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श. ११ : उ. १२ : सू. १९५,१९७
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भगवई
सव्वण्णू सव्वदरिसी आगासगएणं यावत् शंखवने चैत्ये यथाप्रतिरूपम् चक्केणं जाव संखवणे चेइए। अवग्रहम् अवगृह्य संयमेन तपसा आत्मानं अहापडिरूवं ओग्गहं ओगि-ण्हित्ता भावयन् विहरति, तत् महत्फलं खलु संजमेण तवसा अप्पाणं भावमाणे तथारूपाणाम् अर्हतां भगवतां नामगोत्रविहरइ, तं महप्फलं खलु तहारूवाणं स्यापि श्रवणस्य, किमंगपुनः अभिगमनअरहंताणं भगवंताणं नामगोयस्स वि। वंदन-नमस्यन-प्रति-प्रच्छन-पर्युपासनया। सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण- एकस्यापि आर्यस्य धार्मिकस्य सुवचनस्य वंदण-नमंसण - पडिपुच्छण - पज्जु- श्रवणस्य, किमंग पुनःविपुलस्य अर्थस्य वासणयाए? एगस्स वि आरियस्स। ग्रहणस्य? तत् गच्छामि श्रमणं भगवन्तं धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, महावीरं वन्दे यावत् पर्युपासे, एतत् नः किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स इहभवे च परभवे च हिताय सुखाय क्षमाय गहणयाए? तं गच्छामि णं समणं भगवं । निःश्रयसे आनुगामिकत्वाय भविष्यति इति महावीरं वंदामि जाव पज्जुवासामि, एयं कृत्वा एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य यत्रैव णे इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए परिव्राजकावसथः तत्रैव उपागच्छति, खमाए निस्सेयसाए आणुगामिय-ताए । उपागम्य परिव्राजकावसथमअनुप्रविशति, भविस्सइ त्ति कट्ट एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता अनुप्रविश्य त्रिदण्डं च कुण्डिकां च यावत् जेणेव परिव्वायगावसहे तेणेव धातुरक्ताः च गृह्णाति, गृहीत्वा परिउवागच्छइ, उवागच्छित्ता परिव्वाय- व्राजकावसथात् प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिगावसह अणप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता । निष्क्रम्य प्रतिपतितविभंगः आलभिकां तिदंडं च कुडियं च जाव धाउरत्ताओ य नगरीमध्यमध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव गेण्हइ गेण्हित्ता परिव्वायगावसहाओ शंखवनं चैत्यम्, यत्रैव श्रमणः भगवान् पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता महावीरः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य पडिवदियविन्भंगे आलभियं नगरिं श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः बन्दते मज्झं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्ग- नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा न च्छित्ता जेणेव संखवणे चेइए, जेणेव अत्यासन्नः नातिदूरः शुश्रूषमाणः नमस्यन् समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, अभिमुखः विनयेन कृतप्राञ्जलिः उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पर्युपास्ते। तिक्खुत्तो बंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे नमसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिकडे पज्जुवासइ॥
शोभित यावत् शंखवन चैत्य में प्रवास योग्य स्थान की अनुमति लेकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए विहार कर रहे हैं। ऐसे अर्हत् भगवानों के नाम, गोत्र का श्रवण भी महान फलदायक होता है फिर अभिगमन, वंदन, नमस्कार, प्रतिपृच्छा और पर्युपासना का कहना ही क्या? एक भी आर्य धार्मिक वचन का श्रवण महान फलदायक होता है फिर विपुल अर्थ ग्रहण का कहना ही क्या? इसलिए मैं जाऊं, श्रमण भगवान महावीर को वंदन करूं यावत् पर्युपासना करूं-यह मेरे इहभव और परभव के लिए हित, शुभ, क्षम, निःश्रेयस और आनुगामिकता के लिए होगा इस प्रकार संप्रेक्षा की, संप्रेक्षा कर जहां परिव्राजक रहते थे. वहां आया, आकर परिव्राजक गृह में अनुप्रवेश किया, अनुप्रवेश कर त्रिदंड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को ग्रहण किया, ग्रहण कर परिव्राजक आवास से प्रतिनिष्क्रमण किया, प्रतिनिष्क्रमाग कर विभंगज्ञान से प्रतिपतित उस पुद्गल परिव्राजक ने आलभिका नगरी के बीचो-बीच निर्गमन किया, निर्गमन कर जहां शंखवन चैत्य था, जहां भगवान महावीर थे, वहां आया, आकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार वन्दन-नमस्कार किया, वंदननमस्कार कर न अति निकट और न अति दूर शुश्रूषा और नमस्कार की मुद्रा में उनके सम्मुख सविनय बद्धांजलि होकर पर्युपासना करने लगा।
१९६. तए णं समणे भगवं महावीरे ततः श्रमणः भगवान् महावीरः पुद्गलस्य पोग्गलस्स परिव्वायगस्स तीसे य परिवाजकस्य तस्यां महामहत्यां परिषदि महतिमहालियाए परिसाए धम्मं धर्म परिकथयति यावत् आज्ञायाः आराधकः परिकहेइ जाव आणाए आराहए भवइ॥ भवति।
१९६. श्रमण भगवान महावीर ने पुद्गल परिव्राजक को उस विशालतम परिषद् में धर्म कहा यावत् आज्ञा का आराधक होता
१९७. तए णं से पोग्गले परिव्वायए ततः सः पुद्गलः परिव्राजकः श्रमणस्य समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं भगवतः महावीरस्य अन्तिकं धर्मं श्रुत्वा धम्म सोच्चा निसम्म जहा खंदओ जाव निशम्य यथा स्कंदकः यावत् उत्तरपौरस्त्यं उत्तरपुरस्थिमं दिसी-भागं अवक्कमइ, दिग्भागम् अपक्रामति, अपक्रम्य त्रिदण्डं अवक्कमित्ता तिदंडं च कुंडियं च जाव च, कुण्डिकां च यावद् धातुरक्ता एकान्ते धाउरत्ताओ य एगंते एडेह, एडेता एडयति, एडयित्वा स्वयं पंचमुष्टिकं लोचं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेइ, करेत्ता करोति, कृत्वा श्रमणं भगवन्तं महावीरं त्रिः
१९७. पुद्गल परिव्राजक श्रमण भगवान महावीर के पास धर्म सुनकर, अवधारण कर स्कंदक की भांति यावत् उत्तर पूर्व दिशा में गया, जाकर त्रिदण्ड, कमंडलु यावत् गैरिक वस्त्रों को एकांत में डाल दिया, डालकर स्वयं ही पंचमुष्टिक लोच किया, लोच कर श्रमण भगवान महावीर
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