् मैथुन रूप भोग का नहीं।
७५. भंते! वैरोचनराज वैरोचनेन्द्र बलि के लोकपाल महाराज सोम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं ?
आर्यो! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसेमीनका, सुभद्रा, विद्युत्, असनी । उनमें से प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है। शेष सोम चमर की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार यावत् वरुण की
वक्तव्यता ।
७६. भंते! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं ?
आर्यो! छह अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त जैसे- अला, शक्रा, सतेरा, सौदामिनी, इन्द्रा, घन- विद्युत् | उनमें प्रत्येक देवी के छह-छह हजार देवी का परिवार प्रज्ञप्त है।
७७. क्या एक देवी अन्य छह-छह हजार देवी परिवार की विक्रिया करने में समर्थ है ?
हां, है । इसी प्रकार पूर्व अपर सहित छत्तीस हजार देवी परिवार विक्रिया करने में समर्थ है। यह है अंतःपुर की वक्तव्यता ।
७८. भंते! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र धरण धरण सिंहासन पर दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ हैं ?
शेष पूर्ववत्, इतना विशेष है- धरण राजधानी में, धरण सिंहासन पर स्व
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भगवई
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श. १० : उ. ५ : सू. ७८-८२ परिवार के साथ। शेष रायपसेणइय (सूत्र ७) की भांति वक्तव्य है।
७९. धरणस्स णं भंते! नागकुमारिंदस्स धरणस्य भदन्त! नागकुमारेन्द्रस्य ७९. भंते! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र नागकुमाररण्णो कालवालस्स महारण्णो नागकुमारराजस्य कालपालस्य महाराजस्य धरण
धरण के लोकपाल महाराज कालवास के कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ? कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः?
कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त है ? अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ। आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् । आर्यो! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसेपण्णत्ताओ, तं जहा-असोगा, विमला, यथा-अशोका, विमला, सुप्रभा, सुदर्शना।। अशोका, विमला, सुप्रभा, सुदर्शना। उनमें सुप्पभा, सुदंसणा। तत्थ णं एगमेगाए तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहसं प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारो, परिवारः, अवशेषं यथा चमरलोक- परिवार है। शेष चमर लोकपाल की भांति अवसेसं जहा चमरलोगपालाणं। एवं पालानाम्। एवं शेषाणां तिसृणामपि। वक्तव्यता। इसी प्रकार धरण के शेष तीन सेसाणं तिण्ह वि॥
लोकपालों की वक्तव्यता।
८०. भूयाणंदस्स भंते!-पुच्छा
भूतानन्दस्य भदन्त ! पृच्छा-1 अज्जो! छ अग्गमहिसीओ पण्ण-त्ताओ, आर्य! षट् अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- तं जहा-रूया रूयंसा, सुख्या, रूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, रूयगावती, रूयकता, रूयप्पभा। तत्थ । रूपकान्ता, रूपप्रभा। तत्र एकैकस्याः णं एगमेगाए देवीए छ-छ देवीसहस्सं । देव्याः षट्-षट् देवीसहस्रं परिवारः, अवशेष परिवारे, अवसेसं जहा धरणस्स॥ यथा धरणस्य।
८०. भंते ! भूतानंद की पृच्छा।
आर्यो! छह अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त हैं, जैसेरूपा, रूपांशा, सुरूपा, रूपकावती, रूपकांता, रूपप्रभा। उनमें प्रत्येक देवी के छह-छह हजार देवी का परिवार है। अवशेष धरण की भांति वक्तव्य है।
८१. भूयाणंदस्स णं भंते! नाग- भूतानन्दस्य भदन्त ! नागकुमारेन्द्रस्य ८१. भंते! नागकुमारराज नागकुमारेन्द्र कुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो नाग- नागकुमारराजस्य नागचित्रस्य पृच्छा। भूतानंद के लोकपाल नागचित्त की चित्तस्स-पुच्छा
पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञसाः, तद् । आर्यो! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, पण्णत्ताओ, तं जहा-सुणंदा,सुभद्द, यथा-सुनंदा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना। तत्र जैसे-सुनंदा, सुभद्रा, सुजाता, सुमना। सुजाया, सुमणा। तत्थ णं एगमे-गाए एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहसं उनमें प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, परिवारः, अवशेषं यथा चमरलोकपाला- का परिवार है। शेष चमर लोकपाल की अवसेसं जहा चमरलोग-पालाणं। एवं । नाम्। एवं शेषाणां त्रयाणामपि लोकपाला- भांति वक्तव्य है। इसी प्रकार भूतानंद के सेसाणं तिण्ह वि लोगपालाणं। नाम्।
शेष तीन लोकपालों की वक्तव्यता। जे दाहिणिल्ला इंदा तेसिं जहा ये दाक्षिणात्याः इन्द्राः तेषां यथा जो दक्षिण दिशा के इन्द्र हैं, उनकी धरणिंदस्स, लोगपालाण वि तेसिं जहा धरणेन्द्रस्य, लोकपालानामपि तेषां यथा धरणेन्द्र की भांति वक्तव्यता। उनके धरणस्स लोगपालाणं। उत्तरिल्लाणं । धरणस्य लोकपालानाम्। औत्तराहानाम् लोकपालों की भी धरणेन्द्र के लोकपालों इंदाणं जहा भूयाणंदस्स, लोगपालाण वि इन्द्राणां यथा भूतानन्दस्य, लोक- की भांति वक्तव्यता। इतना विशेष है-सब तेसिं जहा भूयाणंदस्स लोगपालाणं, पालानामपि तेषां यथा भूतानन्दस्य इन्द्रों की राजधानी और सिंहासन सदृश नवरं-इंदाणं सव्वेसिं रायहाणीओ। लोकपालानाम्. नवरम्-इन्द्राणां सर्वेषां नाम वाले हैं। परिवार मोक उद्देशक सीहासणाणि य सरिसणामगाणि, राजधान्यः सिंहासनानि च सदृशनामकानि, (भगवई ३/४) की भांति वक्तव्य है। सब परियारो जहा मोउद्देसए। लोग-पालाणं परिवारः यथा मोयोद्देशके। लोकपालानां लोकपालों की राजधानी और सिंहासन सव्वेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य । सर्वेषां राजधान्यः सिंहासनानि च सदृश- भी सदृश नाम वाले हैं, उनका परिवार सरिसणामगाणि, परियारो जहा नामकानि, परिवारः यथा चमरलोक- चमर लोकपाल की भांति वक्तव्य है। चमरस्स लोगपालाणं॥
पालानाम्।
८२. कालस्स णं भंते! पिसायिंदस्स कालस्य भदन्त ! पिशाचेन्द्रस्य पिशाच- ८२. भंते! पिशाचराज पिशाचेन्द्र काल के पिसायरण्णो कति अग्गमहिसीओ राजस्य कति अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः? कितनी अग्रमहिर्षियां प्रज्ञाप्त हैं ? पण्णत्ताओ?
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भगवई
श. १० : उ. ५ : सृ. ८२-८७
३५८ अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-कमला, कमल-, यथा-कमला, कमलप्रभा, उत्पत्ला, प्पभा, उप्पला, सुदंसणा। तत्थ णं सुदर्शना। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं एगमेगाए, देवीए एगमेगं देवीसहस्सं देवीसहस्रं परिवारः. शेषं यथा चमरपरिवारो, सेसं जहा चमरलोग-पालाणं। लोकपालानाम्। परिवारः तथैव, नवरंपरिवारो तहेव नवरं-कालाए कालायां राजधान्यां, काले सिंहासने, शेषं रायहाणीए, कालंसि सीहासणंसि, सेसं तच्चैव। एवं महाकालस्यापि। तं चेव । एवं महाकालस्स वि।।
आर्यो! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त है, जैसेकमला, कमलप्रभा, उत्पला, सुदर्शना। उनमें प्रत्येक देवी के एक-एक हजार देवी का परिवार है। शेष चमर लोकपाल की भांति वक्तव्य है। उसी प्रकार परिवार की वक्तव्यता, इतना विशेष है-काल राजधानी में काल सिंहासन पर, शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार महाकाल की वक्तव्यता।
८३. सुरुवस्स णं भंते! भूतिंदस्स सुरूपस्य भदन्त! भूतेन्द्रस्य ८३. भंते! भूतराज भूतेन्द्र सुरूप की पृच्छा। भूतरण्णो–पुच्छा।
भूतराजस्य-पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ। आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं. जैसेपण्णत्ताओ, तं जहा-रुववई, बहुरूवा, यथा-रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा। रूपवती, बहुरूपा, सुरूपा, सुभगा। उनमें सुरूवा, सुभगा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा । परिवारः, शेषं यथा कालस्य। एवं परिवार है, शेष काल की भांति वक्तव्यता। कालस्स। एवं पडिरूवस्स वि॥ प्रतिरूपस्यापि।
इसी प्रकार प्रतिरूप की वक्तव्यता।
८१. भंते ! यक्षेन्द्र पुण्यभद्र की पृच्छा।
८४. पुण्णभद्दस णं भंते! जक्खिदस्स- पुण्यभद्रस्य भदन्त ! यक्षेन्द्रस्य-पृच्छा। पुच्छा । अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्र अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-पुण्णा, बहुपुत्तिया, यथा- पुण्या, बहुपुत्रिका, उत्तमा, तारका। उत्तमा, तारया। तत्थ णं एगमेगाए देवीए तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा। परिवारः, शेषं यथा कालस्य। एवं कालस्स। एवं माणिभद्दस्स वि॥ माणिभद्रस्यापि।
आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-पुण्या, बहुपुत्रिका, उत्तमा, तारका। उनमें प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है, शेष काल की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार मणिभद्र की वक्तव्यता।
८५. भंते! राक्षसेन्द्र भीम की पृच्छा।
८५. भीमस्स णं भंते! रक्खसिंदस्स- भीमस्य भदन्त ! राक्षसेन्द्रस्य-पृच्छा। पुच्छा । अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-पउमा, वसुमती, यथा--पद्मा, वसुमती, कनका, रत्नप्रभा। कणगा, रयणप्पभा। तत्थ णं एगमेगाए तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं देवीए एगमेगं देवी-सहस्सं परिवारे, सेसं परिवारः, शेषं यथा कालस्य। एवं जहा कालस्स। एवं महाभीमस्स वि॥ महाभीमस्यापि।
आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त है, जैसेपद्मा, वसुमती. कनका, रत्नप्रभा। उनमें प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है, शेष काल की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार महाभीम की वक्तव्यता।
८६. किन्नरस्स णं-पुच्छा।
किन्नरस्य-पृच्छा। अज्जो! चतार अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा–वडेंसा, केतुमती, यथा-अवतंसा, केतुमती, रतिसेना, रतिसेणा, रइप्पिया। तत्थ णं ऐगमेगाए रतिप्रिया। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं देवीसहस्रं परिवारः, शेषं तच्चैव। एवं तं चेव । एवं किंपुरिसस्स वि॥ किंपुरुषस्यापि।
८६. किन्नर की पृच्छा।
आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-अवतंसा, केतुमती, रतिसेना, रतिप्रिया। उनमें प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है, शेष पूर्ववत। इसी प्रकार किंपुरुष की वक्तव्यता।
८७. सप्पुरिसस्स णं-पुच्छा।
सत्पुरुषस्य-पृच्छा!
८७. सत्पुरुष की पृच्छा।
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भगवई
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अज्जो! चतारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-रोहिणी, नवमिया, यथा-रोहिणी, नवमिका, ही, पुष्पवती। हिरी, पुष्फवती। तत्थ णं एगमेगाए देवीए तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं तं । परिवारः, शेषं तच्चैव। एवं चेव । एवं महापुरिसस्स वि।।
महापुरुषस्यापि।
श. १० : उ. ५ : सू. ८७-९१ आर्य ! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त हैं, जैसेरोहिणी, नवमिका, ही, पुष्पवती। उनम प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है, शेष पूर्ववत। इसी प्रकार महापुरुष की वक्तव्यता।
८८. अतिकायस्स ण-पुच्छा।
अतिकायस्य-पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्ग्महिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रजाताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-भुयगा, भुयगवती, यथा-भुजगा, भुजगावती, महाकच्छा, महाकच्छा, फुडा। तत्थ णं एगमेगाए स्फुटा। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीदेवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं सहस्त्रं परिवारः शेषं तच्चैव। एवं तं चेव । एवं महाकायस्स वि॥ महाकायस्यापि।
८८. अतिकाय की पृच्छा।
आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञाप्त हैं, जैसेभुजगा, भुजगवी, महाकक्षा, स्फुटा। उनमें प्रत्येक देवी के एक एक हजार देवी का परिवार है, शेष पूर्ववत। इसी प्रकार महाकाय की वक्तव्यता।
८९. गीतरति की पृच्छा
८९. गीयरइस्स णं-पुच्छा
गीतरतेः-पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्ण- आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञसाः, त्ताओ, तं जहा-सुघोसा, विमला, सु. तद्यथा-सुघोषा, विमला, सुस्वरा, स्सरा, सरस्सई। तत्थ णं एगमेगाए सरस्वती। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं देवीसहवं परिवारः, शेषं तच्चैव। एवं तं चेव। एवं गीयजसस्स वि। सव्वेसिं गीतयशसः अपि। सर्वेषाम् एतेषां यथा एएसिं जहा कालस्स, नवरं-सरिसना- कालस्य, नवरं-सदृशनामिकाः राजधान्यः मियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सिंहासनानि च, शेषं तच्चैव। सेसं तं चेव॥
सुघोषा, विमला, सुस्वरा. सरस्वती। उनमें प्रत्येक देवी के एक-एक हजार देवी का परिवार है, शेष पूर्ववत। इसी प्रकार गीतयश की वक्तव्यता। इन सबकी काल की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष हैराजधानी और सिंहासन सदृश नाम वाले हैं, शेष पूर्ववत्।
९०. चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स चन्द्रस्य भदन्त! ज्यौतिषेन्द्रस्य ज्योती- ९०. भंते ! ज्योतिषराज ज्योतिषेन्द्र चन्द्र की जोइसरण्णो-पुच्छा। राजस्य-पृच्छा।
पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त है, जैसेपण्णत्ताओ, तं जहा-चंदप्पभा, यथा-चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली, चन्द्रप्रभा, ज्योत्स्नाभा, अर्चिमाली दोसिणाभा, अच्चिमाली, पभंकरा। एवं प्रभंकरा। एवं यथा जीवाभिगमे ज्योति- प्रभंकरा। इस प्रकार जैसे जीवाभिगम जहा जीवाभिगमे जोइसिय-उद्देसए तहेव ष्कोद्देशके, तथैव सूरस्यापि सूरप्रभा, (३/९९८-१०३६) में ज्योतिष्क उद्देशक सूरस्स वि सूरप्पभा, आयवा, आतपा, अर्चिमालिनी. प्रभंकरा। शेषं की वक्तव्यता। इसी प्रकार सूर्य की चार अच्चिमाली पभंकरा। सेसं तं चेव जाव तच्चैव यावत् नो चेव मैथुनप्रत्ययम्। अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं-सूर्यप्रभा, आतपा, नो चेव णं मेहुणत्तियं।
अर्चिमाली, प्रभंकरा। शेष पूर्ववत यावत परिवार की ऋद्धि का उपभोग करते हैं. मैथुन रूप भोग का नहीं।
९१. इंगालस्स णं भंते! महग्गहस्स कति अङ्गारस्य भदन्त! कति अग्रमहिष्यः- अग्गमहिसीओ-पुच्छा।
पच्छा । अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् पण्णत्ताओ, तं जहा-विजया, वेजयंती, यथा-विजया, वैजयन्ती, जयन्ती, अपराजयंती, अपराजिया। तत्थ णं एगमेगाए जिता। तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं देवीसहस्रं परिवारः, शेषं यथा चन्द्रस्य, जहा चंदस्स, नवरं-इंगालवडेंसए विमाणे, नवरम्-अङ्गारावतंसके विमाने, अङ्गारके इंगालगंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव। सिंहासने, शेषं तच्चैव। एवं विकालएवं वियालगस्स वि। एवं अट्ठासीतिए वि कस्यापि। एवम् अष्टाशीतिः अपि
९१. भंते! महाग्रह इंगाल के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त है-पृच्छा। आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-- विजया, वैजयंती, जयंती, अपराजिता। उनमें प्रत्येक देवी के एक-एक हजार देवी का परिवार है। शेष चन्द्र की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है-- अंगारावतंसक विमान, अंगारक सिंहासन पर, शेष पूर्ववत्। इसी प्रकार विकालक की
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श. १० : उ. ५ : सू. ९०-९६
महग्गहाणं भाणि यव्वं जाव भा वकेउस्स, नवरं - वडेंसगा सीहासणाणि य सरिस नामगाणि, सेसं तं चेव ॥
९२. सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरण्णो- पुच्छा ।
अज्जो ! अट्ट अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पउमा, सिवा, सची, अंजू, अमला, अच्छरा, नवमिया, रोहिणी । तत्थ णं एगमेगाए देवीए सोलस-सोलस देवीसहस्सा परिवारो पण्णत्तो ॥
९३. पभू णं ताओ एगमेगा देवी अण्णाई सोलस - सोलस देवीसह स्साई परिवारं विउव्वित्तए ? एवामेव सपुव्वावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देवीसयसहस्सं । सेत्तं तुडिए ।
९४. पभू णं भंते! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे, सोहम्मवडेंस विमाणे, सभाए सुहम्माए, सक्कंसि सीहासांसि सिद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्तए ?
सेसं जहा चमरस्स, नवरं - परियारो जहा मोउद्देस ॥
९५. सक्कस्स णं देविंदस्स देवरणो सोमस्स महारण्णो कति अग्गमहिसीओ- पुच्छा । अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - रोहिणी, मदणा, चित्ता, सोमा । तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगं देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा चमर- लोगपालाणं, नवरं - सयंप विमाणे, सभाए सुहम्माए, सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चेव । एवं जाव वेसमणस्स, नवरं - विमाणाई जहा
ततियसए ॥
९६. ईसाणस्स णं भंते ! - पुच्छा ।
३६०
महाग्रहाणां भणितव्यं यावत् भाव-केतोः, नवरम्-अवतंसकाः सिंहासनानि सदृशनामकानि. शेषं तच्चैव ।
शक्रस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्यपृच्छा ।
आर्य! अष्ट अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- पद्मा, शिवा, शची. अंजू, अमला, अप्सरा, नवमिका, रोहिणी । तत्र एकैकस्याः देव्याः षोडश - षोडश देवीसहस्राणि परिवारः प्रज्ञप्तः ।
च
प्रभुः ताः एकैका देवी अन्यानि षोडशषोडश देवीसहस्राणि परिवारं विकर्तुम् ?
एवमेव सपूर्वापरेण अष्टाविशत्युत्तरं देवशतसहस्रम् । तदेतत् 'तुडिए' ।
९४. प्रभुः भदन्त ! शक्रः देवेन्द्रः देवराजा सौधर्मे कल्पे, सौधर्मावतंसके विमाने, सभायां सुधर्मायां शक्रे सिंहासने 'तुडिएणं' सार्धं दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहर्तुम् ।
शेषं यथा चमरस्य, नवरं - परिवारः यथा मोयोद्देशके ।
शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सोमस्य महाराजस्य कति अग्रमहिष्यः - पृच्छा ।
आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तद् यथा- रोहिणी, मदना, चित्रा, सोमा । तत्र एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहस्रं परिवारः शेषं यथा चमरलोकपालानाम्, नवरं स्वयंप्रभे विमाने, सभायां सुधर्मायां, सोमे सिंहासने, शेषं तच्चैव । एवं यावत् वैश्रमणस्य. नवरं विमानानि तृतीयशते ।
यथा
ईशानस्य भदन्त ! - पृच्छा ।
भगवई
वक्तव्यता। इसी प्रकार अठासी महाग्रहों की वक्तव्यता यावत् भावकेतु की वक्तव्यता, इतना विशेष है-अवतंसक और सिंहासन सदृश नाम वाले हैं, शेष पूर्ववत् ।
९२. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र की पृच्छा ।
आर्य! आठ अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे- पद्मा, शिवा, शची. अंजू, अमला, अप्सरा, नवमिका, रोहिणी । उनमें प्रत्येक देवी के सोलह-सोलह हजार देवी का परिवार प्रज्ञप्त है।
९३. क्या एक देवी अन्य सोलह हजार देवी परिवार की विक्रिया करने में समर्थ है ?
हां, है। इसी प्रकार पूर्व अपर सहित एक लाख अट्ठाइस हजार देवियों की वक्तव्यता । यह है अंतःपुर की वक्तव्यता ।
९४. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र सौधर्म- कल्प में, सौधर्मावतंसक विमान में, सभा सुधर्मा में शक्र सिंहासन पर अंतःपुर के साथ दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहरण करने में समर्थ है ?
चमर की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है- परिवार की मोक उद्देशक की भांति
वक्तव्यता।
९५. देवराज देवेन्द्र शक्र के लोकपाल महाराज सोम के कितनी अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं-पृच्छा। आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रोहिणी, मदना, चित्रा, सोमा । उनमें प्रत्येक देवी के एक-एक हजार देवी का परिवार है। शेष चमरलोकपाल की भांति वक्तव्यता, इतना विशेष है स्वयंप्रभ विमान, सभा सुधर्मा, सोम सिंहासन। शेष पूर्ववत् । इसी प्रकार यावत् वैश्रमण की वक्तव्यता, इतना विशेष है-विमान तृतीय शतक (३ / २५०-५१ ) की भांति वक्तव्य है।
९६. भंते! ईशान की पृच्छा ।
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भगवई
अज्जो! अट्ट अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, आर्य! अष्ट अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, तं जहा-कण्हा, कण्हराई, रामा, राम- तद्यथा--कृष्णा. कृष्णारात्री, रामा, रक्खिया, वसू, वसुगुत्ता, वसुमित्ता, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्रा, वसुंधरा। तत्थ णं एगमेगाए देवीए । वसुधरा। तत्र एकैकस्याः देव्याः षोडशसोलस-सोलस देवीसहस्सं परिवारे, षोडश देवीसहस्रं परिवारः, शेषं यथा सेसं जहा सक्कस्स॥
शक्रस्य।
श. १० : उ. ५ : सू. ९६-९८ आर्यो! आठ अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं, जैसे-कृष्णा, कृष्णरात्रि, रामा, रामरक्षिता, वसु, वसुगुप्ता, वसुमित्रा, वसुंधरा। उनमें प्रत्येक देवी के सोलह सोलह हजार देवी का परिवार है, शेष शक्र की भांति वक्तव्यता।
९७. ईसाणस्स णं भंते! देविंदस्स ईशानस्य भदन्त ! देवेन्द्रस्य देवराजस्य ९७. भंते! देवराज देवेन्द्र ईशान के देवरण्णो सोमस्स महारण्णो कति सोमस्य महाराजस्य कति अग्रमहिष्यः- लोकपाल महाराजा सोम के कितनी अग्गमहिसीओ-पुच्छा। पृच्छा ।
अग्रमहिषियां प्रज्ञप्त हैं-पृच्छा। अज्जो! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्ण- आर्य! चतस्रः अग्रमहिष्यः प्रज्ञप्ताः, आर्य! चार अग्रमहिषियां प्रजप्त हैं. जैसेत्ताओ, तं जहा-पुहवी, राई, रयणी, तद्यथा-पृथिवी, रात्री, रत्नी, विद्युत्। तत्र पृथ्वी, रात्रि, रतनी, विद्युत्। उनमें प्रत्येक विज्जू। तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमगं एकैकस्याः देव्याः एकैकं देवीसहसं देवी के एक-एक हजार देवी का परिवार देवीसहस्सं परिवारे, सेसं जहा सक्क- परिवारः, शेषं यथा शकस्य लोकपालानाम् है, शेष शक्र के लोकपाल की भांति वक्तस्स लोगपालाणं, एवं जाव वरुणस्स, एवं यावत् वरुणस्य, नवरं-विमानानि यथा व्यता। इसी प्रकार यावत् वरुण की नवरं-विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं तं चतुर्थशते, शेषं तच्चैव यावत् नो चैव वक्तव्यता, इतना विशेष है-विमान चतुर्थ चेव जाव नो चेवणं मेहणुवत्तियं ।। मैथुनप्रत्ययम्।
शतक की भांति वक्तव्य है, शेष पूर्ववत् यावत् मैथुन रूप भोग का नहीं।
९८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
९८. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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मूल
सुहम्मा सभा-पदं
९९. कहि णं भंते! सक्कसस देविंदस्स देवरण्णो सभा सुहम्मा पण्णत्ता ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरम- णिज्जातो भूमिभागातो उड्ढं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता, तं जहा -- असोगवडेंसए, सत्तवण्णवडेंसए, चंपगवडेंसए, चूयवडेंस, मज्झे सोहम्मवडेंस से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरसजोयणसय
सहस्साई आयामविक्खंभेणं,
एवजह सूरिया,
तहेव माणं तहेव उववाओ। सक्करस य अभिसेओ,
तहेव जह सूरियाभस्स । अलंकार अच्चणिया,
तहेव जाव आयरक्ख त्ति ॥ १ ॥ दो सागरोवमाई ठिती ॥
सक्कं पदं
१००. सक्के णं भंते! देविंदे देवराया महिड़िए जाव महासोक्खे।
गोयमा ! महिडिढए जाव महा- सोक्खे। से णं तत्थ बत्तीसा विमाणावाससयसहस्साणं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरs | एमहिड्दिए जाव एमहा- सोक्खे सक्के देविंदे देवराया ॥
१०१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
छट्टो उद्देसो : छठा उद्देशक
संस्कृत छाया
सुधर्मा सभा-पदम्
कुत्र भदन्त ! शक्रस्य देवेन्द्रस्य देवराजस्य सभा सुधर्मा प्रज्ञप्ता?
गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे अस्याः रत्नप्रभायाः पृथ्व्याः बहुसम - रमणीयात् भूमिभागात् ऊर्ध्वम् एवं यथा राजप्रश्नीये यावत् पञ्च अवतंसकाः प्रज्ञप्ताः तद् यथा - अशोकावतंसकः, सप्तपर्णावंतसकः, चम्पकावतंसकः, चूतावतंसकः मध्ये सौधर्मावतंसकः, महाविमानम् अर्द्धत्रयोदश योजन- शतसहस्राणि आयामविष्कम्भेन,
एवं
यथा
तथैव मानं तथैव
शक्रस्य
तथैव यथा
सूर्याभ,
उपपातः । चाभिषेकः,
सूर्याभस्य ॥
अलङ्कार
अर्चनिका,
तथैव यावत् आत्मरक्ष इति ॥ १ ॥ द्वे सागरोपमे स्थितीः ।
शक्र-पदम्
शक्रः भदन्त ! देवेन्द्रः देवराजा कियन्महर्धिकः यावत् कियन्महासौख्यः ।
गौतम ! महर्धिकः यावत् महासौख्यः । सः तत्र द्वात्रिंशत् विमानावासशतसहस्राणाम् यावत् दिव्यानि भोगभोगानि भुञ्जानः विहरति । इयन् महर्द्धिकः यावत् इयन्महासौख्यः शक्रः देवेन्द्रः देवराजः ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
हिन्दी अनुवाद
सुधर्मा सभा-पद
९९. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र की सुधर्मा सभा कहां प्रज्ञप्त है ?
गौतम! जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत के दक्षिण भाग में इस रत्नप्रभा पृथ्वी के बहुत सम और रमणीय भूभाग से ऊर्ध्व में स्थित है, इस प्रकार रायपसेणइय की भांति वक्तव्यता यावत् पांच अवतंसक प्रज्ञप्त हैं, जैसे- अशोकावतंसक, सप्तपर्णावतंसक, चंपकावतंसक, चूतावतंसक, मध्य में सौधर्मावतंसक है। वह सौधर्मावतंसक महाविमान साढ़े बारह लाख योजन लंबा चौड़ा है, इस प्रकार जैसे सूर्याभ की वक्तव्यता वैसे ही उसके मान और उपपात की वक्तव्यता ।
शक्र का अभिषेक सूर्याभ (रायपसेणइय सूत्र १२५ ) की भांति वक्तव्य है। अलंकार अर्चनिका यावत् आत्मरक्षक सूर्याभ की भांति वक्तव्य हैं। शक्र की स्थिति दो सागरोपम प्रमाण है।
शक्र पद
१००. भंते! देवराज देवेन्द्र शक्र कितनी महान् ऋद्धि वाला यावत् कितने महान सुख वाला है ?
गौतम ! वह महान् ऋद्धि वाला यावत् महान् सुख वाला है। वह बत्तीस लाख विमानावास यावत् दिव्य भोगाई भोगों को भोगता हुआ विहरण करता है। वह देवराज देवेन्द्र शक्र इतनी महान् ऋद्धि वाला यावत् इतने महान सुख वाला है।
१०१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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७-३४ उद्देसो : ७-३४ उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद
अन्तरद्वीप-पद १०२. भंते! उत्तर दिशा में एक पैर वाले मनुष्यों का एकोरूक द्वीप कहां प्रज्ञप्त है ?
अंतरदीव-पदं
अन्तरद्वीप-पदम् १०२. कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं । कुत्र भदन्त! औत्तराहानाम् एकोरुकम. एगूरुयमणुस्साणं एगूरुयदीवे नामं दीवे नुष्याणाम् एकोरुकद्वीपः नाम द्वीपः पण्णत्ते?
प्रज्ञप्तः? एवं जहा जीवाभिगमे तहेव निरव-सेसं । एवं यथा जीवाभिगमे तथैव निरवशेषं यावत् जाव सुद्धदंतदीवो त्ति। एए अट्ठावीसं शुद्धदन्तद्वीपः इति। एते अष्टाविंशतिः उद्देउद्देसगा भाणियव्वा॥
शकाः भणितव्याः।
इस प्रकार जैसे जीवाभिगम की वक्तव्यता वैसे ही निरवशेष वक्तव्य है यावत् शुद्धदंत द्वीप की वक्तव्यता। ये अट्ठाइस उद्देशक वक्तव्य है।
१०३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति जाव
अप्पाणं भावेमाणे विहरइ॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति यावत् आत्मानं भावयन विहरति।
१०३. भंते! वह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा ही है यावत् भगवान् गौतम संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण कर रहे हैं।
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एकारसमं सयं
ग्यारहवां शतक
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आमुख
प्रस्तुत शतक के प्रथम आठ उद्देशक वनस्पति से संबद्ध हैं। वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। उनमें से उत्पल, शालु, पलाश आदि का चयन क्यों किया गया? यह रहस्यपूर्ण तथ्य है। आठ प्रकारों में पांच प्रकारों-उत्पल', शालु', पद्म, कर्णिका', और नलिन का संबंध 'कमल' जाति से है। उत्पल आदि वनस्पति जगत की उत्तम प्रजातियां हैं। देवलोक से च्युत होकर देव इनमें उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए उनमें चार लेश्याएं बतलाई गई हैं। सामान्यतः वनस्पति में चार लेश्याओं के होने का निर्देश मिलता है। किंतु सब वनस्पतिकायिक जीवों में चार लेश्याएं नहीं होती। कुछ जीवों के चार लेश्याएं होती हैं। शेष सब वनस्पतिकायिक जीवों के तीन लेश्याएं होती हैं। प्रथम आठ उद्देशकों में निर्दिष्ट पलाश, कुंभी और नाडिका में देव उत्पन्न नहीं होते अतः उनमें तीन लेश्याएं ही होती हैं।
इस विषय में प्रस्तुत आगम के इक्कीसवें और बावीसवें शतक का अध्ययन बहुत उपयोगी है।
आगम साहित्य में वनस्पति, पेड़ पौधों का अध्ययन अनेक पहलुओं से किया गया है। आचारांग सूत्र में मनुष्य और वनस्पति का एक समान निरूपण मिलता हैमनुष्य
वनस्पति • जन्मता है।
जन्मती है। • बढ़ता है।
बढ़ती है। चैतन्ययुक्त है।
चैतन्ययुक्त है। • छिन्न होने पर म्लान होता है।
छिन्न होने पर म्लान होती है। आहार करता है।
आहार करती है। • अनित्य है।
अनित्य है। अशाश्वत है।
अशाश्वत है। • उपचित और अपचित होता है।
उपचित और अपचित होती है। विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है। प्रस्तुत शतक में जीव-संख्या, उत्पत्ति, कितने जीवों की उत्पत्ति अपहार, अवगाहना, कर्म का बंधन, कर्म के वेदन, कर्म का उदय. कर्म की उदारणा, लेश्या. दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, वर्ण-गंध-रस-स्पर्श, उच्छवास-निःश्वास, आहारक अनाहारक, विरत-अविरत, क्रिया, बंध, संज्ञा, कषाय. वेद, संजी, इन्द्रिय. काय-स्थिति, गति-आगति, आहार, आयुष्य, समुद्घात, उद्वर्तन-अपवर्तन, उपपात-इन बत्तीस पहलुओं से वनस्पति कायिक जीवों का विमर्श किया गया है।
स्थानांग में वनस्पति में तीन लेश्या होने का और प्रज्ञापना में चार लेश्या' होने का निर्देश है।
संक्लिष्ट लेश्याएं तीन ही होती है. स्थानांग का निर्देश संक्लिष्ट लेश्या सापेक्ष है। कुछ वनस्पतियों में तीन लेश्याएं होती है, उसका निर्देश पलाश, कुंभी और नाड़िका के प्रसंग में है। वनस्पति में चार लेश्या होने का प्रज्ञापना का निर्देश सामान्य निर्देश है। उसके विशेष नियम इन पूर्ववर्ती आठ उद्देशकों में मिलते हैं।
अनुबंध और संवेध के आधार पर पुनर्जन्म के नियमों का संसूचन उत्पल उद्देशक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
नौवें उद्देशक में शिव राजर्षि के विभंगज्ञान का उल्लेख, सात द्वीप और सात समुद्र की स्थापना और उसका प्रतिवाद एक रोचक घटना है। इस प्रसंग में जीवाजीवाभिगम सूत्र का उल्लेख हुआ है, वह लिपि की सुविधा के कारण हुआ है, यह स्वीकार करना संगत होगा।
१. भ.११.१-४०१ २. वही. ११४ ३. वही,११५१ ४. वही. ११.५३। ५. वही, ११.५५। ६. वही. ११/श ७. वही, ११.१२।
८. पण्ण. १६/३९.४०॥ ९. आयारो ५/११३। १०. ठाणं ३/६१ ११. पण्ण. १७/३९-१०। १२.भ.११/१५-४७,४९। १३. वही, ११/२९-३० का भाष्य । १४. वही, ११/७७1
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श. ११ : आमुख
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भगवई
दसवें उद्देशक में लोक के तीन विभागों का निरूपण है। लोक का वर्णन पांचवें शतक में हो चुका है। वहां उसके तीन विभागों का वर्णन नहीं है। लोक और अलोक की व्यवस्था-इन दोनों के संस्थानों का निरूपण विश्व व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। लोक और अलोक के परिमाण की प्रज्ञापना में देवों तथा दिशा कुमारियों की गति का प्रज्ञापन विकसित गति सिद्धांतों की मान्यता से भी परे है।
काल सूक्ष्म होता है ।" क्षेत्र उससे सूक्ष्मतर होता है। नंदी सूत्र के इस सिद्धांत की व्याख्या प्रस्तुत सूत्र के आधार पर की जा सकती है। एक आकाश प्रदेश में रहने वाले अनेक जीवों के प्रदेश परस्पर एक दूसरे को बाधा नहीं पहुंचाते, इसका हेतु आकाश-प्रदेश की विशिष्ट अवगाहन शक्ति अथवा उसकी सूक्ष्मता है।"
ग्यारहवें उद्देशक में सुदर्शन श्रेष्ठी के प्रश्न और भगवान महावीर के द्वारा उनका समाधान एक नई शैली में प्रस्तुत किया गया है। भगवान ने प्रश्न का उत्तर संक्षेप में दिया होगा। सूत्रकार ने काव्य की शैली में उसका विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकरण में भगवान महावीर की चिरपरिचित शैली का निदर्शन मिलता है। भगवान महावीर व्यक्ति को संबुद्ध करने के लिए जाति-स्मरण की प्रक्रिया में ले जाते। इस विषय में मेघकुमार और सुदर्शन के जाति स्मरण की तुलना की जा सकती है। भगवती
• तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्टं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसण ईहापूर- मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुब्वे जातिसरणे समुप्पन्न एयमहं सम्मं अभिसमेति । • तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारिय पुव्वभवे दुगुणाणीयसङ्कसंवेगे आणंदंसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्त्त आयाहिण पयाहिणं करेइ करेत्ता वंद नमसइ । " श्रमणोपासक ऋषिभद्र का प्रसंग ऐतिहासिक है। श्रमणोपासक गृहीतार्थ होते थे। उसका एक सुंदर निदर्शन है । "
पुद्गल परिव्राजक का आख्यान विभंगज्ञान का एक उदाहरण है। शिवराजर्षि ने विभंगज्ञान के द्वारा सात द्वीप समूह की स्थापना की और पुद्गल परिव्राजक ने विभंगज्ञान के द्वारा ब्रह्मलोक तक स्वर्ग होने का सिद्धांत स्थापित किया। अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण मानकर पूर्णता के सिद्धांत की एकांगी स्थापना वास्तविक नहीं होती। यह इन घटनाओं से प्रत्यक्ष जाना जा सकता है।
प्रस्तुत शतक अनेक तत्त्वों, लोक व्यवस्था और घटनाओं के कारण बहुत ही सरस और रोचक बना हुआ है।
१. भ. ५२५५।
२. वही. १९९०-०९।
३. वही. ११ १०० ११०।
४. नंदी १८/८ ।
५. भ. ११ १११-११३।
ज्ञातधर्म कथा
• तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसणं ईहा पूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुव्वे जाई सरणे समुप्पणे एमट्टं सम्मं अभिसमेइ ।
• तए णं से मेहे कुमारे समणेण भगवया महावीरेणं संभारिय पुव्व दुगुणाणीयसंवेगे आणंदअंसु पुण्णमहे हरिसवसविसप्पमाणहिए धाराहयकलंबकं पिव समूससिय रोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदई नमसइ । "
६. वही, ११/१७१-१७२।
७. ज्ञातधर्म कथा । १ / १९०-११ ।
८. भ. २/९४ - लखट्टा, गहियडा, पुच्छियट्टा, अभिनयद्वा विणिच्छियट्टा, अट्टिमिजपेमाणुरागरत्ता |
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एक्कारसम् सतं : ग्यारहवां शतक पढमो उद्देसो : पहला उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद संगहणी गाथा संग्रहणी गाथा
संग्रहणी गाथा १. उप्पल २. सालु ३. पलासे
उत्पलः शालूकपलाशे, १. उत्पल २. शालु ३. पलाश ४. कुंभी ५. ४. कुंभी ५. नाली य ६.एउम
कुम्भी नाली च पद्म कर्णी च। नाड़ीक ६. पद्म ७. कर्णिका ८. नलिन ९. ७. कण्णी या नलिनं शिवः लोकः शिव १०. लोक-ये दस तथा काल ग्यारहवां ८. नलिण ९. सिव १०. लोग
कालालभिके दश द्वौ च एकादशे।। और आलभिका बारहवां उद्देशक है। ११,१२.कालालभिय दस दो य
एक्कारे॥१॥ उप्पलजीवाणं उववायादि-पदं
उत्पलजीवानाम् उपपातादि-पदम् उत्पल जीवों का उपपात आदि-पद १. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव। तस्मिन् काले तस्मिन् समये राजगृहः यावत् १.'उस काल और उस समय राजगृह नगर पज्जुवासमाणे एवं वयासी- उप्पले णं पर्युपासीनः एवमवादीत्-उत्पलं भदन्त! यावत् पर्युपासना करते हुए गौतम ने इस भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अणेगजी- एकपत्रकं किम् एकजीवः? अनेकजीवः? प्रकार कहा-भंते! एकपत्रक उत्पल एक वे?
जीव वाला है ? अनेक जीव वाला है ? गोयमा! एगजीवे नो अणेगजीवे। तेण गौतम! एकजीवः, नो अनेकजीवः। तेन परं गौतम! एक जीव वाला है, अनेक जीव परं जे अण्णे जीवा उववज्जंति ते णं नो ये अन्ये जीवाः उपपद्यन्ते ते नो एकजीवाः वाला नहीं है। प्रथम पत्र के पश्चात् जो एगजीवा अणेगजीवा॥ अनेकजीवाः।
अन्य जीव-पत्र उत्पन्न होते हैं, वे एक जीव
वाले नहीं हैं, अनेक जीव वाले हैं।
भाष्य १.सूत्र १
उत्तरवर्ती अवस्था है। उसमें अनंत जीव उत्पन्न हो जाते हैं। वे अपनी प्रस्तुत आलापक में वनस्पति के जीवों की उत्पत्ति के विषय में स्थितिक्षय के कारण मर जाते हैं। वह मूल जीव उन अनंत जीवों के कुछ पहलुओं का विमर्श किया गया है। उत्पल के एक पत्ते में एक जीव शरीरों को अपने शरीर रूप में परिणत कर लेता है और पत्र अवस्था में होता है, यह सूत्रकार का अभिमत है। वृत्तिकार ने इस विषय में एक आ जाता है। इसीलिए उत्पल पत्र में एक जीव होने का निर्देश किया सूचना दी है। यहां किसलय अवस्था के बाद का पत्र विवक्षित है।' गया है। पत्र की पूर्ववर्ती अवस्था किसलय में अन्य जीव उत्पन्न होते जयाचार्य ने इसकी स्पष्ट व्याख्या की है-किसलय अनंत जीवात्मक हैं और उसके आश्रय में अन्य अनेक जीव उत्पन्न होते हैं, किंतु मूल होता है। वह पत्र के रूप में आकर एक जीव वाला हो जाता है।' पत्र का उत्पादक जीव एक ही होता है। इस अपेक्षा से उत्पल के एक प्रज्ञापना के अनुसार बीज का उत्पादक जीव एक ही होता है। वह पत्र को एक जीव वाला बतलाया गया है।' अंकुरित अवस्था में अकेला ही रहता है। किसलय अवस्था उसकी । १. भ. वृ. ११/१-एकपत्रकं चेह किसलयावस्थाया उपरि द्रष्टव्यम्।
(ख) पण्ण.१/४८/५१-५२२. भ. जो. ३/२२५/११-१२--
बीए जोणिब्भूए जीवो वक्कमइ सो व अपणो वा। ए किसलय नव अंकूर ने अवस्था थी ऊपर भूर।
जो वि य मूले जीवो, सो वि य पत्ते पढमताए।। किसलय सुओ तो छ अनंतकाय, सूआं पछै एक पत्र थाय॥
सव्वोवि किसलओ खलु, उग्गममाणो अणंतओ भणिओ। एक पत्रपणां थी विशेष एक जीव पिण नहीं छे अनेक।
सो चेव विवड्ढतो, होइ परित्तो अणंतो वा।। उत्पल शब्दे ताय, नीलोत्पलादि कहाय ।। (ग) प्रज्ञा, वृ. प. ३८-इह बीजजीवोन्यो वा बीजमूलत्वेनोत्पद्य तंदुत्सूत्रावस्था ३. (क) भ. वृ. ११/१-एग जीवे ति यदा हि एकपत्रावस्थं तदैकजीवं तत्, यदा करोति ततस्तदन्तरभाविनी किसलयावस्थां नियमतोऽनंता जीवाः कुर्वन्ति। नु द्वितीयादिपत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकपत्रावस्था तस्येति बहवो पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात् परिणतेषु असावेव मूलजीवोऽनन्नजीवतर्नु जीवास्तत्रोत्पद्यन्त इति।
स्वशरीरतया परिणमय्य तावद्वर्धत यावत् प्रथमपत्रमिति न विरोधः।
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श. ११ : उ. १ : सू. २-५
२. ते णं भंते! जीवा कतोहिंतो उववज्जति किं नेरइएहिंतो उववज्जति ? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति ? मणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? देवेहिंतो उववज्जति ?
गोयमा ! नो नेरइएहिंतो उवव-ज्जंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उवव-ज्जंति, मस्सेहिंतो उववज्जंति देवेहिंतो वि उववज्जति । एवं उववाओ भाणियब्वो जहा वक्कंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसाणेति ॥
३. ते णं भंते! जीवा एगसमए णं केवइया उववज्जंति ?
गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उववज्जंति ॥
४. ते णं भंते! जीवा समए- समए अवहीरमाणा- अवहीरमाणा केवतिकालेणं अवहीरंति ?
गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए- समए अवहीरमाणा - अवहीरमाणा असंखेओसप्पिणिउस्सप्पिणीहिं
जाहिं अवहीरंति, नो चेवणं अवहिया सिया ।
१. सूत्र २
प्रस्तुत सूत्र में उत्पल पत्र के जीवों की आगति का नियम निर्दिष्ट है । उत्पल पत्र में उत्पन्न होने वाला जीव नरक गति से नहीं आता, शेष तीन गतियों में से किसी एक गति से आकर उत्पल पत्र के रूप में
३७०
ते भदन्त ! जीवाः कुतः उपपद्यन्ते - किं नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते ? तिर्यग्योनिकेभ्यः उपपद्यन्ते ? मनुष्येभ्यः उपपद्यन्ते ? देवेभ्यः उपपद्यन्ते ?
१. पण्ण ६/७०-७१
गौतम! नो नैरयिकेभ्यः उपपद्यन्ते, तिर्यग्योनिकेभ्यः उपपद्यन्ते, मनुष्येभ्यः उपपद्यन्ते, देवेभ्योऽपि उपपद्यन्ते ।
एवं उपपातः भणितव्यः यथा अवक्रान्त्यां वनस्पतिकायिकानां यावत् ईशानः इति ।
भाष्य
ते भदन्त ! जीवाः एकसमये कियन्तः उपपद्यन्ते ?
उत्पन्न होता है, यह एक नियम है। इस नियम का समर्थन प्रज्ञापना के उद्वर्तन सूत्र से होता है। नैरयिक जीव नरक से उद्वर्तन कर एकेन्द्रिय जीवों में उत्पन्न नहीं होता।' इस नियम का हेतु कहीं व्याख्यात नहीं है। यह अतीन्द्रिय विषय है इसलिए यह अहेतुगम्य है।
गौतम! जघन्येन एकः वा द्वौ वा त्रयः वा, उत्कर्षेण संख्येयाः वा असंख्येयाः वा उपपद्यन्ते ।
ते भदन्त ! जीवाः समये समये अपह्रियमाणाः- अपहियमाणाः कियत्कालेन
अपह्रियन्ते ?
गौतम! ते असंख्याः समये समये अपह्रियमाणाः- अपह्रियमाणाः असंख्येयाभ्यः अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीभ्यः अपह्रियन्ते, नो चैव अपहृताः स्युः ।
१. सूत्र - ३-४
उत्पल पत्र प्रत्येक शरीरी है इसलिए उसमें तथा उसके आश्रय में उत्कर्षतः असंख्य जीव उत्पन्न हो सकते हैं, अनंत नहीं। असंख्येय जीवों का काल की दृष्टि से अनुमापन किया गया है। प्रति समय एक५. तेसि णं भंते! जीवाणं केमहालिया सर- तेषां भदन्त ! जीवानां रोगाहणा पण्णत्ता ? शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येन अङ्गुलस्य असंख्येयभागम् उत्कर्षेण सातिरेकं योजनसहस्रम् ।
गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उवक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं ॥
भगव
२. भंते! वे जीव कहां से उपपन्न होते हैंक्या नैरयिक से उपपन्न होते हैं ? तिर्यग्योनिक से उपपन्न होते हैं ? मनुष्य से उपपन्न होते हैं ? देव से उपपन्न होते हैं ?
गौतम! वे जीव नैरयिक से उपपन्न नहीं होते, तिर्यग्योनिक से उपपन्न होते हैं, मनुष्य से उपपन्न होते हैं, देव से भी उपपन्न होते हैं। इस प्रकार वनस्पतिकायिक का उपपात अवक्रान्ति पद (प्रज्ञापना ६/८६) की भांति वक्तव्य है यावत ईशान तक ।
३. भंते! वे जीव एक समय में कितने उपपन्न होते हैं ?
गौतम ! जघन्यतः एक, दो अथवा तीन, उत्कृष्टतः संख्येय अथवा असंख्येय उपपन्न होते हैं।
४. भंते! वे जीव प्रति समय अपहृत करने पर कितने काल में अपहृत होते हैं ?
भाष्य
एक जीव का अवहार किया जाए तो उनका अवहरण करने में असंख्येय उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का काल लग जाएगा। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि असंख्येय अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के जितने समय होते हैं, असंख्येय जीवों का वही परिमाण है।
कियन्महती
गौतम! वे असंख्येय जीव प्रति समय अपहृत करने पर असंख्येय अवसर्पिणीउत्सर्पिणी काल में अपहृत होते हैं। (यह असत् कल्पना है) उनका अपहार किया नहीं जाता।
५. भंते! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ?
गौतम ! जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः कुछ अधिक हजार योजन |
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भगवई
३७१
श.११ : उ. १: सू. ६.११
भाष्य १.सूत्र ५
पर होने वाले कमल की नाल की अपेक्षा से इतनी बड़ी अवगाहना वनस्पति का शरीर औदारिक शरीर है। औदारिक शरीर की बतलाई है। अभयदेवसूरि ने लवण समुद्र का नाम लिए बिना इस उत्कृष्ट अवगाहना सातिरेक एक हजार योजन है। वह वनस्पति की तथ्य का प्रतिपादन किया है।' अपेक्षा से बतलाई गई है। आचार्य मलयगिरि ने लवण समुद्र के घाट
६. ते ण भंते! जीवा नाणा-वरणिज्जस्स ते भदन्त ! जीवाः ज्ञानावरणस्य कर्मणः किं कम्मस्स किं बंधगा? अबंधगा? बन्धकाः? अबन्धकाः? गोयमा! नो अबंधगा, बंधए वा, बंधगा। गौतम! नो अबन्धकाः. बन्धकः वा, वा॥
बन्धकाः वा।
६. भंते! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के बंधक हैं ? अबंधक है? गौतम! अबंधक नहीं है, बंधक है (एक वचन) अथवा बंधक हैं (बहुवचन)।
७. एवं जाव अंतराइयस्स, नवरं- आउयस्स-पुच्छा।
एवं यावत् आन्तरायिकस्य, नवरं. आयुष्यकस्य-पृच्छा।
गोयमा! १.बंधए वा २. अबंधए वा ३. गौतम! १. बन्धकः वा २. अबन्धकः वा ३. बंधगा वा ४. अबंधगा वा ५. अहवा बंधए । बन्धकाः वा ४. अबन्धकाः वा ५. अथवा य अबंधए य ६. अहवा बंधए य अबंधगा। बन्धकश्च अबन्धकश्च ६. अथवा य ७. अहवा बंधगा य अबंधए य ८. बन्धकश्च अबन्धकाश्च ७. अथवा अहवा बंधगा य अबंधगा य-एते अट्ठ। बन्धकाश्च अबन्धकश्च ८. अथवा भंगा॥
बन्धकाश्च अबन्धकाश्च-एते अष्ट भङ्गाः।
७. इस प्रकार यावत् आंतरायिक कर्म की वक्तव्यता, इतना विशेष है-आयुष्य कर्म की पृच्छा। गौतम ! १.बंधक भी है २. अबंधक भी है ३. बंधक भी हैं ४. अबंधक भी हैं ५. अथवा बंधक है और अबंधक है ६. अथवा बंधक है और अबंधक हैं 9. अथवा बंधक हैं और अबंधक है ८. अथवा बंधक हैं और अबंधक हैं-आयुष्य कर्म के ये आठ भंग हैं।
८. ते णं भंते! जीवा नाणा-वरणिज्जस्स कम्मस्स किं वेदगा? अवेदगा? गोयमा! नो अवेदगा. वेदए वा, वेदगा वा। एवं जाव अंतराइयस्स॥
ते भदन्त ! जीवा ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वेदकाः? अवेदकाः? गौतम! नो अवेदकाः, वेदकः वा, वेदकाः वा। एवं यावत् आन्तरायिकस्य।
८. भंते! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के वेदक हैं? अवेदक हैं? गौतम! वे अवेदक नहीं है, वेदक है अथवा वेदक हैं। इस प्रकार यावत् आन्तरायिक की वक्तव्यता।
९. ते णं भंते! जीवा किं सायावेदगा?
असायावेदगा? गोयमा! सायावेदए वा, असायावेदए वा-अट्ठभंगा।
ते भदन्त! जीवाः किं सातवेदकाः? ९. भंते! वे जीव सातावेदक हैं? असाताअसातवेदकाः?
वेदक हैं! गौतम! सातवदेकः वा, असातवेदकः । गौतम ! सातावेदक है, अथवा असातावेदक वा-अष्ट भङ्गाः।
है-आठ भंग वक्तव्य हैं।
१०. ते णं भंते! जीवा नाणा-वरणिज्जस्स ते भदन्त ! जीवाः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः १०. भंते! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के उदय कम्मस्स किं उदई ? अणुदई? किम् उदयिनः? अनुदयिनः ? ।
वाले हैं ? अनुदय वाले हैं? गोयमा! नो अणुदई, उदई वा, उदइणो गौतम ! नो अनुदयिनः, उदयी वा. उदयिनः गौतम ! वे अनुदय वाले नहीं हैं, उदय वाला वा। एवं जाव अंतराइयस्स॥ वा! एवं यावत् आन्तरायिकस्य।
है अथवा उदय वाले हैं। इस प्रकार यावत् आंतरायिक की वक्तव्यता।
११. ते णं भंते! जीवा नाणा-वरणिज्जस्स
ते भदन्त ! जीवाः ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः ११. भंते! वे जीव ज्ञानावरणीय कर्म के
१. प्रज्ञा. वृ.प.४१३-ष लवणसमुद्रगोतीर्थादिषु पद्मनालाद्यधिकृत्यावसातव्या,
अन्यत्रतावत आदारिकशरीरस्यासंभवान।
२. भ. वृ. ११/५-तथाविधसमुद्रगोतीर्थकादाविदमुच्चत्वं उत्पलस्यावसेयम्।
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श. ११ : उ. १ : सू. ११
कम्मस्स किं उदीरगा ? अणुदीरगा ?
गोयमा ! नो अणुदीरगा, उदीरए वा, उदीरगा वा । एवं जाव अंतराइयस्स, नवरं वेदणिज्जाउ एस अट्ठ भंगा ॥
कर्म ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक कर्म (आयुष्य वर्जित) आयुष्य कर्म
कर्म
ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक कर्म उत्पल जीव
१. सूत्र ६-११
एक बहुत प्रसिद्ध सूक्त है-मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः । जैन दर्शन का सिद्धान्त इससे भिन्न है। उत्पल वनस्पतिकायिक जीव है। उसके मन नहीं होता फिर भी कर्म बंध होता है। कर्म बंध का हेतु मन नहीं किंतु कषाय है, राग-द्वेष है। कषाय का अस्तित्व वनस्पतिकायिक जीवों में भी होता है। उनका कषाय व्यक्त नहीं है। संभवतः इसी दृष्टि से प्रश्न पूछा गया - उत्पल के जीव ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का बंध करते हैं अथवा नहीं करते ? भगवान महावीर का उत्तर था वे ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों बंधक (एकवचन) बंधक (बहुवचन) बंधक है। बंधक हैं।
कर्म ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक कर्म
कर्म
ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक कर्म
( वेदनीय आयुष्यवर्जित)
वेदनीय और आयुष्य कर्म
१. बंधक भी है।
५.
बंधक है।
६. बंधक है।
वेदक (एकवचन)
वेदक है।
सातवेदक
(एकवचन)
१. सातावेदक है।
५. है ।
६. है ।
उदय (एकवचन) उदय वाले है।
उदीरक (एकवचन)
उदीरक है।
३७२
किम उदीरकाः ? अनुदीरकाः ?
१. उदीरक है। ५. है । ६. है ।
गौतम ! नो अनुदीरकाः, उदीरकः वा, उदीरकाः वा । एवं यावत् आन्तरायिकस्य, नवरं - वेदनी- यायुष्कयोः अष्ट भङ्गाः ।
भाष्य
३. बंधक भी हैं।
७. बंधक हैं।
८. बंधक हैं। वेदक (बहुवचन) वेदक हैं।
सातवेदक
(बहुवचन)
३. सातावेदक हैं।
७. हैं।
८. हैं।
उदय (बहुवचन) उदय वाले हैं।
का बंध करते हैं।
वे जीव जैसे कर्म के कर्ता हैं, वैसे कर्म के वेदक भी हैं। उनके कर्म का उदय भी होता है और उसकी उदीरणा भी करते हैं। वेदन का अर्थ है अनुक्रम ( कालावधि पूर्ण होने पर) अथवा उदीरणा के द्वारा उदीरित कर्म का अनुभव करना । उदय का अर्थ है- अनुक्रम ( कालावधि पूर्ण होने पर) से कर्म का अनुभव करना।
प्रथम पत्र की अपेक्षा एक वचन और उससे आगे होने वाले पत्रों की अपेक्षा बहुवचन का प्रयोग किया गया है। एक वचन और बहुवचन के आधार पर इनके आठ-आठ भंग बनते हैं। देखें यंत्र
अबंधक (एकवचन)
उदीरक (बहुवचन) उदीरक हैं।
भगवई
उदीरक- उदीरणा करने वाले हैं ? अनुदीरक हैं ?
गौतम ! अनुदीरक नहीं हैं? उदीरक है अथवा उदीरक है। इस प्रकार यावत् आंतरायिक की वक्तव्यता, इतना विशेष है- वेदनीय और आयुष्य के आठ विकल्प वक्तव्य हैं।
२. अबंधक भी है।
५. अबंधक है।
७. अबंधक है।
अवेदक (एकवचन) अवेदक नहीं है।
असातवेदक (एकवचन)
२. असातावेदक भी है।
५. है ।
७. है।
अनुदय (एकवचन)
अनुदीरक (एकवचन) उदीरक है।
अबंधक (बहुवचन) अबंधक नहीं है।
४. अबंधक भी है।
७. अबंधक हैं।
८. अबंधक हैं।
असातवेदक
( बहुवचन) ४. सातावेदक है।
६. हैं।
८. हैं।
अनुदय बहुवचन) अनुदय वाले नहीं।
१. उदीरक हैं।
२. उदीरक भी हैं। ५. है ।
४. अनुदारक भी हैं।
५. हैं।
६. हैं।
६. हैं।
७. है ।
८. हैं।
१. भ. वृ. ११ ८-१० वेदनं अनुक्रमोदितस्य उदीरणोदीरितस्य वा कर्म्मणोऽनुभवः, उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणेपि भेदेनोदयित्वप्ररूपणामिति ।
अनुदीरक (बहुवचन) अनुदीरक नहीं है।
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भगवई
३७३
श. ११ : उ.१ : सू. १२
१२. ते णं भंते। जीवा किं कण्हलेसा? ते भदन्त ! जीवाः किं कृष्णलेश्याः? १२. भंते! वे जीव कृष्ण लेश्या वाले हैं? नीललेसा? काउलेसा? तेउलेसा? नीललेश्याः? तेजोलेश्याः?
नीललेश्या वाले हैं ? कापोत लेश्या वाले
हैं? तैजस लेश्या वाले हैं? गोयमा! कण्हेलेसे वा नीललेसे वा गौतम! कृष्णलेश्यः वा, नीललेश्यः वा, गौतम ! १. कृष्ण लेश्या वाला है अथवा काउलेसे वा तेउलेसे वा, कण्ह-लेस्सा वा कापोतलेश्यः वा, तेजोलेश्यः वा, नील लेश्या वाला है अथवा कापोत लेश्या नीललेस्सा वा काउ-लेस्सा वा कृष्णलेश्या वा, नीललेश्याः वा, वाला है अथवा तैजस लेश्या वाला है. २. तेउलेस्सा वा, अहवा कण्हलेसे य कापोतलेश्याः वा, तेजोलेश्याः वा अथवा कृष्ण लेश्या वाले हैं अथवा नील लेश्या नीललेसे य। एवं एए दुयासंजोग- कृष्णलेश्यः च, नीललेश्यः च। एवम् एते वाले हैं अथवा कापोत लेश्या वाले हैं अथवा तियासंजोग-चउक्क-संजोगेणं असीती द्विकसंयोग-त्रिकसंयोग-चतुष्कसंयोगेन तैजस लेश्या वाले हैं ३. अथवा कृष्ण भंगा भवंति॥ अशीतिः भङ्गाः भवन्ति।
लेश्या वाला और नील लेश्या वाला है। इस प्रकार ये द्वि-संयोग, त्रि-संयोग और
चतुष्क संयोग से अस्सी भंग होते हैं।
भाष्य १.सूत्र-१२
जीव जिस लेश्या में मरता है, उसी लेश्या में उत्पन्न होता है।' उत्पल पत्र में चार लेश्याएं बतलाई गई हैं। प्रज्ञापना के अनुसार इस नियम के अनुसार इन तीन जीव निकायों में तेजोलेश्या का अस्तित्व एकेन्द्रिय में समुच्चय रूप में चार लेश्याएं होती हैं। विभागशः सम्मत है। पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में चार लेश्याएं इन तीन जीव निकायों में उत्पन्न होने वाले देव अपर्याप्त अवस्था होती हैं। तैजसकायिक और वायुकायिक जीवों में तीन होती हैं।' में रहते हैं तब तक तेजोलेश्या होती है, पर्याप्त होने के बाद उसकी
स्थानांग सूत्र में पृथ्वीकायिक, अपकायिक और वनस्पतिकायिक उपलब्धि नहीं रहती। में तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं। वहां तेजोलेश्या का निषेध नहीं है। इन तीन जीव निकायों में उत्पन्न होने वाले देव बादर पृथ्वीकाय, संक्लिष्ट लेश्या का प्रकरण है इसलिए तीन लेश्याओं का निर्देश हैं। बादर अप्काय और बादर वनस्पतिकाय में उत्पन्न होते हैं, सूक्ष्म में
भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क और प्रथम, द्वितीय कल्प के नहीं। पर्याप्तक में उत्पन्न होते हैं, जिन बादर पृ काय आदि की वैमानिक देव अपने स्थान से च्युत होकर इन तीन जीव निकायों में पर्याप्त होने से पहले मृत्यु नहीं होती, उनमें उत्पन्न होते हैं. अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। इस अपेक्षा से इनमें तेजोलेश्या का अस्तित्व बतलाया में नहीं।' गया है।
इक सांयोगिक भंग ८ एकवचन के भंग चार
का. |
Fo-varnatarpara
बहुवचन के चार भंग
१०
।
१
Sorarmila.jara-||Formjoram
।
नी.
१
२४
।
३.
द्वि-सांयोगिक भंग २४
कृ. नी.
।
२
।
१
।
।
१६
१.पण्ण.१७/३०.४०॥ २. (क) ठाणं ३/६१.
(ख) स्था. वृ. प. १०९
३. भ. २४/२०४॥ ४. वही, ३/१८३.। ५. पण्ण, ६/१०२।
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श. ११ : उ. १ : सू. १२-१७
त्रि-सांयागिक भंग ३२
नी.
2
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१
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१
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१
3
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9
3
१३. ते णं भंते! जीवा किं सम्मद्दिट्ठी ? मिच्छादिट्ठी ? सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! नो सम्मद्दिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी, मिच्छादिट्ठी वा मिच्छादिट्टीणो वा ॥
१४. ते णं भंते! जीवा किं नाणी ? अण्णाणी ?
गोयमा ! नो नाणी, अण्णाणी वा, अण्णाणिणो वा ॥
१५. ते णं भंते! जीवा किं मण जोगी ? वइजोगी ? कायजोगी ?
गोयमा ! नो मणजोगी, नो वइ - जोगी, कायोगी वा, कायजोगिणो वा ।।
१६. ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता ? अणागारोवउत्ता ?
गोयमा ! सागारोवउत्ते वा, अणागारोवउत्ते वा - अट्ट भंगा ॥
१७. तेसि णं भंते! जीवाणं सरीरगा कतिवण्णा, कतिगंधा, कतिरसा,
७
१८
१९.
२०
२१
२२
२३
२४
२५
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२७
२८
२९
३०
३१
३२
त्रि-सांयागिक भंग ३२ कृ. नी.
१
१
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१
१
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१
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१
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3
१
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१३. ते भदन्त ! जीवाः किं सम्यग्दृष्टयः ? मिथ्यादृष्टयः ? सम्यग्मिथ्यादृष्टयः ? गौतम ! नो सम्यग्दृष्टयः, नो सम्यगमिथ्यादृष्टयः, मिथ्यादृष्टिः वा. मिथ्यादृष्टयः वा ।
ते भदन्त ! जीवाः किं ज्ञानिनः ? अज्ञानिनः ?
गौतम ! नोज्ञानिनः, अज्ञानी वा, अज्ञानिनः
वा ।
ते भदन्त ! जीवाः किं मनोयोगिनः ? वाग्योगिनः ? काययोगिनः ? गौतम! नो मनोयोगिनः, नो वाग्योगिनः, काययोगी वा काययोगिनः वा ।
ते भदन्त ! जीवाः किं साकारोपयुक्ताः ? अनाकारोपयुक्ताः ?
गौतम ! साकारोपयुक्तः वा, अनाकारोपयुक्तः वा अष्ट भङ्गाः ।
तेषां भदन्त ! जीवानां शरीरकाः कतिवर्णाः, कतिगन्धाः, कतिरसाः, कतिस्पर्शाः
१
२
३
४
५
६
७
८
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११
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त्रि-सांयागिक भंग ३२
कृ.
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3
सर्व भंग - ८ + २४ +३२+१६८०
१३. भंते! वे जीव सम्यकदृष्टि है ? मिथ्यादृष्टि हैं? सम्यकुमिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम! सम्यक दृष्टि नहीं है, सम्यक्मिथ्या दृष्टि नहीं है, मिथ्यादृष्टि है अथवा मिथ्यादृष्टि हैं।
१४. भंते! वे जीव ज्ञानी है। अज्ञानी हैं ?
गौतम! ज्ञानी नहीं है। अज्ञानी है अथवा अज्ञानी हैं।
१५. भंते! वे जीव मनोयोग वाले हैं ? वचनयोग वाले हैं ? काययोग वाले हैं ? गौतम ! मनोयोग वाले नहीं हैं, वचनयोग वाले नहीं हैं, काययोग वाला है अथवा काययोग वाले हैं।
१६. भंते! वे जीव साकार उपयोग सहित हैं? अनाकार उपयोग सहित हैं ? गौतम! साकार उपयोग सहित है, अनाकार उपयोग सहित है-इस प्रकार आठ भंग होते हैं।
१७ भंते! उन जीवों के शरीर कितने वर्ण कितने गंध, कितने रस और कितने स्पर्श
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भगवई
श. ११ : उ. १ : सू. १७.१८
कतिफासा पण्णता? प्रज्ञप्ताः ?
वाले प्रजप्त है? गोयमा! पंचवण्णा, पंचरसा, दुगंधा, गौतम ! पञ्चवर्णाः, पञ्चरसाः, द्विगन्धाः, गौतम! उन जीवों के शरीर पांच वर्ण.पांच अट्ठफासा पण्णत्ता। ते पुण अप्पणा अष्टस्पर्शाः प्रज्ञप्ताः। ते पुनः आत्मना रस, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाले प्रज्ञप्त अवण्णा, अगंधा, अरसा, अफासा अवर्णाः, अगन्धाः, अरसाः, अस्पर्शाः हैं। वे जीव अपने स्वरूप से वर्ण. गंध. रस पण्णत्ता॥ प्रज्ञसाः।
और स्पर्श रहित प्रज्ञाप्त है।
भाष्य १. सूत्र १७
और स्पर्श होते हैं। उत्पन पत्र का जीव अमूर्त है इसलिए उसमें वर्ण, प्रस्तुत सूत्र में शरीर और आत्मा की भिन्नता का प्रतिपादन गंध, रस और स्पर्श नहीं हैं।' है। उत्पल पत्र का शरीर पौगलिक है इसलिए उसमें वर्ण, गंध, रस १८. ते णं भंते! जीवा किं उस्सा-सगा? ते भदन्त ! जीवाः किम् उच्छ्वासकाः? १८. भंते ! वे जीव उच्छवास लेने वाले हैं ? निस्सासगा? नोउस्सास- निस्स- निःश्वासकाः? नो उच्छ्वासनिःश्वा- निःश्वास लेने वाले हैं? उच्छवाससिगा? सकाः?
निःश्वास नहीं लेने वाले हैं? गोयमा! १. उस्सासए वा २. निस्सासए गौतम! १. उच्छवासक: वा २. निःश्वा- गौतम! १. उच्छवास लेने वाला भी है २. वा ३. नोउस्सासनि-स्सासए वा ४. सकः वा ३.नो उच्छवासनिःश्वासकः वा निःश्वास लेने वाला भी है ३. उच्छवास उस्सासगा वा ५. निस्सासगा वा ६. ४. उच्छवासकाः वा ५. निःश्वासकाः वा निःश्वास नहीं लेने वाला भी है ४. नोउस्सास-निस्सासगा वा १-४.६.नो उच्छ्वासनिःश्वासकाः वा १. उच्छवास लेने वाले भी हैं ५. निःश्वास अहवा उस्सासए य निस्सासए य १-४. ४. अथवा उच्छ्वासकः च निःश्वासकः च लेने वाले भी हैं ६. उच्छवास निःश्वास अहवा उस्सासए य नोउस्सास- १.४. अथवा उच्छ्वासकः च नो नहीं लेने वाले भी हैं १-४. अथवा निस्सासए य१-४.अहवा निस्सासए य उच्छवासनिःश्वासकः च १-४. अथवा उच्छवास लेने वाला है और निःश्वास लेने नोउस्सासनिस्सासए य १-८. अहवा निःश्वासकः च नो उच्छवासनिःश्वासकः वाला है १-४. अथवा उच्छवास लेने वाला उस्सासए य निस्सासए य नोउस्सा- च १-८. अथवा उच्छवासकः च है और उच्छवास निःश्वास नहीं लेने सनिस्सासए य-अट्ठ भंगा। एते छन्वीसं निश्वासकः च नो उच्छवासनिःश्वासकः वाला है १-४. निःश्वास लेने वाला है और भंगा भवंति॥
च-अष्ट भङ्गाः। एते षड़विंशतिः भङ्गाः उच्छवास-निःश्वास नहीं लेने वाला है १. भवन्ति।
८. अथवा उच्छवास लेने वाला है. निःश्वास लेने वाला है और उच्छवासनिःश्वास नहीं लेने वाला है ये आठ भंग
हैं। इस प्रकार छब्बीस भंग होते हैं।
भाष्य १.सूत्र-१८
से उत्पल पत्र जीव को उच्छवास निःश्वास से शुन्य बतलाया गया अपर्याप्त अवस्था में उच्छवास निःश्वास नहीं होता, इस अपेक्षा है। द्रष्टव्य यंत्र
| इक-सांयागिक भंग ६ ।
त्रि-सायागिक भंग ८
२ | ३
उ. | नि. |
३ १
|
|
| १२
२० ।
१
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ना. | ३ द्वि-सांयोगिक भंग १२
Forma|NEarma-jor
Plao-a-a-mmmm
। ।
२२ । २३ । २४ २५ ।
१५
१ ३
।
१.भ.प.१११-शरीगण्येव नेषां पंचवर्णादीनि ते पुनरुत्पलजीवाः अप्पणनि२. वही.११.१८-नो उस्सासनिस्सासपनि पर्याप्तावस्थायाम।
स्वरूपेण सवर्णा वर्णादिवर्जिताः अमूर्तत्वानेषामिति।
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श. ११ : उ. १ : सू. १९-२६
१९. ते णं भंते! जीवा किं आहार
गा? अणाहरगा ?
गोयमा ! वा - अदुभंगा ॥
आहारए वा. अणाहारए
२०. ते णं भंते! जीवा किं विरया ? अविरया ? विरयाविरया ?
गोयमा ! नो विरया, नो विरया - विरया, अविरए वा अविरया वा ।।
१. सूत्र - १९
उत्पल पत्र का जीव आहारक होता है। केवल विग्रह में अनाहारक होता है।
२१. ते णं भंते! जीवा किं सकिरिया ? अकिरिया ?
गोयमा ! नो अकिरिया, सकिरिए वा सकिरिया वा ॥
२२. ते णं भंते! जीवा किं सत्तविहबंधगा ? अट्ठविहबंधगा ?
गोयमा ! सत्तविहबंधए वा, अट्ठविह बंधए वा- अट्ठ भंगा।।
२३. ते णं भंते! जीवा किं आहारसण्णोवउत्ता ? भयसण्णोवउत्ता ? मेहुणवत्ता ? परिग्गहसण्णोवउत्ता ?
गोयमा ! आहारसण्णोवउत्ता-असीती भंगा ॥
२४. ते णं भंते! जीवा किं कोह- कसाई ? माणकसाई ? मायाकसाई ? लोभ
कसाई ?
असीती भंगा ॥
२५. ते णं भंते! जीवा किं इत्थवेदगा ? पुरिसवेदगा ? नपुंसग वेदगा ? गोयमा ! नो इत्थिवेदगा, नो पुरिसवेदगा, नपुंसगवेदएवा, नपुंसगवेदगा वा ॥
३७६
ते भदन्त ! जीवाः किम् आहारकाः ? अनाहारकाः ? गौतम !
आहारकः वा. अनाहारकः वा- अष्ट भङ्गाः ।
भाष्य
ते भदन्त ! जीवाः कि विरताः ? अविरताः ? विरताविरताः ?
गौतम! नो विरताः, नो विरताविरताः, अविरतः वा अविरताः वा ।
ते भदन्त ! जीवाः किं सक्रियाः ? अक्रियाः ?
गौतम ! नो अक्रियाः, सक्रियः वा, सक्रियाः
वा ।
ते भदन्त ! जीवाः किं सप्तविधबन्धकाः ? अष्टविधबन्धकाः ?
गौतम ! सप्तविधबन्धकः वा, अष्टविधबन्धकः अष्ट भङ्गाः ।
गौतम ! भङ्गाः ।
ते भदन्त ! जीवाः किम् आहारसंज्ञो - पयुक्ताः ? भयसंज्ञोपयुक्ताः ? मैथुनसंज्ञोपयुक्ताः ? परिग्रहसंज्ञोपयुक्ताः ?
आहारसंज्ञोपयुक्ताः - अशीतिः
ते भदन्त ! जीवा किं क्रोधकषायिणः ? मानकषायिणः ? मायाकषायिणः ? लोभकषायिणः ? अशीतिः भङ्गाः ।
ते भदन्त ! जीवाः किं स्त्रीवेदकाः ? पुरुषवेदकाः ? नपुंसकवेदकाः ? गौतम! नो स्त्रीवेदकाः, नो पुरुषवेदकाः, नपुंसकवेदकः वा, नपुंसकवेदकाः वा ।
२६. ते णं भंते! जीवा किं इत्थवेद
१. भ. वृ ११ / १९ - विग्रहगतावनाहारकोन्यदा त्वाहारकस्तत्र चाष्टौ भंगाः पूर्ववत् ।
ते भदन्त ! जीवाः किं स्त्रीवेदबन्धकाः ?
भगवई
१९. भंते! वे जीव आहारक हैं? अनाहारक हैं ?
गौतम! आहारक भी है, अनाहारक भी है-इस प्रकार आठ भंग होते हैं।
२०. भंते! वे जीव विरत हैं ? अविरत हैं ? विरताविरत हैं ?
गौतम! विरत नहीं हैं, विरताविरत नहीं हैं, अविरत है अथवा अविरत हैं।
२१. भंते! वे जीव क्रिया सहित हैं? क्रियारहित हैं ?
गौतम! क्रिया -रहित नहीं हैं, क्रिया सहित है अथवा क्रिया सहित हैं।
२२. भंते वे जीव सप्तविध बंधक हैं ? अष्टविध बंधक हैं ?
गौतम ! सप्तविध बंधक भी है, अष्टविध बंधक भी है - इस प्रकार आठ भंग होते हैं।
२३. भंते! वे जीव आहार संज्ञा से उपयुक्त हैं ? भय-संज्ञा से उपयुक्त हैं ? मैथुन- संज्ञा से उपयुक्त हैं ? परिग्रह-संज्ञा से उपयुक्त
हैं ?
गौतम! आहार-संज्ञा से उपयुक्त हैंअस्सी भंग होते हैं।
२४. भंते! क्या वे जीव क्रोध कषाय वाले हैं ? मान कषाय वाले हैं? माया कषाय वाले हैं? लोभ- कषाय वाले हैं ? अस्सी भंग होते हैं।
२५. भंते! वे जीव क्या स्त्रीवेद वाले हैं ? पुरुषवेद वाले हैं ? नपुंसकवेद वाले हैं ? गौतम! स्त्रीवेद वाले नहीं हैं, पुरुषवेद वाले नहीं हैं, नपुंसकवेद वाला है अथवा नपुंसकवेद वाले हैं।
२६. भंते! क्या वे जीव स्त्रीवेद बंधक हैं ?
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भगवई
३७७
श. ११ : उ. १ : सू. २६-३०
पुरुषवेद बंधक हैं ? नपुंसकवेद बंधक हैं ?
बंधगा? परिसवेदबंधगा? नपुंसगवेद- पुरुषवेदबन्धकाः? नपुंसकवेदबन्धकाः? बंधगा? गोयमा! इत्थिवेदबंधए वा, पुरिस- गौतम! स्त्रीवेदबन्धकः वा, पुरुषवेद- वेदबंधए वा, नपुंसगवेदबंधए । बन्धकः वा, नपुंसकवेदबन्धकः वावा-छव्वीसं भंगा।
षड्वंशतिः भङ्गाः।
गौतम! स्त्रीवेद बंधक भी है, पुरुषवेद बंधक भी है, नपुंसकवेद बंधक भी है-छब्बीस भंग होते हैं।
ते भदन्त ! जीवाः किं संज्ञिनः? असंज्ञिनः?
२७. ते णं भंते! जीवा किं सण्णी? असण्णी? गोयमा! नो सण्णी. असण्णी वा असण्णिणो वा।
२७. भंते! वे जीव संज्ञी (समनस्क) हैं? असंज्ञी (अमनस्क) है? गौतम! संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी है अथवा असंज्ञी है।
गौतम! नो संजिनः, असंज्ञी वा असंज्ञिनः वा।
२८. ते णं भंते ! जीवा किं सइंदिया?
अणिंदिया? गोयमा! नो अणिंदिया, सइंदिए वा, सइंदिया वा॥
ते भदन्त ! जीवाः किं सेन्द्रियाः? २८. भंते! क्या वे जीव इन्द्रिय सहित हैं ? अनिन्द्रियाः वा?
इन्द्रिय रहित हैं? गौतम! नो अनिन्द्रियाः, सेन्द्रियः वा। गौतम! इन्द्रिय रहित नहीं है। इन्द्रिय सेन्द्रियाः वा।
सहित है अथवा इन्द्रिय सहित हैं।
२९. से णं भंते! उप्पलजीवेत्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जंकालं ।।
सः भदन्त! उत्पलजीवः इति कालतः कियच्चिरं भवति। गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम, उत्कर्षण असंख्येयं कालम्।
२९. 'भंते! वह उत्पल जीव उत्पल जीव के रूप में कितने काल तक रहता है? गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः असंख्येय काल।
३०. से णं भंते! उप्पलजीवे पुढवि-जीवे, पुण्णरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेज्जा? केवतियं कालं गतिरागति करेज्जा ?
सः भदन्त ! उत्पलजीवः पृथ्वीजीवः, पुनः अपि उत्पलजीवः इति कियन्तं कालं सेवेत? कियन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् ?
गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो। गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, भवग्गहणाई, उवकोसेणं असं- खेज्जाई उत्कर्षेण असंख्येयानि भवग्रहणानि। भवग्गहणाई। कालादेसेणं जहण्णेणं दो कालादेशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूर्ती, अंतोमुहत्ता, उक्कोसेणं असंखेज्जं उत्कर्षेण असंख्येयं कालं, एतावन्तं कालं कालं, एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं सेवते एतावन्तं कालं गत्यागती करोति। कालं गतिरागतिं करेज्जा॥
३०. भंते! वह उत्पल जीव पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होता है, पुनः उत्पल जीव के रूप में उत्पन्न होकर कितने काल तक रहता है ? कितने काल तक गति-आगति करता है? गौतम ! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भवग्रहण (जन्म) करता है, उत्कृष्टतः असंख्येय भव-ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः असंख्येय काल। इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गति-आगति करता है।
भाष्य १.सू. २९-३०
वर्तमान काय से च्युत होकर तुल्य काय में अथवा किसी दूसरे काय प्रस्तुत आलापक में उत्पल पत्र की स्थिति का विचार अनुबंध में उत्पन्न होता है। वहां से च्युत होकर पुनः पूर्ववर्ती काय में जन्म और काय-संवेध की दृष्टि से किया गया है उत्पल की स्थिति जघन्यतः लेता है। इस प्रक्रिया का नाम काय-संवेध है। दो मुहूर्त और उत्कृष्टतः असंख्य काल है। यह अनुबंध की दृष्टि से काय-संवेध का विचार दो दृष्टियों से किया जाता है-भवादेश विवक्षित है।
और कालादेश अनुबंध का अर्थ है-विवक्षित पर्याय में अविच्छिन्न रूप से भवादेश-एक उत्पल पत्र का जीव वनस्पतिकाय से च्युत अवस्थान करना, उत्पल जीव का उत्पल के रूप में पुनर्जन्म। होकर पृथ्वीकाय जीव के रूप में उत्पन्न होता है। वहां से च्युत होकर पुनर्जन्म के अनेक नियम हैं, उनमें एक है काय-संवेध। एक प्राणी फिर उत्पल पत्र के रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार भवादेश की
मा
१. भ. वृ. ११.२९-३०-अणुबंधोत्ति विवक्षितपर्यायण अविच्छिन्नेन अवस्थानम्। २. (क) भ. ३२/११
(ख) भ.वृ.११/२९-३०-कायसंवेहात्ति विवक्षितकायात कायान्तरे तुल्यकाये वा गत्वा पुनरपि यथासंभवं तत्रैवागमनम्।
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श. ११ : उ. १ : सू. ३१-३३
३७८
भगवई
अपेक्षा जघन्यतः दो जन्म (भव ग्रहण) होते हैं, उसका तीसरा जन्म जीवित रहता है। वहां से च्युत होकर पुनः अन्तर्मुहर्त एक उत्पल-पत्र किसी अन्य काय में होता है. उत्कृष्टतः असंख्य जन्म होता है। के रूप में उत्पन्न होता है। इस प्रकार काल की अपेक्षा उत्पल-पत्र
__ कालादेश-एक उत्पल-पत्र का जीव वनस्पति काय से च्युत की जघन्य स्थिति दो अन्तर्मुहूर्त होती है। होकर पृथ्वीकायिक जीव के रूप में उत्पन्न होकर अन्तर्मुहर्त तक ३१. से णं भंते! उप्पलजीवे, आउजीवे, सः भदन्त! उत्पलजीवः अप्जीवः, पुनरपि ३१. भंते ! वह उत्पल जीव अपकायिक जीव पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं उत्पलजीवः इति कियन्त काल सेवेत? के रूप में उत्पन्न होता है, पुनः उत्पल सेवेज्जा? केवतियं कालं गतिरागतिं कियन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् ?
जीव के रूप में उत्पन्न होकर कितने काल करेज्जा ?
तक रहता है? कितने काल तक गति
आगति करता है? एवं चेव। एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा एवं चैव। एवं यथा पृथ्वीजीवः भणितः तथा पूर्ववत् वक्तव्यता। इस प्रकार जैसे जाव वाउजीवे भाणियब्वे॥ यावत् वायुजीवः भवितव्यः।
पृथ्वीकायिक जीव की वक्तव्यता, वैसे यावत् वायुकायिक जीव की वक्तव्यता।
३२. से णं भंते! उप्पलजीवे सेसव-णस्स- सः भदन्त ! उत्पलजीवः शेषवनस्पति- ३२. भंते! वह उत्पल जीव शेष वनस्पति इजीवे से पुणरवि उप्पल-जीवेत्ति जीवः, सः पुनरपि उत्पलजीवः इति कायिक जीव के रूप में उत्पन्न होता है, केवतियं कालं सेवेज्जा? केवतियं कालं कियन्तं कालं सेवेत ? कियन्तं कालं वह पुनः उत्पल जीव के रूप में उत्पन्न गतिरागतिं करेज्जा? गत्यागती कुर्यात् ?
होकर कितने काल तक रहता है ? कितने
काल तक गति-आगति करता है ? गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, गौतम! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भव भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अणंताई उत्कर्षेण अनन्तानि भवग्रहणानि, काला- ग्रहण (जन्म) करता है, उत्कृष्टतः अनंत भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो देशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूत्तौ, उत्कर्षण भव-ग्रहण करता है काल की अपेक्षा अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेण अणतं कालं अनन्त कालं तरुकालं, एतावन्तं कालं जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः तरुकालं, एवतियं काल सेवेज्जा, सेवते, एतावन्तं कालं गतिमागतिं करोति। अनंतकाल वनस्पति काल। इतने काल एवतियं कालं गतिरागतिं करेज्जा॥
तक रहता है, इतने काल तक गति
आगति करता है।
भाष्य १. सूत्र-३२
अनंत भव ग्रहण और अनंत-काल का निर्देश किया गया है। तरुकाल वनस्पति की कायस्थिति अनंतकाल की है इसलिए इसमें वनस्पति काल का ही सूचक है। ३३. से णं भंते! उप्पलजीवे बेइंदिय-जीवे, सः भदन्त! उत्पलजीवः द्वीन्द्रियजीवः, ३३. भंते ! वह उत्पल जीव द्वीन्द्रिय जीव के पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं पुनरपि उत्पलजीवः इति कियन्तं कालं रूप में उत्पन्न होता है, पुनः उत्पल जीव सेवेज्जा? केवतियं कालं गतिरागति सेवेत ? कियन्तं कालं गत्यागती कुर्यात् ? के रूप में उत्पन्न होकर कितने काल तक करेज्जा ?
रहता है? कितने काल तक गति-आगति
करता है? गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, गौतम! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भवभवग्गहणाई, उक्कोसेणं संखेज्जाई उत्कर्षेण संख्येयानि भवग्रहणानि, काला- ग्रहण करता है, उत्कृष्टतः संख्येय भवभवग्गहणाई, कालादेसेणं जहण्णेणं दो देशेन जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूर्तों, उत्कर्षण ग्रहण करता है। काल की अपेक्षा अंतोमुहुत्ता, उक्कोसेणं संखेन्जं कालं, संख्येयं कालं एतावन्तं कालं सेवते. जघन्यतः दो अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः एवतियं कालं सेवेज्जा, एवतियं कालं एतावन्तं कालं गत्यागती करोति। एवं संख्येय काल। इतने काल तक रहता है, गतिरागतिं करेज्जा। एवं तेइंदियजीवे, त्रीन्द्रियजीवः, एवं चतुरिन्द्रियजीवः अपि। इतने काल तक गति-आगति करता है। एवं चउरिंदियजीवे वि॥
इसी प्रकार त्रीन्द्रिय जीव की वक्तव्यता। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीव की
वक्तव्यता। १. भ.७.११/३०. भवादसणं ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्य इत्यर्थः, जहण्णेण पृथ्वीत्वेनान्तर्मुहूर्न पुनरुत्पलत्वेनान्तर्मुहूर्त्तमित्येवं कालादेशेन जघन्यतो वे
दो भवग्गहणाई ति एकं पृथ्वीकायिकत्वे नतो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं अन्तर्मुहूर्ते इति। मनुष्यादिति गति गच्छेदिति। कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतो हुत्त त्ति २. पण्ण, १८/१४|
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भगवई
३७९
श. ११: उ.१: सू. ३४,३५
३४. से णं भंते! उप्पलजीवे पंचिंदिय- सः भदन्त! उत्पलजीवः पञ्चेन्द्रिय. ३४. भंते! वह उत्पल जीव पंचेन्द्रिय तिरिक्खजोणियजीवे, पुणरवि उप्पल- तिर्यगयोनिकजीवः, पुनरपि उत्पलजीवः तिर्यक्योनिक जीव के रूप में उत्पन्न जीवेत्ति-पुच्छा। इति पृच्छा।
होकर कितने काल तक रहता है-पृच्छा। गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भव- गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, गौतम! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, उत्कर्षेण अष्ट भवग्रहणानि, कालादेशेन ग्रहण करता है उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूत्तौं, उत्कर्षण करता है। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो उक्कोसेणं पुव्व-कोडिपुहत्तं, एवतियं पूर्वकोटिपृथक्त्वम्, एतावन्तं कालं सेवते. अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व पूर्वकोटि। काल सेवेज्जा, एवतियं कालं एतावन्तं कालं गत्यागती करोति। एवं इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गतिरागतिं करेज्जा। एवं मणुस्सेण वि मनुष्येणापि समं यावत् एतावन्तं कालं गति-आगति करता है। इसी प्रकार समं जाव एवतियं कालं गतिरागतिं गत्यागती करोति।
मनुष्य के साथ उत्पल जीव की बक्तव्यता, करेज्जा ॥
यावत् इतने काल तक गति-आगति
करता हैं?
भाष्य १.सूत्र ३४
पर उसकी उत्कृष्ट कालावधि पूर्व कोटि पृथक्त्व होती है।' उत्पल पत्र का जीव पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनि में भव-ग्रहण कर उत्पल जीव और तिर्यक्रपंचेन्द्रिय जीव की जघन्य स्थिति पुनः उत्पल जीव में आता है। कालादेश की अपेक्षा उसकी उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होती है इसलिए दोनों की कालावधि जघन्य दो कालावधि पूर्वकोटि पृथक्त्व है। उत्पल जीव के कायसंवेध की दृष्टि से अन्तर्मुहूर्त होती है। द्रष्टव्य यंत्रउत्कृष्ट भव आठ होते हैं। उनमें चार पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनि के और | भवादेश
कालादेश चार उत्पल-पत्र जीव के होते हैं। उत्पल काय से निकले हए जीव की
उत्कृष्ट | जघन्य उत्कृष्ट उत्कृष्ट तिर्यकपंचेन्द्रिय की स्थिति विवक्षित है। इस प्रकार चार पूर्व
चार पर्वो भव
आठ भव | दो अन्तर्मुहूर्त | पृथक्त्व पूर्व कोटि कोटि का कालमान। उत्पल जीवन के चार भवो का कालमान जोड़ने ।
(२.९ पूर्व कोटि)
जिघन्य
३५. ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारंति? ते भदन्त ! जीवाः किमाहारम् आहरन्ति? ३५. भंते! वे जीव क्या आहार करते हैं?
गोयमा! दव्वओ अणंतपदेसियाई गौतम! द्रव्यतः अनन्तप्रदेशिकानि द्रव्याणि! गौतम! द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी दव्वाई, खेत्तओ असंखेन्जपदेसो- क्षेत्रतः असंख्येयप्रदेशावगाढ़ानि, कालतः द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय गाढाई, कालओ अणयरकाल-ट्ठियाई, अन्यतरकालस्थितिकानि. भावतः वर्ण- प्रदेशावगाढ़, काल की अपेक्षा किसी भी भावओ वण्णमंताई गंध-मंताई रस- वन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति एवं स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा वर्ण, मंताई फासमंताई एवं जहा आहारुद्देसए । यथा आहारोद्देशके वनस्पतिकायिकानाम् गन्ध, रस तथा स्पर्शयुक्त। इस प्रकार वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव । आहारः तथैव यावत् सर्वात्मना आहारम् जैसे आहार-उद्देशक (प्रज्ञापना २८/३६) सव्व-प्पणयाए आहारमाहारेंति, नवरं- आहरन्ति नवरं-नियमात् षड् दिग्भ्यः , शेषं में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार की नियमा छद्दिसिं, सेसं तं चेव॥ तत् चैव।
वक्तव्यता, वैसे ही यावत् सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करता है। इतना विशेष है-नियमतः छहों दिशाओं से आहार करता है। शेष प्रज्ञापना की भांति
वक्तव्यता है।
भाष्य १. सूत्र ३५
में भी उत्पन्न होते हैं इसलिए वे कदाचित् तीन, कदाचित् चार और वनस्पतिकायिक जीव यदि कोई व्याघात न हो तो छहों कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। उत्पल जीव बादर हैं। वे दिशाओं से आहार लेते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन, लोक के कोण में उत्पन्न नहीं होते इसलिए वे नियमतः छहों दिशाओं कदाचित चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। से आहार लेते हैं।
पृथ्वीकायिक आदि के जीव सूक्ष्म होने के कारण लोक के कोण १. भ. वृ. ११.३४-उक्कोसेणं पुव्वकोडी पुहुतं ति चतुर्षु पंचेन्द्रिय- २. भ. वृ. ११/३५-पृथ्वीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति तिर्यगभवराहणेषु चतसः पूर्वकोट्यः। उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेन स्यात् तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु इत्यादिनापि प्रकारेणाहार. उत्पलकायोद्धृत जीव योग्योत्कृष्टपंचेन्द्रियतिर्थस्थितेर्ग्रहणात, उत्पल- माहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरन्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावान नियमात जीवितं त्वेतास्वधिकमि त्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति।
षट्सु दिक्ष्वाहारयन्तीति।
,
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श. ११ : उ. १ : सू. ३६-३९
३८०
भगवई
व्याघात और नियाघात दिशा की स्थापना इस प्रकार है(२)
(३)
तीन दिशाओं
चार दिशाओं
पांच दिशाओं
छह दिशाओं
१.घन के एक कोण पर होने से नीची, पूर्व और उत्तर दिशाओं ३. घनके ऊपर के तल के मध्य में होने पर नीची. पूर्व, पश्चिम,
उत्तर-दक्षिण दिशाओं में। २.घन के ऊपर की भुजा के बीच में होने से नीची, पूर्व, पश्चिम ४. घन के बीच में कहीं भी होने पर छहों दिशाओं में। और उत्तर दिशाओं में। ३६. तेसिणं भंते! जीवाणं केवतियं कालं तेषां भदन्त ! जीवानां कियन्तं कालं स्थितिः ३६. भंते! उन जीवों की स्थिति कितने ठिई पण्णता? प्रज्ञसा?
काल की प्रज्ञप्त है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं॥ दशवर्षसहस्राणि।
दस हजार वर्ष
३७. तेसि णं भंते! जीवाणं कति तेषां भदन्त! जीवानां कति समुद्घाताः समुग्घाया पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः ? गोयमा! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं। गौतम! त्रयः समुद्घाताः प्रज्ञप्लाः, तद्यथाजहा-वेदणासमुग्याए,
वेदनासमुद्घातः, कषायसमुद्घातः मारणासमुग्घाए, मारणंतियसमुग्याए। न्तिकसमुद्घातः।
३७. भंते! उन जीवों के कितने समुद्घात प्रज्ञप्त है ? गौतम ! तीन समुद्घात प्रज्ञप्त है, जैसेवेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात।
३८. ते णं भंते! जीवा मारणंतिय- समुग्घाएणं किं समोहता मरंति? असमोहता मरंति? गोयमा! समोहता वि मरंति, असमोहता वि मरति॥
ते भदन्त! जीवाः मारणान्तिक- ३८. भंते ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समुद्घातेन किं समवहताः नियन्ते? समवहत होकर मरते हैं? असमवहत असमवहताः नियन्ते?
रहकर मरते हैं ? गौतम! समवहताः अपि नियन्ते, गौतम! समवहत होकर भी मरते हैं, असमवहताः अपि नियन्ते।
असमवहृत रहकर भी मरते हैं।
ता
३९. ते णं भंते! जीवा अणंतरं उव्व-ट्टित्ता ते भदन्त ! जीवाः अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र कहिं गच्छंति? कहिं उवव-ज्जंति-किं गच्छन्ति? कुत्र उपपद्यन्ते-किं नैरयिकेषु नेरइएसु उववज्जति? तिरिक्ख- उपपद्यन्ते? तिर्यग्योनिकेषु उपपद्यन्ते? एवं जोणिएसु उववज्जति? एवं जहा यथा अवक्रान्त्याम् उद्वर्तनायां वनस्पतिवक्कंतीए उव्वट्टणाए वणस्सइ- कायिकानां तथा भणितव्यम्। काइयाणं तहा भाणियव्वं॥
३९. 'भंते! वे अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाते हैं? कहां उत्पन्न होते हैं क्या नैरयिक में उपपन्न होते हैं? तिर्यक् योनिक में उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार जैसे अवक्रान्ति पद (प्रज्ञापना ६/१०४) में वनस्पतिकायिक जीवों की उद्वर्तना वैसे ही उत्पल जीवों की वक्तव्यता।
भाष्य १ सूत्र ३९
उत्पल जीव की उद्वर्तन के बाद दो गति ही होती है-तिर्यंच गति और मनुष्य गति।'
१.पण्ण.६/१०३-१०४
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भगवई
४०. अहं भंते! सव्वपाणा, सव्वभूता, सववजीवा, सव्वसत्ता उप्पलमूलत्ताए, उप्पलकंदत्ताए, उप्पलनालाए, उप्पलपत्तत्ताए, उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकण्णियत्ताए, उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुव्वा ?
हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अनंतखुत्तो ॥
३८१
अथ भदन्त ! सर्वप्राणाः सर्वभूताः, सर्वजीवाः सर्वसत्त्वाः उत्पलमूलत्वेन, उत्पलकन्दत्वेन, उत्पलनालतया, उत्पलपत्रत्वेन, उत्पलकेशरत्वेन, उत्पलकर्णिकत्वेन, उत्पलथिभुगत्वेन उत्पन्नपूर्वाः ?
हन्त ! गौतम ! असकृत् अथवा अनन्तकृत्वः ।
१. सूत्र - ४०
एक स्थान में बार-बार जन्म लेना और अनंत बार जन्म लेना - ये पुनर्जन्म के नियम हैं। इसकी विस्तृत जानकारी के लिए बारहवां शतक द्रष्टव्य है।'
४१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।
भाष्य
१. भ. १२ १३० १५२
२. भ. वृ. ११ / ४० इह केसराणि कर्णिकायाः परितोऽवयवाः ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ।
उत्पल - केसर-कर्णिका के चारों ओर के अवयव,' फूल के बीच का सींका या रेशा |
उत्पल कर्णिका - बीज कोश
उत्पल थिभुग-उत्पल का वह भाग, जहां से पत्र निलकते हैं।
श. ११ : उ. १ : सू. ४०-४१ ४०. भंते! सर्व प्राण, सर्व भूत, सर्व जीव, सर्व सत्त्व, उत्पल मूल के रूप में, उत्पलकंद के रूप में, उत्पल नाल के रूप में, उत्पल - पत्र के रूप में, उत्पल - केसर के रूप में, उत्पल कर्णिका के रूप में और उत्पल स्तबक (शाखा का वह भाग, जहां से पत्र निकलते हैं) के रूप में पहले उपपन्न हुए हैं?
हां गौतम! अनेक बार अथवा अनंत बार।
३. बृहद हिंदी शब्द कोश।
४१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है।
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बीओ उद्देसो : दूसरा उद्देशक
मूल सालुयादिजीवाणं उववायादि-पदं ४२. सालुए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अणेगजीवे? गोयमा! एगजीवे। एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा भाणियव्वा जाव अणंतखुत्तो नवरं-सरीरो-गाहणाजहण्णेणं अंगुलस्स असंखे-ज्जइभागं उक्कोसेणं धणु-पुहत्तं, सेसं तं चेव॥
संस्कृत छाया शालूकादि जीवानाम् उपपातादि-पदम् शालूकं भदन्त ! एकपत्रकं किम् एकजीवः ? अनेकजीवः? गौतम! एकजीवः। एवम् उत्पलोदेशकवक्तव्यता अपरिशेषा भणितव्या यावत् अनन्तकृत्वः, नवरं-शरीरावगाहना जघन्येन अङ्गलस्य असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण धनुः पृथक्त्वं, शेषं तत् चैव।
हिन्दी अनुवाद शालु आदि जीवों का उपपात आदि-पद ४२. 'भंते! एकपत्रक शालु क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? गौतम! एक जीव वाला है। इस प्रकार उत्पल-उद्देशक की वक्तव्यता सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है यावत् अनन्त बार, इतना विशेष है-शरीर की अवगाहना जघन्यतः अंगुल का असंख्येय भाग, उत्कृष्टतः पृथक्त्व धनुष, शेष पूर्ववत्।
४३. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
४३. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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तइओ उद्देसो : तीसरा उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया ४४. पलासे णं भंते? एगपत्तए किं ४४. पलाशं भदन्त! एकपत्रकं किम् एगजीवे? अणेगजीवे?
एकजीवः? अनेकजीवः? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया अपरिसेसा एवम् उत्पलोद्देशकवक्तव्यता अपरिशेषा भाणियव्वा, नवरं-सरीरोगाहणा। भणितव्या, नवरं-शरीरावगाहना जघन्येन जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, अङ्गलस्य असंख्येयतमभागम्, उत्कर्षेण उक्कोसेणं गाउयपुहत्ता। देवेहितो न गव्यूतपृथक्ता। देवेभ्यः न उपपद्यन्ते। उववज्जति॥
हिन्दी अनुवाद ४४. भंते! एकपत्रक पलाश क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? इस प्रकार उत्पल उद्देशक की वक्तव्यता सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है. इतना विशेष है-शरीर की अवगाहना जघन्यतः अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्टतः पृथक्त्व गव्यूत। देव गति से उपपन्न नहीं होते हैं।
४५. लेसासु-ते णं भंते! जीवा किं कण्ह- लेस्सा? नीललेस्सा? काउलेस्सा?
लेश्यासु ते भदन्त? जीवाः किं कृष्ण- ४५. भंते! वे जीव कृष्ण लेश्या वाले हैं? लेश्याः? नीललेश्याः ? कापोतलेश्याः? नील लेश्या वाले हैं ? कापोत लेश्या वाले
गोयमा! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा गौतम! कृष्णलेश्यः वा नीललेश्यः वा काउल्लेस्से वा-छव्वीसं भंगा, सेसं तं कापोतलेश्यः वा-षइविंशतिः भङ्गाः, शेषं चेव॥
तत् चैव।
गौतम ! कृष्ण लेश्या वाले भी हैं, नील लेश्या वाले भी हैं, कापोत लेश्या वाले भी हैं-छब्बीस भंग होते हैं, शेष पूर्ववत।
४६. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
४६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
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चउत्थो उद्देसो : चौथा उद्देशक
मूल संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद ४७. कुंभिए णं भंते! एगपत्तए किं कुम्भिक : भदन्त ! एक पत्रकः किम् ४७. भंते! एकपत्रक कुंभी क्या एक जीव एगजीवे? अणेगजीवे? एकजीवः ? अनेकजीवः?
वाला है ? अनेक जीव वाला है? एव जहा पलासुद्देसए तहा भाणियव्वे, एवं यथा पलाशोद्देशके तथा भणितव्यः, इस प्रकार जैसे पलाश उद्देशक की भांति नवरं-ठिती जहण्णेणं अंतोमुहत्तं नवरं-स्थितिः जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् वक्तव्यता, इतना विशेष है-स्थिति उक्कोसेणं वासपुहत्तं सेसं तं चेव॥ उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वं, शेषं तत् चैव। जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व
वर्ष, शेष पूर्ववत्।
४८. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
४८. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद ४९. नालिए णं भंते! एगपत्तए किं एग- नालिकः भदन्त! एकपत्रकः किम् ४९. भंते ! एकपत्रक नाड़ीक क्या एक जीव जीवे? अणेगजीवे? एकजीवः ? अनेकजीवः?
वाला है ? अनेक जीव वाला है? एवं कुंभिउद्देसगवत्तव्वया निरवसेसं । एवम् कुम्भिकोद्देशकवक्तव्यता निरवशेषा इस प्रकार कुंभी उद्देशक की वक्तव्यता भाणियव्वा॥ भणितव्या।
सम्पूर्ण रूप से कथनीय है।
५०. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
५०. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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छट्ठो उद्देसो : छट्ठा उद्देशक
मूल
संस्कृत छायाः ५१. पउमे णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? पद्म भदन्त ! एकपत्रकं किम् एकजीवः? अणेगजीवे?
अनेकजीवः? एवं उप्पलुद्देसगवत्तव्वया निरवसेसा । एवम् उत्पलोद्देशकवक्तव्यता निरवशेषा भाणियव्वा॥
भणितव्या।
हिन्दी अनुवाद ५१. भंते ! एकपत्रक पद्म क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? इस प्रकार उत्पल उद्देशक की वक्तव्यता सम्पूर्ण रूप से कथनीय है।
५२. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
५२. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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सत्तमो उद्देसो : सातवां उद्देशक
मूल ५३. कण्णिए णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अणेगजीवे? एवं चेव निरवसेसं भाणियव्वं ॥
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद कर्णिकः भदन्त ! एकपत्रकः किम् एक- ५३. भंते! एकपत्रक कर्णिका क्या एक जीव जीवः? अनेकजीवः?
वाली है? अनेक जीव वाली है? एवं चैव निरवशेषं भणितव्यम्।
इस प्रकार पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य
५४. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति।
५४. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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अट्ठमो उद्देसो : आठवां उद्देशक
मूल
५५. नलिणे णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे? अणेगजीवे? एवं चेव निरवसेसं जाव अणंत-खुत्तो॥
संस्कृत छाया नलिनं भदन्त ! एकपत्रकं किम् एकजीवः ? अनेकजीवः? एवं चैव निरवशेषं यावत् अनन्तकृत्वः।
हिन्दी अनुवाद ५५. भंते ! एकपत्रक नलिन क्या एक जीव वाला है? अनेक जीव वाला है? इस प्रकार पूर्ववत् सम्पूर्ण रूप से वक्तव्य है यावत् अनन्त बार उपपन्न हुए हैं।
भाष्य
१सूत्र ४२-५५
वनस्पति के इन आठ पदों से कुछ रहस्यपूर्ण तथ्य सामने आते हैं। इनमें पांच पद प्रशस्त हैं-उत्पल, शालु, पद्म, कर्णिका, नलिन।। इसीलिए इनमें देव देवलोक से च्युत होकर जन्म ले सकते हैं। पलाश, कुंभी, नाडीक-ये तीन अप्रशस्त हैं इसलिए इनमें किसी देव की उत्पत्ति
नहीं होती। प्रशस्त पदों में देव का उपपात होता है इसलिए उनमें तेजोलेश्या बतलाई गई है। शेष तीन पदों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती इसलिए उनमें तीन अप्रशस्त लेश्याएं होती है, तेजोलेश्या नहीं होती। द्रष्टव्य यंत्र
अवगाहना
उपपात
लेश्या
स्थिति
कुंभी
शालू जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी, |
उत्पलवत् उत्पलवत्
उत्पलवत् उत्कृष्टतः पृथक्त्व धनुष पलाश जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी, | देवों से उपपन्न नहीं | कृष्ण लेश्या नील | उत्पलवत् | उत्कृष्टतः पृथकत्व गव्युत
होते
लेश्या कापोत लेश्या पलाशवत्
पलाशवत् पलाशवत् | जघन्यतः अंतर्मुहूर्त
उत्कृष्टतः पृथक्त्व वर्ष नाड़ीक कुंभीवत्
कुंभीवत् कुंभीवत्
कुंभीवत् पद्म कर्णिका, उत्पलवत्
उत्पलवत् उत्पलवत्
उत्पलवत् नलिन
५६.सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त! तदेवं भदन्त ! इति।
५६. भंते! वह ऐसा ही है। भंते ! वह ऐसा ही
१. भ. वृ. ११/४२-५५-उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्वृत्ता उत्पले उत्पद्यन्त
इत्युक्तमिह तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम्, अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादि वनस्पतिषूत्पद्यन्त इति।.............यदा किल
तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुद्धृत्य वनस्पतिषूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोद्वृत्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्तेः एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति, तदाभावादाद्या एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति।
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मूल
सिवरायरिसि-पदं
५७. तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नाम नगरे होत्था - वण्णओ । तस्स णं हथिणापुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसीभागे, एत्थ णं सहसंबवणे नामं उज्जाणे होत्था - सव्वोउय- पुप्फ- फलसमिद्धे रम्मे णंदणवण-सन्निभप्पगासे सुहसीतलच्छाए मणोरमे सादुप्फले अकटए, पासादीए दरिसणिज्जे अभिख्ये पडिरूवे ॥
५८. तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे सिवे नाम राया होत्था - महयाहिमवंत महंत मलय मंदर - महिंदसारे- वण्णओ। तस्स णं सिवस्स रण्णो धारिणी नामं देवी होत्था - सुकुमाल - पाणिपायावण्णओ । तस्स णं सिवस्स रण्णो धारिणीए अत्तए सिवभद्दे नामं कुमारे होत्था - सुकुमालपाणिपाए, जहा सूरियकंते जाव रज्जं च रटुं च बलं च वाहणं च कोसं च कोट्टारं च पुरं च अंतेउरं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे- पच्चुवेक्ख माणे विहरइ ॥
५९. तए णं तस्स सिवस्स रण्णा अण्णया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि रज्जधुरं चिंतेमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्प-ज्जित्था - अत्थिता मे पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं
नवमो उद्देसो : नौवां उद्देशक
संस्कृत छाया
शिवराजर्षि-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरः नामनगरमासीत्-वर्णकः । तस्य हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिस्ताद् उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे, अत्र सहस्राम्रवनं नाम उद्यानमासीत्, सर्वर्तुक-पुष्प फल- समृद्धं रम्यं नन्दनवनसन्निभप्रकाशं सुखशीतलच्छायं मनोरमं स्वादुफलम् अकण्टकं प्रासादीयं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपम् ।
तत्र हस्तिनापुरे नगरे शिवः नाम नृपः आसीत् महहिमवत्- महत्- मलय- मन्दरमहेन्द्रसारः -- वर्णकः । तस्य शिवस्य राज्ञः धारिणी नाम देवी आसीत् सुकुमाल - पाणिपादा- वर्णकः । तस्य शिवस्य राज्ञः पुत्रः धारिण्याः आत्मजः शिवभद्रः नाम कुमारः आसीत् सुकुमारपाणिपादः, यथा सूर्यकान्तः यावत् राज्यं च राष्ट्रं च बलं च वाहनं च कोषं च कोष्ठागारं च पुरं च अन्तःपुरं च स्वयमेव प्रत्युपेक्षमाणःप्रत्युपेक्षमाणः विहरति ।
ततः तस्य शिवस्य राज्ञः अन्यदा कदाचित् पूर्वरात्रापरात्रकालसमये राज्यधुरां चिन्तयतः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - अस्ति तावत् मे पुरा पुराणानां सुचीर्णानां सुपराक्रान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां कर्मणां कल्याणफल
हिन्दी अनुवाद
शिवराजर्षि पद
५७. उस काल उस समय में हस्तिनापुर नाम का नगर था-वर्णक । उस हस्तिनापुर नगर के बाहर उत्तर पूर्व दिशि भाग में सहस्राम्रवन नाम का उद्यान था - सर्व ऋतु में पुष्प, फल से समृद्ध रम्य, नन्दनवन के समान प्रकाशक, सुखद शीतल छाया वाला, मनोरम, स्वादिष्ट फल युक्त, कंटकरहित, द्रष्टा के चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, कमनीय और रमणीय ।
५८. उस हस्तिनापुर नगर में शिव नाम का राजा था वह महान हिमालय, महान मलय, मेरु और महेन्द्र की भांति - वर्णक । उस शिवराजा के धारिणी नाम की देवी थी - सुकुमाल हाथ पैर वाली वर्णक । उस शिवराजा का पुत्र और धारिणी का आत्मज शिवभद्र नाम का कुमार थासुकुमार हाथ पैर वाला, सूर्यकांत (रायपसेणइयं ६७३-६७४) की भांति वक्तव्यता यावत् राज्य, राष्ट्र, बल वाहन, कोश, कोष्ठागार, पुर और अंतःपुर की स्वयं प्रत्युप्रेक्षणा ( निरीक्षण) करता हुआ, प्रत्युप्रेक्षणा करता हुआ विहरण कर
रहा था।
५९. उस शिव राजा के एक बार किसी मध्यरात्रि में राज्यधुरा का चिन्तन करते हुए इस प्रकार का आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ - इस समय मेरे पूर्वकृत, पुरातन, सुआचरित, सुपराक्रांत, शुभ और क्रांत, शुभ कल्याणकारी
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भगवई
श. ११ : उ. ९ : सू. ५९
३९० कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसे, वृत्तिविशेषः, येनाहं हिरण्येन वर्धे, सुवर्णेन जेणाहं हिरण्णेणं बढामि, सुवण्णेणं वड्ड वर्धे, धनेन वर्धे, धान्येन वर्धे, पुत्रैः वर्धे, मि, धणेणं वड्डामि, धण्णेणं वड्डामि, पशुभिः वर्धे. राज्येन वर्धे, एवं राष्ट्रेण बलेन पुत्तेहिं बड्डामि, पसूहिं वड्ढामि, रज्जेणं वाहनेन कोषेण कोष्ठागारेण पुरेण अन्तःवहामि, एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं पुरेण वर्धे, विपुलधन-कनक-रत्न-मणिकोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वड्ड। मौक्तिक -शङ्ख-शिला-प्रवाल-रक्तरत्नमि, विपुलधण-कणग-रयण-मणि- सत्सारस्वापतेयेन अतीव-अतीव अभिमोत्तिय-संख-सिलप्पवाल-रत्तरयण वर्धे, तत् किम् अहं पुरा पुराणानां सुचीर्णानां संतसार-सावएज्जेण अतीव-अतीव सुपराकान्तानां शुभानां कल्याणानां कृतानां अभि-वड्वामि, तं किं णं अहं पुरा पोरा- कर्मणा एकान्तशः क्षयम् उपेक्षमाणः णाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं विहरामि। तत् यावत्-तावत् अहं हिरण्येन कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं एगंतसो वर्धे यावत् अतीव-अतीव अभिवर्धे यावत् मे खयं उवेहमाणे विहरामि? तं जाव ताव। सामन्तराजानोऽपि वशे वर्तन्ते, तावत् मे अहं हिरण्णेणं वड्डामि जाव अतीव- श्रेयः कल्यं प्रादुष्प्रभातायां रजन्यां यावत् अतीव अभिवड्ढामि जाव मे उत्थिते सूरे सहस्ररश्मौ दिनकरे तेजसा सामंतरायाणो वि वसे वटुंति, तावता मे ज्वलति सुबह लौही-लोहकटाह 'कइच्छयं' सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव ताम्रिकं तापसभाण्डकं घटयित्वा शिवभद्रं उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि कुमारं राज्ये स्थापयित्वा तत् सुबहु लौहीदिणयरे तेयसा जलंते सुबहुं लोहि- लोहकटाह-'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसलोहकडाह-कडच्छ्यं तंबियं तावसभंडगं भाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकुले वानप्रस्थाः घडावेत्ता सिवभई कुमारं रज्जे ठावेत्ता। तापसाः भवन्ति, (तद्यथा-होत्रियाः तं सुबहुं लोहि-लोहकडाह-कडच्छुयं पोतिकाः कोत्रिकाः यथा औपपातिके यावत् तंबियं तावसभंडगं गहाय जे इमे। आतापनाभिः पञ्चाग्नितापैः अङ्गारगंगाकुले वाणपत्था तावसा भवंति, (तं 'सोल्लियं' कन्दु सोल्लियं' काष्ठजहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जहा 'सोल्लियं' इव आत्मानं कुर्वाणाः ओववाइए जाव आयावणाहिं पंचग्गि- विहरन्ति) तत्र ये ते दिशाप्रोक्षिणः तापसाः तावेहिं इंगाल-सोल्लियं कंदुसोल्लियं तेषामन्तिकं मुण्डः भूत्वा दिशाप्रोक्षित- कट्ठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा तापसत्वेन प्रवजितुम्, प्रवजितोऽपि च सन् विहरंति)
इममेतद्रूपमभिग्रहम् अभिग्रहिष्यामितत्थ णं जे ते दिसापोक्खी तावसा तेसिं कल्पते मे यावज्जीवंषष्ठंषष्ठेन अनिक्षिसेन अंतियं मुंडे भवित्ता दिसा-पोक्खिय- दिशाचक्रवालेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू त्तावसत्ताए पव्वइत्तए, पव्वइते वि य णं प्रगृह्य-प्रगृह्य सूराभिमुखस्य आतापन- समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभि- भूम्याम आतापयतः विहर्तुम्, इति कृत्वा एवं गिण्हिस्सामि-कप्पइ मे जावज्जीवाए सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य कल्यं प्रादुष्प्रभातायां छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्क- रजन्यां यावत् उत्थिते सूरे सहस्ररश्मी वालेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड बाहाओ दिनकरे तेजसा ज्वलति सुबह लौहीपगिज्झिय-पगिन्झिय सूराभिमुहस्स लोहकटाह-'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसआयावणभूमीए आयावेमाणस्स भाण्डकं घटयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान् विहरित्तए, त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव कल्लं पाउप्प-भायाए रयणीए जाव भो ! देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुर नगरं साभ्यउट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि न्तरबायकम् आसिक्तसम्मार्जितोपलिप्तं दिणयरे तेयसा जलंते सुबहुं लोहीलोह- यावत् सुगन्धवरगन्धिकं गन्धवर्तिभूतं कडाह-कडच्छुयं तंबियं तावस-भंडगं । कुरुत च कारयत च, कृत्वा कारयित्वा च घडावेत्ता कोडुंबिय-पुरिसे सहावेइ, एनामाज्ञाप्तिका प्रत्यर्पयतः। ते अपि
कर्मों का कल्याणदायी फल मिल रहा है, जिससे मैं चांदी, सोना, धन, धान्य, पुत्र, पशु तथा राज्य से बढ़ रहा हूं। इसी प्रकार राष्ट्र, बल, वाहन. कोष, कोष्ठागार, पुर और अंतःपुर से बढ़ रहा हूं। विपुल वैभव धन, सोना, रत्न, मणि मोती, शंख, शिला, प्रवाल, लालरत्न (पद्म राग मणि) और श्रेष्ठ-सार-इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं, तो क्या मैं पूर्वकृत पुरातन सुआचरित, सुपरा-क्रान्त, शुभ और कल्याणकारी कर्मों का केवल क्षय करता हुआ विहरण कर रहा हूं ? इसलिए जब तक मैं चांदी से वृद्धि कर रहा हूं यावत् इन वैभवशाली द्रव्यों से अतीव-अतीव वृद्धि कर रहा हूं और जब तक सामंत राजा वश में रहते हैं तब तक मेरे लिए श्रेय है-दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत् सहस्र-रश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बहुत सारे तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड बनवा कर, कुमार शिवभद्र को राज्य में स्थापित कर, उन बहुत तवा, लोह-कडाह, कडछी, ताम्रपात्र आदि तापस-भंड को लेकर जो इस गंगा के किनारे वानप्रस्थ तापस रहते है (जैसे-अग्निहोत्रिक, वस्त्रधारी, भूमि पर सोने वाले जैसे औपपातिक में वक्तव्यता है यावत् पंचाग्नि तप के द्वारा अंगारों से पक्व, लोह की कड़ाही में पक्व, काष्ठ से पक्व, श्याम वर्ण की भांति अपने आपको बनाते हुए विहार कर रहे हैं।) उनमें जो दिशाप्रोक्षिक (दिशा का प्रक्षालन करने वाले) तापस हैं उनके पास मुंड होकर दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रव्रजित होकर मैं इस प्रकार का अभिग्रह स्वीकार करूंगा-मैं जीवन भर निरन्तर बेले-बेले (दो दिन के उपवास) द्वारा दिशाचक्रवाल तप की साधना करूंगा। मैं आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेता हुआ विहार करूंगा। ऐसी संप्रेक्षा करता है। संप्रेक्षा कर दूसरे दिन उषाकाल में पौ फटने पर यावत्
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भगवई
श. ११ : उ. ९ : सू. ५९-६१
सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो! तामाज्ञाप्तिका प्रत्यर्पयन्ति। देवाणुप्पिया! हत्थिणापुरं नगरं सभितरबाहिरियं आसिय-सम्मज्जिओवलितं जाव सुगंध-वरगंधगंधियं गंधवट्टीभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ते वि तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति॥
सहस्ररश्मि दिनकर सूर्य के उदित और तेज से देदीप्यमान होने पर बहुत सारे तवा, कडाह, कडली. ताम्र-पात्र आदि तापस-भंड बनवाकर. कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया। बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! हस्तिनापुर नगर के भीतर और बाहर पानी का छिडकाव करो, झाड़-बुहार जमीन की सफाई करो, गोबर की लिपाई करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध चूणों से सुगंधित गंधवर्ती तुल्य करो, कराओ। ऐसा कर और करवा कर इस आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
भाष्य
१. सूत्र ५९ शब्द विमर्श
होत्तिय-अग्निहोत्रिक। पोत्तिय-कापासिक वस्त्र पहनने वाले। कोत्तिय-भूमि पर सोने वाले। इंगालसोल्लिय-अंगार से पका हुआ। कंदुसोल्लिय-कंदु में पका हुआ।
कट्ठसोल्लिय-काष्ठ से पका हुआ।
दिशा चक्रवालतपः-कर्म का विशेषण है। इस तप के अनुष्ठान में चारों दिशाओं में जो अनुष्ठान किया जाता है, उसका वर्णन भगवती (११/६४-७०) में उपलब्ध है। वृत्तिकार ने दिशाचक्रवाल तपःकर्म की व्याख्या पारणा से संबंधित की है। पारणा के दिन एक-एक दिशा में होने वाले फल आदि का आहार किया जाता है। इसलिए वह तपःकर्म दिशा चक्रवाल तपःकर्म कहलाता है।'
६०. तए णं से सिवे राया दोच्चं पि ततः सः शिवः राजा द्विः अपि कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, शब्दयित्वा वयासी-खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! एवमवादीत्-क्षिप्रमेव भो! देवानुप्रियाः! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं शिवभद्रस्य कुमारस्य महार्थं महायँ महाहं महरिहं विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह। तए विपुलं राजाभिषेकम् उपस्थापयत। ततः ते णं ते कोडुबियपुरिसा तहेव उवट्ठवेंति॥ कौटुम्बिकपुरुषाः तथैव उपस्थापयन्ति।
६०. उस शिव राजा ने दूसरी बार कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! कुमार शिवभद्र के लिए शीघ्र ही महान अर्थ वाला, महान् मूल्य वाला, महान अर्हता वाला विपुल राज्याभिषेक उपस्थित करो। उन कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही राज्याभिषेक उपस्थित किया।
६१. तए णं से सिवे राया अणेगगण- ततः सः शिवः राजा अनेकगणनायक- नायग - दंडनायग - राईसर - तलवर- दण्डनायक-राजेश्वर-'तलवर'-माडम्बिक- माडंबिय-कोडुबिय • इब्भ - सेट्ठि- कौटु म्बिक - इभ्य-श्रेष्ठि -सेनापतिसेणावइ-सत्थवाह-दूय-संधिपाल-सद्धिं सार्थवाह-दूत-संधिपाल-सार्धं सम्परिवृतः संपरिखुडे सिवभई कुमारं सीहा- शिवभद्रं कुमार सिंहासनवरे पौरस्त्याभिमुखे सणवरंसि पुरत्थाभिमुह, निसियावेइ, निषादयति, निषाद्य अष्टशतेन सौवर्णिनिसियावेत्ता अट्ठप-एणं सोवण्णियाणं कानां कलशानां यावत् अष्टशतेन भौमेयानां कलसाणं जाव अट्ठएसणं भोमेज्जाणं कलशानां सर्वर्द्धया यावत् दुन्दुभि-निर्घोष. कलसाणं सव्विड्डीए जाव दुंदुहि- णादिकरवेण महता महता राजाभिषेकेण णिग्घोसणा- इयरवेणं महया-महया अभिषिञ्चति, अभिषिच्य पक्ष्मलसुकुमा- रायाभिसेगेणं अभिसिंचइ, अभि- लेन सुरभिणा गन्धकाषायिणा गात्राणि
६१. अनेक गणनायक, दण्डनायक, राजे. युवराज, कोटवाल, मडम्बपति, कुटुम्बपति, इभ्य, सेठ, सेनापति. सार्थवाह, दूत, संधिपाल के साथ संपरिवृत होकर उस शिवराजा ने कुमार शिवभद्र को पूर्वाभिमुख कर, प्रवर सिंहासन पर बिठाया, बिठाकर एक सौ आठ स्वर्ण कलशों यावत एक सौ आठ भौमेय (मिट्टी के) कलशों के द्वारा संपूर्ण ऋद्धि यावत् दुन्दुभि के निर्घोष से नादित शब्द के द्वारा महान् राज्याभिषेक से अभिषिक्त
तत्तपः कर्म दिक्चकवालमुच्यते।
१. भ. वृ. ११.५४-कत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादिनी तान्याहत्य भुक्त. द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं
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श. ११ : उ. ९ : सू. ६१,६२
भगवई सिंचित्ता पम्हल-सुकुमालाए सुरभीए मार्जति, मार्जयित्वा सरसेण गोशीर्ष- किया। अभिषिक्त कर रोएंदार सुकुमार गंधकासाईए गायाइं लूहेति, लूहेत्ता चन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पति एवं यथैव सुरभित गंध-वस्त्र से गात्र को पौंछा, सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं जमालेः अलंकारो तथैव यावत् कल्पसक्षक पौंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन का गात्र पर अणुलिंपति एवं जहेब जमालिस्स इव अलंकृत-विभूषितं करोति, कृत्वा अनुलेप किया, इस प्रकार जैसे जमालि अलंकारो तहेव जाव कप्परुक्खगं पिव करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त के अलंकारों की वक्तव्यता उसी प्रकार अलंकिय-विभूसियं करेइ, करेत्ता मस्तके अञ्जलिं कृत्वा शिवभद्रं कुमारं यावत् कल्पवृक्ष की भांति अलंकृतकरयलपरिग्गहियं दसनह सिरसा-वत्तं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा ताभिः विभूषित कर दिया। दोनों हथेलियों से मत्थए अंजलिं कट्ट सिवभई कुमारं इष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः निष्पन्न संपुट आकार वाली दस जएणं विजएण वद्धावेइ, वद्धावेत्ता ताहिं 'मणामाहिं' मनोभिरा- माभिः, हृदयगमनी- नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख इट्ठाहिं कंताहि पियाहिं मणुण्णाहिं याभिः वल्गुभिः जय-विजयमङ्गलशतैः घुमाकर कुमार शिवभद्र की 'जय हो मणामाहिं मणा-भिरामाहिं हियय- अनवरतम् अभिनन्दन्तः च अभिष्टुवन्तः विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। गमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजय- च एवमवादीत-जय-जय नन्दा ! जय-जय वर्धापित कर उन इष्ट, कांत, प्रिय, मंगलसएहिं अण-वरयं अभिणंदंतो य भद्रा ! भद्रं ते, अजितं जय जितं पालय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम, हृदय का अभित्थुणतो य एवं वयासी-जय-जय जितमध्ये वस। इन्द्रः इव देवानां, चमर: इव स्पर्श करने वाली वाणी और जय-विजय नंदा! जय-जय भहा! भई ते, अजियं असुराणां, धरणः इव नागानां, चन्द्रः इव सूचक मंगल शब्दों के द्वारा अनवरत जिणाहि जियं पालयाहि, जियमज्झे । ताराणां, भरतः इव मनुष्याणां बहूनि वर्षाणि अभिनन्दन और अभिस्तवन करते हुए वसाहि। इंदो इव देवाणं, चमरो इव । बहूनि वर्षशतानि बहूनि वर्षसहस्राणि बहूनि । इस प्रकार बोले-हे नंद! समृद्धपुरुष ! असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव वर्षशतसहस्राणि अनघसमग्रः हृष्टतुष्टः तुम्हारी जय हो, जय हो। ताराणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाइं परमायुः पालय, इष्टजनसम्परिवृतः हे भद्रपुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। भद्र बहूई वाससयाई बहूई वाससहस्साई हस्तिनापुरस्य नगरस्य, अन्येषां च बहनां हो। अजित को जीतो, जित की पालना बहूई वाससयसहस्साई अणहस-मग्गो ग्राम-आकर-नगर-खेट-कर्बट-द्रोणमुख- करो, जीते हुए लोगों के मध्य निवास हट्ठतुट्ठो परमाउं पालयाहि, इट्ठजण- मडम्ब - पत्तन - आश्रम - निगम-सम्बाध- करो। देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, संपरिखुडे हत्थिणापुरस्स नगरस्स, सन्निवेशानाम् आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं नागों में धरणेन्द्र, तारागण में चन्द्र और अण्णेसिं च बहूणं गामा-गर-नगर- भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञा-ईश्वर-सेनापत्यं मनुष्यों में भरत की भांति अनेक वर्षों खेड-कव्वड - दोणमुह - मडंब - पट्टण- कारयन् पालयन् महत्-आहत-नाट्य-गीत- तक, सैकड़ों, हजारों लाखों वर्षों तक आसम-निगम - संवाह - सण्णिवेसाणं वादित-तन्त्री-तल-ताल-तुडिय' घन- परमपवित्र, हृष्ट-तुष्ट होकर परम आयुष्य आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं । मृदङ्ग-पटुप्रवादितरवेण विपुलानि भोग- का पालन करो। इष्टजनों से संपरिवृत महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं भोगानि भुजानः विहर इति कृत्वा जय जय होकर हस्तिनापुर नगर के अन्य अनेक कारेमाणे पालेमाणे महयाहय-नट्ट .. शब्द प्रयुनक्ति।
ग्राम. आकर, नगर. खेट, कर्बट. गीय- वाइय-तंती-तल - ताल - तुडिय
द्रोणमुख, मडण्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई
संभाग और सन्निवेश का आधिपत्य, भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि त्ति कट्ट
पौरपत्य, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, जयजयसई पउंजति॥
ऐश्वर्य, सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त विपुल्न भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहार करो, इस प्रकार जय जय शब्द का प्रयोग किया।
६२. तए णं से सिवभहे कुमारे राया जाते-महया हिमवंत-महंत-मलय-
ततः सः शिवभद्रः कुमारः राजा जातः- महतहिमवत्-महत् - मलय - मन्दर-महेन्द्र-
६२. वह कुमार शिवभद्र राजा हा गयामहान हिमालय, महान मत्नय, मेरु और
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भगवई
३९३
श. ११ : उ.९ : सू. ६२,६३
मंदर-महिंदसारे, वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ।।
सारः, वर्णकः यावत् राज्यं प्रशासयन् विहरति।
महेन्द्र की भांति-वर्णक यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा।
६३. तए णं से सिवे राया अण्णया कयाइ ततः सः शिवः राजा अन्यदा कदाचित् ६३. "उस शिवराजा ने किसी समय शोभन सोभणसि तिहि-करण-दिवस-मुहत्त- शोभने तिथि-करण-दिवस-मुहूर्त-नक्षत्रे तिथि, करण, दिवस, मुहूर्त, और नक्षत्र में नक्खत्तंसि विपुलं असण . पाण . विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य खाइम . साइमं उवक्खडावेति, उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्र-ज्ञाति- पकवाया। पकवाने के बाद मित्र, ज्ञाति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियम-सयण- निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं राज्ञः च कुटुम्बी, स्वजन संबंधी, परिजन. राजा संबंधि-परिजणं रायाणो य खत्तिए य क्षत्रियान् च आमन्त्रयन्ति, आमन्त्र्य ततः और क्षत्रियों को आमंत्रित किया। आमंतेति, आमंतेत्ता तओ पच्छा बहाए । पश्चात् स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुक- आमंत्रित करने के पश्चात् स्नान, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पाय- मङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि माङ्गल्यानि बलिकर्म (पूजा) कौतुक (तिलक) आदि च्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई। वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमहाया- इष्ट नमस्कार रूप मंगल और प्रायश्चित्त पवर परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकिय. भरणालङ्कृतशरीरः भोजनवेलायां भोजन- करके शुद्ध-प्रवेश्य (सभा में प्रवेशोचित) सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि मण्डपे सुखासन-वरगतः तेन मित्र-ज्ञाति- प्रवर मांगलिक वस्त्र पहनकर, अल्पभार सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइ-नियग - निजक - स्वजन - सम्बन्धि - परिजनेन और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर सयण . संबंधि-परिजणेणं राएहि य । राजभिः च क्षत्रियैः सार्धं विपुलम् अशन- को अलंकृत कर भोजन की वेला में खत्तिएहि सद्धिं विपुलं असण-पाण- पान-खाद्य-स्वाद्यम् आस्वादयन् भोजन-मण्डप में सुखासन की मुद्रा में खाइम-साइमं आसा-देमाणे वीसा- विस्वादयन् परिभाजयन् परिभुजानः बैठा हुआ वह उन मित्र. ज्ञाति, कुटुम्बी, देमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरति।
स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा और विहरइ।
क्षत्रियों के साथ उस विपुल भोजन. पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ विशिष्ट स्वाद लेता हुआ. बांटता हुआ
और परिभोग करता हुआ रह रहा था। जिमियभुत्तुरागए वि य णं समाणे जिमितभुक्तोत्तरागत अपि सन् आचान्तः । उसने भोजन कर आचमन किया, आचमन आयते चोक्खे परमसुइब्भूए तं मित्त- चोक्षः परमशूचीभूतः तं मित्र-ज्ञाति- कर वह स्वच्छ और परम शुचीभूत बैठने नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं विपुलेन के स्थान पर आया। वहां उसने उन मित्र, विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-गन्ध- ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सक्कारेइ माल्यालङ्कारेण च सत्करोति सम्मानयति, संबंधियों और परिजनों को विपुल. सम्मोणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तं। सत्कृत्य सम्मान्य च तं मित्र-ज्ञाति-निजक- भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से मित्त-नाइ-नियग - सयण . संबंधि- स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं राज्ञः च तथा वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, माला और परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभई । क्षत्रियान च शिवभद्रं च राजानम् अलंकारों से सत्कृत-सम्मानित किया। च रायाणं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सुबहु आपृच्छति, आपृच्छ्य सुबहु लौही- सत्कृत-सम्मानित कर उन मित्रों. लोही-लोहकडाह-कडच्छुयं तंबियं । लौहकटाह-'कडुच्छयं ताम्रिकं तापस- ज्ञातिजनों कुटुम्बियों, स्वजनों, संबंधियों, तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा भाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकूलकाः । परिजनों, राजाओं, क्षत्रियों और राजा वाणपत्था तावसा भवंति, तं चेव जाव वानप्रस्थाः तापसाः भवन्ति, तत् चैव शिवभद्र की अनुमति ली। अनुमति लेकर तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसा- यावत् तेषाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा वह बहुत सारे तवा. लोहकडाह. कड़छी. पोक्खियताव-सत्ताए पव्वइए, पव्वइए दिशाप्रोक्षिततापसत्वेन प्रव्रजितः, प्रव्रजि- ताम-पात्र आदि तापस भंड लेकर जो वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं तोऽपि सन् इममेतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्णाति- गंगा किनारे वानप्रस्थ तापस रहते थे, अभिगिण्हति-कप्पइ मे जावज्जीवाए कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठंषष्ठेन अनि- पूर्ववत यावत् उनके पास मुंड होकर छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसा- क्षिप्तेन दिशाचकवालेन तपः कर्मणा ऊर्ध्व- दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रवृजित चक्कवालेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड वाहाओ । बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य विहर्तुम्-इममेतद्रूपमभि- हुआ। प्रवृजित होकर उसने इस आकार पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहस्स ग्रहम् अभिगृह्य प्रथमं षष्ठक्षपणम् वाला यह अभिग्रह स्वीकार किया मैं आयावणभूमीए आयावेमाणस्स उपसम्पद्य विहरति।
जीवन भर निरन्तर बेले बेले (दो दो दिन विहरित्तए-अयमेयारूवं अभिग्गहं
के उपवास) द्वारा दिशा चक्रवाल तपःकर्म
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श. ११: उ.९ : सू. ६३,६४
भगवई
अभिगिण्हित्ता पढम छट्टक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥
की साधना करूंगा, मैं आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन लेता हुआ विहार करूंगा-इस आकार वाला अभिग्रह अभिगृहीत कर प्रथम बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६४. तए णं से सिवे रायरिसी पढम- ततः सः शिवः राजर्षि प्रथमषष्ठक्षपण- ६४. शिवराजर्षि प्रथम बेले के पारणे में छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावण- पारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, आतापन-भूमि से नीचे उतरा, उतर कर भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चेरुहित्ता प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र- नियत्थे' यत्रैव वल्कल वस्त्र पहन कर जहां अपना उटज वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य (पर्णशाला) था, वहां आया। वहां आकर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता _ 'किढिण'-'संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया। किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता पौरस्त्यां दिशां प्रोक्षति, पौरस्त्यायां ग्रहण कर पूर्व दिशा में जल छिड़का। जल पुरस्थिमं दिसं पोक्खेइ, पुरथिमाए दिशायां सोमः महाराजः प्रस्थाने प्रार्थितम् छिड़क कर कहा-पूर्व दिशा के लोकपाल दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्षतु शिवं राजर्षिम, अभिरक्षतु शिवं महाराज सोम प्रस्थान के लिए प्रस्थित अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं- राजषिम्, यानि च तत्र कन्दानि च मूलानि शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें, शिवराजर्षि अभिरक्खउ सिवं राय- रिसिं, जाणि य च त्वचः च पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि की अभिरक्षा करें। उस दिशा में जो कंद, तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य च बीजानि च हरितानि च तानि अनुजानातु मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य इति कृत्वा पौरस्त्यां दिशां प्रसरति, प्रसृत्य हैं, उनकी अनुज्ञा दें-यह कहकर पूर्व बीयाणि य हरियाणि य ताणि यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च दिशा में गया। जाकर जो वहां कंद यावत् अणुजाणउ त्ति कट्ट पुरत्थिमं दिसं तानि गृह्णाति, गृहीत्वा किढिण'- हरित थी उसे ग्रहण किया, ग्रहण कर पसरइ, पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि _ 'संकाइयगं' भरति, भृत्वा दर्भान् च कुशान् वंशमय-पात्र भरा, भर कर दर्भ, कुश, य जाब हरियाणि य ताई गेण्हइ, च समिधः च पत्रामोटं च गृह्णाति, गृहीत्वा समिधा (ईंधन) और पत्र चूर्ण ग्रहण गेण्हित्ता किढिणसंकाइयगं भरेइ, भरेत्ता । यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैवोपागच्छति, किया। ग्रहण कर जहां अपना उटज था दब्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं उपागम्य 'किढिण'-'संकाइयगं वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र और च गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए स्थापयति, स्थापयित्वा वेदीं वर्धयति, कावड़ को रखा। रख कर वेदी का तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वर्धयित्वा उपलेपनं सम्मार्जनं करोति, प्रमार्जन किया, प्रमार्जन कर उपलेपन किढिण-संकाइयगं ठवेइ, ठवेत्ता वेदिं कृत्वा दर्भकलशहस्तगतं यत्रैव गङ्गा महानदी और सम्मान किया। सम्मार्जन कर वड्ढेइ, वड्ढेत्ता उवलेवण संमज्जणं करेइ, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गङ्गा हाथ में दर्भ कलश लेकर जहां गंगा नदी करेत्ता दब्भकलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदीम् अवगाहते, अवगाह्य जलमज्जनं थी, वहां गया। वहां जाकर महानदी गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवाग- करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा । में अवगाहन किया। अवगाहन कर जल में च्छित्ता गंगं महानदिं ओगाहेइ, जलाभिषेकं करोति, कृत्वा आचान्तः चोक्षः मज्जन किया, देह शुद्धि की। देह-शुद्धि
ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता परमशुचीभूतः देवता-पितृ-कृतकार्यः दर्भ- कर जल-क्रीड़ा की, जल-क्रीड़ा कर जलकीडं करेइ, करेत्ता जलाभिसेयं कलशहस्तगतः गङ्गायाः महानद्याः जलाभिषेक किया, जलाभिषेक कर, जल करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव स्वकः उटजः का स्पर्श कर वह स्वच्छ और परम परमसुइभूए देवय-पिति-कयकज्जे तत्रैव उपागच्छति. उपागम्य दर्भः च कुशैः शुचीभूत (साफ-सुथरा) हो गया। देव दब्भकलसाहत्थगए गंगाओ महानदीओ च बालकाभिः च वेदी रचयति, रचयित्वा, पितरों का कृतकार्य जलांजलि अर्पित पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए शरकेन अरणिं मथ्नाति, मथित्वा अग्नि कर, दर्भ-कलश हाथ में लेकर महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि पातयति, पातयित्वा संधुक्षति, संधुक्ष्य गंगा से नीचे उतरा, उतरकर जहां अपना य कुसेहि य वालुयाएहि य वेदिं रएति, समित्काष्टानि प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य, अग्निम् उटज था वहां आया. वहां आकर दर्भ, रएता सरएणं अरणिं महेइ, महेत्ता उज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्य 'अग्नेः दक्षिणे कुश और बालुका वेदी की रचना की, अग्गि पाडेइ, पाडेत्ता अग्गि संधुक्केइ, पार्वे, सप्त अङ्गानि समादहेत, तद्यथा- रचना कर शरकण्डों से अरणि का मंथन संधुक्केत्ता समिहाकट्ठाई पक्खिवइ,
किया, मंथन कर अग्नि को उत्पन्न किया, पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ, उज्जा
उत्पन्न कर अग्नि को सुलगाया, सुलगा
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भगवई
लेत्ता " अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई
समाद, " (तं जहा
ठाणं,
कमंडलुं ।
तहप्पाणं,
अहे ताई समादहे ॥ १ ॥ ) महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुइ, हुणित्ता चरुं साहेइ, साहेत्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करेत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति ।
सकहं सिज्जाभंड
दंडदारुं
वक्कलं
६५. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्टक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥
आयावण
६६. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्टक्खमणपारणगंसि भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिr - संकाइयगं गिues, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेड, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ||
६९. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्टक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ||
६८. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता किढण संकाइयगं गिues, गिण्हित्ता पच्चत्थिमं दिसं पोक्खेइ, पच्चत्थिमाए
'सकहं' शय्याभाण्डं
३९५
वल्कलं स्थानं,
कमण्डलुम् । तथात्मानं,
दण्डदारू
समादहेत् ॥ १ ॥
अधः तानि मधुना च घृतेन च तन्दुलैः च अग्निं जुहोति, हुत्वा चरुं साधयति साधयित्वा, बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा अतिथि पूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः द्वितीयं षष्ठक्षपणम् उपसम्पद्य विहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः द्वितीये षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य 'किढिण' - संकाइयगं गृह्णाति, गृहीत्वा दक्षिणकां दिशां प्रोक्षति, दक्षिणायां दिशायां यमः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम् अभिरक्षतु शिवं राजर्षि, शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः तृतीयं षष्ठक्षपणम् उपसम्पद्य विहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः तृतीये षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य 'किढिण- संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा पाश्चात्यां दिशां प्रोक्षति, पाश्चात्यायां दिशायां वरुणः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम्
श. ११ : उ. ९ : सू. ६४-६८
कर उसमें समिधा काष्ट डाला, डाल कर अग्नि को प्रदीप्त किया, प्रदीप्त कर अग्नि के दक्षिण पार्श्व में सात अंगों को स्थापित किया, जैसे
अस्थि, वल्कल, ज्योति स्थान, शय्या, भाण्ड, कमण्डलु, दण्ड-दारू और स्वशरीर ।
मधु, घृत और चावल का अग्नि में हवन किया, हवन कर चरु - बलि पात्र में बलि योग्य द्रव्य को पकाया, पका कर वैश्रमण देव की पूजा की, अतिथियों--आगन्तुकों का पूजन किया। पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया।
६५. वह शिव राजर्षि दूसरे बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६६. वह शिवराजर्षि दूसरे बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, गहण कर दक्षिण दिशा में जल को छिड़का। जल छिड़ककर कहा- दक्षिण दिशा के लोकपाल महाराज यम प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें, शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया।
६७. वह शिव राजर्षि तीसरे बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६८. वह शिव राजर्षि तीसरे बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतरकर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां अया, वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर • पश्चिम दिशा में जल को छिड़का, जल
छिड़क कर कहा- पश्चिम दिशा के
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श. ११ : उ. ९ : सू. ६८-७१
दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खर सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ॥
६९. तए णं से सिवे रायरसी चउत्थं छट्ठक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥
७०. तए णं से सिवे रायरसी चउत्थे छट्ठक्खमणं पारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चेरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढण संकाइयगं गिves, गिण्हित्ता उत्तरदिसं पोक्खेइ, उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ॥
७१. तए णं तस्स सिवस्स रायरि-सिस्स छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय - पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभयाए पराइ उवसंतयाए पाइपयणुकोहमाण - मायालोभयाए मिउमद्दव - संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीययाए अण्णया कयाइ तयावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसणं ईहापूहगणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं नाणे समुप्पन्ने। से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुपनेणं पासति अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेणं परं न जाणइ, न पासइ ॥
३९६
अभिरक्षतु शिवं राजर्षि शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः चतुर्थं षष्ठक्षपणं उपसम्पद्य विहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः चतुर्थे षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति उपागम्य ‘किढिण’-‘संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा उत्तरदिशां प्रोक्षति, उत्तरायां दिशायां वैश्रमणः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम् अभिरक्षतु शिवं राजर्षि, शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिप्सेन दिशाचक्रवालेन तपः कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्ततया प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दवसम्पन्नतया, आलीनतया विनीततया अन्यदा कदाचित् तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोह मार्गणागवेषणां कुर्वतः विभङ्गः नाम ज्ञानं समुत्पन्नम् । सः तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति अस्मिन् लोके सप्त द्वीपान् सप्त समुद्रान् तस्मात् परं न जानाति, न पश्यति ।
१. सूत्र ७१
पात्र भेद के आधार पर अवधिज्ञान के दो रूप बनते हैंसम्यग्दृष्टि का अवधिज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंग ज्ञान कहलाता है। विकास की दृष्टि से दोनों में बहुत 'अंतर है। द्रष्टव्य भगवई ८ / १८६-१९१ ।
१. भ. वृ. ११ / ५९ - उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति ।
भाष्य
शब्द विमर्श:
भगवई
लोकपाल महाराज वरुण प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें. शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात स्वयं आहार किया।
६९. वह शिव राजर्षि चतुर्थ बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
७०. वह शिव राजर्षि चतुर्थ बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था वहां आया, वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर उत्तर दिशा में जल को छिडका, जल छिड़कर कहा- उत्तर दिशा के लोकपाल महाराज वैश्रमण प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिव राजर्षि की अभिरक्षा करें शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया।
७१. निरन्तर बेले बेले (दो-दो दिन का उपवास) दिशा चक्रवाल तप के द्वारा आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु- मार्दव संपन्नता, आत्म लीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए उस शिवराजर्षि के विभंग नामक ज्ञान
समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा उस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र को देखने लगा। उससे आगे न जानता है और न देखता है।
दिशा पोक्खिय-दिशा में जल का अर्घ्य चढ़ाकर फल पुष्प
आदि चुनने वाले।
किढिण- बांस से निर्मित तापस पात्र । संकाइयणं- कावड़ ।
वेदी - देव अर्चना स्थान |
२. भ. वृ. ११ / ६४ - सांकायिकं भारोद्वहनयंत्रम् |
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भगवई
७२. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे - समुप्पज्जित्था - अत्थि णं ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आयावण- भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहु लोही-लोह- कडाह- कडच्छ्रयं तंबियं तावस-भंडगं किढिण-संकाइयगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंड-निक्खेवं करेइ, करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुहमहापहपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेई - अत्थि णं देवाणु - प्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवाय समुद्दा ॥
७३. तए णं तस्स सिवस्स रायरि-सिस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म हत्थिणापुरे नगरे सिंघा डग-तिगचउक्क-चच्चर- चउम्मुह- महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्ण-स्स एवमाइक्खइ जाव परुवेs - एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सिं लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । से कहमेयं मन्ने एवं ?
७४. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया । धम्मो कहियो परिसा पडिगया ॥
३९७
ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च एवं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य सुबहु लौही - लोहकटाह- 'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसभाण्डक 'किढिण' - 'संकाइयगं' च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं यत्रैव तापसावसथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुखमहापथ- पथेषु बहुजनम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति- अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः
च।
ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर चतुर्मुख - महापथपथेषु बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति एवं खलु देवानुप्रिय ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः । अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः च समुद्राः च । तत् कथमेतद् मन्ये एवम् ?
मम
तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । धर्मः कथितः । प्रतिगता परिषद् ।
श. ११ : उ. ९ : सू. ७२-७४ ७२. उस शिव राजर्षि के इस आकार वाला आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं-इस प्रकार संप्रेक्षा की. संप्रेक्षा कर आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां आया, वहां आकर बहुत सारे तवा, लोह - कड़ाह, कड़छी, ताम्र पात्र, तापस- भाण्ड, वंश-मय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां तापस रहते थे वहां आया, वहां आकर भांड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजनों के सामने इस
प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करता है- देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं।
७३. उस शिव राजर्षि के पास इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं- देवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हैं- देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं, यह कैसे है ?
७४. उस काल और उस समय भगवान महावीर आए। परिषद ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई।
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श. ११ : उ. ९ : सू. ७५ ७७ ७५. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जहा बितिय सए नियंठुद्देसए जाव घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहु - जणसद्द निसामेइ, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ एवं खलु देवाणु - प्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ- अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवाय समुदाय से कहमेयं मन्ने एवं ?
