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भगवई
लेत्ता " अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई
समाद, " (तं जहा
ठाणं,
कमंडलुं ।
तहप्पाणं,
अहे ताई समादहे ॥ १ ॥ ) महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गिं हुइ, हुणित्ता चरुं साहेइ, साहेत्ता बलिवइस्सदेवं करेइ, करेत्ता अतिहिपूयं करेइ, करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति ।
सकहं सिज्जाभंड
दंडदारुं
वक्कलं
६५. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चं छट्टक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥
आयावण
६६. तए णं से सिवे रायरिसी दोच्चे छट्टक्खमणपारणगंसि भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढिr - संकाइयगं गिues, गिण्हित्ता दाहिणगं दिसं पोक्खेड, दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ||
६९. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चं छट्टक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ||
६८. तए णं से सिवे रायरिसी तच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पचोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता किढण संकाइयगं गिues, गिण्हित्ता पच्चत्थिमं दिसं पोक्खेइ, पच्चत्थिमाए
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'सकहं' शय्याभाण्डं
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वल्कलं स्थानं,
कमण्डलुम् । तथात्मानं,
दण्डदारू
समादहेत् ॥ १ ॥
अधः तानि मधुना च घृतेन च तन्दुलैः च अग्निं जुहोति, हुत्वा चरुं साधयति साधयित्वा, बलिवैश्वदेवं करोति, कृत्वा अतिथि पूजां करोति, कृत्वा ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः द्वितीयं षष्ठक्षपणम् उपसम्पद्य विहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः द्वितीये षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य 'किढिण' - संकाइयगं गृह्णाति, गृहीत्वा दक्षिणकां दिशां प्रोक्षति, दक्षिणायां दिशायां यमः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम् अभिरक्षतु शिवं राजर्षि, शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः तृतीयं षष्ठक्षपणम् उपसम्पद्य विहरति ।
ततः सः शिवः राजर्षिः तृतीये षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य 'किढिण- संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा पाश्चात्यां दिशां प्रोक्षति, पाश्चात्यायां दिशायां वरुणः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम्
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श. ११ : उ. ९ : सू. ६४-६८
कर उसमें समिधा काष्ट डाला, डाल कर अग्नि को प्रदीप्त किया, प्रदीप्त कर अग्नि के दक्षिण पार्श्व में सात अंगों को स्थापित किया, जैसे
अस्थि, वल्कल, ज्योति स्थान, शय्या, भाण्ड, कमण्डलु, दण्ड-दारू और स्वशरीर ।
मधु, घृत और चावल का अग्नि में हवन किया, हवन कर चरु - बलि पात्र में बलि योग्य द्रव्य को पकाया, पका कर वैश्रमण देव की पूजा की, अतिथियों--आगन्तुकों का पूजन किया। पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया।
६५. वह शिव राजर्षि दूसरे बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६६. वह शिवराजर्षि दूसरे बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, गहण कर दक्षिण दिशा में जल को छिड़का। जल छिड़ककर कहा- दक्षिण दिशा के लोकपाल महाराज यम प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें, शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया।
६७. वह शिव राजर्षि तीसरे बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६८. वह शिव राजर्षि तीसरे बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतरकर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां अया, वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर • पश्चिम दिशा में जल को छिड़का, जल
छिड़क कर कहा- पश्चिम दिशा के
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