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भगवई
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समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं जहेव उसभदत्तो तहेव पव्वइओ, तहेव एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, तहेव सव्वं जाव सव्व-दुक्खप्पहीणे॥
आदक्षिण-प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा नमस्यित्वा एवं यथैव ऋषभदत्तः तथैव प्रव्रजितः, तथैव एकादश अंगानि अधीते, तथैव सर्व यावत् सर्वदुःखप्रहीणः।
श. ११ : उ. १२ : सू. १९७-१९९ को दायीं ओर से प्रारम्भ कर तीन बार प्रदक्षिणा की, प्रदक्षिणा कर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार जैसे ऋषभदत्त प्रव्रजित हुआ, वैसे ही पुद्गल परिव्राजक प्रव्रजित हो गया, उसी प्रकार ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उसी प्रकार सर्व यावत् सब दुःखों को प्रक्षीण कर दिया।
पा
१९८. भंतेति! भगवं गोयमे समणं भगवं भदन्त ! अयि ! भगवान् गौतमः श्रमणं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति, वन्दित्वा एवं वयासी-जीवा णं भंते! नमस्यित्वा एवमवादीत्-जीवाः भदन्त ! सिज्झमाणस्स कयरम्मि संघयणे सिध्यतः कतरे संघयणे सिद्धयन्ति ? सिझंति? गोयमा! वइरोसभणारायसंघयणे गौतमः ! वज्रऋषभनाराचसंघयणे सिध्यन्ति सिझंति, एवं जहेव ओववाइए तहेव।। एवं यथैव औपपातिके तथैव। संघयणं संठाणं संघयणे
संस्थानं, - उच्चत्तं आउयं च परिवसणा। उच्चत्वम् आयुष्कं च परिवसना। एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणि- एवं सिद्धिकण्डिका निरवशेषा यव्वा जाव
भणितव्या यावत्अव्वाबाहं सोक्खं,
अव्याबाधं सौख्यम्, अणुभवंति सासयं सिद्धा।
अनुभवन्ति शाश्वतं सिद्धाः।।
१९८. भगवान गौतम ने श्रमण भगवान महावीर को 'भंते!' ऐसा कहकर वंदननमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर इस प्रकार कहा- भंते ! सिद्ध होने वाले जीव किस संहनन में सिद्ध होते हैं? गौतम! वज्रऋषभनाराच संहनन में सिद्ध होते हैं। इसी प्रकार औपपातिक की भांति वक्तव्यता। इसी प्रकार संहनन, संस्थान, उच्चत्व, आयुष्य और परिवसन, इसी प्रकार सिद्धिकंडिका तक निरवशेष वक्तव्य है, यावत् सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।
१९९. सेवं भंते! सेवं भंते! ति॥
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त इति।
१९९. भंते ! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
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