७६. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अतियं एयमहं सोच्चा निसम्म जायस जाव समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासीएवं खलु भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भgure समाणे हत्थणापुरे नयरे उच्चनीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए 'अडमाणे बहुजणस निसामेमि - एवं खलु देवाप्पिया! सिवे रायरिसी एव माइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य ॥
७७. से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - जपणं गोयमा ! एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छछद्वेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय - पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावण- भूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइको-माणमायालोभयाए मिउमद्दव-संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीय
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तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यथा द्वितीयशते निर्ग्रन्थोदेशके यावत् गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय अन् बहुजनशब्दं निशाम्यति, बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति - एवं खलु देवानुप्रिया ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयतिअस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च । तत् कथमेतद् मन्ये एवम् ?
ततः भगवान् गौतमः बहुजनस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य जातश्रद्धः यावत् श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् एवं खलु भदन्त ! अहं भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् हस्तिनापुरे नगरे उच्च-नीच - मध्यमान कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्या अन् बहुजनशब्दं निशाम्यामि – एवं खलु देवानुप्रियाः ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च ।
तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम अयि श्रमणः भगवान् महावीर : भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत् यत् गौतम ! एवं खलु एतस्य शिवस्य राजर्षेः षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिप्तेन दिशाचक्रवालेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगह्य सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्तया प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दवसम्पन्नतया आलीनतया विनीततया अन्यदा कदाचित तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन
भगवई ७५. उस काल और उस समय भगवान महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इंद्रभूति नामक अनगार जैसे द्वितीय शतक में निर्ग्रथ उद्देशक की वक्तव्यता यावत् सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने, बहुजन
परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। यह कैसे है ?
७६. बहुजनों के पास इस अर्थ को 'सुनकर, अवधारण कर भगवान गौतम के मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! मैंने आपकी अनुज्ञा पाकर हस्तिनापुर नगर के उच्च नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनेदेवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैंदेवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं।
७७. भंते! वह इस प्रकार कैसे है ?
अयि गौतम ! श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहागौतम ! निरन्तर बेले बेले (दो दिन का उपवास) दिशा चक्रवाल तपःकर्म के द्वारा, आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशान्तता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव संपन्नता, आत्म- लीनता और विनीतता
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भगवई
याए अण्णया कयाइ तया-वरणिज्जाणं ईहापोहमार्गणगवेषणं कुर्वतः विभङ्गः नाम कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह- ज्ञानं समुत्पन्नम्। तत् चैव सर्वं भणितव्यं मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे यावत् भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा नाम नाणे समुप्पन्ने। तं चेव सव्वं हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्कभाणियव्वं जाव भंडनिक्खेवं करेइ, चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनम् करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग- एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति-अस्ति तिग - चउक्क • चच्चर-चउम्मुह- देवानुप्रियाः! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं महापह-पहेसु बहुजणस्स एव- समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त माइक्खइ जाव एवं परूवेइ-अत्थि णं द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे __ व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च। समुप्पन्ने एवं खलु अस्सिं लोए सत्त ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अन्तिके एतमर्थं दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकदीवा य समुद्दा य॥
त्रिक - चतुष्क- चत्वर-चतुर्मुख-महापथतए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स पथेषु बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म यावत् प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रियाः ! हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग- शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् चउक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह- प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः! मम पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु माइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं च, तत् मिथ्या। अहं पुनः गौतम! देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि एवं खलु समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सिं लोए सत्त जम्बू-द्वीपादिकाः द्वीपाः, लवणादिकाः दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना समुद्राः संस्थानतः एकविधिविधानाः, दीवा य समुद्दा य, तण्णं मिच्छा। अहं विस्तारतः अनेकविधिविधानाः एवं यथा पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव । जीवाभिगमे यावत् स्वयंभूरमणपर्यवसानाः पख्वेमि-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा, अस्मिन् तिर्यक्लोके असंख्येयाः लवणदीया समुद्दा संठाणओ द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!
श. ११ : उ. ९ : सू. ७७,७८ के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए उस शिव राजर्षि के विभंग नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ। पूर्ववत् सर्व वक्तव्य है। यावत भण्ड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर अनेक व्यक्तियों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करता है-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। उस शिव राजर्षि के पास यह अर्थ सुनकर अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर अनेक व्यक्ति इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रियो ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुन्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं-वह मिथ्या है। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-इस प्रकार जम्बूद्वीप आदि द्वीप, लवण आदि समुद्र संस्थान से एक विधि विधान-गोलवृत्त वाले हैं, विस्तार से अनेक विधिविधान क्रमशः द्विगुण द्विगुण विस्तार वाले हैं। इस प्रकार जैसे जीवाभिगम की वक्तव्यता है, यावत् आयुष्मन् श्रमण! इस तिर्यक् लोक में स्वयंभूरमण तक असंख्येय द्वीप-समुद्र प्रज्ञप्त हैं।
७८. अत्थि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाइं-सवण्णाई पि, अवण्णाई पि संगधाई पि अगंधाई पि, सरसाइं पि, अरसाइं पि सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति?
अस्ति भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे द्रव्याणि-- ७८. भंते ! जम्बूद्वीप द्वीप में द्रव्य-वर्ण सहित सवर्णानि अपि, अवर्णानि अपि, सगन्धानि भी हैं ? वर्ण रहित भी हैं ? गंध सहित भी अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि हैं? गंध रहित भी हैं ? रस सहित भी हैं ? अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि रस रहित भी हैं ? स्पर्श सहित भी हैं? अस्पर्शानि अपि, अन्योन्यबद्धानि स्पर्श रहित भी हैं? अन्योन्य बद्ध, अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बद्धस्पृष्ट और अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति ?
अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
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श. ११: उ.९: सू. ७८-८३
४००
भगवई
हता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
७९. अत्थि णं भंते! लवणसमुहे दव्वाईसवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई पि, सर-साई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? हंता अस्थि॥
अस्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे द्रव्याणि- सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि, अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति ? हन्त अस्ति।
७९. भंते ! लवण समुद्र में द्रव्य-वर्ण सहित
भी हैं, वर्ण रहित भी हैं ? गंध सहित भी हैं? गंध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं, स्पर्श सहित भी है, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बन्द्रस्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
८०. अत्थि णं भंते! धायइसंडे दीवे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई पि, सरसाई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? हंता अत्थि। एवं जाव
अस्ति भदन्त ! धातकीखण्डे द्वीपे द्रव्याणि सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि, अन्योन्यबन्द्रानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हन्त अस्ति। एवं यावत्
८०. भंते! धातकी खण्ड द्वीप में द्रव्य-वर्ण सहित भी हैं, वर्ण रहित भी हैं, गन्ध सहित भी हैं, गन्ध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं. स्पर्श सहित भी हैं, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बन्द्र, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बन्दस्पृष्ट
और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ? हां हैं। इस प्रकार यावत्
८१. अत्थि णं भंते! सयंभूरमणसमुद्दे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि, अगंधाई पि, सरसाई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबन्द्र-पुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति ? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! स्वयंभूरमणसमुद्रे द्रव्याणि- सवर्णानि अपि अवर्णानि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हन्त अस्ति।
८१. भंते! स्वयंभूरमण समुद्र में द्रव्य वर्ण सहित भी हैं, वर्ण रहित भी हैं, गन्ध सहित भी हैं, गन्ध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं, स्पर्श सहित भी हैं, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट अन्योन्य बन्दस्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
हां हैं।
८२. तए णं सा महतिमहालिया ततः सा महातिमहती महार्चा परिषद् ८२. वह विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् महच्चपरिसा समणस्स भगवओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमणं को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा गई। उसने श्रमण भगवान महावीर को वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव नमस्यित्वा यस्याः दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया॥ दिशि प्रतिगता।
कर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई।
८३. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग- ततः हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक- तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् माइक्खइ जाव परूवेइ जण्णं देवाणु- प्ररूपयति यत् देवानप्रियाः! शिवः राजर्षिः प्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति जाव परू-वेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं ममं अतिसेसे नाणदसणे समुप्पन्ने, एवं समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त
८३. हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत प्ररूपणा करते हैं देवानुप्रिय! शिव राजर्षि जो यह आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैंदेवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन
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भगवई
४०१
श. ११ : उ.९ : सू. ८३.८५
खलु अस्सिं लोए सत्त दीवा सत्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं समुद्दा, तेणं परं वोच्छिन्ना दीवा य व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च। तत् नो समुद्दा य। तं नो इणद्वे समढे, समणे अयमर्थः समर्थः, श्रमणः भगवान् महावीरः भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-एवं खलु परूवेइ-एवं खलु एयस्स सिवस्स एतस्य शिवस्य राजर्षेः षष्ठंषष्ठेन तत् चैव रायरिसिस्स छट्ठछटेणं तं चेव जाव। यावत् भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता हत्थिणापुरे हस्तिनापुरे नगरे शृंगाटक-त्रिक-चतुष्कनगरे सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर- चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनम् चउम्मुह-महापह-पहेसु बहुजणस्स एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति-अस्ति एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-अत्थि देवानुप्रियाः! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाण- समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त दसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सिं लोए । द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च। ततः वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य। तए णं तस्य शिवस्य राजर्षेः अन्तिकम् एतमर्थं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं श्रुत्वा निशम्य यावत् तस्मात् परं एयम8 सोच्चा निसम्म जाव तेण परं । व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च तत् वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तण्णं । मिथ्या, श्रमणः भगवान् महावीरः मिच्छा, समणे भगवं महावीरे ___ एवमाख्याति-एवं खलु जम्बूद्वीपादिकाः एवमाइक्खइ -एवं खलु जंबुद्दीवादीया द्वीपाः लवणादिकाः समुद्राः तत् चैव यावत् दीवा लवणीया समुद्दा तं चेव जाव असंख्येयाः द्वीप-समुद्राः प्रज्ञप्ताः असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता श्रमणायुष्मन् ! समणाउसो!
समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं-यह अर्थ संगत नहीं है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान गावत प्ररूपणा करते हैं-इस शिव राजर्षि के बेले बेले तप द्वारा शेष पूर्ववत यावत भाण्ड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राज-मार्गों और मार्गों पर बहुजनों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। उस शिवराजर्षि के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर यावत् उससे आगे द्वीप और समुद्र व्यच्छिन्न है-वह मिथ्या है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान करते हैं-आयुष्मान श्रमण! इस जंबूद्वीप आदि द्वीप, लवण आदि समुद्र पूर्ववत् यावत् असंख्येय द्वीप और समुद्र प्रज्ञप्त है।
८४. तए णं से सिवे रायरिसी बहु-जणस्स ततः सः शिवः राजर्षिः बहुजनस्य ८४. शिवराजर्षि बहुजनों के पास इस अर्थ
अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म संकिए अन्तिकम् एतमर्थ श्रुत्वा निशम्य शङ्कितः को सुनकर, अवधारण कर शंकित, कंखिए वितिगि-च्छिए भेदसमावन्ने कांक्षितः विचिकित्सितः भेदसमापन्नः विचिकित्सित, भेद समापन्न और कलुषकलुससमावन्ने जाए या वि होत्था। तए कलुष-समापन्नः जातः चापि आसीत्। ततः समापन्न हो गया। शंकित, कांक्षित, णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स तस्य शिवस्य राजर्षेः शङ्कितस्य कांक्षितस्य विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुष संकियस्स कंखियस्स वितिगि- विचिकित्सितस्य भेदसमापन्नस्य कलुष- समापन्न उस शिवराजर्षि के वह विभंग च्छियस्स भेदसमावन्नस्स कलुस- समापन्नस्य तत विभंगः ज्ञानं क्षिप्रमेव ज्ञान शीघ्र ही प्रतिपतित हो गया। मावन्नस्स से विभंगे नाणे खिप्पामेव परिपतितः। परिवडिए॥
८५. तए णं तस्स सिवस्स रायरि-सिस्स ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अयमेतद्रूपः ८५. शिव राजर्षि के इस आकार वाला अयमेयारवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषामणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं संकल्पः समुदपादि-एवं खलु श्रमणः त्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआखलु समणे भगवं महावीरे तित्थगरे भगवान् महावीरः तीर्थंकरः आदिकरः श्रमण भगवान महावीर तीर्थंकर, आदिकर आदिगरे जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आकाशगतेन चक्रेण यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत आगासगएणं चक्केणं जाव सहसंबवणे यावत् सहस्रामवने उद्याने यथाप्रतिरूपम् धर्मचक्र से शोभित यावत् सहस्राम्रवन उज्जाणे अहापडिरूवं ओग्गहं अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं उद्यान में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं । भावयन् विहरति, तत् महत्फलं खलु लेकर संयम और तप से अपने आपको भावेमाणे विहरइ, तं महप्फलं खलु तथारूपाणाम अर्हतां भगवतां नाम भावित करते हार रह रहे हैं। देवानुप्रिय!
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श. ११ : उ.९ : सू. ८५-८७
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भगवई
तहाख्वाणं अरहताणं भगवंताणं गोत्रस्यापि श्रवणं, किमङ्ग पुनः अभिगमननामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण । वंदन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन पर्युपासनम् ? अभिगमण - वंदण - नमसण - पुडि- एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य पुच्छण-पज्जु-वासणाए? एगस्स वि श्रवणं किमङ्ग पुनः विपुलस्य अर्थस्य आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स ग्रहणम् ? तत् गच्छामि श्रमणं भगवन्तं सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स महावीरं वन्दे यावत् पर्युपासे, एतत् नः अट्ठस्स गहणयाए? तं गच्छामि णं प्रेत्यभवे इहभवे च हिताय शुभाय क्षमाय समणं भगवं महावीरं वंदामि जाव निःश्रेयसाय आनुगामिकत्वाय भविष्यति पज्जुवासामि, एयं णे इहभवे य परभवे इति कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव य हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए तापसावसथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कट्ट एवं तापसावसथम् अनुप्रविशति अनुप्रविश्य संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव तावसावसहे सुबहु लौही-लोहकटाह-'कडच्छुयं ताम्रिक तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ताव- तापसभाण्डकं किढिण-संकाइयगं' च सावसह अणुप्पविसइ अणुप्पवि-सित्ता गृह्णाति गृहीत्वा तापसावसथात् प्रतिनिष्सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडच्छुयं तंबियं क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य प्रतिपतितविभङ्गः तावसभंडगं किढिण संकाइयगं च । हस्तिनापुर नगरं मध्यमध्येन निर्गच्छति, गेण्हइ, गेण्हित्ता तावसावसहाओ पडि- निर्गत्य यचैव सहस्राम्रवनम् उद्यानम् यत्रैव निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता पडि- श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव उपागवडियविन्भंगे हत्थिणापुर नगरं च्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं महावीर मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्ग- त्रिः वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा च्छित्ता जेणेव सहसंबवणेउज्जाणे, नात्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव अभिमुखः विनयेन कृत-प्राञ्जलिः उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं पर्युपास्ते। महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिकडे पज्जुवासइ॥
ऐसे अर्हत भगवानों के नाम गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार. प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या ? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ ग्रहण का कहना ही क्या ? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर की वंदना करूं यावत् पर्युपासना करूं । यह मेरे इस भव और पर भव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा-इस प्रकार संप्रेक्षा करता है, संप्रेक्षा कर जहां तापस गृह था, वहां आया, वहां आकर, तापसगृह में अनुप्रवेश करता है, अनुप्रवेश कर बहुत सारे तवा, लोह-कडाह, कड़छी, ताम्रपात्र, तापस-भाण्ड, वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर तापसआवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर विभंग ज्ञान से प्रतिपतित वह हस्तिनापुर नगर के बीचोंबीच निर्गमन करता है, निर्गमन कर जहां सहस्राम्रवन उद्यान है, जहां भगवान महावीर हैं, वहां आया, वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करता है।
८६. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवस्स ततः श्रमणः भगवान् महावीरः शिवस्य रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए राजर्षेः तस्यां च महामहात्यां परिषदि धर्म परिसाए धम्म परिकहेइ जाव आणाए परिकथयति यावत् आज्ञायाः आराधकः आराहए भवइ॥
भवति।
८६. श्रमण भगवान महावीर शिवराजर्षि को उस विशालतम धर्म परिषद् में धर्म कहते हैं यावत् आज्ञा की आराधना होती है।
८७. तए णं से सिवे रायरिसी समणस्स ततः सः शिवः राजर्षिः श्रमणस्य भगवतः ८७. शिवराजर्षि भगवान महावीर के पास , भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य यथा धर्म को सुनकर. अवधारण कर स्कंदक सोच्चा निसम्म जहा खंदओ जाव स्कन्दकः यावत् उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे की भांति यावत् उत्तर पूर्व दिशा में जाता उत्तरपुरत्थिमं दिसी-भागं अवक्कमइ, अपक्रामति, अपक्रम्य लौही-लोहकटाह- है, जाकर तवा, लोह-कटाह, कड़छी, अवक्कमित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाह- 'कडच्छुयं' तामिकं तापसभाण्डकं 'किढिण- ताम्र-पात्र, तापस- भाण्ड, वंशमय-पात्र कडच्छुयं तंबियं तावसभंडगं किढिण- संकाइयगं' च एकान्ते एडयति, एडयित्वा और कावड़ को एकांत में डाल देता है, संकाइयगं च एगते एडेइ, एडेत्ता सयमेव स्वयमेव पञ्चमुष्टिकं लोचं करोति, कृत्वा डालकर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच करता पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता समणं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण- है, लोच कर श्रमण भगवान महावीर को
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भगवई
भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं जहेव उसभदत्तो तव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेव सव्वं जाव सव्वदुक्खप्पहीणे ।।
८८. भंतेति ! भगवं गोयमे ! समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि संघयणे सिज्झति ?
संघयणे
गोयमा ! वइरोसभणाराय सिज्झति, एवं जहेव ओववाइए तहेव । संघयणं संठाणं, उच्चत्तं आउयं च परिवसणा । एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्वा जाव
अव्वाबाहं सोक्खं,
अति सासयं सिद्धा ॥
८९. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
४०३
प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते, नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवं यथैव ऋषभदत्तः तथैव प्रव्रजितः तथैव एकादश अङ्गानि अधीते, तथैव सर्वं यावत् सर्वदुःखप्रहीणः ।
भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीद् - जीवाः भदन्त ! सिध्यन्तः कतरे संघयणे सिध्यन्ति ?
गौतम ! वज्रऋषभनाराचसंघवणे सिध्यन्ति, एवं यथैव औपपातिके तथैव ।
संघयणं संस्थानं
उच्चत्वम्, आयुष्यकं च परिवसना । एवं सिद्धिकण्डिका निरवशेषा भणितव्या यावत्
अव्याबाधं सौख्यं, अनुभवन्ति शाश्वतं सिद्धाः ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति ।
श. ११ : उ. ९ : सू. ८७-८९ दांयी ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा करता है, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार करता है वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त प्रव्रजित हुआ वैसे ही शिवराजर्षि प्रव्रजित हो गया। उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उसी प्रकार सर्व यावत् सर्व दुःखों को क्षीण करने वाला हो जाता है।
८८. भंते ! भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को इस संबोधन से संबोधित कर वंदन नमस्कार किया, वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते हैं ?
गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। इस प्रकार जैसे औपपातिक की वक्तव्यता है वैसे ही संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन। इस प्रकार सिद्धिगंडिका (औ. सू. १८५१९५) तक निरवशेष वक्तव्य है यावत् सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।
८९. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही है ।
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मूल
खेत्तलोय-पदं
९०. रायगिहे जाव एवं वयासी- कतिविहे णं भंते! लोए पण्णत्ते ?
गोयमा ! चउव्विहे लोए पण्णत्ते, तं जहा - दव्वलोए, खेत्तलोए, काल- लोए, भावलोए ॥
दसमो उद्देसो : दसवां उद्देशक
१. वाद्य यंत्र पृ. २६-२७।
संस्कृत छाया
क्षेत्रलोक-पदम्
राजगृहः यावत् एवमवादीत्क - कतिविधः भदन्त ! लोकः प्रज्ञप्तः ?
१. सूत्र - ९०
लोक तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक, तिर्यक् लोक और उर्ध्व लोक ।
गौतम ! चतुर्विधः लोकः प्रज्ञप्तः, तद्यथाद्रव्यलोकः, क्षेत्रलोकः, काललोकः,
भावलोकः ।
लोक का प्रमाण चौदह रज्जु है । अधोलोक का प्रमाण कुछ अधिक सात रज्जु है। तिर्यक् लोक का प्रमाण अठारह सौ योजन है। ऊर्ध्व लोक का प्रमाण कुछ न्यून सप्त रज्जु है।
अधोलोक तप्र के संस्थान वाला है।
झल्लरी
भाष्य
मध्यलोक झल्लरी संस्थान वाला है। ऊर्ध्वलोक ऊर्ध्वमुख वाले मृदंग के समान है।
झल्लरी- वाद्य यंत्र में झल्लरी की संरचना का विशद वर्णन उपलब्ध है - तश्तरी को बीच में से थोड़ा उभार देने पर झांझ व मतीरे बन जाते हैं। आकार व धातु की भिन्नता के आधार पर
हिन्दी व्याख्या
क्षेत्रलोक- पद
९०. राजगृह नगर यावत् गौतम ने इस प्रकार कहा- भंते! लोक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम! लोक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है. जैसे- द्रव्यलोक, क्षेत्रलोक, काललोक, भावलोक ।
उनकी अनगिनत किस्में हैं। पांच सेंटीमीटर व्यास के मजीरा या जाल्रा से लेकर तीस से भी अधिक सेंटीमीटर व्यास वाले आसाम के बौरताल तक इनकी सभी किस्में कांसे या पीतल की बनी होती हैं। लगभग समतल प्लेट से लेकर गहरी घंटी की आवृत्तियों तक इन वाद्यों के बीच का उभार भी भिन्न-भिन्न मात्राओं में पाया जाता है। इन सभी किस्मों के नाम भी भिन्न-भिन्न हैं। सामान्यतः छोटे आकार वाली किस्मों को जाल्स, झल्लरी, करताल, ताली, तालम, एलन्ताल, कुम्पित्तालम और अपेक्षाकृत बृहदाकर किस्मों को झांझ, झल्लरी बृहत्तालम् ब्रह्मतालम, बौरताल तथा कुछ अन्य नामों से पुकारा जाता है। '
मृदंग - यह दो मुखवाला अनवद्ध वाद्य है। यह लगभग साठ सेंटीमीटर लंबा होता है। यह बीच से फूला होता है, इसका दायां मुख बाएं मुख की अपेक्षा कुछ छोटा होता है। बायां मुख, जिसे टोपी कहा जाता है, दो पर्तों वाला और अपेक्षाकृत कम जटिल होता है। बाहरी पर्त चमड़े का एक छल्ला होती है और इसके किनारे एक छल्ले से जुड़े होते हैं जिन्हें पिन्नल कहा जाता है। इस पर्व में अन्दर की ओर एक गोल झिल्ली होती है जो बाहरी पर्त के अनुपात में होती है। यह पूरी रचना बायें मुख पर लगी होती है। दाएं मुख में तीन पर्ते होती हैं। दो पर्तों के मध्य में तीसरी पर्त खींच कर लगायी जाती है और दोनों पत्तों के किनारों से चिपका दी जाती है। इस जटिल संरचना जिसे तमिल में वालन तलई कहते हैं, दाएं मुख पर मढ़ दी जाती है। बायीं ओर का मुख टोपी और दायीं ओर का वालन चमड़े की डोरियों से कस कर बांध दिए जाते हैं, जो पिन्नल अथवा छेदों से निकलते और अंदर आते हैं। दाएं मुख पर काले रंग का मिश्रण स्थायी तौर पर चिपका दिया जाता है दूसरी ओर टोपी
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भगवई
९१. खेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहाअहेलोयखेत्तलोए तिरियलोयखेत्त-लोए, उड्डलोयखेत्तलोए ॥
मृदंग
९२. अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहारयणप्पभापुढवि अहेलोयखेत्तलोए जाव असत्तमापुढवि अहेलोयखेत्तलोए ।।
९३. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! कतिविहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! असंखेज्जविहे पण्णत्ते, तं जहा - जंबुद्दीवे दीवे तिरियलोयखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्देतिरियलोयखेत्तलोए ॥
९४. उड्डलोयखेत्तलोए णं भंते! कति विहे पण्णत्ते ?
गोयमा ! पन्नरसविहे पण्णत्ते, तं जहासोहम्मकप्पउडलोयखेत्तलोए ईसाणसकुमार - माहिंद बंभलोय लंतयमहासुक्क सहस्सार आणय पाणयआरण- अच्चुयकप्पउडलोय-खेत्तलोए, गेवेज्जविमाणउडलोयखेत्तलोए, अणुत्तरविमाणउड्ढलोयखेत्तलाए, ईसिपब्भारपुढविउडलोयखेत्तलोए ।
९५. अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा! तप्पागारसंठिए पण्णत्ते ।
१. वाद्य यंत्र प. ४३-४४।
४०५
श. ११ : उ. १० : सू. ९१-९५
एक सादा चमड़ा होता है, जिस पर वादन से पहले तुरना आटे की लोई मध्य भाग में लगा दी जाती है, जिसे वादन के उपरान्त हटा दिया जाता है। लकड़ी के टुकड़े और पत्थर से दाएं पिन्नल को ठोक बजाकर वाघ को मिलाया जाता हैं।
तिलोयपण्णत्ति के अनुसार ऊर्ध्वलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन के सदृश है, मध्यलोक का आकार खड़े किए हुए आधे मृदंग के ऊर्ध्वभाग के समान है, ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े हुए मृदंग के सदृश है। *
क्षेत्रलोकः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाअधोलोक क्षेत्रलोकः, तिर्यग्लोक क्षेत्रलोकः, ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकः ।
अधोलोक क्षेत्रलोकः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
गौतम! सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथारत्नप्रभापृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोकः यावत् अधः सप्तमी पृथ्वी अधोलोकक्षेत्रलोकः ।
तिर्यगुलोक क्षेत्रलोकः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! असंख्येयविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथाजम्बूद्वीपे द्वीपे तिर्यग्लो क्षेत्रलोकः यावत् स्वयम्भूरमणसमुद्रः तिर्यग्लोकक्षेत्रलोकः ।
ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकः भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञसः ?
गौतम ! पञ्चदशविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथासौधर्मकल्पोर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः ईशानसनत्कुमार- माहेन्द्र ब्रह्मलोक -लान्तकमहाशुक्र - सहस्रार आनत प्राणत आरणअच्युतकल्पोर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः ग्रैवेयकविमानोर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः अनुत्तरविमानोर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः, ईषत्प्राग्भारपृथ्वीऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः ।
अधोलोक क्षेत्रलोकः भदन्तः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! तप्राकारसंस्थितः प्रज्ञप्तः ।
९१. भंते! क्षेत्रलोक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! तीन प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेअधोलोक क्षेत्रलोक, तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक, ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक ।
९२. भंते! अधोलोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम! सात प्रकर का प्रज्ञप्त है, जैसेरत्नप्रभा पृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक यावत् अधः ससमा पृथ्वी अधोलोक क्षेत्रलोक।
९३. भंते! तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम! असंख्येय प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- जम्बूद्वीप द्वीप तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक यावत् स्वयंभूरमणसमुद्र तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक।
९४. भंते! ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है ?
गौतम! पंद्रह प्रकार का प्रज्ञप्त हैं, जैसेसौधर्मकल्प ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युतकल्प ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक, ग्रैवेयक विमान ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक, अनुत्तर विमान ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक, ईषत् प्राग्भारपृथ्वी ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक ।
९५. भंते! अधोलोक क्षेत्रलोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ?
गौतम! डोंगी (छोटी नौका) संस्थान वाला प्रज्ञप्त है।
२. तिलोय पण्णत्ति / १३७-१३८।
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श. ११ : उ. १० : सू. ९६-९९
९६. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किंसठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते ॥
९७. उड्डलोयखेत्तलोए णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! उमुइंगाकारसंठिए पण्णत्ते ॥
लोयसंठाण-पदं
९८. लोए णं भंते! किंसंठिए पण्णत्ते ?
गोयमा ! सुपइट्टगसंठिए पण्णत्ते, तं जहा - हेट्ठा विच्छिणे, मज्झे संखित्ते, उप्पि विसाले; अहे पलि यंकसंठिए, मज्झे वरवरविग्ग-हिए, उप्प उद्धमुइंगाकारसंठिए ।
तंसि च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिण्णंसि जाव उप्पि उन्द्रमुइंगाकारसंठियंसि उप्पण्णनाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवे वि जाणइपासइ, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ मुच्चइ परिनिव्वाइसव्वु - दक्खाणंअंत करेइ ॥
९. सूत्र ९८
द्रष्टव्य ५/२५४-२५५ का भाष्य ।
अलोयसंठाण-पदं
९९. अलोए णं भंते! किंसठिए पण्णत्ते ?
गोमा ! झुसरगोलसंठिए पण्णत्ते ॥
४०६
तिर्यक्लोक क्षेत्रलोकः भदन्त ! किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?
गौतम! झल्लरिसंस्थितः प्रज्ञप्तः ।
ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोकः भदन्त ! किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः प्रज्ञप्तः ।
लोकसंस्थान-पदम् लोकः भदन्त ! किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?
गौतम! सुप्रतिष्ठकसंस्थितः प्रज्ञप्तः, तद् यथा - अधः विच्छिन्नः, मध्ये संक्षिप्तः, उपरि विशालः, अधः पर्यंकसंस्थितः, मध्ये वरवज्रवैग्रहिकः उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थितः ।
तस्मिन् च शाश्वते लोके अधः विच्छिन्ने यावत् उपरि ऊर्ध्वमृदङ्गाकारसंस्थि उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः अर्हतु जिनः केवली जीवान् अपि जानाति पश्यति, अजीवान् अपि जानाति पश्यति, ततः पश्चात् सिध्यति 'बुज्झइ' मुच्यते परिनिर्वाति सर्वदुःखानाम् अन्तं करोति ।
भाष्य
अलोकसंस्थान -पदम् अलोकः भदन्त ! किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ?
गौतम ! शुषिरगोलसंस्थितः प्रज्ञप्तः ?
भाष्य
१. सूत्र ९९
अलोक अंतः शुषिर गोलक आकार वाला है। श्वेतांबर परंपरा के अनुसार मेरु पर्वत जंबूद्वीप के मध्य में स्थित है। वह एक हजार योजन पृथ्वीतल से नीचे एवं निन्यानवें हजार योजन पृथ्वीतल से ऊपर है। मेरुपर्वत के सौ योजन का भाग अधोलोक १. सू. १/१०-११ एवं उसका टिप्पण
भगवई
९६. भंते! तिर्यकुलोक क्षेत्रलोक किस संस्थान वाला प्रज्ञम है ?
गौतम ! झल्लरी संस्थान वाला प्रज्ञप्त है।
९७. भंते! ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ?
गौतम! ऊर्ध्वमृदंगाकार संस्थान वाला प्रज्ञप्त है।
लोकसंस्थान- पद
९८. भंते! लोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ?
गौतम! सुप्रतिष्ठिक संस्थान वाला प्रज्ञप्त है, जैसे- निम्नभाग में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर विशाल है। वह निम्नभाग में पर्यंक के आकार वाला, मध्य में श्रेष्ठ वज्र के आकार वाला और ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाला है। उस शाश्वत निम्न भाग में विस्तीर्ण यावत ऊपर ऊर्ध्वमुख मृदंग के आकार वाले लोक में उत्पन्न ज्ञान दर्शन का धारक, अर्हत्, जिन, केवली जीवों को भी जानता देखता है, अजीवों को भी जानता देखता है, उसके पश्चात् वह सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अन्त करता है।
अलोकसंस्थान- पद
९९. भंते! अलोक किस संस्थान वाला प्रज्ञप्त है ?
गौतम ! शुषिरगोलक संस्थान वाला प्रज्ञप्त है।
में, अठारह सौ योजन तिर्यक्लोक में एवं शेष अठानवें हजार सौ (९८१००) योजन ऊर्ध्वलोक में है। इस प्रकार वह तीनों लोकों का स्पर्श करता है।
दिगंबर परंपरा के अनुसार मेरुपर्वत तिर्यक् लोक में अवस्थित है, तिर्यक् लोक की ऊंचाई एक लाख योजन है।
२. ति प १ / १४९-१६३।
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भगवई
४०७
श. ११ : उ. १० : सू. १००-१०२
लोकालोको जीवाजीव-मार्गणा-पदम् अधोलोकक्षेत्रलोकः भदन्त ! किं १. जीवाः २. जीवदेशाः ३. जीवप्रदेशाः ४. अजीवाः ५. अजीवदेशाः ६. अजीव-प्रदेशाः?
लोयालोए जीवाजीव-मग्गणा-पदं १००. अहेलोयखेत्तलोए णं भंते! किं १. जीवा २. जीवदेसा ३. जीव-पदेसा ४. अजीवा ५. अजीवदेसा ६. अजीवपदेसा? गोयमा! जीवा वि, जीवदेसा वि, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा वि, अजीवपदेसा वि।
लोक-अलोक जीव-अजीव मार्गणा-पद १००. 'भंते! अधोलोक क्षेत्रलोक क्या १.
जीव हैं २. जीव के देश हैं ३. जीव के प्रदेश हैं ४. अजीव हैं ५. अजीव के देश हैं ६. अजीव के प्रदेश हैं? गौतम ! जीव भी है, जीव के देश भी हैं, जीव के प्रदेश भी हैं। अजीव भी हैं, अजीव के देश भी हैं, अजीव के प्रदेश भी
गौतम! जीवा अपि, जीवदेशा अपि, जीवप्रदेशा अपि, अजीवा अपि, अजीवदेशा अपि, अजीवप्रदेशा अपि।
जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया ये जीवाः ते नियमात् एकेन्द्रियाः द्वीन्द्रियाः । तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया, वीन्द्रियाः चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः, अणिदिया।
अनिन्द्रियाः। जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव ये जीवदेशाः ते नियमात एकेन्द्रियदेशाः अणिंदियदेसा।
यावत् अनिन्द्रियदेशाः। ये जीवप्रदेशाः ते जे जीवपदेसा ते नियमा एगिदिय-पदेसा । नियमात् एकेन्द्रियप्रदेशाः द्वीन्द्रियप्रदेशाः बेइंदियपदेसा जाव अणिंदियपदेसा। यावत् अनिन्द्रियप्रदेशाः।
रसात
जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं ये अजीवाः ते द्विधा प्रज्ञसाः, तद्यथा-रूपि जहा-रूविअजीवा अरूवी अजीवा य। अजीवाः च, अरूपि अजीवाः च। जे रूविअजीवा ते चउब्विहा पण्णत्ता- ये रूपि अजीवाः ते चतुर्विधाः प्रज्ञसाः, खंधा, खंधदेसा, खंध- पदेसा, तद्यथा-स्कन्धाः, स्कन्धदेशाः, स्कन्धपरमाणुपोग्गला।
प्रदेशाः, परमाणुपुद्गलाः। जे अरूविअजीवा ते सत्तविहा पण्णत्ता, ये अरूपि अजीवाः ते सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, तं जहा-१. नोधम्मत्थिकाए धम्मत्थि- तद्यथा-१. नो धर्मास्तिकायः धर्मास्तिकायस्स देसे २. धम्मत्थिकायस्स कायस्य देशः २. धर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः पदेसा ३.नोअधम्मत्थिकाए अधम्मत्थि- ३. नो धर्मास्तिकायः अधर्मास्तिकायस्य कायस्स देसे ४. अधम्मत्थिकायस्स देशः ४. अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशा: ५. नो पदेसा ५.नोआगासत्थिकाए आगास- आकाशास्तिकायः आकाशास्तिकायस्य थिकायस्स देसे ६. आगास- देशः ६. आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः ७. त्थिकायस्स पदेसा ७.अद्धासमए॥ अध्वसमयः।
जो जीव हैं वे नियमतः एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय हैं। जो जीव के देश है वे नियमतः एकेन्द्रियदेश यावत् अनिन्द्रिय के देश हैं। जो जीव-प्रदेश हैं वे नियमतः एकेन्द्रियप्रदेश, द्वीन्द्रिय-प्रदेश यावत् अनिन्द्रियप्रदेश हैं। जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जैसे-रूपी अजीव, अरूपी अजीव। जो रूपी अजीव हैं वे चार प्रकार के प्रजप्त हैं, जैसे-स्कंध, स्कन्ध-देश, स्कन्धप्रदेश, परमाणु-पुद्गल। जो अरूपी- अजीव हैं, वे सात प्रकार के प्रज्ञप्त हैं जैसे-१. धर्मास्तिकाय नहीं है, धर्मास्तिकाय का देश है २. धर्मास्तिकाय का प्रदेश है ३. अधर्मास्तिकाय नहीं है, अधर्मास्तिकाय का देश है १. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है ५. आकाशास्तिकाय नहीं है, आकाशास्तिकाय का देश है ६. आकाशास्तिकाय का प्रदेश है। ७. अध्वा समय है।
१०१. तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते! किं तिर्यगलोकक्षेत्रलोकः भदन्त ! किं जीवाः? १०१. भंते ! तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक क्या जीव जीवा? जीवदेसा? जीवपदेसा? जीवदेशाः ? जीवप्रदेशाः।
हैं? जीव-देश हैं ? जीव-प्रदेश हैं? एवं चेव। एवं उड्डलोयखेत्तलोए वि, एवं चैव। एवं ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकः अपि, पूर्ववत वक्तव्यता, इतना विशेष है-अरूपी नवरं-अख्वी छब्बिहा, अद्धासमयो नवरम्-अरूपिणः षड्विधाः अद्धासमयः अजीव के छह प्रकार है, अध्वा समय नत्थि ॥ नास्ति।
वक्तव्य नहीं है।
१०२. लोए णं भते! किं जीवा? लोकः भदन्त ! किं जीवाः? जीवदेशाः? १०२. भंते! लोक क्या जीव है ? जीव-देश जीवदेसा? जीवपदेसा? जीवप्रदेशाः?
हैं? जीव-प्रदेश हैं? जहा बितियसए अत्थिउद्देसए लोयागासे, यथा द्वितीयशते अस्ति-उद्देशके द्वितीय शतक के अस्तिकाय-उद्देशक में नवरं-अरूवि अजीवा सत्तविहा लोकाकाशः, नवरम्-अरूपि अजीवाः लोकाकाश की भांति वक्तव्यता, इतना पण्णत्ता, तं जहा-धम्म- त्थिकाए सप्तविधा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः विशेष है-अरूपी अजीव सात प्रकार के नोधम्मत्थिकायस्स
देसे, नो धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकायस्य प्रज्ञात है, जैसे-१. धर्मास्तिकाय है, धर्मास्ति
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श. ११ : उ. १० : सू. १०२-१०४
४०८
भगवई
धम्मत्थिकायस्स पदेसा, नोआगा- प्रदेशाः, अधर्मास्तिकायः नो अधर्मास्तिसत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे, कायस्य देशः, अधर्मास्तिकायस्य प्रदेशाः, आगासत्थिकायस्स पदेसा, अद्धासमए, नो आकाशास्तिकायः आकाशास्तिकायस्य सेसं तं चेव॥
देशः, आकाशास्तिकायस्य प्रदेशाः, अन्द्रासमयः, शेषं तत चैव।
काय का देश नहीं है २. धर्मास्तिकाय का प्रदेश है ३. अधर्मास्तिकाय है. अधर्मास्तिकाय का देश नहीं है ४. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है ५. आकाशास्तिकाय नहीं है, आकाशास्तिकाय का देश है। ६. आकाशास्तिकाय का प्रदेश है 9. अध्या-समय है। शेष पूर्ववत्।
१०३. अलोए णं भंते! किं जीवा? अलोकः भदन्त! किं जीवा? जीवदेशाः? जीवदेसा? जीवपदेसा?
जीवप्रदेशाः? एवं जहा अत्थिकायउद्देसए अलोयागासे, एवं यथा अस्तिकायोद्देशके अलोकाकाशः, तहेव निरवसेसं जाव सव्वागासे तथैव निरवशेषं यावत् सर्वाकाशः अनन्तअणंतभागूणे॥
भागोनः।
१०३. भंते! अलोक क्या जीव है ? जीव-देश हैं? जीव-प्रदेश हैं? इस प्रकार जैसे अस्तिकाय उद्देशक की वक्तव्यता वैसे ही निरवशेष वक्तव्य है यावत् अनन्त भाग से न्यून परिपूर्ण आकाश है।
भाष्य १. सूत्र १००-१०३
द्रष्टव्य:२/१३८-१४० का भाष्य। १०४. अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते! अधोलोकक्षेत्रलोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् १०४. 'भंते! अधोलोक क्षेत्रलोक के एक एगम्मि आगासपदेसे किं १. जीवा २. आकाशप्रदेशे किं जीवाः २. जीवदेशाः ३. आकाश-प्रदेश में क्या १. जीव हैं? २. जीवदेसा ३. जीवपदेसा ४. अजी', जीवप्रदेशाः ४. अजीवाः ५. अजीवदेशाः जीव-देश हैं? ३. जीव-प्रदेश हैं? ४. अजीवदेसा ६. अजीवपदेसा? ६. अजीवप्रदेशाः?
अजीव हैं? ५. अजीव-देश है? ६.
अजीव प्रदेश है? गोयमा! नो जीवा, जीवदेसा वि, गौतम! नो जीवाः, जीवदेशाः अपि, जीव गौतम! जीव नहीं हैं, जीव-देश भी हैं, जीवपदेसा वि, अजीवा वि, अजीवदेसा प्रदेशाः अपि, अजीवाः अपि. अजीवदेशाः जीव-प्रदेश भी हैं, अजीव भी हैं, अजीववि, अजीवपदेसा वि। अपि, अजीवप्रदेशाः अपि।
देश भी हैं, अजीव-प्रदेश भी हैं। जे जीवदेसा ते नियम १. एगिं-दियदेसा ये जीवदेशाः ते नियमम् १.एकेन्द्रियदेशाः जो जीव देश हैं वे नियमतः १. एकेन्द्रिय २. अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स २. अथवा एकेन्द्रियदेशाः च द्वीन्द्रियस्य के देश है २. अथवा एकेन्द्रिय के देश है देसे, ३. अहवा एगिदियदेसा य । देशः ३. अथवा एकेन्द्रियदेशाः च और द्वीन्द्रिय का देश है ३. अथवा बेइंदियाण य देसा।
द्वीन्द्रियाणां च देशाः। एवं मध्यमविरहितः एकेन्द्रिय के देश हैं और द्वीन्द्रिय के देश एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अहवा यावत् अथवा एकेन्द्रियदेशाः च हैं। इस प्रकार मध्य विकल्प विरहित एगिदियदेसा य अणिदियाण य देसा। जे अनिन्द्रियाणां च देशाः। ये जीवप्रदेशाः ते यावत एकेन्द्रिय के देश हैं और अनिन्द्रिय जीवपदेसा ते नियम
१. नियमम् १. एकेन्द्रियप्रदेशाः २. अथवा के देश हैं। जो जीव प्रदेश, वे नियमतः १. एगिदियपदेसा २. अहवा एगिदियपदेसा एकेन्द्रियप्रदेशाः च द्वीन्द्रियस्य प्रदेशाः ३. एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं २. अथवा एकेन्द्रिय य बेइंदियस्स पदेसा, ३. अहवा अथवा एकेन्द्रियप्रदेशाः च द्वीन्द्रिययाणां च के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रिय के प्रदेश है ३. एगिदियपदेसा य बेइंदियाण य पदेसा प्रदेशाः, एवम् आदिमविरहितः यावत् अथवा एकेन्द्रिय के प्रदेश हैं और द्वीन्द्रिय एवं आइल्लविरहिओ जाव पचिंदिएस, पञ्चेन्द्रियेषु, अनिन्द्रियेषु त्रिकभङ्गः। के प्रदेश हैं। इस प्रकार प्रथम विकल्प अणिदिएसु तियभंगो।
विरहित यावत् पञ्चेन्द्रिय और अनिन्द्रिय
के तीन भंग वक्तव्य है। जे अजीवा ते दुविहा पण्णत्ता, तं ये अजीवाः ते विधा प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- जो अजीव हैं, वे दो प्रकार के प्रज्ञप्त हैं, जहा-रुवी अजीवा य, अरूवी अजीवा रूपिणः अजीवाः च, अरूपिणः अजीवाः जैसे-रूपी अजीव और अरूपी अजीव। य। रुवी तहेव। जे अरूवी अजीवा ते च। रूपिणः तथैव। ये अरूपिणः अजीवाः रूपी पूर्ववत् वक्तव्य है। जो अरूपी अर्जीव पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-नोधम्मत्थि- ते पञ्चविधाः प्रज्ञप्लाः, तद्यथा-नो हैं, वे पांच प्रकार के प्रज्ञप्त हैं जैसेकाए धम्मत्थि-कायस्स देसे, धम्मत्थि- धर्मास्तिकायः धर्मास्तिकायस्य देशः, धर्मास्तिकाय नहीं है, धर्मास्तिकाय का
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कायस्स पदेसे, नोअधम्मत्थिकाए धर्मास्तिकायस्य प्रदेशः, नो अधर्मास्तिअधम्मत्थिकायस्स देसे, अधम्मत्थि- कायः अधर्मास्तिकायस्य देशः, अधर्मास्तिकायस्स पदेसे, अद्धासमए।
कायस्य प्रदेशः, अद्धासमयः।
श. ११ : उ. १० : सू. १०४-१०८ देश है। धर्मास्तिकाय का प्रदेश है। अधर्मास्तिकाय नहीं है, अधर्मास्तिकाय का देश है। अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है। अध्वा समय है।
१०५. तिरियलोगखेत्तलोगस्स णं भंते! तिर्यकलोकक्षेत्रलोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् १०५. भंते! क्या तिर्यकलोक क्षेत्रलोक के एगम्मि आगासपदेसे किं जीवा? आकाशप्रदेशे किं जीवाः?
एक आकाश प्रदेश में जीव हैं ? एवं जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं यथा अधोलोकक्षेत्रलोकस्य तथैव एवम् इस प्रकार अधोलोक क्षेत्रलोक की एवं उद्दलोगखेत्तलोगस्स वि, नवरं- ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोकस्य अपि, नवरम् वक्तव्यता, इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक अद्धासमयो नत्थि! अरूवी चउब्विहा।। अद्धासमयः नास्ति। अरूपिणः चतुर्विधा। क्षेत्रलोक की वक्तव्यता. इतना विशेष
है-अध्वा समय वक्तव्य नहीं है। अरूपी के चार प्रकार हैं।
१०६. लोगस्स णं भंते! एगम्मि आगास- लोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् आकाश-प्रदेशे १०६. भंते! क्या लोक के एक आकाशपदेसे किं जीवा? किं जीवाः?
प्रदेश में जीव हैं? जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगम्मि यथा अधोलोकक्षेत्रलोकस्य एकस्मिन् । अधोलोक क्षेत्रलोक के एक आकाश-प्रदेश आगासपदेसे॥ आकाशप्रदेशे।
की भांति वक्तव्यता।
१०७. अलोगस्स णं भंते! एगम्मि अलोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् आकाश- आगासपदेसे-पुच्छा।
प्रदेशे-पृच्छा । गोयमा! नो जीवा, नो जीवदेसा, नो गौतम! नो जीवाः, नो जीवदेशाः, नो जीवप्पदेसा, नो अजीवा नो अजीवदेसा, जीवप्रदेशाः नो अजीवाः, नो अजीवदेशाः, नो अजीवप्पेदसा; एगे अजीवदव्वदेसे नो अजीवप्रदेशाः, एकः अजीवद्रव्यदेशः अगरुयलहुए अणंतेहिं अगरुय- अगुरुलघुकः अनन्तैः अगुरुलघुकगुणैः लहुयगुणेहिं संजुते सव्वागासस्स संयुक्तः सर्वाकाशस्य अनन्तभागोनः। अणंतभागूणे॥
१०७. भंते! अलोक के एक आकाश-प्रदेश में जीव हैं-पृच्छा। गौतम ! जीव नहीं है, जीव के देश नहीं हैं. जीव के प्रदेश नहीं हैं, अजीव नहीं हैं, अजीव के देश नहीं हैं. अजीव के प्रदेश नहीं है। एक अजीव द्रव्य का देश है, अगुरुलधु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है और सर्वाकाश का अनंत भाग
न्यून है।
भाष्य १. सूत्र १०४-१०७
द्रष्टव्य :१०/१-७का भाष्य। १०८. दव्वओ णं अहेलोगखेत्तलोए द्रव्यतः अधोलोकक्षेत्रलोके अनन्तानि १०८. अधोलोक क्षेत्रलोकमें द्रव्यतः अनन्त
अणंता जीवदव्वा, अणंता अजीव- जीवद्रव्याणि, अनन्तानि अजीवद्रव्याणि, जीव द्रव्य, अनन्त अजीव द्रव्य, अनन्त दव्वा, अणंता जीवाजीवदव्वा। एवं । अनन्तानि जीवाजीवद्रव्याणि। एवं जीव-अजीव द्रव्य हैं। इसी प्रकार तिरियलोयखेत्तलोए वि, एवं उड्ड- तिर्यगलोकक्षेत्रलोके अपि, एवम् ऊर्ध्व- तिर्यक्लोक क्षेत्रलोक में भी, इसी प्रकार लोयखेत्तलोए वि (एवं लोए वि?)। लोकक्षेत्रलोके अपि (एवं लोके अपि?)। ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में भी (इसी प्रकार दव्वओ णं अलोए नेवत्थि जीव-दव्वा, द्रव्यतः अलोके नैव सन्ति जीवद्रव्याः नैव लोक में भी) में जीव द्रव्य नहीं हैं, अर्जाव नेवत्थि अजीवदव्वा, नेवत्थि जीवा- सन्ति अजीवद्रव्याणि, नैव सन्ति द्रव्य नहीं हैं। जीव-अजीव द्रव्य नहीं हैं। जीवदव्वा, एगे अजीव-दव्वदेसे जीवाजीवद्रव्याणि, एकः अजीव-द्रव्यदेशः वह एक अजीव द्रव्य का देश है। अगरुयलहुए अणंतेहिं अगरुय- अगुरुलधुकः अनन्तैः अगुरु-लघुकगुणैः । अगुरुलधु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से लहयगुणेहिं संजुत्ते सव्वा-गासस्स संयुक्तः सर्वाकाशस्य अनन्तभागोनः । संयुक्त है और सर्वाकाश का अनन्त भाग अणंतभागूणे।
न्यून है। कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ कालतः अधोलोकक्षेत्रलोके न कदापि कालतः अधोलोक क्षेत्रलोक कभी नहीं नासि न कयाइ न भवइ, न कयाइ न नासीत् न कदापि न भवति, न कदापि न था, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, भविस्सइ-भविंसु य, भवइ य, भविष्यति-अभूत् च, भवति च. भविष्यति ऐसा नहीं है-वह था, है. और होगा-वह
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श. ११ : उ. १० : सू. १०८,१०९
४१० भविस्सइ य-धुवे नियए सासए अक्खए च-ध्रुवः नियतः शाश्वतः अक्षयः अव्ययः अव्वए अवट्ठिए निच्चे, एवं तिरिय- अवस्थितः नित्यः एवं तिर्यक्लोकक्षेत्रलोके लोयखेत्तलोए, एवं उड्डलोयखेत्तलोए, एवं ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोके, एवं लोके, एवं एवं लोए एवं अलोए।
अलोके। भावओ णं अहेलोयखेत्तलोए अणंता भावतः अधोलोकक्षेत्रलोके, अनन्ताः वर्णवण्णपज्जवा, अणंता गंधपज्जवा, पर्यवाः, अनन्ताः गन्धपर्यवाः, अनन्ताः अणंता रसपज्जवा, अणंता फास- रसपर्यवाः अनन्ताः स्पर्शपर्यवाः, अनन्ताः पज्जवा, अणंता संठाणपज्जवा, अणंता संस्थानपर्यवाः, अनन्ताः गुरुकलघुकगरुयलयपज्जवा, अणता अगरुय. पर्यवाः, अनन्ताः अगुरुकलघुकपर्यवाः, लहुयपज्जवा, एवं तिरियलोय. एवं तिर्यक्लोकक्षेत्रलोके, एवम् खेत्तलोए, एवं उडलोयखेत्तलोए, एवं ऊर्ध्वलोकक्षेत्र-लोके, एवं लोकेभावतः लोए। भावओ णं अलोए नेवत्थि अलोके नैव अस्ति वर्णपर्यवाः, नैव अस्ति वण्णपज्जवा, नेवत्थि गंधपज्जवा, गन्धपर्यवाः नैव अस्ति रसपर्यवाः, नैव नेवत्थि रसपज्जवा, नेवत्थि फास- अस्ति स्पर्शपर्यवाः नैव अस्ति पज्जवा, नेवत्थि संठाणपज्जवा, नेवत्थि संस्थानपर्यवाः, नैव अस्ति गरुयलयपज्जवा, एगे अजीवदव्वदेसे गुरुकलघुकपर्यवाः एकः अजीवद्रव्यदेशः अगरुयलहुए अणंतेहिं अगरुय- अगुरुलघुकः अनन्तैः अगुरुकलघुकगुणैः लहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासस्स संयुक्तः सर्वाकाशस्य अनन्तभागोनः। अणतभागूणे॥
ध्रुव नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित, नित्य है। इसी प्रकार तिर्यक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार अलोक में। भावतः अधोलोक क्षेत्रलोक में अनंत वर्णपर्यव, अनंत गंधपर्यव, अनंत रसपर्यव, अनंत स्पर्शपर्यव, अनंत संस्थानपर्यव, अनंत गुरुलघुपर्यव, अनंत अगुरुलघुपर्यव हैं। इसी प्रकार तिर्यकलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक में, इसी प्रकार लोक में। भावतः अलोक में वर्णपर्यव नहीं हैं, गंध पर्यव नहीं हैं. रस पर्यव नहीं है, स्पर्शपर्यव नहीं हैं, संस्थानपर्यव नहीं हैं, गुरुलघु पर्यव नहीं हैं। एक अजीव द्रव्य का देश है, अगुरुलघु है, अनन्त अगुरुलघु गुणों से संयुक्त है और सर्वाकाश का अनंत भाग न्यून है।
भाष्य
१. सूत्र १०८
द्रष्टव्य : २/४५.४८ का भाष्य।
लोक का परिमाण-पद १०९. भंते! लोक कितना बड़ा प्रज्ञाप्त है?
गौतम! यह जम्बूद्वीप द्वीप सब द्वीपसमुद्रों के मध्य अवस्थित है यावत् एक लाख योजन लम्बा चौड़ा है। उसकी परिधि तीन लाख, सोलह हजार. दो सौ सत्ताईस योजन, तीन कोस, अट्ठाईस धनुष साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है।
लोयस्स परिमाण-पदं
लोकस्य परिमाण-पदम् १०९. लोए णं भंते! केमहालए पण्णत्ते? लोकः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः ? गोयमा! अयण्णं जंबुद्दीवे दीवे सव्व- गौतम ! अयं जम्बूद्वीपः द्वीपः सर्वद्वीप- दीवसमुद्दाणं सव्वभंतराए जाव एगं समुद्राणां सर्वाभ्यान्तरकः यावत् एकं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, योजनशतसहस्रम् आयाम-विष्कम्भेण तिण्णि जोयणसयसहस्साई सोलस- त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि सहस्साई दोण्णि य सत्ता-वीसे द्वे च ससविंशतियोजनशते त्रयः च क्रोशाः जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च अष्टाविंशतिः च धनुशतं त्रयोदश अंगुलानि धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलगं च अर्धाङ्गुलकं च किंचित् विशेषाधिकः किंचिविसेसाहिए परिक्खेवणं। परिक्षेपण। तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्डि तस्मिन् काले तस्मिन् समये षट् देवाः या जाव महासोक्खा जंबुद्दीवे दीवे मंदरे महर्द्धिकाः यावत् महासौख्याः जम्बूद्वीपे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ समंता द्वीपे मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकां सर्वतः संपरिक्खिताणं चिट्ठज्जा। अहे णं समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठेयुः। अधः चत्तारि दिसा कुमारीओ महत्तरियाओ चतस्रः दिशाकुमार्यः महत्तरिकाः चतुरः चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स बलिपिण्डान् गृहीत्वा जम्बूद्वीपस्य द्वीपस्य दीवस्स चउसु वि दिसासु बहियाभि- चतसृषु अपि दिशासु बहिः अभिमुख्यः मुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे स्थित्वा तान् चतुरः बलिपिण्डान् ‘जमग- जमग-समगं बहियाभिमुहे पक्खि- समगं' बहिः अभिमुखे प्रक्षिपेयुः। प्रभुः
उस काल और उस समय में छह देव महान ऋद्धि वाले यावत् महासुख वाले जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत पर मंदर चूलिका को चारों ओर से घेरे हए खड़े हैं। नीचे चार दिशाकुमारी महत्तरिकाओं ने चार बलिपिण्डों को ग्रहण कर जंबूद्वीप की चारों दिशाओं में बाह्याभिमुख स्थित होकर उन चारों बलिपिण्डों को एक साथ बाहर फेंका।
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वेज्जा। पभू णं गोयमा! तओ एगमेगे देवे गौतम! ततः एकैकः देवः तान् चतुरः ते चत्तारि बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते बलिपिण्डान धरणितलमसम्प्राप्तान क्षिप्रमेव खिप्पामेव पडिसाहरित्तए। ते णं प्रतिसंहर्तुम। ते गौतम! देवाः तया गोयमा! देवा ताए उक्किट्ठाए तुरियाए उत्कृष्टया त्वरितया चपलया चण्डया चवलाए चंडाए जइणाए छेयाए सीहाए जयिन्या छेकया सिंहया शीघ्रया उद्भुतया सिग्घाए उल्छुयाए दिव्वाए देवगईए एगे दिव्यया देवगत्या एकः देवः पौरस्त्याभिदेवे पुरत्थाभि-मुहे पयाते एगे देवे मुखः प्रयातः, एकः देवः दक्षिणाभिमुखः दाहिणाभिमुहे पयाते, एगे देवे प्रयातः, एकः देवः पश्चात्याभिमुखः पच्चत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे प्रयातः, एकः देवः उत्तराभिमुखः प्रयातः, उत्तराभिमुहे पयाते, एगे देवे उड्डा-भिमुहे एकः देवः ऊर्ध्वाभिमुखः प्रयातः, एकः देवः पयाते एगे देवे अहोभिमुहे पयाते। अधोभिमुखः प्रयातः।
तेणं कालेणं तेणं समएणं वास- तस्मिन् काले तस्मिन् समये वर्षसहस्रासहस्साउए दारए पयाते। तए णं तस्स युष्कः दारकः प्रजातः। ततः तस्य दारकस्य दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति, अम्बपितरौ प्रहीणौ भवतः, नो चैव ते देवा नो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति। लोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। ततः तस्य तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे दारकस्य आयुष्कं प्रहीणो भवति, नो चैव ते भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं देवाः लोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। ततः तस्य संपाउणंति। तए णं तस्स दारगस्स दारकस्य अस्थिमज्जाः प्रहीणाः भवन्ति, अद्विमिंजा पहीणा भवंति, नो चेव णं ते नो चैव ते देवाः लोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। देवा लोगंतं संपाउणंति। तए णं तस्स ततः तस्य दारकस्य आसप्तमोऽपि कुलवंशः दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे पहीणे प्रहीणो भवति, नो चैव ते देवाः लोकान्तं भवति, नो चेव णं ते देवा लोगंतं सम्प्राप्नुवन्ति। ततः तस्य दारकस्य संपाउणंति। तए णं तस्स दारगस्स नामगोत्रमपि प्रहीणं भवति, नो चैव ते देवाः नामगोए वि पहीणे भवति, नो चेव णं ते लोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। देवा लोगंतं संपाउणंति। तेसि णं भंते! देवाणं किं गए बहुए? तेषां भदन्त ! देवानां किं गतः बहकः ? अगए बहुए?
अगतः बहुकः? गोयमा! गए बहुए, नो अगए बहुए, गौतम! गतः बहुकः, नो अगतः बहुकः। गयाओ से अगए असंक्खेज्जइभागे, गतात् तस्य अगतः असंख्येयभागः. अगयाओ से गए असंखेज्जगुणे। लोए अगतात् तस्य गतः असंख्येयगुणः। लोकः णं गोयमा! एमहालए पण्णत्ते॥ गौतम! इमन्महान् प्रज्ञसः।।
श. ११ : उ. १० : सू. १०९,११० गौतम! प्रत्येक देव उन चार बलिपिण्डों का भूमि के तल पर गिरने से पूर्व शीघ्र ही प्रतिसंहरण करने में समर्थ है। गौतम! उन देवों ने उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, जविनी, छेक, सैंही शीघ्र, उद्धृत और दिव्य देव गति से प्रस्थान किया। एक देव ने पूर्व दिशा की ओर प्रयाण किया, एक देव ने दक्षिण की ओर प्रयाण किया, एक देव ने पश्चिम की ओर प्रयाण किया, एक देव ने उत्तर की ओर प्रयाण किया। एक देव ने ऊर्ध्व-दिशा की ओर प्रयाण किया। एक देव ने अधोदिशा की ओर प्रयाण किया। उस काल और उस समय में एक हजार वर्ष की आयु वाले शिशु का जन्म हुआ। उस शिशु के माता-पिता प्रक्षीण-मृत्यु को प्राप्त हुए, फिर भी वे देव लोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु का आयुष्य भी प्रक्षीण हो गया, फिर भी वे देव लोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु की अस्थि मज्जा प्रक्षीण हो गई। फिर भी वे देव लोक का अंत नहीं पा सक। उस शिशु के सात कुल-वंश (पीढ़ियां) प्राण हो गए फिर भी वे देव लोक का अंत नहीं पा सके। उस शिशु का नाम गोत्र प्रक्षीण हो गया फिर भी वे देव लोक का अंत नहीं पा सके। भंते! उन देवों का गत-क्षेत्र बहत है? अगत-क्षेत्र बहुत है? गौतम! गत-क्षेत्र बहुत है, अगत-क्षेत्र बहुत नहीं है। गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र असंख्येय भाग है और अगत क्षेत्र से गतक्षेत्र असंख्येयगुणा है। गौतम! लोक इतना बड़ा प्रज्ञप्त है।
अलोयस्स परिमाण-पदं
अलोकस्य परिणाम-पदम् ११०. अलोएणं भंते ! केमहालए पण्णत्ते? अलोकः भदन्त ! कियन्महान् प्रज्ञप्तः?
गोयमा! अयण्णं समयखेत्ते पणया- गौतम! इदं समयक्षेत्रं पञ्चचत्वारिंशत् लीसं जोयणसयसहस्साई आयाम- योजनशतसहस्राणि आयामविष्कम्भेण, विक्खंभेणं, एगा जोयणकोडी बाया- एका योजनकोटिः द्विचत्वारिंशच्च शतसह- लीसं च सयसहस्साइं तीसं च सहस्साई स्राणि त्रिंशच्च सहस्राणि द्वयोः च एकोन- दोण्णि य अउणापन्न-जोयणसए किंचि पञ्चाशदयोजनशते किंचित विशेषाधिके
अलोक का परिमाण-पद ११०. भंते! अलोक कितना बड़ा प्रजप्स है ? गौतम! इस समयक्षेत्र में पैंतालीस लाख योजन लम्बा-चौड़ा है। उसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास (१.४२.३०,२४९) योजन से कुछ अधिक है।
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श.११ : उ. १० : सू. ११०
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विसेसाहिए परिक्खेवेणं।
परिक्षेपेण। तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा तस्मिन् काले तस्मिन् समये दश देवाः उस काल और उस समय में दस देव महिड्डिया जाव महासोक्खा जंबु-द्दीवे महर्द्धिकाः यावत् महासौख्याः जम्बूद्वीपे महान ऋद्धि वाले यावत् महासुख वाले दीदे मंदरे पव्वए मंदरचूलियं सव्वओ द्वीपे मन्दरे पर्वते मन्दरचूलिकां सर्वतः जम्बूद्वीप द्वीप में मंदर पर्वत पर मंदर समंता संपरिक्खित्ताणं संचिद्वेज्जा, समन्तात संपरिक्षिप्य संतिष्ठेयुः, अधः चूलिका को चारों ओर से घेरे हुए खड़े हैं। अहे णं अट्ठ दिसा-कुमारीओ महत्त- अष्ट दिशाकुमार्यः महत्तरिकाः अष्ट नीचे आठ दिशाकुमारी महनरिकाओं ने रियाओ अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्त- बनिपिण्डान गृहीत्वा मानुषोत्तरस्य पर्वतस्य आठ बलिपिण्डों को ग्रहण कर मानुषोत्तर रस्स पव्वयस्स चउसु वि दिसासु चतसृषु अपि दिशासु चतसृषु अपि पर्वत की चारों दिशाओं और चारों चउसु वि विदिसासु बहियाभिमुहीओ विदिशासु बहिः अभिमुख्यः स्थित्वा तान् विदिशाओं में बाह्याभिमुख स्थित होकर ठिच्चा ते अट्ठ बलिपिंडे जमगसमगं अष्ट बलिपिण्डान् 'जगमसमगं' बहिः उन आठ बलिपिण्डों को एक साथ बाहर बहियाभिमुहे पक्खिवेज्जा। पभू णं अभिमुखः प्रक्षिपेयुः। प्रभुः गौतम! ततः।
फेंका। गोयमा! तओ एगमेगे देवे ते अट्ठ एकैकः देवः तान अष्ट बलिपिण्डान् गौतम! प्रत्येक देव उन आठ बलिपिण्डों बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव धरणितलमसम्प्रासान क्षिप्रमेव प्रतिसंहर्तुम्। का भूमि के तल पर गिरने से पूर्व शीघ्र ही पडिसाहरित्तए। ते णं गोयमा! देवा ताए ते गौतम ! देवाः तया उत्कृष्टया त्वरितया प्रतिसंहरण करने में समर्थ है। उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए चपलया चण्डया जयिन्या छेकया सिंहया गौतम! उन देवों ने उत्कृष्ट, त्वरित, जइणाए छेयाए सीहाए सिग्याए उद्ययाए शीघ्रया उद्भुतया दिव्यया देवगत्या लोकान्ते चपल, चण्ड, जविनी, छेक, सैंही शीघ्र, दिव्वाए देवगईए लोगतं ठिच्चा स्थित्वा असद्भावप्रस्थापनया एकः देवः उद्धृत और दिव्य देव गति के द्वारा असब्भावपट्टवणाएएगे देवे पौरस्त्याभिमुखः प्रयातः, एकः देवः लोकांत में स्थित होकर असद्भाव पुरत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे दक्षिण-पौरस्त्याभिमुखः प्रयातः, एकः देवः प्रस्थापन के अनुसार प्रस्थान किया। एक दाहिणपुरत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे दक्षिणाभिमुखः प्रयातः, एकः देवः देव ने पूर्व दिशा की ओर प्रयाण किया, दाहिणाभिमुहे पयाते, एगे देवे दक्षिणपश्चात्याभिमुखः प्रयातः, एकः देवः एक देव ने दक्षिण-पूर्व की ओर प्रयाण दाहिणपच्चत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे पाश्चत्याभिमुखः प्रयातः, एकः देवः किया, एक देव ने दक्षिण की ओर प्रयाण पच्चत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे उत्तराभिमुखः प्रयातः, एकः देवः किया, एक देव ने दक्षिण-पश्चिम की ओर पच्चत्थउत्तराभिमुहे पयाते, एगे देवे उत्तरपौरस्त्याभिमुखः प्रयातः, एकः देवः प्रयाण किया, एक देव ने पश्चिम की ओर उत्तराभिमुहे पयाते एगे देवे ऊर्वाभिमुखः प्रयातः, एकः देवः प्रयाण किया, एक देव ने पश्चिम-उत्तर उत्तरपुरत्थाभिमुहे पयाते, एगे देवे उड्ड अधोऽभिमुखः प्रयातः।
की ओर प्रयाण किया, एक देव ने उत्तर भिमुहे पयाते, एगे देवे अहोभिमुहे
की ओर प्रयाण किया। एक देव ने उत्तरपयाते।
पूर्व की ओर प्रयाण किया। एक देव ने ऊर्ध्व-दिशा की ओर प्रयाण किया। एक
देव ने अधोदिशा की ओर प्रयाण किया। तेणं कालेणं तेणं समएणं वास- तस्मिन् काले तस्मिन् समये वर्षशत- उस काल और उस समय एक लाख वर्ष सयसहस्साउए दारए पयाते। तए णं सहस्रायुष्कः दारकः प्रजातः। ततः तस्य की आयु वाले शिशु का जन्म हुआ। उस तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा दारकस्य मातापितरौ प्रहीणौ भवतः, नो शिशु के माता-पिता प्रक्षीण हुए, फिर भी भवंति, नो चेव णं ते देवा अलोयतं चैव ते देवाः अलोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस संपाउणंति। तए णं तस्स दारगस्स ततः तस्य दारकस्य आयुष्कः प्रहीणो शिशु का आयुष्य भी प्रक्षीण हो गया, आउए पहीणे भवति, नो चेव णे ते देवा भवति, नो चैव ते देवाः अलोकान्तं फिर भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा अलोयंतं संपाउणंति। तए णं तस्स सम्प्राप्नुवन्ति। ततः तस्य दारकस्य सके। उस शिशु की अस्थि मज्जा प्रक्षीण दारगस्स अद्विमिंजा पहीणा भवंति, नो अस्थिमज्जाः प्रहीणाः भवन्ति, नो चैव ते हो गई, फिर भी वे देव अलोक का अंत चेव णं ते देवा अलोयंत संपाउणंति। तए देवाः अलोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति। ततः तस्य नहीं पा सके। उस शिशु के सात कुल णं तस्स दारगस्स आसत्तमे वि कुलवंसे दारकस्य आसप्तमोऽपि कुलवंशः प्रहीणः वंश (पीढ़ियां) प्रक्षीण हो गए फिर भी वे पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा भवति, नो चैव ते देवाः अलोकान्तं देव अलोक का अंत नहीं पा सके। उस अलोयतं संपाउणंति। तए णं तस्स समप्राप्नुवन्ति। ततः तस्य दारकस्य शिशु का नाम-गोत्र प्रक्षीण हो गया। फिर
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भगवई
दारगस्स नामगोए वि पहीणे भवति, नो चेव णं ते देवा अलोयतं संपाउणति । तेसि णं भंते! देवाणं किं गए बहुए ? अगए बहुए ?
गोयमा ! नो गए बहुए, अगए बहुए, गयाओ से अगए अनंतगुणे, अगयाओ से गए अनंतभागे। अलोए णं गोयमा ! एमहालए पण्णत्ते ॥
१४ रज्जु
१ सूत्र ९०९-११०
लोक और अलोक का विभाग आकाश के आधार पर किया गया है। विवरण के लिए दूसरा शतक द्रष्टव्य है।'
राजगृह में भगवान स्थविरों ने गति प्रवाद नामक अध्ययन का प्रज्ञापन किया। इसका उल्लेख भगवती के आठवें शतक में तथा प्रज्ञापना के सोलहवें पद में मिलता है। त्वरित गति का वर्णन प्रस्तुत आगम में चार स्थानों में उपलब्ध है
१. तमस्काय का प्रकरण*
२. कृष्णराज का प्रकरण
३. चमर का प्रकरण'
४. लोक और अलोक का परिमाण"
बलिपिण्ड का उल्लेख केवल लोक- अलोक के प्रकरण में है। गति की त्वरा का उल्लेख बहुत आश्चर्यजनक है। दिव्य गति की तुलना में वैज्ञानिक यंत्रों की गति अति मंद प्रतीत हो रही है।
छह देव मेरु पर्वत की चूलिका से अपनी यात्रा शुरू करते हैं। पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशा में गति करने वाले देवों को आधा रज्जु की दूरी तय करनी होती है क्योंकि मध्यलोक का विस्तार एक रज्जु है। ऊर्ध्व दिशा में गति करने वाले देव को सात रजु से कम
चित्र नं. - एक
१. भ. २ १३८ सूत्र एवं भाष्य ।
२. वी. ८/२९३ ।
३. पण १६.१७
४. भ. ६/७५।
१
५
१
४१३
नामगोत्रमपि प्रहीणं भवति, नो चैव ते देवाः अलोकान्तं सम्प्राप्नुवन्ति ।
तेषां भदन्त ! देवानां किं गतः बहुकः ? अगतः बहकः ?
गौतम ! नो गतः बहुकः, अगतः बहुकः, गतात् तस्य अगतः अनन्तगुणः अगतात् तस्य गतः अनन्तगुणः । अलोकः गौतम! इयन्महान् प्रज्ञप्तः ।
७
भाष्य
तथा अधोदिशा में गति करने वाले देव को सात रज्जु से अधिक का अंतर तय करना होता है। इस प्रकार सभी देव एक समान दूरी तय नहीं करते। प्रस्तुत सूत्र में बताए गए समय में सभी देवों की तय की गई दूरी अवशिष्ट रही दूरी से असंख्यात गुना अधिक है अथवा अवशिष्ट रही दूरी तय की गई दूरी का असंख्यातवां भाग है। यह बात संगत कैसे हो सकती है ? इस जिज्ञासा का समाधान अभयदेव सूरि ने लोक को धन चतुरस्राकार (Cube) मानकर किया है। ' लोक को घन चतुरस्राकार मानने पर सभी देवों के द्वारा तय की गई दूरी तथा अवशिष्ट दूरी समान ही होगी।
श. ११ : उ. १० : सू. ११० भी वे देव अलोक का अंत नहीं पा सके।
भंते! उन देवों का गत क्षेत्र बहुत है ? अगत क्षेत्र बहुत है ?
गौतम! गत क्षेत्र बहुत नहीं है, अगत क्षेत्र बहुत है। गतक्षेत्र से अगतक्षेत्र अनंत गुण है। और अगत क्षेत्र से गतक्षेत्र अनंत भाग है। गौतम! अलोक इतना बड़ा प्रज्ञप्त है।
दिगंबर परंपरा के महान गणितज़ वीरसेनाचार्य तथा यतिवृषभाचार्य कृत तिल्लोयपण्णत्ति में भी लोक को धन चतुरस्राकार मानकर लोक का आयतन (Volume ) ३४३ घन रज्जु माना है।
मध्यलोक
लोक सुप्रतिष्ठक आकार वाला है, देखें चित्र नं. १ |
घन चतुरस्राकार मानने पर लोक का आकार चित्र नं. २ की भांति होता है। इसमें लोक के मध्यभाग को 'क' के द्वारा प्रदर्शित किया गया है। यदि 'क' बिंदु से छह देव छहों दिशाओं में गति करते हैं तो उनके द्वारा गत क्षेत्र और अगत क्षेत्र समान ही होगा।
चित्र नं. -दो
५. वही, ६ / ९५।
६. वही, ३ / ११६-१२०१
७. वही, १२ / १०९-११०।
८. भ. वृ. ११/ १०९।
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श. ११ : उ. १० : सू. १११,११२
४१४
भगवई
लोगागासे जीवपदेस-पदं
लोकाकाशे जीवप्रदेश-पदम १११. लोगस्स णं भंते! एगम्मि आगास- लोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् आकाश-प्रदेशे पदेसे जे एगिदियपदेसा जाव पंचिंदिय- ये एकेन्द्रियप्रदेशाः यावत् पञ्चेन्द्रिय- पदेसा अणिदियपदेसा अण्णमण्णबद्धा प्रदेशाः अनिन्द्रियप्रदेशाः अन्योन्यबद्धाः अण्णमण्णपुट्ठा अण्णमण्णबद्धपुट्ठा अन्योन्य-स्पृष्टाः अन्योन्यबद्धस्पृष्टाः अण्ण-मण्णघडताए चिट्ठति? अत्थि णं अन्योन्य-घटतया तिष्ठन्ति? भंते! अण्णमण्णस्स किंचि आबाहं वा अस्ति भदन्त! अन्योन्यस्य किञ्चित् वाबाहं वा उप्पायंति? छविच्छेदं वा अबाधां वा व्याबाधां वा उत्पादयन्ति? करेंति?
छविच्छेदं वा कुर्वन्ति? नो इणद्वे समद्रु॥
नो अयमर्थः समर्थः।
लोकाकाश में जीव-प्रदेश पद १११. भंते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में
जो एकेन्द्रिय-प्रदेश यावत् पंचेन्द्रिय प्रदेश, अनिन्द्रिय-प्रदेश, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य-बद्ध-स्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं। भंते ! क्या वे परस्पर किञ्चित आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न करते हैं ? छविच्छेद करते
है
यह अर्थ संगत नहीं है।
११२. से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-लोकस्य ११२. भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा लोगस्स णं एगम्मि आगासपदेसे जे एकस्मिन् आकाशप्रदेशे ये एकेन्द्रियप्रदेशाः रहा है-लोक के एक आकाश-प्रदेश में एगिदियपदेसा जाव अण्णमण्ण-घडत्ताए यावत् अन्योन्यघटतया तिष्ठन्ति, नास्ति जो एकेन्द्रिय-प्रदेश यावत् अन्योन्य चिट्ठति, नत्थि णं भंते! अण्णमण्णस्स भदन्त ! अन्योन्यस्य किञ्चित् आबाधां वा एकीभूत बने हुए हैं, भंते! वे परस्पर किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पायंति, व्याबाधां वा उत्पादयन्ति छविच्छेदं वा किञ्चित् आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न छविच्छेदं वा करेंति? कुर्वन्ति?
नहीं करते? छविच्छेद नहीं करते? गोयमा! से जहानामए नट्टिया सिया- गौतम ! अथ यथानामका नर्तिका स्यात्- गौतम! जैसे कोई नर्तिका है-मूर्तिमान, सिंगारागारचारुवेसा संगय · गय- शृङ्गाराकारचारुवेषा, संगत-गत-हसित- शृंगार और सुन्दर वेशवाली, चलने, हसिय- भणिय · चेट्ठिय -विलास- भणित-चेष्टित-विलास-सललित-संलाप- हंसने, बोलने और चेष्टा करने में निपुण, सललिय - संलाव - निउणजुत्तोवयार निपुणयुक्तोपचारकुशला सुन्दरस्तन- तथा विलास और लालित्यपूर्ण संलाप में कुसलासुंदरथण - जघण - वयण-कर- जघन-वदन-कर-चरण-नयन-लावण्य- निपुण, समुचित उपचार में कुशल, सुन्दर चरण-नयण-लावण्ण - रूव - जोव्वण- रूप-यौवन-विलासकलिता रङ्गस्थाने जन- स्तन, कटि, मुख, हाथ, पैर, नयन, विलासकलिया रंगट्ठाणंसि जण- शताकुले (जनसहस्राकुले) जनशत- लावण्य, रूप, यौवन और विलास से सयाउलंसि(जणसहस्साउल सि?) सहस्राकुले द्वात्रिंशद्विधस्य नाट्यस्य कलित। वह नर्तिका सैकड़ों (हजारों?) जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइ- अन्यतरां नाट्यविधिमुपदर्शयेत, अथ नूनं लाखों लोगों से आकुल नाट्यशाला में विहस्स नट्टस्स अण्णयरं नट्टविहिं गौतम! ते प्रेक्षकाः तां नर्तिकाम अनिमिषया बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों में से उवदंसेज्जा, से नूणं गोयमा! ते पेच्छगा दृष्टया सर्वतः समन्तात् समभिलोकन्ते ? किसी एक नाट्यविधि का उपदर्शन करती तं नट्टियं अणिमिसाए दिट्ठिए सव्वओ
है। गौतम! वे प्रेक्षक अनिमेष दृष्टि से चारों समंता समभि- लोएंति?
ओर से उस नर्तिका को देखते हैं ? हंता समभिलोएंति। हन्त समभिलोकन्ते।
हां, देखते है। ताओ णं गोयमा! दिट्ठीओ तंसि ताः गौतम ! दृष्टयः तस्मिन् नर्तिते सर्वतः गौतम! वे दृष्टियां उस नर्तकी की ओर नट्टियंसि सव्वओ समंता सन्नि- समन्तात् सन्निपतिताः ?
चारों ओर से गिर रही हैं? पडियाओ? हंता सन्निपडियाओ। हन्त सन्निपतिताः।
हां, गिर रही हैं। अत्थि णं गोयमा! ताओ दिट्ठीओ तीसे अस्ति गौतम ! ताः दृष्टयः तस्याः । गौतम ! वे दृष्टियां उस नर्तकी को किञ्चित् नट्टियाए किंचि वि आबाहं वा वाबाहं नर्तिकायाः किंचित् अपि आबाधां वा आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न करती हैं ? उप्पायंति? छविच्छेदं वा करेंति? व्याबाधां वा उत्पादयन्तिं? छविच्छेदं वा छविच्छेद करती हैं?
कुर्वन्ति। नो इणढे समढे। नो अयमर्थः समर्थः।
यह अर्थ संगत नहीं है। सा वा नट्टिया तासिं दिट्ठीणं किंचि सा वा नर्तिका तासां दृष्टीनां किंचित् वह नर्तकी उन दृष्टियों में किञ्चित् आबाध आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति? आबाधां वा व्याबाधां वा उत्पादयति? अथवा व्याबाध उत्पन्न करती है?
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भगवई
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श. ११: उ.१०: सू.११२-११४
छविच्छेदं वा करेइ?
छविच्छेदं वा करोति? नो इणद्वे समढे।
नो अयमर्थः समर्थः। ताओ वा दिट्ठीओ अण्णमण्णाए दिट्ठीए ताः दृष्टयः अन्योन्यस्याः दृष्ट्याः किंचित् किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएंति? आबाधां वा व्याबाधां वा उत्पादयन्ति? छविच्छेदं वा करेंति?
छविच्छेदं वा कुर्वन्ति? नो इणद्वे समठे। से तेणटेणं गोयमा! एवं नो अयमर्थः समर्थः। तत् तेनार्थेन गौतम ! वुच्चइ-लोगस्स णं एगम्मि एवमुच्यते-लोकस्य एकस्मिन् आकाशआगासपदेसे जे एंगिदियपदेसा जाव प्रदेशे ये एकेन्द्रियप्रदेशाः यावत् अन्योन्यअण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति, नत्थि णं घटतया तिष्ठन्ति, नास्ति अन्योन्यस्य अण्णमण्णस्स आबाहं वा वाबाहं वा आबाधां वा व्याबार्धा वा उत्पादयन्ति। उप्पायंति? छविच्छेदं वा करेंति॥ छविच्छेदं वा कुर्वन्ति।
छविच्छेद करती है? यह अर्थ संगत नहीं है। वे दृष्टियां परस्पर-एक दूसरे की दृष्टि में किञ्चित आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न करती हैं ? छविच्छेद करती हैं ? यह अर्थ संगत नहीं है। गौतम! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है-लोक के एक आकाश-प्रदेश में जो एकेन्द्रिय-प्रदेश हैं यावत् अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं, वे परस्पर आबाध अथवा व्याबाध उत्पन्न नहीं करते, छविच्छेद नहीं करते।
११३. लोगस्स णं भंते! एगम्मि लोकस्य भदन्त ! एकस्मिन् आकाशप्रदेशे ११३. 'भंते! लोक के एक आकाश-प्रदेश में
आगासपदेसे जहण्णपए जीवपदे-साणं, जघन्यपदे जीवप्रदेशानाम, उत्कर्षपदे जघन्य पद में अवस्थित जीव-प्रदेश, उक्कोसपए जीवपदेसाणं- सव्वजीवाण । जीवप्रदेशानां सर्वजीवानां च कतरे उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव-प्रदेश और य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा? बहया कतरेभ्यः अल्पाः वा? बहकाः वा ? तुल्याः सर्व जीव-इनमें कौन किससे अल्प, वा? तुल्ला वा ? विसेसाहिया वा? वा? विशेषाधिकाः वा?
बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक है? गोयमा! सव्वत्थोवा लोगस्स एगम्मि। गौतम! सर्वस्तोकाः लोकस्य एकस्मिन् गौतम ! सबसे अल्प लोक के एक आकाश आगासपदेसे जहण्णपए जीवपदेसा, आकाशप्रदेशे जघन्यपदे जीवप्रदेशाः, प्रदेश में जघन्य पद में अवस्थित जीवसव्वजीवा असंखेज्जगुणा, उक्कोसपए। सर्वजीवाः असंख्येयगुणाः, उत्कर्षपदे प्रदेश सबसे अल्प है, सर्व जीव उनसे जीवपदेसा विसेसाहिया। जीवप्रदेशाः: विशेषाधिकाः।
असंख्येय गुण है, उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव-प्रदेश उनसे विशेषाधिक है।
भाष्य
अवस्थित उनके जीव प्रदेश सबसे अल्प हैं। सब जीव उनसे असंख्येय गुण अधिक हैं। उत्कृष्ट पद में अवस्थित जीव प्रदेश उनसे विशेषाधिक
१.सूत्र ११३
आकाश के तेरह प्रदेशों में दश दिशाओं का स्पर्श करने वाले तेरह प्रदेशों वाले तेरह द्रव्य स्थित हैं। प्रत्येक आकाश प्रदेश में उनके तेरह तेरह प्रदेश होते हैं। इस प्रकार लोकाकाश में अनंत जीवों का अवगाहन है। इसलिए एक-एक आकाश प्रदेश में अनंत जीव प्रदेश होते हैं।
लोक के सूक्ष्म अनंत जीव वाले निगोद-पृथ्वी आदि सब जीव असंख्येय है-के तुल्य होते हैं। एक एक आकाश प्रदेश में उनके जीव प्रदेश अनंत होते हैं। इस प्रकार जघन्य पद में एक आकाश प्रदेश में
जघन्य पद लोकांत में होता है। वहां निगोद के देश तीन दिशाओं का ही स्पर्श करते हैं। शेष दिशाएं अलोक से आवृत होती हैं। तीन दिशाओं की स्पर्शना खण्ड गोलक में ही होती है। जिस गोलक में निगोद देशों की स्पर्शना छहों दिशाओं में होती है, वह उत्कृष्ट पद है। यह संपूर्ण गोलक लोक के मध्य में ही होता है।
देखें स्थापना
10
गगनतेरह आकाश प्रदेशों नगम की स्थापना
//अर्धगोलक
चित्र नं.२ चित्र न.१
संपूर्ण गोलक ११४. सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति। तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति। ११४. भंते! बह ऐसा ही है, भंते ! वह ऐसा
____ ही है। १. भ. वृ. ११/११३-तत्र तयोर्जधन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकांते भवति जत्थं षट्स्वपि दिक्षु निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्चं त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, शेष दिशामलोके समस्तगोलैः परिपूर्णगोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोनके न भवतीत्यर्थः, नावृतत्वात् सार्ध खण्डगोल एव भवतीति भावः छद्दिसिं ति यत्र पुनर्गोलके सम्पूर्ण गोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति।
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एक्कारसमो उद्देसो : ग्यारहवां उद्देशक
मूल
संस्कृत छाया
हिन्दी अनुवाद सुदंसणसेट्टि-पदं सुदर्शनश्रेष्ठि-पदम्
सुदर्शन श्रेष्ठी-पद ११५. तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामं ११५. उस काल और उस समय वाणिज्य वाणियग्गामे नामं नगरे होत्था- नाम नगरम् आसीत्-वर्णकः। दूतिपलाशं ग्राम नामक नगर था-वर्णक। दूतिवण्णओ। दूतिपलासे चेइए-वण्णओ चैत्यं-वर्णकः यावत् पृथ्वीशिलापट्टकः। तत्र पलाश चैत्य-वर्णक यावत् पृथ्वीजाव पुढविसिलापट्टओ। तत्थ णं वाणिज्यग्रामे नगरे सुदर्शनः नाम श्रेष्ठी शिलापट्टक। उस वाणिज्यग्राम नगर में वाणियग्गामे नगरे सुदंसणे नाम सेट्ठी परिवसति-आढ्यः यावत् बहुजनस्य सुदर्शन नाम का श्रेष्ठी रहता था-संपन्न परिवसइ-अड्डे जाव बहु-जणस्स अपरिभूतः श्रमणोपासकः अभिगतजीवा- यावत् बहुत जन के द्वारा अपरिभवनीय। अपरिभूए समणोवासए अभिगय- जीवः यावत् यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः । श्रमणोपासक, जीव- अजीव को जानने जीवाजीवे जाव अहापरिग्गहिएहिं आत्मानं भावयन् विहरति। स्वामी वाला यावत् यथापरिगृहीत तपःकर्म के तवोकम्मेहि अप्पाणं भावमाणे विहरइ। समवसृतः यावत् परिषद् पर्युपासते। द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ रह सामी समोसढे जाव परिसा
रहा था। भगवान् महावीर आए यावत पज्जुवासइ॥
परिषद् पर्युपासना करने लगा।
११६. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी इमीसे ततः सः सुदर्शनः श्रेष्ठी अनया कथया ११६. सुदर्शन श्रेष्ठी इस कथा को सुनकर कहाए लद्धद्वे समाणे हट्ठतुट्टे पहाए । लब्धार्थः सन् हृष्टतुष्टः स्नातः हृष्ट-तुष्ट हो गया। उसने स्नान किया, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल- कृतबलिकर्मा कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तः बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और पायच्छिते सव्वालंकारविभूसिए साओ सर्वालङ्कारविभूषितः स्वस्मात् गृहात् प्रायश्चित्त किया, सर्व अलंकार से गिहाओ पडिनिक्खमइ, पडि- प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य सकोरण्ट- विभूषित होकर अपने घर से प्रतिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्ल-दामेणं माल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेण पादविहार- निष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर कटछत्तेणं धरिज्जमाणेणं पायविहार चारेणं चारेण महत् पुरुषवागुरापरिक्षिप्तः सरैया की माला और दाम तथा छत्र को महयापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणिय- वाणिज्य-ग्राम नगरं मध्यमध्येन धारण कर, विशाल पुरुष वर्ग से घिरा ग्गामं नगरं मझमज्झेणं निग्गच्छइ, निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव दूतिपलाशं चैत्यं हुआ वह वाणिज्यग्राम नगर के बीचों बीच निग्ग-च्छित्ता जेणेव दूतिपलासे चेइए यत्रैव श्रमणः भगवान् महावीरः तत्रैव पैदल चलते हुए निकला, निकल कर जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उपागच्छति, उपागम्य श्रमणं भगवन्तं जहां दृतिपलाश चैत्य था, जहां श्रमण उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पञ्चविधेन अभिगमेन भगवान महावीर थे, वहां आया, वहां महावीरं पंचविहेणं अभि-गमेणं अभिगच्छति, (तद्यथा-सचित्तानां द्रव्याणां आकर पांच प्रकार के अभिगमों के साथ अभिगच्छइ, (तं जहा-सच्चित्ताणं व्युत्सर्जनया) यथा ऋषभदत्तः तथा । श्रमण भगवान् महावीर के पास गया। दव्वाणं विओसरणयाए) जहा त्रिविधया पर्युपासनाया पर्युपास्ते।
(जैसे सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, भ. ९/ उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए
१४५) ऋषभदत्त की भांति वक्तव्यता पन्जुवासइ॥
यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना की।
११७. तए णं समणे भगवं महावीरे
सुदंणस्स सेट्ठिस्स तीसे य महति- महालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ
ततः श्रमणः भगवान् महावीरः सुदर्शनस्य ११७. श्रमण भगवान् महावीर ने उस श्रेष्ठिनः तस्यां च महामहत्यां परिषदि धर्मं विशालतम परिषद् में सुदर्शन श्रेष्ठी को कथयति यावत् आज्ञाया आराधकः भवति। धर्म कहा यावत् आज्ञा की आराधना की।
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भगवई
श. ११ : उ. ११ : सू. ११८-१२१
जाव आणाए आराहए भवइ॥
११८. तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स ततः सः सुदर्शनः श्रेष्ठी श्रमणस्य भगवतः ११८. वह सुदर्शन श्रेष्ठी श्रमण भगवान भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य महावीर के पास धर्म सन कर, अवधारण सोच्चा निसम्म हट्ठतुढे उट्ठाए उढेइ, हृष्टतुष्टः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय श्रमणं कर हृष्ट-तुष्ट होकर उठने की मुद्रा में उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिण-प्रदक्षिणां उठा। उठकर श्रमण भगवान महावीर को आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ करोति कृत्वा वन्दते नमस्यति. वन्दित्वा दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी- नमस्थित्वा एवमवादीत
प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, बंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा
११९. भंते! काल कितने प्रकार का प्रजप्त
११९. कतिविहे णं भंते! काले पण्णत्ते? कतिविधः भदन्त ! कालः प्रज्ञप्तः।
सुदंसणा! चउविहे काले पण्णत्ते, तं सुदर्शन! चतुर्विधः कालः प्रज्ञप्तः जहा-पमाणकाले, अहाउनिव्व- तद्यथा-प्रमाणकालः यथायुर्निवृत्तिकालः, त्तिकाले, मरणकाले, अद्धाकाले॥ मरणकालः, अध्वाकालः।
सुदर्शन ! काल चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-प्रमाण काल, यथायुनिवृत्ति काल, मरण काल, अध्वा काल।
१२०.से किं तं पमाणकाले?
अथ किं तत् प्रमाणकालः? पमाणकाले दुविहे पण्णत्ते, तं जहा- प्रमाणकालः द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथादिवसप्पमाणकाले, राइप्पमाण-काले दिवसप्रमाणकालः, रात्रिप्रमाणकालश्च। य। चउपोरसिए दिवसे, चउ- पोरिसिया चतुःपौरुषीकः दिवसः, चतुःपौरुषिका च राई भवइ। उक्कोसिया रात्रिः भवति। उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चममुहूर्ता अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा दिवसस्य वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति। पोरिसी भवइ, जहणिया तिमहत्ता जघन्यिका त्रिमुहर्ता दिवसस्य वा रात्र्याः वा दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ॥ पौरुषी भवति।
१२०. वह प्रमाण काल क्या है ? प्रमाण काल दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे दिवसप्रमाण काल, राविप्रमाण काल। चार प्रहर का दिवस और चार प्रहर की रात्रि होती है। दिन अथवा रात्रि का प्रहर उत्कृष्टतः साढे चार मुहूर्त का होता है। दिवस अथवा रात्रि का प्रहर जघन्यतः तीन मुहर्त का होता है।
१२१. जदा णं भंते! उक्कोसिया यदा भदन्त ! उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चम-मुहूर्त्ता १२१. भंते! जब दिवस अथवा रात्रि का
अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा दिवसस्य वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति, तदा उत्कृष्टतः साढ़े चार मुहर्त्त का प्रहर पोरिसी भवइ, तदा णं कति- कतिभागमुहर्त्तभागेन परिहीयमाना- होता है तब दिवस अथवा रात्रि के मुहूर्त भागमहत्तभागेणं परिहायमाणी- परिहीयमाना जन्यिका त्रिमुहर्ता दिवसस्य भाग का कितना भाग कम होते होते परिहायमाणी जहणिया तिमहत्ता वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति? यदा जधन्यतः तीन मुहूर्त का प्रहर होता है? दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ? जघन्यिका त्रिमुहूर्त्ता दिवसस्य वा रात्र्याः वा जब दिवस अथवा रात्रि का जघन्यतः जदा णं जहणिया तिमहत्ता दिवसस्स पौरुषी भवति, तदा कतिभागमुहर्त्तभागेन तीन मुहर्त का प्रहर होता है तब दिवस वा राईए वा पोरिसी भवइ? तदा णं परिवर्द्धमाना-परिवर्द्धमाना उत्कर्षिका अथवा रात्रि के मुहूर्त भाग का कितना कतिभागमुहत्तभागेणं परिवड्डमाणी- अर्द्धपञ्चममुहूर्ता दिवसस्य वा रात्र्याः वा भाग बढ़ते बढ़ते उत्कृष्टतः साढे चार परिवहमाणी उक्कोसिया अद्भपंचम- पौरुषी भवति ?
मुहूर्त का प्रहर होता है ? मुहत्ता दिव-सस्स वा राईए वा पोरसी भवइ? सुदंसणा! जदा णं उक्कोसिया सुदर्शन! यदा उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चममुहूर्त्ता सुदर्शन! जब दिवस अथवा रात्रि का अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा दिवसस्य वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति, तदा उत्कृष्टतः साढ़े चार मुहूर्त का प्रहर होता पोरिसी भवइ, तदा णं बावीस- द्वाविंशतिशतभागमुहर्तभागेन परिहीय- है तब दिवस अथवा रात्रि के मुहूर्त भाग का
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श.११ : उ. ११ : सू. १२१-१२४
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भगवई
सयभागमुहत्तभागेणं परिहायमाणी- माना-परिहीयमाना जघन्यिका त्रिमुहर्ता एक सौ बाईसवां भाग कम होते होते परिहायमाणी जहणिया तिमहत्ता दिवसस्य वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति। यदा जघन्यतः तीन मुहूर्त का प्रहर होता है। जब दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ। वा जघन्यिका त्रिमुहर्ता दिवसस्य वा रात्र्याः दिवस अथवा रात्रि का जघन्यतः तीन जदा वा जहणिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा पौरुषी भवति. तदा द्वाविंशतिशत- मुहर्त का प्रहर होता है तब दिवस अथवा वा राईए वा पोरिसी भवइ, तदा णं भागमुहूर्तभागेन परिवर्द्धमाना-परिवर्द्धमाना। रात्रि के मुहूर्त भाग का एक सौ बाईसवां बावीससयभाग-मुहत्तभागेण परिवड्ड उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चममुहर्ता दिवसस्य वा भाग बढ़ते बढ़ते उत्कृष्टतः साढे चार मुहूर्त माणी-परिवढ-माणी उक्कोसिया रात्र्याः वा पौरुषी भवति।
का प्रहर होता है। अद्भपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ॥
१२२. कदा णं भंते! उक्कोसिया कदा भदन्त ! उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चम-मुहूर्त्ता १२२. भंते! दिवस अथवा रात्रि का अद्धपंचममुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा दिवसस्य वा रात्र्याः वा पौरुषी भवति? उत्कृष्टतः साढे चार मुहर्त का प्रहर कब पोरिसी भवई, कदा वा जहणिया कदा वा जघन्यिका त्रिमुहर्ता दिवसस्य वा होता है? दिवस अथवा रात्रि का तिमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी रात्र्याः वा पौरुषी भवति?
जघन्यतः तीन मुहूर्त का प्रहर कब होता भवइ?
सुदंसणा! जदा णं उक्कोसए सुदर्शन ! यदा उत्कर्षकः अष्टादशमुहूर्तः सुदर्शन ! जब उत्कृष्टतः अठारह मुहूर्त का अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया दिवसः भवति, जघन्यिका द्वादशमुहर्ता दिन होता है, जघन्यतः बारह मुहूर्त की दुवालसमुहत्ता राई भवइ, तदा णं रात्रिः भवति, तदा उत्कर्षिका रात्रि होती है तब दिवस का उत्कृष्टतः उक्कोसिया अद्ध-पंचममुहुत्ता अर्द्धपञ्चममुहूर्त्ता दिवसस्य पौरुषी भवति। साढे चार मुहूर्त का प्रहर होता है और रात्रि दिवसस्स पोरिसी भवइ, जहणिया । जघन्यिका त्रिमुहूर्त्ता रात्र्याः पौरुषी भवति। का जघन्यतः तीन मुहूर्त का प्रहर होता है। तिमुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ। जदा णं यदा उत्कर्षिका अष्टादशमुहूर्तिका रात्रिः जब उत्कृष्टतः अठारह मुहर्त की रात्रि उक्को-सिया अट्ठारसमुहुत्तिया राई भवति, जघन्यकः द्वादशमुहूर्तः दिवसः। होती है, जघन्यतः बारह मुहूर्त का दिन भवई, जहण्णिए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति, तदा उत्कर्षिका अर्द्धपञ्चममुहूर्त्ता होता है तब रात्रि का उत्कृष्टतः साढे चार भवइ, तदा णं उक्कोसिया अद्ध- रात्र्याः पौरुषी भवति, जघन्यिका त्रिमुहूर्त्ता मुहूर्त का प्रहर होता है और दिवस का पंचममुहत्ता राईए पोरिसी भवइ, दिवसस्य पौरुषी भवति।
जघन्यतः तीन मुहूर्त का प्रहर होता है। जहणिया तिमुहत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ॥
१२३. कदा णं भंते! उक्कोसए कदा भदन्त ! उत्कर्षकः अष्टादश-मुहूर्तः १२३. भंते ! उत्कृष्टतः अठारह मुहूर्त्त का अट्ठारसमहत्ते दिवसे भवइ, जह-णिया दिवसः भवति, जघन्यिका द्वादश-मुहूर्त्ता दिवस कब होता है? जघन्यतः बारह दुवालसमुहुत्ता राई भवई? कदा वा रात्रिः भवति। कदा वा उत्कर्षिका मुहूर्त की रात्रि कब होती है? उत्कृष्टतः उक्कोसिया अट्ठार-समुहत्ता राई भवइ, अष्टादशमुहर्ता रात्रिः भवति, जघन्यकः अठारह मुहूर्त की रात्रि कब होती है? जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे भवइ? द्वादशमुहर्त्तः दिवसः भवति?
जघन्यतः बारह मुहूर्त का दिवस कब सुदंसणा! आसाढपुण्णिमाए उक्कोसए
होता है? अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ, जहणिया सुदर्शन ! आषाढपूर्णिमायाम् उत्कर्षकः सुदर्शन ! आषाढ-पूर्णिमा के दिन उत्कृष्टतः दुवालसमुहुत्ता राई भवइ। पोसपुण्णिमाए अष्टादशमुहूर्त्तः दिवसः भवति, जघन्यिका । अठारह मुहूर्त का दिवस होता है और णं उक्को-सिया अट्ठारसमुहुत्ता राई द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति, पौष पूर्णिमायाम् जघन्यतः बारह मुहूर्त की रात्रि होती है। भवइ, जहण्णए दुवालसमुहत्ते दिवसे उत्कर्षिका अष्टादशमुहर्ता रात्रिः भवति, पौष पूर्णिमा के दिन उत्कृष्टतः अठारह भव॥ जघन्यकः द्वादशमुहूर्त्तः दिवसः भवति। मुहर्त की रात्रि होती है और बारह मुहर्त्त
का दिवस होता है।
१२४. भंते क्या दिन और रात्रि समान होते
१२४. अत्थि णं भंते! दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति?
अस्ति भदन्त ! दिवसाः रात्र्यः च समाः चैव भवन्ति?
है?
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भगवई
हंता अत्थि ॥
१२५. कदा णं भंते! दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति ?
सुदंसणा ! चेत्तासोयपुण्णिमासु, एत्थ णं दिवसा य राईओ य समा चेव भवंति - पण्णरसमुहुत्ते दिवसे पण्णरसमुहुत्ता राई भवइ । चउ-भागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिव- सस्स वा राई वा पोरिसी भवइ । सेत्तं पमाणकाले ॥
१२६. से किं तं अहाउनिव्वत्ति काले ? अहाउनिव्यत्तिकाले - जण्णं जेणं नेरइएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा देवेण वा अहाउयं निव्वत्तियं । सेत्तं अहाउनिव्वत्ति काले ॥
१२७. से किं तं मरणकाले ? मरणकाले - जीवो वा सरीराओ, सरीरं वा जीवाओ। सेत्तं मरण-काले ॥
१२८. से किं तं अल्छाकाले ? अद्धाकाले-से णं समयट्टयाए- आवलियट्टयाए जाव उस्सप्पिणीयाए । एस णं सुदंसणा ! अद्धा दोहाराछेदेणं छिज्जमाणी जाहे विभागं नो हव्वमागच्छइ, सेत्तं समए समयट्टयाए । असंखेज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुच्चइ । संखेज्जाओ आवलियाओ उस्सासो जहा सालिउद्देसए जाव
एएसि णं पल्लाणं, कोडाकोडी हवेज्ज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ, एगस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥
१२९. एएहिं णं भंते! पलिओवमसागरोवमेहिं किं पयोयणं ? सुदंसणा ! एएहिं पलिओवम सागरोवमेहिं
हन्त अस्ति ।
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अत्र
कदा भदन्त ! दिवसाः च रात्र्यः च समाः चैव भवन्ति ? सुदर्शन! चैत्राश्वायुक्पूर्णिमयोः दिवसाः च रात्र्यः च समाः चैव भवन्तिपञ्चदशमुहूर्त्तः दिवसः पञ्चदशमुहूर्त्ता रात्रिः भवति । चतुर्भागमुहूर्त्तभागोना चतुर्मुहूर्त्ता दिवसस्य वा रात्र्यः वा पौरुषी भवति । सः एषः प्रमाणकालः ।
सः किं तत् यथायुर्निवृत्तिकालः ? यथायुर्निवृत्तिकालः:-यत् येन नैरयिकेन वा तिर्यग्योनिकेन मनुष्येन वा देवेन वा यथायुनिवर्त्तितम् ।
स एषः यथायुर्निवृत्तिकालः ।
सः किं तत् मरणकालः ? मरणकालः- जीवः वा शरीरात शरीरं वा जीवात् । सः तत् मरणकालः ।
सः किं तत् अद्राकालः ? अद्राकालः - सः समयार्थाय आवलिकाश्रय यावत् उत्सर्पिण्यर्थाय । एषः सुदर्शन ! अद्धा द्विधाराछेदेन छिद्यमाना यदा विभागं नो हव्यमागच्छति सः तत् समयः समयार्थाय । असंख्येयानां समयानां समुदयसमितिसमागमनेन सा एका 'आवलिका' इति प्रोच्यते । संख्येयाः आवलिकाः यथा शालि उद्देशके यावत्
एतेषां पल्यानां, कोटिकोटि: भवेत् दशगुणिता । तत् सागरोपमस्य तु, एकस्य भवेत् परिमाणम् ।
एताभ्यां पल्योपम-सागरोपमाभ्यां किं प्रयोजनम् ?
सुदर्शन! एताभ्यां पल्योपम - सागरो -
श. ११ : उ. ११ : सू. १२४-१२९ हां, होते हैं।
१२५. भंते! दिवस और रात्रि समान कब होते हैं ?
सुदर्शन ! चैत्र और आश्विन की पूर्णिमा में दिवस और रात्रि समान होते हैं-पंद्रह मुहूर्त का दिन और पंद्रह मुहूर्त की रात्रि होती है। दिन अथवा रात्रि के मुहूर्त भाग का चौथा भाग- पौने चार मुहूर्त का प्रहर होता है। वह है प्रमाण काल ।
१२६. वह यथायुनिवृत्ति काल क्या है ? नैरयिक, तिर्यक् योनिक, मनुष्य अथवा देवों ने जितना और जैसा आयुष्य बांधा है, यथायुनिवृत्ति काल है। यह है यथायुनिवृत्ति काल |
१२७. वह मरणकाल क्या है ?
जीव का शरीर से अथवा शरीर का जीव से पृथक होने का क्षण मरण काल है। यह है
मरणकाल।
१२८. वह अध्वा काल क्या है ?
वह अध्वा काल है उसका अर्थ है समय. उसका अर्थ है आवलिका यावत् उसका अर्थ है उत्सर्पिणी।
द्विभाग छेद से छेदन करते करते जिसका विभाग न किया जा सके, वह समय है, उसका अर्थ है समय । असंख्येय समयों का समुदय, समिति और समागम से एक आवलिका होती है। संख्येय आवलिका का एक उच्छवास होता है। शालि उद्देशक की भांति वक्तव्य है यावतइन दस क्रोड़ाक्रोड पल्यां से एक सागरोपम परिमाण होता है।
१२९. भंते! इन पल्योपम और सागरोपम से क्या प्रयोजन है ?
सुदर्शन! इन पल्योपम सागरोपम के द्वारा
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श. ११ : उ. ११ : सू. १२९-१३३
नेरइयतिरिक्ख जोणिय मणुस्स देवाणं आउयाइं मविज्जंति ॥
१३०. नेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई नैरयिकानां कियत्कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? पण्णत्ता ?
एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियव्वं जाव अजहण्णमणुक्कोसेणं सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता ॥
तेत्तीसं
१३१. अत्थि णं भंते! एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं एति वा
१ सूत्र ११९-१३०
काल के चार प्रकार का निर्देश स्थानांग में मिलता है। वहां मूल पाठ में उनका विस्तार नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण में इनका स्पष्ट अर्थ सूत्र में उपलब्ध है।
अवचएति वा?
हंता अत्थि ॥
१३२. से केणट्टेण भंते! एवं वुच्चदअत्थि णं एएसिं पनिओवमसागरोव माणं खपति वा अवचएति वा ? एवं खलु सुदंसणा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं हत्थिणापुरे नामं नगरे होत्था - वण्णओ । सहसंबवणे उज्जाणेaणओ । तत्थ णं हत्थिणापुरे नगरे बले नामं राया होत्था - वण्णओ । तस्स णं बलस्स रण्णो पभावई नामं देवी होत्था - सुकुमालपाणिपाया वण्णओ जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोग पच्चणुभवमाणी विहरइ ॥
४२०
पमाभ्यां नैरयिक-तियग्योनिक मनुष्यदेवानाम् आयूंषि मापयन्ति ।
१३३. तए णं सा पभावई देवी अण्णया कयाइ तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभिंतरओ सचित्त कम्मे, बाहिरओ दूमिय- घट्ट मट्ठे विचित्तउल्लोगचिल्लियतले मणिरयणपणासियंधयारे बहुसम - सुविभत्तदेसभाए पंचवण्णसरस- सुरभि - मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए कालागरु-पवरकुंदुरुक्क तुरुक्क-धूवमघमघेत-गंधुद्ध्याभिरामे सुगंध - वरगंधिए गंधवट्टिभूए, तंसि तारिसगंसि
एवं स्थितिपदं निरवशेषं भणितव्यं यावत् अजघन्यमनुत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
भाष्य
४१३-४३३।
समय आदि का विस्तृत अर्थ जानने के लिए द्रष्टव्य है, अनुयोगद्वार
टिप्पण |
अस्ति भदन्त ! एतयोः पल्योपम-सागरोपमयोः क्षयः इति वा अपचयः इति वा ? हन्त अस्ति ।
तत् केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते-अस्ति एतयोः पल्योपम-सागरोपमयोः क्षयः इति वा अपचयः इति वा?
पोरिसी के लिए द्रष्टव्य उतरज्झयणाणि २६ / १२-१६ का
एवं खलु सुदर्शन ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये हस्तिनापुरं नाम नगरमासीत्वर्णकः । सहस्राम्रवनम् उद्यानम्-वर्णकः । तत्र हस्तिनापुरे नगरे बलः नाम राजा आसीत्-वर्णकः । तस्य बलस्य राज्ञः प्रभावती नाम देवी आसीत् सुकुमाल - पाणिपादा वर्णकः यावत् पञ्चविधान् मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभवती विहरति ।
भगवई
नैरयिक, तिर्यक्रयोनिक मनुष्य और देवों के आयुष्य का मापन होता है।
ततः सा प्रभावती देवी अन्यदा कदापि तस्मिन् तादृशके वासगृहे आभ्यन्तरतः सचित्रकर्मणि, बाह्यतः धवलित घृष्ट--मृष्टे विचित्रोल्लोक - चिल्लियतले मणिरत्नप्रणशितान्धकारे बहुसमसुविभक्तदेशभागे पंचवर्ण- सरस-सुरभि मुक्तपुष्पपुञ्जोपचारकलिते काला-गुरु- प्रवरकुन्दुरुकतुरुष्क-धूप-मघमघाय-मान-गन्धोद्धुताभिरामे सुगन्धवरगन्धिते गन्धवर्त्तिभूते, तस्मिन् तादृशके शयनीये सालिंगनवर्तिके
१३०. भंते! नैरयिकों की कितने काल की स्थिति प्रज्ञप्त है ?
इस प्रकार स्थिति पद (प्रज्ञापना-पद ४) वक्तव्य है यावत् अजघन्य- अनुत्कृष्टउत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है।
१३१. भंते! इन पल्योपम सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ?
हां, होता है।
१३२. भंते! यह किस अपेक्षा कहा जा रहा है - इन पल्योपम - सागरोपम का क्षय अथवा अपचय होता है ?
सुदर्शन! उस काल उस समय में हस्तिनापुर नाम नगर था-वर्णक । सहस्राम्रवन उद्यान - वर्णक । उस हस्तिनापुर नगर में बल नाम का राजा था- वर्णक । उस बल राजा के प्रभावती नाम की देवी थी - सुकुमाल हाथ पैर वाली वर्णक यावत् मनुष्य संबंधी पंचविध कामभोगों का प्रत्यनुभव करती हुई विहरण कर रही थी ।
१३३. एक दिन प्रभावती देवी उस अनुपम वासगृह, जो भीतर से चित्र कर्म से युक्त और बाहर से धवलित था, कोमल पाषाण से घिसा होने के कारण चिकना था। उसका ऊपरी भाग विविध चित्रों से युक्त तथा अधोभाग प्रकाश से दीप्तिमान था । मणि और रत्न की प्रभा से अंधकार प्रणष्ट हो चुका था । उसका देश भाग बहुत सम और सुविभक्त था। पांच वर्ण के सरस और सुरभित मुक्त पुष्प, पुञ्ज
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भगवई
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श. ११ : उ. ११ : सू. १३३ सयणिज्जंसि-सालिंगणवट्टिए उभओ उभयत: विब्बोयणे द्वयतः उन्नते मध्ये नत- के उपचार से कलित, कृष्ण अगर, प्रवर विब्बोयणे दुहओ उण्णए मज्झे गम्भीरे गंगापुलिनवालुकावदालशालिशते कुन्दुरु और जलते हुए लोबान की धूप से णयगंभीरे गंगा-पुलिणवालुय-उद्दाल- ओयविय-क्षौमिकदुकूलपट्ट-प्रतिच्छदने उटती हुई सुगंध से अभिराम, प्रवर सालिसए ओय-विय-खोमियदुकुल्लपट्ट सुविरचितरजस्त्राणे रक्ताशुंकसंवृते सुरम्ये सुरभि वाले गंध चूर्णो से सुगंधित गंधपडिच्छयणे सुविरइयरयत्ताणे रत्तं- आजिनक - ख्य - बूर - नवनीत - तूलस्पर्श वर्तिका के समान उस प्रासाद में एक सुयसंवुए सुरम्मे आइणग-रूय-बूर- सुगन्धवरकुसुम-चूर्ण-शयनोपचारकलिते विशिष्ट शयनीय था-उस पर शरीरनवणीय-तूलफासे सुगंधवरकुसुम- अर्द्धरात्रिकालसमये सुसजागरा निद्राय- प्रमाण उपधान (मसनद) रखा हुआ था, चुण्ण-सयणोवयारकलिए अद्धरत्त- माणा-निद्रायमाणा इदमेतद्रूपं 'ओरालं' शिर और पांवों की ओर शरीर-प्रमाण काल-समयंसि सुत्तजागरा ओहीर. कल्याणं शिवं धन्यं मांगल्यं सश्रीकं उपधान रखे हुए थे इसलिए वह दोनों माणी-ओहीरमाणी अयमेयारूवं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा।
ओर से उभरा हुआ तथा मध्य में नत ओरालं कल्लाणं सिवं धण्णं मंगल्लं
और गंभीर था। गंगा तट की बालुका की सस्सिरीयं महासुविणं पासित्ता णं
भांति पांव रखते ही नीचे धंस जाता था। पडिबुद्धा।
वह परिकर्मित क्षौम दुकूल पट्ट से ढका हार-यय-खीरसागर - ससंक-किरण- हार - रजत - क्षीरसागर - शशांककिरण हुआ था। उसका रजस्त्राण (चादरा) दगरय - रययमहासेल - पंडर-तरोरुर- दकरजस्-रजतमहाशैल-पाण्डुरतरोरु- सुनिर्मित था, वह लाल रंग की मसहरी मणिज्ज-पेच्छणिज्जं थिर-लट्ठ-पउट्ठ- रमणीय-प्रेक्षणीयं स्थिर-लष्ट-प्रकोष्ठ-वृत्त- से सुरम्य था, उसका स्पर्श चर्म वस्त्र, वट्ट-पीवर-सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ-तिक्ख. पीवर · सुश्लिष्ट . विशिष्ट - तीक्ष्ण- कपास, बूर वनस्पति और नवनीत के दाढाविडंबियमुहं परिकम्मियजच्च- दंष्ट्राविडम्बित-मुखं परिकर्मितजात्यकमल- समान (मृदु) था। प्रवर सुगंधित कुसुम कमलकोमल . माझ्यसोभंतलठ्ठओटुं कोमल-मात्रिक-शोभमान लष्टौष्टं रक्तो- चूर्ण के शयन-उपचार से कलित था। उस रत्तुप्पलपत्त - मउय-सुकुमालतालुजीहं त्पलपत्रमृदुक-सुकुमालतालु-जिह्व मूषा- शयनीय पर अर्द्ध रात्रि के समय सुप्तमूसागय . पवरकणगतावियआवत्ता. गतप्रवरकनकतापितावयिमान-वृत्त- जाग्रत (अर्धनिद्रा) अवस्था में बार बार यंतवट्ट . तडिविमलसरिसनयणं तडिविमलसदृशनयनं विशालपीवरोरु झपकी लेती हुई प्रभावती देवी इस प्रकार विसाल-पीवरोरुं पडिपुण्णविपुलखधं प्रतिपूर्णविपुलस्कन्धं मृदुविशदसूक्ष्म- का उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगल मिङ- विसयसुहमलक्खण · पसत्थ- लक्षणप्रशस्त - विच्छिन्न - केशरसटो. और श्री संपन्न महास्वप्न देखकर जागृत विच्छिन्नकेसरसडोवसोभियं ऊसिय- पशोभितम् उच्छित-सुनिर्मित-सुजात- हो गई। सुनिम्मिय-सुजाय - अप्फोडियलं-गूलं आस्फोटित-लांगूलं सौम्यं सौम्याकारं वह हार, रजत, क्षीर-सागर, चंद्र-किरण, सोमं सोमाकारं लीला-यंतं जंभावंत, लीलायमानं ज़म्भमाणं, नभतलात् जल-कण, रजत महाशैल (वैताट्य) के नहयलाओ ओवयमाणं, निययवयण- अवपतन्तं. निजक-वदनमतिपतन्तं सिंह समान अतिशुक्ल, रमणीय और दर्शनीय मतिवयंतं सीहं सुविणे पासिता णं स्वप्ने दृष्टा प्रतिबुद्धा सती हृष्टतुष्टचित्ता। था। उसका प्रकोष्ठ अप्रकंप और मनोज्ञ पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठचित्तमाणंदिया आनन्दिता नन्दिता प्रीतिमना परम- था। वह गोल, पुष्ट, सुश्लिष्ट, विशिष्ट णंदिया पीइ-मणा परमसोमणस्सिया । सौमनस्यिता हर्षवशविसर्पद-मानहृदया और तीक्ष्ण दाढा से मुक्त मुंह को खोले हरिसव-सविसप्पमाणहियया धारा- धाराहतकदम्बकं इव समुच्छयित-रोमकूपा हुए था। उसके ओष्ठ परिकर्मित, हयक-लंबगं पिव समूसवियरोमकूवा तं तं स्वप्नम् अवगृह्णाति, अवगृह्य शयनीयात् जातिवान्, कमल के समान कोमल, सुविणं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता अभ्युत्तिष्ठति. अभ्युत्थाय अत्वरिता- प्रमाण-युक्त और अत्यंत शोभनीय थे। सयणिज्जाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता । चपलासम्भ्रान्तया अविलम्बितया राजहंस- उसकी जिह्वा और तालु रक्त-कमल-पत्र अतुरियमचवलमसंभंताए अवि- सदृश्या गत्या यत्रैव बलस्य राज्ञः शयनीयं के समान मृदु और सुकुमाल थे। उसके लंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य बलं राजानं नयन मूसा (स्वर्ण आदि को गलाने का बलस्स रण्णो सयणिज्जे तेणेव । ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिः पात्र) में रहे हुए, अग्नि में तपाये हुए. उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बलं रायं मनोज्ञाभिः ‘मणामाहिं' मनोरमाभिः आवर्त करते हुए उत्तम स्वर्ण के सदृश रंग ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं मणुण्णाहिं 'ओरालाहिं' कल्याणाभिः शिवाभिः वाले और विद्युत् के समान विमल थे। मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं मांगल्याभिः सश्रीकाभिः मित-मधुर- उसकी जंघा विशाल और पुष्ट थी। सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीय- मंजुलाभिः गीर्भिः संलपती-संलपती उसके स्कंध प्रतिपूर्ण और विपुल थे। वह याहिं मिय-महर-मंजुलाहिं गिराहिं प्रतिबोधयति, प्रतिबोध्य बलेन राज्ञा मृदु, विशद, सूक्ष्म, विस्तीर्ण और प्रशस्त संलवमाणी-संलवमाणी पडिबोहेइ, अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नभित्तिचित्रे लक्षण युक्त अयाल की सटा से सुशोभित
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श. ११ : उ. ११ : सू. १३३,१३४
पडिबोहेत्ता बलेणं रण्णा अब्भणु-ण्णाया समाणी नाणामणिरयण भत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि निसी यति, निसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव मियमहुर- मंजुलाहिं गिराहिं संलव-माणीसंलवमाणी एवं वयासी एवं खलु अहं देवाप्पिया! अज्ज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवट्टिए तं चेव जाव नियगवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तण्णं देवाप्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?
१३४. तए णं से बले राया पभावईए देवीए अंतियं एयम सोच्चा निसम्म चित्तमादिए दिए पीइमाणे परमसोमणस्सिए हरिसवस - विसप्पमाण हिय धाराहयनीव - सुरभि - कुसुमचंचुमालइयतणुए ऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्ह, ओगिण्हित्ता ईह पविसइ, पविसित्ता अप्पणो साभा - विएणं मइपुव्वणं बुद्धिविणाणेणं तस्स
४२२
भद्रासने निषीदति निषद्य आश्वस्ता विश्वस्ता सुखासनवरगता बलं राजानं ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः यावत् मितमधुर-मंजुलाभिः गीर्भिः संलपती-संलपती एवमवादीत् एवं खलु अहं देवानुप्रिय ! अद्य तस्मिन् तादृशे शयनीये सालिंगनवर्तिके तं चैव यावत् निजकवदनमतिपतन्तं सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा तत् देवानुप्रिय ! एतस्य 'ओरालस्स' यावत् महास्वप्नस्य कः मन्ये कल्याणं फलवृत्तिविशेषः भविष्यति ।
ततः सः बलः राजा प्रभावत्याः देव्याः अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टचित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परमसौमनस्थितः हर्षवशविसर्पद्मानहृदयः धारा हतनीपसुरभिकुसुम- चंचुमालइयतनुकः उच्छ्रितरोमकूपः तं स्वप्नम् अवगृह्णाति, अवगृह्य ईहां प्रविशति, प्रविश्य आत्मनः स्वाभाविकेन मतिपूर्वकेन बुद्धिविज्ञानेन तस्य स्वप्नस्यार्थावग्रहणं
भगवई था। वह ऊपर की ओर उठी हुई सुनिर्मित पूंछ से भूमि को आस्फालित कर रहा था। सौम्य, सौम्य आकार वाले, लीला करते हुए, जंभाई लेते हुए, आकाश-पथ से उतर कर अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। जागृत होकर वह हृष्ट-तुष्ट चित्त वाली, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाली, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाली हो गई। मेघ की धारा से आहत कदंब पुष्प की भांति रोम कूप उच्छूसित हो गए। उसने उस स्वप्न का अवग्रहण किया, अवग्रहण कर शयनीय से उठी । उठकर वह अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी जैसी गति से जहां बल राजा का शयनीय था, वहां आई, वहां आकर इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर, उदार, कल्याण, शिव, धन्य, मंगलमय श्री-संपन्न, मृदु, मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई राजा बल को जगाया जगाकर बन्न राजा की अनुज्ञा से नाना मणि रत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन पर बैठ गई। आश्वस्त, विश्वस्त हो, प्रवर सुखासन पर बैठकर राजा बल को इष्ट, कांत यावत् मृदु-मधुर और मंजुल भाषा में पुनः पुनः संलाप करती हुई इस प्रकार बोली- देवानुप्रिय ! मैं आज शरीर प्रमाण उपधान वाले विशिष्ट शयनीय पर पूर्ववत् यावत अपने मुख में प्रविष्ट होते हुए सिंह के स्वप्न को देखकर जागृत हो गई। देवानुप्रिय क्या मैं मानूं ? इस उदार यावत् महास्वप्न का कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा ?
१३४. देवी प्रभावती के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर राजा बल हृष्टतुष्ट चित्त बाला, आनंदित, नंदित प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसका शरीर मेघधारा से आहत कदंब के सुरभिकुसुम की भांति पुलकित एवं उच्छूसित रोमकूप वाला हो गया। उसने स्वप्न को अवग्रहण किया।
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भगवई
सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ, करेत्ता पभावई देवि ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मिय-महुर- सस्सिरीयाहिं वग्गूहिं संलव-माणे- संलवमाणे एवं वयासी-ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे ? कल्लाणे णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे जाव सस्सिरीए णं तुमे देवी! सुविणे दिवे, आरोग्ग-तुट्ठि- दीहाउकल्लाण- मंगल्लकारए णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए! भोगलाभो देवाणु - प्पिए! पुत्तलाभो देवाप्पिए! रज्जलाभो देवाणु - प्पिए! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए! नवहं मासाणं बहुपडिपुणाणं अद्धट्टमाण य राइंदियाणं वीइक्कं ताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीवं कुलपव्वयं कुलवडेंसयं कुलतिलगं कुलकि-त्तिकरं कुलनंदिकरं कुल- जसकरं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवर्द्धणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीण पडिपुण्णपंचिदियसरीरं लक्खण- वंजण- गुणोववेयं माणुम्मामाण- पडिपु सुजाय - सव्वंगसुंदरंग ससिसोमाकारं कंतं पिय-दंसणं सुरुवं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि ।
से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विण्णय-परिणयमेते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विक्कंते वित्थिष्णविउलबल - वाहणे रज्जवई राया भविस्सइ । तं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे जाव आरोग्ग-तुट्ठि- दीहाउकल्ला - मंगल्लकारए णं तुमे देवी! सुविदित 'कट्टु भावतिं देवि ताहिं safe जाव वहिं दोच्चं पि तच्चं पि अणुबूहति ॥
१३५. तए णं सा पभावती देवी बलस्स
४२३
करोति, कृत्वा प्रभावतीं देवीं ताभिः इष्टाभिः कान्ताभिः यावत् मांगल्याभिः मित-मधुरसश्रीकाभिः वाग्भिः संपलन्-संपलन् एवमवादीत्- 'ओराले' त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः, कल्याणं त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः यावत् सश्रीकः त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः, आरोग्य तुष्टि दीर्घायु - कल्याण-मांगल्यकारकः त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः, अर्थलाभः देवानुप्रिये ! भोगलाभः देवानुप्रिये ! पुत्रलाभः देवानुप्रिये ! राज्यलाभः देवानुप्रिये ! एवं खलु त्वं देवानुप्रिये! नवानां मासानां बहुप्रतिपूर्णानाम् अर्धाष्टमानांच रात्रिंदिवानां व्यतिक्रान्तानाम् अस्माकं कुलकेतुं कुलदीपं कुलपर्वतं कुलावतंसकं कुलतिलकं कुलकीर्तिकरं कुलनन्दिकरं कुलयशस्करं कुलाधारं कुलपादपं कुलविवर्धनकरं सुकुमारपाणिपादम् अहीनप्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरं लक्षण - व्यञ्जनगुणोपेतं मानोन्मान प्रमाण-प्रतिपूर्णसुजात सर्वांगसुन्दरांगं शशिसौम्याकारं कान्तं प्रियदर्शनं सुरूपं देवकुमारसमप्रभं दारकं प्रजनिष्यसि ।
सः अपि च दारकः उन्मुक्तबालभावः विज्ञकपरिणतिमात्रः यौवनकमनुप्राप्तः शूरः वीरः विक्रांतः विस्तीर्ण-विपुलबल-वाहनः राज्यपतिः राजा भविष्यति। तत् 'ओराले' त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः यावत् आरोग्यतुष्टि-दीर्घायु - कल्याण-मांगल्य-कारकः त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्ट इति कृत्वा प्रभावती देवीं ताभिः इष्टाभिः यावत् वाग्भिः द्विः अपि त्रिः अपि अनुबृंहति।
ततः सा प्रभावती देवी बलस्य राज्ञः
श. ११ : उ. ११ : सू. १३४,१३५ अवग्रहण कर ईहा में प्रवेश किया। ईहा में प्रवेश कर अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धि-विज्ञान के द्वारा उस स्वप्न के अर्थ का अवग्रहण किया। अर्थ का अवग्रहण कर प्रभावती देवी से इष्ट कांत यावत् मंगल, मृदू, मधुर, श्री संपन्न शब्दों के द्वारा पुनः पुनः संलाप करता हुआ इस प्रकार बोला - देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है। देवी! तुमने कल्याणकारी स्वप्न देखा है। यावत् देवी! तुमने श्री संपन्न स्वप्न देखा है। देवी ! तुमने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी स्वप्न देखा है । देवानुप्रिये ! तुम्हें अर्थ लाभ होगा। देवानुप्रिये! तुम्हें भोग लाभ होगा। देवानुप्रिये ! तुम्हें पुत्र लाभ होगा। देवानुप्रिये ! तुम्हें राज्य लाभ होगा। इस प्रकार देवानुप्रिये ! तुम बहु प्रतिपूर्ण नौ मास और साढे सात दिनरात व्यतिक्रांत होने पर एक बालक को जन्म दोगी। वह बालक हमारे कुल की पताका, कुलदीप, कुल पर्वत, कुलअवतंस, कुल-तिलक, कुल-कीर्तिकर, कुल को आनंदित करने वाला, कुल के यश को बढ़ाने वाला, कुल का आधार, कुल- पादप, कुल को बढ़ाने वाला, सुकुमाल हाथ पैर वाला, अक्षीण और प्रतिपूर्ण पंचेन्द्रिय शरीर वाला लक्षण और व्यंजन गुणों से उपेत, मान, उन्मान और प्रमाण से प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग सुन्दर, चंद्रमा के समान सौम्य आकार वाला, कांत, प्रियदर्शन, सुरूप और देव कुमार के समान प्रभा वाला होगा। वह बालक बाल अवस्था को पार कर विज्ञ और कला का पारगामी बन कर यौवन को प्राप्त कर, शूर, वीर, विक्रांत, विपुल और विस्तीर्ण सेना वाहन युक्त, राज्य का अधिपति राजा होगा। इसलिए देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारी स्वप्न देखा है। ऐसा कह कर उन इष्ट यावत् मंजुल शब्दों के द्वारा दूसरी तीसरी बार भी प्रभावती देवी के उल्लास को बढ़ाया।
१३५. राजा बल के पास इस अर्थ को
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भगवई
श. ११ : उ. ११ : सू. १३५,१३६
४२४ रण्णो अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य ह्यष्टतुष्टा हट्टतुट्ठा करयलपरिग्गहियं दसनहं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावतं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं । मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्वयासी-एवमेयं देवाणु-प्पिया! तहमेयं एवमेतद् देवानुप्रिय! तथ्यमेतद् देवानुप्रिय ! देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! अवितथमेतद् देवानुप्रिय! असंदिग्धमेतद् असंदिद्ध-मेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवानुप्रिय! इष्टमेतद् देवानुप्रिय ! देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाण- प्रतीष्टमेतद् देवानुप्रिय! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् प्पिया! इच्छिय-पडिच्छियमेयं देवानुप्रिय! तत् यथेदं यूयं वदथ इति कृत्वा देवाणुप्पिया! से जहेयं तुब्भे वदह त्ति तं स्वप्नं सम्यक् प्रतीच्छति, प्रतीष्य बलेन कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, राज्ञा अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नपडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अब्भणु- भित्तिचित्रात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति, ण्णाया समाणी नाणामणिरयण- अभ्युत्थाय अत्वरिताचपला-सम्भ्रान्तया भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भढेइ, अविलंबितया राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव अब्भुढेत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए स्वकं शयनीयं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए शयनीये निषीदति निषद्य एवमवादीत-मा जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवा- मम सः उत्तमः प्रधानः मांगल्यं स्वप्नः गच्छइ, उवागच्छित्ता सयणि-ज्जसि अन्यैः पापस्वप्नैः प्रतिहनिष्यति इति कृत्वा निसीयति, निसीयित्ता एवं वयासी-मा देवगुरुजन-सम्बद्धाभिः प्रशस्ताभिः मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे मांगल्याभिः धार्मिकाभिः कथाभिः अण्णेहिं पाव-सुमिणेहिं पडिहम्मिस्सइ स्वप्नजागरिकां प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती त्ति कट्ट देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं विहरति। मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणीपडिजागरमाणी विहरइ॥
सुनकर, अवधारण कर प्रभावती देवी हृष्ट-तुष्ट हो गई। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! यह एसा ही है। देवानुप्रिय ! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है। देवानुप्रिय! यह अवितथ है। देवानुप्रिय! यह असंदिग्ध है। देवानुप्रिय ! यह इष्ट है। देवानुप्रिय! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। देवानुप्रिय! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं वह अर्थ सत्य है-ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर बल राजा की अभ्यनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी। उठकर अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी के सदृश गति द्वारा जहां अपना शयनीय था, वहां आई, वहां आकर शयनीय पर बैठ गई। बैठकर इस प्रकार बोली-मेरा वह उत्तम, प्रधान और मंगल स्वप्न किन्हीं अन्य पाप स्वप्नों के द्वारा प्रतिहत न हो जाए। ऐसा कहकर वह देव तथा गुरुजनों से संबद्ध प्रशस्त मंगल धार्मिक कथाओं के द्वारा स्वप्न जागरिका के प्रति सलत प्रतिजागृत रहती हुई विहार करने लगा।
१३६. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान्
सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी- शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अज्ज क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! अद्य सविशेषां सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं बाहिरिकाम् उपस्थानशालां गन्धोदकगंधोदय- सित-सुझ्य-संमज्जिओवलितं सिक्त-शुचिक-सम्मार्जितोपलिसां सुगन्धसुगंधवरपंचवण्ण-पुप्फोवयारकलियं वरपंच-वर्णपुष्पोपचारकलितां कालागरुकालागरु-पवर - कुंदुरुक्क - तुरुक्क- प्रवरकुन्दु-रुक - तुरुष्क-धूप-मघमघायधूव - मघमघेत - गंधुद्धयाभिरामं मान-गन्धोद्-भूताभिरामा सुगन्धवरसुगंधवरगंधियं गंध-वट्टिभूयं करेह य गन्धिकां गन्धवर्तिभूतां कुरुतच कारयत च । कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य कृत्वा च कारयित्वा च सिंहासनं रचयत, सीहासणं रएह, रएत्ता ममेतमाणत्तियं रचयित्वा मामेनामा-ज्ञाप्तिका प्रत्यर्पयत। पच्चप्पिणह॥
१३६. उस बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय! आज शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला (सभामंडप) को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींच, झाड़बुहार कर, गोबर का लेप कर, प्रवर सुगंधित पंच वर्ण के पुष्पों के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु, जलते हुए लोबान की धूप से उद्धत गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित गंध-वर्तिका के समान करो, कराओ। कर तथा करा कर सिंहासन की रचना करो। रचना कर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो।
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भगवई
१३७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्टाणसालं गंधो-दयसित्त - सुइय-संमज्जिओवलित्तं सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क - धूव-मघमघेंतगंधुद्धयाभिरामं सुगंध-वरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेत्ता य कारवेत्ता य सीहासणं रएत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ॥
१३८. तए णं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपविसs, जहा ओववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे जाव ससिव्व पियदंसणे नरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण - साला तेणेव उवागच्छइ, उवाग- च्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्था - भिमुहे निसीयइ, निसीयित्ता अप्पणो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ट भद्दासणाई सेयवत्थपच्चत्थुयाइं सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रावेर, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणि रयण-मंडियं अहिय-पेच्छणिज्जं महग्घ वरपट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्तत्ताणं ईहा मिय उसभ तुरग-नरमगर - विहग वालग किण्णररुरुसरभ चमर-कुंजर वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं अब्भिंतरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमउयमसूरगोत्थयं सेयवत्थ-पच्चत्यं अंग सुहास सुमउयं प्रभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, रयावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासिखिप्पामेव भो देवाप्पिया! अहंगमहानिमित्त सुधार विविहसत्थ- कुसले सुविणलक्खणपाढए सहावेह |
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ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव सविशेषकां बाहिरिकाम् उपस्थानशालां गन्धोदकसिक्त-शुचिक-सम्मार्जितोपलिप्तां सुगन्धवरपंचवर्ण-पुष्पोपचारकलितां कालागरु प्रवरकुन्दुरुक-तुरुष्कधूप-मघमघायमान- गन्धोद्भूताभिरामांसुगन्धवरगन्धिकां गन्धवर्त्तिभूतां कृत्वा च कारयित्वा च सिंहासनं रचयित्वा ताम् आज्ञाप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति ।
ततः सः बलः राजा प्रत्यूषकालसमये शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव अट्टनशाला तत्रैव उपागच्छति, अट्टनशालाम् अनुप्रविशति यथा औपपातिके तथैव अट्टनशाला तथैव मज्जनगृहे यावत् शशी इव प्रियदर्शन: नरपतिः यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य सिंहासनवरे पुरस्तादभिमुखे निषीदति, निषद्य आत्मनः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अष्टौ भद्रासनानि श्वेतवस्त्रप्रत्यवस्तृतानि सिद्धार्थककृतमंगलोपचाराणि रचयति, रचयित्वा आत्मनः अदूरसामंते नानामणि- रत्नमण्डिताम् अधिकप्रेक्षणीयां महार्घ्यवरपत्तनोगतां सूक्ष्मपट्टभक्तिशतचित्रतानाम् ईहामृग ऋषभ तुरग नरमकर- विहग-व्यालक- किन्नर - रुरु- शरभ चमर- कुञ्जर - वनलता-पद्मलता भक्तिचित्रां आभ्यन्त-रिकां यवनिकां कर्षयति, कर्षयित्वा नानामणि रत्नभक्तिचित्रम् आस्तरक- मृदुमसूरका वस्तृतं श्वेतवस्त्रप्रत्यवस्तृतम् अंगसुखस्पर्शकं सुमृदुकं प्रभावत्यै देव्यै भद्रासनं रचयति, रचयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! अष्टांगमहानिमित्तसूत्रार्थधारकान् विविधशास्त्रकुशलान् स्वप्नलक्षणपाठकान् शब्दयत ।
श. ११ : उ. ११ : सू. १३७,१३८ १३७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार कर शीघ्र ही बाहरी उपस्थान शाला को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींचा, झाड़-बुहार कर गोबर का लेप किया। प्रवर सुगंधित पंच वर्ण पुष्प के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुंदुरु और जलती हुई लोबान की धूप से उद्धत सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान कर कराकर सिंहासन की रचना की । रचना कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया।
१३८. वह बल राजा प्रत्यूष काल समय में शयनीय से उठा, उठकर पादपीठ से उतरा, उतरकर जहां व्यायामशाला थी, वहां आया, व्यायामशाला में अनुप्रवेश किया, जैसे औपपातिक की वक्तव्यता वैसे ही व्यायामशाला और स्नानघर की वक्तव्यता यावत् चंद्रमा की भांति प्रियदर्शन नरपति जहां बाहरी उपस्थानशाला थी, वहां आया, वहां आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। बैठकर स्वयं ईशान कोण में आठ भद्रासन स्थापित कराए। उन पर श्वेत वस्त्र बिछाए तथा सरसों डालकर मंगल उपचार और शांति कर्म किए । भद्रासन स्थापित कराकर अपने से न अति दूर न अति निकट नाना मणिरत्नों से मंडित, अति प्रेक्षणीय बहुमूल्य प्रवर पत्तन में
हुई सूक्ष्म सैकड़ों भांतों से चित्रित भेड़िया, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, काला हिरण, अष्टापद, याक ( चमरी गाय), हाथी, अशोकलता, पद्मलता आदि की भांतों से चित्रित भीतरी यवनिका लगाई। लगवा कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित, बिछौने और कोमल उपधानों से युक्त, धवल वस्त्र से आच्छादित, शरीर के लिए सुखद स्पर्श वाला और अतीव सुकोमल भद्रासन प्रभावती देवी के लिए स्थापित करवाया। स्थापित करवा कर कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही अष्टांग
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श.११ : उ. ११ : सू. १३८-१४१
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भगवई
महानिमित्त के सूत्र और अर्थ के धारक, विविध शास्त्रों में कुशल, स्वप्न लक्षण पाठक को बुलाओ।
१३९. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य पडिसुणेत्ता बलस्स रणो अंतियाओ बलस्य राज्ञः अन्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति, पडिनिक्खमंति, पडि-निक्खमित्ता प्रतिनिष्क्रम्य शीघ्रं त्वरितं चपलं चण्डं सिग्घं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हत्थिणपुरं वेगितं हस्तिनापुर नगरं मध्यंमध्येन यत्रैव नगरं मज्झमझेणं जेणेव तेसिं सुविण- तेषां स्वप्नलक्षणपाठकानां गृहाणि तत्रैव लक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य तान् स्वप्नलक्षण- उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ते पाठकान् शब्दयन्ति। सुविणलक्खणपाढए सहावेंति॥
१३९. उन कौटुंबिक पुरुषों ने यावत् आज्ञा
को स्वीकार कर बल राजा के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर शीघ्र, त्वरित, चपल, चंड और वेग युक्त गति के द्वारा हस्तिनापुर नगर के बीचोबीच जहां उन स्वप्न-लक्षण-पाठकों के घर थे, वहां आए, वहां आकर स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाया।
१४०. तए णं ते सुविणलक्खण-पाढगा ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः बलस्य राज्ञः १४०. राजा बल के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बलस्स रणो कोडुंबिय-पुरिसेहिं कौटुम्बिकपुरुषैः शब्दायिताः सन्तः हृष्ट- बुलाये जाने पर वे स्वप्न-पाठक हृष्टसहाविया समाणा हट्ठतुट्ठा ण्हाया तुष्टाः स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतकौतुक- तुष्ट हो गए। उन्होंने स्नान किया, कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल- मंगलप्रायश्चित्ताः शुद्धप्रावेश्यानि बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिताः प्रायश्चित्त किया। सभा में प्रवेशोचित वत्थाई पवर परिहिया अप्प- अल्पमहाभिरणालंकृतशरीराः सिद्धार्थक- मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना। महग्घाभरणालंकियसरीरा सिद्धत्थ- हरितालिकाकृतमंगलमूर्धानः स्वकेभ्यः अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से गहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सरहिं- स्वकेभ्यः गृहेभ्यः निर्गच्छन्ति, निर्गत्य शरीर को अलंकृत किया। मस्तक पर दूब सएहिं गेहेहितो निग्गच्छंति, हस्तिनापुर नगरं मध्यंमध्येन यत्रैव बलस्य और श्वेत सर्षप रख अपने-अपने घर से निग्गच्छित्ता हत्थिणपुरं नगरं राज्ञः भवनवरावतंसकः तत्रैव उपाग- निकले, निकल कर हस्तिनापुर नगर के मज्झंमज्झेणं जेणेव बलस्स रणो च्छन्ति, उपागम्य भवनवरावतंसकप्रतिद्वारे बीचोबीच, जहां बल राजा का प्रवर भवण-वरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, एकतः मिलन्ति, मिलित्वा यत्रैव बाहिरिका भवन-अवतंसक था, वहां आए. वहां उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडि- उपस्थानशाला यत्रैव बलः राजा तत्रैव
आकर प्रवर भवन-अवतंसक के मुख्यदुवारंसि एगओ मिलंति, मिलित्ता जेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतलपरिगृहीतं द्वार पर एक साथ मिले। मिलकर जहां बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव बले दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा बाहरी उपस्थानशाला थी, जहां बल राजा राया तेणेव उवाग-च्छंति, उवागच्छित्ता बलं राजानं जयेन विजयेन वर्धापयन्ति। था, वहां आए, वहां आकर दोनों हथेलियों करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः बलेन राज्ञा से निष्पन्न संपुट आकार वाली मत्थए अंजलिं कट्ट बलं रायं जएणं वन्दित-पूजित-सत्कारित-सम्मानिताः सन्तः दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख विजएणं वद्धावेंति। तए णं ते प्रत्येकं प्रत्येकं पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु घुमाकर, मस्तक पर टिका कर, बल राजा सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा निषीदन्ति।
का जय विजय की ध्वनि से वर्धापन वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्मा-णिया
किया। समाणा पत्तेयं-पत्तेयं पुव्व-पणत्थेसु
वे स्वप्नलक्षण-पाठक बल राजा के द्वारा भद्दासणेसु निसीयंति॥
वंदित, पूजित, सत्कारित और सम्मानित होकर अपने-अपने लिए पूर्व स्थापित भद्रासन पर बैठ गए।
१४१. तए णं से बले राया पभावतिं देविं ततः सः बलः राजा प्रभावती देवी
जवणियंतरियं ठावेइ, ठावेत्ता पुप्फ- यवनिकान्तरिकां स्थापयति, स्थापयित्वा फल-पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते पुष्प-फल-प्रतिपूर्णहस्तः परेण विनयेन तान् सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-एवं स्वप्न-लक्षणपाठकान् एवमवादीत्-एवं
१४१. बल राजा ने प्रभावती देवी को यवनिका के भीतर बिठाया। बिठाकर फूलों और फलों से भरे हुए हाथों वाले राजा बल ने परम विनयपूर्वक उन स्वप्न
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भगवई
खलु देवाणु-प्पिया! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तणं देवाप्पिया! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?
१४२. तए णं ते सुविणलक्खण- पाढगा बलस्स रण्णो अंतियं एय- म सोच्चा निसम्म हट्ठा तं सुविणं ओगिण्हंति, ओगिण्हित्ता ईह अणुप्पविसंति, अणुविसित्ता सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेत्ता
खलु
अण्णमण्णेणं सद्धिं संचालेंति, संचालेत्ता तस्स सुविणस्स लट्ठा गहियट्ठा पुच्छियट्टा विणिच्छियट्ठा अभि-गट्ठा बलस्स रण्णो पुरओ सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा उच्चारेमाणा एवं वयासी एवं देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्यंसि बायालीसं सुविणा, तीसं महासुविणा-बावत्तरं सव्वसुविणा दिट्ठा । तत्थ णं देवाणुप्पिया! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टि - मायरो वा तित्थगरंसि वा चक्क वट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोइस महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति, तं जहागय उसह सीह अभिसेय दाम ससि दिणयरं झयं कुंभं । पउमसर सागर विमाणभवण रयणुच्चय सिहिं च ॥ १ ॥ वासुदेवमायरो वासुदेवंसि गब्भं वक्कममाणसि एएसिं चोद्दसहं महासुविणाणं अण्णयरे सत्त महासुविणे पासित्ता णं पडिबुझति । बलदेवमायरो बलदेवसि गब्भं वक्कममासि एएसिं चोहसहं महाविणणं अण्णयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता णं पडि - बुज्झति । मंडलियमायरो मंडलि-यंसि गब्र्भ वक्कममाणंसि एएसि णं चोइसन्हं
तस्स
करेंति,
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खलु देवानुप्रियाः ! प्रभावती देवी अद्य तस्मिन् वासगृहे यावत् सिंहं स्वप्ने दृष्ट्वा प्रतिबुद्धा, तत् देवानुप्रियाः ! एतस्य 'ओरालस्स' यावत् महास्वप्नस्य कः मन्ये कल्याणं फलवृत्ति-विशेषः भविष्यति ?
ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः बलस्य राज्ञः अन्तिकम् एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टाः तं स्वप्नम् अवगृह्णन्ति, अवगृह्य ईहाम् अनुप्रविशन्ति, अनुप्रविश्य तस्य स्वप्नस्य अर्थावग्रहणं कुर्वन्ति, कृत्वा अन्योऽन्येन सार्धं संचालयन्ति, संचाल्य तस्य स्वप्नस्य लब्धार्थाः गृहीतार्थाः पृष्टार्थाः विनिश्चितार्थाः अभिगतार्थाः बलस्य राज्ञः पुरतः स्वप्नशास्त्राणि उच्चारयन्तः, उच्चारयन्तः एवमवादिषुः - एवं खलु देवानुप्रियाः ! अस्माकं स्वप्न शास्त्रे द्वाचत्वारिंशत् स्वप्नाः, त्रिंशत् महास्वप्नाः, द्विसप्ततिः सर्वस्वप्नाः दृष्टाः । तत्र देवानुप्रियाः ! तीर्थंकरमातारः वा चक्रवर्तिमातारः वा तीर्थंकरे वा चक्रवर्ती गर्भं वा अवक्रामति एतेषां त्रिंशत् महास्वप्नानां इमान् चतुर्दश महास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते, तद् यथा
गजं वृषभं सिंहं अभिषेकं दाम शशिनं दिनकरं ध्वजां कुम्भम् । पद्मसरः सागरं विमानभवनं रत्नोच्चयं शिखिनं ॥ १ ॥ वासुदेवमातरः वासुदेवे गर्भम् अवक्रामति एतेषां चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् अन्यतरान् सप्त महास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते । बलदेवमातरः बलदेवे गर्भम् अवक्रामति एतेषां चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् अन्यतरान् चतुरः महास्वप्नान् दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते । माण्डलिकमातरः माण्डलिके गर्भम अवक्रामति एतेषां चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् अन्यतरम् एकं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते । अयं च देवानुप्रियाः !
