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________________ भगवई याए अण्णया कयाइ तया-वरणिज्जाणं ईहापोहमार्गणगवेषणं कुर्वतः विभङ्गः नाम कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह- ज्ञानं समुत्पन्नम्। तत् चैव सर्वं भणितव्यं मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे यावत् भाण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा नाम नाणे समुप्पन्ने। तं चेव सव्वं हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक-चतुष्कभाणियव्वं जाव भंडनिक्खेवं करेइ, चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनम् करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग- एवमाख्याति यावत् एवं प्ररूपयति-अस्ति तिग - चउक्क • चच्चर-चउम्मुह- देवानुप्रियाः! मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं महापह-पहेसु बहुजणस्स एव- समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त माइक्खइ जाव एवं परूवेइ-अत्थि णं द्वीपाः सप्त समुद्राः, तस्मात् परं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे __ व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः च। समुप्पन्ने एवं खलु अस्सिं लोए सत्त ततः तस्य शिवस्य राजर्षेः अन्तिके एतमर्थं दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना श्रुत्वा निशम्य हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटकदीवा य समुद्दा य॥ त्रिक - चतुष्क- चत्वर-चतुर्मुख-महापथतए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स पथेषु बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति अंतिए एयमढे सोच्चा निसम्म यावत् प्ररूपयति-एवं खलु देवानुप्रियाः ! हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग- शिवः राजर्षिः एवमाख्याति यावत् चउक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह- प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः! मम पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, एवं खलु माइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त द्वीपाः सप्त समुद्राः, देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः द्वीपाः च समुद्राः एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं च, तत् मिथ्या। अहं पुनः गौतम! देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि एवं खलु समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सिं लोए सत्त जम्बू-द्वीपादिकाः द्वीपाः, लवणादिकाः दीवा सत्त समुद्दा, तेण परं वोच्छिन्ना समुद्राः संस्थानतः एकविधिविधानाः, दीवा य समुद्दा य, तण्णं मिच्छा। अहं विस्तारतः अनेकविधिविधानाः एवं यथा पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव । जीवाभिगमे यावत् स्वयंभूरमणपर्यवसानाः पख्वेमि-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा, अस्मिन् तिर्यक्लोके असंख्येयाः लवणदीया समुद्दा संठाणओ द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो! श. ११ : उ. ९ : सू. ७७,७८ के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्म का क्षयोपशम कर ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा करते हुए उस शिव राजर्षि के विभंग नामक ज्ञान समुत्पन्न हुआ। पूर्ववत् सर्व वक्तव्य है। यावत भण्ड को स्थापित किया, स्थापित कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर अनेक व्यक्तियों के सामने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करता है-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञानदर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं। उस शिव राजर्षि के पास यह अर्थ सुनकर अवधारण कर हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर अनेक व्यक्ति इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रियो ! शिव राजर्षि इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैं-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुन्पन्न हुआ है, इस प्रकार इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं, उससे आगे द्वीप और समुद्र व्युच्छिन्न हैं-वह मिथ्या है। गौतम ! मैं इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-इस प्रकार जम्बूद्वीप आदि द्वीप, लवण आदि समुद्र संस्थान से एक विधि विधान-गोलवृत्त वाले हैं, विस्तार से अनेक विधिविधान क्रमशः द्विगुण द्विगुण विस्तार वाले हैं। इस प्रकार जैसे जीवाभिगम की वक्तव्यता है, यावत् आयुष्मन् श्रमण! इस तिर्यक् लोक में स्वयंभूरमण तक असंख्येय द्वीप-समुद्र प्रज्ञप्त हैं। ७८. अत्थि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाइं-सवण्णाई पि, अवण्णाई पि संगधाई पि अगंधाई पि, सरसाइं पि, अरसाइं पि सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडत्ताए चिट्ठति? अस्ति भदन्त ! जम्बूद्वीपे द्वीपे द्रव्याणि-- ७८. भंते ! जम्बूद्वीप द्वीप में द्रव्य-वर्ण सहित सवर्णानि अपि, अवर्णानि अपि, सगन्धानि भी हैं ? वर्ण रहित भी हैं ? गंध सहित भी अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि हैं? गंध रहित भी हैं ? रस सहित भी हैं ? अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि रस रहित भी हैं ? स्पर्श सहित भी हैं? अस्पर्शानि अपि, अन्योन्यबद्धानि स्पर्श रहित भी हैं? अन्योन्य बद्ध, अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बद्धस्पृष्ट और अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति ? अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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