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________________ भगवई भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोच्चा निसम्म समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता, जेणेव इसि भद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता इसिभद्दपुत्तं समणोवासगं वंदति, नमसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एयमहं सम्मं विणएणं भुज्जोभुज्जो खामेति । तए णं ते समणोवासया परिणाई पुच्छंति, पुच्छित्ता अट्ठाई परियादियंति, परियादियित्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति, वंदित्ता नमसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया | १. सूत्र १८१ इस प्रसंग में भगवती सूत्र शतक १२ / १ का द्रष्टव्य है। १८२. भंतेति ! भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - पभू णं भंते! इसिभहपुत्ते समणोवास देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय पव्वइत्तए ? नो इट्टे समट्टे, गोयमा ! इसिभद्द - पुत्ते समणोवास बहूहिं सीलव्वयगुणवेरमणपचखाण पोसहोव - वासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवो-कम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउ- णिहिति, पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति, झूसेत्ता सट्ठि भत्ताई अणसणाए छेदेहिति, छेदेत्ता आलोइय-पडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववज्जिहिति । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिती पण्णत्ता । तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिती भविस्सति ॥ Jain Education International ४४५ महावीरस्य अन्तिकं एतमर्थं श्रुत्वा निशम्य श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति, वन्दित्वा नमस्थित्वा यत्रैव ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम्य ऋषिभद्रपुत्रं श्रमणोपासकं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा एतमर्थं सम्यक् विनयेन भूयः भूयः क्षमयन्ति । ततः ते श्रमणोपासकाः प्रश्नान् पृच्छन्ति, पृष्ट्वा अर्थान् पर्याददति, पर्यादाय श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दन्ते नमस्यन्ति वन्दित्वा नमस्थित्वा यस्याः एव दिशः प्रादुर्भूताः तस्यामेव दिशि प्रतिगता । भाष्य भदन्त अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवमवादीत् प्रभु भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणेपासकः देवानुप्रियाणाम् अंतिकं मुण्डः भूत्वा अगाराद् अनगारितां प्रव्रजितुम् ? नो अयमर्थः समर्थः, गौतम ! ऋषिभद्रपुत्रः श्रमणोपासकः बहुभिः शीलव्रत-गुणविरमण - प्रत्याख्यान - पौषधोपवासैः यथापरिगृहीतैः तपः कर्मभिः आत्मानं भावयन् बहूनि वर्षाणि श्रमणोपासकपर्यायं प्राप्स्यति प्राप्य मासिक्या संलेखनया आत्मानं जोषिष्यति, जोषित्वा षष्टिं भक्तानि अनशनेन छेत्स्यति, छित्त्वा आलोचितप्रतिक्रांतः समाधिप्राप्तः कालमासे कालं कृत्वा सौधर्मे कल्पे अरुणाभे विमाने देवत्वेन उपपत्स्यते। तत्र अस्त्येककानां देवानां चतस्रः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्र ऋषिभद्र पुत्रस्यापि देवस्य चतस्रः पल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता । For Private & Personal Use Only आए, श. ११ : उ. १२ : सू. १८१, १८२ महावीर से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, श्रमण भगवान महावीर को वन्दननमस्कार किया, वन्दन - नमस्कार कर जहां श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र थे वहां वहां आकर श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र को वन्दन नमस्कार किया, वन्दननमस्कार कर बोले- 'तुमने जो कहा, वह अर्थ सम्यक् है' विनयपूर्वक बार-बार क्षमायाचना की। उन श्रमणोपासकों ने श्रमण भगवान महावीर से अन्य प्रश्न पूछे. पूछकर अर्थ को हृदय में धारण किया, हृदय में धारण कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार किया, वन्दननमस्कार कर जिस दिशा से आए थे, उसी दिशा में लौट गए। १८२. भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदननमस्कार किया, वंदन - नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते! श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र देवानुप्रिय के समीप मुंड होकर अगार से अनगारिता में प्रव्रजित होगा ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। श्रमणोपासक ऋषभद्रपुत्र बहुत शीलव्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोप वास से यथा परिगृहीत तपःकर्म के द्वारा आत्मा को भावित करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमणोपासक पर्याय का पालन करेगा, पालन कर एक महीने की संलेखना से अपने शरीर को कृश बनाकर, अनशन के द्वारा साठ भक्त का छेदन कर आलोचना प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्ण दशा में कालमास में काल को प्राप्त कर सौधर्मकल्प के अरुणाभ विमान में देव रूप में उत्पन्न होगा। वहां कुछ देवों की स्थिति चार पल्योपम की प्रज्ञप्त है। वहां ऋषिभद्रपुत्र देव की भी स्थिति चार पल्योपम होगी। www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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