श. ११ : उ. ११ : सू. १४१,१४२ लक्षणपाठकों से इस प्रकार कहादेवानुप्रियो ! प्रभावती देवी आज उस विशिष्ट वासघर में यावत सिंह का स्वप्न देखकर जागृत हो गई। देवानुप्रियो ! इस
उदार यावत् महास्वान का क्या कल्याणकारी विशिष्ट फल होगा ?
१४२. वे स्वप्नलक्षणपाठक राजा बल के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्टतुष्ट हो गए, उस स्वप्न का अवग्रहण किया । अवग्रहण कर ईहा में अनुप्रवेश किया। अनुप्रवेश कर उस स्वप्न के अर्थ का अवग्रहण किया। अवग्रहण कर एक दूसरे के साथ संचालना की। संचालना कर स्वप्न के अर्थ को स्वयं जाना, अर्थ का ग्रहण किया, उस विषय में प्रश्न किया, विनिश्चय किया, अर्थ को हृदयंगम किया। राजा बल के सामने स्वप्नशास्त्रों का पुनः पुनः उच्चारण करते हुए इस प्रकार कहा- देवानुप्रिय ! हमारे स्वप्न शास्त्रों में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्न हैं- सर्व बहत्तर स्वप्न दृष्ट हैं। देवानुप्रिय ! तीर्थंकर अथवा चक्रवती की माता तीर्थंकर अथवा चक्रवर्ती के गर्भावक्रांति के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती हैं, जैसे
हाथी, वृषभ, सिंह, अभिषेक, माला, चंद्रमा, दिनकर, ध्वज, कलश, पद्मसरोवर, सागर, विमान भवन, रत्नराशि, अग्नि ।
वासुदेव की माता वासुदेव के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महा स्वप्नों में से कोई सात महास्वप्न देखकर जागृत होती है। बलदेव की माता बलदेव के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई चार महास्वप्न देखकर जागृत होती है। मांडलिक राजा की माता मांडलिक के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है।
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श. ११ : उ. ११ : सू. १४२,१४३
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भगवई
महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं प्रभावत्या देव्या एकः महास्वप्नः दृष्टः, तत् पासित्ता णं पडि-बुज्झंति। इमे य णं 'ओराले' देवानुप्रियाः! प्रभावत्या देव्या देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे स्वप्नः दृष्टः यावत् आरोग्य-तुष्टि-दीर्घायु- महासुविणे दिटे, तं ओराले णं कल्याण-मांगल्यकारकः देवानुप्रियाः! देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे । प्रभावत्या देव्या स्वप्नः दृष्टः:. अर्थलाभः दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ- देवानुप्रियाः ! भोगलाभः देवानुप्रियाः! कल्लाण-मंगल्लकारए णं देवाणु- पुत्रलाभः देवानुप्रियाः! राज्यलाभः । प्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिढे, देवानुप्रियाः! एवं खलु देवानुप्रियाः! अत्थलाभो देवाणुप्पिया! भोग-लाभो प्रभावती देवी नवानां मासानां बहुप्रति- देवाणुप्पिया! पुत्तलाभो देवाणुप्पिया! । पूर्णानाम् अर्धाष्टमानां रात्रिंदिवानां रज्जलाभो देवाणु-प्पिया! एवं खलु व्यतिक्रान्तानां युष्माकं कुलकेतुं यावत् देवाणुप्पिया! पभावती देवी नवण्हं देवकुमारसमप्रभं दारकं प्रजनिष्यति। सः मासाणं बहु-पडिपुण्णाणं अट्ठमाण य अपि दारकः उन्मुक्तबालभावः विज्ञकराइंदियाणं वीइक्कंताणं तुम्हें कुलकेउं परिणतमात्रः यौवनकमनुप्राप्तः शूरः वीरः जाव देवकुमारसमप्पभं दारगं विक्रान्तः विस्तीर्ण-विपुलबल-वाहनः पयाहिति।
राज्यपतिः राजा भविष्यति, अनगारः वा से वि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे भावितात्मा। तत् 'ओराले' देवानुप्रियाः ! विष्णयपरिणयमत्ते जोव्वणग मणुप्यते सूरे प्रभावत्या देव्या स्वप्नः दृष्टः यावत् वीरे विक्कते वित्थिण्णविउल-बलवाहणे आरोग्य-तुष्टि-दीर्घायु-कल्याण-मांगल्यरज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे वा कारकः प्रभावत्या देव्या स्वप्नः दृष्टः। भावियप्पा। तं ओराले णं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्ग-तु ट्ठि -दीहाउ-कल्लाण मंगल्लकारए पभावतीए देवीए सुविणे दिद्रु॥
देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने इन स्वप्नों में से एक महास्वप्न देखा है, इसलिए देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् देवानुप्रिय! प्रभावती देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण तथा मंगलकारी स्वप्न देखा है। देवानुप्रिय! अर्थ लाभ होगा। देवानुप्रिय! भोग लाभ होगा। देवानुप्रिय! पुत्र-लाभ होगा । देवानुप्रिय' राज्य-लाभ होगा। इस प्रकार देवानुप्रिय! प्रभावती देवी बहु प्रतिपूर्ण नौ मास और साढे सात दिनरात व्यतिक्रांत होने पर तुम्हारे कुलकेतु यावत् देवकुमार के समान प्रभा वाले पुत्र को जन्म देगी। वह बालक बाल्य अवस्था को पार कर, विज्ञ और कला का पारगामी बनकर, यौवन को प्राप्त कर शूर, वीर, विक्रांत, विपुल और विस्तीर्ण सेना-वाहन युक्त, राज्य का अधिपति राजा होगा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। इसलिए देवानुप्रिय! (हमारा मत प्रामाणिक है। प्रभावती देवी ने उदार स्वप्न देखा है यावत् प्रभावती देवी ने आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है।
१४३. तए णं से बले राया सुविण- ततः सः बलः राजा स्वप्नलक्षण-
लक्खणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोच्चा पाठकानाम् अन्तिके एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य निसम्म हट्ठतुढे करयल-परिग्गहियं हृष्टतुष्टः करतलपरिगृहीतं दशनखं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा तान ते सुविण-लक्खणपाढगे एवं वयासी- स्वप्नलक्षणपाठकान एवमवादीत्-एवमेतद् एवमेयं देवाणुप्पिया! तहमेयं देवाणु- देवानुप्रियाः! तथ्यमेतद् देवानुप्रियाः! प्पिया! अवितहमेयं देवाणु-प्पिया! अवितथमेतद् देवानुप्रियाः ! असंदिग्धमेतद् असंदिद्धमेयं देवाणु-प्पिया! इच्छिय- देवानुप्रियाः! इष्टमेतद् देवानुप्रियाः! मेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं प्रतीष्टमेतद् देवानुप्रियाः! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् देवाणुप्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवानुप्रियाः ! तत् यथैव यूयं वदथ इति कृत्वा देवाणु-प्पिया! से जहेयं तुब्भे वदह त्ति तं स्वप्नं सम्यक् प्रतीच्छति, प्रतीष्य कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, स्वप्नलक्षणपाठकान् विपुलेन अशन-पान- पडिच्छित्ता सुविण-लक्खणपाढए खाद्य - स्वाद्य - पुष्प - वस्त्र - गन्ध- विउलेणं असण-पाण-खाइमसाइम- माल्यालंकारेण सत्करोति, सम्मानयति पुप्फ- वत्थ - गंध · मल्ललंकारेणं सत्कृत्य सम्मान्य विपुलं जीविताहँ सक्कारेइ सम्माणेइ, सक्कारेत्ता प्रीतिदानं ददाति. दत्वा प्रतिविसृजति,
१४३. वह बल राजा स्वप्नलक्षणपाठकों से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्ट- . तुष्ट हुआ। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार बोला-देवानुप्रियो ! यह ऐसा ही है। देवानुप्रियो ! यह तथा (संवादितापूर्ण) है। देवानुप्रियो ! यह अवितथ है। देवानुप्रियो ! यह असंदिग्ध है। देवानुप्रियो ! यह इष्ट है। देवानुप्रियो ! यह प्राप्सित है। देवानुप्रियो ! यह इष्टप्रतीप्सित है। जैसा आप कर रहे हैं. ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक स्वीकार किया। स्वीकार कर स्वप्नलक्षणपाठकों का विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, पुष्प, वस्त्र, गंध और
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भगवई
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श. ११ : उ. ११ : सू. १४३,१४४
सम्माणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं प्रतिविसृज्य सिंहासनात् अभ्युत्तिष्ठति, दलयइ, दलयित्ता पडिविसज्जेइ, अभ्युत्थाय यत्रैव प्रभावती देवी तत्रैव पडिविसज्जेत्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, उपागच्छति, उपागम्य प्रभावी देवीं ताभिः अब्भुट्ठत्ता जेणेव पभावती देवी तेणेव । इप्टाभिः यावत् मित-मधुर-सश्रीकाभिः उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पभा-वतिं वाग्भिः संलपन् संलपन् एवमवादीत्-एवं देवि ताहिं इट्ठाहिं जाव मिय- खलु देवानुप्रिये! स्वप्नशास्त्रे द्विमहुरसस्सिरीयाहिं वग्गूहिं संलव-माणे चत्वारिंशत् स्वप्नाः, त्रिंशत् महास्वप्नाःसंलवमाणे एवं वयासी- एवं खलु द्विसप्ततिः महास्वप्नाः दृष्टाः। तत्र देवाणुप्पिए! सुविण-सत्थंसि बायालीसं देवानुप्रिये! तीर्थंकरमातरः वा चक्रवर्तिसुविणा, तीसं महा-सुविणा-बावत्तरिं मातरः वा तीर्थंकरे वा चक्रवर्ती वा गर्भम् सव्वसुविणा दिट्ठा। तत्थ णं अवक्रामति एतेषां त्रिंशत् महास्वप्नानाम् देवाणुप्पिए! तित्थ-गरमायरो वा इमान् चतुर्दशान् महास्वप्नान् दृष्ट्वा चक्कवट्टि-मायरो वा तित्थगरंसि वा प्रतिबुध्यन्ते तत् चैव यावत् मांडलिक- चक्क-वट्टिसि वा गब्भं वक्कममाणंसि मातारः मांडलिके गर्भम् अवक्रामति एतेषां एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोइस चतुर्दशानां महास्वप्नानाम् अन्यतरत् एकं महा-सुविणे पासित्ता णं पडिबुझंति तं महास्वप्नं दृष्ट्वा प्रतिबुध्यन्ते। अयं च चेव जाव मंडलियमायरो मंडलि-यंसि त्वया देवानुप्रिये! एकः महास्वप्नः दृष्टः, गब्भं वक्कममाणंसि एएसि णं चोइसण्हं तत् 'ओराले' त्वया-देवि! स्वप्नः दृष्टः महासुविणाणं अण्णयरं एगं महासुविणं यावत् राज्यपतिः राजा भविष्यति, पासित्ता णं पडि-बुज्झंति। इमे य णं । अनगारः वा भावितात्मा. तत् 'आराले' तुमे देवाणु-प्पिए! एगे महासुविणे दिढे, त्वया देवि ! स्वप्नः दृष्टः यावत् आरोग्यतं ओराले णं तुमे देवी! सुविणे दिढे तुष्टि-दीर्घायु-कल्याण-मांगल्यकारकः जाव रज्जवई राया भविस्सइ, अणगारे त्वया देवि स्वप्नः दृष्टः इति कृत्वा प्रभावतीं वा भावियप्पा, तं ओराले णं तुमे देवी! देवीं ताभिः इष्टाभिः यावत् मित-मधुर- सुविणे दिढे जाव आरोग्ग-तुट्ठि-दीहाउ- सश्रीकाभिः वाग्भिः द्विः अपि त्रिः अपि कल्लाण-मंगल्लकारए णं तुमे देवी! अनुबंहति। सुविणे दिवे त्ति कट्ट पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं जाव मिय-महर-सस्सिरी-याहिं वग्गृहिं दोच्चं पि तच्चं पि अणुबूहइ।।
माल्यालंकारों से सत्कार किया, सम्मान किया। सत्कार-सम्मान कर जीवननिर्वाह के योग्य विपुल प्रीतिदान दिया। प्रीतिदान देकर प्रतिविसर्जित किया। प्रतिविसर्जित कर सिंहासन से उठा। उठकर जहां प्रभावती देवी थी वहां आया। वहां आकर प्रभावती देवी को इष्ट यावत् मदु-मधुर और श्री संपन्न शब्दों के द्वारा पुनः पुनः संलाप करता हुआ इस प्रकार बोला-देवानुप्रिये! स्वप्नशास्त्र में बयालीस स्वप्न और तीस महास्वप्नसर्व बहत्तर स्वप्न निर्दिष्ट हैं। देवानुप्रिये ! तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती की माता तीर्थकर अथवा चक्रवर्ती के गर्भावक्रांति के समय इन तीस महास्वप्नों में से ये चौदह महास्वप्न देखकर जागृत होती है। पूर्ववत् यावत् मांडलिक राजा की माता मांडलिक राजा के गर्भावक्रांति के समय इन चौदह महास्वप्नों में से कोई एक महास्वप्न देखकर जागृत होती है। देवानुप्रिये! तुमने एक महास्वप्न देखा है इसलिए देवी ! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् राज्य का अधिपति राजा अथवा भावितात्मा अनगार होगा। देवी! तुमने उदार स्वप्न देखा है यावत् आरोग्य, तुष्टि, दीर्घायु, कल्याण और मंगलकारक स्वप्न देखा है। इस प्रकार उन इष्ट यावत् मृदु मधुर, श्री संपन्न शब्दों के द्वारा दूसरी और तीसरी बार प्रभावती देवी के उल्लास का संवर्द्धन करता है।
१४४. तए णं सा पभावती देवी बलस्स ततः सा प्रभावती देवी बलस्य राज्ञः १४४. वह प्रभावती देवी बल राजा के पास रणो अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म अन्तिकम् एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर हृष्टहट्टतुट्ठा करयलपरिग्गहियं दसनहं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावलें तुष्ट हुई। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्- आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को वयासी-एयमेयं देवणु-प्पिया! जाव तं एवमेतद् देवानुप्रियाः! यावत् तं स्वप्नं मस्तक के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर सुविणं सम्म पडिच्छइ, पडिच्छित्ता सम्यक् प्रतीच्छति, प्रतीष्य बलेन राज्ञा टिकाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! यह बलेणं रण्णा अब्भणुण्णाया समाणी अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नभक्ति- ऐसा ही है यावत् उस स्वप्न को सम्यक् नाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दा- चित्रात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति, स्वीकार किया। स्वीकार कर राजा बल सणाओ अब्भुट्टेइ, अतुरिय-मचवल- अत्वरिताचपलासम्भ्रान्तया अविलम्बितया की अनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणि-रत्नों की मसंभंताए अविलंबियाए रायहंस- राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव स्वके भवने भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी।
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श.११ : उ.११ : सू. १४४-१४७
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भगवई
सरिसीए गईए जेणेव सए भवणे तेणेव उवागच्छइ, उवाग-च्छित्ता सयं भवणमणुपविट्ठा।
तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य स्वकं भवनमनुप्रविष्टा।
अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी जैसी गति के द्वारा जहां अपना भवन था, वहां आई। वहां आकर अपने भवन में अनुप्रवेश किया।
१४५. तए णं सा पभावती देवी बहाया ततः सा प्रभावती देवी स्नाता कृतबलिकर्मा १४५. प्रभावती देवी ने स्नान किया, बलि कयबलिकम्मा जाव सव्वा-लंकार- यावत् सर्वालंकारविभूषिता तं गर्भं नाति- कर्म किया यावत् शरीर को सर्व अलंकार विभूसिया तं गभं नाति-सीतेहिं शीतैः नात्युष्णैः नातितिक्तैः नातिकटुकैः से विभूषित किया। वह उस गर्भ के लिए न नातिउण्हेहिं नातितित्तेहिं नातिकडुएहिं नातिकषायैः नात्याम्लैः नातिमधुरैः ऋतु- अति शीत, न अति उष्ण, न अति तिक्त. नातिकसाएहिं नातिअंबिलेहिं नाति- भजमानसुखैः भोजनाच्छादन-गंध-माल्यैः । न अति कटुक. न अति कषैला, न अति महुरेहिं उउभय-माणसुहेहिं भोयण- यत् तस्य गर्भस्य हितं मितं पथ्यं गर्भ-पोषणं खट्टा, न अति मधुर, प्रत्येक ऋतु में च्छायण-गंध-मल्लेहिं जं तस्स तत् देशे च काले च आहारमाहरन्ती सुखकर भोजन, आच्छादन और गंध, गब्भस्स हियं मितं पत्थं गब्भपोसणं तं विविक्तमृदुकैः शयनासनैः प्रतिरिक्त- माल्य का सेवन करती। जो आहार हित, देसे य काले य आहारमाहारेमाणी शुभायां मनोनुकूलायां विहारभूम्यां प्रशस्त- मित, पथ्य और गर्भ का पोषण करने वाला विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइ. दोहदा सम्पूर्णदोहदा सम्मानितदोहदा था उस देश और काल में वही आहार रिक्कसुहाए मणाणुकुलाए विहार- अविमानित-दोहदा व्युच्छिन्नदोहदा करती। दोष रहित कोमल शय्या पर भूमीए पसत्थदोहला संपुण्णदोहला विनीतदोहदा व्यपगतरोग-शोक-मोह-भय- सोती। एकांत सुखकर मनोनुकूल बिहारसम्माणियदोहला अविमाणिय-दोहला परित्रासात् गर्भ सुखेन परिवहन्ति। भूमि में रहती। इस प्रकार अपने दोहद को वोच्छिण्णदोहला विणीय-दोहला
प्रशस्त किया, अपने दोहद को संपूर्ण ववगयरोग-सोग-मोह-भय-परित्तासा
किया, अपने दोहद का सम्मान किया, तं गब्भं सुहंसुहेणं परिवहति॥
अपने दोहद का लेश मात्र मनोरथ भी अधूरा नहीं छोड़ा, दोहद में उत्पन्न इच्छाओं को पूरा किया, दोहद पूर्ण किया। उसने रोग, शोक, मोह, भय और परित्रास से मुक्त होकर उस गर्भ का सुखपूर्वक वहन किया।
१४६. तए णं सा पभावती देवी नवण्हं ततः सा प्रभावती देवी नवानां मासानां १४६. प्रभावती देवी ने बहु प्रतिपूर्ण नौ मास मासाण बहुपडिपुण्णां अट्ठमाण य बहुप्रतिपूर्णानाम् अर्द्राष्टमानां च और साढे सात रात दिन के व्यतिक्रांत राइंदियाणं वीइक्कं-ताणं सुकुमाल- रात्रिंदिवानां
व्यतिक्रान्तानां होने पर सुकुमाल हाथ पैर वाले. अहीन पाणिपायं अहीण-पडिपुण्णपंचिंदिय- सुकुमालपाणिपादम् अहीन- पंचेन्द्रिय शरीर, लक्षण व्यंजन गुणों से सरीरं
लक्खण-वंजणगुणोववेयं प्रतिपूर्णपञ्चेन्द्रियशरीरं लक्षण-व्यंजन- युक्त, मान, उन्मान और प्रमाण से माणुम्माणप्पमाण-पडिपुण्ण-सुजाय- गुणोपपेतं मानोन्मान-प्रमाण-प्रतिपूर्ण- प्रतिपूर्ण, सुजात, सर्वांग-सुन्दर, चंद्रमा के सव्वंगसुंदरंगं ससि-सोमाकारं कंतं सुजात-सर्वांगसुन्दरांगं शशिसौम्याकारं समान सौम्य आकार वाले, कांत, पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाया। कान्तं प्रियदर्शनं सुरूपं दारकं प्रजाता। प्रियदर्शन और सुरूप पुत्र को जन्म दिया।
१४७. तए णं तीसे पभावतीए देवीए ततः तस्याः प्रभावत्याः देव्याः अंग- १४७. प्रभावती देवी ने पुत्र को जन्म दिया
अंगपडियारियाओ पभावतिं देविं पसूयं प्रतिचारिकाः प्रभावती देवी प्रसूता ज्ञात्वा है-यह जानकर प्रभावती देवी की अंगजाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव यत्रैव बलः राजा तत्रैव उपागच्छन्ति, प्रतिचारिका जहां राजा बल था, वहां उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयल- उपागम्य करतलपरिगृहीतं दशनखं आई। वहां आकर दोनों हथेलियों से
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भगवई
श. ११ : उ.११: सू.१४७-१४९
परिग्गहियं दसनहं सिरसा-वत्तं मत्थए शिरसावर्त्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा बलं अंजलिं कट्ट बलं रायं जएणं विजएणं राजानं जयेन विजयेन वर्धयन्ति, वर्धयित्वा वद्धाति, वडावेत्ता एवं वयासी-एवं एवमवादीत्-एवं खलु देवानुप्रियाः! खलु देवाणुप्पिया! पभावती देवी नवण्हं प्रभावती देवी नवानां मासानां बहुप्रतिमासाणं बहु-पडिपुण्णाणं जाव सुरुवं पूर्णानां यावत् सुरूपं दारकं प्रजाता। तत् एतं दारगं पयाया। तं एयण्णं देवाणुप्पियाणं देवानुप्रियानां प्रियार्थाय प्रियं निवेदयामः। पियट्टयाए पियं निवेदेमो। पियं भे प्रियं भवतां भवत्। भवतु॥
निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर राजा बल को जय विजय के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार बोली-देवानुप्रिय ! प्रभावती देवी ने बहु प्रतिपूर्ण नव मास साढे सात रात दिन के व्यतिक्रांत होने पर यावत् सुरूप पुत्र को जन्म दिया है। इसलिए हम देवानुप्रिय को प्रिय निवेदन करती हैं। आपका प्रिय हो।
१४८. तए णं से बले राया अंगपडि- ततः सः बलः राजा अंगप्रतिचारिकाणाम् यारियाणं अंतियं एयमढे सोच्चा अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टनिसम्म हट्टतुट्ठचित्तमाणदिए णदिए चित्तः आनन्दितः नन्दितः प्रीतिमनाः परम- पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिस- सौमनस्थितः हर्षवशविर्सपद्मानहृदयः वसविसप्पमाणहियए धाराहयनीव- धारा - हतनीपसुरभिकुसुम - चंचुमालाइयसुरभिकुसुम . चंचुमालइयतणुए। तनुकः उच्छितरोमकूपः ताभ्यः अंगप्रतिऊसवियरोमकूवे तासिं अंगपडि- चारिकेभ्यः मुकुटवर्ज यथामालितम् यारियाणं मउडवज्जं जहामालियं अवमोचं ददाति, दत्वा श्वेतं रजतमयं
ओमोयं दलयइ, दलयित्ता सेतं विमलसलिलपूर्ण गारं प्रगृह्णाति, प्रगृह्य स्ययामयं विमलसलिलपुण्णं भिंगारं मस्तकान् धावति, धावित्वा विपुलं जीवनाह पगिण्हइ, पगिण्हित्ता, मत्थए धोवइ, प्रीतिदानं ददाति, दत्वा सत्करोति, धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं सम्मानयति, सत्कृत्य सम्मान्य प्रतिदलयइ, दलयित्ता सक्कारेइ सम्माणेइ, विसृजति। सक्कारेता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ।
१४८ अंग-प्रतिचारिका से इस अर्थ को
सुनकर, अवधारण कर, राजा बल हृष्ट-तुष्ट चित्त वाला, आनंदित, नंदित, प्रीतिपूर्ण मन वाला, परम सौमनस्य युक्त और हर्ष से विकस्वर हृदय वाला हो गया। उसका शरीर धारा से आहत कदंब के सुरभि कुसुम की भांति पुलकित शरीर एवं उच्छ्रसित रोम कूप वाला हो गया। उसने उन अंग-प्रतिचारिकाओं को मुकुट को छोड़ कर धारण किये हुए शेष सभी आभूषण दे दिए। देकर श्वेतरजतमय विमल जल से भरी हई झारी को ग्रहण किया। ग्रहण कर अंग प्रतिचारिकाओं के मस्तक को प्रक्षालित किया। प्रक्षालित कर दासत्व से मुक्त कर जीवन निर्वाह के योग्य विपुल प्रीनिदान दिया। प्रीतिदान देकर सत्कार-सम्मान किया। सत्कारसम्मान कर प्रतिविसर्जित किया।
१४९. तए णं से बले राया कोडुंबिय- ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान् पुरिसे सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-क्षिप्रमेव वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-प्पिया! भो देवानुप्रियाः ! हस्तिनापुरे नगरे चारक- हत्थिणापुरे नयरे चारग-सोहणं करेह, शोधनं कुरुत, कृत्वा मानोन्मानवर्द्धनं करेत्ता माणुम्माण-बढणं करेह, करेत्ता कुरुत, कृत्वा हस्तिनापुरं नगरं हत्थिणापुर नगरं सब्भितरबाहिरियं । साभ्यन्तरबाहिरिकं आसिक्तआसिय-संमज्जि-ओवलितं जाव गंध- सम्मार्जितोवलिप्तं यावत् गन्ध-वर्तिभूतं वट्टिभूयं करेह य कारवेह य, करेत्ता य कुरुत च कारयत च, कृत्वा च कार-यित्वा कारवेत्ता य जूवसहस्सं वा च यूपसहसं वा चक्रसहस्रं वा पूजामहाचक्कसहस्सं वा पूयामहामहिमसं-जुत्तं महिमसंयुक्तम् उच्छ्रयत, उच्छ्रित्य मामेनाम् उस्सवेह, उस्सवेत्ता ममेत माणत्तियं आज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयथ। पच्चप्पिणह॥
१४९. बल राजा ने कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय! हस्तिनापुर नगर में शीघ्र ही चारक-शोधन-बंदियों का विमोचन करो, विमोचन कर मान-उन्मान (तौल-माप) में वृद्धि करो, वृद्धि कर हस्तिनापुर नगर के भीतरी और बाहरी क्षेत्र को सुगंधित जल से सींचो, झाड़-बुहार कर गोबर का लेप करो यावत् प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान करो, कराओ, कर और कराकर यूप-सहस्र और चक्र-सहस्र की पूजा और महामहिमा युक्त
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श.११: उ.११: सू. १४९-१५२
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भगवई
उत्सव करो। उत्सव कर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो।
१५०. तए णं ते कोडुबियपुरिसा बलेणं रण्णा एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा जाव तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति॥
ततः कौटुम्बिकपुरुषाः बलेन राज्ञा एवम् १५०. वे कौटुम्बिक पुरुष बल राजा के इस उक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टाः यावत् ताम् प्रकार कहने पर हृष्ट-तुष्ट हो गए यावत् बल आज्ञप्तिका प्रत्यर्पयन्ति।
राजा की आज्ञा बल राजा को प्रत्यर्पित
की।
१५१. तए णं से बले राया जेणेव ततः सः बलः राजा यत्रैव अट्टनशाला तत्रैव १५१. वह बल राजा जहां व्यायामशाला थी,
अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, उपागच्छति, उपागम्य तत् चैव यावत् वहां आया, वहां आकर पूर्ववत् यावत् उवागच्छित्ता तं चेव जाव मज्जण- मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य स्नानघर से प्रतिनिष्क्रमण किया। घराओ पडिनिक्खमइ, पडि- उच्छुल्काम उत्कराम् उत्कृष्टाम् अदेयाम् प्रतिनिष्क्रमण कर राजा बल ने निर्देश निक्खमित्ता उस्सुक्कं उक्करं उक्किट्ठ। अमेयाम् अभटप्रवेशाम् अदण्डकुदण्डिमाम् दिया-दस दिवस के लिए कुल मर्यादा के अदेज्जं अमेज्जं अभडप्पवेसं अदंड- अधार्याम् गणिकावरनाटकीयकलिताम् अनुरूप पुत्र जन्म महोत्सव मनाया कोदंडिमं अधरिमं गणियावरनाड- अनेकतालाचरानुचरिताम् अनुद्धूयमृदंगाम् जाए-प्रजा से शुल्क और भूमि का कर्षण इज्जकलियं अणेगतालाचराणुचरियं । अम्लानमाल्यदामं प्रमुदितप्रकीडिताम् न करें, क्रय-विक्रय का निषेध करने के अणुद्धयमुइंगं अमिलायमल्लदाम । सपुर-जनजानपदं दशदिवसे स्थितिपतितां कारण देने और मापने की प्रणाली स्थगित पमुइयपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं करोति।
हो गई है। सुभट प्रजा के घर में प्रवेश न दसदिवसे ठिइवडियं करेति॥
करें। राज दण्ड से प्राप्त द्रव्य और कुदंड-अपराधी आदि से प्राप्त दंड द्रव्य न लें। ऋण धारण करने वालों को ऋण मुक्त करें। गणिका आदि के द्वारा प्रवर नाटक किए जाएं, वहां अनेक ताल बजाने वालों का अनुचरण होता रहे, नगर में सतत मृदंग बजते रहें, अम्लान पुष्प मालाएं (तोरणद्वारों आदि पर) बांधी जाएं। इस प्रकार प्रमुदित और खुशियों से झूमते हुए नागरिक और जनपद वासी पुत्र जन्म उत्सव में सहभागी बनें।
भाष्य
१ सूत्र ११९-१३० शब्द विमर्श
• पसत्थ दोहला-प्रशस्त मनोरथ।। •संपुणा दोहला-अभिलषित प्रयोजन की पूर्ति। • सम्माणिय दोहला-प्राप्त और अभिलषित अर्थ का उपयोग।
• अविमाणिय दोहला-वह मनोरथ जो लेश मात्र भी अपूर्ण नहीं रहा।
• वोच्छिण्ण दोहला-दोहद में उत्पन्न इच्छा की पूर्ति।
• विणीय दोहला-दोहद का पूर्ण होना। • जहामालियं-धारण किए हुए। • चारग सोहणं-बंदी जनों की मुक्ति।
• अदंड कोदंडिम-दण्ड-राजदंड से प्राप्त हुआ, कुदण्ड-अपराधी आदि से प्राप्त दंड द्रव्य न लेना।
अधरिम-ऋण धारण करने वालों को करण मुक्त करना। • पमुइय पक्कीलिय-प्रमुदित और खुशियों से झूमते हुए। • दुगुल्ल-वृक्ष-छाल से निष्पन्न वस्त्र युगल।
१५२. तए णं से बले राया दसा-हियाए ततः सः बलः राजा दशाहिकायां १५२. कुल मर्यादा के अनुरूप चल रहे ठिइवडियाए वट्टमाणीए सइए य स्थितिपतितायां वर्तमानायां शतान् च दसाह्निक महोत्सव में बल राजा बल ने साहस्सिए य सयसाह-स्सिए य जाए य साहसिकान् च शतसाहस्त्रिकान् च यागान सैकडों, हजारों, लाखों द्रव्यों से याग कार्य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणेच दायान् च भागान् च ददन् दापयन्, कराए।
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भगवई
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श. ११ : उ.११ : सू. १५२-१५५
य, सइए य सहस्सिए य सयसाहस्सिए शतकान् साहस्रिकान् शतसाहसिकान च य लंभे पडिच्छेमाणे य पडिच्छावेमाणे । लम्भान् प्रतीच्छन् प्रत्येषयन् च एवं चापि य एवं यावि विहरइ॥
विहरति।
दान और भाग (विवक्षित द्रव्य का अंश) दिया, दिलवाया। सैकड़ों, हजारों, लाखों लोगों से उपहार को ग्रहण करता हुआ, स्वीकार करता हुआ, स्वीकार करवाता हुआ विहरण कर रहा था।
१५३. तए णं तस्स दारगस्स ततः तस्य दारकस्य अम्बापितरौ प्रथमे १५३. बालक के माता-पिता ने प्रथम दिन अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइ-वडियं दिवसे स्थितिपतितां कुरुतः, तृतीये दिवसे कुल मर्यादा के अनुरूप महोत्सव मनाया। करेइ, तइए दिवसे चंद-सूरदंसावणियं चन्द्रसूरदर्शनिकां कुरुतः, षष्ठे दिवसे तीसरे दिन चंद्र-सूर्य के दर्शन कराए। छठे करेइ, छठे दिवसे जागरियं करेइ, जागरिकां कुरुतः, एकादशमे दिवसे व्यति- दिन जागरण किया। इस प्रकार ग्यारह एक्कारसमे दिवसे वीइक्कते निव्वत्ते क्रान्ते निवृत्ते अशुचिजातकर्मकरणे सम्प्राप्ते दिन व्यतिक्रांत होने पर अशुचिजात-कर्म असुइजाय-कम्मकरणे संपत्ते बारसमे । द्वादशमे दिवसे विपुलम् अशनं पानं खाद्यं से निवृत्त होकर बारहवें दिन के आने पर
स्वाद्यम् उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्र- विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य उवक्खडावेंति, उवक्खडावेत्ता मित्त- ज्ञाति-निजक -स्वजन-संबन्धि-परिजनं तैयार कराए, कराकर मित्र. शाति, नाइ-नियग-सयण संबंधि-परिजणं राज्ञः च क्षत्रियान् च आमंत्रयति, आमन्त्र्य निजक, स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा रायाणो य खत्तिए य आमंतेति, ततः पश्चात् स्नाताः तं चैव यावत् और क्षत्रियों को आमंत्रित किया, आमंत्रित आमंतेत्ता तओ पच्छा ण्हाया तं चेव सत्कुर्वन्ति संमन्यन्ते, सत्कृत्य सम्मान्य करने के पश्चात् स्नान किया, पूर्ववत् जाव सक्कारेंति सम्माणति, तस्यैव मित्र-ज्ञाति-निजक-स्वजन-संबन्धि- यावत् सत्कार-सम्मान किया, सत्कारसक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तस्सेव मित्त- परिजनस्य राज्ञां च क्षत्रियाणां च पुरतः सम्मान कर उन मित्र, ज्ञाति, निजक, नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स आर्यक-प्रार्यक-पितृप्रार्यकागतं बहुपुरुष- स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा और राईण य खत्ति-याण य पुरओ अज्जय- परम्पराप्ररूढं कुलानुरूपं कुलसदृशं क्षत्रियों के सामने पितामह, प्रपितामह पज्जय-पिउपज्जयागयं बहपुरिस- कुलसन्तानतन्तुवर्द्धन-करम् इदमेतद्रूपं प्रप्रपितामह आदि बहपुरुष की परंपरा से परंपरप्प-रूढं कुलाणुरुवं कुलसरिसं गौणं गुणनिष्पन्नं नामधेयं कुरुतः यस्मात् रूढ, कुलानुरूप, कुल-सदृश, कुल संतान कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेया-रूवं अस्माकम् अयं दारकः बलस्य राज्ञः पुत्रः के तंतु का संवर्द्धन करने वाला, इस प्रकार गोण्णं गुणनिप्फन्नं नामधेज्जं करेंति- प्रभावत्याः देव्याः आत्मजः, तत् भवतु का गुणयुक्त गुणनिष्पन्न नामकरण जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रण्णो अस्माकम् अस्य दारकस्य नामधेयं किया-क्योंकि यह बालक राजा बल का पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तं होउ णं 'महाबलः-महाबलः। ततः तस्य दारकस्य पुत्र और प्रभावती देवी का आत्मज है अम्हं इमस्स दारगस्स नामधेज्जं अम्बापितरौनामधेयं कुरुतः महाबल इति। इसलिए इसका नाम होना चाहिएमहब्बले-महब्बले। तए णं तस्स
'महाबल- महाबल।' तब उसके मातादारगस्स अम्मापियरो नामधेज्जं
पिता ने उस बालक का नाम महाबल करेंति महब्बले त्ति॥
किया।
१५४. तए णं से महब्बले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, (तं जहा- खीरधाईए), एवं जहा दढपइण्णस्स जाव निव्वाय-निव्वाघायंसि सुह-सुहेणं परिवड्डति॥
ततः सः महाबलः दारकः पंचधात्रीपरि- १५४. बालक महाबल पांच धायों के द्वारा गृहीतः,(तद् यथा-क्षीरधात्रया) एवं यथा परिगृहीत (जैसे क्षीर धातृ) इस प्रकार दृढप्रतिज्ञस्य यावत् निर्वातनिर्व्याघाते । दृढ़-प्रतिज्ञ की भांति वक्तव्यता सुखंसुखेन परिवर्धते।
(रायपसेणीय सूत्र ८०५) यावत् निर्वात
और व्याघात रहित स्थान में सुखपूर्वक बढने लगा।
१५५. तए णं तस्स महब्बलस्स दारगस्स ततः तस्य महाबलस्य दारकस्य १५५. उस बालक महाबल के माता-पिता ने
अम्मापियरो अणुपुव्वेणं ठिइवडियं वा अम्बापितरौ अनुपूर्वेण स्थितिपतितां वा __अनुक्रम से कुल मर्यादा के अनुरूप चंद्रचंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा चन्द्रसूरदर्शनिकां वा जागरिकां वा सूर्य के दर्शन कराए, जागरण, नामकरण,
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नामकरणं वा परंगामणं वा पचंकामणं नामकरणं वा पर्यङ्गनं वा पदचंक्रामणं वा वा पजे-मामणं वा पिंडवद्धणं वा प्रजेमापनं वा पिंडवर्द्धनं वा प्रजल्पावनं वा पजपावणं वा कण्णवेहणं वा संवच्छर- कर्णवेधनं वा संवत्सर- प्रतिलेखनं वा पडिलेहणं वा चोलोयणगं वा उवणयणं चूलापनयनं वा उपनयनं वा, अन्यानि वा वा, अण्णाणि य बहूणि गब्भा-धाण- बहूनि गर्भाधान-जन्मादिकानि कौतुकानि जम्मणमादियाई कोउयाई करेंति॥ कुर्वन्ति ।
भूमि पर रेंगना, पैरों से चलना, भोजन प्रारंभ करना, ग्रास को बढ़ाना, संभाषण सिखाना, कर्ण वेधन, संवत्सर प्रतिलेखन (वर्षगांठ-मनाना) चूड़ा धारण करना, उपनयन संस्कार (कलादि ग्रहण) और अन्य अनेक गर्भाधान, जन्म महोत्सव आदि कौतुक किए।
१५६. तए णं तं महब्बलं कुमारं ततः तं महाबलं कुमारं अम्बापितरौ १५६. माता-पिता ने महाबल कुमार को
अम्मापियरो सातिरेगट्ठवासगं जाणित्ता सातिरेकाष्टवर्षकं ज्ञात्वा शोभने तिथिसोभणंसि तिहि-करण-नक्खत्त- करण-नक्षत्र-मुहुर्ते कलाचार्यस्य उपनयतः, तिथि, करण, नक्षत्र और मूहूर्त में मुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेति, एवं एवं यथा दृढप्रतिज्ञः यावत् अलंभोगसमर्थः कलाचार्य के पास भेजा। इस प्रकार जहा दढप्पइण्णे जाव अलंभोगसमत्थे जातः चापि अभवत्।
दृढप्रतिज्ञ की भांति वक्तव्यता यावत् भोग जाए याविहोत्था॥
का उपभोग करने में समर्थ हुआ।
१५७. तए णं तं महब्बलं कुमारं ततः तं महाबलं कुमारं उन्मुक्त- बालभावं १५७. महाबल कुमार बाल्यावस्था को पार उम्मुक्कबालभावं जाव अलंभोग- यावत् अलंभोगसमर्थं विज्ञाय अम्बापितरौ कर यावत् भोग के उपभोग में समर्थ है. यह समत्थं विजाणित्ता अम्मापियरो अट्ठ अष्ट प्रासादावतंसकान् कारयतः-अभ्युद्गत- जानकर माता-पिता ने आठ प्रासादपासायवडेंसए कारेंति-अब्भुग्णय- उच्छित-प्रहसितान् इव वर्णकः यथा अवतंसक बनवाए-अत्यंत ऊंचे, हंसते हुए मूसिय-पहसिए इव वण्णओ जहा राजप्रश्नीये यावत् प्रतिरूपान्। तेषां श्वेतप्रभा पटल की भांति श्वेत वेदिकारायप्पसेणइज्जे जाव पडिवे। तेसिं णं प्रासादा-वतंसकानां बहमध्यदेशभागे, अत्र संयुक्त-रायपसेणइय की भांति वक्तव्यता पासायवडेंसगाणं बहुमज्झ-देसभागे, च महान्त-मेकं भवनं कारयतः-अनेक- यावत् प्रतिरूप थे। उन आठ प्रासादएत्थणं महेगं भवणं कारेंति- स्तम्भशत-सन्निविष्टं वर्णकः यथा अवतंसक के बह मध्य-भाग में एक महान अणेगखंभसयसंनिविट्ठ वण्णओ जहा राजप्रश्नीये प्रेक्षागृहमण्डपे यावत् भवन बनवाया-अनेक सैकड़ों स्तंभों पर रायप्पसेणइज्जे पेच्छाघरमंडवंसि जाव प्रतिरूपान्।
अवस्थित था, रायपसेणइय की भांति पडिरूवे॥
वर्णक-प्रेक्षाघर मंडप यावत् प्रतिरूप था।
१५८. तए णं तं महब्बलं कुमारं ततः तं महाबलं कुमारं अम्बापितरौ अन्यदा १५८. उस महाबल कुमार ने किसी समय
अम्मापियरो अण्णया कयाइ सोभ- कदाचित् शोभने तिथि-करण-दिवस- शोभन तिथि, करण, दिवस, नक्षत्र और गंसि तिहि-करण-दिवस-नक्खत्त- नक्षत्र-मूहूर्ते स्नातं कृतबलिकर्माण मुहूर्त में स्नान किया. बलिकर्म किया, मुहत्तंसि पहायं कयबलिकम्मं कय- कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्तं सर्वालंकार- कौतुक, मंगल और प्रायश्चित्त किया, सर्व कोउय-मंगल-पायच्छित्तं सव्वा- विभूषितं प्रम्रक्षणक-स्नान-गीत-वादित्र- अलंकारों से विभूषित हआ। सौभाग्यवती लंकारविभूसियं पमक्खणग-हाण- प्रसाधन-अष्टांगतिलक-कंकण-अविध- स्त्रियों ने अभ्यंगन, स्नान, गीत. वादित गीय-वाइय-पसाहण-अटुंगतिलग- ववधूपनीतं मंगलसुजम्पितैः च वरकौतुक- आदि से प्रसाधन तथा आठ अंगों पर कंकण-अविहवबहुउवणीयं मंगल- मंगलोप-चारकृतशान्तिकर्म, सदृशीनां तिलक किए. कंकण के रूप में लाल डोरे सुजंपिएहि य वरकोउय-मंगलोवयार- सदृग्त्वचानां सदृखतानां सदृग्लावण्य- को हाथ में बांधा. दधि अक्षत आदि मंगल कयसंतिकम्मं सरि-सियाणं सरित्तयाणं रूप-यौवनगुणोपपेतानां विनीतानां एवं मंगल गीत आशीर्वाद के रूप में गाए, सरिव्वयाणं सरिसलावण्ण-रूव- कृतकौतुक- मंगलप्रायश्चित्तानां सदृग्भ्यः प्रवर कौतुक एवं मंगल-उपचार के रूप में जोव्वणगुणोव-वेयाणं विणीयाणं कय- राजकुलेभ्यः आनीतानाम् अष्टानां शांति कर्म आदि उपनय किए। माता पिता कोउय-मंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं राजवरकन्यकानाम् एकदिवसेन पाणिम् ने एक दिन समान जोड़ी वाली. समान रायकुलेहितो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं अग्राह्यताम्।
त्वचा वाली, समान वय वाली, समान रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं
लावण्य, रूप, यौवन गुणों से उपेत, गिण्हाविंसु॥
विनीत, कौतुक, मंगल एवं प्रायश्चिन की
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श. ११ : उ. ११ : सू. १५८,१५९
हुई, सदृश राजकुलों से आई हुई आठ प्रवर राजकन्याओं के साथ महाबल कुमार का पाणिग्रहण करवाया।
१५९. तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स ततः तस्य महाबलस्य कुमारस्य १५९. महाबल कुमार के माता पिता ने इस
अम्मापियरो अयमेयारुवं पीइदाणं अम्बापितरौ इदमेतद्रूपं प्रीतिदानं दत्तः, आकार वाला प्रीतिदान किया, जैसे-आठ दलयंति, तं जहा-अट्ठ हिरणकोडीओ, तद्यथा-अष्ट हिरण्यकोटीः, अष्ट सुवर्ण- करोड़ हिरण्य, आठ करोड़ स्वर्ण, मुकुटों में अट्ठ सुवण्ण-कोडीओ, अट्ठ मउडे कोटीः, अष्ट मुकुटान् मुकुटप्रवरान्, प्रवर आठ मुकुट, कुंडल युगलों में प्रवर मउडप्पवरे, अट्ठ कुंडलजोए कुंडल- अष्टकुण्डल जोए' कुण्डलजोयप्रवराणि अष्ट आठ कुंडल-युगल, हारों में प्रवर आठ हार, जोयप्पवरे अट्ट हारे हारप्पवरे, अट्ठ । हारान् हारप्रवरान् अष्ट अर्द्धहारान् अर्द्धहारों में प्रवर आठ अर्द्धहार, अद्धहारे अद्धहारप्पवरे, अट्ट एगा. अर्द्धहारप्रवरान्, अष्ट एकावलीः एकावली- एकावलियों में प्रवर आठ एकावली, इसी वलीओ एगावलिप्पवराओ, एवं मुत्ता- प्रवराः, एवं मुक्तावलीः, एवं कनकावलीः, प्रकार आठ मुक्तावली. इसी प्रकार आठ वलीओ, एवं कणगावलीओ, एवं एवं रत्नावलीः, अष्ट कटकयुगानि कटक- कनकावली, इसी प्रकार आठ रत्नावली, रयणावलीओ, अट्ठ कडगजोए कडग- युगप्रवराणि एवं ‘तुडिय' युगानि अष्ट कड़ों की जोड़ी में प्रवर आठ कड़ों की जोड़ी, जोयप्पवरे, एवं तुडियजोए, अट्ठ क्षौमयुगलानि क्षौमयुगलप्रवराणि, एवं इसी प्रकार आठ बाजूबंध की जोड़ी, क्षौमखोमजुयलाई खोमजुयलप्प-वराई, एवं 'वडग' युगलानि, एवं पट्ट- युगलानि, एवं युगल में आठ प्रवर क्षौम-युगल वस्त्र, आठ वडगजुयलाई, एवं पट्टजुयलाइं, एवं 'दुगुल्ल' युगलानि, अष्ट श्रियः, अष्ट हियः टसर-युगल (एक तरह का कड़ा, मोटा दुगुल्लजुयलाई, अट्ठ सिरीओ, अट्ठ। एवं धियः, कीर्तीः, बुद्धीः, लक्ष्मीः, अष्ट रेशम या उसका बना कपड़ा) इसी प्रकार हिरीओ एवं धिइओ, कित्तीओ, नन्दानि, अष्ट भद्रानि, अष्ट तलान् आठ पट्ट-युगल, इस प्रकार आठ वृक्ष छाल बुद्धीओ, लच्छीओ, अट्ठ नंदाई, अट्ठ तलप्रवरान् सर्वरत्नमयान् निज- से निष्पन्न वस्त्र-युगल, आठ श्री, आठ ही, भदाई, अट्ठ तले तलप्पवरे कवरभवनकेतून् अष्ट ध्वजान् ध्वजप्रवरान, इस प्रकार आठ धृति, कीर्ति, बुद्धि, सव्वरयणामए, नियगवरभवणकेऊ अट्ठ । अष्ट व्रजान् व्रजप्रवरान् दशगोसाहसिकेण लक्ष्मी, रत्नमय आठ नंद-मंगल वस्तुएं, झए झयप्पवरे, अट्ठ वए बयप्पवरे व्रजेन, अष्ट नाटकानि नाटकप्रवराणि आठ भद्र-मूढ आसन और ताल में प्रवर दसगोसाहस्सिएणं वएणं, अट्ठ नाडगाइं द्वात्रिंशद्बद्धेन नाटकेन, अष्ट अश्वान् आठ तालवृक्ष, निज घर के लिए केतु रूप नाडगप्पवराई बत्तीस-इबद्धेणं नाडएणं, अश्वप्रवरान् सर्वरत्नमयान् श्रीगृह- ध्वजों में प्रवर आठ ध्वज, दस दस हजार अट्ठ आसे आसप्पवरे सव्वरयणामए प्रतिरूपकान, अष्ट हस्तिनः हस्तिप्रवरान् । गायों वाले गोकुलों में प्रवर आठ गोकुल, सिरिघर- पडिरूवए, अट्ट हत्थी सर्वरत्नमयान् श्रीगृहप्रतिरूपकान्, अष्टानि बत्तीस व्यक्तियों द्वारा किए जाने वाले हत्थिप्पवरे सव्वरयणामए सिरिघर- यानानि यानप्रवराणि, अष्ट युगानि नृत्य में प्रवर आठ नृत्य, अश्वों में प्रवर पडिरूवए, अट्ठ जाणाई जाणप्पवराई, युगप्रवराणि, एवं शिबिकाः, एवं स्यन्द- श्रीगृह रूप आठ रत्नमय अश्व, हस्तियों में अट्ठ जुगाई जुगप्पवराई, एवं सिबि- मानिकाः, एवं गिल्लीओ, 'थिल्लीओ', प्रवर श्रीगृह रूप आट रत्नमय हस्ती, यानों याओ, एवं संदमाणीओ, एवं गिल्लीओ। अष्ट विकट-यानानि विकटयानप्रवराणि, में प्रवर आठ यान, युग्यों में प्रवर आठ थिल्लीओ, अट्ठ वियडजाणाई वियड- अष्ट रथान् पारियानिकान्, अष्ट रथान् युग्य-वाहन, इस प्रकार शिविका, इस जाणप्पवराई, अट्ठ रहे पारिजाणिए, सांग्रामिकान्, अष्ट अश्वान् अश्वप्रवरान्, प्रकार स्यंदमानिका, इसी प्रकार डोली, दो अट्ठ रहे संगामिए, अट्ठ आसे अष्ट हस्तिनः हस्तिप्रवरान्, अष्ट ग्रामान् खच्चरों वाली बग्घी, विकट यान में आठ आसप्पवरे, अठ्ठ हत्थी हत्थिप्पवरे, अट्ठ ग्रामप्रवरान् दशकुलसाहस्रिकेण ग्रामेण, प्रवर विकट (खुले) यान, आठ गामे गामप्पवरे दसकुलसाहस्सिएणं अष्ट दासान् दासप्रवरान्, एवं दासीः, एवं पारियानिक रथ. आठ सांग्रामिक रथ, गामेणं, अट्ठ दासे दासप्पवरे, एवं किंकरान्, एवं कंचुकीयान्, एवं वर्षधरान्, अश्वों में प्रवर आठ अश्व, हस्तियों में प्रवर दासीओ, एवं किंकरे, एवं कंचुइज्जे, एवं एवं महत्तरकान् अष्ट सौवर्णिकान् आठ हस्ति, दस हजार कुलों (परिवारों) से वरिसधरे, एवं महत्तरए, अट्ट सोवण्णिए अवलम्बनदीपान्, अष्ट रूप्यकमयान् युक्त एक ग्राम होता है ऐसे ग्रामों में प्रवर
ओलंबणदीवे, अट्ठ रुप्पामए ओलबंण- अवलम्बनदीपान्, अष्ट सुवर्ण-रूप्यकमयान् आठ ग्राम, दासों में प्रवर आठ दास, इसी दीवे, अट्ट सोवण्णरुप्पामए ओलंबण- अवलम्बनदीपान्, अष्ट सौवर्णिकान् प्रकार दासी, किंकर, कंचुकी-पुरुष, दीवे, अट्ठ सोवण्णिए उक्कंबण-दीवे, अवकम्बनदीपान एवं चैव त्रीन् अपि, अष्ट वर्षधर (अंतःपुर रक्षक) और महत्तरक, एवं चेव तिण्णि वि, अट्ट सोवण्णिए सौवर्णिकान् पञ्जरदीपान् एवं चैव त्रीन् आठ सोने के अवलंबक दीपक, आठ चांदी पंजरदीवे, एवं चेव तिण्णि वि, अट्ठ अपि, अष्ट सौवर्णिकान स्थालान्, अष्ट के अवलंबक दीपक, आठ स्वर्ण-रजत के
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श. ११ : उ. ११ : सू. १५९
सोवणिए थाले अट्ठ सुवण्णरुप्पामए थाले, अट्ठ रुप्पामए थाले, अट्ठ सोवण्णियाओ पत्तीओ ३. अट्ठ सोवण्णियाई थासगाई ३, अट्ठ सोवण्णियाई मल्लगाई ३, अट्ठ सोवण्णियाओ तलियाओ ३, अट्ठ सोवण्णियाओ कविचियाओ ३, अट्ठ सोवण्णिए अवएडए ३, अट्ठ सोवण्णियाओ अवयक्काओ ३, अट्ठ सोवण्णिए पायपीढए ३, अट्ठ सोवण्णियाओ भिसियाओ ३, अट्ठ सोवण्णियाओ करोडियाओ ३, अट्ठ सोवण्णिए पल्लंके ३, अट्ठ सोवण्णियाओ पडिसेज्जाओ ३, अट्ठ हंसा-सणाई, अट्ट कोंचासणाई, एवं गरुलासणाई, उन्नयासणाई, पणयासणाई, दीहासणाई, भद्दास - णाई, पक्खासणाई, मगरासणाई, अट्ठ पउमासणाई, अट्ठ दिसा - सोवत्थिया - सणाई, अट्ठ तेल्ल - समुग्गे, अट्ठ कोट्ठसमुग्गे, एवं पत्त- चोयग - तगर - एल-हरियाल - हिंगुलय-मणो सिलअंजण - समुग्गे, अट्ठ सरिसव - समुग्गे, अट्ठ खुज्जाओ जहा ओववाइए जाव अट्ट पारिसीओ अट्ठ छत्ते, अट्ठ छत्तधारीओ चेडीओ, अट्ठ चामराओ, अट्ठ चामरधारीओ चेडीओ अट्ठ तालियंते, अट्ठ तालियंटधारीओ चेडीओ, अट्ठ करोडियाओ, अट्ठ करोडिया धारीओ चेडीओ, अट्ठ खीरधाईओ, अट्ठ मज्जणधाईओ, अट्ट मंडणधाईओ अट्ट खेल्लावण-धाईओ, अट्ट अंकधाईओ, अट्ठ अंगमद्दियाओ, अ उम्महियाओ अट्ठ ण्हावियाओ, अट्ठ पसा-हियाओ, अट्ठ वण्णगपेसीओ अट्ठ चुगपेसीओ अट्ठ कीडागारीओ, अट्ठ दवकारीओ, अट्ठ उवत्था - णियाओ, अट्ठ नाडइज्जाओ, अट्ठ कोडुंबणीओ, अट्ट महाणसिणीओ, अट्ठ भंडागारिणीओ, अब्भा - धारिणीओ, अट्ठपुप्फघरणीओ, अट्ठ पाणिघरणीओ, अट्ठ बलिका- रीओ, अट्ठ सेज्जाकारीओ, अट्ठ अब्भितरियाओ पडिहारीओ अट्ठ बाहिरियाओ पडिहारीओ, अट्ठ
अट्ठ
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रूप्यकमयान् स्थालान्, अष्ट सुवर्णरूप्य कमयान् स्थालान्, अष्टा सौवर्णिकाः पात्रीः ३, अष्ट सौवर्णिकानि 'थासगाई' ३ अष्ट सौवर्णिकानि सौवर्णिका:
'मल्ल गाई' ३, अष्ट 'तलियाओ' ३. अष्ट सौवर्णिका: 'कविचियाओ' ३, अष्ट सौवर्णिकान् 'अवएडए' ३, अष्ट सौवर्णिकाः 'अवयक्काओ', ३, अष्ट सौवर्णिकान् पादपीठान् ३, अष्ट सौवर्णिकाः 'भिसियाओ' ३. अष्ट सौवर्णिकाः 'करोडियाओ' ३, अष्ट सौवर्णिकान् पर्यकान् ३, अष्ट सौवर्णिकाः प्रतिशयाः ३, अष्ट हंसासनानि, अष्टानि क्रौंचासनानि, एवं गरुडासनानि, उन्नतासनानि, प्रणतासनानि दीर्घासनानि, भद्रासनानि, पक्षासनानि, मकरासनानि, अष्ट, पद्मासनानि, अष्टानि दिशासौवस्तिकासनानि, अष्ट तैलसमुद्वान्, अष्ट कोष्ठसमुद्गान् एवं पत्र'चोयग' - तगर - एला - हरिताल - हिंगुलकमनःशिला - अंजन-समुद्वान्, अष्ट सर्षपसमुद्गान्, अष्ट 'खुज्जाओ' यथा औपपातिके यावत् अष्ट पारसीः, अष्टानि छत्राणि, अष्ट छत्रधारी: चेटी, अष्ट चामराणि, अष्ट चामरधारिकाः चेटीः, अष्ट तालवृन्तानि, अष्ट तालवृन्तधारिकाः चेटीः, अष्ट 'करोडियाओ', अष्ट 'करोडियाधारीः ' चेटीः, अष्ट क्षीरधात्री, अष्ट मज्जनधात्रीः, अष्ट मण्डनधात्री, अष्ट खेलनकधात्रीः, अष्ट अंकधात्रीः, अष्ट अंगमर्दिकाः, अष्ट उन्मर्दिकाः अष्ट स्नापिकाः, अष्ट प्रसाधिकाः, अष्ट वर्णकपेषिकाः, अष्ट चूर्णकपेषिकाः, अष्ट क्रीडाकारिकाः, अष्ट 'दवकारीओ', अष्ट उपस्थानिकाः, अष्ट नाटकीयाः, अष्ट कौटुम्बिनीः अष्ट महानसिनीः, अष्ट भाण्डागारिणीः, अष्ट अर्भकधारिणीः, अष्ट पुष्पगृहिणीः, अष्ट पानीयगृहिणीः, अष्ट बलिकारिकाः, अष्ट शय्याकारिकाः, अष्ट अभ्यन्तरिकाः प्रतिहारिकाः, अष्ट बाहिरिकाः, प्रतिहारिकाः, अष्ट मालाकारिकाः, अष्ट प्रेषणकारिकाः, अन्यत् वा सुबहु हिरण्यं वा सुवर्णं वा, कांस्यं वा दूष्यं वा विपुलधनकनकरत्नमणि- मौक्तिक शंख-शिलाप्रवाल- रक्तरत्न-सत्सारस्वापतेयम्, अलं
भगवई
अवलंबक दीपक, आठ स्वर्ण के उत्कंचक (ऊर्ध्व दंड युक्त) दीपक, इसी प्रकार रजत और स्वर्ण रजत के उत्कंचक दीपक, आठ स्वर्ण के पंजर (अभ्रपटल युक्त) दीपक, इसी प्रकार रजत और स्वर्ण रजत के आठ पंजर दीपक, आठ स्वर्ण की थाली, आठ रजत की थाली, आठ स्वर्ण रजत की थाली, आठ स्वर्ण परात, आठ रजत परात, आठ स्वर्ण रजत परात आठ स्वर्ण स्थासक, आठ रजत स्थासक, आठ स्वर्णरजत स्थासक, आठ स्वर्ण मल्लक (कटोरे); आठ रजत मल्लक, आठ स्वर्णरजत मल्लक, आठ स्वर्ण तलिका (पात्रविशेष) आठ रजत तलिका, आठ स्वर्णरजत तलिका, आठ स्वर्ण कलाचिका, आठ रजत कलाचिका आठ स्वर्ण रजत कलाचिका, आठ स्वर्ण तापिकाहस्तक ( संडासी), आठ रजत तापिकाहस्तक, आठ स्वर्ण रजत तापिकाहस्तक, आठ स्वर्ण तवे, आठ रजत तवे, आठ स्वर्णरजत तवे, आठ स्वर्ण पादपीठ, आठ रजत पादपीठ, आठ स्वर्ण रजत पादपीठ, आठ स्वर्ण भीषिका (आसन-विशेष), आठ रजत भीषिका, आठ स्वर्ण-रजत भीषिका, आठ स्वर्ण करोटिका (लोटा) आठ रजत करोटिका, आठ स्वर्ण, रजत करोटिका, आठ स्वर्ण पर्यंक, आठ रजत पर्यक, आठ स्वर्ण, रजत पर्यंक, आठ स्वर्ण प्रतिशय्या, आठ रजत प्रतिशय्या, आठ स्वर्ण रजत प्रतिशय्या, आठ स्वर्ण, हंसासन, आठ रजत हंसासन, आठ स्वर्ण रजत हंसासन, आठ स्वर्ण क्रौंचासन, आठ रजत क्रौंचासन, आठ स्वर्ण रजत क्रौंचासन, इसी प्रकार आठ गरुड़ासन, उन्नतआसन, प्रणत- आसन, दीर्घ आसन, भद्रासन, पक्षासन. मकरासन, आठ पद्मासन, आठ दिक् स्वस्तिक आसन, आठ तेल के डिब्बे, आठ सुगंधित चूर्ण के डिब्बे, इसी प्रकार आठ नागर, धूमवास, तगर, इलायची, हरताल हिंगुर, मनःशिल और अंजन के डिब्बे, आठ सर्षप के डिब्बे, आठ कुब्जा दासियां औपपातिक की भांति वक्तव्यता यावत् आठ पारसी दासियां, आठ छत्र, आठ छत्रधारिणी दासियां, आठ
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श. ११ : उ. ११ : सू. १५९,१६०
यावत् आसप्तमात् कुलवंशात् प्रकामं दातुं. प्रकामं भोक्तुं, प्रकामं परिभाजयितुम्।
मालाकारीओ, अट्ठ पेसणकारीओ, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा सुवण्णं वा कंसं वा दूसं वा विउलधण-कणगरयण-मणि-मोत्तिय-संख-सिलप्पवालरत्तरयण-संतसार-सावएज्जं, अलाहि जाव आसत्त-माओ कुल-वंसाओ पकाम दाउं, पकामं भोत्तुं, पकामं परिभाएउं॥
चामर, आठ चामरधरिणी दासियां, आठ तालवृंत (वीजन), आठ तालवृतधारिणी दासियां, आठ करोटिका, आठ करोटिकाधारिणी दासियां, आठ क्षीरधात्रियां, आठ मजनधात्रियां, आठ मंडनधात्रियां, आठ खेलनकधात्रियां, आठ अंक-धात्रियां, आठ अंगमर्दिका, आठ उन्मर्दिका, आठ स्नान कराने वाली, आठ मंडन (प्रवर पोशाक पहनाने वाली) करने वाली, आठ चन्दन आदि घिसने वाली, आठ चूर्णक (तांबूल, गंधद्रव्य आदि) पीसने वाली, आठ क्रीड़ा कराने वाली, आठ परिहास करने वाली, आठ आसन के समीप रहने वाली, आठ नाटक करने वाली, आठ कौटुम्बिक आज्ञाकारिणी दासियां, आठ रसोई बनाने वाली, आठ भंडार की रक्षा करने वाली, आठ बालक का लालन-पालन करने वाली दासियां, आठ पुष्पधारिणी (पुष्प की रक्षा करने वाली), आठ पानी भरने वाली, आठ बलि करने वाली, आठ शय्या करने वाली, आठ आभ्यंतर प्रातिहारियां, आठ बाह्य प्रातिहारियां, आठ माला बनाने वाली, आठ आटा आदि पीसने वाली, इसके अतिरिक्त बहुत सारा हिरण्य, सुवर्ण, कांस्य, दृष्य (वस्त्र), विपुल वैभव, कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, शंख, मनःसिल, प्रवाल, लालरत्न और श्रेष्ठ सार-इन वैभवशाली द्रव्यों का प्रीतिदान किया, जो सातवीं पीढ़ी तक प्रकाम देने के लिए, प्रकाम भोगने और बांटने के लिए समर्थ
था।
१६०. तए णं से महब्बले कुमारे ततः सः महाबलः कुमारः एकैकस्यै भार्यायै १६०. महाबल कुमार ने प्रत्येक पत्नी को एगमेगाए भज्जाए एगमेगं हिरण्ण-कोडिं एकैकां हिरण्यकोटिं ददाति, एकैकां एक-एक कोटि हिरण्य दिया. एक-एक दलयइ, एगमेगं सुवण्णकोडिं दलयइ, सुवर्णकोटिं ददाति, एकैकां मुकुट मुकुटप्रवरं कोटि सुवर्ण दिया, एक-एक मुकुटों में प्रवर एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयइ, एवं तं ददाति, एवं तत् चैव सर्वं यावत् एकैकां मुकुट दिया, इसी प्रकार संपूर्ण वर्णन चेव सव्वं जाव एगमेगं पेसणकारिं प्रेषणकारिकां ददाति, अन्यत् वा सुबहु पूर्ववत यावत् एक-एक आटा आदि पीसने दलयइ, अण्णं वा सुबहुं हिरण्णं वा हिरण्यं वा सुवर्ण वा कांस्यं वा दूष्यं वा वाली दासी दी। इसके अतिरिक्त बहुत सुवण्णं वा कंसं वा दूसं वा विउलधण- विपुलधन - कनक - रत्न - मणि-मौक्तिक- सारा हिरण्य, सुवर्ण. कांस्य. दृष्य (वस्त्र) कणग-रयण - मणि • मोत्तिय - संख- शंख-शिला - प्रवाल - रक्तरत्न - सत्सार- विपुल वैभव. कनक, रत्न, मणि, मौक्तिक, सिल-प्पवाल - रत्तरयण - संतसार- स्वापतेयम्, अलं यावत् आसप्तमात् शंख, मनःशिल, प्रवाल, लालरत्न और सावएज्ज अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंशात् प्रकामं दातुं, प्रकामं भोक्तुं, श्रेष्ठसार-इन वैभवशाली द्रव्यों का कुल-वंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोत्तुं, प्रकामं परिभाजयितुम्।
प्रीतिदान किया, जो सातवीं पीढ़ी तक
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श. ११ : उ. ११ : सू. १६०-१६५
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पकामं परिभाएउं॥
प्रकाम देने के लिए, प्रकाम भोगने और बांटने के लिए समर्थ था।
१६१. तए णं से महब्बले कुमारे उप्पिं ततः सः महाबलः कुमारः उपरि पासायवरगए जहा जमाली जाव प्रासादवरगतः यथा जमालिः यावत् पञ्चपंचविहे माणुस्सए कामभोगे पच्चणु- विधान् मानुष्यकान् कामभोगान् प्रत्यनुभवन् ब्भवमाणे विहरइ॥
विहरति।
१६१. महाबल कुमार अपने प्रवर प्रासाद के
उपरिभाग में जैसे जमाली की यावत् पंचविध मनुष्य संबधी काम-भोग को भोगता हुआ विहार करने लगा।
१६२. तेणं कालेणं तेणं समएणं विमलस्स तस्मिन् काले तस्मिन् समये विमलस्य
अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नाम अर्हतः ‘पओप्पए' धर्मघोषः नाम अनगारः अणगारे जाइसंपन्ने वण्णओ जहा। जातिसम्पन्नः वर्णकः यथा केशिस्वामिनः केसिसामिस्स जाव पंचेहि अणगार- यावत् पञ्चभिः अनगारशतैः सार्धं सएहिं सद्धिं संपरिबुडे पुव्वाणुपुब्बिं सम्परिवृतः पूर्वानुपूर्वी चरन् ग्रामानुग्रामं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे दवन् यत्रैव हस्तिनापुर नगरम्, यत्रैव जेणेव हत्थिणापुरे नगरे, जेणेव सहसंब- सहस्रामवनम् उद्यानम् तत्रैव उपागच्छति, वणे उज्जाणे, तेणेव उवागच्छइ, उपागम्य यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं अवगृह्णाति, अवगृह्य संयमेन तपसा ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं आत्मानं भावयन् विहरति। भावेमाणे विहरइ॥
१६२. उस काल और उस समय अर्हत् विमल (तेरहवें तीर्थंकर) के प्रपौत्र (प्रशिष्य) जातिसंपन्न वर्णक केशीस्वामी (रायपसेणइय-६८७) की भांति वक्तव्यता यावत् धर्मघोष नामक अणगार पांच सौ अणगारों के साथ संपरिवृत होकर क्रमानुसार विचरण, ग्रामानुग्राम परिव्रजन करते हुए जहां हस्तिनापुर नगर था जहां सहस्रामवन उद्यान था, वहां आए। वहां आकर प्रवास योग्य स्थान की अनुमति ली, अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे थे।
१६३. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिघाडग- तिय-चउक्क-चउम्मुह-महापह-पहेसु महया जणसद्दे इ वा जाव परिसा पज्जुवासइ॥
ततः हस्तिनापुरे नगरे शृंगाटक-त्रिक- चतुष्क - चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु महान् जनशब्द इति वा यावत् पर्षत् पर्युपास्ते।
१६३. हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर महान् जन सम्मर्द यावत् परिषद् पर्युपासना करने लगी।
१६४. तए णं तस्स महब्बलस्स ततः तस्य महाबलकुमारस्य तं महत्-जन- कुमारस्स तं मयाजणसई वा जणवूहं शब्दं वा जनव्यूह वा यावत् जनसन्निपातं वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा श्रृण्वतः वा पश्यतः वा एवं यथा जमाली वा पासमाणस्स वा एवं जहा जमाली तथैव चिंता, तथैव कञ्चुकीयपुरुषं तहेव चिंता, तहेव कंचुइज्ज पुरिसं शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्-किं सद्दावेति, सहावेत्ता एवं वयासी-किण्णं देवानुप्रिया ! अद्य हस्तिनापुरे नगरे इन्द्रमहः देवाणुप्पिया! अज्ज हत्थिणापुरे नयरे इति वा यावत् निर्गन्छन्ति। इंदमहे इ वा जाव निग्गच्छंति॥
१६४. महाबल कुमार उस महान् जन
सम्मर्द जन-व्यूह यावत् जन-सन्निपात सुन कर, देखकर इस प्रकार जैसे जमालो की वैसे ही सोचा, कंचुकी पुरुष को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रियो! क्या हस्तिनापुर नगर में इन्द्र महोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं?
१६५. तए णं से कंचुइ-पुरिसे महब्बलेणं ततः सः कञ्चुकिपुरुषः महाबलेन कुमारेण कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्टे एवम् उक्ते सति हृष्टतुष्टः धर्मघोषस्य धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमण- अनगारस्य आगमनगृहीतविनिश्चयः कर- गहियविणिच्छए करयल-परिग्गहियं तलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त मस्तके दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट अञ्जलिं कृत्वा जयेन विजयेन वर्धयति, महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वदावेइ, वर्धयित्वा एवमवादीत्-नो खलु
१६५. महाबलकुमार के यह कहने पर वह कंचुकी पुरुष हृष्टतुष्ट हो गया। उसने धर्मघोष अनगार के आगमन का निश्चय होने पर दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दस नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर
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वळावेत्ता एवं वयासी - नो खलु देवाप्पिया! अज्ज हत्थिणापुरे नगरे इंदम इ वा जाव निग्गच्छंति । एवं खलु देवाप्पिया! अज्ज विमलस्स अहओ पओप्प धम्मघोसे नामं अणगारे हत्थणापुरस्स नगरस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पा भावेमाणे विहरइ, तए णं एते बहवे उग्गा, भोगा जाव निग्गच्छति ॥
१६६. तए णं से महब्बले कुमारे तहेव रहवरेणं निग्गच्छति । धम्मका जहा केसिसामिस्स । सो वि तहेव अम्मापियरं आपुच्छइ, नवरं - धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए । तहेव वृत्तपडिवुत्तिया, नवरं इमाओ य ते जाया ! विउलरायकुलबालियाओ कलाकुसल - सव्वकाललालिय- सुहोचियाओ सेसं तं चेव जाव ताहे अकामाई चैव महब्बलकुमारं एवं वयासी- तं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रज्जसिरिं पासित्तए ।
१६७. तए णं से महब्बले कुमारे अम्मापि वयणमणुयत्तमाणे णीए संचिट्ठा ॥
तुसि
१६८. तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सहावेs, एवं जहा सिवभद्दस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियव्वो जाव अभिसिंचति, करयलपरिग्गहियं दसनहं सिर- सावत्तं मत्थए अंजलि क महब्बलं कुमारं जएणं विजएणं वावेति वळावेत्ता एवं वयासी भण जाया! किं देमो ? किं पयच्छामो ? सेसं जहा जमालिस्स तहेव जाव
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देवानुप्रियः ! अद्य हस्तिनापुरे नगरे इन्द्रमहः इति वा यावत् निर्गच्छन्ति। एवं खलु देवानुप्रियः ! अद्य विमलस्य अर्हतः 'पओप्पए' धर्मघोषः नाम अनगारः हस्तिनापुरस्य नगरस्य बहिः सहस्राम्रवने उद्याने यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति, ततः एते बहवः उग्राः भोगाः यावत् निर्गच्छन्ति ।
ततः सः महाबलः कुमारः तथैव रथवरेण निर्गच्छति। धर्मकथा यथा केशिस्वामिनः । सः अपि तथैव अम्बापितरौ आपृच्छति, नवरं धर्मघोषस्य अनगारस्य अन्तिकं मुण्डः भूत्वा अगारात् अनगारितां प्रव्रजितुम् । तथैव उक्तप्रत्युक्तिका, नवरं इमाः च ते जातः ! विपुलराज - कुलबालिकाः कलाकुशल- सर्वकलालालित-सुखोचिताः शेषं तत् चैव यावत् तदा अकामानि चैव महाबलकुमारम् एवम् अवादिष्टाम्-तत् इच्छावः तव जात! एकदिवसमपि राज्यश्रियं द्रष्टुम् ।
ततः सः महाबलः कुमारः अम्बा
पितृवचनमनुवर्त्तमानः तूष्णीकः संतिष्ठते।
ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान् शब्दयति, एवं यथा शिवभद्रस्य तथैव राजाभिषेकः भणितव्यः यावत् अभिसिञ्चति, करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्तं मस्तके अञ्जलिं कृत्वा महाबलं कुमारं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा एवम् अवादीत्-भण जात! किं दद्वः, किं प्रयच्छावः ? शेषं यथा जमालेः तथैव ताव
श. ११ : उ. ११ : सू. १६५-१६८ टिकाकर महाबल कुमार को 'जय विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर वह इस प्रकार बोला- देवानुप्रिय ! आज हस्तिनापुर नगर में न इन्द्रमहोत्सव है यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं। देवानुप्रिय ! आज अर्हत् विमल के प्रशिष्य, धर्मघोष नामक अनगार हस्तिनापुर नगर के बाहर सहस्राम्रवन उद्यान में प्रवास योग्यस्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं इसलिए ये बहुत उग्र, भोज यावत् सार्थवाह आदि निर्गमन कर रहे हैं।
१६६. महाबल कुमार ने उसी प्रकार श्रेष्ठ रथ पर बैठकर निर्गमन किया। धर्म कथा केशी स्वामी की भांति वक्तव्य है। उसने उसी प्रकार माता-पिता से पूछा, इतना विशेष है- धर्मघोष अनगार के पास मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होना चाहता हूं। उसी प्रकार उत्तर- प्रत्युत्तर, इतना विशेष है-जात! ये तुम्हारी आठ गुण वल्लभ पत्नियां, जो विशाल कुल की बालिकाएं, कला कुशल, सर्वकाल लालित, सुख भोगने योग्य शेष (भ. ९/ १७३) जमालि की भांति वक्तव्यता यावत् उसके माता-पिता ने अनिच्छापूर्वक महाबल कुमार को इस प्रकार कहा जात! हम तुम्हें एक दिन के लिए राज्यश्री से संपन्न (राजा) देखना चाहते हैं।
१६७. महाबल कुमार माता-पिता के वचन का अनुवर्तन करता हुआ मौन हो गया।
१६८. बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, इस प्रकार शिवभद्र की भांति राज्याभिषेक वक्तव्य हैं, यावत् अभिसिक्त किया, दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर, मस्तक पर टिकाकर महाबल कुमार को 'जय विजय' के द्वारा वर्धापित किया। वर्धापित कर इस प्रकार कहा जात!
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श. ११ : उ. ११ : सू. १६८-१७०
मासद्ध
१६९. तए णं से महब्बले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइया चोद्दसपुव्वाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहिं चउत्थ - छट्ठम- दसम - दुबालसेहिं मासखमणेहि विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुणाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउण, पाउणत्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समा-हिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्डुं चंदिम- सूरिय- गहगण-नक्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई, बहूई जयसाई, बहूई जोयणसह - स्साई, बहूई जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्डुं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाण- सणकुमार - माहिंदे कप्पे वीईवइत्ता बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस साग - रोवमाई ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं महब्बलस्स वि देवस्स दस सागरोवमाइंठिती पण्णत्ता । से णं तुम सुदंसणा ! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाई दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरित्ता तओ देव - लोगाओ आउक्खणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता इहेव वाणियग्गामे नगरे सेट्ठि- कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाए ।
१७०. तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विण्णय-परिणयमेत्तेणं जोव्वणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलि - पण्णत्ते धम्मे निसंते, सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुइए। तं सुट्टु णं तुमं सुदंसणा ! इदाणिं पि करेसि। से तेणट्टेणं सुदंसणा ! एवं बुच्चइ-अत्थि णं एतेसिं पलि-ओवमसागरोवमाणं खपति वा अवचएति वा ।।
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ततः सः महाबलः अनगारः धर्मघोषस्य अन्तिकं सामायिकादिकानि चतुर्दशपूर्वाणि अधीते, अधीत्य बहुभिः चतुर्थ षष्ठअष्टम-दशम-द्वादशैः मासार्द्धमासक्षपणैः विचित्रैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् बहुप्रतिपूर्णानि द्वादशवर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषित्वा षष्ट भक्तानि अनशनेन छित्त्वा आलोचित प्रतिक्रान्तः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा ऊर्ध्वं चन्द्रमस्-सूर्यग्रहगण-नक्षत्र-तारारूपाणां बहूनि योजनानि, बहूनि योजनशतानि बहूनि योजन सहस्राणि बहूनि योजनशतसहस्राणि, बह्वयः योजनकोट्यः बह्वयः योजन- कोटिकोट्याः ऊर्ध्वं दूरम् उत्पत्य सौधर्मेशान-सनत्कुमारमाहेन्द्रे कल्पे व्यतिव्रज्य ब्रह्मलोके कल्पे देवत्वेन उपपन्नः । तत्र अस्त्येककानां देवानां दश सागरोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र महाबलस्यापि देवस्य दश सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । अथ त्वं सुदर्शन! ब्रह्मलोके कल्पे दश सागरोपमाणि दिव्यान् भोगभागान् भुञ्जानः विहृत्य तस्मात् देवलाकात् आयुः क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं च्यवं च्युत्वा इहैव वाणिज्यग्रामे नगरे श्रेष्ठिकुले पुत्रत्वेन
प्रत्यायातः ।
ततः त्वं सुदर्शन ! उन्मुक्तबालभावेन विज्ञकपरिणतिमात्रेण यौवनमनुप्राप्न तथारूपाणां स्थविराणाम् अन्तिकं केवलिप्रज्ञप्तः धर्मः निशान्तः, सोऽपि च धर्मः इष्टः, प्रतीष्टः, अभिरुचितः । तत् सुष्ठु त्वं सुदर्शन ! इदानीमपि करोषि । अथ तेनार्थेन ! एवमुच्यते - अस्ति एतयोः पल्योपमसागरोपमयोः क्षयः इति वा अवचयः इति
वा।
भगवई
बताओ, हम क्या दें ? क्या वितरण करें ? शेष जैसे जमालि की वक्तव्यता वैसे ही यावत्
१६९. महाबल अनगार ने धर्मघोष अनगार के पास सामायिक आदि चौदह पूर्वो का अध्ययन किया, अध्ययन कर चतुर्थ
भक्त, षष्ठ भक्त, अष्टम भक्त, दशम भक्त, द्वादश भक्त, अर्धमास और मासक्षपण आदि विचित्र तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहु प्रतिपूर्ण बारह वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया। पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने आपको कृश बनाकर, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर, चांद, सूर्य, ग्रहगण, नक्षत्र तारा-रूप, बहुत योजन ऊपर बहुत सौ, हजार, लाख करोड़ और क्रोडाक्रोड योजन ऊपर, सौधर्म, सनत्कुमार माहेन्द्र कल्प का व्यतिक्रमण कर ब्रह्मलोक कल्प में देव रूप में उपपन्न हुआ। वहां कुछ देवों की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। वहां महाबल देव की स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। सुदर्शन ! तुम ब्रह्मलोक कल्प में दस सागरोपम काल तक दिव्य भोगाई भोगों को भोगते हुए विहार कर उस देवलोक से आयु क्षय, भव क्षय और स्थिति क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर इसी वाणिज्य ग्राम नगर में श्रेष्ठिकुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए।
१७०. सुदर्शन! तुमने बाल्यावस्था को पा कर, विज्ञ और कला के पारगामी बन कर, यौवन को प्राप्त कर तथारूप स्थविरों के पास केवलिप्रज्ञप्त धर्म को सुना। वही धर्म इच्छित, प्रतीच्सित, अभिरुचित है। सुदर्शन! वह अच्छा है, जो तुम अभी कर रहे हो । सुदर्शन! इस अपेक्षा से यह कहा जा रहा है - इन पल्योपम-सागरोपम का क्षय- अपचय होता है।
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भगवई
१७१. तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्ठे सोच्चा निसम्म भे अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं हापूर- मग्गणगवेसणं करेमाणस्स
सणी - पुव्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एयम सम्मं अभिसमेति ॥
१७२. तए णं ते सुंदसणे सेट्ठी सम-णेणं भगवया महावीरेणं संभारिय- पुब्वभवे दुगुणाणीयसङ्घसंवेगे आणंदसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - एवमेयं भंते! तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते! इच्छियमेयं भंते! पडिच्छियमेयं भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते! -से जहेयं तुभेवदह त्ति कट्टु उत्तरपुरत्थिमं दिसीभागं अवक्क- मइ, सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सव्व- दुक्खप्पहीणे, नवरं - चोइस पुब्वाई अहिज्जइ, बहुपडिपुणाई दुवालस वासाई सामण्णपरियागं पाउणइ, सेसं तं चेव ॥
१७३. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ।।
४४१
ततः तस्य सुदर्शनस्य श्रेष्ठिनः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य शुभेन अध्यवसायेन शुभेन परिणामेन लेश्याभिः विशुध्यमानाभिः तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोह - मार्गण - गवेषणं कुर्वतः 'संज्ञीपूर्व जातिस्मरणं' समुत्पन्नम्, एनमर्थं सम्यक् अभिसमेति ।
ततः सः सुदर्शनः श्रेष्ठी श्रमणेन भगवता महावीरेण संस्मारितपूर्वभवः द्विगुणानीत श्रद्धासंवेगः आनन्दाश्रुपूर्णनयनः श्रमण भगवन्तं महावीरं त्रिः आदक्षिणप्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्त्विा एवमवादीत् एवमेतद् भदन्त ! तथैतद् भदन्त ! अवितथमेतद् भदन्त ! असंदिग्धमेतद् भदन्त ! इष्टमेतद् भदन्त ! प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् भदन्त ! तत् यथैवं यूयं वदथ इति कृत्वा उत्तरपौरस्त्यं दिग्भागम् अपक्रामति, शेषं यथा ऋषमदत्तस्य यावत् सर्वदुक्खप्रहीणः, नवरं चतुर्दश पूर्वाणि अधीते, बहुप्रतिपूर्णानि द्वादश वर्षाणि श्रामण्यपर्यायं प्राप्नोति शेषं तत् चैव ।
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति
श. ११ : उ. ११ : सू. १७१-१७३ १७१. श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या और तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा ईहा, अपोह, मार्गणा गवेषणा करते हुए सुदर्शन श्रेष्ठी को पूर्ववर्ती संज्ञी भवों का जाति स्मृति ज्ञान समुत्पन्न हुआ। उसने इस अर्थ को सम्यक् साक्षात् जान लिया।
१७२. श्रमण भगवान महावीर द्वारा पूर्वभव का जाति स्मृति ज्ञान कराने से सुदर्शन श्रेष्ठी की श्रद्धा और संवेग द्विगुणित हो गए। उसके नेत्र आनंदाश्रु से पूर्ण हो गए। उसने श्रमण भगवान महावीर को दाईं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, वंदन - नमस्कार किया। वंदन नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! यह ऐसा ही है, भंते! यह तथा (संवादितापूर्ण) है, भंते! यह अवितथ है, भंते! यह असंदिग्ध है। भंते! यह इष्ट है, भंते! यह प्रतीप्सित है, भंते! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं ऐसा भाव प्रदर्शित कर वह उत्तर-पूर्व दिशा भाग (ईशान कोण) की ओर गया शेष जैसे ऋषभदत्त (भ.९ / १५१) की वक्तव्यता वैसे ही यावत सर्व दुःखों अंत किया, इतना विशेष है-चौदहपूर्वों का अध्ययन किया, बहुप्रतिपूर्ण बारह वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया, शेष पूर्ववत् ।
१७३. भंते! वह ऐसा ही है, भंते! वह ऐसा ही है।
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मूल
इभिपुत्त-पदं
१७४. तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नगरी होत्थावण्णओ। संखवणे चेइए-वण्णओ । तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिहपुत्तपामोक्खा समणो- वासया परिवसंति-अड्डा जाव- बहुजणस्स अपरिभूया अभिगय-जीवाजीवा जाव अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणा विहरति ॥
१७५. तए णं तेसिं समणोवासयाणं अण्णा कयाइ एगयओ समुवा-गयाणं सहियाणं सणिविट्ठाणं सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहो-कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था - देवलोगेसु णं अज्जो ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?
१७६. तए णं इसिभद्दपुत्ते समणो वासए देवट्ठिती–गहियठ्ठे ते समणो - वासए एवं वयासी - देवलोएस णं अज्जो ! देवाणं जहणेणं दसवास - सहस्साइं ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, तिस-मयाहिया जाव दससमयाहिया संखेज्जसमयाहिया, असंखेज्ज - समयाहिया, उक्को सेणं तेत्तीस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य ॥
१७७. तए णं ते समणोवासया इसि - भद्दपुत्तस्स समणोवासगस्स एवमाइक्खमाणस्स जाव एवं परू-वेमाणस्स
बारसमो उद्देसो : बारहवां उद्देशक
संस्कृत छाया
ऋषिभद्रपुत्र-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये आलभिका नाम नगरी आसीत्-वर्णकः शंखवनं चैत्यम् वर्णकः । तत्र आलभिकायां नगर्यां बहवः ऋषिभद्रपुत्रप्रमुखाः श्रमणोपासकाः परिवसन्ति - आढ्याः यावत् बहुजनस्य अपरिभूताः अभिगतजीवाजीवाः यावत् यथा परिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन्तः विहरन्ति
ततः तेषां श्रमणोपासकानाम् अन्यदा कदाचित् एकतः समुपागतानां सहितानां सन्निविष्टानां सन्निषण्णानाम् । अयमेतद्रूपः मिथः कथासमुल्लापः समुदपादि - देवलोकेषु आर्य! देवानां कियन्कालं स्थितिः
प्रज्ञप्ला।
ततः सः ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः देवस्थितिगृहीतार्थः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत्-देवलोकेषु आर्य! देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, त्रिसमयाधिका यावत् दशसमयाधिका, संख्येयसमयाधिका, असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च ।
ततः ते श्रमणोपासकाः ऋषिभद्रपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य एवमाचक्षाणस्य यावत् एवं प्ररूपयतः एतमर्थं नो श्रद्दधते नो प्रतियन्ति
हिन्दी अनुवाद
ऋषिभद्रपुत्र- पद
१७४. उस काल और उस समय में आलभिका नामक नगरी थी-वर्णक शंखवन चैत्य - वर्णक । उस आलभिका नगरी में अनेक ऋषिभद्रपुत्र आदि श्रमणोपासक रहते थे। वे संपन्न यावत् बहुजन के द्वारा अपरिभवनीय थे। जीवअजीव के जानने वाले यावत् यथा परिगृहीत तपः कर्म के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए विहार कर रहे थे।
१७५. किसी समय एकत्र सम्मिलित, समुपागत, सन्निविष्ट और सन्निषण्ण उन श्रमणोपासकों में परस्पर इस प्रकार का वार्तालाप हुआ-आर्यो! देवलोक में देवों की स्थिति कितने काल की प्रज्ञप्त हैं ?
१७६. ऋषिभद्रपुत्र श्रमणोपासक को देवस्थिति का अर्थ गृहीत था । उसने श्रमणोपासकों से इस प्रकार कहा- आर्यो ! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक, तीन समय अधिक यावत् दस समय अधिक संख्येय समय अधिक, असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है, उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं।
१७७. श्रमणोपासकों ने श्रमणोपासक ऋषिभद्र पुत्र के इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने पर इस अर्थ पर श्रद्धा,
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भगवई
४४३
मात
एयमढें नो सहहंति नो पत्तियंति नो नो रोचन्ते. एतमर्थम अश्रद्दधानाः अप्रतिरोयंति, एयमद्वं असदहमाणा अपत्तिय- यन्तः अरोचमानाः यस्या एव दिशः माणा अरोयमाणा जामेव दिसं प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगताः। पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
श. ११ : उ. १२ : सू. १७७,१७८ प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति, और अरूचि करते हुए जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए।
१७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् १७८. उस काल और उस समय श्रमण
भगवं महावीरं जाव समोसढे जाव महावीरः यावत समवसृतः यावत पर्षत । परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते पर्युपास्ते। ततः ते श्रमणोपासकाः अनया परिषद् ने पर्युपासना की। वे श्रमणोपासक समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा । कथया लब्धार्थाः सन्तः, हृष्टतुष्टाः अन्योन्यं इस कथा को सुनकर हृष्टतुष्ट चित्त वाले हो समाणा, हठ्ठतुट्ठा अण्णमण्णं सद्दा-ति, शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादिषुः-एवं गए। वे परस्पर एक-दूसरे को संबोधित सहावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु खलु देवानुप्रियाः! श्रमणः भगवान् कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रियो ! श्रमण देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महावीरः यावत् आलभिकायां नगाँ भगवान महावीर यावत् आनभिका नगरी जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा तपसा आत्मानं भावयन् विहरति।
संयम और तप से अपने आपको भावित अप्पाणं भावमाणे विहरइ।
करते हुए विहार कर रहे हैं। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया! तत् महत्-फलं खलु देवानुप्रियाः! देवानुप्रियो ! तथारूप अर्हत भगवान के तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं तथारूपाणाम् अर्हतां भगवतां नाम गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण नामगोत्रस्यापि श्रवणस्य, किमंग पुनः है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, अभिगमण-वंदण-नमसण पडिपुच्छण- अभिगमन-वंदन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन- प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही पज्जुवासणाए?एगस्स वि आरियस्स पर्युपासनया? एकस्यापि आर्यस्य क्या ? एक भी आर्यधार्मिक सुवचन का धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणस्य, किमंग श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स पुनः विपुलस्य अर्थस्य ग्रहणस्य? तद् ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए गहणयाए? तं गच्छामो णं । गच्छामः देवानुप्रिया! श्रमणं भगवन्तं देवानुप्रियो! हम चलें, श्रमण भगवान देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं । महावीरं वन्दामहे नमस्यामः सत्कारयामः महावीर को वंदन-नमस्कार करें, सत्कारवंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो । सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं सम्मान करें। वे कल्याणकारी है, मंगल, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पर्युपास्महे।
देव और प्रशस्त चित्त वाले हैं। उनकी पन्जुवासामो।
पर्युपासना करें। एयं णे पेच्चभवे इहभवे य हियाए सहाए एतत् नः प्रेत्यभवे इहभवे च हिताय सुखाय यह हमारे परभव और इहभव के लिए खमाए निस्सेयसाए आणु-गामियत्ताए क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय। हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और भविस्सइ त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए भविष्यति इति कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके आनुगामिकता के लिए होगा। ऐसा सोच एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव एतदर्थं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव कर उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार सयाई-सयाई गिहाई तेणेव उवाग- स्वकानि-स्वकानि गृहाणि तत्रैव उपाग- किया। स्वीकार कर जहां अपना अपना च्छंति, उवागच्छित्ता ण्हाया कय- च्छन्ति, उपागम्य स्नाताः कृतबलिकर्माणः घर था वहां आए। वहां आकर उन्होंने बलिकम्मा कयकोउयमंगल- कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्ताः शुद्ध- स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई प्रवेश्यानि मंगलानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिताः मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध प्रवेश्य वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहग्घा- अल्पमहायाभरणालंकृतशरीराः स्वकेभ्यः (सभा में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्रों को भरणलंकियसरीरा सएहिं सएहिं स्वकेभ्यः गृहेभ्यः प्रतिनिष्क्रामन्ति, विधिवत् पहना। अल्पभार और बहुमूल्य गिहेहितो पडिनिक्खमंति, पडि- प्रतिनिष्क्रम्य एकतः मिलन्ति, मिलित्वा वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत निक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, पादविहारचारेण आलभिकायाः नगर्याः किया। इस प्रकार सज्जित होकर वे मेलायित्ता पायविहारचारेणं आल- मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गत्य यत्रैव अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ भियाए नगरीए मज्झमझेणं शंखवनं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् मिले, एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य आलभिका नगरी के बीचों-बीच निर्गमन
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श. ११ : उ. १२ : सू. १७८-१८१
संखवणे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, समणं भगवं महावीरं जाव तिविहाए पज्जु - वासणाए पज्जुवासंति । तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति - महालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ ||
१७९. तए णं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टा उट्ठाए उट्ठेति, उत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी - एवं खलु भंते! इसिभहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाइक्खर जाव परूवेइ - देव - लोएस णं अज्जो ! देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साइं दिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगा य ।
१८०. से कहमेयं भंते! एवं ? अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समाणोवास एवं वयासी- जण्णं अज्जो ! इसिभद्दपत्ते समणोवासए तुब्भं एवमाइक्खड़ जाव परुवेइ - देवलोएस णं देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया जाव ते परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य - सच्चे णं एसमट्ठे, अहं पिणं अज्जो ! एवमाक्खामि जाव परूवेमिदेवलाएसु णं अज्जो ! देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समया-हिया, दुसमयाहिया, तिसमयाहिया जाव दससमयाहिया, संखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य-सच्चे णं एसमट्टे ॥
१८१. तए णं ते समणोवासगा समणस्स
४४४
श्रमण भगवन्तं महावीरं यावत् त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यै महातिमहत्यै 'धर्मं परिकथयति' यावत् आज्ञायाः आराधकः भवति ।
ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टाः उत्थया उत्तिष्ठन्ति उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषुः एवं खलु भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः अस्मान् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-देवलोकेषु आर्य! देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका यावत् तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्च ।
1
तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? आर्य इति ! श्रमणः भगवान् महावीरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् यत् आर्य! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः युष्मान् एवमाख्याति यावत् परूपयति-देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका यावत् तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्च - सत्योऽयमर्थः, अहमपि आर्य ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि - देवलोकेषु आर्य! देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, त्रिसमयाधिका यावत् दशसमयाधिका, संख्येयसमयाधिका, असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्चसत्योऽयमर्थः ।
ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवतः
भगवई किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना की । श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम परिषद् में धर्म का उपदेश दिया यावत् आज्ञा की आराधक होता है।
१७९. वे श्रमणेपासक श्रमण भगवान महावीर से धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्टतुष्ट हो गए। वे उठकर खड़े हुए खड़े होकर
श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- 'भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की आर्यो! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। इसके बाद एक समय अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है।
१८०. भंते! यह इस प्रकार कैसे है ?
आर्यो ! श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहाआर्यो ! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस
प्रकार
आख्यान यावत् प्ररूपणा की - देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है-यह अर्थ सत्य है । आर्यो ! मैं भी इस प्रकार का आख्यान
यावत् प्ररूपणा करता हूं-आर्यो ! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक तीन समय अधिक यावत् दस समय अधिक संख्येय समय अधिक, असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। इसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं-यह अर्थ सत्य है।
१८१. उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान
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भगवई
भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता, जेणेव इसि भद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमहं सम्मं विणएणं भुज्जोभुज्जो खामेति । तए णं ते समणोवासया परिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, परियादियित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया |
१. सूत्र १८१
इस प्रसंग में भगवती सूत्र शतक १२ / १ का द्रष्टव्य है।
१८२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - पभू णं भंते! इसिभहपुत्ते समणोवास देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए ?
नो इट्टे समट्टे, गोयमा ! इसिभद्द - पुत्ते समणोवास बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचखाण पोसहोव - वासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवो-कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउ- णिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, झूसेत्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती भविस्सति ॥
४४५
महावीरस्य अन्तिकं एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य ऋषिभद्रपुत्रं श्रमणोपासकं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा एतमर्थं सम्यक् विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति । ततः ते श्रमणोपासकाः प्रश्नान् पृच्छन्ति, पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददति, पर्यादाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगता ।
भाष्य
भदन्त अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् प्रभु भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणेपासकः देवानुप्रियाणाम् अंतिकं मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितुम् ?
नो अयमर्थः समर्थः, गौतम ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः बहुभिः शीलव्रत-गुणविरमण - प्रत्याख्यान - पौषधोपवासैः यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं प्राप्स्यति प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषिष्यति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति, छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रांतः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे अरुणाभे विमाने देवत्वेन उपपत्स्यते। तत्र अस्त्येककानां देवानां चतस्रः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र ऋषिभद्र पुत्रस्यापि देवस्य चतस्रः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता ।
आए,
श. ११ : उ. १२ : सू. १८१, १८२ महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर जहां श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र थे वहां वहां आकर श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र को वन्दन नमस्कार किया, वन्दननमस्कार कर बोले- 'तुमने जो कहा, वह अर्थ सम्यक् है' विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान महावीर से अन्य प्रश्न पूछे. पूछकर अर्थ को हृदय में धारण किया, हृदय में धारण कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार किया, वन्दननमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए।
१८२. भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदननमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र देवानुप्रिय के समीप मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होगा ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। श्रमणोपासक ऋषभद्रपुत्र बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोप वास से यथा परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करेगा, पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने शरीर को कृश बनाकर, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर सौधर्मकल्प के अरुणाभ विमान में देव रूप में उत्पन्न होगा। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की प्रज्ञप्त है। वहां ऋषिभद्रपुत्र देव की भी स्थिति चार पल्योपम होगी।
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भगवई
श. ११ : उ. १२ : सू. १८३-१८७
४४६ १८३. से णं भंते! इसिभद्दपुत्ते देवे ताओ सः भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः देवः तस्माद्
देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थिति- ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं क्षयेण अनंतरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? कुत्र उपपत्स्यते? । गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति 'बुज्झिहिति' मोक्षयति परिनिर्वास्यति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति॥
सर्वदुःखानाम अंतं करिष्यति।
१८३. भंते! ऋषिभद्रपुत्र देव आयु-क्षय, भव
क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अंत करेगा।
१८४. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥
तदेवं भदंत! तदेवं भदंत! इति भगवान् गौतमः यावत् आत्मानं भावयन् विहरति।
१८४. भंते ! वे ऐसा ही है, वह ऐसा ही है।
भगवान गौतम यावत् आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे।
१८५. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा १८५. श्रमण भगवान महावीर ने कभी किसी
अण्णया कयाइ आलभियाओ नग- कदाचित् आलभिकायाः नगर्याः शंखवनात् दिन आलभिका नगरी से शंखवन चैत्य से रीओ संखवणाओ चेइयाओ पडि- चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनपदविहारं विहरति।
बाहर जनपद विहार करने लगे। जणवयविहारं विहरइ॥
पोग्गल-परिव्वायग-पदं
पुद्गल-परिव्राजक-पदम् १८६. तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये आलभिका नाम
आलभिया नाम नगरी होत्था- नगरी आसीत्-वर्णकः। तत्र शंखवनं नाम वण्णओ। तत्थ णं संखवणे नामं चेइए चैत्यम् आसीत्-वर्णकः। तस्य शंखवनस्य होत्था-वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चैत्यस्य अदूरसामन्ते पुद्गलः नाम चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिव्राजकः-ऋग्वेद-यजुर्वेद यावत् ब्रह्मण्य- परिव्वायए-रिउव्वेद-जजुब्वेद जाव केषु परिव्राजकेषु च नयेषु सुपरिनिष्ठितः बंभण्णएसु परिव्वाय-एसु य नएसु षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू सुपरिनिट्टिए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं प्रगृह्य-प्रगृह्य सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय- आतापयन् विहरति। पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ॥
पुद्गल-परिव्राजक-पद १८६. उस काल और उस समय में
आलभिका नाम की नगरी थी-वर्णक। वहां शंखवन नाम का चैत्य था-वर्णक। उस शंखवन चैत्य से कुछ दूरी पर पुद्गल नाम का परिव्राजक था-वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, यावत् अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी नयों में निष्णात, निरंतर बेले-बेले (दो दिन का उपवास) के तप की साधना के द्वारा दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता हुआ विहरण कर रहा है।
१८७. तए णं तस्स पोग्गलस्स ततः तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य षष्ठंषष्ठेन परिव्ववायगस्स छटुंछडेणं अणि- अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य- क्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़े बाहाओ प्रगृह्य सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आतापयन् प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्तया आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइ. प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दव- भद्दयाए पगइउव-संतयाए-पगइपयणु- संपन्नतया आलीनतया विनीततया अन्यदा कोहमाणमायालोभाए मिउमद्दव- कदाचित् तदावरणीयानां कर्मणां संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीययाए क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणगवेषणं कुर्वतः अण्णया कयाइ तया-वरणिज्जाणं विभंग: नाम ज्ञानं समुत्पन्नम्। सः तेन
१८७. उस पुद्गल परिव्राजक का निरंतर बेलेबेले तपःकर्म के द्वारा, दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेते हुए, प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदुमार्दव संपन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा
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भगवई
कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह - मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं नाणे समुप्पने । से णं तेणं विब्भंगेणं नाणेणं समुपनेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठितिं
जाणइ पासइ ॥
१८९. तए णं पोग्गलस्स परिव्वाय-गस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिग
१. भ. वृ. ८/१९१ ।
४४७
विभंगेन ज्ञानेन समुत्पन्नेन ब्रह्मलोके कल्पे देवानां स्थितिं जानाति पश्यति ।
१ सूत्र - १८७ प्रस्तुत आगम में विभंग ज्ञान के अनेक प्रसंग हैं किंतु विभंगज्ञान की ज्ञेय को जानने की कितनी क्षमता है, इसका स्पष्ट १८८. तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स अयमेयारूवे अज्झ थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - अत्थि णं ममं अतिसेसे नाण- दंसणे समुप्पन्ने, देवलोएस णं देवाणं जहणणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमाहिया जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगा य - एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव आलभिया नगरी, जेणेव परिव्वायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिगचक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह - पहेसु
अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ - अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, देवलोएस णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्को सेणं दससागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य ॥
भाष्य
निर्धारण नहीं मिलता। आठवें शतक में विभंग ज्ञान के विषय का प्रतिपादन किया गया हैं किंतु वहां भी अवधिज्ञान की भांति विभंग ज्ञान के विषय का स्पष्ट निर्धारण नहीं है।
ततः
तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिंतितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिअस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च एवं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य आतापनभूयाः प्रत्यव - रोहति, प्रत्यवरुह्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावत् धातुरक्ताः च गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैव आलभिका नगरी, यत्रैव परिव्राजकाः वसथः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा आलभिकायाः नगर्याः शृंगाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख- महापथपथेषु अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः ! अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च ।
ततः पुद्गलस्य परिव्राजकस्य अंतिकम् एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आलभिकायाः नगर्याः श्रृंगाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वर
श. ११ : उ. १२ : सू. १८७-१८९ ईहा, अपोह, मार्गणा गवेषणा करते हु विभंग नाम का ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा ब्रह्मलोक कल्प तक के देवों की स्थिति को जानता देखता है।
१८८. उस पुदल परिव्राजक के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है। देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं- इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां आलभिका नगरी थी, जहां परिव्राजक रहते थे, वहां आया, आकर भंड को स्थापित किया, स्थापित कर आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगा-देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है, देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं।
१८९. पुद्गल परिव्राजक के समीप इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों,
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भगवई
श. ११ : उ. १२ : सू. १८९-१९१
४४८ चउक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह- चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनः पहेसु बहुजणो अण्ण-मण्णस्स अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयतिएवमाइक्खइ जाव परुवेइ-एवं खलु एवं खलु देवानुप्रियाः! पुद्गलः परिव्राजकः देवाणुप्पिया! पोग्गले परिव्वायए एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवानुप्रियाः! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं देवाणु-प्पिया! मम अतिसेसे नाणदसणे समुत्पन्नम् एवं खलु देवलोकेषु देवानां समुप्पन्ने, एवं खलु देवलोएसु णं देवाणं जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, स्थितिः जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती। प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, पण्णत्ता, तेण परं समया-हिया, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयदुसुमयाहिया जाव असंखे- समयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि ज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दस- स्थितिः प्रज्ञप्ता। तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। तेण परं देवाः च देवलोकाः च। तत् कथमेतद् मन्येत् वोच्छिण्णा देवा य देवलोगाय।
एवम्। से कहमेयं मन्ने एवं?
चौहटों, चार-द्वार वाले स्थानों राजमार्गों और मार्गों पर बहजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगेदेवानुप्रिय! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा की हैदेवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव
और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। इस प्रकार यह कैसे है?
१९०. सामी समोसढे परिसा निग्गया। स्वामी समवसृतः। परिषद् निर्गता। धर्मः धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। भगवं कथितः, परिषद् प्रतिगता। भगवान् गौतमः गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव तथैव भिक्षाचर्याय तथैव बहजनशब्दं निशाबहुजणसई निसामेइ, निसामेत्ता तहेव म्यति, निशम्य तथैव सर्वं भणितव्यं यावत् सव्वं भाणियन्वं जाव अहं पुण गोयमा! अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि, एवं भाषे एवमाइक्खामि, एवं भासामि जाव यावत् प्ररूपयामि देवलोकेषु देवानां परूवेमि-देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं । जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता दस वास-सहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण । तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव। यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षण असंखेज्ज-समयाहिया, उक्कोसेणं त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तेत्तीसं सागरोवमाइंठिती पण्णत्ता। तेण तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य॥
१९०. भगवान महावीर पधारे, परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापिस नगर में चली गई। सादायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए भगवान गौतम ने अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने, सुनकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण वृत्तांत भगवान महावीर से निवेदित किया यावत् गौतम! मैं इस प्रकार आख्यान, इस प्रकार कथन यावत् प्ररूपणा करता हूं-देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं।
च।
१९१. अत्थि णं भंते! सोहम्मे कप्पे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाइं पि अरसाई पि सफासाई पि अफासाई पि अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्ध-पुट्ठाई अणमण्णघडताए चिट्ठति? हत्ता अत्थि। एवं ईसाणे वि, एवं जाव अच्चुए, एवं गेवेज्जविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपब्भाराए वि जाव?
अस्ति भदन्त! सौधर्मे कल्पे द्रव्याणि- सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अर- सानि अपि, स्पर्शानि अपि, अस्पर्शानि अपि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्य-बद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हंत अस्ति । एवम् ईशाने अपि, एवं यावत् अच्युते, एवं ग्रैवेयकविमानेषु, अनुत्तरविमानेषु अपि, ईषत्प्राग्भारायाम् अपि यावत्।
१९१. भंते! सौधर्मकल्प में द्रव्य वर्ण-सहित. वर्ण-रहित, गंध-सहित, गंध रहित, रससहित, रस-रहित, स्पर्श-सहित, स्पर्शरहित, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बद्ध-स्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
हां, हैं। इसी प्रकार ईशान में भी, इसी प्रकार यावत् अच्युत में, इसी प्रकार ग्रैवेयक विमानों में भी, अनुत्तर विमानों में भी, ईषत्प्राकभारा पृथ्वी में भी यावत् अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
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भगवई
४४९
श. ११ : उ.१२ : सू. १९१-१९५
हंता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
हां, हैं।
१९२. तए णं सा महतिमहालिया परिसा ततः सा महामहती परिषद् यावत् यस्याः एव जाव जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशि प्रतिगता। पडिगया।
१९२. वह विशालतम परिषद् यावत् जिस दिशा से आई, उसी दिशा में लौट गई।
१९३. तए णं आलभियाए नगरीए सिंघा- ततः आलभिकायां नगयाँ शृंगाटक-त्रिक- डग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु महापह-पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवमाइक्खइ जाव परुवेइ जण्णं प्ररूपयति यत् देवानुप्रियाः ! पुद्गलः परिदेवाणुप्पिया! पोग्गले परिव्वायए। व्राजकः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयतिएवमाइक्खइ जाव परुवेइ-अस्थि णं अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं देवाणु-प्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुत्पन्नम्, एवं खलु देवलोकेषु देवानां समुप्पन्ने, एवं खलु देवलोएसु णं देवाणं जघन्येन दशवर्षवसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती। तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षण दुसमयाहिया जाव असंखेज्ज- दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञसा। तस्मात् समयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोव- परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च। तत् माई ठिती पण्णत्ता। तेण परं वोच्छिण्णा नो अयमर्थः समर्थः। श्रमणः भगवान् देवा य देवलोगा य। तं नो इणढे समढे। महावीरः एवमाख्याति यावत् देवलोकेषु समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः देवलोएसु णं देवाणं जहण्णणं दस । प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाधिका यावत् असंख्येयसमयाधिका, समयाहिया, दुसमयाहिया जाव उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः असंखेज्जसमयाहिया, उक्को-सेणं । प्रज्ञप्ता तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। तेण देवलोकाः च। परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य॥
१९३. आलभिका नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगे-देवानुप्रिय! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की है-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय, अधिक दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। यह अर्थ संगत नहीं है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान यावत प्ररूपणा करते हैं-देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्यच्छिन्न हैं।
१९४. तए णं से पोग्गले परिव्वायए ततः सः पुद्गलः परिव्राजकः बहुजनस्य बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा अन्तिकं एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य शंकितः निसम्म संकिए कंखिए विति-गिच्छिए कांक्षितः विचिकित्सितः भेदसमापन्नः भेदसमा-वन्ने कलुस-समावन्ने जाए कलुष-समापन्नः जातः चापि अभूत् । ततः यावि होत्था। तए णं तस्स पोग्गलस्स तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य शंकितस्य परिव्वायगस्स संकियस्स कंखियस्स कांक्षितस्य विचिकित्सितस्य भेदसमा- विति-गिच्छियस्स भेदसमावन्नस्स पन्नस्य कलुषसमा-पन्नस्य तत विभंगः ज्ञानं कलुस-समावन्नस्स से विभंगे नाणे क्षिप्रमेव प्रतिपतितः। खिप्पामेव पडिवडिए॥
१९४. पुद्गल परिव्राजक बहुजन से इस अर्थ
को सुनकर, अवधारण कर, शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न
और कलुष-समापन्न भी हो गया। शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न, कलुष समापन्न पुगल परिव्राजक के वह विभंग ज्ञान शीघ्र ही प्रतिपतित हो गया।
१९५. तए णं तस्स पोग्गलस्स ततः तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य परिव्वायस्स अयमेयारूवे अज्झ-थिए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं खलु श्रमणः भगवान् महावीरः तीर्थंकरः महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आकाशगतेन चक्रेण
१९५. पुद्गल परिव्राजक के इस आकार वाला
आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-श्रमण भगवान महावीर आदिकर तीर्थंकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत धर्मचक्र से
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श. ११ : उ. १२ : सू. १९५,१९७
४५०
भगवई
सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं यावत् शंखवने चैत्ये यथाप्रतिरूपम् चक्केणं जाव संखवणे चेइए। अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि-ण्हित्ता भावयन् विहरति, तत् महत्फलं खलु संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे तथारूपाणाम् अर्हतां भगवतां नामगोत्रविहरइ, तं महप्फलं खलु तहारूवाणं स्यापि श्रवणस्य, किमंगपुनः अभिगमनअरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि। वंदन-नमस्यन-प्रति-प्रच्छन-पर्युपासनया। सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण- एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य वंदण-नमंसण - पडिपुच्छण - पज्जु- श्रवणस्य, किमंग पुनःविपुलस्य अर्थस्य वासणयाए? एगस्स वि आरियस्स। ग्रहणस्य? तत् गच्छामि श्रमणं भगवन्तं धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, महावीरं वन्दे यावत् पर्युपासे, एतत् नः किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स इहभवे च परभवे च हिताय सुखाय क्षमाय गहणयाए? तं गच्छामि णं समणं भगवं । निःश्रयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति इति महावीरं वंदामि जाव पज्जुवासामि, एयं कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव णे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए परिव्राजकावसथः तत्रैव उपागच्छति, खमाए निस्सेयसाए आणुगामिय-ताए । उपागम्य परिव्राजकावसथमअनुप्रविशति, भविस्सइ त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता अनुप्रविश्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावत् जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव धातुरक्ताः च गृह्णाति, गृहीत्वा परिउवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वाय- व्राजकावसथात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिगावसह अणप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता । निष्क्रम्य प्रतिपतितविभंगः आलभिकां तिदंडं च कुडियं च जाव धाउरत्ताओ य नगरीमध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गेण्हइ गेण्हित्ता परिव्वायगावसहाओ शंखवनं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य पडिवदियविन्भंगे आलभियं नगरिं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः बन्दते मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्ग- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न च्छित्ता जेणेव संखवणे चेइए, जेणेव अत्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पर्युपास्ते। तिक्खुत्तो बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिकडे पज्जुवासइ॥
शोभित यावत् शंखवन चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम, गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक होता है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक होता है फिर विपुल अर्थ ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर को वंदन करूं यावत् पर्युपासना करूं-यह मेरे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर जहां परिव्राजक रहते थे. वहां आया, आकर परिव्राजक गृह में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर परिव्राजक आवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमाग कर विभंगज्ञान से प्रतिपतित उस पुद्गल परिव्राजक ने आलभिका नगरी के बीचो-बीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां भगवान महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करने लगा।
१९६. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः पुद्गलस्य पोग्गलस्स परिव्वायगस्स तीसे य परिवाजकस्य तस्यां महामहत्यां परिषदि महतिमहालियाए परिसाए धम्मं धर्म परिकथयति यावत् आज्ञायाः आराधकः परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ॥ भवति।
१९६. श्रमण भगवान महावीर ने पुद्गल परिव्राजक को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् आज्ञा का आराधक होता
१९७. तए णं से पोग्गले परिव्वायए ततः सः पुद्गलः परिव्राजकः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा धम्म सोच्चा निसम्म जहा खंदओ जाव निशम्य यथा स्कंदकः यावत् उत्तरपौरस्त्यं उत्तरपुरस्थिमं दिसी-भागं अवक्कमइ, दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य त्रिदण्डं अवक्कमित्ता तिदंडं च कुंडियं च जाव च, कुण्डिकां च यावद् धातुरक्ता एकान्ते धाउरत्ताओ य एगंते एडेह, एडेता एडयति, एडयित्वा स्वयं पंचमुष्टिकं लोचं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता करोति, कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः
१९७. पुद्गल परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर स्कंदक की भांति यावत् उत्तर पूर्व दिशा में गया, जाकर त्रिदण्ड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को एकांत में डाल दिया, डालकर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, लोच कर श्रमण भगवान महावीर
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भगवई
४५१
समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं जहेव उसभदत्तो तहेव पव्वइओ, तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेव सव्वं जाव सव्व-दुक्खप्पहीणे॥
आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं यथैव ऋषभदत्तः तथैव प्रव्रजितः, तथैव एकादश अंगानि अधीते, तथैव सर्व यावत् सर्वदुःखप्रहीणः।
श. ११ : उ. १२ : सू. १९७-१९९ को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त प्रव्रजित हुआ, वैसे ही पुद्गल परिव्राजक प्रव्रजित हो गया, उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उसी प्रकार सर्व यावत् सब दुःखों को प्रक्षीण कर दिया।
पा
१९८. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा एवं वयासी-जीवा णं भंते! नमस्यित्वा एवमवादीत्-जीवाः भदन्त ! सिज्झमाणस्स कयरम्मि संघयणे सिध्यतः कतरे संघयणे सिद्धयन्ति ? सिझंति? गोयमा! वइरोसभणारायसंघयणे गौतमः ! वज्रऋषभनाराचसंघयणे सिध्यन्ति सिझंति, एवं जहेव ओववाइए तहेव।। एवं यथैव औपपातिके तथैव। संघयणं संठाणं संघयणे
संस्थानं, - उच्चत्तं आउयं च परिवसणा। उच्चत्वम् आयुष्कं च परिवसना। एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणि- एवं सिद्धिकण्डिका निरवशेषा यव्वा जाव
भणितव्या यावत्अव्वाबाहं सोक्खं,
अव्याबाधं सौख्यम्, अणुभवंति सासयं सिद्धा।
अनुभवन्ति शाश्वतं सिद्धाः।।
१९८. भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते ! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते हैं? गौतम! वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार औपपातिक की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन, इसी प्रकार सिद्धिकंडिका तक निरवशेष वक्तव्य है, यावत् सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।
१९९. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति।
१९९. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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परिशिष्ट
पृष्ठ
४५५-४५७
४५८-४६२
४६३-४६४
४६५-४६८
१. नामानुक्रम- (क) व्यक्ति और स्थान
(ख) देव
(ग) पशु-पक्षी २. शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम ३. भाष्य-विषयानुक्रम ४. पारिभाषिक शब्दानुक्रम ५. अभयदेवसूरिकृत वृत्ति
शतक ८,९,१०,११ ६. आधारभूत ग्रंथ सूची
४६९-४७२
४७३-४८०
४८१-५६८
५६९-५७५
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परिशिष्ट-१ (क)
नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान
अकलंक ८/१ ('भा.) १८४.१८८ (भा.) ३१५.३२७ (भा.) | काकंदी नगरी १०/४७ अणगार श्याम हस्ति १० (आमुख)
कुंडग्राम २.१ अनवद्यागी ९. २२६-२२० (भा.)
कुंडपुर २/२२६-२२२ (भा.) अनवद्या ९/२२६-२२२ (भा.)
कुन्दकुन्द ८.१८४-१८८ (भा.) ४७७-४८४ भा.) अनुपालक ८/२४२
कुमारिल ८/१८४-१८८ अपविध ८/२४२
कुंशी ९/१३३-१३५, ११/१६२ अभयदेव सूरी (सारे अंक भाष्य के हैं) ८/१.९६.९७- | कोष्ठक चैत्य ९/२२१.२२२,२३०
१०३,१०५,१३९.१४६, १८४-१८८,२३०-२३५,२४१- क्षत्रियकुण्ड ग्राम १५७-१५९,१६५.१८०.२०७-२०९ २४२.२४५-२४७.२५१-२५५,२९५-३००,३०२-३१४,
ग ३१५-३२८,३५४, ३६३.३६५, ३७३-३७५,४२५-४२८, गांगेय अनगार ९ (आमुख), ७७-१३०.१२१ ('भा.) १०३-१२४ ४५१-४६६.४७७-४८४,९/९-३२,३६,४२,५६.१४१, (भा.) १३२-१३५.१३३-१३५ (भा.) १४९.१७७.२०८,२२६-२२२:१०/२४-३८
गुणशीलक चैत्य ८/२७१,१०/६४ अयंपुल ८/२४२
गौतम ८.१-११,१३-१५,१७-२४.२६.४०.४२-४६.४०.६१. अर्हत विमल ११/१६२.१६५
६४,६५.६७-७६.७९-८२.८४. ८६.०५.१०.०९.१०४. आ
१०५.१०७-११३.११५.११८.१३६.१३९-१९३.१६५ आचार्य भिक्षु (सारे अंक भाष्य के हैं) ८/२३०-२३५,२४१- १६७.१६९.१७१.१७५.१८४-१९.३.१०६-०००.००
२४२.२४५-२४७.४४०-४५०९/२५१-२५२.२५६ २०८.२११-२१४.२१६,२१७.२२४.२२६.२२८२३०.२३२ आर्य चंदना ९.१५३-१५५.१५३-१५५ (भा.)
२३३.२३५-२३७.२३०-२३५ (भा.) २४३.२४५-२४७. आलभिका नगरी ११.१७४.१७८,१८५,१९३
२५१.२५४-२५९.२६१.२६३,२६५-२६०.२०३.२०५
३१०.३१२.३१३,३१५-३२३.३२५-३३४.३३७-३३९. इंद्रभूति १०,४३, ११/७५
३४१,३४३,३४५-३५०.३६७-३६९.३७३.३७५-३८०,
३८३-३८६.३८८-४१२,४१४-४४७.४५०-४७३. ४७५उदक ८.२४२
४८८.४९०-५००.५०२.५०३:९/१.३.७.०.. उद्विध ८.२४२
३२.३४--४५.४७.४८.५०-५३.५६-६७.१५.१३३-१३५ उमास्वाति (सारे अंक भाष्य के हैं) ८/१,८/१७-१०३, ३१५- (भा.) १३७ (भा.) १४८.२३१-२३२.२३५-२४४.२४६३२७,४१०.-४२०.४२२-४२३,४२४,४२५-४२८
२५५.२५८.२६०-२६२, १०/ आमुख १०१-६.८.११.
१७.२३.२६.२७.२९,३०.३८-४०.४५.४१.५३. ५६.५८. ऋषभ ९/४०
६४,०९.१००, ११/१-२३,२५-३०.३२-३८.४०.४२. ऋषभदत्त ९ आमुख.१३७.१३७ (भा.) १३९-१४३.१४५.१४९- ४५.७६,७७.८८, ९०-१००.१०४.१०७.१००..११०. १५२,११११६.१७२.१२७
११२.११३,१८२-१८४.१९०.१०८ ऋषिभद्र ११ आमुख ऋषिभद्रपुत्र ११ १७१,१७६-१७७.१७०-१८३
चंपा नगरी २२१.२२३.२३०:१० ६०
इ
a
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परिशिष्ट - १ (क): नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान
जंबूद्वीप ८ / ३२९.३३३,३३५,३३७, ३३९,९ आमुख १.३.३-५, (भा.) १०/ ४७.५३.५८.९९, ११/७७,७८,८३,१०९,११० जमालि ९ आमुख. १५६, १५८-१९९,२०१९-२२०,२१३ (भा.) २१४ (भा.) २२२.२२४-२३५,२२६-२२९ (भा.) २३०२३४ (भा.) २४२-२४४ (भा.); ११ / ६१,१६१.१६४१६६,१६८.१७०
जयाचार्य- (सारे अंक भाष्य के हैं) ८/१३९- १४६,१९२१९९,२३०-२३५,२४१-२४२, २४५-२४७,२५६-२५७, २५८-२६९.३०२-३१४,४२५ ४२८, ४४९-४५०,४५१४६६,४७०-४७४, ९/९-३२, ३६ १०/४०,६७-६८
११/१
जिनदास महत्तर ८/१८४-१८८ (भा.)
जिनभद्र ८/१५० (भा.) १८४-१८८ (भा.)
जिनभद्रगणि ९ / ३७ (भा.)
जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण ८/१८४ - १८८ (भा.)
जेतवन ८ / २७१-२८४ (भा.)
जोजेफ डोल्लू ८ / २४१-२४२ (भा.)
ज्येष्ठा ९/ २२६-२२९ (भा.)
डा. हर्मन जेकोबी ९ आमुख डेविड ८/४३-८४ (भा.)
ज
ढंक ९ / २२६-२२९ (भा.)
ताल ८/२४२ ताल प्रलंब ८ / २४२
तिष्य गुप्त ९ आमुख त्रिशला ९/१४२ (भा.)
नर्मोदक ८/२४२ नामोदक ८/२४२ नेमिचंद्र ९ / ३६ (भा.)
ड
द
त
द
देवानंदा ९ आमुख १३७.१३९, १४०, १४४-१५०,१४८ (भा.) १५२-१५५,१५३-१५५ (भा.)
दूति पलाश चैत्य २ / ७७, १०/४२, ११/११५,११६
ध
धर्मकीर्ति ८/१८४-१८८
धर्मघोष अणगार ११/१६२,१६५,१६६ धातकी खंड ९ / ३-५ (भा.); ११ / ८० धारिणी ११ / ५८
४५६
न
न्यूटन ८/४३-८४ (भा.)
प
पायरक ८/२४२
पार्श्व ९ (आमुख), १२१, (भा.) १३३ १३५ (भा.) १० (आमुख) पुद्गल परिवाजक ११ आमुख, १८६-१८९,१९३-१९५,१९७ पुष्करद्वीप ९ / ३-५ (भा.)
पुष्करार्ध ९ / ३-५ (भा.)
पूज्यपाद ८/४३३ (भा.) ४७७-४८४ (भा.) पूर्ण भद्र चैत्य ९/२२१,२२३,२३० प्रभाचंद्र ८ / १८४,१८८
प्रभावती ११ / १३२-१३४,१३८, १४१-१४७,१५३ प्रियदर्शना ९/ २२६-२२९ (भा.)
ब
भगवई
बलराजा ११ / १३२-१३६.१३८, १४० १४२-१४४,१४९-१५२,
१६८
बहुशालक चैत्य ९/१३७.१४५,१५७,१५९, १६५,२०९,२२० बेभेल १० / ५३ (भा.)
ब्राह्मण कुंड ग्राम नगर ९/१३७,९४५.१५६,१५९,२०७.२०९ ब्रो ८ / ४३-८४ (भा.)
भ
भगवान बुद्ध ८ / २४१-२४२ (भा.) ९ आमुख
भद्रबाहु ८/३०१
भरत क्षेत्र ८ / १०३
भारत वर्ष १०/४७,५३, ५८
म
मंदर पर्वत १० / ९९ ११ / १०९ मणिभद्र चैत्य ९/१
मलयगिरी ८/९८४-१८८
मल्लधारी हेमचंद्र १/२२६-२९९ ( भा. )
मल्लवादी ८/१८४-१८८ (भा.)
महापद्म अर्हत् ९ / १३३-१३५
महाबल ११ / १५३-१६१,१६४-१६९
महावीर ८ (आमुख ) ८/१,२३०-२३५ (भा.) २३६- २४० (भा.) २७१, २७२,२७१-२८४ (भा) ३०१ ( भा.) ४४९-४५० (भा.) ९वां (आमुख), ९/४०,७७,७८, १२१ (भा.) १३३. १३४,१३३-१३५ (भा.) १३७ (भा.) १३९.१४५.१४८, १४७ (भा.) १४९ (भा.) १५०-१५२, १५३-१५५ ( भा.) १५७,१५९,१६२,१६३.१६७,१६९-१७८,१७७ (भा.) २१०-२२०,२१४ (भा.) २२३.२२८.२२९,२२६-२२९ (भा.) २३०,२३३-२३५,२३०-२३४ (भा.) १० आमुख. १०/४२-४५,४९,६४ ११ / आमुख ११/६-११ (भा.) ७४,७६,७७, ८२, ८३,८५-८८.११५-११८,१७१
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भगवई
४५७
परिशिष्ट-१ (क) : नामानुक्रम : व्यक्ति और स्थान
श्याम हस्ती १०/१,४४,४५,४७,४९ श्रावस्ती नगरी ९/२२१,२२२,२३०
१७२.१७८.१८२.१८५,१९०.१९५-१९८ माणिभद्र चैत्य ९/१ मानुषोत्तर पर्वत ८/३४०.३४२ मिथिला ९.१ मेघकुमार ११ आमुख मेरु पर्वत ११/१०९,११० (भा.)
य
संविध ८/२४२ सद्दालपुत्र ८/२४१-२४२ (भा.) समन्त भद्र ८/१८४-१८८ सहस्रामवन ११/५७,८५,१३२,१६२.१६५ सिद्धसेन ८/१८४-१८८ (भा.) सिद्धसेन गणि (सारे अंक भाष्य के हैं) ८/१.२४१-२४२.३१५.
३२६,३५४,४२४-४२८,४३९-४४४.४७७.४८४:१०.१.
यशोविजय ( उपाध्याय) ८.१८४-१८८ (भा.)
राजगृह ८.१.२२८,२३०,२७१.२७१-२८४ (भा.) २९२, २९५,४४०, ९ (आमुख) ९/३, ७,९,२४६; १०/ १,११,२३,६४, ११/१.९०.१०९-१०० (भा.)
वणिक ग्राम ९/७७.१०,४२ वर्ष ८.१०३ वर्षधर ८, १०३ वाणिज्य ग्राम ११.११५.११६ विद्यानंद ८.१८४-१८८ (भा) वेसम ८/२४१-२४२ (भा.)
सिद्धसेन-दिवाकर ८/१८४-१८८, (भा.) ४७७-४८४ (भा.) सुखलालजी (पंडित) ८/१८४-१८८ (भा.) सुदर्शन श्रेष्ठी ११ आमुख ११/११५-११९,१२१-१२३,१२५.
१३२,१६९-१७२ सुदर्शना ९/२२६-२२९ (भा.) सुबिंग ८/२४१-२४२ (भा.)
शंखपालक ८.२४२ शंखवन चैत्य ११.१७४.१८५.१८६.१८८.१८९; १९५ शांत रक्षित (१८४-१८८ शिवभद्र ११ ५८-६२.१६८ शिव राजर्षि ११/आमुख. ११.५७-६१.६२.६४-७३, ७५,८३-
हरिभद्र सूरि ८/१८४-१८८ (भा.) हस्तिनापुर ११/५७-५९,७७,८३,८५.१३२.१३९.१४०.१४९..
१६२-१६५ हिमवंत ८/१०३ हिरण्य गर्भ ८/४३-८४ (भा.) हेगेल ८ आमुख हेमचंद्र ८/१८४.१८८ (भा.)
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परिशिष्ट-१ (ख)
नामानुक्रम : देव
आत्मरक्षक देव १०/६९ आनत ११/९४ आनतदेव ८/१०१ आरण ११/९४
इंगाल १०/९१ इन्द्र १०/८१, ११/६१ इन्द्र महोत्सव ९/१५८,१५८ (भा.) १६८ (भा.) ११/१६४ इन्द्रस्थान ८/२३७/३४३ इन्द्रा १०/७६
अंगारक १०/९१ अंगारावतंसक १०/११ अंजु १०/१२ अग्रमहिषी १० आमुख, ६५,६९,७०,७३-७६,७९-९२,९५-९७ अच्युत ८/१६,२५.३१,९५,३९१,४०१, १०/६२ अच्युत कल्प ११/९४,१९१ अणपन्निक देवत्व १०/२१ अतिकाय १०/८८ अनुत्तर विमान ८/४०३ (भा.), ११/१९१ अनुत्तरोपपातिक ८/१६,१७,२५,२६,३१,३६,६०,६१,६४,६६,
३८६,३९१,३९२,३९५,४०३,४४७ (भा.) अपराजित ८/२५ अपराजिता १०/११ अमला १०/१२ अरुणाभ विमान १०/१०२ अर्चनिका १०/९९ अर्चिमाली १०/९० अप्सरा १०/१२ अल! १०/७६ अवतंसा १०/८६ अशोका १०/७९ अशोकावतंसक १०/९९ असनी १०/७५ असुरकुमार ८, १५,१७.२४,३१,९५,२६०,३९५,४००, ९/८०.
१२०.१२१.१२७,१२८,१३२, १०/२३,३१,६८,६९, ११/
ईशान ९/२३७,२३८, १०/६०.९६,९७.११/९४,१९१
उ उत्तमा १०/८४ उत्तरवैक्रियक १०/२३ (भा.) उत्पला.१०/८२ उपपन्न ९/७९-८१.१२०,१२१,१२३-१२८.१३२,२३४,२३५,
२४०,२४१,२४३,२४४.२४२-२४४ (भा.) १०/२१.
४८,४९,५१,५३,५४,५६,५९,६०,६२, ११/१६९,१८५ उपपात ८/३४१,३४३, १०/९९, ११/४२-५५ (भा.)
क
कनकलता १०/७० कनका १०/७०,८५ कमल-प्रभा १०/८२ कमला १०/८२ कल्प ८/३१,९२ (भा.), ९/२३४,२३५-२३९, २४३: ११/१२
(भा.) १६९ कल्पवृक्ष ११/६१ कल्पातीत ८/३९१,३९२,४०२.४४७ (भा.) कल्पातीतग ८/१६.१७.२५.२६.६०,६४.९५.३८६ कल्पोपग ८.१६,२५.९५ कल्पोपपन्न ८/३९१ काकंदक १०/४९,५१
असुरकुमार राज १०/४६-५१,६५,६७-७०,७२,७३ असुरराज १०/२३ (भा.) असुरेन्द्र १०.४६-५१.६५.६७-७०,७२.७३
आ आतपा १०.९० आत्मरक्षक १०.९९
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________________
४५९
भगवई
परिशिष्ट-१ (ख) : नामानुक्रम : देव काल १०/८२-८५,८९
ज्योतिषेन्द्र १०/९० काल राजधानी १०/८२
ज्योत्स्नाभा १०/९० काली १०/६५ किंपुरुष १०/८६
तारका १०/८४ किन्नर १०/८६.११/१३८
तारा ८/१६,२५.३१,३४०,३४२ किल्विषिक देव ९/२३४-२४१,२४३,२४४
तारागण ९/३-५, ३-५ (भा.) ११/६१ कृष्णरात्रि १०/१६
तारा-रूप ११/१६९ कृष्णा १०/९६
तावस्त्रिंश १० आमुख केतुमती १०/८६
तावस्त्रिंशक १०/४२ तुडिय १०/६६
त्रायस्त्रिंश १० आमुख गन्धर्व ८/१६,२५,३१
त्रायस्त्रिंशक १०/४६-५१,४६-५१ (भा.) ५२-६१,६९ गीतयश १०/८९ गीतरति १०/८२
दिनकरइ ११/१४२ ग्रहगण ८/३४०,३४२, ११/१६९
दिव्य १०/१८,६४; ११/१०९,११०,१०९-११०(भा.) ग्रैवेयक ८/१६,२५,३१,३९१,४०२, ११/१९१
दिव्य भोग १०/६४,६७
दिव्य भोगार्ह १०/६८,६९,७२,७८,९४,१००,११/१६९ घन (विद्युत) १०/७६
दिशाकुमारी ११/आमुख, १०९,११०
दुन्दुभि ९/१६३ चंपकावतंसक १०/९९
देव ८/१४-१७,२४,३१,३६,६०,६१,६४,६६,९२ (भा.) ९५, चन्द्र ८/१६,२५,३१,३४०.३४२, ९/३,१०/९०,९१, ११/६१, १३४,३४०,३६७-३७२ (भा.) ३८६,३९५.४००,४०३, १३३,१५३,१५५
(भा.), ४२४, (भा.) ४२८, ४४७ (भा.); ९/४६,४० (भा.) चन्द्रकिरण ११/१३३
६८,८६,११४-११९,१२५-१३२ (भा.),२३४-२४१,२४३, चन्द्रप्रभा १०/१०
२४४,१० आमुख, २१,२३,२३ (भा.) २४-२६,२८,३१चन्द्रमण्डल ९/२०४
३५,२४-३८ (भा.) ४६-५१,४६.५१ (भा.), ५२. चन्द्रमा ९/४,३-५ (भा.), ११/१३४,१३८,१४२,१४६
६१,६४,६८,६९,११ (आमुख), १२ (भा.) ४२-५५ (भा.) चमर १०/२३ (भा.) ४६.५१,५३,५८,५९,६५,६७-७०,७२- ६१,६४,१०९,११०,१०९-११० (भा.) १३५.१६९,१०५. ७५,७९.८१,८२,९४, ११/१०९,११० (भा.)
१७६,१७९,१८०,१८२,१८५,१८८-१९०,१९३ चमरचंचा १०/६१-६९
देव अर्चना ११/७१ (भा.) चित्र १०/१५
देवकुल ८/३५९ चित्रगुप्ता १०/७०
देवगति ९/४६,४६ (भा.) ६८,१२५-१३२ (भा.); ११/४४ चूतावतंसक १०/९९
देवगतिक ८/१११-११३ (भा.) चांद ११/१६९
देवता ८/३७९,३८० (भा.),१० आमुख च्यवन ९ आमुख, २४१,२४४; १०/५१,५४,५६,५९,६०,६२, देव परिषद ९/१६३ ११/१६९,१८५
देव पूजा ९/१५८ (भा.) च्युत ९/१२०,१२३, १०/४६-५१ (भा.) ११/आमुख, १२ | देव प्रवेशनक ९/११४-११६ (भा.) ४२-५५ (भा.)
देवराज १०/५७-६१, ९२,९४,९७,९९,१००
देवलोक ८/२४३,९/७,२४१,२४३,२४४; १०/२१,११ जयन्ती १०.९१
(आमुख) ४२-५५ (भा.); १६९,१७५,१७६.१७९, ज्योतिष्क ८/१६.९५,२४३.३४०,३९१,९/१,३-५,८५, ११५- १८०,१८५, १८८,१९०,१९३
११८,१२०,१३२, १०/२३,३१,९०, ११/१२ (भा.) देवस्थिति ११/१७६ ज्योतिषराज १०/९०
देवायु ८/४२५-४२८ (भा.)
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परिशिष्ट १ (ख) : नामानुक्रम : देव
देवायुष्य ९/१२५-१३२ (भा.)
देवावास १० / २३ (भा.)
देवावासांतर १०/२३
देवी १०/१.३२-३७,६५,६६,६८-७१,७४-७७.७९-९३,९५
९७
देवेन्द्र १० / ५७-६१,९२,९४,९५,९७,९९,१००
देवोचित कर्म ९ / १२५-१३२ (भा.)
धरण १०/५५,५६,६२,७६,७८-८०
धरण राजधानी १०/७८
धरणेन्द्र १०/८१; ११ / ६१
न
नक्षत्र ८ / ३४०, ३४२, ११ / ६३,१५६, १५८,१६९
नवमिका १०/८७,९२
नाग ११ / ६१
नागकुमार ८/३९५,४००
नागकुमार राज १०/५५,५६.७६, ७८,७९,८१ नागकुमारेन्द्र १० / ५५,५६,७६,७९,८१
नागचित्त १०/८१
नाग पूजा ९/१८९.१८९ (भा.)
नाग महोत्सव ९/१५८.१५८ (भा)
निकाय (दस) १०/४६-५१ (भा.)
निरंभा १०/७४
निशुंभा १० / ७४
पद्मा १०/८५.९२
परिचारणा १०/६९
पर्वणी उत्सव ९ / १८९/१८९ (भा.)
पितर ११ / ६४
पिशाच ८ / १६,२५.३१,९५
पिशाच राज १०/८२
पिशाचेन्द्र १०/८२
पुण्या १०/८४
पुष्पवती १०/८७
पूर्णभद्र १०/८४
पूर्णिमा उत्सव ९ / १८९.१८९ (भा.)
पृथ्वी १०/९७
प्राणत १० / ६२; ११ / ९४
प्रभंकरा १०/९०
प्रभास ९/३-५
बलि १० / ५२-५४,७४,७५
बलिचंचा राजधानी १०/७४
ब
४६०
बहुपुत्रिका १०/८४ बहुरूपा १०/८३
बंभेलक १० / ५४
ब्रह्मलोक ९ / २३९, ११ (आमुख) ९४.१६९
भ
भवधारणीय वैक्रियक १०/२३ (भा.)
भवनपति ११ / १२ (भा.)
भवनवासी ८/१४,१५,२४.३१,९५, २४३, ९/११४-११८
भाव १०/९१
भीम १०/८५
भुजगवती १०/८८
भुजगा १०/८८
भूत महोत्सव ०/ १५८.१५८ (भा.)
भूतराज १०/८३
भूतानन्द १० / ५६,८०,८१ भूतेन्द्र १०/८३
मधराज कालवास १०/७१
मणिभद्र १०/८४
मदना १० / ७४,९५
महत्तरिका ११ / १०९.११०
महाकक्षा १० / ८८
महाकाय १०/८८
महाकाल १०/८२
महाग्रह ९ / ३-५ (भा.), १०/९०.९१
महाघोष १० / ५६
महापुरुष १०/८७
महाबल देव ११ / १६९
महा भीम १०/८५
महाराज कालवास १० / ७९
महाराज वरुण ११/६८
महाराज वैश्रमण ११ / ७०
म
महाराजा यम १०/७३, ११/६६
महाराजा सोम १० / ७२.७५,९५,९७
महाविमान १० / ९९
महाशुक्र ११/९४
माणवक चैत्य १०/६८
माहेन्द्र ९/२३८, ११ / ९४,१६९
मीनका १०/७५
मुकुन्द महोत्सव ९ / १५८,१५८ (भा.) मेघा १०/६५
भगवई
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________________
भगवई
४६१
परिशिष्ट-१ (ख): नामानुक्रम : देव
यक्ष महोत्सव ९/१५८,१५८ (भा.) यक्षेन्द्र १०/८४ यम राजधानी १०/७३
विद्युत १०/६५,७५,९७ विमला १०/७९,८९ विमान ८/१६.२५,३१,४०३ (भा.); १०.९१.९४.९५,९७;
रंभा १०/७४ रक्षेयेन्द्र १०/८५ रजनी १०/६५ रतनी १०/९७ रतिप्रिया १०/८६ रतिसेना १०/८६ रत्नप्रभा १०/८५ राक्षसेन्द्र १०/८५ राची १०/१२ राजी १०/६५ रात्रि १०/९७ रामरक्षिता १०/९६ रामा १०/९६ रूपकांता १०/८० रूपकावती १०/८० रूपप्रभा १०/८० रूपवती १०/८३ रूपा १०/८० रूपांसा १०/८० रोहिणी १०/८७,९२,९५
विमानावास १०/१०० विमान भवन ११/४२ वैजयन्ती १०/११ वैमानिक ८/१४,१६,१७,६०,६४,९५,२४३,२६९,३८६.३९१,
३९२,४४७ (भा.), ४७८,४८१.४८३.५०१, ९.८१.८५. ११४-११८,१२०-१२४,१३२,१०/२३,३१,३५.३७: ११
१२ (भा.) वैरोचनराज १०/५२-५४,७५ वैरोचनेन्द्र १०/५२-५४.७४,७५ वैश्रमण १०/७३,९५, ११/६४ वैश्रमण राजधानी १०/७३ व्यंतर ११/१२ (भा.)
शक्र १०/५७-६०,९२,९४.९७.९९-१०० शक्रा १०/७६ शिवा १०/१२ शुंभा १०/७४
लान्तक ११/९४ लान्तक कल्प ९/२३४,२३५,२४३ लोकपाल १०/६९-७०,७२,७३,७५,७९,८१,८२,९५,९७
वरुण १०/७३.७५,९७ वसुंधरा १०/७०,९६ वसु१०/९६ वसुमती १०/८५ वसुगुप्ता १०/९६ वसुमित्रा १०/९६ वानमंतर ८.१६,९५,२४३,३९१; ९/८४,११५-११८,१२०,
१३२, १०/२३,३१ विकालक १०/११ विक्रिया १०/६६.७१,७७.९३ विजय८/१७,२५.३१ विजया १०/११
सतेरा १०/७६ सत्पुरुष १०/८७ सनत्कुमार ९/२३८, १०/६१,११/९४,१६९ ससपर्णावतंसक १०/९९ सभा १०/१,९४ सरस्वती १०/८९ सर्वार्थसिद्ध ८/१७,२६.३१,३६,६०,६१,६४.६६,३७९,३८०
(भा.) ३८६,४४७, (भा.) सहस्रार ८/९२ (भा.), ९५,४००, ११/९४ सामानिक १०/६९ सुघोषा १०/८९ सुजाता १०/८१ सुदर्शना १०/७९,८२ सुधर्मा सभा १०/६७-७२,९४,९५,९९ सुनंदा १०/८१ सुप्रभा १०/७९ सुभगा १०/८३ सुभद्रा १०/७५.८१ सुमना १०/८१ सुरूपा १०/८०,८३
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________________
परिशिष्ट-१ (ख) : नामानुक्रम : देव
४६२
भगवई
१८७
सुस्वरा १०८९
सौधर्म ८/१६,२५,३१,९५,३९१,९/२३६,२३८, ११/१६९ सूर्य ८/३२९-३३५,३३७-३४०,३४२, ९/३.५ (भा.) १०/१- सौधर्म कल्प ८/३१; १०/२३ (भा.),९४,११/९४.१८२,१९१ ७ (भा.), ९०, ११/६३.७१,७७,१५३,१५५,१६९,१८६, | सौधमावतंसक १०/९४,९९
स्कन्ध महोत्सव ९/१५८,१५८ (भा.) सूर्यप्रभा १०/१०
स्तनितकुमार ८/१५,२४,३१,९५,३९१, ९/८०,८१,१२०. सूर्याभदेव १०/७२,९९
१२८; १०/२३,३१ सोमसिंहासन १०/१५
स्फुटा १०/८८ सोम १०/७३.७५
स्वयंप्रभविमान १०/१५ सोम राजधानी १०/७२
स्वर्ग ९/२४२-२४४ (भा.), ११ (आमुख) सोमा १०/१५ सौदामिनी १०/७६
| हृी १०/८७
|
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________________
परिशिष्ट-१ (ग)
नामानुक्रम : पशु-पक्षी
आ १. आसं. आसा (अश्व) ९/२०६,२०९.२४८,२५१, १०/३९, | १३. चमर (याक) (चमरी गाय) ११/१३८ ३९ (भा.) ११/१५९
Yalk Horse
१४. तुरग (घोड़ा) ११/१३८ २. ईहामिय (भेड़िया) ११/१३८
Horse Wolf
१५. नागा (हाथी ९/२०६ ३. उरग (सर्प) ८/८७.९०,८६,९१ (भा.)
