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श. ११: उ.९ : सू. ६३,६४
भगवई
अभिगिण्हित्ता पढम छट्टक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ॥
की साधना करूंगा, मैं आतापन भूमि में दोनों भुजाएं ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन लेता हुआ विहार करूंगा-इस आकार वाला अभिग्रह अभिगृहीत कर प्रथम बेले का तप स्वीकार कर विहार करने लगा।
६४. तए णं से सिवे रायरिसी पढम- ततः सः शिवः राजर्षि प्रथमषष्ठक्षपण- ६४. शिवराजर्षि प्रथम बेले के पारणे में छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावण- पारणके आतापनभूम्याः प्रत्यवरोहति, आतापन-भूमि से नीचे उतरा, उतर कर भूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चेरुहित्ता प्रत्यवरुह्य वाकलवस्त्र- नियत्थे' यत्रैव वल्कल वस्त्र पहन कर जहां अपना उटज वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए स्वकः उटजः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य (पर्णशाला) था, वहां आया। वहां आकर तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता _ 'किढिण'-'संकाइयगं' गृह्णाति, गृहीत्वा वंशमय पात्र और कावड़ को ग्रहण किया। किढिण-संकाइयगं गिण्हइ, गिण्हित्ता पौरस्त्यां दिशां प्रोक्षति, पौरस्त्यायां ग्रहण कर पूर्व दिशा में जल छिड़का। जल पुरस्थिमं दिसं पोक्खेइ, पुरथिमाए दिशायां सोमः महाराजः प्रस्थाने प्रार्थितम् छिड़क कर कहा-पूर्व दिशा के लोकपाल दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्षतु शिवं राजर्षिम, अभिरक्षतु शिवं महाराज सोम प्रस्थान के लिए प्रस्थित अभिरक्खउ सिवं रायरिसिं- राजषिम्, यानि च तत्र कन्दानि च मूलानि शिवराजर्षि की अभिरक्षा करें, शिवराजर्षि अभिरक्खउ सिवं राय- रिसिं, जाणि य च त्वचः च पत्राणि च पुष्पाणि च फलानि की अभिरक्षा करें। उस दिशा में जो कंद, तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य च बीजानि च हरितानि च तानि अनुजानातु मूल, त्वचा, पत्र, पुष्प, फल, बीज, हरित पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य इति कृत्वा पौरस्त्यां दिशां प्रसरति, प्रसृत्य हैं, उनकी अनुज्ञा दें-यह कहकर पूर्व बीयाणि य हरियाणि य ताणि यानि च तत्र कन्दानि च यावत् हरितानि च दिशा में गया। जाकर जो वहां कंद यावत् अणुजाणउ त्ति कट्ट पुरत्थिमं दिसं तानि गृह्णाति, गृहीत्वा किढिण'- हरित थी उसे ग्रहण किया, ग्रहण कर पसरइ, पसरित्ता जाणि य तत्थ कंदाणि _ 'संकाइयगं' भरति, भृत्वा दर्भान् च कुशान् वंशमय-पात्र भरा, भर कर दर्भ, कुश, य जाब हरियाणि य ताई गेण्हइ, च समिधः च पत्रामोटं च गृह्णाति, गृहीत्वा समिधा (ईंधन) और पत्र चूर्ण ग्रहण गेण्हित्ता किढिणसंकाइयगं भरेइ, भरेत्ता । यत्रैव स्वकः उटजः तत्रैवोपागच्छति, किया। ग्रहण कर जहां अपना उटज था दब्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं उपागम्य 'किढिण'-'संकाइयगं वहां आया। वहां आकर वंशमय पात्र और च गिण्हइ, गिण्हित्ता जेणेव सए उडए स्थापयति, स्थापयित्वा वेदीं वर्धयति, कावड़ को रखा। रख कर वेदी का तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वर्धयित्वा उपलेपनं सम्मार्जनं करोति, प्रमार्जन किया, प्रमार्जन कर उपलेपन किढिण-संकाइयगं ठवेइ, ठवेत्ता वेदिं कृत्वा दर्भकलशहस्तगतं यत्रैव गङ्गा महानदी और सम्मान किया। सम्मार्जन कर वड्ढेइ, वड्ढेत्ता उवलेवण संमज्जणं करेइ, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य गङ्गा हाथ में दर्भ कलश लेकर जहां गंगा नदी करेत्ता दब्भकलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदीम् अवगाहते, अवगाह्य जलमज्जनं थी, वहां गया। वहां जाकर महानदी गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवाग- करोति, कृत्वा जलक्रीडां करोति, कृत्वा । में अवगाहन किया। अवगाहन कर जल में च्छित्ता गंगं महानदिं ओगाहेइ, जलाभिषेकं करोति, कृत्वा आचान्तः चोक्षः मज्जन किया, देह शुद्धि की। देह-शुद्धि
ओगाहेत्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता परमशुचीभूतः देवता-पितृ-कृतकार्यः दर्भ- कर जल-क्रीड़ा की, जल-क्रीड़ा कर जलकीडं करेइ, करेत्ता जलाभिसेयं कलशहस्तगतः गङ्गायाः महानद्याः जलाभिषेक किया, जलाभिषेक कर, जल करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे प्रत्युत्तरति, प्रत्युत्तीर्य यत्रैव स्वकः उटजः का स्पर्श कर वह स्वच्छ और परम परमसुइभूए देवय-पिति-कयकज्जे तत्रैव उपागच्छति. उपागम्य दर्भः च कुशैः शुचीभूत (साफ-सुथरा) हो गया। देव दब्भकलसाहत्थगए गंगाओ महानदीओ च बालकाभिः च वेदी रचयति, रचयित्वा, पितरों का कृतकार्य जलांजलि अर्पित पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्ता जेणेव सए उडए शरकेन अरणिं मथ्नाति, मथित्वा अग्नि कर, दर्भ-कलश हाथ में लेकर महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता दब्भेहि पातयति, पातयित्वा संधुक्षति, संधुक्ष्य गंगा से नीचे उतरा, उतरकर जहां अपना य कुसेहि य वालुयाएहि य वेदिं रएति, समित्काष्टानि प्रक्षिपति, प्रक्षिप्य, अग्निम् उटज था वहां आया. वहां आकर दर्भ, रएता सरएणं अरणिं महेइ, महेत्ता उज्ज्वालयति, उज्ज्वाल्य 'अग्नेः दक्षिणे कुश और बालुका वेदी की रचना की, अग्गि पाडेइ, पाडेत्ता अग्गि संधुक्केइ, पार्वे, सप्त अङ्गानि समादहेत, तद्यथा- रचना कर शरकण्डों से अरणि का मंथन संधुक्केत्ता समिहाकट्ठाई पक्खिवइ,
किया, मंथन कर अग्नि को उत्पन्न किया, पक्खिवित्ता अग्गि उज्जालेइ, उज्जा
उत्पन्न कर अग्नि को सुलगाया, सुलगा
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