________________
भगवई
४४३
मात
एयमढें नो सहहंति नो पत्तियंति नो नो रोचन्ते. एतमर्थम अश्रद्दधानाः अप्रतिरोयंति, एयमद्वं असदहमाणा अपत्तिय- यन्तः अरोचमानाः यस्या एव दिशः माणा अरोयमाणा जामेव दिसं प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगताः। पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया।।
श. ११ : उ. १२ : सू. १७७,१७८ प्रतीति और रुचि नहीं की। इस अर्थ पर अश्रद्धा, अप्रतीति, और अरूचि करते हुए जिस दिशा से आए थे उसी दिशा में लौट गए।
१७८. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणः भगवान् १७८. उस काल और उस समय श्रमण
भगवं महावीरं जाव समोसढे जाव महावीरः यावत समवसृतः यावत पर्षत । परिसा पज्जुवासइ। तए णं ते पर्युपास्ते। ततः ते श्रमणोपासकाः अनया परिषद् ने पर्युपासना की। वे श्रमणोपासक समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा । कथया लब्धार्थाः सन्तः, हृष्टतुष्टाः अन्योन्यं इस कथा को सुनकर हृष्टतुष्ट चित्त वाले हो समाणा, हठ्ठतुट्ठा अण्णमण्णं सद्दा-ति, शब्दयन्ति, शब्दयित्वा एवमवादिषुः-एवं गए। वे परस्पर एक-दूसरे को संबोधित सहावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु खलु देवानुप्रियाः! श्रमणः भगवान् कर इस प्रकार बोले-देवानुप्रियो ! श्रमण देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महावीरः यावत् आलभिकायां नगाँ भगवान महावीर यावत् आनभिका नगरी जाव आलभियाए नगरीए अहापडिरूवं यथाप्रतिरूपम् अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन में प्रवास-योग्य स्थान की अनुमति लेकर ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा तपसा आत्मानं भावयन् विहरति।
संयम और तप से अपने आपको भावित अप्पाणं भावमाणे विहरइ।
करते हुए विहार कर रहे हैं। तं महप्फलं खलु भो देवाणुप्पिया! तत् महत्-फलं खलु देवानुप्रियाः! देवानुप्रियो ! तथारूप अर्हत भगवान के तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं तथारूपाणाम् अर्हतां भगवतां नाम गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक नामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण नामगोत्रस्यापि श्रवणस्य, किमंग पुनः है, फिर अभिगमन, वन्दन, नमस्कार, अभिगमण-वंदण-नमसण पडिपुच्छण- अभिगमन-वंदन-नमस्यन-प्रतिप्रच्छन- प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही पज्जुवासणाए?एगस्स वि आरियस्स पर्युपासनया? एकस्यापि आर्यस्य क्या ? एक भी आर्यधार्मिक सुवचन का धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, धार्मिकस्य सुवचनस्य श्रवणस्य, किमंग श्रवण महान फलदायक है फिर विपुल अर्थ किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स पुनः विपुलस्य अर्थस्य ग्रहणस्य? तद् ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए गहणयाए? तं गच्छामो णं । गच्छामः देवानुप्रिया! श्रमणं भगवन्तं देवानुप्रियो! हम चलें, श्रमण भगवान देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं । महावीरं वन्दामहे नमस्यामः सत्कारयामः महावीर को वंदन-नमस्कार करें, सत्कारवंदामो नमसामो सक्कारेमो सम्माणेमो । सम्मानयामः कल्याणं मंगलं दैवतं चैत्यं सम्मान करें। वे कल्याणकारी है, मंगल, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पर्युपास्महे।
देव और प्रशस्त चित्त वाले हैं। उनकी पन्जुवासामो।
पर्युपासना करें। एयं णे पेच्चभवे इहभवे य हियाए सहाए एतत् नः प्रेत्यभवे इहभवे च हिताय सुखाय यह हमारे परभव और इहभव के लिए खमाए निस्सेयसाए आणु-गामियत्ताए क्षमाय निःश्रेयसे आनुगामिकत्वाय। हित, सुख, क्षम, निःश्रेयस और भविस्सइ त्ति कट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए भविष्यति इति कृत्वा अन्योन्यस्य अन्तिके आनुगामिकता के लिए होगा। ऐसा सोच एयमढे पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता जेणेव एतदर्थं प्रतिशृण्वन्ति, प्रतिश्रुत्य यत्रैव कर उन्होंने परस्पर इस अर्थ को स्वीकार सयाई-सयाई गिहाई तेणेव उवाग- स्वकानि-स्वकानि गृहाणि तत्रैव उपाग- किया। स्वीकार कर जहां अपना अपना च्छंति, उवागच्छित्ता ण्हाया कय- च्छन्ति, उपागम्य स्नाताः कृतबलिकर्माणः घर था वहां आए। वहां आकर उन्होंने बलिकम्मा कयकोउयमंगल- कृतकौतुक-मंगल-प्रायश्चित्ताः शुद्ध- स्नान किया, बलिकर्म किया, कौतुक, पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई प्रवेश्यानि मंगलानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिताः मंगल और प्रायश्चित्त किया, शुद्ध प्रवेश्य वत्थाई पवर परिहिया अप्पमहग्घा- अल्पमहायाभरणालंकृतशरीराः स्वकेभ्यः (सभा में प्रवेशोचित) मांगलिक वस्त्रों को भरणलंकियसरीरा सएहिं सएहिं स्वकेभ्यः गृहेभ्यः प्रतिनिष्क्रामन्ति, विधिवत् पहना। अल्पभार और बहुमूल्य गिहेहितो पडिनिक्खमंति, पडि- प्रतिनिष्क्रम्य एकतः मिलन्ति, मिलित्वा वाले आभरणों से शरीर को अलंकृत निक्खमित्ता एगयओ मेलायंति, पादविहारचारेण आलभिकायाः नगर्याः किया। इस प्रकार सज्जित होकर वे मेलायित्ता पायविहारचारेणं आल- मध्यमध्येन निर्गच्छन्ति, निर्गत्य यत्रैव अपने-अपने घरों से निकलकर एक साथ भियाए नगरीए मज्झमझेणं शंखवनं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् मिले, एक साथ मिलकर पैदल चलते हुए निग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता जेणेव महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य आलभिका नगरी के बीचों-बीच निर्गमन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org