Elephant Snake
१६. नाय (नाग) ९/२०४ ४. उसभ, उसह (वृषभ) ११/१३८.१४२
Snake
Ox
१७. बन्दर १०/१५ (भा.) Monkey
५. कुंजर (हाथी) ११/१३८ Elephant ६. कुत्ता १०.१५ (भा.) Dog ७. कुम्मे (कछुआ) ८/२२२ Tortoise, Turtle ८. कृमि (किटाणु) ९/२४६-२४८ (भा.) Worm
१८. मंडुक्क (मन्डूक) मेंढ़क ८/८७.८९.८६-९१ (भा.);
१०/१५ (भा.) Frog १९. मगर (मगरमच्छ) ११/१३८ Crocodile २०. मछली १०/१५ (भा.) Fish २१. महिसे (भैंसा) ८/२२२; १०/१५ (भा.) Buffalow
९. गय (गज) ८/१०३,९७-१०३ (भा.) ९/२०५; ११/१४२ Elephant १०. गाय, गो १०/१५ (भा.), ११/१५९ Cow १. गोणा (बैल) ८/२२२
Ox
२२. राजहंसिनी ११/१३५.१४४ Female Flamingo २३. रुरु (काला हिरण) ११/१३८ Black Deer
१२. गोहा (गोह) ८/२२२ A Kind of Lizard
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________________
परिशिष्ट-१ (ग) : नामानुक्रम : पशु-पक्षी
४६४
भगवई
२७. सरभ (अष्टापद) ११/१३८ २८. सीह (सिंह) ११/१३३,१४२ Lion
२४. वग्धं (व्याध) ९/२४८ Tiger २५. वालग (सर्प) ११/१३८ Snake २६. विच्छ्य (वृश्चिक) ८/८७,८८,८६-९१ (भा.) Scorpian
२९. हत्थिं (हस्ती) ९/२४८,१५९ Elephant ३०. हय (हय)८/९७-१०३ (भा.), १०३, ९/२०५ Horse
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________________
अंगद ९/१९०
अगरल ९/१४९ अट्टिकट्टिय ९/१७२ अणिविय ९/१७२
अतिशयबल ९ / १४९
अदंड कोदंडिमं ११/११९-१३०
अधरिम ११ / ११९-१३०
अध्यवसान ९ / १-३२
अन्योन्य अनुगमन ८/४७७-४८४ अन्योन्य अनुप्रवेश ८ / ४७७-४८४ अपरिमितबल ९ / १४९
अभिहणइ ८ / २८५-२९४
अमम्मणा ९/१४९
अर्थावग्रह ८ / ९७-१०३
अवग्रह ८/९७-१०३ अवधिज्ञान ८/९७-१०३
अ
अवाय ८/९७-१०३
अविकल कुल ९/१७३
अवितथ ९/१७७
अविमाणिय दोहला ११/११९-१३० असईजणपोसणया ८/२४१-२४२ असम्भभावुब्भावणा ९ / २३०-२३४ अहीव एगंतादिट्ठीए ९/१७७
इंगाल ११ / ५९ इंगालकम्मे ८ / २४१-२४२
आचार विनय ८/३०१ आलापनबंध ८ / ३५५
आलुग ९/१६८
आवेष्टन परिवेष्टन ८/४७७-४८४
आसेलय ९/१४१
आ
इ
परिशिष्ट- २
शब्दार्थ एवं शब्द- विमर्शानुक्रम
इंदट्टी ९/१६८
इन्द्रिय लब्धि ८ / १३९-१४६
ईहा ८/९७-१०३
उंबरपुप्फे ९ / १६९ उक्खेवगं ९/१६९
उग्र १० / ४६-५१ उग्रविहारी १०/४६-५१ उच्चय बंध ८ / ३५६-३६२
उत्तरावक्रमण ९ / १९० उत्पलकर्णिका ११ / ४०
उत्पलकेसर ११ / ४०
उत्पलथिमुग ११ / ४०
उत्सव ९/१८९
उद्धारणा ८/३०१
उपभोग लब्धि ८ / १३९-१४६ उववेह ८ / २८५-२९४
ओग्गहिय ९ / १४१ ओघबल ९ / १४९
ई
एक क्षेत्रावगाह ८/४७७-४८४ एकावलि ९/१९० एकास्थिक ८ / २१६-२२१
कंचुकी ९/१५८ कंदप्पिया ९/२०४
कंदुसोल्लिय ११ / ५९
कटिसूत्र ९/१९० कटुसोल्लिय ११ / ५९ कडग ९/१९०
कलमल ९/१७४
उ
ए
ओ
क
Page #488
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________________
परिशिष्ट-२: शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम
४६६
भगवई
चेट्ठिय ९/१९५
छाण ८/२५६-२५७ छित्त्वर ८/२५६-२५७
कारवाहिया ९/२०८ कारोडिया ९/२०८ किच्छदुक्ख ९/१७४ किडुकरा ९/२०४ किढ़िण ११/७१ किलामेह ८/२८५-२९४ किव्विसिया ९/२०८ कुंडल ९/१९० कुलवंश ९/१६९ कुवग्गाहा ९/२०४ कुश ८/३५५ कुसील १०/४६-५१ कुसील विहारी १०/४६-५१ कृतलक्षण ९/१६६ कृतार्थ ९/१६६ केयूर ९/१९० केवलज्ञान ८/९७-१०३ केवलं ९/१७७ केसवाणिज्जे ८/२४१-२४२ केसहत्थ ९, १६८ कोक्कुझ्या ९/२०४ कोत्तिय ११/५९ क्षण ९/१८९
जंतपीलणकम्मे ८/२४१-२४२ जंबूनदमयकलाप ९/१४१ जटी ९/२०४ जत्तोवयारकुसल ९/१९५ जराकुणिमज्जरघर ९/१७२ जहामालियं ११/११२-१३० जाति स्थविर ८/२९५-३०० जीविऊसविए ९/१६९ जुग ९/१४१ जोयण नीहारिणा ९/१४९ ज्ञान अत्याशातना ८/४१९-४२० ज्ञान निहवन ८/४१९-४२० ज्ञान प्रत्यनीकता ८/४१९-४२० ज्ञान प्रदोष ८/४१९-४२० ज्ञान लब्धि ८/१३९-१४६ ज्ञान-विसंवादना ८/४१९-४२० ज्ञानान्तराय ८/४१९.४२०
झल्लरी ११/९०
खंडियगण ९/२०८ खुण्णिय ९/१६८ खुर ९/१४१
डमरकर ९/२०४ डवकर ९/२०४
गंधकासाईए ९/१९०
घंटियाजाल ९/१४१ घटी ९/२०४ घेरकंचुइ ९/१४४
तंत्रोद्गत ८/२५१-२५५ तत् गति ८/२८५-२९४ तालियंट ९/१६९ तिथि ९/१८२ तुडिय ९/१९० तृणशूक ८/२५१-२५५ तेज ९/१४९
चक्किया ९/२०८ चरित्रलब्धि ८/१३९-१४६ चरित्राचरित्रलब्धि ८/१३९-१४६ चाटुकर ९/२०४ चारगं सोहणं ११/११९-१३० चिलिण ९/१६८ चुडल्लिव ९.१७४ चूड़ामणि ९/१९०
दंतवाणिज्जे ८/२४१-२४२ दर्भ ८/३५५ दवग्गिदावणया ८/२४१-२४२ दर्शन लब्धि ८/१३९-१४६ दान लब्धि ८/१३९-१४६ दिशापेक्खिय ११/७१
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________________
भगवई
४६७
परिशिष्ट-२: शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम
फोडीकम्मे ८/२४१-२४२
दीणविमण वयण ९/१६८ दीव चपय ८/२५६-२५७ दुगुल्ल ११/११९-१३० दुख्य ९/१७४ देश ८/२८५-२९४ दोषनिर्घात विनय ८/३०१
बंध छेदनगति ८/२८५-२९४ बलका ८/२५६-२५७ बलहरण ८/२५६.२५७ बलियाण ९/१४१ बहुबीजक ८/२१६-२२१ बुज्झति ९/१७७ ब्रह्मचर्यवास ९/९-३२
धारण ८/२५६.२५७ धारणा ८/९७-१०३
भाडीकम्मे ८/२४१-२४२ भोगलब्धि ८/१३९-१४६
नंगलिया ९/२०८ नत्थ ९/१४१ निच्छाय ९/१६८ निर्ग्रन्थ प्रवचन ९/१७७ निल्लंछणकम्मे ८/२४१-२४२ नेयाउय ९/१७७
पइविसिट्ट ९/१४१ पगब्भुब्भवभाविणीओ ९/१७३ पग्गह ९/१४१ पडिपुण्ण ९/१७७ पमुयपक्कीलिय ११/११९-१३० पम्हसुउमाल ९/१९० परस्पर श्लेष ८/४७७-४८४ परिक्लेश ९/१७४ परिनिव्वायंति ९/१७७ पर्याय स्थविर ८/२९५-३०० पर्वणि ९/१८९ पसत्थ दोहला ११/११९-१३० पसय ८/९७-१०३ पार्श्वस्थ १०/४६-५१ पार्श्वस्थविहारी १०/४६-५१ पिच्छी ९/२०४ पुण्णरत्ता ९/१४९ पुष्यमाण ९/२०८ पेच्चेह ८/२८५-२९४ पोत्तिय ११/५९ प्रदेश ८/२८५-२९४ प्रयोग ८/१ प्रयोग गति ८/२८५-२९४ प्रालम्ब ९/१९०
मञ्जिष्ठा राग ८/२५१-२५५ मतिअज्ञान ८/९७-१०३ मनःपर्यवज्ञान ८/९७-१०३ मल्ल ८/२५६-२५७ महत्तरग ९/१४४ महाबल ९/१४९ माहात्म्य ९/१४९ मिच्छत्ताभिनिवेस ९/२३०-२३४ मिश्र ८/१ मुक्तावलि ९/१९० मुच्चंति ९/१७७ मुरवी ९/१९० मुहमंगलिया ९/२०८ मृदंग ११/९० मृदंग मस्तक ९/१५६
य यज्ञ ९/१८९ यथाछंद १०/४६-५१ यथाछंदविहारी १०/४६-५१
रका ९/१४९ रज्जु ८/३५५ रत्नावलि ९/१९० रयणमय घंटा ९/१४१ रसवाणिज्जे ८/२४१-२४२ रूप ९/१९५
लक्खवाणिज्जे ८/२४१-२४२
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________________
परिशिष्ट-२ : शब्दार्थ एवं शब्द-विमर्शानुक्रम
४६८
भगवई
लहुसगा ९/१७४ लाभ लब्धि ८/१३९-१४६ लेसेह ८/२८५-२९४
वणकम्मे ८/२४१-२४२ वत्तेह ८/२८५-२९४ वद्धमाण ९/२०८ वर्द्धमान ९/२०८ वर्द्धमानक ९/२०८ वल्क ८/३५५ वल्ली ८/३५५ वषहर ९/१४४ वस्त्रा ८/३५५ विकच्छसुत्तग ९/१९० विक्षेपणा विनय ८.३०१ विणीय दोहला ११/११९-१३० विधारणा ८/३०१ विभंग अज्ञान ८/९७-१०३ विमक्कसंधिबंधण ९/१६८ विलास ९/१७३,१९५ विस्रसा ८/१ विहायगति ८/२८५-२९४ वीर्य लब्धि ८/१३९-१४६ वुग्गाहेमाण ९/२३०-२३४ वुप्पाएमाण ९/२३०-२३४ वेत्रलता ८/३५५ वेदि ११/७१ वोच्छिण्ण दोहला ११/११९-१३० व्यंजनावग्रह ८/९७-१०३
संखिया ९/२०८ संगय ९/१९५ संघट्टेह ८/२८५-२९४ संघाएह ८/२८५-२९४ संढप्पया ९/१७२ संघारणा ८/३०१ संपुणा दोहला ११/११९-१३० संप्रधारणा ८/३०१ संलाप ९/१९५ संविग्न १०/४६-५१ संविग्नविहारी १०/४६-५१ संसुद्ध ९/१७७ संहनन बंध ८/३५६-३६२ सत्य ९/१७७ समलिहियसिंग ९/१४१ सफसिय ९/१६९ समुच्चय बंध ८/३५६-३६२ सम्माणिय दोहला ११/११९-१३० सरदब्भ ९/१९५ सरदहतलायसोसणया ८/२४१-२४२ सर्वभाषानुगामिनी ९/१४९ सल्लगत्तणं ९/१७७ सव्वत्तक्खरसण्णिवाइया ९/१४९ सव्वदुक्खाणमंतंकरेंति ९/१७७ साडीकम्मे ८/२४१-२४२ सालभंजिया ९/१९१ सावेता ९/२०४ सासंता ९/२०४ सिंगारागारचारुवेसा ९/१९५ सिज्झेति ९/१७७ सीयं ९/१९१ सुत्तरज्जुय ९/१४१ सेयापीए ९/१९० स्नायु ९/१७२
शिखंडी ९/२०४ शिरा ९/१७२ श्रीगृह ९/१८४ श्रुतअज्ञान ८/९७-१०३ श्रुत विनय ८/३०१ श्रुत स्थविर ८/२९५-३०० श्लेष बंध ८/३५६-३६२
ह
हडप्प ९/२०४ होत्तिय ११/५९
संकाइयणं ११/७१
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परिशिष्ट-३
भाष्य-विषयानुक्रम
आलीनकरण बन्ध ८/३५६-३६२ अक्षीण प्रतिभोजी ८/२४१-२४२
आलोचनाभिमुख का आराधक पद ८/२५१-२५५ अज्ञान ८/१८९-१९१
आशीविष के प्रकार ८/८६-९१ अध्यात्म के सूत्र ९/९-३२
आहारक शरीर प्रयोग बंध ८/४०८-४११ अनगारिता और धर्मान्तरायिक कर्म ९/९-३२ अनुत्तर विमान देव ८/४०३
ईर्यापथिक बन्ध ८/३०२-३१४ अन्तराय कर्म ८/४३३ अन्तर्वीप ९/७
उत्पत्ति (द्रव्यार्थिक व पर्यायर्थिक नय से) ९/१२१ अन्ययूथिक संवाद अदत्त की अपेक्षा ८/२७१-२८४
उत्पल के एक पत्ते में जीव ११/१ अन्यलिंगी एक समय में सिद्ध ९/५१
उत्पल जीव उच्छ्वास निश्वास ११/१८ अप्रशस्त वनस्पति व देवों की अनुत्पत्ति ११/४२-५५ उत्पल जीव और कर्म बन्धन ११/६-११ अभिनिष्क्रमण व केशकर्तन ९/१८८
उत्पल जीव और काय संवेध ११/३० अलेश्य ८/१७८
उत्पल व आहारग्रहण ११/३४ अवधिज्ञान और लेश्या ९/५६
उत्पल जीव व कर्म बन्धक व अबंधक भंग ११/६-११ अवेदक ८/१८१
उत्पल जीव व स्थिति ११/३०, ३४ अश्रुत्वा पुरुष के आध्यात्मिक विकास के साधन ९/९-३३,३४ | उत्पल पत्र के जीवों का परिमाण ११-३-४ अश्रुत्वा पुरुष के लिए स्त्री वेद का निषेध ९/४२
उत्पल पत्र के जीवों की आगति ११/२ अश्रुत्वा पुरुष के अवधिज्ञान में वेद अवेद ९/६४
उत्पल पत्र में जीवों की उत्पत्ति ११/३-४ अश्रुत्वा श्रुत्वा पुरुष में ज्ञान की भिन्नता ९/५७
उपनिमंत्रित पिण्डादि परिभोग विधि ८/२४८.२५० अश्रुत्वा श्रुत्वा पुरुष में ज्ञान दर्शन की भिन्नता ९/५५ अश्रुत्वा पुरुष में द्रव्य लेश्या भाव लेश्या ९/५६
ऋषभदत्त और परम्परा ९/१३७ अष्टमंगल ९/२०४
ऋषि के वध में अनंत जीवों का वध ९/२४९. २५० असोच्चा और सोच्चा ९/९-३२ आ
एक एक आकाश प्रदेश में जीवों के प्रदेश ११/११३ आजीवक उपासकों की विशेषताएं ८/२४१-२४२
एक के वध में अनेक जीवों का वध ९/२४६-२४८ आजीवक संप्रदाय ८/२३०-२३५
एक समय में योग ९/३६ आठ कर्मों में परस्पर नियमा, भजना ८/४८५-४९८ आन्तरिक शुद्धि के सूत्र ९/९-३२
ऐपिथिकी क्रिया और संवृत अनगार १०/११-१४ आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान ९/९-३२
औ आयुष्य ८/४२५-४२८
औदारिक आदि शरीर बंधक और अबंधक ८/४३९-४४६ आराधक विराधक ८/२५१-२५५
औदारिक आदि शरीर बंध का अल्प बहुत्व ८/४४७ आराधना ८/४५१-४६६
औदारिक-वैक्रिय शरीर प्रयोग बन्ध की स्थिति एवं अन्तरकाल आलापन बंध के साधन ८/३५५
८/४१५
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________________
परिशिष्ट-३ : भाष्य-विषयानुक्रम ४७०
भगवई औदारिक शरीर प्रयोग बंध की अवस्थाएं ८/३७३-३७५ औदारिक शरीर बन्धक का अल्प बहुत्व ८/३८५
ज्ञान-अज्ञान (अंतराल गति की अपेक्षा) ८/१११-११३ औदारिक शरीर बन्ध का अन्तरकाल ८/३७९-३८१,३८३,३८४ ज्ञान-अज्ञान (आहारक-अनाहारक की अपेक्षा) ८/१८२-१८३
ज्ञान-अज्ञान (इंद्रिय की अपेक्षा) ८/११५-११७ कर्म प्रकृति और परीषह का सम्बन्ध ८/३१५-३२८
ज्ञान-अज्ञान (इन्द्रिय लब्धि की अपेक्षा ८/१६६-१६८ कर्म बन्ध की भूमिकाएं ८/३१५-३२८
ज्ञान-अज्ञान (काय की अपेक्षा) ८/११८-११९ कर्म बन्ध के हेतु ८/४१९-४३३
ज्ञान-अज्ञान (चारित्र लब्धि अलब्धि की अपेक्षा)८/१६१-१६२ कर्म से आशीविष ८/९२
ज्ञान-अज्ञान (तिर्यक पंचेंद्रिय) ८/१२५ कर्मों का अविभाग परिच्छेद ८/४७७-४८४
ज्ञान-अज्ञान (दर्शन लब्धि की अपेक्षा) ८/१५९-१६० कषाय की क्षीणता व अवधिज्ञान ९/६५
ज्ञान-अज्ञान (दान-वीर्यलब्धि की अपेक्षा) ८/१६५ कार्मण शरीर ८/३६६
ज्ञान-अज्ञान (सूक्ष्म-बादर की अपेक्षा) ८/१२०-१२२ कालातिक्रान्त ९/२२४
ज्ञान-अज्ञान, अपर्याप्त अवस्था में ८/१२६ क्रियमाणकृत ९/२२६-२२९
ज्ञान-अज्ञान का अंतरकाल ८/२००-२०४ क्रिया (शरीर और शरीरयुक्त जीव की अपेक्षा) ८/२५८-२६९ ज्ञान-अज्ञान की जघन्य उत्कृष्ट स्थिति ८/२००-२०४ क्रिया का अल्प बहुत्व ८/२२८
ज्ञान-अज्ञान के पर्यवों का अल्प-बहुत्व ८/२०८-२१४ क्रिया काल और निष्ठा काल ८/२७१-२८४
ज्ञान-अज्ञान द्वीन्द्रिय में ८/१२८ क्रिया की सापेक्षता ८/२५६-२५७
ज्ञान-अज्ञान नैरयिक में ८/१२७ क्रियावाद ८/४४९.४५०
ज्ञान-अज्ञान मनुष्य में ८/१२९ क्षपक श्रेणी और कर्म क्षय की प्रक्रिया ९/४६
ज्ञान का प्रतिपक्ष ८/१५३ क्षपक श्रेणी के आरोहण की प्रक्रिया ९/४६
ज्ञान की विषय (ज्ञेय) वस्तु का प्रतिपादन ८/१८४-१८८ क्षुल्लक भव ८/३७६-३७८
ज्ञान के प्रकार ८/९७-१०३ ग
ज्ञान छद्मस्थ-वीतराग में ८/१८० गति उत्पत्ति के परोक्ष हेतु ९/१२५-१३२
ज्ञान पर्यवों का अल्प-बहुत्व ८/२०८-२१४ गति उत्पत्ति के प्रत्यक्ष हेतु ९,१२५-१३२
ज्ञानवाद ८/४४९-४५० गति के आधार पर हिंसा-अहिंसा ८/२८५-२९४
ज्ञानाराधना ८/४५१-४६६ गति में उत्पत्ति के हेतु ९/१२५-१३२
ज्ञानावरणीय कर्म ४१९.४३३ गोत्र कर्म ८/४३१-४३२
ज्ञानी-अज्ञानी (ज्ञान लब्धि की अपेक्षा) ८/१५०
ज्ञानी-अज्ञानी का अल्प बहुत्व ८/२०८-२१४ चतुर्याम धर्म और पंच महाव्रत धर्म ९/१३३-१३५
ज्ञानी और अज्ञानी ८/१०४ चरम-अचरम ८/२२४-२२६
ज्ञानी का अल्प-बहुत्व ८/२०५-२०७ चारित्र अवस्था और कषायोदय ९/४३
ज्ञानी की कालावधि ८/१९२-१९९ चारित्राराधना ८/४५१-४६६
झल्लरी, मृदंग ११/९० छद्मस्थ और केवली ८/९६
तीर्थंकर की वाणी ९/१४९ जमाली जीवन चरित्र ९/२२६-२२९
तेजस और कार्मण शरीर का प्रमाण ८/४३९-४४४ जम्बूद्वीप आदि में चन्द्रमा आदि की संख्या ९/३.५ जिह्वा की अलब्धि वाले जीव ८/१७१
दर्शनाराधना ८/४५१-४६६ जीव की उत्पत्ति, उद्वर्तना व गत्यंतर में प्रवेश ९/७९-८६ दर्शनावरणीय कर्म ८/४१९-४३३ जीव के प्रदेश और कर्म पुद्गलों का संबंध ८/४७७-४८४ दान के तीन रूप ८/२४५-२४७ जीव प्रदेश ८/२२२-२२३
दिशाएं व द्रव्यों का अस्तित्व १०/१-७ जीवों के रत्नप्रभा आदि के भंग ९/८८-९०,९१,९२,९३,९४, | दिशा चक्रवाल तपःकर्म ११/५९
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________________
भगवई
४७१
परिशिष्ट-३ : भाष्य-विषयानुक्रम
दिशा-विदिशा १०/१-७ देव की गति शक्ति १०/२३ देव की स्थावर जीव निकायों में उत्पत्ति ११/१२ देव निकाय व त्रायस्त्रिंशक १०/४६-५१ ।। देवों की त्वरित गति व रज्जु ११/१०९-११० दोष प्रतिसेवना व आराधना विराधना १०/१९-२१ दोहद के प्रकार ११/११९-१३०
बोधि और दर्शनावरणीय कर्म ९/९-३२ ब्रह्मचर्यवास और चारित्रावरणीय कर्म ९/९-३२
भ भवनपति और व्यंतर देवों का अज्ञान ८/१०६ भारतीय दर्शनों (चार्वाक सांख्य आदि) में सृष्टिवाद ८/४३.८४ भिक्षु प्रतिमा १०/१८
धर्म का ज्ञान और ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम ९/९-३२
नाम कर्म ८/४२९-४३० निग्रंथ प्रवचन ९/१७७ नैरयिक का अज्ञान ८/१०५
प पंखा ९/१६९ पंचमुष्टिक लोच ९/२१४ पन्द्रह कर्मादान ८/२४१-२४२ परमाणु और प्रदेश ८/४७०-४७४ पलाश आदि की अवगाहना, उपपात, लेश्या, स्थिति ११/४२.
मनःपर्यवज्ञान में अंतर ८/२००-२०४ मनुष्य शरीर व आधारभूत तत्त्व ९/१७२ महावीर और ऋषभ की अवगाहना ९/४० महावीर की परिषद् ९/१४९ महावीर की वाणी ९/१४९ महोत्सव ९/१५८ मिथ्यात्व का अभिनिवेष व भवभ्रमण ९/२४२-२४४ मिश्रपरिणत ८/१, ४०-४१ मुनि ९/१४९ मेरु पर्वत की अवगाहना व लोक का स्पर्श ११/९९ मोहनीय कर्म ८/४२४
योनि १०/१५
लब्धि ८/१३९-१४६ लब्धियों की प्राप्ति में उपयोग ९/३७ लोक-प्रमाण व संस्थान ११/९० लोकाकाश में जीव प्रदेश ११/११३
पांच व्यवहार ८/३०१ पुद्गल और पुद्गली ८/४९९-५०३ पुद्गल के प्रकार ८/१ पुद्गल परिणाम ८/४६७-४६८ पुद्गल परिवर्त ८/३८४ पुद्गलास्तिकाय ८/१७०-४७४ पुनर्जन्म की व्यवस्था का हेतु ९/१२५-१३२ पूजा ९/१५८ प्रज्ञापनी भाषा, व्यवहार भाषा १०/४० प्रत्यनीकों का वर्गीकरण ८/२९५-३०० प्रत्याख्यान के भंग ८/२३६-२४० प्रदेश परिमाण ८/४७५-४७६ प्रमाणातिक्रान्त ९/२२४ प्रयोगपरिणत ८/१,२-३९ प्रयोग बन्ध ८/३५४ प्रशस्त वनस्पति व देवोत्पत्ति ११/४२.५५
वध और वैर ९/२५१-२५२ वनस्पति ८/२१६-२२१ वनस्पति की अवगाहना ११/५ वनस्पति की कायस्थिति व तरुकाल ११/३२ वनस्पति व आहार ग्रहण की दिशाएं ११/३५ विनय प्रतिपत्तियां ८/३०१ विमोहन १०/२४-३८ विसदृश बन्ध का नियम ८/३४५-३५३ विस्रसा परिणत ८/१,४२ विससा बन्ध ८/३४५-३५३ वीचि अवीचि पथ व सांपरायिकी ऐयापथिकी क्रिया १०/११-१४ वेदना १०/१६-१७ वेदनीय कर्म ८/४२२-४२३ वैक्रिय शरीर के बंधक का अल्प बहुत्व ८/४०४ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध ८/३९७, ३९८ वैरानुबन्धी वैर ९/२५१-२५२
बन्ध का विश्लेषण (विभिन्न परम्पराओं में) ८/३४५-३५३ बहुकरणजुत्तजोइय ९/१४१ बहुनिर्जरा अल्पपाप ८/२४५-२४७ बहुरतवाद ९/२२६-२२२
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परिशिष्ट-३ : भाष्य-विषयानुक्रम
४७२
भगवई
| श्रुतशील ८/४४९-४५० शरीर और वर्गणाएं ८/३६६ शरीर का स्वरूप और कार्य ८/३६६
संवर और अध्यवसानावरणीयकर्म ९/९-३२ शरीर निर्माण ८/३६७-३७२
सदृश बन्ध का नियम ८/३४५-३५३ शरीर प्रयोग बन्ध ८/३६६
साम्परायिक बंध ८/३०२-३१४ शरीर बन्ध ८/३६३-३६५
सास्वादन सम्यक्त्व ८/१०७-११० शाश्वत अशाश्वत में अनेकांत दृष्टि ९/२३०-२३४ सिद्ध और सिद्धगतिक ८/११४ श्रमण संप्रदाय ८/२३०-२३५
स्थावर जीव व लेश्या ११/१२ श्रमणोपासककृत दान का परिणाम ८/२४५-२४७
स्वतः ज्ञान परतः ज्ञान ९, १२३-१२४ श्रमणोपासक के प्रत्याख्यान विधि के विकल्प ८/२३६-२४० ।
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परिशिष्ट-४
पारिभाषिक शब्दानुक्रम
अनिवृत्ति गुणस्थान ८/१८१ (भा.) अंग ८/१०२
अनीन्द्रिय ८/११७, १८४-१८८ (भा.) अंतर्वीप ८/१८७, ९/७, १०/१०२
अनुगवेषणा ८/२३०, २४८, २४९ अकाय ८/११८-११९ (भा.)
अनेकान्तवादी ८/१ अकृत्यस्थान ८/२५१-२५४, १०/१९-२१
अनेषणीय ८/२४६, २४७, २४५-२४७ (भा.) अक्रियावाद ८/४३.८४ (भा.)
अन्तराय ८/३१७, ३२२, ३१५-३२८ (भा.) अग्रकेश ९/१८८,१८८ (भा.), २१४ (भा.)
अन्तराल गति ८/१११-११३,१११-११३ (भा.) ११४,१३१ अचक्षु दर्शन ८/१७४, १८४-१८८ (भा.)
अन्ययूथिक ८/२७१, २७३-२९२, ४४९ अचरम ८/२२५-२२६, २२४-२२६ (भा.)
अपर्याप्त ८/२७-२९, ३१-३९, १०७-११० (भा.) १२६, १२७, अजीव १०/६, ११/१००,१०४
१२९ अज्ञान ८/९९, १०४-११३. १११-११३ (भा.). ११५-११८. | अपर्याप्तक ८/१८-२६, ३०,१११-११३ (भा.) १२९, १६६.
१२४-१२९, १३६, १४८, १५०-१५४, १५६-१६६, १६९- | १६८ (भा.)
१७५, १८३, १८४-१८८ (भा.), १८९-१९१ (भा.) अपार्धपुद्गल परावर्त ८/१९२-१९९ (भा.) २०० अज्ञानलब्धि ८/१५७
अप्रतिहत ८/२४७ अज्ञानी ८/१०२, १०४-१३७, १४७-१८३, १९८, २०५.२०७ अप्रत्याख्यातपापकर्म ८/२४७ (भा.)
अप्रत्याख्यान क्रिया ८/२२८, २२८ (भा.) अढाईद्वीप समुद्र ८/१८७
अप्रासुक ८/२४६, २४७, २४५-२४७ (भा.) अतीन्द्रियज्ञान ८/११५-११७ (भा.)
अबंधक ८.४३९-४४७ अदत्त ८/२७५-२७८, २८२-२८४
अभवसिद्धिक ८/१३६ अदत्तादान ८/२४०, २४८-२५० (भा.)
अभवस्थ ८/१३४ अधर्मास्तिकाय ८/९६, ९६ (भा.)
अभेदवाद ८/१८४-१८८ (भा.) अधस्तन क्षुल्लकप्रतर ८/१८७
अभ्युत्थान ८/२५१ अधोलोक ११/१००, १०४, १०८
अमूर्त ८/९६ (भा.), १८४-१८८ (भा.) अध्यवसान ९/९-३२ (भा.)
अयोगी ८/१७६, १८२-१८३ (भा.) अध्यवसानावरणीय कर्म ९/२०,९-३२ (भा.)
अरूपी द्रव्य ८/१८४-१८८ (भा.) अध्यवसाय ९/३६ (भा.)
अर्थावग्रह ८/९७-१०३ (भा.) १०१ अध्यात्म ९/९-३२ (भा.)
अर्धमागधी भाषा ९/१४९ अध्वाकाल ११.११९, १२८
अर्हत् ८/९६ अनाकार उपयोग ८/१८४-१८८ (भा.)
अलब्धिक ८/१४८, १५०, १५४ अनाकारोपयुक्त ८/१७४-१७५
अलोक ८/१८६, ११/९९, ९९ (भा.) १०३, १०७, ११०, अनापात ८/२४८-२५०
१०९-११० (भा.) अनाहारक ८/१८३, १८२-१८३ (भा.)
अलोकाकाश ८/४७५-४७६ अनुयोगद्वार ८/९७-१०३ (भा.), १३९-१४६ (भा.) २२२-२२३ अवग्रह ८/९७-१०३ (भा.), ९८-१०१ ।। (भा.)
अवधिज्ञान ८/९६ (भा.) १०४, १०५,१११-११३ (भा.). १२५
,
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________________
परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
४७४
भगवई
(भा.), १५१, १५२, १६३, १७३, १८६, १८४-१८८ (भा.), | आभिनिबोधिक ज्ञान ८/९७, ९८, १०१, १०४-१०५, १०८, १८९-१९१ (भा.). १९२-१९९ (भा.), २००-२०४ (भा.), | १४९,१५०, १५० (भा.), १६३, १६९, १७३, १८४-१८८
२१०, २१२, २१४, ९/३३.५५, ५५ (भा.), ६५ (भा.) (भा.) २००-२०४ (भा.) २०८, २१२. २०८-२१४ (भा.) अवधिज्ञानलब्धि ८/१५१
आभिनिबोधिक ज्ञानी ८/१९३, २००, २०१, २०५, २०७, अवधिज्ञानी ८/१९५, २०१, २०५, २०७. २०५-२०७ (भा.) २०५-२०७ (भा.) २०८-२१४ (भा.) अवधिदर्शन ८/१७५
आभ्यन्तर पुष्कराद्ध ९/४, ३-५ (भा.) अवसर्पिणी ८/१८६
आयुष्य कर्म ८/३१५-३२८ (भा.) अवाय ८/९७-१०३ (भा.), ९८. १००
आरंभिकी क्रिया ८/२२८, २२८ (भा.) अविरत ८/२४७
आराधक ८/२५१, २५५, २५१-२५५ (भा.), ३०१ अवीचि पथ १०/११-१४ (भा.)
आराधना ८/४५१-४६६, ४५१-४६६ (भा.) १०/१९-२१ अवेदक ८/१८१ (भा.)
आराधिका ८/२५४ अशरीरी ८/११८-११९ (भा.), १२०-१२२ (भा.)
आलोचना ८/२५१-२५४ अशुभ कर्म ९/१२६. १३०, १२५-१३२ (भा.)
आलोचना-प्रतिक्रमण १०/१९-२१ अश्रुत्वा पुरुष ९/९-३२ (भा.), ३३ (भा.), ३४-५१. ५५ (भा.), | आवलिका ८/१८६
आविश कर्म ८/१८४-१८८ (भा.) असंख्येय ११/३-४ (भा.)
आवेष्टित-परिवेष्टित ८/४८२, ४८४, ४७७-४८४ (भा.) असंज्ञी ८/१०६ (भा.), १०७-११० (भा.), १११-११३ (भा.), आसीविष के प्रकार ८/८६.९५ १३८
आहार ११/३५ (भा.) १४५ असंयत ८/१६५ (भा.), २४७, २४५-२४७ ('भा.)
आहारक ८/१८२,१८२-१८३ (भा.) असंयमी सम्यक्दृष्टि ८/१६१-१६२ (भा.)
आहारक शरीर ८/२६८ असत् ९/१२१-१२२, १२१ (भा.). १२३-१२४ (भा.) आ
इन्द्रिय ८/११५. १६७, १६६-१६८ (भा.) आकाश प्रवेश १०/१-७ (भा.), ११/१०४-१०७, १११-११३. | इन्द्रि युक्त ८/१७८, १७९, १८१ ११३ (भा.)
इन्द्रिय लब्धि ८/१६६, १६८, १६६-१६८ (भा.) आकाशस्तिकाय ८/९६.९६ (भा.)
इसिभासियाई ८/२४१-२४२ (भा.) आगति ८/१८४-१८८ (भा.) आगम८/१८४-१८८ (भा.), ३०१, ३०१ (भा.)
ईपिथिकी बंध ८/३०२-३१४ (भा.) आगमबलिक ८/३०१
ईश्वरवाद ८/४३-८४ (भा.) आगम व्यवहार ८/३०१ (भा.)
ईहा ८/९८, १००, ९७-१०३ (भा.) आचार्य ८/३०१ (भा.) आजीवक ८/२३०, २३०-२३५ (भा.). २४०, २३६-२४० (भा.)| उत्पत्ति ९/७९-८६ (भा.) १२१ २४१-२४२. २४१-२४२ (भा.)
उत्पल पत्र ११/१ (भा.), ३-४ (भा.).६-११ (भा.) ३० (भा.), आजीवकोपासक के प्रकार ८/२४२
३४ (भा.) आज्ञा ८/३०१, ३०१ (भा.)
उद्वर्तना ०/७९-८६ (भा.), १२१ आठ मंगल ९/२०४, २०४ (भा.)
उपपात ८/१८४.१८८ (भा.) आतापन-भूमि ११/६३-६४. ६८.७०. ७२, १८६
उपशम श्रेणी ८/३०२-३१४ (भा.) आत्मऋद्धि १०/२३
उपशांत मोह ८/३०२-३१४ (भा.) आत्मज ९/११८ (भा.)
उपांग ८/१०२ आत्मा ८/१८४-१८८ (भा.)
उर्ध्वजानु अधःशिर ८/२७२. १०/४३, ४४ आधिकरणिकी ८/२२८, २५८-२६९ (भा.)
ऋ आधोवधिक ८/१८४-१८८ (भा.)
ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी ८/१८७, २००-२०४ आन-पान ९/२५३-२५७
ऋषि ९/१४९ (भा.) २४९, २५०, २४९-२५० (भा.)
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________________
भगवई
ए
एकेन्द्रिय ८/१०७-११० (भा.), ११६. १२४. १२७ एकोरुक द्वीप ९/७
ऐ ऐर्यापथिकी बंध ८ / ३०२-३०८, ३१४, ३०२ ३१४ (भा.) ऐर्यापथिकी क्रिया १०/११-१४, ११-१४ (भा.) ऐषणीय ८ / २४५ २४७, २४५ - २४७ (भा.) ओ
ओघा देश ८ / १८४-१८८ (भा.)
औ
औत्पत्तिकी बुद्धि ८ / १८४-१८८ (भा.)
औदयिक ८/१८४-१८८ (भा.) औदारिक ८ / १ (भा.) औपशमिक ८ / १८४-१८८ (भा.)
क
कंबल ८/२५०, २४८-२५० (भा.)
करण ८ / २३७, २३७-२४० (भा.), २७३-२७६, २७८, २८०२८२. २८६-२९०
कर्म ८ / १३९ १४६ (भा.) २४१-२४२ (भा.), ३०२-३१४ (भा.), ४७७-४९८, ९ / १२६, १२८, १३०, १२५-१३२ (भा.) ११ / ६-११ (भा.)
कर्मज ८ / ४३-८४ (भा.)
कर्म प्रकृति ८/४७७-४८४, ४७७-४८४ (भा.)
कर्म प्रकृति के प्रकार ८/३१५
कर्म बन्ध ८. १ (भा.)
कर्मवाद ९/१२५-१३२ (भा.)
कर्म शरीर ८ / २२२-२२३ (भा.) २६८-२६९
कर्मादान ८/ २४२, २४१-२४२ (भा.)
कषाय ८. १७६-१८२, ९ / ४३ ( भा.), १०/११-१४, ११-१४
(भा.)
काय ८/११८. ११९. १७७
काय योगी ८/ ७६
काया ८/ २३७, २३६ २४० (भा.)
कायिकी ८ / २२८, २२८ (भा.) २५८-२६९ (भा.) २७४
काल ८/१८४-१९१. ११/१७५-१७६
काल के प्रकार ११ / ११९-१३०, ११९-१३० (भा.)
कालातिक्रांत ९/ २२४ (भा.)
कालोदधि ९/४. ३-५ (भा.)
किसलय ११ / १ ( भा.)
कूटस्थ नित्यवाद ८ / ४३-८४ (भा.)
कृतलक्षण ९ / १६६ (भा.) कृतार्थ ९ / १६६ (भा.)
४७५
परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
कृष्ण लेश्या ८ / १७८
केवलज्ञान ८/९६ (भा.), ९७, ९८, १०४, ११४ (भा.) १५०,
१६२, १६१-१६२ (भा.), १६५ (भा.) १७३, १८२, १८८, १८४-१८८ (भा.) १९२-१९९ (भा. ) २००-२०४ (भा.) २१०, २१२, २१४, २०८-२१४ (भा.) केवलज्ञान लब्धि ८ / १५५
केवलज्ञानी ८ / १६५, १६९, १७१, १९७, १९२-१९९ (भा.),
२०२, २०५ -२०७ (भा.) ३०१ (भा.)
केवलदर्शन ८ / १७५
केवली ८/९६, ९६ (भा.) १८२-१८३ (भा.) ९ / ९-३२, ५२
५४, १२४, २३१
केवलीगम्य ८ / २४५-२४७ (भा.)
केवली समुद्घात ८ / १८२-१८३ (भा.)
क्रमवाद ८/१८४-१८८ (भा.)
क्रिया ८ / २२८, २२८ (भा.), २५८-२६९, ९/२५८-२६२, १०/ ११-१४, ११-१४ (भा.)
क्रियावाद ८/४४९-४५० (भा.)
क्षपक श्रेणी ८/३०२-३१४ (भा.) ९ / ४६ (भा.)
क्षय ८ / १३९-१४६ (भा.), ९/३०, ३२
क्षयोपशम ८ / १३९-१४६ (भा.) ९/१०. १२, १४, १६, १८,
२०, २२, २४, २६, २८, ३२, ५३
क्षायिक ८/१८४-१८८ (भा.)
क्षायोपशमिक ८/१३९-१४६ ( भा.), १८४-१८८ (भा.). १९२
१९९ (भा.)
क्षुल्लक प्रतर ८ / १८७
क्षुल्लक हिमवंत वर्षधर पर्वत ९/७
क्षेत्र ८ / १८४-१९१
क्षेत्रलोक के प्रकार ११/९१ ९७, १००-१०१, १०४-१०५, १०८
ग
गंधापाति पर्वत २ / ५०
गति ८ / १८४-१८८ (भा.) गतिप्रवाद ८ / २९२-२९३ गतिप्रवाद के प्रकार ८/२९३ गम्यमान ८ / २९१-२९२
गर्भ का पोषण ११ / १४५, १४६ गर्भ - संहरण ९ / १४८ (भा.) गुणविरमण ८ / २३१,२३४ गृहपति ८ / २४८-२५१, २५४ गोच्छग ८/२५०, २४८-२५० (भा.)
घ
घ्राणेन्द्रिय ८ / १६९
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________________
परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
च
चारित्राराधना ८ / ४५१-४६६ (भा.)
चार्वाक दर्शन ८ / ४३-८४ (भा.), १८४-१८८ (भा.) चुल्लपट्टक ८/२५०, २४८-२५० (भा.)
चौदहपूर्वी ८/३०१ (भा.)
च्यवन ८/१८४-१८८ (भा.)
चक्षु दर्शन ८/१७४
चतुरिन्द्रिय ८/१०८, १०७-११० (भा.), ११६, १२४, १६६- तत्ववेत्ता ८/१८४-१८८ (भा.) तपः कर्म ८ / २५१, २५४
१६८ (भा.)
चतुर्याम धर्म ९/१३३-१३४, १३३-१३५ (भा.)
चरम ८ / २२५-२२६, २२४-२२६ (भा.)
चरित्र लब्धि ८ / १६१, १६२, १६२ (भा.)
चरित्राचरित्र ८ / १६३
चाक्षुष प्रत्यक्ष ८ / ९६ (भा.)
चारित्र मोहनीय ८ / ३२०, ३२१, ३१५-३१८ (भा.)
छ
छद्मस्थ ८ / ९६, ९६ (भा.) ३२५ (भा.), ३१५-३२८ (भा.) ९/ २३३, २३०-२३४ (भा.)
छद्मस्थ मुनि ८ / १८२-१८३ (भा.)
छेदोपस्थापनीय ८ / १६१-१६२ (भा.)
ज
जम्बूद्वीप ११ / ७८, ७९ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ९ / १
जय धवला ८/१८४-१८८ (भा.)
जिन ८ / ९६
जिह्वेन्द्रिय ८/१७१
जिह्वेन्द्रिय लब्धि ८ / १७०
जीत व्यवहार ८/३०१, ३०१ (भा.)
जीव- प्रदेश ८ / २२२, २२३, २२२-२२३ (भा.), ४७६
जीवभिगम ९ / ३४.७
ज्योतिष्क ९/८५
ज्योतिष्चक्र ८/१८७
४७६
ज्ञान ८ / ९६, ९६ (भा.), १०४-११३, १११-११३ (भा.), ११५११८, १२४-१२९, १४७-१७५, १८०, १८३, १८४-१८८ (भा.), १८९-१९१ ( भा.), १९२-१९९ (भा.)
ज्ञान के प्रकार ८ / ९७-१०३
ज्ञान लब्धि ८ / १४७
ज्ञानावरण ८ / ९६ (भा.), १८४-१८८ (भा.)
ज्ञानवाद ८/४४९-४५० (भा.)
ज्ञानाराधना ८/४५१-४६६ (भा.)
ज्ञानावरणीय कर्म ८/३१७, ३१८, ३१५-३२८ (भा.) ज्ञानी ८/१०४-१३७, १४७-१८३, १९२, १९२-१९९ (भा.)
त
तत्पाक्षिक ( स्वयंबुद्ध) ९ / ९-३२, ५२-५४
तापस ११/४९, ७२
तिर्यंच ८ / ११२, १३२ तिर्यक् गतिक ८ / १११-११३ (भा.) तिर्यक योनिक ८ / १०९, १२५, १२८ तिर्यक्ोनिक प्रवेशनक ९ / १०२-१०६ तिलोयपण्णत्ति ११ / ९० (भा.)
तीर्थंकर की वाणी ९/१४९ (भा.)
तीस अकर्मभूमि ८ / १८७
तेजस शरीर ८ / २२२-२२३ (भा.), २६८-२६९
सकायिक ८ / ११८
त्रीन्द्रिय ८/१०८, १०७-११० (भा.) ११६, १६६ - १६८ (भा.)
द
दत्त ८/२७८-२८०
दर्शन ८ / ९६, १६०
दर्शन लब्धि ८ / १५९, १६०, १५९-१६० (भा.)
दर्शनाराधना ८ / ४५१-४६६ (भा.)
दशपूर्वी ८/३०१ (भा.)
दान ८ / १६५ (भा.), २४५ - २४७ (भा.)
दान लब्धि ८ / १६४, १६५ दिगम्बर ८ / ९८४-१८८ (भा.)
दिवस ११/१२०-१२५
दिशा १०/१-७, १-७ (भा.)
दिशा के प्रकार १०/३
दिशाचक्रवाल तप ११ / ४९ ४९ (भा.), ६३, ७१, ७७
भगवई
दुःख १०/१६-१७
देवगतिक ८ / १११-११३ (भा.)
देवप्रवेशनक ९/११४-११९
देशविराधक ८/४५०, ४४९-४५० (भा.)
देशाराधक ८/४५०, ४४९-४५० (भा.)
दोष प्रतिसेवना १० / १९-२१ (भा.) दोहद ११/१४५
द्रव्य ८ / १७३, १८२, १८४-१९१, १८४-१८८ (भा.), ४७०, ४७४
द्वन्द्रिय ८/१०८, १०७-११० (भा.) ११६, १६६-१६८ (भा.),
९/८४
ध
धर्म देशना ९ / १४९ (भा.) धर्मान्तरायिक कर्म ९ / १४, ९-३२ (भा.)
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________________
भगवई
४७७
परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
धर्मास्तिकाय ८/९६, ९६ (भा.), १८४-१८८ (भा.) पर्याप्त ८/३१-३९, १०७-११० (भा.), १२३-१२५ धातकी खंड ९/४, ३-५ (भा.), ११/८०
पर्याप्तक ८/१८-२१, २३-२६, ३० धारणा ८/१०१.९७-१०३ (भा.), ३०१, ३०१ (भा.) पल्योपम ८/१८७, ११/१२९, १३२
पांच महाभूत ८/४३-८४ (भा.) नन्दी ८/१०२, १८४-१८८ (भा.)
पातंजल योग दर्शन ८/४३.८४ (भा.) नपुंसक वेद ८/१८१
पातंजलयोग सूत्र ८/१८४-१८८ (भा.) नरक ८/१०५ (भा.), १११, ११३
पात्र ८/२५० नामकर्म ८/१२०-१२२ (भा.)
पान ८/२४५-२४७ निरयगतिक ८/१११-११३ (भा.)
पाप ८/२४५-२४७ (भा.) निग्रंथ ८/२३०-२३५ (भा.) २४८-२५४, ३०१
पापकर्म ८/२४५-२४७, २७४-२८१ निर्ग्रन्थ प्रवचन ९/१७७, १७७ (भा.), १७८
पारिग्रहिकी ८/२२८, २२८ (भा.) निर्ग्रन्थिनी ८/२५४
पारिणामिक ८/१८४-१८८ (भा.) निर्जरा ८/२४५-२४७, २४५-२४७ (भा.)
पारितापनिकी ८/२२८, २५८-२६९ (भा.) निश्चयनय ८/२५६-२५७ (भा.)
पिण्ड ८/२४८, २४९, २४८-२५० (भा.) नैरयिक ८/१०५, १२४-१३४, २५८-२६९ (भा.), ९/७९, ८७- | पुद्गल ८/४९९-५०३
१०१, ११९-१२२, १२५-१२६, १०/१६-१७, ११/१३० पुद्गल के प्रकार ८/१.८५ नैरयिक प्रवेशनक ९/८७-१०१
पुद्गल परिणाम ८/४६७-४६८ नो कर्म बन्ध ८/१ (भा.)
पुद्गलस्कन्ध ८/१ (भा.), १८४-१८८ (भा.) नो पर्याप्तक नो अपर्याप्तक ८/१३०
पुद्गलास्तिकाय ८/४७०-४७४, ४७०-४७४ (भा.) नो भवसिद्धिक नो अभवसिद्धिक ८/१३७
पुद्गली ८/४९९-५०३ नो संज्ञी नो असंज्ञी ८/१३८
पुनर्जन्म ९/१२५-१३२ (भा.) नो सूक्ष्म नो बादर ८/१२२, १२०-१२२ (भा.)
पुरुष ८/४३-८४ (भा.) प
पुरुषवेद ८/१८१ पंचमुष्टि लोच ९/२१४ (भा.)
पुरुषार्थवाद ८/१ (भा.) पंचेन्द्रिय ८/१०६ (भा.), १०९, १०७-११० (भा.) ११६, १२५, पुष्करवर द्वीप ९/४, ३-५ (भा.) १२८, १८७
पुष्करोद समुद्र ९/५, ३-५ (भा.) पंडकवन ९/५०
पृथ्वीकायिक ८/१०७, ११६, ११८, १२०, १२४, १२७, ९/ पंडितवीर्य लब्धि ८/१६५, १६५ (भा.)
८१, ८३ पद्मलेश्या ८/१७८
पौषधोपवास ८/२३१, २३४ पन्द्रह कर्म भूमि ८/१८७
प्रकृति ८/४३-८४ (भा.) परऋद्धि १०/२३
प्रज्ञापना ८/९३, ९४, १८४-१८८ (भा.) १९०, परमाणु ८/१ (भा.), ४७०-४७४ (भा.)
२२४-२२६ (भा.)९/८६ (भा.) १०/९ परमाणु पुद्गल ८/९६, ९६ (भा.)
प्रज्ञापनी भाषा १०/४०, ४० (भा.) परमाधोवधिक ८/१८४-१८८ (भा.)
प्रतिक्रमण ८/२३६-२३८, २४०, २३६-२४० (भा.), २५१,९/ परमावधि ८/१८४-१८८ (भा.)
१३३-१३५ (भा.) परिग्रह ८/२४०
प्रतिलेखना ८/२४८-२५० परिष्ठापन ८/२४८-२५०
प्रत्यक्ष ८/३०१ (भा.) परीषह ८/३१६-३२८, ३१५-३२८ (भा.), १०/१८ प्रत्यनीक के प्रकार ८/२९५-३००, २९५-३०० (भा.) परीषह के प्रकार ८/३१६
प्रत्याख्यान ८/२३१, २३२, २३४,२३०-२३५ (भा.), २३६, परोक्ष ८/३०१ (भा.)
२३९, २३६-२४० (भा.) परोक्षज्ञान ८/१८४.१८८ (भा.)
प्रदेश ८/४७५-४७६ पर्यव ८/२०८-२१४, २०८-२१४ (भा.)
प्रमाणातिक्रांत ९/२२४ (भा.)
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परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
४७८
भगवई
प्रमाण काल ११/११९-१२५
मनःपर्यवज्ञान ८/९६ (भा.) ९७, १०४, १५१, १५३. १५३ प्रमार्जन ८/२४८-२५०
(भा.), १६१, १६१-१६२ (भा.), १७३, १८३, १८७, १८४प्रयोग परिणत ८/१, ७३-७६, ७९-८४
१८८ (भा.), १९२-१९९ (भा.), २००-२०४ (भा.), २०५. प्रयोग परिणत पुद्गल के प्रकार ८/२-६४
२०७ (भा.), २१०, २१२, २१४, ९/५७ (भा.) प्रयोग बंध के प्रकार ८/३५४-४३८
मनःपर्यवज्ञान लब्धि ८/१५३ प्रवेशनक के प्रकार ९/८६, ८६ (भा.)
मनःपर्यवज्ञानी ८/१८७, १९६, २०१, २०५, २०७, २०५-२०७ प्राणातिपात ८/२३६, २४०, २३६-२४० (भा.)
(भा.) प्राणातिपात क्रिया ८/२२८, २५८-२६९ (भा.)
मन योगी ८/१७६ प्रादोषिकी ८/२२८, २५८-२६९ (भा.)
मनुष्य ८/११३, १३३, ११/आमुख प्रासुक ८/२४५, २४७, २४५.२४७ (भा.)
मनुष्यक्षेत्र ८/१८७, ९/४, ३-५ (भा.)
मनुष्य गतिक ८/१११.११३ (भा.) बंध ८/१ (भा.), ३०२-३१४
मनोद्रव्य ८/१८४-१८८ (भा.) बंधक ८/४३९-४४७
मनुष्यप्रवेशनक ९/१०७-११३ बंध के प्रकार ८/३४५-४४७
मनोवर्गणा ८/१८७, २००-२०४ (भा.) बहुनिर्जरा ८/२४५.२४७ (भा.)
मरणकाल ११/११९, १२७ बहुरतवाद ९/२२६-२२९ (भा.)
महाव्रत धर्म ९/१३३, १३४, १३३-१३५ (भा.) बालपंडित वीर्य लब्धि ८/१६५, १६५ (भा.)
महास्वप्न ११/१४२, १४३ बालवीर्य लब्धि ८/१६५, १६५ (भा.)
महोत्सव ९/१५८ (भा.) बादर जीव ८/१२१, १२०-१२२ (भा.)
मायाप्रत्ययिकी ८/२२८ बिछौना ८/२४५-२५० (भा.)
मालवंत पर्वत ९/५० बोधि ९/११, १२, ९/३२ (भा.)
माहन ८/२४५-२४६ बौद्ध दर्शन ८/४३-८४ (भा.), १८४-१८८ (भा.)
मिथ्यात्व ८/१०७-११० (भा.) ब्रह्मचर्यवास ९/१५, १६, ९-३२ (भा.)
मिथ्यादृष्टि ८/१०२, १०४ (भा.), १०५ (भा.), १११-११३ ब्रह्माद्वैतवादी ८/४३-८४ (भा.)
(भा.), १२५ (भा.), १३९-१४६ (भा.). १५९-१६० (भा.) ब्राह्मण ११/१८६
४४९-४५० (भा.)
मिथ्यादर्शन ८/१५९-१६० (भा.), १८९-१९१ (भा.) भव ८/१३१-१३४
मिथ्यादर्शन प्रत्ययिकी क्रिया ८/२२८ भव प्रत्ययिक ८/१११-११३ (भा.)
मिथ्यादर्शन लब्धि ८/१६० भवसिद्धिक ८/१३५
मिश्रदृष्टि ८/१५९-१६० (भा.) भाव ८/१८४-१९१
मिश्रधर्म ८/२४५-२४७ (भा.) भिक्षा ८/२४८-२५१, २५४
मिश्र परिणत ८/१, ७३, ७७, ७९, ८२, ८४ भिक्षु १०/१८-२१
मिश्र परिणत के प्रकार ८/६५, ६६ भिक्षु प्रतिमा १०/१८, १८ (भा.)
मीमांसा ८/१८४-१८८ (भा.), ४४९-४५० (भा.)
मुनि ८/१५३ (भा.) मंदर पर्वत ९/७,१०/९९
मुहूर्त ११/१२०-१२५ मज्झिम निकाय ८/१८४-१८८ (भा.)
मूर्त ८/१८४-१८८ (भा.) मति ८/९६ (भा.). ९७-१०३ (भा.), १०४, १०४ (भा.) मृषा भाषा १०/४०, ४० (भा.) मति अज्ञान ८/९९-१०१, १०४, १०७, १०८, ११८, १५३ | मृषावाद ८/२४०
(भा.) १५८, १७३, १८९, १८९-१९१ (भा.), २००-२०४ मैथुन ८/२४० (भा.) २१०, २१३, २१४, २०८-२१४ (भा.)
मोहनीय कर्म ८/३१७, ३२०, ३१५-३२८ (भा.) मति अज्ञानी ८/२०३. २०६, २०५.२०७ (भा.)
य मन ८/२३७, २३६-२४० (भा.). ११/६-११ (भा.) यतनावरणीय कर्म ९/१८, ९-३२ (भा.)
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भगवई
४७९
परिशिष्ट-४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
यति ९/१४९ (भा.)
| विनय के प्रकार ८/३०१ (भा.) यथाख्यात चरित्र ८/१६२, १६१-१६२ (भा.)
विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी ८/१८७. २००-२०४ (भा.) यथायुनिवृत्तिकाल ११/११९, १२६
विभंगज्ञान ८/९९, १०३, १११-११३, (भा.), १२५ (भा.), यष्टि ८/२५०, २४८-२५० (भा.)
१५३ (भा.), १७३, १९१, १९२-१९९ (भा.). २००-२०४ युगपत्वाद ८/१८४-१८८ (भा.)
(भा.), २११, २१३. ९/३३. ११/७१, ७७, ८४, १८७ योग ८/१७६, २३७,२३६-२४० (भा.), २७३-२७६, २७८, (भा.), १९५ २८०-२८२, २८६-२९०, ९/३६ (भा.)
विभंगज्ञान के प्रकार ८/१०३, १०४ योग भाष्य ८/१८४-१८८ (भा.)
विभंगज्ञान लब्धि ८/१५८ योनि के प्रकार १०/१५, १५ (भा.)
विभंगज्ञानी ८/२०४, २०६, २०७, २०५-२०७ (भा.)
विमोहित १०/२४-३८ रजोहरण ८, २५०, २४८-२५० (भा.)
विराधक ८/२५१-२५५, २५१-२५५ (भा.) रत्नप्रभा पृथ्वी ८/१८७, २२५
विराधिका ८/२५४ रात्री ११/१२०-१२५
विवर्तन ८/२५० रुचकोद समुद्र ९/३-५ (भा.)
विविक्तजीवी ९/२४२, २४३ रूपी द्रव्य ८/१८६. १८४-१८८ (भा.)
विशोधन ८/२५०
विस्रसा परिणत ८/१, ७३. ७८, ७९. ८२, ८४ लब्धि ८/१३९. १३९-१४६ (भा.), ९/३७ (भा.)
विस्रसा परिणत के प्रकार ८/६५-७२ लब्धि के प्रकार ८/१३९-१४९, १३९-१४६ (भा.) विस्रसा बंध के प्रकार ८/३४५-३५३ लवण समुद्र ९/४, ३-५ (भा.) ७, ११/७९
विहार ८/२५३ लाभ ८/२४५-२४७ (भा.)
विहार भूमि ८/२५२ लेश्या ९/९-३२ (भा.), ३३ (भा.), ३४-५६ (भा.), ११/१२ वीचिपथ १०/११-१४ (भा.)
वीर्य ९/१४९ (भा.) लेश्यामुक्त ८/१७८
वीर्यान्तराय कर्म ९/९-३२ (भा.) लेश्यायुक्त ८/१७७. १७८
वेद ८/१८१ लोक ८/१८६, ९/२३१, २३३, ११/९०, ९० (भा.).९१- वेदन ८/३२३-३२८, ३१५-३२८ (भा.) ९८, १०२, १०६. १०९, १०९-११० (भा.)
वेदना १०/१६-१७ लोकाकाश ८/४७५, ४७६
वेदनीय ८/३१७. ३१९, ३१५-३२८ (भा.)
वेदान्त ८/४३-८४ (भा.), १८४-१८८ (भा.) वचन ८/२३७, २३६-२४० (भा.)
वैक्रिय शरीर ८/२६८, १०/२३ (भा.) वचन योगी ८/१७६
वैतादय पर्वत ९/५० वनस्पति ११/आमुख, ५ (भा.), ६-११ (भा.), ३२ (भा.), ३५, वैर ९/२५१-२५२ (भा.) (भा.), ४२-५५ (भा.)
वैशेषिक ८/१८४-१८८ (भा.) वनस्पति ८/२१६-२२१, २१६-२२१ (भा.)
व्यञ्जनावग्रह ८/१०१.९७-१०३ (भा.) वनस्पतिकायिक ८/१०७. ११८, १२७,९/८१,८३, २५६.२५७ व्यतिक्रमण १०/२४-३८ (भा.)
व्यवहार ८/३०१ (भा.) वर्गणा ८/१८४-१८८ (भा.)
व्यवहार के पांच प्रकार ८/३०१ वध ९/२५१-२५२ (भा.)
व्यवहार नय ८/२५६-२५७ (भा.) विकटापाति पर्वत ९/५०
श विकलेन्द्रिय ८/१०७-११० (भा.), १६६-१६८ (भा.), २०५- | शब्दापाति पर्वत ९/५० २०७ (भा.)
शय्या-संस्तारक ९/२२५-२२९, २२५-२२९ (भा.) विग्रहगति ८/१८२-१८३ (भा.)
शरीर ८/१ (भा.), ९/१७२ (भा.), १०/८-९ विचार भूमि ८/२५२
शारदनम् स्तनित ९/१४९ (भा.)
(भा.)
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परिशिष्ट- ४ : पारिभाषिक शब्दानुक्रम
शीलव्रत ८ / २३१, २३४ शुक्ललेश्या ८/१७८
शुभकर्म ९ / १२८, १२५-१३२ (भा.) शैलेषी ८ / १८२-१८३ (भा.)
श्वेताम्बर ८ / १८४-१८८ (भा.)
श्रमण ८ / २३०, २३३-२३५ (भा.) २४५-२४६, ३०१ श्रमणों के प्रकार ८ / २३०-२३५ (भा.) श्रमणोपासक ८ / २३०, २३१-२३५, २३०-२४० (भा.), २३६,
२४२, २४१-२४२ (भा.), २४५, २४७ श्रुत अज्ञान ८/९९, १०२, १०४, १०७, १०८, ११८, १५३ (भा.) १७३, १९०, २००-२०४ (भा.), २१०, २१३, २१४ श्रुत अज्ञानी ८/२०३, २०५-२०७ (भा.)
श्रुत केवली ८/९८४-१८८ (भा.)
श्रुत ज्ञान ८/९६ (भा.), ९७, १०४, १०८, १५१, १५३, १५८, १६३, १७३, १८५, १८४-१८८ (भा.), १९०, २००-२०४ (भा.), २०९, २१२
श्रुत ज्ञानी ८ / १९४, २०१, २०५, २०७
श्रुत व्यवहार ८/३०१, ३०१ (भा.) श्रुतशील ८/४४९, ४४९-४५० (भा.) श्रुतोपयोग ८ / १८४-१८८ (भा.)
ष षट्खण्डागम ८ / ९७-१०३ (भा.) षट् द्रव्य ८ / १८४-१८८ (भा.) स संज्वलन कषाय ९/६५ (भा.)
संज्ञी ८/१०७-११० (भा.), १११-११३ (भा.) १३८
संयत ८/२४७
४८०
सकाय ८/११८-११९ (भा.)
सत् ९ / १२१, १२१ (भा.) १२३ १२४ (भा.) समनस्क ८/१८७
समुद्घात ८/२२२-२२३
सम्यक्त्व ८/१०७-११० (भा.), ९/३३, ३३ (भा.), ३४
सम्यक् दर्शन लब्धि ८ / १६०
सम्यक् दृष्टि ८ / १०४ (भा.), १११-११३ (भा.), १२५ (भा.),
१५९-१६० (भा.)
सागरोपम ८ / १९२, ११/१२९, १३२ सामयिक ८ / २३०, २३०-२३५ (भा.)
श्रुत्वा पुरुष ९/५४, ५५-७५, ५५ (भा.) ५६ (भा.), ५७ (भा.) सामायिक चरित्र ८ / १६१, १६२, १६२ (भा.) श्रोत्रेन्द्रिय ८ / १६९ श्रोत्रेन्द्रियलब्धि ८ / १६८
सास्वादन सम्यक्त्व ८/१०७-११० (भा.)
सास्वादन सम्यक दर्शनी ८ / १६६-१६८ (भा.)
सिद्ध ८ / ११४, ११४ (भा.), ११८-११९ (भा.). १३४, १६५
सम्यक् मिथ्यादर्शन लब्धि ८ / १६०
सम्यग्दर्शन ८ / १८९-१९१ (भा.), १९२-१९९ (भा.), २००
२०४ (भा.)
सर्वज्ञ ८ / १८४-१९८८ (भा.)
सर्वविराधक ८/१५०, १४९-१५० (भा.)
सर्वाधिक ८/१५०, १४९-१५० (भा.) सशरीरी ८ / ११८-११९ (भा.)
सांख्य ८ / ४३-८४ (भा.), २७१-२८४ सांख्य दर्शन ८ / १८४-१८८ (भा.) सांख्य योग ८/१८४-१८८ (भा.)
सांपरायिक बंध ८/३०२, ३०९-३१४, ३०२-३१४ (भा.) सांपरायिकी क्रिया १०/११-१४, ११-१४ (भा.) साकार उपयोग ८ / १८४-१८८ (भा.) साकारोपयुक्त ८/१७२, १७३ साकारोपयोग ९ / ३७ (भा.)
(भा.), १७६, १७८, ११/८८, १९८
संयतासंयत ८ / १६५ (भा.)
संयम ९/१७, १८, ९-३२ (भा.)
संयमी ८ / १५३ (भा.)
संवर ८ / २४०, ९/१९, २०, ९-३२ (भा.)
संवरण ८ / २३६, २३८, २३६ २४० (भा.)
संस्तारक ८/२५०
संस्थान ८ / १ (भा.), ९७-१०३ (भा.) ११ / ९५-९९ ९९ (भा.) स्थानांग ८ / १८४-१९८८ (भा.)
संस्थान परिणाम ८/४६९
स्वभाववाद ८ / १ (भा.)
स्वयंभूरमण ९/५, ३-५ (भा.), ११ / ७७, ८१ स्वाद्य ८/२४५-२४७
सिद्धावस्था ८ / १८२-१८३ (भा.) सिद्धिगतिक ८ / ११४ (भा.)
भगवई
सुख १०/१६-१७
सूक्ष्म जीव ८ / १२०, १२०-१२२ (भा.) सूक्ष्मसंपराय चारित्र ८ / ३०२-३१४ (भा.) सूत्रकृतांग ८/२४५ - २४७ (भा.) सृष्टिवाद ८/४३-८४ (भा.)
सोमनस वन ९/५०
स्त्रीवेद ८ / १८१, ९ / ४२ (भा.)
स्थविर ८ / २४८, २४९, २५१, २७३-२९२ स्थण्डिल भूमि ८ / २४८-२५०
ह
हनन ९ / २४६-२४८, २४६-२४८ (भा.), २४९-२५२ हिंसा ८ / २८५-२९३, ९ / २४६ - २४८ (भा.)
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परिशिष्ट - ५
अभयदेवसूरि - कृता भगवती - वृत्ति
सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमग्र्यं, सर्व्वयमस्मरमनीशमनीहमिद्धम् । सिद्धं शिवं शिवकरं श्रीमज्जिनं जितरिपुं नत्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै
प्रयतः
एतट्टीकाचूर्णी
जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च ।
संयोज्य पञ्चमाङ्गं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥ ३ ॥
करणव्यपेतं,
प्रणौमि ॥ १ ॥ सुधर्म्मणे ।
च
सर्वविदस्तथा ॥ २ ॥
अथ अष्टमशतकम्
प्रथम उद्देशकः
पूर्वे पुद्गलादयो भावाः प्ररूपिता । इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं संबद्धमथाष्टमशतं विव्रियते । तस्य चोद्देशसङ्ग्रहार्थं 'पुग्गले' त्यादिगाथामाहपोग्गल त्ति पुद्गलपरिणामार्थः प्रथम उद्देशकः पुद्गल एवोच्यते एवमन्यत्रापि १. आसीविस' ति आशीविषादिविषयों द्वितीयः २ 'रुक्ख' त्ति संख्यातजीवादिवृक्षविषयस्तृतीयः ३ 'किरिय' त्ति कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थश्चतुर्थः ४ 'आजीव' त्ति आजीविकवक्तव्यतार्थः पंचमः ५ 'फासुग' त्ति प्रासुकदानादिविषयः षष्ठः ६ 'अदत्ते' त्ति अदत्तादानविचारणार्थः सप्तमः ७ 'पडिणीय' त्ति गुरुप्रत्यनीकाद्यर्थप्ररूपणार्थोऽष्टमः ८ 'बंध' त्ति प्रयोगबन्धाद्यभिधानार्थो नवमः ९ 'आराहण' त्ति देशाराधनाद्यर्थो दशमः १० ॥
८/१. 'पओगपरिणय त्ति जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः 'मीससापरिणय' त्ति मिश्रकपरिणताः - प्रयोगविस्रसाभ्यां परिणताः । प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रसया स्वभावान्तरमापादिता मुक्तकडेवरादिरूपाः, अथवौ दारिकादिवर्गणारूपा विस्रसया निष्पादिताः सन्तो ये जीवप्रयोगेणैकेन्द्रियादिशरीरप्रभृतिपरिणामान्तरमापादितास्ते मिश्रपरिणताः । ननु
प्रयोगपरिणामोऽप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः ?, सत्यं किन्तु प्रयोगपरिणतेषु विस्रसा सत्यपि न विवक्षिता इति । 'वीससापरिणय' त्ति स्वभावपरिणताः ।
अथ 'पओगपरिणयाण' - मित्यादिना ग्रन्थेन नवभिर्दण्डकैः प्रयोगपरिणतपुद्गलान् निरूपयति, तत्र च
८/४.
एकेन्द्रियादिसर्वार्थसिद्धदेवान्तजीवभेदविशेषितप्रयोगपरिण तानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डकः । तत्र च 'आउक्काइय- एगिदिय एवं चेव' त्ति पृथिवीकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणता इव अप्कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणता वाच्या इत्यर्थः एवं दुयओ' त्ति पृथिव्यप्कायप्रयोगपरिणतेष्विव द्विको-द्विपरिणामो द्विपादो वा भेदः - सूक्ष्मबादरविशेषणः कृतस्ते (स्तथा ते) जः कायिकैकेन्द्रियप्रयोगपरिणतादिषु वाच्य इत्यर्थ । ८/५. 'अणेगविह' त्ति पुलाककृमिकादिभेदत्वाद् द्वीन्द्रियाणां, त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणता अप्यनेकविधाः कुन्थुपिपीलिकादिभेदत्वात्तेषां, चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणता अप्यनेकविधा एव मक्षिकामशकादि-भेदत्वात्तेषाम् । एतदेव सूचयन्नाह - ' एवं तेहंदी'
त्यादि ॥
'सुहुमपुढविकाइए' इत्यादि सर्वार्थसिद्धदेवान्तः पर्याप्तका
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परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. १ : सू. १७७२
पर्याप्तकविशेषणो द्वितीयो दण्डकः, तत्र 'एक्केक्के' त्यादि एकैकस्मिन् काये सूक्ष्मबादरभेदाद्द्द्विविधाः पुद्गला वाच्याः, . ते च प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तकभेदात्पुनर्द्विविधा वाच्या इत्यर्थः ॥ ८/१८. 'जे अपज्जत्ता सुमपुढवी त्यादिरौदारिकादिशरीरविशेषणस्तृतीयो दण्डकः ।
८/२७. तत्र च 'ओरालियतेयाकम्मसरीरपओगपरिणय' त्ति औदारिकतै जसकार्मणशरीराणां यः प्रयोगस्तेन परिणता ये ते तथा पृथिव्यादीनां हि एतदेव शरीरत्रयं भवतीति कृत्वा तत्प्रयोगपरिणता एव ते भवन्ति, बादरपर्याप्तकवायूनां त्वाहारकवर्जशरीरचतुष्टयं भवतीतिकृत्वाऽऽह - नवरं 'जे पज्जते' त्यादि ।
४८२
८/३०. 'एवं गब्भवक्कंतिया वि अपज्जत्तग' त्ति वैक्रियाहारकशरीराभावाद् गर्भव्युत्क्रान्तिका अप्यपर्याप्तका मनुष्यास्त्रिशरीरा एवेत्यर्थः ॥
'जे अपज्जता सुहुमपुढवी' त्यादिरिन्द्रियविशेषणश्चतुर्थो
दण्डकः ॥
'जे
अपज्जन्त्ता सुहुमढवी 'त्यादिरौदारिकादिशरीरस्पर्शादीन्द्रियविशेषणः पञ्चमः ॥
'जे अपज्जत्ता सुमपुढवी' त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानविशेषणः षष्ठः ६ ॥ एवमौदारिकादिशरीरवर्णादिभावविशेषणः सप्तमः ७॥ इन्द्रियवर्णादिविशेषणोऽष्टमः ८॥
शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति अत एवाह - एते नव
दण्डकाः ॥
८/४१. मिश्रपरिणतेष्वप्येत एव नव दण्डका इति || अथ विस्रसापरिणतपुद्गलांश्चिन्तयति
८/ ४२. 'वीससापरिणया ण मित्यादि, एवं जहा पन्नवणापए' ति तत्रैवमिदं सूत्रं - 'जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तं जहा - तित्तरसपरिणया एवं कडुयकसाय अंबिलमहुररसपरिणया, जे फासपरिणया ते अट्ठविहा प० नं०-कक्खडफासपरिणया एवं मउयगरूयलहुयसीयउसिणनिद्धनुक्खफासपरिणया य इत्यादि ॥
अथैकं पुद्गलद्रव्यमाश्रित्य परिणामं चिन्तयन्नाह - ८ / ४३, ४४. 'एंगे' इत्यादि, मणपओगपरिणए' त्ति मनस्तया परिणतमित्यर्थः 'वइप्पयोगपरिणए' त्ति भाषाद्रव्यं काययोगेन गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं वाक्प्रयोगपरिणतमित्युच्यते 'कायप्पओगपरिणए' त्ति औदारिकादिकाययोगेन गृहीतमौदारिकादिवर्गणाद्रव्यमौदारिकादिकायतया परिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते ।
८/४५. 'सच्चमणे त्यादि सद्भूतार्थचिन्तननिबन्धनस्य मनसः प्रयोगः सत्यमनः प्रयोग उच्यते, एवमन्येऽपि, नवरं मृषाअसद्भूतोऽर्थः सत्यमृषा मिश्रो यथा पञ्चसु दारकेषु जातेषु दश दारका जाता इति, असत्यमृषा - सत्यमृषास्वरूप
भगवती वृत्ति
मतिक्रान्तो यथा देहीत्यादि ।
८/४६. 'आरंभसच्चे' त्यादि, आरम्भो-जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारम्भसत्यं तद्विषयो यो मनः प्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, एवमुत्तरत्रापि नवरमनारम्भो जीवानुपघातः 'सारंभ त्ति संरम्भो - वधसङ्कल्पः समारम्भस्तु परिताप इति । ८/४९-७२. 'ओरालिए' त्यादि, औदारिकशरीरमेव पुद्गलस्कन्धरूपत्वेनोपचीयमानत्वाद काय औदारिकशरीरकायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स तथा । अयं च पर्यासकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत् परिणतं तत्तथा । 'ओरालिय मिस्सासरीरकायप्पयोगपरिणय' त्ति औदारिकमुत्पत्तिकालेऽसम्पूर्ण सत् मिश्रं कार्म्मणेनेति औदारिकमिश्रं तदेवौदारिकमिश्रकं तल्लक्षणं शरीरमौदारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकमिश्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा अयं पुनरौदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगोऽपर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः,
यत आह
'जोएण कम्मएणं आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं जाव सरीरस्स निष्पत्ती ॥१॥' (उत्पत्त्यनन्तरं जीव: कार्मणेन योगेनाहारयति ततो यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः (शरीरपर्याप्तिः) तावदौदारिक
मिश्रेणाहारयति ॥ १ ॥ )
एवं तावत् कार्म्मणेनौदारिकशरीरस्य मिश्रता उत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात् यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसंपन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा औदारिककाययोग एव वर्त्तमानः प्रदेशान विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानुपादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति तावद्वैक्रियेणौदारिकशरीरस्य मिश्रता, प्रारम्भकत्वेन तस्य प्रधानत्वात्. एवमाहार केणाप्यौदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति, 'वेडव्वियसरीरकायप्पओगपरिणए' ति इह वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्येति । 'वेडव्वियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए ति इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगों देवनारकेषूत्पद्यमानस्यापर्यातकस्य, मिश्रता चेह वैक्रियशरीरस्य कार्मणेनैव. लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्वायामौदारिकोपादानाय प्रवृ वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रतेति । आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए' ति हाहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरनिर्वृत्तौ सत्यां तदानी तस्यैव प्रधानत्वात् । 'आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए त्ति इहाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहारकस्यौदारिकेण मिश्रतायां, स चाहारकत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य । एतदुक्तं भवति यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत्सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण
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भगवती वृत्ति
४८३
सह मिश्रतेति, ननु तत्तेन सर्वथाऽमुक्तं पूर्वनिर्वर्त्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृह्णाति ?, सत्यं तिष्ठति तत् तथाऽप्यौदारिकशरीरोपादानार्थं प्रवृत्त इति गृह्णात्येवेत्युच्यत इति । 'कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए ति इह कार्म्मणशरीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य च केवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु भवति। उक्तं च-‘कार्म्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये चे ति, एवं प्रज्ञापनाटीकानुसारेणौदारिकशरीरकायप्रयोगादीनां व्याख्या शतकटीकाऽनुसारतः पुनर्मिश्रकायप्रयोगाणामेवंऔदारिकमिश्र औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्रं दधि, न गुडतया नापि दधितया व्यपदिश्यते तत् ताभ्यामपरिपूर्णत्वात्, एवमौदारिकं मिश्र कार्मणेनैव नौदारिकतया नापि कार्म्मणतया व्यपदेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाहारकमिश्रावपीति । नवरं 'बायरवाउक्काइए' इत्यादि, यथौदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणते सूक्ष्मपृथिवीकायिकादि प्रतीत्यालापकोऽधीतस्तथौ दारिक मिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणतेऽपि वाच्यो, नवरमयं विशेषः- तत्र सर्वेऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणा अधीता इह तु बादरवायुकायिका गर्भपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याश्च पर्याप्तकापर्यातकविशेषणा अध्येतव्याः, शेषस्त्वपर्याप्तकविशेषणा एव यतो बादरवायुकायिकादीनां पर्याप्तकावस्थायामपि वैक्रियारम्भणत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगो लभ्यते, शेषाणां पुनरपर्याप्तकावस्थायामेवेति । 'जहा ओगाहणसंठाणे' ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमपदे तत्र चैवमिदं सूत्रं 'जड़ वाउक्काइय एगिंदियवे उव्वियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं सुहुमवाउक्काइयएगिंदिय जाव परिणए बादरवाउक्काइयएगिंदिय जाव परिणए ?, गोयमा ! नो सहुम जाव परिणए बायर जाव परिणए' इत्यादीति ।
'एवं जहा ओगाहणसंठाणे' त्ति तत्र चैवमिदं सूत्रं - 'गोयमा ! णो अमणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए' इत्यादि । ' एवं जहा ओगाहणासंठाणे कम्मगस्स भेओ' ति स चायं भेद:- 'बेइंदिय कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा एवं तेइंदियचउरिंदिय' इत्यादिरिति ॥
अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह
८/ ७३. 'दो भंते!' इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः, द्विकयोगेऽपि त्रय एवेत्येवं षट् ।
८/ ७४. एवं मनः प्रयोगादित्रयेऽपि ।
८/ ७५. सत्यमनः प्रयोगपरिणतादीनि तु चत्वारि पदानि तेष्वेकत्वे चत्वारि द्विकयोगे तु षट् एवं सर्वेऽपि दश ।
८/ ७६. आरम्भसत्यमनः प्रयोगपरिणतादीनि च षट् पदानि तेष्वेकत्वे षड् द्विकयोगे तु पञ्चदश सर्वेऽप्येकविंशतिः ६, एकत्वे १-२-३-४-५-६ ॥ द्वित्वे १५
परिशिष्ट- ५ : श. ८ : उ. १ : सू. ७२-७९
१-२ २-३ ३ ४ ४-५ ५-६ १-३ २-४ ३५ ४-६ (१५) १-४२-५ ३-६ १-५ २-६ १-६
सूत्रे च 'अहवा एगे आरंभसच्चमणप्पओगपरिणए' इत्यादिनेह द्विकयोगे प्रथम एव भङ्गको दर्शितः शेषांस्तदन्यपदसम्भवांश्चातिदेशेन पुनर्दर्शयतोक्तम् एवं एएणं गमेणं' इत्यादि एवमेतेन गमेनारम्भसत्यमनः प्रयोगादिपदप्रदर्शितेन द्विकसंयोगेन नेतव्यं समस्तं द्रव्यद्वयसूत्रं द्विकसंयोगस्य चैकत्वविकल्पाभिधानपूर्वकत्वादेकत्वविकल्पैश्चेति दृश्यं, तत्र च यत्रारम्भसत्यमनः प्रयोगादिपदसमूहे यावन्तो द्विकसंयोगा उत्तिष्ठन्ते सर्वे ते तत्र भणितव्याः, तत्र चारम्भसत्यमनःप्रयोगा दर्शिता एव, आरम्भादिपदषट्कविशेषितेषु पुनरित्थमेव त्रिषु मृषामनः प्रयोगादिषु चतुर्षु च सत्यवाक्प्रयोगादिषु तु प्रत्येकमेकत्वे षड् विकल्पाः द्विकसंयोगे तु पञ्चदशेत्येवं प्रत्येकमेवमेव सर्वेष्वप्येकविंशतिः, औदारिकशरीरकायप्रयोगादिषु तु सप्तसु पदेष्वेकत्वे सप्त द्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिरिति ( एकत्वे १-२-३-४-५-६७ द्वित्वे २१ ।
१-२।२-३ | ३-४४-५ ५-६ / ६-७ १-३ २-४ ३-५ ४-६ ५-७ १-४ २-५ ३-६ ४-७ १-५ २-६ ३-७ २-७
एवमेकेन्द्रियादिपृथिव्यादिपदप्रभृतिभिः पूर्वोक्तक्रमेणौदारिकादिकायप्रयोगपरिणतद्रव्यद्वयं प्रपञ्चनीयं कियद्दूरं यावत् ? इत्याह-'जाव सव्वट्ठसिद्धग' त्ति एतच्चैवं-'जाव सव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचेंदियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणया किं पज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध जाव परिणया अपज्जत्तसव्वट्टसिद्ध जाव परिणया वा ? गोयमा ! पज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध जाव परिणया वा अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध जाव परिणया वा अहवा एगे पज्जत्तसव्वट्टसिद्ध जाव परिणए एगे अपज्जत्तसव्वट्टसिद्ध जाव परिणए' त्ति ।
८/ ७८. एवं वीससापरिणयावि' त्ति एवमिति प्रयोगपरिणतद्रव्यद्वयवत्प्रत्येक विकल्पैर्द्धिकसंयोगैश्च विस्रसापरिणते अपि द्रव्ये वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानेषु पञ्चादिभेदेषु वाच्ये, कियद्दूरं यावत् ? इत्याह- 'जाव अहवेगे' इत्यादि, अयं च पञ्चभेदसंस्थानस्य दशानां द्विकसंयोगानां दशम इति || अथ द्रव्यत्रयं चिन्तयन्नाह
८/७९. 'तिन्नी' त्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः द्विकसंयोगे तु षट्, कथम् ?, आद्यस्यैकत्वे शेषयोः क्रमेण द्वित्वे द्वौ तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे शेषयोः क्रमेणैकत्वेऽन्यौ ४ तथा द्वितीयस्यैकत्वे तृतीयस्य च द्वित्वेऽन्यः ५ तथा द्वितीयस्य द्वित्वे तृतीयस्य चैकत्वेऽन्यः ६ इत्येवं षट्,
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परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. १ : सू. ७९-८४
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भगवती वृत्ति त्रिकयोगेत्वेक एवेत्येवं सर्वे दश, एवं मनःप्रयोगादिपदत्रयेऽपि, कथम् ?, त्रीण्येकमेकं च १ एकं त्रीण्येकं च २ एकमेकं त्रीणि च अत एवाह-'एवमेक्कगसंजोगों इत्यादि, सत्यमनःप्रयोगादीनि ३ द्वे द्वे एकं च ४ द्वे एकं द्वे च ५ एकं द्वे द्वे च ६ इत्येवं षट्, तु चत्वारि पदानीत्यत एकत्वे चत्वारो द्विकसंयोगे तु द्वादश। 'जाव दससंजोएणं' ति इह यावत्करणाच्चतुष्कादिसंयोगाः कथम् ?, आद्यस्यैकत्वेन शेषाणां त्रयाणां क्रमेणानेकत्वेन त्रयो सूचिताः, तत्र च द्रव्य-पञ्चकापेक्षया सत्यमनःप्रयोगादिषु लब्धाः, पुनरन्ये वय आद्यस्यानेकत्वेन शेषाणां त्रयाणां चतुषु पदेषु द्विकत्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति, तत्र च द्विकक्रमेणैकत्वेन ६, तथा द्वितीयस्यैकत्वेन शेषयोः क्रमेणानेकत्वेन संयोगाश्चतुर्विंशतिः २४, कथम् ?, चतुर्णां पदानां षट् द्वौ, पुनर्द्धितीयस्यानेकत्वेन शेषयोः क्रमेणैवैकत्वेन द्वावेव द्विकसंयोगाः, तत्र चैकैकस्मिन् पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो तृतीयचतुर्थयोरेकत्वानेकत्वाभ्यामेकः पुनर्विपर्ययेणैक इत्येवं विकल्पाः षण्णां च चतुर्भिर्गुणने (च) चतुर्विंशतिरिति, द्वादश त्रिकयोगे तु चत्वार इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति। सूत्रे तु त्रिकसंयोगा अपि चतुर्विंशतिः, कथम्?, चतुर्णा पदानां कांश्चिदुपदर्श्य शेषानतिदेशत आह-एवं दुयासंजोगो' इत्यादि, त्रिकसंयोगाश्चत्वारः एकैकस्मिंश्च पूर्वोक्तक्रमेण षडविकल्पाः, 'एत्थवि तहेव' त्ति अत्रापि द्रव्यत्रयाधिकारे तथैव वाच्यं सूत्रं चतुर्णां च षड्भिर्गुणने चतुर्विंशतिरिति, चतुष्कसंयोगे तु यथा द्रव्यद्वयाधिकारे उक्तं. तत्र च मनोवाक्कायप्रभेदतो यः चत्वारः, कथम्?, आदौ द्वे त्रिषु चैकैकं १ तथा द्वितीयस्थाने द्वे प्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वर्णादिभेदतश्च विस्रसा- शेषेषु चैकैकं २ तथा तृतीय स्थाने द्वे शेषेषु चैकैकं ३ तथा परिणाम उक्तः स इहापि वाच्य इति भावः, किमन्तं तत्सूत्रं चतुर्थे द्वे शेषेषु चैकैकम् ४ इत्येवं चत्वार इति, एकेन्द्रियादिषु तु वाच्यम् ? इत्याह-'जावे' त्यादि, इह च परिमण्डलादीनि पञ्च पञ्चसु पदेषु द्विकचतुष्कपञ्चकसंयोगा भवन्ति, तत्र च पदानि तेषु चैकत्वे पञ्च विकल्पाः द्विकसंयोगे तु विंशतिः, द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत्, कथम्?, पञ्चानां पदानां दश कथम् ?, आद्यस्यैकत्वे शेषाणां च क्रमेणानेकत्वे तथाऽऽद्य- द्विकसंयोगा एकैकस्मिंश्च द्विकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो स्यानेकत्वे शेषाणां तु क्रमेणैवैकत्वे एवं द्वितीयस्यैकत्वेऽनेकत्वे विकल्पा दशानां च चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदिति, त्रिकसंयोगे तु च शेषत्रयस्य चानेकत्वे एकत्वे च षट् तथा तृतीयस्यैकत्वे च षष्टिः कथम् ?, पञ्चानां पदानां दश त्रिकसंयोगाः द्वयोश्चानेकत्वे एकत्वे च चत्वारः तथा चतुर्थस्यैकत्वेऽनेकत्वे एकैकस्मिंश्च त्रिकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण षड् विकल्पाः दशानां च पञ्चमस्य चानेकत्वे एकत्वे च द्वावित्येवं सर्वेऽपि विंशतिः, च षड्भिर्गुणने षष्टिरिति, चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः, कथम् ?, त्रिकयोगे तु दश। अत्र च 'अहवा एगे तंससंठाणे' इत्यादिना पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पञ्च विकल्पा एकैकस्मिंश्च त्रिकयोगानां दशमो दर्शित इति। अथ द्रव्यचतुष्कमाश्रित्याह- पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो भङ्गाः पञ्चानां चतुर्भिर्गुणने विंशतिरिति, 'चत्तारि भंते!' इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादित्रये एकत्वे त्रयो पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति, एवं षट्कादिसंयोगा अपि वाच्याः, द्विकसंयोगे तु नव कथम् ? आद्यस्यैकत्वे द्वयोश्च क्रमेण त्रित्वे नवरं षट्कसंयोग आरम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदान्याश्रित्य द्वौ, तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे द्वयोरपि क्रमेणैव द्वित्वेऽन्यौं द्वौ, सप्तकसंयोगस्त्वौदारिकादिकायप्रयोगमाश्रित्य अष्टकसंयोगस्तु तथाऽऽद्यस्य त्रित्वे द्वयोश्च क्रमेणैवैकत्वेऽन्यौ द्वौ, तथा व्यन्तरभेदान् नवकसंयोगस्तु ग्रैवेयकभेदान दशकसंयोगस्तु द्वितीयस्यैकत्वेऽन्यस्य त्रित्वे तथा द्वयोरपि द्वित्वे तथा भवनपतिभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया द्वितीयस्य त्रित्वेऽन्यस्य चैकत्वे वयोऽन्ये इत्येवं सर्वेऽपि नव समवसेयः, एकादशसंयोगस्तु सूत्रे नोक्तः, पूर्वोक्तपदेषु
त्रययोगे तु त्रय एव भवन्तीत्येवं सर्वेऽपि पञ्चदश इति। तस्यासम्भवात्. द्वादशसंयोगस्तु कल्पोपपन्नदेवभेदानाश्रित्य ८/८०. 'जइ पओगपरिणया कि मणप्पओगे त्यादिना चोक्तशेषम्। वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया वेति। ‘पवेसण' ति नवमशतक८/८२. द्रव्यचतुष्कप्रकरणमुपलक्षितं, तच्च पूर्वोक्तानुसारेण सत्क तृतीयोद्देशके गाङ्गेयाभिधानानगारकृतनरकादिगत संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं समस्तमध्येयमिति।
प्रवेशनविचारे, कियन्ति तदनुसारेण द्रव्याणि वाच्यानि? अथ पञ्चादिद्रव्यप्रकरणान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह
इत्याह-जाव असंखेज्जे ति असंख्यातान्तनारकादिवक्त८/८३. 'एवं एएण' मित्यादि, एवं चाभिलापः-पंच भंते! दव्वा किं व्यताश्रयं हि तत्सूत्रम्, इह तु यो विशेषस्तमाह-'अणंता'
पओगपरिणया ३?, गोयमा! पओगपरिणया ३ अह्वा एगे इत्यादि, एतदेवाभिलापतो दर्शयन्नाह-जाव अणंते' इत्यादि।। पओगपरिणए चत्तारि मीसापरिणया' इत्यादि. इह च अर्थतेषामेवाल्यबहुत्वं चिन्तयन्नाहद्विकसंयोगे विकल्पा द्वादश, कथम्?, एकं चत्वारि च १ द्वे ८/८४. 'एएसि ण' मित्यादि, 'सव्वत्थोवा पुग्गला पओगपरिणय' त्ति श्रीणि च २ त्रीणि द्वे च ३ चत्वार्येकं च ४ इत्येवं चत्वारो कायादिरूपतया, जीवपुद्गलसम्बन्धकालस्य स्नोकत्वात, विकल्पा द्रव्यपञ्चक-माश्रित्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयो मीसापरिणया अणंतगुण' त्ति कायादिप्रयोगपरिणतेभ्यः
द्विकसंयोगास्ते च चतुर्भिर्गुणिता द्वादशेति, त्रिकयोगे तु षट्, सकशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः, यतः प्रयोगकृतमाकार१. यद्यपि नवमे शतके द्वात्रिंशत्तमोदशके वक्तव्यतैषा तथाऽपि उत्पातोद्वर्त्तनाख्याधिकारद्वयानन्तरं प्रवेशनकस्य तृतीयस्य भावात् द्वात्रिंशत्तमो देशकस्य
तृतीये उद्देशे-विभागापरनामके इदं ज्ञेयम्।
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भगवती वृत्ति
४८५
परिशिष्ट-५ : श.८: उ.२ : सू.८४-९७
मपरित्यजन्तो विस्रसया ये परिणामान्तरमुपागता मुक्तकडे. सीविसे असंखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे?, गोयमा ! वराद्यवयवरूपास्तेऽनन्तानन्ताः, विस्रसापरिणतास्तु तेभ्योऽ- संखेज्जवासाउय जाव कम्मासीविसे नो असंखेज्जवासाउय प्यनन्तगुणाः, परमाण्वादीनां जीवाग्रहणप्रायोग्याणा- जाव कम्मासीविसे, जइ संखेज्ज जाव कम्मासीविसे किं मप्यनन्तत्वादिति॥
पज्जत्तसंखेज्ज जाव कम्मासीविसे अपज्जत्तसंखेज्ज जाव अष्टमशते प्रथमः॥८.१॥
कम्मासीविसे?, गोयमा!' शेषं लिखितमेबास्ति।।
एतच्चोक्तं वस्तु अज्ञानी न जानाति. ज्ञान्यपि कश्चिद्दश द्वितीय उद्देशकः
वस्तूनि कथञ्चिन्न जानातीति दर्शयन्नाहप्रथमे पुद्गलपरिणाम उक्तो. द्वितीये त स एवाशीविष- ८/९६. 'दसे' त्यादि, 'स्थानानि' वस्तूनि गुणपर्यायाश्रितत्वात, द्वारेणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यादिसूत्रम्
छमस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते, अन्यथाऽमूर्तत्वेन ८८६,८७. 'कइविहे त्यादि, 'आसीविस' ति 'आशीविषाः'
धर्मास्तिकायादीनजानन्नपि परमाण्वादि जानात्येवासी, दंष्ट्राविषाः 'जाइआसीविस' ति जात्या-जन्मना-ऽऽशीविषा मूर्त्तत्वात्तस्य, समस्तमूर्त्तविषयत्वाच्चावधिविशेषस्य। अथ जात्याशीविषाः 'कम्मआसीविस' ति कर्मणा-क्रियया सर्वभावेनेत्युक्तं ततश्च तत् कथञ्चिज्जानन्नप्यनन्तपर्यायतया शापादिनोपघातकरणेनाशीविषाः कर्माशीविधाः। तत्र न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति संख्यानियमो व्यर्थः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्तका एव, एते स्यात्, घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषा
ज्ञातुमशक्यत्वात्, सर्वभावेन च साक्षात्कारेण-चक्षुःप्रत्यक्षेणेति भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः, एते चाशीविष
हृदयं, श्रुतज्ञानादिना त्वसाक्षात्कारेण जानात्यपि, 'जीवं लब्धिस्वभावात् सहस्रारान्तदेवेष्वेवोत्पद्यन्ते, देवास्त्वेत एव ये
असरीरपडिबद्धं' ति देहविमुक्तं सिद्धमित्यर्थः, 'परमाणुपुग्गलं' देवत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामनुभूतभावतया कर्मा
ति परमाणुश्चासौ पुद्गलश्चेति, उपलक्षणमेतत्तेन शीविषा इति. उक्तञ्च शब्दार्थभेदसम्भवादि भाष्यकारेण
द्वयणुकादिकमपि कश्चिन्न जानातीति, अयमिति-प्रत्यक्षः 'आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया।
कोऽपि प्राणी जिनो-वीतरागो भविष्यति न वा भविष्यतीति ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउविहविगप्पा॥१॥'
नवमम ९ 'अय' मित्यादि च दशमम। उक्तव्यतिरकमाह८/८८-०.१. 'केवइए' नि कियान 'विसए' ति गोचरो विषयस्येति
'एयाणी' त्यादि. 'सव्वभावेन जाणइ ति सर्वभावणं गम्यम अद्धभरहप्पमाणमेत्तं ति अर्द्धभरतस्य यत्
साक्षात्कारेण जानाति केवलज्ञानेनेति हृदयम्।। प्रमाणं-सातिरेकत्रिषष्ट्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव
जानातीत्युक्तमतो ज्ञानसूत्रम्मात्रा-प्रमाणं यस्याः सा। तथा तां 'बोंदि' ति तनं 'विसेणं ति ८/९७. तत्र च 'आभिणिबोहियनाणे ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययविषेण स्वकीयाशीप्रभवेण करणभूतेन 'विसपरिगयं' ति विषं
रूपत्वात नियतोऽसंशयरूपत्वाद्रोधः-संवेदनमभिनिबोधः स भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य विषतां परिगता-प्राप्ला विषपरिगता
एव स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिकं, जाति यते ऽतस्ताम, अत एव 'विसट्टमाणि' ति विकसन्ती-विदलन्तीं।
बाऽनेनेति ज्ञानम्, आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति 'करेत्तर ति कर्तुं विसए से' ति गोचरोऽसौ, अथवा 'से' तस्य
आभिनिबोधिकज्ञानम्-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति। वृश्चिकस्य 'विसट्टयाए ति विषमेवार्थो विषार्थस्तभावस्तत्ता
'सुयनाणे' त्ति श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्दः स एव ज्ञानं तस्या विषार्थतायाः-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो चेव' नैवेत्यर्थः
भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानं, 'संपत्तीए' त्ति संपत्त्या एवंविधबोन्दिसंप्राप्तिद्वारेण 'करिसुत्ति श्रुताद्वाशब्दात् ज्ञानं श्रुतज्ञानम्--इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रुतअकार्षुर्वृश्चिका इनि गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचन
ग्रन्थानुसारी बोध इति। 'ओहिणाणे' त्ति अवधीयते-अधोऽधो निर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहत्वज्ञापनार्थम्, एवं कुर्वन्ति
विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः स एव ज्ञानम अवधिना करिष्यन्तीन्यपि, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां कालिकत्व- वा-मर्यादया मूर्त्तद्रव्याण्येव जानाति नेतराणीति व्यवस्थया ज्ञापनार्थः, 'समयक्खेत्त' त्ति 'समयक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रम
ज्ञानमवधिज्ञानं 'मणपज्जवणाणे ति मनसोमन्यमानमना८/९३. एवं जहावेउब्वियसरीरस्स भेउ ति यथा वैक्रियं भणता द्रव्याणां पर्यवः-परिच्छेदो मनः पर्यवः स एवं ज्ञानं मनःपर्यव
जीवभेदो भणितस्तथेहापि वाच्योऽसावित्यर्थः, स चायं- ज्ञानं मनःपर्यायाणां वा तदवस्थाविशेषाणां ज्ञानं मनः पर्याय'गोयमा! नो समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ज्ञानम्। 'केवलणाणे' ति केवलमेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात गब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जइ शुद्धं वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात्। सकलं वा-तत्प्रथमगब्भवक्कतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मारसीविसे कि तयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वाऽनन्य
संखेज्जवासाउयगब्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मा- सदृशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात्। यथाऽवस्थिता१. आश्यों दृष्ट्रास्तद्गतविषा आशीविषास्ते कर्मजातिभेदेन द्विविधाः काशीविषा अनेकविधा जात्याशीविषाश्चतुर्विधबिकल्पाः।
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परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. २ : सू. ९७-१११
४८६
शेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना तच्च तत् ज्ञानं
चेति केवलज्ञानम् । ८/९८. 'उग्गहो' त्ति
सामान्यार्थस्य-अशेषविशेषनिरपेक्ष
स्थानिर्देश्यस्य रूपादेः अव इति प्रथमतो ग्रहणं-परिच्छेदनमवग्रहः । 'ईह' त्ति सदर्थविशेषालोचनमीहा । 'अवाओ' त्ति प्रक्रान्तार्थविनिश्चयोऽवायः । 'धारणे' ति अवगतार्थविशेषधरणं धारणा। ‘एवं जहे' त्यादि, 'एवम् उक्तक्रमेण यथा राजप्रश्नकृते द्वितीयोपाङ्गे ज्ञानानां भेदो भणितस्तथैवेहापि भणितव्यः । स चैवम्८/१०१. 'से किं तं उग्गहे ?, उग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य' इत्यादिरिति यच्च वाचनान्तरे श्रुतज्ञानाधिकारे यथा नन्द्यामङ्गप्ररूपणेत्यभिधाय 'जाव भवियअभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा ये' त्युक्तं तस्यायमर्थः-श्रुतज्ञानसूत्रावसाने किल नन्द्यां श्रुतविषयं दर्शयतेदमभिहितम्–'इच्चेयंमि दुवालसंगे गणिपिडए अनंता भावा अणंता अभावा जाव अणंता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अनंता सिद्धा अनंता असिद्धा पन्नत्ते' ति अस्य च सूत्रस्य या सङ्ग्रहगाथा'भावमभावा' हे उमहेउ कारणमकारणा जीवा ।
अजीव भवियाऽभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा य ॥ १ ॥' इत्येवंरूपा तस्याः खण्डमिदमेतदन्तं श्रुतज्ञानसूत्रमिहाध्येयमिति ॥ ज्ञानविपर्ययस्त्वज्ञानमिति तत्सूत्रम्-तत्र 'अन्नाणे' त्ति नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, कुत्सितत्वं च मिथ्यात्वसंवलितत्वात् उक्तञ्च - ‘अविसेसिया' मइच्चिय सम्मद्दिट्ठिस्स सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छदिट्टिस्स सुयंपि एमेव ॥ १ ॥' 'विभंगणाणे ति विरुद्धा भङ्गा - वस्तुविकल्पा यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच्च तज्ज्ञानं च अथवा विरूपो भङ्गः - अवधिभेदो विभङ्गः स चासौ ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम्, इह च कुत्साविभङ्गशब्देनैव गमितेति न ज्ञानशब्दो नञा विशेषितः, 'अत्थोग्गहे यत्ति अर्ध्यत इत्यर्थस्तस्यावग्रहः अर्थावग्रहः सकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यार्थग्रहणमेकसामयिकमिति भावार्थ:, 'वंजणोग्गहे यत्ति व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा ततश्च व्यञ्जनेन- उपकरणेन्द्रियेण व्यञ्जनानां वा-शब्दादिपरिणतद्रव्याणामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः अत्रार्थावग्रहस्य सुलक्ष्यत्वात् सकलेन्द्रियार्थव्यापकत्वाच्च प्रथममुपन्यासः, 'एवं जहेवे' त्यादि, यथैवाभिनिबोधिकज्ञानमधीतं तथैव मत्यज्ञानमप्यध्येयं, तच्चैवम्- 'से किं तं वंजणोग्गहे ?, २ चउव्विहे पन्नत्ते, तं जहा
च
१. भावा अभावा हेतवोऽहेतवः कारणान्यकारणानि जीवा अजीवा भव्या अभव्यास्ततः सिद्धा असिद्धाः || (द्वादशाङ्गीरूपगणिपिटके) ।
भगवती वृत्ति
सोइंद्रियवंजणोग्गहे घाणिदियवंजणोग्गहे जिब्भिंदियवंजणोग्गहे फासिंदियवंजणोग्गहे' इत्यादि, यश्चेह विशेषस्तमाह-'नवरं एगट्टियवज्जं ति इहाभिनिबोधिकज्ञाने' "उग्गिण्हणया अवधारणया सवण्या अवलंबणया मेहे' त्यादीनि (पञ्च) पञ्च पञ्चैकार्थिकान्यवग्रहादीनामधीतानि, मत्यज्ञाने तु न तान्यध्येयानीति भावः, 'जाव नोइंद्रियधारण' ति इदमन्त्यपदं यावदित्यर्थः ।
८ / १०२. जं इमं अन्नाणिएहिं' ति यदिदम् 'अज्ञानिकैः' निज्ञनैः, तत्राल्पज्ञानभावादधनवदशीलबद्वा सम्यग्दृष्टयोऽप्य-ज्ञानिकाः प्रोच्यन्तेऽत एवाह--मिथ्यादृष्टिभिः 'जहा नंदीए त्ति, तत्रैवमेतत्सूत्रम्- 'सच्छंद्रबुद्धिमइविंगप्पियं तं जहा भारहं रामायण' मित्यादि, तत्रावग्रहेहे बुद्धिः अवायधारणे च मतिः, स्वच्छन्देन - स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं स्वबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः 'चत्तारि य वेय' त्ति साम ऋक् यजुः अथर्वा चेति 'संगोवंग' ति इहाङ्गानि - शिक्षादीनि षट् उपाङ्गानि च तद्व्याख्यानरूपाणि । ८/१०३. 'गामसंठिए 'त्ति ग्रामालम्बनत्वाद् ग्रामाकारम, एवमन्यान्यपि,
नवरं 'वाससंठिए' त्ति भरतादिवर्षाकारं 'वासहरसंठिए' ति हिमवदादिवर्षधरपर्वताकारं 'ह्यसंठिए अश्वाकारं पसय ति पसयसंठिए, तत्र पसयः - आटव्यो द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः, एवं च नानाविधसंस्थानसंस्थितमिति ॥
अनन्तरं ज्ञानान्यज्ञानानि चोक्तानि अथ ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपयन्नाह
८/१०४. 'जीवा णं भंते!" इत्यादि ।
८/१०५. इह च नारकाधिकारे 'जे नाणी ते नियमा तिन्नाणी' ति
सम्यग्दृष्टिनारकाणां भवप्रत्ययमवधिज्ञानमस्तीतिकृत्वा ते नियमात्त्रिज्ञानिनः । 'जे अन्नाणी ते अत्येगतिया दुअन्नाणी अत्येगतिया तिअन्नाणी' ति, कथम् ?, उच्यते, असञ्जिनः सन्तो ये नारकेषूत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्व्यज्ञानिनः ये तु मिथ्यादृष्टिसनिभ्य उत्पद्यन्ते तेषां भवप्रत्ययो विभङ्गो भवतीति ते व्यज्ञानिनः । एतदेव निगमयन्नाह - ' एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए ति । ८/१०८. 'बेइंदियाण' मित्यादि द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादनसम्यग्दर्शनभावेनापर्यासकावस्थायां भवन्तीत्यत
उच्यते । 'नाणीव अन्नाणीवित्ति ॥ अनन्तरं जीवादिषु षइविंशतिपदेषु ज्ञान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः, अथ तान्येव गतीन्द्रियकायादिद्वारेषु चिन्तयन्नाह
८ / १११. 'निरयगइया ण मित्यादि, गत्यादिद्वाराणि चैतानि
२. अविशेषिता मतिरेव सा सम्यग्दृष्टेर्मतिज्ञानं मिथ्यादृष्टेर्मत्यज्ञानं श्रुतमप्येवमेव ॥ १ ॥
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भगवती वृत्ति
४८७
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २ : सू. १११-१२९
गइइंदिए' य काए सुहुमे पज्जत्तए भवत्थे य।
लब्ध्यपेक्षया, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम्। भवसिद्धिए य सन्नी लन्द्धी उवओग जोगे य॥१॥
अज्ञानिनां तु वीण्यज्ञानानि भजनयैव-स्यात् द्वे स्यात् त्रीणीति। लेसा कसाय वेए आहारे नाणगोयरे काले।
८/११६. 'जहा पुढविकाइय' त्ति एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टित्वादअंतर अप्पाबहुयं च पज्जवा चेह दाराई॥२॥
ज्ञानिनस्ते च व्यज्ञाना एवेत्यर्थः। 'बेइंदिये' त्यादि, एषां द्वे तत्र च निरये गतिः-गमनं येषां ते निरयगतिकास्तेषाम्, इह च ज्ञाने, सास्वादनस्तेषूत्पद्यत इतिकृत्वा, सास्वादनश्चोत्कृष्टतः सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनो वा ये षडावलिकामानोऽतो द्वे ज्ञाने तेषु लभ्येत इति। पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तुकामा अन्तरगतौ वर्तन्ते ८/११७. 'अणिंदिय' त्ति केवलिनः।। ते निरयगतिका विवक्षिताः। एतत्प्रयोजनत्वाद्गतिग्रहणस्येति, कायद्वारे'तिन्नि नाणाई नियम' त्ति अवधेर्भवप्रत्ययत्वेनान्तरगतावपि ८/११८. 'सकाइया ण' मित्यादि, सह कायेन-औदारिकादिना भावात् तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ति असज्ञिनां नरके गच्छतां शरीरेण पृथिव्यादिषट्कायान्यतरेण वा कायेन ये ते सकायास्त द्वे अज्ञाने अपर्याप्तकल्वे विभङ्गस्याभावात् सज्ञिनां तु एव सकायिकाः, ते च केवलिनोऽपि स्युरिति सकायिकानां मिथ्यादृष्टीनां वीण्यज्ञानानि भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावाद् सम्यग्दृशां पञ्च ज्ञानानि मिथ्यादृशां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनया अतस्त्रीण्यज्ञानानि भजनयेत्युच्यत इति।
स्युरिति। ११२. तिरियगइया णं' ति तिर्यक्षु गतिः-गमनं येषां ते ८/११९. 'अकाझ्या णं' ति नास्ति कायः-उक्तलक्षणो येषां तिर्यग्गतिकास्तेषां तदपान्तरालवर्त्तिनां दो नाणति तेऽकायास्त एवाकायिकाः सिद्धाः।। सम्यग्दृष्टयो ह्यवधिज्ञाने प्रपतिते एव तिर्यक्ष गच्छन्ति तेन सूक्ष्मद्वारेतेषां द्रे एव ज्ञाने 'दो अन्नाणे' त्ति मिथ्यादृष्टयोऽपि हि ८/१२०. 'जहा पुढविकाइय' ति व्यज्ञानिनः सूक्ष्मा मिथ्याविभङ्गज्ञाने प्रतिपतिते एव तिर्यक्ष गच्छन्ति तेन तेषां द्वे अज्ञाने दृष्टित्वादित्यर्थः 'जहा सकाझ्य' त्ति बादराः केवलिनोऽपि इति।
भवन्तीतिकृत्वा ते सकायिकवद्भजनया पञ्चज्ञानिन८/११३. 'मणुस्सगइया ण' मित्यादौ, तिन्नि नाणाई भयणाए' त्ति स्त्र्यज्ञानिनश्च वाच्या इति।
मनुष्यगतौ हि गच्छन्तः केचिज्ज्ञानिनोऽवधिना सहैव गच्छन्ति पर्याप्तकद्वारेतीर्थङ्करवत् केचिच्च तद्विमुच्य तेषां त्रीणि वा द्वे वा ज्ञाने ८/१२३. 'जहा सकाइय' त्ति पर्याप्तकाः केवलिनोऽपि स्युरिति ते स्यातामिति। ये पुनरज्ञानिनो मनुष्यगतावुत्पत्तुकामास्तेषां सकायिकवत्पूर्वोक्तप्रकारेण वाच्याः । प्रतिपतित एव विभङ्गे नत्रोत्पत्तिः स्यादित्यत उक्तं दो ८/२२४. पर्याप्तकद्वार एव चतुर्विंशतिदण्डके पर्याप्सकनारकाणा अन्नाणाई नियम ति। 'देवगझ्या जहा निरयगइय' ति देवगती 'तिन्नि अन्नाणा नियम' त्ति अपर्याप्तकानामेवासजिनारकाणां ये ज्ञानिनो यातुकामास्तेषामवधिर्भवप्रत्ययो देवायुःप्रथमसमय विभङ्गाभाव इति पर्याप्त-कावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति। 'एवं एवोत्पद्य-तेऽतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते, 'तिन्नि नाणाई नियम' जाव चउरिंदिय'त्ति द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तका ति। ये त्वज्ञानिनस्तेऽसज्ञिभ्य उत्पद्यमाना व्यज्ञानिनः, व्यज्ञानिन एवेत्यर्थः। अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सञ्जिभ्य उत्पद्यमाना- ८/१२५. 'पज्जत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खे' त्यादि, पर्याप्तकस्त्वज्ञानिनो भवप्रत्यय विभङ्गस्य सद्भावाद् अतस्तेषां पञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिविभङ्गो वा केषाञ्चित्स्यात्केषाञ्चिनारकाणामिवोच्यते-तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' ति।
त्पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा द्वे वा ज्ञाने अज्ञाने वा तेषां ८.११४. 'सिद्धिगड्या ण' मित्यादि, यथा सिद्धाः केवलज्ञानिन एव स्यातामिति।
एवं सिद्धिगतिका अपि वाच्या इति भावः, यद्यपि च सिद्धानां ८/१२८. 'बेइंदियाणं दो नाणे त्यादि, अपर्याप्तकदीन्द्रियादीनां सिद्धिगतिकानां चान्तरगत्यभावान्न विशेषोऽस्ति तथापीह केषाञ्चित्सास्वादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने गतिद्वारबलायातत्वात्ते दर्शिताः, एवं द्वारान्तरेष्वपि परस्परान्त- केषाञ्चित्पुनस्तस्यासद्भावाद्धे एवाज्ञाने। भविऽपि तत्तद्विशेषापेक्षयाऽपौनरुक्त्यं भावनीयमिति।। ८/१२९. अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभावे त्रीणि अथेन्द्रियद्वारे
ज्ञानानि यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्यादृशां तु द्वे ८/११५. 'सइंदिये त्यादि, 'सेन्द्रियाः' इन्द्रियोपयोग-वन्तस्ते च एवाज्ञाने, विभङ्गस्यापर्याप्तकत्वे तेषामभावात्। अत एवोक्तं
ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां चत्वारि ज्ञानानि भजनया 'तिन्नि नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियम' त्ति। 'वाणमंतरे' स्यात द्वे स्यात् त्रीणि स्याच्चत्वारि, केवलज्ञानं तु नास्ति त्यादि, व्यन्तरा अपर्याप्तका नारका इव त्रिज्ञाना व्यज्ञानास्त्र्य
तेषाम, अतीन्द्रियज्ञानत्वात्तस्य, व्यादिभावश्च ज्ञानानां ज्ञाना वा वाच्याः, तेष्वप्यसजिभ्य उत्पद्यमानानामपर्याप्तकानां १. गतय एकेन्द्रियादिः पृथ्वीकायादिः सूक्ष्मः पर्याप्तः भवस्थश्च लेश्या कषायः वेदः आहारः ज्ञानविषयः कालः अन्तरम अल्पबहुत्वं च भवसिद्धिकश्च सज्ञी लब्धिरुपयोगो योगश्च ॥१॥
पर्यायाश्चेह द्वाराणि ॥२॥
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परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. २ : सू. १२९-१४३
विभङ्गाभावात् शेषाणां चावधेर्विभङ्गस्य वा भावात्। 'जोइसिए' त्यादि, एतेषु हि सञ्ज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते तेषां चापर्याप्तकत्वेऽपि भवप्रत्यय-स्यावधेर्विभङ्गस्य चावश्यम्भावात्
त्रीणि
ज्ञानान्यज्ञानानि वा स्युरिति ।
८/१३०. 'नोपज्जत्तगनो अपज्जत्तग' त्ति सिद्धाः ॥
भवस्थद्वारे...
