SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 466
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श. ११ : उ. १२ : सू. १७८-१८१ संखवणे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता, समणं भगवं महावीरं जाव तिविहाए पज्जु - वासणाए पज्जुवासंति । तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं समणोवासगाणं तीसे य महति - महालियाए परिसाए धम्मं परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ || १७९. तए णं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोच्चा निसम्म हट्टा उट्ठाए उट्ठेति, उत्ता समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता एवं वदासी - एवं खलु भंते! इसिभहपुत्ते समणोवासए अम्हं एवमाइक्खर जाव परूवेइ - देव - लोएस णं अज्जो ! देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साइं दिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगा य । १८०. से कहमेयं भंते! एवं ? अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समाणोवास एवं वयासी- जण्णं अज्जो ! इसिभद्दपत्ते समणोवासए तुब्भं एवमाइक्खड़ जाव परुवेइ - देवलोएस णं देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया जाव ते परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य - सच्चे णं एसमट्ठे, अहं पिणं अज्जो ! एवमाक्खामि जाव परूवेमिदेवलाएसु णं अज्जो ! देवाणं जहणणेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समया-हिया, दुसमयाहिया, तिसमयाहिया जाव दससमयाहिया, संखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य-सच्चे णं एसमट्टे ॥ १८१. तए णं ते समणोवासगा समणस्स Jain Education International ४४४ श्रमण भगवन्तं महावीरं यावत् त्रिविधया पर्युपासनया पर्युपासते । ततः श्रमणः भगवान् महावीरः तेषां श्रमणोपासकानां तस्यै महातिमहत्यै 'धर्मं परिकथयति' यावत् आज्ञायाः आराधकः भवति । ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टतुष्टाः उत्थया उत्तिष्ठन्ति उत्थाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा एवमवादिषुः एवं खलु भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः अस्मान् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-देवलोकेषु आर्य! देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका यावत् तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्च । 1 तत् कथमेतद् भदन्त ! एवम् ? आर्य इति ! श्रमणः भगवान् महावीरः तान् श्रमणोपासकान् एवमवादीत् यत् आर्य! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः युष्मान् एवमाख्याति यावत् परूपयति-देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका यावत् तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्च - सत्योऽयमर्थः, अहमपि आर्य ! एवमाख्यामि यावत् प्ररूपयामि - देवलोकेषु आर्य! देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, त्रिसमयाधिका यावत् दशसमयाधिका, संख्येयसमयाधिका, असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाश्चसत्योऽयमर्थः । ततः ते श्रमणोपासकाः श्रमणस्य भगवतः For Private & Personal Use Only भगवई किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां श्रमण भगवान महावीर थे, वहां आए। वहां आकर श्रमण भगवान महावीर को यावत् तीन प्रकार की पर्युपासना के द्वारा पर्युपासना की । श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को उस विशालतम परिषद् में धर्म का उपदेश दिया यावत् आज्ञा की आराधक होता है। १७९. वे श्रमणेपासक श्रमण भगवान महावीर से धर्म को सुनकर, अवधारण कर, हृष्टतुष्ट हो गए। वे उठकर खड़े हुए खड़े होकर श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- 'भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की आर्यो! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। इसके बाद एक समय अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है। १८०. भंते! यह इस प्रकार कैसे है ? आर्यो ! श्रमण भगवान महावीर ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहाआर्यो ! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की - देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक यावत् उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न है-यह अर्थ सत्य है । आर्यो ! मैं भी इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करता हूं-आर्यो ! देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक तीन समय अधिक यावत् दस समय अधिक संख्येय समय अधिक, असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। इसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं-यह अर्थ सत्य है। १८१. उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy