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श. ११ : उ. १ : सू. ३६-३९
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भगवई
व्याघात और नियाघात दिशा की स्थापना इस प्रकार है(२)
(३)
तीन दिशाओं
चार दिशाओं
पांच दिशाओं
छह दिशाओं
१.घन के एक कोण पर होने से नीची, पूर्व और उत्तर दिशाओं ३. घनके ऊपर के तल के मध्य में होने पर नीची. पूर्व, पश्चिम,
उत्तर-दक्षिण दिशाओं में। २.घन के ऊपर की भुजा के बीच में होने से नीची, पूर्व, पश्चिम ४. घन के बीच में कहीं भी होने पर छहों दिशाओं में। और उत्तर दिशाओं में। ३६. तेसिणं भंते! जीवाणं केवतियं कालं तेषां भदन्त ! जीवानां कियन्तं कालं स्थितिः ३६. भंते! उन जीवों की स्थिति कितने ठिई पण्णता? प्रज्ञसा?
काल की प्रज्ञप्त है? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, गौतम! जघन्येन अन्तर्मुहूर्त्तम् उत्कर्षेण गौतम ! जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः उक्कोसेणं दस वाससहस्साइं॥ दशवर्षसहस्राणि।
दस हजार वर्ष
३७. तेसि णं भंते! जीवाणं कति तेषां भदन्त! जीवानां कति समुद्घाताः समुग्घाया पण्णत्ता?
प्रज्ञप्ताः ? गोयमा! तओ समुग्घाया पण्णत्ता, तं। गौतम! त्रयः समुद्घाताः प्रज्ञप्लाः, तद्यथाजहा-वेदणासमुग्याए,
वेदनासमुद्घातः, कषायसमुद्घातः मारणासमुग्घाए, मारणंतियसमुग्याए। न्तिकसमुद्घातः।
३७. भंते! उन जीवों के कितने समुद्घात प्रज्ञप्त है ? गौतम ! तीन समुद्घात प्रज्ञप्त है, जैसेवेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात।
३८. ते णं भंते! जीवा मारणंतिय- समुग्घाएणं किं समोहता मरंति? असमोहता मरंति? गोयमा! समोहता वि मरंति, असमोहता वि मरति॥
ते भदन्त! जीवाः मारणान्तिक- ३८. भंते ! वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समुद्घातेन किं समवहताः नियन्ते? समवहत होकर मरते हैं? असमवहत असमवहताः नियन्ते?
रहकर मरते हैं ? गौतम! समवहताः अपि नियन्ते, गौतम! समवहत होकर भी मरते हैं, असमवहताः अपि नियन्ते।
असमवहृत रहकर भी मरते हैं।
ता
३९. ते णं भंते! जीवा अणंतरं उव्व-ट्टित्ता ते भदन्त ! जीवाः अनन्तरम् उद्वर्त्य कुत्र कहिं गच्छंति? कहिं उवव-ज्जंति-किं गच्छन्ति? कुत्र उपपद्यन्ते-किं नैरयिकेषु नेरइएसु उववज्जति? तिरिक्ख- उपपद्यन्ते? तिर्यग्योनिकेषु उपपद्यन्ते? एवं जोणिएसु उववज्जति? एवं जहा यथा अवक्रान्त्याम् उद्वर्तनायां वनस्पतिवक्कंतीए उव्वट्टणाए वणस्सइ- कायिकानां तथा भणितव्यम्। काइयाणं तहा भाणियव्वं॥
३९. 'भंते! वे अनंतर उद्वर्तन कर कहां जाते हैं? कहां उत्पन्न होते हैं क्या नैरयिक में उपपन्न होते हैं? तिर्यक् योनिक में उपपन्न होते हैं ? इस प्रकार जैसे अवक्रान्ति पद (प्रज्ञापना ६/१०४) में वनस्पतिकायिक जीवों की उद्वर्तना वैसे ही उत्पल जीवों की वक्तव्यता।
भाष्य १ सूत्र ३९
उत्पल जीव की उद्वर्तन के बाद दो गति ही होती है-तिर्यंच गति और मनुष्य गति।'
१.पण्ण.६/१०३-१०४
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