८ / १३१. 'निरयभवत्था ण मित्यादि, निरयभवे तिष्ठन्तीति निरयभवस्था:- प्राप्तोत्पत्तिस्थानाः, ते च यथा निरयगतिकास्त्रिज्ञाना द्वयज्ञानास्त्र्यज्ञानाश्चोक्तास्तथा वाच्या इति ॥ भवसिद्धिक द्वारे
८/१३५. 'जहा सकाइय' त्ति भवसिद्धिकाः केवलिनोऽपीति ते सकायिकवद्भजनया पञ्चज्ञानाः तथा यावत्सम्यक्त्वं न प्रतिपन्नास्तावद्भजनयैव व्यज्ञानाश्च वाच्या इति । ८/१३६. अभवसिद्धिकानां त्वज्ञानत्रयं भजनया स्यात् सदा मिथ्यादृष्टित्वात्तेषामत उक्तं 'नो नाणी अन्नाणी' त्यादीति || सञ्जिद्वारे
८ / १३८. 'जहा सइंदिय'त्ति ज्ञानानि चत्वारि भजनया अज्ञानानि च त्रीणि तथैवेत्यर्थः । 'असन्नी जहा बेइंद्रिय' त्ति अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वयमपि सास्वादनतया स्यात् पर्याप्तकावस्थायां त्वज्ञानद्वयमेवेत्यर्थः ॥ लब्धिद्वारे लब्धिभेदान् दर्शयन्नाह -
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८ / १३९. 'कतिविद्या ण' मित्यादि, तत्र लब्धिः - आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः । सा च दशविधा, तत्र ज्ञानस्य विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिर्ज्ञानलब्धिः एवमन्यत्रापि, नवरं च दर्शनं रुचिरूप आत्मनः परिणामः चारित्रं चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः तथा चरित्रं च तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रं संयमासंयमः तच्चाप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणामः, दानादिलब्धयस्तु पञ्चप्रकारान्त, रायुक्षयक्षयोपशमसम्भवाः, इह च सकृद्भोजनमशनादीनां भोगः, पौनःपुन्येन चोपभोजनमुपभोगः, स च वस्त्रभवनादेः, दानादीनि तु प्रसिद्धानीति तथा इन्द्रियाणां स्पर्शनादीनां मतिज्ञानावरण क्षयोपशमसम्भूतानामे के न्द्रियादिजातिनामकर्मोदयनियमित क्रमाणां पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्यसिद्धानां द्रव्यभावरूपाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिः ॥
ज्ञानलब्धेर्विपर्ययभूताऽज्ञानलब्धिरित्यज्ञानलब्धि
अथ
निरूपणायाह
८/१४१. 'अन्नाणलद्धी' त्यादि ।
८/१४२. 'सम्मदंसणे' त्यादि, इह सम्यग्दर्शनं मिथ्यात्वमोहनीय
१. परिहारिकाणां तपो जघन्यं मध्यमं तथैवोत्कृष्टं । शीतोष्णवर्षाकाले धीरैः प्रत्येकं भणितम् ॥ १ ॥
तत्र जघन्यं ग्रीष्मे चतुर्थः षष्ठं तु भवति मध्यमः । इहाष्टम उत्कृष्टं इतः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥ २ ॥
भगवती वृत्ति
कर्माणुवेदनोपशम १. क्षय २ क्षयोपशम ३ समुत्थ आत्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनमशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थो जीवपरिणामः सम्यग्मिथ्यादर्शनं त्वर्द्धविशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थ आत्मपरिणाम एव ॥
८ / १४३. 'सामाइयचरित्तलद्धि' त्ति सामायिकं-सावद्ययोगविरतिरूपं एतदेव चरित्रं सामायिकचरित्रं तस्य लब्धिः सामायिकचरित्रलब्धिः, सामायिकचरित्रं च द्विधा- इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्राल्पकालमित्वरं तच्च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य शिक्षकस्य भवति यावत्कथिकं तु यावज्जीविकं, तच्च मध्यमवैदेहिकतीर्थङ्करतीर्थान्तर्गतसाधूनामवसेयं, तेषामुपस्थापनाया अभावात्, नन्वितरस्यापि यावज्जीवितया प्रतिज्ञानात् तस्यैव चोपस्थापनायां परित्यागात् कथं न प्रतिज्ञालोपः ?, अत्रोच्यते, अतिचाराभावात् तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य शुद्ध्यन्तरापादनेन सञ्ज्ञामात्रविशेषादिति । 'छेओवद्वावणियचरित्तलद्धि' ति छेदे - प्राक्तनसंयमस्य व्यवच्छेदे सति यदुपस्थापनीयंसाधावारोपणीयं तच्छेदोपस्थापनीयं, पूर्वपर्यायच्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः तच्च सातिचारमनतिचारं च, तत्रानतिचारमित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ वा यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्द्धमानस्वामितीर्थं सङ्क्रामतः पञ्चयामधर्मप्राप्तौ, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यवतारोपणं तच्च तच्चरित्रं च छेदोपस्थापनीयचरित्रं तस्य लब्धिश्छेदोपस्थापनीयचरित्रलब्धिः परिहारविसुद्धियचरित्तलद्धि' ति परिहारः- तपोविशेषस्तेन विशुद्धिर्यस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिकं शेषं तथैव एतच्च द्विविधं - निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानकास्तदासेवकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विशमानकम्, आसेवितविवक्षित चारित्रकायास्तु निर्विष्टकायास्त एव निर्विष्टकायिकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विष्टकायिकमिति, इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका भवन्ति, अपरे तु तद्वैयावृत्त्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः एतेषां च निर्विशमानकानामयं परिहार:
'परिहारियाण' उ तवो जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले भणियो धीरेहिं पत्तेयं ॥ १ ॥ तत्थ जनो गिम्हे चउत्थ छठ्ठे तु होइ मज्झिमओ । अट्ठममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥ २ ॥ सिसिरे उ जहन्नाई छट्टाई दसमचरिमगा होंति । वासासु अट्टमाई बारसपज्जन्तओ इ ॥ ३ ॥ शिशिरे तु जघन्यादिषु षष्ठाद्यं दशमचरमं भवति । वर्षास्वटमादि द्वादशमपर्यन्तं नयति ततः ॥ ३॥ पारणके आचाम्लं पञ्चस्वेकस्य ग्रहः द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् । कल्पस्थिताश्च प्रतिदिनमाचामाम्लमेव कुर्वन्ति ॥ ४ ॥
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भगवती वृत्ति
४८९
परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. २ : सू. १४३-१५०
तपश्चरात
पारणगे आयाम पंचसु गह दोसऽभिग्गहो भिक्खे।
इह परिज्ञा-प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छा त्वालापकः, ततोऽसौ यदा कप्पट्ठिया य पइदिण करेंति एमेव आयाम॥४॥
ग्लानीभूतः सन्नुत्थानादि स्वयं कर्तुं न शक्नोति तदा इह सप्तस्वेषणासु मध्ये आद्ययोरग्रह एव, पञ्चसु पुनर्ग्रहः, भणति-उत्थानादि कर्तुमिच्छामि, ततोऽनुपरिहारकस्तूष्णीक तत्राप्येकतरया भक्तमेकतरया च पानकमित्येवं द्वयोरभि- एव तदभिप्रेतं समस्तमपि करोति, आह चग्रहोऽवगन्तव्य इति।
'उद्वेज्ज' निसीएज्जा भिक्खं हिंडेज्ज भंडगं पेहे। ‘एवं छम्मासतवं चरिउं परिहारिगा अणुचरंति।
कुवियपियबंधवस्स व करेइ इयरोवि तुसिणीओ॥१॥ अनुचरगे परिहारियपयट्ठिए जाव छम्मासा॥५॥
तपश्च तस्य ग्रीष्मशिशिरवर्षासु जघन्यादिभेदेन कप्पट्टिओवि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ।
चतुर्थादिद्वादशान्तं पूर्वोक्तमेवेति। 'सुहमसंपरायचरित्तलन्द्धि' अणुपरिहारिगभावं वयंति कप्पट्ठियत्तं च॥६॥
त्ति संपरैति-पर्यटति संसारमेभिरिति सम्परायाः कषायाः एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वण्णिओ कप्पो।
सूक्ष्मा-लोभांशावशेषरूपाः सम्पराया यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायं संखेवओ विसेसो सुत्ता एयस्स णायव्वो॥७॥
शेषं तथैव, एतदपि द्विधा-विशुद्ध्यमानकं सक्लिश्यमानकं कप्पसमत्तीइ तयं जिणकप्पं वा उति गच्छं वा।
च, तत्र विशुद्ध्यमानकं क्षपकोपशमकश्रेणिद्वयमारोहतो भवति पडिवज्जमाणगा पुण जिणस्सगासे पवति॥८॥
१ संक्लिश्यमानकं तूपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानस्येति २। तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व नो य अन्नस्स।
'अहक्खायचरित्तलद्धी' ति यथा-येन प्रकारेण आख्यातंएएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धियं तं तु॥९॥"
अभिहितमकषायतयेत्यर्थः तथैव यत्तद्यथाख्यातं, तदपि अन्यैस्तु व्याख्यातं-परिहारतो मासिकं चतुर्लघ्वादि तपश्चरति द्विविधम्-उपशमकक्षपकश्रेणिभेदात्, शेषं तथैवेति।। यस्तस्य परिहारिकचरित्रलब्धिर्भवतीति, इदं च परिहारतपो ८/१४४. एवं 'चरित्ताचरिते' त्यादौ, 'एगागार' त्ति मूलगुणोत्तरयथा स्यात्तथोच्यते
गुणादीनां तद्भेदानामविवक्षणात् द्वितीयकषायक्षयोपशमलभ्य'नवमस्स तइयवत्थु जहन्न उक्कोस ऊणगा दस उ।
परिणाममात्रस्यैव च विवक्षणाच्चरित्राचरित्रलब्धेरेकाकारसुत्तत्थभिग्गहा पुण दव्वाइ तवो रयणमाती॥१॥'
त्वमवसेयम्। एवं दानलब्ध्यादीनामप्येकाकारत्वं, भेदानामअयमर्थः- यस्य जघन्यतो नवमपूर्वं तृतीयं वस्तु यावद्भवति विवक्षणात॥ उत्कर्षतस्तु दश पूर्वाणि न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतो भवन्ति, ८/१४५. 'बालवीरियलन्द्री' त्यादि, बालस्य-असंयतस्य यद्वीर्यद्रव्यादयश्चाभिग्रहा रत्नावल्यादिना च तपस्तस्य परिहारतपो असंयमयोगेषु प्रवृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या लब्धिश्चारित्रदीयते, तद्दाने च निरुपसर्गार्थं कायोत्सर्गो विधीयते, शुभे च मोहोदयाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च सा तथा, एवमितरे अपि नक्षत्रादौ तत्प्रतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं बूते-यथाऽहं तव यथायोगं वाच्ये, नवरं पण्डितः-संयतो, बालपण्डितस्तु वाचनाचार्यः अयं च गीतार्थः साधुः सहायस्ते, शेषसाधवोऽपि संयतासंयत इति॥ वाच्याः, यथा
८/१४८.'तस्स अलद्धिया णं' ति तस्य ज्ञानस्य अलब्धिकाः 'एस' तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवइ मा य आलवह। अलब्धिमंतः ज्ञानलब्धिरहिता इत्यर्थः । अत्तद्वचिंतगस्स उ वाघाओ भे न कायव्यो॥१॥'
८/१५०. 'आभिणिबोहियनाणे' त्यादि, आभिनिबोधिकज्ञानतथा कथमहमालापादिरहितः संस्तपः करिष्यामीत्येवं बिभ्यत- लब्धिकानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिनो स्तस्य भयापहारः कार्यः, कल्पस्थितश्च तस्यैतत्करोति
नास्त्याभिनिबोधिकज्ञानमिति, मतिज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये 'किइकम्मं च पडिच्छइ परिन्न पडिपुच्छयंपि से देइ।
ज्ञानिनस्ते केवलिनस्ते चैकज्ञानिन एव, ये त्वज्ञानिनसोवि य गुरुमुवचिट्ठइ उदंतमवि पुच्छिओ कहइ॥१॥'
स्तेऽज्ञानद्वयवन्तोऽज्ञानत्रयवन्तो वा, एवं श्रुतेऽपि।
१. एवं षण्मासी तपश्चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति।
अनुचरकाः परिहारिकपदस्थिता भवन्ति यावत्षण्मासाः॥५॥ कल्पस्थितोऽप्येवं षण्मासी तपः करोति। शेषास्त्वनुपरिहारिकभावं कल्पस्थितत्वं च व्रजन्ति ॥६॥ एवमेषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु कल्पो वर्णितः। सोपतो विशेषस्त्वेतस्य सूत्राज्ज्ञातव्यः ।।७।। कल्पसमासौ तं जिनकल्पं वा गच्छं वोषयन्ति। प्रतिपद्यमानकाः पुनर्जिनसकाशे प्रपद्यन्ते ।।८।। तीर्थङ्करसमीपासेवकस्य पार्वे वा अन्यस्य पार्वे न। एतेषां यच्चरणं तत्तु परिहारविशुद्धिकम् ।।९।।
२. नवमस्य तृतीयवस्तु यावज्जघन्यत उत्कृष्टत ऊनानि दश।
सूत्राभ्यां द्रव्यादयोऽभिग्रहाः पुनस्तपो रत्नावल्यादि॥१॥ ३. एष तपः प्रतिपद्यते न किञ्चिदालपिष्यति मा च लीलपध्वं ।
आत्मार्थचिन्तकस्य भवद्भिाघातो न कर्त्तव्यः॥१॥ ४. कृतिकर्म प्रतीच्छति प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छामपि तस्मै ददाति।
सोऽपि च गुरुमुपतिष्ठते उदन्तमपि पृष्टः कथयति ॥१॥ ५. उत्तिष्ठेत् निषीदेत् भिक्षां हिण्डेत भाण्डं प्रेक्षेत।
कुपितप्रियबान्धवस्येव करोति इतरोऽपि तूष्णीकः ॥१॥
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परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २ : सू. १५०-१६५ ४ ९०
भगवती वृत्ति ८/१५१,१५२. ओहिनाणलन्द्री' त्यादि, अवधिज्ञानलब्धि- ८/१६१.'चरित्तलद्धी' त्यादि चरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, तेषां च
कास्त्रिज्ञानाः केवलमनःपर्यायासद्भावे चतुर्जाना वा पञ्च ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि चारित्री। केवलाभावात, अवधिज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते चारित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपर्यववर्जानि चत्वारि द्विज्ञाना मतिश्रुतभावात्, त्रिज्ञाना वा मतिश्रुतमनःपर्यायभावात्, ज्ञानानि भजनया भवन्ति, कथम् ?, असंयतत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं एक ज्ञाना वा केवलभावात्, ये त्वज्ञानिनस्ते व्यज्ञाना तत्त्रयं वा, सिद्धत्वे च केवलज्ञानं, सिद्धानामपि
मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात, व्यज्ञाना वाऽज्ञानत्रयस्यापि भावात्। चरित्रलब्धिशून्यत्वाद् यतस्ते नोचारित्रिणो नोअचारित्रिण इति, ८/१५३-१५४. 'मणपज्जवे त्यादि मनःपर्यवज्ञानलब्धिकास्त्रिज्ञाना ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया।
अवधिकेवलाभावात, चतुर्साना वा केवलस्यैवाभावात्, ८/१६२. 'सामाइए' त्यादि, सामायिकचरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, मनःपर्यवज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते विज्ञाना तेषां च केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, आद्यद्वयभावात, त्रिज्ञाना वाऽऽद्यवयभावात्, एकज्ञाना वा सामायिकचरित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि केवलस्यैव भावात, ये त्वज्ञानिनस्ते व्यज्ञाना भजनया, छेदोपस्थापनीयादिभावेन सिद्धभावेन वा, ये
आद्याज्ञानद्वयभावात्, त्र्यज्ञाना वाऽज्ञानत्रयस्यापि भावात्। त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया। एवं ८/१५५,१५६. केवलनाणे' त्यादि, केवलज्ञानलब्धिका छेदोपस्थापनीयादिष्वपि वाच्यम्, एतदेवाह-एव' मित्यादि,
एकज्ञानिनस्ते च केवलज्ञानिन एव, केवलज्ञानस्यालब्धिकास्तु तत्र छेदोपस्थापनीयादिचरित्रत्रयलब्धयो ज्ञानिन एव, तेषां ये ज्ञानिन-स्तेषामाद्यं ज्ञानद्वयं तत्त्रयं मतिश्रुतावधिज्ञानानि चाद्यानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, तदलब्धयो यथाख्यातमतिश्रुत-मनःपर्यायज्ञानानि वा केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि वा चारित्रलब्धयश्च ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये ज्ञानानि भवन्ति, ये त्वज्ञानिनस्तेषामाद्यमज्ञानद्वयं तत्त्रयं वा त्वज्ञानिनस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैव, यथाख्यातचारित्रलब्धिभवतीत्येवं भजनाऽवसेयेति॥
कानां तु विशेषोऽस्ति अतस्तद्दर्शनायाह--'नवरं अहक्खाये' ८/१५७,१५८. 'अन्नाणलन्द्रियाण' मित्यादि, अज्ञानलब्धिका त्यादि, सामायिकादिचारित्रचतुष्टयलब्धिमतां छदास्थत्वेन
अज्ञानिनस्तेषां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने त्रीणि चत्वार्येव ज्ञानानि भजनया, यथाख्यातचारित्रलब्धिमतां वाऽज्ञानानीत्यर्थः, अज्ञानालब्धिकास्तु ज्ञानिनस्तेषां च पञ्च छास्थेतरभावेन पञ्चापि भजनया भवन्तीति तेषां तथैव ज्ञानानि भजनया पूर्वोपदर्शितया वाच्यानि, 'जहा अन्नाणे' तान्युक्तानीति।। त्यादि, अज्ञानलब्धिकानां त्रीण्यज्ञानानि भजनयोक्तानि ८/१६३. 'चरित्ताचरिते' त्यादौ, 'तस्स अलन्द्रिय' त्ति चरित्रामत्यज्ञानश्रुताज्ञानलब्धिकानामपि तानि तथैव, तथाऽज्ञाना- चरित्रस्यालब्धिकाः श्रावकादन्ये, ते च ये ज्ञानिनस्ते (षां) लब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनयोक्तानि, मत्यज्ञानश्रुता- पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि ज्ञानालब्धिकानामपि पञ्च ज्ञानानि भजनयैव वाच्यानीति। भजनयैव।। 'विभंगे' त्यादि, विभङ्गज्ञानलब्धिकानां तु त्रीण्यज्ञानानि ८/१६४. दाणलद्धी' त्यादि, दानान्तरायक्षयक्षयोपशमाद्दाने दातव्ये नियमात, तदलब्धिकानां तु ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, लब्धिर्येषां ते दानलब्धयः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ये अज्ञानिनां च द्वे अज्ञाने नियमादिति।
ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, केवलज्ञानिनामपि ८/१५९.'दसणलद्धी' त्यादि, 'दर्शनलब्धिकाः' श्रद्धानमात्रलब्धिका दानलब्धियुक्तत्वात्, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि
इत्यर्थः ते च सम्यक्श्रद्धानवन्तो ज्ञानिनस्तदितरे त्वज्ञानिनः, भजनयैव। तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि ८/१६५. दानस्यालब्धिकास्तु सिद्धास्ते च दानान्तराय-क्षयेऽपि भजनयैवेति।
दातव्याभावात् सम्प्रदानासत्त्वादानप्रयोजनाभावाच्च दानालब्धय ८/१६०. 'तस्य अलद्धिया नत्थि' ति तस्य दर्शनस्य येषामलब्धिस्ते उक्तास्ते च नियमात्केवलज्ञानिन इति। लाभभोगोपभोग
न सन्त्येव, सर्वजीवानां रुचिमात्रस्यास्तित्वादिति। वीर्यलब्धीः सेतरा अतिदिशन्नाह-एव मित्यादि, इह 'सम्मइंसणलद्धियाणं' ति सम्यग्दृष्टीनां, 'तस्स अलद्धियाण' चालब्धयः सिद्धानामेवोक्तन्यायादवसेयाः, ननु दानाद्यन्तरायमित्यादि, तस्यालब्धिकानां' सम्यग्दर्शनस्यालब्धिमतां क्षयात्केवलिनां दानादयः सर्वप्रकारेण कस्मान्न भवन्ति ? इति, मिथ्यादृष्टीनां, मिश्रदृष्टीनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, यतो उच्यते, प्रयोजनाभावात्, कृतकृत्या हि ते भगवन्त इति।। मिश्रदृष्टीनामप्यज्ञानमेव, तात्त्विकसद्धोधहेतुत्वाभावान्मिश्र- 'बालवीरियलद्धियाण' मित्यादि, बालवीर्यलब्धयः-असंयताः स्येति। 'मिच्छादसणलद्धियाणं' ति मिथ्यादृष्टीनां, 'तस्स तेषां च ज्ञानिनां त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानिनां च त्रीण्यज्ञानानि अलद्धियाण' मित्यादि, 'तस्यालब्धिकानां' मिथ्यादर्शन- भजनया भवन्ति, तदलब्धिकास्तु संयताः संयतासंयताश्च ते स्यालब्धिमतां सम्यग्दृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च क्रमेण पञ्च च ज्ञानिन एव, एतेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया। ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि च भजनयेति।।
'पंडियवीरिये' त्यादौ, तस्स अलन्द्रियाणं' ति असंयतानां
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २ : सू. १६५-१८० संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः, तत्रासंयतानामाद्यं तत्संवेदका ये ते साकारोपयुक्ताः ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च भजनया, संयतासंयतानां तु ज्ञानत्रयं तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया-स्याद् द्वे स्यात् त्रीणि भजनयैव भवति, सिद्धानां तु केवलज्ञानमेव, मनःपर्यायज्ञानं तु स्याच्चत्वारि स्यादेकं, यच्च स्यादेकं यच्च स्याद्वे इत्याधुच्यते पण्डितवीर्यलब्धिमतामेव भवति नान्येषामत उक्तं 'मणपज्जवे' तल्लब्धिमात्रमङ्गीकृत्य, उपयोगापेक्षया त्वेकदा एकमेव त्यादि, सिद्धानां च पण्डितवीर्यालब्धिकत्वं पण्डितवीर्यवाच्ये ज्ञानमज्ञानं वेति, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैवेति।। प्रत्युपेक्षणाद्यनुष्ठाने प्रवृत्त्यभावात्, 'बालपंडिए' इत्यादौ, तस्स अथ साकारोपयोगभेदापेक्षमाहअलद्धियाणं' ति अश्रावकाणामित्यर्थः ।।
८/१७३. 'आभिणी' त्यादि, 'ओहिनाणसागारे' त्यादि, अवधिज्ञान८/१६६,१६७. 'इंदियलद्धियाण' मित्यादि, इन्द्रियलब्धिका ये साकारोपयुक्ता यथाऽवधिज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः स्यात्
ज्ञानिनस्तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलं तु नास्ति, तेषां त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतावधियोगात् स्याच्चतुर्जानिनो मतिश्रुतावधिकेवलिनामिन्द्रियोपयोगाभावात, ये त्वज्ञानिनस्तेषामज्ञानत्रयं मनःपर्यवयोगात्तथा वाच्याः। 'मणपज्जवे' त्यादि, मनःपर्यवभजनयैवेति, इन्द्रियालब्धिकाः पुनः केवलिन एवेत्येकमेव तेषां ज्ञानसाकारोपयुक्ता यथा मनःपर्यवज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः ज्ञानमिति।
स्यात् त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतमनःपर्यवयोगात् स्याच्चतुर्जानिनः ८/१६८,१६९. 'सोइंदिय' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियलब्धय इन्द्रिय- केवलवर्जज्ञानयोगात्तथा वाच्या इति।।
लब्धिका इव वाच्याः, ते च ये ज्ञानिनस्तेऽकेवलित्वादाद्य- ८/१७४. अणागारोवउत्ता ण' मित्यादि, अविद्यमान आकारो यत्र ज्ञानचतुष्टयवन्तो भजनया भवन्ति, अज्ञानिनस्तु भजनया तदनाकारं-दर्शनं तत्रोपयुक्ताः -तत्संवेदनका ये ते तथा, ते च त्र्यज्ञानाः, श्रोत्रेन्द्रियालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते आद्यद्वि. ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां लब्ध्यपेक्षया पञ्च ज्ञानानि ज्ञानिनः, तेऽपर्याप्तकाः सास्वादनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रियाः, भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव। 'एव' मित्यादि, एकज्ञानिनो वा केवलज्ञानिनः, ते हि श्रोत्रेन्द्रियालब्धिका यथाऽनाकारोपयुक्ता ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चोक्ता एवं, इन्द्रियोपयोगाभावात्, ये त्वज्ञानिनस्ते पुनराद्याज्ञानद्वयवन्त चक्षुर्दर्शनाद्युपयुक्ता अपि, 'नवरं' ति विशेषः पुनरयंइति। 'चविखंदिए' इत्यादि, अयमर्थः-यथा श्रोत्रेन्द्रिय- चक्षुर्दर्शनेतरोपयुक्ताः केवलिनो न भवन्तीति तेषां चत्वारि लब्धिमतां चत्वारि ज्ञानानि भजनया त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव ज्ञानानि भजनयेति॥ तदलब्धिकानां च द्वे ज्ञाने द्वे चाज्ञाने एकं च ज्ञानमुक्तमेवं योगद्वारेचक्षुरिन्द्रियलब्धिकानां घ्राणेन्द्रियलब्धिकानां च तदलब्धिकानां ८/१७६. 'सजोगी ण' मित्यादि, 'जहा सकाझ्य' त्ति प्रागुक्ते च वाच्यं, तत्र चक्षुरिन्द्रियलब्धिका घ्राणेन्द्रियलब्धिकाश्च ये कायद्वारे यथा सकायिका भजनया पञ्चज्ञानास्त्र्यज्ञानापञ्चेन्द्रियास्तेषां केवलवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि श्चोक्तास्तथा सयोगा अपि वाच्याः एवं मनोयोग्यादयोऽपि, चाज्ञानानि भजनयैव, ये तु विकलेन्द्रियाश्चक्षुरिन्द्रियः केवलिनोऽपि मनोयोगादीनां भावात्, तथा मिथ्यादृशां घ्राणेन्द्रियलब्धिकास्तेषां सास्वादनसम्यग्दर्शनभावे आद्यं मनोयोगादिमतामज्ञानत्रयभावाच्च, 'अजोगी जहा सिद्ध' ति ज्ञानद्वयं तदभावे त्वाद्यमेवाज्ञानद्वयं, चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रिया- अयोगिनः केवललक्षणैकज्ञानिन इत्यर्थः ।। लब्धिकास्तु यथायोगं त्रिद्व्येकेन्द्रियाः केवलिनश्च, तत्र लेश्याद्वारेद्वीन्द्रियादीनां सास्वादनभावे आद्यज्ञानद्वयसम्भवः, तदभावे ८/१७७. 'जहा सकाइय' त्ति सलेश्याः सकायिकवद्भजनया त्वाद्याज्ञानद्वयसम्भवः, केवलिनां त्वेकं केवलज्ञानमिति।
पञ्चज्ञानास्त्र्यज्ञानाश्च वाच्याः केवलिनोऽपि शुक्ललेश्या८/१७०,१७१. 'जिभिंदिय' इत्यादौ, 'तस्स अलद्धिय त्ति सम्भवेन सलेश्यत्वात्।
जिह्वालब्धिवर्जिताः, ते च केवलिन एकेन्द्रियाश्चेत्यत ८/१७८. कण्हलेसे' त्यादि, 'जहा सइंदिय त्ति कृष्णआह-'नाणीवी त्यादि, ये ज्ञानिनस्ते नियमात्केवलज्ञानिनः लेश्याश्चतुर्जानिनस्त्र्यज्ञानिनश्च भजनयेत्यर्थः, 'सुक्कलेसा येऽज्ञानिनस्ते नियमाद् व्यज्ञानिनः एकेन्द्रियाणां सास्वादन- जहा सलेस' त्ति पञ्चज्ञानिनो भजनया व्यज्ञानिन-श्चेत्यर्थः । भावतोऽपि सम्यग्दर्शनस्याभावाद विभङ्गाभावाच्चेति। 'अलेस्सा जहा सिन्द्र' त्ति एकज्ञानिन इत्यर्थः ।। 'फासिंदिय' इत्यादि, स्पर्शनन्द्रियलब्धिकाः केवलवर्जज्ञान- कषायद्वारेचतुष्कवन्तो भजनया तथैवाज्ञानत्रयवन्तो वा, स्पर्शनेन्द्रिया- ८/१७९. 'सकसाई जहां सइंदिय' त्ति भजनया केवललब्धिकास्तु केवलिन एव, इन्द्रियलब्ध्यलब्धिमन्तोऽप्येवंविधा वर्जचतुर्जानिनस्त्र्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः। एवेत्यत उक्तं 'जहा इंदिए' इत्यादि।।
८/१८०. 'अकसाईण' मित्यादि, अकषायिणां पञ्च ज्ञानानि उपयोगद्वारे
भजनया, कथम्?, उच्यते, छद्मस्थो वीतरागः केवली ८/१७२. 'सागारोवउत्ते' त्यादि, आकारो-विशेषस्तेन सह यो बोधः चाकषायः, तत्र च छद्मस्थवीतरागस्याद्यं ज्ञानचतुष्कं भजनया
स साकारः, विशेष ग्राहको बोध इत्यर्थः तस्मिन्न-पयुक्ताः भवति, केवलिनस्तु पञ्चममिति।।
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परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २ : सू. १८१-१८५ ४९२
भगवती वृत्ति वेदद्वारे
सत्यमेतत्, किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनयोर्भेदं ८/१८१. 'जहा सइंदिय' त्ति सवेदकाः सेन्द्रियवद्भजनया मतिज्ञानमष्टाविंशतिधोच्यते इति पूज्या व्याचक्षत इति,
केवलवर्जचतुर्जानिनस्त्र्यज्ञानिनश्च वाच्याः, 'अवेदगा जहा 'खेतओ' ति क्षेत्रमाश्रित्याभिनिबोधिकज्ञानविषयक्षेत्रं अकसाइति अवेदका अकषायिवद्भजनया पञ्चज्ञाना वाच्याः, वाऽऽश्रित्य यदाभिनिबोधिकज्ञानं तत्र 'आदेसेणं' ति ओधतः यतोऽनिवृत्तिबादरादयोऽवेदका भवन्ति, तेषु च छद्मस्थानां श्रुतपरिकर्मिततया वा 'सव्वं खेत्तं' ति लोकालोकरूपम्, एवं चत्वारि ज्ञानानि भजनया केवलिनां तु पञ्चममिति ।।
कालतो भावतश्चेति, आह च भाष्यकार:आहारकद्वारे
'आएसोत्ति पगारो ओघादेसेण सव्वदव्वाई। ८/१८२. 'आहारगे' त्यादि, सकषाया भजनया चतुर्ज्ञाना- धम्मत्थिकाइयाई जाणइ न उ सव्वभावेणं॥१॥
स्त्र्यज्ञानाश्चोक्ताः आहारका अप्येवमेव, नवरमाहारकाणां खेत्तं लोगालोग कालं सव्वद्धमहव तिविहंपि। केवलमप्यस्ति, केवलिन आहारकत्वादपीति।
पंचोदइयाईए भावे जन्नेयमेवइयं ॥२॥ ८/१८३. 'अणाहारगा ण मित्यादि, मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेव, आएसोत्ति व सुत्तं सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं।
आद्यं पुनर्ज्ञानत्रय-मज्ञानत्रयं च विग्रहे भवति, केवलं च पसरइ तब्भावणया विणावि सुत्ताणुसारेणं॥३॥' केवलिसमुद्यातशैलेशी-सिद्धावस्थास्वनाहारकाणामपि स्यादत (इति आदेश इति प्रकारः सामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि । उक्तं 'मणपज्जवे' त्यादि।
धर्मास्तिकायादीनि जानाति न तु सर्वभावैः ॥१॥ अथ ज्ञानगोचरद्वारे
लोकालोकं क्षेत्रं सर्वाद्धां कालमथवा त्रिविधमपि। ८/१८४. 'केवइए' त्ति किंपरिणामः ‘विसए' त्ति गोचरो ग्राह्योऽर्थ भावानौदयिकादीन पञ्च यदेतावज्ज्ञेयम्।।२।।
इति यावत्, तं च भेदपरिमाणतस्तावदाह-से इत्यादि, 'सः' यद्वा आदेश इति श्रुतं श्रुतोपलब्धेषु तस्य मतिज्ञानं। आभिनिबोधिकज्ञानविषयस्तद्वाऽऽभिनिबोधिकज्ञानं 'समासतः' प्रसरति तद्भावनया सूत्रानुसारेण विनाऽपि||३||) सङ्केपेण प्रभेदानां भेदेष्वन्तविनेत्यर्थः चतुर्विधश्चतुर्विधं वा, इदं च सूत्रं नन्द्यामिहैव वाचनान्तरे 'न पासइ' त्ति द्रव्यतो-द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्याश्रित्य क्षेत्रतो-द्रव्या- पाठान्तरेणाधीतम्, एवं च नन्दिटीकाकृता व्याख्यातम्धारमाकाशमात्रं वा क्षेत्रमाश्रित्य कालतः-अद्धां द्रव्यपर्याया- 'आदेशः-प्रकारः, स च सामान्यतो विशेषतश्च। तत्र वस्थिति वा समाश्रित्य भावतः-औदयिकादिभावान् द्रव्याणां वा द्रव्यजातिसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि पर्यायान् समाश्रित्य ‘दव्वओ णं ति द्रव्यमाश्रित्याभिनि- जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य बोधिकज्ञानविषयद्रव्यं वाऽऽश्रित्य यदाभिनिबोधिकज्ञानं तत्र देश इत्यादि, न पश्यति सर्वान् धर्मास्तिकायादीन्, शब्दादीस्तु 'आएसेणं' ति आदेश:-प्रकारः सामान्यविशेषरूपस्तत्र योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपीति।' चादेशेन-ओघतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गतसर्वविशेषापेक्षयेति ८/१८५. 'उवउत्ते त्ति' भावश्रुतोपयुक्तो नानुपयुक्तः। स हि भावः, अथवा 'आदेशेन' श्रुतपरिकर्मिततया 'सर्वद्रव्याणि नाभिधानादभिधेयप्रतिपत्तिसमर्थो भवतीति विशेषणमुपातं, धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' विशेषतोऽवज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात्, ‘पासई' त्ति पश्यति अवग्रहेहा- गच्छति, श्रुतज्ञानस्य तत्स्वरूपत्वात्, पश्यति च श्रुतानुवर्त्तिना पेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयोर्दर्शनत्वात्, आह च भाष्यकार:- मानसेन अचक्षुर्दशनन, सर्वद्रव्याणि चाभिलाप्यान्येव जानाति। 'नाणमवायधिईओ दंसणमिटुं जहोग्गहेहाओ।
पश्यति चाभिन्नदशपूर्वधरादिः श्रुतकेवली, तदारतस्तु भजना, तह तत्तरुई सम्मं रोइज्जइजेण तं णाणं॥१॥
सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञातव्येति, वृद्धैः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुक्तंतथा-जं सामन्नग्गहणं दंसणमेयं विसेसियं नाणं। (अपायधारणे ननु पश्यतीति कथं ?, कथं च न, सकलगोचरदर्शनायोगात् ?, ज्ञानमवग्रहेहे दर्शनं यथेष्टं तथा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं येन अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतज्ञानपश्यत्तायाः प्रतिपादितत्वादरोच्यते तज्ज्ञानम् ॥१॥ यत्सामान्यग्रहणं दर्शनमेतद् विशेषितं नुत्तरविमानादीनां चालेख्यकरणात् सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यज्ञानम्।) अवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे अवायधारणे च करणानुपपत्तेः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयमिति। अन्ये तु 'न विशेषग्रहणस्वभावे इति, नन्वष्टाविंशतिभेदमानमाभि- पासइ' त्ति पठन्तीति, ननु 'भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते निबोधिकज्ञानमुच्यते, यदाह-'आभिणिबोहियनाणे अट्ठावीसं सब्वभावे जाणइ' इति यदुक्तमिह तत् 'सुए चरिते न पज्जवा हवंति पयडीओ' ति (आभिनिबोधिकज्ञाने प्रकृतयोऽष्टा- सव्वे' त्ति (श्रुते चारित्रे न सर्वे पर्यायाः (अभिलाप्यापेक्षया)।) विंशतिर्भवन्ति) इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतयाऽ- अनेन च सह कथं न विरुध्यते?, उच्यते, इह सूत्रे सर्वग्रहणेन वायधारणयोदशविधं मतिज्ञानं प्राप्तं, तथा श्रोत्रादिभेदेनैव पञ्चौदयिकादयो भावा गृह्यन्ते, तांश्च सर्वान् जातितो जानाति, षड्भेदतयाऽर्थावग्रहईहयोर्व्यञ्जनावग्रहस्य च चतुर्विधतया अथवा यद्यप्यभिलाप्यानां भावानामनन्तभाग एवं श्रुतनिबद्धषोडशविधं चक्षुरादिदर्शन मिति प्राप्तमिति कथं न विरोधः? स्तथापि प्रसङ्गानुप्रसङ्गतः सर्वेऽप्यभिलाप्याः श्रुतविषया
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भगवती वृत्ति
४९३
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २ : सू. १८५-१८७
उच्यन्ते अतस्तदपेक्षया सर्वभावान् जानातीत्युक्तम्, अनभिलाप्यभावापेक्षया तु 'सुए चरित्ते न पज्जवा सव्वे'
इत्युक्तमिति न विरोधः।। ८/१८६. दव्वओ ण' मित्यादि, अवधिज्ञानी रूपिद्रव्याणि पुद्गल
द्रव्याणीत्यर्थः, तानि च जघन्येनानन्तानि तैजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवर्तीनि। यत उक्तं-'तेयाभासादव्वाण अंतरा एत्थ लभति पट्ठवओ' ति, (अत्र प्रस्थापकस्तेजोभाषावर्गणयोरन्तरालद्रव्याणि जानाति) उत्कृष्टतस्तु सर्वबादरसूक्ष्मभेदभिन्नानि जानाति विशेषाकारेण, ज्ञानत्वात्तस्य, पश्यति सामान्याकारणावधिज्ञानिनोऽवधिदर्शनस्यावश्यम्भावात् । नन्वादौ दर्शनं ततो ज्ञानमिति क्रमस्तत्किमर्थमनं परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् ?, अत्रोच्यते, इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादौ जानातीत्युक्तम्। अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभङ्गसाधारणत्वेना-प्रधानत्वात् पश्चात्पश्यतीति, अथवा सर्वा एव लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते लब्धिश्चावधिज्ञानमिति साकारोपयोगोपयुक्तस्यावधिज्ञानलब्धिर्जायते। इत्येतस्यार्थस्य ज्ञापनार्थं साकारोपयोगाभिधायकं जानातीति प्रथममुक्तं ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति। 'जहा नंदीए' ति एवं च तत्रेदं सूत्रं-'खेत्तओ णं
ओहिणाणी जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइ-भागं जाणइ पासइ' इत्यादि, व्याख्या पुनरेवं क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाङ्गलस्यासङ्ख्येयभागमुत्कृष्टतोऽसङ्ख्येयान्यलोके शक्तिमपेक्ष्य लोकप्रमाणानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालतोऽवधिज्ञानी जघन्येनावलिकाया असलयेयं भागमुत्कृष्ट-तोऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरतीता अनागताश्च जानाति पश्यति, तद्गतरूपिद्रव्यावगमात्, अथ कियडूरं यावदिह नन्दीसूत्र वाच्यम् ? इत्याह-'जाव भावओ' त्ति भावाधिकार यावदित्यर्थः, स चैवं-भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनानन्तान् भावानाधारद्रव्यानन्तत्वाज्जानाति पश्यति, न तु प्रतिद्रव्यमिति। उत्कृष्टतोऽप्यनन्तान् भावान् जानाति पश्यति च, तेऽपि
चोत्कृष्टपदिनः सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति। ८/१८७. 'उज्जुमई' ति मननं मतिः संवेदनमित्यर्थः ऋज्वी
सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्वसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, अथवा ऋज्वी मतिर्यस्यासावृजुमति-स्तद्वानेव गृह्यते, 'अणंते' त्ति अनन्तान अपरिमितान् 'अणंतपएसिए' त्ति अनन्तपरमाण्वात्मकान् 'जहा नंदीए' त्ति, तत्र चेदं सूत्रमेवं-खंधे जाणइ पासइ, त्ति तत्र 'स्कन्धान्' विशिष्टैकपरिणामपरिणतान्, सन्जिभिः पर्याप्तकैः प्राणिभिरर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तवर्तिभिर्मनस्त्वेन परिणामितानित्यर्थः, 'जाणइ' त्ति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयोपशमस्य पीत्वात्साक्षात्कारेण विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदात् जानातीत्युच्यते, तदालोचितं पुनरर्थं घटादिलक्षणं मनःपर्यायज्ञानं स्वरूपाध्यक्षतो न जानाति किन्तु
तत्परिणामान्यथाऽ-नुपपत्त्याऽतः पश्यतीत्युच्यते। उक्तञ्च भाष्यकारेण--'जाणइ बज्झेऽणुमाणाओ' ति, (बाह्याननु मानाज्जानाति) इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं, यतो मूर्त्तद्रव्यालम्बनमेवेदं, मन्तारश्चामूर्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्येरन, न च तदनेन साक्षात् कर्तुं शक्यते, तथा चतुर्विधं च चक्षुर्दर्शनादि दर्शनमुक्तमतो भिन्ना-लम्बनमेवेदमवसेयं, तत्र च दर्शनसम्भवात्पश्यतीत्यपि न दृष्टम्। एकप्रमात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाच्चोपन्यस्तमित्यलमतिविस्तरेण, 'ते चेव उ विउलमई अब्भहियतराए वितिमिरतराए विसुद्धतराए जाणइ पासइ' तानेव स्कन्धान् विपुलाविशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिःघटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिः, अथवा विपुला मतिर्यस्यासौ विपुलमतिस्तद्वानेव, 'अभ्यधिकतरकान्' ऋजुमतिदृष्टस्कन्धापेक्षया बहुतरान् द्रव्यार्थतया वर्णादिभिश्च वितिमिरतरा इव-अतिशयेन विगतान्धकारा इव ये ते वितिमिरतरास्त एव वितिमिरतरका अतस्तान्, अत एव 'विशुद्धतरकान्' विस्पष्टतरकान् जानाति पश्यति च, तथा 'खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्ठिल्ले खुड्डागपयरे उढे जाव जोइसस्स उवरिमतले तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेते अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ' तत्र क्षेत्रत ऋजुमतिरधः-अधस्ताद् यावदमुष्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपरिमाधस्त्यान् क्षुल्लकातरान् तावत्, किं?-मनोगतान भावान् जानाति पश्यतीति योगः, तत्र रुचकाभिधानात्तिर्यग्लोकमध्यादधो यावन्नव योजनशतानि तावदमुष्या रत्नप्रभाया उपरिमाः क्षुल्लकप्रतराः, क्षुल्लकत्वं च तेषामधोलोकप्रतरापेक्षया, तेभ्योऽपि येऽधस्तादधोलोकग्रामान यावत्तेऽधस्तनाः क्षुल्लकप्रतरा ऊर्ध्वं यावज्ज्योतिषश्च-ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं। 'तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते' त्ति तिर्य यावदन्तर्मनुष्यक्षेत्रं मनुष्यक्षेत्रस्यान्तं यावदित्यर्थः, तदेव विभागत आह-'अड्डाइज्जेसु' इत्यादि, तथा 'तं चेव विउलमई अड्डाइज्जेहिं अंगुलेहिं अब्भहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ' त्ति तत्र 'तं चेव' त्ति इह क्षेत्राधिकारस्य प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारं क्षेत्रमभिगृह्यते। तत्राभ्यधिकतर-कमायामविष्कम्भावाश्रित्य विपुलतरकं बाहल्यमाश्रित्य 'विशुद्धतरक' निर्मलतरकं वितिमिरतरकं तु तिमिरकल्पत-दावरणस्य विशिष्टतरक्षयोपशमसद्भावादिति, तथा-'कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणवि पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ अईयं अणागयं च, तं चैव विपुलमई विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइ' कियन्नन्दीसूत्रमिहाध्येयम् ? इत्याह-'जाव भावओ' ति भावसूत्रं
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. २ : सू. १८७-२०४
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भगवती वृत्ति
पात
यावदित्यर्थः, तच्चैवं-'भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे जाणइ नाणी-आभिणिबोहियनाणी' त्यादि, अयमर्थः-'एव' पासइ सव्वभावाणं अणंतं भागं जाणइ पासइ, तं चेव विपुलमई मित्यनन्तरोक्तेन 'आभिणिबोहिए' त्यादिना सूत्रक्रमेण विसुद्धतराग वितिमिरतरागं जाणइ पासइ' ति।
ज्ञान्याभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञान्यवधिज्ञानिमनःपर्यवज्ञानि८/१८८. 'केवलणाणस्से' त्यादि, ‘एवं जाब भावओ' ति एवम्' केवलज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभङ्गज्ञानिनां 'संचिट्ठणे'
उक्तन्यायेन यावद्भावत इत्यादि तावत्केवल-विषयाभिधायि ति अवस्थितिकालो यथा कायस्थितौ प्रज्ञापनाया अष्टादशे नन्दीसूत्रमिहाध्येयमित्यर्थः, तच्चैवं–'खेत्तओ णं केवलनाणी पदेऽभिहितस्तथा वाच्यः, तत्र ज्ञानिनां पूर्वमुक्त सव्वखेत्तं जाणइ पासइ' इह च धर्मास्ति-कायादिसर्व- एवावस्थितिकालः, यच्च पूर्वमुक्तस्याप्यतिदेशतः पुनर्भणनं द्रव्यग्रहणेनाकाशद्रव्यस्य ग्रहणेऽपि यत्पुनरुपादानं तत्तस्य तदेकप्रकरणपतितत्वादित्यवसेयम्, आभिनिबोधिकज्ञानादिद्वयस्य क्षेत्रत्वेन रूढत्वादिति। 'कालओ णं केवलणाणी सव्वं कालं तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकाणि षट्षष्टिः
जाणइ पासइ, भावओ णं केवली सव्वभावे जाणइ पासइ ।। सागरोपमाणि, अवधिज्ञानिनामप्येवं, नवरं जघन्यतो विशेषः, ८/१८९. 'मइअन्नाणस्से' त्यादि, मइअन्नाणपरिगयाई' ति स चायम्-'ओहिनाणी जहन्नेणं एक्कं समयं कथं?, यदा
मत्यज्ञानेन-मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहादिनौत्पत्तिक्यादिना च विभङ्गज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत्प्रथमसमय एव परिगतानि-विषयीकृतानि यानि तानि तथा, जानात्यपायादिना विभङ्गमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा पश्यत्यवग्रहादिना, यावत्करणादिदं दृश्य-खेत्तओ णं एकं समयमवधिर्भवतीत्युच्यते। मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं ८/१९६. 'मणपज्जवनाणी णं भंते! पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं एक्कं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयं कालं जाणइ पासइ ति।
समयं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी,' कथं ?, ८/१९०. 'सुयअन्नाणे' त्यादि, 'सुयअन्नाणपरिगयाई' ति संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्त्तमानस्य मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नं तत
श्रुताज्ञानेन-मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतेन सम्यकश्रुतेन लौकिकश्रुतेन उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं चेत्येवमेकं समयं, तथा कुप्रावचनिकश्रुतेन वा यानि परिगतानि-विषयीकृतानि तानि चरणकाल उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी, तत्प्रतिपत्तिसमनन्तरमेव तथा 'आघवेइ' त्ति आग्राहयति अर्थापयति वा आख्यापयति वा च यदा मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नमाजन्म चानुवृत्तं तदा भवति प्रत्याययतीत्यर्थः 'प्रज्ञापयति' भेदतः कथयति 'प्ररूपयति' मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति। उपपत्तितः कथयतीति, वाचनान्तरे पुनरिदमधिक- ८/१९७. केवलनाणी णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपज्जवसिए। मवलोक्यते-'दंसेति निदंसेति उवदंसेति' त्ति तत्र च दर्शयति ८/१९८. अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी णं पुच्छा, गोयमा! उपमामात्रतस्तच्च यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निदर्शयति अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य तिविहे पन्नत्ते, तं जहा-- हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्शयति उपनयनिगमनाभ्यां मतान्तर- अणाइए वा अपज्जवसिए अभव्यानां १ अणाइए वा दर्शनन वेति।
सपज्जवसिए भव्यानां २ साइए वा सपज्जवसिए प्रतिपतित८/१९१. 'दव्वओ णं विभंगनाणी' त्यादौ 'जाणइ' त्ति विभङ्गज्ञानेन सम्यग्दर्शनानां ३, 'तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से 'पासई त्ति अवधिदर्शननेति ।।
जहन्नेणं अंतोमुहत्तं सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तमुहर्लोपरि अथ कालद्वारे
सम्यक्त्वप्रतिपत्तौ, 'उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंता ८/१९२-१९५. 'साइए' इत्यादि, इहाद्यः केवली द्वितीयस्तु उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेतओ अवड्ढे
मत्यादिमान। तत्राद्यस्य साद्यपर्यवसितेति शब्दत एवं कालः पोग्गलपरियट्टे देसूणं' सम्यक्त्वाद्-भ्रष्टस्य वनस्पत्यादिप्रतीयत इति। द्वितीयस्यैव तं जघन्येतरं भेदमुपदर्शयितु- ध्वनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरतिवाह्य पुनः प्राप्तसम्यरमिदमाह-'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि, तत्र च 'जहन्नेणं दर्शनस्येति। अंतोमुहूर्त' ति आद्यं ज्ञानद्वयमाश्रित्योक्तं, तस्यैव जघन्य- ८/१९९. 'विभंगनाणी णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं तोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रत्वात, तथा 'उक्कोसेणं छावढेि सागरोबमाई समयं' उत्पत्तिसमयानन्तरमेव प्रतिपाते। 'उक्कोसेणं तेनीसं साइरेगाई' त्ति यदुक्तं तदाद्यं ज्ञानत्रयमाश्रित्य, तस्य हि सागरोवमाई देसूणपुव्वकोडिअब्भहियाई देशोनां पूर्वकोटिं उत्कर्षेणैतावत्येव स्थितिः, सा चैवं भवति
विभङ्गितया मनुष्येषु जीवित्वाऽप्रतिष्ठानादावुत्पन्नस्येति।। 'दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नच्चुए अहव ताई।
अन्तरद्वारेअइरेगं नरभवियं णाणाजीवाण सव्वद्धं ॥१॥
८/२००-२०४. 'अंतरं सव्वं जहा जीवाभिगमे' त्ति पञ्चानां ज्ञानानां (विजयादिषु द्विरच्युते त्रिर्गतस्य अथ तानि नरभविकातिरेकाणि बयाणां चाज्ञानानामन्तरं सर्वं यथा जीवाभिगमे तथा वाच्यं, नानाजीवाणां सर्वाद्धां।।१।।) 'आभिणिबोहिये त्यादि तच्चैवम्-आभिणिबोहियणाणिस्स णं भंते! अंतरं कालओ सूचामात्रम, एवं चैतद्रष्टव्यम्-'आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणतं आभिणिबोहियनाणित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? ति ‘एवं कालं जाव अवर्ल्ड पोग्गलपरियट्ट देसूणं, सुयनाणिओहिनाणि
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. २ : सू. २०४-२०९ मणपज्जवनाणीण एवं चेव केवलनाणिस्स पुच्छा। गोयमा! विभङ्गज्ञानिभ्योऽनन्तगुणाः, सिद्धानामेकेन्द्रियवर्जसर्वजीवनत्थि अंतरं मइअन्नाणिस्स सुयअन्नाणिस्स य पुच्छा। गोयमा ! भ्योऽनन्तगुणत्वात्, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चान्योऽन्यं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं छावढेि सागरोवमाइं साइरेगाई। तुल्याः, केवलज्ञानिभ्यस्त्वनन्तगुणाः, वनस्पतिष्वपि तेषां विभंगनाणिस्स, पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं भावात्, तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वादिति।। उक्कोसेणं वणस्सइकालो'||
अथ पर्यायद्वारेअल्पबहुत्वद्वारे--'अप्पाबहगाणि तिन्नि जहा बहुवत्तव्वयाए' ति ८/२०८. 'केवड्या' इत्यादि, आभिनिबोधिकज्ञानस्य पर्यवा:अल्पबहुत्वानि त्रीणि ज्ञानिनां परस्परेणाज्ञानिनां च विशेषधर्मा आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः ज्ञान्यज्ञानिनां च यथाऽल्पबहुत्ववक्तव्यतायां प्रज्ञापना- स्वपरपर्यायभेदात्, तत्र येऽवग्रहादयो मतिविशेषाः सम्बन्धिन्यामभिहितानि तथा वाच्यानीति, तानि चैवम्
क्षयोपशमवैचित्र्यात्ते स्वपर्यायास्ते चानन्तगुणाः कथम् ?, ८/२०५.२०७. 'एएसि णं भंते! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं ५ एकस्मादवग्रहादेरन्योऽवग्रहादिरनन्तभागवृद्ध्या विशुद्धः १
कयरे २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, अन्यस्त्वसङ्ख्येयभागवृद्ध्या २ अपरः सद्ध्येयभागवृद्ध्या ३ गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी ओहिनाणी अन्यतरः सङ्ख्येयगुणवृन्ळ्या ४ तदन्योऽसद्ध्येयगुणवृद्ध्या ५ असंखेज्जगुणा आभिणि-बोहियनाणी सुयनाणी दोवि तुल्ला अपरस्त्वनन्तगुणवृद्ध्या ६ इति, एवं च समयातस्य विसेसाहिया केवलनाणी अणंतगुणा' इत्येकम् १। एएसि णं सङ्ख्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चासङ्ग्यातभेदत्वादनन्तस्य भंते! जीवाणं मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हितो अप्णा वा बया चानन्तभेदत्वादनन्ता विशेषा भवन्ति, अथवा तज्ज्ञेयस्यावा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा नन्तत्वात् प्रतिज्ञेयं च तस्य भिद्यमानत्वात् अथवा विभंगणाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला अनंतगुणा' मतिज्ञानमविभागपरिच्छेदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनन्तखण्ड इति द्वितीयम्। 'एएसि णं भंते! जीवाणं भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यवाः, तथा ये पदार्थान्तरपर्यायास्ते आभिणिबोहियनाणीणं ५ मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हिंतो जाव तस्य परपर्यायास्ते च स्वपर्यायभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तविसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी गुणत्वादिति, ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति न व्यपदेष्टुं
ओहिनाणी असंखेज्जगुणा आभिणि-बोहियनाणी सुयनाणी य युक्तं, परसम्बन्धित्वात्।। दोवि तुल्ला विसेसाहिया विभंगनाणी असंखेजगुणा अथ तस्य ते तदा न परपर्यायास्ते व्यपदेष्टव्याः स्वसम्बन्धिकेवलनाणी अनंतगुणा मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला त्वादिति, अत्रोच्यते, यस्मात्तत्रासम्बन्द्रास्ते तस्मानेषां अणंतगुण' ति, तत्र ज्ञानिसूत्रे स्तोका मनःपर्याय-ज्ञानिनो, परपर्यायव्यपदेशः, यस्माच्च ते परित्यज्यमानत्वेन तथा यस्मादृद्धिप्राप्तादिसंयतस्यैव तद्भवति, अवधिज्ञानिन-स्तु स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एते इत्येवं विशेषणहेतुत्वेन च चतसृष्वपि गतिषु सन्तीति तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, तस्मिन्नुपयुज्यन्ते तस्मात्तस्य पर्यवा इति व्यपदिश्यन्ते, आमिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योऽन्यं तुल्याः, यथाऽसम्बद्धमपि धनं स्वधनं उपयुज्यमानत्वादिति, आह चअवधिज्ञानिभ्यस्तु विशेषाधिकाः, यतस्तेऽवधिज्ञानिनोऽपि 'जइ ते परपज्जाया न तस्स अह तस्स न परपज्जाया। मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवधिमनःपर्यायाज्ञानिनोऽपि अवध्यादि- (आचार्य आह)रहिता अपि पञ्चेन्द्रिया भवन्ति सास्वादनसम्यग्दर्शनसद्भावे जं तंमि असंबद्धा तो परपज्जायववएसो॥१॥ विकलेन्द्रिया अपि च मतिश्रुतज्ञानिनो लभ्यन्त इति, चायसपज्जायविसेसणाइणा तस्स जमुवजुज्जंति। केवलज्ञानिनस्त्वनन्तगुणाः, सिद्धानां सर्वज्ञानिभ्योऽनन्त- सधणमिवासंबद्ध हवंति तो पज्जवा तस्स॥२॥' त्ति। गुणत्वात्। अज्ञानिसूत्रे तु विभङ्गज्ञानिनः स्तोकाः, यस्मात् (यदि ते परपर्यायास्तस्य न अथ तस्य न परपर्यायाः । पञ्चेन्द्रिया एव ते भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणा मत्यज्ञानिनः यत्तस्मिन्नसम्बद्धा ततः परपर्यायव्यपदेशः॥१॥ तस्य श्रुताज्ञानिनः, यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति त्यागस्वपर्यायविशेषणत्वादिना यदुपयुज्यन्ते ततः तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः, परस्परतश्च तुल्याः। तथा मिश्रसूत्रे स्वधनमिवासम्बद्धमपि तस्य पर्याया भवन्ति।।२।।) स्तोका मनःपर्यायज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनस्तु तेभ्योऽ- ८/२०९. केवइया णं भंते! सुयणाणे' त्यादौ, ‘एवं चेव' त्ति अनन्ताः सङ्ग्येयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योऽन्यं श्रुतज्ञानपर्यायाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, ते च स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च, तुल्याः प्राक्तनेभ्यश्च विशेषाधिकाः, इह युक्तिः पूर्वोक्तैव, तत्र स्वपर्याया ये श्रुतज्ञानस्य स्वतोऽक्षरश्रुतादयो भेदास्ते आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्गज्ञानिनोऽसङ्ख्येयगुणाः चानन्ताः क्षयोपशमवैचित्र्यविषयानन्त्याभ्यां श्रुतानुसारिणां कथम् ?, उच्यते, यतः सम्यग्दृष्टिभ्यः सुरनारकेभ्यो मिथ्या- बोधानामनन्तत्वात् अविभागपरिच्छेदानन्त्याच्च, परपर्यायादृष्टयस्तेऽसङ्ख्येयगुणा उक्तास्तेन विभङ्गज्ञानिन आभिनि- स्त्वनन्ताः सर्वभावानां प्रतीता एव, अथवा श्रुतं-ग्रन्थानुसारि बोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्योऽसङ्घयेयगुणाः, केवलज्ञानिनस्तु ज्ञानं श्रुतज्ञानं, श्रुतग्रन्थाश्चाक्षरात्मकः, अक्षराणि चाकारादीनि,
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परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. २,३ : सू. २०९-२२१
भगवती वृत्ति
तेषां चैकैकमक्षरं यथायोगमुदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् सानुना- बहुतमविषयत्वात्। तथाहि-विभङ्गज्ञानमूद्धर्वाध उपरिमसिकनिरनुनासिकभेदात् अल्पप्रयत्नमहाप्रयत्नभेदादिभिश्च ग्रैवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यन्ते क्षेत्रे तिर्यक् चासङ्ख्यातसंयुक्तसंयोगासंयुक्तसंयोगभेदाद् व्यादिसंयोगभेदादभि- द्वीपसमुद्ररूपे क्षेत्रे यानि रूपिद्रव्याणि तानि कानिचिज्जानाति धेयानन्त्याच्च भिद्यमानमनन्तभेदं भवति, ते च तस्य कांश्चित्तत्पर्यायांश्च, तानि च मनःपर्यायज्ञानविषयापेक्षयाडस्वपर्यायाः, परपर्यायाश्चान्येऽनन्ता एव, एवं चानन्तपर्याय नन्तगुणानीति, तेभ्योऽवधिज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, अवधेः तत्, आह च
सकलरूपिद्रव्यप्रतिद्रव्यासङ्ख्यातपर्यायविषयत्वेन विभङ्गापेक्षया 'एक्केक्कमक्खरं पुण सपरपज्जायभेयओ भिन्नं ।
अनन्तगुणविषयत्वात्, तेभ्योऽपि श्रुताज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः तं सव्वदव्वपज्जायरासिमाणं मुणेयव्वं ॥१॥
श्रुताज्ञानस्य श्रुतज्ञानवदोघादेशेन समस्तमू मूर्त्तद्रव्यसर्वजे लब्भइ केवलो से सवन्नसहिओ य पज्जवेऽगारो।
पर्यायविषयत्वेनावधिज्ञानापेक्षयाऽनन्त-गुणविषयत्वात्, तेभ्यः ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जवा तस्स ॥२॥'त्ति
श्रुतज्ञानपर्यवा विशेषाधिकाः, केषाञ्चित् श्रुताज्ञानाविषयी(तद् एकैकमक्षरं स्वपर्यायभेदतो भिन्नं तत् पुनः सर्वद्रव्य- कृतपर्यायाणां विषयीकरणाद्, यतो ज्ञानत्वेन स्पष्टावभासं तत् पर्यायराशिप्रमाणं ज्ञातव्यम्॥१॥ यान पर्यवान् लभते तेभ्योऽपि मत्यज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, यतः श्रुतज्ञानकेवलोऽकारः सवर्णसहितश्चाथ ते तस्य स्वपर्यायाः मभिलाप्यवस्तुविषयमेव, मत्यज्ञानं तु तदनन्तगुणानशेषास्तस्य परपर्यायाः॥२॥) एवं चाक्षरात्मक- भिलाप्यवस्तुविषयमपीति। ततोऽपि मतिज्ञानपर्यवा
त्वेनाक्षरपर्यायोपेतत्वादनन्ताः श्रुतज्ञानस्य पर्याया इति।। विशेषाधिकाः, केषाञ्चिदपि मत्यज्ञानाविषयीकृतभावानां ८/२१०,२११. 'एवं जाव' त्ति करणादिदं दृश्यं-'केवइया णं भंते! विषयीकरणात, तद्धि मत्यज्ञानापेक्षया स्फुटतरमिति, ततोऽपि
ओहिनाणपज्जवा पन्नत्ता?, गोयमा! अणंता ओहिनाणपज्जवा केवलज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, सर्वाद्धाभाविनां समस्तद्रव्यपन्नत्ता। केवइया णं भंते! मणपज्जवनाणपज्जवा पन्नत्ता?, पर्यायाणामनन्यसाधारणावभासनादिति।। गोयमा! अणंता मणपज्जवनाणपज्जवा पण्णत्ता। केवइया णं
अष्टमशते द्वितीयः॥८-२॥ भंते केवलनाणपज्जवा पन्नत्ता?, गोयमा! अणंता केवलनाणपज्जवा पन्नत्ता' इति, तत्रावधिज्ञानस्य स्वपर्याया
तृतीय उद्देशकः येऽवधिज्ञानभेदाः भवप्रत्ययक्षायोपशमिकभेदात् नारकतिर्यग्मनुष्यदेवरूपतत्स्वामिभेदाद् असङ्ख्यातभेदतद्विषयभूतक्षेत्र
अनन्तरमाभिनिबोधिकादिकं ज्ञानं पर्यवतः प्ररूपितं, तेन च कालभेदाद् अनन्तभेदतद्विषयद्रव्यपर्यायभेदादविभाग
वृक्षादयोऽर्था ज्ञायन्तेऽतस्तृतीयोद्देशके वृक्षविशेषानाहपलिच्छेदाच्च ते चैवमनन्ता इति. मनःपर्यायज्ञानस्य ८/२१६-२२१. 'केई' त्यादि, 'संखेज्जजीविय' त्ति सङ्ग्याता जीवा केवलज्ञानस्य च स्वपर्याया ये स्वाम्यादिभेदेन स्वगता
येषु सन्ति ते सङ्ख्यातजीविकाः, एवमन्यदपि पदद्वयं, 'जहा विशेष्यास्ते चानन्ता अनन्तद्रव्यपर्यायपरिच्छेदा
पन्नवणाए' ति यथा प्रज्ञापनायां तथाऽवेदं सूत्रमध्येयं, तत्र पेक्षयाऽविभागपलिच्छेदापेक्षया वेति, एवं मत्यज्ञानादित्रयेऽ
चैवमेतत्प्यनन्तपर्यायत्वमूह्यमिति। (ग्रन्थाग्रम् ८०००)।
'ताले तमाले तक्कलि तेतलि साले य सालकल्लाणे। अथ पर्यवाणामेवाल्पबहुत्वनिरूपणायाह
सरले जायइ केयइ कंदलि तह चम्मरुक्खे य॥१॥ ८/२१२-२१४. 'एएसि ण' मित्यादि, इह च स्वपर्यायापेक्षयै
भुयरुक्खे हिंगुरुक्खे लवंगरुक्खे य होइ बोद्धव्वे । वैषामल्पबहुत्वमवसेयं, स्वपरपर्यायापेक्षया तु सर्वेषां तुल्य
पूयफली खज्जूरी बोद्धव्वा नालिएरी य॥२॥' पर्यायत्वादिति, तत्र सर्वस्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यायास्तस्य
'जे यावन्ने तहप्पगारे' ति ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा वृक्षविशेषास्ते मनोमात्रविषयत्वात्, तेभ्योऽवधिज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः,
सङ्ग्यातजीविका इति प्रक्रमः। 'एगट्ठिया य' ति एकमस्थिकंमनःपर्यायज्ञानापेक्षयाऽवधिज्ञानस्य द्रव्यपर्यायतोऽनन्तगुण
फलमध्ये बीजं येषां ते एकास्थिकाः ‘बहुीयगा य' ति बहूनि विषयत्वात्. तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्याया अनन्तगुणा, ततस्तस्य
बीजानि फलमध्ये येषां ते बहबीजकाः--अनेकास्थिकाः 'जहा रूप्यरूपिद्रव्यविषयत्वेनानन्तगुणविषयत्वात्, ततोऽप्याभिनि
पन्नवणापए' ति यथा प्रज्ञापनाख्ये प्रज्ञापनाप्रथमपदे तथाऽत्रेदं बोधिकज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्याभिलाप्यान
सूत्रमध्येयं, तच्चैवंभिलाप्यद्रव्यादिविषयत्वेनानन्तगुणविषयत्वात्, ततः केवल
'निबंबजंबुकोसंबसालअंकोल्लपीलुसलूया। ज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, सर्वद्रव्य-पर्यायविषयत्वात्तस्येति।
सल्लइमोयइमालुय बउलपलासे करंजे य॥१॥' एवमज्ञानसूत्रेऽप्यल्पबहुत्वकारणं सूत्रानुसारेणोहनीयं, मिश्रसूत्रे
इत्यादि। तथा से किं तं बहबीयगा?, बहबीयगा अणेगविहा तु स्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यवाः, इहोपपत्तिः प्राग्वत्, तेभ्यो
पण्णत्ता, तं जहा-- विभङ्गज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, मनःपर्यायज्ञानापेक्षया विभङ्गस्य
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५:श.८ : उ. ३,४ : सू. २२१-२२८
अत्थियतेंदुकविद्वे अंबाडगमाउलुंगबिल्ले य।
चरमासौ, तथा यदि तस्या बाह्यतोऽन्या पृथिवी स्यात्तदा तस्या आमलगफणसदाडिम आसोडे उंबरवडे य॥१॥'
अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमाऽसाविति, अयं इत्यादि। अन्तिमं पुनरिदं सूत्रमत्र-'एएसिं मूलावि च वाक्यार्थोऽत्र-किमियं रत्नप्रभा पश्चिमा उत मध्यमा? इति, असंखेज्जजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, तदेतद्वितयमपि यथा न संभवति तथोक्तम्, अथ 'नो चरिमाई पना पत्तेयजीविया पुप्फा अणेगजीविया फला बहुबीयग' त्ति, नो अचरिमाईति कथं?, यदा तस्याश्चरमव्यपदेशोऽपि नास्ति एतदन्तं चेदं वाच्यमिति दर्शयन्नाह-'जावे' त्यादि।
तदा चरमाणीति कथं भविष्यति?, एवमचरमाण्यपि, तथा 'नो अथ जीवाधिकारादिदमाह
चरिमंतपएसा नो अचरिमंतपएस' त्ति, अत्रापि चरमत्वस्या८/२२२-२२३. 'अहे' त्यादि, 'कुम्मे' त्ति 'कूर्मः' कच्छपः चरमत्वस्य चाभावात्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यभाव एवेत्यत
'कुम्मावलिय' त्ति 'कूर्मावलिका' कच्छपपङ्क्तिः 'गोहे' त्ति उक्तं-नो चरिमान्तप्रदेशा नो अचरिमान्तप्रदेशा रत्नप्रभा इति, गोधा सरीसृपविशेषः 'जं अंतर' न्ति यान्यन्तरालानि 'तं किं तर्हि 'नियमात्' नियमनाचरमं च चरमाणि च, एतदुक्तं अंतरे' ति तान्यन्तराणि 'कलिंचेण व' त्ति क्षुद्रकाष्ठरूपेण भवति-अवश्यंतयेयं केवलभङ्गवाच्या न भवति, अवयवावयवि. 'आमुसमाणे व' ति आमृशन् ईषत् स्पृशन्नित्यर्थः 'संमुसमाणे रूपत्वादसङ्ख्येयप्रदेशावगाढत्वाद्यथोक्तनिर्वचनविषयैवेति। य' त्ति संमृशन् सामस्त्येन स्पृशन्नित्यर्थः। 'आलिहमाणे व' त्ति तथाहिरत्नप्रभा तावदनेन प्रकारेण व्यवस्थितेति विनेयआलिखन ईषत् सकृद्वाऽऽकर्षन्। 'विलिहमाणे व' त्ति विलिखन् जनानुग्रहाय लिख्यते, स्थापना चेयम्- - नितरामनेकशो वा कर्षन्। 'आच्छिंदमाणे व' ति ईषत् सकृद्धा एवमवस्थितायां यानि प्रान्तेषु व्यवस्थितानि । छिन्दन्। 'विच्छिदमाणे व ति नितरामसकद्वा छिन्दन्। तदध्यासितक्षेत्रखण्डानि तानि तथाविध'समोडमाणे' त्ति समुपदहन 'आबाहं व' ति ईषद्बाधां 'वाबाह विशिष्टैकपरिणामयुक्तत्वाच्चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद् व' त्ति व्याबाधा-प्रकृष्टपीडाम्।।
रत्नप्रभाक्रान्तं क्षेत्रखण्डं तदपि तथाविधपरिणामयुक्तकूर्मादिजीवाधिकारात्तदुत्पत्तिक्षेत्रस्य रत्नप्रभादेश्चरमा- त्वादचरमं तदुभयसमुदायरूपा चेयमन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, चरमविभागदर्शनायाह
प्रदेशपरिकल्पनायां तु चरमान्तप्रदेशाश्चाचरमान्तप्रदेशाश्च, ८/२२४-२२६. 'कइ ण' मित्यादि, तत्र 'इमा णं भंते! रयण- कथं?, ये बाह्यखण्डप्रदेशास्ते चरमान्तप्रदेशाः ये च
प्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा?' इति, अथ केयं मध्यखण्डप्रदेशास्तेऽचरमान्तप्रदेशा इति, अनेन चैकान्तचरमाचरमपरिभाषा? इति, अत्रोच्यते, चरमं नाम प्रान्तं दुर्णयनिरासप्रधानेन निर्वचनसूत्रेणावयवावयविरूपं वस्त्वित्याह, पर्यन्तवर्ति, आपेक्षिकं च चरमत्वं, यदुक्तम्-'अन्य- तयोश्च भेदाभेद इति। एवं शर्करादिष्वपि। अथ कियडूरं द्रव्यापेक्षयेदं चरमं द्रव्यमिति, यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमं तद्वाच्यम् ? इत्याह-'जावे' त्यादि ये वैमानिकभवसम्भवं स्पर्श शरीर' मिति, तथा अचरमं नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, आपेक्षिकं न लप्स्यन्ते पुनस्तत्रानुत्पादेन मुक्तिगमनात्ते वैमानिकाः चाचरमत्वं, यदुक्तं-'अन्यद्रव्यापेक्षयेदमचरमं द्रव्यं, स्पर्शचरमेण चरमाः, ये तु तं पुनर्लप्स्यन्ते ते त्वचरमा इति।। यथाऽन्त्यशरीरापेक्षया मध्यशरीर' मिति इह स्थाने
अष्टमशते तृतीयः॥८-३॥ प्रज्ञापनादशमं पदं वाच्यं, एतदेवाह-'चरिमे त्यादि, तत्र पदद्वयं दर्शितमेव, शेषं तु दय॑ते-'चरिमाई अचरिमाई, चरिमंतपएसा
चतुर्थ उद्देशकः अचरिमंतपएसा ?, गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी नो चरिमा नो अचिरमा नो चरिमाइं नो अचरिमाइं नो चरिमंतपएसा नो अनन्तरोद्देशके वैमानिका उक्तास्ते च क्रियावन्त इति अचरिमंतपएसा नियमा अचरिमं चरमाणि य चरिमंतपएसा य चतुर्थोदशके ता उच्यन्ते। तत्र च रायगिहे' इत्यादिसूत्रम्अचरिमंतपएसा य' इत्यादि, तत्र किं चरिमा अचरिमा? ८/२२८. 'एवं किरियापयं' ति, ‘एवम्' एतेन क्रमेण क्रियापदं इत्येकवचनान्तः प्रश्नः 'चरिमाइं अचरिमाई' इति बहुवचनान्त: प्रज्ञापनाया द्वाविंशतितमं, तच्चैवं-'काइया अहिगरणिया प्रश्नः, 'चरिमंतपएसा अचरिमंतपएस' त्ति चरिमाण्येवान्त- पाओसिया पारियावणिया पाणाइवायकिरिया' इत्यादि, अन्तिम वर्त्तित्वादन्ताश्चरिमान्तास्तेषां प्रदेशा इति समासः तथाऽचरम- पुनरिदं सूत्रमत्र 'एयासि णं भंते! आरंभियाणं परिग्गहियाणं मेवान्तो-विभागोऽचरमान्तस्तस्य प्रदेशा अचरमान्तप्रदेशाः । अप्पच्चक्खाणियाणं मायावत्तियाणं मिच्छादसणवत्तियाण य गोयमा! नो चरिमा नो अचरिमा' चरमत्व ह्येतदापेक्षिकम्, कयरे २ हिंतो अप्या वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, अपेक्षणीयस्याभावाच्च कथं चरिमा भविष्यति?, अचरमत्व- गोयमा! सव्वत्थोवा मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ' मप्यपेक्षयैव भवति ततः कथमन्यस्यापेक्षणीयस्या- मिथ्यादृशामेव तद्भावात्, "अप्पच्चक्खाणकिरियाओ भावेऽचरमत्वं भवति?, यदि हि रत्नप्रभाया मध्येऽन्या पृथिवी विसेसाहियाओ' मिथ्यादृशामविरतसम्यग्दृशां च तासां भावात्, स्यात्तदा तस्याश्चरमत्वं युज्यते, न चास्ति सा, तस्मान्न 'परिग्गहियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानां देशविरतानां च
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. ४,५ : सू. २२८-२४०
४९८
भगवती वृत्ति
तासां भावात, 'आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ' धनं-गणिमादि गवादि वा कनकं-प्रतीतं रत्नानि-कर्केतनादीनि पूर्वोक्तानां प्रमत्तसंयतानां च तासां भावात्, ‘मायावत्तियाओ मणयः-चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि शङ्खाश्च प्रतीताः शिलाविसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानामप्रमत्तसंयतानां च तद्भावादिति, प्रवालानि-विद्रुमाणि, अथवा शिला-मुक्ताशिलाद्या एतदन्तं चेदं वाच्यमिति दर्शयन्नाह-'जावे' त्यादि, इह गाथे- प्रवालानि-विद्रुमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागादीनि। तत एषां मिच्छापच्चक्खाणे परिग्गहारंभमायकिरियाओ।
द्वन्द्वस्ततो विपुलानि-धनादीन्यादिर्यस्य स तत्तथा 'संत' त्ति कमसो मिच्छा अविरयदेसपमत्तप्पमत्ताणं॥१॥
विद्यमानं 'सार' त्ति प्रधानं सावएज्ज' ति स्वापतेयं द्रव्यम्, मिच्छत्तवत्तियाओ मिच्छट्ठिीण चेव तो थोवा।
एतस्य च पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथ यदि तद्भाण्डमभाण्डं सेसाणं एक्केक्को वड्डइ रासी तओ अहिया॥२॥
भवति तदा कथं स्वकीयं तद्गवेषयति? इत्याशङ्कयाह-'ममत्ते' इति गतार्थे पूर्वोक्तेन॥
त्यादि, परिग्रहादिविषये मनोवाक्कायानां करणकारणे तेन अष्टमशते चतुर्थोद्देशकः॥८-४॥
प्रत्याख्याते ममत्वभावः पुनः-हिरण्यादिविषये ममतापरिणामः
पुनः 'अपरिज्ञातः' अप्रत्याख्यातो भवति, अनुमतेरपंचम उद्देशकः
प्रत्याख्यातत्वात्, ममत्वभावस्य चानुमतिरूपत्वादिति।।
८/२३३. 'केइ जायं चरेज्ज' त्ति कश्चिद् उपपतिरित्यर्थः 'जायां' क्रियाधिकारात्पञ्चमोद्देशके परिग्रहादिक्रियाविषयं विचारं -
भार्यां 'चरेत्' सेवेत। दर्शयन्नाह
८/२३५. 'सुण्ह' त्ति स्नुषापुत्रभार्या 'पेज्जबंधणे' त्ति प्रेमैव-प्रीतिरेव ८/२३०. 'रायगिहे' इत्यादि, गौतमो भगवन्तमेवमवादीत्
बन्धनं प्रेमबन्धनं तत्पुनः 'से' तस्य श्राद्धस्याव्यवच्छिन्नं 'आजीविकाः' गोशालकशिष्या भदन्त ! 'स्थविरान्' निर्ग्रन्थान्
भवति, अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् प्रेमानुबन्धस्य चानुमतिभगवतः ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारमवादिषुः, यच्च ते तान्
रूपत्वादिति।। प्रत्यवादिषुस्तगौतमः स्वयमेव पृच्छन्नाह-'समणोवासगस्स ण'
८/२३६. 'समणोवासयस्स णं' ति तृतीयार्थत्वात् षष्ठ्याः मित्यादि, 'सामाइयकडस्स' त्ति कृतसामायिकस्य
श्रमणोपासकेनेत्यर्थः सम्बन्धमात्रविवक्षया वा षष्ठीयं, प्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रतस्य, श्रमणोपाश्रये हि श्रावकः सामायिक
'पुव्वमेव' ति प्राक्कालमेव सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमनन्तरप्रायः प्रतिपद्यते इत्यत उक्तं श्रमणोपाश्रये आसीनस्येति, केइ'
मेवेत्यर्थः। 'अपच्चक्खाए' त्ति न प्रत्याख्यातो भवति, तदा त्ति कश्चित्पुरुषः भंड' ति वस्त्रादिकं वस्तु गृहवर्ति
देशविरतिपरिणामस्याज्जातत्वात्, ततश्च से णं' ति साधूपाश्रयवर्ति वा 'अवहरेज्ज' त्ति अपहरेत् 'से' त्ति स
श्रमणोपासकः ‘पश्चात्' प्राणातिपातविरतिकाले पच्चाइ. श्रमणोपासकः 'तं भंड' ति तद्-अपहृतं भाण्डम् 'अणुगवेस
क्खमाणे' त्ति प्रत्याचक्षाणः प्राणातिपातमिति गम्यते किं माणे' ति सामायिकपरिसमाप्त्यनन्तरं गवेषयन् 'सभंडं ति
करोति? इति प्रश्नः, वाचनान्तरे तु 'अपच्चक्खाए' इत्यस्य स्वकीयं भाण्डं 'परायगं ति परकीयं वा ?, पृच्छतोऽयमभि
स्थाने 'पच्चक्खाए' त्ति दृश्यते ‘पच्चाइक्खमाणे' इत्यस्य च प्रायः-स्वसम्बन्धित्वात्तत्स्वकीयं सामायिकप्रतिपत्तौ च
स्थाने 'पच्चक्खावेमाणे' ति दृश्यते, तत्र च प्रत्याख्याता परिग्रहस्य प्रत्याख्यातत्वादस्वकीयमतः प्रश्नः, अबोत्तरं
स्वयमेव प्रत्याख्यापयंश्च गुरुणा हेतुका प्राणातिपात'सभंड' ति स्वभाण्डं।
प्रत्याख्यानं गुरुणाऽऽत्मानं ग्राहयन्नित्यर्थ इति। ८/२३१. 'तेहिं ति तैर्विवक्षितैर्यथाक्षयोपशमं गृहीतैरित्यर्थः, 'सीले'
८/२३७-२४०. 'तीत' मित्यादि, 'तीतम्' अतीतकालकृतं त्यादि, तत्र शीलव्रतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणव्रतानि
प्राणातिपातं 'प्रतिक्रामति' ततो निन्दाद्वारेण निवर्त्तत इत्यर्थः विरमणानि-रागादिविरतयः प्रत्याख्यानं-नमस्कारसहितादि
'पड़प्पन्नं' ति प्रत्युत्पन्नं वर्तमानकालीनं प्राणातिपातं पौषधोपवासः-पर्वदिनोपवसनं तत एषां द्वन्द्वोऽतस्तैः, इह च
'संवृणोति' न करोतीत्यर्थः 'अनागतं' भविष्यत्कालविषयं शीलव्रतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्य-योगविरत्या विरमण
'प्रत्याख्याति' न करिष्यामीत्यादि प्रतिजानीते॥ तिविहं शब्दोपात्तया प्रयोजनं तस्या एव परिग्रहस्या
तिविहेण' मित्यादि, इह च नव विकल्पास्तत्र गाथापरिग्रहतानिमित्तत्वेन भाण्डस्याभाण्डताभवनहेतुत्वादिति से
'तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्नि य एक्का हवंति जोगेसु। भंडे अभंडे भवइ ति 'तत् अपहृतं भाण्डमभाण्ड
तिदुएक्क तिदुएक्कं तिदुएक्कं चेव करणाई॥१॥' भवत्यसंव्यवहार्यत्वात्॥
(त्रयस्त्रिकास्त्रयो द्विकास्त्रयश्चैकका भवन्ति योगेषु। ८/२३२. 'से केणं' ति अथ केन 'खाइ णं' ति पुनः अटेणं' ति अर्थेन त्रयो द्वावेकं त्रयो द्वावेकं त्रयो द्वावेकं चैव करणानि।।१।।)
हेतुना ‘एवं भवई' ति एवंभूतो मनःपरिणामो भवति-'नो मे एतेषु च विकल्पेष्वेकादयो विकल्पा लभ्यन्ते, आह च-- हिरन्ने' इत्यादि, हिरण्यादिपरिग्रहस्य द्विविध त्रिविधेन 'एगो तिन्नि य तियगा दो नवगा तह य तिन्नि नव नव य। प्रत्याख्यातत्वात्, उक्तानुक्तार्थानुसङ्ग्रहेणाह-'नो मे' इत्यादि भंगनवगस्स एवं भंगा एगूणपन्नासं॥१॥
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भगवती वृत्ति
( एकश्च त्रयस्त्रिका द्वौ नवकौ तथा च त्रयो नव भङ्गनवकस्यैवं भङ्गा एकोनपञ्चाशत् ॥ १ ॥ स्थापना चेयम
व्रतेषु
४९९
नव च ।
७३५ ।
३३३ २२२१११ योगाः
३२१ ३२१ ३२१ कर. १३३ ३९९ ३९९ ल.
तत्र 'तिविहं तिविहेणं' ति 'त्रिविधं' त्रिप्रकारं करणकारणानु मतिभेदात् प्राणातिपातयोगमिति गम्यते, 'त्रिविधेन' मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति, ततो निन्दनेन विरमति, 'तिविहं दुविहेणं' ति त्रिविधं वधकरणादिभेदात् 'द्विविधेन' करणेन मनःप्रभृतीनामेकतरवर्जिततद्द्द्वयेन, 'तिविहं एगविहेणं' ति त्रिविधं तथैव 'एकविधेन मनः प्रभृतीनामेकतरमेन करणेनेति 'दुविहं तिविहेणं' 'द्विविधं कृतादीनामन्यतमद्वयरूपं योगं 'त्रिविधेन' मनःप्रभृतिकरणेन, एवमन्येऽपि तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे' इत्यादि न करोति न स्वयं विदधाति अतीतकाले प्राणातिपातं मनसा हा हतोऽहं येन मया तदाऽसौ न हत इत्येवमनुध्यानात्, तथा 'न नैव कारयति मनसैव यथा हा न युक्तं कृतं यदसौ परेण न घातिन इति चिन्तनात्, तथा 'कुर्वन्तं विदधानमुपलक्षणत्वात् कारयन्तं वा समनुजानन्तं वा परमात्मानं प्राणातिपातं 'नानुजानाति' नानुमोदयति, मनसैव वधानुस्मरणेन तदनुमोदनात् एवं न करोति न कारयति कुर्व्वन्तं नानुजानाति वचसा तथाविधवचनप्रवर्त्तनात् एवं न करोति कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन तथाविधाङ्गविकारकरणादिति न चेह यथासङ्ख्यन्यायो न करोति मनसा न कारयति वचसा नानुजानाति कायेनेत्येवंलक्षणोऽनुसरणीयो, वक्तृविवक्षाधीनत्वात् सर्वन्यायानां वक्ष्यमाणविकल्पायोगाच्चेति एवं त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र विकल्पे एक एव विकल्पः तदन्येषु पुनर्द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु त्रयः २ पञ्चमषष्ठयोर्नव नव सप्तमे त्रयः अष्टमनवमयोर्नव नवेति एवं सर्वेऽप्येकोनपञ्चाशत्, एवमियमतीतकालमाश्रित्य कृता करणकारणादियोजना, अथवैवमेषाऽतीतकाले मनः प्रभृतीनां कृतं कारितमनुज्ञातं वा वधं क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवर्त्तत इत्यर्थः । तन्निन्दनस्याभावे हि तदनुमोदनानिवृत्तेः कृतादिरसौ क्रियमाणादिरिव स्यादिति । वर्त्तमानकालं त्वाश्रित्य सुगमेव । भविष्यत्कालापेक्षया त्वेवमसौ-न करोति मनसा तं हनिष्यामीत्यस्य चिन्तनात न कारयति मनसैव तमहं घातयिष्यामीत्यस्य चिन्तनात नानुजानाति मनसा भाविनं वधमनुश्रुत्य हर्षकरणात. एवं वाचा कायन च तयोस्तथाविधयोः करणादिति, अथचैवमेव भविष्यत्काले मनः प्रभृतिना करिष्यमाणं कारयिष्यमाणमनुमंस्यमानं वा वर्ध क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति ततो निवृत्तिमभ्युपगच्छतीत्यर्थः, सर्वेषां चैषां मीलने
दोषः ? || ३ || )
पवण्णस्स ।
परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. ५ : सू. २४० सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवति इह च त्रिविधं त्रिविधेनेति विकल्पमाश्रित्याक्षेपपरिहारौ वृद्धोक्तावेवम्'न करेइच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स ? भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईएवि ॥ १ ॥ केई भांति गिहिणो तिविहं तिविहेण नत्थि संवरणं । तं न जओ निद्दिनं इहेव सुत्ते विसेसेउं ॥ २ ॥ तो कह निज्जुत्तीए ऽणुमईनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामन्ने वऽन्नत्थ उ तिविहं तिविहेण को दोसो ॥ ३ ॥ ' ( न करोतीत्यादि त्रिकं गृहिणी देशविरतस्य कथं भवति ? | भण्यते विषयाद्वहिरनुमत्या अपि प्रतिषेधः ॥ १ ॥ केचिन्ति गृहिणस्त्रिविधं त्रिविधेन नास्ति संवरणं । तन्न यत इहैव सूत्रे विशिष्य निर्दिष्टम् ॥२॥ तदा कथं निर्युक्तावनुमति - निषेध ? इति स स्वविषये । सामान्ये वा, तथा चान्यत्र विशेष वा त्रिविधं त्रिविधेन स्यात् को इह च सविसयंमि' ति स्वविषये यथानुमतिरस्ति 'सामने व' ति सामान्ये वाऽविशेषे प्रत्याख्याने सति 'अण्णत्थ उ' ति विशेषे स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यादौ'पुत्ताइसंतइनिमित्तमेत्तमेगारसिं जंपति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि ॥ १ ॥' (पुत्रादिसन्ततिनिमित्तमात्रमेकादशी प्रतिमां प्रपन्नस्य गृहिणस्त्रिविधं त्रिविधेन केचित् जल्पन्ति दीक्षाभिमुखस्य॥१॥) यथा च त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्राक्षेपपरिहारौ कृतौ तथाऽन्यत्रापि कार्यों यत्रानुमतेरनुप्रवेशोऽस्तीति । अथ कथं मनसा करणादि ?, उच्यते, यथा वाक्काययोरिति, आह च'आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य ? | जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥ १ ॥ तयहीणत्ता वक्तणुकरणाईणं च अहव मणकरणं । सावज्जजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥ २ ॥ कारावण पुण मणसा चिंतेइ करेउ एस सावज्जं । चिंतेई य कए उण सुठु कयं अणुभई होई ॥ ३ ॥ ' इति (आह कथं पुनर्मनसाकरणं कारापणमनुमतिश्च । यथा वाक्तनुयोगाभ्यां करणादि तथा मनसा भवेत ॥ १ ॥ तदधीनत्वाद्वाक्तनुकरणादीनां अथवा मनःकरणं सावद्ययोगमननं प्रज्ञतं वीतरागैः || २ || मनसा पुनः काराणं एष सावां करोत्विति चिन्तयति कृते पुनः सुष्ठु कृतमित्यनुमतिर्भवति चिन्तयति || ३ || ) इह च पञ्चस्वणुव्रतेषु प्रत्येकं सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भङ्गशतस्य भावाद भङ्गकानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति । यत् स्थविरा आजीविकैः श्रमणोपासकगतं वस्तु पृष्टाः गौतमेन च भगवांस्तत्तावदुक्तम्, अथानन्तरोक्तशीलाः श्रमणोपासका एव भवन्ति न पुनराजी विकोपासकाः आजीविकानां गुणित्वेनाभिमता अपीति दर्शयन्नाह - 'एए खलु' इत्यादि, 'एते खलु' एल एव
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. ५,६ : सू. २४०-२४६
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भगवती वृत्ति
परिदृश्यमाना निर्ग्रन्थसत्का इत्यर्थः 'एरिसग' ति ईदशकाः स्फोटीकम। ‘दंतवाणिज्जे' ति दन्तानां-हस्तिविषाणानाम् प्राणातिपातादिष्वतीतप्रतिक्रमणादिमन्तः, 'नो खलु' ति नैव उपलक्षणत्वादेषां चर्मचामरपूतिकेशादीनां वाणिज्यं क्रयविक्रयो 'एरिसग ति उक्तरूपा उक्तार्थानामपरिज्ञानात 'आजीवि- दन्तवाणिज्यं। 'लक्ख-वाणिज्ज' ति लाक्षाया आकरे ग्रहणतो ओवासय' ति गोशालक शिष्यश्रावकाः॥
विक्रयः, एतच्च त्रससंसक्तिनिमित्तस्यान्यस्यापि तिलादेव्यस्य अर्थतस्यैवार्थस्य विशेषतः समर्थनार्थमाजीविकसमयार्थस्य यद्वाणिज्यं तस्योपलक्षणं। 'केसवाणिज्जे' ति केशवज्जीवानां तदुपासकविशेषस्वरूपस्य चाभिधानपूर्वकमाजीविकोपासका- गोमहिषीस्त्रीप्रभृतिकानां विक्रयः। रसवाणिज्जे' त्ति पेक्षया श्रमणोपासकानुत्कर्षयितुमाह
मद्यादिरसविक्रयः। 'विसवाणिज्जे' त्ति विषयोपलक्षणत्वाच्छस. ८/२४१, “आजीविए' त्यादि, आजीविकसमयः-गोशालकसिद्धान्तः वाणिज्यस्वाप्यनेनावरोधः। 'जंतपीलणकम्मे' ति यन्त्रण
तस्य 'अयमट्टे' ति इदमभिधेयम्-'अक्खीणपरिभोइणो सब्वे तिलेक्ष्वादीनां यत्पीडनं तदेव कर्म यन्त्रपीडनकर्म। सत्त' ति अक्षीणं-अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुञ्जत 'विल्लंछणकम्मे' ति निर्लाञ्छनमेव-वर्द्धितककरणमेव कर्म इत्येवंशीला अक्षीणपरिभोगिनः, अथवा इन्प्रत्ययस्य निलाञ्छनकर्म। 'दवग्गिदावणय' ति दवाग्नेः-दवस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरिभोगा-अनपगताहारभोगासक्तय इत्यर्थः दापनं-दाने प्रयोजकत्वमुपलक्षणत्वादानं च दवाग्निदापनं तदेव 'सर्वे सत्वाः असंयताः सर्वे प्राणिनः, यद्येवं ततः किम् ? प्राकृतत्वाद् ‘दवग्गिदावणया'। सरदहतलायपरिसोसणय' त्ति इत्याह-से हते त्यादि, 'से' नि ततः 'हत' त्ति हत्वा सरसः-स्वयंसंभूतजलाशयविशेषस्य हृदस्य-नद्यादिषु लगुडादिना अभ्यवहार्य प्राणिजातं 'छित्त्वा' असिपत्रिकादिना निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य-कृत्रिमजलाशयविशेषस्य द्विधा कृत्वा भित्त्वा' शूलादिना भिन्नं कृत्वा 'लुप्त्वा' परिशोषणं यत्तथा तदेव प्राकृतत्वात् स्वार्थिकताप्रत्यये पक्षादिलोपनेन विलुप्य' त्वचो विलोपनेन 'अपद्राव्य' 'सरदहतलाय-परिसोसणया'। 'असईपोसणय' ति दास्याः विनाश्याहारमाहारयन्ति।
पोषणं तद्भाटी-ग्रहणाय, अनेन च कुर्कुटमार्जारादिक्षुद्रजीव८/२४२. 'तत्थ' त्ति 'तत्र' एवं स्थितेऽसंयतसत्त्ववर्गे हननादि पोषणमप्याक्षिप्तं दृश्यमिति। 'इच्चेते' ति 'इति' एवंप्रकाराः
दोषपरायणे इत्यर्थः आजीविकसमये वाऽधिकरणभूते द्वादशेति 'एते' निर्ग्रन्थसत्काः 'सुक्क' त्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता विशेषानुष्ठानत्वात् परिगणिता आनन्दादिश्रमणोपासकवदन्यथा अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च बहवस्ते, 'ताले ति तालाभिधान एकः, एवं 'सुक्काभिजाइ यत्ति 'शुक्लाभिजात्या' शुक्लप्रधानाः ।। तालप्रलम्बादयोऽपि, 'अरिहंत-देवयाग' ति गोशालकस्य अनन्तरं देवतयोपपत्तारो भवन्तीत्युक्तमथ देवानेव भेदत आहतत्कल्पनयाऽर्हत्त्वात्, ‘पंचफल-पडिक्कंत' ति ८/२४३. 'कतिविहा ण' मित्यादि।। फलपञ्चकान्निवृत्ताः, उदुम्बरादीनि च पञ्च पदानि
अष्टमशते पञ्चमः॥८-५॥ पञ्चमीबहुवचनान्तानि प्रतिक्रान्तशब्दानुस्मरणादिति, 'अनिल्लंछएहि नि अवतिकैः अनक्कभिन्नेहि' ति
षष्ठम उद्देशकः अनस्तितैः। एतेवि ताव एवं इच्छंति एतेऽपि तावद्विशिष्टयोग्यताविकला इत्यर्थः एवमिच्छन्ति-अमुना प्रकारेण
पञ्चमे श्रमणोपासकाधिकार उक्तः, षष्ठेप्यसावेवोच्यते। वाञ्छन्ति धर्ममिति गम्यम। किमंग पुणे' त्यादि, किं पुनर्ये इमे
इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्प्रोपायका सिनियर न ८/२४५, 'समणे' त्यादि, 'किं कज्जइ' ति किं फलं भवतीत्यर्थः, विशिष्टतरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रितत्वानेषां, 'कम्मादाणाई' ति
'एगंतसो' ति एकान्तेन तस्य श्रमणोपासकस्य, 'नस्थि य से' कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि,
त्ति नास्ति चैतद् यत् 'से' तस्य पापं कर्म 'क्रियते' भवति। अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च कर्मादानानि कर्महतव इति ८/२४६. अप्रासुकदाने इवेति, 'बहुतरिय ति पापकर्मापेक्षया विग्रहः, 'इंगाले त्यादि, अङ्गारविषयं कर्म अङ्गारकर्म
'अप्पत्तराए' ति अल्पतरं निर्जरापेक्षया, अयमर्थः-गुणवते अङ्गाराणां करणविक्रयस्वरूपम्, एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यद
पात्रायाप्रासुकादिद्रव्यदाने चारित्रकायोपष्टम्भो जीवधातो पीष्टकापाकादिकं कर्म तदङ्गारकर्मोच्यते। अङ्गारशब्दस्य
व्यवहारतस्तच्चारित्रबाधा च भवति, ततश्च-चारित्रकायोतदन्योपलक्षणत्वात्, ‘वणकम्मे ति वनविषयं कर्म वनकर्म
पष्टम्भान्निर्जरा जीवघातादेश्च पापं कर्म, तत्र च स्वहेतुवनच्छेदनविक्रयरूपम, एवं बीजपेषणाद्यपि. साडीकम्मे' त्ति
सामर्थ्यात्पापापेक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं शकटानां वाहनघटनविक्रयादि। "भाडीकम्मे' ति भाट्या
पापं भवति, इह च विवेचका मन्यन्ते-असंस्तरणादिकारणत भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिर्देशान्तरनयनं
एवाप्रासुकादिदाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणे, यद् गोगृहादिसमर्पणं वा भाटीकर्म। 'फोडीकम्मे' त्ति
उक्तम्-- स्फोटि:-भूमेः स्फोटनं हलकुद्दालादिभिः सैव कर्म
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. ६ : सू. २४६-२५५ 'संथरणमि असुद्धं दोण्हवि गेण्हंतदितयाणऽहियं।
प्रसङ्गात्, गृहपतिना हि पिण्डोऽसौ विवक्षितस्थविरेभ्य एव दत्तो आउरदिट्ठतेणं तं चेव हियं असंथरणे॥१॥'
नान्यस्मै इति, ‘एगते' त्ति जनालोकवर्जिते ‘अणावाए' त्ति इति, (निवहिऽशुद्धं गृह्णद्ददतोड़योरप्यहितं। आतुरदृष्टान्तेन जनसंपातवर्जिते 'अचित्ते' ति अचेतने, नाचेतनामात्रेणैवेत्यत तदेवासंस्तरणे हितं॥१॥) अन्ये त्वाहुः-अकारणेऽपि आह–'बहुफासुए' त्ति बहुधा प्रासुकं बहुप्रासुकं तत्र, अनेन गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशाहुतरा निर्जरा चाचिरकालकृते विकृते विस्तीर्णे दूरावगाढे त्रसप्राणबीजरहिते भवत्यल्पतरं च पापं कर्मेति। निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य चेति सङ्गृहीतं द्रष्टव्यमिति। परिणामस्य च प्रमाणत्वात्, आह च
८/२४९. 'से य ते ति स च निर्ग्रन्थः तौ स्थविरपिण्डौ 'परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरिय साराणं।
'पडिग्गाहेज्ज' त्ति प्रतिगृह्णीयादिति।। परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं॥१॥"
निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह(समस्तगणिपिटकस्मारितसाराणामृषीणां। परमरहस्यं निश्चयम- ८/२५१-२५३. निग्गंथेण ये' त्यादि, इह चशब्द: पुनरर्थस्तस्य वलम्बयतां पारिणामिकं प्रमाणम् (विवादास्पदे दाने) ॥१॥) घटना चैवं-निर्ग्रन्थं कश्चित् पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टं यच्चोच्यते 'संथरणंमि असुद्ध' मित्यादिनाऽशुद्धंद्वयोरपि पिण्डादिनोपनिमन्त्रयेत् तेन च निन्थेन पुनः 'अकिच्चट्ठाणे' त्ति दातृगृहीत्रोरहितायेति तद्ग्राहकस्य व्यवहारतः संयम- कृत्यस्य-करणस्य स्थानं-आश्रयः कृत्यस्थानं तन्निषेधः विराधनात् दायकस्य च लुब्धकदृष्टान्तभावितत्वेनाव्युत्पन्नत्वेन अकृत्यस्थानं- मूलगुणादिप्रतिसेवारूपोऽकार्यविशेषः। 'तस्स वा ददतः शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वात्, शुभमपि चायुरल्पमहितं णं' ति तस्य निर्ग्रन्थस्य सजातानुतापस्य। एवं भवति' एवं विवक्षया, शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वं चाप्रासुकादिदान- प्रकारं मनो भवति 'एयरस ठाणस्स' त्ति विभक्तिपरिणामाद् स्याल्पायुष्कताफलप्रतिपादकसूत्रे प्राक् चर्चितं, यत्पुनरिह तत्त्वं 'एतत्स्थानम्' अनन्तरासेवितम् 'आलोचयामि स्थापनाचार्यतत्केवलिगम्यमिति।
निवेदनेन 'प्रतिक्रमामि' मिथ्या दुष्कृत दानेन 'निन्दामि' तृतीयेसूत्रे
स्वसमक्षं स्वस्याकृत्यस्थानस्य वा कुत्सनेन 'गहे' गुरुसमक्ष ८/२४७. 'अस्संजयअविरये' त्यादिनाऽगुणवान् पावविशेष उक्तः कुत्सनेन 'विउद्यामि' ति वित्रोटयामि तदनुबन्धं छिनद्मि
'फासुएण वा अफासुएण वा' इत्यादिना तु प्रासुका- 'विशोधयामि प्रायश्चित्तपङ्गं प्रायश्चित्ताभ्युपगमेन ‘अकरणतया' प्रासुकादेर्दानस्य पापकर्मफलता निर्जराया अभावश्चोक्तः, अकरणेन 'अभ्युत्तिष्ठामि अभ्युत्थितो भवामीति 'अहारिहं ति असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्। यश्च प्रासुकादौ यथार्ह यथोचितम्, एतच्च गीतार्थतायामेव भवति नान्यथा, जीवघाताभावेन अप्रासुकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेष: 'अंतियं' ति समीपं गत इति शेषः 'थेरा य अमुहा सिय' त्ति सोऽत्र न विवक्षितः पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव च स्थविराः पुनः 'अमुखाः' निर्वाचः स्युर्वातादिदोषात, ततश्च विवक्षितत्वादिति, सूत्रत्रयेणापि चानेन मोक्षार्थमेव यद्दानं तस्यालोचनादि-परिणामे सत्यपि नालोचनादि संपद्यत इत्यतः तच्चिन्तितं, यत्पुनरनुकम्पादानमौचित्यदानं वा तन्न चिन्तितं, प्रश्नयति-से ण' मित्यादि, 'आराहए त्ति मोक्षमार्गस्याराधकः निर्जरावास्तवानपेक्षणीयत्वाद्, अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षणीय- शुद्ध इत्यर्थः भावस्य शुद्धत्वात्। संभवति चालोचनापरिणतौ त्वादिति, उक्तञ्च
सत्यां कथञ्चित्तदप्राप्तावप्याराधकत्वं, यत उक्तं मरणमाश्रित्य'मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही समक्खाओ।
'आलोयणापरिणओ सम्मं संपट्ठिओ गुरुसगासे। अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं न कयाइ पडिसिद्धं ॥१॥
जइ मरइ अंतरे च्चिय तहावि सुद्धोत्ति भावाओ॥१॥' इति (मोक्षार्थं यद्दानं तत्प्रतिविधिरेष भणितः। अनुकम्पादानं इति (आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशे। यदि पुनर्न कदाचित्प्रतिषिन्द्रम् ।।१।।) दानाधिकारादेवेदमाह
म्रियतेऽन्तरेव तथाऽपि शुद्ध इति भावात्।।१।।) ८/२४८. निग्गंथं चेत्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य चैवं स्थविरात्मभेदेन चेह द्वे अमुखसूत्रे, द्वे कालगतसूत्रे, इत्येवं
घटना-निर्ग्रन्थाय संयतादिविशेषणाय प्रासुकादिदाने चत्वारि असंप्राप्तसूत्राणि ४, संप्राप्तसूत्राण्यप्येवं चत्वार्येव ४, गृहपतेरेकान्तेन निर्जरा भवति, निर्ग्रन्थः पुनः 'गृहपतिकुलं' एवमेतान्यष्टौ पिण्डपातार्थं गृहपतिकुले प्रविष्टस्य, एवं गृहिगृहं 'पिंडवायपडियाए' ति पिण्डस्य पातो-भोजनस्य पात्रे विचारभूम्यादावष्ट ८, एवं ग्रामगमनेऽष्टौ, एवमेतानि गृहस्थानिपतनं तत्र प्रतिज्ञा-ज्ञानं बुद्धिः पिण्डपातप्रतिज्ञा तया, चतुर्विशतिः सूत्राणि। पिण्डस्य पातो मम पात्रे भवत्वितिबुद्धयेत्यर्थः, 'उवनिमंतेज्ज' ८/२५४. एवं निर्ग्रन्थिकाया अपि चतुर्विशतिः सूत्राणीति।। त्ति भिक्षो! गृहाणेदं पिण्डद्वयमित्यभिदध्यादित्यर्थः, तत्र च अथानालोचित एव कथमाराधकः? इत्याशङ्कामुत्तरं चाह'एग मित्यादि, 'से य' ति स पुनर्निर्ग्रन्थः 'तं' ति स्थविरपिण्ड ८/२५५. 'से केण?ण' मित्यादि. 'तणसूर्य व' नि तृणानं वा 'थेरा य से' त्ति स्थविराः पुनः 'तस्य' निर्ग्रन्थस्य सिय ति 'छिज्जमाणे छिन्ने' ति क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं स्युर्भवन्तीत्यर्थः, 'दावए' नि दद्यात् दापयेद्वा अदत्तादान- कार्यस्य निष्पत्तेः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते, एवमसावालोचना
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. ६ : सू. २५५-२६८
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भगवती वृत्ति
परिणतौ सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति। 'अहयं' व त्ति पारियावणिया किरिया कज्जइ तस्स काइया नियमा कज्जई' 'अहतं' नवं 'धोयं' ति प्रक्षालितं तंतुग्गयं' ति तन्त्रोद्तं त्यादीति। अत एवाह-सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए' त्ति, तृरिवेमादेरुत्तीर्णमानं 'मंजिट्ठादोणीए' ति मञ्जिष्ठारागभाजने।। तथा 'सिय अकिरिय' ति वीतरागावस्थामाश्रित्य, तस्या हि आराधकश्च दीपवद्दीप्यत इति दीपस्वरूपं निरूपयन्नाह
वीतरागत्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया इति।। ८/२५६. ‘पदीवस्से त्यादि, 'झियायमाणस्स' त्ति ध्मायतो ८/२५९. नेरइए ण' मित्यादि, नारको यस्मादौदारिकशरीरवन्तं
ध्मायमानस्य वा ज्वलत इत्यर्थः ‘पदीवे' त्ति प्रदीपो पृथिव्यादिकं स्पृशति परितापयति विनाशयति च दीपयष्ठायादिसमुदायः 'झियाइ' त्ति ध्मायति ध्मायते वा तस्मादौदारिकात् स्यास्त्रिक्रिय इत्यादि, अक्रियस्त्वयं न भवति, ज्वलति 'लट्टि ति दीवयष्टिः 'वत्ति' त्ति दशा दीवचंपए' त्ति अवीतरागत्वेन क्रियाणामवश्यंभावित्वादिति। दीपस्थगनकं जोइ' त्ति अग्निः ।।
८/२६०, ‘एवं चेव ति स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि सर्वेष्वसुरादिपदेषु ज्वलनप्रस्तावादिदमाह
वाच्यमित्यर्थः, मणुस्से जहा जीवे' ति जीवपदे इव ८/२५७. 'अगारस्स ण मित्यादि, इह चागारं- कुटीगृहं 'कुडु' नि मनुष्यपदेऽक्रियत्वमपि वाच्यमित्यर्थः, जीवपदे
भित्तयः 'कडण' त्ति त्रट्टिकाः 'धारण' त्ति बलहरणाधारभूते मनुष्यसिद्धापेक्षयैवाक्रियत्वस्याधीतत्वादिति। स्थूणे 'बलहरणे ति धारणयोरुपरिवर्त्ति तिर्यगायतकाष्ठं 'मोभ' ८/२६१-२६६. 'ओरालियसरीरेहिंतो' त्ति औदारिकशरीरेभ्य इत्येवं इति यत्प्रसिद्धं 'वंस' त्ति वंशाश्च्छित्त्वराधारभूताः ‘मल्ल' ति बहुत्वापेक्षोऽयमपरो दण्डकः, एवमेतौ जीवस्यैकत्वेन द्वौ मल्ला:--कुड्यावष्टम्भन-स्थाणवः बलहरणा धारणाश्रितानि दण्डको, एवमेव च जीवस्य बहुत्वेनापरौ द्वौ, एवमौदारिकवा छित्त्वराधारभूतानि ऊर्द्धवायतानि काष्ठानि 'वाग' त्ति शरीरापेक्षया चत्वारो दण्डका इति॥ वल्का-वंशादिबन्धनभूता बटादित्वचः छित्तर' त्ति ८/२६७-२६८. 'जीवे ण' मित्यादि जीवः परकीयं वैक्रियशरीरछित्वराणि-वंशादिमयानि छादनाधार-भूतानि किलिञानि माश्रित्य कतिक्रियः?, उच्यते, स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि, 'छाणे' ति छादनं दर्भादिमयं पटलमिति ।।
पञ्चक्रियश्चेह नोच्यते, प्राणातिपातस्य वैक्रियशरीरिण: इत्थं च तेजसां ज्वलनक्रिया परशरीराश्रयेति परशरीर- कर्तुमशक्यत्वाद्, अविरतिमात्रस्य चेहाविवक्षितत्वाद्, अत
मौदारिकाद्याश्रित्य जीवस्य नारकादेश्च क्रिया अभिधातुमाह- एवोक्तं- 'पंचम किरिया न भन्नइ' त्ति, ‘एवं जहा वेउब्वियं तहा ८/२५८. 'जीवे णं' मित्यादि, 'ओरालियसरीराओ' त्ति औदारिक- आहारयपि तेयगंपि कम्मगंपि भाणियव्वं' ति, अनेनाहार
शरीरात्-परकीयमौदारिकशरीरमाश्रित्य कतिक्रियो जीवः ? कादिशरीरत्रयमप्याश्रित्य दण्डकचतुष्टयेन नैरयिकादिजीवानां इति प्रश्नः, उत्तरं तु 'सिय तिकिरिए' त्ति यदैको जीवोऽन्य- त्रिक्रियत्वं चतुष्क्रियत्वं चोक्तं पञ्चक्रियत्वं तु निवारितं, पृथिव्यादेः सम्बन्ध्यौदारिकशरीरमाश्रित्य कायं व्यापारयति मारयितुमशक्यत्वात्तस्येति, अथ नारकस्याधोलोकवर्त्तित्वातदा त्रिक्रियः कायिक्यधिकरणिकीप्राद्वेषिकीनां भावात्, एतासां दाहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकवर्त्तित्वेन तत्क्रियाणामच परस्परेणाविनाभूतत्वात् स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं न पुनः विषयत्वात्। कथमाहारकशरीरमाश्रित्य नारकः स्यास्त्रिक्रियः स्यादेकक्रियः स्याद्विक्रिय इति। अविनाभावश्च तासामेवम्- स्याच्चतुष्क्रिय इति?, अत्रोच्यते, यावत्पूर्वशरीरं व्युत्सृष्टं अधिकृतक्रिया ह्यवीतरागस्यैव नेतरस्य, तथाविधकर्मबन्ध- जीवनिर्वर्तितपरिणामं न त्यजति तावत्पूर्वभावप्रज्ञापनानयमतेन हेतुत्वात्, अवीतरागकायस्य चाधिकरणत्वेन प्रद्वेषान्वितत्वेन निर्वर्तकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते। घृतघटन्यायेनेत्यतो च कायक्रियासद्भावे इतरयोरवश्यंभावः इतरभावे च नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव तद्देशेन च मनुष्यलोकवर्त्तिनाऽकायिकीसद्धावः, उक्तञ्च प्रज्ञापनायामिहार्थे–'जस्स णं स्थ्यादिरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स अहिगरणिया किरिया तदाहारकदेहान्नारकस्त्रिक्रियश्चतुष्क्रियो वा भवति, कायिकीनियमा कज्जइ, जस्स अहिगरणियाकिरिया कज्जइ तस्सवि भावे इतरयोरवश्यंभावात्। पारितापनिकीभावे चाद्यत्रस्यावश्यकाइया किरिया नियमा कज्जई' इत्यादि, तथाऽऽद्य- भावादिति। एवमिहान्यदपि वि (तद्वि) षयमवगन्तव्यं, यच्च क्रियात्रयसद्भावे उत्तरक्रियाद्वयं भजनया भवति, यदाह-'जस्स तैजसकार्मणशरीरापेक्षया जीवानां परितापकत्वं तदौदारिकाणं जीवस्य काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया सिय द्याश्रितत्वेन तयोरवसेयं, स्वरूपेण तयोः परितापयितु. कम्जइ सिय नो कज्जइ' इत्यादि, ततश्च यदा मशक्यत्वादिति।। कायव्यापारद्वारेणाद्यक्रियात्रय एवं वर्तते न तु परितापयति न
अष्टमशते षष्ठोद्देशः।। ८-६॥ चातिपातयति तदा विक्रिय एवत्यतोऽपि स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं, यदा तु परितापयति तदा चतुष्क्रियः, आद्यक्रियात्रयस्य तत्रावश्यंभावात्, यदा त्वतिपातयति तदा पञ्चक्रियः। आद्यक्रियाचतुष्कस्य तत्रावश्यंभावात्, उक्तञ्च-'जस्स
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५:श.८: उ.७,८ : सू.२७१-२९५
सप्तम उद्देशकः
अथोक्तगुणयोगेन नास्माकमिवैषां गमनमस्तीत्यभिप्रायतः
स्थविराः यूयमेव पृथिव्याक्रमणादितोऽसंयतत्वादिगुणा इति षष्ठोद्देशके क्रियाव्यतिकर उक्त इति क्रियाप्रस्तावात्
प्रतिपादनायान्यूथिकान् प्रत्याहुःसप्तमोद्देशके प्रद्वेषक्रियानिमित्तकोऽन्ययूथिकविवादव्यतिकर
८/२९२. 'तुज्झे णं अज्जो' इत्यादि 'गइप्पवायं' ति गतिः प्रोद्यते---
1200 उच्यते। इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
प्ररूप्यते यत्र तगतिप्रवादं गतेर्वा-प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपातः८/२७१. 'तेण' मित्यादि।
प्रपतनसम्भवः प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्त्तनं गतिप्रपातस्तत्प्रतिपादक८/२७३. तत्र 'अज्जो' त्ति हे आUः ! 'तिविहं तिविहेणं' ति त्रिविधं
मध्ययनं गतिप्रपातं तत् प्रज्ञापितवन्तो, गतिविचारप्रस्ताकरणादिकं योगमाश्रित्य त्रिविधेन मनःप्रभृतिकरणेन।।
वादिति।। ८/२७५. 'अदिन्नं साइज्जह' त्ति अदत्तं स्वदध्वे अनुमन्यध्व इत्यर्थः।
अथ गतिप्रपातमेव भेदतोऽभिधातुमाह-- ८/२७७. 'दिज्जमाणे अदिन्ने' इत्यादि दीयमानमदत्तं, दीयमानस्य
यमानस्य ८/२९३. 'कइविहे ण' मित्यादि, 'पओगगति' त्ति इह गतिप्रपातवर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालवर्तित्वाद् वर्तमाना
भेदप्रक्रमे यदतिभेदभणनं तद्गतिधर्मत्वात् प्रपातस्य गतिभेदतीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवति दत्तमेव दत्तमिति
भणने गतिप्रपातभेदा एव भणिता भवन्तीति न्यायादवसेयं, तत्र व्यपदिश्यते, एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि, तत्र दीयमानं
प्रयोगस्य सत्यमनःप्रभृतिकस्य पञ्चदशविधस्य गतिः-प्रवृत्तिः दायकापेक्षया प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया निसृज्यमानं'
प्रयोगगतिः, 'ततगई' त्ति ततस्य-ग्रामनगरादिकं गन्तुं क्षिप्यमाणं पात्रापेक्षयेति। 'अंतरे' त्ति अवसरे, अयमभिप्रायः
प्रवृत्तत्वेन तच्चाप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्तमानतया प्रसारित यदि दीयमानं पात्रेऽपतितं सद्दत्तं भवति तदा तस्य दत्तस्य सतः
क्रमतया च विस्तारं गतस्य गतिस्ततगतिः, ततो वाऽवधिभूतपात्रपतनलक्षणं ग्रहणं कृतं भवति, यदा तु तद्दीयमानमदत्तं तदा
ग्रामादेर्नगरादौ गतिः प्राकृतत्वेन ततगई, अस्मिंश्च स्थाने इतः पात्रपतनलक्षणं ग्रहणमदत्तस्येति प्राप्तमिति।
सूत्रादारभ्य प्रज्ञापनायां षोडशं प्रयोगपदं 'सेत्तं विहायगई' निर्ग्रन्थोत्तरवाक्ये तु।
एतत्सूत्रं यावद्वाच्यमेतदेवाह-एत्तो' इत्यादि, तच्चैवं-बंधण८/२८०. 'अम्हे णं अज्जो! दिज्जमाणे दिन्ने' इत्यादि यदुक्तं तत्र
छेयणगई उववायगई विहायगई इत्यादि, तत्र बन्धनच्छेदनक्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाद्दीयमानत्वादेर्दत्तत्वादि समवसेय
गतिः-बंधनस्य कर्मणः सम्बन्धस्य वा छेदने-अभावे मिति।
गतिर्जीवस्य शरीरात् शरीरस्य वा जीवाद्वन्धनच्छेदनगतिः, अथ दीयमानमदत्तमित्यादेर्भवन्मतत्वाद् यूयमेवासंयतत्वादिगुणा
उपपालगतिस्तु त्रिविधा-क्षेत्रभवनोभवभेदात, तत्र नारकइत्यावेदनायान्ययूथिकान् प्रति स्थविराः प्राहुः--
तिर्यगनरदेवसिद्धानां यत् क्षेत्रे उपपाताय-उत्पादाय गमनं सा ८/२८८.
क्षेत्रोपपातगतिः, या च नारकादीनामेव स्वभवे उपपातरूपा 'तुज्झेणं अज्जो! अप्पणा चेवे' त्यादि, 'रीयं रीयमाण' त्ति
गतिः सा भवोपपातगतिः, यच्च सिद्धपद्लयोर्गमनमात्रं सा 'रीतं' गमनं 'रीयमाणाः' गच्छन्तो गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः
नोभवोपपातगतिः, विहायोगतिस्तु स्पृशद्गत्यादिकाऽनेक'पुढवि पेच्चेह' पृथिवीमाक्रामथेत्यर्थः 'अभिहणह' त्ति
विधेति॥ पादाभ्यामाभिमुख्येन हथ वत्तेह' त्ति पादाभिघातेनैव 'वर्तयथ'
अष्टमे शते सप्तमः ॥७॥ श्लक्ष्णतां नयथ 'लेसेह' त्ति 'श्लेषयथ' भूम्यां श्लिष्टां कुरुथ 'संघाएह त्ति 'सङ्घातयथ' संहतां कुरुथ 'संघट्टेह' त्ति
अष्टम उद्देशकः 'सङ्घट्टयथ' स्पृशथ परितावेह' ति परितापयथ' समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ 'किलामेह' ति क्लमयथ- अनन्तरोद्देशके स्थविरान् प्रत्यन्ययूथिकाः प्रत्यनीका उक्ताः, मारणान्तिकसमुद्घातं गमयथेत्यर्थः 'उवद्दवेह' त्ति उपद्रवयथ अष्टमे तु गुर्वादिप्रत्यनीका उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं मारयथेत्यर्थः 'कायं व' ति 'काय' शरीरं प्रतीत्यो- सूत्रम्चारादिकायकार्यमित्यर्थः जोगं ब' त्ति 'योग' ग्लानवैया- ८/२९५. 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र ‘गुरुणं' ति 'गुरून्' तत्त्वोवृत्त्यादिव्यापार प्रतीत्य 'रियं वा पडुच्च' ति 'ऋतं' सत्यं पदेशकान् प्रतीत्य-आश्रित्य प्रत्यनीकमिव-प्रतिसैन्यमिव प्रतीत्य-अप्कायादिजीवसंरक्षणं संयममाश्रित्येत्यर्थः 'देसं प्रतिकूलतया ये ते प्रत्यनीकाः, तत्राचार्यः-अर्थव्याख्याता देसेणं वयामो' त्ति प्रभूताया पृथिव्या ये विवक्षिता उपाध्यायः-सूत्रदाता स्थविरस्तु जातिश्रुतपर्यायैः, तत्र जात्या देशास्तैव्रजामो नाविशेषेण, ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतन- षष्टिवर्षजातः श्रुतस्थविर:-समवायधरः पर्यायस्थविरोदेशपरिहारतोऽचेतनदेशैर्ऋजाम इत्यर्थः। एवं 'पएसं पएसेणं विंशतिवर्षपर्यायः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम्वयामो' इत्यपि नवरं देशो-भूमेर्महत्खण्डं प्रदेशस्तु- 'जच्चाईहिं अवन्नं भासइ वट्टइ न यावि उववाए। लघुतरमिति॥
अहिओ छिद्दप्पेही पगासवाई अणणुलोमो॥१॥
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परिशिष्ट-५:श.८ : उ.८ : सू. २९५-३०१
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भगवती वृत्ति
अहवावि वए एवं उवएस परस्स देति एवं तु।
विना चरणेनैव भवति? इति॥१) एते च प्रत्यनीका दसविहवेयावच्चे कायव्व सयं न कुव्वंति॥२॥
अपुनःकरणेनाभ्युत्थिताः शुद्धिमर्हन्ति शुद्धिश्च व्यवहारादिति (जात्यादिभिरवर्णं भाषते न चाप्युपपाते वर्त्तते।। व्यवहारप्ररूपणायाहअहितश्छिद्रप्रेक्षी प्रकाशवादी अननुलोमः ॥१॥ अथवापि ८/३०१. 'कइविहे ण' मित्यादि, व्यवहरणं व्यवहारोवदेदेवमुपदेशमेवं परस्य ददति दशविधवैयावृत्यं यत्कर्त्तव्यं । मुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि स्वयं तु न कुर्वन्ति॥२॥
व्यवहारः, तत्रागम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः८/२९६. 'गई ण' मित्यादि, 'गति' मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः, तथा श्रुतं
तत्रेहलोकस्य-प्रत्यक्षस्य मानुषत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक शेषमाचारप्रकल्पादि, नवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवद् इहलोक- विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति, प्रत्यनीकः, परलोको-जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीक:-'इन्द्रियार्थ- तथाऽऽज्ञा-यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थ- निवेदनायातीचारालोचनं इतरस्यापि तथैव शुद्धिदानं, तथा साधनपरः।।
धारणा-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या ८/२९७. 'समूहण्णं भंते! त्यादि, 'समूह' साधुसमुदायं प्रतीत्य तत्र विशुन्द्रिः कृता तामवधार्य यदगुप्तमेवालोचनदानतस्तत्रैव तथैव
कुलं-चान्द्रादिकं तत्समूहो गणः-कोटिकादि-स्तत्समूहः सङ्घः, तामेव प्रयुक्ते इति वैयावृत्त्यकारादेर्वा गच्छोपग्रहप्रत्यनीकता चैतेषामवर्णवादादिभिरिति, कुलादिलक्षणं चेदम्- कारिणोऽशेषानुचितस्य प्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां 'एत्थ कुलं विनेयं एगायरियस्स संतई जा उ।
धरणमिति, तथा जीतं द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवानुवृत्तया तिण्ह कुलाण मिहो पुण सावेक्खाणं गणो होइ॥१॥
संहननधृत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत् प्रायश्चित्तदानं यो वा यत्र सव्वोवि नाणदसणचरणगुणविहृसियाण समणाणं। गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्त्तितो समुदाओ पुण संघो गणसमुदाओत्तिकाऊणं ॥२॥
बहुभिरन्यैश्चानवर्तित इति। आगमादीनां व्यापारणे उत्सर्गा(अत्र कुलं विज्ञेयमेकाचार्यस्य या सन्ततिः। त्रयाणां पवादावाह-'जहे त्यादि, यथेति यथा प्रकारः केवलादीनाकुलानामिह सापेक्षाणां पुनर्गणो भवति॥१॥ सर्वोऽपि मन्यतमः 'से' तस्य व्यवहर्नुः स चोक्तलक्षणो व्यवहारः 'तत्र ज्ञानदर्शनचरणगुणविभूषितानां श्रमणानां समुदयः पुनः सङ्घो तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिगुणसमुदाय इतिकृत्वा)।।२।।
व्यवहारकाले व्यवहर्त्तव्ये वा वस्तुनि विषये 'आगमः' ८/२९८. 'अणुकंप' मित्यादि, अनुकम्पा-भक्तपानादिभिरु- केवलादि: स्यात् भवेत् तादृशेनेति शेष: आगमेन 'व्यवहारं'
पष्टम्भस्तां प्रतीत्य, तत्र तपस्वी-क्षपकः ग्लानो-रोगादिभिर- प्रायश्चितदानादिकं प्रस्थापयेत् प्रवर्त्तयेत् न शेषैः, आगमेऽपि समर्थः शैक्षः-अभिनवप्रवजितः, एते ह्यनकम्पनीया भवन्ति, षडविधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात्तस्य, तदभावे मनःपर्यायण, एवं तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति।।
प्रधानतराभावे इतरेणेति। अथ 'नो' नैव चशब्दो यदिशब्दार्थः २/२९९. 'सुयण्ण' मित्यादि, 'श्रुत' सूत्रादि तत्र सूत्रं-व्याख्येयम् 'से' तस्य स वा तत्र व्यवहर्त्तव्यादावागमः स्यात्, 'यथा'
अर्थः-तद्व्याख्यानं नियुक्त्यादि तदुभयं एतद्वितयं, यत्प्रकारं 'से' तस्य तत्र व्यवहर्त्तव्यादौ श्रुतं स्यात् तादृशेन तत्प्रत्यनीकता च
श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति. 'इच्चेएहि इत्यादि निगमनं 'काया वया य ते च्चिय ते चेव पमाय अप्पमाया य।
सामान्येन, 'जहा जहा से' इत्यादि तु विशेषनिगमनमिति।। मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहिं किं कज्जं?॥१॥'
एतैर्व्यवहर्तुः फलं प्रश्नद्वारेणाह-'से कि मित्यादि, अथ किं हे (काया व्रतानि च तान्येव त एव प्रमादा अप्रमादाश्च । भदन्त !-भट्टारक 'आहुः' प्रतिपादयन्ति? ये 'आगमबलिकाः' मोक्षाधिकारिणां (योनिप्राभृतादि) ज्योतिर्योनिभिः किं उक्तज्ञानविशेषबलवन्तः श्रमणा निर्ग्रन्थाः केवलिप्रभृतयः कार्यम् ? ||१|) इत्यादि दूषणोद्भावनं।
'इच्चेयं' ति इत्येतद्वक्ष्यमाणं, अथवा इत्येवमिति एवं प्रत्यक्ष ८/३००. 'भाव' मित्यादि, भावः-पर्यायः, स च जीवाजीवगतः, तत्र पञ्चविधं व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिरूपं 'सम्म ववहरमाणे' त्ति
जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्त:-क्षायिकादिर- संबध्यते, व्यवहरन् प्रवर्तयन्नित्यर्थः. कथं ?- सम्म' ति प्रशस्तो विवक्षयौदयिकः, क्षायिकादिः पुनर्ज्ञानादिरूपोऽतो सम्यक, तदेव कथम् ? इत्याह-यदा २' यस्मिन् २ अवसरे भावान् ज्ञानादीन् प्रति प्रत्यनीकः तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो 'यत्र २' प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तमिति शेषः तदा वा, यथा
२ काले तस्मिन् २ प्रयोजनादौ, कथम्भूतम् ? इत्याह'पाययसुत्तनिबद्धं को वा जाणइ पणीय केणेयं।
अनिश्रितैः-सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः-अङ्गीकृतोऽनिश्रितोकिं वा चरणेणं तु दाणेण विणा उ हवइत्ति॥१॥
पाश्रितस्तम् अथवा निश्रितश्च शिष्यत्वादि प्रतिपन्नः (प्राकृतनिबन्द्रं सूत्र को वा जानाति केनेदं प्रणीतं?. किंवा दानेन उपाश्रितश्च स एव वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तो,
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भगवती वृत्ति
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अथवा निश्रितं रागः उपाश्रितं च द्वेषस्ते, अथवा निश्रितं च आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च-शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा ते न स्तो यत्र तत्तथेति क्रियाविशेषणं, सर्वथा पक्षपातरहितत्वेन यथावदित्यर्थः इह पूज्यव्याख्या
"रागो य होइ निस्सा उवस्सिओ दोससंजुत्तो ॥ अहवण आहाराई दाही मज्झं तु एस निस्सा उ । सीसो पडिच्छओ वा होइ उवस्सा कुलादीया ॥ १ ॥ ' इति (रागश्च भवति निश्रा उपाश्रितो भवति दोष संयुक्तः ॥ अथवाऽऽहारादि मह्यं दास्यत्येवेति तु निश्रा । शिष्यः प्रतीच्छको वा भवत्युपश्रा कुलादिका ॥ | १ || ) आज्ञायाजिनोपदेशस्याराधको भवतीति हन्त ! आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति, अन्ये तु से किमाहु भंते!' इत्याद्येवं व्याख्यान्तिअथ किमाहुर्भदन्त ! आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः ! पञ्चविधव्यवहारस्य फलमिति शेषः, अत्रोत्तरमाह- 'इच्चेय' मित्यादि ॥
आज्ञाराधकश्च कर्म्म क्षपयति शुभं वा तद् बध्नातीति बन्धं निरूपयन्नाह
८/३०२. 'कई' त्यादि, 'बंधे' त्ति द्रव्यतो निगडादिबन्धो भावतः कर्मबन्धः, इह च प्रक्रमात कर्मबन्धोऽधिकृतः 'ईरियावहियाबंधे यत्ति ईर्या - गमनं तत्प्रधानः पन्था मार्ग ईयपथस्तन भवमैर्यापथिकं - केवलयोगप्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धः स तथा, स चैकस्य वेदनीयस्य, संपराइयबंधे य' नि संपरैति संसारं पर्यटति एभिरिति सम्परायाः कषायास्तेषु भवं साम्परायिकं कर्म तस्य यो बन्धः स साम्परायिकबन्धः कषायप्रत्यय इत्यर्थः स चावीतरागगुणस्थानकेषु सर्वेष्वति ।
८/३०३. 'नो नेरइओ' इत्यादि, मनुष्यस्यैव तद्वन्धो, यस्मादुपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगकेवलिनामेव तद्बन्धनमिति, पुव्वपडिवन्नए इत्यादि, पूर्वं प्राक्काले प्रतिपन्नमैर्यापथिकबंधकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपन्नकास्तान्, तद्बन्धकत्वद्वितीयादिसमयवर्त्तिन इत्यर्थः, ते च सदैव बहवः पुरुषाः स्त्रियश्च सन्ति उभयेषां केवलिनां सदैव भावादत उक्तं मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति' त्ति, 'पडिवज्जमाणए' नि प्रतिपद्यमानकान् ऐर्यापथिककर्म्मबन्धनप्रथमसमयवर्त्तिन इत्यर्थः एषां च विरहसम्भवाद् एकदा मनुष्यस्य स्त्रियाश्चैकैकयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः, द्विक्संयोगे तथैव चत्वारः एवमेते सर्वेऽप्यष्टी, स्थापना चेयमेषाम् पु १ स्त्री १ पुं ३ स्त्री ३ | पं स्त्री एतदेवाह मणुस्से वा' इत्यादि, एषां च पुंस्त्वादि तत्तल्लिङ्गापेक्षया न तु वेदापेक्षया, क्षीणोपशान्तवेदत्वात् ।
अथ वेदापेक्षं स्त्रीत्वाद्यधिकृत्याह-
८/३०४. 'तं भंते! कि' मित्यादि, 'नो इत्थी' इत्यादि च पदत्रयनिषेधेनावेदकः प्रश्नितः उत्तरे तु षण्णां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदः, तत्र चं
पूर्वप्रतिपन्नाः
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. ८ : सू. ३०१-३०६ प्रतिपद्यमान काश्च भवन्ति, तत्र पूर्वप्रतिपन्नकानां विगतवेदानां सदा बहुत्वभावात् आह- 'पुव्वपडिवन्ने' त्यादि, प्रतिपद्यमानकानां तु सामायिकत्वाद् विरहभावेनैकादि-सम्भवाद्विककल्पद्रयमत एवाह - 'पडिवज्जमाणे' त्यादि । अपगतवेदमैर्यापथिकबन्धमाश्रित्य स्त्रीत्वादि भूतभावापेक्षया
विकल्पयन्नाह
८/३०५. 'जई' त्यादि, 'तं भंते!' तदा भदन्त ! तद्वा कर्म 'इत्थीपच्छाकडे' त्ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं - भूततां नीतं येनावेदकेनासौ स्त्रीपश्चात्कृतः, एवमन्यान्यपि. इककयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां षड् विकल्पाः द्विकयोगे तु तथैव द्वादश त्रिकयोगे पुनस्तथैवाष्टौ एते च सर्वे षडविंशतिः इयं चैषां स्थापना- स्त्री १ पु. १ न. १ स्त्री ३ पु. ३ न. ३ | सूत्रे च चतुर्भङ्गयष्टभङ्गीनां प्रथमविकल्पा दर्शिताः सर्वान्तिमश्चेति । अथैर्यापथिककर्मबन्धनमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह८/३०६. 'तं भंते!' इत्यादि, 'तद्' ऐर्यापथिकं कर्म 'बंधी' ति बद्धवान् बध्नाति भन्त्स्यति चेत्येको विकल्पः एवमन्येऽपि सप्त, एषां च स्थापना । || प्रस्तार
स्थापना SSG
स्त्री पं स्त्री न
१
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पं १ १
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स्त्री पं १
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551
GIG ISI
उत्तरं तु भवे त्यादि भवे अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्त्या आकर्ष:- ऐर्यापथिककर्माणग्रहणं भवाकर्षस्तं प्रतीत्य 'अस्त्यैकः भवत्येकः कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथाहिपूर्वभवे उपशांतमोहत्वे सत्यैर्यापथिकं कर्म्म बद्धवान वर्त्तमानभवे चोपशान्तमोहत्वे बध्नाति, अनागते चोपशान्तमोहावस्थायां भन्त्स्यतीति १, द्वितीयस्तु यः पूर्वस्मिन् भवे उपशान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्त्तमाने च क्षीणमोहत्वं प्राप्तः स पूर्व बन्द्रवान् वर्त्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति २, तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशांतमोहत्वे बद्धवान् तत्प्रतिपतितो न बध्नाति अनागते चोपशान्तमोहत्वं प्रतिपत्स्यते तदा भन्त्स्यतीति ३, चतुर्थस्तु शैलेषीपूर्वकाले बन्द्रवान् शैलेश्यां च न बध्नाति न च पुनर्भन्त्स्यतीति ४, पञ्चमस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहत्वं लब्धवानिति न बद्धवान् अधुना लब्धमिति बध्नाति पुनरप्येष्यत्काले उपशान्तमोहाद्यवस्थायां भन्त्स्यतीति पञ्चमः ५, षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवानिति न पूर्वं बद्धवान् अधुना तु क्षीणमोहत्वं लब्धमिति बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति षष्ठः ६, सप्तमः पुनर्भव्यस्य स धनादी काले न बद्धवान् अधुनाऽपि कश्चिन्न बध्नाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति ७ अष्टमस्त्वभव्यस्य ८ स च प्रतीत एव ।
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परिशिष्ट-५: श.८: उ.८: सू. ३०६-३१३
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भगवती वृत्ति 'गहणागरिस' मित्यादि, एकस्मिन्नेव भवे ऐपिथिक- सपज्जवसिय' मित्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र चैर्यापथिककर्मणः कर्मपुद्गलानां ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षस्तं प्रथम एव भङ्गे बन्धोऽन्येषु तदसम्भवादिति। प्रतीत्यारत्येकः कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथाहि- ८/३०८. 'त' मित्यादि, 'तत्' ऐपिथिकं कर्म 'देसेणं देसं ति उपशान्तमोहादिर्यदा ऐापथिकं कर्म बद्ध्वा बध्नाति देशेन' जीवदेशेन 'देश' कदिशं बध्नातीत्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र तदाऽतीतसमयापेक्षया बद्धवान वर्तमानसमयापेक्षया च च देशेन कर्मणो देशः सर्व वा कर्म सर्वात्मना वा कर्मणो बध्नाति अनागतसमयापेक्षया तु भन्स्यतीति १, द्वितीयस्तु देशो न बध्यते, किं तर्हि ?, सर्वात्मना सर्वमेव बध्यते, केवली, स ह्यतीतकाले बद्धवान् वर्त्तमाने च बध्नाति तथास्वभाव-त्वाज्जीवस्येति ।। शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति २, तृतीयस्तूपशान्तमोहत्वे अथ साम्परायिकबन्धनिरूपणायाहबद्धवान् तत्प्रतिपतितस्तु न बध्नाति पुनस्तत्रैव भवे ८/३०९. 'संपराइयं ण' मित्यादि, किं नेरइओ' इत्यादयः सप्त उपशमश्रेणी प्रतिपन्नो भन्त्स्य तीति, एकभवे चोपशमश्रेणी प्रश्नाः , उत्तराणि च सप्तैव, एतेषु च मनुष्यमनुषीवर्नाः पञ्च द्विरं प्राप्यत एवेति ३, चतुर्थः पुनः सयोगित्वे बद्धवान् साम्परायिकबन्धका एव सकषायत्वात्. मनुष्यमनुष्यौ तु शैलेश्यवस्थायां न बध्नाति न च भन्त्स्यतीति ४, पञ्चमः सकषायित्वे सति साम्परायिकं बध्नीतो न पुनरन्यदेति।। पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादि न लब्ध्वामिति न साम्परायिकबन्धमेव स्त्र्याद्यपेक्षया निरूपयन्नाहबद्धवान् अधुना तु लब्धमिति बध्नाति तदन्द्राया एव ८/३१०. 'तं भंते ! किं इत्थी' त्यादि, इह स्त्र्यादयो विविक्षितैकत्वचैष्यत्समयेषु पुनर्भन्त्स्यतीति ५, षष्ठस्तु नास्त्येव, तत्र न बहुत्वाः षट् सर्वदा साम्परायिकं बध्नन्ति. अपगतवेदश्च बद्धवान् बध्नातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्त्स्यतीति कदाचिदेव, तस्य कादाचित्कत्वात्, ततश्च स्त्र्यादयः केवला इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात्, तथाहि-आयुषः पूर्वभागे उपशान्त- बध्नन्ति अपगतवेदसहिताश्च, ततश्च यदाउपगतवेदमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् तल्लाभसमये च बध्नाति सहितास्तदोच्यते अथवैते स्त्र्यादयो बध्नन्ति अपगतवेदश्च, ततोऽनन्तरसमयेषु च भन्त्स्य त्येव न तु न भन्त्स्यति, तस्यैकस्यापि सम्भवात, अथवैते स्त्र्यादयो बध्नन्ति समयमात्रस्य बन्धस्येहाभावात्, यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य अपगतवेदाश्च, तेषां बहूनामपि सम्भवात्, अपगतवेदश्च समयानन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ साम्परायिकबन्धको वेदत्रये उपशान्ते क्षीणे वा यावद्यथाख्यातं षष्ठविकल्पहेतुः तदनन्तर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य न प्राप्नोति तावल्लभ्यत इति, इह च पूर्वप्रतिपन्नप्रतिभावान्तरवर्तित्वाद्णाकर्षस्य चेह प्रक्रान्तत्वात्। यदि पुनः पद्यमानकविवक्षा न कृता, द्वयोरप्येकत्वबहुत्वयोविन सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोऽनन्तरं न भन्त्स्य तीति निर्विशेषत्वात्, तथाहि-अपगतवेदत्वे साम्परायिकबन्धोऽल्पविवक्ष्येत तदा यत्सयोगिचरमसमये बध्नातीति कालीन एव, तत्र च योऽपगतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः साम्परायिकं तबन्धपूर्वकमेव स्यान्नाबन्धपूर्वक, तत्पूर्वसमये तस्य बध्नात्यसावेकोऽनेको वा स्यात्, एवं प्रतिपद्यमानकोऽपीति।। बन्धकत्वात, एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यान्न पुनः षष्ठ इति ६, अथ साम्परायिककर्मबन्धमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाहसप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य 9. अष्टमस्त्वभव्यस्येति ८, इह च ८/३१२. तं भंते! कि मित्यादि, इह च पूर्वोक्तेष्वष्टासु भवाकर्षापक्षेष्वष्टसु भङ्गकेषु 'बंधी बंधइ बंधिस्सइ' इत्यत्र विकल्पेष्वाद्याश्चत्वार एव संभवन्ति नेतरे, जीवानां प्रथमे भने उपशान्तमोहः, बंधी बंधइ न बंधिस्सइ' इत्यत्र साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन 'न बंधी' त्यस्यानुपद्वितीये क्षीणमोहः, 'बंधी न बंधइ बंधिस्सइ' इत्यत्र तृतीये पद्यमानत्वात्, तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी यथाख्याताउपशान्तमोह, 'न बंधी न बंधड़ न बंधिस्सइ' इत्यत्र चतुर्थे संप्राप्तोपशमकक्षपकावसानः, स हि पूर्वं बद्धवान् वर्तमानकाले शैलेशीगतः, 'न बंधी बंधड़ बंधिस्सइ' इत्यत्र पञ्चमे तु बध्नाति अनागतकालापेक्षया तु भन्त्स्यति १, द्वितीयस्तु उपशान्तमोहः, 'बंधी बंधइ न बंधिस्सइ' इ. षष्ठे मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान् वर्तमानकाले तु क्षीणमोहः, 'न बंधी न बंधड़ बंधिस्सइ' इत्यत्र सप्तमे भव्यः, बध्नाति भाविमोहक्षयापेक्षया तु न भन्त्स्यति २, तृतीयः 'न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' इत्यत्राष्टमेऽभव्यः, पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्वं बद्धवान् उपशान्तमोहत्वे न बध्नाति ग्रहणाकपिक्षेषु पुनरेतेष्वेव प्रथमे उपशांतमोहः क्षीणमोहो वा, तस्माच्च्युतः पुनर्भन्त्स्यतीति ३, चतुर्थस्तु मोहक्षयात्पूर्वं द्वितीये तु केवली. तृतीये तूपशान्तमोहः चतुर्थे शैलेशीगतः साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये न बध्नाति न च पञ्चमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा, षष्ठः शून्यः, सप्तमे भन्त्स्य तीति।। भव्यो भाविमोहोपशमो भाविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य साम्परायिककर्मबन्धमेवाश्रित्याहइति॥
८/३१३. 'तं' मित्यादि, 'साइयं वा सपज्जवसियं बंधइ' त्ति अथैर्यापथिकबन्धमेव निरूपयन्नाह
उपशान्तमोहतायाश्च्युतः पुनरुपशान्तमोहतां क्षीणमोहतां वा ८.३०७. 'त' मित्यादि, तत' ऐयापथिकं कर्म साइयं प्रतिपत्स्यमानः, 'अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधड' ति आदितः
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५:श.८: उ.८: सू. ३१३-३२३
क्षपकापेक्षमिदम, 'अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ' ति ज्ञानं-मत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवएतच्चाभव्यापेक्षं, 'नो चेव णं साइयं अपज्जवसियं बंधइ' त्ति, जनमभावे च दैन्यपरिवर्जनं, ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरीषह इति सादिसाम्परायिकबन्धो हि मोहोपशमाच्च्युतस्यैव भवति, तस्य पठ्यते, 'दसणपरीसहे दर्शनं-तत्त्वश्रद्धानं तत्परिषहणं च चावश्यं मोक्षयायित्वात्साम्परायिकबन्धस्य व्यवच्छेदसम्भवः, जिनानां जिनोक्तसूक्ष्मभावानां चाश्रद्धानवर्जनमिति। ततश्च न सादिरपर्यवसानः साम्परायिकबन्धोऽस्तीति। ८/३१७. 'कइसु कम्मपयडीसु समोयरंति' त्ति कतिषु कर्मप्रकृतिषु अनन्तरं कर्मवक्तव्यतोक्ता, अथ कर्मस्वेव यथायोगं विषये परीषहाः समवतारं व्रजन्तीत्यर्थः । परीषहावतारं निरूपयितुमिच्छुः कर्मप्रकृतीः परीषहांश्च ८/३१८. 'पण्णापरीसहे' इत्यादि प्रजापरीषहो ज्ञानावरणेतावदाह
मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति, प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य, ८/३१६, 'कति ण मित्यादि, 'परीसह त्ति परीति-समन्तात् तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवत्वात्, यत्तु तदभावे
स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थं साध्वादिभिः सह्यन्त दैन्यपरिवर्जनं तत्सद्भावे च मानवर्जनं तच्चारित्रइति परीषहास्ते च द्वाविंशतिरिति 'दिगिंछ' ति बुभुक्षा सैव मोहनीयक्षयोपशमादेरिति, एवं ज्ञानपरीषहोऽपि नवरं परीषहः-तपोऽर्थमनेषणीयभक्तपरिहारार्थं वा मुमुक्षुणा मत्यादिज्ञानावरणेऽवतरति। परिषह्यमाणत्वात् दिगिंछापरीसहेत्ति, एवं पिपासापरीसहोऽपि, ८/३१९. 'पंचे' त्यादि गाथा, ‘पंचेव आणुपुब्बी' ति क्षुत्पिपासायावच्छब्दलब्धं सव्याख्यानमेवं दृश्य-सीयपरीसहे उसिण- शीतोष्णदेशमशकपरीषहा इत्यर्थः, एतेषु च पीडैव वेदनीयोत्था परीसहे' शीतोष्णे परीषहौ आतापनार्थं शीतोष्ण- तदधिसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसम्भवं. बाधायामप्यग्निसेवास्नानाद्यकृत्यपरिवर्जनार्थं वा मुमुक्षुणा तयोः अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति।। परिषह्यमाणत्वात्, एवमुत्तरत्रापि, ‘दंसमसगपरीसहे' दंशा ८/३२०. 'एगे दंसणपरीसहे समोयरति' त्ति यतो दर्शन मशकाश्च-चतुरिन्द्रियविशेषाः, उपलक्षणत्वाच्चैषां यूकाम- तत्त्वश्रद्धानरूपं दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमादौ भवति उदये तु त्कुणमक्षिकादिपरिग्रहः, परीषहता चैतेषां देहव्यथामुत्पाद- न भवतीत्यतस्तत्र दर्शनपरीषहः समवतरतीति।। यत्स्वपि तेष्वनिवारणभयद्वेषाभावतः 'अचेलपरीसहे' चेलाना-- ८/३२१. 'अरई' त्यादि गाथा, तत्र चारतिपरीषहोऽरतिमोहनीये वाससामभावोऽचेलं तच्च परीषहोऽचेलतायां जीर्णापूर्ण- तज्जन्यत्वात्, अचेलपरीषहो जुगुप्सामोहनीये लज्जापेक्षया, मलिनादिचेलत्वे च लज्जादैन्याकालाधकरणेन परिष - स्त्रीपरीषहः पुरुषवेदमोहे स्त्र्यपेक्षया तु पुरुषपरीषहः माणत्वादिति, 'अरइपरीसहे' अरतिः-मोहनीयनो मनोविकारः स्त्रीवेदमोहे, तत्त्वतः स्त्र्याधभिलाषरूपत्वात्तस्य। नैषेधिकीसा च परीषहस्तन्निषेधनेन सहनादिति 'इत्थियापरीसहे' परीसहो भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया। याञ्चापरीषहो मानमोहे स्त्रियाः परीषहः २ तत् परीषणं च तन्निरपेक्षत्वं ब्रह्मचर्य- तदुष्करत्वापेक्षया। आक्रोशपरीषहः क्रोधमोहे मित्यर्थः 'चरियापरीसहे' चर्या-ग्रामनगरादिषु संचरणं क्रोधोत्पत्त्यपेक्षया, सत्कारपुरस्कारपरीषहो मानमोहे तत्परिषहणं चाप्रतिबद्धतया तत्करणं 'निसीहियापरीसहे' मदोत्पत्त्यपेक्षया समवतरति। सामान्यतस्तु सर्वेऽप्येते नैषेधिकी-स्वाध्यायभूमिः शून्यागारादिरूपा तत्परिषहणं च चारित्रमोहनीये समवतरन्तीति।। तत्रोपसर्गेष्वत्रासः 'सेज्जापरीसहे' शय्या-वसतिस्तत्परिषहणं ८/३२२. 'एगे अलाभपरीसहे समोयरति' ति अलाभपरीषह च तज्जन्यदुःखादेरुपेक्षा 'अक्कोसपरीसहे' आक्रोशो-दुर्वचनं एवान्तराये समवतरति, अन्तरायं चेह लाभान्तरायं, तदुदय एव 'वहपरीसहे' व्यधो वधो वा-यष्ट्यादिताडनं तत्परीषहणं च लाभाभावात्, तदधिसहनं च चारित्रमोहनीयक्षयोपशम इति। क्षान्त्यवलम्बनं 'जायणापरीसहे' याञ्चा-भिक्षणं तत्परिषहणं अथ बन्धस्थानान्याश्रित्य परीषहान् विचारयन्नाह-- च तत्र मानवर्जनम् 'अलाभपरीसहे' अलाभ:- ८/३२३. 'सत्तविहे' त्यादि, सप्तविधबन्धकः-आयुर्वर्जशेषकर्माप्रतीतस्तत्परिषहणं च तत्र दैन्याभाव 'रोगपरीसहे' रोगो-रुक बन्धकः 'जं समयं सीयपरीसह' मित्यादि, यत्र समये शीततत्परिषहणं च तत्पीडासहनं चिकित्सावर्जनं च परीषहं वेदयते न तत्रोष्णपरीषह, शीतोष्णयोः परस्परमत्यन्त'तणफासपरीसहे' तृणस्पर्शः-कुशादिस्पर्शस्तत्परिषहणं च विरोधेनैकदैकत्रासम्भावात्। अथ यद्यपि शीतोष्णयोरेककादाचित्कतृणग्रहणे तत्संस्पर्शजन्यदुःखाधिसहनं 'जल्ल- दैकवासम्भवस्तथाऽप्यात्यन्तिके शीते तथाविधाग्निसन्निधौ परीसहे' जल्लो-मलस्तत्परिषहणं च देशतः सर्वतो वा युगपदेवैकस्य पुंस एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं स्नानोद्वर्तनादिवर्जनं 'सक्कारपुरक्कारपरीसहे' सत्कारो- द्वयोरपि शीतोष्णपरीषहयोरस्ति सम्भवः, नैतदेवं, कालवस्त्रादि पूजा पुरस्करो-राजादिकृताभ्युत्थानादिस्तत्परिषहणं च कृतशीतोष्णाश्रयत्वादधिकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा तत्सद्भावे आत्मोत्कर्षवर्जनं तदभावे दैन्यवर्जनं तदनाकासा प्रायेण तपस्विनामभावादिति। तथा 'जं समयं चरियापरीसह' चेति 'पण्णापरीसहे' प्रज्ञा-मतिज्ञानविशेषस्तत्परिषहणं च मित्यादि तत्र चर्या-ग्रामादिषु संचरणं नैषेधिकी च-ग्रामादिषु प्रज्ञाया अभावे उद्धेगाकरणं तदावे च मदाकरणं 'नाणपरीसहे' प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो
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परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ ८ : सू. ३२३-३३१
विविक्ततरोपाश्रये गत्वा निषदनम्, एवं चानयोर्विहारावस्थानरूपत्वेन परस्परविरोधान्नैकदा सम्भवः, अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति न तयोरेकदा सम्भवस्ततैश्चैकोनविंशतेरेव परीषहाणामुत्कर्षेणैकदा वेदनं प्राप्तमिति नैवं यतो ग्रामादिगमनप्रवृत्तौ यदा कश्चिदौत्सुक्यादनिवृत्ततत्परिणाम एवं विश्रामभोजनाद्यर्थमित्वरशय्यायां वर्त्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव तत्त्वतश्चर्याया असमाप्तत्वाद् आश्रयस्य चाश्रयणादिति यद्येवं तर्हि कथं षड्विधबन्धक - माश्रित्य वक्ष्यति - 'जं समयं चरियापरीसहं वेएति नो तं समयं सेज्जापरीसह वेएड' इत्यादीति ?, अत्रोच्यते, षड्विधबन्धको मोहनीयस्याविद्यमानकल्पत्वात् सर्वत्रौत्सुक्याभावेन शय्या काले शय्यायामेव वर्त्तते न तु बादररागवदौत्सुक्येन विहारपरिणामाविच्छेदाच्चर्यायामपि, अतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधाद्युगपदसंभव:, ततश्च साध्वेव 'जं समयं 'चरिए' त्यादीति । ८ / ३२५. 'छव्विहबंधे त्यादि षड्विधबन्ध कस्यायुर्मोहवजनां बन्धकस्य सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः, एतदेवाह - 'सरागछउ - मत्थस्से' त्यादि, सूक्ष्मलोभाणूनां वेदनात्सरागोऽनुत्पन्न - केवलत्वाच्छास्थस्ततः कर्म्मधारयोऽतस्तस्य 'चोदस परीसह त्ति अष्टानां मोहनीयसम्भवानां तस्य मोहाभावेनाभावाद्वाविंशतेः शेषाश्चतुर्द्दशपरीषहा इति, ननु सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्दशानामेवाभिधानान्मोहनीयसम्भवानामष्टानामसंभव इत्युक्तं. ततश्च सामर्थ्यादनिवृत्तिबादरसंपरायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः प्राप्तः । कथं चैतद् युज्यते ?, यतो दर्शनसप्तकोपशमे बादरकषायस्य दर्शनमोहनीयोदयाभावेन दर्शनपरीषहा - भावात्सप्तानामेव सम्भवो नाष्टानां अथ दर्शनमोहनीय- सत्तापेक्षयाऽसावपीष्यत इत्यष्टावेव तर्हि उपशमकत्वे सूक्ष्मसम्परायस्यापि मोहनीयसत्तासद्भावात्कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीषहा न भवन्ति? इति, न्यायस्य समानत्वादिति, अत्रोच्यते, यस्माद्दर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसक वेदाद्युपश मकालेऽनिवृत्तिबादरसम्परायो भवति, स चावश्यकादिव्यतिरिक्तग्रन्थान्तरमतेन दर्शनत्रयस्य बृहति भागे उ५९. " शेषे चानुपशान्ते एव स्यात्, नपुंसकवेदं चासौ तेन सहोपशमयितुमुपक्रमते, ततश्च नपुंसक वेदोपशमावसरेऽनिवृत्तिबादरसम्परायस्य सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति न तु सत्तैव ततस्तत्प्रत्ययो दर्शनपरीषहस्तस्यास्तीति, ततश्चाष्टावपि भवन्तीति, सूक्ष्मसम्परायस्य तु मोहसत्तायामपि न परीषहहेतुभूतः सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीषहसम्भवः, आह च
१. अत एव ऋजुसूत्रादीनां संयतानामेव परीषहा इति कथने अविरत - देशविरतानां परीषहा इति पक्षरूपाभ्यां नैगमव्यवहाराभ्यां विशिष्टता, क्रमेणोपयोगे सहजसमाधानमिदं, तथापि विंशतिपरीषहयौगपद्यप्रति
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भगवती वृत्ति
'मोहनिमित्ता अट्ठवि बायररागे परीसहा किह णु ? | किह वा सुहुमसरागे न होंति उवसामए सव्वे १ ॥ १ ॥ आचार्य आह
सत्तगपरओ च्चिय जेण बायरो जं च सावसेसंमि । मग्गिल्लंमि पुरिल्ले लग्गइ तो दंसणस्सावि ॥ २ ॥ लब्भइ पएसकम्मं पडुच्च सुहुमोदओ तओ अट्ठ । तस्स भणिया न सुहुमे न तस्स सुहुमोदओऽवि जओ ॥ ३ ॥' (बादरसम्पराये मोहनिमित्ता अष्टौ परीषहाः कथं ? कथं वा सूक्ष्मसम्पराये औपशमिके च सर्वे न भवन्ति ? ॥ १ ॥ दर्शन सप्तकपरत एव बादरो येन यस्माच्च सावशेषे पाश्चात्येऽग्रे लगति ततो दर्शनस्यापि || २ || लभ्यते प्रदेशकर्म प्रतीत्य सूक्ष्मोदयस्ततोऽष्टौ तस्य भणिताः, न सूक्ष्मे, न तस्य सूक्ष्मोदयोऽपि यतः ॥ ३ ॥ ) यच्च सूक्ष्मसम्परायस्य सूक्ष्मलोभकिट्टिकानामुदयो नासौ परीषहहेतुलोभहेतुकस्य परीषहस्यानभिधानात्, यदि च कोऽपि कथञ्चिदसौ स्यात्तदा तस्येहात्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षेति ।
८/३२६. ' एगविहबंधगस्स' त्ति वेदनीयबन्धकस्येत्यर्थः कस्य तस्य ? इत्यत आह-'वीयराग छउमत्थस्स' त्ति उपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः 'एवं चेवे' त्यादि चतुर्दश प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्वेदयतीत्यर्थः, शीतोष्णयोश्चर्याशय्ययोश्च पर्यायेण वेदनादिति ॥
अनन्तरं परीषहा उक्तास्तेषु चोष्णपरीषहस्तद्धेतवश्च सूर्या इत्यतः सूर्यवक्तव्यतायां निरूपयन्नाह८/३२९-३३१. 'जंबुद्दीवे' इत्यादि, 'दूरे य मूले य दीसंति' नि 'दूरे
च' द्रष्टृस्थानापेक्षया व्यवहिते देशे 'मूले च' आसन्ने द्रष्टृप्रतीत्य-पेक्षया सूर्यौ दृश्येते द्रष्टा हि स्वरूपतो बहुभिर्योजन सहस्रैर्व्यवहितमुद्गमास्तमययोः सूर्यं पश्यति, आसन्नं पुनर्मन्यते, सद्भूतं तु विप्रकर्षं सन्तमपि न प्रतिपद्यत इति । 'मज्झतिय मुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति' ति मध्यो- मध्यमो ऽन्तो- विभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः स चासौ मुहूर्तश्चेति मध्यान्तिकमुहूर्त्तस्तत्र 'मूले च' आसन्ने देशे द्रष्टृस्थानापेक्षया 'दूरे च' व्यवहिते देशे द्रष्टृप्रतीत्यपेक्षया सूर्यौ दृश्येते द्रष्टा हि मध्याह्ने उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसन्नं रविं पश्यति योजनशताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्त्वात् मन्यते पुनरुदयास्तमयप्रतीत्यपेक्षया व्यवहितमिति । सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं' ति समभूतलापेक्षया सर्वत्रोच्चत्वमष्टौ योजनशतानीतिकृत्वा । 'लेसापडिघाएणं' तेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वात् तद्देशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः, लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन दूरस्थोऽपि स्वरूपेण सूर्य आसन्नप्रतीतिं पादकसूत्रविरोधात् न तत्कल्पना, भवतु वान्येषां परस्पराविरुद्वानां समुदित उपयोगो नानयोर्द्वयोः परस्परं विरुद्धयोः वेदनाद्वयस्य यौगपद्याभावात् ।
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भगवती वृत्ति
५०९ परिशिष्ट-५: श.८: उ.८.९ : सू.३३१-३५१ जनयति, 'लेसाभितावेणं' ति तेजसोऽभितापेन, मध्याह्ने हि
नवम उद्देशकः आसन्नतरत्वात्सूर्यस्तेजसा प्रतपति, तेजःप्रतापे च दुर्दश्यत्वेन प्रत्यासन्नोऽप्यसौ दूरप्रतीतिं जनयतीति।
अष्टमोद्देशके ज्योतिषां वक्तव्यतोक्ता, सा च वैस्रसिकीति ८/३३२-३३९. 'नो तीतं खेतं गच्छंति' ति अतीतक्षेत्रस्याति
वैससिकं प्रायोगिकं च बन्धं प्रतिपिपादयिषनवमोद्देशकमाह। क्रान्तत्वात्, ‘पड़प्पन्नं' ति वर्तमानं गम्यमानमित्यर्थः, 'नो
तस्य चेदमादिसूत्रम्अणागयं' ति गमिष्यमाणमित्यर्थः. इह च यदाकाशखण्ड- ८
बट८/३४५. 'कहविहे ण' मित्यादि 'बंधे' त्ति बन्धः-पुद्गलादिविषयः मादित्यःस्वतेजसा व्याप्नोति तत् क्षेत्रमुच्यते। 'ओभासंति' त्ति
सम्बन्धः ‘पओगबंधे य' त्ति जीवप्रयोगकृतः 'वीससाबंधे य' 'अवभासयतः' ईषदुद्द्योतयतः 'पुटुं' ति तेजसा स्पृष्टं 'जाव
त्ति स्वभावसंपन्नः। नियमा छद्दिसिं' ति इह यावत्करणादिदं दृश्य-तं भंते! किं
यथासत्तिन्यायमाश्रित्याहओगाढं ओभासइ अणोगाढं ओभासद? गोयमा! ओगा ८/३४६. 'वीससे त्यादि, 'धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणाईयवीससाबंधे ओभासइ नो अणोगाढ' मित्यादि 'तं भंते! कतिदिसिं
यत्ति धर्मास्तिकायस्यान्योऽन्य-प्रदेशानां परस्परेण ओभासेइ ?, गोयमा !' इत्येतदन्तमिति। 'उज्जोवेंति' त्ति
योऽनादिको विस्रसाबन्धः स तथा, एवमुत्तरत्रापि। 'उद्द्योतयतः' अत्यर्थं द्योतयतः तवंति' त्ति तापयतः
त: तिति नि तापयतः ८/३४८. 'देसबंधे' ति देशतोस्रदेशापेक्षया बन्धो देशबन्धो यथा उष्णरश्मित्वात्तयोः ‘भासंति' त्ति भासयतः शोभयत इत्यर्थः ।।
सङ्कलिकाकटिकानां, सव्वबंधे' ति सर्वतः सर्वात्मना बन्धः उक्तमेवार्थं शिष्यहिताय प्रकारान्तरेणाह-'जंबू' इत्यादि,
सर्वबन्धो यथा क्षीरनीरयोः 'देसबन्धे नो सव्वबंधे' ति 'किरिया कज्जइ' त्ति अवभासनादिका क्रिया भवतीत्यर्थः 'पुट्ठ'
धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शेन व्यवस्थित त्ति तेजसा स्पृष्टात्-स्पर्शनाद् या सा स्पृष्टा 'एगं जोयणसयं
त्वाद्देशबन्ध एव न पुनः सर्वबन्धः, तत्र हि एकस्य प्रदेशस्य उहूं तवंति' त्ति स्वस्वविमानस्योपरि योजनशतप्रमाणस्यैव
प्रदेशान्तरैः सर्वथा बन्धेऽन्योऽन्यान्तविनैकप्रदेशत्वमेव तापक्षेत्रस्य भावात् 'अट्टारस जोयणसयाई अहे तवंति' त्ति,
स्यात् नासङ्ख्येयप्रदेशत्वमिति।। कथं?, सूर्यादष्टासु योजनशतेषु भूतलं भूतलाच्च ८/३४९. 'सव्वद्धं ति सद्धिां -सर्वकालं। योजनसहरोऽधोलोकग्रामा भवन्ति तांश्च यावदुद्द्योतनादिति।
८/३५०. 'साइयवीससाबंधे य' ति सादिको यो विस्रसाबन्धः स 'सीयालीस' मित्यादि, एतच्च सर्वोत्कृष्टदिवसे चक्षुःस्पर्शा
तथा, 'बंधणपच्चइए' त्ति बध्यतेऽनेनेति बन्धनं-विवक्षितपेक्षयाऽवसेयमिति॥
स्निग्धतादिको गुणः स एव प्रत्ययो-हेतुर्यत्र स तथा, एवं अनन्तरं सूर्यवक्तव्यतोक्ता. अथ सामान्येन ज्योतिष्क
भाजनप्रत्ययः परिणामप्रत्ययश्च, नवरं भाजनं-आधारः वक्तव्यतामाह
परिणामो-रूपान्तरगमनं। ८/३४०-३४३. 'अंतो णं भंते !' इत्यादि, 'जहा जीवाभिगमे तहेव ८/३५१. 'जन्न परमाणुपुग्गले' त्यादौ परमाणुपुद्गलः परमाणरेख निरवसेसं' ति तत्र चेदं सूत्रमेवं-'कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा
'वेमायनिन्द्रयाए'-त्ति विषमा मात्रा यस्यां सा विमात्रा सा चासौ चारोववन्नगा चारट्ठिझ्या गइरझ्या गइसमावन्नगा?, गोयमा ! ते
स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता तया, एवमन्यदपि पदद्वयम, णं देवा नो उड्लोववन्नगा नो कप्पोववन्नगा विमाणोववन्नगा
इदमुक्तं भवतिचारोववन्नगा' ज्योतिश्चक्रचरणोपलक्षितक्षेत्रोपपन्ना इत्यर्थः 'नो
'समनिद्धयाए बन्धो न होइ समलुक्खयाएवि न होइ। चारविइया' इह चारो-ज्योतिषामवस्थानक्षेत्रं 'नो नैव चारे
वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं॥१॥' स्थितिर्येषां ते तथा, अत एव 'गइरइया' अत एव
अयमर्थः-समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाणु'गइसमावन्नगा' इत्यादि, कियद्दूरमिदं वाच्यम् ? इत्याह-जाव
व्यणुकादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्यापि उक्कोसेणं छम्मास त्ति इदं चैवं द्रष्टव्यम्-'इंदट्ठाणे णं भंते !
समगुणरूक्षेण, यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः, केवइयं कालं विरहिए उववाएणं?, गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं
विषममात्रानिरूपणार्थं चोच्यतेसमयं उक्कोसेणं छम्मास' त्ति 'जहा जीवाभिगमे' त्ति,
'निद्धस्स निद्रेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं। इदमप्येवं तत्र-'जे चंदिमसूरियगहगणनक्खत्तताराख्वा ते णं
निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा॥१॥' भंते! देवा किं उड्डोववन्नगा?' इत्यादि प्रश्नसूत्रम्, उत्तरं तु
इति (स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन रूक्षस्य रूक्षण 'गोयमा! ते णं देवा नो उड्ढोववन्नगा नो कप्पोववन्नगा
द्विकाधिकेन। स्निग्धस्य रूक्षेणोपैति बन्धो जघन्यव| विषमः विमाणोववन्नगा नो चारोववन्नगा चारट्टिइया नो गइरइया नो
समो वा॥१॥) 'बंधणपच्चइएणं' ति बन्धनस्य-बन्धस्य गइसमावन्नगे' त्यादीति।।
प्रत्ययो-हेतुरुक्तरूपविमात्रस्निग्धतादिलक्षणो बन्धनमेव वा अष्टमशतेऽष्टमः॥८-८॥
विवक्षितस्नेहादि प्रत्ययो बन्धनप्रत्ययस्तेन, इह च बन्धनप्रत्ययेनेति सामान्यं विमात्रस्निग्धतयेत्यादयस्तु तद्भेदा
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ.९ : सू. ३५१-३६४
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भगवती वृत्ति इति। 'असंखेनं कालं' ति असङ्ग्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणी रूपं। ८/३५५. 'तणभाराण व' ति तृणभारा-स्तृणभारकास्तेषां वेत्ते' ८/३५२. 'जुन्नसुरे' त्यादि तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानीभवनलक्षणो त्यादि वेत्रलता-जलवंशकम्बा 'वाग' त्ति वल्कःवरत्रा-चर्ममयी
बन्धः, जीर्णगुडस्य जीर्णतन्दुलानां च पिण्डीभवनलक्षणः। रज्जुः-सनादिमयी वल्ली-त्रपुष्यादिका कुशा-निर्मूलदर्भाः ८/३५४. 'पओगबंधे ति जीवव्यापारबन्धः स च दर्भास्तु समूलाः, आदिशब्दाच्चीवरादिग्रहः।
जीवप्रदेशानामौदारिकादिपुगलानां वा 'अणाइए वा' इत्यादयो ८/३५६. 'लेसणाबंधे त्ति श्लेषणा-श्लथद्रव्येण द्रव्ययोः संबन्धन द्वितीयवर्जास्त्रयो भङ्गाः, तत्र प्रथमभङ्गोदाहरणायाह-'तत्थ णं तद्रूपो यो बन्धः स तथा, 'उच्चयबंधे' त्ति उच्चयः- ऊन्द्धर्व जे से' इत्यादि, अस्य किल जीवस्यासङ्ख्येयप्रदेशिकस्याष्टौ ये चयनं राशीकरणं तद्रूपो बन्ध उच्चयबन्धः, 'समुच्चय-बंधे' ति मध्यप्रदेशास्तेषामनादिरपर्यवसितो बन्धो, यदाऽपि लोकं सङ्गतः-उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुच्चयः स एव व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽप्यसौ तथैवेति, अन्येषां बन्ध समुच्चयबन्धः, 'साहणणाबंधे' त्ति संहननं- अवयवानां पुनर्जीवप्रदेशानां विपरिवर्त्तमानत्वान्नास्त्यनादिरपर्यवसितो तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः, दीर्घत्वादि चेह बन्धः, तत्स्थापना
प्राकृतशैलीप्रभवमिति। 100
८/३५७. कुद्धिमाणं' ति मणिभूमिकानां 'छुहाचिक्खिल्ले' त्यादौ एतेषामुपर्यन्ये चत्वारः, एवमेतेऽष्टौ।।
सिलेस' त्ति श्लेषो-वज्रलेपः 'लक्ख' त्ति जतु ‘महसित्थ' त्ति एवं तावत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्तः, अथ
मदनम्, आदिशब्दाद् गुग्गुलरालाखल्यादिग्रहः । तेष्वेकैकेनात्मप्रदेशेन सह यावतां परस्परेण सम्बन्धो भवति
भवात ८/३५८. 'अवगररासीण व' ति कचवरराशीनाम् 'उच्चएणं' ति
। तदर्शनायाह-'तत्थवि ण' मित्यादि, 'तत्रापि' तेष्वष्टासु
जयना जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणामेकैकेन सहानादिरपर्यवसितो
स्पयवासता ८/३५९. 'अगडतलागनई इत्यादि प्रायः प्राग व्याख्यातमेव। बन्धः, तथाहि-पूर्वोक्तप्रकारेणावस्थितानमष्टानामुपरितन- 1/360. 'देससाहणणाबंधे य' ति देशेन देशस्य संहननलक्षणो प्रतरस्य यः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्त्तिना
बन्धः-सम्बन्धः शकटाङ्गादीनामिवेति देशसंहननबन्धः, वेकश्चाधोवतीत्येते त्रयः संबध्यन्ते शेषस्त्वेक उपरितन
'सव्वसाहणणाबंधे य' ति सर्वेण सर्वस्य संहननलक्षणो स्त्रयश्चाधस्तना न संबध्यन्ते व्यवहितत्वात्।
बन्धः-सम्बन्धः क्षीरनीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः । एवमधस्तनप्रतरापेक्षयाऽपीति चूर्णिकारव्याख्या, टीकाकार
टाकाकार- ८/३६१. 'जन्नं सगडरहे' त्यादि, शकटादीनि च पदानि प्राग् व्याख्या तु दुरवगमत्वात्परिहृतेति, 'सेसाणं साइए' ति शेषाणां
व्याख्यातान्यपि शिष्यहिताय पुनर्व्याख्यायन्ते-तत्र च 'सगड' मध्यमाष्टाभ्योऽन्येषां सादिर्विपरिवर्त्तमानत्वात् एतेन प्रथमभङ्ग
त्ति गन्त्री 'रह' त्ति स्यन्दनः 'जाण' त्ति यानं-लघुगन्त्री 'जुग्ग' उदाहृतः, अनादिसपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भङ्ग इह न
त्ति युग्यं गोल्लविषयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोप-शोभितं संभवति, अनादिसंबद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानाम
जम्पानं 'गिल्लि' ति हस्तिन उपरि कोल्लरं यन्मानुषं गिलतीव परिवर्त्तमानत्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति। अथ
'थिल्लि' त्ति अड्डपल्लाणं "सीय' ति शिबिकातृतीयो भङ्ग उदाहियते-'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि.
