________________
श.११ : उ. ११ : सू. १३८-१४१
४२६
भगवई
महानिमित्त के सूत्र और अर्थ के धारक, विविध शास्त्रों में कुशल, स्वप्न लक्षण पाठक को बुलाओ।
१३९. तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य पडिसुणेत्ता बलस्स रणो अंतियाओ बलस्य राज्ञः अन्तिकात् प्रतिनिष्कामन्ति, पडिनिक्खमंति, पडि-निक्खमित्ता प्रतिनिष्क्रम्य शीघ्रं त्वरितं चपलं चण्डं सिग्घं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हत्थिणपुरं वेगितं हस्तिनापुर नगरं मध्यंमध्येन यत्रैव नगरं मज्झमझेणं जेणेव तेसिं सुविण- तेषां स्वप्नलक्षणपाठकानां गृहाणि तत्रैव लक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य तान् स्वप्नलक्षण- उवागच्छंति, उवागच्छित्ता ते पाठकान् शब्दयन्ति। सुविणलक्खणपाढए सहावेंति॥
१३९. उन कौटुंबिक पुरुषों ने यावत् आज्ञा
को स्वीकार कर बल राजा के पास से प्रतिनिष्क्रमण किया। प्रतिनिष्क्रमण कर शीघ्र, त्वरित, चपल, चंड और वेग युक्त गति के द्वारा हस्तिनापुर नगर के बीचोबीच जहां उन स्वप्न-लक्षण-पाठकों के घर थे, वहां आए, वहां आकर स्वप्नलक्षण पाठकों को बुलाया।
१४०. तए णं ते सुविणलक्खण-पाढगा ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः बलस्य राज्ञः १४०. राजा बल के कौटुम्बिक पुरुषों द्वारा बलस्स रणो कोडुंबिय-पुरिसेहिं कौटुम्बिकपुरुषैः शब्दायिताः सन्तः हृष्ट- बुलाये जाने पर वे स्वप्न-पाठक हृष्टसहाविया समाणा हट्ठतुट्ठा ण्हाया तुष्टाः स्नाताः कृतबलिकर्माणः कृतकौतुक- तुष्ट हो गए। उन्होंने स्नान किया, कयबलिकम्मा कयकोउय-मंगल- मंगलप्रायश्चित्ताः शुद्धप्रावेश्यानि बलिकर्म किया, कौतुक, मंगल और पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई मांगल्यानि वस्त्राणि प्रवरपरिहिताः प्रायश्चित्त किया। सभा में प्रवेशोचित वत्थाई पवर परिहिया अप्प- अल्पमहाभिरणालंकृतशरीराः सिद्धार्थक- मांगलिक वस्त्रों को विधिवत् पहना। महग्घाभरणालंकियसरीरा सिद्धत्थ- हरितालिकाकृतमंगलमूर्धानः स्वकेभ्यः अल्पभार और बहुमूल्य वाले आभरणों से गहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा सरहिं- स्वकेभ्यः गृहेभ्यः निर्गच्छन्ति, निर्गत्य शरीर को अलंकृत किया। मस्तक पर दूब सएहिं गेहेहितो निग्गच्छंति, हस्तिनापुर नगरं मध्यंमध्येन यत्रैव बलस्य और श्वेत सर्षप रख अपने-अपने घर से निग्गच्छित्ता हत्थिणपुरं नगरं राज्ञः भवनवरावतंसकः तत्रैव उपाग- निकले, निकल कर हस्तिनापुर नगर के मज्झंमज्झेणं जेणेव बलस्स रणो च्छन्ति, उपागम्य भवनवरावतंसकप्रतिद्वारे बीचोबीच, जहां बल राजा का प्रवर भवण-वरवडेंसए तेणेव उवागच्छंति, एकतः मिलन्ति, मिलित्वा यत्रैव बाहिरिका भवन-अवतंसक था, वहां आए. वहां उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडि- उपस्थानशाला यत्रैव बलः राजा तत्रैव
आकर प्रवर भवन-अवतंसक के मुख्यदुवारंसि एगओ मिलंति, मिलित्ता जेणेव उपागच्छन्ति, उपागम्य करतलपरिगृहीतं द्वार पर एक साथ मिले। मिलकर जहां बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव बले दशनखं शिरसावर्त मस्तके अञ्जलिं कृत्वा बाहरी उपस्थानशाला थी, जहां बल राजा राया तेणेव उवाग-च्छंति, उवागच्छित्ता बलं राजानं जयेन विजयेन वर्धापयन्ति। था, वहां आए, वहां आकर दोनों हथेलियों करयल-परिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं ततः ते स्वप्नलक्षणपाठकाः बलेन राज्ञा से निष्पन्न संपुट आकार वाली मत्थए अंजलिं कट्ट बलं रायं जएणं वन्दित-पूजित-सत्कारित-सम्मानिताः सन्तः दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख विजएणं वद्धावेंति। तए णं ते प्रत्येकं प्रत्येकं पूर्वन्यस्तेषु भद्रासनेषु घुमाकर, मस्तक पर टिका कर, बल राजा सुविणलक्खणपाढगा बलेणं रण्णा निषीदन्ति।
का जय विजय की ध्वनि से वर्धापन वंदिय-पूइय-सक्कारिय-सम्मा-णिया
किया। समाणा पत्तेयं-पत्तेयं पुव्व-पणत्थेसु
वे स्वप्नलक्षण-पाठक बल राजा के द्वारा भद्दासणेसु निसीयंति॥
वंदित, पूजित, सत्कारित और सम्मानित होकर अपने-अपने लिए पूर्व स्थापित भद्रासन पर बैठ गए।
१४१. तए णं से बले राया पभावतिं देविं ततः सः बलः राजा प्रभावती देवी
जवणियंतरियं ठावेइ, ठावेत्ता पुप्फ- यवनिकान्तरिकां स्थापयति, स्थापयित्वा फल-पडिपुण्णहत्थे परेणं विणएणं ते पुष्प-फल-प्रतिपूर्णहस्तः परेण विनयेन तान् सुविणलक्खणपाढए एवं वयासी-एवं स्वप्न-लक्षणपाठकान् एवमवादीत्-एवं
१४१. बल राजा ने प्रभावती देवी को यवनिका के भीतर बिठाया। बिठाकर फूलों और फलों से भरे हुए हाथों वाले राजा बल ने परम विनयपूर्वक उन स्वप्न
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org