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________________ भगवई ३९३ श. ११ : उ.९ : सू. ६२,६३ मंदर-महिंदसारे, वण्णओ जाव रज्जं पसासेमाणे विहरइ।। सारः, वर्णकः यावत् राज्यं प्रशासयन् विहरति। महेन्द्र की भांति-वर्णक यावत् राज्य का प्रशासन करता हुआ विहार करने लगा। ६३. तए णं से सिवे राया अण्णया कयाइ ततः सः शिवः राजा अन्यदा कदाचित् ६३. "उस शिवराजा ने किसी समय शोभन सोभणसि तिहि-करण-दिवस-मुहत्त- शोभने तिथि-करण-दिवस-मुहूर्त-नक्षत्रे तिथि, करण, दिवस, मुहूर्त, और नक्षत्र में नक्खत्तंसि विपुलं असण . पाण . विपुलम् अशन-पान-खाद्य-स्वाद्यम् विपुल अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य खाइम . साइमं उवक्खडावेति, उपस्कारयति, उपस्कार्य मित्र-ज्ञाति- पकवाया। पकवाने के बाद मित्र, ज्ञाति, उवक्खडावेत्ता मित्तनाइ-नियम-सयण- निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं राज्ञः च कुटुम्बी, स्वजन संबंधी, परिजन. राजा संबंधि-परिजणं रायाणो य खत्तिए य क्षत्रियान् च आमन्त्रयन्ति, आमन्त्र्य ततः और क्षत्रियों को आमंत्रित किया। आमंतेति, आमंतेत्ता तओ पच्छा बहाए । पश्चात् स्नातः कृतबलिकर्मा कृतकौतुक- आमंत्रित करने के पश्चात् स्नान, कयबलिकम्मे कयकोउय-मंगल-पाय- मङ्गलप्रायश्चित्तः शुद्धप्रवेश्यानि माङ्गल्यानि बलिकर्म (पूजा) कौतुक (तिलक) आदि च्छित्ते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई। वस्त्राणि प्रवरपरिहितः अल्पमहाया- इष्ट नमस्कार रूप मंगल और प्रायश्चित्त पवर परिहिए अप्पमहग्घाभरणालंकिय. भरणालङ्कृतशरीरः भोजनवेलायां भोजन- करके शुद्ध-प्रवेश्य (सभा में प्रवेशोचित) सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि मण्डपे सुखासन-वरगतः तेन मित्र-ज्ञाति- प्रवर मांगलिक वस्त्र पहनकर, अल्पभार सुहासणवरगए तेणं मित्त-नाइ-नियग - निजक - स्वजन - सम्बन्धि - परिजनेन और बहुमूल्य वाले आभरणों से शरीर सयण . संबंधि-परिजणेणं राएहि य । राजभिः च क्षत्रियैः सार्धं विपुलम् अशन- को अलंकृत कर भोजन की वेला में खत्तिएहि सद्धिं विपुलं असण-पाण- पान-खाद्य-स्वाद्यम् आस्वादयन् भोजन-मण्डप में सुखासन की मुद्रा में खाइम-साइमं आसा-देमाणे वीसा- विस्वादयन् परिभाजयन् परिभुजानः बैठा हुआ वह उन मित्र. ज्ञाति, कुटुम्बी, देमाणे परिभाएमाणे परिभुजेमाणे विहरति। स्वजन, संबंधी, परिजन, राजा और विहरइ। क्षत्रियों के साथ उस विपुल भोजन. पेय, खाद्य और स्वाद्य का आस्वाद लेता हुआ विशिष्ट स्वाद लेता हुआ. बांटता हुआ और परिभोग करता हुआ रह रहा था। जिमियभुत्तुरागए वि य णं समाणे जिमितभुक्तोत्तरागत अपि सन् आचान्तः । उसने भोजन कर आचमन किया, आचमन आयते चोक्खे परमसुइब्भूए तं मित्त- चोक्षः परमशूचीभूतः तं मित्र-ज्ञाति- कर वह स्वच्छ और परम शुचीभूत बैठने नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं निजक-स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं विपुलेन के स्थान पर आया। वहां उसने उन मित्र, विउलेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं अशन-पान-खाद्य-स्वाद्येन वस्त्र-गन्ध- ज्ञातियों, कुटुम्बीजनों, स्वजनों, वत्थ-गंध-मल्ला-लंकारेण य सक्कारेइ माल्यालङ्कारेण च सत्करोति सम्मानयति, संबंधियों और परिजनों को विपुल. सम्मोणेइ, सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता तं। सत्कृत्य सम्मान्य च तं मित्र-ज्ञाति-निजक- भोजन, पेय, खाद्य, स्वाद्य पदार्थों से मित्त-नाइ-नियग - सयण . संबंधि- स्वजन-सम्बन्धि-परिजनं राज्ञः च तथा वस्त्र, सुगंधित द्रव्य, माला और परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभई । क्षत्रियान च शिवभद्रं च राजानम् अलंकारों से सत्कृत-सम्मानित किया। च रायाणं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सुबहु आपृच्छति, आपृच्छ्य सुबहु लौही- सत्कृत-सम्मानित कर उन मित्रों. लोही-लोहकडाह-कडच्छुयं तंबियं । लौहकटाह-'कडुच्छयं ताम्रिकं तापस- ज्ञातिजनों कुटुम्बियों, स्वजनों, संबंधियों, तावसभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा भाण्डकं गृहीत्वा ये इमे गङ्गाकूलकाः । परिजनों, राजाओं, क्षत्रियों और राजा वाणपत्था तावसा भवंति, तं चेव जाव वानप्रस्थाः तापसाः भवन्ति, तत् चैव शिवभद्र की अनुमति ली। अनुमति लेकर तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसा- यावत् तेषाम् अन्तिकं मुण्डः भूत्वा वह बहुत सारे तवा. लोहकडाह. कड़छी. पोक्खियताव-सत्ताए पव्वइए, पव्वइए दिशाप्रोक्षिततापसत्वेन प्रव्रजितः, प्रव्रजि- ताम-पात्र आदि तापस भंड लेकर जो वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं तोऽपि सन् इममेतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्णाति- गंगा किनारे वानप्रस्थ तापस रहते थे, अभिगिण्हति-कप्पइ मे जावज्जीवाए कल्पते मे यावज्जीवं षष्ठंषष्ठेन अनि- पूर्ववत यावत् उनके पास मुंड होकर छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं दिसा- क्षिप्तेन दिशाचकवालेन तपः कर्मणा ऊर्ध्व- दिशाप्रोक्षिक तापस के रूप में प्रवृजित चक्कवालेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड वाहाओ । बाहू प्रगृह्य-प्रगृह्य विहर्तुम्-इममेतद्रूपमभि- हुआ। प्रवृजित होकर उसने इस आकार पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहस्स ग्रहम् अभिगृह्य प्रथमं षष्ठक्षपणम् वाला यह अभिग्रह स्वीकार किया मैं आयावणभूमीए आयावेमाणस्स उपसम्पद्य विहरति। जीवन भर निरन्तर बेले बेले (दो दो दिन विहरित्तए-अयमेयारूवं अभिग्गहं के उपवास) द्वारा दिशा चक्रवाल तपःकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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