कूटाकारणाच्छादितो जम्पानविशेषः 'संदमाणिय' ति पुरुषसिद्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशबन्धः, शैलेश्यवस्थायां
प्रमाणो जम्पानविशेषः 'लोहि' त्ति मण्डकादिपचनभाजनं संस्थापितप्रदेशानां सिद्धत्वेऽपि चलनाभावादिति। अथ
'लोहकडाहे' ति भाजनविशेष एव 'कडुच्छुय' नि चतुर्थभङ्ग भेदत आह-तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि,
परिवेषणभाजनम् आसनशयनस्तम्भाः प्रतीताः “भंड' नि 'आलावणबंधे ति आलाप्यते-आलीनं क्रियत एभिरित्यालाप
मन्मयभाजनं 'मत' ति अमत्रं भाजनविशेषः 'उवगरण' ति नानि-रज्ज्वादीनि तैर्बन्धस्तृणादीनामालापनबन्धः ।
नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति।। 'अल्लियावणबंधे' ति अल्लियावणं-द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण
८/३६३. 'पुव्वप्पओगपच्चइए य' ति पूर्वः-प्राक्कालासेवितः श्लेषादिनाऽऽलीनस्य यत्करणं तद्रूपो यो बन्धः स तथा।
प्रयोगो-जीवव्यापारो वेदनाकषायादिसमुद्घातरूपः प्रत्ययः'सरीरबंधे' त्ति समुद्घाते सति यो विस्तारितसङ्कोचित
कारणं यत्र शरीरबन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः, जीवप्रदेशसम्बन्धविशेषवशात्तैजसादिशरीरप्रदेशानां सम्बन्ध
'पच्चुप्पन्नपओगपच्चइए य' त्ति प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान विशेषः स शरीरबन्धः। शरीरिबन्ध इत्यन्ये, तत्र शरीरिणः
इत्यर्थः प्रयोगः-केवलिसमुद्घातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स समुद्घाते विक्षिप्तजीवप्रदेशानां सङ्कोचने यो बन्धः स
तथा स एव प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः। शरीरिबन्ध इति। 'सरीरप्पओगबंधे' त्ति शरीरस्य
८/३६४. 'नेरझ्याईण मित्यादि, 'तत्थ तत्थ' त्ति अनेन औदारिकादेर्यः प्रयोगेण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजनित
समुद्घातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह, तेसु तेसु' त्ति अनेन व्यापारेण बन्धः-तत्पुद्गलोपादानं शरीररूपस्य वा प्रयोगस्य यो
समुद्घातकारणानां वेदनादीनां बाहुल्यमुक्तं 'समोहणमाणाणं' बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः ।।
ति समुद्धन्यमानानां समुद्घातं शरीराद्वहिर्जीवप्रदेशप्रक्षेपलक्षणं
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ.९ : सू. ३६४-३७८
गच्छतां 'जीवपएसाणं' ति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि यदन्यान्यपि कारणान्यभिधीयन्ते तद्विवक्षितकर्मोदयोऽशरीरबन्धाधिकारात्तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेश इति न्यायेन जीव- भिहितान्येव सहकारिकारणान्यपेक्ष्येह कारणतयाऽवसेय प्रदेशाश्रिततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं, शरीरि- इत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिति॥ बन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य सङ्कोचिता. ८/३७७-३७२. 'एगिदिए' त्यादौ ‘एवं चेव' ति अनेनाधिकृतसूत्रस्य नामुपसर्जनीकृततैजसादिशरीरप्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति पूर्वसूत्रसमताभिधानेऽपि 'ओरालियसरीरप्पओगनामाए' इत्यत्र 'बंधे त्ति रचनादिविशेषः।
पदे एगिदियओरालियसरीरप्पओगनामाए' इत्ययं विशेषो ८/३६५. 'जन्नं केवले' त्यादि, केवलिसमुद्घातेन दण्ड १ कपाट २ दृश्यः, एकेन्द्रियौदारिक-शरीरप्रयोगबन्धस्येहाधिकृतत्वात,
मथिकरणा ३ न्तरपूरण ४ लक्षणेन 'समुपहतस्य' एवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति॥ विस्तारितजीवप्रदेशस्य ततः समुद्घातात् 'प्रतिनिवर्तमानस्य' ८/३७३. 'देसबंधेऽवि सव्वबंधेऽवि' त्ति तत्र यथाऽपूप: स्नेहभृतप्रदेशान संहरतः, समुद्घातप्रतिनिवर्तमानत्वं च तसतापिकायां प्रक्षिप्तः प्रथमसमये घृतादि गृह्णात्येव शेषेषु तु पञ्चमादिष्वनेकेषु समयेषु स्यादित्यतो विशेषमाह-'अंतरामंथे समयेषु गृह्णाति विसृजति च एवमयं जीवो यदा प्राक्तनं वट्टमाणस्स' त्ति निवर्तनक्रियाया अन्तरे-मध्येऽवस्थितस्य शरीरकं विहायान्यद्गृह्णाति तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान पञ्चमसमय इत्यर्थः, यद्यपि च षष्ठादिसमयेषु शरीरप्रायोग्यपुद्गलान् गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबन्धः, ततो तेजसादिशरीरसङ्घातः समुत्पद्यते तथाऽप्यभूतपूर्वतया द्वितीयादिषु समयेषु तान् गृह्णाति विसृजति चेत्येवं देशबन्धः, पञ्चमसमय एवासौ भवति शेषेषु तु भूतपूर्वतयैवेतिकृत्वा ततश्चैवमौदारिकस्य देशबन्धोऽप्यस्तीति सर्वबन्धोऽप्य'अंतरामथे वट्टमाणस्से' त्युक्तमिति, 'तेयाकम्माणं बंधे
स्तीति।। समुप्पज्जइ त्ति तैजसकार्मणयोः शरीरयोः ‘बन्धः' सङ्घातः ८/३७६. 'सव्वबंधं एक्कं समयं ति अपूपदृष्टान्तेनैव तत्सर्वबन्धसमुत्पद्यते 'किं कारणं कुतो हेतोः ?, उच्यते-'ताहे' ति तदा कस्यैकसमयत्वादिति, 'देसबंधे' इत्यादि, तत्र यदा समुद्घातनिवृत्तिकाले 'से' त्ति तस्य केवलिनः ‘प्रदेशाः' वायुर्मनुष्यादिर्वा वैक्रियं कृत्वा विहाय च पुनरौदारिकस्य जीवप्रदेशाः 'एगत्तीगय' त्ति एकत्वं गताः-संघातमापन्ना समयमेकं सर्वबन्धं कृत्वा पुनस्तस्य देशबन्धं भवन्ति, नदनुवृत्त्या च तैजसादिशरीरप्रदेशानां बन्धः समुत्पद्यत कुर्वन्नकसमयानन्तरं म्रियते तदा जघन्यत एवं समयं इति प्रकृतम्, शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे 'तेयाकम्माणं बंधे देशबन्धोऽस्य भवतीति 'उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समुप्पज्जइ' ति तैजसकार्मणाश्रयभूतत्वात्तैजसकार्मणाः समयऊणाई' ति, कथं ?, यस्मादौदारिकशरीरिणां त्रीणि शरीरिप्रदेशास्तेषां बन्धः समुत्पद्यत इति व्याख्येयम्।
पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थितिः, तेषु च प्रथमसमये संवबन्धक ८/३६९. 'वीरियसजोगसद्दव्वयाए ति वीर्य-वीर्यान्तरायक्षयादिकृता इति समयन्यूनानि वीणि पल्योपमान्युत्कर्षत औदारिक
शक्तिः योगा:-मनःप्रभृतयः सह योगैर्वर्त्तत इति सयोगः शरीरिणां देशबन्धकालो भवति। सन्ति-विद्यमानानि द्रव्याणि-तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ ३/३७७. 'एगिदियओरालिए' त्यादि, देसबंधे जहन्नेणं एक्कं समयं' सद्व्यः वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ ति, कथं?, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतः पुनरौदारिकसद्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद् - प्रतिपत्तौ सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धकश्चैकं समयं भूत्वा मृतः द्रव्यतया, सवीर्यतया सयोगतया सद्व्यतया जीवस्य, तथा इत्येवमिति, 'उक्कोसेणं बावीस' मित्यादि, एकेन्द्रियाणा. ‘पमायपचय' त्ति ‘प्रमादप्रत्ययात्' प्रमादलक्षणकारणात् तथा मुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिस्तत्रासौ प्रथमसमये 'कम्मं च' ति कर्म च एकेन्द्रियजात्यादिकमुदयवर्त्ति 'जोगं च' सर्वबन्धकः शेषकालं देशबन्ध इत्येवं समयोनानि त्ति 'योगं च' काययोगादिकं भवं च' ति भवं च' द्वाविंशतिवर्षसहस्राण्येकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो देशबन्धकाल इति॥ तिर्यग्भवादिकमनुभूयमानम् 'आउथं च' त्ति “आयुष्कं च' ८/३७८. 'पुढविक्काइए' त्यादि. 'देवबंधे जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिर्यगायुष्काद्युदयवर्त्ति पडुच्च' त्ति 'प्रतीत्य' आश्रित्य तिसमयऊणं' ति, कथम?, औदारिकशरीरिणां क्षुल्लक'ओरालिए त्यादि औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं यन्नाम भवग्रहणं जघन्यतो जीवितं, तच्च गाथाभिर्निरूप्यततदौदारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्मण उदयेनौदारिक- 'दोन्नि सयाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ होति। शरीरप्रयोगबन्धो भवतीति शेषः, एतानि च वीर्यसयोग- आवलियपमाणेणं खुड्डागभवग्गहणमेयं॥१॥ सद्व्यतादीनि पदान्यौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य पणसट्ठि सहस्साई पंचेव सयाई तह य छत्तीसा। विशेषणतया व्याख्येयानि, वीर्यसयोगसद्व्यतया हेतुभूतया खुड्डागभवग्गहणा हवंति अंतोमुहुत्तेणं॥२॥ यो विवक्षितकर्मोदयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण, स्वतन्त्राणि सत्तरस भवग्गहणा खुड्डागा हुंति आणुपाणंमि। वैतान्यौदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कारणानि, तत्र च पक्षे तेरस चेव सयाइं पंचाणउयाई अंसाणं॥३।।' यदौदारिकशरीरप्रयोगबन्धः कस्य कर्मण उदयेन? इति पृष्टे (यद् आवलिकाप्रमाणेन षट्पञ्चाशदधिके द्वे शते नियमात
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परिशिष्ट-५ : श.८ : उ.९ : सू. ३७८-३८०
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भगवती वृत्ति
भवतः प्रमाणतः क्षुल्लकभवग्रहणमेतत्॥१॥ पञ्चषष्टिः पूर्वकोटेः (टी च) समयाभ्यधिकानि (का) सर्वबन्धान्तरं सहस्राणि षट्त्रिंशदधिकानि पञ्चैव शतानि तथा च भवतीति, कथं ?, मनुष्यादिष्वविग्रहेणागतस्तत्र च प्रथमसमय क्षुल्लकभवग्रहणानि भवन्त्यन्तर्मुहूर्तेन॥२॥ आनप्राणे सप्तदश एव सर्वबन्धको भूत्वा पूर्वकोटिं च स्थित्वा क्षुल्लकभवग्रहणानि भवन्ति पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदश त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः सर्वार्थसिद्धको वा भूत्वा शतान्यंशानां (मुहूर्वोच्छवासानां)॥३॥) इहोक्तलक्षणस्य त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौ ६५५३६ मुहूर्तगतक्षुल्लकभवग्रहणराशेः सहस्रत्रयशतसालक- समयावनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकः औदारिकत्रिसप्ततिलक्षणेन ३७७३ मुहूर्तगतोच्छ्वासराशिनां भागे हृते शरीरस्यैव च यौ तौ द्वावनाहारसमयौ तयोरेकः पूर्वकोटीयल्लभ्यते तदेकत्रोच्छवासे क्षुल्लकभवग्रहणपरिमाणं भवति, सर्वबन्धसमयस्थाने क्षिप्तस्ततश्च पूर्णा पूर्वकोटी जाता एकश्च तच्च - सप्तदश, अवशिष्टस्तूक्तलक्षणोंऽशराशिर्भवतीति, समयोऽतिरिक्तः, एव च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टअयमभिप्रायः येषामंशानां त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्च मन्तरं यथोक्तमानं भवतीति। 'देसबंधंतर' मित्यादि, त्रिसप्तत्यधिकशतैः क्षुल्लकभवग्रहणं भवति तेषामंशानां देशबन्धान्तरं जघन्येनैकं समयं, कथं?, देशबन्धको मृतः पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदश शतानि अष्टादशस्यापि सन्नविग्रहेणैवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम एव समये सर्वबन्धको क्षुल्लकभवग्रहणस्य तत्र भवन्तीति, तत्र यः द्वितीयादिषु च समयेषु देशबन्धकः संपन्नः, तदेवं देशबन्धस्य पृथिवीकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणागतः स तृतीयसमये देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एकः समयः सर्वबन्ध सर्वबन्धकः शेषेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुल्लक-भवग्रहणं
सम्बन्धीति। 'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टतस्त्रयमृतः, मृतश्च सन्नविग्रहेणागतो यदा तदा सर्वबन्धक एव स्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्धस्य भवतीति, एवं च ये ते विग्रहसमयास्त्रयस्तैरूनं देशबन्धस्यान्तरं भवतीति, कथं ?, देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च क्षुल्लकमित्युच्यते, 'उक्कोसेणं बावीस' मित्यादि भावित- त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुः सर्वार्थसिद्धादौ, ततश्च च्युत्वा मेवेति, देसबंधो जेसिं नत्थी' त्यादि, अयमर्थः-अप्लेजो- त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य वनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषां वैक्रियशरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तरालं देशबन्धस्य हि सत्येकसमयो जघन्यत औदारिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या देशबन्धस्य च यथोक्तं भवतीति।। स्यादिति, 'उक्कोसेणं जा जस्से' त्यादि तत्रापां वर्षसहस्राणि औदारिकबन्धस्य सामान्यतोऽन्तरमुक्तमथ विशेषतस्तस्य सप्लोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसामहोरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां तदाहवर्षसहस्राणि दश. द्वीन्द्रियाणां द्वादश वर्षाणि त्रीन्द्रियाणामे- ८/३८०. 'एगिदिए' त्यादि, एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्वबन्धान्तरं कोनपञ्चाशदहोरात्राणि चतुरिन्द्रियाणां षण्मासाः, तत एषां जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणणं त्रिसमयोनं, कथं?, त्रिसमयेन सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिर्भवतीति, 'जेसिं विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयपुणे त्यादि, ते च वायवः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च, एषां मनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लकं भवग्रहणं जघन्येन देशबन्ध एकं समयं, भावना च प्रागिव, 'उक्कोसेण' त्रिसमयोनं स्थित्वा मृतः अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव मित्यादि तत्र वायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थितिः, भवति तदा सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति। 'उक्कोसेण' पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयम्, इयं च स्थितिः मित्यादि, उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिरेषां भवतीत्यति- समयाधिकानि भवन्ति, कथम् ?, अविग्रहेण पृथिवीदेशतो मनुष्याणां देशबन्धस्थितौ लब्धायामप्यन्तिमसूत्रत्वेन कायिकेष्वागतः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकस्ततो साक्षादेव तेषां तामाह-'जाव मणुस्साण' मित्यादि।।
द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयोनानि विग्रहगत्या उक्त औदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कालोऽथ तस्यैवान्तरं त्रिसमयाऽन्येषु पृथिव्यादिषूत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको निरूपयन्नाह
भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धकः संपन्नः, अनाहार८/३७९. 'ओरालिए' त्यादि, सर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लक- कसमययोश्चैको, द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु समयोनेषु
भवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं ?. त्रिसमयविग्रहेणौदारिक- क्षिप्तस्तत्पूरणार्थं, ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयशरीरिष्वागतस्तत्र द्वौ समयावनाहारकस्तृतीयसमये। श्चैकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमन्तरं भवतीति। 'देससर्वबन्धकः क्षुल्लकभवं च स्थित्वा मृत औदारिकशरी- बंधंतर' मित्यादि तत्रैकेन्द्रियौदारिकदेशबन्धान्तरं जघन्येनैक ब्वेवोत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः एवं च सर्वबन्धस्य समय, कथं ?, देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वबन्धको भूत्वा सर्वबन्धस्य चान्तरं क्षुल्लकभवो विग्रहगतसमयत्रयोनः, एकस्मिन् समये पुनर्देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयो'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्यत एकः समयोऽन्तरं भवतीति, 'उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं'
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. ९ : सू. ३८०-३८४ ति, कथं?, वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियं त्वादौ पुनरेकेन्द्रियत्वे सति यत्सर्वबन्धान्तरं तज्जघन्येन द्वे गतस्तत्र चान्तर्मुहूर्तं स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरस्य सर्वबन्धको क्षुल्लकभवग्रहणे त्रिसमयोने, कथम् ?. एकेन्द्रियस्त्रिसमयया भूत्वा देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽ- विग्रहगत्योत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये न्तर्मुहूर्तमन्तरमिति॥
सर्वबन्धं कृत्वा तदूनं क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः ८/३८१. 'पुढविकाइए' त्यादि, देसबंधंतरं जहन्नेणं एक्कं समय अनेकेन्द्रियेषु क्षुल्लक-भवग्रहणमेव जीवित्वा मृतः सन्नविग्रहेण
उक्कोसेणं तिन्नि समय' त्ति, कथं ?, पृथिवी-कायिको पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धदेशबन्धको मृतः सन्नविग्रहगत्या पृथिवीकायिकेष्वे-वोत्पन्नः योरुक्तमन्तरं जातमिति, 'उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई एकं समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः संखेज्जवासमब्भहियाई' ति, कथम्?, अविग्रहेणैकेन्द्रियः एवमेकसमयो देशबन्धयोर्जघन्येनान्तरं, तथा पृथिवीकायिको समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा द्वाविंशति देशबन्धको मृतः सन् त्रिसमयविग्रहेण तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च वर्षसहस्राणि जीवित्वा मृतस्त्रसकायिकेषु चोत्पन्नः, तत्र च समयद्वयमनाहारकः तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा सङ्ख्यातवर्षाभ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयरूपामुत्कृष्ट त्रसपुनर्देशबन्धको जातः, एवं च त्रयः समया उत्कर्षतो कायिककायस्थितिमति-वाह्य एकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको देशबन्धयोरन्तरमिति। अथाप्कायिकादीनां बन्धान्तर- जात इत्येवं सर्वबन्ध-योर्यथोक्तमन्तरं भवति, सर्वबन्धसमयमतिदेशत आह-'जहा पुढविकाइयाण' मित्यादि, अत्रैव च हीनएकेन्द्रियोत्कृष्ट-भवस्थितेस्त्रसकायस्थितौ प्रक्षेपणेऽपि सर्वथा समतापरिहारार्थमाह-'नवर' मित्यादि, एवं चातिदेशतो सङ्ख्यातस्थानानां सङ्ख्यातभेदत्वेन सङ्ख्यातवर्षाभ्यधिकत्वयल्लब्धं तद्दय॑ते-अप्कायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं स्याव्याहतत्वादिति। 'देसबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं उत्कृष्टं तु सप्तवर्षसहस्राणि समयाहियं' ति, कथम् ?, एकेन्द्रियो देशबन्धकः सन् मृत्वा समयाधिकानि, देशबन्धान्तरं जघन्यमेकः समय उत्कृष्टं तु द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकभवग्रहणमनुभूयाविग्रहेण चागत्य त्रयः समयाः, एवं वायुवर्जानां तेजःप्रभृतीनामपि, नवरमुत्कृष्टं प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा द्वितीये देशबन्धको भवति, एवं सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्वकीया स्थितिः समयाधिका वाच्या। च देशबन्धान्तरं क्षुल्लकभवः सर्वबन्धसमयातिरिक्तः, अथातिदेशे वायुकायिकवर्जानामित्यनेनातिदिष्टबन्धान्तरेभ्यो 'उक्कोसेण' मित्यादि सर्वबन्धान्तरभावनोक्तप्रकारेण वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति वायुबन्धान्तरं भावनीयमिति।। भेदेनाह-वाउक्काइयाण' मित्यादि, तत्र च वायुकायिका- अथ पृथिवीकायिकबन्धान्तरं चिन्तयन्नाहनामुत्कर्षेण देशबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त, कथं ?, वायुरौदारिक- ८/३८४. 'जीवस्से त्यादि, ‘एवं चेव' त्ति करणात् 'तिसमयऊणाई' शरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियबन्धमन्तर्मुहूर्तं कृत्वा ति दृश्यम्, 'उक्कोसेणं अणंतं कालं' ति, इह कालानन्तत्वं पुनरौदारिकसर्वबन्धसमयानन्तरमौदारिकदेशबन्धं यदा करोति वनस्पतिकायस्थितिकालापेक्षयाऽनन्तकालमित्युक्तं तद्विभतदा यथोक्तमन्तरं भवतीति।
जनार्थमाह-'अणंताओ' इत्यादि, अयमभिप्रायः तस्यानन्तस्य ८/३८२. 'पंचिदिये' त्यादि, तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्यं भावितमेव कालस्य समयेषु अवसर्पिण्युत्सर्पिणीसमयैरपहिय
उत्कृष्टं तु भाव्यते- पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् अविग्रहेणोत्पन्नः प्रथम माणेष्वनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्तीति, 'कालओ' त्ति एव च समये सर्वबन्धकस्ततः समयोनां पूर्वकोटिं जीवित्वा इदं कालापेक्षया मानं, खेत्तओ' त्ति क्षेत्रापेक्षया विग्रहगत्या त्रिसमयया तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च द्वावनाहारकसमयौ पुनरिदम्-'अणंता लोग' त्ति, अयमर्थः-तस्यानन्तकालस्य तृतीये च समये सर्वबन्धकः संपन्नः, अनाहारकसमययोश्चैकः समयेषु लोकाकाशप्रदेशैरपहियामाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति, समयोनायां पूर्वकोट्यां क्षिप्तस्तत्पूरणार्थमेकस्त्वधिक इत्येवं अथ तत्र कियन्तः पुद्गलपरावर्ता भवन्ति? इत्यत आहयथोक्तमन्तरं भवतीति, देशबन्धान्तरं तु यथैकेन्द्रियाणां, 'असंखेज्जे' त्यादि, पुद्गलपरावर्त्तलक्षणं सामान्येन पुनरिदंतच्यैवं-जघन्यमेकः समयः, कथं ?, देशबन्धको मृतः दशभिः कोटीकोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं सागरोपमं दशभिः सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जात इत्येवं, उत्कर्षण सागरोपमकोटीकोटीभिरवसर्पिणी, उत्सर्पिण्यप्येवमेव, ता त्वन्तर्मुहूर्त?, कथं ?, औदारिकशरीरी देशबन्धकः सन् वैक्रियं अवसर्पिण्युत्सर्पिण्योऽनन्ताः पुद्गलपरावर्तः, एतद्विशेषलक्षणं प्रतिपन्नस्तत्रान्तर्मुहूर्तं स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरी जातस्तत्र च तु इहैव वक्ष्यतीति, पुद्गलपरावर्तानामेवासङ्ख्यातत्वप्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु तु देशबन्धक इत्येवं नियमनायाह-'आवलिए' त्यादि, असङ्ख्यातसमयमुदायश्देशबन्धयोरन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति, एवं मनुष्याणामपीति, चावलिकेति। 'देसबंधंतरं जहन्नेण' मित्यादि, भावना त्वेवंएतदेवाह-जहा पंचिंदिए' त्यादि।।
पृथिवीकायिको देशबन्धकः सन्मृतःपृथिवीकायिकेषु क्षुल्लकऔदारिकबन्धान्तरं प्रकारान्तरेणाह
भवग्रहणं जीवित्वा मृतः सन् पुनरविग्रहेण पृथिवी८/३८३. 'जीवे' त्यादि, एकेन्द्रियत्वे 'नोएगिदियत्ते' ति द्वीन्द्रिय- कायिकेष्वेवोत्पन्नः, तत्र च सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको
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परिशिष्ट- ५ : श. ८ : उ. ९ : सू. ३८४-३९५
जातः, एवं च सर्वबन्धसमयेनाधिकमेकं क्षुल्लकभवग्रहणं देशबन्धयोरन्तरमिति । 'वणस्सइकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई' ति वनस्पतिकायिकानां जघन्यतः सर्वबन्धान्तरं द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे एवं चेव' त्ति करणात्रिसमयोने इति दृश्यम्, एतद्भावना च वनस्पतिकात्त्रिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पन्नः तत्र च विग्रहस्य समयद्रयमनाहारकस्तृतीये समये च सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा पुनः पृथिव्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरविग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयोस्त्रिसमयोने द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे अन्तरं भवत इति । 'उक्कोसेण' मित्यादि, अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिकालः एवं देसबंधंतरंपि' ति यथा पृथिव्यादीनां देशबन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि तच्च क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिकं, भावना चास्य पूर्ववत्. 'उक्कोसेणं पुढविकालो' त्ति उत्कर्षेण वनस्पतेर्देशबन्धान्तरं ‘पृथिवीकालः’ पृथिवीकायस्थितिकालोऽसङ्ख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिण्यादिरूप इति ।।
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अथौदारिकदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह---
८/३८५. 'एएसी' त्यादि तत्र सर्वस्तोकाः सर्वबन्धकास्तेषामुत्पत्तिसमय एव भावात्, अबन्धका विशेषाधिकाः, यतो विग्रहगतौ सिद्धत्वादौ च ते भवन्ति, ते च सर्वबन्धकापेक्षया विशेषाधिकाः, देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, देशबन्धकालस्यासङ्ख्यातगुणत्वात् एतस्य च सूत्रस्य भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति ॥
अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाह
८ / ३८६-३९१. तत्र 'एगिंदियवेउव्विए' त्यादि वायुकायिकापेक्षमुक्तं, 'पंचिंदिए' त्यादि तु पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्यदेवनारकापेक्षमिति । 'वीरिये' त्यादौ यावत्करणात् 'पमायपच्चया कम्म च जोगं च भवं चे' ति द्रष्टव्यं 'लद्धिं व' त्ति वैक्रियकरणलब्धिं वा प्रतीत्य एतच्च वायुपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्यानपेक्ष्योक्तं, तेन वायुकायादिसूत्रेषु लब्धि वैक्रियशरीरबन्धस्य प्रत्ययतया वक्ष्यति, नारकदेवसूत्रेषु पुनस्ता विहाय वीर्यसयोगसद्द्रव्यतादीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीति ।
८/३९३. 'सव्वबंधे जहन्त्रेणं एक्कं समयं ति कथं ?, वैक्रियशरीररिषूत्पद्यमानो लब्धितो वा तत् कुर्वन् समयमेकं सर्वबन्धको भवतीत्येवमेकं समयं सर्वबन्ध इति, 'उक्कोसेणं दो समयं त्ति, कथं ?, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्नारकत्वं देवत्वं वा यदा प्राप्नोति तदा प्रथमसमये वैक्रियस्य सर्वबन्धक एवेतिकृत्वा वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धक उत्कृष्टतः समय-द्वयमिति, 'देसबंधे जहनेणं एक्कं समयं' ति, कथं?, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृतं इत्येवं देशबन्धो जघन्यत
भगवती वृत्ति
एकं समयमिति, 'उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई समयऊणाई' ति, कथं ?, देवेषु नारकेषु चोत्कृष्टस्थितिषूत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धकसमयेनोनानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशबन्ध इति ॥
८/३९४. 'वाउक्काइए' त्यादि, 'देसबंधे जहनेणं एक्कं समयं' ति, कथं ?, वायुरौवारिकशरीरी सन् वैक्रियं गतस्ततः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं जघन्येनैको देशबन्धसमयः 'उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं' ति वैक्रियशरीरेण स एव यदाऽन्तर्मुहूर्नमात्रमास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धोऽन्तर्मुहूर्तं लब्धिवैक्रिय - शरीरिणो जीवतोऽन्तमुहूर्तात्परतो न वैक्रियशरीरावस्थानमस्ति पुनरौदारिकशरीरस्यावश्यं प्रतिपत्तेरिति ॥
८/३९५. 'रयणप्पभे' त्यादि, 'देसबंधे जहनेणं दस वाससहस्साई तिसमयऊणाई ति कथं ?, त्रिसमयविग्रहेण रत्नप्रभायां जघन्यस्थितिर्नारकः समुत्पन्नः तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको वैक्रियस्य तदेवमाद्य- समयत्रयन्यूनं वर्षसहस्रदशकं जघन्यतो देशबन्धः, उक्कोसेणं सागरोवमं समयऊणं ति कथं ?, अविग्रहेण रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिर्नारकः समुत्पन्नः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धसमयेनोनं सागरोपममुत्कर्षतो देशबन्ध इति एवं सर्वत्र सर्वबन्धः समयं देशबन्धश्च जघन्यो विग्रहसमयत्रयन्यूनो निजनिजजघन्यस्थितिप्रमाणो वाच्यः सर्वबन्धसमयन्यूनोत्कृष्टस्थितिप्रमाणश्चोत्कृष्टदेशबन्ध इति, एतदेवाह - ' एवं जावे' त्यादि, पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां वैक्रिय सर्वबन्ध एकं समयं देशबन्धस्तु जघन्यत एकं समयमुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त्तम् ॥ एतदेवातिदेशेनाह'पंचिंदिये' त्यादि, यच्च 'अंतमुहुत्तं निरएस होइ चत्तारि । तिरियम देवे अद्धमासो उक्कोस विउव्वणाकालो ॥ १ ॥' (नरकेष्वन्तर्मुहूर्त्तं भवति तिर्यङ्मनुष्येषु चत्वारि देवेष्वर्द्धमासः उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः ॥ १ ॥ ) इति वचनसामर्थ्यादन्तमुहूर्त्तचतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते तन्मतान्तरमित्यव - सेयमिति ।
उक्तो वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धस्य कालः ।
अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह 'वेउब्विये' त्यादि, 'सव्वबंधंतरं जहन्नेणं एक्कं समयं' ति कथं ?, औदारिकशरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीररिष्वविग्रहेणोत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति, 'उक्कोसेणं अणतं कालं ति कथं? औदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवादिषु समुत्पन्नः स च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धं च कृत्वा मृतः ततः परमनन्तं
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भगवती वृत्ति
तत
कालमौदारिकशरीरिषु वनस्पत्यादिषु स्थित्वा वैक्रियशरीरवत्सूत्पन्नः, तत्र च प्रथम समये सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्ध-योर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, (ग्रन्थाग्रम् ९०००) एवं देसबंधंतरंपि' त्ति, जघन्येनैकं समयमुत्कृष्टतोऽनन्तं कालमित्यर्थः, भावना चास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति । ८/३९,७, 'वाउक्काइए' त्यादि सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं' ति, कथं?, वायुरौ दारिकशरीरी वैक्रियमापन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातः, तस्य चापर्याप्तकस्य वैक्रिय-शक्तिर्नाविर्भवतीत्यन्तर्मुहूर्तमात्रेणासौ पर्याप्तको भूत्वा वैक्रियशरीरमारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त्तमिति, 'उक्कोसेणं पलिओव मस्स असंखेज्जइभागं' ति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतः, तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा मृतस्ततः परमौदारिकशरीरिषु वायुषु पल्योपमासङ्ख्येयभागमतिवाह्यावश्यं वैक्रियं करोति तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, एवं 'देसबंधंतरंपि' त्ति, अस्य भावना प्रागिवेति । ८/३९८. 'तिरिक्खे' त्यादि, सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुतं' ति कथं ?, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धकोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रं औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्वा समयं देशबन्धको जातः पुनरपि श्रद्धेयमुत्पन्ना वैक्रियं करोमीति पुनर्वैक्रियं कुर्वतः प्रथमसमये सर्वबन्धः एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं त्ति, कथं ?, पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतस्तत्र पूर्वकोट्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्ष्वेवोत्पन्नः पूर्वजन्मना सह सप्ताष्टी वा वारान्, ततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धं कृत्वा देशबन्धं करोतीति, एवं च सर्वबन्धयोरुत्कृष्टं यथोक्तमन्तरं भवतीति, एवं देसबंधतरपि' त्ति, भावना चास्य सर्वबन्धान्तरोक्तभावनानुसारेण कर्त्तव्येति । वैक्रियशरीरबन्धान्तरमेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह८/३९९. 'जीवस्से' त्यादि, 'सव्वबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहुत्तं' ति कथं?, वायुर्वैक्रियशरीरं प्रतिपन्नः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा भृतस्ततः पृथिवीकायिकेषूत्पन्नः, तत्रापि क्षुल्लकभवग्रहणमात्रं स्थित्वा पुनर्वायुर्जातः तत्रापि कतिपयान् क्षुल्लकभवान् स्थित्वा वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसम सर्वबन्धको जातस्ततश्च वैक्रियस्य सर्वबन्धयोरन्तरं बहवः क्षुल्लकभवास्ते च बहवोऽप्यन्तर्मुहूर्तं अन्तर्मुहूर्ते बहूनां क्षुल्लकभवानां प्रतिपादितत्वात्, ततश्च सर्वबन्धान्तरं यथोक्तं भवतीति, 'उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सइकालो त्ति, कथं ?, वायुर्वैक्रियशरीरीभवन् मृतो वनस्पत्यादिष्वनन्तं कालं स्थित्वा वैक्रियशरीरं पुनर्यदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति,
परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. ९ : सू. ३९५-४०२ एवं सबंधंतरंपि' त्ति, भावना चास्य प्रागुक्तानुसारेणेति ॥ ८/४००-४०२. रत्नप्रभासूत्रे 'सव्वबंधंतर' मित्यादि, एतद्भाव्यतेरत्नप्रभानारको दशवर्षसहस्रस्थितिक उत्पत्तौ सर्वबन्धकः तत उद्धृतस्तु गर्भजपञ्चेन्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्तं स्थित्वा रत्नप्रभायां पुनरप्युत्पन्नः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवं सूत्रोक्तं जघन्यमन्तरं सर्वबन्धयोरिति, अयं च यदाऽपि प्रथमोत्पत्तौ त्रिसमय-विग्रहेणोत्पद्यते तदापि न दशैं वर्षसहस्राणि त्रिसमयन्यूनानि भवन्ति, अन्तर्मुहूर्त्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्रक्षेपात्, न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहूर्त्तस्यान्तर्मुहूर्त्तत्वव्याघातस्तस्यानेकभेदत्वादिति, 'उक्कोसेणं वणस्सइकालो' त्ति. कथं ?, रत्नप्रभानारक उत्पत्तौ सर्वबन्धकः तत उद्धृतश्चानन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्वबन्धक इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति, देसबंधंतरं जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं' ति कथं ?, रत्नप्रभानारको देशबन्धकः सन् मृतोऽन्तर्मुहूर्त्तायुः पञ्चेन्द्रियतियक्तयोत्पद्य मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोत्पन्नः, तत्र च द्वितीयसमये देशबन्धक इत्येवं जघन्यं देशबन्धान्तरमिति, 'उक्कोसेण' मित्यादि, भावना प्रागुक्तानुसारेणेति । शर्कराप्रभादिनारकाणां वैक्रियशरीरबन्धान्तरमतिदेशतः सङ्क्षेपार्थमाह एवं जावे' त्यादि, द्वितीयादिपृथिवीषु च जघन्या स्थितिः क्रमेणैकं त्रीणि सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति । 'पंचिदिए' त्यादौ 'जहा वाउकाइयाणं' ति जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतः पुनरनन्तं कालमित्यर्थः । असुरकुमारादयस्तु सहस्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वा स्वकीयां च जघन्यस्थितिमनुपालय पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका जाताः, एवं च तेषां वैक्रियस्य जघन्यं सर्वबन्धान्तरं जघन्या तत्स्थितिरन्तमुहूर्त्ताधिका वक्तव्या, उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं यथा रत्नप्रभानारकाणामिति, एतदर्शनायाह- 'असुरकुमारे' त्यादि, तत्र जघन्या स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यन्तराणां च दश वर्षसहस्राणि ज्योतिष्काणां पल्योपमाष्टभागः सौधर्मादिषु तु 'पलियमहियं दो सार साहिया सत्तदस य चोद्दस य सतरस य' इत्यादि ।
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आनतसूत्रे 'सव्वबंधंतर' मित्यादि, एतस्य भावना आनतकल्पीयो देव उत्पत्तौ सर्वबन्धकः, स चाष्टादशसागरोपमाणि तत्र स्थित्वा ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवं सर्वबन्धान्तरं जघन्यमष्टादश सागरोपमाणि वर्षपृथक्त्वाधिकानीति, उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं कथं? स एव तस्माच्च्युतोऽनन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवमिति, देसबंधंतरं जहनेणं वासपुहुत्तं' ति, कथं ?, स एव देशबन्धकः संश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुभूय पुनस्तत्रैव गतस्तस्य च
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परिशिष्ट- ५ : श. ८ : उ. ९ : सू. ४०२-४२९
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सर्वबन्धानन्तरं देशबन्ध इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति, इह च यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिकं वर्षपृथक्त्वं भवति तथाऽपि तस्य वर्षपृथक्त्वादनर्थान्तरत्वविवक्षया न भेदेन गणनमिति । एवं प्राणतारणाच्युतग्रैवेयकसूत्राण्यपि ज्ञेयानि ।
अथ सनत्कुमारादिसहस्रारान्ता देवा जघन्यतो नवदिनायुष्केभ्यः आनताद्यच्युतान्तास्तु नवमासायुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसमासेऽभिधीयते, ततश्च जघन्यं तत्सर्वबन्धांतरं तत्तदधिकतज्जघन्यस्थितिरूपं प्राप्नोतीति, सत्यमेतत्, केवलं मतान्तरमेवेदमिति ॥
८/४०३. अनुत्तरविमानसूत्रे तु 'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशबन्धान्तरं च सङ्ख्यातानि सागरोपमाणि, यतो नानन्तकालमनुत्तर-विमानच्युतः संसरति, तानि च जीवसमासमतेन द्विसङ्ख्यानीति ।
अथ वैक्रियशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह८/४०४. 'एएसी' त्यादि तत्र सर्वस्तोका वैक्रियसर्वबन्धकास्तत्कालस्याल्पत्वात्, देशबन्धका असङ्ख्यातगुणास्तत्कालस्य तदपेक्षयाऽसंख्येयगुणत्वात्, अबन्धकास्त्वनन्तगुणाः सिद्धानां वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षयाऽनन्तगुणत्वादिति ॥
अथाहारक शरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह
८/४०५. 'आहारे' त्यादि, 'एगागारे' त्ति एकः प्रकारो नौदारिकादिबन्धवे केन्द्रियाद्यनेक प्रकार इत्यर्थः ।
८/४०९. 'सव्वबंधे एक्कं समयं ति आद्यसमय एव सर्वबन्धभावात्, देसबंधे जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं' ति, कथं ?, जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त मात्रमेवाहारकशरीरी भवति, परत औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात्, तत्र चान्तर्मुहूर्ते आद्यसमये सर्वबन्धः उत्तरकालं च देशबन्ध इति । अथाहारकशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणायाह८/४१०. ' आहारे' त्यादि, सव्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं ति कथं ?, मनुष्य आहारकशरीरं प्रतिपन्नस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्त-तोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रं स्थित्वौदारिकशरीरं गतस्तत्राप्यन्तर्मुहूर्तं स्थितः पुनरपि च तस्य संशयादि आहारकशरीरकरण-कारणमुत्पन्नं ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णाति तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक एवेति, एवं च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्तं द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्त्तयोरेकत्वविवक्षणादिति, 'उक्कोसेणं अणतं कालं ति, कथं ?, यतोऽनन्तकालादाहारकशरीरं पुनर्लभत इति, कालानन्त्यमेव विशेषेणाह - 'अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओस्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोग' त्ति, एतद्व्याख्यानं च प्राग्वत् । अथ तत्र पुद्गलपरावर्त्तपरिमाणं किं भवति ? इत्याह-'अवलं पोग्गलपरियट्टं देणं ति 'अपार्धम्' अपगतार्द्धमर्द्धमात्रमित्यर्थः 'पुद्गलपरावर्त्तं प्रागुक्तस्वरूपम्, अपार्द्धमप्यर्द्धतः पूर्ण स्यादत आह-देशोनमिति । एवं देसबंधंतरंपि त्ति जघन्येनान्त
भगवती वृत्ति
मुहूर्त्तमुत्कर्षतः पुनरपार्द्धं पुद्गलपरावर्त्तं देशोनं, भावना तु पूर्वोक्तानुसारेणेति ॥
अथावाहारकशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह८/४११. 'एएसि ण' मित्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकस्य सर्वबन्धकास्तत्सर्वबन्धकालस्याल्पत्वात्, देशबन्धकाः सङ्ख्यातगुणास्तद्देशबन्धकालस्य बहुत्वात् असङ्ख्यातगुणास्तु ते न भवन्ति, यतो मनुष्या अपि सङ्ख्याताः किं पुनराहारकशरीरदेशबन्धकाः ? अबन्धकास्त्वनन्तगुणाः, आहारकशरीरं हि मनुष्याणां तत्रापि संयतानां तेषामपि केषाञ्चिदेव कदाचिदेव च भवतीति शेषकाले ते शेषसत्त्वाश्चाबन्धकाः, ततश्च सिद्धवनस्पत्यादीनामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति ।। अथ तैजसशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह
८/४१५. 'तेये' त्यादि, 'नो सव्वबंधे' त्ति तैजसशरीरस्यानादित्वान्न सर्वबन्धोऽस्ति, तस्य प्रथमतः पुद्गलोपादानरूपत्वादिति । ८/४१६. 'अणाइए वा अपज्जवसिए' इत्यादि, तत्रायं तैजसशरीरबन्धोऽनादिरपर्यवसितोऽभव्यानां अनादिः सपर्यवसितस्तु भव्यानामिति ॥
अथ तैजसशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणायाह८/४१७. 'तेये' त्यादि, 'अणाइयस्से' त्यादि, यस्मात्संसारस्था जीवस्तैजसशरीरबन्धेन द्वयरूपेणापि सदाऽविनिर्मुक्त एव भवति तस्माद्द्द्द्रयरूपस्याप्यस्य नास्त्यन्तरमिति ॥ अथ तैजसशरीरदेशबन्धकाबन्धकानामल्पत्वादिनिरूपणायाह८/४१८. 'एएसी' त्यादि, तत्र सर्वस्तोकास्तैजसशरीरस्याबन्धकाः सिद्धानामेव तदबन्धकत्वात्, देशबन्धकास्त्वनन्तगुणास्तदेशबन्धकानां सकलसंसारिणां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वादिति । अथ कार्म्मणशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह८/४१९-४२९. 'कम्मासरीरे' त्यादि, 'णाणपडिणीययाए' ति ज्ञानस्य - श्रुतादेस्तदभेदात् ज्ञानवतां वा या प्रत्यनीकतासामान्येन प्रतिकूलता सा तथा तया, 'णाणनिण्हवणयाए' ति ज्ञानस्य - श्रुतस्य श्रुतगुरूणां वा या निह्नवता - अपलपनं सा तथा तया, 'नाणंतराएणं' ति ज्ञानस्य श्रुतस्यान्तरायःतद्ग्रहणादौ विघ्नो यः स तथा तेन, 'नाणपओसेणं ति ज्ञाने - श्रुतादौ ज्ञानवत्सु वा यः प्रद्वेषः-अप्रीतिः स तथा तेन. 'नाणऽच्चासायणाए' त्ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा यात्याशातनाहीलना सा तथा तया, 'नाणविसंवायणाजोगेणं' ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा विसंवादनयोगो-व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स तथा तेन एतानि च बाह्यानि कारणानि ज्ञानावरणीयकार्म्मणशरीरबन्धे, अथाऽऽन्तरं कारणमाह-'नाणावरणिज्ज मित्यादि, ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यत्कार्म्मणशरीरप्रयोगनाम तत्तथा तस्य कर्म्मण उदयेनेति, 'दंसणपडिणीययाए' त्ति इह दर्शनं चक्षुर्दर्शनादि, तिव्वदंसणमोहणिज्जाए' त्ति तीव्रमिथ्यात्वतयेत्यर्थः 'तिव्वचरितमोहणिज्जयाए' ति कषायव्यतिरिक्तं नोकषायलक्षणमिह
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श.८ : उ. ९ : सू. ४२९-४४७
चारित्रमोहनीयं ग्राह्य, तीव्रक्रोधतयेत्यादिना कषायचारित्र- बन्धचिन्तार्थः अनन्तरं दण्डक उक्तोऽयौदारिकस्यैव देशमोहनीयस्य प्रागुक्तत्वादिति, 'महारंभयाए' ति अपरिमित- बन्धकमाश्रित्यान्यमाहकृष्याद्यारम्भतयेत्यर्थः, 'महारंभपरिग्गयाए' ति अपरिमाण- ८/४४१. 'जस्स ण' मित्यादि, अथ वैक्रियस्य सर्वबन्धमाश्रित्य परिग्रहतया कुणिमाहारेणं' ति मांसभोजनेनेति 'माइल्लयाए' त्ति शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽन्यो दण्डकः, तत्र च 'तेयगस्स परवचनबुद्धिव(म)त्तया 'नियडिल्लयाए' निकृतिः- वञ्चनार्थं कम्मगस्स जहेवे' त्यादि, यथौदारिकशरीरसर्वबन्धकस्य चेष्टा मायाप्रच्छादनार्थं मायान्तरमित्येके अत्यादर करणेन तैजसकामणयोर्देशबन्धकत्वमुक्तमेवं वैक्रियशरीरसर्वबन्धपरवञ्चनमित्यन्ये तद्वत्तया, 'पगइभद्दयाए' त्ति स्वभावतः कस्यापि तयोर्देशबन्धकत्वं वाच्यमिति भावः । पराननुतापितया 'सानुक्कोसयाए' ति सानुकम्पतया ८/४४२-४४४. वैक्रियदेशबन्धदण्डक आहारकस्य सर्वबन्धदण्डको 'अमच्छरिययाए' ति मत्सरिकः-परगुणानामसोढा तद्भाव- देश-बन्धदण्डकश्च सुगम एव। निषेधोऽमत्सरिकता तया। सुभनामकम्मे त्यादि, इह शुभनाम ८/४४५. तैजसदेशबन्धकदण्डके तु 'बंधए वा अबंधए व' ति देवगत्यादिकं कायउज्जुययाए' त्ति कायर्नुकतया पराकचन- तैजसदेशबन्धक औदारिकशरीरस्य बन्धको वा स्यादबन्धको परकायचेष्टया 'भावुज्जुययाए' ति भावर्जुकतया परावञ्चन- वा, तत्र विग्रहे वर्त्तमानोऽबन्धकोऽविग्रहस्थः पुनर्बन्धकः स परमनःप्रवृत्त्येत्यर्थः, 'भासुज्जुययाए' ति भाषर्जुकतया एवोत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धक द्वितीयादौ तु भाषाऽऽविनेत्यर्थः 'अविसंवायणाजोगेणं' ति विसंवादनं-- देशबन्धक इति। अन्यथाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं तद्रूपो योगो-व्यापारस्तेन वा ८/४४६. एवं कार्मणशरीरदेशबन्धक-दण्डकेऽपि वाच्यमिति । योगः-सम्बन्धो विसंवादनयोगस्तन्निषेधादविसंवादनयोग- अथौदारिकादिशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाहस्तेन, इह च कायर्नुकतादि त्रयं वर्तमानकालाश्रयं, अविसंवादन- ८/४४७. 'एएसी' त्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकशरीरस्य योगस्त्वतीतवर्तमानलक्षणकालव्याश्रय इति।
सर्वबन्धकाः, यस्माते चतुर्दशपूर्वधरास्तथाविधप्रयोजनवन्त ८/४३०. 'असुभनाम-कम्मे' त्यादि, इह चाशुभनाम नरक- एव भवन्ति, सर्वबन्धकालश्च समयमेवेति, तस्यैव च देशगत्यादिकम्।
बन्धकाः सङ्ग्येयगुणाः, देशबन्धकालस्य बहुत्वात्, वैक्रिय 'कम्मासरीरप्पओगबंधे ण मित्यादि, कार्मणशरीरप्रयोग- शरीरस्य सर्वबन्धका असङ्ग्येयगुणाः तेषां तेभ्योऽसङ्ग्यातबन्धप्रकरणं तैजसशरीरप्रयोगबन्धप्रकरणवन्नेयं, यस्तु गुणत्वात्, तस्यैव च देशबन्धका असङ्ग्येयगुणाः, सर्वबन्धाविशेषोऽसावुच्यते
द्वापेक्षया देशबन्धाद्धाया असङ्ग्यातगुणत्वात् अथवा ८/४३८. 'सव्वत्थोवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधग' ति, सर्वबन्धकाः प्रतिपद्यमानकाः देशबन्धकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः,
सर्वस्तोकत्वमेषामायुर्बन्धादायां स्तोकत्वादबन्धादायास्तु प्रतिपद्यमानकेभ्यश्च पूर्वप्रतिपन्नानां बहुत्वात्, वैक्रिय. बहुगुणत्वात, तदबन्धकाः सङ्ख्यातगुणाः, नन्वसङ्ख्यात. सर्वबन्धकेभ्यो देशबन्धका असङ्ग्येयगुणाः, तैजसकार्मणगुणास्तदबन्धकाः कस्मान्नोक्ताः? तदबन्धाद्वाया असङ्ख्यात- योरबन्धका अनन्तगुणाः, यस्माते सिद्धास्ते च वैक्रियजीवितानाश्रित्यासङ्ख्यातगुणत्वात्, उच्यते, इदमनन्त- देशबन्धकेभ्योऽनन्तगुणा एव, वनस्पतिवर्जसर्वजीवेभ्यः कायिकानाश्रित्यं सूत्रं, तत्र चानन्तकायिकाः सङ्ख्यातजीविता सिद्धानामनन्तगुणत्वादिति, औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धका एव, ते चायुष्कस्याबन्धकास्तद्देशबन्धकेभ्यः सङ्ख्यातगुणा एव अनन्तगुणास्ते च वनस्पतिप्रभृतीन प्रतीत्य प्रत्येतव्याः, तस्यैव भवन्ति, यद्यबन्धकाः सिद्धादयस्तन्मध्ये क्षिप्यन्ते तथाऽपि चाबन्धका विशेषाधिकाः, एते हि विग्रहगतिकाः सिन्द्रादयश्च तेभ्यः सङ्ग्यातगुणा एव ते, सिद्धाद्यबन्धकानामनन्ता- भवन्ति, तत्र च सिद्धादीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाविवक्षा, नामप्यनन्तकायिकायुर्बन्धकापेक्षयाऽनन्तभागत्वादिति। ननु विग्रहगतिकाश्च वक्ष्यमाणन्यायेन सर्वबन्धकेभ्यो बहुतरा इति यदायुषोऽबन्धकाः सन्तो बन्धका भवन्ति तदा कथं न तेभ्यस्तदबन्धका विशेषाधिका इति, तस्यैव चौदारिकस्य सर्वबन्धसम्भवस्तेषाम् ?, उच्यते, न हि आयुः प्रकृतिरसती देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, विग्रहाद्धापेक्षया देशबन्धान्द्राया सतिर्निबध्यते औदारिकादिशरीरवदिति न सर्वबन्धसम्भव असङ्ख्यातगुणत्वात्, तैजसकार्मणयोर्देशबन्धका विशेषाधिकाः, इति॥
यस्मात्सर्वेऽपि संसारिणस्तैजसकार्मणयोर्देशबन्धका भवन्ति, प्रकारान्तरेणौदारिकादि चिन्तयन्नाह
तत्र च ये विग्रहगतिका औदारिकसर्वबन्धका वैक्रियादि८/४३९-४४०. 'जस्से' त्यादि, 'नो बंधए' ति, न ह्येकसमये बन्धकाश्च ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति ते
औदारिकवैक्रिययोर्बन्धो विद्यत इतिकृत्वा नो बन्धक इति। विशेषाधिका इति, वैक्रियशरीरस्याबन्धका विशेषाधिकाः, एवमाहारकस्यापि। तैजसस्य पुनः सदैवाविरहितत्वाद्वन्धको यस्माद्वैक्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव शेषास्तु देशबन्धकेन, सर्वबन्धस्तु नास्त्येव तस्येति। एवं कार्मण- तदबन्धकाः सिद्धाश्च, तत्र च सिद्धास्तैजसादिदेशशरीरस्यापि वाच्यमिति। एवमौदारिकसर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्ते इति ते विशेषाधिका उक्ताः,
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. ९ : सू. ४४७
५१८ आहारकशरीरस्याबन्धका विशेषाधिका यस्मान्मनुष्याणामेवाहारकशरीरं वैक्रियं तु तदन्येषामपि, ततो वैक्रियबन्धकेभ्य आहारकबन्धकानां स्तोकत्वेन वैक्रियाबन्धकेभ्य आहारकाबन्धका विशेषाधिका इति। इह चेयं स्थापना॥ओराल. १॥ सब्यबंधा अणंता ६ देसबंधा असंखेज्ज.८ (विग्रहगति) अबंधा विसेसाहिया ७ विउब्विय. २॥ सब्बबंध, असंखेज्ज ३ देशबंध. असंखेज्ज ४ अबंधा विसेसाहिया १० |आहारग. ३॥ सव्वबंध. थोवा १ देसबंध. संख्यातगुणा २ अबंधा विसेसाहिया ११ ॥तैजस.४॥ देसबंध. विसेसाहिया ९ अबंध अणंता ५
कार्मण. ५॥ देसबंधा विसेसाहिया ९ अबंधा अणता ५ इहाल्पबहुत्वाधिकारे वृद्धा गाथा एवं प्रपञ्चितवन्तःओरालसव्वबंधा थोवा अब्बंधया विसेसहिया। तत्तो य देसबंधा असंखगुणिया कहं नेया?॥१॥ पढममि सव्वबंधो समए सेसेसु देसबंधो उ। सिद्धाईण अबंधो विग्गहगइयाण य जियाणं॥२॥ इह पुण विग्गहिए च्चिय पडुच्च भणिया अबंधगा अहिया। सिद्धा अणंतभागंमि सव्वबन्धाणवि भवन्ति॥३॥ उजुयाय एगवंका दुहओवंका गई भवे तिविहा। पढमाइ सव्वबंधा सव्वे बीयाइ अद्धं तु॥४॥ तइयाइ तइयभंगो लब्भइ जीवाण सव्वबंधाणं। इति तिन्नि सव्वबंधा रासी तिन्नेव य अबंधा॥५॥ रासिप्पमाणओ ते तुल्लाऽबंधा य सव्वबंधा य। संखापमाणओ पुण अबंधगा पुण जहन्भहिया।।६।। जे एगसमझ्या ते एगनिगोदमि छहिसिं एंति। दुसमइया तिपयरिया तिसमईया सेसलोगाओ॥७॥ तिरियाययं चउद्दिसि पयरमसंखप्पएसबाहल्लं। उड्ढं पुव्वावरदाहिणुत्तरायया य दो पयरा॥८॥ जे तिपयरिया ते छद्दिसिएहितो भवंतऽसंखगणा। सेसावि असंखगुणा खेत्तासंखेन्जगुणियत्ता॥९॥ एवं विसेसअहिया अबंधया सव्वबंधएहितो। तिसमइयविग्गहं पुण पडुच्च सुत्तं इमं होइ॥१०॥
चउसमयविग्गहं पुण संखेज्जगुणा अबंधगा होति। एएसिं निदरिसणं ठवणारासीहिं वोच्छामि॥११॥ पढमो होइ सहस्सं दुसमइया दोवि लक्खमेक्केक्कं। तिसमझ्या पुण तिन्निवि रासी कोडी भवेक्केक्का॥१२॥ एएसिं जहसंभवमत्थोवणयं करेग्ज रासीणं। एत्तो असंखगुणिया वोच्छं जह देसबंधा से॥१३॥ एगो असंखभागो वट्टइ उववट्टणोववायम्मि। एगनिगोए निच्चं एवं सेसेसुवि स एव ॥१४॥ अंतोमुहत्तमेत्ता ठिई निगोयाण जं विणिहिट्ठा। पल्लटुंति निगोया तम्हा अंतोमुहुत्तेणं॥१५॥ तेसिं ठितिसमयाणं विग्गहसमया हवंति जइभागे। एवतिभागे सव्वे विग्गहिया सेसजीवाणं॥१६॥ सव्वेवि य विग्गहिया सेसाणं जं असंखभागंमि। तेणासंखगणा
देसबंधयाऽबंधएहितो॥१७॥ वेउब्वियआहारगतेयाकम्माई
पढियसिद्धाई। तहवि विसेसो जो जत्थ तत्थ तं तं भणीहामि॥१८॥ वेउब्बियसव्वबंधा थोवा जे पढमसमयदेवाई। तस्सेव देसबंधा असंखगुणिया कहं के वा?॥१९॥ (उच्यते-) तेसिं चिय जे सेसा ते सव्वे सव्वबंधए मोत्तुं। होति अबंधाणता तव्वज्जा सेसजीवा जे॥२०॥ आहारगसव्वबंधा थोवा दो तिन्नि पंच वा दस वा। संखेज्जगुणा देसे ते उ पुहत्तं सहस्साणं॥२१॥ तव्वज्जा सव्वजिया अबंधया ते हवतंऽणतगुणा। थोवा अबन्धया तेयगस्स संसारमुक्का जे॥२२॥ सेसा य देसबंधा तव्यन्जा ते हवतऽणतगुणा। एवं कम्मगभेयावि नवरि णाणत्तमाउम्मि॥२३॥ (तच्चायु नात्वमेवम्-) थोवा आउयबंधा संखेज्जगुणा अबंधया होति। तेयाकम्माणं सव्वबंधगा नत्थऽणाइत्ता॥२४॥ अस्संखेज्जगुणा आउगस्स किमबंधगा न भन्नति?। जम्हा असंखभागो उबट्टइ एगसमएणं॥२५॥ भन्नइ एगसमइओ कालो उव्वट्टणाइ जीवाणं। बंधणकालो पुण आउगस्स अंतोमुहुत्तो उ॥२६॥ जीवाण ठिईकाले आउयबंधद्धभाइए लद्धं । एवइभागे आउस्स बंधइया सेसजीवाणं॥२७॥ जं संखेज्जतिभागो ठिइकालस्साउबंधकालो उ। तम्हाऽसंखगुणा से अबंधया बंधएहितो॥२८॥ ('से'त्ति आयुषः) संजोगप्पाबद्दयं आहारगसव्वबंधगा थोवा। तस्सेव देसबंधा संखगुणा ते य पुव्वुत्ता॥२९॥ तत्तो वेउब्वियसव्वबंधगा दरिसिया असंखगुणा। जमसंखा देवाई उववजंतेगसमएणं॥३०॥
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भगवती वृत्ति
पुव्युत्ता ।
य
तस्सेव देसबंधा असंखगुणिया हवंति तेयगकम्माबंधा अनंतगुणिया य ते सिद्धा ॥ ३१ ॥ तत्तो उ अनंतगुणा ओरालियसव्वबंधगा होंति । तस्सेव ततोऽबंधा य देशबंधा य पुब्बुत्ता ॥ ३२॥ तत्तो तेयगकम्माणं देसबंधा भवे विसेसहिया । ते चेवोरालियदेसंबंधगा होंतिमे जे तस्स सव्वबंधा अबंधगा जे एएहिं साहिया ते पुणाइ के सव्वसंसारी ? ॥ ३४ ॥ वे उव्वियस्स तत्तो अबंधगा साहिया विसेसेणं । ते चेव य नेरइयाइविरहिया सिद्धसंजुत्ता ॥ ३५ ॥ आहारगस्स तत्तो अबंधगा साहिया विसेसेणं । ते पुण के ? सव्वजीवा आहारगलद्धिए मोत्तुं ॥ ३६ ॥ भवन्त्येवमेकस्तेषां राशिः एकवक्रया ये उत्पद्यन्ते तेषां ये प्रथमे समये तेऽबन्धका द्वितीये तु सर्वबन्धका इत्येवं तेषां द्वितीयो राशिः, स चैकवक्राभिधानद्वितीयगत्योत्पद्यमानानामर्द्धभूतो भवतीति द्विवक्रया गत्या ये पुनरुत्पद्यन्ते ते आधे समयद्वयेऽबन्धकास्तृतीये तु सर्वबन्धकाः अयं च सर्वबन्धकानां तृतीयो राशिः स च द्विवक्राभिधानतृतीयगत्योत्पद्यमानानां त्रिभागभूतो भवति, तृतीयसमयभावितत्वात्तस्य एवं च त्रयः सर्वबन्धकानां राशयः त्रय एव चाबन्धकानां समयभेदेन राशिभेदादिति, एवं च ते राशिप्रमाणतस्तुल्या यद्यपि भवन्ति तथाऽपि सङ्ख्याप्रमाणतोऽधिका अबन्धका भवन्ति ॥४-५-६ ॥ ते चैवम्-ये एकसमयिका ऋजुगत्योत्पद्यमानका इत्यर्थः ते एकस्मिन्निगोदेसाधारणशरीरे लोकमध्यस्थिते षड्भ्यो दिग्भ्योनुश्रेण्याऽऽगच्छन्ति ये पुनर्द्विसमयिका एकवक्रगत्योत्पद्यमाना इत्यर्थः ते त्रिप्रतरिका:- प्रतस्त्रयादागच्छन्ति विदिशो वक्रेणाऽऽगमनात्, प्रतरश्च वक्ष्यमाणस्वरूपः. ये पुनस्त्रिसमयिकाः- समयत्रयेण वक्रद्वयेन चोत्पद्यमानकास्ते शेषलोकात् प्रतस्त्रयातिरिक्तलोकादागच्छन्तीति ॥७॥ प्रतरप्ररूपणायाह-लोकमध्यगतैकनिगोदमधिकृत्य तिर्यगायतश्चतसृषु दिक्षु प्रतरः कल्प्यते, असङ्ख्येयप्रदेशबाहल्यो-विवक्षितनिगोदोत्पादकालोचितावगाहनाबाहय इत्यर्थः तन्मात्रबाहल्यावेव 'उड्डे' ति ऊर्ध्वाधोलोकान्तगतौ पूर्वापरायो दक्षिणोत्तरायतश्चेति द्वौ प्रतराविति ॥ ८ ॥ अथाधिकृतमल्पबहुत्वमुच्यते - ये जीवास्त्रिप्रतरिका एकवक्रया गत्योत्पत्तिमन्तस्ते षड़दिग्भ्यः - ऋजुगत्या षड्भ्यो दिग्भ्यः सकाशाद् भवन्त्यसङ्ख्यगुणाः, शेषा अपि ये त्रिसमयिकाः शेषलोकादागतास्तेऽप्यसङ्ख्येयगुणा भवन्ति कुतः ?, क्षेत्रासङ्ख्यगुणितत्वाद्, यतः षदिक्क्षेत्रात्त्रिप्रतरमसङ्ख्यगुणं, ततोऽपि शेषलोक इति ॥९॥ ततः किम् ? इत्याह- वक्रद्वयमाश्रित्येदं सूत्रमित्यर्थः ॥ १० ॥ प्रथम ऋजुगत्युत्पन्नसर्वबन्धकराशिः सहस्रं परिकल्पितं, क्षेत्रस्याल्पत्वात् द्विसमयोत्पन्नानां द्वौ राशी, एकोऽबन्ध
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वऽन्ने ॥ ३३ ॥ नेरइयदेवा ।
परिशिष्ट- ५ : श. ८ : उ. ९,१० : सू. ४४७-४५०
कानामन्यः सर्वबन्धकानां तौ च प्रत्येकं लक्षमानो, तत्क्षेत्रस्य बहुतरत्वात, ये पुनस्त्रिभिः समयैरुत्पद्यन्ते तेषां त्रयो राशयः, तत्र चाद्ययोः समययोरबन्धकौ द्वौ राशी तृतीयस्तु सर्वबन्धको राशिः, ते च त्रयोऽपि प्रत्येकं कोटीमानास्तत्क्षेत्रस्य बहुतमत्वादिति, तदेवं राशित्रयेऽपि सर्वबन्धकाः सहस्रं लक्षं कोटी चेत्येवं सर्वस्तोकाः, अबन्धकास्तु लक्षं कोटीद्रयं चेत्येवं विशेषाधिकास्त इति ॥ १२ ॥ अनेन च गाथाद्वयेनोद्वर्त्तनाभणनाद्विग्रहसमयसम्भवः, अन्तर्मुहूर्त्तान्ते परिवर्त्तनाभणनाच्च निगोदस्थितिसमयमानमुक्तं, ततश्च अयमर्थः ॥ १४ ॥ तेषामेव वैक्रियबन्धकानां सर्वबन्धकान् मुक्त्वा ये शेषास्ते सर्वे वैक्रियस्य देशबन्धका भवन्ति, तत्र च सर्वबन्धकान् मुक्त्यवेत्यनेन कथमित्यस्य निर्वचनमुक्तं ये शेषा इत्यनेन तु के वेत्यस्येति, अबन्धकास्तु तस्यानन्ता भवन्ति, ते च के ?, ये तद्वर्जा- वैक्रिय सर्वदेशबन्धकवर्जाः शेषजीवास्ते चौदारिकादिबन्धकाः देवादयश्च वैग्रहिका इति ॥ २१ ॥ 'तद्वर्जाः ' आहारकबन्धवर्जाः सर्व्वजीवा अबन्धका इत्याहारका बन्धस्वरूपमुक्तं, ते च पूर्वेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति ॥२२-२४॥ सङ्ख्यातगुणा आयुष्का-बन्धका इति यदुक्तं तत्र प्रश्नयन्नाह एकोऽसङ्ख्यभागो निगोदजीवानां सर्वदोद्वर्तते, स च बद्धायुषामेव, तदन्येषा मुद्वर्त्तनाऽभावात्, तेभ्यश्च ये शेषास्तेऽबन्द्वायुषः, ते च तदपेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणा एवेत्येवमसत्यगुणा आयुष्यका बन्धकाः स्युरिति ॥ २५ ॥ अत्रोच्यते, निगोदजीवभवकालापेक्षया तेषामायुर्बन्धकालः सङ्ख्यातभागवृत्तिरित्यबन्धकाः सङ्ख्यातगुणा एव । एतदेव भाव्यते - निगोदजीवानां स्थिति - कालोऽन्तर्मुहूर्त्तमानः, स च कल्पनया समयलक्षं, तत्र 'आयुर्बन्धान्द्रया' आयुर्बन्धकालेनान्तर्मुहूर्त्तमानेनैव कल्पनया समयसहस्रलक्षणेन भाजिते सति यल्लब्धं कल्पनया शतरूपं एतावति भागे वर्त्तन्ते आयुर्बन्धकाः 'सेसजीवाणं' ति शेषजीवानां तदबन्धकानामित्यर्थः, तत्र किल लक्षापेक्षया शतं सङ्ख्येयतमो भागोऽतो बन्धकेभ्योऽबन्धकाः सङ्ख्येयगुणा भवन्तीति ॥ २६२७॥ एतदेव भाव्यते ॥ २८ ॥ समाप्तोऽयं बन्धः ॥ अष्टमशते नवमः ॥८-९ ॥
दशम उद्देशकः
अनंतरोद्देशके बन्धादयोऽर्था उक्ताः, तांश्च श्रुतशीलसंपन्नाः पुरुषा विचारयन्तीति श्रुतादिसंपन्नपुरुषप्रभृतिपदार्थविचारणार्थो दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्८/४४९-४५०. 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र च ' एवं खलु सीलं सेयं १ सुयं सेयं २ सुयं सेयं ३ सीलं सेयं ४' इत्येतस्य चूर्ण्यनुसारेणव्याख्या-‘एवं' लोकसिद्धन्यायेन खलु निश्चयेन इहान्य- यूथिकाः केचित् क्रियामात्रादेवाभीष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति
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परिशिष्ट-५ : श. ८ : उ. १० : सू. ४५०-४५७
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भगवती वृत्ति
न च किञ्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनं, निश्चेष्टत्वात्, संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न ह एगचक्केण रहो पयाइ। घटादिकरणप्रवृत्तावाकाशादिपदार्थवत्, पठ्यते च
अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा॥१॥ 'क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम्।
इति, (फलं संयोगसिद्ध्या वदन्ति एकचक्रेण न रथः प्रयाति। यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत्॥१॥'
वनेऽन्धः पङ्गश्च समेत्य तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ।।१।।) तथा
द्वितीयव्याख्यानपक्षेऽपि मिथ्यात्वं, संयोगतः फलसिद्धे'जहा खरो चंदणभारवाही, भारस्स भागी न ह चंदणस्स। दृष्टत्वात् एकैकस्य प्रधानेतरविवक्षयाऽसङ्गतत्वादिति, अहं एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नहु सोगईए॥१॥' पुनर्गौतम! एवमाख्यामि यावत्प्ररूपयामीत्यत्र श्रुतयुक्तं शीलं (यथा चन्दनभारवाही खरो भारभाग न चैव चन्दनस्य। एवं श्रेयः इत्येतावान् वाक्यशेषो दृश्यः, अथ कस्मादेवं?, चरणहीनो ज्ञानी ज्ञानभाग् न तु सुगतेः॥१॥ अतस्ते अत्रोच्यते-'एव' मित्यादि, एवं वक्ष्यमाणन्यायेन–'पुरिसजाय' प्ररूपयन्ति-शीलं श्रेयः प्राणातिपातादिविरमण- त्ति पुरुषप्रकाराः 'शीलवं असुयवं' ति कोऽर्थः ?, 'उवरए ध्यानाध्ययनादिरूपा क्रियैव श्रेयः--अतिशयेन प्रशस्यं श्लाघ्यं अविनायधम्मे' ति 'उपरतः' निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात् पुरुषार्थसाधकत्वात्, श्रेयं वा-समाश्रयणीयं पुरुषार्थ- 'अविज्ञातधर्मा' भावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः, विशेषार्थिना, अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न गीतार्थानिश्रिततपश्चरणनिरतोऽगीतार्थ इत्यन्ये, 'देसाराहए' क्रियातः, ज्ञानविकलस्य क्रियावतोऽपि फलसिद्ध्यदर्शनात्, त्ति देशं-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यग्बोधरअधीयते च
हितत्वात् क्रियापरत्वाच्चेति, 'असीलवं सुयवं' ति, कोऽर्थः?'विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता।
'अणुवरए विनायधम्मे' त्ति पापादनिवृत्तो विज्ञातधर्मा मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात्॥१॥'
चाविरतिसम्यग्दृष्टिरितिभावः, 'देसविराहए' ति देशतथा
स्तोकमंशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए।
चारित्रं विराधयतीत्यर्थः, प्राप्तस्य तस्यापालनादप्राप्तेर्वा, अन्नाणी किं काही किं वा नाहिई छेयपावयं॥१॥
'सव्वाराहए' ति सब-त्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधय(प्रथमं ज्ञानं ततो दयैवं सर्वसंयतेषु तिष्ठति अज्ञानी किं तीत्यर्थः, श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयोः सगृहीतत्वात्, न हि करिष्यति किं वा ज्ञास्यति छेकं पापकं वा॥१॥) अतस्ते मिथ्यादृष्टिर्विज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति, एतेन समुदितयोः प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, श्रुतं-श्रुतज्ञानं तदेव श्रेयः- शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति 'सव्वाराहए' त्युक्तम्॥ अतिप्रशस्यमाश्रयणीयं वा पुरुषार्थसिद्धिहेतुत्वात् न तु अथाराधनामेव भेदत आहशीलमिति, अन्ये तु ज्ञानक्रियाभ्यामन्योऽन्यनिरपेक्षाभ्यां ८/४५१. 'कतिविहा ण' मित्यादि, 'आराहण' ति आराधनाफलमिच्छन्ति, ज्ञानं क्रियाविकलमेवोपसर्जनीभूतक्रियं वा फलदं निरतिचारयताऽनुपालना, तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारं श्रुतं वा क्रियाऽपि ज्ञानविकला उपसर्जनीभूतज्ञाना वा फलदेति भावः, तस्याराधना-कालाधुपचारकरणं दर्शनं-सम्यक्त्वं तस्याभणन्ति च-'किञ्चिद्वेदमयं पात्रं, किञ्चित्पात्रं तपोमयम्। राधना-निश्शङ्कितत्वादितदाचारानुपालनं चारित्रं-सामायिकादि आगमिष्यति तत्पात्रं, यत्पात्रं तारयिष्यति ॥१॥' अतस्ते तदाराधना-निरतिचारता। प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः तथा शीलं श्रेयः३, द्वयोरपि प्रत्येकं ८/४५२-४५४. 'उक्कोसिय' त्ति उत्कर्षा ज्ञानाराधना पुरुषस्य पवित्रतानिबन्धनत्वादिति, अन्ये तु व्याचक्षते-शीलं ज्ञानकृत्यानुष्ठानेषु प्रकृष्टप्रयत्नता 'मज्झिम' त्ति तेष्वेव श्रेयस्तावन्मुख्यवृत्त्या तथा श्रुतं श्रेयः-श्रुतमपि श्रेयो गौणवृत्त्या मध्यमप्रयत्नता 'जहन्न' त्ति तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता। एवं तदुपकारित्वादित्यर्थः इत्येकीयं मतं, अन्यदीयमतं तु श्रुतं दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति॥ श्रेयस्तावत्तथा शीलमपि श्रेयो गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः, अथोक्ताऽऽराधनाभेदानामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाहअयं चार्थ इह सूत्रे काकुपाठाल्लभ्यते, एतस्य च प्रथम- ८/४५५-४५७. 'जस्स ण' मित्यादि, 'अजहन्नुक्कोसा व' त्ति व्याख्यानेऽन्ययूथिकमतस्य मिथ्यात्वं, पूर्वोक्तपक्षत्रयस्यापि जघन्या चासौ उत्कर्षा च-उत्कृष्टा जघन्योत्कर्षा तन्निषेधादफलसिद्धावनङ्गत्वात् समुदायपक्षस्यैव च फलसिद्धिकरण- जघन्योत्कर्षा मध्यमेत्यर्थः, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि आद्ये द्वे त्वात्, आह च
दर्शनाराधने भवतो न पुनस्तृतीया, तथास्वभावत्वात्तस्येति। ‘णाणं पयासयं सोहओ तवो संजमो य गुत्तिकरो।
'जस्स पुणे त्यादि उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञानं प्रति तिण्हंपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ॥१॥'
त्रिप्रकारस्यापि प्रयत्नस्य सम्भवोऽस्तीति त्रिप्रकाराऽपि (ज्ञानं प्रकाशकं तपः शोधकं संयमश्च गुप्तिकरः। त्रयाणामपि तदाराधना भजनया भवतीति। उत्कृष्टज्ञानचारित्राराधनासमायोगे जिनशासने मोक्षो भणितः॥१) तपःसंयमौ च संयोगसूत्रे तूत्तरं यस्योत्कृष्टा ज्ञानाराधना तस्य चारित्राराधना शीलमेव, तथा
उत्कृष्टा मध्यमा वा स्यात्, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि चारित्रं
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परिशिष्ट-५ : श.८: उ. १०: सू. ४५७-४७५
प्रति नाल्पतमप्रयत्नता स्यात्तत्स्वभावात्तस्येति, उत्कृष्ट- वलयाकारं, यावत्करणाच्च ‘वट्टसंठाणपरिणामे तंससंठाणचारित्राराधनावतस्तु ज्ञानं प्रति प्रयत्नत्रयमपि भजनया स्यात्, परिणामे चउरंससंठाणपरिणामे' त्ति दृश्यम्।। एतदेवातिदेशत आह-जहा उक्कोसिये' त्यादि, उत्कृष्टदर्शन- पुलाधिकारादिदमाहचारित्राराधना संयोगसूत्रे तूत्तरं-'जस्स उक्कोसिया ८/४७०. 'एगे भंते! पोग्गलत्थिकाये' इत्यादि, पुद्गलास्तिदंसणाराहणा' इत्यादि, यस्योत्कृष्टा दर्शनाराधना तस्य कायस्य-एकाणुकादिपुद्गलराशेः प्रदेशो-निरंशोऽशः पुद्गलास्तिचारित्राराधना त्रिविधाऽपि भजनया स्यात्, उत्कृष्ट- कायप्रदेश:-परमाणुः द्रव्यं-गुणपर्याययोगि द्रव्यदेशोदर्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयत्नस्य त्रिविध. द्रव्यावयवः, एवमेकत्वबहुत्वाभ्यां प्रत्येकविकल्पाश्चत्वारः स्याप्यविरुन्द्रत्वादिति। उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टैव द्विकसंयोगा अपि चत्वार एवेति प्रश्नः, उत्तरं तु स्याद्रव्यं दर्शनाराधना, प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगतत्वादिति।। द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति, स्याद्रव्यदेशो द्रव्यान्तरसम्बन्धे अथाराधनाभेदानां फलप्रदर्शनायाह
सति, शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधः, परमाणोरेकत्वेन बहुत्वस्य ८/४५८-४६६. 'उक्कोसियं ण' मित्यादि, 'तेणेव भवग्गहणेणं द्विकसंयोगस्य चाभावादिति। सिज्झइ' त्ति उत्कृष्टां ज्ञानाराधनामाराध्य तेनैव भवग्रहणेन
८/४७१. 'दो भंते!' इत्यादि, इहाष्टासु भङ्गकेषु मध्ये आद्याः पञ्च सिद्ध्यति, उत्कृष्टचारित्राराधनायाः सद्भावे, 'कप्पोवएसु व'
भवन्ति, न शेषाः, तत्र द्वौ प्रदेशौ स्याद्रव्यं, कथं ?, यदा तौ त्ति 'कल्पोपगेषु' सौधर्मादिदेवलोकोपगेषु देवेषु मध्ये उपपद्यते,
द्विप्रदेशिकस्कन्धतया परिणतौ तदा द्रव्यं १, यदा तु मध्यमचारिबाराधनासद्भावे, कप्पातीएसु ब' त्ति
व्यणुकस्कन्धभावगतावेव तौ द्रव्यान्तर-सम्बन्धमुपगतौ तदा ग्रैवेयकादिदेवेषूत्पद्यते मध्यमोत्कृष्टचारित्राराधनासदावे इति,
द्रव्यदेशः २, यदा तु तौ द्वावपि भेदेन व्यस्थितौ तदा द्रव्ये ३, तथा-'उक्कोसियं णं भंते! दंसणाराहण' मित्यादि, ‘एवं चेव'
यदा तु तावेव व्यणुकस्कन्धतामनापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्धत्ति करणात् 'तेणेव भवग्गणेणं सिज्झइ' इत्यादि दृश्यं,
मुपगतौ तदा द्रव्यदेशाः ४, यदा पुनस्तयोरेकः केवलतया स्थितो तद्भवसिद्ध्यादि च तस्यां स्यात्, चारित्राराधनायास्तत्रो
द्वितीयश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्तदा द्रव्यं च द्रव्यदेशश्चेति त्कृष्टाया मध्यमायाश्चोक्तत्वादिति, तथा-'उक्कोसियण्णं
पञ्चमः, शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधोऽसम्भवादिति। भंते ! चारित्ताराहण' मित्यादौ ‘एवं चेव' त्ति करणात् 'तेणेव
८/४७२. 'तिन्नि भंते!' इत्यादि, त्रिषु प्रदेशेष्वष्टमविकल्पवर्जाः सप्त भवग्गहणेण' मित्यादि दृश्यं, केवलं तत्र 'अत्थेगइए कप्पोवगेसु
विकल्पाः संभवन्ति, तथाहि-यदा बयोऽपि त्रिप्रदेशिकवे' त्यभिहितमिह तु तन्न वाच्यं, उत्कृष्टचारित्राराधनावतः
स्कन्धतया परिणतास्तदा द्रव्यं १, यदा तु त्रिप्रदेशिकसौधर्मादिकल्पेष्वगमनाद्, वाच्यं पुनः 'अत्थेगइए कप्पातीएसु
स्कन्धतापरिणता एव द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतास्तदा द्रव्यदेशः उववज्जइ' त्ति सिद्धिगमनाभावे तस्यानुत्तरसुरेषु गमनात्,
२. यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यवस्थिता द्वौ वा एतदेव दर्शयतोक्तं 'नवर' मित्यादि। मध्यमज्ञानाराधनासूत्रे मध्यमत्वं ज्ञानाराधनाया अधिकृतभव एव निर्वाणाभावात्, भावे
व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एव स्थितस्तदा 'दव्वाई' ति ३,
यदा तु ते त्रयोऽपि स्कन्धतामनागता एव द्वौ वा पुनरुत्कृष्टत्वमवश्यम्भावीत्यवसेयं, निर्वाणान्यथाऽनुपपत्तेरिति,
व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवेत्येवं द्रव्यान्तरेण सबंद्धास्तदा दोच्चेणं' ति अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन
'दव्वदेसा' इति ४, यदा तु तेषां द्वौ व्यणुकतया 'तच्वं पुण भवग्गहणं' ति अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं
परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्धः अथवैकः केवल एव स्थितो मनुष्यभवग्रहणं, एताश्च चारित्राराधनासंवलिता ज्ञानाधाराधना
द्वौ तु व्यणुकतया परिणम्य द्रव्यान्तरेण संबन्धौ तदा 'दव्वं च इह विवक्षिताः, कथमन्यथा जघन्यज्ञानाराधनामाश्रित्य
दव्वदेसे य' त्ति ५, यदा तु तेषामेकः केवल एव स्थितो द्वौ च वक्ष्यति, 'सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण णाइक्कमइ' त्ति,
भेदेन द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दव्वं च दव्वदेसा य' ति ६. यतश्चारित्राराधनाया एवेदं, फलमुक्तं, यदाह-'अट्ठभवा उ
यदा पुनस्तेषां द्वौ भेदेन स्थितावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्धस्तदा चरित्ते' त्ति (अष्टौ भवास्तु चारित्रे), श्रुतसम्यक्त्वदेश
'दब्वाइं च दव्वदेसे य' त्ति ७, अष्टमविकल्पस्तु न संभवति, विरतिभवास्त्वसङ्येया उक्ताः, ततश्चरणाराधनारहिता ज्ञानदर्शनाराधना असंख्येयभविका अपि भवन्ति नत्वष्टभविका
उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचनाभावात्। एवेति॥
८/४७३,४७४. प्रदेशचतुष्टयादौ त्वष्टमोऽपि संभवति, उभयत्रापि अनन्तरं जीवपरिणाम उक्तोऽथ पुद्गलपरिणामाभिधानायाह
बहुवचनसद्भावादिति। ८/४६७,४६८. 'कइविहे ण मित्यादि, 'वन्नपरिणामे' ति यत्पुद्गलो
___ अनन्तरं परमाण्वादिवक्तव्यतोक्ता, परमाण्वादयश्च लोकाकाशवर्णान्तरत्यागाद्वर्णान्तरं यात्यसौ वर्णपरिणाम इति,
प्रदेशावगाहिनो भवन्तीति तद्वक्तव्यतामाहएवमन्यत्रापि।
८/४७५. 'केवइया ण' मित्यादि, 'असंखेज्ज' त्ति यस्मादसङ्ख्येय८/४६९, 'परिमंडलसंठाणपरिणामे' त्ति इह परिमण्डलसंस्थान
प्रदेशिको लोकस्तस्मात्तस्य प्रदेशा असंख्येया इति।
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परिशिष्ट-५:श.८: उ.१०: सू.४७६-५००
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भगवती वृत्ति
प्रदेशाधिकारादेवेदमाह
८/१८०. 'जस्से' त्यादि, अयं च गमो ज्ञानाबरणीयगमसम एवेति। ८/४७६. 'एगमेगस्से' त्यादि, एकैकस्य जीवस्य तावन्तः प्रदेशा ८/४९०. 'जस्स णं भंते! वेयणिज्ज' मित्यादिना तु वेदनीयं शेषैः
यावन्तो लोकाकाशस्य, कथं ?, यस्माज्जीवः केवलि- पञ्चभिः सह चिन्त्यते, तत्र च 'जस्स वेयणिज्जं तस्स समुद्घातकाले सर्व लोकाकाशं व्याप्यावतिष्ठति मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि' ति अक्षीणमोहं क्षीणमोहं तस्माल्लोकाकाशप्रदेशप्रमाणास्त इति।
च प्रतीत्य, अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति, जीवप्रदेशाश्च प्रायः कर्मप्रकृतिभिरनुगता इति क्षीणमोहस्य तु वेदनीयमस्ति न तु मोहनीयमिति। तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह
८/४९१. एवं एयाणि परोप्परं नियम' ति कोऽर्थः ? यस्य वेदनीयं ८/४७७-४८३. 'कइ ण' मित्यादि, 'अविभागपलिच्छेद' त्ति तस्य नियमादायुर्यस्यायुस्तस्य नियमावेदनीय-मित्येवमेते
परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा-अंशास्ते च सविभागा अपि वाच्ये इत्यर्थः, एवं नामगोत्राभ्यामपि वाच्यं, एतदेवाह--'जहा भवन्त्यतो विशेष्यन्ते-अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्य- आउएणे त्यादि। विभागपरिच्छेदाः, निरंशा अंशा इत्यर्थः, ते च ज्ञानावर- ८/४९.२. अन्तरायेण तु भजनया यतो वेदनीयं अन्तरायं णीयस्य कर्मणोऽनन्ताः, कथं?, ज्ञानावरणीयं यावतो चाकेवलिनामस्ति केवलिनां तु वेदनीयमस्ति न त्वन्तराय, ज्ञानस्याविभागान भेदान् आवृणोति तावन्त एव तस्याविभाग- एतदेव दर्शयतोक्तं 'जस्स वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय परिच्छेदाः, दलिकापेक्षया वाऽनन्ततत्परमाणुरूपाः, 'अविभाग- अत्थि सिय नत्थि' नि। पलिच्छेदेहिं ति तत्परमाणुभिः 'आवेढिए परिवेढिए' त्ति अथ मोहनीयमन्यैश्चतुर्भिः सह चिन्त्यते। आवेष्टितपरिवेष्टितोऽत्यन्तं परिवेष्टित इत्यर्थः आवेष्ट्य ८/४९३. तत्र यस्य मोहनीयं तस्यायुर्नियमादकेवलिन इव, यस्य परिवेष्टित इति वा 'सिय नो आवेढियपरिवेढिए ति केवलिनं पुनरायुस्तस्य मोहनीयं भजनया, यतोऽक्षीणमोहस्यायर्मोहनीयं प्रतीत्य तस्य क्षीणज्ञानावरणत्वेन तत्प्रदेशस्य ज्ञानावरणीया- चास्ति क्षीणमोहस्य त्वायुरेवेति-'एवं नाम गोयं अंतराइयं च विभागपलिच्छेदैरावेष्टनपरिवेष्टनाभावादिति। 'मणूसस्स जहा भाणियव्वं' ति. अयमर्थः यस्य मोहनीयं तस्य नाम गोत्रजीवस्य त्ति 'सिय आवेढिये' त्यादि वाच्यमित्यर्थः मन्तरायं च नियमादस्ति, यस्य पुनर्नामादिवयं तस्य मोहनीयं
मनुष्यापेक्षयाऽऽवेष्टितपरिवेष्टितत्वस्य तदितरस्य च सम्भवात्। स्यादस्त्यक्षीणमोहस्येव, स्यान्नास्ति क्षीणमोहस्येवेतिः । ८/४८४. एवं दर्शनावरणीयमोहनीयान्तरायेष्वपि वाच्यं, वेदनीया- अथायुरन्यैस्विभिः सह चिन्त्यते
युष्कनामगोत्रेषु पुनर्जीवपद एव भजना वाच्या सिद्धापेक्षया, ८/१९४. 'जस्स णं भंते! आउय मित्यादि, दोवि परोप्परं नियम' मनुष्यपदे तु नासौ, तत्र वेदनीयादीनां भावादित्येतदेवाह-'नवरं त्ति कोऽर्थः ?-'जस्स आउयं तस्स नियमा नामं जस्स नाम वेयणिज्जस्से' त्यादि।
तस्स नियमा आउयं' इत्यर्थः, एवं गोत्रेणापि। अथ ज्ञानावरणं शेषैः सह चिन्त्यते
८/४९५. 'जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि' त्ति /४८५-४८६. 'जस्स ण' मित्यादि, 'जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स यस्यायुस्तस्यान्तरायं स्यादस्ति अकेवलिवत् स्यान्नास्ति
नाणावरणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि' त्ति अकेवलिनं केवलिनं केवलिवदिति। च प्रतीत्य अकेवलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीयं चास्ति, ८/४९६-४९८. 'जस्स णं भंते! णाम' इत्यादिना नामान्येन द्वयेन केवलिनस्तु वेदनीयमस्ति न तु ज्ञानावरणीयमिति।
सह चिन्त्यते, तत्र यस्य नाम तस्य नियमाद्ोत्रं यस्य गोत्रं तस्य ८/४८७. 'जस्स णाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अत्थि सिय नियमान्नाम, तथा यस्य नाम तस्यान्तरायं स्यादस्त्यकेवलिवत्
नत्थि' त्ति अक्षपकं क्षपकं च प्रतीत्य, अक्षपकरस्य हि ज्ञाना- स्यान्नास्ति केवलिवदिति। एवं गोत्रान्तराययोरपि भजना भावनीयेति। वरणीयं मोहनीयं चास्ति, क्षपकस्य तु मोहक्षये यावत् केवल- अनन्तरं कर्मोक्तं तच्च पुद्गलात्मकमतस्तदधिकारादिदमाह
ज्ञानं नोत्पद्यते तावज्ज्ञानावरणीयमस्ति न तु मोहनीयमिति। ८/४९९.५००. 'जीवे ण' मित्यादि, 'पोग्गलीवि' ति पुद्गलाः८८८८८. एवं च यथा ज्ञानावरणीयं वेदनीयेन सममधीतं तथाऽऽयुषा श्रोत्रादिरूपा विद्यन्ते यस्यासौ पुद्गली, 'पुग्गलेवि' ति पुद्गल
नाम्ना गोत्रेण च सहाध्येयं, उक्तप्रकारेण भजनायाः सर्वेषु तेषु इति सज्ञा जीवस्य ततस्तद्योगात् पुद्गल इति। एतदेव भावात्, 'अंतराएणं च समं ज्ञानावरणीयं तथा वाच्यं यथा दर्शयन्नाह-से केणटेण' मित्यादि।। दर्शनावरणं, निर्भजनमित्यर्थः, एतदेवाह-एवं जहा वेयणिज्जेण
अष्टमशते दशमः॥८-१०॥ सम' मित्यादि, 'नियमा परोप्परं भाणियव्वाणि' त्ति सद्भक्त्याहुतिना विवृद्धमहसा पार्श्वप्रसादाग्निना, कोऽर्थः ?-'जस्स नाणावरणिज्जं तस्स नियमा अंतराइयं तन्नामाक्षरमन्त्रजप्तिविधिना विघ्नेन्धनप्लोषितः। जस्स अंतराइयं तस्स नियमा नाणावरणिज्ज' मित्येवमनयोः सम्पन्नेऽनघशान्तिकर्मकरणे क्षेमादहं नीतवान, परस्परं नियमो वाच्य इत्यर्थः ।
सिद्धिं शिल्पिवदेतदष्टमशतव्याख्यानसन्मन्दिरम॥१॥ अथ दर्शनावरणं शेषैः षड्भिः सह चिन्तयन्नाह
॥ समाप्त चाष्टमशतम् ॥८॥ ग्रन्थानम् ९४३८॥
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भगवती वृत्ति
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अथ नवमं शतकम् प्रथम उद्देशकः
व्याख्यातमष्टमशतमथ नवममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अष्टमशते विविधाः पदार्था उक्ताः, नवमेऽपि त एव भङ्गयन्तरेणोच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्योद्देशकार्थसंसूचिकेयं
गाथा
'जंबुद्दीवे' इत्यादि, तत्र 'जंबुद्दीवे' नि तत्र जम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमोदेशकः १, 'जोइस' त्ति ज्योतिष्कविषयों द्वितीयः २ 'अंतरदीव त्ति अन्तरद्वीपविषया अष्टाविंशतिरुदेशकाः ३०, 'असोच्च' त्ति अश्रुत्वा धर्मे लभेतेत्याद्यर्थपतिपादनार्थ एकत्रिंशत्तमः ३१, 'गंगेय' ति गाङ्गेयाभिधा नागारवक्तव्यतार्थो द्वात्रिंशत्तमः ३२, 'कुंडग्गामे' त्ति ब्राह्मणकुण्डग्रामविषयस्त्रयस्त्रिंशत्तमः ३३, 'पुरिसे' त्ति पुरुषः पुरुषं घ्नन्नित्यादिवक्तव्यतार्थश्चतुस्त्रिंशत्तम ३४ इति || ९/१. 'कहिं णं भंते' इत्यादि कस्मिन् देशे इत्यर्थः एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियव्व' त्ति, सा चेयम्- 'केमहालए णं भते ! जंबूद्दीवे दीवे किमागारभाव पडोयारे णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे पन्नत्ते ?' कस्मिन्नाकारभावे प्रत्यवतारो यस्य स तथा 'गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वब्भंतरए सव्वखुड्डाए वट्टे तिल्लपूयसंठाणसंठिए वट्टे रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणसठिए पन्नत्ते एवं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण 'मित्यादि, किमन्तेयं व्याख्या? इत्याह-'जावे'त्यादि, 'एवामेव' त्ति उक्तेनैव न्यायेन पूर्वापरसमुद्रगमनादिना 'सपुव्वावरेण' ति सह पूर्वेण नदीवृन्देनापरं सपूर्वापरं तेन 'चोइस सलिला सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवन्तीति वा मक्खाय' ति इह सलिलाशतसहस्राणि नदीलक्षाणि एतत्सङ्ख्या चैवं भरतेरावतयोर्गङ्गासिन्धुरक्तारक्तवत्यः प्रत्येकं चतुर्दशभिर्नदीनां सहस्रैर्युक्ताः तथा हैमवतैरण्यवतयोः रोहिद्रोहितांशा सुवर्णकूला रूप्यकूलाः प्रत्येकमष्टाविंशत्या सहस्रैर्युक्ताः, तथा हरिवर्षरम्यकवर्षयोर्हरिहरिकान्तानरकान्तानारीकान्ताः प्रत्येकं षट्पञ्चाशता सहस्रैर्युक्ताः समुद्रमुपयान्ति महाविदेहेशीताशीतोदे प्रत्येकं पञ्चभिर्लक्षैर्द्वात्रिंशता सहस्रैर्युक्ते समुद्रमुपयात इति, सर्वासां च मीलने सूत्रोक्तं
तथा च
१. सप्तैव कोटीशतानि नवतिः कोट्यः षट्पञ्चाशल्लक्षाश्चतुर्नवतिः सहस्राणि साधिकं सार्धं शतं च ॥ १ ॥ गव्यूतमेकं पञ्चदशाधिकानि
परिशिष्ट - ५ : श. ८ : उ. १ : सू. १
प्रमाणं भवति, वाचनान्तरे पुनरिदं दृश्यते--'जहा जंबूद्दीवपन्नत्तीए तहा णेयब्वं जोइसविहूणं जावखंडा जोयण वासा पव्वय कूडा य तित्थ सेढीओ । विजयद्दहसलिलाउ स पिंडए होति संगहणी ॥ १ ॥ ' ति, तत्र 'जोइसविहूणं' ति जंबूद्वीपप्रज्ञप्त्यां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽस्ति तद्विहीनं समस्तं जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमस्योद्देशकस्य सूत्रं ज्ञेयं, किंपर्यवसानं पुनस्तद् ? इत्याह-- ' जाव खंडे' त्यादि, तत्र 'खंडे' त्ति जम्बूद्वीपो भरनक्षेत्रप्रमाणानि खण्डानि यन्ति स्यात् ?, उच्यते नवत्यधिकं खण्डशतं, 'जोयण' ति जम्बूद्वीप: कियन्ति योजनप्रमाणानि खण्डानि स्यात् ?, उच्यते, -
'सत्तेव य कोडिसया णउया छप्पन्नसयसहस्साई । चरणउई च सहस्सा सयं दिवङ्कं च साहीयं ॥ १ ॥ गाउयमेगं पन्नरस धणुस्सया तह धणूणि पन्नरस । सचि अंगुलाई जंबुद्दीवस्स गणियपयं ॥ २ ॥ इति, गणितपदमित्येवंप्रकारस्य गणितस्य सञ्ज्ञा 'वास' त्ति जम्बूद्वीपे भरतहेमवतादीनि सप्त वर्षाणि क्षेत्राणीत्यर्थः, 'पव्वय' त्ति जम्बूद्वीपे कियन्तः पर्वता ?, उच्यन्ते, षड् वर्षधरपर्वता हिमवदादयः एको मन्दरः एकश्चित्रकूटः एक एव विचित्रकूटः, एतौ च देवकुरुषु, द्वौ यमकपर्वतौ, एतौ चोत्तरकुरुषु, द्वे शते काञ्चनकानाम्, एते च शीताशीतोदयोः पार्श्वतो, विंशतिः वक्षस्काराः, चतुस्त्रिंशद्दीर्घविजयार्द्धपर्वताश्चत्वारो वर्तुलविजयार्द्धाः एवं द्वे शते एकोनसप्तत्यधिके पर्वतानां भवतः, 'कूड' त्ति कियन्ति पर्वतकूटानि ?, उच्यते, षट्पञ्चाश
धरकूटानि षण्णवतिर्वक्षस्कारकूटानि त्रीणि षडुत्तराणि विजयार्द्धकूटानां शतानि नव च मन्दरकूटानि एवं चत्वारि सप्तषष्ट्यधिकानि कूटशतानि भवन्ति । 'तित्थ' नि जम्बूद्वीपे कियन्ति तीर्थानि ?, उच्यते, भरतादिषु चतुस्त्रिंशति खण्डेषु मागधवरदामप्रभासाख्यानि त्रीणि त्रीणि तीर्थानि भवन्ति, एवं चैकं द्वयुत्तरं तीर्थशतं भवतीति, 'सेढीओ' त्ति विद्याधरश्रेणयः आभियोगिक श्रेणयश्च कियन्त्यः ?, उच्यते, अष्टषष्टिः प्रत्येकमासां भवन्ति, विजयार्द्धपर्वतेषु प्रत्येकं द्वयोर्द्वयोर्भावात्, एवं च षटत्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीति, 'विजय' त्ति कियन्ति चक्रवर्त्तिविजेतव्यानि भूखण्डानि ? उच्यते चतुस्त्रिंशत्, एतावन्त एवं राजधान्यादयोऽर्था इति, 'दह' त्ति कियन्तो महाहदाः ? उच्यते, पद्मादयः षड् दश च नीलवदादय उत्तरकुरुदेवकुरुमध्यवर्त्तिन इत्येवं षोडश, 'सलिल' त्ति नद्यस्तत्प्रमाणं च दर्शितमेव, 'पिंडए होति संग्रहणि' ति उद्देशकार्थानां पिण्डके-मीलके विषयभूते इयं सङ्ग्रहणीगाथा भवतीति ॥
पञ्चदश
गणितपदम् ॥ २ ॥
शतानि
नवमशते प्रथमः ॥१-१॥
धनूंषि षष्टिश्चाङ्गुलानां जम्बूद्वीपस्यैतद्
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परिशिष्ट - ५ : श. ९ : उ. २ : सू. ३-५
द्वितीय उद्देशकः
५२४
अनन्तरोद्देशके जम्बूद्वीपवक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु जम्बूद्वीपादिषु ज्योतिष्कवक्तव्यताऽभिधीयते, तस्य चेदमादिसूत्रम्९ / ३. 'रायगिहे' इत्यादि, एवं जहा जीवाभिगमे त्ति तत्र चैतत्सूत्रमेवम्- 'केवतिया चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा पभासिस्संति वा ३ ? केवतिया सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा? केवइया नक्खत्ता जोयं जोइसु वा ३ ? केवइया महग्गहा चारं चरिंसु वा ३ ? केवइयाओ तारागणकोडाकोडीओ सोहिं सोहिंसु वा ३?' शोभां कृतवत्य इत्यर्थः, 'गोतमा ! जंबूद्दीवे दीवे दो चंदा पभासिंसु वा ३ दो सूरिया तविंसु वा ३ छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोइंसु वा ३ छावत्तरं गहस्यं चारं चरिंसु वा ३' बहुवचनमिह छान्दसत्वादिति, एगं च सयसहस्स तेत्तीस खलु भवे सहस्साई शेषं तु सूत्रपुस्तके लिखितमेवास्ते ॥
९ / ४. 'लवणे णं भंते!' इत्यादी एवं जहा जीवाभिगमे त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं- 'केवइया चंदा पभासिंसु वा ३ केवतिया सूरिया तविंसु वा ३' इत्यादि प्रश्नसूत्रं पूर्ववत्, उत्तरं तु 'गोयमा ! लवणे णं समुद्दे चत्तारि चंदा पभासिंसु वा ३ चत्तारि सूरिया तविंसु वा ३ बारसोत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोईसु वा ३ तिन्नि बावन्ना महग्गहसया चारं चरिंसु वा ३ दोन्नि सयसहस्सा सत्तट्ठि च सहस्सा नवसया तारागणकोडिकोडीणं सोहं सोहिंसु वा ३' सूत्रपर्यन्तमाह- 'जाव ताराओ' त्ति तारकासूत्रं यावत्तच्च दर्शितमेवेति । 'धायइसंडे' इत्यादौ यदुक्तं 'जहा जीवाभिगमे ' तदेवं भावनीयं- 'धायइसंडे णं भंते! दीवे केवतिया चंदा पभासिसु वा ३ केवतिया सूरिया तविंसु वा ३ ?' इत्यादिप्रश्नाः पूर्ववत्, उत्तरं तु 'गोयमा ! बारस चंदा पभासिंसु वा ३ बारस सूरिया तविंसु वा ३, एवं
'चउवीसं ससिरविणो नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा । एगं च गहसहस्सं छपन्नं धायईसंडे ॥ १ ॥
अद्वेव सयसहस्सा तिन्नि सहस्साइं सत्त य सयाई । धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं ॥ २ ॥
सोहं सोहिं वा ३' | 'कालोए णं भंते! समुद्दे केवतिया चंदा' इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु 'गोयमा !
'बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता । कालोदहिंमि एए चरंति संबद्धलेसागा ॥ १ ॥ नक्खत्तसहस्स एवं एगं छावत्तरं च समयन्नं । छच्च सया छन्नउया महागहा तिन्नि य सहस्सा ॥२॥ अट्ठावीस कालोदहिंमि बारस य तह सहस्साई । णव य सया पन्नासा तारागणकोडीकोडीणं ॥ ३ ॥ सोहं सोहिंसु वा ३ तथा 'पुक्खरवरदीवे णं भंते! दीवे केवइया चंद्रा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं त्वेतद्गाथाऽनुसारेणावसेयं
भगवती वृत्ति
'चोयालं चंदसयं चोयालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खरवरंमि दीवे भमंति एए पयासिंता ॥ १ ॥' इह च यद्भ्रमणमुक्तं न तत्सर्वांश्चन्द्रादित्यानपेक्ष्य, किं तर्हि ?, पुष्करद्वीपाभ्यन्तरार्द्धवर्तिनीं द्विसप्ततिमेवेति, चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चैव होंति नक्खत्ता । छच्च सया बावत्तरि महागहा बारससहस्सा ॥ १ ॥ छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई । चत्तारि सया पुक्खरि तारागणकोडिकोडीणं ॥ २ ॥ सोहं सोहिंसु वा । तथा-अब्भितरपुक्ख णं भंते! केवतिया चंदा ?' इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु'बावत्तरिं च चंदा बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता । पुक्खरवरदीव चरंति एए पभासिता ॥ १ ॥ तिनि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । नक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई ॥ २ ॥ अयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साइं । दो य सय पुक्खरदे तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३ ॥ सोभं सोभिसु वा३ ।' तथा 'मणुस्सखेत्ते णं भंते! केवइया चंदा ?' इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु'बत्तीसं चंदसयं बत्तीसं चेव सूरियाण सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिंता ॥ १ ॥ एक्कारस य सहस्सा छप्पिय सोला महागहाणं तु । छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिन्नि य सहस्सा ॥ २ ॥ अडसीइ सयसहस्सा चालीस सहस्स मणुयलोगंमि । सत्तय सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३ ॥' इत्यादि, किमन्तमिदं वाच्यम् ? इत्याह-'जाव' त्यादि, अस्य च सूत्रांशस्यायं पूर्वोऽंश:
'अट्ठासीइं च गहा अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता । एससीपरिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि ॥ १ ॥ छावसिंहस्साई नव चेव सयाई पंच सयराई' ति ।
९/५. ' पुक्खरोदे णं भंते! समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादौ प्रश्ने इदमुत्तरं दृश्यं - 'संखेज्जा चंदा पभासिंसु वा ३' इत्यादि, एवं सव्वेसु दीवसमुद्देसु' त्ति पूर्वोक्तेन प्रश्नेन यथासम्भवं सङ्ख्याता असङ्ख्याताश्च चन्द्रादय इत्यादिना चोत्तरेणेत्यर्थः, द्वीपसमुद्रनामानि चैवं पुष्करोदसमुद्रादनन्तरो वरुणवरो द्वीपस्ततो वरुणोदः समुद्रः एवं क्षीरवरक्षीरोदौ घृतवरघृतोदौ क्षोदवरक्षोदोदौ नन्दीश्वरवरनन्दीश्वरोदौ अरुणारुणोदौ अरुणवरारुणवरोदौ कुण्डलकुण्डलोद कुण्डलवरकुण्डलवरोदी कुण्डलवरावभासकुण्डलवरावभासोदौ रुचकरुचकोदो रुचकवररुचकवरोदौ रुचकवरावभासरूचकरावभासोदौ इत्यादीन्यसङ्ख्यातानि यतोऽसङ्ख्याता द्वीपसमुद्रा इति ॥
नवमशते द्वितीयः ॥९/२ ॥
अरुणवरावभासारुणवरावभासौदौ
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भगवती वृत्ति
५२५
तृतीय- त्रिंशत्तम उद्देशकः
द्वितीयोदेशके द्वीपवरवक्तव्यतोक्ता, तृतीयेऽपि प्रकारान्तरेण सैवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्९/७ 'रायगिहे' इत्यादि, 'दाहिणिल्लाणं' ति उत्तरान्तरद्वीपव्यवच्छेदार्थम् एवं जहा जीवाभिगमे' त्ति, तत्र चेदमेवं सूत्र - 'चुल्लहिमवंतस्स बासहरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छि मिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयनामं दीवे पन्नत्ते, तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं नवगुणपने जोयणसए किंचिसेसूणे परिक्खेवेणं, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते' इत्यादि, इह च वेदिकावनखण्डकल्पवृक्ष'मनुष्यमनुष्यीवर्णकोऽभिधीयते तथा तन्मनुष्याणां चतुर्थभक्तादाहारार्थ उत्पद्यते, ते च पृथिवीरसपुष्पफलाहाराः, तत्पृथिवी च रसतः खण्डादितुल्या, ते च मनुष्या वृक्षगेहाः, तत्र च गेाद्यभावः तन्मनुष्याणां च स्थितिः पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणा, षण्मासावशेषायुषश्च ते मिथुनकानि प्रसुवते, एकाशीतिं च दिनानि तेऽपत्यमिथुनकानि पालयन्ति, उच्छ्वसितादिना च ते मृत्वा देवेषूद्यन्ते इत्यादयश्चार्था अभिधीयन्ते इति, वाचनान्तरे त्विदं दृश्यते एवं जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तव्वयाए णेयव्वो, नाणत्तं अट्ठधणुसया उस्सेहो चउसट्ठी पिट्टकरंडया अणुसज्जणा नत्थि' त्ति, तत्रायमर्थः - उत्तरकुरुषु मनष्याणां त्रीणि गव्यूतान्युत्सेध उक्त इह त्वष्टौ धनुःशतानि तथा तेषु मनुष्याणां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठकरण्डकानामुक्ते इह तु चतुःषष्टिरिति, तथा - 'उत्तरकुराए णं भंते! कुराए कइविहा मणुस्सा अणुसज्जति ?, गोयमा छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जति, तं जहा - पम्हगंधा मियगंधा अममा तेयली सहा सणिचारी' इत्येवं मनुष्याणामनुषञ्जना तत्रोक्ता इह तु सा नास्ति, तथाविधमनुष्याणां तत्राभावात्, एवं चेह त्रीणि नानात्वस्थानान्युक्तानि सन्ति पुनरन्यान्यपि स्थित्यादीनि, किन्तु तान्यभियुक्तेन भावनीयानीति, अयं चेंहैकोरुकद्वीपोद्देशकस्तृतीयः । अथ प्रकृतवाचनामनुसृत्योच्यते - किमन्तमिदं जीवाभिगमसूत्रमिह वाच्यम ? इत्याह'जावे' त्यादि 'यावत् शुद्धदन्तद्वीपः शुद्धदन्ताभिधानाष्टाविंशतितमान्तरद्वीपवक्तव्यतां यावत्, साऽपि कियद्दूरं यावद्वाच्या ? इत्याह- 'देवलोकपरिग्गहे' त्यादि, देवलोकः परिग्रहो येषां ते देवलोकपरिग्रहाः देवगतिगामिनः इत्यर्थः, इह चैकैकस्मिन्नन्तरद्वीपे एकैक उद्देशकः, तत्र चैकोरुकद्वीपो
१. अतः अग्रे निर्देक्ष्यमाणात् 'जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तव्वयाए ' इत्यतिदेशाच्यानुमीयते एतद्यदुत केषुचित्तदानींतनेषु जीवाभिगमादर्शेषु अभूत् एकोरुकवक्तव्यातासूत्रे कल्पवृक्षादिवर्णनं केषुचिच्चोत्तर
परिशिष्ट - ५ : श. ९ : उ. ३-३० : सू. ७ देशकानन्तरमाभासितद्वीपोद्देशकः, तत्र चैवं सूत्र - कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं आभासियमणूसाणं आभासिए नामं दीवे पन्नत्ते ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुद्द तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आभासियनामं दीवे पन्नते' शेषमेकोरुकद्वीपवदिति चतुर्थः । एवं वैषाणिकद्वीपोद्देशकोऽपि नवरं दक्षिणापराच्चरमान्तादिति पञ्चमः ५। एवं लाङ्गूलिकद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमुत्तरापराच्चरमान्तादिति षष्ठः ६ । एवं ह्यकर्णद्वीपोदेशको नवरमेकोरुकस्योत्तरपौरस्त्याच्चरमान्ताल्लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भो हृयकर्णद्वीपो भवतीति सप्तमः ७। एवं गजकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरं गजकर्णद्वीप आभासिकद्वीपस्य दक्षिणपौरस्त्याच्चरमान्ताल्लवणसमुद्रमवगाह्य चत्वारि योजनशतानि हयकर्णद्वीपसमो भवतीत्यष्टमः ८। एवं गोकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ वैषाणिकद्वीपस्य दक्षिणापराच्चरमान्तादिति नवमः ९ । एवं शष्कुलीकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ लाङ्गूलिकद्वीपस्योत्तरापराच्चरमान्तादिति दशमः १०। एवमादर्शमुखद्वीपमेण्द्रमुखद्वीपायोमुखद्वीपगोमुखद्वीपा हयकर्णादीनां चतुर्णां क्रमेण
पञ्च
पूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणदक्षिणापरापरोत्तरेभ्यश्चरमान्तेभ्यः योजनशतानि लवणोदधिमवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १४ एतेषा मेवादर्शमुखादीनां पूर्वोत्तरादिभ्यश्चरमान्तेभ्यः षड् योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य षड्योजनशतायामविष्कम्भाः क्रमेणाश्वमुखद्वीपहस्तिमुखद्वीपसिंहमुखद्वीपव्याघ्रमुखद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १८ । एतेषामेवाश्वमुखादीनां तथैव सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य समयोजनशतायामविष्कम्भा अश्वकर्णद्वीपहस्तिकर्णद्वीप कर्णप्रावरणद्वीपाः प्रावरणद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चापरे चत्वार एवोद्देशका इति २२ । एतेषामेवाश्वकर्णादीनां तथैवाष्टयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा उल्कामुखद्वीपमेघमुखद्वीपविद्युन्मुखद्वीपविद्युतद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोद्देशका इति २६ । एतेषामेवोल्कामुखद्वीपादीनां तथैव नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः घनदन्तद्वीपलष्टदन्तद्वीपगूढदन्तद्वीप शुद्धदन्तद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोदेशका इति, एवमादितोऽत्र त्रिंशत्तमः शुद्धदन्तोद्देशकः ॥
इति तृतीय- त्रिंशत्तम उद्देश्यः समाप्त ।
कुरुवक्तव्यतायां, तथा च जीवाभिगमसूत्रे एकोरुकवक्तव्यतायां कल्पवृक्षादिवर्णनेऽपि वृत्तौ प्रतीकधृतिपूर्वमुत्तरकुरुवक्तव्यातायां व्याख्यानं कल्पवृक्षादेस्तादृशादर्शदर्शनमूलमेव ।
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परिशिष्ट-५ : श.९ : उ. ३१ : सू. ९-३६
५२६
भगवती वृत्ति
एकत्रिंशत्तमः उद्देशकः
पशमलभ्यत्वात् अध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रा
वरणीयान्युक्तानीति। उक्तरूपाश्चार्थाः केवलिधर्माद् ज्ञायन्ते तं चाश्रुत्वाऽपि कोऽपि . प नावात पन. सालाना 'अयोला ।' लभत इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरमेकत्रिंशत्तममुद्देशकमप्याह, तस्य
इत्यादि। अथाश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यथा कश्चित् चेदमादिसूत्रम्
केवलज्ञानमुत्पादयेत्तथा दर्शयितुमाह९/९. 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र च 'असोच्च' त्ति अश्रुत्वा- ९/३३. 'तस्से त्यादि 'तस्स' ति योऽश्रत्वैव केवलज्ञानधर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाकर्ण्य प्राक्कृतधर्मानुरागा
मुत्पादयेत्तस्य कस्यापि 'छटुंछट्टेण' मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायः देवेत्यर्थः 'केवलिस्स व' त्ति 'केवलिनः' जिनस्य 'केवलि.
षष्ठतपश्चरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गः-ज्ञानविशेष उत्पद्यत सावगस्स व' त्ति केवली येन स्वयमेव पृष्टः श्रुतं वा येन
इति ज्ञापनार्थमिति, 'पगिज्झिय' ति प्रगृह्य धृत्वेत्यर्थः तद्वचनमसौ केवलिश्रावकस्तस्य 'केवलिउवासगस्स व' त्ति
'पगतिभद्दयाए' इत्यादीनि तु प्राग्वत्, 'तयावरणिज्जाणं' ति केवलिन उपासनां विदधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं
विभङ्गज्ञानावरणीयानाम् 'ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स' येनासौ केवल्युपासकः 'तप्पक्खियस्स' त्ति केवलिनः
त्ति इहेहा-सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा अपोहस्तु-विपक्षनिरासः पाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्य ‘धम्म' ति श्रुतचारित्ररूपं लभेज्ज' त्ति
मार्गणं च अन्वयधमालोचनं गवेषणं तु-व्यतिरेकधर्मालोचनप्राप्नुयात् 'सवणयाए' त्ति श्रवणतया श्रवणरूपतया
मिति। ‘से णं' ति असौ बालतपस्वी ‘जीवेवि जाणइ' त्ति श्रोतुमित्यर्थः॥
कथञ्चिदेव न तु साक्षात् मूर्त्तगोचरत्वात्तस्य 'पासंडत्थे' त्ति ९/१०. 'नाणावरणिज्जाणं' ति बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य
व्रतस्थान् ‘सारंभे सपरिग्गहे' त्ति सारम्भान् सपरिग्रहान् सतः, मतिज्ञानावरणादिभेदेनावग्रहमत्यावरणादिभेदेन च बहुत्वात्, इह
किंविधान् जानाति? इत्याह-'संकिलिस्समाणेवि जाणइ' त्ति च क्षयोपशमग्रहणात् मत्यावरणाद्येव तद् ग्राह्यं न तु
महत्या संक्लिश्यमानतया सङ्क्लिश्यमानानपि जानाति केवलावरणं तत्र क्षयस्यैव भावात्, ज्ञानावरणीयस्य
'विसुज्झमाणेवि जाणइ' त्ति अल्पीयस्याऽपि विशुद्ध्यमानतया क्षयोपशमश्च गिरिसरिदुपलघोलनान्यायेनापि कस्य
विशुद्ध्यमानानपि जानाति, आरम्भादिमतामेवंस्वरूपत्वात्, 'से चित्स्यात्, तत्सद्भावे चाश्रुत्वाऽपि धर्म लभते श्रोतुं,
णं' ति असौ विभङ्गज्ञानी जीवाजीवस्वरूपपाषण्डस्थक्षयोपशमस्यैव तल्लाभेऽन्तरङ्गकारणत्वादिति।।
सक्लिश्यमानतादिज्ञायकः सन् 'पुव्वामेव' त्ति चारित्रप्रतिपत्तेः ९/११. 'केवलं बोहिं' ति शुद्धं सम्यग्दर्शनं 'बुज्झेज्ज' त्ति
पूर्वमेव 'सम्मत्तं' ति सम्यग्भावं 'समणधम्म' ति साधुधर्म बुद्ध्येतानुभवेदित्यर्थः यथा प्रत्येकबुद्धादिः, एवमुत्तरत्राप्यु
'रोएइ' ति श्रद्धत्ते चिकीर्षति वा 'ओही परावत्तइ' त्ति दाहर्त्तव्यं।
अवधिर्भवतीत्यर्थः, इह च यद्यपि चारित्रप्रतिपत्तिमादावभिधाय ९/१२. 'दरिसणावरणिज्जाणं' ति इह दर्शनावरणीयं दर्शमोहनीय
सम्यक्त्वपरिगृहीतं विभङ्गज्ञानमवधिर्भवतीति पश्चादुक्तं मभिगृह्यते, बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात् तल्लाभस्य च
तथाऽपि चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वं सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति।।
विभङ्गज्ञानस्यावधिभावो द्रष्टव्यः, सम्यक्त्वचारित्रभावे विभङ्ग९/१३. 'केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं' ति 'केवलां'
ज्ञानस्याभावादिति॥ शुद्धां सम्पूर्णां वाऽनगारितामिति योगः।
अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाह९/१४. 'धम्मंतराइयाणं' ति अन्तरायो-विघ्नः सोस्ति येषु .
सास्ति यषु ९/३४. से णं भंते!' इत्यादि, तत्र ‘से णं' ति स यो विभङ्गज्ञानी तान्यन्तरायिकाणि धर्मास्य-चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायि
भूत्वाऽवधिज्ञानं चारित्रं च प्रतिपन्नः 'तिसु विसुद्धलेस्सासु काणि धर्मान्तरायिकाणि तेषां, वीर्यान्तरायचारित्रमोहनीय
होज्ज' ति यतो भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव सम्यक्त्वादि भेदानामित्यर्थः।
प्रतिपद्यते नाविसुद्धास्विति। ९/१६. 'चारित्तावरणिज्जाणं' ति, इह वेदलक्षणानि चारित्रा- ९/३५. 'तिस आभिनिबोहिए' त्यादि, सम्यक्त्वमतिश्रुतावधिवरणीयानि विशेषतो ग्राह्याणि, मैथुनविरतिलक्षणस्य
ज्ञानिनां विभङ्गविनिवर्तनकाले तस्य युगपद्भावादाचे ज्ञानत्रय ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात्,
एवासौ तदा वर्त्तत इति। ९/१७. 'केवलेणं संजमेणं संजमेज्ज' त्ति इह संयमः प्रतिपन्न- .
न- ९/३६. 'णो अजोगी होज्ज' त्ति अवधिज्ञानकालेऽयोगित्वचरित्रस्य तदतिचारपरिहाराय यतनाविशेषः।
स्याभावात्, 'मणजोगी' त्यादि चैकतरयोगप्राधान्या९/१८. 'जयणावरणिज्जाणं' ति इह तु यतनावरणीयानि चारित्र
पेक्षयाऽवगन्तव्यं। विशेषविषयवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि।
'सागारोवउत्ते वे' त्यादि, तस्य हि विभङ्गज्ञानान्निवर्तमानस्योप९/१९. 'अज्झवसाणावरणिज्जाणं' ति संवरशब्देन शुभाध्यवसाय
योगद्वयेऽपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिरस्तीति, वृत्तेर्विवक्षितत्वात् तस्याश्च भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयो
ननु 'सव्वाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवंती
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भगवती वृत्ति
त्यागमादनाकारोपयोगे सम्यक्त्वावधिलब्धिविरोधः ?, नैवं प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्य, अवस्थितचानाकारोपयोगेऽपि लब्धिलाभस्य
परिणामापेक्षया
सम्भवादिति ।
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९ / ३८. 'वइरोसभनारायसंघयणे होज्ज' त्ति प्राप्तव्यकेवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथमसंहनन एव भवतीति, एवमुत्तरत्रापीति ॥
९ / ४२. 'सवेयए होज्ज' त्ति विभङ्गस्यावधिभावकाले न वेदक्षयोऽस्तीत्यसौ सवेद एव 'नो इत्थिवेयए होज्ज' त्ति स्त्रिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाभावात् । ९ / ४३. 'पुरिसनपुंसगवेयए' त्ति वर्द्धितकत्वादित्वे नपुंसकः पुरुषनपुंसकः 'सकसाई होज्ज' त्ति विभङ्गावधिकाले कषायक्षयस्याभावात् 'चउसु संजलणकोहमाणमायालोभेसु होज्ज' त्ति स ह्यवधिज्ञानतापरिणतविभङ्गज्ञानश्चरणं प्रतिपन्नः उक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात्सञ्ज्वलना एव क्रोधादयो
भवन्तीति ।
९ / ४५. 'पत्थ' त्ति विभङ्गस्यावधिभावो हि नाप्रशस्ताध्यवसानस्य भवतीत्यत उक्तं प्रशस्तान्यध्वसायस्थानानीति । ९/४६. 'अणतेहिं' ति अनन्तैः अनन्तानागतकालभाविभिः । 'विसंजोएइ' त्ति विसंयोजयति तत्प्राप्तियोग्यताया अपनोदादिति । 'जाओऽविय' त्ति यापि च 'नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओ' त्ति एतदभि धानाः 'उत्तरपयडीओ' त्ति. नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृतेरुत्तरभेदभूताः 'तासिं च णं' ति तासां च नैरयिकगत्याद्युत्तरप्रकृतीनां चशब्दादन्यासां च 'उवरगहिए' त्ति औपग्रहिकान्-उपष्टम्भप्रयोजनान् अनन्तानुबंधिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति, तथाऽप्रत्याख्यानादींश्च तथाविधानेव क्षपयतीति, पंचविहं नाणावरणिज्जं' ति मतिज्ञानावरणादिभेदात् 'नवविहं दंसणावरणिज्जं' ति चक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कस्य निद्रापञ्चकस्य च मीलनान्नवधित्वमस्य 'पंचविहं अंतराइयं' ति दानलाभभोगोपभोगवीर्यविशेषितत्वादिति पञ्चविधत्वमन्तरायस्य तत्र क्षपयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा ? इत्यत आह- 'तालमत्थकडं चणं मोहणिज्जं कट्टु' त्ति मस्तकं - मस्तकशूची कृत्तं छिन्नं यस्यासौ मस्तककृत्तः, तालश्चासौ मस्तककृत्तश्च तालमस्तककृत्तः, छान्दसत्वाच्चैवं निर्देशः, तालमस्तककृत्त यत्तत्तालमस्तककृत्तम्, अयमर्थः - छिन्नमस्तकतालकल्पं मोहनीयं कृत्वा, यथा हि छिन्नमस्तकस्तालः क्षीणो भवति एवं मोहनीयं च क्षीणं कृत्वेति भावः, इदं चोक्तमोहनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति, अथवाऽथ कस्मादनन्तानुबन्ध्यादिस्वभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येव ? इति, अत आह— 'तालमत्थे' त्यादि, तालमस्तकस्येव कृत्त्वंक्रिया यस्य तत्तालमस्तककृत्त्वं तदेवंविधं च मोहनीयं ' 'कट्टु' त्ति इतिशब्दस्येह गम्यमानत्वादितिकृत्वा - इतिहेतोस्तत्र क्षपिते
च
इव
ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येवेति, क्रियासाधर्म्यमेव, यथा हि वश्यम्भावितालविनाशा एवं मोहनीय कर्मविनाशक्रियाऽप्यवश्यम्भाविशेषकर्म्मविनाशेति, आह च
'मस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः । तद्वत्कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥ १॥'
ततश्च कर्मरजोविकरणकरं-तद्विक्षेपकम् अपूर्वकरणम्-असदृशाध्यवसायविशेषमनुप्रविष्टस्य, अनन्तं विषयानन्त्यात् अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात् निर्व्याघातं कटकुट्यादिभिरप्रतिहननात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण सकलस्वांशयुक्तयोत्पन्नत्वात् केवलवरज्ञानदर्शनंकेवलमभिधानतो वरं ज्ञानान्तरापेक्षया ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शनं समाहारद्वन्द्वस्ततः केवलादीनां कर्मधारयः, इह च
क्षपणाक्रमः
परिशिष्ट - ५ : श. ९ : उ. ३१ : सू. ३६-५०
तालमस्तकमोहनीययोश्च तालमस्तकविनाशक्रियाऽ
अणमिच्छमीससम्मं अट्ठ नपुंसित्थिवेयछक्कं च । पुमवेयं च खवेई कोहाईए य संजलणे ॥ १ ॥' (अनन्तानुबन्धिनो मिश्रं सम्यक्त्वं अष्टकं नपुंसकं स्त्रीवेदं षट्कं च । पुंवेदं च क्षपयति क्रोधादिकांश्च संज्वलनान् ॥ १ ॥ ) इत्यादिग्रन्थान्तरप्रसिद्धो, न चायमिहाश्रितो यथा कथञ्चित्क्षपणामात्रस्यैव विवक्षितत्वादिति ।
९/४७. 'आघवेज्ज' त्ति आग्राहयेच्छिष्यान् अर्घापयेद्वा-प्रतिपादनतः पूजां प्रापयेत् 'पन्नवेज्ज' त्ति प्रज्ञापयेद्भेदभणनतो बोधयेद्वा 'परूवेज्ज' त्ति उपपत्तिकथनतः 'नन्नत्थ एगनाएण व' त्ति न इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकज्ञाताद्, एकमुदाहरणं वर्जयित्वेत्यर्थः, तथाविधकल्पत्वादस्येति, 'एगवागरणेण व' त्ति एकव्याकरणादेकोत्तरादित्यर्थः ।
'पव्वावेज्ज व' त्ति प्रव्राजयेद्रजोहरणादिद्रव्यलिङ्गदानतः 'मुंडावेज्ज व' त्ति मुण्डयेच्छिरोलुञ्चनतः 'उवएसं पुण करेज्ज' त्ति अमुष्य पार्श्वे प्रव्रजेत्यादिकमुपदेशं कुर्यात् । ९/५०. ' सहावई' त्यादि, शब्दापातिप्रभृतयो यथाक्रमं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यभिप्रायेण हैमवतहरिवर्षरम्यकैरण्यवतेषु क्षेत्रसमासाभिप्रायेण तु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेषु भवन्ति, तेषु च तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसम्पन्नस्य तत्र गतस्य केवलज्ञानोत्पादसद्भावे सति, 'साहरणं पडुच्च' त्ति देवेन नयनं प्रतीत्य 'सोमणसवणे' त्ति सौमनसवनं मेरौ तृतीयं 'पंडगवणे' त्ति मेरौ चतुर्थं 'गड्डाए व' त्ति गर्ने निम्ने भूभागेऽधोलोकग्रामादौ 'दरिए व' त्ति तत्रैव निम्नतरप्रदेशे 'पायाले व' त्ति महापातालकलशे वलयामुखादौ 'भवणे व' ति भवनवासिदेवनिवासे 'पन्नरससु कम्मभूमीसु' त्ति पञ्चः भरतानि पञ्च ऐरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवंलक्षणासु कर्माणि - कृषिवाणिज्यादीनि तत्प्रधाना भूमयः कर्मभूयस्ता 'अड्डाइज्जे' त्यादि अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयास्ते च ते द्वीपाश्चेति समासः, अर्द्धतृतीयद्वीपाश्च समुद्रौ च
९/४८
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परिशिष्ट-५ : श.९ : उ. ३१,३२ : सू. ५१-९१
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भगवती वृत्ति
तत्परिमितावर्द्रतृतीयद्वीपसमुद्रास्तेषां स चासौ विवक्षितो
द्वात्रिंशत्तम उद्देशकः देशरूपो भागः-अंशोऽर्द्ध-तृतीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभागस्तत्र। अनन्तरं केवल्यादिवचनाश्रवणे यत्स्यात्तदुक्तमथ तच्छ्रवणे
अनन्तरोद्देशके केवल्यादिवचनं श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेयत्स्यात्तदाह
दित्युक्तम्, इह तु येन केवलिवचनं श्रुत्वा तदुत्पादितं स ९/५२. 'सोच्चाण'मित्यादि. अथ यथैव केवल्यादिवचना
दर्शाते, इत्येवंसंबद्धस्य द्वात्रिंशत्तमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्श्रवणावाप्तबोध्यादेः केवलज्ञानमुत्पद्यते न तथैव तच्छ्रवणावाप्त
९/७७. 'ते ण' मित्यादि, संतरं' ति समयादिकाला-पेक्षया बोध्यादेः किन्तु प्रकारान्तरेणेति दर्शयितुमाह
सविच्छेद, तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयमुत्पादात् निरंतरत्व९/५५. 'तस्स ण' मित्यादि, 'तस्स' त्ति यः श्रुत्वा केवलज्ञान
मन्येषां तूत्पादे विरहस्यापि भावात् सान्तरत्वं निरन्तरत्वं च मुत्पादयेत्तस्य कस्याप्यर्थात् प्रतिपन्नसम्यग्दर्शनचारित्रलिङ्गस्य
वाच्यमिति॥ 'अट्ठमंअट्ठमण' मित्यादि च युदक्तं तत्प्रायो विकृष्ट
उत्पन्नानां च सतामुद्वर्तना भवतीत्यतस्तां निरूपयन्नाह-- तपश्चरणवतः साधोरवधिज्ञानमुत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति, १/८२
९/८२ 'संतरं भंते! नेरझ्या उववटुंती' त्यादि॥ उद्धृत्तानां च 'लोयप्पमाणमेत्ताई' ति लोकस्य यत्प्रमाणं तदेव मात्रा-परिमाणं
___ केषाञ्चिद्गत्यन्तरे प्रवेशनं भवतीत्यतस्तन्निहरूपणायाह-- येषां तानि तथा॥
९/८६. 'कइविहे ण' मित्यादि, 'पवेसणए' ति गत्यन्तरा-दुद्वत्तस्य अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाह
विजातीयगतौ जीवस्य प्रवेशनं, उत्पाद इत्यर्थः । ९/५६. 'से णं भंते!' इत्यादि, तत्र 'से णं' ति सोऽनन्तरोक्त- ९/८८. 'एग भतः नरइए इत्यादी सप्त विकल्पाः । विशेषणोऽधिज्ञानी छसु लेसासु होज्ज' ति यद्यपि
होगाय दोन भाग ९/८९. 'दो भंते ! नेरइए' त्यादावष्टाविंशतिर्विकल्पास्तत्र रत्नभावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्वपि ज्ञानं लभते तथाऽपि
प्रभाद्याः सप्तापि पृथिवीक्रमेण पट्टादौ व्यवस्थाप्याक्षद्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु लभते सम्यक्त्वश्रुतवत्'
सञ्चारणया पृथिवीनामे'कत्वद्विसंयोगाभ्यां तेऽवसेयाः, यदाह-'सम्मत्तसुयं सव्वासु लब्भइ' त्ति तल्लाभे चासौ
तत्रैकैकपृथिव्यां नारकद्वयोत्पत्ति, लक्षणैकत्वे सप्त विकल्पाः, षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति।
पृथिवीद्वये नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणद्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येव९/५७. 'तिसु व' त्ति अवधिज्ञानस्याद्यज्ञानद्वयाविनाभूतत्वादधि
मष्टाविंशतिः ‘एवं एक्केक्का पुढवी छड्डेयव्वे' ति कृतावधिज्ञानी त्रिषु ज्ञानेषु भवेदिति, 'चउसु वा होज्ज' त्ति
अक्षसञ्चारणापेक्षयेदमुक्तमिति॥ गतिशतमान पयजानिनोविधिज्ञानोपनी जान भावा. ९/९०. 'तिन्नि भंते! नेरइए' त्यादौ चतुरशीतिर्विकल्पाः , तथाहिच्चतुर्षु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति।
पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु तासामेको ९/६४. 'सवेयए वा' इत्यादि. अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्तौ सवेदकः
द्वावित्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः सन्नवधिज्ञानी भवेत् क्षीणवेदस्य चावधिज्ञानोत्पत्ताववेदकः
क्रमण चारिताभिलब्धाः षड़, द्वावेक इत्यनेनापि सन्नयं स्यात्, 'नो उवसंतवेयए होज्ज' त्ति उपशान्त.
नारकोत्पादविकल्पेन षडेव, तदेते द्वादश १२, एवं शर्कराप्रभया वेदोऽयमवधिज्ञानी न भवति, प्राप्तव्यकेवलज्ञानस्यास्य
पञ्च पञ्चेति दश एवं वालुकाप्रभयाऽष्टौ पङ्कप्रभया षट्, विवक्षितत्वादिति।
धूमप्रभया चत्वारः तमःप्रभया द्वाविति, द्विकयोगे ९/६५. 'सकसाई वा' इत्यादि, यः कषायाक्षये सत्यवधिं लभते स
द्विचत्वारिंशत, त्रिकयोगे तु तासां पञ्चविंशद्विकल्पास्ते सकषायी सन्नवधिज्ञानी भवेत्, यस्तु कषायक्षयेऽसाव
चाक्षसञ्चारणया गम्यास्तदेवमेते सर्वेऽपि चतुरशीतिकषायीति। 'चउसु वे' त्यादि, यद्यक्षीणकषायः सन्नवधिं लभते
रिति।७।४२॥३५॥८४॥ तदाऽयं चारित्रयुक्तत्वाच्चतुषु सज्जवलनकषायेषु भवति, यदा
९/९१. 'चत्तारि भंते! नेरझ्या इत्यादौ दशोत्तरे द्वे शते विकल्पानां, तु क्षपकश्रेणिवर्तित्वेन सज्वलनक्रोधे क्षीणेऽवधिं लभते तदा
तथाहि-पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु त्रिषु सञ्ज्वलनमानादिषु, यदा तु तथैव सज्वलनक्रोधमानयोः
तासामेकस्त्रय इत्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह क्षीणयोस्तदा द्वयोः, एवमेकडेति।।
शेषाभिः क्रमेण चारिताभिलब्धाः षट्, द्वौ द्वावित्यनेनापि षट्, नवमशते एकत्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः॥९.३१॥
त्रय एक इत्यनेनापि षडेव, तदेवमेतेऽष्टादश, शर्कराप्रभया तु तथैव त्रिषु पूर्वोक्तनारकोत्पादविकल्पेषु पञ्च पञ्चेति
१. यद्यपि अत्र श्रुत्वाकेवल्यधिकारात् मनुष्येणैवाधिकारः, तस्य च चैतदन्यलेश्याद्रव्यणामन्यलेश्यातया परिणमनमसंभवि, नृतिरश्चा
द्रव्यलेश्याभावलेश्यापार्थक्यं द्रव्यलेश्याया अवस्थितिश्च चिरं यावन्न, द्रव्यलेश्याद्रव्यपरिणामान्तरस्वीकारात्, एवं स्यात्तदापि नासंगतिः। तथापि भवन्नित्यस्य जायमान इत्यर्थकत्वाभावे विद्यमान इत्यर्थकस्य च २. पूर्वं यद्युपशान्तः स्यात्तदापि पातस्तस्य भूतपूर्व एव, अधुनोपशमे तु ग्रहणे न काप्यनुपपत्तिः, प्राप्तेऽवधिज्ञाने लेश्यापरावृत्तिः प्रमादात्, अत्र द्विरुपशमे श्रेण्यारोहण केवलस्योत्पाद एव न स्यात् तत युक्तं उक्तं ॥ द्रव्यलेश्योक्तिस्तु तल्लेश्यकद्रव्याणां तथा तथा परिणतिमपेक्ष्य, न
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परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३२ : सू. ९१-९५ पञ्चदश, एवं बालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वादश, षण्णां चतूराशितया स्थापने दश विकल्पास्तद्यथा-१११३। पङ्कप्रभया त्रयस्त्रय इति नव, धूमप्रभया द्वौ द्वाविति षट्, ११२२।१२१२।२११२।११३१।१२२१।२१२१।१३११।२२११।३१११॥ तमःप्रभयैकैक इति त्रयः, लदेवमेते द्विकसंयोगे त्रिषष्टिः ६३, पञ्चत्रिंशतश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां दशभिर्गुणनान्त्रीणि तथा पृथिवीनां त्रिकयोगे एक एको दी चेत्येवं नारकोत्पाद- शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, पञ्चकसंयोगे तु षण्णां विकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्यां सहान्याभिः क्रमेण चारिता- पञ्चधाकरणे पञ्च विकल्पास्तद्यथा-११११२।१११२१ । भिर्लब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्चेत्येवं नारकोत्पाद- ११२११।१२१११।२११११। सप्तानां च पदानां पञ्चकविकल्पान्तरेऽपि पञ्च, द्वावेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पाद- संयोगे एकविंशतिर्विकल्पाः तेषां च पञ्चभिर्गुणने पञ्चोत्तरं विकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश १५, एवं रत्नप्रभावालुका- शतमिति, षट्कसंयोगे तु सप्तैव, ते च सर्वमीलने नव शतानि प्रभाभ्यां सहोत्तराभिः क्रमेण चारिताभिलब्धा द्वादश १२, एवं चतुर्विंशत्युत्तराणि भवन्तीति॥ रत्नप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, ९/९४. 'सत्त भंते!' इत्यादि, इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु सप्लानां रत्नप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, शर्कराप्रभावालुकाप्रभाभ्यां द्वादश द्वित्वे षड़ विकल्पास्तद्यथा-१६।२५।३४१४३। ५२।६१। १२, शर्कराप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, शर्कराप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, षभिश्च सप्तपदद्विकसंयोगएकविंशतिर्गुणनात् षविंशत्युत्तरं शर्कराप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, वालुकाप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, भङ्गकशतं भवति, त्रिकयोगे तु सप्तानां त्रित्वे पञ्चदश वालुकाप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट्, वालुकाप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, विकल्पास्तद्यथा-११५।१२४ १२१४।१३३ ।२२३ । पङ्कप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट् पङ्कप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, ३१३।१४२।२३२/३२२१४१२।१५१२४१४३३१।४२११५११। धूमप्रभादिभिस्तु त्रय इति, तदेवं त्रिकयोगे पञ्चोत्तरं शतं एतैश्च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदविकसंयोगानां गुणनात् पञ्च चतुष्कसंयोगे तु पञ्चत्रिंशदिति, एवं सप्तानां त्रिषष्टे: शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि भवन्तीति, चतुष्कयोगे तु सप्तानां पञ्चोत्तरशतस्य पञ्चत्रिंशतश्च मीलने द्वे शते दशोत्तरे भवत चतूराशितया स्थापने एक एक एकश्चत्वारश्चेत्यादयो इति। चतुष्प्रवेशे त्रिकयोगे ४५ रत्न. ३० शर्करा. १८ विंशतिर्विकल्पाः ते च वक्ष्यमाणाश्च पूर्वोक्तभङ्गकानुसारेणाक्षवालुका. ९ पंकप्रभा ३ धूमप्रभा।
सञ्चारणाकुशलेन स्वयमेवावगन्तव्याः, विंशत्या च ९/९२. 'पंच भंते! नेरइया' इत्यादि, पूर्वोक्तक्रमेण भावनीयं, नवरं पञ्चविंशतः सप्तपदचतुष्कसंयोगानां गुणनात् सप्त शतानि
सङ्केपेण विकल्पसङ्ख्या दर्श्यते-एकत्वे सप्त विकल्पाः, विकल्पानां भवन्ति, पञ्चकसंयोगे तु सप्तानां पञ्चतया स्थापने द्विकसंयोगे तु चतुरशीतिः, कथं ?, द्विकसंयोगे सप्ताना एक एक एक एकस्त्रयश्चेत्यादयः पञ्चदश विकल्पाः, एतैश्च पदानामेकविंशतिर्भङ्गा, पञ्चानां च नारकाणां द्विधाकरणेऽक्ष- सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात्रीणि शतानि पञ्चदशोसञ्चारणावगम्याश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति, तद्यथा-एकश्च- त्तराणि भवन्ति, षट्कसंयोगे तु सप्तानां षोढाकरणे पञ्चैकका त्वारश्च, द्वौ त्रयश्च, त्रयो द्वौ च, चत्वार एकश्चेति, तदेवमेक- द्वौ चेत्यादयः १११११२ षड् विकल्पाः , सप्लानां च पदानां विंशतिश्चतुर्भिर्गुणिता चतुरशीतिर्भवतीति, त्रिकयोगे तु सप्तानां षट्कसंयोगे सप्त विकल्पाः, तेषां च षड्भिर्गुणने पदानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पञ्चानां च त्रित्वेन स्थापने षड़ द्विचत्वारिंशद्विकल्पा भवन्ति, सप्तकसंयोगे त्वेक एवेति, विकल्पास्तद्यथा-एक एकस्त्रयश्च, एको द्वौ द्वौ च, द्वावेको द्वौ सर्वमीलने च सप्तदश शतानि षोडशोत्तराणि भवन्ति॥ च, एकस्त्रय एकश्च, द्वौ द्वावेकश्च, त्रय एक एकश्चेति, तदेवं ९/९५. 'अट्ठ भंते!' इत्यादि, इहैकत्वे सप्त विकल्पाः , द्विकसंयोगे पञ्चत्रिंशतः षड्भिर्गुणने दशोत्तरं भङ्गकशतद्वयं भवति, त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्लेत्यादयः सप्त विकल्पाः प्रतीता एव, चतुष्कसंयोगे तु सप्तानां पञ्चविंशद्विकल्पाः, पञ्चानां तैश्च सप्तपदद्विकसंयोगैकविंशतेर्गुणनाच्छतं सप्तचत्वारिंशचतूराशितया स्थापने चत्वारो विकल्पास्तद्यथा-१११२। दधिकानां भवतीति, त्रिकसंयोगे त्वष्टानां त्रित्वे एक एकः षड् ११२१। १२११। २१११। तदेवं पञ्चत्रिंशतश्चतुर्भिर्गुणने इत्यादय एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगे चत्वारिंशदधिकं शतं भवतीति, पञ्चकयोगे त्वेकविंशतिरिति, पञ्चत्रिंशतो गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति,
सर्वमीलने च चत्वारि शतानि द्विषष्ट्यधिकानि भवन्तीति।।। चतुष्कसंयोगे त्वष्टानां चतुर्द्धात्वे एक एक एकः पञ्चेत्यादयः ९/९३. 'छन्भंते नेरइये' त्यादि। इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु षण्णां पञ्चविंशद्रिकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो
द्वित्वे पञ्च विकल्पास्तद्यथा-१५।२४।३३।४२।५१। तैश्च गुणने द्वादश शतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति, सप्तपदद्विकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् पञ्चोत्तरं भङ्गकशतं पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां पञ्चत्वे एक एक एक एकश्चत्वारभवति, त्रिकयोगे तु षण्णां त्रित्वे दश विकल्पास्तद्यथा- श्चेत्यादयः पञ्चविंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैक११४।१२३।२१३।१३२२२२।३१२११४१।२३१।३२१ । विंशतेर्गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति, ४११। एतैश्च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् षट्कसंयोगे त्वष्टानां षोढात्वे पञ्चैककास्त्रयश्चेत्यादयः वीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगे तु १११११३ एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगानां
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परिशिष्ट-५ : श.९ : उ. ३२ : सू. ९५-९८
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भगवती वृत्ति
सप्तकस्य गुणने ससचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवतीति, संयोगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भङ्गकानां भवन्ति, सर्वेषां चैषां सप्तसंयोगे पुनरष्टानां सप्तधात्वे सप्त विकल्पाः प्रतीता एव, मीलनेऽष्ट सहस्राणि अष्टोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति॥ तैश्चैकैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणने ससैव विकल्पा, एषां च ९/९८. 'संखेज्जा भंते!' इत्यादि, तत्र सङ्ख्याता एकादशादयः मीलने त्रीणि सहस्राणि व्युत्तराणि भवन्तीति।
शीर्षप्रहेलिकान्ताः, इहाप्येकत्वे सप्लैव द्विकसंयोगे तु ९/९६. 'नव भंते!' इत्यादि, इहाप्येकत्वे सप्लैव, द्विकसंयोगे तु सङ्ख्यातानां द्विधात्वे एकः सङ्ख्याताश्चेत्यादयो दश सङ्ख्याताः
नवानां द्वित्वेऽष्टौ विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकविंशतेः सङ्ख्याताश्चेत्येतदन्ता एकादश विकल्पाः, एते चोपरितनसप्तपदद्विकसंयोगानां गुणनेऽष्टषट्यधिकं भङ्गकशतं भवतीति, पृथिव्यामेकादीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे अधस्तनपृथिव्यां त्रिकसंयोगे तु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः ११७ तु सङ्ग्यातपदस्यैवोच्चारणे सत्यवसेयाः, ये त्वन्ये उपरितनइत्येवमादयोऽष्टाविंशतिर्विकल्पाः तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोग- पृथिव्यां सङ्ख्यातपदस्याधस्तनपृथिव्यां त्वेककादीनामेकापञ्चत्रिंशतो गुणने नव शतान्यशीत्युत्तराणि भङ्गकानां दशानां पदानामुच्चारणे लभ्यन्ते ते इह न विवक्षिताः, भवन्तीति, चतुष्कयोगे तु नवानां चतुर्द्धात्वे त्रय एककाः षट् पूर्वसूत्रक्रमाश्रयणात्, पूर्वसूत्रेषु हि दशादिराशीनां वैविध्यकल्पचेत्यादयः १११६ षट्पञ्चाशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्क- नायामुपर्येकादयो लघवः सङ्ख्याभेदाः पूर्वं न्यस्ता अधस्तु संयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं नव शतानि षष्टिश्च भङ्गकानां नवादयो महान्तः एवमिहाप्येकादय उपरि सङ्ख्यातराशिश्चाधः, भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु नवानां पञ्चधात्वे चत्वार एककाः तत्र च सङ्ख्यातराशेरधस्तनस्यैकाद्याकर्षणेऽपि सङ्ख्यातत्वपञ्चकश्चेत्यादयः ११११५ सप्ततिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपद- मवस्थितमेव प्रचुरत्वात्, न पुनः पूर्वसूत्रेषु नवादीनामिपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणने सहस्रं चत्वारि शतानि सप्ततिश्च वैकादितया तस्यावस्थानमित्यतो नेहाध एकादिभावः, अपि तु भङ्गकानां भवन्तीति, षट्कसंयोगे तु नवानां षोढात्वे सङ्ख्यातसम्भव एवेति नाधिकविकल्पविवक्षेति, तत्र रत्नप्रभा पञ्चैककाश्चतुष्ककश्चेत्यादयः १११११४ षट्पञ्चाशद्वि- एकादिभिः सङ्ख्यातान्तरेकादशभिः पदैः क्रमेण विशेषिता कल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगसप्तकस्य गुणने सङ्ख्यातपदविशेषिताभिः शेषाभिः सह क्रमेण चारिता शतवयं द्विनवत्यधिकभङ्गकानां भवन्तीति, सप्तकपदसंयोगे षट्षष्टिर्भङ्गकाल्लभते एवमेव शर्कराप्रभा पञ्चपञ्चाशतं पुनर्नवानां सप्तत्वे एककाः षट् त्रिकश्चेत्यादयो ११११११३ वालुकाप्रभा चतुश्चत्वारिंशतं पङ्कप्रभा त्रयस्त्रिंशतं धूमप्रभा ऽष्टाविंशतिर्विकल्पा भवन्तीति, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य द्वाविंशते तमःप्रभा त्वेकादशेति. एवं च द्विकसंयोगविकल्पानां गुणनेऽष्टाविंशतिरेव भङ्गकाः, एषां च सर्वेषां मीलने पञ्च शतद्वयमेकत्रिंशदधिकं भवति, त्रिकयोगे तु विकल्पपरिमाणसहस्राणि पञ्चोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति॥
मात्रमेव दर्शाते-रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा चेति ९/९७. 'दस भंते!' इत्यादि, इहाप्येकत्वे सप्पैव, द्विकसंयोगे तु प्रथमस्त्रिकयोगः, तत्र चैक एकः सङ्ख्याताश्चेति प्रथम
दशानां द्विधात्वे एको नव चेत्येवमादयो नव विकल्पाः, विकल्पस्ततः प्रथमायामेकस्मिन्नेव तृतीयायां सङ्ख्यातपद एव तैश्चैकविंशतेः सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणने एकोननवत्यधिकं स्थिते द्वितीयायां क्रमेणाक्षविन्यासे च व्याद्यक्षभावेन दशमचारे भङ्गकशतं भवतीति, विकयोगे तु दशानां विधात्वे एक एकोष्टौ सङ्ख्यातपदं भवति, एवमेते पूर्वेण सहकादश, ततो द्वितीयायां चेत्येवमादयः षट्त्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोग- तृतीयायां च सङ्ख्यातपद एव स्थिते प्रथमायां तथैव पञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादश शतानि षष्ट्यधिकानि भङ्गकानां व्याद्यक्षभावेन दशमचारे सङ्ग्यातपदं भवति, एवं चैते दश, भवन्तीति, चतुष्कसंयोगे तु दशानां चतुर्धात्वे एककत्रयं समाप्यते चेतोऽक्षविन्यासोऽन्त्यपदस्य प्राप्तत्वात्, एवं चैते सप्तकश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपद- सर्वेऽप्येकत्र विकसंयोगे एकविंशतिः, अनया च पञ्चत्रिंशतः चतुष्कसंयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने एकोनविंशच्छतानि चत्वारिं- सप्तपदविकसंयोगानां गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि शदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु दशानां भवन्ति, चतुष्कसंयोगेषु पुनराद्याभिश्चतसृभिः प्रथम पञ्चधात्वे चत्वारः एककाः षट्कश्चेत्यादयः षड्विंशत्युत्तर- श्चतुष्कसंयोगः, तत्र चाद्यासु तिसृष्वेकैकचतुर्थ्यां तु सङ्ख्याता शतसङ्ख्या विकल्पा भवन्ति तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैक- इत्येको विकल्पस्ततः पूर्वोक्तक्रमेण तृतीयायां दशमचारे विंशतेर्गुणने षड्वंशतिः शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि सङ्ख्यातपदं, एवं द्वितीयायां प्रथमायां च, तत एते सर्वेऽप्येकत्र भङ्गकानां भवन्तीति, षट्कसंयोगे तु दशानां षोढात्वे चतुष्कयोगे एकत्रिंशत्, अनया च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चैककाः पञ्चकश्चेत्यादयः षविंशत्युत्तरशतसङ्ख्या पञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं पञ्चाशीत्यधिकं भवति, विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषट्कसंयोगसप्तकस्य पञ्चकसंयोगेषु त्वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथमः पञ्चकयोगः, तत्र गुणनेऽष्टौ शतानि व्यशीत्यधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, चाद्यासु चतसृष्वेकैकः पञ्चम्यां तु सङ्ख्याता इत्येको विकल्पः सप्तकसंयोगे तु दशानां सप्तधात्वे षडेककाश्चतुष्क- ततः पूर्वोक्तक्रमेण चतुर्थ्यां दशमचारे सङ्गयातपदं, एवं श्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्चैकस्य सप्तक- शेषास्वपि, तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशत्,
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परिशिष्ट-५ : श.९ : उ. ३२ : सू. ९८-१२०
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भगवती वृत्ति
बहना
रानकवद
लन
अस्याश्च प्रत्येकं सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकविंशते भादष्ट तथैव पञ्चसु स्थानेषूत्पादनीयाः, ततो विकल्पनानात्वं भवति, शतानि एकषष्ट्यधिकानि भवन्ति, षट्कसंयोगेषु तु तच्चाभियुक्तेन पूर्वोक्तन्यायेन स्वयमवगन्तव्यमिति, इह पूर्वोक्तक्रमेणैकत्र षट्कसंयोगे एकपञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, चानन्तानामेकेन्द्रियाणामुत्पादेऽप्यनन्तपदं नास्ति प्रवेशनअस्याश्च प्रत्येकं सप्तपदषट्कयोगे सप्तकलाभात्रीणि शतानि कस्योक्तलक्षणस्यासङ्ख्यातानामेव लाभादिति॥ सप्तपञ्चाशदधिकानि भवन्ति, सप्तकसंयोगे तु पूर्वोक्त- ९/१०५. 'सव्वेवि ताव एगिदिएसु होज्ज' त्ति एकेन्द्रियाणामतिभावनयैकषष्टिर्विकल्पा भवन्ति, सर्वेषां चैषां मीलने बहूनामनुसमयमुत्पादात, 'दुयासंजोगो' इत्यादि, इह प्रक्रमे त्रयस्त्रिंशच्छतानि सप्तत्रिंशदधिकानि भवन्ति।
द्विकसंयोगश्चतुर्दा त्रिकसंयोगः षोढा चतुष्कसंयोगश्चतुर्धा ९/९९. 'असंखेज्जा भंते!' इत्यादि सङ्ख्यात प्रवेशनकवदे- पञ्चकसंयोगस्त्वेक एवेति।।
वैतदसङ्ख्यातप्रवेशनकं वाच्यं, नवरमिहासङ्ख्यातपदं द्वादशम- ९/१०६. 'सव्व थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए' त्ति धीयते, तत्र चैकत्वे सप्लैव, द्विकसंयोगादौ तु विकल्प- पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोकत्वादिति, ततश्चतुरिन्द्रियादिप्रमाणवृद्धिर्भवति, सा चैवं-द्विकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाश- प्रवेशनकानि परस्परेण विशेषाधिकानीति।। दधिके २५२, त्रिकसंयोगेऽष्टौ शतानि पञ्चोत्तराणि ८०५, ९/१०७-१०९. मनुष्यप्रवेशनकं देवप्रवेशनकं च सुगमं, तथाऽपि चतुष्कसंयोगे त्वेकादश शतानि नवत्यधिकानि ११९०, किञ्चिल्लिख्यते-मनुष्याणां स्थानकद्वये संमूर्च्छिमगर्भपञ्चकसंयोगे पुनर्नव शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि ९४५, जलक्षणे प्रविशतीति द्वयमाश्रित्यैकादिसङ्ख्यातान्तेषु पूर्ववद्विषट्कसंयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ३९२, कल्पाः कार्याः, तत्र चातिदेशानामन्तिमं सङ्ख्यातपदमिति सप्तकसंयोगे पुनः सप्तषष्टिः, एतेषां च सर्वेषां मीलने तद्विकल्पान् साक्षाद्दर्शयन्नाहषट्त्रिंशतच्छतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि भवन्तीति॥ ९/११०,१११. 'संखेज्जे' त्यादि, इह द्विकयोगे पूर्ववदेकादश अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाह
विकल्पाः, असंङ्ख्यातपदे तु पूर्वं द्वादश विकल्पा उक्ता इह ९/१००. 'उक्कोसेण मित्यादि, उत्कर्षा-उत्कृष्टपदिनो येनोत्कर्षत पुनरेकादशैव, यतो यदि संमूच्छिमषु गर्भजेषु चासङ्ख्यातत्वं
उत्पद्यन्ते 'ते सव्वे वि' ति ये उत्कृष्टपदिनस्ते सर्वेऽपि स्यात्तदा द्वादशोऽपि विकल्पो भवेत्, न चैवं, इह रत्नप्रभायां भवेयुः तद्गामिनां तत्स्थानानां च बहुत्वात्, इह गर्भजमनुष्याणां स्वरूपोऽप्यसङ्ख्यातानामभावेन तत्प्रवेशनप्रक्रमे द्विकयोगे षड् भङ्गकास्त्रिकयोगे पञ्चदश चतुष्क-संयोगे केऽसङ्ख्यातासम्भवाद्, अतोऽसङ्ख्यातपदेऽपि विकल्पैकादशकविंशतिः पञ्चकसंयोगे पञ्चदश षड्योगे षट् सप्तकयोगे त्वेक दर्शनायाह-'असंखेज्जा' इत्यादि। इति॥
९/१२,१३. 'उक्कोसा भंते' इत्यादि, 'सव्वेवि ताव संमुच्छिम९/१०१. अथ रत्नप्रभादिष्वेव नारकप्रवेशनकस्याल्पत्वादि- मणुस्सेसु होज्ज' त्ति संमूर्च्छिमानामसङ्ख्यातानां भावेन
निरूपणायाह-'एयस्स ण' मित्यादि, तत्र सर्वस्तोकं सप्तम- प्रविशतामप्यसङ्ख्यातानां सम्भवस्ततश्च मनुष्यप्रवेशनकं पृथिवीनारकप्रवेशनकं, तद्गामिनां शेषापेक्षया स्तोकत्वात्, ततः प्रत्युत्कृष्टपदिनस्तेषु सर्वेऽपि भवन्तीति, अत एव संमूर्छिमषष्ठ्यामसङ्ख्यातगुणं, तद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात्, एवमुत्तर- मनुष्यप्रवेशनकमितरापेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणमवगन्तव्यमिति। वापि॥
९/११७. देवप्रवेशनके 'सव्वेवि ताव जोइसिएसु होज्ज' त्ति अथ तिर्यग्योनिकप्रवेशनकप्ररूपणायाह
ज्योतिष्कगामिनो बहव इति तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशनकवन्तः ९/१०२-१०३. 'तिरिक्खे' त्यादि, इहैकस्तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियेषु सर्वेऽपि भवन्तीति।
भवेदित्युक्तं, तत्र च यद्यप्येकेन्द्रियेष्वेकः कदाचिदप्यु- ९/११८. 'सव्वत्थोवे वेमाणियदेवप्पवेसणए' ति तगामिनां त्पद्यमानो न लभ्यतेऽनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्ते- तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति॥ स्तथाऽपि देवादिभ्य उद्धृत्य यस्तत्रोत्पद्यते तदपेक्षयैकोऽपि ९/११९. अथ नारकादिप्रवेशनकस्यैवाल्पत्वादि निरूपयन्नाहलभ्यते, एतदेव च प्रवेशनकमुच्यते यद्विजातीयेभ्य आगत्य 'एयस्स ण' मित्यादि, तत्र सर्वस्तोक मनुष्यप्रवेशनकं, विजातीयेषु प्रविशति सजातीयस्तु सताजीयेषु प्रविष्ट एवेति मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात्, तस्य च स्तोकत्वात् किं तत्र प्रवेशनकमिति, तत्र चैकस्य क्रमेणैकेन्द्रियादिषु पञ्चसु नैरयिकप्रवेशनकं त्वसङ्ख्यातगुणं, तद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात्, पदेषूत्पादे पञ्च विकल्पाः ।।।
एवमुत्तरत्रापीति॥ ९/१०४. द्वयोरप्येकैकस्मिन्नुत्पादे पञ्चैव, द्विकयोगे तु दश, एतदेव अनन्तरं प्रवेशनकमुक्तं तत्पुनरुत्पादोद्वर्त्तनारूपमिति
सूचयता 'अहवा एगे एगिदिएसु' इत्याधुक्तम्। अथ सङ्केपार्थं नारकादीना-मुत्पादमुद्वर्तनां च सान्तरनिरन्तरतया त्र्यादीनामसङ्ख्यातपर्यन्तानां तिर्यग्योनिकानां प्रवेशनकमतिदेशेन
॥ अपरानकमातदशन निरूपयन्नाहदर्शयन्नाह-‘एवं जहे' त्यादि, नारकप्रवेशनकसमानमिदं सर्व, ९/१२०. 'संतरं भंते!' इत्यादि, अथ नारकादीनामुत्पादादेः परं तत्र सप्तसु पृथिवीष्वेकादयो नारका उत्पादिताः तिर्यञ्चस्तु सान्तरादित्वं प्रवेशनकात्पूर्वं निरूपितमेवेति किं पुनस्त
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परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३२,३३ : सू. १२०-१४१
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भगवती वृत्ति
निरूप्यते? इति, अत्रोच्यते, पूर्वं नारकादीनां प्रत्येकमुत्पादस्य स्यादत आह-'असुभाण' मित्यादि, उदयः प्रदेशतोऽपि स्यादत सान्तरत्वादि निरूपितं, ततश्च तथैवोद्वर्त्तनायाः, इह तु आह-'विवागणं' ति विपाको यथाबद्धरसानुभूतिः, स च पुनारकादिसर्वजीवभेदानां समुदायतः समुदितयोरेव चोत्पा- मन्दोऽपि स्यादत आह-'फलविवागणं' ति फलस्येवालाबुकादेदोद्वर्त्तनयोस्तन्निरूप्यत इति।।
विपाको-विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेन। ९/१२१. अथ नारकादीनामेव प्रकारान्तरेणोत्पादोद्वर्तन निरूपयन्नाह- ९/१२८. असुरकुमारसूत्रे 'कम्मोदएणं' ति असुरकुमारोचित
'सओ भंते'! इत्यादि, तत्र च 'सओ नेरइया उववज्जंति' त्ति कर्मणामुदयेन, वाचनान्तरेषु 'कम्मोवसमेणं' ति दृश्यते, तत्र 'सन्तः' विद्यमाना द्रव्यार्थतया, नहि सर्वथैवासत् किञ्चि- चाशुभकर्मणामुपशमेन सामान्यतः 'कम्मविगईए' त्ति दुत्पद्यते, असत्त्वादेव खरविषाणवत्, सत्त्वं च तेषां जीव- कर्मणामशुभानां विगत्या-विगमेन स्थितिमाश्रित्य द्रव्यापेक्षया नारकपर्यायापेक्षया वा, तथाहि-भाविनारक- 'कम्मविसोहीए' त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविसुद्धीए' त्ति पर्यायापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सन्तो नारका उत्पद्यन्ते, प्रदेशापेक्षया, एकार्था वैते शब्दा इति। नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका एव नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति। ९/१३०. पृथ्वीकायिकसूत्रे 'सुभासुभाणं' ति शुभानां शुभवर्णअथवा 'सओ' त्ति विभक्तिपरिणामात् सत्सु प्रागुत्पन्नेष्वन्ये गन्धादीनाम् अशुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां च। समुत्पद्यन्ते नासत्सु, लोकस्य शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव ९/१३३. 'तप्पभिई च' त्ति यस्मिन् समयेऽनन्तरोक्तं वस्तु भगवता सद्भावादिति।।
प्रतिपादितं ज्ञानस्य तत्तथा, चशब्दः पुनरर्थे समुच्चये वा 'से' त्ति ९/१२२. 'से गुणं भंते! गंगेया' इत्यादि, अनेन च तत्सिद्धान्तेनैव असौ ‘पच्चभिजाणइ' त्ति प्रत्यभिजानाति स्म, किं कृत्वा ?
