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आमुख
प्रस्तुत शतक के प्रथम आठ उद्देशक वनस्पति से संबद्ध हैं। वनस्पति के अनेक प्रकार हैं। उनमें से उत्पल, शालु, पलाश आदि का चयन क्यों किया गया? यह रहस्यपूर्ण तथ्य है। आठ प्रकारों में पांच प्रकारों-उत्पल', शालु', पद्म, कर्णिका', और नलिन का संबंध 'कमल' जाति से है। उत्पल आदि वनस्पति जगत की उत्तम प्रजातियां हैं। देवलोक से च्युत होकर देव इनमें उत्पन्न हो सकते हैं। इसीलिए उनमें चार लेश्याएं बतलाई गई हैं। सामान्यतः वनस्पति में चार लेश्याओं के होने का निर्देश मिलता है। किंतु सब वनस्पतिकायिक जीवों में चार लेश्याएं नहीं होती। कुछ जीवों के चार लेश्याएं होती हैं। शेष सब वनस्पतिकायिक जीवों के तीन लेश्याएं होती हैं। प्रथम आठ उद्देशकों में निर्दिष्ट पलाश, कुंभी और नाडिका में देव उत्पन्न नहीं होते अतः उनमें तीन लेश्याएं ही होती हैं।
इस विषय में प्रस्तुत आगम के इक्कीसवें और बावीसवें शतक का अध्ययन बहुत उपयोगी है।
आगम साहित्य में वनस्पति, पेड़ पौधों का अध्ययन अनेक पहलुओं से किया गया है। आचारांग सूत्र में मनुष्य और वनस्पति का एक समान निरूपण मिलता हैमनुष्य
वनस्पति • जन्मता है।
जन्मती है। • बढ़ता है।
बढ़ती है। चैतन्ययुक्त है।
चैतन्ययुक्त है। • छिन्न होने पर म्लान होता है।
छिन्न होने पर म्लान होती है। आहार करता है।
आहार करती है। • अनित्य है।
अनित्य है। अशाश्वत है।
अशाश्वत है। • उपचित और अपचित होता है।
उपचित और अपचित होती है। विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है।
विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है। प्रस्तुत शतक में जीव-संख्या, उत्पत्ति, कितने जीवों की उत्पत्ति अपहार, अवगाहना, कर्म का बंधन, कर्म के वेदन, कर्म का उदय. कर्म की उदारणा, लेश्या. दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, वर्ण-गंध-रस-स्पर्श, उच्छवास-निःश्वास, आहारक अनाहारक, विरत-अविरत, क्रिया, बंध, संज्ञा, कषाय. वेद, संजी, इन्द्रिय. काय-स्थिति, गति-आगति, आहार, आयुष्य, समुद्घात, उद्वर्तन-अपवर्तन, उपपात-इन बत्तीस पहलुओं से वनस्पति कायिक जीवों का विमर्श किया गया है।
स्थानांग में वनस्पति में तीन लेश्या होने का और प्रज्ञापना में चार लेश्या' होने का निर्देश है।
संक्लिष्ट लेश्याएं तीन ही होती है. स्थानांग का निर्देश संक्लिष्ट लेश्या सापेक्ष है। कुछ वनस्पतियों में तीन लेश्याएं होती है, उसका निर्देश पलाश, कुंभी और नाड़िका के प्रसंग में है। वनस्पति में चार लेश्या होने का प्रज्ञापना का निर्देश सामान्य निर्देश है। उसके विशेष नियम इन पूर्ववर्ती आठ उद्देशकों में मिलते हैं।
अनुबंध और संवेध के आधार पर पुनर्जन्म के नियमों का संसूचन उत्पल उद्देशक की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है।
नौवें उद्देशक में शिव राजर्षि के विभंगज्ञान का उल्लेख, सात द्वीप और सात समुद्र की स्थापना और उसका प्रतिवाद एक रोचक घटना है। इस प्रसंग में जीवाजीवाभिगम सूत्र का उल्लेख हुआ है, वह लिपि की सुविधा के कारण हुआ है, यह स्वीकार करना संगत होगा।
१. भ.११.१-४०१ २. वही. ११४ ३. वही,११५१ ४. वही. ११.५३। ५. वही, ११.५५। ६. वही. ११/श ७. वही, ११.१२।
८. पण्ण. १६/३९.४०॥ ९. आयारो ५/११३। १०. ठाणं ३/६१ ११. पण्ण. १७/३९-१०। १२.भ.११/१५-४७,४९। १३. वही, ११/२९-३० का भाष्य । १४. वही, ११/७७1
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