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________________ होत हा निरत भगवई २२७ श.९ : उ. ३२ : सू. ८१-८६ ८१. संतरं भंते! पुढविक्काइया उववज्जति? सान्तरं भदन्त! पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते? ८१. भंते! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न निरंतरं पुढविक्काइया उववज्जति? निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते? होते हैं? निरंतर उपपन्न होते हैं? गंगेया! नो संतरं पुढविक्काइया । गाङ्गेय! नो सान्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्य- गांगेय! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उपपन्न उववज्जंति, निरंतरं पुढविक्काइया न्ते, निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उपपद्यन्ते। एवं नहीं होते, निरंतर उपपन्न होते हैं। इसी उववज्जति। एवं जाव वणस्सइ. यावत् वनस्पतिकायिकाः। द्वीन्द्रियाः यावत् प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक की वक्तकाइया। बेइंदिया जाव वेमाणिया एते वैमानिका एते यथा नैरयिकाः। व्यता। जहा नेरइया॥ द्वीन्द्रिय यावत् वैमानिक नैरयिक की भांति वक्तव्य हैं। ४२. संतरं भंते नेरइया उव्व,ति? निरंतरं सान्तरं भदन्त! नैरयिकाः उद्वर्तन्ते? निरन्तरं नेरइया उव्वद्वृति? नैरयिका उद्वर्तन्ते? गंगेया! संतरं पि नेरइया उव्वटुंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि नैरयिकाः उद्वर्तन्ते, निरंतरं पि नेरइया उव्वट्ठति । एवं जाव। निरंतरमपि नैरयिकाः उद्धर्तन्ते। एवं यावत् थणियकुमारा॥ स्तनितकुमाराः। ८२. भंते! नैरयिक अंतर-सहित उद्वर्तन करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? गांगेय! नैरयिक अंतर-सहित भी उद्वर्तन करते हैं और निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार की वक्तव्यता। ८३. संतरं भंते! पुढविक्काइया सान्तरं भदन्त! पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते?-- ८३. भंते! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उद्उव्वदृति?-पुच्छा। पृच्छा। वर्तन करते हैं?-पृच्छा। गंगेया! नो संतरं पुढविक्काइया गाङ्गेय! नो सान्तरं पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते, गांगेय! पृथ्वीकायिक अंतर-सहित उद्उव्वटुंति, निरंतरं पुढविक्काइया निरन्तरं पृथ्वीकायिकाः उद्वर्तन्ते। एवं यावत् वर्तन नहीं करते, निरंतर उद्वर्तन करते हैं। उव्वट्ठति। एवं जाव वणस्सइ. वनस्पतिकायिकाः-नो सान्तरं, निरन्तरं इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक अंतरकाइया-नो संतरं, निरंतरं उव्वद्वृति॥ उद्धर्तन्ते। सहित उद्वर्तन नहीं करते, निरन्तर उद्वर्तन करते हैं। ८४. संतरं भंते! बेइंदिया उव्वदृति? सान्तरं भदन्त! द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते? ८४. भंते! द्वीन्द्रिय अंतर-सहित उवर्तन निरंतरं बेइंदिया उव्वद॒ति? निरन्तरं द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते? करते हैं? निरंतर उद्वर्तन करते हैं? गंगेया! संतरं पि बेइंदिया उव्वटुंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते, गांगेय! द्वीन्द्रिय अंतर-सहित भी उद्वर्तन निरंतरं पि बेइंदिया उज्वम॒ति । एवं जाव। निरन्तरमपि द्वीन्द्रियाः उद्वर्तन्ते । एवं यावत् । करते हैं, निरंतर भी उद्वर्तन करते हैं। वाणमंतरा॥ वानमन्तराः। इसी प्रकार यावत् वाणमंतर की वक्तव्यता। ८५. संतरं भंते! जोइसिया चयंति? सान्तरं भदन्त! ज्योतिष्काः च्यवन्ते? ८५. भंते! ज्योतिष्क अंतर-सहित च्यूत होते -पुच्छा । -पृच्छा । गंगेया! संतरं पि जोइसिया चयंति, गाङ्गेय! सान्तरमपि ज्योतिष्काः च्यवन्ते. गांगेय! ज्योतिष्क अंतर-सहित भी च्युत निरंतरं पि जोइसिया चयंति। एवं । निरन्तरमपि ज्योतिष्काः च्यवन्ते। एवं होते हैं और निरंतर भी च्युत होते हैं। इसी वेमाणिया वि॥ वैमानिकाः अपि। प्रकार वैमानिक की वक्तव्यता। पवेसण-पदं ८६. कतिविहे णं भंते! पवेसणए पण्णत्ते? प्रवेशन-पदम् कतिविधः भदन्त! प्रवेशनकः प्रज्ञप्तः? प्रवेशन-पद ८६. भंते! प्रवेशनक कितने प्रकार का प्रज्ञप्स गंगेया! चउविहे पवेसणए पण्णत्ते, तं गाङ्गेय! चतुर्विधः प्रवेशनकः प्रज्ञप्तः, तद् जहा-नेरइयपवेसणए, तिरिक्ख- यथा-नैरयिकप्रवेशनकः, तिर्यग्योनिक, जोणियपवेसणए, मणुस्सपवेसणए, प्रवेशनकः, मनुष्यप्रवेशनक, देवप्रवेशनकः। देवपवेसणए॥ गांगेय! प्रवेशनक चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे-नैरयिकप्रवेशनक, तिर्यक्योनिक प्रवेशनक, मनुष्यप्रवेशनक और देवप्रवेशनक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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