स्वमतं पोषितं, यतः पाāनार्हता शाश्वतो लोक उक्तोऽतो इत्याह-सर्वशं सर्वदर्शिनं, जातप्रत्ययत्वादिति। लोकस्य शाश्वतत्वात्सन्त एव सत्स्वेव वा नारकादय उत्पद्यन्ते नवमशते द्वात्रिंशत्तमोद्देशकः॥९॥३२॥(ग्रन्थाग्रम् १००००) च्यवन्ते चेति साध्वेवोच्यत इति॥ अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनी ज्ञानसम्पदं सम्भावयन्
त्रयस्त्रिंशत्तम उद्देशकः विकल्पयन्नाह/१२३-१२४. 'सयं भंते!' इत्यादि, स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्ष
गाङ्गेयो भगवदुपासनातः सिद्धः अन्यस्तु कर्मवशाद्विमित्यर्थः ‘एवं' ति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'असयं' ति अस्वयं
पर्ययमप्यवाप्नोति यथा जमालिरित्येतद्दर्शनाय त्रयस्त्रिंशपरतो लिङ्गत इत्यर्थः, तथा 'असोच्च' त्ति अश्रुत्वाऽऽगमानपेक्षम्
तमोद्देशकः, तस्य चेदं प्रस्तावनासूत्रम्'एतेवं' ति एतदेवमित्यर्थः ‘सोच्च' त्ति पुरुषान्तरवचनं
९/१३७. 'तेणं कालेण' मित्यादि. 'अड्डे' त्ति समृद्धः दिने' त्ति श्रुत्वाऽऽगमत इत्यर्थः 'सयं एतेवं जाणामि' त्ति स्वयमेतदेवं
दीप्तः-तेजस्वी दृप्लो वा-दर्पवान् 'वित्ते' त्ति प्रसिद्धः, जानामि, पारमार्थिकप्रत्यक्षसाक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्तोमस्व
यावत्करणात् 'विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने' भावत्वान्मम।
इत्यादि दृश्य। 24 माया रेशास त सतसा ९/१३९. 'हियाए' त्ति हिताय पथ्यान्नवत् 'सुहाए' त्ति सुखाय शर्मणे उत्पद्यन्ते नास्वयं-नेश्वरपारतन्त्र्यादेः, यथा कैश्चिदुच्यते--
'खमाए' त्ति क्षमत्वाय सङ्गतत्वायेत्यर्थः 'आणुगामियत्ताए' त्ति 'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः।
अनुगामिकत्वाय शुभानुबन्धायेत्यर्थः ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा॥१॥"
९/१४०. 'हट्ठ' इह यावत्करणादेवं दृश्यं-'हट्टतुट्टचित्तमाणंदिया' इति, ईश्वरस्य हि कालादिकारणकलापव्यति-रिक्तस्य
हृष्टतुष्टम्-अत्यर्थं तुष्टं हृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं-तोषवच्चित्तं युक्तिभिर्विचार्यमाणस्याघटनादिति।
यत्र तत्तथा, तद्यथा भवत्येवमानंदिता-ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः ९/१२६. 'कम्मोदएणं' ति कर्मणामुदितत्वेन, न च कर्मोदयमात्रेण
समृद्धिमुपगता, ततश्च नन्दिता-स्मृतितरतामुपगता ‘पीइमणा' नारकेषूत्पद्यन्ते, केवलिनामपि तस्य भावाद् अत आह
प्रीतिः-प्रीणनं-आप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः 'परम'कम्मगुरुयत्ताए' ति कर्मणां गुरुकता कर्मगुरुकता तया
सोमणस्सिया' परमसौमनस्यं सुष्ठसुमनस्कता सञ्जातं 'कम्मभारियत्ताए' ति भारोऽस्ति येषां तानि भारिकाणि तद्भावो
यस्याः सा परमसौमनस्थिता 'हरिसवसविसप्पमाणहियया, भारिकता कर्मणां भारिकता कर्मभारिकता तया चेत्यर्थः, तथा
हर्षवशेन विसर्पद-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा। महदपि किञ्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि च ९/१४१. 'लहुकरणजुत्तजोइए' इत्यादि, लघुकरणं शीघ्रक्रियादक्षत्वं किञ्चिदमहदित्यत आह-'कम्मगुरुसंभारियत्ताए' त्ति गुरोः
तेन युक्तो यौगिको च-प्रशस्तयोगवन्तौ प्रशस्तसदृशरूपसम्भारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता, गुरुता सम्भारिकता
त्वाद्यौ तौ तथा, समाः खुराश्च-प्रतीताः 'वालिहाण' त्ति चेत्यर्थः, कर्मणां गुरुसम्भारिकता कर्मगुरुसम्भारिकता तया,
वालधाने-पुच्छौ ययोस्तौ तथा, समानि लिखितानि अतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः, एतच्च त्रयं शुभकम्मपिक्षयाऽपि
उल्लिखितानि शृङ्गाणि ययोस्तौ तथा, ततः कर्मधारयोड
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३३ : सृ. १४१-१४९
तस्ताभ्यां लघुकरणयुक्तयौगिकसमखुरवालिधानसमलिखित- 'वराभरणभूसियंगी' ति व्यक्तं 'कालागुरुधूवधूविया' इत्यपि शृङ्गकाभ्यां, गोयुवाभ्यां युक्तमेव यानप्रवरमुपस्थापयतेति व्यक्तं 'सिरीसमाणवेसा' श्रीः-देवता तया समाननेपथ्या, इतः सम्बन्ध, पुनः किंभूताभ्याम् ? इत्याह-जाम्बूनदमयौ प्रकृतवाचनाऽनुनियते-'खुज्जाहि' ति कुब्जिकाभिर्वक्रसुवर्णनिर्वृत्तौ यौ कलापौकण्ठाभरणविशेषौ ताभ्यां युक्तौ जवाभिरित्यर्थः 'चिलाइयाहिं' ति चिलातदेशोत्पन्नाभिः, प्रतिविशिष्टको च--प्रधानौ जवादिभियौं तौ तथा ताभ्यां यावत्करणादिदं दृश्यं-'वामणियाहिं' हस्वशरीराभिः जाम्बूनदमयकलापयुक्तप्रतिविशिष्टकाभ्यां रजतमय्यौ-रूप्य- 'वडहियाहिं मडहकोष्ठाभिः 'बब्बरियाहिं पओसियाहिं विकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके-काप्पासिकसूत्र- ईसिगणियाहिं वासगणियाहिं जोण्हियाहिं पल्हवियाहिं दवरकमय्यौ वरकाञ्चने-प्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये ल्हासियाहिं लउसियाहिं आरबीहिं दमिलाहिं सिंहलीहिं नस्ते-नासिकारज्जू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिनाऽवगृहीतकौ-बन्द्रौ पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुंडीहिं सबरीहिं पारसीहिं यौ तौ तथा ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां रजतमयघण्टसूत्र- नाणादेसविदेसपरिपिडियाहिं' नानादेशेभ्यो-बहुविधजनपदेभ्यो रज्जुकवरकाञ्चननस्ताप्रग्रहावगृहीतकाभ्यां, नीलोत्पलैः-जल- विदेशे-तद्देशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता यास्तास्तथा जविशेषैः कृतो-विहितः 'आमेल' त्ति आपीड:-शेखरो ययोस्तौ 'सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं' स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो तथा ताभ्यां नीलोत्पलकृतापीडकाभ्यां ‘पवरगोणजुवाणएहिं' ति यकाभिस्तास्तथा ताभिः 'इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं' प्रवरगोयुवाभ्यां नानामणिरत्नानां सत्कं यद् घण्टिकाप्रधानं इङ्गितेन-नयनादिचेष्टया चिन्तितं च परेण प्रार्थितं चजालं-जालकं तेन परिगतं-परिक्षिप्तं यत्तत्तथा, सुजातं-सुजात- अभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः 'कुसलाहिं दारुमयं यद् युगं-यूपस्तत् सुजातयुगं तच्च योक्त्ररज्जुकायुगं विणीयाहिं' युक्ता इति गम्यते 'चेडियाचक्कवालवरिसधच-योक्त्राभिधानरज्जुकायुग्मं सुजातयुगयोक्त्ररज्जुकायुगे ते रथेरकंचुइज्जमहत्तरयवंदपरिक्खित्ता' चेटीचक्रवालेनार्थाप्रशस्ते--अतिशुभे सुविरचिते-सुघटिते निर्मिते-निवेशिते यत्र त्स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां-वर्धितककरणेन नपुंसकीकृताना.
यत् सुजातयुगयोक्त्ररज्जुकायुगप्रशस्तसुविरचितनिर्मितम्। मन्तःपुरमहल्लकानां 'थेरकंचुइज्ज' ति स्थविरकञ्चुकिनां ९/१४२. 'एव' मित्यादि, एवं स्वामिन् ! तथेत्याज्ञया इत्येवं ब्रुवाणा अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां इत्यर्थः विनयेन' अञ्जलिकरणादिना॥
च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा, इर्द ९/१४४. 'तए णं सा देवाणंदा माहणी' त्यादि, इह च स्थाने च सर्वं वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति।
वाचनान्तरे देवानन्दावर्णक एवं दृश्यते-'अंतो अंतेउरंसि ९/१४६. 'सच्चित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए ति पुष्पताम्बूलादिण्हाया' 'अन्तः' मध्येऽन्तःपुरस्य स्नाता, अनेन च कुलीनाः द्रव्याणां व्युत्सर्जनया त्यागेनेत्यर्थः 'अचित्ताणं दव्वाणं स्त्रियः प्रच्छन्नाः स्नान्तीति दर्शितं, 'कयबलिकम्मा' गृहदेवताः अविमोयणयाए' ति वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः 'मणस्स प्रतीत्य 'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता' कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव एगत्तीभावकरणेणं' अनेकस्य सत एकतालक्षणभावकरणेन प्रायश्चित्तान्यवश्यंकार्यत्वात् यया सा तथा, तत्र कौतुकानि- "ठिया चेव' त्ति ऊर्ध्वस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः। मषीतिलकादीनि मङ्गलानि-सिद्धार्थकदूर्वादीनि। किञ्च' ति ९/१४७. 'आगयपण्य' ति 'आयातप्रत्रवा' पुत्रस्नेहा-दागतस्तनकिञ्चान्यद् ‘वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइयउचियकडग- मुखस्तन्येत्यर्थः 'पप्फुयलोयणा' प्रप्लुतलोचना पुत्रदर्शनात खुड्डयएगावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेज्जयोणिसुत्तगणाणामणि- प्रवर्त्तितानन्दजलेन 'संवरियवलयबाहा' संवृतौ-हर्षातिरेकादतिरयणभूसणविराइयंगी' वराभ्यां पादप्राप्तनूपुराभ्यां मणिमेखलया स्थुरीभवन्तौ निषिद्धौ वलयैः कटकैर्बाहू-भुजौ यस्याः सा तथा हारेण विरचितै रतिदैर्वा उचितैः-युक्तैः कटकैश्च 'खुड्डाग' ति 'कंचुयपरिखित्तिया' कञ्चुको-वारवाणः परिक्षिप्तोविस्तारितो अङ्गलीयकैश्च एकावल्या च-विचित्रमणिकमय्या कण्ठसूत्रेण हर्षातिरेकस्थूरीभूतशरीरतया यया सा तथा धाराहयच-उरःस्थेन च रूढिगम्येन ग्रैवेयकेण च-प्रतीतेन उर:स्थ- कयंबगंपिव समूसवियरोमकूवा' मेघधाराभ्याहतकदम्ब ग्रैवेयकेण वा श्रोणिसूत्रकेण च-कटीसूत्रेण नानामणिरत्नानां पुष्पमिव समुच्छवसितानि रोमाणि कूपेषु-रोमरन्ध्रेषु यस्याः भूषणैश्च विराजितमङ्ग-शरीरं यस्याः सा तथा, 'चीणंसुय- सा तथा 'देहमाणी' ति प्रेक्षमाणा, आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विरुक्तिः।। वत्थपवरपरिहिया' चीनांशुकं नाम यद्वस्त्राणां मध्ये प्रवरं ९/१४८. 'भंते ति भदन्त! इत्येवमामन्त्रणवचसाऽऽमन्त्र्येत्यर्थः तत्परिहितं-निवसनीकृतं यया सा तथा 'दुगुल्लसुकुमाल- गोयमाइ' त्ति गौतम इति एवमामन्त्र्येत्यर्थः अथवा गौतम इति उत्तरिज्जा' दुकूलो-वृक्षविशेषस्तद्वल्काज्जातं दुकूलं-वस्त्र- नामोच्चारणम् 'अयी' ति आमन्त्रणार्थो निपातः हे भो विशेषस्तत् सुकुमारमुत्तरीयम्-उपरिकायाच्छादनं यस्याः सा इत्यादिवत् 'अत्तए' त्ति आत्मजः-पुत्र पुव्वपुत्तसिणेहाणुराएणं' तथा 'सव्वोउयसुरभिकुसुमवरियसिरया; सर्नुकसुरभि- ति पूर्वः-प्रथमगर्भाधानकालसम्भवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोकुसुमैर्वृता-वेष्टिताः शिरोजा यस्याः सा तथा 'वरचंदणवंदिया' ऽनुरागः स पूर्वपुत्रस्नेहानुरागस्तेन। वरचन्दनं वन्दितं-ललाटे निवेशितं यया सा तथा ९/१४९. 'महतिमहालियाए' त्ति महती चासावतिमहती चेति
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परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३३ : सू. १४९-१६३ ५३४
भगवती वृत्ति महातिमहती तस्यै, आलप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः, 'इसि- आयरियस्स सुवणयस्स सवणयाए ? किमंग पुण विउलस्स परिसाए' ति पश्यन्तीति ऋषयो-ज्ञानिनस्तद्रूपा पर्षत्-परिवार अट्ठस्स गहणयाए?, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं ३ ऋषिपर्षत्तस्यै, यावत्करणादिदं दृश्यं-मुणिपरिसाए जइपरिसाए वंदामो ४ एयं णे पेच्च भवे हियाए ५ भविस्सइ ति कट्ट बहवे अणेगसयाए अणेगसयविंदपरिवाराए' इत्यादि, तत्र मुनयो- उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइन्ना खत्तिया भडा अप्पेगइया वाचंयमाः । यतयस्तु-धर्मक्रियासु प्रयतमानाः अनेकानि शतानि वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कारवत्तियं (सम्माणवत्तियं) यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशतप्रमाणानि वृन्दानि-परिवारो कोउहलवत्तियं अप्पेगतिया जीयमेयं ति कट्ट हाया यस्याः सा तथा तस्यै।
कयबलिकम्मा' इत्यादि ‘एवं जहा उबवाइए' तत्र चैतदेवं ९/१५४. 'तए णं सा अज्जचंदणा अज्जे' त्यादि, इह च देवानन्दाया सूत्रं-'तेणामेव उवागच्छंति तेणामेव उवागच्छित्ता छत्ताइए
भगवता प्रव्राजनकरणेऽपि यदार्यचन्दनया पुनस्तत्करणं तित्थयरातिसए पासंति जाणवाहणाई ठाइंति' इत्यादि। तत्तत्रैवानवगतावगमकरणादिना विशेषाधानमित्यवगन्तव्यमिति। ९/१५८. 'अयमेयाररूवे' त्ति अयमेतद्रूपो वक्ष्यमाण-स्वरूपः 'तमाणाए' त्ति तदाज्ञया- आर्यचन्दनाज्ञया।
'अज्झथिए' ति आध्यात्मिकः-आत्माश्रितः, यावत्करणादिदं ९/१५६. 'फुट्टमाणेहिं' ति अतिरभसाऽऽस्फालनात्स्फुटदिरिव दृश्य-चिंतिए' ति स्मरणरूपः ‘पत्थिए' त्ति प्रार्थितः-लब्धं
विदलद्भिरिवेत्यर्थः 'मुइंगमत्थएहिं' ति मृदङ्गानां मर्दलानां प्रार्थितः ‘मणोगए' त्ति अबहिःप्रकाशितः 'संकप्पे' त्ति विकल्पः मस्तकानीव मस्तकानि-उपरिभागाः पुटानीत्यर्थः मृदङ्गमस्तकानि 'इंदमहेइ व त्ति इन्द्रमह-इन्द्रोत्सवः 'खंदमहेइ व' त्ति 'बत्तीसतिबद्धेहिं' ति द्वात्रिंशताऽभि-नेतव्यप्रकारैः पात्ररित्येके स्कन्दमहः कार्तिकेयोत्सवः 'मुगुंदमहेइ व' ति इह मुकुन्दो बद्धानि द्वात्रिंशद्वद्धानि तैः 'उवनच्चिज्जमाणे' त्ति उपनृत्यमानः वासुदेवो बलदेवो वा 'जहा उववाइए' त्ति तत्र चेदमेवं सूत्रंतमुपश्रित्य नर्तनात् 'उवगिज्जमाणे' ति तद्गुणगानात् 'माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छई अन्ने य बहवे 'उवलालिज्जमाणे' त्ति उपलाल्यमान ईप्सितार्थसम्पादनात् राईसरतलवरमाडंबियकोडुबियइब्भसेट्ठिसेणावइ' त्ति तत्र 'पाउसे त्यादि, तत्र प्रावृट् श्रावणादिः वर्षारात्रोऽश्वयुजादि 'भटाः' शूराः 'योधाः' सहस्रयोधादयः, मल्लई लेच्छई शरत मार्गशीर्षादिः हेमन्तो माघादिः वसन्तः चैत्रादिः ग्रीष्मो राजविशेषाः 'राजानः' सामन्ताः 'ईश्वराः' युवराजादयः ज्येष्ठादिः ततश्च प्रावृट् च वर्षारात्रश्च शरच्च हेमन्तश्च 'तलवराः' राजवल्लभाः 'माडम्बिकाः' संनिवेशविशेषनायका वसन्तश्चेति प्रावृड्वर्षारात्रशरद्धेमन्तवसन्तास्ते च ते 'कोडुम्बिकाः' कतिपयकुटुम्बनायकाः 'इभ्याः' महाधनाः 'जहा ग्रीष्मपर्यन्ताश्चेति कर्मधारयोऽतस्तान् षडपि 'ऋतून्' उववाइए' त्ति अनेन चेदं सूचितं-'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता कालविशेषान् 'माणमाणे' ति मानयन् तदनुभावमनुभवन् सिरसाकंठेमालाकडा' इत्यादि, शिरसा कंठे च माला 'गालेमाणे' ति ‘गालयन्' अतिवायन्।।
कृता-धृता यैस्ते तथा, प्राकृतत्वाच्चैवं निर्देशः, 'आगमण९/१५७. 'सिंघाडगतिगचउक्कचच्चर' इह यावत्करणादिदं दृश्य- गहियविणिच्छए' त्ति आगमने गृहीतः कृतो विनिश्चयोनिर्णयो
'चउम्मुहमहापहपहेसु' त्ति, 'बहुजणसद्देइ व' त्ति यत्र शृङ्गाट- येन स तथा 'जएणं विजएणं वद्धावेइ' ति जय त्वं विजयस्व कादौ बहूनां जनानां शब्दस्तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैव- त्वमित्येवमाशीर्वचनेन भगवतः समागमनसूचनेन तमानन्देन माख्यातीति वाक्यार्थः, तत्र च बहजनशब्दः परस्परा- वर्द्धयतीति भावः। 'अप्पेगतिया बंदणवत्तियं जाव निग्गच्छंति' लापादिरूपः, इतिशब्दो वाक्यालङ्कारे वाशब्दो विकल्पे, 'जहा इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अप्पेगझ्या पूयणवत्तियं एवं उववाइए ति तत्र चेदं सूत्रमेवं लेशतः-'जणवूहेइ वा जणबोलेइ सक्कारवत्तियं सम्माणवत्तियं कोउहल्लवत्तियं असुयाई वा जणकलकलेति वा जणुम्मीइ वा जणुक्कलियाइ वा सुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो मुंडे भवित्ता जणसन्निवाएइ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं आगाराओ अणगारियं पच्वइस्सामो अप्पेगइया हयगया एवं भासइ' त्ति, अस्यायमर्थः-'जनव्यूहः' जनसमुदायः बोलः- गयरहसिवियासंदमाणियागया अप्पेगइया पायविहारचारिणो अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकलः स एवोपलभ्यमानवचन- पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महता उक्कट्ठिसीहणायवोलकलविभागः ऊर्मिः-सम्बाधः उत्कलिका-लघुतरः समुदायः कलरवेणं समुद्दरवभूयंपि व करेमाणा खत्तियकुंडग्गामस्स संनिपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं आख्याति नगरस्स भज्झमज्झेणं' ति। सामान्यतः भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः, एतदेवार्थद्वयं पर्यायतः ९/१६०. 'चाउग्घंट' ति चतुर्घण्टोपेतम् 'आसरह ति अश्ववाह्यरथं क्रमेणाह-एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयतीति, 'अहापडिरूवं' इह 'जुत्तामेव' त्ति युक्तमेव।। यावत्करणादिदं दृश्यम् उग्गह-ओगिण्हति ओगिण्हित्ता संजमेणं ९/१६३. 'जहा उववाइए परिसावन्नओ नि यथा कौणिकस्यौतवसा अप्पाणं भावेमाणे' त्ति, 'जहा उववाइए' ति, तदेव पपातिके परिवारवर्णक उक्तः स तथाऽस्यापीत्यर्थः, स लेशतो दर्श्यते-'नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण चायम्-'अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंबियअभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए एगस्सवि कोडुबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमच्चचेडपीढमदनगर
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श.९ : उ.३३ : सू. १६३.१६९
निगमसेविसत्थवाहट्यसंधिवालसन्द्रिं संपरिखुडे' ति. तत्रानेके संस्मरणेनेत्यमनोज्ञा तां 'सेयागयरोमकूवपगलंतविलीणगत्ता' ये गणनायकाः-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायकाः-तन्त्रपालकाः स्वेदेनागतेन रोमकूपेभ्यः प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि राजानो-माण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानः तलवराः परितुष्ट- च-क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः सा तथा 'सोगभरपवेवियंगमंगी' नरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः माडम्बिकाः- शोकभरेण प्रवेपितं-प्रकम्पितमङ्गमङ्गं यस्याः सा तथा 'नित्तेया' छिन्नमडम्बाधिपाः कोऽम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवः निर्वीर्या 'दीणविमणवयणा' दीनस्येव विमनस इव (च) वदनं अवलगकाः सेवकाः मन्त्रिणः-प्रतीताः महामन्त्रिणो-मन्त्रि- यस्याः सा तथा 'तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीरलावन्नसुन्नमण्डलप्रधानाः हस्तिसाधनोपरिका इति च वृद्धाः निच्छाय' त्ति तत्क्षणमेव-प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एव गणका:-गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति च वृद्धाः दौवारिकाः अवरुग्णं-म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन प्रतीहाराः अमात्या राज्याधिष्ठायकाः चेटा:-पादमूलिकाः शून्या लावण्यशून्या निश्छाया-निष्प्रभा, ततः पदत्रयस्य पीठमर्दाः-आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः कर्मधारयः, 'गयसिरीय' त्ति निःशोभा 'पसिढिलभूसणनगर-नगरवासिप्रकृतयः निगमाः-कारणिकाः श्रेष्ठिन:- पडतखुन्नियसंचुन्नियधवलवलयपन्भट्ठउत्तरिज्जा' प्रशिथिलानि श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः- भूषणानि दुर्बलत्वाद्यस्याः सा तथा पतन्ति-कृशीभूतसैन्यनायकाः दूताः-अन्येषां राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला- बाहुत्वाद्विगलन्ति 'खुन्निय' त्ति भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु राज्यसन्धिरक्षकाः। एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, इह तृतीया- नमितानि संचूर्णितानि च-भग्नानि कानिचिद्धबलबलयानिबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः 'साई' सह, न केवलं सहितत्वमेवापि तथाविधकटकानि यस्याः सा तथा, प्रभृष्टं व्याकुलतु तैः समिति-समन्तात् परिवृतः-परिकरित इति त्वादुनरीयं-वसनविशेषो यस्याः सा तथा, ततः पदत्रयस्य 'चंदणुक्खित्तगायशरीरे' ति चन्दनोपलिप्साङ्गदेहा इत्यर्थः कर्मधारयः, 'मुच्छा-बसणठ्ठचेयगरुइ ति मूविशान्नष्टे 'महयाभडचडगरपहकरवंद परिक्खित्ते' त्ति 'महय त्ति महत्ता चेतसि गुर्वी-अलघुशरीरा या सा तथा 'सुकुमालविकिन्नबृहता प्रकारेणेति गम्यते, भटानां प्राकृतत्वान्महाभटानां वा केसहत्थ' ति सुकुमार:-स्वरूपेण विकीर्णोव्याकुलचित्ततया 'चडगर' त्ति चटकरवन्तो-विस्तरवन्तः 'पहकर' ति केशहस्तो-धम्मिल्लो यस्याः सा तथा सुकुमाला वा विकीर्णाः समूहास्तेषां यद्वन्दं तेन परिक्षिप्तो यः स तथा केशा हसतौ च यस्याः सा तथा 'परसुनियत्तव्य चंपगलय' त्ति 'पुप्फतंबोलाउहमाइयं' ति इहादिशब्दाच्छेखरच्छत्र- परशुच्छिन्नेव चम्पकलता 'मिद्दत्तमहे व्व इंदलट्टि ति निवृत्तोत्सबेचामरादिपरिग्रहः 'आयंते' त्ति शौचाई कृतजलस्पर्शः 'चोक्खे' वेन्द्रयष्टिः 'विमुक्कसंधिबंधण' त्ति श्लथीकृतसन्धिबन्धना। त्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः। 'परमसुइब्भूए' त्ति अत ९/१६९. 'ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयएवात्यर्थं शुचीभूतः 'अंजलियमउलियहत्थे' त्ति अञ्जलिना लजलविमलधारपरिसिंचमाणनिव्ववियगायलट्ठि' ति ससम्भ्रमं मुकुलमिव कृतौ हस्तौ येन स तथा॥
व्याकुलचित्ततया अपवर्त्तयति-क्षिपति या सा तथा तया ९/१६४. 'सद्दहामि' ति श्रद्दधे सामान्यतः ‘पत्तियामि' त्ति ससम्भ्रमापवर्तिकया चेट्येति गम्यते त्वरितं-शीघं काञ्चन
उपपत्तिभिः प्रत्येमि प्रीतिविषयं वा करोमि 'रोएमि' त्ति भृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना चिकीर्षामि 'अब्भुट्टेमि' त्ति अभ्युत्तिष्ठामि एवमेयं' ति उपलभ्य- निर्वापिता-स्वस्थीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा तथा, अथवा मानप्रकारवत् 'तहमेयं' ति आप्तवचनावगतपूर्वाभिमतप्रकारवत् ससम्भ्रमापवर्तितया-ससम्भ्रमक्षिप्तया काञ्चनभृङ्गारमुख'अवितहमेयं' ति पूर्वमभिमतप्रकारयुक्तमपि सदन्यदा विनिर्गतशीतलजलविमलधारयेत्येवं व्याख्येयं, लुप्ततृतीयैकविगताभिमतप्रकारमपि किञ्चित्स्यादत उच्यते-'अवितथमेतत्' वचनदर्शनात्, 'उक्खेवगतालियंटवीयणगजणिय-वाएणं' ति न कालान्तरेऽपि विगताभिमतप्रकारमिति॥
उत्क्षेपकोवंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागः तालवृन्तं९/१६५. 'अम्म ! ताओ' त्ति हे अम्ब! हे मातरित्यर्थः हे तात! हे तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा
पितरित्यर्थः 'निसंते' ति निशमितः श्रुत इत्यर्थः 'इच्छिए' त्ति चर्ममयं बीजनकं तु-वंशादिमयमेवान्तायुदण्डं एतैर्जनितो यो इष्टः पडिच्छिए ति पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः वातः स तथा तेन 'सफुसिएण' सोदकबिन्दुना 'रोयमाणी' 'अभिरुइए' ति स्वादुभावमिवोपगतः।
अश्रुविमोचनात् 'कंदमाणी' महाध्वनिकरणात् 'सोयमाणी' ९/१६६. 'धन्नेऽसि' त्ति धनं लब्धा 'असि' भवसि जाय' ति हे पुत्र! मनसा शोचनात् 'विलवमाणी' आर्त्तवचनकरणात्॥ 'इट्टे' इत्यादि
'कयत्थेऽसि' त्ति ‘कृतार्थः' कृतस्वप्रयोजनोऽसि 'कयलक्खणे' पूर्ववत् 'थेज्जे' ति स्थैर्यगुणयोगात्स्थैर्यः 'वेसासिए' त्ति
त्ति कतानि-सार्थकानि लक्षणानि-देहचिह्नानि येन स कृतलक्षणः।। विश्वासस्थानं 'संमए' त्ति संमतस्तत्कृतकार्याणां संमतत्वात् १६८. 'अनिट्ठ' ति अवाञ्छिताम् ‘अकंतं' ति अकमनीयाम् ‘अप्पियं' 'बहुमए ति बहुमतः-बहुष्वपि कार्येषु बहु वा-अनल्पत
ति अप्रीतिकरीम् 'अमणुन्नं ति न मनसा ज्ञायते सुन्दरतयेत्य- याऽस्तोकतया मतो बहुमतः 'अणुमए' त्ति कार्यव्याघातस्य मनोज्ञा ताम् 'अमणाम' ति न मनसा अभ्यते-गम्यते पुनः पुनः पश्चादपि मतोऽनमतः "भंडकरण्डगसमाणे' भाण्डं-आभरणं
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परिशिष्ट-५: श.९ : उ. ३३ : सू. १६९-१७३
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भगवती वृत्ति
स्पण
करण्डकः-तद्भाजनं तत्समानस्तस्यादेयत्वात् ‘रयणे' त्ति रत्नं ९/१७१. 'पविसिट्ठरूवं' ति प्रविशिष्टरूपं 'लक्खणवंजणमनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः ‘रयणभूए' गुणोववेयं' लक्षणम्। त्ति चिन्तारत्नादिविकल्पः 'जीविऊसविए' त्ति 'अस्थिष्वर्थः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु। जीवितमुत्सूते--प्रसूत इति जीवितोत्सवः स एव गतौ यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम्॥१॥' जीवितोत्सविकः जीवितविषये वा उत्सवो-महः स इव यः स इत्यादि, व्यञ्जनं-मषतिलकादिकं तयोर्यो गुणः-प्रशस्तत्वं जीवितोत्सविकः जीवितोच्छ्वासिक इति पाठान्तरं 'हियया- तेनोपपेतं-सङ्गतं यत्तत्तथा 'उत्तमबलवीरियसत्तजुत्तं' उत्तमैर्बलणंदिजणणे' मनःसमृद्धिकारकः 'उंबरे' त्यादि, उदुम्बरपुष्पं वीर्यसत्त्वैर्युक्तं यत्तत्तथा, तत्र बलं-शारीरः प्राणो वीर्यह्यलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमानं 'सवणयाए' ति श्रवणतायै मानसोऽवष्टम्भः सत्त्वं चित्तविशेष एव, यदाह-सत्त्वमवैक्लश्रोतुमित्यर्थः 'किमंग पुण' ति किं पुनः अंगेत्यामन्त्रणे व्यकरमध्यवसानकरं च' अथवा उत्तमयोर्बलवीर्ययोर्यत्सत्त्वं'अच्छाहि ताव जाया! जाव ताव अम्हे जीवामो' त्ति, सत्ता तेन युक्तं यत्तत्तथा 'ससोहग्गगुणसमूसियं' ति ससौभाग्य इत्यत्राऽऽस्व तावद् हे तात! यावद्वयं जीवाम इत्यैतावतैव गुणसमुच्छ्रितं चेत्यर्थः 'अभिजायमहक्खम' ति अभिजातंविवक्षितसिद्धौ यत्पुनस्तावच्छब्दस्योच्चारणं तद्भाषामात्रमेवेति कुलीनं महती क्षमा यत्र तत्तथा, ततः कर्मधारयः, अथवाऽभि'वड्डियकुलवंसतंतुकज्जम्मि निरयवक्खे' त्ति वड्डिय' त्ति जातानां मध्ये महत्-पूज्यं क्षम-समर्थं च यत्तत्तथा, सप्तम्येकवचनलोपदर्शनाद्वर्द्धिते - पुत्रपौत्रादिभिर्वृद्धिमुपनीते 'निरुवहयउदत्तलट्ठपंचिंदियपहुं' ति निरुपहतानि-अविद्यमानकुलरूपो वंशो न वेणुरूपः कुलवंशः-सन्तानः स एव वातायुपधातानि उदात्तानि-उत्तमवर्णादिगुणानि अत एव तन्तुर्दीर्घत्वसाधात् कुलवंशतन्तुः स एव कार्य-कृत्यं लष्टानि–मनोहराणि पञ्चापीन्द्रियाणि पनि च स्वविषयकुलवंशतन्तुकार्यं तत्र, अथवा वर्द्धितशब्दः कर्मधारयेण ग्रहणदक्षाणि यत्र तत्तथा। सम्बन्धनीयस्तत्र सति 'निरवकाङ्कः' निरपेक्षः सन् ९/१७२. 'विविवाहिसयसंनिकेयं' ति इह संनिकेतं-स्थानम् सकलप्रयोजनानाम्॥
'अट्ठियकट्ठियं' ति अस्थिकान्येव काष्ठानि काठिन्य९/१७०. 'तहावि णं तं ति तथैव नान्यथेत्यर्थः यदुक्तं 'अम्हेहिं साधयत्तिभ्यो यदुत्थितं तत्तथा 'छिराण्हारुजाल
कालगएहिं पव्वइहिसि तदाश्रित्यासावाह- 'एवं खलु' इत्यादि, ओणन्द्रसंपिणद्धं' ति शिरा-नाड्यः ‘पहारू' त्ति स्नायवस्तासां एवं वक्ष्यमाणेन न्यायेन 'अणेगजाइजरामरणरोगसारीरमाणसए यज्जालं-समूहस्तेनोपनद्धं संपिनन्हें-अत्यर्थं नेष्टितं यत्तत्तथा कामदुक्खवेयणवसणसओवद्दवाभिभूए' त्ति अनेकानि यानि 'असुइसंकिलिटुं' ति अशुचिना-अमेध्येन सक्लिष्टं-दुष्टं जातिजरामरणरोगरूपाणि शारीराणि मानसिकानि च यत्तत्तथा। 'अणिट्ठवियसव्वकालसंठप्पयं' ति अनिष्ठापिताप्रकाम-अत्यर्थं दुःखानि तानि तथा तेषां यद्वेदनं, व्यसनानां असमापिता सर्वकालं-सदा संस्थाप्यता-तत्कृत्यकरणं यस्य च-चौर्यधूतादीनां यानि शतानि उपद्रवाश्च-राजचौर्यादि- स तथा 'जराकुणिमजज्जरघरं व' जराकुणपश्च-जीर्णताकृतास्तैरभिभूतो यः स तथा, अत एव 'अधुवे' त्ति न प्रधानशबो जर्जरगृहं, च जीर्णगेहं समाहारद्वन्द्वाज्जराध्रुवः-सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यम्भावी 'अणितिए' त्ति कुणपजर्जरगृहं, तदेवं किम् ? इत्याह-'सडणे' त्यादि। इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपरः ततश्च न विद्यत इति ९/१७३. 'विपुले' त्यादि, विपुलकुलाश्च ता बालिकाश्चेति विग्रहः यत्रासावनितिकः-अविद्यमाननियतस्वरूप इत्यर्थः, ईश्वरादेरपि कलाकुशलाश्च ताः सर्वकाललालिताश्चेति कलाकुशलदारिद्र्यादिभावात्, 'असासए' ति क्षणनश्वरत्वात्, अशाश्वत- सर्वकाललालिताः ताश्च ताः सुखोचिताश्चेति विग्रहः, त्वमेवोपमानैर्दर्शयन्नाह-'संझे' त्यादि, किमुक्तं भवति? मार्दवगुणयुक्तो नुिपणो यो विनयोपचारस्तत्र पण्डितविचक्षणाइत्याह-'अणिच्चे' त्ति अथवा प्राग् जीवितापेक्षयाऽनित्यत्व- अत्यन्तविशारदा यास्तास्तथा ततः कर्मधारयः, मुक्तमथ शरीरस्वरूपापेक्षया तदाह-'अणिच्चे' 'सडणपडण- 'मंजुलमियमहरभणियविहसियविप्पेक्खियगइविलासविट्ठियविद्धंसणधम्मे' त्ति शटनं-कुष्ठादिनाऽङ्गल्यादेः पतनं बाह्यादेः विसारयाओ' मञ्जुलं-कोमलं शब्दतः मितं-परिमितं खङ्गच्छेदादिना विध्वंसनं-क्षयः एत एव धर्मा यस्य स तथा मधुरं-अकठोरमर्थतो यद्भणितं तत्तथा तच्च विहसितं च 'पुव्विं वि' त्ति विवक्षितकालात्पूर्व वा 'पच्छा वि' त्ति विप्रेक्षितं च गतिश्च विलासश्च-नेत्रविकारो गतिविलासो विवक्षितकालात्पश्चाद्वा 'अवस्सविप्पजहियव्वे ति अवश्यं वा-विलसन्ती गतिः विस्थितं च-विशिष्टा स्थितिरिति द्वन्द्वः विप्रजहातव्यः त्याज्य 'से केस णं जाणइ' त्ति अथ कोऽसौ एतेषु विशारदा यास्तास्तथा, 'अविकलकुलसीलसालिणीओ' जानात्यस्माकं, न कोऽपीत्यर्थः, 'के पुब्बिं गमणयाए' त्ति कः अविकलकुलाः-ऋद्धिपरिपूर्णकुलाः शीलशालिन्यश्च-शील. पूर्वं पित्रोः पुत्रस्य वाऽन्यतोगमनाय परलोके उत्सहते कः शोभिन्य इति विग्रहः, 'विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवन्द्वणपगब्भपश्चाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते, कः पूर्वं को वा पश्चान्मियत वयभाविणीओ' विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः-विस्तारिइत्यर्थः।।
तन्तुस्तद्वर्द्धनेन-पुत्रोत्पादनद्वारेण तद्वृद्धौ प्रगल्भं समर्थ
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यद्वयो-यौवनं तस्य भावः- सत्ता विद्यते यासां तास्तथा 'विसुद्ध कुलवंससंताणतंतुवद्बणगब्भब्भवप्रभाविणीओ' ति पाठान्तरं तत्र च विशुद्धकुलवंशसन्तानतन्तुवर्द्धना ये प्रगल्भा:प्रकृष्टगर्भास्तेषां य उद्भवः सम्भूतिस्तत्र यः प्रभावः - सामर्थ्यं
स
यासामस्ति तास्तथा 'मणाणुकूल - हियइच्छियाओ' मनोऽनुकूलाश्च ता हृदयेनेप्सिताश्चेति कर्म्मधारयः 'अट्ट तुज्झ गुणवल्लभाओ' त्ति गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा 'विसयविगयवोच्छिन्नको उहल्ले' त्ति विषयेषु - शब्दादिषु विगतव्यवच्छिन्नम् - अत्यन्तक्षीणं कौतूहलं यस्य स तथा । ९/१७४. 'माणुस्सगा कामभोग' त्ति, इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि, 'उच्चारे' त्यादि, उच्चारादिभ्यः समुद्भवो येषां ते तथा 'अमणुन्नदुरूवमुत्तपूयपुरीसपुन्ना' अमनोज्ञाश्च ते दुरूपमूत्रेण पूतिकपुरीषेण च पूर्णाश्चेति विग्रहः, इह च दूरूपं विरूपं पूतिकं च-कुथितं, मयगंधुस्सास असुभनिस्सासउव्वेयणगा' मृतस्येव गन्धो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छ्वासश्च मृतगन्धुच्छ्वासस्तेनाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनका उद्वेगकारिणो जनस्य ये ते तथा उच्छ्वासश्च मुखादिना वायुग्रहणं निःश्वासस्तुतन्निर्गमः 'बीभच्छ' त्ति जुगुप्सोत्पादकाः 'लहुस्सग' त्ति लघुस्वकाः लघुस्वभावाः 'कलमलाहिवासदुक्खबहुजण
'साहारणा'
कलमलस्य - शरीरसत्काशुभद्रव्यविशेषस्याधिवासेन - अवस्थानेन दुःखा - दुःखरूपा ये ते तथा तथा बहुजनानां साधारणा भोग्यत्वेन ये ते तथा, ततः कर्म्मधारयः, 'परिकिलेस किच्छदुक्खसज्झा' परिक्लेशेन महामानसायासेन कृच्छ्रदुःखेन च गाढशरीरायासेन ये साध्यन्ते वशीक्रियन्ते ये ते तथा 'कडुगफलविवागा' विपाकः पाकोऽपि स्यादतो विशेष्यते - फलरूपो विपाकः फलविपाकः कटुकः फलविपाको येषां ते तथा 'चुडलिव्व' त्ति प्रदीसतृणपूलिकेव 'अमुच्चमाणे' इह प्रथमाबहुवचनलोपो दृश्यः ॥
९/१७५. 'इमे य ते जाया ! अज्जयपज्जयपिउपज्जयागए' इदं च तव पुत्र! आर्यः पितामहः प्रार्थकः - पितुः पितामहः पितृप्रार्यकः - पितुः प्रपितामहस्तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा, अथवाऽऽर्यकप्रार्यक- पितॄणां यः पर्ययः पर्यायः परिपाटि - रित्यर्थः तेनागतं यत्तत्तथा 'विपुलधणकणग' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'रयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइए' त्ति तत्र 'विपुलधणे' ति प्रचुरं गवादि 'कणग' त्ति धान्यं 'रयण' त्ति कर्केतनादीनि 'मणि' त्ति चन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि शङ्खाश्च प्रतीताः 'सिलप्पवाल' त्ति विद्रुमाणि 'रत्तरयण' त्ति पद्मरागास्तान्यादिर्यस्य तत्तथा 'संतसारसावएज्जे' त्ति 'संत' त्ति विद्यमानं स्वायत्त मित्यर्थः 'सार' त्ति प्रधानं 'सावएज्ज' ति
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स्वापतेयं द्रव्यं, ततः कर्मधारयः किम्भूतं तत् ? इत्याह- 'अलाहि' त्ति अलं पर्याप्तं भवति 'याव' त्ति यत्परिमाणं 'आसत्तमाओ कुलवंसाओ' त्ति आसप्तमात् कुलवंश्यात्
परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३३ : सू. १७३-१७७
कुललक्षणवंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात् सप्तमं पुरुषं यावदित्यर्थः 'पकामं दाउ' न्ति अत्यर्थं दीनादिभ्यो दातुम्, एवं भोक्तुं स्वयं भोगेन 'परिभाएउं' ति परिभाजयितुं दायादादीनां, प्रकामदानादिषु यावत् स्वापतेयमलं तावदस्तीति हृदयम् । ९/१७६. 'अग्गिसाहिए' इत्यादि, अग्न्यादेः साधारणमित्यर्थः
'दाइयसाहिए' त्ति दायादाः पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थं पर्यायान्तरेणाह-'अग्गिसामन्ने' इत्यादि ।। ९/१७७. 'विसयाणुलोमाहिं' ति विषयाणां - शब्दादीनामनुलोमाःतेषु प्रवृत्तिजनकत्वेनानुकूला विषयानुलोमास्ताभिः 'आघवणाहि यत्ति आख्यापनाभि:- सामान्यतो भणनैः 'पन्नवणाहि य' ति प्रज्ञापनाभिश्च विशेषकथनैः 'सन्नवणाहि य' त्ति सञ्ज्ञापनाभिश्च सम्बोधनाभिः 'विन्नवणाहि य' त्ति विज्ञापनाभिश्च विज्ञप्तिकाभिः सप्रणयप्रार्थनैः, चकाराः समुच्चयार्थाः, 'आघवित्तए व' त्ति आख्यातुम्, एवमन्यान्यपि पूर्वपदेषु क्रमेणोत्तराणि योजनीयानि, 'विसयपडिकूलाहिं' ति विषयाणां प्रतिकूलाः- तत्परिभोगनिषेधकत्वेन प्रतिलोमा यास्तास्तथा ताभिः 'संजमभउव्वेयणकरीहिं' ति संयमाद्भयं भीति उद्वेजनं च - चलनं कुर्वन्तीत्येवंशीला यास्तास्तथा ताभिः । 'सच्चे' ति सदभ्यो हितत्वात् 'अणुत्तरे' त्ति अविद्यमानप्रधानतरम्, अन्यदपि तथाविधं भविष्यतीत्याह- 'केवल' त्ति केवलंअद्वितीयं 'जहावस्सए' त्ति एवं चेदं तत्र सूत्रं - 'पडिपुन्ने' अपवर्गप्रापकगुणैर्भृतं ‘नेयाउए' नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः नैयायिकं वा न्यायानपेतत्वात् 'संसुद्धे' सामस्त्येन शुद्धं 'सल्लगत्तणे' मायादिशल्यकर्त्तनं 'सिद्धिमग्गे' हितात् प्राप्त्युपायः मुत्तिमग्गे अहितविच्युतेरुपायः 'निज्जाणमग्गे' सिद्धिक्षेत्रगमनोपायः 'निव्वाणमग्गे' सकलकर्मविरहजसुखोपायः 'अवितहे' कालान्तरेऽप्यनपगततथाविधाभिमतप्रकारम् 'अविसंधि' प्रवाहेणाव्यवच्छिन्नं 'सव्वदुक्खपहीणमग्गे' सकलाशर्मक्षयोपायः एत्थं ठिया जीवा सिज्झति वुज्झति मुच्चंति परिनिव्वायंति' त्ति 'अहीवेगंतदिट्ठीए' अहेरिव एकोऽन्तो- निश्चयो यस्याः सा (एकान्ता सा ) दृष्टि:बुद्धिर्यस्मिन् निर्ग्रन्थप्रवचने चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम्, अहिपक्षे आमिषग्रहणैकतानतालक्षणा एकान्ताएकनिश्चया दृष्टिः दृग् यस्य स एकान्तदृष्टिकः 'खुरो इव एगंतधाराए' त्ति एकान्ता - उत्सर्गलक्षणैकविभागाश्रया धारेव धारा - क्रिया यत्र तत्तथा, 'लोहमये' त्यादि, लोहमया वा व चर्वयितव्याः, नैर्ग्रन्थं प्रवचनं दुष्करमिति हृदयं, बालुये' त्यादि, वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया, प्रवचनमिति, गंगे' त्यादि, गङ्गा वा गङ्गेव महानदी प्रतिस्रोतसा गमनं प्रतिस्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिस्रोतोगमनेन गङ्गेव दुस्तरं प्रवचनमिति भावः, एवं समुद्रोपमं प्रवचनमपि, तिक्ख कमियव्वं' ति यदेतत् प्रवचनं तत्तीक्ष्णं खङ्गादिक्रमितव्यं यथा खङ्गादि क्रमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमितिभावः
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परिशिष्ट-५ : श. ९ : उ. ३३ : सू. १७७-१८९
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भगवती वृत्ति
गुलाच्या
'गरुयं लंबेयव्वं' ति 'गुरुकं' महाशिलादिकं 'लम्बयितव्यम्' अट्ठसाणं भोमेज्जाणं' ति मृन्मयानां सव्विड्डीए' त्ति अवलम्बनीयं रज्ज्वादिनिबद्धं हस्तादिना धरणीयं प्रवचनं, सर्बा -समस्तछत्रादिराजचिह्नरूपया, यावत्करणादिदं गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असी' त्यादि, असेधारा दृश्यं-'सव्वजुईए' सर्वधुत्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या यस्मिन् व्रते आक्रमणीयतया तदसिधारकं 'व्रतं' नियमः सर्वयुक्तया वा-उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया सव्वबलेणं 'चरितव्यम्' आसेवितव्यं, यदेतत् प्रवचनानुपालनं सर्वसैन्येन 'सव्वसमुदएणं' पौरादिमीलनेन 'सव्वायरेणां' तद्बहदुष्करमित्यर्थः। अथ कस्मादेतस्य दुष्करत्वम् ?, सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सव्वविभूईए' सर्वसम्पदा अत्रोच्यते 'नो' इत्यादि, आधाकर्मिकमिति, एतद्वा 'सव्वविभूसाए' समस्तशोभया 'सव्वसंभमेणं' प्रमोदकृतौ'अज्झोयरएइ वा अध्यवपूरक इति वा, तल्लक्षणं चेदं-स्वार्थं त्सुक्येन 'सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडियसहमूलाद्रहणे कृते साध्वाद्यर्थमधिकतरकणक्षेपणमिति 'कंतारभत्तेइ संनिनाएण' सर्व्वतूर्यशब्दानां मीलने यः सङ्गतो निनादोव' त्ति कान्तारं-अरण्यं तत्र यद्भिक्षुकार्थं संस्क्रियते महाघोषः स तथा तेन, अल्पेष्वपि ऋळ्यादिषु सर्वशब्दतत्कान्तारभक्तम्, एवमन्यान्यपि, भोत्तए व' त्ति भोक्तुं 'पायए प्रवृत्तिर्दृष्टेत्यत आह-'महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं व' ति पातुं वा 'नालं' न समर्थः शीताद्यधिसोढ़मिति योगः, इह महया समुदएणं 'महया वरतुडियजमगसमगप्पबाइएणं' यमकच क्वचित्प्राकृतत्वेन द्वितीयार्थे प्रथमा दृश्या, 'वाल' त्ति समकं युगपदित्यर्थः 'संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहव्यालान्-श्वापदभुजगलक्षणान् रोगायंके' त्ति इह डुक्कमुरयमुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइय' ति पणवो-भाण्डपटहः रोगाः-कुष्ठादयः आतङ्का-आशुघातिनः शूलादयः।
भेरी-महती ढक्का महाकाहला वा झल्लरी-अल्पोच्छ्या ९/१७८. 'कीवाणं' ति मन्दसंहननानां 'कायराणं' ति चित्तावष्ट- महामुखा चविनद्धा खरमुखी--काहला मुरजो-महामर्दलः
म्भवर्जितानाम् अत एव 'कापुरिसाणं' ति, पूर्वोक्तमेवार्थ- मृदङ्गो-मईलः दुन्दुभी-ढक्काविशेष एव ततः शलादीनां मन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनराह-'दुरणु' इत्यादि, 'दुरनुचरं' निर्घोषो महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो नादितं तु-ध्वनिमात्र दुःखासेव्यं प्रवचनमिति प्रकृतं 'धीरस्स' त्ति साहसिकस्य एतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेन॥ तस्यापि निश्चितस्य कर्त्तव्यमेवेदमितिकृतनिश्चयस्य तस्यापि किं देमो' ति किं दद्मो भवदभिमतेभ्यः किं पयच्छामो' त्ति भवते 'व्यवसितस्य' उपायप्रवृत्तस्य 'एत्थं' ति प्रवचने लोके वा, एव, अथवा दद्मः सामान्यतः प्रयच्छामः प्रकर्षेणेति विशेष: दुष्करत्वं च ज्ञानोपदेशापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'करणतया' 'किणा वत्ति केन वा। करणेन संयमस्य अनुष्ठानेनेत्यर्थः॥
९/१८३. 'कुत्तियावणाओ' त्ति कुत्रिकं-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूत्रयं ९/१८०. 'सब्मिंतरबाहिरियं' ति सहाभ्यन्तरेण बाहिरिकया च- तत्सम्भवि वस्त्वपि कुत्रिकं तत्सम्पादको य आपणो हट्टो
बहिर्भागेन यत्तत्तथा 'आसियसम्मज्जिओवलितं ति देवाधिष्ठितत्वेनासौ कुत्रिकापणस्तस्मात् ‘कासवगं' ति नापितं। आसिक्तमुदकेन संमार्जितं प्रमाणनिकादिना उपलिप्तं च ९/१८४. "सिरिघराओ भाण्डागारात् त्ति। गोमयादिना यत्तत्तथा 'जहा उववाइए' त्ति एवं चैतत्तत्र- ९/१८८. 'अग्गकेसे ति अग्रभूताः केशा अग्रकेशास्तान। 'सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्त- ९/१८९. 'हंसलक्खणेणं' शुक्लेन हंसचिड्रेन वा 'पडसाडएणं' ति सुइयसंमट्टरत्यंतरावणवीहियं आसिक्तानि-ईषसिक्तानि पटरूपः शाटकः पटशाटकः, शाटको हि शटनकारकोऽप्युच्यत सिक्तानि च तदन्यान्यत एव शुचिकानि-पवित्राणि संमृष्टानि इति तद्यवच्छेदार्थं पटग्रहणम्, अथवा शाटको वस्त्रमानं स च कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च- पृथुलः पटोऽभिधीयत इति पटशाटकः, 'अग्गेहिं' ति ‘अग्यैः' हट्टमार्गा यत्र तत्तथा मंचाइमंचकलियं णाणाविहरागभूसियझय- प्रधानैः, एतदेव व्याचष्टे-'वरेहिं ति 'हारवारिधारसिं. पडागाइपडागमंडियं' नानाविधरागैरुच्छितैर्ध्वजैः-चक्रसिंहा- दुवारच्छिन्नमुत्तावलिप्पगासाई ति इह 'सिंदुवार' त्ति वृक्षविशेषो दिलाञ्छनोपेतैः पताकाभिश्च तदितराभिरतिपताकाभिश्च- निर्गुडीति केचित् तत्कुसुमानि सिन्दु-वाराणि तानि च पताकोपरिवर्त्तिनीभिर्मण्डितं यत्तत्तथा इत्यादि।
शुक्लानीति 'एस णं' ति एतत्, अग्रकेशवस्तु अथवैतदर्शनमिति ९/१८१. 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं 'महग्छ' ति महामूल्यं महरिहं' त्ति योगो णमित्यलङ्कारे तिहीसु य' मदनत्रयोदश्यादितिथिषु
महाहँ-महापूज्यं महतां वा योग्यं 'निक्खमणाभिसेयं' ति 'पव्वणीसु य' त्ति पर्वणीषु च कार्तिक्यादिषु 'उस्सवेसु य' त्ति निष्क्रमणाभिषेकसामग्रीम्।
प्रियसङ्गमादिमहेषु 'जन्नेसु यति नागादिपूजासु 'छणेसु य' त्ति ९/१८२. 'एव जहा रायप्पसेणइज्जे' त्ति एवं चैतत्तत्र-'अट्ठसएणं इन्द्रोत्सवादिलक्षणेषु 'अपच्छिमें' ति अकारस्यामङ्गल
सुवन्नमयाणं कलसाणं अट्ठसएणं रूप्पमयाणं कलसाणं परिहारार्थत्वात पश्चिमं दर्शनं भविष्यति एतत् केशदर्शनअट्ठसएणं मणिमयाणं कलसाणं अट्ठसएणं सुवन्नरूप्पमयाणं मपनीतकेशावस्थस्य जमालिकुमारस्य यदर्शनं सर्वदर्शनकलसाणं अट्ठसएणं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं अट्ठसएणं पाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा न पश्चिमं पौनःपुन्येन रुप्पमणिमयाणं अट्ठसएणं सुवण्णरूप्पमणिमयाणं कलसाणं जमालिकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शने भविष्यतीत्यर्थः ।
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५:श.९ : उ. ३३ : सू. १९०-१९५
९/१९०. 'दोच्चंपि' ति द्वितीयं वारं 'उत्तरावक्कमणं ति उत्तरस्यां सन्निविष्टा या सा तथा अनेकानि वा स्तम्भशतानि
दिश्यपक्रमणं--अवतरणं यस्मात्तद् उत्तरापक्रमणम्-उत्तराभिमुखं संनिविष्टानि यस्यां सा तथा तां 'लीलट्ठियसालिभंजियागं' ति पूर्वं तु पूर्वाभिमुखमासीदिति 'सीयापीयाहिं' ति रूप्यमयैः लीलास्थिताः शालिभञ्जिका:-पुत्रिकाविशेषा यत्र सा तथा तां, सुवर्णमयैश्चेत्यर्थः पम्हलसुकुमालाए' ति पक्ष्मवत्त्या वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते-'अब्भुग्गयसकयवइरवेइयसुकुमालया चेत्यर्थः 'गंधकासाइए' ति गन्धप्रधानया तोरणवररइयत्नीलट्ठियसालिभंजियागं' ति तत्र चाभ्युद्गतेकषायरक्तया शाटिकयेत्यर्थः 'नासानीसासे' त्यादि उच्छिते सुकृतवज्रवेदिकायाः सम्बन्धिनि तोरणवरे रचिता नासानिःश्वासवातवाह्यमतिलघुत्वात् चक्षुर्हर-लोचनानन्द- लीलास्थिता शालभञ्जिका यस्यां सा तथा तां 'जहा दायकत्वात् चक्षुरोधकं वा घनत्वात् 'वन्नफरिसजुतं' ति रायप्पसेणइज्जे विमाणवन्नओ' ति एवमस्या अपि वाच्य प्रधानवर्णस्पर्शमित्यर्थः हयलालायाः सकाशात् पेलवं-मृदु इत्यर्थः, स चायम्-'ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगबालगअतिरेकेण-अतिशयेन यत्तत्तथा कनकेन खचितं-मण्डितं किन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं' ईहामृगादिअन्तयोः-अञ्चलयोः कर्म-वानलक्षणं यत्तत्तथा 'हार' ति भिर्भक्तिभिः--विच्छित्तिभिश्चित्रा-चित्रवती या सा तथा तां, अष्टादशसरिकं 'पिणद्धंति' पिनह्यतः पितराविति शेषः तत्र ईहामृगा-वृकाः ऋषभाः वृषभा व्यालका:-श्वापदा भुजङ्गा 'अन्द्वहारं' ति नवसरिकम् ‘एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो वा किन्नरा-देवविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः सरभाः-परासराः तहेव' ति, स चैवम्-'एगावलिं पिणद्धंति एवं मुत्तावलिं वनलता-चम्पकलतादिकाः पद्मलता- मृणालिकाः शेषपदानि कणगावलिं रयणावलिं अंगयाई केऊराई कडगाई तुडियाई प्रतीतान्येव 'खंभुग्गयवइरवेइया-परिगयाभिरामं' स्तम्भेषु कडिसुत्तयं दसमुद्दयाणंतयं वच्छसुत्तं मुरविं कंठमुरविं पालंबं उद्गता-निविष्टा या वज्रवेदिका तया परिगता-परिकरिता अत कुंडलाइं चूडामणि' ति तत्रैकावली-विचित्रमणिकमयी एवाभिरामा च-रम्या या सा तथा तां 'विज्जाहरजमलजुयलमुक्तावली-केवलमुक्ताफलमयी कनकावली-सौवर्णमणिक- जंतजुत्तंपिव' विद्याधरयोर्यद् यमलं-समश्रेणीकं युगलं- द्वयं मयी रत्नावली-रत्नमयी अङ्गद केयूरं च बाह्वाभरणविशेष तेनेव यन्त्रेण-सञ्चरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता या सा एतयोश्च यद्यपि नामकोशे एकार्थतोक्ता तथाऽपीहाऽऽकार- तथा ताम्, आर्षत्वाच्चैवंविधः समासः, 'अच्चीसहस्सविशेषाद् भेदोऽवगन्तव्यः, कटकं-कलाचिकाभरणविशेषः मालिणीय' अर्चिःसहस्रमालाः-दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति त्रुटिकं-बाहुरक्षिका दशमुद्रिकानन्तकं-हस्ताङ्गलीमुद्रिकादशकं यस्यां सा तथा, स्वार्थिककप्रत्यये च अर्चिःसहसमालिनीका वक्षःसूत्रं-हृदयाभरणभूतसूवर्णसङ्कलकं 'वेकच्छसुत्तं' ति तां, 'रूवगसहस्सकलियं' भिसमाणं' दीप्यमानां 'भिब्भिपाठान्तरं तत्र वैकक्षिकासूत्रम्-उत्तरासङ्गपरिधानीयं सङ्कलकं- समाणां' अत्यर्थं दीप्यमानां 'चक्खुलोयणलेसं' चक्षुः कर्तृ मुरवीमुरजाकारमाभरणं कण्ठमुरवी-तदेव कण्ठासन्नतरावस्थानं लोकने-अवलोकने सति लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयात् प्रालम्बं-झुम्बनकं, वाचनान्तरे त्वयमलङ्कारवर्णकः श्लिष्यतीव यस्यां सा तथा तां 'सुहफासं सस्सिरीयरूवं साक्षाल्लिखत एव दृश्यत इति, 'रयणसंकडुक्कडं' ति सशोभरूपकां 'घंटावलिचलियमहरमणहरसरं' घण्टावल्यारत्नसङ्कटं च तदुत्कटं च-उत्कृष्टं रत्नसकटोत्कटं श्चलिते-चलने मधुरो मनोहरश्च स्वरो यस्यां सा तथा तां 'गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं' ति इह ग्रन्थिम-ग्रन्थननिर्वृत्तं 'सुहं कंतं दरिसणिज्जं निउणोवियमिसिमिसंतमणिरयणसूत्रग्रथितमालादि वेष्टिमं-वेष्टितनिष्पन्नं पुष्पलम्बूसकादि घंटियाजालपरिक्खित्तं' निपुणेन-शिल्पिना ओपितं-परिकर्मित पूरिमं-येन वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते 'मिसिमिसंत' चिकचिकायमानं मणिरत्नानां सम्बन्धि यद् सङ्घातिमं तु यत्परस्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते घण्टिकाजालं-किङ्किणीवृन्दं तेन परिक्षिप्ता-परिकरिता या सा 'अलंकियविभूसियं' ति अलङ्कृतश्चासौ कृतालङ्कारोऽत एव तथा तां, वाचनान्तरे पुनरयं वर्णकः साक्षाद् दृश्यते एवेति॥ विभूषितश्च-सञ्जातविभूषश्चेत्यलकृतविभूषितस्तं, वाचनान्तरे ९/१९२. 'केसालंकारेणं' ति केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारस्तेन, पुनरिदमधिकं 'दहरमलयसुगंधिगंधिएहिं गायाई भुकुंडेंति' त्ति यद्यपि तस्य तदानीं केशाः कल्पिता इति केशालङ्कारो न दृश्यते, तत्र च दईरमलयाभिधानपर्वतयोः सम्बन्धि- सम्यक् तथाऽपि कियतामपि सद्भावात्तद्भाव इति, अथवा नस्तदुद्भूतचन्दनादिद्रव्यजत्वेन ये सुगन्धयो गन्धिका- केशानामलङ्कारः पुष्पादि केशालङ्कारस्तेन, 'वत्थालंकारेणं' ति गन्धावासास्ते तथा, अन्ये त्वाहः-दईर:-चीवरावनद्धं वस्त्रलक्षणालङ्कारेण। कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्वा वा ये 'मलय' ९/१९५. 'सिंगारागारचारुवेस' त्ति शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिव त्ति मलयोद्भवत्वेन मलयजस्य-श्रीखण्डस्य सम्बन्धिनः यश्चारुश्च वेषो-नेपथ्यं यस्याः सा तथा, अथवा शृङ्गारप्रधान सुगन्धयो गन्धिका-गन्धास्ते तथा तैर्गात्राणि 'भुकुंडेंति' ति आकारश्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा 'संगते' त्यादौ उठूलयन्ति॥
यावत्करणादेवं दृश्य-संगयगयहसियभणियचिट्टियविलास९/१९१. 'अणेगखंभसयसन्निविट्ठ' ति अनेकेषु स्तम्भ-शतेषु संलावुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसल' त्ति तत्र च सङ्गतेषु
ति
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परिशिष्ट-५: श.९ उ.३३ : सू. १९५-२०४
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भगवती वृत्ति
गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, इह च विलासो नेत्रविकारो, यदाह'हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भूसमुद्भवः॥१॥' इति, तथा संलापो-मिथोभाषा उल्लापस्तु काकुवर्णनं, यदाह'अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। काक्का वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः॥१॥' इति, 'रूवजोव्वणविलासकलिय' त्ति इह विलासशब्देन स्थानासनगमनादीनां सुश्लिष्टो यो विशेषोऽसावुच्यते, यदाह'स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात्॥१॥" सुन्दरथण' इत्यनेन 'सुन्दरथणजहणवयणकरचरणणयणलावण्णरूव-जोव्वणगुणोववेय' त्ति सूचितं, तत्र च सुन्दरा ये स्तनादयोऽ-स्तैिरुपेता या सा तथा, लावण्यं चेह स्पृहणीयता रूपं-आकृतियौवनं-तारुण्यं गुणा-मृदुस्वरत्वादयः 'हिमरययकुमुयकुंदेंदुप्पगासं' ति हिमं च रजतं च कुमुदं च कुन्दश्चेन्दुश्चेति द्वन्द्वस्तेषामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा 'सकोरेंटमल्लदाम' ति सकोरेण्टकानि-कोरण्टपुष्पगुच्छ
युक्तानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा। ९/१९६. 'नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जउज्जल
विचित्तदंडाओ' ति नानामणिकनकरत्नानां विमलस्य महार्हस्य महाघस्य वा तपनीयस्य च सत्कावुज्ज्वलौ विचित्रौ दण्डको ययोस्ते तथा, अथात्र कनकतपनीययोः को विशेषः?, उच्यते, कनकं पीतं तपनीयं रक्तमिति। 'चिल्लियाओ' त्ति दीप्यमाने लीने इत्येके संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिगासाओ' त्ति शङ्खाङ्ककुंददकरजसाममृतस्य मथितस्य सतो यः फेनपुञ्जस्तस्य च संनिकाशे-सदृशे ये ते तथा, इह चाको रत्नविशेष इति, 'चामराओ' ति यद्यपि चामरशब्दो नपुंसकलिङ्गो रूढस्तथाऽपीह स्त्रीलिङ्गतया निर्दिष्टस्तथैव
क्वचिद्रूढ-त्वादिति॥ ९/१९७. 'मत्तगयमहामुहाकिइसमाणं' ति मत्तगजस्य यन्महामुर्ख
तस्य याऽऽकृतिः-आकारस्तथा समानं यत्तत्तथा। ९/१९९. 'एगाभरणवसणगहियणिज्जोय' ति एकः-एकादश
आभरण-वसनलक्षणो गृहीतो निर्योगः-परिकरो व ते तथा। ९/२०४. 'तप्पढमयाए' त्ति तेषां विवक्षितानां मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता
तया 'अट्ठट्ठमंगलग' त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्वचनं मङ्गलकानि-माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये त्वाहुः-अष्टसङ्ख्यानि अष्टमङ्गलकसज्ञानि वस्तूनि 'जाव दप्पणं' ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'नंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छ' ति तत्र वर्द्धमानकं शरावं (वसंपुटं) पुरुषारूढपुरुष इत्यन्ये स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये प्रासादविशेषमित्यन्ये 'जहा उववाइए' त्ति, अनेन च यदुपात्तं तद्वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति, तच्चेदं-'दिव्वा य छत्तपडागा' दिव्येव दिव्या-प्रधाना छत्रसहिता
पताका छत्रपताका तथा 'सचामरादरसरझ्यआलोयदरिसणिज्जा वाउन्द्रयविजयवेजयंती य ऊसिय' ति सह चामराभ्यां या सा सचामरा आदर्शो रचितो यस्यां साऽऽदर्शरचिता आलोकं-दृष्टिगोचरं यावद् दृश्यतेऽत्युच्चत्वेन या साऽऽलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, 'सचामरा दंसणरइयआलोयदरिसणिज्ज' ति पाठान्तरे तु सचामरेति भिन्नपदं, तथा दर्शन-जमालेर्दृष्टिपथे रचिता-विहिता दर्शनरचिता दर्शने वा सति रतिदा-सुखप्रदा दर्शनरतिदा सा चासावालोकदर्शनीया चेति कर्मधारयः। काऽसौ? इत्याह-वातोद्भूता विजयसूचिका वैजयन्ती-पार्श्वतो लघुपताकिकाद्वययुक्ता पताकाविशेषा वातोद्भूतविजयवैजयन्ती 'उच्छ्रिता' उच्चा, कथमिव ? 'गगणतलमणुलिहंती' ति गगनतलं आकाशतलमनुलिखन्तीवानुलिखन्ती अत्युच्चतयेति। 'जहा उववाइए' ति अनेन यत्सूचितं तदिदं-'तयाणंतरं च णं वेरुलियभिसंतविमलदंडं' भिसंत' ति दीप्यमानं 'पलंबकोरंटमल्लदामोवसोहियं चंदमंडलनिभं समूसियं विमलमायवत्तं पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढं सपाउयाजुगसमाउत्तं' स्वकीयपादुकायुगसमायुक्तं 'बहुकिंकरकम्मगरपुरिसपायत्तपरिक्खित्त' बहवो ये किङ्कराः-प्रतिकर्म प्रभोः पृच्छाकारिणः कर्मकराश्च तदन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः पादातं च-पत्तिसमूहः बहुकिङ्करादिभिः परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं। 'तयाणंतरं च णं बहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चामरग्गाहा
पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गाहा पीढयग्गाहा ___ वीणग्गाहा कूवयग्गाहा' कुतुपः-तैलादिभाजनविशेषः 'हडप्पग्गाहा' हडप्पो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थ पूगफलादिभाजनं वा 'पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठिया। तयाणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो-शिखाधारिणः जटिणो-जटाधराः पिच्छिणो-मयूरादिपिच्छवाहिनः हासकरा ये हसन्ति डमरकरा-विड्रवरकारिणः दवकराः-परिहासकारिणः चाटुकरा:-प्रियवादिनः कंदप्पिया कामप्रधानकेलिकारिणः कुकुइया-भाण्डाः भाण्डप्राया वा 'वायंता गायंता य नच्चंता य हासंता य भासंता य सासिंता य शिक्षयन्तः 'साविता य' इदं
चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रावयन्तः 'रक्खंता य' अन्यायं रक्षन्तः 'आलोकं च करेमाणे' त्यादि तु लिखितमेवास्ति इति। एतच्च वाचनान्तरे प्रायः साक्षादृश्यत एव, तथेदमपरं तत्रैवाधिकं-'तयाणंतरं च णं जच्चाणं वरमल्लिहाणाणं चंचुच्चियललियपुलयविक्कमविलासियगईणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं थासगअमिलाणचमरगंडपरिमंडियकडीणं अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं, तयाणंतरं च णं ईसिं दंताणं ईसिं मत्ताणं ईसिं उन्नयविसालधवलदंताणं कंचणकोसीपविट्ठदंतोवसोहियाणं अट्ठसयं गयकलहाणं पुरओ
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५: श.९: उ.३३: सू. २०४
अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं, तयाणंतरं च णं सच्छताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्खिताणं सनन्दिघोसाणं हेमवयवित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुगाणं सुसंविद्धचक्कमंडलधुराणं कालायस. सुकयनेमिजंतकम्माणं आइन्नवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियाणं सकंकडवडेंसगाणं सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं, तयाणंतरं च णं असिसत्तिकोततोमरसूललउडभिंडिमालधणुबाणसज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुव्वीए संपट्ठियं, तयाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवरकोडुबियमाडंबिय · इन्भसेट्ठिसेणावइसत्थवाहपभिइओ अप्पेगइया हयगया अप्पेगइया गयगया अप्पेगइया रहगया पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिय' ति तत्र च 'वरमल्लिहाणाणं' ति वरं माल्याधानं-पुष्पबन्धनस्थानं शिरः केशकलापो येषां ते वरमाल्याधानास्तेषाम्, इकारः प्राकृतप्रभवो 'बालिहाण' मित्यादाविवेति, अथवा वरमल्लिकावद् शुक्लत्वेन प्रवरविचकिलकुसुमवद् घ्राणं-नासिका येषां ते तथा तेषां, क्वचित् 'तरमल्लिहायणाणं' ति दृश्यते तत्र च तरोवेगो बलं, तथा ‘मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्लीतरोधारको वेगादिधारको हायनः-संवत्सरो वर्तते येषां ते तरोमल्लिहायनाः-यौवनवन्त इत्यर्थः। अतस्तेषां वरतुरगाणामितियोगः 'वरमल्लिभासणाणं' ति क्वचिदृश्यते, तत्र तु प्रधानमाल्यवतामत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः 'चंचुच्चियललियपुलियविक्कमविलासियगईणं' ति चंचुच्चियं ति प्राकृतत्वेन चञ्चुरितं-कुटिलगमनम्, अथवा चञ्चुःशुकचञ्चुस्तद्वद्वक्रतया उच्चितम्-उच्चताकरणं पदस्योत्पाटनं वा (शुक) पादस्येवेति चञ्चुच्चितं तच्च ललितं क्रीडितं पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एव विक्रमश्च-विशिष्टं क्रमणं क्षेत्रलङ्घनमिति द्वंद्वस्तदेतत्प्रधाना विलासिता-विशेषेणो. ल्लासिता गतिस्ते तथा तेषां, क्वचिदिदं विशेषणमेवं दृश्यते-'चंचुच्चियललियपुलियचलचवलचंचलगईणं' ति तत्र च चञ्चुरितललितपुलितरूपा चलानां-अस्थिराणां सतां चञ्चलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला-अतीवचटुला गतिर्येषां ते। तथा तेषां हरिमेलमउलमल्लियच्छाणं' ति हरिमेलको-वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकुलं-कुडालं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां, शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, 'थासगअमिलाणचामरगंडपरिमंडियकरीणं' ति स्थासका-दर्पणाकारा अश्वालङ्कारविशेषास्तैरम्लानचामरैर्गण्डैश्च-अमलिनचामरदण्डैः परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा तेषां, क्वचित्पुनरेवमिदं विशेषणमेवं दृश्यते-- 'मुहभंडगओचूलगथासगमिलाणचामरगण्डपरिमंडियकडीणं' ति तत्र मुखभाण्डकं-मुखाभरणम् अवचूलाश्च-प्रलम्बमानपुच्छाः स्थासकाः प्रतीताः 'मिलाण त्ति पर्याणानि च येषां सन्ति ते तथा मत्वर्थीयलोपदर्शनात्, चमरी (चामर) गण्डपरि
मण्डितकटय इति पूर्ववत्, ततश्च कर्मधारयोऽतस्तेषां, क्वचित्पुनरेवमिदं दृश्यते-'थासगअहिलाणचामरगंडपरिमंडिय. कडीणं' ति तत्र तु अहिलाणं-मुखसंयमनं ततश्च 'थासगअहिलाण' इत्यत्र मत्वर्थीयलोपेनोत्तरपदेन सह कर्मधारयः कार्यः, तथा ईसिं दंताणं' ति 'ईषद्दान्तानां' मनागग्राहितशिक्षाणां गजकलभानामिति योगः ईसिंउच्छंगउन्नयविसालधवलदंताणं' ति उत्सङ्गः-पृष्ठदेशः ईषदुत्सङ्गे उन्नता विशालाश्च ये यौवनारम्भवर्त्तित्वात्ते तथा ते च ते धवलदन्ताश्चेति समासोऽतस्तेषां 'कंचणकोसीपविठ्ठदंतोवसोहियाणं' ति इह काञ्चनकोशी-सुवर्णमयी खोला, रथवर्णक तु 'सज्झयाणं सपडागाणं' इत्यत्र गरुडादिरूपयुक्तो ध्वजः तदितरा तु पताका 'सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्ताणं' ति सकिङ्किणीकं-क्षुद्रघण्टिकोपेतं यद् हेमजालं-सुवर्णमयस्तदाभरणविशेषस्तेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां. 'सनंदिघोसाणं' ति इह नन्दी-द्वादशतूर्यसमुदायः, तानि चेमानि'भंभा १ मउंद २ मद्दल ३ कडंब
४ झल्लरि ५ हुडुक्क ६ कंसाला ७। काहल ८ तलिमा ९ वंसो १० संखो
११ पणवो १२ य बारसमो॥४॥' इति 'हेमवयचित्ततिणिसकणगनिजुत्त-दारुगाणं' ति हैमवतानिहिमवद्भिरिसम्भवानि चित्राणि-विविधानि तैनिशानि-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि-सुवर्णखचितानि दारुकाणि-काष्ठानि येषु ते तथा तेषां, 'सुसंविद्धचक्कमंडलधाराणं' ति सुष्ठु संविद्धानि चक्राणि मण्डलाश्च वृत्ता धारा येषां ते तथा तेषां 'सुसिलिट्ठचित्तमंडलधुराणं' ति क्वचिदृश्यते तत्र सुष्ठु संश्लिष्टाः चित्रवत्कुर्वत्यो मण्डलाश्चवृत्ता धुरो येषां ते तथा तेषां 'कालायससुकयनेमिजंतकम्माणं' ति कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमे:-चक्रमण्डनधाराया यन्त्रकर्म-बन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषाम् 'आइन्नवरतुरगसुसंपउत्ताणं' ति आकीर्णैः-जात्यैर्वरतुरगैः सुष्टु संप्रयुक्ता ये ते तथा तेषां 'कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं' ति कुशलनरैः-विज्ञपुरुषैश्छेकसारथिभिश्च-- दक्षप्राजितृभिः सुष्ठ संप्रगृहीता ये ते तथा तेषां 'सरसय. बत्तीसतोणपरिमंडियाणं' ति शरशतप्रधाना ये द्वात्रिंशत्तोणाभस्त्रकास्तैः परिमण्डिता ये ते तथा तेषां 'सकंकडवडेंसगाणं ति सह कङ्कटैः कवचैरवतंसकैश्च शेखरकैः शिरस्त्राणैर्वा ये ते तथा तेषां 'सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं' ति सह चापैः शरैश्च यानि प्रहरणानि-कुन्तादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भरिता युद्धसज्जाश्च-युद्धप्रगुणा ये ते तथा तेषां, शेषं तु प्रतीतार्थमेवेति। अथाधिकृतवाचनाऽनु-श्रियते'तयाणंतरं च णं बहवे उग्गा' इत्यादि, तत्र 'उग्राः'
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परिशिष्ट - ५ : श. ९ : उ. ३३ : सू. २०४-२०९
आदिदेवेनारक्षकत्वे नियुक्तास्तद्वंश्याश्च । भोगास्तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च । 'जहा उववाइए' त्ति करणादिदं दृश्यं'राइन्ना खत्तिया इक्खागा नाया कोरव्वा' इत्यादि, तत्र 'राजन्या' आदिदेवेनैव वयस्यतया व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च क्षत्रियाश्च प्रतीताः 'इक्ष्वाकवः' नाभेयवंशजाः 'ज्ञाताः ' इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः 'कोरव्व' त्ति कुरवः कुरुवंशजाः, अथ कियदन्तमिदं सूत्रमिहाध्येयम् ? इत्याह-जाव महापुरिष वग्गुरापरिक्खित्ते' त्ति वागुरा- मृगबन्धनं वागुरेव वागुरा सर्वतः परिवारणसाधर्म्यात् पुरुषाश्च ते वागुरा च पुरुषवागुरा महती चासौ पुरुषवागुरा च महापुरुषवागुरा तया परिक्षिप्ता ये ते
तथा ।
९ / २०६. 'महंआस' त्ति महाश्वाः किम्भूताः ? इत्याह-'आसवरा' अश्वानां मध्ये वराः 'आसवार' त्ति पाठान्तरं तत्र 'अश्ववाराः ' अश्वारूढपुरुषाः 'उभओ पासिं' ति उभयोः पार्श्वयोः 'नाग' ति नागाहस्तिनः नागवरा - हस्तानां प्रधानाः' 'रहसंगेल्लि' ति रथसमुदायः ।
९/२०७. 'अब्भुग्गयभिंगारे' त्ति अभ्युद्गतः - अभिमुखमुत्पाटितो भृङ्गारो यस्य स तथा परगहियतालियंटे' प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति स तथा 'ऊसवियसेयच्छत्ते' उच्छ्रितश्वेतच्छत्रः 'पवीइयसेयचामरवालवीयणीए प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका यं अथवा प्रवीजिते श्वेतचामरे बालव्यजनिके च यं स तथा । ९ / २०८. 'जहा उववाइए' त्ति करणादिदं दृश्यं - 'कामत्थिया भोगत्थिया' कामौ - शुभशब्दरूपे भोगाः - शुभगन्धादयः 'लाभत्थिया' धनादिलाभार्थिनः 'इड्डिसिय' त्ति रूढिगम्याः 'किट्टिसिय' त्ति किल्बिषिका भाण्डादय इत्यर्थः, क्वचित् किट्टिसिकस्थाने 'किव्विसिय' त्ति पठ्यते 'कारोडिया' कापालिकाः 'कारवाहिया' कारं - राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः करवाधिता वा 'संखिया' चन्दनगर्भशङ्खहस्ता माङ्गल्यकारिणः शङ्खवादका वा 'चक्किया' चाक्रिका:- चक्रप्रहरणाः कुम्भकारादयो वा 'नंगलिया ' गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलप्रतिकृतिधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा 'मुहमंगलिया' मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमङ्गलिका :- चाटुकारिणः 'वद्धमाणा' स्कन्धारोपितपुरुषाः 'पूसमाणवा' मागधाः इज्जिसिया पिंडिसिया घंटिय' त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र च इज्यां - पूजामिच्छन्त्येषयन्ति वा ये ते इज्यैषास्त एव स्वार्थिके कप्रत्ययविधानाद् इज्यैषिकाः, एवं पिण्डैषिका अपि, नवरं पिण्डो-भोजनं, घाण्टिकास्तु ये घण्टया चरन्ति तां वा वादयन्तीति, 'ताहिं' ति ताभिर्विवक्षिताभिरित्यर्थः, विवक्षितत्वमेवाह - 'इट्ठाहिं' इष्यन्ते स्मेतीष्टास्ताभिः, प्रयोजनवशादिष्टमपि किञ्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्तं चेत्यत आह-'कंताहिं कमनीयशब्दाभिरित्यर्थः 'पियाहिं' प्रियार्थाभिः 'मणुन्नाहिं' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया यास्ता मनोज्ञा भावतः सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः 'मणामाहिं'
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भगवती वृत्ति
मनसाऽम्यन्ते-गम्यन्ते पुनः पुनर्याः सुन्दरत्वातिशयात्ता मनोऽमास्ताभिः । 'ओरालाहिं' उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्लाणाहिं' कल्याणप्राप्तिसूचिकाभिः 'सिवाहिं' उपद्रवरहिताभिः शब्दार्थदूषणरहिताभिरित्यर्थः 'धन्नाहिं' धनलम्भि काभिः 'मंगल्लाहिं' मङ्गले- अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः 'सस्सिरीयाहिं' शोभायुक्ताभिः 'हिययगमणिज्जाहिं' गम्भीरार्थतः सुबोधाभिरित्यर्थः 'हिययपल्हायणिज्जाहिं' हृदयगतकोपशोकादिग्रन्थिविलयनकरीभिरित्यर्थः 'मियमहुरगंभीरगाहियाहिं' मिताः - परिमिताक्षरा मधुराः - कोमलशब्दाः गम्भीरा- महाध्वनयो दुरवधार्यमप्यर्थं श्रोतॄन् ग्राहयन्ति यास्ता ग्राहिकास्ततः पदचतुष्टयस्य कर्म्मधारयोऽतस्ताभिः 'मियमहुरगंभीरसस्सिरीयाहिं' ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र च मिताः अक्षरतो मधुराः शब्दतो गम्भीरा- अर्थतो ध्वनितश्च स्वश्रीः - आत्मसम्पद् यासां तास्तथा ताभिः 'अट्टसइयाहिं' अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः अथवा सइ - बहुफलत्वं अर्थतः सइयाओ अट्टसइयाओ 'ताहिं अपुणरुत्ताहिं वग्गूहिं' वाग्भिर्गीर्भिरेकार्थिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति 'अणवरयं' सन्ततम् 'अभिनंदता ये' त्यादि तु लिखितमेवास्ते । तत्र चाभिनन्द्रयन्तो जय जीवेत्यादि भणन्तोऽभिवृद्धिमाचक्षाणाः 'जय जय' त्याशीर्वचनं भक्तिसम्भ्रमे च द्विर्वचनं 'नंदा धम्मेणं' ति 'नन्द' वर्द्धस्व धर्मेण एवं तपसाऽपि अथवा जय जय विपक्षं, केन ? - धर्मेण हे नन्द ! इत्येवमक्षरघटनेति 'जय जय नंदा! भद्दं ते' जय त्वं हे जगन्नन्दिकर! भद्रं ते भवतादिति गम्यं 'जियविग्धोऽविय' त्ति जितविघ्नश्च 'वसाहि तं देव! सिद्धिमज्झे' त्ति वस त्वं हे देव! सिद्धिमध्ये देवसिद्धिमध्ये वा 'निहणाहि ये' त्यादि निर्घातय च रागद्वेषमल्लौ तपसा, कथम्भूतः सन् ? इत्याह- धृतिरेव धनिकं अत्यर्थं बद्धा कक्षा (कच्छोटा) येन स तथा, मल्लो हि मल्लान्तरजयसमर्थो भवति गाढबद्धकक्षः सन्नितिकृत्वोक्तं 'धिइधणिये' त्यादि, तथा 'अप्पमत्तो' इत्यादि, 'हराहि' त्ति गृहाण आराधना - ज्ञानादिसम्यक्पालना सैव पताका आराधनापताका तां त्रैलोक्यमेव रङ्गमध्यं - मल्लयुद्धद्रष्टृमहाजनमध्यं तत्र 'हंता परीसहचमूं' ति हत्वा परीषहसैन्यं, अथवा 'हन्ता' घातकः परीषहचम्बा इति विभक्तिपरिणामात् शीलार्थकतन्नन्तत्वाद्वा हन्ता परीषहचमूमिति 'अभिभविय' त्ति अभिभूय - जित्वा - 'गामकंटकोवसग्गाणं' ति इन्द्रियग्रामप्रतिकूलोपसर्गानित्यर्थः णं वाक्यालङ्कारे अथवा 'अभिभविता' जेता ग्रामकण्टकोपसर्गाणामिति, किं बहुना ? - 'धम्मे ते' इत्यादि ॥ ९/२०९ 'नयणमालासहस्सेहिं' ति नयनमालाः - श्रेणीभूतजननेत्र
जयप्राप्सनटग्राह्या
पङ्क्तयः ' एवं जहा उववाइए' त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं - 'वयणमालासहस्सेहिं अभिथुव्वमाणे २ हिययमाला-सहस्सेहिं अभिनंदिज्जमाणे २' जनमनः समूहैः समृद्धिमुपनीयमानो जय
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भगवती वृत्ति
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परिशिष्ट-५:श.९ : उ. ३३ : सू.२०९-२२४
जीव नन्देत्यादिपर्यालोचनादिति भावः 'मणोरहमालासहस्सेहि बोलबहुलं नभं करेंते' पौरजनाश्च अथवा प्रचुरजनाश्च बाला विच्छिप्पमाणे २' एतस्य पादमूले वत्स्याम इत्यादिभिर्जन- वृद्धाश्च ये प्रमुदिताः त्वरितप्रधाविताश्च-शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां विकल्पैर्विशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः 'कंतिरूवसोहग्ग- व्याकुला-कुलानां अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र जोव्वणगुणेहिं पत्थिज्जमाणे २' कान्त्यादिभिर्गुणैर्हेतुभूतैः तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति 'खत्तियकुंडग्गामस्स नगरस्स प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनैरिति 'अंगुलिमाला- मज्झमज्झेणं' ति शेषं तु लिखितमेवास्त इति॥ सहस्सेहिं दाइज्जमाणे २' 'दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारि- ९/२१०. 'पउमेइ व' त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्य-'कुमुदेइ वा सहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे २ भवणभित्ती नलिणेइ वा सुभगेइ वा सोगंधिएइ वा' इत्यादि. एषां च भेदो (पन्ती) सहस्साई' 'समइच्छिमाणे २' समतिक्रामन्नित्यर्थः रूढिगम्यः, 'कामेहि जाए' ति कामेषु-शब्दादिरूपेषु जातः 'तंतीतलतालगीयवाइयरवेणं तन्त्री-वीणा तलाः-हस्ताः 'भोगेहिं संवुड्ढे' ति भोगा-गन्धरसस्पर्शास्तेषु मध्ये ताला:-कांसिकाः तलताला वा-हस्ततालाः गीतवादिते-प्रतीते संवृद्धो-वृद्धिमुपगतः 'नोवलिप्पइ कामरएण' त्ति कामलक्षणं एषां यो रवः स तथा तेन 'महरेणं मणहरेणं' 'जय जय रजः कामरजस्तेन कामरजसा कामरतेन वा-कामानुरागेण सद्दुग्योसमीसएणं' जयेतिशब्दस्य यद् उद्घोषणं तेन मिश्रो यः 'मित्तनाई' इत्यादि, मित्राणि-प्रतीतानि ज्ञातयः-स्वजातीयाः स तथा तेन तथा 'मंजुमंजुणा घोसेण' अतिकोमलेन ध्वनिना निजका-मातुलादयः स्वजनाः-पितृपितृव्यादयः सम्बन्धिनः स्तावकलोकसम्बन्धिना नूपुरादिभूषणसम्बन्धिना वा श्वशुरादयः परिजनो-दासादिः, इह समाहारद्वन्द्वस्ततस्तेन 'अप्पडिवुज्झमाणे' त्ति अप्रतिबुद्ध्यमानः-शब्दान्तराण्यन- नोपलिप्यते-स्नेहतः सम्बद्धो न भवतीत्यर्थः। वधारयन् अप्रत्युह्यमानो वा अनपह्रियमाणमानसो वैराग्यगत- ९/२१३. 'हारवारि' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'धारासिंदुवारच्छिन्नमानसत्वादिति 'कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासादुद्धधणभवण- मुत्तावलिपयासाई अंसूणि' ति। 'जइयव्वं' ति प्राप्तेषु देवकुलसिंघाडगतिगचउक्कचच्चरआरामुज्जाणकाणणसभप्प- संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः ‘जाया!' हे पुत्र! 'घडियव्वं' ति वप्पदेसदेसभागे' ति कन्दराणि-भूमिविवराणि गिरीणां अप्राप्लानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या ‘परिक्कमियव्वं' विवरकुहराणि-गुहाः पर्वतान्तराणि वा गिरिवराः-प्रधानपर्वताः ति पराक्रमः कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्त्तव्य इति प्रासादाः-सप्तभूमिकादयः ऊर्ध्वंघनभवनानि-उच्चाविर- भावः, किमुक्तं भवति?- अस्सिं चे' त्यादि, अस्मिंश्चार्थेलगेहानि-देवकुलानि प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वराणि प्रव्रज्यानुपालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति। प्राग्वत् आरामाः-पुष्पजातिप्रधाना वनखण्डाः उद्यानानि- ९/२१४. 'एवं जहा उसभदत्तो' इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं- 'तेणामेव पुष्पादिमवृक्षयुक्तानि काननानि-नगराद् दूरवर्तीनि सभा- उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आस्थायिकाः प्रपा-जलदानस्थानानि एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा आयाहिणं पयाहिणं पकरेइ पकरेइ वंदइ नमसइ वंदित्ता भागास्ते तथा तान्, तत्र प्रदेशा-लघुतरा भागाः देशास्तु नमंसित्ता एवं वयासी- आलित्ते णं भंते! लोए' इत्यादि, महत्तराः। अयं पुनर्दण्डकः क्वचिदन्यथा दृश्यते-'कंदरदरि- व्याख्यातं चेदं प्रागिति। कुहरविवरगिरिपायारट्टालचरियदारगोउरपासायदुवारभवणदेव- ९/२१७. 'नो आढाइ' त्ति नाद्रियते तत्रार्थे नादरवान् भवति 'नो कुलआरामुज्जाणकाणणसभपएस' त्ति प्रतीतार्थश्चार्य, परिजाणइ' त्ति न परिजानातीत्यर्थः भाविदोषत्वेनोपेक्षणीय'पडिसुयासयसहस्ससंकुले करेमाणे' त्ति प्रतिश्रुच्छतसहस्र- त्वात्तस्येति॥ सङ्कलान् प्रतिशब्दलक्षसङ्कलानित्यर्थः कुर्वन् कुर्वन् ९/२२४. 'अरसेहि य' त्ति हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतत्वादविद्यमानरसैः निर्गच्छतीति सम्बन्धः। 'हयहेसियहत्थिगुलुगुलाइयरहघण- 'विरसेहि य' त्ति पुराणत्वाद्विगतरसैः 'अंतेहि य' त्ति अरसतया घणाझ्यसद्दमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमहुरेणं सर्वधान्यान्तवर्तिभिर्वल्लचणकादिभिः पंतेहि य' ति तैरेव पूरेतोउंबरं समंता सुयंधवरकुसुमचुन्नउब्विद्धवासरेणुमइलं णभं भुक्तावशेषत्वेन पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षणान्तवर्त्ति त्वात्प्रान्तैः करेंते' सुगन्धीनां-वरकुसुमानां चूर्णानां च 'उव्विद्धः' 'लूहेहि य' ति रूक्षैः 'तुच्छेहि य' त्ति अल्पैः 'कालाइक्कंतेहि ऊर्ध्वगतो यो वासरेणुः-वासकं रजस्तेन मलिनं यत्तत्तथा। य' ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तैः। ‘पमाणाइक्कंतेहि य' त्ति 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः ‘रोगायंके' त्ति रोगो-व्याधिः स वासयंते' कालागुरुः-गन्धद्रव्यविशेषः प्रवरकुन्दुरुक्कं- चासावातङ्कश्च-कृच्छ्रजीवितकारीति रोगातङ्कः 'उज्जले' त्ति वरचीडा तुरुक्कं-सिल्हकं धूपः-तदन्यः एतल्लक्षणो वा उज्ज्वलो-विपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितत्वात् 'तिउले' त्ति त्रीनपि एषामेतस्य वा यो निवहः स तथा तेन जीवलोकं वासयन्निवेति मनःप्रभृतिकानर्थान् तुलयति-जयतीति त्रितुलः क्वचिद्विपुल 'समंतओ खुभियचक्कवालं' क्षुभितानि चक्रवालानि- इत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यापकत्वात्, ‘पगाढे' त्ति जनमण्डलानि यत्र गमने तत्तथा तद्यथा भवत्येवं निर्गच्छतीति प्रकर्षवृत्तिः 'कक्कसे' ति कर्कशद्रव्यमिव कर्कशोऽनिष्ट सम्बन्धः। 'पउरजणबालवुड्डपमुइयतुरियपहावियविउलाउल- इत्यर्थः 'कडुए' त्ति कटुकं नागरादि तदिव यः स कटुकोऽनिष्ट
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परिशिष्ट - ५ : श. ९ : उ. ३३ : सू. २२४-२२८
भगवती वृत्ति
५४४
एवेति 'चंडे' त्ति रौद्रः 'दुक्खे' त्ति दुःखहेतुः 'दुग्गे' त्ति ९ / २२९. 'अत्थेगइया समणा णिग्गंथा एयमहं णो सद्दहंति' त्ति ये च कष्टसाध्य इत्यर्थः 'तिब्वे' त्ति तीव्रं तिक्तं निम्बादिद्रव्यं तदिव तीव्रः किमुक्तं भवति ? - 'दुरहियासे' त्ति दुरधिसाः 'दाहवक्कंतिए' त्ति दाहो व्युत्क्रान्तः- उत्पन्नो यस्यासौ दाहव्युत्क्रान्तः स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः । ९ / २२५. 'सेज्जासंथारगं' ति शय्यायै शयनाय संस्तारकः शय्यासंस्तारकः ॥
९/२२७, 'बलियतरं' ति गाढतरं 'किं कडे कज्जइ' त्ति किं निष्पन्न उत निष्पाद्यते ?, अनेनातीतकाल-निर्देशेन वर्त्तमानकालनिर्देशेन चकृतक्रियमाणयोर्भेद उक्तः, उत्तरेऽप्येवमेव, तदेवं संस्तारककर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्ता । ९/२२८. ततश्चासौ
स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोर्विमर्शात् प्ररूपितवान् क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते, यतो येन क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगतं तेन विद्यमानस्य करणक्रिया प्रतिपन्ना, तथा च बहवो दोषाः, तथाहि - यत्कृतं तत्क्रियमाणं न भवति, विद्यमानत्वाच्चिरन्तनघटवत्, अथ कृतमपि क्रियते ततः क्रियतां नित्यं कृतत्वात् प्रथमसमय इवेति, न च क्रियासमाप्तिर्भवति सर्वदा क्रियमाणत्वादादिसमयवदिति, तथा यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्याद् अकृतविषय एव तस्याः सफलत्वात्, तथा पूर्वमसदेव भवद्दृश्यते इत्यध्यक्षविरोधश्च, तथा घटादिकार्यनिष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते यतो नारम्भकाल एव घटादिकार्यं दृश्यते नापि स्थासकादिकाले, किं तर्हि, तत्क्रियाऽवसाने, यतश्चैवं ततो न क्रियाकालेषु युक्तं कार्यं किन्तु क्रियाऽवसान एवेति, आह च भाष्यकारः"जस्सेह कज्जमाणं कयंति तेणेव विज्जमाणस्स । करणकिरिया पवन्ना तहा य बहुदोसपडिवत्ती ॥ १ ॥ कयमिह न कज्जमाणं तब्भावाओ चिरंतणघडोव्व । अहवा कiपि कीरइ कीरउ निच्चं न य समत्ती ॥२॥ किरियावेफल्लंपि य पुव्वमभूयं च दीसए हुतं । दीस दीहो य जओ किरियाकालो घडाईणं ॥ ३ ॥ नारंभे च्चिय दीसइ न सिवाददाइ दीसइ तदंते । तो हि किरियाकाले जुत्तं कज्जं तदंतंमि ॥ ४ ॥' इति ।
न श्रद्दधति तेषां मतमिदं नाकृतं अभूतमविद्यमानमित्यर्थः क्रियते अभावात् । खपुष्पवत्, यदि पुनरकृतमपि असदपीत्यर्थः क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियतामसत्त्वाविशेषात्, अपि च-ये कृतकरणपक्षे नित्यक्रियादयो दोषा भणितास्ते च असत्करणपक्षेऽपि तुल्या वर्त्तन्ते, तथाहि नात्यन्तमसत् क्रियतेऽसद्भावात् खरविषाणमिव, अथात्यन्तासदपि क्रियते तदा नित्यं तत्करणप्रसङ्गः, न चात्यन्तासतः करणे क्रियासमाप्तिर्भवति, तथाऽत्यन्तासतः करणे क्रियावैफल्यं च स्यादसत्त्वादेव खरविषाणवत्, अथ च अविद्यमानस्य करणाभ्युपगमे नित्यक्रियादयो दोषाः कष्टतरका भवन्ति, अत्यन्ताभावरूपत्वात् खरविषाण इवेति, विद्यमानपक्षे तु पर्यायविशेषेणापर्ययणात् स्यादपि क्रियाव्यपदेशो यथाऽऽकाशं कुरू, तथा च नित्यक्रियादयो दोषा न भवन्ति, न पुनरयं न्यायोऽत्यन्तासति खरविषाणादावस्तीति, यच्चोक्तं- 'पूर्वमसदेवोत्पद्यमानं दृश्यत इति प्रत्यक्षविरोधः', तत्रोच्यते, यदि पूर्वमभूतं सद्भवदृश्यते तदा पूर्वमभूतं सद्भवत् कस्मात्त्वया खरविषाणमपि न दृश्यते यच्चोक्तं- 'दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, तत्रोच्यते', प्रतिसमयमुत्पन्नानां परस्परे - णेषद्विलक्षणानां सुबह्वीनां स्थासकोसादीनामारम्भसम निष्ठानुयायिनीनां कार्यकोटीनां दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते तदा किमत्र घटस्यायातं ? येनोच्यते- दृश्यते दीर्घश्च क्रियाकालो घटादीनामिति यच्चोक्तं- 'नारम्भ एव दृश्यते' इत्यादि, तत्रोच्यते, कार्यान्तरारम्भे कार्यान्तरं कथं दृश्यतां पटारम्भे घटवत् ?, शिवकस्थासकादयश्च कार्यविशेषा घटस्वरूपा न भवन्ति ततः शिवकादिकाले कथं घटो दृश्यतामिति ?, किंच- अन्त्यसमय एव घटः समारब्धः १, तत्रैव च यद्यसौ दृश्यते तदा को दोषः ?, एवं च क्रियमाण एव कृतो भवति, क्रियमाणसमयस्य निरंशत्वात, यदि च संप्रतिसमये क्रियाकालेऽप्यकृतं वस्तु तदाऽतिक्रान्ते कथं क्रियतां कथं वा एष्यति ? क्रियाया उभयोरपि विनष्टत्वानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादसम्बध्यमानत्वात्, तस्मात् क्रियाकाल एव क्रियमाणं कृतमिति, आह च
१. यस्येह क्रियमाणं कृतमिति मतं तेनेह विद्यमानस्य करणक्रियाऽङ्गीकृता तथा च बहुदोषापत्तिः ॥ १ ॥ इह कृतं न क्रियमाणं तद्भावाच्चिरन्तनघट इव । अथवा कृतमपि चेत् क्रियते करोतु नित्यं न च समाप्तिः ॥ २ ॥ क्रियावैफल्यमपि च पूर्वमभूतं च भवदृश्यते (दृष्टापलापः) यतो घटादीनां क्रियाकालश्च दीर्घो दृश्यते ॥ ३ ॥ न चारम्भे दृश्यते (घटादि) न स्थासकाद्यद्धायां किन्तु तदंते ततः क्रियाकाले कार्यं न युक्तं युक्तम् तदन्त एव ॥ ४ ॥
२. खपुष्पमिवाकृतं न क्रियतेऽभावादिति
स्थविरमतम् ।
अथ चाकूतमपि क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियताम् ॥ १ ॥
थेराण मयं नाकयमभावओ कीरए खपुष्पं व। अहव अकiपि कीरइ कीरउ तो खरविसाणंपि ॥ १ ॥
नित्यक्रियादयो दोषा ननु तुल्या असति कष्टतरका वा । खरविषाणमपि पूर्वमभूतं त्वया किं न दृश्यते ? || २ || प्रतिसमयोत्पन्नानां सुबहूनां परस्परविलक्षणानां । क्रियाणां कालो दीर्घो यदि दृश्यते कुम्भस्य किम् ? || ३ || अन्यारम्भेऽन्यत् कथं दृश्यताम् ? यथा पटारम्भे घटः । शिवकादयो न कुभो दृश्यतां कथं स तत्काले ? ॥४॥ अन्त एवं यद्यारब्धोऽन्त एव यदि दृश्यते को दोषः । वर्तमानेऽकृतं च चेत्कथं अतीते क्रियतां ? भविष्यति ॥५॥
कथं
चैष्यति
काले ?
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श.९ : उ. ३३,३४ : सू. २२८-२५७
निच्चकिरियाइ दोसा नणु तुल्ला असइ कट्ठतरया वा।
चतुस्त्रिंशत्तम उद्देशकः पुव्वमभूयं च न ते दीसइ किं खरविसाणंपि?॥२॥ पइसमउप्पन्नाणं परोप्पर-विलक्खणाण सुबहूणं।
अनंतरोद्देशके गुरुप्रत्यनीकतया स्वगुणव्याघात उक्तदीहो किरियाकालो जइ दीसइ किं च कुंभस्स॥३॥
श्चतुस्त्रिंशत्तमे तु पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याघात उच्यत अन्नारंभे अन्नं किह दीसउ? जह घडो पडारंभे।
इत्यैवंसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्सिवगादओ न कुंभो किह दीसउ सो तदद्धाए?॥४॥
९/२४६-२४७. 'तेण' मित्यादि, 'नोपुरिसं हणइ' ति पुरुषव्यतिअंते च्चिय आरद्धो जइ दीसइ तंमि चेव को दोसो?।
रिक्तं जीवान्तरं हन्ति 'अणेगे जीवे हणइ' ति 'अनेकान अकयं च संपड़ गए किहु कीरउ किह व एसंमि?॥५॥'
जीवान' यूकाशतपदिकाकृमिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् इत्यादि बहु वक्तव्यं तच्च विशेषावश्यकादवगन्तव्यमिति।
तच्छरीरावष्टब्धांस्तदुधिरप्लावितादींश्च हन्ति, अथवा स्वका९/२३०. 'छउमत्थावक्कमणेणं ति छद्मस्थानां सतामपक्रमणं- यस्याकुञ्चनप्रसारणादिनेति, 'छणइ' त्ति क्वचित्पाठस्तत्रापि स गुरुकुलान्निर्गमनं छद्मस्थापक्रमणं तेन।
एवार्थः, क्षणधातोहिँसार्थत्वात्, बाहुल्याश्रयं चेदं सूत्रं, तेन ९/२३१. 'आवरिज्जई' ति ईषद्वियते 'निवारिज्जइ' ति नितरां
पुरुषं घ्नन् तथाविधसामग्रीवशात् कश्चित्तमेव हन्ति वार्यते प्रतिहन्यत इत्यर्थः।
कश्चिदेकमपि जीवान्तरं हन्तीत्यपि द्रष्टव्यं, वक्ष्यमाणभङ्ग९/२३३. 'न कयाइ नासी' त्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न
कत्रयान्यथाऽनुपपत्तेरिति। कदाचिन्न भवति सदैव भावात न कदाचिन्न भविष्यति ९/२४८. 'एते सव्वे एक्कगमा' 'एते हस्त्यादयः 'एकगमाः' अपर्यवसितत्वात्, किं तर्हि ?, 'भुविं चे' त्यादि ततश्चायं
सदृशाभिलापाः। त्रिकालभावित्वेनाचलत्वाद् ध्रुवो मेर्वादिवत ध्रवत्वादेव 'नियतः' ९/२४९,२५०. 'इसिं' ति ऋषिम् 'अणंते जीवे हणइ' ति ऋषि नियताकारो नियतत्वादेव शाश्वतः प्रतिक्षणमप्यसत्त्वस्याभावात्
घ्नन्ननन्तान् जीवान् हन्ति, यतस्तद्घातेऽनन्तानां घातो भवति, शाश्वतत्वादेव 'अक्षयः' निर्विनाशः, अक्षयत्वादेवाव्ययः
मृतस्य तस्य विरतेर-भावेनानन्तजीवघातत्वभावात्, अथवा प्रदेशापेक्षया, अवस्थितो द्रव्यापेक्षया, नित्यस्तदुभयापेक्षया,
ऋषिर्जीवन बहून् प्राणिनः प्रतिबोधयति, ते च प्रतिबद्धाः क्रमेण एकार्था वैते शब्दाः ।
मोक्ष-मासादयन्ति, मुक्ताश्चानन्तानामपि संसारिणामघातका ९/२३५. 'आयाए' ति आत्मना 'असब्भावुब्भावणाहिं त्ति
भवन्ति, तद्वधे चैतत्सर्वं न भवत्यतस्तद्वधेऽनन्तजीववधो असद्धावानां-वितथार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असद्भावोद्
भवतीति, 'निक्लेवओ' त्ति निगमनं। भावनास्ताभिः 'मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य' ति मिथ्यात्वात
९/२५१. 'नियमा पुरिसवेरेणे' त्यादि, पुरुषस्य हतत्वान्नियमामिथ्यादर्शनोदयाद् येऽभिनिवेशा-आग्रहास्ते तथा तैः
त्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भङ्गः, तत्र च यदि प्राण्यन्तरमपि 'वुग्गाहेमाणे' ति व्युग्राहयन् विरुद्धग्रहवन्तं कुर्वन्नित्यर्थः
हतं तदा पुरुषवैरेण नोपुरुषवरेण चेति द्वितीयः, यदि तु बहवः 'वुप्पाएमाणे त्ति व्युत्पादयन् दुर्विदग्धीकुर्वन्नित्यर्थः।
प्राणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवैरेण नोपुरुषवैरैश्चेति तृतीयः, एवं ९/२४०. 'केसु कम्मादाणेसु' त्ति केषु कर्महतुषु सत्स्वित्यर्थः
__ सर्वत्र त्रयम्। 'अजसकारगे' त्यादौ सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशस्त- १/२५२. ऋषिपक्ष तु ऋाषवरण
मा ९/२५२. ऋषिपक्षे तु ऋषिवरेण नोऋषिवैरैश्चेत्येवमेक एव, ननु यो त्प्रतिषेधादयशः, अवर्णस्त्वप्रसिद्धिमात्रम्, अकीर्तिः
मृतो मोक्षं यास्यत्यविरतो न भविष्यति तस्यर्षेर्वधे ऋषिवैरमेव पुनरेकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरिति।
भवत्यतः प्रथमविकल्पसम्भवः, अथ चरमशरीरस्य निरुपक्र९/२४२. 'अरसाहारे' त्यादि, इह च 'अरसाहारे' इत्याद्यपेक्षया
मायुष्यकत्वान्न हननसम्भवस्ततोऽचरमशरीरापेक्षया यथोक्त'अरसजीवी' त्यादि न पुनरुक्तं शीलादिप्रत्ययार्थेन भिन्नार्थ
भङ्गकसम्भवो, नैवं, यतो यद्यपि चरमशरीरो निरुपक्रमात्वादिति, 'उवसंतजीवि' ति उपशान्तोऽन्तर्वृत्त्या जीवतीत्ये
युष्कस्तथाऽपि तद्वधाय प्रवृत्तस्य यमुनराजस्येव वैरमस्त्येवेति वंशील उपशान्तजीवी, एवं प्रशान्तजीवी नवरं प्रशान्तो
प्रथमभङ्गकसम्भव इति, सत्यं, किन्तु यस्य ऋषेः बहिर्वृत्त्या, "विवित्तीवि' त्ति इह विविक्तः स्त्र्यादिसंस
सोपक्रमायुष्कत्वात् पुरुषकृतो वधो भवति तमाश्रित्येदं सूत्रं क्तासनादिवर्जनत इति। अथ भगवता श्रीमन्महावीरेण
प्रवृत्तं, तस्यैव हननस्य मुख्यवृत्त्या पुरुषकृतत्वादिति। सर्वज्ञत्वादमुं तव्यतिकरं जानताऽपि किमिति प्रबाजितोऽसौ ?
