SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श. ९ : उ. ३२ : सू. ८७-८९ १. सूत्र ७९-८६ प्रस्तुत आलापक में जीव की उत्पत्ति, उद्वर्तना और गत्यंतर में प्रवेश - इन तीन प्रश्नों पर विचार किया गया है। किसी निर्दिष्ट स्थान पर जीव उत्पन्न होता है, वह उसकी उत्पत्ति है। उस स्थान से मृत्यु या च्युत होने का नाम उद्वर्तना है। मृत्यु के पश्चात् किसी अन्य गति में जाने का नाम प्रवेशन है। वर्षा का मौसम आता है, चारों तरफ हरियाली फैल जाती है। प्रश्न होता है-एक साथ इतने जीव कहां से आए? और भी अनेक स्थल हैं, जहां चुटकी बजाते ही असंख्य जीव उत्पन्न हो जाते हैं। अनुकूल योग मिलता है और मनुष्य भी जन्म धारण कर लेता है। प्रश्न होता है- क्या आत्माएं घूमती रहती हैं? जहां भी अवसर मिलता है, वहां आकर अपना अधिकार जमा लेती हैं ? इन सब प्रश्नों पर उत्तर प्रस्तुत प्रकरण से मिलता है। एकेन्द्रिय के पांच कायों में जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु का क्रम निरंतर चलता है। एक समय भी ऐसा नहीं होता, जिस समय में जीव उत्पन्न और उद्वृत्त न हों, इसीलिए एकेन्द्रिय के पांचों कार्योंों में जीवों की ८७. नेरइयपवेसणए णं भंते! कति विहे पण्णत्ते? गंगेया! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहारयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए ।। जाव ८८. एगे भंते! नेरइए नेरइयपवेसण - एणं पविसमाणे किं रयणप्पभाए होज्जा, सक्करप्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? गंगेया! स्यणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा ॥ ८९. दो भंते! नेरइया नेरइय-पवेसणएणं पविसमाणा किं रयण- प्पभाए होज्जा जाव अहेसत्तमाए होज्जा ? गंगेया! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा । अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होज्जा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होज्जा जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहेस-तमाए होज्जा | अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे Jain Education International २२८ भाष्य उत्पत्ति और उद्वर्तना निरंतर अन्तर रहित बतलाई गई है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और उद्वर्तना निरंतर नहीं होती। उनके अंतर काल अथवा विरह काल की जानकारी के लिए द्रष्टव्य प्रज्ञापना पद ६ / १०-५९ । ज्योतिष्क और वैमानिक देव ऊर्ध्व क्षेत्र में रहते हैं इसलिए उनका उद्वर्तन नहीं, च्यवन होता है। १. भ. वृ. ९/७९-८२ - संतरंति समयादिकालापेक्षया सविच्छेदं तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयमुत्पादात् निरन्तरत्वमन्येषां तूत्पादे विरहस्यापि भावात् जीव का मृत्यु के उपरांत गत्यंतर में प्रवेश - एक गति से दूसरी गति में प्रवेश होता है। गतियां चार हैं-नरक गति, तिर्यंच गति, मनुष्य गति और देव गति। इसीलिए प्रवेशन के चार प्रकार बतलाए गए हैं हैं। १. नैरयिक प्रवेशन २. तिर्यक्ोनिक प्रवेशन कतिविधः नैरयिकप्रवेशनकः भदन्त ! प्रज्ञप्तः ? गाङ्गेय! सप्तविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथारत्नप्रभा पृथिवीनैरयिकप्रवेशनकः यावत् अधः सप्तमी पृथिवीनैरयिकप्रवेशनकः । ३. मनुष्य प्रवेशन ४. देव प्रवेशन उत्तरवर्ती सूत्रों में प्रवेशन के सहस्राधिक विकल्प किए गए एकः भदन्त ! नैरयिकः नैरयिक- प्रवेशनकेन प्रविशन् किं रत्नप्रभायां भवति, शर्कराप्रभायां भवति यावत् अधः सप्तम्यां भवति ? गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवति यावत् अधः सप्तम्यां वा भवति । द्वौ भदन्त ! नैरयिकौ नैरयिकप्रवेशन केन प्रविशन्तौ किं रत्नप्रभायां भवतः यावत् अधः सप्तम्यां भवतः ? गाङ्गेय! रत्नप्रभायां वा भवतः यावत् अधः सप्तम्यां वा भवतः । भगवई अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः शर्कराप्रभायां भवति, अथवा एकः रत्नप्रभायाम् एकः वालुका-प्रभायां भवति यावत् एकः रत्नप्रभायाम् एकः अधः सप्तम्यां भवति । अथवा एकः शर्करा प्रभायाम् एकः For Private & Personal Use Only ८७. भंते! नैरयिक प्रवेशनक कितने प्रकार का प्रज्ञप्त है? गांगेय ! सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसेरत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक यावत् अधः सप्तमी पृथ्वी नैरयिकप्रवेशनक । ८८. भंते! एक नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करता हुआ क्या रत्नप्रभा में होता है ? शर्कराप्रभा में होता है? यावत् अधः सप्तमी में होता है? गांगेय! रत्नप्रभा में होता है यावत् अधःसप्तमी में होता है। ८९. भंते! दो नैरयिक नैरयिकप्रवेशनक में प्रवेश करते हुए क्या रत्नप्रभा में होते हैं ? . यावत् अधः सप्तमी में होते हैं? गांगेय! रत्नप्रभा में होते हैं यावत् अथवा अधः सप्तमी में होते हैं। अथवा एक रत्नप्रभा में और एक शर्कराप्रभा में होता है, अथवा एक रत्नप्रभा में और एक बालुकाप्रभा में होता है यावत् एक रत्नप्रभा में और एक अधः सप्तमी में होता है। अथवा एक सांतरत्वं निरंतरत्वं च वाच्यमिति । उत्पन्नानां च सतामुवर्त्तना भवति.......उद्वृत्तानां च केषाञ्चिद् गत्यन्तरे प्रवेशनं भवति । www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy