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श.९: उ. ३३ : सू. १९४-१९६
भगवई
३०२ भद्रासनवरे संनिषण्णा।
पासे
खत्तियकुमारस्स वामे भद्दासणवरंसि सण्णिसण्णा॥
आरूढ़ होकर क्षत्रियकुमार जमालि के वाम पार्श्व में प्रवर भद्रासन पर आसीन
१९५. तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय- ततः तस्य जमालेः क्षत्रियकुमारस्य पृष्ठतः १९५. क्षत्रियकुमार जमालि के पीछे एक
कुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी । एका वरतरुणी भंगाराकारचारवेषा प्रवर तरुणी मूर्तिमान श्रृंगार और सुन्दर सिंगारागारचारुवेसा संगय-गय- सङ्गत-गत · हसित - भणित - चेष्टित- वेशवाली, चलने, हंसने, बोलने और हसिय-भणिय - चेट्ठिय - विलास-सल- विलास-सललित - संलाप-निपुण-युक्तो- चेष्टा करने में निपुण तथा विलास और लिय-संलाव-निउण-जुत्तोवयारकुसला । पचारकुशलः सुन्दरस्तन-जघन-वचनकर- लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण, समुचित सुंदरथण - जघण · वयण-कर-चरण- चरण-नयन-लावण्य-रूप-यौवन-विलास- उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि, नयण-लावण्ण-रूव-जोव्वण-विलास- कलिता शरदभ्र-हिम-रजत-कुमुद कुन्देन्दु- मुख, हाथ, पैर, नयन, लावण्य, रूप, कलिया सरदब्भ-हिम - स्यय - कुमुद- प्रकाशं सकोरेंटमाल्यदाम् धवलम् आतपत्रं यौवन और विलास से कलित, शारद कुंदे-दुप्पगासं सकोरेंटमल्लदाम धवलं । गृहीत्वा सलीलाम् अवधारयती-अवधार- मेघ, हिम, रजत, कुमुद, कुन्द और आयवत्तं गहाय सलीलं ओधरे-माणी- यती तिष्ठति।
चन्द्रमा के समान कटसरैया की माला ओधरेमाणी चिट्ठति॥
और दाम तथा धवल छत्र को लेकर लीला सहित धारण करती हुई, धारण
करती हुई खड़ी हो गई। भाष्य
संलाप-परस्पर संभाषण। वृत्ति में एक श्लोक उद्वत हैशब्द-विमर्श
अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः। सिंगारागारचारुवेसा-वृत्तिकार ने इसके दो अर्थ किए हैं
क क्वा वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः॥' १. शृंगार रस के गृह तुल्य और चारुवेश वाली।
जुत्तोवयारकुसल-उचित उपचार में कुशल। २. शृंगार प्रधान आकार और चारुवेश वाली।'
रूप-आकृति संगय-उचित।
विलास-यहां विलास का अर्थ स्थान, गमन आदि में एक चेट्ठिय-चेष्टा करने में निपुण।
विशेष स्थिति का प्रयोग है। विलास-नेत्र विकार। वृत्ति में एक श्लोक उद्धृत है
सरदब्भ-शरद ऋतु का मेघ। हावो मुखविकारः स्याद्, भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भूसमुद्भवः॥
१९६. तए णं तस्स जमालिस्स (खत्तिय- ततः तस्य जमालेः (क्षत्रिय कुमारस्य?) १९६. क्षत्रियकुमार जमालि के दोनों ओर दो कुमारस्स?) उभओ पासिं दुवे उभयतः पार्वे द्वे वरतरुण्यौ शृङ्गाराकार- प्रवर तरुणियां मूर्तिमान शृंगार और वरतरुणीओ सिंगारागार चारुवेसाओ चारवेषे सङ्गत - गत - हसित - भणित- सुन्दर वेशवाली, चलने, हंसने, बोलने, संगय-गय-हसिय-भणिय-चे ट्ठिय- चेष्टित-विलास-सललित-संलाप- निपुण- और चेष्टा करने में निपुण, विलास और विलास-सललिय-संलाव-निउणजुत्तो युक्तोपचारकुशले सुन्दरस्तन-जधन-वदन- लालित्यपूर्ण संलाप में निपुण, समुचित वयारकुसलाओ सुंदरथण-जघण- कर-चरण-नयन-लावण्य-रूप-यौवन- उपचार में कुशल, सुन्दर स्तन, कटि. वयण-कर-चरण-नयण-लावण्ण-रूव. विलासकलिते नाना-मणि-कनकरत्न मुख, हाथ, पैर, नयन-लावण्य, रूप, जोव्वण-विलास कलियाओ नाणा- विमलमहार्हतपनीयोज्ज्वलविचित्रदण्डे, यौवन और विलास से कलित, नाना मणि-कणग - रयण - विमलमहरिहत- 'चिल्लिये' शङ्खाङ्क-कुन्द-दकरजो- मणिरत्न (कनक) विमल और महामूल्य वणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ, चिल्लि- ऽमृत-महित-फेनपुञ्जसन्निकाशे धवले तपनीय (रक्तस्वर्ण) से निर्मित, उज्ज्वल याओ, संखंक-कुंद - दगरय - अमय - चामरे गृहीत्वा सलीलां वीजयत्यौ- और विचित्र दण्ड वाले दीप्तिमान शंख, महिय . फेणपुंजसण्णि - कासाओ वीजयत्यौ तिष्ठतः।
अंकरत्न, कुन्द, जलकण, अमृत और १. भ. वृ. ९/१०५--शृंगारस्य-रसविशेषस्यागारमिव यश्चारुश्च वेषो नेपथ्यं ४. वही, ९/१९५- इह विलासशब्देन स्थानासनगमनादीनां सुश्लिष्ये यो सा तथा, अथवा शृंगारप्रधान आकारश्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा।
विशेषोऽसावुच्यते, यदाह२. वही, ९/१९५।
स्थानासनगमनानां हस्तभूनेत्रकर्मणां चैव। ३. वही, १/१९५।
उत्पद्यते विशेषो यः, श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात।।
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