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श. ११ : उ. ९ : सू. ७५ ७७ ७५. तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे जहा बितिय सए नियंठुद्देसए जाव घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहु - जणसद्द निसामेइ, बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ एवं खलु देवाणु - प्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ- अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवाय समुदाय से कहमेयं मन्ने एवं ?
७६. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अतियं एयमहं सोच्चा निसम्म जायस जाव समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासीएवं खलु भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भgure समाणे हत्थणापुरे नयरे उच्चनीय-मज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए 'अडमाणे बहुजणस निसामेमि - एवं खलु देवाप्पिया! सिवे रायरिसी एव माइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य ॥
७७. से कहमेयं भंते! एवं ? गोयमादि ! समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी - जपणं गोयमा ! एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छछद्वेणं अणिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उड्डुं बाहाओ पगिज्झिय - पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावण- भूमीए आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए पगइउवसंतयाए पगइको-माणमायालोभयाए मिउमद्दव-संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीय
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तस्मिन् काले तस्मिन् समये भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यथा द्वितीयशते निर्ग्रन्थोदेशके यावत् गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्याय अन् बहुजनशब्दं निशाम्यति, बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति - एवं खलु देवानुप्रिया ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयतिअस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च । तत् कथमेतद् मन्ये एवम् ?
ततः भगवान् गौतमः बहुजनस्य अन्तिकम् एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य जातश्रद्धः यावत् श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादीत् एवं खलु भदन्त ! अहं भवद्भिः अभ्यनुज्ञातः सन् हस्तिनापुरे नगरे उच्च-नीच - मध्यमान कुलानि गृहसमुदानस्य भिक्षाचर्या अन् बहुजनशब्दं निशाम्यामि – एवं खलु देवानुप्रियाः ! शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च ।
तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? गौतम अयि श्रमणः भगवान् महावीर : भगवन्तं गौतमम् एवमवादीत् यत् गौतम ! एवं खलु एतस्य शिवस्य राजर्षेः षष्ठंषष्ठेन अनिक्षिप्तेन दिशाचक्रवालेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य प्रगह्य सूराभिमुखस्य आतापनभूम्याम् आतापयतः प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्तया प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दवसम्पन्नतया आलीनतया विनीततया अन्यदा कदाचित तदावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमेन
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भगवई ७५. उस काल और उस समय भगवान महावीर के ज्येष्ठ अंतेवासी इंद्रभूति नामक अनगार जैसे द्वितीय शतक में निर्ग्रथ उद्देशक की वक्तव्यता यावत् सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने, बहुजन
परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् इस प्रकार प्ररूपणा करते हैं - देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं। उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। यह कैसे है ?
७६. बहुजनों के पास इस अर्थ को 'सुनकर, अवधारण कर भगवान गौतम के मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई यावत् भगवान महावीर को वंदन - नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर इस प्रकार बोले-भंते! मैंने आपकी अनुज्ञा पाकर हस्तिनापुर नगर के उच्च नीच और मध्यम कुलों में सामुदानिक भिक्षा के लिए घूमते हुए अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुनेदेवानुप्रिय ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैंदेवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं।
७७. भंते! वह इस प्रकार कैसे है ?
अयि गौतम ! श्रमण भगवान महावीर ने भगवान गौतम से इस प्रकार कहागौतम ! निरन्तर बेले बेले (दो दिन का उपवास) दिशा चक्रवाल तपःकर्म के द्वारा, आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापना लेते हुए प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशान्तता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदु-मार्दव संपन्नता, आत्म- लीनता और विनीतता
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