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श. १० : उ. ३ : सू. ४१
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१. सूत्र - ४०
प्रज्ञापना में व्यवहार (असत्यामृषा) भाषा के बारह प्रकार बतलाए गये हैं, उनमें पांचवां प्रकार है प्रज्ञापनी ।' भाषा पद में प्रज्ञापनी भाषा के अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। इस भाषा का प्रयोग प्रज्ञापन, व्यवहार संचालन के लिए किया जाता है इसलिए यह न सत्य है और न मृषा है किन्तु असत्यामृषा
४१. सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥
१. पण ११/३७ । २. वही, ११४-१०
३. भ. जो. २२०, पृ. ३२९ - इहां वेसस्यूं सुवस्यूं इत्यादिक अनागतकाल आश्रयी कहै, जद तो निश्चयकारिणी हुवे । पिण ए वर्तमान काल में
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भाष्य
तदेवं भदन्त ! तदेवं भदन्त । इति ।
व्यवहार भाषा है। जयाचार्य ने भविष्यकालीन क्रिया के संदर्भ में विमर्श किया है। उनके अनुसार खड़ा होऊंगा, बैठूंगा-यह अवधारिणी, निश्चयकारिणी भाषा है फिर प्रज्ञापनी कैसे ? उन्होंने इस प्रश्न का समाधान भी किया है यह भविष्य के आसन्न वर्तमान है इसलिए निश्चयकारिणी नहीं किन्तु प्रज्ञापनी है। .
भगवई
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४१. भंते! वह ऐसा ही है। भंते! वह ऐसा ही
है।
बैसण, सूवण का भाव तिवारे कहे-हिवड़ा बेसूं शयन करू छू अथवा ए आश्रयवा जोग वस्तु हिवड़ा आश्रू छं, इत्यादि अनागत काल छे. ते माटे वर्तमान कार्य ने विषे आसइस्सामो ए अनागत पाठ जणाय छे।
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