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________________ भगवई श. ११ : उ. १२ : सू. १८९-१९१ ४४८ चउक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह- चतुर्मुख-महापथ-पथेषु बहुजनः पहेसु बहुजणो अण्ण-मण्णस्स अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् प्ररूपयतिएवमाइक्खइ जाव परुवेइ-एवं खलु एवं खलु देवानुप्रियाः! पुद्गलः परिव्राजकः देवाणुप्पिया! पोग्गले परिव्वायए एवमाख्याति यावत् प्ररूपयति-अस्ति एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अत्थि णं देवानुप्रियाः! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं देवाणु-प्पिया! मम अतिसेसे नाणदसणे समुत्पन्नम् एवं खलु देवलोकेषु देवानां समुप्पन्ने, एवं खलु देवलोएसु णं देवाणं जघन्येन दशवर्षसहस्राणि, स्थितिः जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती। प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, पण्णत्ता, तेण परं समया-हिया, द्विसमयाधिका, यावत् असंख्येयदुसुमयाहिया जाव असंखे- समयाधिका, उत्कर्षेण दशसागरोपमाणि ज्जसमयाहिया, उक्कोसेणं दस- स्थितिः प्रज्ञप्ता। तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता। तेण परं देवाः च देवलोकाः च। तत् कथमेतद् मन्येत् वोच्छिण्णा देवा य देवलोगाय। एवम्। से कहमेयं मन्ने एवं? चौहटों, चार-द्वार वाले स्थानों राजमार्गों और मार्गों पर बहजन परस्पर इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगेदेवानुप्रिय! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार का आख्यान यावत् प्ररूपणा की हैदेवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है। इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। इस प्रकार यह कैसे है? १९०. सामी समोसढे परिसा निग्गया। स्वामी समवसृतः। परिषद् निर्गता। धर्मः धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया। भगवं कथितः, परिषद् प्रतिगता। भगवान् गौतमः गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव तथैव भिक्षाचर्याय तथैव बहजनशब्दं निशाबहुजणसई निसामेइ, निसामेत्ता तहेव म्यति, निशम्य तथैव सर्वं भणितव्यं यावत् सव्वं भाणियन्वं जाव अहं पुण गोयमा! अहं पुनः गौतम! एवमाख्यामि, एवं भाषे एवमाइक्खामि, एवं भासामि जाव यावत् प्ररूपयामि देवलोकेषु देवानां परूवेमि-देवलोएसु णं देवाणं जहण्णेणं । जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता दस वास-सहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण । तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका परं समयाहिया, दुसमयाहिया जाव। यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षण असंखेज्ज-समयाहिया, उक्कोसेणं त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञप्ता। तेत्तीसं सागरोवमाइंठिती पण्णत्ता। तेण तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य॥ १९०. भगवान महावीर पधारे, परिषद् ने नगर से निर्गमन किया। भगवान ने धर्म कहा। परिषद् वापिस नगर में चली गई। सादायिक भिक्षा के लिए घूमते हुए भगवान गौतम ने अनेक व्यक्तियों से ये शब्द सुने, सुनकर पूर्वोक्त सम्पूर्ण वृत्तांत भगवान महावीर से निवेदित किया यावत् गौतम! मैं इस प्रकार आख्यान, इस प्रकार कथन यावत् प्ररूपणा करता हूं-देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। च। १९१. अत्थि णं भंते! सोहम्मे कप्पे दव्वाई-सवण्णाई पि अवण्णाई पि सगंधाई पि अगंधाई पि सरसाइं पि अरसाई पि सफासाई पि अफासाई पि अण्णमण्णबद्धाइं अण्णमण्णपुट्ठाई अण्णमण्णबद्ध-पुट्ठाई अणमण्णघडताए चिट्ठति? हत्ता अत्थि। एवं ईसाणे वि, एवं जाव अच्चुए, एवं गेवेज्जविमाणेसु, अणुत्तरविमाणेसु वि, ईसिपब्भाराए वि जाव? अस्ति भदन्त! सौधर्मे कल्पे द्रव्याणि- सवर्णाणि अपि अवर्णाणि अपि, सगन्धानि अपि अगन्धानि अपि, सरसानि अपि अर- सानि अपि, स्पर्शानि अपि, अस्पर्शानि अपि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्यस्पृष्टानि अन्योन्य-बद्धस्पृष्टानि अन्योन्यघटत्वेन तिष्ठन्ति? हंत अस्ति । एवम् ईशाने अपि, एवं यावत् अच्युते, एवं ग्रैवेयकविमानेषु, अनुत्तरविमानेषु अपि, ईषत्प्राग्भारायाम् अपि यावत्। १९१. भंते! सौधर्मकल्प में द्रव्य वर्ण-सहित. वर्ण-रहित, गंध-सहित, गंध रहित, रससहित, रस-रहित, स्पर्श-सहित, स्पर्शरहित, अन्योन्य बद्ध, अन्योन्य स्पृष्ट, अन्योन्य बद्ध-स्पृष्ट और अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ? हां, हैं। इसी प्रकार ईशान में भी, इसी प्रकार यावत् अच्युत में, इसी प्रकार ग्रैवेयक विमानों में भी, अनुत्तर विमानों में भी, ईषत्प्राकभारा पृथ्वी में भी यावत् अन्योन्य एकीभूत बने हुए हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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