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________________ भगवई श. ८ : उ. ६ : सू. २४९,२५१ दलयाहि। सेसं तं चेव जाव परिट्ठावेयव्वा सिया।। परिष्ठापयितव्याः स्युः। यावत् कोई गृहपति दस पिण्डों का उपनिमंत्रण देता है-जैसे आयुष्मान् ! एक आप खा लेना और नौ स्थविरों को दे देना। शेष पूर्ववत् वक्तव्य है यावत् परिष्ठापन कर दे। २५०. निग्गथं च णं गाहावइकुलं निर्ग्रन्थं च 'गाहावई' कुलं पिण्डपात- २५०. निग्रंथ भिक्षा के लिए गृहपति के कुल पिंडवाय-पडियाए अणुप्पविट्ठ केइ दोहिं प्रतिज्ञया अनुप्रविष्ट कोऽपि द्वाभ्यां में अनुप्रवेश करता है, उसे कोई गृहपति पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा-एणं आउसो! प्रतिग्रहाभ्यां उपनिमन्त्रयेत् एकम् दो पात्रों का उपनिमंत्रण देता हैअप्पणा पडिभुंजाहि, एगं राणं आयुष्यमन् ! आत्मना प्रतिभुक्ष्व, एकं आयुष्मान् ! एक पात्र का आप परिभोग दलयाहि। से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा स्थविरेभ्यः दद्यात्। सः तं प्रतिगृह्णीयात् कर लेना और दूसरा स्थविरों को दे देना। य से अणुगवेसियव्वा सिया। जत्थेव । स्थविराः तस्य अनु-गवेषयितव्याः स्युः। वह निर्ग्रन्थ उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तत्थेव । यत्रैव अनुगवेषयन्, स्थविरान् पश्येत् तत्रैव ले फिर स्थविरों की अनुगवेषणा करे। अणुप्पदायव्वे सिया, नो चेव णं अनुप्रदातव्यः स्यात्, नौ चैव अनुगवेषयन अनुगवेषणा करता हुआ वह जहां स्थविरों अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा नो स्थविरान् पश्येत् तं नो आत्मना परिभुंजीत, को देखे, वहीं एक पात्र उन्हें दे दे। अप्पणा परिभुंजेज्जा, नो अण्णेसिं । नो अन्येभ्यः दद्यात्, एकान्ते अनापाते अनुगवेषणा करने पर भी स्थविर दिखाई दावए, एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए अचित्ते बहुप्रासुके स्थण्डिले प्रतिलेख्य न दे तो उस दूसरे पात्र का न स्वयं थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पम्मज्जित्ता प्रमृज्य परिष्ठापयितव्यः स्यात्। एवं यावत् परिभोग करे, न किसी अन्य को दे, परिट्ठावेयव्वे सिया। एवं जाव दसहिं दशभिः प्रतिग्रहैः। एकान्त, अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक पडिग्गहेहि। स्थण्डिल भूमि का प्रतिलेखन और एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया, एवं एवं यथा प्रतिग्रहवक्तव्यता भणिता, एवं प्रमार्जन कर उस पात्र का वहां परिष्ठापन गोच्छग - रयहरण - चोलपट्टग-कंबल- गोच्छक-रजोहरण-चोलपट्ट क-कंबल- कर दे। इसी प्रकार यावत् दस पात्रों का। लट्ठि-संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा यष्टि-संस्तारकवक्तव्यता च भणितव्या जैसे पात्र की वक्तव्यता कही गई, वैसे ही जाव दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेज्जा यावत् दशभिः संस्तारकैः उपनिमन्त्रयेत् गोच्छग, रजोहरण, चुल्लपट्टक, कंबल, जाव परिहावेयव्वा सिया॥ यावत् परिष्ठापयितव्यः स्यात्। यष्टि, संस्तारक की वक्तव्यता कथनीय है यावत् दस संस्तारकों का उपनिमंत्रण देता है यावत् उनका परिष्ठापन कर दे। भाष्य १. सूत्र २४८-२५० इस आलापक में प्रतिग्रह, गोच्छग, रजोहरण, चुल्लपट्टक, प्रस्तुत आलापक तृतीय महाव्रत-अदत्तादान विरमण से संबद्ध कंबल, यष्टि, बिछौना-इन सात उपकरणों का उल्लेख हुआ है। है। प्रामाणिकता इस तृतीय महाव्रत का महत्त्वपूर्ण अंग है। स्थविरों के उपकरणों की यह तालिका छेद सूत्र कालीन है। संकलन काल में लिए पिण्ड लेना संधीय चेतना का द्योतक है। स्थविरों के न मिलने पर प्रस्तुत आगम में इनका समावेश किया गया है। उस पिण्ड का स्वयं उपभोग न करना प्रामाणिकता का निदर्शन है। आलोयणाभिमुहस्स आराहय-पदं आलोचनाभिमुखस्य आराधक-पदम् आलोचनाभिमुख का आराधक-पद २५१. निग्गंथेण य गाहावइकुलं निर्ग्रन्थेन च 'गाहावइ' कुलं पिण्डपात- २५१. 'निग्रंथ ने भिक्षा के लिए गृहपति के पिंडवायपडियाए पविद्वेणं अण्णयरे पतिज्ञया प्रविष्ठेन अन्यतरे अकृत्यस्थाने कुल में प्रवेश कर किसी अकृत्य स्थान अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं प्रतिसेविते, तस्य एवं भवति इहैव तावत् का प्रतिसेवन कर लिया, उसके मन में भवति-इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स अहम् एतत् स्थानम् आलोचयामि, ऐसा संकल्प हुआ-मैं यहीं इस अकृत्य आलोएमि, पडिक्कमामि, निंदामि, प्रतिक्रामामि, निन्दामि, गहें, विवर्ते, स्थान की आलोचना करूं, प्रतिक्रमण गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, विशोधयामि, अकरणतया अभ्युतिष्ठामि, करूं, निंदा करूं, गर्दा करूं, विवर्तन करूं, अकरणयाए अब्भुट्टेमि, अहारियं यथार्ह प्रायश्चित्तं तपःकर्म प्रतिपद्ये, ततः विशोधन करूं, पुनः न करने के लिए पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जामि, पश्चात् स्थविराणाम् अन्तिके आलोच- अभ्युत्थान करूं, यथायोग्य प्रायश्चित्त १. (क) दसवे. ४.२३॥ (ग) निसीह. १/१४०,२/२५, ४/२३, '/१९-२२। (ख) ववहारो८/५। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003595
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 03 Bhagvai Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages600
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size15 MB
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