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________________ भगवई ७२. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे - समुप्पज्जित्था - अत्थि णं ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आयावण- भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सुबहु लोही-लोह- कडाह- कडच्छ्रयं तंबियं तावस-भंडगं किढिण-संकाइयगं च गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंड-निक्खेवं करेइ, करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग- चउक्क-चच्चर-चउम्मुहमहापहपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेई - अत्थि णं देवाणु - प्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवाय समुद्दा ॥ ७३. तए णं तस्स सिवस्स रायरि-सिस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म हत्थिणापुरे नगरे सिंघा डग-तिगचउक्क-चच्चर- चउम्मुह- महापहपहेसु बहुजणो अण्णमण्ण-स्स एवमाइक्खइ जाव परुवेs - एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सिं लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य । से कहमेयं मन्ने एवं ? ७४. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा निग्गया । धम्मो कहियो परिसा पडिगया ॥ Jain Education International ३९७ ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि - अस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च एवं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र'नियत्थे' यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य सुबहु लौही - लोहकटाह- 'कडुच्छयं' ताम्रिकं तापसभाण्डक 'किढिण' - 'संकाइयगं' च गृह्णाति, गृहीत्वा यत्रैव हस्तिनापुरं नगरं यत्रैव तापसावसथः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुखमहापथ- पथेषु बहुजनम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति- अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च। ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर चतुर्मुख - महापथपथेषु बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति एवं खलु देवानुप्रिय ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः । अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः च समुद्राः च । तत् कथमेतद् मन्ये एवम् ? मम तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः, परिषद् निर्गता । धर्मः कथितः । प्रतिगता परिषद् । For Private & Personal Use Only श. ११ : उ. ९ : सू. ७२-७४ ७२. उस शिव राजर्षि के इस आकार वाला आध्यात्मिक स्मृत्यात्मक अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं-इस प्रकार संप्रेक्षा की. संप्रेक्षा कर आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर वल्कल वस्त्र पहनकर जहां अपना उटज था, वहां आया, वहां आकर बहुत सारे तवा, लोह - कड़ाह, कड़छी, ताम्र पात्र, तापस- भाण्ड, वंश-मय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां हस्तिनापुर नगर था, जहां तापस रहते थे वहां आया, वहां आकर भांड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजनों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपण करता है- देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। ७३. उस शिव राजर्षि के पास इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं- देवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हैं- देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं, यह कैसे है ? ७४. उस काल और उस समय भगवान महावीर आए। परिषद ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापस नगर में चली गई। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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