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________________ भगवई कम्माणं खओवसमेणं ईहापूह - मग्गणगवेसणं करेमाणस्स विब्भंगे नामं नाणे समुप्पने । से णं तेणं विब्भंगेणं नाणेणं समुपनेणं बंभलोए कप्पे देवाणं ठितिं जाणइ पासइ ॥ १८९. तए णं पोग्गलस्स परिव्वाय-गस्स अंतियं एयम सोच्चा निसम्म आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिग १. भ. वृ. ८/१९१ । ४४७ विभंगेन ज्ञानेन समुत्पन्नेन ब्रह्मलोके कल्पे देवानां स्थितिं जानाति पश्यति । १ सूत्र - १८७ प्रस्तुत आगम में विभंग ज्ञान के अनेक प्रसंग हैं किंतु विभंगज्ञान की ज्ञेय को जानने की कितनी क्षमता है, इसका स्पष्ट १८८. तए णं तस्स पोग्गलस्स परिव्वायगस्स अयमेयारूवे अज्झ थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था - अत्थि णं ममं अतिसेसे नाण- दंसणे समुप्पन्ने, देवलोएस णं देवाणं जहणणं दस वाससहस्साइं ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमाहिया जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवाय देवलोगा य - एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता, तिदंडं च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ, गेण्हित्ता जेणेव आलभिया नगरी, जेणेव परिव्वायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भंडनिक्खेवं करेइ, करेत्ता आलभियाए नगरीए सिंघाडग-तिगचक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह - पहेसु अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ - अत्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, देवलोएस णं देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, दुसमयाहिया, जाव असंखेज्जसमयाहिया, उक्को सेणं दससागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । तेण परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य ॥ Jain Education International भाष्य निर्धारण नहीं मिलता। आठवें शतक में विभंग ज्ञान के विषय का प्रतिपादन किया गया हैं किंतु वहां भी अवधिज्ञान की भांति विभंग ज्ञान के विषय का स्पष्ट निर्धारण नहीं है। ततः तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिंतितः प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादिअस्ति मम अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च एवं सम्प्रेक्षते सम्प्रेक्ष्य आतापनभूयाः प्रत्यव - रोहति, प्रत्यवरुह्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावत् धातुरक्ताः च गृह्णाति गृहीत्वा यत्रैव आलभिका नगरी, यत्रैव परिव्राजकाः वसथः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भण्डनिक्षेपं करोति, कृत्वा आलभिकायाः नगर्याः शृंगाटकत्रिक-चतुष्क- चत्वर- चतुर्मुख- महापथपथेषु अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति अस्ति देवानुप्रियाः ! अतिशेषं ज्ञानदर्शनं समुत्पन्नम्, देवलोकेषु देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता । तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च । ततः पुद्गलस्य परिव्राजकस्य अंतिकम् एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य आलभिकायाः नगर्याः श्रृंगाटक- त्रिक-चतुष्क- चत्वर श. ११ : उ. १२ : सू. १८७-१८९ ईहा, अपोह, मार्गणा गवेषणा करते हु विभंग नाम का ज्ञान समुत्पन्न हुआ। वह उस समुत्पन्न विभंग ज्ञान के द्वारा ब्रह्मलोक कल्प तक के देवों की स्थिति को जानता देखता है। For Private & Personal Use Only १८८. उस पुदल परिव्राजक के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक, मनोगत संकल्प समुत्पन्न हुआ मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है। देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है। उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं- इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर आतापन भूमि से नीचे उतरा, उतर कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर जहां आलभिका नगरी थी, जहां परिव्राजक रहते थे, वहां आया, आकर भंड को स्थापित किया, स्थापित कर आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगा-देवानुप्रिय ! मुझे अतिशायी ज्ञान दर्शन समुत्पन्न हुआ है, देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक, यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। १८९. पुद्गल परिव्राजक के समीप इस अर्थ को सुनकर अवधारण कर आलभिका नगरी के श्रृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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