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________________ भगवई ४४९ श. ११ : उ.१२ : सू. १९१-१९५ हंता अत्थि॥ हन्त अस्ति। हां, हैं। १९२. तए णं सा महतिमहालिया परिसा ततः सा महामहती परिषद् यावत् यस्याः एव जाव जामेव दिसिं पाउब्भूया तामेव दिसं दिशः प्रादुर्भूता तस्यामेव दिशि प्रतिगता। पडिगया। १९२. वह विशालतम परिषद् यावत् जिस दिशा से आई, उसी दिशा में लौट गई। १९३. तए णं आलभियाए नगरीए सिंघा- ततः आलभिकायां नगयाँ शृंगाटक-त्रिक- डग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह- चतुष्क-चत्वर-चतुर्मुख-महापथ-पथेषु महापह-पहेसु बहुजणो अण्णमण्णस्स बहुजनः अन्योऽन्यम् एवमाख्याति यावत् एवमाइक्खइ जाव परुवेइ जण्णं प्ररूपयति यत् देवानुप्रियाः ! पुद्गलः परिदेवाणुप्पिया! पोग्गले परिव्वायए। व्राजकः एवमाख्याति यावत् प्ररूपयतिएवमाइक्खइ जाव परुवेइ-अस्थि णं अस्ति देवानुप्रियाः ! मम अतिशेष ज्ञानदर्शनं देवाणु-प्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुत्पन्नम्, एवं खलु देवलोकेषु देवानां समुप्पन्ने, एवं खलु देवलोएसु णं देवाणं जघन्येन दशवर्षवसहस्राणि स्थितिः प्रज्ञप्ता, जहण्णेणं दस वाससहस्साई ठिती। तस्मात् परं समयाधिका, द्विसमयाधिका पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया, यावत् असंख्येयसमयाधिका, उत्कर्षण दुसमयाहिया जाव असंखेज्ज- दशसागरोपमाणि स्थितिः प्रज्ञसा। तस्मात् समयाहिया, उक्कोसेणं दससागरोव- परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च देवलोकाः च। तत् माई ठिती पण्णत्ता। तेण परं वोच्छिण्णा नो अयमर्थः समर्थः। श्रमणः भगवान् देवा य देवलोगा य। तं नो इणढे समढे। महावीरः एवमाख्याति यावत् देवलोकेषु समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव देवानां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि स्थितिः देवलोएसु णं देवाणं जहण्णणं दस । प्रज्ञप्ता, तस्मात् परं समयाधिका, द्विवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाधिका यावत् असंख्येयसमयाधिका, समयाहिया, दुसमयाहिया जाव उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थितिः असंखेज्जसमयाहिया, उक्को-सेणं । प्रज्ञप्ता तस्मात् परं व्यवच्छिन्नाः देवाः च तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। तेण देवलोकाः च। परं वोच्छिण्णा देवा य देवलोगा य॥ १९३. आलभिका नगरी के शृंगाटकों, तिराहों, चौराहों, चौहटों, चार द्वार वाले स्थानों, राजमार्गों और मार्गों पर बहुजन परस्पर इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा करने लगे-देवानुप्रिय! पुद्गल परिव्राजक ने इस प्रकार आख्यान यावत् प्ररूपणा की है-देवानुप्रिय! मुझे अतिशायी ज्ञान-दर्शन समुत्पन्न हुआ है, इस प्रकार निश्चित ही देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय, अधिक दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति दस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्युच्छिन्न हैं। यह अर्थ संगत नहीं है। श्रमण भगवान महावीर इस प्रकार आख्यान यावत प्ररूपणा करते हैं-देवलोक में देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष प्रज्ञप्त है, उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् असंख्येय समय अधिक, उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागरोपम प्रज्ञप्त है। उसके बाद देव और देवलोक व्यच्छिन्न हैं। १९४. तए णं से पोग्गले परिव्वायए ततः सः पुद्गलः परिव्राजकः बहुजनस्य बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा अन्तिकं एतदर्थं श्रुत्वा निशम्य शंकितः निसम्म संकिए कंखिए विति-गिच्छिए कांक्षितः विचिकित्सितः भेदसमापन्नः भेदसमा-वन्ने कलुस-समावन्ने जाए कलुष-समापन्नः जातः चापि अभूत् । ततः यावि होत्था। तए णं तस्स पोग्गलस्स तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य शंकितस्य परिव्वायगस्स संकियस्स कंखियस्स कांक्षितस्य विचिकित्सितस्य भेदसमा- विति-गिच्छियस्स भेदसमावन्नस्स पन्नस्य कलुषसमा-पन्नस्य तत विभंगः ज्ञानं कलुस-समावन्नस्स से विभंगे नाणे क्षिप्रमेव प्रतिपतितः। खिप्पामेव पडिवडिए॥ १९४. पुद्गल परिव्राजक बहुजन से इस अर्थ को सुनकर, अवधारण कर, शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न और कलुष-समापन्न भी हो गया। शंकित, कांक्षित, विचिकित्सित, भेद-समापन्न, कलुष समापन्न पुगल परिव्राजक के वह विभंग ज्ञान शीघ्र ही प्रतिपतित हो गया। १९५. तए णं तस्स पोग्गलस्स ततः तस्य पुद्गलस्य परिव्राजकस्य परिव्वायस्स अयमेयारूवे अज्झ-थिए अयमेतद्रूपः आध्यात्मिकः चिन्तितः चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे प्रार्थितः मनोगतः संकल्पः समुदपादि-एवं समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं खलु श्रमणः भगवान् महावीरः तीर्थंकरः महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव यावत् सर्वज्ञः सर्वदर्शी आकाशगतेन चक्रेण १९५. पुद्गल परिव्राजक के इस आकार वाला आध्यात्मिक, स्मृत्यात्मक, अभिलाषात्मक मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-श्रमण भगवान महावीर आदिकर तीर्थंकर यावत् सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, आकाशगत धर्मचक्र से For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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