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श. ११ : उ. ९ : सू. ६१,६२
भगवई सिंचित्ता पम्हल-सुकुमालाए सुरभीए मार्जति, मार्जयित्वा सरसेण गोशीर्ष- किया। अभिषिक्त कर रोएंदार सुकुमार गंधकासाईए गायाइं लूहेति, लूहेत्ता चन्दनेन गात्राणि अनुलिम्पति एवं यथैव सुरभित गंध-वस्त्र से गात्र को पौंछा, सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं जमालेः अलंकारो तथैव यावत् कल्पसक्षक पौंछकर सरस गोशीर्ष चन्दन का गात्र पर अणुलिंपति एवं जहेब जमालिस्स इव अलंकृत-विभूषितं करोति, कृत्वा अनुलेप किया, इस प्रकार जैसे जमालि अलंकारो तहेव जाव कप्परुक्खगं पिव करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावर्त्त के अलंकारों की वक्तव्यता उसी प्रकार अलंकिय-विभूसियं करेइ, करेत्ता मस्तके अञ्जलिं कृत्वा शिवभद्रं कुमारं यावत् कल्पवृक्ष की भांति अलंकृतकरयलपरिग्गहियं दसनह सिरसा-वत्तं जयेन विजयेन वर्धयति, वर्धयित्वा ताभिः विभूषित कर दिया। दोनों हथेलियों से मत्थए अंजलिं कट्ट सिवभई कुमारं इष्टाभिः कान्ताभिः प्रियाभिः मनोज्ञाभिः निष्पन्न संपुट आकार वाली दस जएणं विजएण वद्धावेइ, वद्धावेत्ता ताहिं 'मणामाहिं' मनोभिरा- माभिः, हृदयगमनी- नखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख इट्ठाहिं कंताहि पियाहिं मणुण्णाहिं याभिः वल्गुभिः जय-विजयमङ्गलशतैः घुमाकर कुमार शिवभद्र की 'जय हो मणामाहिं मणा-भिरामाहिं हियय- अनवरतम् अभिनन्दन्तः च अभिष्टुवन्तः विजय हो' के द्वारा वर्धापित किया। गमणिज्जाहिं वग्गूहिं जयविजय- च एवमवादीत-जय-जय नन्दा ! जय-जय वर्धापित कर उन इष्ट, कांत, प्रिय, मंगलसएहिं अण-वरयं अभिणंदंतो य भद्रा ! भद्रं ते, अजितं जय जितं पालय, मनोज्ञ, मनोहर, मनोभिराम, हृदय का अभित्थुणतो य एवं वयासी-जय-जय जितमध्ये वस। इन्द्रः इव देवानां, चमर: इव स्पर्श करने वाली वाणी और जय-विजय नंदा! जय-जय भहा! भई ते, अजियं असुराणां, धरणः इव नागानां, चन्द्रः इव सूचक मंगल शब्दों के द्वारा अनवरत जिणाहि जियं पालयाहि, जियमज्झे । ताराणां, भरतः इव मनुष्याणां बहूनि वर्षाणि अभिनन्दन और अभिस्तवन करते हुए वसाहि। इंदो इव देवाणं, चमरो इव । बहूनि वर्षशतानि बहूनि वर्षसहस्राणि बहूनि । इस प्रकार बोले-हे नंद! समृद्धपुरुष ! असुराणं, धरणो इव नागाणं, चंदो इव वर्षशतसहस्राणि अनघसमग्रः हृष्टतुष्टः तुम्हारी जय हो, जय हो। ताराणं, भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाइं परमायुः पालय, इष्टजनसम्परिवृतः हे भद्रपुरुष! तुम्हारी जय हो, जय हो। भद्र बहूई वाससयाई बहूई वाससहस्साई हस्तिनापुरस्य नगरस्य, अन्येषां च बहनां हो। अजित को जीतो, जित की पालना बहूई वाससयसहस्साई अणहस-मग्गो ग्राम-आकर-नगर-खेट-कर्बट-द्रोणमुख- करो, जीते हुए लोगों के मध्य निवास हट्ठतुट्ठो परमाउं पालयाहि, इट्ठजण- मडम्ब - पत्तन - आश्रम - निगम-सम्बाध- करो। देवों में इन्द्र, असुरों में चमरेन्द्र, संपरिखुडे हत्थिणापुरस्स नगरस्स, सन्निवेशानाम् आधिपत्यं पौरपत्यं स्वामित्वं नागों में धरणेन्द्र, तारागण में चन्द्र और अण्णेसिं च बहूणं गामा-गर-नगर- भर्तृत्वं महत्तरकत्वम् आज्ञा-ईश्वर-सेनापत्यं मनुष्यों में भरत की भांति अनेक वर्षों खेड-कव्वड - दोणमुह - मडंब - पट्टण- कारयन् पालयन् महत्-आहत-नाट्य-गीत- तक, सैकड़ों, हजारों लाखों वर्षों तक आसम-निगम - संवाह - सण्णिवेसाणं वादित-तन्त्री-तल-ताल-तुडिय' घन- परमपवित्र, हृष्ट-तुष्ट होकर परम आयुष्य आहेबच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं । मृदङ्ग-पटुप्रवादितरवेण विपुलानि भोग- का पालन करो। इष्टजनों से संपरिवृत महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं भोगानि भुजानः विहर इति कृत्वा जय जय होकर हस्तिनापुर नगर के अन्य अनेक कारेमाणे पालेमाणे महयाहय-नट्ट .. शब्द प्रयुनक्ति।
ग्राम. आकर, नगर. खेट, कर्बट. गीय- वाइय-तंती-तल - ताल - तुडिय
द्रोणमुख, मडण्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं विउलाई
संभाग और सन्निवेश का आधिपत्य, भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि त्ति कट्ट
पौरपत्य, भर्तृत्व, महत्तरत्व, आज्ञा, जयजयसई पउंजति॥
ऐश्वर्य, सेनापतित्व करते हुए, उनका पालन करते हुए आहत नाट्यों, गीतों तथा कुशल वादक के द्वारा बजाए गए वादित, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, धन और मृदंग की महान ध्वनि से युक्त विपुल्न भोगार्ह भोगों को भोगते हुए विहार करो, इस प्रकार जय जय शब्द का प्रयोग किया।
६२. तए णं से सिवभहे कुमारे राया जाते-महया हिमवंत-महंत-मलय-
ततः सः शिवभद्रः कुमारः राजा जातः- महतहिमवत्-महत् - मलय - मन्दर-महेन्द्र-
६२. वह कुमार शिवभद्र राजा हा गयामहान हिमालय, महान मत्नय, मेरु और
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