________________
श. ११: उ.९: सू. ७८-८३
४००
भगवई
हता अत्थि॥
हन्त अस्ति।
७९. अत्थि णं भंते! लवणसमुहे दव्वाईसवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई पि, सर-साई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? हंता अस्थि॥
अस्ति भदन्त ! लवणसमुद्रे द्रव्याणि- सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि, अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति ? हन्त अस्ति।
७९. भंते ! लवण समुद्र में द्रव्य-वर्ण सहित
भी हैं, वर्ण रहित भी हैं ? गंध सहित भी हैं? गंध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं, स्पर्श सहित भी है, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बन्द्रस्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
८०. अत्थि णं भंते! धायइसंडे दीवे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई पि, सरसाई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि, अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्धपुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति? हंता अत्थि। एवं जाव
अस्ति भदन्त ! धातकीखण्डे द्वीपे द्रव्याणि सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि, अन्योन्यबन्द्रानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हन्त अस्ति। एवं यावत्
८०. भंते! धातकी खण्ड द्वीप में द्रव्य-वर्ण सहित भी हैं, वर्ण रहित भी हैं, गन्ध सहित भी हैं, गन्ध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं. स्पर्श सहित भी हैं, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बन्द्र, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बन्दस्पृष्ट
और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ? हां हैं। इस प्रकार यावत्
८१. अत्थि णं भंते! सयंभूरमणसमुद्दे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि, अगंधाई पि, सरसाई पि अरसाई पि, सफासाई पि अफासाई पि अण्णमण्णबद्धाई अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबन्द्र-पुट्ठाई अण्णमण्णघडताए चिट्ठति ? हंता अत्थि॥
अस्ति भदन्त ! स्वयंभूरमणसमुद्रे द्रव्याणि- सवर्णानि अपि अवर्णानि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अरसानि अपि, सस्पर्शानि अपि अस्पानि अपि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्यबद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हन्त अस्ति।
८१. भंते! स्वयंभूरमण समुद्र में द्रव्य वर्ण सहित भी हैं, वर्ण रहित भी हैं, गन्ध सहित भी हैं, गन्ध रहित भी हैं, रस सहित भी हैं, रस रहित भी हैं, स्पर्श सहित भी हैं, स्पर्श रहित भी हैं, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट अन्योन्य बन्दस्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ?
हां हैं।
८२. तए णं सा महतिमहालिया ततः सा महातिमहती महार्चा परिषद् ८२. वह विशालतम ऐश्वर्यशाली परिषद् महच्चपरिसा समणस्स भगवओ श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिके श्रमण भगवान महावीर के पास इस अर्थ महावीरस्स अंतिए एयमढे सोच्चा एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टा श्रमणं को सुनकर अवधारण कर हृष्ट-तुष्ट हो निसम्म हट्ठतुट्ठा समणं भगवं महावीरं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा गई। उसने श्रमण भगवान महावीर को वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव नमस्यित्वा यस्याः दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया॥ दिशि प्रतिगता।
कर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा में लौट गई।
८३. तए णं हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग- ततः हस्तिनापुरे नगरे शृङ्गाटक-त्रिक- तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स एव- बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् माइक्खइ जाव परूवेइ जण्णं देवाणु- प्ररूपयति यत् देवानप्रियाः! शिवः राजर्षिः प्पिया! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति जाव परू-वेइ-अत्थि णं देवाणुप्पिया! देवानुप्रियाः! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं ममं अतिसेसे नाणदसणे समुप्पन्ने, एवं समुत्पन्नम् एवं खलु अस्मिन् लोके सप्त
८३. हस्तिनापुर नगर के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत प्ररूपणा करते हैं देवानुप्रिय! शिव राजर्षि जो यह आख्यान यावत् प्ररूपणा करते हैंदेवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only
Jain Education International