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________________ भगवई ३७९ श. ११: उ.१: सू. ३४,३५ ३४. से णं भंते! उप्पलजीवे पंचिंदिय- सः भदन्त! उत्पलजीवः पञ्चेन्द्रिय. ३४. भंते! वह उत्पल जीव पंचेन्द्रिय तिरिक्खजोणियजीवे, पुणरवि उप्पल- तिर्यगयोनिकजीवः, पुनरपि उत्पलजीवः तिर्यक्योनिक जीव के रूप में उत्पन्न जीवेत्ति-पुच्छा। इति पृच्छा। होकर कितने काल तक रहता है-पृच्छा। गोयमा! भवादेसेणं जहण्णेणं दो भव- गौतम! भवादेशेन जघन्येन द्वे भवग्रहणे, गौतम! भव की अपेक्षा जघन्यतः दो भवग्गहणाई, उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई, उत्कर्षेण अष्ट भवग्रहणानि, कालादेशेन ग्रहण करता है उत्कृष्टतः आठ भव-ग्रहण कालादेसेणं जहण्णेणं दो अंतोमुहुत्ता, जघन्येन द्वौ अन्तर्मुहूत्तौं, उत्कर्षण करता है। काल की अपेक्षा जघन्यतः दो उक्कोसेणं पुव्व-कोडिपुहत्तं, एवतियं पूर्वकोटिपृथक्त्वम्, एतावन्तं कालं सेवते. अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्टतः पृथक्त्व पूर्वकोटि। काल सेवेज्जा, एवतियं कालं एतावन्तं कालं गत्यागती करोति। एवं इतने काल तक रहता है, इतने काल तक गतिरागतिं करेज्जा। एवं मणुस्सेण वि मनुष्येणापि समं यावत् एतावन्तं कालं गति-आगति करता है। इसी प्रकार समं जाव एवतियं कालं गतिरागतिं गत्यागती करोति। मनुष्य के साथ उत्पल जीव की बक्तव्यता, करेज्जा ॥ यावत् इतने काल तक गति-आगति करता हैं? भाष्य १.सूत्र ३४ पर उसकी उत्कृष्ट कालावधि पूर्व कोटि पृथक्त्व होती है।' उत्पल पत्र का जीव पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनि में भव-ग्रहण कर उत्पल जीव और तिर्यक्रपंचेन्द्रिय जीव की जघन्य स्थिति पुनः उत्पल जीव में आता है। कालादेश की अपेक्षा उसकी उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त होती है इसलिए दोनों की कालावधि जघन्य दो कालावधि पूर्वकोटि पृथक्त्व है। उत्पल जीव के कायसंवेध की दृष्टि से अन्तर्मुहूर्त होती है। द्रष्टव्य यंत्रउत्कृष्ट भव आठ होते हैं। उनमें चार पंचेन्द्रिय तिर्यक् योनि के और | भवादेश कालादेश चार उत्पल-पत्र जीव के होते हैं। उत्पल काय से निकले हए जीव की उत्कृष्ट | जघन्य उत्कृष्ट उत्कृष्ट तिर्यकपंचेन्द्रिय की स्थिति विवक्षित है। इस प्रकार चार पूर्व चार पर्वो भव आठ भव | दो अन्तर्मुहूर्त | पृथक्त्व पूर्व कोटि कोटि का कालमान। उत्पल जीवन के चार भवो का कालमान जोड़ने । (२.९ पूर्व कोटि) जिघन्य ३५. ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारंति? ते भदन्त ! जीवाः किमाहारम् आहरन्ति? ३५. भंते! वे जीव क्या आहार करते हैं? गोयमा! दव्वओ अणंतपदेसियाई गौतम! द्रव्यतः अनन्तप्रदेशिकानि द्रव्याणि! गौतम! द्रव्य की अपेक्षा अनन्त प्रदेशी दव्वाई, खेत्तओ असंखेन्जपदेसो- क्षेत्रतः असंख्येयप्रदेशावगाढ़ानि, कालतः द्रव्य, क्षेत्र की अपेक्षा असंख्येय गाढाई, कालओ अणयरकाल-ट्ठियाई, अन्यतरकालस्थितिकानि. भावतः वर्ण- प्रदेशावगाढ़, काल की अपेक्षा किसी भी भावओ वण्णमंताई गंध-मंताई रस- वन्ति गन्धवन्ति रसवन्ति स्पर्शवन्ति एवं स्थिति वाले और भाव की अपेक्षा वर्ण, मंताई फासमंताई एवं जहा आहारुद्देसए । यथा आहारोद्देशके वनस्पतिकायिकानाम् गन्ध, रस तथा स्पर्शयुक्त। इस प्रकार वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव । आहारः तथैव यावत् सर्वात्मना आहारम् जैसे आहार-उद्देशक (प्रज्ञापना २८/३६) सव्व-प्पणयाए आहारमाहारेंति, नवरं- आहरन्ति नवरं-नियमात् षड् दिग्भ्यः , शेषं में वनस्पतिकायिक जीवों के आहार की नियमा छद्दिसिं, सेसं तं चेव॥ तत् चैव। वक्तव्यता, वैसे ही यावत् सर्व आत्मप्रदेशों से आहार करता है। इतना विशेष है-नियमतः छहों दिशाओं से आहार करता है। शेष प्रज्ञापना की भांति वक्तव्यता है। भाष्य १. सूत्र ३५ में भी उत्पन्न होते हैं इसलिए वे कदाचित् तीन, कदाचित् चार और वनस्पतिकायिक जीव यदि कोई व्याघात न हो तो छहों कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। उत्पल जीव बादर हैं। वे दिशाओं से आहार लेते हैं। यदि व्याघात हो तो कदाचित् तीन, लोक के कोण में उत्पन्न नहीं होते इसलिए वे नियमतः छहों दिशाओं कदाचित चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आहार लेते हैं। से आहार लेते हैं। पृथ्वीकायिक आदि के जीव सूक्ष्म होने के कारण लोक के कोण १. भ. वृ. ११.३४-उक्कोसेणं पुव्वकोडी पुहुतं ति चतुर्षु पंचेन्द्रिय- २. भ. वृ. ११/३५-पृथ्वीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति तिर्यगभवराहणेषु चतसः पूर्वकोट्यः। उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेन स्यात् तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु इत्यादिनापि प्रकारेणाहार. उत्पलकायोद्धृत जीव योग्योत्कृष्टपंचेन्द्रियतिर्थस्थितेर्ग्रहणात, उत्पल- माहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरन्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावान नियमात जीवितं त्वेतास्वधिकमि त्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति। षट्सु दिक्ष्वाहारयन्तीति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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