________________
भगवई
श. ११ : उ. ११ : सू. १३५,१३६
४२४ रण्णो अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म अन्तिकं एनमर्थं श्रुत्वा निशम्य ह्यष्टतुष्टा हट्टतुट्ठा करयलपरिग्गहियं दसनहं करतलपरिगृहीतं दशनखं शिरसावतं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट एवं । मस्तके अञ्जलिं कृत्वा एवमवादीत्वयासी-एवमेयं देवाणु-प्पिया! तहमेयं एवमेतद् देवानुप्रिय! तथ्यमेतद् देवानुप्रिय ! देवाणुप्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया! अवितथमेतद् देवानुप्रिय! असंदिग्धमेतद् असंदिद्ध-मेयं देवाणुप्पिया! इच्छियमेयं देवानुप्रिय! इष्टमेतद् देवानुप्रिय ! देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाण- प्रतीष्टमेतद् देवानुप्रिय! इष्ट-प्रतीष्टमेतद् प्पिया! इच्छिय-पडिच्छियमेयं देवानुप्रिय! तत् यथेदं यूयं वदथ इति कृत्वा देवाणुप्पिया! से जहेयं तुब्भे वदह त्ति तं स्वप्नं सम्यक् प्रतीच्छति, प्रतीष्य बलेन कट्ट तं सुविणं सम्म पडिच्छइ, राज्ञा अभ्यनुज्ञाता सती नानामणिरत्नपडिच्छित्ता बलेणं रण्णा अब्भणु- भित्तिचित्रात् भद्रासनात् अभ्युत्तिष्ठति, ण्णाया समाणी नाणामणिरयण- अभ्युत्थाय अत्वरिताचपला-सम्भ्रान्तया भत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भढेइ, अविलंबितया राजहंससदृश्या गत्या यत्रैव अब्भुढेत्ता अतुरियमचवलमसंभंताए स्वकं शयनीयं तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए शयनीये निषीदति निषद्य एवमवादीत-मा जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवा- मम सः उत्तमः प्रधानः मांगल्यं स्वप्नः गच्छइ, उवागच्छित्ता सयणि-ज्जसि अन्यैः पापस्वप्नैः प्रतिहनिष्यति इति कृत्वा निसीयति, निसीयित्ता एवं वयासी-मा देवगुरुजन-सम्बद्धाभिः प्रशस्ताभिः मे से उत्तमे पहाणे मंगल्ले सुविणे मांगल्याभिः धार्मिकाभिः कथाभिः अण्णेहिं पाव-सुमिणेहिं पडिहम्मिस्सइ स्वप्नजागरिकां प्रतिजाग्रती प्रतिजाग्रती त्ति कट्ट देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं विहरति। मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणीपडिजागरमाणी विहरइ॥
सुनकर, अवधारण कर प्रभावती देवी हृष्ट-तुष्ट हो गई। दोनों हथेलियों से निष्पन्न संपुट आकार वाली दसनखात्मक अंजलि को सिर के सम्मुख घुमाकर मस्तक पर टिकाकर इस प्रकार कहा-देवानुप्रिय! यह एसा ही है। देवानुप्रिय ! यह तथा (संवादिता पूर्ण) है। देवानुप्रिय! यह अवितथ है। देवानुप्रिय! यह असंदिग्ध है। देवानुप्रिय ! यह इष्ट है। देवानुप्रिय! यह प्रतीप्सित (प्राप्त करने के लिए इष्ट) है। देवानुप्रिय! यह इष्ट-प्रतीप्सित है। जैसा आप कह रहे हैं वह अर्थ सत्य है-ऐसा भाव प्रदर्शित कर उस स्वप्न के फल को सम्यक् स्वीकार किया। स्वीकार कर बल राजा की अभ्यनुज्ञा प्राप्त कर नाना मणिरत्न की भांतों से चित्रित भद्रासन से उठी। उठकर अत्वरित, अचपल, असंभ्रांत, अविलंबित राजहंसिनी के सदृश गति द्वारा जहां अपना शयनीय था, वहां आई, वहां आकर शयनीय पर बैठ गई। बैठकर इस प्रकार बोली-मेरा वह उत्तम, प्रधान और मंगल स्वप्न किन्हीं अन्य पाप स्वप्नों के द्वारा प्रतिहत न हो जाए। ऐसा कहकर वह देव तथा गुरुजनों से संबद्ध प्रशस्त मंगल धार्मिक कथाओं के द्वारा स्वप्न जागरिका के प्रति सलत प्रतिजागृत रहती हुई विहार करने लगा।
१३६. तए णं से बले राया कोडुबियपुरिसे ततः सः बलः राजा कौटुम्बिकपुरुषान्
सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी- शब्दयति, शब्दयित्वा एवमवादीत्खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अज्ज क्षिप्रमेव भो देवानुप्रियाः! अद्य सविशेषां सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं बाहिरिकाम् उपस्थानशालां गन्धोदकगंधोदय- सित-सुझ्य-संमज्जिओवलितं सिक्त-शुचिक-सम्मार्जितोपलिसां सुगन्धसुगंधवरपंचवण्ण-पुप्फोवयारकलियं वरपंच-वर्णपुष्पोपचारकलितां कालागरुकालागरु-पवर - कुंदुरुक्क - तुरुक्क- प्रवरकुन्दु-रुक - तुरुष्क-धूप-मघमघायधूव - मघमघेत - गंधुद्धयाभिरामं मान-गन्धोद्-भूताभिरामा सुगन्धवरसुगंधवरगंधियं गंध-वट्टिभूयं करेह य गन्धिकां गन्धवर्तिभूतां कुरुतच कारयत च । कारवेह य, करेत्ता य कारवेत्ता य कृत्वा च कारयित्वा च सिंहासनं रचयत, सीहासणं रएह, रएत्ता ममेतमाणत्तियं रचयित्वा मामेनामा-ज्ञाप्तिका प्रत्यर्पयत। पच्चप्पिणह॥
१३६. उस बल राजा ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया, बुलाकर इस प्रकार कहा-हे देवानुप्रिय! आज शीघ्र ही बाहरी उपस्थानशाला (सभामंडप) को विशेष रूप से सुगंधित जल से सींच, झाड़बुहार कर, गोबर का लेप कर, प्रवर सुगंधित पंच वर्ण के पुष्पों के उपचार से युक्त, काली अगर, प्रवर कुन्दुरु, जलते हुए लोबान की धूप से उद्धत गंध से अभिराम, प्रवर सुरभि वाले गंध-चूर्णों से सुगंधित गंध-वर्तिका के समान करो, कराओ। कर तथा करा कर सिंहासन की रचना करो। रचना कर मेरी आज्ञा मुझे प्रत्यर्पित करो।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org