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मूल
तावत्तीसगदेव-पदं
४२. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नयरे होत्था - वण्णओ । दूतिपलासए चेइए । सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया ||
४३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे जाव उड्ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरs ||
४४. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अणगारे पगइभद्दए पगइउवसंते पगइपयणु- कोहमाणमायालोभे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे विणीए समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड़ढजाणू अहोसिरे झाणकोट्ठोare संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥
४५. तए णं से सामहत्थी अणगारे जायसड्ढे जाव उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छर, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं तिक्खुत्तो जाव पज्जुवास-माणे एवं वयासी
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चउत्थो उद्देसो : चतुर्थ उद्देशक
संस्कृत छाया
तावत्त्रिंशकदेव-पदम्
तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामः नगरम् आसीत् वर्णकः । दूतिपलाशकं चैत्यम् । स्वामी समवसृतः यावत् परिषद् प्रतिगता ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य ज्येष्ठः अन्तेवासी इन्द्रभूतिः नाम अनगारः यावत् ऊर्ध्वजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
तस्मिन् काले तस्मिन् समये श्रमणस्य भगवतः महावीरस्य अन्तेवासी श्यामहस्ती नाम अनगारः प्रकृतिभद्रकः प्रकृति उपशान्तः प्रकृतिप्रतनुक्रोधमानमायालोभः मृदुमार्दवसम्पन्नः आलीनः विनीतः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अदूरसामन्त ऊर्ध्वजानुः अधः शिराः ध्यानकोष्ठोपगतः संयमेन तपसा आत्मानं भावयन् विहरति ।
ततः सः श्यामहस्ती अनगारः जातश्रद्धः यावत् उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय यत्रैव भगवान् गौतमः तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य भगवन्तं गौतमं त्रिः यावत् पर्युपासीनः एवमवादीत्
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हिन्दी अनुवाद
तावत्त्रिंशक देव पद
४२. उस काल और उस समय वणिक्ग्राम नामक नगर था - वर्णक । दूतिपलाशक चैत्य | वहां भगवान् महावीर आए यावत् परिषद् वापिस नगर में चली गई।
४३. उस काल और उस समय श्रमण भगवान महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति नामक अणगार यावत् ऊर्ध्वजानु अधः सिर ( उकडू आसन की मुद्रा में) और ध्यान कोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहे थे।
४४. उस काल और उस समय श्रमण भगवान् महावीर का अंतेवासी श्यामहस्ती नामक अणगार था । वह प्रकृति से भद्र और उपशांत था। उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु थे। वह मृदुमार्दवसंपन्न, आलीन ( संयतेंद्रिय) और विनीत था । वह श्रमण भगवान् महावीर के न अति दूर और न अति निकट ऊर्ध्वजानु अधः सिर- इस मुद्रा में और ध्यान - कोष्ठ में लीन होकर संयम और तप से अपने आपको भावित करते हुए रह रहा था।
४५. उस समय श्यामहस्ती अणगार के मन में एक श्रद्धा (इच्छा) यावत् उठने की मुद्रा में 'उठा, उठकर जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आया, वहां आकर भगवान् गौतम को दायीं ओर से प्रारंभ कर तीन बार प्रदक्षिणा की यावत् पर्युपासना करते हुए इस प्रकार बोला
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