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श. ११ : आमुख
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भगवई
दसवें उद्देशक में लोक के तीन विभागों का निरूपण है। लोक का वर्णन पांचवें शतक में हो चुका है। वहां उसके तीन विभागों का वर्णन नहीं है। लोक और अलोक की व्यवस्था-इन दोनों के संस्थानों का निरूपण विश्व व्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण सूत्र है। लोक और अलोक के परिमाण की प्रज्ञापना में देवों तथा दिशा कुमारियों की गति का प्रज्ञापन विकसित गति सिद्धांतों की मान्यता से भी परे है।
काल सूक्ष्म होता है ।" क्षेत्र उससे सूक्ष्मतर होता है। नंदी सूत्र के इस सिद्धांत की व्याख्या प्रस्तुत सूत्र के आधार पर की जा सकती है। एक आकाश प्रदेश में रहने वाले अनेक जीवों के प्रदेश परस्पर एक दूसरे को बाधा नहीं पहुंचाते, इसका हेतु आकाश-प्रदेश की विशिष्ट अवगाहन शक्ति अथवा उसकी सूक्ष्मता है।"
ग्यारहवें उद्देशक में सुदर्शन श्रेष्ठी के प्रश्न और भगवान महावीर के द्वारा उनका समाधान एक नई शैली में प्रस्तुत किया गया है। भगवान ने प्रश्न का उत्तर संक्षेप में दिया होगा। सूत्रकार ने काव्य की शैली में उसका विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रकरण में भगवान महावीर की चिरपरिचित शैली का निदर्शन मिलता है। भगवान महावीर व्यक्ति को संबुद्ध करने के लिए जाति-स्मरण की प्रक्रिया में ले जाते। इस विषय में मेघकुमार और सुदर्शन के जाति स्मरण की तुलना की जा सकती है। भगवती
• तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमट्टं सोच्चा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसण ईहापूर- मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णीपुब्वे जातिसरणे समुप्पन्न एयमहं सम्मं अभिसमेति । • तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारिय पुव्वभवे दुगुणाणीयसङ्कसंवेगे आणंदंसुपुण्णनयणे समणं भगवं महावीरं तिक्त्त आयाहिण पयाहिणं करेइ करेत्ता वंद नमसइ । " श्रमणोपासक ऋषिभद्र का प्रसंग ऐतिहासिक है। श्रमणोपासक गृहीतार्थ होते थे। उसका एक सुंदर निदर्शन है । "
पुद्गल परिव्राजक का आख्यान विभंगज्ञान का एक उदाहरण है। शिवराजर्षि ने विभंगज्ञान के द्वारा सात द्वीप समूह की स्थापना की और पुद्गल परिव्राजक ने विभंगज्ञान के द्वारा ब्रह्मलोक तक स्वर्ग होने का सिद्धांत स्थापित किया। अपूर्ण ज्ञान को पूर्ण मानकर पूर्णता के सिद्धांत की एकांगी स्थापना वास्तविक नहीं होती। यह इन घटनाओं से प्रत्यक्ष जाना जा सकता है।
प्रस्तुत शतक अनेक तत्त्वों, लोक व्यवस्था और घटनाओं के कारण बहुत ही सरस और रोचक बना हुआ है।
१. भ. ५२५५।
२. वही. १९९०-०९।
३. वही. ११ १०० ११०।
४. नंदी १८/८ ।
५. भ. ११ १११-११३।
ज्ञातधर्म कथा
• तए णं तस्स मेहस्स अणगारस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए एयमठ्ठे सोच्चा निसम्म सुभेहिं परिणामेहिं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, साहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसणं ईहा पूह-मग्गण-गवेसणं करेमाणस्स सण्णिपुव्वे जाई सरणे समुप्पणे एमट्टं सम्मं अभिसमेइ ।
• तए णं से मेहे कुमारे समणेण भगवया महावीरेणं संभारिय पुव्व दुगुणाणीयसंवेगे आणंदअंसु पुण्णमहे हरिसवसविसप्पमाणहिए धाराहयकलंबकं पिव समूससिय रोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदई नमसइ । "
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६. वही, ११/१७१-१७२।
७. ज्ञातधर्म कथा । १ / १९०-११ ।
८. भ. २/९४ - लखट्टा, गहियडा, पुच्छियट्टा, अभिनयद्वा विणिच्छियट्टा, अट्टिमिजपेमाणुरागरत्ता |
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