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________________ भगवई श. ११ : उ. १२ : सू. १८३-१८७ ४४६ १८३. से णं भंते! इसिभद्दपुत्ते देवे ताओ सः भदन्त ! ऋषिभद्रपुत्रः देवः तस्माद् देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं देवलोकाद् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थिति- ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं क्षयेण अनंतरं च्यवं च्युत्वा कुत्र गमिष्यति? गच्छिहिति? कहिं उववन्जिहिति? कुत्र उपपत्स्यते? । गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति । गौतम! महाविदेहे वर्षे सेत्स्यति, बुज्झिहिति मुच्चिहिति परिणिव्वाहिति 'बुज्झिहिति' मोक्षयति परिनिर्वास्यति सव्वदुक्खाणं अंतं काहिति॥ सर्वदुःखानाम अंतं करिष्यति। १८३. भंते! ऋषिभद्रपुत्र देव आयु-क्षय, भव क्षय और स्थिति-क्षय के अनंतर उस देवलोक से च्यवन कर कहां जाएगा? कहां उपपन्न होगा? गौतम ! महाविदेह वास में सिद्ध, प्रशांत, मुक्त, परिनिर्वृत और सब दुःखों का अंत करेगा। १८४. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावमाणे विहरइ॥ तदेवं भदंत! तदेवं भदंत! इति भगवान् गौतमः यावत् आत्मानं भावयन् विहरति। १८४. भंते ! वे ऐसा ही है, वह ऐसा ही है। भगवान गौतम यावत् आत्मा को भावित करते हुए विहार करने लगे। १८५. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः अन्यदा १८५. श्रमण भगवान महावीर ने कभी किसी अण्णया कयाइ आलभियाओ नग- कदाचित् आलभिकायाः नगर्याः शंखवनात् दिन आलभिका नगरी से शंखवन चैत्य से रीओ संखवणाओ चेइयाओ पडि- चैत्यात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य बहिः प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमण कर निक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जनपदविहारं विहरति। बाहर जनपद विहार करने लगे। जणवयविहारं विहरइ॥ पोग्गल-परिव्वायग-पदं पुद्गल-परिव्राजक-पदम् १८६. तेणं कालेणं तेणं समएणं तस्मिन् काले तस्मिन् समये आलभिका नाम आलभिया नाम नगरी होत्था- नगरी आसीत्-वर्णकः। तत्र शंखवनं नाम वण्णओ। तत्थ णं संखवणे नामं चेइए चैत्यम् आसीत्-वर्णकः। तस्य शंखवनस्य होत्था-वण्णओ। तस्स णं संखवणस्स चैत्यस्य अदूरसामन्ते पुद्गलः नाम चेइयस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिव्राजकः-ऋग्वेद-यजुर्वेद यावत् ब्रह्मण्य- परिव्वायए-रिउव्वेद-जजुब्वेद जाव केषु परिव्राजकेषु च नयेषु सुपरिनिष्ठितः बंभण्णएसु परिव्वाय-एसु य नएसु षष्ठषष्ठेन अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू सुपरिनिट्टिए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं प्रगृह्य-प्रगृह्य सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् तवोकम्मेणं उर्दु बाहाओ पगिज्झिय- आतापयन् विहरति। पगिज्झिय सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे विहरइ॥ पुद्गल-परिव्राजक-पद १८६. उस काल और उस समय में आलभिका नाम की नगरी थी-वर्णक। वहां शंखवन नाम का चैत्य था-वर्णक। उस शंखवन चैत्य से कुछ दूरी पर पुद्गल नाम का परिव्राजक था-वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, यावत् अन्य अनेक ब्राह्मण और परिव्राजक संबंधी नयों में निष्णात, निरंतर बेले-बेले (दो दिन का उपवास) के तप की साधना के द्वारा दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेता हुआ विहरण कर रहा है। १८७. तए णं तस्स पोग्गलस्स ततः तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य षष्ठंषष्ठेन परिव्ववायगस्स छटुंछडेणं अणि- अनिक्षिप्तेन तपःकर्मणा ऊर्ध्वं बाहू प्रगृह्य- क्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड़े बाहाओ प्रगृह्य सूर्याभिमुखः आतापनभूम्याम् पगिज्झिय-पगिज्झिय सूराभिमुहे आतापयन् प्रकृतिभद्रतया प्रकृत्युपशान्तया आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगइ. प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभेन मृदुमार्दव- भद्दयाए पगइउव-संतयाए-पगइपयणु- संपन्नतया आलीनतया विनीततया अन्यदा कोहमाणमायालोभाए मिउमद्दव- कदाचित् तदावरणीयानां कर्मणां संपन्नयाए अल्लीणयाए विणीययाए क्षयोपशमेन ईहापोहमार्गणगवेषणं कुर्वतः अण्णया कयाइ तया-वरणिज्जाणं विभंग: नाम ज्ञानं समुत्पन्नम्। सः तेन १८७. उस पुद्गल परिव्राजक का निरंतर बेलेबेले तपःकर्म के द्वारा, दोनों भुजाओं को ऊपर उठाकर सूर्य के सामने आतापन भूमि में आतापना लेते हुए, प्रकृति की भद्रता, प्रकृति की उपशांतता, प्रकृति में क्रोध, मान, माया और लोभ की प्रतनुता, मृदुमार्दव संपन्नता, आत्मलीनता और विनीतता के द्वारा किसी समय तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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