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________________ श. ११ : उ. ९ : सू. ६८-७१ दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खर सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ॥ ६९. तए णं से सिवे रायरसी चउत्थं छट्ठक्खमण उवसंपज्जित्ताणं विहरइ ॥ ७०. तए णं से सिवे रायरसी चउत्थे छट्ठक्खमणं पारणगंसि आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चेरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता किढण संकाइयगं गिves, गिण्हित्ता उत्तरदिसं पोक्खेइ, उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं, सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ ॥ ७१. तए णं तस्स सिवस्स रायरि-सिस्स छछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय - पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइभयाए पराइ उवसंतयाए पाइपयणुकोहमाण - मायालोभयाए मिउमद्दव - संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीययाए अण्णया कयाइ तयावर णिज्जाणं कम्माणं खओवसणं ईहापूहगणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं नाणे समुप्पन्ने। से णं तेणं विब्भंगनाणेणं समुपनेणं पासति अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे, तेणं परं न जाणइ, न पासइ ॥ ३९६ अभिरक्षतु शिवं राजर्षि शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति । ततः सः शिवः राजर्षिः चतुर्थं षष्ठक्षपणं उपसम्पद्य विहरति । Jain Education International ततः सः शिवः राजर्षिः चतुर्थे षष्ठक्षपणपारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति उपागम्य ‘किढिण’-‘संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा उत्तरदिशां प्रोक्षति, उत्तरायां दिशायां वैश्रमणः महाराजः प्रस्थाने प्रस्थितम् अभिरक्षतु शिवं राजर्षि, शेषं तत् चैव यावत् ततः पश्चात् आत्मना आहारमाहरति । ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिप्सेन दिशाचक्रवालेन तपः कर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगृह्य सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्ततया प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दवसम्पन्नतया, आलीनतया विनीततया अन्यदा कदाचित् तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन ईहापोह मार्गणागवेषणां कुर्वतः विभङ्गः नाम ज्ञानं समुत्पन्नम् । सः तेन विभङ्गज्ञानेन समुत्पन्नेन पश्यति अस्मिन् लोके सप्त द्वीपान् सप्त समुद्रान् तस्मात् परं न जानाति, न पश्यति । १. सूत्र ७१ पात्र भेद के आधार पर अवधिज्ञान के दो रूप बनते हैंसम्यग्दृष्टि का अवधिज्ञान अवधिज्ञान कहलाता है और मिथ्यादृष्टि का अवधिज्ञान विभंग ज्ञान कहलाता है। विकास की दृष्टि से दोनों में बहुत 'अंतर है। द्रष्टव्य भगवई ८ / १८६-१९१ । १. भ. वृ. ११ / ५९ - उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति । भाष्य शब्द विमर्श: भगवई लोकपाल महाराज वरुण प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें. शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात स्वयं आहार किया। ६९. वह शिव राजर्षि चतुर्थ बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा। For Private & Personal Use Only ७०. वह शिव राजर्षि चतुर्थ बेले के पारणे में आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था वहां आया, वहां आकर वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर उत्तर दिशा में जल को छिडका, जल छिड़कर कहा- उत्तर दिशा के लोकपाल महाराज वैश्रमण प्रस्थान के लिए प्रस्थित शिव राजर्षि की अभिरक्षा करें शेष पूर्ववत् यावत् पूजन करने के पश्चात् स्वयं आहार किया। ७१. निरन्तर बेले बेले (दो-दो दिन का उपवास) दिशा चक्रवाल तप के द्वारा आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु- मार्दव संपन्नता, आत्म लीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए उस शिवराजर्षि के विभंग नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा उस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र को देखने लगा। उससे आगे न जानता है और न देखता है। दिशा पोक्खिय-दिशा में जल का अर्घ्य चढ़ाकर फल पुष्प आदि चुनने वाले। किढिण- बांस से निर्मित तापस पात्र । संकाइयणं- कावड़ । वेदी - देव अर्चना स्थान | २. भ. वृ. ११ / ६४ - सांकायिकं भारोद्वहनयंत्रम् | www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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