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________________ भगवई ३४५ श. १० : उ. ३ : सू. ३६-४० ३०)। इस प्रकार प्रत्येक के तीन तीन आलापक वक्तव्य है यावत् ३७. महिड्ढिया णं भंते! वेमाणिणी महर्धिका भदन्त! वैमानिकी ३७. भंते ! महान ऋद्धि वाली वैमानिक देवी अप्पिढियाए वेमाणिणीए मज्झं- अल्पर्धिकायाः वैमानिक्याः मध्यंमध्येन अल्पऋद्धि वाली देवी के बीच से होकर मज्झेणं वीइवएज्जा? व्यतिव्रजेत् ? व्यतिक्रमण करती है? हंता वीइवएज्जा॥ हन्त व्यतिव्रजेत्। हां, व्यतिक्रमण करती है। ३८. सा भंते! किं विमोहित्ता पभू? सा भदन्त! किं विमोह्य प्रभुः अविमोद्य ३८. भंते! क्या वह विमोहित कर अविमोहित्ता पभू? प्रभुः? व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? विमोहित किए बिना व्यतिक्रमण करने में समर्थ है ? गोयमा! विमोहित्ता वि पभू, अवि- गौतम् ! विमोह्य अपि प्रभुः, अविमोह्य गौतम : विमोहित कर व्यतिक्रमण करने मोहित्ता वि पभू। तहेव जाव पुव्वि वा अपि प्रभुः। तथैव यावत् पूर्वं वा व्यति- में भी समर्थ है. विमोहित किए बिना वीइवइत्ता पच्छा विमोहेज्जा। एए व्रज्य पश्चात् विमोहयेत्। एते चत्वारः भी व्यतिक्रमण करने में समर्थ है। इसी चत्तारि दंडगा। दण्डकाः॥ प्रकार यावत् पहले व्यतिक्रमण कर पश्चात् विमोहित करती है। ये चार दण्डक वक्तव्य हैं। भाष्य १.सूत्र २४-३८ उल्लेख है। अभयदे वसूरि ने विमोहन का अर्थ वातावरण को प्रस्तुत आलापक में अल्पर्धिक और महर्द्धिक देवों के अंधकारमय बनाना किया है।'. विमोहन का अर्थ सम्मोहन भी किया शिष्टाचार का निरूपण है। इस प्रसंग में विमोहन की प्रक्रिया का जा सकता है। आसस्स 'खु-खु' करण-पदं ३९. आसस्स णं भंते! धावमाणस्स किं 'खु-खु' ति करेंति? गोयमा! आसस्स णं धावमाणस्स हिययस्स य जगस्स य अंतरा एत्थ णं कक्कडए नाम वाए संमुच्छइ, जेणं आसस्स धावमाणस्स 'खु-खु' त्ति करेति॥ अश्वस्य 'खु-खु करण-पदम् अश्वस्य भदन्त! धावतः किं खु-खु' इति करोति? गौतम ! अश्वस्य धावतः हृदयं च जगत् च अन्तरा अत्र 'कर्कटकः नाम' वातः सम्मूर्च्छति, येन अश्वस्य धावतः 'खुखु' इति करोति। अश्व का 'खु-खु' करण-पद ३९. 'भंते! दौड़ते हुए अश्व के क्या 'खु-खु यह शब्द होता है? गौतम! दौड़ते हुए अश्व के हृदय और यकृत के बीच कर्कटक वायु समुत्पन्न होती है, इस कारण दौड़ते हुए अश्व के 'खुखु'-शब्द होता है। भाष्य १. सूत्र-३९ दौड़ते हुए अश्व के हृदय और यकृत के मध्य कर्कटक नाम का वायु सम्मूर्च्छित होता है। पण्णवणी-भासा-पदं प्रज्ञापनी-भाषा-पदम् प्रज्ञापनी भाषा-पद ४०. अह भंते! आसइस्सामो, सइ- अथ भदन्त! आसिष्यामहे, शयिष्यामहे, ४०. 'भंते! मैं ठहरूंगा, सोऊंगा, खड़ा स्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइ-स्सामो, स्थास्यामः, निषत्स्यामः, त्वग्वर्तिष्या- रहूंगा, बैलूंगा, लेढुंगा-क्या यह प्रज्ञापनी तुयट्टिस्सामो-पण्णवणी णं एसा महे-प्रज्ञापनी एषा भाषा? न एषा भाषा भाषा है ? क्या यह मृषा भाषा नहीं है ? भासा? न एसा भासा मोसा? मृषा। हंता गोयमा! आसइस्सामो, सइ. हन्त गौतम! आसिष्यामहे शयिष्यामहे, हां, गौतम ! ठहरंगा, सोऊंगा, खड़ा रहूंगा, स्सामो, चिट्ठिस्सामो, निसिइ-स्सामो, स्थाष्यामः, निषत्स्यामः, त्वगवर्तिष्या- बैलूंगा, लेढुंगा-यह प्रज्ञापनी भाषा है, मृषा तुयट्टिस्सामो-पण्णवणी णं एसा भासा, महे-प्रज्ञापनी एषा भाषा, न एषा भाषा भाषा नहीं है। न एसा भासा मोसा। मृषा। १. भ. वृ.१०/२६ विमोह्य-महिकाद्यन्धकारकरणेन मोहमुत्पाद्य अपश्यंतमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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