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________________ भगवई १३७. तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसत्ता खिप्पामेव सविसेसं बाहिरियं उवट्टाणसालं गंधो-दयसित्त - सुइय-संमज्जिओवलित्तं सुगंधवरपंचवण्णपुप्फोवयारकलियं कालागरुपवरकुंदुरुक्क तुरुक्क - धूव-मघमघेंतगंधुद्धयाभिरामं सुगंध-वरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेत्ता य कारवेत्ता य सीहासणं रएत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति ॥ १३८. तए णं से बले राया पच्चूसकालसमयंसि सयणिज्जाओ अब्भुट्टेइ, अब्भुट्टेत्ता पायपीढाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ, अट्टणसालं अणुपविसs, जहा ओववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जणघरे जाव ससिव्व पियदंसणे नरवई जेणेव बाहिरिया उवट्ठाण - साला तेणेव उवागच्छइ, उवाग- च्छित्ता सीहासणवरंसि पुरत्था - भिमुहे निसीयइ, निसीयित्ता अप्पणो उत्तरपुरत्थिमे दिसीभाए अट्ट भद्दासणाई सेयवत्थपच्चत्थुयाइं सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रावेर, रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते नाणामणि रयण-मंडियं अहिय-पेच्छणिज्जं महग्घ वरपट्टणुग्गयं सहपट्टभत्तिसयचित्तत्ताणं ईहा मिय उसभ तुरग-नरमगर - विहग वालग किण्णररुरुसरभ चमर-कुंजर वणलय-पउमलयभत्तिचित्तं अब्भिंतरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अत्थरयमउयमसूरगोत्थयं सेयवत्थ-पच्चत्यं अंग सुहास सुमउयं प्रभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, रयावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सहावेइ, सहावेत्ता एवं वयासिखिप्पामेव भो देवाप्पिया! अहंगमहानिमित्त सुधार विविहसत्थ- कुसले सुविणलक्खणपाढए सहावेह | Jain Education International ४२५ ततः ते कौटुम्बिकपुरुषाः यावत् प्रतिश्रुत्य क्षिप्रमेव सविशेषकां बाहिरिकाम् उपस्थानशालां गन्धोदकसिक्त-शुचिक-सम्मार्जितोपलिप्तां सुगन्धवरपंचवर्ण-पुष्पोपचारकलितां कालागरु प्रवरकुन्दुरुक-तुरुष्कधूप-मघमघायमान- गन्धोद्भूताभिरामांसुगन्धवरगन्धिकां गन्धवर्त्तिभूतां कृत्वा च कारयित्वा च सिंहासनं रचयित्वा ताम् आज्ञाप्तिकां प्रत्यर्पयन्ति । ततः सः बलः राजा प्रत्यूषकालसमये शयनीयात् अभ्युत्तिष्ठति, अभ्युत्थाय पादपीठात् प्रत्यवरोहति, प्रत्यवरुह्य यत्रैव अट्टनशाला तत्रैव उपागच्छति, अट्टनशालाम् अनुप्रविशति यथा औपपातिके तथैव अट्टनशाला तथैव मज्जनगृहे यावत् शशी इव प्रियदर्शन: नरपतिः यत्रैव बाहिरिका उपस्थानशाला तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य सिंहासनवरे पुरस्तादभिमुखे निषीदति, निषद्य आत्मनः उत्तरपौरस्त्ये दिग्भागे अष्टौ भद्रासनानि श्वेतवस्त्रप्रत्यवस्तृतानि सिद्धार्थककृतमंगलोपचाराणि रचयति, रचयित्वा आत्मनः अदूरसामंते नानामणि- रत्नमण्डिताम् अधिकप्रेक्षणीयां महार्घ्यवरपत्तनोगतां सूक्ष्मपट्टभक्तिशतचित्रतानाम् ईहामृग ऋषभ तुरग नरमकर- विहग-व्यालक- किन्नर - रुरु- शरभ चमर- कुञ्जर - वनलता-पद्मलता भक्तिचित्रां आभ्यन्त-रिकां यवनिकां कर्षयति, कर्षयित्वा नानामणि रत्नभक्तिचित्रम् आस्तरक- मृदुमसूरका वस्तृतं श्वेतवस्त्रप्रत्यवस्तृतम् अंगसुखस्पर्शकं सुमृदुकं प्रभावत्यै देव्यै भद्रासनं रचयति, रचयित्वा कौटुम्बिकपुरुषान शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत् क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः ! अष्टांगमहानिमित्तसूत्रार्थधारकान् विविधशास्त्रकुशलान् स्वप्नलक्षणपाठकान् शब्दयत । For Private & Personal Use Only श. ११ : उ. ११ : सू. १३७,१३८ १३७. उन कौटुम्बिक पुरुषों ने यावत् स्वीकार कर शीघ्र ही बाहरी उपस्थान शाला को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींचा, झाड़-बुहार कर गोबर का लेप किया। प्रवर सुगंधित पंच वर्ण पुष्प के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुंदुरु और जलती हुई लोबान की धूप से उद्धत सुगंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध चूर्णों से सुगंधित गंधवर्तिका के समान कर कराकर सिंहासन की रचना की । रचना कर उस आज्ञा को प्रत्यर्पित किया। १३८. वह बल राजा प्रत्यूष काल समय में शयनीय से उठा, उठकर पादपीठ से उतरा, उतरकर जहां व्यायामशाला थी, वहां आया, व्यायामशाला में अनुप्रवेश किया, जैसे औपपातिक की वक्तव्यता वैसे ही व्यायामशाला और स्नानघर की वक्तव्यता यावत् चंद्रमा की भांति प्रियदर्शन नरपति जहां बाहरी उपस्थानशाला थी, वहां आया, वहां आकर प्रवर सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। बैठकर स्वयं ईशान कोण में आठ भद्रासन स्थापित कराए। उन पर श्वेत वस्त्र बिछाए तथा सरसों डालकर मंगल उपचार और शांति कर्म किए । भद्रासन स्थापित कराकर अपने से न अति दूर न अति निकट नाना मणिरत्नों से मंडित, अति प्रेक्षणीय बहुमूल्य प्रवर पत्तन में हुई सूक्ष्म सैकड़ों भांतों से चित्रित भेड़िया, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, किन्नर, काला हिरण, अष्टापद, याक ( चमरी गाय), हाथी, अशोकलता, पद्मलता आदि की भांतों से चित्रित भीतरी यवनिका लगाई। लगवा कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित, बिछौने और कोमल उपधानों से युक्त, धवल वस्त्र से आच्छादित, शरीर के लिए सुखद स्पर्श वाला और अतीव सुकोमल भद्रासन प्रभावती देवी के लिए स्थापित करवाया। स्थापित करवा कर कौटुंबिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार बोला- हे देवानुप्रिय ! तुम शीघ्र ही अष्टांग www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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