प्राग् हननमुक्तं, हननं चोच्छ्वासादिवियोगऽत इति, उच्यते, अवश्यम्भाविभावानां महानुभावैरपि प्रायो
उच्छवासादिवक्तव्यतामाहलङ्घयितुमशक्यत्वाद् इत्थमेव वा गुणविशेषदर्शनाद्, अमूढलक्षा।
९/२५३-२५७. 'पुढविक्काइए णं भंते' इत्यादि, इह पूज्यव्याख्या हि भगवन्तोऽर्हन्तो न निष्प्रयोजनं क्रियासु प्रवर्तन्त इति।।
यथा वनस्पतिरन्ययोपर्यन्यः स्थितस्तत्तेजोग्रहणं करोति एवं नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः ॥९/३३॥
पृथिवीकायिकादयोप्यन्योन्यसंबद्धत्वात्तत्तद्रूपं प्राणापानादि कुर्वन्तीति, तत्रैकः पृथिवीकायिकोऽन्यं स्वसंबद्धं पृथिवीकायिकम्
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परिशिष्ट-५: श.९ : उ. ३४ : सू. २५७-२६१ ५४६
भगवती वृत्ति अनिति-तद्रूपमुच्छ्वासं करोति। यथोदर स्थितकर्पूरः पुरुषः क्रियाधिकारादेवेदमाहकर्पूरस्वभावमुच्छ्वासं करोति, एवमप्य-कायादिकानिति। एवं ९/२६१. 'वाउक्काइए ण' मित्यादि, इह च वायुना वृक्षमूलस्य पृथिवीकायिकसूत्राणि पञ्च, एवमेवाप्कायादयः प्रत्येकं पञ्च प्रचलनं प्रपातनं वा तदा संभवति यथा नदीभित्त्यादिषु पृथिव्या सूत्राणि लभन्त इति पञ्चविंशतिः सूत्राण्येतानीति।
अनावृत्तं तत्स्यादिति। अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियत्वं परितापादेः ९/२५८-२६०. क्रियासूत्राण्यपि पञ्चविंशतिस्तत्र 'सिय तिकिरिए' सम्भवात् ?, उच्यते, अचेतनमूलापेक्षयेति।। त्ति यदा पृथिवीकायिकादिः पृथिवीकायिकादिरूपमुच्छवासं
नवमशते चतुस्त्रिंशत्तमः कुर्वन्नपि न तस्य पीड़ामुत्पादयति स्वभावविशेषात्तदाऽसौ अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणा,श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसर्पितेजसा। कायिक्यादित्रिक्रियः स्यात्, यदा तु तस्य पीडामुत्पादयति तदा दुष्यसमोहतमोऽपसारणाद्, विभक्तमेवं नवमं शतं मया॥१॥ पारितापनिकीक्रियाभावाच्चतुष्क्रियः, प्राणातिपातसद्भावे तु
| समाप्तं नवमं शतम्॥१॥ पञ्चक्रिय इति॥
॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिविरचितवृत्तियुतं नवमं शतकं समाप्त।।
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५: श. १० : उ.१ : सू.१-७
पुद्गलादीनामस्तित्वादजीवाः धर्मास्तिकायादिदेशानां पुनरस्तित्वादजीवदेशाः एवमजीवप्रदेशा अपीति. तत्र ये जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनः, ये तु जीवदेशास्त एकेन्द्रियादीनाम् ६, एवं जीवप्रदेशा अपि, 'जे
अरुवी अजीवा ते सत्तविह' त्ति कथं ?, नोधम्मत्थिकाए, अथ दशमं शतकम्
अयमर्थः-धर्मास्तिकायः समस्त एवोच्यते, स च प्राचीदिग् न
भवति, तदेकदेशभूतत्वात्तस्याः, किन्तु धर्मास्तिकायस्य देशः, व्याख्यातं नवमं शतम्, अथ दशमं व्याख्यायते, अस्य सा तदेकदेशभागरूपेति १, तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति, चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिताः असङ्ख्येयप्रदेशात्मकत्वात्तस्याः २, एवमधर्मास्तिकायस्य देशः इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्या- प्रदेशाश्च ३-४, एवमाकाशास्तिकायस्यापि देशः प्रदेशाश्च ५. स्योद्देशकार्थसङ्गहगाथेयम्
६, अद्धासमयश्चेति ७, तदेवं सप्तप्रकारारूप्यीवरूपा ऐन्द्री 'दिसे' त्यादि, 'दिस' ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः १ दिगिति।। 'संवुडअणगारे' त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः २ 'आइड्डि ति १०/६. 'अग्गेयी ण' मित्यादिप्रश्नः, उत्तरे तु जीवा निषेधनीयाः, आत्मा देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिक्रामेदित्याद्यर्थाभि- विदिशामेक-प्रदेशिकत्वादेकप्रदेशे च जीवानामवगाहाभावात्, धायकस्तृतीयः ३ 'सामहत्थि' त्ति श्यामहस्त्यभिधान- असङ्ख्यात प्रदेशावगाहित्वात्तेषां, तत्र 'जे जीवदेसा ते नियमा श्रीमन्महावीरशिष्यप्रश्नप्रतिबद्धश्चतुर्थः ४ 'देवि' त्ति चमराद्य- एगिदियदेस' त्ति एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादाग्नेय्यां ग्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५ 'सभ' त्ति सुधर्मसभाप्रतिपाद- नियमादे-केन्द्रियदेशाः सन्तीति, ‘अहवे' त्यादि, एकेन्द्रियाणां नार्थः षष्ठः ६ 'उत्तरअंतरदीवि' त्ति उत्तरस्यां दिशि सकललोकव्यापकत्वादेव द्वीन्द्रियाणां चाल्पत्वेन क्चचि. येऽन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशति-रुद्देशकाः, एवं देकस्यापि तस्य सम्भवादुच्यते एकेन्द्रियाणां देशाश्च चादितो दशमे शते चतुस्त्रिंशदुद्देशका भवन्तीति।
द्वीन्द्रियस्य देशश्चेति द्विकयोगे प्रथमः, अथवैकेन्द्रियपदं तथैव
द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं देशपदे पुनर्बहवचनमिति द्वितीयः अयं च प्रथम उद्देशकः
यदा द्वीन्द्रियो व्यादिभिर्देशैस्तां स्पृशति तदा स्यादिति, १०/१. 'किमियं भंते ! पाईणत्ति पवुच्चइ' ति किमेतद्वस्तु यत् प्रागेव
अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदं देशपदं च बहुवचनान्तमिति प्राचीनं दिगविवक्षायां प्राची वा' प्राची पूर्वेति प्रोच्यते, उत्तरं तु
तृतीयः, स्थापना-एगिं. देसा ३ बेइं १ देसे एगि. देसा ३ बेइं जीवाश्चैव अजीवाश्चैव, जीवा-जीवरूपा प्राची, तत्र जीवा- १ देसा ३ एगिं. देसा ३ बेइं. ३ देसा३।' एवं त्रीन्द्रियएकेन्द्रियादयः अजीवास्तु-धर्मास्तिकायादिदेशादयः, इदमुक्तं
चतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियैः सह प्रत्येकं भङ्गकत्रयं दृश्यम्, भवति-प्राच्यां दिशि जीवा अजीवाश्च सन्तीति।
एवं प्रदेशपक्षोऽपि वाच्यो, नवरमिह द्वीन्द्रियादिषु प्रदेशपदं १०/४. 'इंदे' त्यादि, इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री, अग्निर्देवता यस्याः
बहुवचनान्तमेव, यतो लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां साऽऽग्नेयी, एवं यमो देवता याम्या, निर्ऋतिर्देवता नैर्ऋती,
यत्रैकः प्रदेशस्तत्रासङ्ख्यातास्ते भवन्ति। लोकाव्यापकाववरुणो देवता वारुणी, वायुर्देवता वायव्या, सोमदेवता सौम्या,
स्थानिन्द्रियस्य पुनर्यद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्रदेशस्तथाऽपि ईशानदेवता ऐशानी, विमलतया विमला, तमा रात्रिस्तदाकार
तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्रदेशानामसङ्ख्यातानामत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः। अत्र ऐन्द्री पूर्वा शेषाः क्रमेण, विमला
वगाढत्वाद्, अतः सर्वेषु द्विकयोगेष्वाद्यविरहितं भङ्गकद्वयमेव तूां तमा पुनरधोदिगिति, इह च दिशः शकटोद्भिसंस्थिताः
भवतीत्येतदेवाह-'आइल्लविरहिओ-त्ति द्विकभङ्ग इति शेषः। विदिशस्त मक्तावल्याकाराः कुर्बाधोदिशौ च सकाकारे १०/७. 'विमलाए जीवा जहा अग्गेईए' त्ति विमलायामपि जीवानाआह च
मनवगाहात् 'अजीवा जहा इंदाए' त्ति समानवक्तव्यत्वात्, ‘एवं "सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि।
तमावि' त्ति विमलावत्तमाऽपि वाच्येत्यर्थः, अथ विमलायामुत्तावलीव चउरो दो चेव य होति स्यगनिभे॥१॥
मनिन्द्रियसम्भवात्तद्देशादयो युक्तास्तमायां तु तस्या
सम्भवात्कथं ते? इति, उच्यते, दण्डाद्यवस्थं तमाश्रित्य तस्य १०/५. 'जीवावी' त्यादि, ऐन्द्री दिग् जीवा तस्यां जीवानामस्ति
देशो देशाः प्रदेशाश्च विवक्षायां तत्रापि युक्ता एवेति। अथ त्वात, एवं जीवदेशा जीवप्रदेशाश्चेति, तथाऽजीवानां
तमायां विशेषमाह- 'नवर' मित्यादि, 'अद्धासमयो न भन्नइ' त्ति
इति ।
१. शकटोद्धिसंस्थिताश्चतस्रो महादिशो भवन्ति चतस्रो। मुक्तावलीव चतस्रः, द्वे च रुचकनिभे भवतः।।१।। (ऊर्ध्वाधोदिशौ)
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परिशिष्ट-५ : श. १० : उ.१,२ : सू. ७-१५
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भगवती वृत्ति
समयव्यवहारो हि सञ्चरिष्णुसूर्यादिप्रकाशकृतः स च तमायां द्रष्टव्यं, 'नो ईरियावहिया किरिया कज्जइ' त्ति न केवलयोगनास्तीति तत्राद्धासमयो न भण्यत इत्यर्थः। अथ विमलायामपि प्रत्यया कर्मबन्धक्रिया भवति सकषायत्वात्तस्येति। नास्त्यसाविति कथं तत्र समयव्यवहारः? इति, उच्यते, १०/१२. 'जस्स णं कोहमाणमायालोभा' इह ‘एवं जहे' त्याद्यतिमन्दरावयवभूयस्फटिककाण्डे सूर्यादिप्रभासङ्क्रान्तिद्वारेण तत्र देशादिदं दृश्य--वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया सञ्चरिष्णुसूर्यादिप्रकाशभावादिति।।।
कज्जइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवोच्छिन्ना भवंति तस्स अनन्तरं जीवादिरूपा दिशः प्ररूपिताः। जीवाश्च शरीरिणोऽपि णं संपराइया किरिया कज्जइ, अहासुत्तं रीयं रीयमाणस्स भवन्तीति शरीरप्ररूपणायाह
ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुतं रीयं रीयमाणस्स १०/८-९. 'कइ णं भंते! इत्यादि, 'ओगाहणसंठाणं' ति संपराइया किरिया कज्जई' त्ति व्याख्या चास्य प्राग्वदिति। 'से
प्रज्ञापनायामेकविंशतितमं पदं, तच्चैवं-पंचविहे पन्नत्ते, तं णं उस्सुत्तमेव' ति स पुनरुत्सूत्रमेवागमातिक्रमणत एव 'रीयइ जहा-एगिदियओरालियशरीरे जाव पंचिंदियओरालियसरीरे इत्यादि, पुस्तकान्तरे त्वस्य सङ्ग्रहगाथोपलभ्यते, सा चेयम्- १०/१३. 'संवुडस्से' त्याद्युक्तविपर्ययसूत्रं, तत्र च 'अवीइ' त्ति 'कइसंठाणपमाणं पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो।
'अवीचिमतः' अकषायसम्बन्धवतः 'अविविच्य' वा अपृथग्भूय दव्वपए-सप्पबहुं सरीरओगाहणाए या॥१॥'
यथाऽऽख्यातसंयमात्, अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः तत्र च कतीति कति शरीराणीति वाच्यं, तानि पुनरौदारिकादीनि अविकृति वा यथा भवतीति॥ पञ्च, तथा 'संठाणं' ति औदारिकादीनां संस्थानं वाच्यं, यथा अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां च प्रायो योनिप्राप्तिर्भवतीति नानासंस्थानमौदारिकं, तथा ‘पमाणं' ति एषामेव प्रमाणं वाच्यं, योनिप्ररूपणायाहयथा-औदारिकं जघन्यतोऽङ्गलासङ्ख्येयभागमात्रमुत्कृष्टतस्तु १०/१५. 'कतिविहा ण' मित्यादि, तत्र च 'जोणि' ति 'यु मिश्रणे सातिरेकयोजनसहस्रमानं, तथैषामेव पुद्गलचयो वाच्यो, इतिवचनाद् युवन्ति-तैजसकार्मणशरीरवन्त औदारिकादियथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षट्सु दिक्षु व्याघातं प्रतीत्य शरीरयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवा यस्यां सा स्यात्विदिशीत्यादि, तथैषामेव संयोगो वाच्यो, यथा योनिः, सा च त्रिविधा शीतादिभेदात्, तत्र 'सीय' त्ति यस्यौदारिकशरीरं तस्य वैक्रियं स्यादस्तीत्यादि, तथैषामेव शीतस्पर्शा 'उसिण' ति उष्णस्पर्शा 'सीओसिण' त्ति द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वं, वाच्यं यथा 'सव्वत्थोवा द्विस्वभावा ‘एवं जोणीपयं निरवसेसं भाणियव्वं' ति योनिपदं च आहारगसरीरा दव्वट्ठयाए' इत्यादि, तथैषामेवावगाहनाया प्रज्ञापनायां नवमं पदं, तच्चेदं-'नेरइयाणं भंते! किं सीया जोणी अल्पबहुत्वं वाच्यं, यथा 'सव्वत्थोवा ओरालियसरीरस्स उसिणा जोणी सीओसिणा जोणी?, जहन्निया ओगाहणा' इत्यादि।
गोयमा! सीयावि जोणी उसिणावि जोणी नो सीओसिणा दशमशते प्रथमोद्देशकः॥१०।१।।
जोणी' त्यादि, अयमर्थः- ‘सीयावि जोणि' त्ति आद्यासु तिसृषु
नरकपृथिवीषु चतुर्थ्यां च केषुचिन्नरकावासेषु नारकाणां द्वितीय उद्देशकः
यदुपपातक्षेत्रं तच्छीतस्पर्शपरिणतमिति तेषां शीताऽपि योनिः,
'उसिणावि जोणि' त्ति शेषासु पृथिवीषु चतुर्थपृथिवीनरकावासेषु अनन्तरोद्देशकान्ते शरीराण्युक्तानि शरीरी च क्रियाकारी
च केषुचिन्नारकाणां यदुपपातक्षेत्रं तदुष्णस्पर्शपरिणतमिति भवतीति क्रियाप्ररूपणाय द्वितीय उद्देशकः, तस्य ।
तेषामुष्णाऽपि योनिः, 'नो सीओसिणा जोणि' ति न चेदमादिसूत्रम्
मध्यमस्वभावा योनिस्तथास्वभावत्वात्, शीतादियोनि१०/११. 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र 'संवुडस्स' त्ति संवृतस्य ।
प्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्रायेणैवंसामान्येन प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारसंवरोपेतस्य 'बीईपंथे ठिच्चे'
'सीओसिणजोणीया सव्वे देवा य गब्भवक्कंती। ति वीचिशब्दः सम्प्रयोगे, स च सम्प्रयोगोईयोर्भवति, ततश्चेह
उसिणा य तेउकाए दुह निरए तिविह सेसेषु॥१॥' कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च
'गब्भवक्कंति' ति गोत्पत्तिकाः,। वीचिमतः कषायवतो मतुप्प्रत्ययस्य षष्ठ्याश्च लोपदर्शनात्,
(शीतोष्णयोनिकाः सर्वे देवाश्च गर्भव्युत्पत्तिकाः। अथवा 'विचिर् पृथग्भावे' इति वचनाद् विविच्य-पृथग्भूय
उष्णा च तेजःकाये द्विधा नरके त्रिविधा शेषेषु ।।१।।) यथाऽऽख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः, अथवा
तथा-'कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता?, गोयमा! तिविहा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः, अथवा विरूपा कृतिः-क्रिया
जोणी पन्नत्ता, तं जहा-सच्चित्ता अचित्ता मीसिया' इत्यादि, सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं स्थित्वा
सच्चित्तादियोनिप्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्रायेणैवम्'पंथे' ति मार्गे 'अवयक्खमाणस्स' त्ति अवकाङ्गतोऽपेक्षमाणस्य
'अच्चित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं। वा, पथिग्रहणस्य चोपल-क्षणत्वादन्यत्राप्याधारे स्थित्वेति
मीसा य गब्भवासे तिविहा पुण होइ सेसेसु॥२॥
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. १० : उ. २ : सू. १५-२१
एवम
(अचित्ता खलु योनि रकाणां तथैव देवानां ।
शारीरीमेव, तथा 'तिविहा वेयणा साया असाया सायासाया' मिश्रा च गर्भवासे त्रिविधा पुनर्भवति शेषेषु ।।१।।)
सर्वे संसारिणस्त्रिविधामपि। तथा 'तिविहा वेयणा-दुक्खा सुहा सत्यप्येकेन्द्रियसूक्ष्मजीवनिकायसम्भवे नारकदेवानां अदुक्खमसुहा' सर्वे त्रिविधामपि, सातासातसुखदुःखयोश्चार्य यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिज्जीवन परिगृहीतमित्यचित्ता तेषां विशेषः-सातासाले अनुक्रमेणोदयप्राप्तानां वेदनीयकर्मयोनिः। गर्भवासयोनिस्तु मिश्रा शुक्रशोणितपुगलानामचित्ताणां पुद्गलानामनुभवरूपे, सुखदुःखे तु परोदीर्यमाणवेदनीयानुगर्भाशयस्य सचेतनस्य भावादिति, शेषाणां पृथिव्यादीनां भवरूपे, तथा 'दुविहा वेयणा-अब्भुवगमिया उवक्कमिया' संमूर्च्छनजानां च मनुष्यादीनामुपपातक्षेत्रे जीवेन परिगृहीते - आभ्युपगमिकी या स्वयमभ्युपगम्य वेद्यते यथा साधवः परिगृहीते उभयरूपे चोत्पत्तिरिति त्रिविधाऽपि योनिरिति। केशोल्लुञ्चनातापनादिभिर्वेदयन्ति औपक्रमिकी तु तथा-'कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता?, गोयमा ! तिविहा स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्यस्यानुजोणी पन्नत्ता, तं जहा-संवुडाजोणी वियडाजोणी संवुड- भवात, द्विविधामपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च वियडाजोणी' त्यादि, संवृत्तादियोनिप्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्राय शेषास्त्वौपक्रमिकीमेवेति, तथा 'दुविहा वेयणा-निदा य अनिदा
य' निदा-चित्तवती विपरीता त्वनिदेति, सजिनो द्विविधा'एगिदियनेरइया संवुडजोणी तहेव देवा य।
मसजिनस्त्वनिदामेवेति। इह च प्रज्ञापनायां द्वारगाथाऽस्ति, विगलिंदिएसु वियडा संवुडवियडा य गम्भंमि॥१॥'
सा चेयं(एकेन्द्रिया नैरयिकाः संवृतयोनयस्तथैव देवाश्च ।
'सीया य दव्व सारीर साय तह वेयणा हवइ दुक्खा। विकलेन्द्रियाणां विवृता संवृतविवृता च गर्भे ।।१।।)
अब्भुवगमवक्कमिया निदा य अनिदा य नायव्वा॥१॥' एकेन्द्रियाणां संवृता योनिस्तथास्वभावत्वात्, नारकाणामपि अस्याश्च पूर्वार्दोक्तान्येव द्वाराण्यधिकृतवाचनायां सूचितानि संवृतैव, यतो नरकनिष्कुटाः संवृतगवाक्षकल्पास्तेषु च यतस्तत्राप्युक्तं निदा य अनिदा य वज्ज' ति।। जातास्ते वर्द्धमानमूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्यो निष्कुटेभ्य वेदनाप्रस्तावाद्वेदनाहेतुभूतां प्रतिमा निरूपयन्नाहउष्णेषु नरकेषु उष्णेभ्यस्तु शीतेष्विति, देवानामपि संवृतैव यतो १०/१८. 'मासियण्ण' मित्यादि, मासः परिमाणं यस्याः सा मासिकी देवशयनीये दूष्यान्तरितोऽङ्गलासङ्ख्यातभागमात्रावगाहनो देव तां 'भिक्षुप्रतिमा' साधुप्रतिज्ञाविशेषं 'वोसट्टे काए' त्ति व्युत्सृष्टे उत्पद्यत इति। तथा-'कतिविहा णं भंते! जोणी पन्नत्ता?, स्नानादिपरिकर्मवर्जनात् 'चियत्ते देहे' ति त्यक्ते गोयमा! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तं जहा-कुम्मुन्नया संखावत्ता वधबन्धाद्यवारणात, अथवा 'चियत्ते' संमते प्रीतिविषये वंसीपने' त्यादि, एतद्वक्तव्यतासङ्ग्रहश्चैवं
धर्मसाधनेषु प्रधानत्वाद्देहस्येति ‘एवं मासिया भिक्खु-पडिमा' संखावत्ता जोणी इत्थीरयणस्स होति विन्नेया।
इत्यादि, अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं--जे केइ परीसहोवसग्गा तीए पुण उप्पन्नो नियमा उ विणस्सई गब्भो॥१॥
उप्पज्जंति, तं जहा-दिव्वा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा कुम्मुन्नयजोणीए तित्थयरा चक्किवासुदेवा य।
ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेई त्यादि, तत्र रामावि य जायते सेसाए सेसगजणो उ॥२॥'
सहते स्थानाविचलनतः क्षमते क्रोधाभावात् तितिक्षते (स्त्रीरत्नस्य शङ्खावर्ता योनिर्भवति विज्ञेया।
दैन्याभावात् क्रमेण वा मनःप्रभृतिभिः किमुक्तं भवति?तस्यामुत्पन्नो गर्भः पुनर्नियमात्तु विनश्यति॥१॥
अधिसहत इति।। कूर्मोन्नतायां योनौ तीर्थङ्करचक्रिवासुदेवा।
आराहिया भवतीत्युक्तमथाराधनाः यथा न स्याद्यथा च रामाश्च जायन्ते शेषायां तु शेषकजनः ।।२।।)
स्यात्तद्दर्शयन्नाह१०/१६. अनन्तरं योनिरुक्ता, योनिमतां च वेदना भवन्तीति १०/१९. 'भिक्खू य अन्नयरं अकिच्चट्ठाण' मित्यादि, इह चशब्द -
तत्प्ररूपणायाह-'कइविहा ण' मित्यादि, ‘एवं वेयणापयं श्चेदितस्यार्थे वर्त्तते, स च भिक्षोरकृत्यस्थानासेवनस्य भाणियव्वं ति वेदनापदं च प्रज्ञापनाया पञ्चत्रिंशत्तमं, तच्च प्रायेणासम्भवप्रदर्शनपरः 'पडिसेवित्त' ति अकृत्यस्थानं लेशतो दर्शाते-'नेरझ्याणं भंते ! किं सीयं वेयणं वेयंति ३?, प्रतिषेविता भवतीति गम्यं, वाचनान्तरे त्वस्य स्थाने गोयमा! सीयंपि वेयणं वेयंति एवं उसिणंपि णो सीओसिणं' 'पडिसेविज्ज' त्ति दृश्यते, ‘से णं' ति स भिक्षुः 'तस्स ठाणस्स' एवमसुरादयो वैमानिकान्ताः ‘एवं चउव्विहा वेयणा दव्वओ त्ति तत्स्थानम्। खेत्तओ कालओ भावओ तत्र पुद्गलद्रव्यसम्बन्धाद्व्यवेदना १०/२१. 'अणपन्नियदेवत्तणंपि नो लभिस्सामि' त्ति अणपन्निकानारकादिक्षेत्रसम्बन्धात्क्षेत्रवेदना नारकादिकालसम्बन्धात्काल- व्यन्तरनिकायविशेषास्तत्सम्बन्धिदेवत्वमण-पन्निकदेवत्वं तदपि वेदना शोकक्रोधादिभावसम्बन्धाद्भाववेदना, सर्वे नोपलप्स्य इति। संसारिणश्चतुर्विधामपि, तथा 'तिविहा वेयणा--सारीरा माणसा
दशमशतस्य द्वितीयोद्देशकः॥१०॥२॥ सारीरमाणसा' समनस्कास्त्रिविधामपि असज्ञिनस्तु
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परिशिष्ट-५ : श. १० : उ. ३,४ : सू. २३-४८
भगवती वृत्ति तृतीय उद्देशकः
पाणवहाओ नियत्ता भवंति दीहाउया अरोगा य।
एमाई पन्नवणी पन्नता वीयरागेहिं॥१॥' द्वितीयोद्देशकान्ते देवत्वमुक्तम्। अथ तृतीये देव
(प्राणवधान्निवृत्ता दीर्घायुषोऽरोगाश्च भवन्तीत्यादिः प्रज्ञापनी स्वरूपमभिधीयते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
भाषा वीतरागैः प्रज्ञप्ता॥१|) १०/२३. 'रायगिहे' इत्यादि. 'आइडीए णं' ति आत्मा 'पच्चक्खाणीभास' त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्यादित्सा मे अतो स्वकीयशक्त्या, अथवाऽऽत्मन एव ऋद्धिर्यस्यासावात्मद्धिकः
मां मा याचस्वेत्यादि प्रत्याख्यानरूपा भाषा 'इच्छाणुलोम' त्ति 'देवे ति सामान्यः 'देवावासंतराई' ति देवावासविशेषान् 'वीइक्कते' प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा-तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा त्ति 'व्यतिक्रान्तः' लखितवान, क्वचिद् व्यतिव्रजतीति पाठः,
कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः। 'तेण परं' ति ततः परं 'परिडीए' त्ति परद्ध्या परर्द्धिको वा। 'अणभिग्गहिया भासा' अनभिगृहीता अर्थानभिग्रहेण योच्यते १०/२६. 'विमोहित्ता पभु' त्ति 'विमोह्य' महिकाद्यन्धकारकरणेन डित्थादिवत् 'भासा य अभिग्गहमि बोद्धव्वा' भाषा चाभिग्रहे मोहमुत्पाद्य अपश्यन्तमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः।
बोन्द्रव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, 'संसयकरणी भास' १०/३१. 'एवं असुरकुमारेणवि तिन्नि आलावग' त्ति अल्पर्द्धिकमह
त्ति याउनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी यथा सैन्धवशब्द: र्द्धिकयोरेकः समर्द्धिकयोरन्यः महर्द्धिकाल्पर्द्धिकयोरपर इत्येवं
पुरुषलवणवाजिषु वर्तमान इति 'वोयड' ति व्याकृता त्रयः, 'ओहिएणं देवेणं' ति सामान्येन देवेन १,।
लोकप्रतीतशब्दार्था 'अव्वोयड' त्ति अव्याकृता-गम्भीर१०/३२,३३. एवमालापकत्रयोपेतो देवदेवीदण्डको वैमानिकान्तो- शब्दार्था मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वाऽनाविर्भावितार्था, ‘पन्नवणी णं' ऽन्यः ।
ति प्रज्ञाप्यतेऽनयेति प्रज्ञापनी-अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः। 'न १०/३४,३५. एवमेव च देवीदेवदण्डको वैमानिकान्त एवापरः ३,।
एसा मोस' त्ति नैषा मृषा-नार्थानभिधायिनी नावक्तव्येत्यर्थः, १०/३६-३८. एवमेव च देव्योर्दण्डकोऽन्यः ४ इत्येवं चत्वार एते पृच्छतोऽयमभिप्रायः-आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा दण्डकाः।।
भविष्यत्कालविषया सा चान्तरायसम्भवेन व्यधिचारिण्यपि अनन्तरं देवक्रियोक्ता, सा चातिविस्मयकारिणीति विस्मयकरं स्यात् तथैकार्थविषयाऽपि बहुवचनान्त-तयोक्तेत्येवमयथार्था वस्त्वन्तरं प्रश्नयन्नाह
तथा आमन्त्रणीप्रभृतिका विधिप्रतिषेधाम्यां न सत्यभाषा१०/३९. 'आसस्से' त्यादि, 'हिययस्स य जगयस्स य' त्ति हृदयस्य
वद्वस्तुनि नियतेत्यतः किमियं वक्तव्या स्यात् ? इति, उत्तरं तु यकृतश्च-दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषस्य 'अन्तरा' 'हंता' इत्यादि, इदमत्र हृदयम्-आश्रयिष्याम इत्यादिअन्तराले॥
काऽनवधारणत्वाद्वर्त्तमानयोगेनेत्येद्विकल्पगत्वादात्मनि गुरौ अनन्तरं 'खुखु' त्ति प्ररूपितं तच्च शब्दः, स च भाषारूपोऽपि
चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्यानुमतत्वात्प्रज्ञापन्येव, तथाऽऽस्यादिति भाषाविशेषान् भाषणीयत्वेन प्रदर्शयितुमाह--
मन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधि-प्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या १०/४०. 'अह भंते!' इत्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः भंते!' ति
निरवद्यपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येवेति।। भदन्त ! इत्येवं भगवन्तं महावीरमामन्त्र्य गौतमः पृच्छति
दशमशते तृतीयोद्देशकः 'आसइस्सामो' ति आश्रयिष्यामो वयमाश्रयणीयं वस्तु 'सइस्सामो' त्ति शयिष्यामः 'चिट्ठिस्सामो' त्ति ऊर्ध्वस्थानेन
चतुर्थ उद्देशकः स्थास्यामः 'निसिइस्सामो' ति निषेत्स्याम उपवेक्ष्याम इत्यर्थः
तृतीयोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते 'तुयट्टिस्सामो' त्ति संस्तारके भविष्याम इत्यादिकाका भाषा किं
इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्प्रज्ञापनी? इति योगः।।
१०/४२. 'तेण' मित्यादि। अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजातीयानां
१०/४६. 'तायत्तीसग' त्ति त्रायस्त्रिंशा-मन्त्रिविकल्पाः । प्रज्ञापनीयत्वं पृष्टमथ भाषा-जातीनां तत्पृच्छति-'आमंतणि' गाहा, तत्र आमन्त्रणी हे देवदत्त! इत्यादिका, एषा च किल
१०/४७. 'तायत्तीसं सहाया गाहावइ' ति त्रयस्त्रिंशत्परिमाणाः
'सहायाः' परस्परेण साहायककारिणः 'गृहपतयः' वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षण
कुटुम्बनायकाः। वियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनादावुक्ता, एवमाज्ञापन्यादिकामपि, 'आणवणि' त्ति आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा
१०/४८. 'उग्ग' ति उग्रा उदात्ता भावतः 'उग्गविहारि' त्ति घटं कुरु 'जायणि' ति याचनी-वस्तुविशेषस्य देहीत्येवंमार्गण
उदात्ताचाराः सदनुष्ठानत्वात् 'संविग्ग' नि संविग्नाः-मोक्षं
प्रति प्रचलिताः संसारभीरवो वा 'संविग्गविहारि' त्ति रूपा तथेति समुच्चये 'पुच्छणी य' त्ति प्रच्छनी-अविज्ञातस्य
संविग्नविहार:-संविग्नानुष्ठानमस्ति येषां ते तथा 'पासत्थि' त्ति संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा ‘पण्णवणि'
ज्ञानादिबहिर्वर्त्तिनः ‘पासस्थविहारी' त्ति आकालं पार्श्व. त्ति प्रज्ञापनी-विनेयस्योपदेशदानरूपा यथा
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भगवती वृत्ति
५५१
परिशिष्ट-५ : श. १० : उ. ४-६ : सू. ४८-९९
स्थसमाचाराः 'ओसणि' त्ति अवसन्ना इव-श्रान्ता इवावसन्ना बहूहि नागकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे' त्ति । आलस्यादनुष्ठानासम्यक्करणात् 'ओसन्नविहार' त्ति आजन्म १०/९०. 'एवं जहा जीवाभिगमे' इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं शिथिलाचारा इत्यर्थः 'कुशील' त्ति ज्ञानाद्याचारविराधनात् तदिदं- 'तत्थ णं एगमेगाए देवीए चत्तारि २ देविसाहस्सीओ 'कुशीलविहारि' ति आजन्मापि ज्ञानाद्याचारविराधनात् परिवारो पन्नत्तो, पहू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई चत्तारि २ 'अहाछंद' त्ति यथाकथञ्चिन्नागमपरतन्त्रतया छन्दः-अभिप्रायो देवीसहस्साइं परिवारं विउब्वित्तए, एवामेव सपुव्वावरेणं सोलस बोधः प्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्छन्दाः, ते चैकदाऽपि देविसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' इति 'सेत्तं तुडिय' मित्यादीति। भवन्तीत्यत आह-'अहाच्छंदविहारि' त्ति आजन्मापि १०/९१. एवं अट्ठासीतिएवि महागहाणं भाणियब्वं' ति, तत्र यथाच्छन्दा एवेति।
द्वयोर्वक्त-व्यतोक्तैव शेषाणां तु लोहिताक्षशनैश्चराघुणिक१०/४९. 'तप्पभिई च णं' ति यत्प्रभृति त्रयस्त्रिंशत्सङ्ख्योपेतास्ते प्राघुणिककणककणकणादीनां सा वाच्येति। श्रावकास्तत्रोत्पन्नास्तत्प्रभृति न पूर्वमिति।।
१०/९५. 'विमाणाई जहा तइयसए' त्ति तत्र सोमस्योक्तमेव दशमशते चतुर्थोद्देशकः समाप्तः॥
यमवरुणवैश्रमणानां तु क्रमेण वरसिटे सयंजले वग्गुत्ति ।
१०/९७. विमाणा 'जहा चउत्थसए' त्ति क्रमेण च तानीशानलोकपंचम उद्देशकः
पालानामिमानि-'सुमणे सव्वओभद्दे वग्गू सुवग्गू' इति ।।
दशमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ चतुर्थोदेशके देववक्तव्यतोक्ता, पञ्चमे तु देवीवक्तव्यतोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
षष्ठम उद्देशकः १०/६४-६६. 'तेण' मित्यादि, से तं तुडिए' त्ति तुडिकं नाम वर्गः । १०/६८. 'वइरामएसु' ति वज्रमयेषु 'गोलवट्टसमुग्गएसु' त्ति पञ्चमोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, षष्ठे तु देवाश्रयविशेष
गोलकाकारा वृत्तसमुद्गकाः गोलवृत्तसमुद्कास्तेषु 'जिणस- प्रतिपादयन्नाहकहाओ' त्ति 'जिनसक्थीनि' जिनास्थीनि 'अच्चणिज्जाओ' ति १०/९९. 'कहि ण' मित्यादि, 'एव जहा रायप्पसेणइज्जे' चन्दनादिना 'वंदणिज्जाओ' त्ति स्तुतिभिः 'नमंसणिज्जाओ' इत्यादिकरणादेवं दृश्यं-'पुढवीए बहसमरमणिज्जाओ भूमिप्रणामतः 'पूयणिज्जाओ' पुष्पैः ‘सक्कारणिज्जाओ' भागाओ उड़े चंदमसूरियगहगणनक्खत्ततारारूवाणं बहूई वस्त्रादिभिः 'सम्माणणिज्जाओ' प्रतिपत्तिविशेषैः कल्याण- जोयणाई बहूई जोयणसयाई एवं सहस्साई एवं सयसहस्साई मित्यादिबुद्ध्या 'पज्जुवासणिज्जाओ' त्ति।
बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उड्ढे दूरं १०/६९. 'महयाय' इह यावत्करणादिदं दृश्य-नट्टगीयवाइय- वीइवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे नामं कप्पे पन्नते इत्यादि, 'असोग
तंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोग- वडेंसए' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'सत्तवन्नवडेसए चंपगब.सए भोगाई' ति तत्र च महता-बृहता अहतानि- अच्छिन्नानि चूयवडेंसए' त्ति, विवक्षिताभिधेयसूचिका चेयमतिदेशगाथाआख्यानकप्रतिबद्धानि वा यानि नाट्यगीत-वादितानि तेषां ‘एवं जह सूरियाभे तहेव माणं तहेव उववाओ। तन्त्रीतलतालानां च 'तुडिय' त्ति शेषतूर्याणां च घनमृदङ्गस्य सक्कस्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स॥१॥' च-मेघसमानध्वनिमईलस्य पटुना पुरुषेण प्रवादितस्य यो रवः इति, ‘एवम्' अनेन क्रमेण यथा सूरिकाभे विमाने राजप्रश्नस तथा तेन प्रभुर्भोगान् भुजानो विहर्तुमित्युक्तं, तत्रैव कृताख्यग्रन्थोक्ते प्रमाणमुक्तं तथैवास्मिन् वाच्यं, तथा यथा विशेषमाह-केवलं परियारिड्डीए' ति 'केवलं' नवरं सूरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात उक्तस्तथैवोपपातः परिवार:-परिचारणा स चेह स्त्रीशब्दश्रवणरूपसंदर्शनादिरूपः शक्रस्येह वाच्योऽभिषेकश्चेति, तत्र प्रमाणं--आयामविष्कम्भस एव ऋद्धिः-सम्पत् परिवारर्द्धिस्तया परिवारा वा सम्बन्धि दर्शितं, शेषं पुनरिदम्-'ऊयालीसं च सयसहस्साई कलत्रादिपरिजनपरिचारणामात्रेणेत्यर्थः 'नो चेव णं मेहुणवत्तियं' बावन्नं सहस्साई अट्ठ य अडयाले जोयणसए परिक्खेवेणं' ति। ति नैव च मैथुनप्रत्ययं यथा भवति एवं भोगभोगान् भुजानो उपपातश्चैवं-तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया विहर्तुं प्रभुरिति प्रकृतमिति॥
अहुणोववन्नमेत्ते चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं १०/७४. 'परियारो जहा मोउद्देसए' त्ति तृतीयशतस्य प्रथमोद्देशके गच्छइ, तं जहा-आहारपज्जत्तीए ५' इत्यादि। अभिषेकः इत्यर्थः।
पुनरेवं- 'तए णं सक्के देविंदे देवराया जेणेव अभिसेयसभा १०/७८. 'सओ परिवारो' त्ति धरणस्स स्वकः परिवारो वाच्यः, स तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता अभिसेयसभं अणुप्प
चैवं-'छहिं सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं याहिणीकरेमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ जेणेव चउहिं लोगपालेहिं छहिं अग्गमहिसीहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं सीहासणे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणअणियाहिवईहिं चउवीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य वरगते पुरच्छाभिमुहे निसन्ने, तए णं तस्स सक्कस्स ३
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परिशिष्ट-५ : श. १० : उ. ६-३४ : सू. ९९-१०२
५५२
भगवती वृत्ति
सामाणियपरिसोववन्नगा देवा आभिओगिए देवे सद्दावेंति आयरक्खदेवचउरासीसाहस्सीओ निसीयंती' त्यादीति। सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! सक्कस्स ३ १०/१००. 'के महड्डीए' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-केमहज्जुइए महत्थं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवट्ठवेह' इत्यादि, 'अलंकार केमहाणभागे केमहायसे केमहाबले?" ति, 'बतीसाए विमाणाअच्चणिया य तहेव' ति यथा सूरिकाभस्य तथैवालङ्कारः वाससयसहस्साणं' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'चउरासीए अर्चनिका चेन्द्रस्य वाच्या तत्रालङ्कारः-'तए णं से सक्के देवे सामाणिय-साहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं (गन्थाग्रम् तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाईयाए गायाई ११०००) अट्टण्हं अग्गमहिसीणं जाव अन्नेसिं च बहणं जाव लूहेइ २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ २ देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे ति।। नासानीसासवायबोज्झं चक्खुहरं वन्नफरिसजुत्तं हयलाला
दशमशते षष्ठोद्देशकः॥ पेलवातिरेगं धवलकणगखचियंतकम्मं आगासफालियसमप्पं दिव्वं देवदूसजुयलं नियंसेति २ हारं पिणद्धेती' त्यादीति,,
सप्त-चतुस्त्रिंशत्तम उद्देशकः अर्चनिकालेशस्त्वेवं-'तए णं से सक्के ३ सिद्धाययणं पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ २ जेणेव देवच्छंदए जेणेव
षष्ठोद्देशके सुधर्मसभोक्ता, सा चाश्रय इत्याश्रयाधिकाजिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जिणपडिमाणं
रादाश्रयविशेषानन्तरद्वीपाभिधानान् मेरोरुत्तरदिग्वर्त्तिशिखरिआलोए पणामं करेइ २ लोमहत्थगं गेण्हइ २ जिणपडिमाओ
पर्वतदंष्ट्रागतान् लवणसमुद्रान्तर्वर्तिनोऽष्टाविंशतिमभिधिलोमहत्थएणं पमज्जइ २ जिणपडिमाओ सुरभिणा गंधोदएणं
त्सुरष्टाविंशतिमुद्देशकानाहपहाणेई' ति 'जाव आयरक्ख' ति अर्चनिकायाः परो १०/१०२. 'कहि णं भंते! उत्तरिल्लाण' मित्यादि।। 'जहा ग्रन्थस्तावद्वाच्यो यावदात्मरक्षाः, स चैवं लेशतः-'तए णं से
जीवाभिगमे' इत्ययमतिदेश-पूर्वोक्तदाक्षिणात्यान्तरद्वीपवक्तसक्के ३ सभं सुहम्मं अणुप्पविसइ २ सीहासणे पुरच्छाभिमुहे
व्यताऽनुसारेणावगन्तव्यः॥ निसीयइ, तए णं तस्स सक्कस्स ३ अवरुत्तरेणं उत्तर
दशमशते चतुस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः॥ पुरच्छिमेणं चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ निसीयंति
समाप्तं दशमं शतम्॥ पुरच्छिमेणं अट्ठ अग्गमहिसीओ दाहिणपुरच्छिमेणं अभिंतरिया
इतिगुरुजनशिक्षापार्श्वनाथप्रसाद परिसा बारस देवसाहस्सीओ निसीयंति दाहिणेणं मज्झिमियाए
प्रसृततरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य। परिसाए चोदस देवसाहस्सीओ दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए
दशमशतविचारक्ष्माधराग्येऽधिरूढः। परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पच्चत्थिमेणं सत्त
शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधाङ्गकोऽपि॥१॥ अणियाहिवईणो, तए णं तस्स सक्कस्स ३ चउदिसिं चत्तारि ॥इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितभगवतीवृत्तौ दशमं शतकं समाप्तम्॥
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भगवती वृत्ति
५५३
परिशिष्ट-५:श. ११ : उ. १: सू. १-१७
अमा
चैवमुपपातः-जइ 'तिरिक्खजोणिएहितो उववज्जति किं एगिदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति? गोयमा! एगिदियतिरिक्खजोणिएहितोवि उववज्जंति' इत्यादि, एवं मनुष्यभेदा
वाच्याः-'जइ देवेहितो उववज्जति किं भवणवासी' त्यादि एकादशम शतकः
प्रश्नो निर्वचनं च ईशानान्तदेवेभ्य उत्पद्यन्त इत्युपयुज्य
वाच्यमिति, तदेतेनोपपात उक्तः।। व्याख्यातं दशमं शतं। अथैकादशं व्याख्यायते। अस्य चायम- ११/३. 'जहन्नेण एक्को वे' त्यादिना तु परिमाणम् । भिसम्बन्धः-अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च ११/2 ते णं असंखेज्जा समए' इत्यादिना त्वपहार उक्तः, एवं वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपाद
द्वारयोजना कार्या ३। नायैकादशं शतं भवतीत्येवंसम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थसङ्ग्रह- ११/५ उच्चत्वद्वारे 'साइरेगं जोयणसहस्सं ति तथाविधसमद्रगोगाथा
तीर्थकादाविदमुचत्वमुत्पलस्यावसेयम् ।। 'उप्पले' त्यादि, उत्पलार्थः प्रथमोद्देशकः१ ‘सालु' त्ति ११/६. बन्धद्वारे 'बंधए बंधया व' ति एकपत्रावस्थायां बन्धक शालूक-उत्पलकन्दस्तदथा द्वितायः २ पलास' त्ति एकत्वात् ढ्यादिपत्रावस्थायां च बन्धका बहुत्वादिति। पलाश:-किंशकस्तदर्थस्तृतीयः ३ 'कुंभी' ति वनस्पति- १00 सर्वकीय भायक तनावस्थाऽपि स्यात विशेषस्तदर्थश्चतुर्थः ४ नाडीवद्यस्य फलानि स नाडीको
तदपेक्षया चाबन्धकोऽपि अबन्धका अपि च भवन्तीति, वनस्पतिविशेष एव तदर्थः पञ्चमः ५ 'पउम' त्ति पदार्थः षष्ठः
एतदेवाह-'नवर' मित्यादि, इह बन्धका-बन्धकपदयोरेकत्वयोगे ६ 'कन्नीय' त्ति कर्णिकार्थः सप्तमः ७ 'नलिण' त्ति
एकवचनेन द्वौ विकल्पौ बहवचनेन च द्वौ द्विकयोगे तु नलिनार्थोऽष्टमः ८ यद्यपि चोत्पलपद्मनलिनानां नामकोशे
यथायोगमेकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारः एत्येवमष्टौ विकल्पाः, एकार्थतोच्यते तथाऽपीह रूढेर्विशेषोऽवसेयः, 'सिव' त्ति
स्थापना-बं १, अ १, बं३, अ ३, बं १ अ १, बं १ अ ३, बं शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थो नवमः ९ 'लोग' ति लोकार्थो दशमः
३ अ १, बं ३ अबं ३।५।। १० 'कालालभिए' त्ति कालार्थ एकादशः ११ आलभिकायां ११/८.१०. वेदनद्वारे ते भदन्त ! जीवा ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं नगर्यां यत्प्ररूपितं तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालभिक इत्युच्यते
वेदका अवेदकाः ?, अत्रापि एकपत्रतायामेकवचनान्तता अन्यत्र ततोऽसौ द्वादश १२, 'दस दो य एक्कारि' ति द्वादशोद्देशका
तु बहुवचनान्तता एवं यावदन्तरायस्य, वेदनीये सातासाताभ्यां एकादशे शते भवन्तीति।
पूर्ववदष्टौ भङ्गाः, इह च सर्वत्र प्रथमपत्रापेक्षयैकवचनान्तता, प्रथम उद्देशकः
ततः परं तु बहुवचनान्तता, वेदनं अनुक्रमोदितस्योदीरणोदीरि
तस्य वा कर्मणोऽनुभवः उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति तत्र प्रथमोद्देशकद्वारसङ्ग्रहगाथा वाचनान्तरे दृष्टास्ताश्चेमाः- वेदकत्वप्ररूपणेऽपि भेदेनोदयित्वप्ररूपण ७ मिति ।।
'उववाओ' इत्यादि, एतासां चार्थ उद्देशकार्थाधिगमगम्य इति॥ ११/११. उदीरणाद्वारे 'नो अणुदीरग' ति तस्यामवस्थायां तेषामनु११/१. 'उप्पले णं भंते! एगपत्तए' इत्यादि, 'उत्पलं' नीलोत्पलादि दीरकत्वस्यासम्भवात्। 'वेयणिज्जाउएसु अट्ठ भंग' त्ति
एक पत्रं यत्र तदेकपत्रकं अथवा एकं च तत्पत्रं चैकपत्रं वेदनीये-सातासातापेक्षया आयुषि पुनरुदीरकत्वानुदीरतदेवैकपत्रकं तत्र सति, एकपत्रकं चेह किशलयावस्थाया उपरि कत्वापेक्षयाऽष्टौ भङ्गाः, अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणायाः द्रष्टव्यम्। 'एगजीवे' ति यदा हि एकपत्रावस्थं तदैकजीवं तत्, कादाचित्कत्वादिति॥ यदा तु द्वितीयादिपत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकपत्रावस्था ११/१२. लेण्याद्वारेऽशीतिर्भङ्गाः, कथम् ?, एककयोगे एकवचनेन तस्येति बहवो जीवास्तत्रोत्पद्यन्त इति। एतदेवाह-'तेण पर' चत्वारो बहुवचनेनापि चत्वार एव, द्विकयोगे तु मित्यादि, 'तेण परं' ति ततः-प्रथमपत्रात् परतः 'जे अन्ने जीवा यथायोगमेकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गी, चतुणां च पदानां षड उववन्जंति' त्ति येऽन्ये-प्रथमपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रय- द्विकयोगास्ते च चुतुर्गुणाश्चतुर्विंशतिः, त्रिकयोगे तु त्रयाणां त्वात्पत्रादयोऽवयवा उत्पद्यन्ते ते 'नैकजीवाः' नैकजीवा- पदानामष्टौ भङ्गाः, चतुर्णां च पदानां चत्वारस्त्रिकसंयोगास्ते श्रयाः किन्त्वनेकजीवाश्रया इति, अथवा 'तेणे' त्यादि, चाष्टाभिर्गुणिता द्वात्रिंशत्, चतुष्कसंयोगे तु षोडश भङ्गाः, ततः-एकपत्रात्परतः शेषपत्रादिष्वित्यर्थः येऽन्ये जीवा उत्पद्यन्ते सर्वमीलने चाशीतिरिति, अत एवोक्तं 'गोयमा ! कण्हलेसे वे' ते नकजीवा नैककाः किन्त्वनेकजीवा अनेके इत्यर्थः ।।
त्यादि।। ११/२. 'ते णं भंते! जीव' ति ये उत्पले प्रथमपत्राद्यवस्थाया. ११/१७. वर्णादिद्वारे 'ते पुण अप्पणा अवन्न' ति शरीराण्येव तेषां
मुत्पद्यन्ते 'जहा वक्तीए ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे, स पञ्चवर्णादीनि ते पुनरुत्पलजीवाः 'अप्पण' ति स्वरूपेण
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परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. १-९ : सू. १७-५८ ५५४
भगवती वृत्ति 'अवर्णा' वर्णादिवर्जिताः अमूर्त्तत्वात्तेषामिति।।
परितोऽवयवाः 'उप्पलकन्नियत्ताए' त्ति इह तु कर्णिका११/१८. उच्छवासकद्वारे 'नो उस्सासनिस्सासए' त्ति अपर्याप्ताव- बीजकोशः 'उप्पलथिभुगताए' ति थिभुगा च यतः पत्राणि
स्थायाम्, इह च षडविंशतिर्भङ्गाः, कथम्?, एककयोगे एक- प्रभवन्ति॥ वचनान्तास्त्रयः बहुवचनान्ता अपि त्रयः, द्विकयोगे तु यथा
एकादशशते प्रथमोद्देशकः॥ योगमेकत्वबहुत्वाभ्यां तिस्रश्चतुर्भङ्गिका इति द्वादशः, त्रिकयोगे
द्वितीय उद्देशकः त्वष्टाविति. अत एवाह-एए छव्वीसं भंगा भवंति' त्ति ।। ११/१९. आहारकद्वारे 'आहारए वा अणाहारए व' त्ति विग्रहगता- ११/४२-५६. शालूकोद्देशकादयः सप्तोद्देशकाः प्राय उत्पलोद्देशकवनाहारकोऽन्यदा त्वाहारकस्तत्र चाष्टौ भङ्गाः पूर्ववत्।
समानगमाः, विशेषः पुनर्यो यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एव, नवरं ११/२३,२४. सञ्जाद्वारे कषायद्वारे चाशीतिभङ्गाः लेश्याद्वार- पलाशोद्देशके यदुक्तं 'देवेसु न उववज्जंति' त्ति वढ्याख्येयाः।
तस्यायमर्थः-उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्धृत्ता उत्पले उत्पद्यन्त ११/२९. 'से णं भंते! उप्पलजीवे' त्ति इत्यादिनोत्पलत्व
इत्युक्तमिह तु पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम्, अप्रशस्तस्थितिरनुबन्धपर्यायतयोक्ता।
त्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतिषूत्पद्यन्त इति। ११/३०. से णं भंते! उप्पलजीवे पुढविजीवे' त्ति इत्यादिना तु
तथा 'लेसासु' त्ति लेश्याद्वारे इदमध्येयमिति वाक्यशेषः, तदेव संवेधस्थितिरुक्ता, तत्र च भवादेसेणं' ति भवप्रकारेण दर्श्यते-'ते ण' मित्यादि, इयमत्र भावना-यदा किल भवमाश्रित्येत्यर्थः 'जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' ति एकं
तेजोलेश्यायुतो देवो देवभवादुद्वृत्त्य वनस्पतिषूत्पद्यते तदा तेषु पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुष्यादिगतिं
तजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोद्वृत्त उत्पद्यते गच्छेदिति। 'कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्त' त्ति पूर्वोक्तयुक्तेः, एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति, तदभावादाद्या पृथिवीत्वेनान्तर्मुहूर्तं पुनरुत्पलत्वे नान्तर्मुहूर्त्तमित्येवं कालादेशेन एव तिस्रो लेश्या इह भवन्ति, एतास् च षडविंशतिर्भङ्गकाः, जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहर्ते इति।
त्रयाणां पदानामेतावतामेव भावादिति। एतेषु चोद्दशकेषु ११/३३. एवं द्वीन्द्रियादिषु नेयम्।
नानात्वसङ्ग्रहार्थास्तिस्रो गाथाः११/३४. 'उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई' ति चत्वारि पञ्चेन्द्रियतिर
"सालंमि धणुपुहत्तं होइ पलासे य गाउयपुहत्तं । श्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्येवमष्टौ भवग्रहणान्युत्कर्षत इति, जोयणसहस्समहियं अवसेसाणं तु छण्हंपि॥१॥ 'उक्कोसेणं पुव्वकोडीपुहृत्तं' ति चतुर्षु पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भवग्रहणेषु कुंभीए नालियाए वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धव्वा। चतस्रः पूर्वकोट्यः उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेनोत्पलका- दस वाससहस्साई अवसेसाणं तु छण्हपि॥२॥ योद्वृत्तजीवयोग्योत्कृष्टपञ्चेन्द्रियतिर्यस्थितेर्ग्रहणात्, उत्पल- कुंभीए नालियाए होति पलासे य तिन्नि लेसाओ। जीवितं त्वेतास्वधिकमित्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति।
चत्तारि उ लेसाओ अवसेसाणं तु पंचण्हं॥३॥' ११/३५. 'एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइ-काइयाण' मित्यादि,
एकादशशते द्वितीयादयोऽष्टमान्ताः॥ अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं-'खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाई कालओ अन्नयरकालट्ठिझ्याइं भावओ वनमंताई' इत्यादि,
नवम उद्देशकः 'सव्वप्पणयाए' ति सर्वात्मना 'नवरं नियमा छद्दिसिं' ति पृथिवीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात्
अनन्तरमुत्पलादयोऽर्था निरूपिताः, एवंभूतांश्चार्थान् सर्वज्ञ एव तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु इत्यादिनापि प्रकारेणाहार- यथावज्ज्ञातुं समर्थो न पुनरन्यो, द्वीपसमुद्रानिव शिवराजर्षिः, माहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरत्वेन तथावि-धनिष्कुटेष्व
इति सम्बन्धेन शिवराजर्षिसंविधानकं नवमोद्देशकं प्राह। तस्य भावान्नियमात्षट्सु दिक्ष्वाहारयन्तीति।।
चेदमादिसूत्रम्११/३९. 'वक्कंतीए' त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे 'उवद्रणाए' त्ति ११/५७. 'तेणं कालेण' मित्यादि।
उद्वर्त्तनाधिकारे, तत्र चेदमेवं सूत्रं-'मणुएसु उववज्जंति देवेस् ११/५८. 'महया हिमवंत वन्नओ' त्ति अनेन 'मयाहिमवंतमहंतउववज्जंति?, गोयमा! नो नेरइएसु उववज्जति तिरिएसु
मलयमंदरमहिंदसारे' इत्यादि राजवर्णको वाच्य इति सूचितं, उववज्जंति मणुएसु उववज्जंति नो देवेसु उववज्जंति।
तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलयः११/४०. 'उप्पलकेसरत्ताए' ति इह केसराणि-कर्णिकायाः पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेन्द्रः-शक्रादिदेवराजस्तद्वत्सार:१. शाले धनुःपृथक्त्वं भवति पलाशे च गव्यूतपृथक्त्वं ।
कुंभ्यां नालिकायां भवन्ति पलाशे च तिस्रो लेश्याः। योजनसहस्रमधिकमवशेषाणां तु षण्णामपि॥१॥
चतस्रो लेश्यास्तु अवशेषाणां पञ्चानां तु ॥३॥ कुंभ्यां नालिकायां वर्षपृथक्त्वं तु स्थितिर्बोद्धव्या। दश वर्षसहसाणि अवशेषाणां तु षण्णामपि।।२।।
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. ९ : सू. ५८-६४
प्रधानो यः स तथा, 'सुकुमाल.......वन्नओ' त्ति अनेन च सेयकिढिणगाय' त्ति येऽस्नात्वा न भुंजते स्नानाद्वा 'सुकुमालपाणिपाये' त्यादी राजीवर्णको वाच्य इति सूचितं, पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः, क्वचित् 'जलाभिसेय'सुकुमालजहा सूरियकंते जाव पच्चुवेक्खमाणे २ विहरइ' त्ति कढिणगायभूय' ति' दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं अस्यायमर्थः-'सुकुमालपाणिपाए लक्खणवंजणगुणोववेए' । भूताः-प्राप्ता ये ते तथा, 'इंगालसोल्लियं' ति अङ्गारैरिव पक्कं इत्यादिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने ग्रन्थे सूर्यकान्तो 'कंदुसोल्लियं' ति कन्दुपक्कमिवेति। "दिसाचक्कवालएणं राजकुमारः ‘पच्चुवेक्खमाणे २ विहरइ' इत्येतदन्तेन वर्णकन तवोकम्मेणं' ति एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि वर्णितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः, ‘पच्चुवेक्खमाणे २ विहरइ' तान्याहृत्य भुङ्क्ते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन इत्येतच्चैवमिह सम्बन्धनीयं-से णं सिवभद्दे कुमारे जुवराया यत्र तपःकर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्रवालमुच्यते यावि होत्था सिवस्स रन्नो रज्जं च रटुं च बलं च वाहणं च तेन तपःकर्मणेति। कोसं च कोट्ठागारं च पुरं च अंतेउरं च जणवयं च सयमेव ११/६१. 'ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं पियाहिं' इत्यत्र एवं जहा उववाइए' पच्चुवेक्खमाणे विहरइ' त्ति।
इत्येतत्करणादिदं दृश्य-'मणुन्नाहिं मणामाहिं जाव वग्गूहिं ११/५९. 'वाणपत्थ' त्ति। वने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था- अणवरयं अभिनंदंता य अभिथुणता य एवं वयासी-जय २ नंदा
अवस्थितिर्वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः, अथवा--'ब्रह्मचारी जय जय भद्दा ! जय २ नंदा! भई ते अजियं जिणाहि जियं गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा' इति चत्वारो लोकप्रतीता पालियाहि जियमज्झे वसाहि अजियं च जिणाहि सत्तुपक्खं आश्रमाः, एतेषां च तृतीयाश्रमवर्त्तिनो वानप्रस्थाः, 'होत्तिय' त्ति जियं च पालेहि मित्तपक्खं जियविग्धोऽविय वसाहि तं देव! अग्निहोत्रिकाः 'पोत्तिय' ति वस्त्रधारिणः सोत्तिय त्ति सयणमज्झे इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं धरणो इव नागाणं क्वचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः 'जहा उववाइए' इत्येतस्मादति- भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई बहूई वाससयाई बहूई देशादिदं दृश्यं-'कोत्तिया जन्नई सडई थालई हुंवउठ्ठा वाससहस्साई अणहसमग्गे य हट्टतुट्टो' ति, एतच्च दंतुक्खलिया उम्मज्जगा संमज्जगा निमज्जगा संपक्खाला
संमज्जगा निमज्जगा संपक्खाला व्यक्तमेवेति॥ दक्खिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धया ११/६४. 'वागलवत्थनियत्थे' त्ति वल्कलं-वल्कलतस्येदं वाल्कलं हत्थितावसा उइंडगा दिसापोक्खिणो वनकवासिणो तद्वस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः 'उडए' त्ति चेलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो उटजः-तापसगृहं 'किढिणसंकाइयगं' ति 'किढिण' त्ति वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्ततश्च तयोः साङ्कायिकं-भारोदपत्ताहारा पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंद- हनयन्त्रं किढिणसाङ्कायिकं 'महाराय' त्ति लोकपाल: 'पत्थाणे मूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाहिं पत्थियं ति 'प्रस्थाने' परलोकसाधनमार्गे ‘प्रस्थितं' प्रवृत्तं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लियं ति तत्र 'कोत्तिय' फलाद्याहरणार्थं गमने वा प्रवृत्तं शिवराजर्षिं 'दब्भे य' त्ति त्ति भूमिशायिनः 'जन्नइ' त्ति यज्ञयाजिनः 'सड्ढइ' त्ति श्राद्धाः समूलान् ‘कुसे य' त्ति दनिव निर्मूलान् ‘समिहाओ य' त्ति 'थालइ' ति गृहीतभाण्डाः 'हुंवउटुं त्ति कुण्डिकाश्रमणाः समिधः-काष्ठिकाः ‘पत्तामोडं च' तरुशाखामोटितपत्राणि 'वेदि 'दंतुक्खलिय' ति फलभोजिनः 'उम्मज्जग' ति बड्डेइ' ति वेदिकां-देवार्चनस्थानं वर्द्धनी-बहुकरिका तां 'उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति 'संमज्जग' ति उन्मज्जन- प्रयुक्त इति वर्द्धयति-प्रमार्जयतीत्यर्थः 'उवलेवणसमंज्जणं स्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जग' त्ति स्थानार्थं निमग्ना करेइ' त्ति इहोपलेपनं गोमयादिना संमर्जनं तु जलेन संमार्जनं एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल' त्ति मृत्तिकादिघर्षणपूर्वक वा शोधनं 'दब्भकलसाहत्थगए ति दर्भाश्च कलशश्च हस्ते येऽङ्ग क्षालयन्ति 'दक्खिणकूलग' त्ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव गता यस्य स तथा 'दब्भसगब्भकलसगहत्थगए' ति क्वचित् वास्तव्यम् 'उत्तरकूलग' त्ति उक्तविपरीताः ‘संखधमग' त्ति तत्र दर्भेण सगब्र्भो यः कलशकः स हस्ते गतो यस्य स तथा शङ्ख ध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'जलमज्जणं' ति जलेन देहशुद्धिमानं 'जलकीडं' ति 'कूलधमग' ति ये कूले स्थित्वा शब्दं कृत्वा भुञ्जते देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं 'जलाभिसेयं' ति जलक्षरणम् 'मियलद्धय' त्ति प्रतीता एव 'हत्थितावस' ति ये हस्तिनं 'आयंते' त्ति जलस्पर्शात् 'चोक्खे' त्ति अशुचिद्रव्यापगमात् मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति 'उदंडग' त्ति किमुक्तं भवति?-'परमसुइभूए' त्ति, 'देवयपिइकयकज्जे' त्ति ऊर्ध्वकृतदण्डा ये संचरन्ति 'दिसापोक्खिणो' त्ति उदकेन दिशः देवतानां पितृणां च कृतं कार्य-जलाञ्जलिदानादिकं येन स प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति 'वक्कलवासिणो' त्ति तथा, 'सरएणं अरणिं महेइ' त्ति 'शरकेन' निर्मन्थनकाष्ठेन वल्कलवाससः 'चेलवासिणो' ति व्यक्तं पाठान्तरे 'वेल- 'अरणिं' निर्मन्थनीयकाष्ठं 'मथ्नाति' घर्षयति, 'अग्गिस्स वासिणो' ति समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जलवासिणो' त्ति ये दाहिणे' इत्यादि सार्द्धः श्लोकस्तद्यथाशब्दवर्जः, तत्र च जलनिमग्ना एवासते, शेषाः प्रतीता, नवरं 'जलाभि- 'सत्तंगाई' सप्ताङ्गानि 'समादधाति' संनिधापयति सकथां १
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परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. ९,१० : सू. ६४-९०
भगवती वृत्ति
वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभाण्डं ४ कमण्डलुं ५ दंडदारु ६ परिवसन्ति सिद्धाः किन्तु सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनातथाऽऽत्मान ७ मिति। तत्र सकथा तत्समयप्रसिद्ध स्तूपिकाग्रादून्द्रर्वं द्वादशयोजनानि व्यतिक्रम्येषत्प्राग्भारा नाम उपकरणविशेषः स्थानं-ज्योतिःस्थानं पात्रस्थानं वा शय्या- पृथिवी पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्यां भाण्डं-शय्योपकरणं दण्डदारु-दण्डकः आत्मा-प्रतीत इति, वर्णतः श्वेताऽत्यन्तरम्याऽस्ति तस्याश्चोपरि योजने लोकान्तो 'चरूं साहेति' ति चरुः-भाजनविशेषस्तत्र पच्यमानद्रव्यमपि भवति, तस्य च योजनस्योपरितनगव्यूतोपरितनषड्भागे सिद्धाः चरुरेव तं चकै बलिमित्यर्थः 'साधयति' रन्धयति ‘बलिवइ- परिवसन्तीति, ‘एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियव्व' त्ति स्सदेवं करेइ त्ति बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः, 'अतिहिपूयं एवमिति-पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण सिद्धिगण्डिका' करेइ' ति अतिथे:-आगन्तुकस्य पूजां करोतीति।
सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा वाक्यपद्धतिरौपपातिकप्रसिद्धाऽ११/७७. 'से कहमेयं मन्ने एवं' ति अत्र मन्येशब्दो वितर्कार्थः ध्येया, इयं च परिवसनद्वारं यावदर्थलेशतो दर्शिता,
'बितियसए नियंठद्देसए' त्ति द्वितीयशते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः तत्परतस्त्वेवं-'कहिं पडिहया सिद्धा कहिं सिद्धा पइट्ठिया ?' 'एगविहिविहाण' ति एकेन विधिना-प्रकारेण विधानं- इत्यादिका, अथ किमन्तेयम् ? इत्याह-'जावे' त्यादि। व्यवस्थानं येषां ते तथा, सर्वेषां वृत्तत्वात्, ‘वित्थारओ 'अव्वाबाहं सोक्ख' मित्यादि चेह गाथोत्तरार्द्धमधीतं, अणेगविहिविहाण' त्ति द्विगुण द्विगुण विस्तारत्वात्तेषामिति एवं समग्रगाथा पुनरियंजहा जीवाभिगमे' इत्यनेन यदिह सूचितं तदिदं-'दुगुणादुगुणं 'निच्छिन्नसव्वदुक्खा जाइजरामरणबंधण-विमुक्का। पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीझ्या' अवभासमान- अव्वाबाहं सोक्खं अणुहंती सासयं सिद्धा॥१॥ वीचयः-शोभमानतरङ्गाः, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणं, 'बहुप्पलकु. इति॥ मुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्त
एकादशशते नवमोद्देशकः॥ सयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया' बहूनामुत्पलादीनां प्रफुल्लानां-विकसितानां यानि केशराणि तैरुपचिताः संयुक्ता
दशमः उद्देशकः ये ते तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानि-चन्द्रबोध्यानि पुण्डरीकाणि-सितानि शेषपदानि तु रूढिगम्यानि
नवमोद्देशकस्यान्ते लोकान्ते सिद्धपरिवसनोक्तेत्यतो 'पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खिता पत्तेयं पत्तेयं
लोकस्वरूपमेव दशमे प्राह। तस्य चेदमादिसूत्रम्वणसंडपरिक्खित्त' ति॥
११/९०. 'रायगिहे' इत्यादि, 'दव्वलोए' ति द्रव्यलोक आगमतो ११/७८. 'सवन्नाइंपि' ति पुद्गलद्रव्याणि 'अवन्नाइंपि' ति।
नोआगमतश्च, तत्रागमतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थज्ञस्तत्राधम्मास्तिकायादीनि 'अन्नमन्नबद्धाई ति परस्परेण
नुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य' मिति वचनात्, आह च मङ्गलं गाढाश्लेषाणि 'अन्नमन्नपुट्ठाई ति परस्परेण गाढाश्लेषाणि, इह
प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम्यावत्करणादिदमेवं दृश्यम्-'अन्नमन्नबद्धपुट्ठाई अन्नमन्नघडताए
'आगमओऽणुवउत्तो मंगलसहाणुवासिओ वत्ता। चिट्ठति' तत्र चान्योऽन्यबद्धस्पृष्टान्यनन्तरोक्तगुणद्वययोगात्,
तन्नाणलद्धिजुत्तो उ नोवउत्तोत्ति दव्वं॥१॥ किमुक्तं भवति?-अन्योऽन्यघटतया-परस्परसम्बद्धतया
ति (आगमतो मङ्गलशब्दानुवासितोऽनुपयुक्तो वक्ता तिष्ठति।
तज्ज्ञानलब्धियुक्तोऽप्यनुपयुक्त इति द्रव्यमिति॥१॥) ११/८५. 'तावसावसहे' त्ति तापसावसथः-तापसमठ इति।
नोआगमतस्तु जशरीरभव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्त्रिविधः, तत्र अनन्तरं शिवराजर्षेः सिद्धिरुक्ता, तां च संहननादिभिर्नि
लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरं मृतावस्थं ज्ञानापेक्षया रूपयन्निदमाह
भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोकः स च ज्ञशरीररूपो ११/८८. 'भंते त्ति' इत्यादि, अथ लाघवार्थमतिदेशाप - एवं जहेवे'
द्रव्यभूतो लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे, त्यादि, 'एवम्' अनन्तरदर्शितेनाभिलापेन यथौपपातिके
तथा लोकशब्दार्थं ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतनं सिद्धानधिकृत्य संहननाद्युक्तं तथैवेहापि वाच्यं, तत्र च
भाविलोकभावत्वेन मधुघटवद् भव्यशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्द संहननादिद्वाराणां सङ्ग्रहाय गाथापूर्वान्र्द्र-'संघयणं संठाणं
इहापि सर्वनिषेध एव, शरीरव्यतिरिक्तश्च, द्रव्यलोको उच्चत्तं आउयं च परिवसण' त्ति तत्र संहननमुक्तमेव,
द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह चसंस्थानादि त्वेवं-तत्र संस्थाने षण्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन्
जीवमजीवे रूविमरूवि सपएस अप्पएसे य। सिद्ध्यन्ति, उच्चत्वे तु जघन्यतः सप्तरत्निप्रमाणे उत्कृष्टस्तु
जाणाहि दव्वलोयं निच्चमणिच्चं च जं दव्वं ॥१॥ पञ्चधनुःशतके, आयुषि पुनर्जघन्यतः सातिरेकाष्टवर्षप्रमाणे
(जीवा अजीवा रूपिणोऽरूपिणः सप्रदेशा अप्रदेशाश्च जानीहि उत्कृष्टतस्तु पूर्वकोटीमाने, परिवसना पुनरेवं-रत्नप्रभादि
द्रव्यलोकं नित्यमनित्यं च यद्रव्यम् ॥१॥) इहापि नोशब्दः पथिवीनां सौधर्मादीनां चेषत्प्रारभारान्तानां क्षेत्रविशेषाणामधो न
सर्वनिषेधे आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात्,
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भगवती वृत्ति
परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. १० : सू. ९०-१०३ 'खेत्तलोए' ति क्षेत्ररूपो लोकः स क्षेत्रलोकः, आह च- ऊन्धर्वमुखो यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यः स तथा 'आगासस्स पएसा उहुं च अहे य तिरियलोए य।
शरावसंपुटाकार इत्यर्थः। जाणाहि खेत्तलोयं अणंतजिणदेसियं सम्म॥१॥
११/९८. स्थापना चेयम्- सुपट्ठगसंठिए' ति सुप्रतिष्ठकं(आकाशस्य प्रदेशा ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यग्लोके च। जानीहि स्थापनकं तच्चेहारोपितवारकादि गृह्यते, तथाविधेनैव क्षेत्रलोकमनन्तजिनदेशितं सम्यक् ।।१।।)
लोकसादृश्योपपत्तेरिति, स्थापना चेयं'काललोए' त्ति कालः-समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः, आह च
'जहा सत्तमसए' इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम्-'उप्पिं 'समयावली मुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा य। विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वरवइरविग्गहिए उप्पिं संवच्छरजुगपलिया सागरउस्सप्पिपरियट्टा ॥१॥' उद्धमुइंगागारसंठिए तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा (समय आवलिका मुहूर्तः दिवसः अहोरात्रं पक्षो मासश्च विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्डमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्ननाणसंवत्सरो युगं पल्यः सागरः उत्सर्पिणी परावर्तः॥११) दसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ अजीवेवि जाणइ 'भावलोए' ति भावलोको द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झइ' इत्यादीति। तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः भावरूपो लोको ११/९९. 'झुसिरगोलसंठिए' ति अन्तःशुषिरगोलकाकारो यतोऽभावलोके इति नोआगमतस्तु भावा-औदयिकादयस्तद्रूपो लोको लोकस्य लोकः शुषिरमिवाभाति, स्थापना चेयम्। 0 भावलोकः, आह च
११/१००. 'अहेलोयखेत्त लोए णं भंते!' इत्यादि, ‘एवं जहा इंदा 'ओदइए उवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य।
दिसा तहेव निरवसेसं भाणियव्वं' ति दशमशते प्रथमोद्देशके परिणामसन्निवाए य छव्विहो भावलोगो उ॥१॥
यथा ऐन्द्री दिगुक्ता तथैव निरवशेषधोलोकस्वरूपं भणितव्यं, (औदयिक औपशमिकः क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च । तच्चैवम्-'अहोलोयखेत्तलोए णं भंते! किं जीवा जीवदेसा पारिणामिकश्च सन्निपातश्च षड्डिधो भावलोकस्तु॥१॥ इति, जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ?, गोयमा ! इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा, आगमस्य ज्ञानत्वात् जीवावि जीवदेसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीवदेसावि क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञानस्वरूपभावविशेषेण च मिश्रत्वादौ-- अजीवपएसावि' इत्यादि। दयिकादिभावलोकस्येति।
११/१०१. नवरमित्यादि, अधोलोकतिर्यग्लोकयोररूपिणः ११/९१. 'अहेलोयखेत्तलोए' ति अधोलोकरूपः क्षेत्रलोकोऽधो- सप्तविधाः प्रागुक्ताः धम्माधर्माकाशास्तिकायानां देशाः ३
लोकक्षेत्रलोकः, इह किलाष्टप्रदेशो रुचकस्तस्य चाधस्तन- प्रदेशाः ३ कालश्चेत्येवम्, उद्धर्वलोके तु रविप्रकाशाभिव्यङ्ग्यः प्रतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकस्ततः परेणाधः कालो नास्ति, तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद्, अतः स्थितत्वादधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः, तिरियलोय- षडेव त इति।
खेत्तलोए' त्ति रुचकापेक्षयाऽध उपरि च नव २ योजनशतमान- ११/१०२. 'लोए ण' मित्यादि जहा बीयसए अत्थिउद्देसए' त्ति यथा स्तिर्यग्रूपत्वात्तिर्यग्लोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोकस्तिर्यग्लोकक्षेत्र- द्वितीयशते दशमोद्देशक इत्यर्थः 'लोयागासे' त्ति लोकाकाशे लोकः, 'उड्डलोयखेत्तलोए' ति तिर्यग्लोकस्योपरि देशोनसप्त विषयभूते जीवादय उक्ता एवमिहापीत्यर्थः, 'नवर' मिति रज्जुप्रमाण ऊर्श्वभागवर्त्तित्त्वादूर्वलोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोक केवलमयं विशेषः-तत्रारूपिणः पञ्चविधा उक्ता इह तु ऊद्धर्वलोकक्षेत्रलोकः, अथवाऽधः-अशुभः परिणामो बाहुल्येन सप्सविधा वाच्याः, तत्र हि लोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत क्षेत्रानुभावाद् यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोकः, तथा आकाश-भेदास्तत्र नोच्यन्ते, इह तु लोकोऽस्तिकायसमुदायरूप तिर्यङ्-मध्यमानुभावं क्षेत्रं नातिशुभं नाप्यत्यशुभं तद्रूपो आधारतया विवक्षितोऽत आकाशभेदा अप्याधेया भवन्तीति लोकस्तिर्यग्लोकः, तथा ऊर्व-शुभः परिणामो बाहुल्येन सप्त, ते चैवं-धर्मास्तिकायः, लोके परिपूर्णस्य तस्य द्रव्याणां यत्रासावूद्धर्वलोकः, आह च
विद्यमानत्वात्, धर्मास्तिकायदेशस्तु न भवति, धर्मास्तिअहव अहोपरिणामो खेत्तणुभावेण जेण ओसन्नं ।
कायस्यैवं तत्र भावात, धर्मास्तिकायप्रदेशाश्च सन्ति, असुहो अहोत्ति भणिओ दव्वाणं तेणऽहोलोगो॥१॥
तद्रूपत्वाद्धर्मास्तिकायस्येति द्वयं, एवमधर्मास्तिकायेऽपि द्वयं ४, इत्यादि।
तथा नो आकाशास्तिकायो, लोकस्य तस्यैतद्देशत्वात्, ११/९५. 'तप्पागारसंठिए' ति तप्रः उडुपकः, अधोलोकक्षेत्र- आकाशदेशस्तु भवति, तदंशत्वात् लोकस्य, तत्प्रदेशाश्च लोकोऽधोमुखशरावाकारसंस्थान इत्यर्थः ।
सन्ति ६, कालश्चे ७ ति सप्त। ११/९६. स्थापना चेयं र 'झल्लरिसंठिए' त्ति अल्पोच्छा- ११/१०३. 'अलोए णं भंते!' इत्यादि, इदं च एवं जहे' त्याद्यति
यत्वान्महाविस्तारत्वाच्च तिर्यग्लोकक्षेत्रलोको झल्लरीसंस्थितः। देशादेवं दृश्यम्-'अलोए णं भंते! किं जीवा जीवदेसा ११/९७. स्थापना चाव-- ‘उड्डमुइंगागारसंठिए' त्ति ऊद्धर्वः- जीवपएसा अजीवा अजीबदेसा अजीवपएसा?, गोयमा! नो
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भगवती वृत्ति
जीवदेसा नो जीवपएसा नो अजीवदेसा नो अजीवपएसा एगे जीवे' त्यादि प्राग्वत्। 'अहेलोयखेत्तलोए अणंता वन्नपज्जव' त्ति अजीवदव्वदेसे अणतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासे अधोलोकक्षेत्रलोकेऽनन्ता वर्णपर्यवाः एकगुणकालकादीअणंतभागूणे' त्ति तत्र सर्वाकाशमनन्तभागोनमित्यस्यायमर्थः- नामनन्तगुणकालाद्यवसानानां पुद्गलानां तत्र भावात्। लोकलक्षणेन समस्ताकाशस्यानन्तभागेन न्यूनं सर्वाकाशम- ११/१०७. अलोकसूत्रे 'नेवत्थि अगुरुलहुयपज्जब' त्ति अगुरुलघुलोक इति।
पर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्गलादीनां तत्राभावात्। ११/१०४. 'अहोलोगखेत्तलोगस्स णं भंते! एगंमि आगासपएसे' ११/१०९. 'सव्वदीव' त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'समुद्दाणं
इत्यादि, नो जीवा एकप्रदेशे तेषामनवगाहनात्, बहूनां अब्भंतरए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए वट्टे पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्य चावगाहनात् उच्यते 'जीवदेसावि रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए वट्टे जीवपएसावि' त्ति, यद्यपि धर्मास्तिकायाद्यजीवद्रव्यं नैकत्राकाश- पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं प्रदेशेऽवगाहते तथाऽपि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस य चावगाहनादुच्यते-'अजीवावि' ति, व्यणुकादिस्कन्धदेशानां सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे त्ववगाहनादुक्तम्-'अजीवदेसावि' ति, धर्माधर्मास्तिकाय- अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अन्द्धंगुलं च किंचि प्रदेशयोः पुद्गलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते-'अजीव- विसेसाहियं' ति, 'ताए उक्किट्ठाए' त्ति इह यावत्करणादिदं पएसावि' त्ति। ‘एवं मज्झिल्लविरहिओ' त्ति दशमशत- दृश्यं-'तुरियाए चवलाए चंडाए सिहाए उद्ध्याए जयणाए छेयाए प्रदर्शितत्रिकभङ्गे 'अहवा एगिंदियदेसा य बेइंदियदेसा य' दिव्वाए' त्ति तत्र त्वरितया' आकुलया 'चपलया' इत्येवंरूपो यो मध्यमभङ्गस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्गः, 'एव' कायचापल्येन 'चण्डया' रौद्रया गत्यत्कर्षयोगात् 'सिंहया' मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽध्येतव्यो, मध्यमभङ्गस्येहा- दायस्थिरतया 'उद्धृतया' दातिशयेन 'जयिन्या' सम्भवात्, तथाहि-द्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहवो देशा विपक्षजेतृत्वेन 'छेकया' निपुणया 'दिव्यया' दिवि भवयेति। न सन्ति, देशस्यैव भावात्, ‘एवं आइल्लविरहिओ' त्ति 'अहवा 'पुरच्छाभिमुहे' त्ति मेवपक्षया, 'आसत्तमे कुलवंसे पहीणे' त्ति एगिदियस्स पएसा य बेंदियस्स पएसा य' इत्येवंरूपाद्य- कुलरूपो वंशः प्रहीणो भवति आसप्तमादपि वंश्यात्, सप्तममपि भङ्गकविरहितस्त्रिभङ्गः, 'एव' मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽ- वंश्यं यावदित्यर्थः, 'गयाउ से अगए असंखेज्जइभागे अगयाउ ध्येतव्यः, आद्यभङ्गकस्येहासम्भवात्, तथाहि नास्त्येवैकत्रा- से गए असंखेज्जगुणे' त्ति, ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विनैकस्य जीवस्यैकप्रदेश- रज्जुप्रमाणत्वाल्लोकस्योर्वाधश्च किञ्चिन्न्यूनाधिकसप्तसम्भवोऽसङ्ख्यातानामेव भावादिति, 'अणिंदिएसु तियभंगो' त्ति रज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या गच्छतां देवानां कथं षट्स्वपि अनिन्द्रियेषूक्तभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीतिकृत्वा तेषु तद्वाच्य- दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसङ्ख्यातभागमानं अगताच्च मिति। 'रूवी तहेव' ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशाः अणवश्चेत्यर्थः गतमसङ्ख्यातगुणमिति?, क्षेत्रवैषम्यादिति भावः, अत्रोच्यते, 'नो धम्मत्थिकाये' त्ति नो धर्मास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे घनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः, ननु संभवत्यसङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति। 'धम्मत्थिकायस्स यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो देवा लोकान्तं बहुनापि देसे' ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यैकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताज्जिनजन्मादिषु द्रागवतरन्ति? तथाऽपि देशोऽवयव इत्यनर्थान्तरत्वेनावयवमात्रस्यैव विवक्षित- बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति, सत्यं, किन्तु मन्देयं त्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाद्ध- गतिः जिनजन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति। मास्तिकायस्य देश इत्युक्तं। प्रदेशस्तु निरुपचरित ११/११०. 'असब्भावपट्ठवणाए' ति असद्भूतार्थकल्पनयेत्यर्थ। एवास्तीत्यत उच्यते-'धम्मत्थिकायस्स पएसे' त्ति, पूर्वं लोकालोकवक्तव्यतोक्ता, अथ लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्य'एवमहम्मत्थिकायस्सवि' त्ति 'नो अधम्मत्थिकाए अहम्मत्थि- विशेषं दर्शयन्नाहकायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्स पएसे' इत्येवमधर्मास्ति- ११/१११. 'लोगस्स ण' मित्यादि, 'अत्थि णं भंते त्ति अस्त्ययं कायसूत्रं वाच्यमित्यर्थः।
भदन्त ! पक्षः, इह च त इति शेषो दृश्यः । ११/१०५. 'अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउव्विह' त्ति ऊद्धर्वलोकेऽ- ११/११२. 'जाव कलिय' त्ति इह यावत्करणादेवं दृश्य-संगयगयह
द्धासमयो नास्तीति अरूपिणश्चतुर्विधाः-धर्मास्तिकायदेशादयः सियभणियचिट्ठियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोवयारऊन्दर्वलोक एकत्राकाशप्रदेशे सम्भवन्तीति।
कलिय' त्ति, 'बत्तीसइविहस्स नट्टस्स' त्ति द्वात्रिंशद् विधा-भेदा ११/१०६. 'लोगस्स जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स एगंमि आगास- यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य, तत्र ईहामृगऋषभतुरगनर
पएसे' ति अधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राकाशप्रदेशे यद्वक्तव्यमुक्तं मकरविहगव्यालककिन्नरादिभक्तिचित्रो नामैको नाट्यविधिः तल्लोकस्याप्येकत्राकाशप्रदेशे वाच्यमित्यर्थः, तच्चेदं लोगस्स एतच्चरिताभिनयनमिति संभाव्यते, एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयो णं भंते! एगंमि आगासपएसे किं जीवा०? पच्छा गोयमा! 'नो राजप्रश्नकृतानुसारतो वाच्याः।
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भगवती वृत्ति
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लोकैक प्रदेशाधिकारादेवेदमाह
११ / ११३. 'लोगस्स ण' मित्यादि, अस्य व्याख्या- यथा किलैतेषु त्रयोदशसु प्रदेशेषु त्रयोदशप्रदेशकानि दिग्दशकस्पर्शानि त्रयोदश द्रव्याणि स्थितानि तेषां च प्रत्याकाशप्रदेशं त्रयोदश त्रयोदश प्रदेशा भवन्ति एवं लोकाकाशप्रदेशेऽनन्तजीवावगाहेनैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्ता जीवप्रदेशा भवन्ति, लोके च सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका निगोदाः पृथिव्यादिसर्वजीवासज्येयकतुल्याः सन्ति तेषां चैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे जीवप्रदेशा अनन्ता भवन्ति तेषां च जघन्यपदे एकत्राकाशप्रदेशे सर्वस्तोका जीवप्रदेशाः तेभ्यश्च सर्वजीवा असङ्ख्येयगुणाः, उत्कृष्टपदे पुनस्तेभ्यो विशेषाधिका जीवप्रदेशा इति । अयं च सूत्रार्थोऽमूभिर्वृद्धोक्तगाथाभिर्भावनीयःलोगस्सेगपएसे जहन्नयपयंमि जियपएसाणं | उक्कोसपए य तहा सव्वजियाणं च के बहुया ? ॥ १ ॥ इति प्रश्नः, उत्तरं पुनरत्र
थोवा जहण्णयपए जियप्पएसा जिया असंखगुणा । उक्कोसपयपएसा तओ विसेसाहिया भणिया ॥ २ ॥ अथ जघन्यपदमुत्कृष्टपदं चोच्यते
तत्थ पुण जहन्नपयं लोगंतो जत्थ फासणा तिदिसिं । छद्दिसिक्कोसपयं समत्तगोलंमि णण्णत्थ ॥ ३ ॥ तत्र- तयोजर्धन्येतरपदयोजर्धन्यपदं लोकान्ते भवति 'जत्थ' त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशैस्तिसृष्वेव दिक्षु भवति, शेषदिशामलोकेनावृतत्वात् सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः । 'छद्दिसिं' ति यत्र पुनर्गोलके षट्स्वपि दिक्षु निगोददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्च समस्तगौलैः परपूर्णगोलके भवति नान्यत्र, खण्डगोलके न भवतीत्यर्थः, सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति । अथ परिवचनामाशङ्कमान आह उक्कोसमसंखगुणं जहन्नयाओ पयं हवइ किं तु ? | नणु तिदिसिफुसणाओ छद्दिसिफुसणा भवे दुगुणा ॥ ४ ॥ उत्कर्षं- उत्कृष्टपदमसङ्ख्यातगुणं जीवप्रदेशापेक्षया जघन्यकात्पदादिति गम्यं भवति किन्तु कथं तु न भवतीत्यर्थः, कस्मादेवम् ? इत्याह-'ननु' निश्चितम् अक्षमायां वा ननुशब्दः, त्रिदिकस्पर्शनायाः सकाशात् षड़दिक्स्पर्शना भवेद्विगुणेति, इह च काकुपाठाद्धेतुत्वं प्रतीयत इति, अतो द्विगुणमेवोत्कृष्टं पदं स्यादसङ्ख्यातगुणं च तदिष्यते, जघन्यपदाश्रितजीवप्रदेशापेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणसर्वजीवेभ्यो विशेषाधिक
जीवप्रदेशोपेतत्वात्तस्येति । इहोत्तरम् -
थोवा जहन्नयप निगोयमित्तावगाहणाफुसणा । फुसणासंखगुणत्ता उक्कोसपए असंखगुणा ॥५ ॥ स्तोका जीवप्रदेशा जघन्यपदे, कस्मात् ? इत्याह- निगोदमात्रे क्षेत्रेऽवगाहना येषां ते तथा एकावगाहना इत्यर्थः तैरेव यत्स्पर्शनं - अवगाहनं जघन्यपदस्य तन्निगोदमात्रावगाहनस्पर्शनं
परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. १० : सू. ११३
खण्डगोलक निष्पादकनिगोदैस्तस्यासंस्पर्शना
तस्मात्. दित्यर्थः, भूम्यासन्नापवरककोणान्तिमप्रदेशसदृशो हि जघन्यपदाख्यः प्रदेशः तं चालोकसम्बन्धादेकावगाहना एव निगोदाः स्पृशन्ति, न तु खण्डगोलनिष्पादकाः, तत्र किल जघन्यपदं कल्पनया जीवशतं स्पृशति, तस्य च प्रत्येकं कल्पनयैव प्रदेशलक्षं तत्रावगाढमित्येवं जघन्यपदे कोटी जीवप्रदेशानामवगाढेत्येवं स्तोकास्तत्र जीवप्रदेशा इति । अथोत्कृष्टपदजीवप्रदेशपरिमाणमुच्यते- 'फुसणासंखगुणत्त' ति स्पर्शनायाः - उत्कृष्टपदस्य पूर्णगोलकनिष्पादकनिगोदैः संस्पर्शनाया यदसङ्ख्यातगुणत्वं जघन्यपदापेक्षया तत्तथा तस्माद्धेतोरुत्कृष्टपदेऽसङ्ख्यातगुणा जीवप्रदेशा जघन्यपदापेक्षया भवन्ति, उत्कृष्टपदं हि सम्पूर्णगोलकनिष्पादकनिगोदैरेकावगाहनैरसङ्ख्येयैः तथोत्कृष्टपदाविमोचनेनैकैकप्रदेशपरिहानिभिः प्रत्येकमसंङ्ख्येयैरेव स्पृष्टं तच्च किल कल्पनया कोटीसहस्रेण जीवानां स्पृश्यते, तत्र च प्रत्येकं जीवप्रदेशलक्षस्यावगाहनाज्जीवप्रदेशानां दशकोटी कोट्योऽवगाढाः स्युरित्येवमुत्कृष्टपदे तेऽसङ्ख्येयगुणा भावनीया इति । अथ गोलकप्ररूपणायाह
उक्कोसपयममोत्तुं निगोय ओगाहाणाए सव्वत्तो । निप्फाइज्जइ गोलो पएसपरिवुडिहाणीहिं ॥ ६ ॥ 'उत्कृष्टपदं' विवक्षितप्रदेशम् अमुञ्चद्भिः निगोदावगाहनाया एकस्याः 'सर्वतः ' सर्वासु दिक्षु निगोदान्तराणि स्थापयद्भिनिष्पाद्यते गोलः कथं ?, प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां कांश्चित् प्रदेशान् विवक्षितावगाहनाया आक्रामद्भिः कांश्चिद्विमुञ्चद्भिरित्यर्थः एवमेकगोलकनिष्पत्तिः, स्थापना चेयम्-01
गोलकान्तरकल्पनायाह
तत्तोच्चि गोलाओ उक्कोसपयं मुइत्तु जो अन्नो । होइ निगोओ तंमिवि अन्नो निप्फज्जती गोलो ॥ ७ ॥ तमेवोक्तलक्षणं गोलकमाश्रित्यान्यो गोलको निष्पद्यते, कथम् ?, उत्कृष्टपदं प्राक्तनगोलकसम्बन्धि विमुच्य योऽन्यो भवति निगोदस्तस्मिन्नुत्कृष्टपदकल्पनेनेति । तथा च
यत्स्यात्तदाह
एवं निगोयमेत्ते खेत्ते गोलस्स होइ निप्फत्ती । एवं निप्पज्जंते लोगे गोला असंखिज्जा ॥८ ॥
'एवम्' उक्तक्रमेण निगोदमात्रे क्षेत्रे गोलकस्य भवति निष्पत्तिः, विवक्षित निगोदावगाहातिरिक्तनिगोददेशानां गोलकान्तरानुप्रवेशात्, एवं च निष्पद्यन्ते लोके गोलका असंख्येया, असङ्ख्येयत्वात् निगोदावगाहनानां प्रतिनिगोदावगाहनं च गोलकनिष्पत्तेरिति । अथ किमिदमेव प्रतिगोलकं यदुक्तमुत्कृष्टपदं तदेवेह ग्राह्यमुतान्यत् ? इत्यस्यामाशङ्कायामाहववहारएण इमं उक्कोसपयावि एत्तिया चेव । जं पुण उक्कोसपयं नेच्छइयं होइ तं वोच्छं ॥ ९ ॥ 'व्यवहारनयेन' सामान्येन 'इदम्' अनंतरोक्तमुत्कृष्टपदमुक्तं,
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परिशिष्ट-५: श. ११ : उ. १० सू. ११३
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भगवती वृत्ति
काक्वा चेदमध्येयं, तेन नेहेदं ग्राह्यमित्यर्थः स्यात्, अथ कस्मादेवम् ? इत्याह-'उक्कोसपयावि एत्तिया चेव' त्ति न केवलं गोलका असङ्ख्येयाः उत्कर्षपदान्यपि परिपूर्णगोलकप्ररूपितानि एतावन्त्येव-असङ्ख्येयान्येव भवन्ति यस्मात्ततो न नियतमुत्कृष्टपदं किञ्चन स्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कृष्टपदं नैश्चयिकं भवति सर्वोत्कर्षयोगाद् यदिह ग्राह्यमित्यर्थः तद्वक्ष्ये। तदेवाहवायरनिगोयविग्गहगहयाई जत्थ समहिया अन्ने। गोला हुज्ज सुबहुला नेच्छइयपयं तदुक्कोसं॥१०॥ बादरनिगोदानां-कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगोदविग्रहगतिकादयः आदिशब्दश्चेहाविग्रहगतिकावरोधार्थः, यत्रोत्कृष्टपदे समधिका अन्ये-सूक्ष्मनिगोदगोलकेभ्योऽपरे गोलका भवेयुः सुवबो नैश्चयिकपदं तदुत्कर्ष, बादरनिगोदा हि पृथिव्यादिषु पृथ्व्यादयश्च स्वस्थानेषु स्वरूपतो भवन्ति न सूक्ष्मनिगोदवत्सर्वत्रत्यतो यत्र क्वचित्ते भवन्ति तदुत्कृष्टपदं तात्त्विकमिति भावः। एतदेव दर्शयन्नाहइहरा पडुच्च सुहुमा बहुतुल्ला पायसो सगलगोला। तो बायराइगहणं कीरइ उक्कोसयपयंमि॥११॥ 'इहर' ति बादरनिगोदाश्रयणं विना सूक्ष्मनिगोदान् प्रतीत्य बहुतुल्याः-निगोदसङ्ख्यया समानाः प्रायशः, प्रायोग्रहणमेकादिना न्यूनाधिकत्वे व्यभिचारपरिहारार्थं, क एते? इत्याह-सकलगोलाः, न तु खण्डगोलाः, अतो न नियतं किञ्चिदुत्कृष्टपदं लभ्यते, यत एवं ततो बादरनिगोदादिग्रहणं क्रियते उत्कृष्टपदे। अथ गोलकादीनां प्रमाणमाहगोला य असंखेज्जा होति निओया असंखया गोले। एक्केक्को उ निगोओ अणंतजीवो मुणेयव्वो॥१२॥ अथ जीवप्रदेशपरिमाणप्ररूपणापूर्वकं निगोदादीनामवगाहनामानमभिधित्सुराहलोगस्स य जीवस्स य होन्ति पएसा असंखया तुल्ला। अंगुलअसंखभागो निगोयजियगोलगोगाहो॥१३॥ लोकजीवयोः प्रत्येकमसङ्ख्येयाः प्रदेशा भवन्ति ते च परस्परेण तुल्या एव, एषां च सङ्कोचविशेषाद् अङ्गलासङ्ख्येयभागो निगोदस्य तज्जीवस्य गोलकस्य चावगाह इति निगोदादिसमावगाहना। तामेव समर्थयन्नाहजमि जिओ तमेव उ निगोअ तो तम्मि चेव गोलोवि। निप्फज्जइ जं खेत्ते तो ते तुल्लावगाहणया॥१४॥ यस्मिन् क्षेत्रे जीवोऽवगाहते तस्मिन्नेव निगोदो, निगोदव्याप्त्या जीवस्यावस्थानात्, 'तो' त्ति ततः तदनन्तरं तस्मिन्नेव गोलोऽपि निष्पद्यते, विवक्षितनिगोदावगाहनातिरिक्तायाः शेषनिगोदावगाहनाया गोलकान्तरप्रवेशेन निगोदमात्रत्वाद् गोलकावगाहनाया इति, यद्-यस्मात्क्षेत्रे-आकाशे ततस्तेजीवनिगोदगोलाः 'तुल्यावगाहनाकाः' समानावगाहनाका इति। अथ जीवाद्यवगाहनासमतासामर्थ्येन यदेकत्र प्रदेशे
जीवप्रदेशमानं भवति तद्विभणिषुस्तत्प्रस्तावनार्थं प्रश्न कारयन्नाहउक्कोसपय पएसे किमेगजीवप्पएसरासिस्स। होज्जेगनिगोयस्स व गोलस्स व किं समोगाढं ?॥१५॥ तत्र जीवमाश्रित्योत्तरम्जीवस्स लोगमेत्तस्स सुहुमओगाहणावगाढस्स। एक्केक्कंमि पएसे होति पएसा असंखेज्जा॥१६॥ ते च किल कल्पनया कोटीशतसङ्ख्यस्य जीवप्रदेशराशेः प्रदेशदशसहस्रीस्वरूपजीवावगाहनया भागे हृते लक्षमाना भवन्तीति। अथ निगोदमाश्रित्याहलोगस्स हिए भागे निगोयओगाहणाएँ जं लगढ़। उक्कोसपएऽतिगयं एत्तियमेक्केक्कजीवाओ॥१७॥ 'लोकस्य' कल्पनया प्रदेशकोटीशतमानस्य हृते भागे निगोदावगाहनया कल्पनातः प्रदेशदशसहस्रीमानया यल्लब्ध तच्च किल लक्षपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽतिगतं-अवगाढमेतावदेकैकजीवात्, अनन्तजीवात्मकनिगोदसम्बन्धिन एकैकजीवसत्कमित्यर्थः। अनेन निगोदसत्कमुत्कृष्टपदे यदवगाढं तद्दर्शितमथ गोलकसत्कं यत्तत्रावगाढं तदर्शयतिएवं दव्वट्ठाओ सव्वेसिं एक्कगोलजीवाणं। उक्कोसपयमइगया होति पएसा असंखगुणा।।१८॥ यथा निगोदजीवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणास्तत्प्रदेशा उत्कृष्टपदेऽतिगता एवं 'द्रव्यार्थात्' द्रव्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया 'सव्वेसिं' ति सर्वेभ्य एकगोलगतजीवद्रव्येभ्यः सकाशादुत्कृष्टपदमतिगता भवन्ति प्रदेशा असङ्ख्यातगुणाः। इह किलानन्तजीवोऽपि निगोदः कल्पनया लक्षजीवः, गोलकश्चासङ्ख्यातनिगोदोऽपि कल्पनया लक्षनिगोदः, ततश्च लक्षस्य लक्षगुणने कोटीसहस्रसङ्ख्याः कल्पनया गोलके जीवा भवन्ति, तत्प्रदेशानां च लक्षं लक्षमुत्कृष्टपदेऽतिगतं, अतश्चैकगोलकजीवसङ्ख्यया लक्षगुणने कोटीको दशकसङ्ख्या एकत्र प्रदेशे कल्पनया जीवप्रदेशा भवन्तीति। गोलकजीवेभ्यः सकाशादेकत्र प्रदेशेऽसङ्ख्येयगुणा जीवप्रदेशा भवन्तीत्युक्तमथ तत्र गुणकारराशेः परिमाणनिर्णयार्थमुच्यतेतं पुण केवइएणं गुणियमसंखेज्जयं भवेज्जाहि। भन्नइ दब्वट्ठाइ जावइया सव्वगोलत्ति॥१९॥ तत्पुनरनन्तरोक्तमुत्कृष्ट पदातिगतजीवप्रदेशराशिसम्बन्धि 'कियता' किंपरिमाणेनासङ्ख्येयराशिना गुणितं सत 'असंखेज्जयं' ति असङ्ख्येयकम् असङ्ख्यातगुणनाद्वारायातं 'भवेत्' स्यादिति?, भण्यते अनोत्तरं, द्रव्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया यावन्तः 'सर्वगोलकाः' सकलगोलकास्तावन्त इति गम्यं, स चोत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशराशिमन्तव्यः सकलगोलकानां तत्तुल्यत्वादिति। किं कारणमोगाहणतुल्लत्ता जियनिगोयगोलाणं। गोला उक्कोसपएक्कजियपएसेहिं तो तुल्ला ॥२०॥
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भगवती वृत्ति
५६१
परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. १० : सू. ११३
'किं कारणं' ति कस्मात्कारणाद् यावन्तः सर्वगोलास्तावन्त एवोत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशाः? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरमअवगाहनातुल्यत्वात्, केषामियमित्याह-जीवनिगोदगोलानाम्, अवगाहनातुल्यत्वं चैषामङ्गलासङ्ख्येयभागमात्रावमाहित्वादिति प्रश्नः, यस्मादेवं 'तो' त्ति तस्माद्गोलाः सकललोकसम्बन्धिनः उत्कृष्टपदे ये एकस्य जीवस्य प्रदेशास्ते तथा तैरुत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्ति। एतस्यैव भावनार्थमुच्यतेगोलेहि हिए लोगे आगच्छइ जं तमेगजीवस्स। उक्कोसपयगयपएसरासितुल्लं हवइ जम्हा॥२१॥ 'गोलैः' गोलावगाहनाप्रदेशैः कल्पनया दशसहस्रसङ्ख्यैः 'हृते' विभक्ते हृतभाग इत्यर्थः 'लोके' लोकप्रदेशराशौ कल्पनया एककोटीशतप्रमाणे 'आगच्छति' लभ्यते 'यत्' सर्वगोलसङ्ख्यास्थानं कल्पनया लक्षमित्यर्थः तदेकजीवस्य सम्बन्धिना पूर्वोक्तप्रकारतः कल्पनया लक्षप्रमाणेनैवोत्कृष्टपदगतप्रदेशराशिना तुल्यं भवति यस्मात्तस्माद्गोला उत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्तीति प्रकृतमेवेति। एवं गोलकानामुत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशानां च तुल्यत्वं समर्थितं, पुनस्तदेव प्रकारान्तरेण समर्थयतिअहवा लोगपएसे एक्केक्के ठविय गोलमेक्केक्कं। एवं उक्कोसपएक्कजियपएसेसु मायति॥२२॥ अथवा लोकस्यैव प्रदेशे एकैकस्मिन् 'स्थापय' निधेहि विवक्षितसमत्वबुभुत्सो! गोलकमेकैकं, ततश्च एवम्' उक्तक्रमस्थापने उत्कृष्टपदे ये एकजीवप्रदेशास्ते तथा तेषु तत्परिमाणेष्वाकाशप्रदेशेष्वित्यर्थः मान्ति गोला इति गम्यं, यावन्त उत्कृष्टपदे एकजीवप्रदेशास्तावन्तो गोलका अपि भवन्तीत्यर्थः, ते च कल्पनया किल लक्षप्रमाणा उभयेऽपीति। अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति विभणिषुस्तेषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाहगोलो जीवो य समा पएसो जं च सव्वजीवावि। होति समोगाहणया मज्झिमओगाहणं पप्प ॥२३॥ गोलको जीवश्च समौ प्रदेशतः-अवगाहनाप्रदेशानाश्रित्य, कल्पनया द्वयोरपि प्रदेशदशसहस्रयामवगाढत्वात्, 'जं च' त्ति यस्माच्च सर्वजीवा अपि सूक्ष्मा भवन्ति समावगाहनका मध्यमावगाहनामश्रित्य, कल्पनया हि जधन्यावगाहना पञ्चप्रदेशसहस्राणि उत्कृष्टा तु पञ्चदशेति द्वयोश्च मीलनेनार्दीकरणेन च दशसहस्राणि मध्यमा भवतीति। तेण फुडं चिय सिद्धं एगपएसंमि जे जियपएसा। ते सव्वजीवतुल्ला सुणसु पुणो जह विसेसहिया।॥२४॥ इह किलासद्भावस्थापनया कोटीशतसङ्ख्यप्रदेशस्य जीवस्याकाशप्रदेशदशसहस्यामवगाढस्य जीवस्य प्रतिप्रदेशं प्रदेशलक्ष भवति, तच्च पूर्वोक्तप्रकारतो निगोदवर्तिना जीवलक्षण गणितं कोटीसहस्रं भवति, पुनरपि च तदेकगोलवर्तिना निगोदलक्षण गुणितं कोटीकोटीदशकप्रमाणं भवति, जीवप्रमाणमप्येतदेव,
तथाहि-कोटीशतसंख्यप्रदेशे लोके दशसहस्रावगाहिनां गोलानां लक्षं भवति, प्रतिगोलकं च निगोदलक्षकल्पनात् निगोदानां कोटीसहस्रं भवति, प्रतिनिगोदं च जीवलक्षकल्पनात् सर्वजीवानां कोटीकोटीदशकं भवतीति। अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदगतजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति दर्श्यतेजं संति केइ खंडा गोला लोगंतवत्तिणो अन्ने। बायरविग्गहिएहि य उक्कोसपयं जमब्भहियं ॥२५॥ यस्माद्विद्यन्ते केचित्खण्डा गोला लोकान्तवर्तिनः 'अन्ने' त्ति पूर्णगोलकेभ्योऽपरेऽतो जीवराशिः कल्पनया कोटीकोटीदशकरूप ऊनो भवति पूर्णगोलकतायामेव तस्य यथोक्तस्य भावात्, ततश्च येन जीवराशिना खण्डगोलका पूर्णीभूताः स सर्वजीवराशेरपनीयते असद्भूतत्वात्तस्य, स च किल कल्पनया कोटीमानः, तत्र चापनीते सर्वजीवराशिः स्तोकतरो भवति, उत्कृष्टपदं तु यथोक्तप्रमाणमेवेति तत्त्वतो विशेषाधिकं भवति, समता पुनः खण्डगोलानां पूर्णताविवक्षणादुक्तेति, तथा बादरविग्रहिकैश्च-बादरनिगोदादिजीवप्रदेशैश्चोत्कृष्टपदं यद्यस्मात्सर्वजीवराशेरभ्यधिकं ततः सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदे जीवप्रदेशा विशेषाधिका भवन्तीति, इयमत्र भावनाबादरविग्रहिगतिकादीनामनन्तानां जीवानां सूक्ष्मजीवासङ्ख्येयभागवर्त्तिनां कल्पनया कोटीप्रायसङ्ख्यानां पूर्वोक्तजीवराशिप्रमाणे प्रक्षेपणेन समताप्राप्तावपि तस्य बादरादिजीवराशेः कोटीप्रायसङ्ख्यस्य मध्यादुत्कर्षतोऽसङ्ख्येभागस्य कल्पनया शतसङ्ख्यस्य विवक्षितसूक्ष्मगोलकावगाहनायामवगाहनात् एकैकस्मिंश्च प्रदेशे प्रत्येकं जीवप्रदेशलक्षस्यावगाढत्वात् लक्षस्य च शतगुणत्वेन कोटीप्रमाणत्वात् तस्याश्चोत्कृष्टपदे प्रक्षेपात्पूर्वोक्तमुत्कृष्टपदजीवप्रदेशमानं कोट्याऽधिकं भवतीति। यस्मादेवंतम्हा सव्वेहितो जीवेहिंतो फुडं गहेयव्वं । उक्कोसपयपएसा होति विसेसाहिया नियमा॥२६॥ इदमेव प्रकारान्तरेण भाव्यतेअहवा जेण बहुसमा सुहुमा लोएऽवगाहणाए य। तेणेक्केक्कं जीवं बुद्धीऍ विरल्लए लोए॥२७॥ यतो बहसमाः-प्रायेण समाना जीवसङ्ख्यया कल्पनया एकैकावगाहनायां जीवकोटीसहस्रस्यावस्थानात्, खण्डगोलकैर्व्यभिचारपरिहारार्थं चेह बहुग्रहणं, 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मनिगोदगोलकाः कल्पनया लक्षकल्पाः 'लोके' चतुर्दशरज्ज्वात्मके, तथाऽवगाहनया च समाः, कल्पनया दशसु दशसु प्रदेशसहस्रेष्ववगाढत्वात्, तस्मादेकप्रदेशावगाढजीवप्रदेशानां सर्वजीवानां च समतापरिज्ञानार्थमेकैकं जीवं बुद्ध्या 'विरल्लए' त्ति केवलिसमुद्घातगत्या विस्तारयेल्लोके, अयमत्र भावार्थः-यावन्तो गोलकस्यैकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशा भवन्ति कल्पनया कोटीकोटीदशकप्रमाणास्तावन्त एव विस्तारितेषु जीवेषु लोकस्यैकत्र प्रदेशे ते भवन्ति, सर्वजीवा अप्येतत्समाना एवेति, अत एवाह
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परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. १०,११ : सू. ११३-१२३
५६२
भगवती वृत्ति
एवंपि समा जीवा एगपएसगयजियपएसेहिं।
तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चेति प्रमाणकालः प्रमाणं बायरबाहुल्ला पुण होति पएसा विसेसहिया॥२८॥
वा-परिच्छेदनं वदिस्तत्प्रधानस्तदर्थो वा कालः प्रमाणकालः एवमपि न केवलं 'गोलो जीवो य समा' इत्यादिना अन्द्राकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षणः, आह चपूर्वोक्तन्यायेन समा जीवा एकप्रदेशगतैर्जीवप्रदेशैरिति, 'दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य। उत्तरार्द्धस्य तु भावना प्राग्वदवसेयेति। अथ पूर्वोक्तराशीनां चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥१॥ निदर्शनान्यभिधित्सुः प्रस्तावयन्नाह
(द्विविधः प्रमाणकालो दिवसप्रमाणश्च भवति रात्रिश्च । तेसिं पुण रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पच्चक्खं।
चतुष्पौरुषीको दिवसो रात्रिश्चतुष्पौरुषीका चैव।।१।। सुहगहणगाहणत्थं ठवणारासिप्पमाणेहिं॥२९॥
'अहाउनिव्वत्तकाले' त्ति यथा-येन प्रकारेणायुषो निर्वृत्तिःगोलाण लक्खमेक्कं गोले २ निगोयलक्खं तु।
बन्धनं तथा यः कालः-अवस्थितिरसौ यथायुर्निर्वृत्तिकालोएक्केक्के य निगोए जीवाणं लक्खमेक्केक्कं॥३०॥
नारकाद्यायुष्कलक्षणः, अयं चाद्धाकाल एवायुः कर्मानुभवकोडिसयमेगजीवप्पएसमाणं तमेव लोगस्स।
विशिष्टः सर्वेषामेव संसारिजीवानां स्यात, आह च-- गोलनिगोयजियाणं दस उ सहस्सा समोगाहो॥३१॥
'नेरइयतिरियमणुया देवाण अहाउयं तु जं जेणं। जीवस्सेक्केक्कस्स य दससाहस्सावगाहिणो लोगे।
निव्वत्तियमन्नभवे पालेंति अहाउकालो सो॥१॥ एक्केक्कंमि पएसे पएसलक्खं समोगाढं॥३२॥
(नैरयिकतिर्यग्मनुजानां देवानामथायुर्यधनान्यस्मिन भवे जीवसयरस जहन्ने पयंमि कोडी जियप्पएसाणं।
निर्वर्तितं तथा पालयन्ति स यथाऽऽयुष्कालः ।।२।।) 'मरणओगाढा उक्कोसे पयंमि वोच्छं पएसग्गं॥३३॥
काले' ति मरणेन वि अद्धा-शिष्टः कालः मरणकालःकोडिसहस्सजियाणं कोडाकोडीदसप्पएसाणं।
अदाकालः एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य कालपर्यायउक्कोसे ओगाढा सव्वजियाऽवेत्तिया चेव॥३४॥
त्वान्मरणकालः, 'अद्धाकाले ति सभयादयो विशेषास्तपः कोडी उक्कोसपयंमि बायरजियप्पएसपक्खेवो।
कालोऽन्दाकालः-चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसोहणयमेत्तिय चिय कायव्वं खंडगोलाणं॥३५॥
समुद्रान्तर्वर्ती समयादिः, आह चउत्कृष्टपदे सूक्ष्मजीवप्रदेशराशेरुपरि कोटीप्रमाणो बादरजीव- 'समयावलिय मुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा य। प्रदेशानां प्रक्षेपः कार्यः, शतकल्पत्वाद्विवक्षितसूक्ष्मगोल- संवच्छरजुगपलिया सागरओस्सप्पिपरियट्टा॥१॥' कावगाढबादरजीवानां, तेषां च प्रत्येकं प्रदेशलक्षस्यो- अनन्तरं चतुष्पौरुषीको दिवसश्चतुष्पौरुषीका च त्कृष्टपदेऽवस्थितत्वात्, तन्मीलने च कोटीसद्भावादिति, तथा रात्रिर्भवतीत्युक्तमथ पौरुषीमेव प्ररूपयन्नाहसर्वजीवराशेर्मध्याच्छोधनकं-अपनयनम् ‘एत्तियं चियं त्ति ११/१२०. 'उक्कोसिये' त्यादि, 'अद्धपंचमुहत्तं' ति अष्टादशएतावतामेव-कोटीसङ्ख्यानामेव कर्त्तव्यं, 'खण्डगोलानां' मुहूर्त्तस्य दिवसस्य रात्रेर्वा चतुर्थो भागो यस्मादपञ्चममुहूर्त्ता खण्डगोलकपूर्णताकरणे नियुक्तजीवानां तेषामसद्भावि- नवघटिका इत्यर्थः ततोऽर्द्धपञ्चमा मुहूर्त्ता यस्यां सा तथा, कत्वादिति॥
'तिमुहत्त' ति द्वादशमुहूर्त्तस्य दिवसादेश्चतुर्थो भागस्त्रिमुहूर्तो एएसि जहासंभवमत्थोवणयं करेज्ज रासीणं।
भवति अतस्त्रयो मुहूर्ताः-षट् घटिका यस्यां सा तथा। सब्भावओ य जाणिज्ज ते अणंता असंखा वा॥३६॥ ११/१२१. 'कइभागमुहुत्तभागेणं' ति कतिभाग:-कतिथभागस्तद्रूपो इहार्थोपनयों यथास्थानं प्रायः प्राग् दर्शित एव, 'अणंत' त्ति मुहूर्तभागः कतिभागमुहूर्तभागस्तेन, कतिथेन मुहूर्त्ताशेनेत्यर्थः निगोदे जीवा यद्यपि लक्षमाना उक्तास्तथाऽप्यनन्ताः, एवं 'बावीससयभागमुहृत्तभागेणं' ति इहार्द्धपञ्चमानां त्रयाणां च सर्वजीवा अपि, तथा निगोदादयो ये लक्षमाना उक्तास्तेऽ- मुहूर्त्तानां विशेषः सार्दो मुहूर्त्तः स च त्र्यशीत्यधिकेन प्यसङ्ग्येया अवसेया इति।
दिवसशतेन वर्द्धते हीयते च, स च सार्दो मुहूर्त्तस्त्रयः एकादशशते दशमोद्देशकः समाप्त।
शीत्यधिकशतभागतया व्यवस्थाप्यते, तत्र च मुहूर्ते
द्वाविंशत्यधिकं भागशतं भवत्यतोऽभिधीयते-'बावीसे' त्यादि, एकादशम उद्देशकः
द्वाविंशत्यधिकशततमभागरूपेण मुहूर्तभागेनेत्यर्थः।।
११/१२३. 'आसाढपुन्निमाए' इत्यादि, इह 'आषाढपौर्णमास्या' मिति अनन्तरोद्देशके लोकवक्तव्यतोक्ता, इह तु लोकवर्त्तिकाल
यदुक्तं तत् पञ्चसंवत्सरिकयुगस्यान्तिमवर्षापेक्षयाऽवसेयं, द्रव्यवक्तव्यतोच्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्यैकादशोद्देशक
यतस्तत्रैवाषाढपौर्णमास्यामष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, स्येदमादिसूत्रम्
अर्द्धपञ्चममुहर्ता च तत्पौरुषी भवति, वर्षान्तरे तु यत्र दिवसे ११/११५. 'तेण' मित्यादि।
कर्कसङ्क्रान्तिर्जायते तत्रैवासौ भवतीति समवसेयमिति, एवं ११/११९. 'पमाणकाले' त्ति प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि
पौषपौर्णमास्यामप्यौचित्येन वाच्यमिति।
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भगवती वृत्ति
५६३
परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. ११ : सू.१२४-१३३
अनन्तरं रात्रिदिवसयोर्वैषम्यमभिहितं, अथ तयोरेव समतां
दर्शयन्नाह११/१२४.१२५. 'अत्थि ण' मित्यादि, इह च 'चेत्तासोयपुन्निमाएसु
ण' मित्यादि यदुच्यते तद्व्यवहारनयापेक्षं निश्चयतस्तु कळमकरसंक्रान्तिदिनादारभ्य यद् द्विनवतितममहोरात्रं तस्याट्टै समा दिवरात्रिप्रमाणतेति, तत्र च पञ्चदशमुहुर्ते दिने रात्रौ वा पौरुषीप्रमाणं त्रयो मुहूत्तस्त्रियश्च मुहूर्त्तचतुर्भागा भवन्ति, दिनचतुर्भागरूपत्वात्तस्याः , एतदेवाह-'चउभागे' त्यादि, चतुर्भागरूपो यो मुहूर्तभागस्तेनोना चतुर्भागमुहूर्त
भागोना चत्वारो मुहर्ता यस्यां पौरुष्यां सा तथेति। ११/१२६. से किं तं अहाउनिव्वत्तियकाले' इत्यादि, इह च 'जेणं'
ति सामान्यनिर्देशे ततश्च येन केनचिन्नारकाद्यन्यतमेन 'अहाउयं निव्वत्तिय ति यत्प्रकारमायुष्कं-जीवितमन्तर्मुहूर्त्तादि
यथाऽऽयुष्कं 'निर्वर्तितं निबद्धं। ११/१२७. 'जीवो वा सरीरे' त्यादि, जीवो वा शरीरात् शरीरं वा
जीवात् वियुज्यत इति शेषः, वा शब्दौ शरीरजीवयोरवधि
भावस्येच्छानुसारिताप्रतिपादनार्थाविति। ११/१२८. से किं तं अद्धाकाले' इत्यादि, अद्धाकालोऽनेकविधः
प्रज्ञप्तस्तद्यथा-'समयट्ठयाए' त्ति समयरूपोऽर्थः समयार्थस्तद्धावस्तत्ता तया समयभावेनेत्यर्थः एवमन्यत्रापि, यावत्करणात् 'मुहत्तट्ठयाए' इत्यादि दृश्यमिति। अथानन्तरोक्तस्य समयादिकालस्य स्वरूपमभिधातुमाह-एस ण' मित्यादि, एषा अनन्तरोक्तोत्सर्पिण्यादिका 'अद्धा दोहारच्छेयणेणं ति द्वौ हारौ-भागौ यत्र छेदने द्विधा वा कारः-करणं यत्र तद् द्विहारं द्विधाकारं वा तेन 'जाहे' ति यदा तदा समय इति शेषः 'सेत्त' मित्यादि निगमनम्। 'असंखेज्जाण' मित्यादि, असङ्ख्यातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदया-वृन्दानि तेषां याः समितयो-मीलनानि तासां यः समागमः-संयोगः स समुदयसमितिसमागमस्तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सैकावलिकेति प्रोच्यते.
'सालिउद्देसए' त्ति षष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके। ११/१२९. पल्योपमसागरोपमाभ्यां नैरयिकादीनामायुष्काणि मीयन्त
इत्युक्तमथ तदायुष्कमानमेव प्रज्ञापयन्नाह११/१३०. 'नेरइयाण' मित्यादि, 'ठितिपयं' ति प्रज्ञापनायां चतुर्थं
पदं अथ पल्योपमसागरोपमयोरतिप्रचुरकालत्वेन क्षयमसम्भावयन्
प्रश्नयन्नाह११/१३१. 'अत्थि णा' मित्यादि, ‘खये' त्ति सर्वविनाशः 'अवचए'
त्ति देशतोऽपगम इति। अथ पल्योपमादिक्षयं तस्यैव सुदर्शनस्य चरितेन
दर्शयन्निदमाह११/१३२. 'एवं खलु सुदंसणे' त्यादि। ११/१३३. 'तंसि तारिसगंसि' त्ति तस्मिंस्तादृशके वक्तुम
शक्यस्वरूपे पुण्यवतां योग्य इत्यर्थः 'दूमियघट्ठमट्ठ' त्ति
दूमितं-धवलितं घृष्टं कोमलपाषाणादिना अत एव मष्टं--मसणं यत्तत्तथा तस्मिन् विचित्तउल्लोयचिल्लियतले' त्ति विचित्रोविविधचित्रयुक्तः उल्लोकः-उपरिभागो यत्र 'चिल्लियं ति दीप्यमानं तलं च-अधोभागो यत्र तत्तथा तत्र 'पंचवन्नसरस. सुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए' त्ति पञ्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा च मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा। तत्र 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे' ति कालागुरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्भूतः-ऊद्भुतस्तेनाभिराम-रम्यं यत्तत्तथा तत्र, कुन्दरुक्का-चीडा तुरुक्कं-सिल्हकं, 'सुगंधिवरगंधिए' त्ति सुगन्धयः-सद्गन्धाः वरगन्धाः-वरवासाः सन्ति यत्र तत्तथा तत्र, 'गंधवट्टिभूए' त्ति सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे 'सालिंगणवट्टिए' ति सहालिङ्गनवा-शरीरप्रमाणोपधानेन यत्तत्तथा तत्र 'उभओ विव्वोयणे' उभयतः-शिरोऽन्त. पादान्तावाश्रित्य विव्वोयणे-उपधानने यत्र तत्तथा। तत्र 'दुहओ उन्नए' उभयत उन्नते 'मज्झेणयगंभीरे मध्ये नतं च-निम्न गम्भीरं च महत्त्वाद् यत्तत्तथा तत्र; अथवा मध्येन च-मध्यभागेन च गम्भीरे यत्तत्तथा, (पण्णत्त), 'गंडविव्वोयणे' ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च सुपरिकर्मितगण्डोपधाने इत्यर्थः। 'गंगापुलिणवालुउद्दालसालिसए' गङ्गापुलिनवालुकाया योऽवदाल:अवदलन पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सदृशकमतिमृदुत्वाद्यत्तत्तथा तत्र, दृश्यते च हंसतूल्यादीनामयं न्याय इति, 'उवचियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे' 'उवचिय' ति परिकर्मितं यत् क्षौमिकं दुकूलं-कासिकमतसीमयं वा वस्त्रं युगलापेक्षया यः पट्टः-शाटकः स प्रतिच्छादनं-आच्छादनं यस्य तत्तथा। तत्र 'सुविरइयरयत्ताणे' सुष्ठ विरचितं-रचितं रजस्त्राणं-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां यस्मिंस्तत्तथा। तत्र 'रतंसुयसंवुए' रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रविशेषावृते। 'आइणगख्यबूरनवणीयतूलफासे' आजिनकं-- चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति स्तं च-कप्पासपक्ष्म बूरं च-वनस्पतिविशेषः नवनीतं च-म्रक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वस्तत एषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा। तत्र 'सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणोक्यारकलिए ति सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि चूर्णा एतद्व्यतिरिक्ततथाविधशय-नोपचाराश्च तैः कलितं यत्तत्तथा। तत्र 'अद्धरत्तकालसमयंसि' ति समयः समाचारोऽपि भवतीति कालेन विशेषितः कालरूपः समयः कालसमयः स चानर्द्धरात्रिरूपोऽपि भवतीत्यतोऽ-र्द्धरात्रिशब्देन विशेषितस्ततश्चार्द्धरात्ररूपः कालसमयोऽर्द्धरात्रकालसमयस्तत्र 'सुत्तजागर' ति नातिसुप्ता नातिजागरेति भावः किमुक्तं भवति?-'ओहीरमाणी' त्ति प्रचलायमाना, ओरालादिविशेषणानि पूर्ववत् ‘सुविणे' त्ति स्वप्नक्रियायां 'हाररययखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरोरुर - मणिज्जपेच्छणिज्जं' हारादय इव पाण्डुरतर:-अतिशुक्लः उरु:-विस्तीर्णो रमणीयो
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परिशिष्ट-५ : श.११ : उ. ११ : सू. १३३-१३८
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भगवती वृत्ति
रमणीयो-रम्योऽत एव प्रेक्षणीयश्च-दर्शनीयो यः स तथा तम्. कल्याणानि-अर्थप्राप्तयो मङ्गलानि-अनर्थप्रतिघाताः। 'अत्थइह च रजतमहाशैलो वैताढ्य इति, 'थिरलट्ठपउट्ठवट्टपीवरसु- लाभो देवाणुप्पिए!' भविष्यतीति शेषः 'कुलके' ति केतुश्चिह्न सिलिट्ठविसिट्ठतिक्खदाढाविडंबियमुह स्थिरौ-अप्रकम्पौ लष्टौ- ध्वज इत्यनर्थान्तरं केतुरिव केतुरुद्भुतत्वात् कुलस्य केतुः मनोज्ञौ प्रकोष्ठौ-कर्पूरातनभागौ यस्य स तथा तं वृत्ता- कुलकेतुस्तं, एवमन्यत्रापि, 'कुलदीवं' ति दीप इव दीपः वर्तुलाः पीवराः- स्थूलाः सुश्लिष्टा-अविशर्वराः विशिष्टा-वराः प्रकाशकत्वात् 'कुलपव्वयं' ति पर्वतोऽनभिभवनीयतीक्ष्णा-भेदिका या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा विडम्बितं मुखं यस्य स्थिराश्रयतासाधात् 'कुलवडेंसयं' ति कुलावतंसक स तथा। ततः कर्मधारयोऽतस्तं ‘परिकम्मियजच्चकमल- कुलस्यावतंसकः-शेखर उत्तमत्वात् 'कुलतिलयं' ति तिलकोकोमलमाइयसोहंतलट्टरटुं' परिकर्मितं कृतपरिकर्मयज्जात्य- विशेषको भूषकत्वात् 'कुलकित्तिकरं' ति इह कीर्तिरेकदिरकमलं तद्वत्कोमलौ मात्रिकौ-प्रमाणोपपन्नो शोभमानानां मध्ये गामिनी प्रसिद्धिः। 'कुलनंदिकरं' ति तत्समृद्धिहेतुत्वात्। लष्टौ-मनोज्ञौ ओष्ठौ-दशनच्छदौ यस्य स तथा तं 'कुलजसकरं ति इह यशः सर्वदिग्गामी प्रसिद्धिविशेष 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहं' रक्तोत्पलपत्रवत् मृदूनां 'कुलपायवं' ति पादपश्चाश्रयणीयच्छायत्वात्। 'कुलविवड्ड मध्ये सुकमाले तालुजिह्वे यस्य स तथा। तं, वाचनान्तरे तु णकरं' ति विविधैः प्रकारैर्वर्द्धनं विवर्धनं तत्करणशीलं। 'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं महुगुलिया- 'अहीणपुन्नपंचिदियसरीरं' ति अहीनानि-स्वरूपतः पूर्णानिभिसंतपिंगलच्छं' ति तत्र च रक्तोत्पलपत्रवत् सुकुमालं तालु सङ्ख्यया पुण्यानि वा-पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तत्तथा। निर्लालिताग्रा च जिह्वा यस्य स तथा तं मधुगुटिकादिवत् तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं, यावत्करणात् 'भिसंत' ति दीप्यमाने पिङ्गले अक्षिणी यस्य स तथा। तं 'लक्खणवंजणगुणोववेय' मित्यादि दृश्यं। तत्र लक्षणानि'मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंतवट्टतडिविमलसरिसनयणं' स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मषतिलकादीनि तेषां यो मूषा-स्वर्णादितापनभाजनं तद्गतं यत्प्रवरकनकं तापितं-- गुणः-प्रशस्तता तेनोपपेतो-युक्तो यः स तथा तं कृताग्नितापम् 'आवत्तायंत' त्ति आवर्त्त कुर्वाणं तद्वद् ये वर्णतः 'ससिसोमाकारं कंतं पियदसणं सुरूवं' शशिवत् सौम्याकारं वृत्ते च तडिदिव विमले च सदृशे च परस्परेण नयने-लोचने कान्तं च-कमनीयं अत एव प्रियं द्रष्ट्रणां दर्शनं-रूपं यस्य स यस्य स तथा तं। 'विसालपीवरोरुपडिपुन्नविपुलखंध' विशाले- तथा तं 'विन्नायपरिणयमित्ते' ति विज्ञ एव विज्ञकः स चासौ विस्तीर्णे पीवरे-उपचिते ऊरू-जवे यस्य परिपूर्णो विपुलश्च परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते विज्ञकपरिणतमात्रः 'सूरे' स्कन्धो यस्य स तथा तं। 'मिउविसयसुहमलक्खण- त्ति दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा 'वीरे' त्ति सङ्ग्रामतः पसत्थविच्छिन्नकेसरसडोवसोहियं' मदवः 'विसद' त्ति स्पष्टाः 'विक्कते' त्ति विक्रान्तः-परकीय-भूमण्डलाक्रमणतः 'विच्छिन्नसूक्ष्माः 'लक्खणपसत्थ' त्ति प्रशस्तलक्षणाः विस्तीर्णाः विपुलबलवाहणे' त्ति विस्तीर्णविपुले-अतिविस्तीर्णे बलवाहनेपाठान्तरेण विकीर्णा याः केशरसटाः-स्कन्धकेशच्छ- सैन्यगजादिके यस्य स तथा 'रज्जवइ' त्ति स्वतन्त्र इत्यर्थः । टास्ताभिरुपशोभितो यः स तथा तं 'ऊसिय- ११/१३५. 'मा मे से ति मा ममासौ स्वप्न इत्यर्थः 'उत्तमे त्ति सुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं' उच्छ्रितं-ऊर्वीकृतं स्वरूपतः 'पहाणे' ति अर्थप्राप्तिरूपप्रधानफलतः 'मंगल्ले' त्ति सुनिर्मितं-सुष्ठ अधोमुखीकृतं सुजातं-शोभनतया जातं अनर्थप्रतिघातरूपफलापेक्षयेति। 'सुमिणजागरियं' ति आस्फोटितं च-भूमावास्फालितं लाङ्गलं येन स तथा तं स्वप्नसंरक्षणाय जागरिका-निद्रानिषेधः स्वप्नजागरिका तां 'अतरियमचवलं' ति देहमनश्चापल्यरहितं यथा भवत्येवम् 'पडिजागरणमाणी-पडिजागरमाणी' ति प्रतिजाग्रती-कुर्वन्ती, 'असंभंताए' ति अनुत्सुकया 'रायहंससरिसीए' त्ति आभीक्ष्ण्ये च द्विवचनम्। राजहंसगतिसदृश्येत्यर्थः आसत्थ' त्ति आश्वस्ता ११/१३६. 'गंधोदयसित्तसुइयसम्मज्जिओवलित्तं ति गन्धोदकेन गतिजनितश्रमाभावात् 'वीसत्थ' त्ति विश्वस्ता ससोभाभावात् सिक्ता शुचिका-पवित्रा संमार्जिता कचबरापनयनेन उपलिप्ता अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगय' त्ति सुखेन सुखं वा शुभं वा छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तआसनवरं गता या सा तथा।
संमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्य, सिक्ताद्यनन्तर११/१३४. 'धाराहयनीवसुरहिकुसुमचंचुमालइयतणु' त्ति धारा- भावित्वाच्छुचिकत्वस्येति।
हतनीपसुरभिकुसुममिव 'चंचुमालइय' त्ति पुलकिता तनुः- ११/१३८. 'अट्टणसाल' त्ति व्यायामशाला 'जहा उववाइए तहेव शरीरं यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?-'ऊसवियरोमकूवे' त्ति अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे' त्ति यथौतिपपातिकेऽट्टणउच्छ्रितानि रोमाणि कूपेषु-तद्रन्धेषु यस्य स तथा, 'मइपुव्वेणं' शालाव्यतिकरो मज्जनगृहव्यतिकरश्चाधीतस्तथेहाप्यध्येतव्य ति आभिनिबोधिकप्रभवेन 'बुद्धिविन्नाणेणं' ति मतिविशेष- इत्यर्थः। स चायम्-'अणेगवायामजोग्गवग्गणवामद्दणमल्लभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन 'अत्थोग्गहणं' ति फल- युद्धकरणेहिं संते' इत्यादि, तत्र चानेकानि व्यायामार्थं यानि निश्चयम्' 'आरोग्गतुट्ठिीहाउकल्लाणमंगल्लकारए णं' ति इह योग्यादीनि तानि तथा तैः, तत्र योग्या-गुणनिका वलूगनं
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भगवती वृत्ति
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उल्ललनं व्यामर्द्दनं - परस्परेणाङ्गमोटनमिति, मज्जनगृहव्यतिकरस्तु 'जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ समंतजालाभिरामे' समन्ततो जालकाभिरमणीये 'विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे हणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि हाणपीढंसि सुहनिसणे' इत्यादिरिति । 'महग्घवरपट्टणुग्गयं' ति महार्घा च सावरपत्तनोगता च वरवस्त्रोत्पत्तिस्थानसम्भवेति समासोऽतस्तां वरपट्टनाद्वा-प्रधानवेष्टनाद् उद्द्वता-निर्गता या सा तथा तां 'सहपट्टभत्तिसयचित्तताणं' ति सह पट्ट ति सूक्ष्मपट्टः सूत्रमयो भक्तिशतचित्रस्तान:- तानको यस्यां सा तथा ताम् 'ईहामिए' त्यादि यावत्करणादेवं दृश्यम् - 'ईहामियउसभणरतुरगमकरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तं' ति तत्रेहामृगा वृका ऋषभाः- वृषभाः नरतुरगमकरविहगाः प्रतीताः व्यालाः- स्वापदभुजगाः किन्नराःव्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-आटव्या महाकायाः पशवः परासरेति पर्यायाः चमरा- आटव्या गावः कुञ्जरागजाः वनलता- अशोकादिलताः पद्मलता :- पद्मिन्यः एतासां यका भक्तयो - विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा । तां 'अब्भिंतरियं' ति अभ्यन्तरां 'जवणियं' ति यवनिकाम् 'अंछावेइ' ति आकर्षयति 'अत्थरयमउयमसूरगोत्थयं' ति आस्तरकेण प्रतीतेन मृदुमसूरकेण वा अथवाऽस्तरजसानिर्मलेन मृदुमसूरकेणावस्तृतं - आच्छादितं यत्तत्तथा । 'अंगसुहफास' अङ्गसुखो देहस्य शर्महेतुः स्पर्शो यस्य तदङ्गसुखस्पर्शकम् । 'अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए' त्ति अष्टाङ्गअष्टावयवं यन्महानिमित्तं-परोक्षार्थप्रतिपत्तिकारण व्युत्पादकं महाशास्त्रं तस्य यौ सूत्रार्थों तौ धारयन्ति ये ते तथा तान्, निमित्ताङ्गानि चाष्टाविमानि
'अट्ट निमित्तंगाई दिव्वु १ प्पातं २ तरिक्ख ३ भोमं च ४ । अंगं ५ सर ६ लक्खण ७ वंजणं च ८ तिविहं पुणेक्केक्कं ॥ १ ॥' (अष्ट निमित्ताङ्गानि दिव्यमुत्पातमन्तरिक्षं भौमं चाङ्गं स्वरं लक्षणं व्यञ्जनं च पुनरेकैकं त्रिविधम् ॥ १ ॥ ) |
११ / १३९. 'सिग्घ' मित्यादीन्येकार्थानि पदानि औत्सुक्योत्कर्षप्रतिपादनपराणि।
११/१४०. 'सिद्धत्थगहरिया लियाकयमंगलमुद्धाण' त्ति सिद्धार्थका:सर्षपाः हरितालिका-दूर्वा तल्लक्षणानि कृतानि मङ्गलानि मूर्ध्नि यैस्ते तथा ।
११/१४२. संचालंति' त्ति सञ्चारयन्ति 'लट्ठ' त्ति स्वतः 'गहियट्ट' त्ति परस्मात् 'पुच्छियट्ठ' त्ति संशये सति परस्परतः 'विणिच्छियट्ट' त्ति प्रश्नानन्तरं अत एवाभिगतार्था इति । 'सुविण' ति सामान्यफलत्वात् 'महासुविण' त्ति महाफलत्वात् 'बावत्तरिं' ति त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति 'गब्र्भ वक्कममाणंसि' त्ति गर्भं व्युत्क्रामति-प्रविशति सतीत्यर्थः, 'गयवसहे' त्यादि, इह च 'अभिसेय' त्ति लक्ष्म्या अभिषेकः
परिशिष्ट - ५ : श. ११ : उ. ११ : सू. १३८-१५१
'दाम' त्ति पुष्पमाला। 'विमाणभवण' त्ति एकमेव, तत्र विमानाकारं भवनं विमानभवनं, अथवा देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति यस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति, इह च गाथायां केषुचित्पदेष्वनुस्वारस्याश्रवणं गाथाऽनुलोम्याद् दृश्यमिति ।
११ / १४३. जीवियारिहं ति जीविकोचितम् ।
११/१४५. 'उउभयमाणसुहेहिं ति ऋत २ भज्यमानानि यानि
सुखानि - सुखहेतवः शुभानि वा तानि तथा तैः । 'हियं' ति मेघ गर्भमपेक्ष्य 'मियं ति परिमितं नाधिकमूनं वा 'पत्थं' ति सामान्येन पथ्यं । किमुक्तं भवति ? - 'गब्भपोसणं' ति गर्भपोषकमिति 'देसे य' ति उचितभूप्रदेशे 'काले य' त्ति तथाविधावसरे। 'विवित्तमउएहिं' ति विविक्तानिदोषवियुक्तानि लोकान्तरासङ्कीर्णानि वा मृदुकानि च-कोमलानि यानि तानि तथा तैः 'पइरिक्कसुहाए' त्ति प्रतिरिक्तत्वेन तथाविधं जनापेक्षया विजनत्वेन सुखा शुभा वा या सा तथा तया । 'पसत्थदोहल' त्ति अनिन्द्यमनोरथा 'संपन्न दोहना' अभिलषितार्थपूरणात् 'संमाणियदोहला' प्राप्तस्याभिलषितार्थस्य भोगात् 'अविमाणियदोहल' ति क्षणमपि लेशेनापि च नापूर्णमनोरथेत्यर्थः । अत एव 'वोच्छिन्न दोहल' त्ति त्रुटितवाञ्छेत्यर्थः । दोहदव्यवच्छेदस्यैव प्रकर्षाभिधानायाह'विणीयदोहल' ति 'ववगए' इत्यादि, इह च मोहो-मूढता भयं-भीतिमात्रं परित्रासः - अकस्माद्भयम् । इह स्थाने वाचनान्तरे 'सुहंसुहेणं आसयइ सुयइ चिट्ठड़ निसीयड तुयदृइ' त्ति दृश्यते तत्र च 'सुहसुहेणं' ति गर्भानाबाधया 'आसयइ' ति आश्रयत्याश्रयणीयं वस्तु 'सुयइ' त्ति शेते 'चिट्टइ' ति ऊर्ध्वस्थानेन तिष्ठति 'निसीय' त्ति उपविशति 'तुयट्टइ' ति शय्यायां वर्त्तते इति ।
११/१४७. 'पियट्टयाए' त्ति प्रियार्थतायै प्रीत्यर्थमित्यर्थः 'पियं निवेएमो' त्ति 'प्रियम्' इष्टवस्तु पुत्रजन्मलक्षणं निवेदयामः 'पियं भे भवउ' त्ति एतच्च प्रियनिवेदनं प्रियं भवतां भवतु तदन्यद्वा प्रियं भवत्विति ।
११/१४८. 'मउडवज्जं' ति मुकुटस्य राजचिह्नत्वात् स्त्रीणां चानुचितत्वात्तस्येति तद्वर्जनं 'जहामालियं' ति यथामालितं यथा धारितं यथा परिहितमित्यर्थः । 'ओमोयं' ति अवमुच्यते- परिधीयते यः सोऽवमोकः- आभरणं तं 'मत्थए धोबड़' त्ति अङ्गप्रतिचारिकाणां मस्तकानि क्षालयति दासत्वापनयनार्थं, स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वमपगच्छतीति लोकव्यवहारः ।
११ / १४९. 'चारगसोहणं' ति बन्दिविमोचनमित्यर्थः 'माणुम्माणवणं करेह' त्ति इह मानं रसधान्यविषयम् उन्मानंतुलारूपम् ।
११/१५१. 'उस्सुक्कं' ति उच्छुल्का' मुक्तशुक्लां स्थितिपतितां कारयतीति सम्बन्धः, शुल्ककं तु विक्रेयभाण्डं प्रति राजदेयं
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परिशिष्ट-५ : श. ११ : उ. ११ : सू. १५१-१५८
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भगवती वृत्ति
द्रव्यम् ‘उक्करं ति उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष ११/१५४. 'जहा दढपइन्ने ति यथौपपातिके दृढप्रतिज्ञोऽधीतराजदेयं द्रव्यं, 'उक्किटुं' ति उत्कृष्टां-प्रधानां कर्षणनिषेधाज्ञा स्तथाऽयं वक्तव्यः, तच्चैवं-मज्जणधाईए मंडणधाईए 'अदिज्जं त्ति विक्रयनिषेधेनाविद्यमानदातव्यां 'अमिज्जं' ति कीलावणधाईए अंकधाईए' इत्यादि, 'निवायनिव्वाघायसी' विक्रयप्रतिषेधादेवाविद्यमानमातव्यां अविद्यमानमायां वा त्यादि च वाक्यमिहैवं सम्बन्धनीयं 'गिरिकंदरमल्लीणेव्व 'अभडप्पवेसं ति अविद्यमानो भटानां राजाज्ञादायिनां पुरुषाणां चंपगपायवे निवायनिव्वाघायंसि सुहसुहेण परिवड्डइ' ति। प्रवेशः कुटुम्बिगेहेसु यस्यां सा तथा तां। 'अदंडकोदंडिम' ति ११/१५५. 'परंगामणंति' भूमौ सर्पणं 'पयचंकामणं' ति पादाभ्यां दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्ड एव कुदण्डेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिम सञ्चारणं 'जेमामणं' ति भोजनकारणं 'पिंडवद्धणं' ति तन्नास्ति यस्यां साउदण्डकुदण्डिमा तां, तत्र दण्ड:- कवलवृद्धिकारणं ‘पज्जपावणं ति प्रजल्पनकारणं। 'कण्णअपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यं कुदण्डस्तु-कारणिकानां वेहणं' ति प्रतीतं 'संवच्छरपडिलेहणं' ति वर्षग्रन्थिकरणं प्रज्ञापराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्य द्रव्यमिति 'चोलोयणं' चूडाधरणम उवणयणं' ति कलाग्राहणं। 'अधरिम' ति अविद्यमानधारणीयद्रव्याम ऋणमुत्कलनात् 'गब्भाहाणजम्मणमाइयाई कोउयाई करेंति' ति गर्भाधानादिषु 'गणियावरनाडइज्जकलियं गणिकावरैः-वेश्याप्रधानैर्नाट- यानि कौतुकानि-रक्षाविधानादीनि तानि गर्भाधानाकीयैः-नाटकसम्बन्धिभिः पात्रैः कलिता या सा तथा ताम्। दीन्येवोच्यन्त इति गर्भाधानजन्मादिकानि कौतुकानीत्येवं 'अणेगतालाचराणुचरियं नानाविधप्रेक्षाचारिसेवितामित्यर्थः समानाधिकरणतया निर्देशः कृतः। 'अणुद्धझ्यमुइंग' ति अनुभृता-वादनार्थं वादकैरविमुक्ता मृदङ्गा ११/१५६. 'एवं जहा दढपइन्नो' इत्यनेन यत्सूचितं तदेवं दृश्ययस्यां सा तथा ताम्। 'अमिलायमल्लदाम' अम्लानपुष्पमालां 'सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहत्तंसि पहायं कयबलिकम्म ‘पमुइयपक्कीलियं' ति प्रमुदितजनयोगात्प्रमुदिता प्रक्रीडित- कयकोउयमंगलपायच्छिनं सव्वालंकारविभूसियं महया इति जनयोगात्प्रक्रीडिता। ततः कर्मधारयोऽतस्तां 'सपुरजण- सक्कारसमुदएणं कलायरियस उवणयंती' त्यादीति। जाणवयं सह पुरजनेन जानपदेन च-जनपदसम्बन्धिजनेन या ११.१५७. 'अब्भुग्णयमूसियपहसिते इव' अभ्युद्तोच्छितानवर्त्तते सा तथा तां। वाचनान्तरे 'विजयवेजइयं' ति दृश्यते तत्र अत्युच्चान् इह चैवं व्याख्यानं द्वितीयाबहृवचनलोपदर्शनात, चातिशयेन विजयो विजयविजयः स प्रयोजनं यस्याः सा 'पहसिते इव' ति प्रहसितानिव-श्वेतप्रभापटलप्रबलतया हसत विजयवैजयिकी तां। 'ठिइवडियं ति स्थिती-कुलस्य लोकस्य इवेत्यर्थः 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे' इत्यनेन यत्सूचितं वा मर्यादायां पतिता-गता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा तदिदं-'मणिकणगरयणभत्तिचित्तवाउन्द्रयविजयवेजयंतीपडा. स्थितिपतिताऽतस्तां।
गाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतनमभिलंधमाणसिहरे' इत्यादि, ११.१५२. 'दसाहियाए' ति दशाहिकायां-दशदिवसप्रमाणायां। एतच्च प्रतीतार्थमेव, नवरं 'मणिकनकररत्नानां भक्तिभिः
'जाए य' त्ति यागान-पूजाविशेषान् 'दाए य' ति दायांश्च विच्छित्तिभिश्चित्रा ये ते तथा, वातोद्भता या विजयसूचिका दानानि 'भाए यत्ति भागांश्च-विवक्षितद्रव्यांशान्।।
वैजयन्त्यभिधानाः पताकाश्छनातिच्छत्राणि च तैः कलिता ये ते ११/१५३. 'चंदसूरदंसणियं' ति चन्द्रसूर्यदर्शनाभिधानमुत्सवं तथा ततः कर्मधारयस्तस्तान् 'अणेगखंभसयसंनिविट्ठ' ति
'जागरियं ति रात्रिजागरणरूपमुत्सवविशेषं। 'निव्वत्ते अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यदनेकानि वा स्तम्भशतानि असुइजायकम्मकरणे' त्ति निवृत्ते' अतिक्रान्ते अशुचीनां संनिविष्टानि यत्र तत्तथा 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे जातकर्मणां करणमशुचिजातकर्मकरणं तत्र। संपत्ते पेच्छाघरमंडवंसि' त्ति यथा राजप्रश्नकृते प्रेक्षागृहमण्डपविषयो बारसाहदिवसे त्ति संप्राप्ते द्वादशाख्यदिवसे, अथवा वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्य इत्यर्थः, स च 'लीलट्टियद्वादशानामां समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसो द्वादशाहदिवसो सालिभंजियाग' मित्यादिरिति। येन स पूर्यते तत्र, 'कुलाणुरुवं' ति कुलोचितं, कस्मादेवम् ? ११/१५८. पमक्खणगण्हाणगीयवाइयपसाहणटुंगतिलगकंकणइत्याह-'कुलसरिसं' ति कुलसदृशं, तत्कुलस्य बलवत्पुरुष- अविहववहुउवणीयं' ति प्रम्रक्षणकं-अभ्यञ्जनं स्नानगीतकुलत्वान्महाबल इति नाम्नश्च बलवदर्थाभिधायकत्वात् वादितानि प्रतीतानि प्रसाधनं-मण्डनं अष्टस्वेङ्गेषु तिलका:तत्कुलस्य महाबल इति नाम्नश्च सादृश्यमिति 'कुलसंता- पुण्ड्राणि अष्टाङ्गतिलकाः कङ्कणं च-रक्तदवरकरूपं एतानि णतंतुवद्धणकर ति कुलरूपो यः सन्तानः स एव तन्तुर्दीर्घ- अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिरुपनीतानि यस्य स तथा त्वात्तबर्द्धनकरं। माङ्गल्यत्वाद् यत्र तत्तथा 'अयमेयारूवं' ति तं। ‘मंगलसुजंपिएहि य' त्ति मङ्गलानि-दध्यक्षतादीनि इदमेतद्रूपं 'गोणं' ति गौणं तच्चामुख्यमप्युच्यत इत्यत आह- गीतगानविशेषा वा तासु जल्पितानि च-आशीर्वचनानीति 'गुणनिष्फन्नं ति, 'जम्हा णं अम्हं' इत्यादि अस्माकमयं दारकः द्वन्द्वस्तैः करणभूतैः 'पाणिगिण्हाविंसु' ति सम्बन्धः, किंभूतं प्रभावतीदेव्यात्मजो यस्माद्वलस्य राज्ञः पुत्रस्तस्मात्पितु मानु- तम्? इत्याह-'वरकोउयमङ्गलोवयारकयसंतिकम्म' वराणि सारिनामास्य दारकस्यास्तु महाबल इति।
यानि कौतुकानि-भूतिरक्षादीनि मङ्गलानि च-सिद्धार्थकादीनि
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भगवती वृत्ति
५६७
परिशिष्ट-५:श. ११: उ.११,१२ : सू. १५८-१७७
तद्रूपो य उपचार:--पूजा तेन कृतं शान्तिकर्म-दुरितोपशम- 'दवकारीओ' ति परिहासकारिणीः 'उवत्थाणियाओ' ति या क्रिया यस्य स तथा तं। 'सरिसियाणं' ति सदृशीनां परस्परतो आस्थानगतानां समीपे वर्तन्ते नाडइज्जाओ नि महाबलापेक्षया वा। सरित्तयाणं' ति सदृक्त्वचां- नाटकसम्बन्धिनीः 'कुटुंबिणीओ' ति पदातिरूपाः सदृशच्छवानां सरिव्वयाणं' ति सदृगवययां, 'सरिसलावन्ने' 'महाणसिणीओ' त्ति रसवतीकारिकाः शेषपदानि रूढिगम्यानि। त्यादि, इह च लावण्यं-मनोज्ञता रूपं-आकृतियौवनं-युवता ११/१६२. विमलस्स' त्ति अस्यामवसर्पिण्यां त्रयोदश-जिनेन्द्रस्य गुणाः-प्रिय-भाषित्वादयः।
'पउप्पए त्ति प्रपौत्रक:-प्रशिष्यः अथवा प्रपौत्रिके- शिष्य ११/१५९. 'कुण्डलजोए' त्ति कुण्डलयुगानि 'कडगजोए नि सन्ताने 'जहा केसिसामिस्स' ति यथा केशिनाम्न आचार्यस्य
कलाचिकाभरणयुगानि 'तुडिय' त्ति बाह्याभरणं 'खोमे' त्ति राजप्रश्नकृताधीतस्य वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्यः, स च काप्पासिकं अतसीमयं वा वस्त्रं 'वडग' ति त्रसरीमयं पट्ट' ति 'कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूवसंपन्ने विणयसंपन्ने इत्यादिरिति। पट्टसूत्रमयं दुगुल्ल' ति दुकूलाभिधानवृक्षत्वनिष्पन्नं ११/१६६. 'वृत्तपडिवुत्तय' ति उक्तप्रत्युक्तिका भणितानि मातुः श्रीप्रभृतयः षडदेवताप्रतिमाः नन्दादीनि मङ्गलवस्तूनि अन्ये प्रतिभणितानि च महाबलस्येत्यर्थः, नवरमित्यादि, त्वाहः नन्दं वृत्तं लोहासनं भद्रं-शरासनं मूढक इति यत्प्रसिद्ध । जमालिचरिते हि विपुलकुलबालिका इत्यधीतमिह तु 'तले' ति तालवृक्षान् ‘वय' त्ति बजान-गोकुलानि 'सिरिघर- विपुलराजकुलबालिका इत्येतदध्येतव्यं। कला इत्यनेन चेदं पडिरूवए' ति भाण्डागारतुल्यान रत्नमयत्वात् 'जाणाई' ति सूचितं-'कलाकुसलसव्वकाललालियसहोझ्याओ' ति। शकटादीनि 'जुग्गाई' ति गोल्लविषयप्रसिद्धानि जम्पानानि। ११/१६८. सिवभहस्स' त्ति एकादशशतनवमोद्देशकाभिहिनस्य 'सिबियाओ' ति शिबिका:-कूटाकाराच्छादितजम्पानरूपाः शिवराजर्षिपुत्रस्य। 'संदमाणियाओ' ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणाजम्पान- ११/१६९. 'जहा अम्मडो' ति यथौषपातिके अम्मडोऽधीतस्तथाऽविशेषानेन। 'गिल्ली ओ' नि हस्तिन उपरि कोल्लराकाराः यमिह वाच्यः, तत्र च यावत्करणादेतत्सूत्रमेवं दृश्यं गहगण'थिल्लाओ' नि लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु नक्खत्ततारारूवाणं बहुई जोयणाई बहुई जोयणसयाई बहई थिल्ली ओ अभिधीयन्तेऽतस्ताः। 'वियङजाणाई ति विवृतया- जोयणसहस्साई बहूई जोयणसयसहस्साई बहूई जोयणनानि तल्लटकवर्जितशकटानि, 'पारिजाणिए' ति परियान- कोडाकोडीओ उहं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीयाणपणंकमारमाहिदे प्रयोजनाः पारियानिकास्तान 'संगामिए ति सङ्ग्रामप्रयोजनाः कप्पे वीईवइत्त' ति, इह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्य. साङग्रामिकास्तान्, तेषां च कटीप्रमाणा फलकवेदिका भवति। तोऽपि लान्तके उपपात इष्यते, 'जावंति लंतगाओ चउदसपुवी 'किंकरे नि प्रतिकर्म पृच्छाकारिणः 'कंचुइज्जे नि प्रतीहारान जहन्नउववाओ' नि वचनादेतस्य चतुर्दशपूर्वधरण्यापि यद 'वरसधरे' ति वर्षधरान वर्द्धितकमहल्लकान् महत्तरान्' ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत केनापि मनाग विस्मरणादिना अन्तःपुरकार्यचिन्तकान 'ओलंबणीवे ति शृङ्खलाबद्धदीपान् प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामपरिपूर्णत्वादिति संभावयन्तीति। 'उक्कंबणदीव ति उकंबनदीपान् ऊर्वदण्डवतः ‘एवं चेव ११/१७१. सन्नी पुव्वजाईपरणे ति सचिरूपा या पूर्वा तिन्निवि' ति रूप्यसुवर्णसुवर्णरूप्यभेदात पिंजरदीव' ति जानिस्तस्याः स्मरणं यत्तत्तथा "अहिरसमेइ ति अधिगच्छअभ्रपटलादिपञ्जरयुक्तान। थासगाई' ति आदर्शकाकारान तीत्यर्थः।। 'तलियाओ त्ति पात्रीविशेषान्। कविचियाओं त्ति कलाचिकाः ११/१७२. 'दुगुणाणीयसड्डसंवेगे' ति पूर्वकालापेक्षया द्विगुणावा
अवएडए' ति तापिकाहस्तकान् 'अवयक्काओ' ति नीती श्रद्धासंवेगौ यस्य स तथा. तत्र श्रन्द्रा-तत्वश्रन्द्रानं अवपाक्यास्तापिका इति संभाव्यते भिसियाओ' त्ति सदनुष्ठानचिकीर्षा वा संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलाषो वेति। आसनविशेषान् ‘पडिसेन्जाओ' त्ति उत्तरशय्याः हंसासनादीनि 'उसभदत्तस्स ति नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशक भिहिहंसायाकारोपलक्षितानि उन्नताद्याकारोपलक्षितानि च शब्द- तस्येति।। तोऽवगन्तव्यानि, 'जहा रायप्पयेणइज्जे इत्यनेन यत्सूचितं
एकादशशतस्यैकादशः।। तदिदम्-'अट्ट कुट्टसमुग्गे एवं पत्तचोयतगराएलहरियालहिंगुलयमणोसिलअंजणसमुग्गे ति, 'नहा उववाइए' इत्यनेन
द्वादशम उद्देशकः यत्सूचितं तदिहैव देवानन्दाव्यतिकरेऽस्तीति तत एव दृश्य। 'करोडियाधारीओ नि स्थगिकाधारिणीः "अट्ट अंगमहियाओ
एकादशोदेशके काल उक्तो। द्वादशेऽपि स एव अट्ट आमदिया ओ' नि इहाङ्गमर्दिकानामुन्मर्दिकानां चाल्पबह
भयन्तरेणोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्मर्दनकृतो विशेषः ‘पसाहियाओ' त्ति मण्डनकारिणीः। 'वन्नग- १
११/१७४-१७७. 'तेण' मित्यादि, 'एगओ ति एकत्र 'समुवागयाणं' पेसीओ' नि चन्दनपेषणकारिका हरितालादिपेषिका वा
ति समायातानां 'सहियाण' ति मिलितानां समुविट्ठाणं ति 'चुन्नगपेसीओ' त्ति इह चूर्ण:-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा
आसनग्रहणेन। 'सन्निसन्नाणं' ति संनिहिततया निषण्णानां
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परिशिष्ट - ५ : श. ११ उ. १२ : सू. १७७
'मिहो' त्ति परस्परं 'देवट्ठितिगहियडे' त्ति देवस्थितिविषये गृहीतार्थो - गृहीतपरमार्थो यः स तथा । 'तुंगिउद्देसए' त्ति द्वितीयशतस्य पञ्चमे ॥
एकादशशते द्वादशः ॥
॥ एकादशं शतं समाप्तम् ॥
एकादशशतमेवं व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यन्मयका । हेतुस्तत्राग्रहिता श्रीवाग्देवीप्रसादो वा ॥ १॥
॥इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविवृतायां भगवत्यां शतकमेकादशम् ॥
५६८
भगवती वृत्ति
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ग्रंथ का नाम
१. अणुओगदाराई (मूलपाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद तथा तुलनात्मक टिप्पण) २. अनुकंपा की चौपाई भिक्षु
ग्रंथ रत्नाकर, प्रथम खंड ३. अनुयोगद्वार वृत्ति
४. अभिधान चिन्तामणिः ( नाममाला)
५. अष्टसहस्री ६. आप्त मीमांसा
७. आयारचूला (अंगसुत्ताणि
भाग-१)
८. आयारो (मूलपाठ, अनुवाद तथा टिप्पण) ९. आवश्यक (नवसुत्ताणि)
१०. आवश्यक चूर्णि
११. आवश्यक नियुक्ति
लेखक/संपादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि
परिशिष्ट- ६
आधारभूत ग्रंथ-सूची
वा. प्र. गणाधिपति तुलसी सन् १९९७ सं. आचार्य महाप्रज्ञ
सन् १९६०
रचयिता - आचार्य भिक्षु सं. आचार्य तुलसी कर्ता - मलधारी हेमचन्द्र सूरि सन् १९३९
कर्ता - आचार्य हेमचन्द्र
रचयिता - आचार्य विद्यानंद रचयिता - आचार्य समन्तभद्र
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ कर्ता - श्री जिनदासगणि
कर्ता - भद्रबाहु
१२. आवश्यक निर्युक्ति दीपिका मुनि मानविजय
१३. आवश्यक वृत्ति
मलयगिरि
संस्करण
वी.नि.सं.
२५०
सन् १९७४
वि. सं.
२०३१
सन् १९८७
(पाटन)
वि.सं. २०२० चौखंबा विद्या भवन (वाराणसी)
सन् १९२९
वि. सं.
२०३८
सन् १९३९
सन् १९२८
प्रकाशक
जैन विश्व भारती
लाडनूं (राजस्थान)
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कोलकाता केशरदेवी ज्ञान मंदिर
श्री गणेशवर्णी दिगम्बर, जैन संस्थान
जैन विश्व भारती लाडनूं
(राजस्थान)
भाष्य में
प्रयुक्त स्थल
८/९७-१०३,१३९
१४६,२२२-२२३:
९/९-३२
९/२५१-२५२
९/९-३२
९/१४८
८/१८४-१८८ ८/१८४-१८८
८/९७-१०३,१८४१८८; ९ / आमुख, १७७,२२६-२२९
जैन विश्व भारती लाडनूं ८/२४५-२४७, २५८२६९, ११ / आमुख
(राजस्थान)
जैन विश्व भारती लाडनूं १०/१-७ (राजस्थान)
श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मालवा) श्री भेरूलाल कन्हैयाला कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, आर. आर. ठक्कर मार्ग, बम्बई
श्री विजयदान सूरीश्वर जैन ग्रंथ माला, सूरत
आगमोदय समिति, बंबई ८/९७-१०३,१०/१-७
८/९७-१०३, ९/ १७७
८/९७-१०३, १८४१८८, ४४९-४५०, ९/२२६-२२९
९/२२६-२२९
Page #592
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________________
परिशिष्ट- ६ : आधारभूत ग्रंथ सूची
ग्रंथ का नाम
१४. उत्तरज्झयणाणि (मूलपाठ, वा. प्र. आचार्य तुलसी संस्कृत छाया) हिन्दी | सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
अनुवाद तथा तुलनात्मक टिप्पण
१५. उत्तराध्ययन: एक
समीक्षात्मक अध्ययन
१६. उत्तराध्ययननियुक्ति
१७. ओववाइयं (उवंगसुत्ताणि, भाग - ४. खंड १ )
१८. औपपातिक वृत्ति १९. कथावस्थ पालि २०. कर्मग्रंथ (भाग ४-५ )
२१. कर्म प्रकृति
२२. कल्पसूत्र (कप्पो, नवसुत्ताणि भाग-५
२३. कसाय पाहड
२४. गोम्मटसार
२५. जीवाजीवाभिगमे
( उवंगसुत्ताणि भाग-४, खंड - १) २६. जैन दर्शन : मनन और मीमांसा
२७. जैन सिद्धांत दीपिका
२८. जैनेन्द्र सिद्धांत कोश
२९. ज्ञाताधर्मकथा वृत्ति
लेखक/संपादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. मुनि नथमल
कर्ता - भद्रबाहु
५७०
ले. आचार्य महाप्रज्ञ
सं. मुनि दुलहराज ले. आचार्य तुलसी
संस्करण
सं. मुनि नथमल सं. क्षु. जिनेन्द्रवर्णी
कर्ता - अभयदेव सूरि
वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ चन्द्रकुलीन श्री अभयदेवसूरि सन् १९९४
कर्ता - देवेन्द्र सूरि
द्वितीय
| संस्करण सन् लाडनूं (राजस्थान)
१९९२
सन् १९६८
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, कोलकाता
सन् १९१७ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फंड बंबई सन् १९८७ जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) पं. भूरालाल कालिदास
श्रीमद् शिवशर्मसूरि विरचित संस्करण तत्त्वाधान-आचार्य श्री नानेश प्रथम सं. देवकुमार जैन वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
सं.पं. फूलचंद्र, पं. महेंद्र कुमार सन् १९४४ पं. कैलाशचन्द्र
भा. दि. जैन संघ चौरासी, मथुरा कर्ता - श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धांत सन् १९७९ भारतीय ज्ञानपीठ चक्रवर्ती, सं. डॉ. आदिनाथ प्रकाशन, बंबई
| नेमिनाथ उपाध्ये वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
| सन् १९८२
| सन् १९८७
| सन् १९८७
चतुर्थ सं. सन् १९९५
सन् १९९८
प्रकाशक
सन् १९४४
सन् १९५२
जैन विश्व भारती संस्थान ८/२-३९,२४५-२४७,
३१५-३२८,४५१-४६६, ४६७- ४६८; ९/९
| ३२, ५१, १३३-१३५;
१० / आमुख ८/२४१-२४२
भाष्य में प्रयुक्त स्थल
८/३१५-३२८, ९/५६
श्री वर्द्धमान स्थानकवासी ८/१०७-११०,४७७जैन धार्मिक शिक्षा
समिति
श्री गणेश स्मृति ग्रंथमाला ८/३६६ बीकानेर
श्री सिद्ध चक्र साहित्य प्रचारक समिति. बंबई
९/१२५-१३२,१३९,
२०४ १०/१९-२१
|९/१४८,२०८ ८/४९९-५०३
जैन विश्व भारती लाडनूं ९ / आमुख (राजस्थान)
भगवई
४८४
८/१८४-१८८
जैन विश्व भारती लाडनूं ९/७ १० / आमुख (राजस्थान)
आदर्श साहित्य संघ चूरू ८/४२,४३-८४ (राजस्थान)
आदर्श साहित्य संघ चूरू ८/९७-१०३ (राजस्थान)
भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली
८/३७६-३७७,४७७
| ४८४, ९/३६
८/२४१-२४२
९/१४१,२०४,२०८
Page #593
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________________
भगवई
परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ-सूची
ग्रंथ का नाम
प्रकाशक
भाष्य में प्रयुक्त स्थल
लेखक/संपादक/अनुवादक
__संस्करण वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि
३०. ठाणं (मूल पाठ, संस्कृत | वा. प्र. आचार्य तुलसी
छाया. हिन्दी अनुवाद तथा | सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ टिप्पण)
३१. तत्त्व संग्रह ३२. तत्त्वार्थ भाष्य
ले. शान्तरक्षित कर्ता-उमास्वाति
३३. तत्त्वार्थ राजवार्तिक
कर्ता भट्ट अकलंक देव सं. पं. महेन्द्र कुमार जैन
३४. तत्त्वार्थ सूत्र
कर्ता-उमास्वाति
वि. सं. जैन विश्व भारती लाडनूं | ८/९७-१०३,१८४. २०३३ । (राजस्थान)
१८८,२९५-३००. ३०२-३१४. ४२४, ४७५-४७६; ९/९. ३२,१२५-१३२, १३३-१३५,२२६-२२९ १०/आमुख, १५,४०
११/आमुख, १२ सन् १९८२ | बौद्ध भारती, वाराणसी ८/१८४-१८८
सेठ मणीलाल रेवाशंकर | ८/१,२२२-२२३
जगजीवन जौहरी,बंबई-२ वि.सं.२००९ भारतीय ज्ञानपीठ काशी, ८/१,८६-२१,३१५. दुर्गा कुंड रोड, बनारस-४ ३२८.३५४,३५५.३६३
३६५.४२४.४२५४२८.४३३,४३९
४४४ वि.सं.१९८९/ सेठ मणीलाल रेवाशंकर |८/३१५.३२८,४१९. जगजीवन जौहरी,बंबई-२ ४२०,४२२-४२३.
४२४, ४२५-४२८. ४७७-४८४
१०/४६-५१ देवचन्द्र लालभाई जैन |८/१,२-३९.९७-१०३. पुस्तकोद्वार फंड, बंबई १८४-१८८,१८९-१९१.
२४१-२४२,३१५-३२८, ३५४,३६६,४१९-४२०. ४२४.४२५-४२८,४३१४३२.४३३,४३९-४४४.
४६७-४६८,१०/१-७,२३ वि.सं.१९९९ जीवराज ग्रंथमाला, ८/८६-९१,१०/२३; शोलापुर
११/९०,९९ । सन् १९४७ | सुखलाल सम्मान समिति ८/१८४-१८८
गुजरात विद्या सभा,
अहमदाबाद । सन् १९७४ | जैन विश्व भारती, ८/२१६-२२१,२४५.
लाडनूं (राजस्थान) २४७.२४८-२५०
३५. तत्त्वार्थ सूत्राधिगम भाष्य | टीकाकार सिद्धसेन गणि
वृत्ति
३६. तिलोय पण्णत्ति
कर्ता-यति वृषभाचार्य
३७. दर्शन और चिंतन
|ले.-पं. सुखलाल संघवी
३८. दसवेआलियं (मूलपाठ, वा. प्र. आचार्य तुलसी
संस्कृत छाया, हिन्दी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
अनुवाद तथा टिप्पण) ३९. दसाओ (नवसुत्ताणि भाग- वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
१०/१८
| सन् १९८७ / जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान)
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परिशिष्ट - ६ : आधारभूत ग्रंथ सूची
ग्रंथ का नाम
४०. देशी शब्दकोश
४१. धवला
४२. ध्यानविचार
४७. नायाधम्मकहाओ
(अंगसुत्ताणि भाग-३) ४८. नियमसार
४३. नंदी (नवसुत्ताणि भाग-५) वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ सं. अमरमुनि
४४. नंदी चूर्णि
४५. नंदी मलयगिरीयावृत्ति
४६. नयचक्र (लिखित प्रति)
५२. न्याय विनिश्चय कारिका
५३. पंचसंग्रह (दिगम्बर)
लेखक/संपादक / अनुवादक वाचनाप्रमुख / प्रवाचक आदि
५४. पज्जोवसणाकप्पो
( नवसुत्ताणि भाग-५) ५५. पण्णवणा (उवंगसुत्ताणि भाग-४, खंड- २)
वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वीरसेनाचार्य
कर्ता - मलयगिरि
ले. माइल्ल धवल सं. पं. कैलाश चन्द्र शास्त्री
वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. आचार्य कुंदकुंद
५७२
लक्ष्मीचंद्र, अमरावती
विवेचन कर्ता - आचार्यश्री विजय वि.सं. २०४९ जैन साहित्य विकास कनकसूरिजी, आचार्यश्री विजय मंडल, मुंबई कलापूर्णसूरिजी
सं. हीरालाल जैन
संस्करण
वा. प्र. आचार्य तुलसी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ वा. प्र. आचार्य तुलसी सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
सन् १९८८
सन् १९४२
सन् १९९७
सन् १९८२
४९. निशीथ सूत्र (भाष्य व चूर्णि सं. उपाध्याय कविश्री अगरमुनि सन् १९८२ सहित) मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' वा. प्र. आचार्य तुलसी
५०. निसीह (नवसुत्ताणि भाग(५) ५१. न्यायमंजरी
सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ ले. जयन्त भट्ट
सन् १९१९
सन् १९७१
सन् १९८१
सन् १९८७
सन् १९८७
सन् १९९२
सन् १९८७
प्रकाशक
सन् १९८९
जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान) सेठ शीतलराय
जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान) भारतीय विद्या
प्रकाशन, नई दिल्ली आगमोदय समिति,
सूरत
भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, नई दिल्ली जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान)
श्री कुन्दकुन्द भारती,
नई दिल्ली
वि.सं.२०१७ भारतीय ज्ञानपीठ.
काशी
जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान) जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान)
सन्मति ज्ञानपीठ, लोहामंडी, आगरा जैन विश्व भारती,
लाडनूं (राजस्थान) एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ
इंडोलॉजी, अहमदाबाद
भाष्य में प्रयुक्त स्थल
९/१७५
८/४७७-४८४
९/९-३२,४०
८/९७-१०३,१८४
१८८, ११ / आमुख ८/१८४-१८८
८/१८४-१८८
१०/१-१७
८/१८४-१८८
९/१४१,१८९, ११/
आमुख ८/१८४-१८८
८/२३०-२३५
८/२४८-२५०
भगवई
८/१८४-१८८
८/१८४-१८८ ८/४७७-४८४
९ / आमुख, १५३
१५५,१५६,१८९ ८/२-३९,९२,१८४
१८८,२५८-२६९,
३४५-३५३,३६३,
४३३,१०/आमुख,
१५,४०,११/आमुख,
१,२,१२,३२,३९,१०९
११०
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भगवई
५७३
परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ-सूची
मुंबई
ग्रंथ का नाम लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण प्रकाशक
भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ५६. प्रज्ञापना वृत्ति कर्ता-श्रीमन्मलयगिर्याचार्य | सन् १९१८ | आगमोदय समिति, ११/१,५
मेहसाणा, गुजरात ५७. प्रमाण मीमांसा रचयिता-हेमचन्द्राचार्य | सन् १९८९ | सरस्वती पुस्तक ८/१८४-१८८
भंडार, अहमदाबाद ५८. प्रमेयकमलमार्तण्ड रचयिता-आचार्य सन् १९४१ | निर्णयसागर मुद्रणालय, । ८/१८४-१८८
अकलंक भट्ट ५९. प्रवचनसार रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य सन् १९४८ |श्री जैन स्वाध्याय ८/२३०-२३५,
मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़, ४७७-४८४
सौराष्ट्र (गुजराज) ६०. बारहव्रत चौपाई (भिक्षु ग्रंथ | रचयिता-आचार्य भिक्षु सन् १९६० जैन श्वेताम्बर तेरापंथी | ८/२४१-२४२ रत्नकार) सं. आचार्य तुलसी
महासभा, कोलकाता ६१. बृहत्कल्प भाष्य सं. मुनि पुण्यविजय सन् १९३६ | जैन आत्मानंद सभा, |८/२४५-२४७,२९५.
भावनगर (गुजरात) | ३००,४५१-४६६ ६२. बृहद् हिंदी कोश
ले. कालिका प्रसाद | सन् १९८४ ज्ञानमंडल, वाराणसी । ११/४० ६३. बौद्ध धर्म और बिहार ले. श्री धवलदार त्रिपाठी
८/२७१-२८४ 'सहृदय ६४. भगवती आराधना रचयिता आचार्यश्री शिवार्य | सन् १९३५ | सखाराम दोशी, ८/४५१-४६६
सोलापुर महाराष्ट्र ६५. भगवती जोड़ (खंड १-७) | कर्ता-जयाचार्य
प्रथम जैन विश्व भारती, अनेक स्थल प्रवाचक आचार्य तुलसी संस्करण सन् लाडनूं (राजस्थान) प्रधान सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ| १९८१ से
सं. साध्वीप्रमुखा कनकप्रभा १९९७ ६६. भगवती वृत्ति (प्रस्तुत ग्रंथ | कर्ता-अभयदेवसूरि सन् १९१९ आगमोदय समिति, | अनेक स्थल का परिशिष्ट)
बंबई ६७. भिक्षु विचार दर्शन ले. आचार्य महाप्रज्ञ | सन् २००३ जैन विश्व भारती, ९/२५१-२५२
लाडनूं (राजस्थान) ६८. भ्रमविध्वंसनम् कर्ता-श्रीमद् जयाचार्य
जैन श्वेताम्बर तेरापंथी | ८/४४९-४५०
महासभा, कोलकाता ६९. मनुस्मृति सं. नारायणराम आचार्य सन् १९४६ | काव्य तीर्थ निर्णयसागर| ८/आमुख
प्रेस, बंबई ७०. मूलाचार रचयिता-श्रीमद् वट्टेकराचार्य सन् १९८४ | भारतीय ज्ञानपीठ, ८/४५१-४६६
दिल्ली ७१. मिथ्यात्वीरी करणीरी चौपाई| रचयिता-आचार्य भिक्षु सन् १९६० जैन श्वेताम्बर तेरापंथी । ८/४४९-४५० (भिक्षुग्रंथरत्नाकर, प्रथम खंड सं. आचार्य तुलसी
महासभा, कोलकाता ७२. रायपसेणइयं (उवंगसुत्ताणि | वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८७ | जैन विश्व भारती, ९/१५६,२०४ भाग-४, खंड-१) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं (राजस्थान) ७३. ववहारो (नवसुत्ताणि वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८७ | जैन विश्व भारती, ८/२४८-२५०, भाग-५) सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं (राजस्थान) १०/४६-५१
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परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ-सूची
५७४
भगवई
ग्रंथ का नाम
लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण | प्रकाशक
भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि बी. चैतन्य देव
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया ११/९० ग्रीन पार्क, नई दिल्ली
७४. वाद्य यंत्र
७५. विशेषणवती रचयिता-आचार्य जिनभद्रगणी
८/१८४-१८८ क्षमाश्रमण ७६. विशेषावश्यक भाष्य कर्ता-श्री जिनभद्रगणी वि.सं.१९८६ | दिव्य दर्शन कार्यालय, | ८/९७-१०३,१५०, क्षमाश्रमण
कालुशा नी पोल, १८४-१८८, ९/३६,
कालुपुर रोड, अहमदाबाद ३७,५५,२२६-२२९ ७७. वैशेषिक सूत्र स. मुनि जम्बूविजय
१०/आमुख ७८. व्यवहार भाष्य
वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९९६ | जैन विश्व भारती, ८/३०१,४५१-४६६ सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं (राजस्थान) ७९. व्रताव्रत की चौपाई रचयिता-आचार्य भिक्षु सन् १९६० । जैन श्वेताम्बर तेरापंथी । ८/२४५-२४७ (भिक्षु ग्रंथ रत्नाकर) सं. आचार्य तुलसी
महासभा, कोलकाता ८०. शार्ङ्गधर संहिता शार्ङ्गधराचार्य विरचित सन् १९८४ श्री बैद्यनाथ आयुर्वेद
९/१७२
भवन लिमिटेड ८१. शास्त्रवार्ता समुच्चय रचना-आचार्य हरिभद्र सन् १९६९ लालभाई दलपतभाई ८/१८४.१८८
भारतीय संस्कृति
विद्यामंदिर, अहमदाबाद ८२. श्री भिक्षु आगम विषय |
जैन विश्व भारती, ९/१४८ ___ कोश, भाग-१ सं. आचार्य महाप्रज्ञ
लाडनूं (राजस्थान) ८३. श्वेताम्बर
८/४३-८४ ८४. षट्खंडागम कर्ता-पुष्पदन्त भूतबलि सन् १९४२ | सेठ शीतलराय लक्ष्मीचंद्र ८/८६-९१,९७
अमरावती, महाराष्ट्र १०३,१८४-१८८,
३४५-३५३, ३५४, ३५५,३५६-३६२, ३६३-३६५,३६७
३७२ ८५. संगीतसार तानसेन
९/१४८ ८६. सन्मति टीका रचयिता-आचार्य मल्लवादी
८/१८४-१८८ ८७. सन्मति तर्क रचयिता-आचार्य सिद्धसेन
८/४७७-४८४ ८८. समवाओ (मूलपाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी सन् १९८४ | जैन विश्व भारती, ८/४७५-४७६,९/ छाया, हिन्दी अनुवाद, टिप्पण सं. युवाचार्य महाप्रज्ञ
| लाडनूं (राजस्थान) १५३-१५५,१०/ आदि)
१८,६७-६८ ८९. सर्वार्थसिद्धि
कर्ता-आचार्य पूज्यपाद, सन् १९७१ | भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली ८/४१९-४२०, सं. पं. फूलचन्द सिद्धांत
४२४,४२५-४२८, शास्त्री
४३३,४७७-४८४ ९०. सांख्यकारिका कर्ता-ईश्वरकृष्ण
चौखंबा संस्कृत सिरीज, ८/१८४-१८८, टीका. माध्वाचार्य
वाराणसी
४७७-४८४ ९१. सागर धर्मामृत
८/१४१-१४२
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भगवई
५७५
परिशिष्ट-६ : आधारभूत ग्रंथ-सूची
ग्रंथ का नाम लेखक/संपादक/अनुवादक | संस्करण | प्रकाशक
भाष्य में प्रयुक्त स्थल वाचनाप्रमुख/प्रवाचक आदि ९२. सुश्रुत संहिता
अनु. अत्रिदेव
सन् १९७५ मोतीलाल बनारसीदास, | ९/२०४
दिल्ली ९३. सूत्रकृतांग चूर्णि | कर्ता-श्री जिनदासगणि वि.सं.१९९८ श्री ऋषभदेव जी केशरी- | ९/२५१-२५२
मलजी श्वेताम्बर संस्था,
रतलाम ९४. सूयगडो (मूलपाठ, संस्कृत वा. प्र. आचार्य तुलसी (भाग-१) जैन विश्व भारती, ८/२३०-२३५,
छाया, हिन्दी अनुवाद, | सं. विवेचक युवाचार्य महाप्रज्ञ सन् १९८४ लाडनूं (राजस्थान) २४५.२४७,३०२. टिप्पण तथा परिशिष्ट)
(भाग-२)
३१४,९/२५१सन् १९८६
२५२, १०/आमुख,
११/९९ ९५. सेन प्रश्नोत्तर उल्लास
८/२४१-२४५ ९६. स्थानांग वृत्ति कर्ता-अभयदेवसूरि सन् १९३७ सेठ माणेकलाल चुन्नीलाल ८/९६,३०१.११/
अहमदाबाद ९७. हरिहरानंद पा.यो.द. टीका
८/४३.८४ ९८. हेमप्रकाश महाव्याकरणम् | रचयिता-श्री विनयविजयगणी वि.सं.१९९४ मांगरोल निवासी शाह । ९/१४८ (पूर्वार्ध)
हीरालाल सोमचन्द, कोट,
मुंबई 99. (Apte's) Sanskrit V. S. Apte
Revised |Prasad Prakashan 8/499-503; 9/208 English Dictionary
and
Pune enlarged
edition 1957 100. Viyah Panntti Jozef|
8/241-242 deleu
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वाचना-प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक-भाष्यकार : आचार्य महाप्रज्ञ युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी (१९९४-१९९७) के वाचना-प्रमुखत्व में सन् १९५५ में आगम-वाचना का कार्य प्रारंभ हुआ, जो सन् ४५३ में देवर्धिगणी क्षमाश्रमण के सान्निध्य में हुई संगति के पश्चात होनेवाली प्रथम वाचना थी। सन् २००५ तक ३२ आगमों के अनुसंधानपूर्ण मूलपाठ संस्करण और ११ आगम संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद एवं टिप्पण सहित प्रकाशित हो चुके हैं। आयारो (आचारांग का प्रथम श्रुतस्कंध) मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी-संस्कृत भाष्य एवं भाष्य के हिन्दी अनुवाद से युक्त प्रकाशित हो चुका है। आचारांग-भाष्य तथा भगवई खंड-१ क अग्रेजी संस्करण भी प्रकाशित हो गया है। इस वाचना के मुख्य संपादक एवं विवेचक (भाष्यकार, हैं-आचार्यश्री महाप्रज्ञ (मुनि नथमल/युवाचाय महाप्रज्ञ) (जन्म १९२०) जिन्होंने अपने सम्पादन कौशल से जैन आगम-वाङ्मय को आधुनिक भाषा में समीक्षात्मक भाष्य के साथ प्रस्तुति देने का गुरुत कार्य किया है। भाष्य में वैदिक, बौद्ध और जैन साहित्य आयुर्वेद, पाश्चात्य दर्शन एवं आधुनिक विज्ञान वे तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर समीक्षात्मव टिप्पण लिखे गए हैं। आचार्यश्री तुलसी ११ वर्ष की आयु में जैन श्वेताम्ब तेरापंथ के अष्टमाचार्य श्री कालूगणी के पास दीक्षित होकर २२ वर्ष की आयु में नवमाचार्य बने। आपकी औदार्यपूर्ण वृत्ति एवं असाम्प्रदायिक चिंतन शैली ने धर्म के सम्प्रदाय से पृथक् अस्तित्व को प्रकर किया। नैतिक क्रांति, मानसिक शांति और शिक्षा पद्धति में परिष्कार और जीवन-विज्ञान का त्रि-आयाम कार्यक्रम प्रस्तुत किया। युगप्रधान आचार्य, भारत ज्योति, वाक्पति जैसे गरिमापूर्ण अलंकरण, इन्दिर गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार (१९९३) जैसे सम्मान आपको प्राप्त हुए। साधु और श्रावक के बीच की कड़ी वे रूप में आपने सन् १९८० में समणश्रेणी का प्रारं किया, जिसके माध्यम से देश-विदेश में अनाबाध रूपेण धर्मप्रसार किया जा रहा है। आपने ६० हजा कि. मी. की भारत की पदयात्रा कर जन-जन । नैतिकता का भाव जगाने का प्रयास किया था। हिन्दी, संस्कृत एवं राजस्थानी भाषा में अनेक विषय पर ६० से अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। १८ फरवरी १९९४ को अपने आचार्यपद का विसर्जन का उसे अपने उत्तराधिकारी युवाचार्यश्री महाप्रज्ञ । प्रतिष्ठित कर दिया। २३ जून सन् १९९७ को आपक महाप्रयाण हुआ। सन् १९९८ में भारत सरकार आपकी स्मृति में डाक-टिकट जारी किया। दशमाचार्य श्री महाप्रज्ञ दस वर्ष की अवस्था में मुनि बने, सूक्ष्म चिंतन, मौलिक लेखन एवं प्रखर वक्तृत्व आपके व्यक्तित्व के आकर्षक आयाम हैं। जैन दर्शन योग, ध्यान, काव्य आदि विषयों पर आपके १५० रे अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रस्तुत आगम वाचना के आप कुशल संपादक एवं भाष्यकार हैं।
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________________ जैन विश्व भारती द्वारा प्रकाशित आगम साहित्य वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी संपादक विवेचक : आचार्य महाप्रज्ञ (मूल पाठ पाठान्तर शब्द सूची सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य अंगसुत्ताणि भाग-१ (दूसरा संस्करण) 700 (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ) अंगसुत्ताणि भाग-२ (दूसरा संस्करण) 700 (भगवई-विआहपण्णत्ती) अंगसुत्ताणि भाग-३ (दूसरा संस्करण) 500 (नायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, पण्णावागरणाई, विवागसुयं) उवंगसुत्ताणि खंड-१ - (ओवाइयं, रायपसेणइयं, जीवाजीवाभिगम) * उवंगसुत्ताणि खंड-२ (पण्णवणा, जंबूद्दीवपण्णत्ती, चंदपण्णत्ती, कप्पवडिंसियाओ, निरयावलियाओ, पुफ्फियाओ, पुफ्फचूलियाओ, वण्हिदसाओ) * नवसुत्ताणि (द्वितीय संस्करण) (आवस्सयं, दसवेआलियं, उत्तरज्झयणाणि, नंदी, अणुओगदाराई) कोश * आगम शब्दकोष 300 (अंगसत्ताणि तीनों भागों की समग्र शब्द सूची) * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-१ 500 * श्री भिक्षु आगम विषय कोश, भाग-२ 500 * देशी शब्दकोश निरुक्त कोश 60 एकार्थक कोश 100 जैनागम वनस्पति कोश (सचित्र) 300 जैनागम प्राणी कोश (सचित्र) 250 जैनागम वाद्य कोश (सचित्र) 250 अन्य भाषा में आगम साहित्य * भगवती जोड़ खंड-१ से 7 श्रीमज्जयाचार्य सेट का मूल्य 2900 आयारो (अंग्रेजी) 250 * आचारांगभाष्यम् (अंग्रेजी) 400 भगवई खंड-१ (अंग्रेजी) 500 उत्तरज्झयणाणि भाग-१.२ (गुजराती) 1000 सूयगडो (गुजराती) (मूल, छाया, अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट-सहित) ग्रंथ का नाम मूल्य आयारो 200 * आचारांगभाष्यम् 500 * सूयगडो भाग-१(दूसरा संस्करण) 300 .सूयगडो भाग-२(दूसरा संस्करण) 350 * ठाणं 700 * समवाओ (दूसरा संस्करण) प्रेस में भगवई (खंड-१) भगवई (खंड-२) 695 भगवई (खंड-३) भगवई (खंड-४) प्रेस में * नंदी 300 अणुओगदाराई दसवेआलियं (दूसरा संस्करण) 500 उत्तरज्झयणाणि (तीसरा संस्करण) 600 नायाधम्मकहाओ 500 * दसवेआलियं (गुटका) * उत्तरज्झयणाणि (गुटका) 400 100 अन्य आगम साहित्य * नियुक्तिपंचक (मूल, पाठान्तर) 500 व्यवहार भाष्य (हिन्दी अनुवाद) 500 व्यवहार भाष्य 700 (मूल, पाठान्तर, भूमिका, परिशिष्ट) गाथा 350 (आगमों के आधार पर भगवान महावीर का जीवन दर्शन रोचक शैली में) आत्मा का दर्शन 500 (जैन धर्म : तत्त्व और आचार) प्राप्ति स्थान : जैन विश्व भारती लाडनूं - 341306 (राज.) ISBN - 81-7195-103-8